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भद्रबाहु संहिता
तब ब्राह्मण कहने लगा, गुरुदेव यह बालक आपका ही है, मेरा नहीं, अवश्य ले जाइये, मैं आपको समर्पण करता हूँ अहो मरा बड़ा पुण्योदय है, इतने में ही भद्रबाहु की माता अपने पति के मुख से ऐसी बात सुनकर थोड़ी सी घबराई और रोने लगी पुत्रव्यामोह से अनुधारा छोड़ने लगी, थोड़ी आना-कानी करने लगी, तब गोवर्द्धनाचार्य कहने लगे हे! माता मैं तेरा हृदय जानता हूँ तुझे दुःख हो रहा है, किन्तु तेरा पुत्र होनहार है इसको योग्य गुरु शिक्षा देने वाला होना ही चाहिये मैं तेरे पुत्र को पढ़ाऊँगा, योग्य बनाऊंगा बीच में ही बात काटती हुई कहने लगी गुरुदेव, बालक को किसी भी हालत में, मैं नहीं छोड़ सकती हूँ मैं क्या करूँगी इसके बिना, मेरा मन कैसे लगेगा, इस तरह से कहती हुई संतप्त होने लगी, सब स्वयं ब्राह्मण ने भी और गोवर्द्धनाचार्य ने भी उस को सांत्वना दी तब थोड़ी संतुष्ट होकर भद्रबाहु की माता कहने लगी महाराज एक ही शर्त पर मैं आपको सौंप सकती हूँ वह यह कि आप इसको दीक्षित नहीं करेंगे अर्थात् दीक्षा नहीं देगें, तब गोवर्द्धनाचार्य ने कहा माता यह मुझे मंजूर है मैं तुम्हारे बालक को पढ़ा-लिखाकर अवश्य ही एक बार तुम्हारे पास भेज दूंगा तुम चिन्ता नहीं करो, मुझे तुम्हारी बात मान्य है, तब बालक के माता पिता ने बालक भद्रबाहु को गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया।
गोवर्द्धनाचार्य उस बालक को अपने साथ लेकर पुन: संघ में आ गये, शुभ मुहुर्त में विद्याध्ययन प्रारंभ हुआ, योग्य गुरु के मिलने पर योग्य शिष्य ने शीघ्र ही सारी विद्या प्राप्त करली। अब भद्रबाह कुछ ही वर्षों में महापंडित विद्वान हो गये। न्याय तर्क. व्याकरण. आगम आदि समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिये, अब भद्रबाहु पंडित के बराबर का कोई विद्वान नहीं रहा, उसके ज्ञान की चर्चा सर्वत्र होने लगी, मुनिसंघ में भी उसही की प्रशंसा होने लगी। कुमार भद्रबाहु ने प्रशंसनीय जिनवाणी का ज्ञान प्राप्त कर लिया, एक दिन कुमार भद्रबाहु संसार के स्वरूप पर विचार करके संसार की असारता का चितवन करने लगे, मन में दृढ़तापूर्वक विचार लाकर यह निश्चय कर लिया कि मुझे संसार में नहीं फंसना है, दीक्षा ही धारण करनी है, पूर्ण आगम ज्ञान की प्राप्ति उसको हो गई थी, आत्मा में विशुद्धि आ चुकी थी, कुमार भद्रबाहु गुरुदेव के पास पहुंचे, विनयपूर्वक गोवर्द्धनाचार्य के पास कहने लगे, गुरुदेव मैं संसार से विरक्त हूँ, मुझे दीक्षा दीजिये, बड़ी कृपा होगी, मैं कृत्य कृत्य हो जाऊँगा आदि। तब कुमार की बात को सुनकर गोवर्द्धनाचार्य ने कुमार भद्रबाहु से कहा शिष्य मैं तुम्हें अभी दीक्षा नहीं दूंगा, क्योंकि तुमको एक बार अपने घर माता पिता से जाकर मिलना चाहिये, उनकी आज्ञा प्राप्त