Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WAKE কাজ-ই জৰ স্থিতাহে দুই গী-গাব্যলোক ননভিউ অল ইচ্ছামতো কাছেই এক বছর । হিনী-লহ-র-লুৰাইছিত্তর|| গলফ লাক। 3,488) 6000000}; ১৯৯৮/ ৯ নিগ্রন্থি আত-ত্বাল তিনটা করি গরিব সাগর । । ৯১-৯৮৫,৫৯১৯১% ৯.১১ই অংশগুলো বিয়ে - কাফুর, জে২ | 9/2. | রং ও ২ চর ০ = ৫ র করে | Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज. विरचितया प्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् YOYOYYYYYYYYYYYMNONYMIMINONG ॥ श्री-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रम् ॥ (द्वितीयो भागः) नियोजकः संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः . प्रकाशकः . .. . पालनपुरनिवासि-श्रेष्ठिश्रीलक्ष्मीचंदभाई जसकरणभाई प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येन अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्वारसमितिप्रमुखःश्रेष्ठि_ श्रीशान्तिलाल मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० अहमदाबाद-१. ईसवीसन् LATTO प्रथम-आवृत्तिः प्रति १२०० वीर-संवत् २५०३ विक्रम संवत् २०३४ मूल्यम्-रू. ३५-०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણુ श्री म.सा., स्थानवासी જૈનશાસ્ત્રાદ્ધાર સમિતિ, 3. छीपायोज अभहावाह - १, 卐 ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥ १ ॥ પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦ વીર સંવત્ ૨૫૦૩ વિક્રમ સંવત્ ૨૦૩૪ ઈસવીસન્ ૧૯૭૭ Published by : Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Ghhipapole, AHMEDABAD-1. 5 हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये । जो जानते हैं तव कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तव इससे पायगा । है काल निरaft विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥ १ ॥ 卐 भूस्यः ३. ३५-०० : भुद्र : શાહ મણિલાલ છગનલાલ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ ग्रेस, घीशंटा रोड, अभहावाह Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क س س ८-१७ १८-३६ २६-५३ ५४-५९ ه م م ه م م ६३-८१ ८१-८५ ८६-९३ जंबुद्धीप प्रज्ञप्तिसूत्र भा. दूसरे की विषयानुक्रमणिका अनुक्रमाङ्क विषय चौ वा वक्षस्कार क्षुल्लहिमवन्वर्षधरपर्वन का वर्णन क्षुद्रहिमवान् के शिखर के ऊपर वर्तमान पद्महद का निरूपण क्षुद्राहिमवान् की भूमि में वर्तमान भवनादिका वर्णन गका सिन्धू महानदी का निरूपण ___ गङ्गा दिमदानदी का निर्गमादि का निरूपण रोहितंसा महानदी के प्रपातादिका निरूपण क्षुदहिमवत्पर्वत के ऊपर वजानकूट का निरूपण क्षुद्रहिमान् वर्षधरपर्वत से विभक्त हैमवक्षेत्र का वर्णन क्षेत्रविभाजक पर्वत का निरूपण हैमवत वर्ष के नामादि का निरूपण उत्तर दिशा के सीमापारी वर्षधर पर्वत का निरूपण महापमहृदपर्वत का निरूपण हिमवत्वपंपरपर्वत के ऊपर स्थित कूट का निरूपण हरिवप क्षेत्र का निरूपण निषधनाम के धरपर्वत का निरूपण तिगिच्छहृद के दक्षिण में वहनेवाली नदी का वर्णन महाविदेह वर्ष का निरूपण गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का निरूपण उत्तर कुरु का निरूपण यमका राजधानीयां का वर्णन नीलवन्तादि हृद का वर्णन २२ सुदर्शन जम्बू का वर्णन ه ه ه ه ه ه १०१-११७ ११७-१२० १२१-१२९ १३०-१३७ १३८-१५४ १५४-१६५ ه ه ه ه ه ه १७६-१९३ १९४-२४६ २४७-२५३ २५४-२८९ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९-३०० ३००-३०९ ३.९-३४० ३४०-३४७ ३४७-३७८ ३७८-३८८ ३८८-३९८ ३९८-४०० ४०१-४०४ ४०४-४११ उत्तर कुरु नामादि का निरूपण हरिस्सह कूट का निरूपण विभाग के क्रमसे कच्छादिविजय का निरूपण चित्रकूट वक्षस्कार का निरूपण दूसरा सुकच्छविजय का निरूपण दूसरा विदेह विभाग का निरूपण सौमनस गजदन्त पर्वत का निरूपण चित्रविचित्रादिकूटों का निरूपण कूटशाल्मलीपीठ का निरूपण चौथा विद्युत्प्रभ नामके वक्षस्कार का निरूपण महाविदेह वर्ष के दक्षिण पश्चिम में तीसरे विभाग के अन्तर्वति विजयादि का निरूपण मेरुपर्वत का वर्णन नन्दनवन का वर्णन सीमनसबन का वर्णन पण्ड कवन का वर्णन पण्डवन में स्थित अभिषेक शिलाका वर्णन मन्दरपर्वत के कांड (विभाग) संख्या का कथन समय प्रसिद्ध मंदरपर्व के सोलह नामका कथन नीलवन्नाम के वर्षधर पर्वत का निरूपण रम्यक नामके वर्ष-क्षेत्र का निरूपण पांचवां वक्षस्कार जिन जन्माभिषेक का वर्णन ऊर्ध्वलोक निवासिनी महत्तरिका दिशाकुमारीका अवसर प्राप्त कर्तव्य का निरूपण ४१३-४२३ ४२३-४५० ४५.-४६६ ४६६-४७० ४७१-४९३ ४७१-४९३ ४९३-४९९ ४९९-५०६ ५०७-५१७ ५१७-५४२ ५४२-५६८ ५६८-५७९ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ ५७९-६०३ ६०४-६३१ पूर्वदिशा के रुचकपर्वत स्थित देवियों का अवसर प्राप्त कर्तव्य का निरूपण अवसर प्राप्त इन्द्रकृत्य का निरूपण शक्र की आज्ञानुसार पालक देव के द्वारा की गई विकुर्वणादि का निरूपण यानादि का निष्पत्ति के पश्चात् शक्र के कर्तव्य का निरूपण ईशानेन्द्र का अवसर प्राप्तकार्य का निरूपण भवनवासी चमरेन्द्रादि का वर्णन अच्युतेन्द्र द्वारा की गई अभिषेक समग्री संग्रह का वर्णन अच्युतेन्द्रकृत तीर्थकराभिषेक का निरूपण अभिषेक कथनपूर्वक आशीर्वचन का कथन शक्र कृतकृत्य होकर भगवान के जन्मनगरप्रतिप्रयाण का कथन छटा वक्षस्कार जम्बूद्वीप के चरम प्रदश का निरूपण दश द्वारों से प्रतिपाद्य विषय का कथन ६३२-६४२ ६४२-६६३ ६६४-६७३ ६७३-६८५ ६८५-६९५ ६९५-७२० ७२१-७२६ ७२६-८४८ ५६ ७४९-७५४ ७५५-७९२ समाप्त. 5 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પાલણપુર નિવાસી શ્રી લક્ષ્મીચંદભાઈ જસકરણભાઈ જરીનું જીવનચરિત્ર પાલણપુરમાં જન્મેલા અને આજીવન સુધી પોલગપુરમાં રહેલા સંતસાધુઓ અને મહાસતીજીની સેવાઓમાં સમય આપી રહેલા હતા સ્થાનકવાસી જૈન ધર્મના ચુસ્ત પાલક અને સાધમી ભાઈ-બહેનની સેવા કરતા હતા. તેઓ અમદાવાદના શાણીતા વકીલ અને પૂજ્ય મહાત્મા ગાંધીજીના સાથીદાર કાળીદાસભાઈ જસકરણભાઈ ભજવેરીના નાનાભાઈ થતા હતા, પાલણપુરમાં સ્થાનકવાસી સમાજના જ હતા. આ પુસ્તક ઘણી જ ધર્મભાવનાવાળું છે અને તેથી જ અમારા પિતાજી લક્ષમીચંદભાઈ જસકરણભાઈ જવેરી ત્થા અમારા ભાઈ કીરતીલાલ ઉમીચંદભાઈ જવેરીની યાદી જળવાઈ રહે તેવી ભાવનાથી અમે આ પુસ્તક છપાવવા માટે દાન આપી અમારી જાતને અમો ભાગ્યશાળી સમજીએ છીએ. લી. લક્ષ્મીચંદભાઈ જસકરણભાઈ જવેરીની સુપુત્રી બેન મંજુલાબેન અને બહેને Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीतरागाय नमः श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलाल महाराज विरचितया प्रकाशिकाख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥श्री-जम्बूद्वीपसूत्रम् ॥ __ (द्वितीयो भागः) अथ चतुर्थवक्षस्कारःमूलम्-कहि णं भंते ! जंबदीवे दीवे चुल्लहिमवए णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! हेमवयस्स वाप्सस्स दाहिणेणं भरहवासस्स उत्तरेणं पुरस्थिम लवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे चुल्लाहिमवंते णामं वासहरपळवए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिपणे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पञ्चथिमिल्लाए कोडीए पञ्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे एगं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं पणवीसं जोयगाइं उव्वेहेणं एगं जोयणसहस्सं बावण्णं च जोयणाई दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणंति । तस्स वाहा पुरस्थिमपञ्चत्थिमेगं पंच जोयणसहस्साई तिष्णि य पण्णासे जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसइभाए जोषणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं, पाईणपडिणायया जाव पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुटा, चउठवीसं जोयणसहस्साइं णव य बत्तीसे जोयणसए अद्धभागं च किंचि विसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता, तीसे धणुपुढे दाहिणेणं पणवीसं जोयणसहस्साइं दोणिय तीसे जोयणसए चत्तारि य एगूणवीसइमाए जोयणस्त परिक्खेवेणं पण्णत्ते रुयगसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे साहे तहेव जान पडिरूवे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुण्ह वि पमाणं ज०१ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वण्णगोत्ति । चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव बहवे वाण मंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाब विहरति । सू० १॥ छाया-क्व खल भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुद्रहिमवान् नाम वर्षधरपर्यतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! हैमवतस्य वर्षस्य दक्षिणे भरतस्य वर्षस्य उत्तरे पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पाश्चात्ये पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पौरस्त्ये अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुद्राहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयतः उदीचीन दक्षिण विस्तीर्णः द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः पौर. स्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, एक योजनशतम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चविंशतिः योजनानि उद्वेधेन एक योजनसहस्रं द्विपञ्चाशत् च योजनानि द्वादश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्मेणेति, तस्य बाहे पौरस्त्यपाश्चात्येन पञ्च योजन सहस्राणि त्रीणि च पश्चाशत् योजनशतानि पञ्चदश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्ध भागं च आयामेन, तस्य जीवा उत्तरे प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयता यावत् पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा चतुर्विशतिः योजनसहस्राणि नव च द्वात्रिंशानि योजनशतानि अर्द्धभागं च किश्चिद्विशेषोना आयामेन प्रज्ञप्ता, तस्याः धनुष्पृष्ठं दक्षिणे पञ्चविंशतिः योजनसहस्राणि योजनस्य परिक्षेपेण प्रज्ञतम् रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्वकनकमयः अच्छः श्लक्ष्णः तथैव यावत् प्रतिरूपः उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तः, द्वयोरपि प्रमाणं वर्णक इति। क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलिङ्गपुष्कर इति वा यावद् बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्च आसते यावद् विहरन्ति ॥ सू० १॥ ___ 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादि । टीका-हे भदन्त ! जम्बद्वीपे द्वीपे-जम्बूद्वीपनामके द्वीपे 'चुल्ल हिमवए णामं क्षुद्रहिमवान्-क्षुद्रहिमवन्नामकः 'वासहरपव्यए' वर्षधरपर्वतः वर्षे पार्श्वद्वयस्थिते ये द्वे क्षेत्रे, तयोः धारकः क्षेत्रद्वयसीमाकारी स चासौ पर्वतः का-कस्मिन् प्रदेशे ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, तत्र भगवा चौथा वक्षस्कार प्रारंभ'कहिणं भंते ! जंधुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवए' इत्यादि । टीका-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवंते णामं वासहरपच्चए ? हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके ચેથે વક્ષસ્કાર પ્રારંભ'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवए' इत्यादि । टी -20 सूत्र १९ गौतभस्वामी प्रभुन २॥ प्रमाणे प्रश्न ४ो छ है-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे क्षुल्लहिमवंते णामं वासहरपव्वए ? ' ३ मत भूदी नाम: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १ क्षुल्लाहमवद्ववर्षधरपर्वतनिरूपणम् नाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'हेमवयम्स वासस्स दाहिणेणं' हैमवतस्य वर्षस्य क्षेत्रस्य दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि 'भरहस्स' भरतस्य तन्नामकस्य 'वासस्स उत्तरेणं' वर्षस्य उत्तरे उत्तरस्यां दिशि 'पुरथिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पूर्वलवणसमुद्रस्य 'पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स' पाश्चात्ये पश्चिमदिशि, पाश्चात्यलागसमुद्रस्य-पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्ये-पूर्वस्यां दिशि 'एत्थ णं' अत्र इह खलु 'जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते' जम्बूद्वीपे द्वीपे क्षुद्रहिमवान नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः? इत्यपेक्षायामाह-'पाईण पडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः प्राचीनप्रतीचीनयोः पूर्वपश्चिमयोः आयतः दीर्घः पुनः 'उदीणदाहिण विस्थिन्ने' उदीचीन दक्षिणविस्तीर्ण:-उदीचीन-दक्षिणयोः उत्तर दक्षिणयोः विस्तीर्णः विस्तारयुक्तः ‘दुहा' द्विधाः द्वाभ्यामनुपदं वक्ष्यमाणाभ्यां कोटिभ्यां 'लवणसमुदं पुढे.' लवणसमुद्रं स्पृष्टः आश्लिष्टः स्पृष्ट इत्यत्र कतरिक्त प्रत्ययः, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरथिमिल्लाए' पौरस्त्यया पूर्वस्या 'कोडीए' कोटयाअग्रभागेन 'पुनथिमिल्लं' पौरस्त्यं पूर्व 'लवणसमुई पुढे' लवणसमुद्रं स्पृष्टः पच्चथिमिल्लाए' पाश्चात्यया पश्चिमया 'कोडीए' कोटया 'पच्चस्थिमिल्लं' पाश्चात्यं-पश्चिमं 