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विशतितमोऽध्यायः
भावार्थ- उक्त दोनों ग्रहण होने पर चोर लोग व म्लेच्छ लोग यात्री को व साधुओं को व नायकों को मारते हैं गणो का विरोध व राजा को राजदूत रोक लेते हैं॥५१ ।।
यतोत्साहं तु हत्वा तु राजानं निष्क्रमते शशी।
तदाक्षेमं सुभिक्षञ्च मन्दरोगांश्च निर्दिशेत्॥५२॥ (यतोत्साहं तु हत्वा तु राजानं निष्क्रमते शशी) पहले राहु को परास्तकर चन्द्रमा आगे निकल जावे तो (तदा) तब (क्षेम) क्षेम (सुभिक्षञ्च) सुभिक्ष और (मन्दरोगांश्च) मन्द रोग होंगे ऐसा (निर्दिशेत्) निर्देशन दिया गया है।
भावार्थ-जब राहु को हराकर चन्द्रमा आगे निकल जावे तो समझो क्षेम कुशल होगा, सुभिक्ष होगा, मन्द रोग उत्पन्न होंगे।। ५२॥
पूर्व दिशि तु यदा हत्वा राहुः निक्रमते शशी।
रूक्षो वा हीनरश्मिर्वापूर्वी राजाविनश्यति॥५३॥ (पूर्वदिशि) पूर्व दिशा में (यदा) जब (राहुः) राहु (शशी) चन्द्रमा का (हत्वा) घातकर (निष्क्रमते) आगे निकले और (रूक्षा वा) रूक्ष हो (हीनरश्मिर्वा) रश्मियाँ मन्द हो (तु) तो (पूर्वोराजाविनश्यति) पूर्व देश के राजा का विनाश होता है।
भावार्थ---जब पूर्व दिशा में राहु चन्द्रमा का घातकर आगे निकले और रूक्ष हो किरणे मन्द हो तो पूर्व देश के राजा का विनाश होता है॥५३ ।।
दक्षिणाभेदने गर्भ दक्षिणात्यांश्च पीडयेत्।
उत्तराभेदने चैव नाविकांश्च जिघांसति॥५४॥ (गर्भ) गर्भ के (दक्षिणा) दक्षिण में (भेदने) भेदन होने से (दक्षिणात्यांश्च पीडयेत्) दक्षिणवासियों को पीड़ा होती है (उत्तराभेदने चैव) और उत्तर में उसका भेदन होने से (नाविकांश्च जिघांसति नाविकों को कष्ट होता है।
भावार्थ-दक्षिण दिशा में गर्भो के भेद न होने से दक्षिण निवासियों को पीड़ा होती है और उत्तर में भेद हो तो नाविकों को कष्ट होता है॥५४॥