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प्रस्तावना
अनादिकाल से यह वीतराग धर्म ही सर्वश्रेष्ट धर्म है, इस वीतराग धर्म में काल परिर्वतन होता रहता है, भ्रमणशील संसार में जीवों का अनेक प्रकार से उत्थान पतन होता रहता है, कभी जीव मुखी तो कभी दुःखी, कर्मानुसार जीव चारों गतियों में भ्रमण करता है, शुभकर्मानुसार इन्द्रिय जनित सुख और अशुभकर्मानुसार दुःख प्राप्त करता है।
इस काल में प्रथम इस क्षेत्र में उतम मध्यम जघन्य भोग भूमि थी, दश प्रकार के कल्प वृक्षों से प्राप्त भोगों व भोग पदार्थों को भोग भूमियाँ जीव प्राप्त करके सुख का अनुभव करते हो, प्रथमकाल में उत्तम भोग भूमि, द्वितीय काल में मध्यम भोग भूमि, तृतीय काल में जघन्य भोग भूमि थी। भोग भूमियों के जीवों की आयु क्रमश: 3 पल्य, 2 पल्य व । पल्य थी, तीसरे काल के अंत में कल्पवृक्षादि नष्ट होने लगे, भोग भूमियां जीवों को जब विचित्र बातें दिखाने लगी, तब उन भयभीत जीवों को संबोधन करने के लिये कुलकर, अर्थात् 14 मनु क्रमशः हुए और इन मनुओं ने भोग भूमियों के जीवों को संबोधन किया।
अंतिम मनु नाभिराय हुए इन नाभिराय का विवाह मरुदेवी के साथ हुआ, ये अयोध्या के राजा थे, इनका विवाहादि संस्कार इन्द्र ने आकर किया। अयोध्या के राजा नाभिराय रानी मरुदेवी दोनों ही धर्मात्मा और सरल परिणामी थे, महारानी मरुदेवी के गर्भ में प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ आने वाले हैं, ऐसा समझकर इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने अयोध्या नगरी में रत्न वृष्टि की। प्रतिदिन करोड़ों रत्नों की वर्षा होती थी, स्वर्ग से च्युत होकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध जिसको है ऐसा महान पुण्यात्मादेव मरुदेवी के गर्भ में आया, क्रमश: नौ माह पूर्ण होने पर तीर्थंकर आदिनाथ भगवान का जन्म हुआ, चतुर्णिकाय के देवों सहित अपनी पट्टानी इन्द्राणि को साथ में लेकर ऐरावत हाथी पर बैठकर इन्द्र अयोध्या नगरी में आये, इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणि ने मरुदेवी माता के समीप में मायावी पुत्र को रख कर बालक आदिनाथ को उठाकर प्रसूति गृह से बाहर लाकर सौधर्म इन्द्र के हाथ में सौंपा, सौधर्म ने भी अपने सहस्त्र नयन बनाकर प्रभु के दर्शन किये, प्रभु को ऐरावत हाथी के ऊपर बैठा कर