'लवणसमुदं पुढे' द्वीप में क्षदहिमवान् नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसे वर्षधर इसलिये कहा गया है कि यह अपने पास में रहे हुए दो क्षेत्रों की सीमा को करता है इसके उत्तर में प्रभु कहते है-(गोयमा ! हेमवयस्स वासस्स दाहिणे णं भरहस्स वासस्स उत्तरेण पुरथिम लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहरपब्धए पण्णत्त) हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप में स्थित क्षुद्रहिमवान् पर्वत भरत क्षेत्र की उत्तर दिशा में और हैमवत् क्षेत्र की दक्षिणादिशा में, तथा पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्व दिशा में कहा गया है। (पाईणपडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिपणे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरत्थि. मिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चદ્વીપમાં શુદ્ર હિમવાન નામક વર્ષધર પર્વત ક્યાં આવેલ છે? એ પર્વતને વર્ષધર એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે એ પિતાની પાસેના બે ક્ષેત્રની સીમાનું નિર્ધારણ કરે છે. मेन पाममा अनु ४३ छे-'गोयमा ! हेमवयस्स वासस्स दाहिणेणं भरहस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं वासहरपबए पण्णत्ते' हे गौतम ! मा भीम स्थित क्षुद्र હિંમવાન પર્વત ભરતક્ષેત્રની ઉત્તર દિશામાં અને હૈમવત ક્ષેત્રની દક્ષિણ દિશામાં તથા પૂર્વ દિગ્દર્તી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણસમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં मावेस छ. 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिण वित्थिष्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुहं पुढे पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे' Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे लवणसमुद्रं स्पृष्टः, 'एगं जोयण सयं उद्धं उबतेणं' एकं योजनशतम् उर्ध्वम् उच्चत्वेन उच्छ्रयेणं, 'पणवीस' पंचविंशतिः पञ्चविंशतिसंख्यकानि 'जोयणाई' योजनानि 'उव्वेहेणं' उद्वेधेनभूमिप्रवेशेन उच्चत्व चतुर्थभागस्यैव भूमिप्रविष्टत्वात्, 'एगं जोयणसहस्' एक योजन सहस्रं च पुनः 'बावण्णं च' द्विपञ्चाशत् द्विपञ्चाशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'दुवालसय ' द्वादश च ' एगूणवीस भार जोयणस्स विक्खं मेणंति' एकोनविंशति भागान् योजनस्य विष्कभेण विस्तारेण इति एतत् उच्चत्वोद्वेधविष्कम्भप्रमाणम् । अत्रोपपत्तिस्तु द्विवणि जम्बूद्वीपविस्तारस्य नवत्यधिकशतेन भागे हृते भवति (१०५२), क्षुद्रमिवतो भरताद् द्विगुणत्वात्, अत्र करणविधिर्मरत वर्षविष्कम्भवद् बोध्या, अथ छुद्रहिमवतो बादे आह- 'तस्स' तस्य पूर्वोक्तस्य क्षुद्रहिमवतः 'वाहा' बाहे- वाहू ते इव भुजवत्प्रदेशौ, बाहा शब्दोऽत्र औपचारिकः, थिमिल्लं लवणसमुद्दे पुढे ) यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण है यह अपनी दोनों कोटियों से लवणसमुद्र को छू रहा है पूर्व कोटि से पूर्व लवण समुद्र को और पश्चिम कोटि से पश्चिम लवण समुद्र को छू रहा है ( एवं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेरी) इसकी ऊंचाई १ सौ योजन की है (पणवीस जोयणाई उच्वेहेणं) २५ योजक का इसका उद्देध है अर्थात् यह जमीन के भीतर २५ योजन तक गया है ( एवं जोयणसहस्सं बावण्णं च जोयणाई दुवालस य एगूणवीसइ भाए जोयणस्स विक्खंभेणंति) इसका विस्तार १०५२, २ योजन प्रमाण है भरतक्षेत्रका प्रमाण ५२६६ योजन का है इससे दूना इस हिमवान् पर्वत का प्रमाण है ५२६ को दूना करने पर १०५२१२ योजन का प्रमाण आजाता है इसे हम यों भी कह सकते हैं कि जम्बूद्वीप के व्यास को दूना करके उसमें १९० का भाग देने पर इतना ही इसका प्रमाण निकल आता है ( तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेगं पंच जोयणसहस्साई तिण्णि ४ એ પર્યંત પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી લાંબે છે અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી વિસ્તી છે. એ પોતાના બન્ને છેડાએથી લવણસમુદ્રને સ્પશી રહ્યો છે. પૂ કેટથી પૂર્વ લવણુસમુદ્રને ये स्पर्शी रह्यो छे. पश्चिम अतिथी पश्चिम सवसमुद्रने मे स्पर्शी रहेस छे, 'एगं जोयणसयं उर्दू उच्चत्तेणं' सेनी या १ सो योजन भेटली छे. 'पणवीसं जोयणाई उब्वेहेणं' ૨૫ ચેાજન આના ઉદ્વેષ છે. એટલે કે એ તો જર્મીનની અંદર ૨૫ ચેાજન સુધી पहेथितेो छे. 'एगं जोयणसहस्सं बावण्णं च ओयणाई दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणंति' आना विस्तार १०५२ योवन प्रभाणु है भरतक्षेत्र प्रभा पर ચેાજન જેટલુ` છે. એના કરતાં બમણું આ હિમવાન્ ય તનું પ્રમાણ છે. પર૬૯ને એથી ગુણાકાર કરીએ તે ૧૦પરર્ યાજન પ્રમાણ થાય છે. આ અંગે આપણે આમ પણ કહી શએ છીએ કે જ ખૂદ્વીપના વ્યાસને દ્વિગુણિત કરીને તેમાં ૧૯૦ ને ભાગાકાર કરીએ તા એટલું જ આનું પ્રમાણુ આવી જાય છે. 'तस्स वाहा पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १ क्षुल्लहिमवद्वर्षधरपर्वतनिरूपणम् च प्रत्येकं 'पुरस्थिमपच्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपश्चिमे - पूर्वपश्चिमयो: 'पंच' पञ्च पञ्चसंख्यानि 'जोयणसहस्सा ई' योजनसहस्राणि 'तिष्णि य' त्रीणि च 'पण्णासे जोयणसए' योजनशतानि पञ्चाशदिति पञ्चाशदधिकानि पण्णरस य' पञ्चदश च 'एगूणवीस इभाए जोयणस्स' योजनस्य एकोनविंशतिभागान् 'अद्धभागं च' अर्द्धभागम् - एकस्य योजनैकोनविंशतितमभागस्यार्द्धं च 'आयामेणं' आयामेल- दैर्येण प्रज्ञप्ते, स्थापना यथा - ५३५०१ । अस्य व्याख्यानं चतुर्दशसूत्रगत वैतान्याधिकारे द्रष्टव्यम् । एतत्सूत्रस्य तत्सूत्रप्रायत्वात् । अथास्य जीवामाह'तस्स जीवा' इत्यादि, 'तस्स' तस्य - क्षुद्रहिमवतः 'जीवा' जीवा - धनुर्ज्या सेव जीवा धनुयवत्प्रदेशः 'उत्तरेणं' उत्तरे - उत्तरस्यां दिशि गता 'पाईण पंडिणायया' प्राचीन प्रतीचीनाssयता पूर्वपश्चिमदीर्घा, पुनः सा कीदृशी ? इत्यपेक्षायामाह - ' जाव' यावत् - यावत्पदेन 'पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा' इति ग्राह्यम् । एतच्छाया-'पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा' एतद्विवरनं स्पष्टम्, 'पच्चथिमिलाए कोडीए' पाश्चात्यया कोटया 'पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा' पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा, 'चउन्चीसं' चतुर्विंशतिः - चतुर्विंशति संख्यानि 'जोयणसहस्साई' याजनसहस्राणि च पुनः 'णव य' नव-नवसंख्यानि 'बत्ती से जोयणसर' योजनशतानि द्वात्रिंशदिति द्वात्रिंशदधिकानि 