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पञ्चविंशतितमोऽध्यायः
मूल और फल (उष्ण वीर्य विपाकस्य) जिसका विपाक उष्ण वीर्य है (रवेस्तु प्रतिपुद्गलाः) ये सब सूर्य के प्रतिपुद्गल है।
भावार्थ-उद्भिज, जन्तु, कन्द, मूल, फल और जिनके गुण उष्ण वीर्य है, ऐसे पदार्थ ये सब रवि के प्रति पुद्गल है॥१०॥
नक्षत्रे भार्गवः सोमः शोभते सर्वशी यथा।
यथा द्वार तथा विन्द्यात् सर्ववस्तु यथाविधिः॥११॥ (नक्षत्रे) नक्षत्रों में (भार्गव: सोमः) शुक्र और चन्द्रमा (यथा सर्वशो शोभेते) जैसे तब तरफ से शोभित होते हैं (यदा द्वारं यथा) उस नक्षत्र के द्वारा (सर्ववस्तु यथाविधि: विन्द्यात्) सभी वस्तुएँ यथाविधि जानो।
भावार्थ नक्षत्रों शुक्र और चन्द्रमा सब जगह शोभा पाते हैं उस नक्षत्र के द्वारा सभी वस्तुएँ यथा विधि महँगी और मन्दी होती रहती है॥११॥
विवर्णा यदि सेवन्ते ग्रहा वै राहुणां समम्।
दक्षिणां दक्षिणे मार्गे वैश्वानरपथं . प्रति ।। १२॥ (यदि) यदि (विवर्णा ग्रहा सेवन्ते) ग्रह विवर्ण होकर (वै राहुणा समम्) राहु की सेवा करें (दक्षिणां दक्षिणे मार्गे) और दक्षिण मार्ग में (वैश्वानरपथं प्रति) वैश्वानर पथ के प्रति गमन करे तो।।
भावार्थ-यदि ग्रह विवर्ण होकर राहु की सेवा करे और दक्षिण ग्रह दक्षिण मार्ग में वैश्वानर पथ पर गमन करे तो॥१२॥
गिरिनिम्ने च निम्नेषु नदी पल्लववारिषु।
ऐतषु वापयेद् बीजं स्थलवज यथा भवेत्॥१३॥ (गिरिनिम्ने च निम्नेषु) पर्वत की नीची भूमि में (नदी पल्लववारिषु) नदियों की ऊंची-नीची भूमि में पोखरों में (वाययेद् बीजं) बीज बोना चाहिये (स्थलवन्ज यथा भवेत्) मात्र स्थल को छोड़ देवे।
भावार्थ-चौरस भूमि को छोड़कर पर्वत की निचली भूमि में और नदी की तर पोखरों में बीज बोना चाहिए।।१३।।