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| भद्रबाहु संहिता |
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(मेघ) मेघ (महता) महान (शब्देन) शब्द करते हुऐ (यदा) जब (तिर्यग्) तिरच्छे रूपमें (प्रधावंति) दौड़ते हैं (तत्र) वहाँ पर (सिद्धि) सिद्धि (न) नहीं (जायते) होती है (रुभयोः) दोनों ही (परिसैन्ययोः) परिसेना में।
भावार्थ-मैध यादे महान् शब्द करते हुऐ राजा के तिरच्छे रूपमें चलते है तो समझो शत्रु और प्रतिशुत्र दोनों ही राजाकी सेना को सिद्धि नहीं मिलेगी, दोनों ही सेना युद्ध में असफल रहेगी॥१३॥
मेघा यत्राभि वर्षान्ति स्कन्धावार समन्ततः।
स नायका विद्रवते सा चमूर्नात्र संशयः ।। १४॥ (मेघायत्राभि) मेघ जहाँ पर ही (वर्षान्ति) बरसते हैं (स्कन्धावार) वो भी मूसलाधार (समन्नत:) हो चारों तरफ से हो तो (स नायका) नायक सहित (सा चमू) सेना भी (विद्रवते) रक्त से द्रवित होती है (नात्रसंशय) उसमें कोई संशय नहीं करना चाहिये।
___ भावार्थ-मेध यदि सेना पर मूसलाधार होकर अच्छी तरह से बरसते है तो समझो राजा और राजा की सेना दोनों ही युद्ध में रक्त रंजित हो जायगें।।१४।।
रूक्षा वाताः प्रकुर्वन्ति व्याधयो विष्टगन्धितः।
कु शब्दाश्च विवर्णाश्च मेघो वर्षं न कुर्वते॥१५ ।। यदि (रूक्षावाता:) रूक्ष वायु (विष्टगन्धित:) विष्टा के समान गन्ध वाली वायु चले तो (व्याधयो) व्याधि को (प्रकुर्वन्ति) उत्पन्न करती है अगर (कुशब्दाश्च) मेघ कुशब्द करते हो, (विवर्णाश्च) विवर्ण हो तो (मेघो) मेघ (वर्ष) वर्षा को (न) नहीं (कुर्वते) करते हैं।
भावार्थ-वायु यदि रूक्ष हो और विष्टा के समान दुर्गन्धित हो तो सब जगह रोग उत्पन्न होगा, यदि मेघ विवर्ण होते हुऐ कुशब्द करते हो तो वहाँ पर वर्षा नहीं होगी॥१५॥
सिंहा शृगाल मार्जारा व्याघ्र मेघाः द्रवन्ति ये।
महता भीम शब्देन रुधिरं वर्षन्ति ते घनाः ॥१६॥ (ये) जो (मेघा:) मेघ (सिंहा) सिंहरूप (शृगाल) शृगालरूप (मार्जारा) बिल्ली