'अद्धभागं' अर्द्धमागम् एकस्य यो जनैकोनविंशति भागस्याद्वै च 'किचिविसेसूणा' किञ्चिय पण्णासे जोयणसए पण्णरसय एगूणबी सहभाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं) इसकी पूर्व पश्चिम की दोनों भुजाएं लम्बाई में ५३५० योजन को हैं, तथा १ योजन के १९ भागो में १५३ भाग प्रमाण है इसका व्याख्यान वैतायाधिकार के सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्त जीवा उत्तरे गं पाई पडोणायया जाव पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमल्लं लवणसमुदं पुष्ठा चउव्वीसं जोयणसहस्साई णवय वत्ती से जोषणसए अद्वभागं च किंचिविसरणा आयामेणं पण) इस क्षुद्र हिमवत्पर्वत की उत्तरदिशागत गोवा-धनुष की ज्या के जैसा प्रदेश- पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है यावत् वह अपनी पूर्वदिग्गत कोटी से पूर्व लवण समुद्र को पश्चिमदिग्गतकोटि से पश्चिमलवणसमुद्र को छू रहा है पंच जोयणसहस्साई तिष्णिय पण्णासे जोयणसए पण्णरस य एगूणबीसभाए जोयणस्स अद्वभागं च आयामेणं' से पर्वतनी पूर्व पश्चिमनी भन्ने मुनयो 'माईमा ५३५० યેાજન જેટલી છે તેમજ એક યાજનના ૧૯ ભાગોમાં ૧૫ ભાગ પ્રમાણ છે. એ अगेनुं व्याभ्यान वैताढ्याधिहारना सूत्रमाथी लगी सेवु ले से. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पोईण पडीणायया जात्र पच्चत्थिमिल्लाए कोडींए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्टा चउबीसं जोयणसहस्सा हूं णत्रय बत्तीसे जोयणसए अद्वभागं च किंचिविसेसूणा आयामेगं पण्णत्ता' मा क्षुद्र हिभवान् पर्वर्तनी उत्तर दिशागत वा धनुषनी प्रत्यया भेना प्रदेश પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી લાંબા છે, યાવત્ તે પોતાનાં પૂર્વ દિગ્દત ટિથી પૂર્વ લવણ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे द्विशेपोना किश्चिदना, 'आयामेणं-पण्णत्ता' आयामेन प्रज्ञप्ता किश्चिदूनत्वं चास्या आनेतुं वर्गमूले कृते शेषोपरितनराश्यपेक्षया बोध्यम् अथास्याः परिक्षेपमाह-'तीसे धणुपुट्टे' इत्यादि, 'तीसे" तस्याः क्षुद्रहिमवज्जीवायाः 'धणुपुढे' धनुष्पृष्ठम्-धनुष्पृष्ठभागाकारप्रदेशः 'दाहिणेणं' दक्षिणे दक्षिणस्यां दिशि 'पणवीसं' पञ्चविंशतिः 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोण्णिय' द्वे च 'तीसे जोयणसए' योजनशते त्रिंशदिति त्रिंशदधिके 'चत्तारी य' चतुरश्च 'एगृणवीसइभाए' एकोनविंशतिभागान 'जोयणस्स' योजनस्य २५२३४२ परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना वर्तुलतमा 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ।। ___अथै क्षुद्रहिमवन्तं वक्ष्यमाणविशेषण वर्णयति 'रुयगसंठाणसंठिए' इत्यादि, 'रुयग. संठागसंठिए' रुचकसंस्थानसंस्थितः रुचकमिहसुवर्णाभरणविशेषः तस्य यत्संस्थानम् आकारस्तेन संस्थितः वलयाकार इत्यर्थः, पुन: 'सबकणगामए' सर्वकनकमयः सर्वात्मना कनकमयः स्वर्णमयः 'अच्छे सण्हे' अच्छः लक्ष्णः 'तहेव' तथेव पूर्ववदेव 'जाव पडिरूवे' यावत् प्रतिरूपः-प्रतिरूप इति पदपर्यन्तानामत्र संग्रहो बोध्या, तथा च 'लष्टः घृष्टः नीरजाः निर्मलः निष्पः निष्कङ्कटच्छायः सप्रभः समरीचिकः सोद्योतः प्रासादीयः दर्शनीयः यह जीवा २४९३२ योजन और एक योजन के अर्धभाग से कुछ कम लम्यो है (तीसे धणुप्पटे दाहिणेणं पणवीसं जोयणसहस्साई दोणिय तीसे जोयण सए चत्तारिय एगूणवीसहभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्त) इस क्षुद्रहिमवत् पर्वत की जीवा का धनुष्ठ दक्षिण पार्श्व में २५२३० योजन का परिधिकी अपेक्षा से कहा गया है (अगसंठाणसंठिए सावकणगामए अच्छे सणे, तहेव जाव पडिरूबे) इस क्षुद्र हिमवत पर्वत का संस्थान रुचक सुवर्ग के आभरणविशेष -का जैसा संस्थान होता है वैसा ही है-यह पर्वत स्वभावतः अच्छ-स्वच्छ और इलक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है यहां यावत्पद से-"लष्टः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजाः, निर्मलः, निष्पङः, निष्कंकटच्छायः, सप्रभः, समरीचिकः सोद्योतः, प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः' इन-पदों का संग्रह हुआ है इन पदों સમુદ્રને સ્પશા રહ્યો છે. આ જીરા ૨૪૯૨ યે જન અને એક જન અર્ધ ભાગ ४२ता ४४४ २५६५ aiभी छ. 'तीसे धणुप्पुढे दाहिणेणं पणवीसं जोयणसहस्साइं दोण्णिय तीसे जोयणसए चत्तारिय एगूणवीसइभ ए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते' से क्षुद्र हिमवत् પર્વતની જીવાન ધનુપૃષ્ઠ દક્ષિણ બાજુએ ૨૫૨૩૦ એજન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે ते परिधिनी अपेक्षा ४ ४३ . 'रुअगसंठाण संठिए सव्वकणगामए अच्छे सण्णे, तहेव जाब पडिरूवे' से क्षुद्र भिवत् पनि संस्थान 34 सुपना माम२३ विशेष સંસ્થાન હોય છે, તેવું જ છે. એ પર્વત સ્વભાવતઃ અ૭–સ્વચ્છ અને લહણ છે, यावत् प्रति३५ छ. २ यावत् ५४थी 'लष्टः, घृष्टः, मृष्टः नीरजाः, निर्मलः, निष्पंकः निष्कंटकच्छायः, सप्रभः समरीचिकः, सोद्योतः, प्रसादीय, दर्शनीयः, अभिरूपः' थे ५४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १ क्षुल्लहिमवर्षधरपर्वतनिरूपणम अभिरूपः इत्येषां सङ्ग्रहः फलितः। एतद्व्याख्याऽत्रैव चतुर्थसूत्रे जगती वर्णने प्रोता, साऽत्र लिङ्गव्यत्ययेन वाच्या स पुनः 'उभओ' उभयोः द्वयोः 'पासिं' पार्श्वयोः 'दोहिं' द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्यां च पुनः 'दोहि य वणसंडे हिं' द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः संपरिवेष्टितोऽस्ति, तद्वेष्टनभूतयोः 'दुण्ह वि पमाणं' द्वयोरपि प्रमाणं 'वण्णगोत्ति' वर्णकश्चैतद्वयं चतुर्थपंचम सूत्रव्याख्यातो वोध्यम् इति । अस्य 'चुल्लदिम वंतस्स वासहरपव्ययस्स' क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य 'उवरि' उपरि-ऊचे शिखरे 'बहुसमरमणिज्जे बहुसमरमणीयः-अत्यन्तरमणीयः 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः तद्वर्णनायाह'से जहा नामए' इत्यारभ्य 'जाव विहरंति' इत्यन्तं सर्व विवरणं पष्ठसूत्रतो बोध्यम् ॥सू० १॥ की व्याख्या यही ४ थे सूत्र में जगती के वर्णन के प्रसङ्ग में कही जा चुकी है अतः लिङ्गव्यत्यय करके उसे यहां व्याख्या के रूप में ग्रहण कर लेना-चाहिये (उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुण्ह वि पमाणं वण्णगोत्ति) यह क्षुद्रहिमवत् पर्वत दोनों ओर दो पद्मवर वेदिकाओं से और दो वनषण्डों से घिरा हुआ है इन वनषण्डों का वर्णन एवं प्रमाण चतुर्थ पंचम सूत्र की व्याख्या से जानलेना चाहिये (क्षुल्लहिमवंतस्स वासहर पव्वयस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णामए आलिङ्गपुक्खरेइ वा जाव बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति जाव विहरंति) इस क्षुद्रहिमवत् वर्षधर पर्वत के ऊपर का भूमि भाग बहसमरमणीय है और वह ऐसा बहुसमरमणीय है कि जैसा आलिङ्ग पुष्कर-मृदङ्ग का मुख होता है यावत् यहां अनेक वान व्यन्तरदेव और देवियां उठती बैठती रहती है। इस विवरण को जानने के लिये छट्ठा सूत्र का विवरण देखना चाहिये ॥