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एकविंशतितमोऽध्यायः
केतु उदयास्त वर्णन कोणजान् पापसम्भूतान् केतून् वक्ष्यामि ज्योतिषा । मृदलो दारुणाश्चैन तेषामासं निबोधत ।। १ ।। (ज्योतिषा) हे ज्योतिषि (पापसम्भूतान् ) पाप का कारण (कोणजान्) कोण में उत्पन्न हुऐ (केतुन ) केतु को ( वक्ष्यामि) कहूँगा ( मृदवो दारुणाश्चैव ) मृदु और दारुण होने के अनुसार ( तेषामासं निबोधत) उनका फल समझना चाहिये ।
भावार्थ —— हे ज्योतिषि पापके कारण कोण रूप उत्पन्न हुऐ ऐसे केतुओं का वर्णन करूंगा, वो मृदु और दारुण होने से उनका फल भी वैसा ही समझना चाहिए ॥ १ ॥ वर्षेषु च विशेषतः । विषमाः पूर्वपापजाः ॥ २ ॥
एकादिषु केतवः
शतान्तेषु सम्भवन्त्येवं
( एकदिषु शातान्तेषु ) एकादि से लेकर ( वर्षेषु च विशेषतः ) वर्षा के अन्दर ( पूर्वपापजा:) पूर्व पापके उदय से (विषमाः) विषम ( केतवः) केतु (सम्भवन्त्येवं) सम्भवित होते हैं।
भावार्थ – एकादिसे लेकर सौ वर्षो के अन्दर पूर्ण पापकर्म के उदय यह विषम केतु होते हैं, और उनका फल विषम ही होता है ॥ २ ॥
पूर्व लिङ्गानि केतूनामुत्पाताः सदृशा: ग्रहा अस्तमनाश्चापि दृश्यन्ते चापि लक्षयेत् ॥ ३ ॥
पुनः ।
(केतूनाम्) केतुओं के (पूर्वलिङ्गानि ) पूर्व चिह्न (उत्पाताः सदृशाः पुनः ) उत्पातके सामन ही है ( ग्रहा अस्तमनाश्चापि ) अतः ग्रहों के अस्त और उदय को देखकर (दृश्यन्ते चापि लक्षयेत् ) उसका भी फल कहना चाहिये ।
भावार्थ — केतुओं के पूर्वलियों को देखकर उत्पात सदृश उत्पात के समान ही होते है, अतः ज्ञानी ग्रहों का अस्त व उदय देखकर उस का फल कहे ॥ ३ ॥