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पडर्विशतितमोऽध्यायः
यूपमेकखरं शूलं यः स्वप्नेष्वभिरोहति।
सा तस्य पश्चिमा रात्री यदि साधु न पश्यति ॥ ३७॥ (य:) जो व्यक्ति (स्वप्ने) स्वप्न में (यूपमेकखरं शूलं अभिरोहति) यज्ञस्तम्भ, गर्दभ, शूल पर आरोहण (सा) वह भी (पश्चिमा रात्री) पश्चिम रात्रि में देखता है तो (तस्य) उसका (यदि साधु न पश्यति) कल्याण नहीं होता है।
भावार्थ--जो व्यक्ति स्वप्न में यज्ञस्तम्भ पर व गधे पर अथवा शूल पर आरोहण करता हुआ पिछली रात्री में अपने को देखता है उसका कल्याण नहीं होता है।। ३७॥
दुर्वासः कृष्णभस्मश्च वामतैलविपक्षितम्।
सा तस्य पश्चिमा रात्री यदि साधु न पश्यति ॥ ३८॥ (यदि) यदि (पश्चिमारात्री) पश्चिम रात्री में (दुर्वासः कृष्णभस्मञ्च) दुर्वासा काली भस्म और (वामतैलविपक्षितम्) तैल का पान करता हुआ देखे तो (सा) उस मनुष्य का (साधु न पश्यति) कल्याण नहीं देखा गया है।
भावार्थ-यदि पश्चिमरात्री में दुर्वासा, कालीभस्म, तैलपान करता हुआ अपने आपको स्वप्न में देखे तो समझो उसका मरण अवश्य होगा ।। ३८॥
‘धनप्राप्तिस्वप्न' अभक्ष्यभक्षणं चैव पूजितानां च दर्शनम्।
कालपुष्पफलं चैव लभ्यतेऽर्थस्य सिद्धये॥३९॥ (अभक्ष्यभक्षणंचैव) अभक्ष्य का भक्षण और (पूजितानां च दर्शनम्) पूज्य मनुष्यों का दर्शन (कालपुष्प फलं चैव) सामायिक पुष्प, फल, का दर्शन स्वप्न में हो तो (लभ्यतेऽर्थस्यसिद्वये) अर्थसिद्धिप्राप्त होती है।
भावार्थ-यदि स्वप्न में व्यक्ति अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण करे एवं अपने पूज्य पुरुषों का दर्शन करे अथवा सामायिक, पुष्प, फलों का दर्शन करे तो उस मनुष्य को अवश्य ही धन की प्राप्ति होती है।। ३९ ।।
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