सू०१॥ સંગ્રહીત થયા છે. આ પદોની વ્યાખ્યા એજ ૪ થા સૂત્રમાં જગતીના વર્ણન પ્રસંગમાં કહેવામાં આવેલ છે. એથી લિંગ વ્યત્યય કરીને અત્રે વ્યાખ્યા રૂપમાં ગ્રહણ કરી લેવી नसे. 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते दुण्ह वि पमाणं वण्णगोत्ति' से क्षुद्र भिवत् पर्वत मन्ने त२६ मे ५५१२ माथी मने मे વનખંડથી આવૃત્ત છે. એ વનખંડેનું વર્ણન અને પ્રમાણ ચતુર્થ અને પંચમ સૂત્રની व्यायामांथी ajी देवु नये. 'क्षुल्ल हिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिङ्गपुक्खरेइवा जाव बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओय आसयंति जाव विहरंति' से क्षुद्र हिमवत् वर्ष ५२ पतन। ५२ने भूमि माग બહુસમ રમણીય છે અને તે એ બહુસમરમણીય છે કે જેવું આલિંગ પુષ્કર–મૃદંગનું મુખ હોય છે. યાવત્ અહીં અનેક વાનવ્યંતર દેવ અને દેવીઓ ઉઠે છે બેસે છે. એ અંગેનું વિવરણ ષષ્ઠ સૂત્રમાં આપવામાં આવેલ છે. | સૂ.- ૧ છે Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ क्षुद्रमिवच्छिखरस्थित भूमिभागवर्त्ति पद्मदं वर्णयितुमाह-- ' तस्स णं' इत्यादि । मूलम् - तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदे सभाए एत्थ णं इक्के महं पउलदहे णामं दहे पण्णत्ते, पाईणपडिगायए उदीण दाहिणवित्oिणे इकं जोयणसहस्सं आया मेगं, पंच जोयणसयाई विभे गं, दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सपहे रययामयकूले जाव पासाईए जाव पडिरूवेत्ति से णं एगाए पउमवरखेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते वेइया वणसंडवण्णओ भाणियव्वोत्ति । तस्स णं पउमदहस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णावासो भाणियव्वोत्ति । तेसि णं तिसोवाणपडिरुवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता, तेणं तोरणा णाणामणिमया, तस्स णं पउमदहस्त बहुत ज्झदेसभाए एत्थ महं एगे पडले पण्णत्ते, जोयणं आयामविभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेगं दस जोयगाई उठचेहेणं दो कोसे उलिए जलताओ साइरेगाई दस जोषणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ते । से णं एगए जगईए सओ समता संपरिक्खित्ते जंबुद्दीवजगइप्पमाणाTarance वि तह चेत्र पत्राणेति । तस्स णं पउमस्स अयमेरूवे वणवा पण्णत्ते, तं जहा- वइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलिया ए जाले, वेरुलियामया बाहिरपत्ता, जंबूणयामया अभितरपत्ता, तवगिज्जतया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरट्टिभाया, कणगामई कण्णिगा, साणं अजोयणं आयामविवखंभेणं कोसं बाहल्लेणं, सकणगामई अच्छा । तीसे णं कणियाए उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा ॥ सू० २ ॥ ६ छाया - तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु एको महान् पद्महृदो नाम हूदः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः एकं योजनसह समायामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन, अच्छः श्लक्ष्णः रजतमयकूलः यावत् प्रासादीयः यावत् प्रतिरूप इति । स खलु एकया पावरवेदिकया एकेन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पद्महृदनिरूपणम् च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः । वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्य इति । तस्य खल पद्महस्य चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि वर्णावासो भणितव्यः इति । तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं २ तोरणाः प्रज्ञप्ताः । ते खलु तोरणाः नानामणिमयाः तस्य खलु पद्महूदस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र महद् एकं पद्मं प्रज्ञप्तम्, योजनमायामविष्कम्भेण, अर्द्धयोजनं बाहल्येन, दश योजनानि उद्वेधेन, द्वौ क्रोशावुच्छ्रितम्, जलान्तात् सातिरेकाणि दश योजनानि सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तानि । तत् खलु एकया जयत्या सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, 'सा च जगतो' जम्बूद्वीप जगती प्रमाणा, गवाक्षककोऽपि तथैव प्रमाणेनेति । तस्य खलु पद्मस्य अयमेतद्रूषो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयानि मूलानि, रिष्टमयः कन्दः, वैडूर्यमयं नालं वैडूर्यमयानि बाह्यपत्राणि, जाम्बूनदमयानि आभ्यन्तरपत्राणि तपतीयमयानि केसराणि नानामणिमयाः पुष्करास्थिभागाः, कनकमयीकर्णिका । सा खलु अर्द्ध योजनम् आयामविष्कम्भेण, क्रोशं बाहल्येन, सर्व कनकमय अच्छा, तस्याः खलु कर्णिकायाः उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलिङ्गपुष्कर इति ।। सू० २|| टीका- ' तस्स ' इत्यादि । ' तस्स णं बहुसमरमगिज्जस्स' तस्य क्षुद्रहिमवतः खल बहुसमरमणीयस्य 'भूमिभागस्य बहुमज्झदेसमाए' भूमिभागस्य वहुमध्यदेशभागे अत्यन्त - मध्यभागे 'एत्थ णं' अत्र इह खलु 'एके महं पउमदहे णामं दहे पण्णत्ते' एको महान् बृहन् पद्महूदः तन्नामकः हूदः प्रज्ञप्तः, स च कीदृश: ? इत्यपेक्षायामाह - ' पाईणपडिणायए' प्राचीनप्रतीचीनायतः - पूर्वपश्चिमयोर्दीर्घः 'उदीणदाहिणवित्थिणे' उदीचीन दक्षिणवीस्तीर्णः पद्म हृदका वर्णन 'तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्त बहुमज्झदेस भाए एत्थणं इक्के'इत्यादि । टीकार्थ - (तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झ देसभा ए) उस क्षुल्ल हिमवंत पर्वत के बहुसमरमणीय भूमि भाग के ठीक बीच में (एत्थ णं एगे महं पउमद हे णामं दहें पण्णत्ते) एक विशाल पद्मद्रह नामका द्रह कहा गया है ( पाईण पडणायए उदीण दाहिण वित्थिष्णे एगं जोषणसहस्सं आयामेणं, पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले जाव પદ્મહદનું વર્ણન 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं इक्के' इत्यादि टीडार्थ - 'तरसणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' ते शुद्ध हिभवंत पर्वतना महुअभरभणीय भूमिभागनी ही पथ्ये 'एत्य णं एगे महं परमदहे णामं दहे पण्णत्ते' पेठ विशाल पद्मद्रह नाम द्रह छे. 