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प्रस्तावना
उल्का चक्राकार होती है, पौरुषी नाम की उल्का स्वाभावतः लम्बी होती है तथा गिरते समय बढ़ती जाती है। ध्वज, मत्स्य, हाथी, पर्वत, कमल, चन्द्रमा, अश्व, तप्तरज और हंस के समान दिखाई पड़ने वाली उल्का शुभ मानी जाती है। श्रीवत्स, वज्र, शंख और स्वस्तिक रूप प्रकाशित होने वाली उल्का कल्याणकारी और सुभिक्षदायक है जिन उल्काओं के सिर का भाग मकर के समान और पूँछ
के मान में उत्काएँ अनिष्ट सूचक तथा संसार के लिए भयप्रद होती हैं। इस अध्याय में संक्षेप में उल्काओं की बनावट, रूप-रंग आदि के आधार पर फलादेश का वर्णन किया है।
तृतीय अध्याय में—६९ श्लोक हैं, इसमें विस्तारपूर्वक उल्कापात का फलादेश बताया गया है । ७ से ११ श्लोकों में उल्काओं के आकार-प्रकार का विवेचन है। १६ वें श्लोक से १८ श्लोक तक वर्ण के अनुसार उल्का का फलादेश वर्णित है। बताया गया है कि अग्नि की प्रभावाली उल्का अग्निमय, मंजिष्ठ के समान रंगवाली उल्का व्याधि और कृष्णवर्ण की उल्का दुर्भिक्ष की सूचना देती है । १९ वें श्लोक से २९ वें श्लोक तक दिशा के अनुसार उल्का का फलादेश बतलाया गया है अवशेष श्लोकों में विभिन्न दृष्टिकोण से उल्का का फलादेश वर्णित है। सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, जय, पराजय, हानि, लाभ, जीवन, मरण, सुख, दुःख आदि बातों की जानकारी उल्का निमित्त से की जा सकती है। पापरूप उल्काएँ और पुण्यरूप उल्काएँ अपने-अपने स्वभावगुणानुसार इष्टानिष्ट की सूचना देती हैं। उल्काओं की विशेष पहचान भी इस अध्याय में बतलाई गयी है।
चौथे अध्याय में परिवेष का वर्णन किया गया है। परिवेष दो प्रकार के होते हैं--प्रशस्त और अप्रशस्त । इस अध्याय ३९ श्लोक हैं। आरम्भिक श्लोकों में परिवेष होने के कारण, परिवेष का स्वरूप और आकृति का वर्णन है। वर्षा ऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य किसी आकार में एक मण्डल सा बनता है, यही परिवेष कहलाता है। चाँदी या कबूतर के रंग के समान आभा वाला चन्द्रमा का परिवेष हो तो जल की वर्षा, इन्द्रधनुष के समान वर्ण बाला परिवेष हो तो संग्राम या विग्रह की सूचना, काले और नीले वर्ण का चक्र परिवेष हो तो वर्षा की सूचना, पीत वर्ण का परिवेष हो तो व्याधि की सूचना एवं भस्म के समान आकृति और रंग का चन्द्र परिवेष हो तो किसी महाभय की सूचना समझनी चाहिए। उदयकालीन चन्द्रमा के चारों ओर सुन्दर परिवेष हो तो वर्षा तथा उदयकाल में चन्द्रमा के चारों ओर रूक्ष और श्वेत वर्ण का परिवेष हो तो चोरों के उपद्रव की सूचना देता है। सूर्य का परिवेष साधारणतः अशुभ होता है और आधि-व्याधि को सूचित करता है। जो परिवेष नीलकंठ, मोर, रजत, दुग्ध और जल की आभा वाला हो, स्वकालसम्भूत हो, जिसका वृत्त खण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह सुभिक्ष और मंगल करने वाला होता है। जो परिवेष समस्त आकाश में गमन करे, अनेक प्रकार की आभा वाला हो, रुधिर