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चतुर्दशोऽध्यायः
उत्पातों का वर्णन अथातः सम्प्रवक्ष्यामि पूर्वकर्मविपाकजम्।
शुभाशुभतथोत्पातं राज्ञो जनपदस्य च॥१॥ (अथातः) अब मैं (पूर्वकर्मविपाकजम्) पूर्वकर्म से उपार्जित (राज्ञोजनपदस्य च) राजा के व प्रजाके (शुभाशुभतथोत्यातं) शुभाशुभ से होने वाले उत्पातों को (सम्प्रवक्ष्यामि) अच्छी तरह से कहूँगा।
भावार्थ-अब मैं राजा के व प्रजा के पूर्वोपार्जित शुभाशुभसे होने वाले उत्पातों को अच्छी तरह से कहूँगा ।। १ ।।
प्रकृतेर्यो विपर्यासः स चोत्पात: प्रकीर्तितः।
दिव्याऽन्तरिक्षभीमाश्च व्यासमेषां निबोधत॥२॥ (प्रकृतेर्यो विपर्यास:) प्रकृतिके विपरीत होने को (स चोत्पातः प्रकीर्तितः) उत्पात कहा है, वो तीन प्रकार के हैं (दिव्या) दिव्य (अन्तरिक्ष) अन्तरिक्ष (भौमाश्च) और भूमिगत (व्यासमेषां निबोधत) इनका विस्तार से वर्णन करता हूँ आप जानो।
भावार्थ-प्रकृति के विपरीत दिखने को उत्पात कहते है, वह तीन प्रकार के होते हैं, दिव्य, अन्तरिक्ष और भूमिरूप इन सबका विस्तार से वर्णन करूँगा आपको ज्ञान कराने के लिये।।२।।
यदात्युष्णं भवेच्छीते शीतमुष्णे तथा ऋतौ।
सदा तु नवमे मासे दशमे वा भयं भवेत्॥३॥ (यदात्युष्णं भवेच्छीते) जब गर्मी के दिन में शीत पड़े (तथा) तथा (शीत ऋतौ मुष्णे) शीत ऋतु में गर्मी पड़े (तदा तु) तब (नवमे मासे वा दशमे) नौ महीने या दसवें महीने में (भयं भवेत्) महाभय उत्पन्न होगा।