'पाईण पईणायए उदीण दाहिणवित्थिष्णे एगं जोयण • सहस्सं आया मेणं, पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं, दम जोयणाई, उब्वेहेणं अच्छे सण्डे रययामय अ० २ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उत्तरदक्षिणयो विस्तारवान् ‘इकं जोयणसहस्सं आयामेणं' एकं योजनसहस्रमायामेन एक सहस्रयोजनपर्यन्तमायत इति भावः, 'पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं' पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण पञ्चशतयोजनपर्यन्तं विस्तारवान , 'दस जोयणाई उव्ये हेणं' दश योजनानि उद्वेधेनभूगतत्वेन । पुनः स 'अच्छे' अच्छा-आकाशस्फटिकवदति निमलः, 'सण्हे' श्लक्ष्णःचिक्कणः 'रययामयक्रे' रजतमय कूलः-रजतमयं कूलं तटं यस्य स तथा रजतमयतटः, 'जाव' यावत् - यावत्पदेन-'समतीरे वइरामयपासाणे तवणिज्जतले मुरण्णमुम्भरयणामयवालुए वेरुलियमणिफालियपडलपच्चोयडे सुहोयारे मुहुत्तारे णाणामणि तित्थसुबद्ध चाउकोणे अणुपुरसुनायवप्पगंभीरसीयलजले संछन्नपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुयसुभगसोगंधियपुंड. रीय सयवत्तफुल्लकेमरोवचिए छप्पयपरिभुज्जमाणकमले अच्छे बिमलसलिलपुण्णे परिहत्थभमंतमच्छकच्छभं अणेग सउणमिहुणपरिअरिए' इति संग्राह्यम् । एतच्छाया-"समतीरः वज्रमयपाषाणः तपनीयतलः सुवर्णशुभ्ररजतमयवालुकः वैडूर्यमणिस्फटिकपटलपच्चोयडः सुखावतारः सुखोत्तारः नानामणितीथसुबद्धः चतुष्कोणः आनुः पूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजला संउन्नपाविसमृणालः बहूल्पलकुमुदसुभग सौगन्धिकपुण्डपासाईए जाव पडिरूवत्ति) यह 'द्रह पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है तथा उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण है एक हजार योजन की इसकी लंबाई है तथा पांच सौ योजन का यह चौडा हैं इसकी गहराई १० योजन की है यह आकाश और स्फटिकके जैसा अच्छ--निर्मल है, श्लक्ष्ण-चिकना है इसका तट रजतमय है यहां यावत्पद से-'समतीरे, वामयपासाणे, तवणिज्जतले, सुवण्ण सुकभरयणामयबालुए, वेकलियमणि फालिय पडलपच्चोयडे सुहोयारे सुहुत्तारे, जाणामणितित्थसुबद्ध, चाउकोणे, अणुपुश्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजले, संच्छएणपत्तभिसमुणाले बहु उप्पलकुमुयसुभग सोगंधिय पुंडरीय सयवत्तफुल्लकेसरोवचिए, छप्पय परिभुज्जमाणकमले, अच्छविमलसलिलपुण्णे, परिहत्थभमंतमच्छकच्छभं, अणेग सउणमिहुणपरिअरिए" इस पाठ का संग्रह हुआ कूले जाव पासाइए जाव पडिरूवत्ति' से (५३) पूर्वथा पश्चिम सुधा सांभुछ ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એક “સહસ્ત્ર જન જેટલી એ કહની લંબાઈ છે. એ આકાશ અને સ્ફટિકના જેવો અછ-નિર્મળ છે, લકણ છે–ચિકકણ છે. આખ તટ २४तमय छे. 24 यातू ५:थी 'समतीरे वइरामयपासाणे, तवणिज्जतले सुवण्ण सुब्भरययामयवालुए, वेरुलियमणिकालिय पडलपच्चोयडे सुहोयारे, सुहुत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्धे चाउकोणे, अणुपुव्वसुजायचप्पगंभीरसीयलजले, संच्छण्णपत्तभिसमुणाले, बहु उप्पल कुमुय सुभय सोगंधिय पुंडरीय सयवत्त फुल्लकेसरोवचिए, छप्पयपरिभुज्जमोणकमले, अच्छ विमलसलिलपुण्णे परिहत्थभमंत मच्छकच्छभं अणेग सउण मिहणपरिअरिए' मा मखीत थयो . मा पानी या 241 प्रभा-निम्नता Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू० २ पद्महृदनिरूपणम् ११ रीक शतपत्र फुल्लकेसरोपचितः षट्पदपरिभुज्यमानकमल: अच्छविमलसलिलपूर्णः परिहस्तभ्रमन्मत्स्यकच्छपाने कशकुन मिथुनपरिचरितः" इति । एतद्वयाख्या - "समतीरः समानि निम्नोम्नतत्वरहितानि तीराणि तदानि यस्य स तथा वज्रमयपापाणः- वज्रमणिमयप्रस्तरः, तपनीयतलः तपनीयम् उत्तमजातीय सुवर्ण तन्मयं तलं यस्य स तथा सुवर्णशुभ्ररजत मयवालुका- शुभ्रं शुक्लं यत् सुवर्ण तच्च रजतं चेत्युभयमयी वालुका यस्य स तथा वैड्रमणिस्फटिकपटल-वैडूर्यमणीनां स्फटिकानां च यत् पटलं समूहः तन्मयः पच्चोय्ड :- तटसमीप वनतप्रदेशो यस्य तथा, 'पच्चोयड' इति देशीयः शब्दः पूर्वोक्तार्थकः । सुखावतारः सुखः सुखदः अवतारः जलप्रवेशो यस्य स तथा सुखोत्तारः - सुखद निर्गमनः, नानामणितीर्थ सुबद्धः नानामणिसुवद्धतीर्थः अत्र प्राकृतत्वात्सुबद्धशब्दस्य परप्रयोगः नानामणिभिः चन्द्रकान्तादि नानाविधमणिभिः सुवद्धं गुष्टुतयोपनिबद्धं तीर्थं 'घाट' इति प्रसिद्धं स्थलं यस्य स तथा । चतुष्कोणः चतुरस्रः आनुपूर्व्यसुजातप्रगम्भीरशीतलजल: आनुपूर्येण क्रमेण सुजातं सुनिपनं वां पाली यस्य स तथा गम्भीरं शीतलं च जलं यस्य स तथा, उभयोः कर्मधारयः संछन्नपत्रबिसमृणालः संछन्नानि व्याप्तानि पत्रविमृणालानि यत्र स तथा बहूत्पलकुमुदसुहै इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार से है- निम्नता और उन्नत्व से रहित होने के कारण इसके तीर-नद-समान हैं वज्रमणिमय इसके पाषाण है उत्तमजातीय सुवर्णमय इसका तल भाग है । शुभ्र सुवर्णमय और रजतमय इसकी वालुका है इसके तटके समीपका जो उन्नतप्रदेश है वह वैडूर्यमणियों के और स्फटिकों के समूह से निष्पन्न हुआ जैसा है 'पच्चोयड' यह देशीय शब्द है इसमें प्रवेश करना सुखद है और इससे बाहर निकलना भी सुखद है इसके जो घाट हैं वे अधिक मणियों के द्वारा बनाये हुए हैं । प्राकृत होने से यहां सुबद्ध शब्द का पर प्रयोग हुआ है यह चौकोण है इसकी पाली क्रमशः वह क्रमशः निष्पन्न है - इसका जल गंभीर और शीतल है इसमें जो पत्र, बिस और मृणाल है वे सब छन्न है अर्थात् यह पत्र, बिस और मृणालों से व्याप्त है यह विकसित और केशरोपचित अनेक चन्द्रविकाशी कुवलयों से, कुमुदों से- कैरवों से, सुभगों से - सुन्दर कमलों से, सौगंधिकों से અને ઉન્નત્વથી રહિત હાવા બદલ એના કિનારાએ–ટા–સમાન છે. વજ્ર મણિમય એના પાષાણા છે. ઉત્તમ જાતીય સુવર્ણ નિતિ અને તલ ભાગ છે. શુભ્ર સુવર્ણમય અને રજતમય એની વાલુકા છે. એના તટની પાસેના જે ઉન્નત પ્રદેશ છે તે વૈણિઓના मने इटिओना समूहोथी निष्पन्न होय येवो छे. 'पच्चोयड' या देशीय शब्द छे. भां પ્રવિષ્ટ થવું સુખદ છે. અને એમાંથી બહાર નીકળવુ પણ સુખદ છે એના જે ઘાટા છે ते अधिक भणियों द्वारा निर्मित छे. आहेत होवाथी ही 'सुबद्ध' शब्दना प्रयोग थाय છે. એ ચોખ્ખણીયા છે. એની પાલી ક્રમશઃ નિષ્પન્ન થયેલી છે. એમાંનું પાણી ગંભીર અને શીતળ છે. એમાં જે પત્ર વિસ મૃણાલ છે તે સ છન્ન છે. એટલે કે એ હૃદ પત્ર, વિસ અને મૃણાલાથી વ્યાપ્ત છે. એ વિકસિત અને કેશરાપચિત અનેક ચંદ્ન વિકાશી કુવલયાથી Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भगसौगन्धिक पुण्डरीकशतपत्र फुल्लकेसरोपचितः फुल्लानि विकसितानि केसरोपचितानिकेसरयुक्तानि बहूनि उत्पलकुमुदसुभग सौगन्धिक पुण्डरीकशतपत्राणि तत्रोत्पलानि कुवलयानि चन्द्रविकाशीनि कमलानि कुमुदानि-कैरवणि, सुभगानि सुन्दराणि कमलानि सौगन्धि कानि कल हाराणि सुगन्धीनि कमलानि, पुण्डरीकाणि शुक्लकमलानि, शतपत्राणि-शतसंख्यपत्रयुकानि कमलानि चैतानि यत्र स तथा, अत्र विशेषणवाचकयोः फुल्ल केसरीपचितपदयोः पर प्रयोगःप्राकृतत्वाबोध्यः, पट्पदपरिसुज्यमान कमल:-भ्रमरलिह्य मानकमला, अच्छविमलसलिलपूर्णः-- अच्छविमलानि अति निर्मलानि यानि सलिलानि जलानि तैः पूर्णः भृतः परिहस्त भ्रम-मत्स्यकच्छपानेक शकुनमिथुनपरिचरितः परिहस्तं निपुण यथा स्यात्तथा भ्रमन्तः इतस्ततः पर्यटन्तः मत्स्याः कच्छपाश्च तथा अनेकेषां शकुनानां पक्षिणां यानि मिथुनानि स्त्री पुंसयुगलानि च, तैः परिचरितः सेवितः" इति । 