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भद्रबाहु संहिता |
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शुभ्रालङ्कार वस्त्राच्या प्रमदा प्रियदर्शना।
श्लिष्यति यं नरं स्वप्ने तस्य सम्पत्समागमः ।। १०२।। (यं नरंस्वप्ने) जिस मनुष्य को स्वप्न में (शुभ्रालङ्कार वस्त्राढ्या) शुभ अलंकार वस्त्रों सहित (प्रमदाप्रिय दर्शना) स्त्रीप्रिय दर्शना होकर (श्लिष्यति) अलिंगन करती हुई दिखे तो (तस्य सम्प्रत्समागमः) उसके महान सम्पत्ति का समागम होता है।
भावार्थ-जिस मनुष्य को स्वप्न में शुभ अलंकार वस्त्रों से सहित स्त्रीयाँ प्रेम से आलिंगन करती हुई दिखे तो उसको महान सम्पत्ति समागम होता है।। १०२।।
सूर्याचन्द्रमसौ पश्येदुदयाचल मस्तके।
सलात्यभ्युदयं मयों दुःखं तस्य च नश्यति ।। १०३॥ जो स्वप्न में (सूर्या चन्द्रमसी) सूर्य और चन्द्रको (उदयाचलमस्तके) उदयाचल के मस्तक परे (पश्येद) देखे (मलात्यभ्युदयं मो) वह अभ्युदय की प्राप्ति करता है (तस्य दुःख च नश्यति) उसके दुःखों का पाश होता है :
भावार्थ-जो स्वप्न में सूर्य चंद्र को उदयाचल के मस्तक पर देखता है उसको अभ्युदय की प्राप्ति होती है और उसके समस्त दुःख नाश हो जाते है।। १०३॥
बन्धनं बाहुपाशेन् निगडैः पादबन्धनम्।
स्वस्यपश्यति यः स्वप्ने लाति मान्यं सुपुत्रकम्।। १०४॥ (य: स्वप्ने) जो स्वप्न में (स्वस्य) अपने (बाहुपाशेन बन्धन) बाहुपास बंधे हुए देख्ने (पादनिगडै:बन्धनम्) और पांव बेड़ीयों के द्वारा बधे हुए देखे तो वह (मान्यंसुपुत्रकम् लाति) मान्य सुपुत्र को प्राप्त करता है।
भावार्थ-जो स्वप्न में अपने हाथ बंधे हुए देखे एवं पांव बेडियों के द्वारा बंधे हुए देखे तो उसको मान्य सुपुत्र की प्राप्ति होती है॥१०४ ।।
दृश्यते श्वेत सर्पण दक्षिणाङ्गं पुमान् भुवि।
महानलाभो भवेत्तस्य बुध्यते यदि शीघ्रतः॥१०५॥ जो (पुमान्) मनुष्य अपने (दक्षिणाझं) दक्षिण हाथ की तरफ (भुवि) भूमि