________________
भद्रबाहु संहिता |
धर्मार्थ कामा लुप्यन्ते सम्भ्रमो वर्णसङ्करः। नृपाणां च समुद्योगो यतः शुक्रस्ततो जयः॥९४॥ अवृष्टिश्च भयं घोरं दुर्भिक्षं च तदा भवेत्।
आढकेन तु धान्यस्य प्रियो भवति ग्राहकः ।। ९५॥ (प्रत्यूषे पूर्वत: शुक्रः) पूर्व में प्रातःकाल के अन्दर शुक्र हो (पृष्ठतश्च बृहस्पति:) पीछे से शुरु हो (यदाऽन्योऽन्यं । पश्यत्) और एक-दूसरे को न देखता हो तो (तदा) तब (चक्रं परिवर्तते) शासन चक्र में परिवर्तन होता है।
(धर्मार्थ कामा लुप्यन्ते) धर्म, अर्थ, काम का लोप करता है (सम्भ्रमो वर्ण सकरः) वर्ण संकरों में सम्भ्रम पैदा होता है (नृपाणां च समुद्योगो) राजाओं को उद्योग प्राप्त होता है (यत: शुक्रस्ततोजयः) जहाँ शुक्र हो वहाँ जय होती है।
(अवृष्टिश्च भयं घोरं) अनावृष्टि, घोर भय, (दुर्भिक्षं च तदा भवेत्) दुर्भिक्ष होता है (आढकेन तु धान्यस्य) एक आढ़क प्रमाण धान्य उत्पन्न होता है (प्रियो भवति ग्राहकः) ग्राहक प्रिय होता है।
भावार्थ-पूर्व में प्रात:काल में शुक्र हो उसके पीछे गुरु हो, एक-दूसरे को न देखते हो तो शासन चक्र में परिवर्तन होता है धर्म, अर्थ, काम का लोप होगा, वर्ण संकरों में सम्भ्रम पड़ता है, राजाओं को उद्योग होता है कहा है जहाँ शुक्र है वहीं पर जय होती है। अवृष्टि होगी घोर भय होगा, दुर्भिक्ष पड़ेगा, धान्य एक आढ़क प्रमाण होगा, ग्राहकों को प्रिय होगा॥९३-९४-९५॥
यदा च पृष्ठः शुक्रः पुरस्ताच्च बृहस्पतिः ।
यदा लोकयतेऽन्योन्यं तदेव हि फलं तदा ॥१६॥ (यदा च पृष्ठत: शुक्रः) जब शुक्र पीछे हो (पुरस्ताच्च बृहस्पति) और गुरु आगे हो (यदा लोकयतेऽन्योन्यं) जब एक-दूसो को देखते हो (तदेव हि फलं तदा) तो वैसा ही फल होता है।
भावार्थ-जब शुक्र पीछे हो गुरु आगे हो एक-दूसरे को देखते हो तो उपर्युक्त के समान ही फल होगा ।।९६ ॥