'पासाईए जाव पडिरूवेत्ति' प्रासादीयो यावत् प्रतिरूपः प्रासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः प्रतिरूपः इत्येषां व्याख्या पूर्वगना । 'से णं एगाए पउमवरवेझ्याए' स पद्मदः खलु एकया पद्मवरपेदिकया 'एगेण य वणसंडेणं' एकेन च वनपण्डेन 'सयो' सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिशु 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः-परिवेष्टितः, अत्र 'वेश्यावणसंडवण्ण यो भाणियव्वोत्ति' वेदिका वनषण्डवर्णको भणितव्यः, तन्न वेदिका वर्णनं चतुर्थसूत्रतः वनपण्डवर्णनं च पञ्चमसूत्रतो बोध्यम् । -सुगंधितकमलों से, पुण्डरीकों से-शुभ्र कमलों से, शत पत्रों से शतसंख्यक पत्रवाले कमलों से युक्त है यहाँ-प्राकृत होने से विशेषण वाचक फुल्ल और केशरोपचितपदों का पर प्रयोग हुआ है इसके जो कमल हैं वे सा भ्रमरों द्वारा परिभुज्य हैं अतिस्वच्छ जल से यह परिपूर्ण है अच्छी तरह से यह इतस्ततः परिभ्रमण करते हुए भ्रमरों, से, कच्छपों से तथा अनेक पक्षियों के जोडों से सेवित हे 'प्रासादीय यावतू प्रतिरूप' आदि शब्दों की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है यहां यावत् शब्द से 'दर्शनीयः अभिरूपः' इन पदों का ग्रहण किया गया है यह पद्महूद सब तरफ से एक पद्मवरवेदिका से और एकवनषण्ड से परिक्षिप्त है-परिवेष्टित है वेदिका वर्णन चतुर्थ सूत्र से वनखण्डवर्णन કુમુદેથી, કેરાથી-સુભગોથી–સુંદર કમળથી, સૌધિકોથી–સુગંધિત કમળથી, પુંડરીકાથી શુભ્ર કમળથી, શતપથી-શત સંખ્યક પત્રવાળા કમળથી યુક્ત છે, અહીં પ્રાકૃત હવા मस विशेष पाय४ 'फुल्ल' मने 'केशरोपचित' पहने। प्रयोग येतो छ. योनी २५४२ જે કમળો છે તે બધાં ભ્રમરો દ્વારા પરિભૂજ્ય છે. અતિ સ્વચ્છ જળથી એ હુદ પરિપૂર્ણ છે. એ સારી રીતે ઈતસ્તતઃ પરિભ્રમણ કરતા ભ્રમરથી, કચ્છથી તેમજ અનેક પક્ષીसोना साथी सेवित छे. 'प्रासादीय यावत् प्रतिरूप' वगेरे शहानी व्याच्या पडता ४२वामा मावी छे. मी यावत् ५४थी. 'दर्शनीयः अभिरूपः' से पहे। यया छ. से પઘહુદ ચોમેર એક પદ્મપર વેદિકાથી અને એક વનખંડથી પરિક્ષિત છે–પરિવેષ્ટિત છે. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पद्मदनिरूपणम् 'तस्स णं पउमद्दहस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा' तस्य खलु पद्महदस्य चतुर्दशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानाम् आरोहावरोह साधनानां समाहारः त्रिसोपानं सोपानपङ्क्तित्रयं तद्वहुत्वे त्रिसोपानानि एकैकस्यां दिशि तिस्रस्तिस्रः सोपानपङ्कयः तान्येव प्रतिरूपकाणि सुन्दराकारसम्पन्नानि अत्र विशेषणपरप्रयोगः प्राकृतत्वात् तानि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि तेषां 'वण्णावासो' वर्णावासः वर्णन पद्धतिः 'भाणियव्वोत्ति' भणितव्यः वक्तव्य इति, स यथा - 'वइरामया निम्मा रिट्ठामया पट्टाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुपमया फलगा, वइरामया संधी, लोहितयखमईओ सूईओ, नाणामणिमया अवलंत्रणा, अवलंबणवाहाओ " एतच्छाया - "वज्रमयाः नेमाः रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि, वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि वज्रमयाः सन्धयः, लोहिताक्षमय्यः सूचयः, नानामणिमयानि अवलम्बनानि अवलम्वनवाहाः" इति । एतद्व्याख्या - तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां नेमाः द्वार भूमिभागादृध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः वज्रमयाः वज्ज्ररत्नमयाः प्रतिष्ठानानि - मूलपादाः रिष्टमयानि रिष्टरत्नमयानि, स्तपञ्चम सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्सणं पउमद्दहस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसो. वाणपडिख्वा पण्णत्ता) उस पद्महूद की चारों दिशाओं में सुन्दर २ त्रिसोपानसोपानत्रय है अर्थात् एक दिशा में तीन २ सुन्दर २ सीडियों है (वण्णावासोभाणिपव्वोत्ति-तेसिणं तिसोवाणपडिब्वगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता, तेणं तोरणां णाणामणिमया, तस्सणं पउमद्दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ महं एगे पउमे पण्णत्ते) इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्गादास वर्णनपद्धति - यहां कह लेना चाहिये जो कि इस प्रकार से है 'वइरामया निम्मा, रिट्ठामया पहडाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुपमया फलगा, वइरामया संधी, लोहितक्खमईओ सूईओ, नाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणवाहाओ' इन पदों को व्याख्या इस प्रकार से है - इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों के जो नेम-द्वारा भूमिभागवेहि वर्षान यतुर्थ सूत्रमाथी लागी सेवु लेध्ये 'तस्स णं पउमदहस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवा पण्णत्ता' ते पद्माट्टहनी थामेर सुंदर-सुंदर विसोपानत्रयी छे, मेटो ६२४ दिशाभां त्रष्णु-त्रा सुंदर सोयान पंक्ति छे. 'वण्णावासो भाणियव्वोत्ति-तेसिणं तिसोवाणपडिवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता, तेणं तोरणा णाणामणिमया, तस्स णं पउमद्दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ महं एगे पउमे पण्णत्ते' से त्रिसोपान प्रतियोनी वर्षान यद्धति मांगे अत्रे स्पष्टता आवश्य छे. ते प्रमाणे छे- 'बइरोमया निम्मा, रिट्ठामया पट्ठाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुपमया फलगा, वइरामया संधी, लोहित मईओ, सूईओ, नाणा मणिमया अवलंत्रणा अबलंबण वाहाओ' मे पहोनी व्याभ्या या प्रमाणे छे. એ ત્રિસેપાન પ્રતિરૂપકાના જે નૈમે-દ્વારભૂમિ ભાગથી ઉપરની તરફ ઉત્થિત પ્રદેશ છે તે १४भय हो, भनु प्रतिष्ठान-भूझपाह-शिष्ट रत्नभय हे स्तल वैडूर्य रत्नमय छे. 