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द्वादशोऽध्यायः
उच्छितं चापि वैशाखात् कार्तिके दधते जलम् ।
हिमागमेन गमिका तेऽपि मन्दोदकाः स्मृताः॥१७॥ (वैशाखात) वैशाखमें (उच्छित) दिखने वाले गर्भ (कार्तिकेदधते जलम) कार्तिक में पानी देते है (चापि) और भी, (हिमागमेनगमिका) हिमआगम के साथ गमन करते है (तेऽपि) वो भी (मन्दोदका:स्मृता) मन्दउदक वाले होते हैं ऐसा जानो।
भावार्थ-वैशाख मासमें दिखने वाले गर्भ कार्तिक महीनेमें बरसते है, और हिम के समान ठण्डे मन्द गति से गमन करने वाले होते है ऐसा जानो।। १७॥
स्वातौ च मैत्र देवे च वैष्णवे च सुवारुणे।
गर्भाः सुधारणा ज्ञेया ते प्रवन्ते बहूदकम्॥१८ ।। (स्वातौ) स्वाति नक्षत्रमें (मैत्रदेवे च) अनुराधा, (वैष्णवै) श्रवण (च) और (सुवारुणे) शतभिखा इन नक्षत्रोंमें यदि (गर्भा:) गर्भ (सुधारणा) धारण हो तो (ते) वे गर्भ (बहूदकम्) बहुत जल की वर्षा (म्रवन्ते) करते हैं (ज्ञेया) जानना चाहिये।
भावार्थ-स्वाति नक्षत्र अनुराधा श्रवण शतभिखा नक्षत्रमें यदि गर्भ दिखलाई पड़े तो समझो बहुत जल की वर्षा करेगें ऐसा जानना चाहिये ।। ५८ ॥
पूर्षामुदीची मैशानीं ये गर्भा दिशमाश्रिताः।
ते सस्यवन्तस्तोयाद्यास्ते गर्भास्तु सुपूजिताः ।। १९ ।। (पूर्वामुदीची) पूर्व, उत्तर (मैशानी) इशान में (दिशमाश्रिताः) दिशामें आश्रित रहने वाले (ये) जो (गर्भा) गर्भ है (ते) वे (सु पूजिता:) अच्छे होते हैं पूजित हैं (ते गर्भास्तु) वो गर्भ (स्तोयाद्या:सस्यवन्त) बहुत ही जल बरसाने वाले होते है, धान्यो के उत्पादक है।
भावार्थ-पूर्व, उत्तर, ईशान दिशा के गर्भ धान्यो के उत्पादक और बहुत ही जल की वर्षा करने वाले होते हैं।॥ ५९॥
वायव्यामथ वारुण्यां ये गर्भा नवन्ति च।
ते वर्ष मध्यमं दधुः शस्य सम्पत्यमेव च ॥२०॥ (अथ) अथ (ये) जो (गर्भा) गर्भ (वायव्याम्) वायव्यदिशा (च) और पश्चिम