________________
भद्रबाहु संहिता
४३८
उत्तरेणोत्तमं विधात् मध्यमे मध्यमं फलम्।
दक्षिणे तु जघन्यं स्याद् भद्रबाहुवचो यथा॥७३॥ (उत्तरेणोउत्तमं विद्यात्) उत्तर वीथी में शुक्रगमन करे तो उत्तम फल जानो (मध्यमे मध्यम फलम्) मध्यम में गमन करे तो मध्यम फल होता है (दक्षिणे तु जघन्यं स्याद्) दक्षिणमें गमन हो तो जघन्य फल होता है (भद्रबाहुचो यथा) ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है।
भावार्थ-उत्तर वीथि में यदि शुक्र गमन करे तो उत्तम फल होता है मध्यम वीथि में गमन करे तो फल भी मध्यम होता है यदि दक्षिण में गमन करे तो फल भी जघन्य होता है ऐसा भद्रबाहु स्वामी का वचन है।। ७३ ।।
यत्रोदितश्च विचरनक्षतं पार्गवस्तथा।
नृपं पुरं धनं मुख्यं पशुं हन्याद् विलम्बकः॥७४ ।। (यत्रोदितश्चविचरेत्) इस प्रकार के (नक्षत्रं) नक्षत्रों में (भार्गवस्तथा) शुक्र गमन करे तो (नृपं) राजा का (पुर) नगर का (धन) धन का और (मुख्य) मुख्य रूप से (विलम्बकः) अविलम्बित (पशुं हन्याद्) पशुओं का नाश करता है।
भावार्थ-इस प्रकार के उत्तम, मध्यम, जघन्य वीथियों में शुक्र का गमन हो तो समझो राजा का धन का और मुख्य रूप से पशुओं को मारता है, नाश करता है।७४॥
आदित्ये विचरेद् रोगं मार्गेऽतुल्यामयं भयम्। गर्भोपघातं कुरुते ज्वलनेनाविलम्बितम्॥७५॥ ईति व्याधिभयं चौरान् कुरुतेऽन्तः प्रकोपनम्।
प्रविशन् भार्गवः सूर्येजिटेथ विलम्बिना ।।७६।। (आदित्येविचरेद् रोग) शुक्र के सूर्य में विचरण करने पर (रोग) रोग होगा (मार्गेऽतुल्यामयं भयम्) मार्ग में बहुत भय होगा (गर्भोपघातं कुरुते) गर्भो का घात होता है (ज्चलेनाविलम्बितम) अविलम्बित अग्नि का भय होता है (भार्गव: सूर्ये प्रविशन) शुक्र का सूर्य में प्रवेश करने पर (ईतिव्याधि भयं) ईति, व्याधि (भयं)