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| भद्रबाहु संहिता |
यदा सपरिघा सन्ध्या दक्षिणो वाति मारुतः ।
अपरस्मिन् दिशो भागे उत्तरा वध्यते चमूः ।। ५५॥ (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (सपारेषा) परिघा से सहित हो (मारुत:) वायु (दक्षिणो) दक्षिण (वाति) चले तो (उत्तरा) उत्तरकी (चमू:) सेनाका (अपरस्मिन् दिशो भागे) पश्चिम दिशामें (वध्यते) वध हो जाता है।
भावार्थ-जब सन्ध्या परिघा से युक्त हो और वायु दक्षिण दिशा को चले तो उत्तर की सेना का पश्चिम दिशा में वध हो जाता है॥५५।।
यदा सपरिधा सन्ध्या उत्तरो वाति मारुतः ।
अपरस्मिन् दिशो भागे दक्षिणा वध्यते चमूः॥५६॥ (यदा) जब (सन्ध्या) सन्ध्या (सपरिघा) परिघा से युक्त हो और (मारुत:) वायु (उत्तरो) उत्तर को (वाति) चले तो (दक्षिणा) दक्षिण की (चमू:) सेना का (अपरस्मिन् दिशो भागे) पश्चिम में (वध्यते) वध हो जाता है।
भावार्थ-यदि सन्ध्या परिधा से युक्त हो, उत्तर की वायु चले तो समझो दक्षिण की सेना का उत्तर भाग में वध हो जाता है।। ५६ ।।
प्रशस्तस्तु यदावातः प्रतिलोमोऽनुपद्रवः।
तदा यान् प्रार्थयेत् कामांस्तान् प्राप्नोति नराधिपः ।। ५७ ।। (यदा) जब (वात:) वायु (अनुपद्रव:) उपद्रवसे रहित हो (प्रतिलोमो) प्रतिलोम रूप हो (प्रशस्तस्तु) प्रशस्त हो, (तदा) तब (नराधिपः) राजा (यान्) जिस (कामां:) कार्यकी (प्रार्थयेत्) इच्छा करता है (स्तान्) उसीको (प्राप्नोति) प्राप्त करता है।
____ भावार्थ-जब वायु प्रतिलोम रूप चले और उपद्रव रहित प्रशस्त हो तो राजा जिस भी कार्य की इच्छा करता है उसी को प्राप्त करता है, याने राजा को इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है।५७ ।।
अप्रशस्तो यदा वायु भिपश्यत्युपद्रवम्।
प्रयातस्य नरेन्द्रस्य चमूर्हारयते सदा ।। ५८।। (यदा) जब (वायु:) वायु (अप्रशस्तो) अप्रशस्त हो और (नाभिपश्यत्युपद्रवम्)