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प्रस्तावना
सुमेरु पर्वत पर उत्सव के साथ ले गये वहाँ पांडुक शिलापर प्रभु को विराजमान कर क्षीर सागर के जल से अभिषेक किया। इन्द्राणि ने प्रभु के शरीर का प्रक्षालन कर सुगन्धी लेप लगाया और वस्त्राभूषण पहनाये, पुनः प्रभु को हाथी पर विराजमान कर उत्सव के साथ देवों के साथ इन्द्र ने माता मरुदेवी की गोद में सौंपा, इन्द्र ने तांडव नृत्य किया और अपने स्वर्ग को वापस गये।
क्रमशः प्रभु आदिनाथजी बड़े होने लगे, अपने राज्य के योग्य समझकर राजा नाभिराय ने अपने पुत्र का राज्याभिषेक किया, महाराज आदिनाथ ने राज्य सिंहासन पर बैठकर प्रजाओं की समस्याओं का समाधान किया, असि, मसि, कृषि, सेवा शिल्प, वाणिज्य इन षट् कर्मों का उपदेश दिया, क्रमश: समय समाप्त होता गया, प्रभु भोगों में मस्त हुए, तीस लाख पूर्व वर्ष समाप्त हुए इन्द्र ने नीलांजना का नृत्य करवाकर आदिनाथ तीर्थकर को वैराग्य उत्पन्न कराया, लौकान्तिक देव आये, सम्बोधन किया, भगवान को पालकी में विराजमान करके दीक्षा के लिये बन को ले गये, वहाँ भगवान ने चार हजार राजाओं के साथ निर्ग्रन्थ दीक्षा ले ली, छह महीने का योग धारण कर भगवान कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हो गये, समय बीतने पर भगवान आहार के लिये निकले, छ: माह बीतने पर हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने भगवान को इक्षुरस का आहार दिया, भगवान वापिस वन को लौट गये, एक हजार वर्ष के बीतने पर भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इस काल के प्रथम तीर्थकर आदिनाथ ने धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति चलाई, इन्द्र ने समवशरण की रचना की, बारह सभा में प्रतिदिन भव्य जीव आकर बैठे और दिव्य ध्वनि सुनकर मुनि धर्म और श्रावक धर्म स्वीकार करने लगे, भगवान ने द्वादशाङ्ग रूप वाणी का वर्णन किया, भव्यों को समझाया, सर्वत्र बिहार कर धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति चलाई लोगों को आत्म कल्याण के मार्ग पर लगाया, योग निरोध कर भगवान ध्यान के बल से शेष कर्मों का नाश कर अष्ट कर्मों से रहित होते हुए सिद्ध शिला पर जाकर अनन्तकाल तक विराजमान हो गये।
जब आदिनाथ मोक्ष गये तब तीसरे काल के कुछ वर्ष और बाकी थे, अर्थात् तीसरे काल के अन्त में ही आदिनाथ भगवान मोक्ष चले गये। उसके बाद भरत क्षेत्र में क्रमश: अजितनाथ संभवनाथादि तेईस तीर्थंकर और हुए, अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी हैं, जिस बात को आदिनाथ ने कहा उसी बात को अजितनाथ से लेकर 23 तीर्थकरों ने कहा, दिव्य