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षड्विंशतितमोऽध्यायः
स्वप्न लक्षण व फल नमस्कृत्य महावीरं सुरासुरजनैतम्।
स्वप्नाध्यायं प्रवक्ष्यामि शुभाशुभसमीरितम्॥१।।
(सुरासुरजनैर्नतम्) सुर और असुरों के द्वारा (नमस्कृत्य) जिनको नमस्कार किया गया है उन (महावीरं) स्वामी को मस्तकुंजकाहकर (स्वप्नाध्यायं) स्वप्न के अध्याय को कहूंगा जो (शुभाशुभसमीरितम्) शुभाशुभ से युक्त है।
भावार्थ-जो सुर और असुरों के द्वारा नमस्कृत्य है, ऐसे महावीर स्वामी को नमस्कार करके शुभाशुभ से युक्त स्वप्नाध्याय को कहूंगा ॥१॥
यानमारमा विद्या स्वप्नोऽनष्टचिन्तामयः फलाः।
प्रकृता कृतस्वप्नैश्च नैते ग्राह्या निमित्ततः ॥२॥ (स्वप्नमाला) स्वप्नमाला, (दिवास्वप्नों) दिवास्वप्न (अनष्टचिन्तामय:फला:) चिन्ताओं से उत्पन्न, रोग से उत्पन्न (प्रकृता कृतस्वप्नैश्च) प्रकृति के विकार से उत्पन्न (नतेग्राह्यानिमित्ततः) इतने स्वप्न ग्रहण नहीं करना चाहिये।
भावार्थ-स्वप्नमाला, दिन में आनेवाला स्वप्न, चिन्ताओं से सहित स्वप्न, और आकृतिक स्वप्न इतने स्वप्नों का फल नहीं होता है इन स्वप्नों के ऊपर विचार नहीं करना चाहिये ॥२॥
कर्मजा द्विविधा यत्र शुभाश्चात्राशुभास्तथा।
त्रिविधा: संग्रहाः स्वप्ना: कर्मजा: पूर्वसञ्चिताः॥३॥ (कर्मजा द्विविधा) कर्म के उदय से आने वाले दो प्रकार के स्वप्न है (यत्रशुभा श्चात्राशुभास्तथा) जहां पर शुभ और अशुभ (कर्मजा: पूर्वसञ्चिताः) कर्म से उत्पन्न, पूर्व कर्म के उदय से उत्पन्न, (स्वप्ना:त्रिविधा: संग्रहाः) स्वप्न तीन प्रकार के संग्रह