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त्रयोदशोऽध्यायः
करावे, कन्याओं को ज्यादा अविवाहिता रखना ठीक नहीं है, न्याय से राज्य करने वाले की ही वृद्धि होती है।। १८३ ।।
कार्याणि धर्मतः कुर्यात् पक्षपातं विसर्जयेत्।
व्यसनैर्विप्रयुक्तश्च तस्य राज्यं विवर्द्धते ।। १८४॥ (पक्षपातं विसर्जयेत्) सम्पूर्ण पक्षपातों को छोड़कर (धर्मतः कार्याणि) धर्म के कार्य (कुर्यात्) करे (व्यसनैर्विप्रयुक्तश्च) और सम्पूर्ण व्यसनों से रहित होकर राज्य करे (तस्य) उसी (राज्य) राजा की (विवर्द्धते) वृद्धि होती है।
भावार्थ:--राजा को सम्पूर्ण पक्षपात को छोड़कर राज्य करना चाहिये, धर्म से रहे, सात व्यसनों से रहित रहे ऐसा राजा ही वृद्धि को प्राप्त कर सकता है॥१८४ ।।
यथोचितानि सर्वाणि यथा न्यायेन पश्यति।
राजा कीर्ति समाप्नोति परत्रह च मोदते॥१८५॥
जो राजा (यथोचितानि) यथोचित (सर्वाणि) सबको (यथान्यायेनपश्यति) न्यायपूर्वक देखता है वही राजा (राजाकीर्तिं समाप्नोति) राजाकीर्ति को प्राप्त होता है, (च) और (परत्रेह मोदते) परभव में भी सुखी होता है।
भावार्थ-जो राजा यथोचित सबको न्यायपूर्वक देखता है वही राजा कीर्ति को पा सकता है और वहाँ पर परलोक में सुखी होता है।। १८५॥
इमं यात्राविधिं कृत्स्नं थोऽभिजानाति तत्त्वतः।
न्यायतश्च प्रयुञ्जति प्राप्नुयात् स महत् पदम्॥१८६ ॥ (इमं यात्राविधिकृत्स्न) इस प्रकार की यात्रा विधि को करता हुआ (योऽभिजानाति तत्त्वत:) अच्छी तरह से जानता है (न्यायतश्चप्रयुञ्जति) न्यायपूर्वक सबके साथ व्यवहार करता है तो (स) वह (महत् पदम् प्राप्नुयात्) महान् पद को प्राप्त करता है।
___ भावार्थ-जो राजा इस प्रकार की यात्रा विधि को अच्छी तरह से जानता है न्यायपूर्वक राज्य करता है वह महान् पद प्राप्त करता है।। १८६ !!
विशेष वर्णन—इस अध्याय में आचार्य श्री राजाओं के यात्रा का वर्णन करते है, यात्रा को निकलते समय, चन्द्र, नक्षत्र, वार, तिथि, दिशाशूल, योगीनि