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भद्रबाहु संहिता
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भावार्थ-जिन स्थानों पर कभी जल नहीं वर्षा हो और मात्र कल्पना के विषय ही वर्षा होती हो तो समझो उन स्थानों पर महान भय उपस्थित होगा, इसलिये कोई न कोई शान्ति अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। ऐसे स्थानों पर शान्ति कर्म से शान्ति हो सकती है।। ११५||
दैवतम् दीक्षितान् वृद्धान् पूजयेत् ब्रह्मचारिणः।
ततस्तेषां तपोभिश्च पापं राज्ञां प्रशाम्यति॥११६॥
शान्ति कर्म के लिये राजा को (दैवतम्) देवताओं की (दीक्षितान्) साधुओं की (वृद्धान्) वृद्धजनो की और (ब्रह्मचारिण:) ब्रह्मचारियों की और (तपोभिश्च) महान तपस्वियों की (ततस्तेषां) यथानुसार (पूजयेत्) पूजा करनी चहिये, (राज्ञा पापं प्रशाम्यति) तब राजा का पाप शान्त हो सकता है।
भावार्थ-शान्ति कर्म के लिये राजा को देवता, साधु, वृद्ध, ब्रह्मचारी और तपस्वी जनों की सेवा करनी चाहिये जिससे राजा का पाप शान्त हो॥११६ ।।
उत्पाताश्चापि जायन्ते हस्त्यश्वरथपत्तिषु। भोजनेष्वप्यनीकेषु
राजबन्धश्चमूवधः॥१९७।। (हस्त्यश्वरथपत्तिषु) हाथी, घोड़े, रथ, पैदलों में (उत्पाताश्चापि) अगर उत्पात होता हो (नीकेषु) और सेना (भोजनेषु) भोजन में भी उत्पात हो तो (राजबन्धश्चमूवधः) राजा का बधन और और सेना का वध होगा।
भावार्थ-राजा की सेना में और हाथी, घोड़े, रथ, पैदल सैनिक आदि में उत्पाद दिखलाई पड़े और सैनिकों के भोजन में कोई उपद्रव दिखाई पड़े तो समझो राजा बन्धन में पड़ेगा, सेना के लोग मारे जायगें।। ११७ ।।
उत्पाता विकृताश्चापि दृश्यन्ते ये प्रयायिणाम्।
सेनायां चतुरङ्गायां तेषामौत्पातिकं फलम् ।। ११८॥ (ये प्रयायिणाम) जो प्रयाण करने में (उत्पाताविकृताश्चापि) उत्पात और विकार (दृश्यन्ते) दिखलाई पड़े तो समझो (चतुरङ्गायां) चतुरंग सेना में (तेषां) उसका (औत्पातिक फलम्) औत्पातिक फल समझना चाहिये।