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नवमोऽध्यायः
वायुओं का लक्षण व फल अथातः सम्प्रक्ष्यामि वात लक्षणमुत्तमम्।
प्रशस्तमप्रशस्तं च यथा वदनुपूर्वशः ॥१॥ (अथातः) अब मैं (उत्तमम्) उत्तमरीति से (वातलक्षणं) वायुओं के लक्षण को (सम्प्रक्ष्यामि) कहूँगा। वायु भी (प्रशस्तं) प्रशस्त (च) और (अप्रशस्तं) अप्रशस्त रूप (यथा) जैसे (पूर्वश:) पूर्वमें (वदनु) कहा।
भावार्थ-अब मैं उत्तमरीति से वायुओं के लक्षण को कहूँगा एवं वायु प्रशस्त और अप्रशस्त ऐसे दो प्रकार के कहे गये है मैं भी उसी प्रकार कहूँगा॥१॥
वर्ष भयं तथाक्षेमं राज्ञो जयपराजयम्।
मारुतः कुरुते लोके जन्तूनां पुण्यपापजम्॥२॥ (मारुत:) वायु (लोके) संसार में (जन्तूना) प्राणियों के (पुण्यपापजम्) पुण्य और पाप के अनुसार (वर्ष) वर्षा (भयं) भय (तथा) तथा (क्षेम) क्षेम आदि और (राज्ञो) राजा की (जयपराजयम्) जय और पराजय (कुरुते) करते हैं।
भावार्थ-संसार में वायु प्राणियों के पुण्य और पाप के अनुसार वर्षा, भय, क्षेम और राजा की जय पराजय करती है॥२॥
आदानाच्चैव, पाताच्च पचनाच्च विसर्जनात्।
मारुतः सर्वगर्भाणां बलवान्नायकश्च सः॥३॥
(मारुत:) वायु (आदानात्) आदान (पाताच्च) पातन, (पचनाच्च) पचन, (विसर्जनात्) विसर्जनका कारण होने से (बलवान्) बलवान होता है (स:) वह (सर्वगर्भाणां) सब गर्मों का (नायकः) नायक है।
भावार्थ-वह वायु आदान, पातन, पचन और विसर्जन का कारण होता है इसलिये सब गर्मों का नायक होता है।। ३ ।।