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अष्टमोऽध्यायः
(यस्मिन्देशे) जिस देश के ऊपर (मेघा) मेघ, (क्षार) खार रूप, (वा) वा (कटुक) चरपरा (वाऽथ) अथवा (दुर्गन्धं) दुर्गन्ध युक्त होकर (अभिवर्षन्ति) बरषते है तो (देशो) उस देश का (विनश्यति) नाश हो जायेगा और (सस्य नाशनम्) धान्य का नाश करने वाले हैं।
भावार्थ-जिस देश के ऊपर मेघ यदि खार रूप, चरपरेरूप का दुर्गन्ध युक्त होकर बरसते हैं तो समझो उस देश में सब प्रकार के धान्य नष्ट हो जायगे और उस देश का भी नाश हो जायेगा । २२।।
प्रयानं पार्शिवं गन मेघो विनास्य वर्षति।
वित्रस्यो बध्यते राजा विपरीतस्तदाऽपरे॥२३॥ (यत्र) जहाँ (मेघो) मेघ (वित्रास्य) त्राशयुक्त (वर्षति) होकर बरसते है तो भी (पार्थिवं) राजा (प्रयातं) के प्रयाण समय में तो (राजा) राजा (वित्रस्यो) त्रासयुक्त होकर (बध्यते) मारा जाता है (विपरीतस्तदाऽपर) उससे विपरीत त्राशयुक्त होकर नहीं बरसते हैं तो ऐसा फल नहीं होता।
भावार्थ-यदि मेघ राजा के प्रयाण समय में त्राशदायक होकर बरसते हैं तो समझो राजाका मरण भी कष्टदायक अवस्था में होगा, यदि कष्टदायक मेघ नहीं बरसते हैं तो समझो राजा का मरण नहीं होगा ।। २३ ॥
सर्वत्रैव प्रयाणेन नृपोयेनाभिषिच्यते।
रुधिरादिविशेषेण सर्वघाताय निर्दिशेत् ।। २४ ।। (नृपो) राजा के (सर्वत्रैवप्रयाणेन) प्रयाण के समय (विशेषण) विशेष रूप से (रुधिरादि) रक्तादिकसे (येनाभिषिच्यते) वर्षा हो तो (सर्वधाताय) सबके घात का (निर्दिशेत्) निर्देशन किया गया हैं।
भावार्थ-राजा के प्रयाण समय में विशेष रीतिसे रक्तादिक से वर्षा हो तो समझो उस राजा की सेना में कोई नहीं बचेगा ॥ २४ ॥
मेघाः सविद्युतश्चैव सुगन्धाः सुस्वराश्च ये। सुवेषाश्च सुवाताश्च सुधियाश्च सुभिक्षदाः ॥२५॥