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चतुर्थोऽध्यायः
विवेचनपरिवेषों के द्वारा शुभाशुभ अवगत करने की परम्परा निमित्तशास्त्रके अन्तर्गत है। परिवेषोंका विचार ऋग्वेदमें भी आया है। सूर्य अथवा चन्द्रमा की किरणें पर्वत के ऊपर प्रतिबिम्बित और पवनके द्वारा मंडलाकार होकर थोड़े से मेघवाले आकाश में अनेक रंग और आकार की दिखलाई पड़ती हैं, इन्हीं को परिवेष करते हैं। वर्षाऋतु में सूर्य या चन्द्रमा के चारों ओर एक गोलाकार अथवा अन्य किसी आकारमें एक मंडल-सा बनता है, इसी को परिवेष कहा जाता है।
परिवेषोंका साधारण फलादेश-जो परिवेष नीलकण्ठ, मोर, चाँदी, तेल, दूध और जलके समान आभावाला हो, स्वकालसम्भूत हो, जिसका वृत्त खण्डित न हो और स्निग्ध हो, वह सुभिक्ष और मंगल करने वाला होता है। जो परिवेष समस्त आकाशमें गमन करे, अनेक प्रकार की आभावाला, हो, रुधिरके समान हो, रूखा हो, खण्डित हो तथा धनुष और शृङ्गाटिकके समान हो तो वह पापकारी, भयप्रद और रोगसूचक होता है। मोर की गर्दन के समान परिवेष हो तो अत्यन्त वर्षा, बहुत रंगोंवाला हो तो राजाका वध, धूमवर्णका होनेसे भय और इन्द्रधनुषके समान या अशोकके फूलके समान कान्तिवाला हो तो युद्ध होता है। किसी भी ऋतुमें यदि परिवेष एक ही वर्णका हो, स्निग्ध हो तथा छोटे-छोटे मेघोंसे व्याप्त हो और सूर्यकी किरणें पीत वर्णकी हों तो इस प्रकारका परिवेष शीघ्र ही वर्षाका सूचक है। यदि तीनों कालोंकी सन्ध्यामें परिवेष दिखलाई पड़े तथा परिवेषकी ओर मुख करके मृग या पक्षी शब्द करते हों तो इस प्रकारका परिवेष अत्यन्त अनिष्टकारक होता है। यदि परिवेषका भेदन उल्का या विद्युत द्वारा हो तो इस प्रकार के परिवेष द्वारा किसी बड़े नेताकी मृत्युकी सूचना समझनी चाहिए। रक्तवर्णका परिवेष भी किसी नेताकी मृत्युका सूचक है। उदयकाल, अस्तकाल और मध्याह्र या मध्यरात्रिकालमें लगातार परिवेष दिखलाई पड़े तो किसी नेताकी मृत्यु समझनी चाहिए। दो मण्डलका परिवेष सेनापतिके लिए आतङ्ककारी, तीन मण्डलका परिवेष शस्त्रकोपका सूचक, चार मण्डलका परिवेष देशमें उपद्रव तथा महत्त्वपूर्ण युद्धका सूचक एवं पाँच मण्डलका परिवेष देश या राष्ट्रके लिए अत्यन्त अशुभ सूचक है। मंगल परिवेषमें हो तो सेना एवं सेनापतिको भय, बुध परिवेषमें हो तो कलाकार, कवि, लेखक एवं मन्त्रीको भय, बृहस्पति परिवेष में हो तो पुरोहित, मन्त्री और राजाको भय,