________________
चतुर्दशोऽध्यायः
राजा का भय होगा लोग भूखे मर जायंगे व्याधियां उत्पन्न होगी धन का नाश हो जायगा, इत्यादि महान भय उत्पन्न होता है ॥ ३२ ॥
३५७
कीटदष्टस्य वृक्षस्य व्याधि तस्य च यो रसः । विवर्णः स्रवते गन्धं न दोषाय स कल्पते ॥ ३३ ॥
यदि (वृक्षस्य ) वृक्षको (कीटदष्टस्य) कीड़े के खा लेने पर ( च यो) और जो ( तस्य ) उसको ( व्याधि) रोग हो तो ( विवर्ण रसः स्रवते गन्धं) विवर्णरस के व दुर्गन्धित रस के क्षरण होने पर भी ( न दोषायसकल्पते) कोई दोष नहीं हैं।
भावार्थ- -जब वृक्षों में रोग हो कीड़े खा लिये हो और पेड़ में से विवर्ण व दुर्गन्धित रस निकले तो कोई दोष नहीं है क्योंकि रोग से ऐसा हो रहा है, इसका कोई निमित्त नहीं हैं ॥ ३३ ॥
स्रवन्त्याशु मरणे पर्युपस्थिताः ।
वृद्धा द्रुमा ऊर्ध्वाः शुष्का भवन्त्येते तस्मात् तांल्लक्षयेद् बुधः ॥ ३४ ॥
(ऊर्ध्वाः शुष्का भवन्त्येते ) जो ऊपर से सूखे हुए हैं (वृद्धा) वृद्ध हो गये हैं ( मरणेपर्युपस्थिताः) मरने के नजदीक हैं ऐसे (दुमास्रवन्त्याशु ) वृक्ष अगर रस गिरा रहें तो ( तस्मात् तांल्लक्षयेद्बुधः ) इसलिये बुद्धिमान निमित्तज्ञानी का अवश्य लक्ष्य देकर बोलना चाहिये ।
भावार्थ — निमित्तज्ञानी का अवश्य उपर्युक्त बातों पर ध्यान देकर निमित्तको बोले नहीं तो जूठा पड़ जायगा क्योंकि वृक्षों में उपर्युक्त कारणों से भी रस गिरता है जैसे- जो वृक्ष ऊपर से सूखे हैं नीचे से हरे हैं बुढ़े हो गये है जिनका मरण निकट में इन कारणों से भी पेड़ रस छोड़ सकते हैं इसलिये निमित्तज्ञानी पूरा लक्ष्य दे ॥ ३४ ॥
यथा वृद्धो नरः तथा वृद्धो द्रुमः
कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति । कश्चित् प्राप्य हेतुं विनश्यति ॥ ३५ ॥
( यथावृद्धोनरः कश्चित् ) जैसे कोई वृद्ध पुरुष ( हेतुं प्राप्त विनश्यति) हेतु को पाकर नष्ट हो जाता है (तथा वृद्धो द्रुमः कश्चितः) उसी प्रकार वृद्ध वृक्ष भी कोई भी ( हेतुं प्राप्त विनश्यति) कारण को पाकर नष्ट हो जाता है।