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एकविंशतितमोऽध्यायः
लिङ्ग (सुलान्) सुल, (नेद्रान्) नेद्र (माक्रन्दा) माक्रन्द (मलदांस्तथा) मलदा तथा 'कुन
राना मिथतान मिथल (महिषान्) महिष (महिन्द्र) माहेन्द्र (पूर्वदक्षिणः) पूर्व और दक्षिण वासियों को (वेणान्) वेणु, (विदर्भ) विदर्भ (मालांश्च) माल और (अश्मकांश्चैव) अरमक (छर्वणान्) छवर्ण (द्रविडान्) द्रविड (वैदिकान्) वैदिक (दाद्रेकलांश्च) दाद्रेकाल (दक्षिणा पथे) दक्षिणपथ पर रहने वाले (कोकणान्) कोंकण (दण्डकान्) दण्डकवासी (भोजान्) भोजवासी (गोमान्) गोम (सूर्यारकाञ्चनम्) सूर्परि, कंचन (किष्किन्धान्) किष्किन्ध (वनवासांश्च) वनवासी, (लंका) लंका (सनैरुतैः हन्यात्) इतने देशों का घात होता है।
भावार्थ-उपर्युक्त केतु के रहने पर बंग, अंग, कलिंग, मगध, काश, नन्द, पट्ट, कौशाम्बी, धेणुसार, तोस, लिङ्ग, सुल, नेद्र, माक्रन्द, मलदा, कुनटा, सिथल, महिष, माहेन्द्र, पूर्व और दक्षिण भाग में रहने वाले, वेणु, विदर्भ, माल अश्मक छवर्ण, द्रविड, वैदिक, दाद्रेकल दक्षिणपक्ष पर रहने वाले कोंकण, दण्डकवासी, भोज, गोम, सूर्परि, कंचन, किष्किन्ध, वनवासी, और लंका इतने देशों का घात करता है।। ३२-३३-३४-३५॥
अङ्गान् सौराष्ट्रान् समुद्रान् भरुकच्छादसेरकान्।
शूवान् हृषिजलरुहान् केतुर्हन्याद्विपथगः॥३६॥ (यदि केतुः) यदि केतु (द्विपथगः) द्विपथगामी हो तो (अजान्) अ (सौराष्टान्) सौराष्ट्र (समुद्रान्) समुद्र वा, (भरुकच्छद) भरुकच्छवासी (सेरकान्) असेरक (शूब्रान्) शूद्र (हषिजलरुहान्) हषिकेश आदि देशों को (हन्याद्) नाश करता हैं।
भावार्थ-जब केतु दो पथगामी हो तो अंग, सौराष्ट्र, समुद्रवासी, भरुकच्छवासी, असेरक., शून, हषिकेश आदि का घात करता है।। ३६ ।।
काम्बोजान् रामगान्धारान् आभीरान् यवरच्छकान्। चैत्र सोत्रेयकान् सिन्धुमहामन्ययुवायुजः ॥ ३७॥ बाह्रीकान् वीनविषयान् पर्वतांश्चाप्य दुस्वरान्।
सौधेरं कुरुवैदेहान् केतुर्हन्याधदुत्तरान् ॥ ३८॥ (केतुःउत्तरान्) यदि उत्तर का केतु हो तो (काम्बोजान्) काम्बोज (रामगान्धारा)