8 १३ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे म्माः-वैडूर्यमया:-वैडूर्यरत्नमयाः, फलकानि 'पाट' इति भाषा प्रसिद्धानि सुवर्णरूप्यमयानि, सन्धयः फलकाणां सन्धानानि वज्रमयाः वज्ररत्नमयाः, सूचयः-फलकद्वय सम्बन्धकारकाः पादुकास्थानीयाः लोहिताक्षमय्यः लोहितरत्नमय्यः अवलम्वनानि नानामणिमयानि अनेक. विधमणिमयानि, एवम् अवलम्बनवाहाः अवलम्बनभित्तयोऽपि 'तेसिणं' तेषां खलु 'तिसो. वाणपडिरूवगाणं' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां 'पुरओ' पुरत:-अग्रे 'पत्तेयं२' प्रत्येकम् २ एकैकस्य त्रिसोपानप्रतिरूपकस्याग्रे 'तोरणा पण्णत्ता' तोरणाः प्रज्ञप्ताः, 'तेणं तोरणा' ते खलु तोरणाः कीदृशाः ? इत्याह-'णाणामणिमया' नानामणिमयाः अनेकविधमणिमयाः, इत्यादि तोरणवर्णनमत्रैव सप्तमसूत्रे जम्बूद्वीपस्य विजयद्वारवर्णनव्याख्यायां द्रष्टव्यम् । ___स्स णं पउमदहस्स बहुमज्झदेसभाए' तस्य खलु पद्महृदस्य बहुमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यभागे 'एत्थ' अत्र अस्मिन् प्रदेशे 'महं' महत्-बृहत् 'एगे पउमे' एकं पद्म-कमलं पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् , तस्य यन्महत्त्वमुक्तं तत स्पष्टी करोति 'जोयणं' योजनं-योजमपरिमितम् 'आयामविखंभेग' आयामविष्कम्भेण दैर्ध्यविस्ताराभ्याम् 'अद्ध जोयणं' अर्द्धयोजनं योजन से ऊपर की ओर उठे हुए प्रदेश हैं वे वज्रमय है, इन के प्रतिष्ठान-मूल पादरिष्ट रत्नमय है स्तम्भ वैडूर्यरत्नमय हैं फलक-पटिये-इनके सुवर्णमय और रूप्यमय हैं अर्थात् गंगाजमूनी हैं संधी इनको वज्रमय है सूचियां इनकी लोहिताक्षरत्ननथ है इनके अवलम्बन और अवलम्बनवाहा-अवलम्बनभित्तियां अनेक प्रकार के मणियों की बनी हुई हैं। (तेसि णं तिसोवाण प०) प्रत्येक सोपानत्रयके (पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता) आगे तोरण कहे गये है' (तेगं तोरणा णाणामणिमया तस्सणं पउमद्दहस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ महं एगे पउमे पण्णत्ते) ये तोरण अनेकमणियों के बने हुए हैं इस पद्म द्रह के ठीक बोच में एक विशाल पम कहा गया है (जोधणं आयामविक्वं. भेणं अद्ध जोयणं बाहल्लेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं दोकोसे असिए जलंએના સુવર્ણમય અને રૂખ્યમય છે-અર્થાત્ ગંગાજમૂની છે. એની સંધી વજમય છે. સૂચિ લેહિતાક્ષ રત્નમય છે. એના અવલંબન અને એની અવલંબન વાહાએ અવલંબન मित्तिये। भने ४ रन मामाथी निमित छे. 'तेसिणं तिसोवाणप०' १२४ सोपानत्रयनी 'पुरओ पत्तेय २ तोरणा पण्णत्ता' मा ते.२ । छे. (म तारणेनु वन मही सक्षम सूत्रमा ४ मुदीपना वियद्वारना वनमा ४२वामां आवे छे.) 'तेणं तोरणा णाणा मणिमया तस्स णं पउमदहस्प बहुमझदेसभाए एत्थ महं एगे पउमे पण्णत्ते' से तारण। सने मशि. साथी निमित छ. ये पहनी ॥ १२ये ४ विश ५ . 'जोयणं आयामविक्खंभेणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ साइरेगाई दस जोयणाई 'इन तोरणों का वर्णन यहीं पर सप्तम सूत्र में जंबूद्वीप के विजय द्वार के वर्णन में किया गया है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पद्महृदनिरूपणम् स्या 'बाहल्लेणं' बाहल्येन पिण्डेन 'दस जोयणाई उव्वे हेणं' दश योजनानि उद्वेधेन जलावगाहेन जलान्तर्गतत्वेनेत्यर्थः 'दो कोसे उसिए' द्वौ क्रोशौ उचिटतम् उच्चत्वम् कुत उच्छितम् ? इत्याह-'जलंताओ' जलान्तात्-जलोपरिभागात् , एवं 'साइरेगाई' सातिरेकाणि साधिकानि 'दस जोयणाई दश योजनानि 'सव्वग्गेणं' सर्वाग्रेण सर्वप्रमाणेन ‘पण्णत्ते प्रज्ञप्तानि जलावगाहोपरितनभाग सत्कक्रोशद्वयरूपकमलमानमीलने एतावता एव सम्भवात् । 'से गं' तत् पद्मं खलु 'एगाए जगई ए' एकया जगत्या प्रकारकल्पया 'सव्यओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्त परिवेष्टितम् सा च पद्मपरिवेष्टन भूता जगती किम्प्रमाणा ? इत्याह-'जंबुद्दीवजगइप्पमाणा' जम्बूद्वीपजगती प्रमाणा जम्बूद्वीपस्य या वेष्टनभूता जगती तत्प्रमाणा तत्परिमिता बोध्या, तथाहि-ऊर्ध्वमुच्चत्वेनाष्ट योजनानि मूले विष्कम्भेण द्वादश योजनानि, मध्ये विष्कम्भेणाष्टयोजनानि, उपरि विष्कम्भेण ताओ, साइरेगाई दस जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ते) इस पद्म की लम्बाई और चोडाई एक योजन की मोटाइ इसकी आधे योजन की एवं उद्वेध इसका दश योजन का कहा गया है यह जलान्त से दो कोश ऊपर उठा हुआ है इस तरह इसका कुल विस्तार १० योजन से कुछ अधिक कहा गया है (सेणं एगाए जगतीए सव्वओ समंता संपरिक्वित्त जवुद्दीव जगइप्पमाणा गवक्खकडए वि तह-चेव पमाणेति तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णले, तं जहावहरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलियामए णाले, वेरुलियामया बाहिर पत्ता, जम्बूणयामया अम्भितरपत्ता, तवणिज्जमया केसरा, णाणामणिमधा पोक्खरद्विभाया, कणगामई कण्णिगा) वह कमल प्राकार रूप एक जगती से सब ओर से घिरा हुआ है यह पद्मपरिवेष्टन रूप जगतो जम्बू द्वीप जगती के बराबर है-जैसे इसकी ऊंचाई आठयोजन की है मृल में इसका विष्कम्भ १२ योजनका है मध्यमें इसका विष्कम्भ आठ योजन का है तथा ऊपर में इसका विष्कम्भ सव्वग्गेणं पण्णत्ते' से पानी as अन पहाणा के योगनरेटी सन. 13 अया જન જેટલી અને એને ઉઠેધ દશ જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે. એ જ લાન્તથી બે ગાઉ ઉપર ઉઠેલું છે. આ પ્રમાણે આને કુળ વિસ્તાર ૧૦ એજન કરતાં કંઈક અધિક ४पामा २मावेस छे. 'से णं एगाए जगतीए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते जंबुद्दीव जगइप. माणा गवक्खकडए वि तह चेव पमाणेति तस्स णं पउमस्स अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तं जहा वइरामया मूला, रिद्वामए कंदे, वेरुलियामए णाले वेरुलिया मया, बाहिरपत्ता जम्बूणया मया आभितरपत्ता तवणिज्जमया केसरा णाणामणिमया पोक्खरद्विभाया, कणगामई कण्णिगा' ते भ प्रा.२ ३५ ४ गतीथी याभेर मावृत्त छ. ये पापविष्टन રૂપ જગતી જંબુદ્વીપ જગતીની બરાબર છે. જેમકે એની ઊંચાઈ આઠ જન જેટલી છે, મૂળમાં એને વિઠંભ બાર યેજ જેલે છે. મધ્યમાં તેને વિખંભ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र चत्वारि योजनानि अतो मूले विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता, उपरि तनुकेति गोपुच्छ संस्थान संस्थितेति । एतच्च प्रमाणं जलादुपरिष्टाबोध्यम् , दशयोजनरूपजलावगाहनप्रमाणस्यात्रा विवक्षितत्वात् , 'गवक्खकडए वि' गवाक्षकटको अपि जालसमूहोऽपि 'तहचेव पमाणेति' तथैव प्रमाणेन उच्चत्वेनाद्धयोजनम् विष्कम्भेण पञ्चधनुःशतानीत्यर्थः। ___ अथ पद्मवर्णकमाह-'तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे' तस्य खलु पद्मस्य अयमेतद्रूप: वक्ष्यमाणरूपः 'वण्णावासे' वर्णावासः वर्णनपद्धतिः ‘पण्णते' प्रज्ञप्तः, 'तं जहा वज्जमया' तद्यथा-वज्रमयानि वज्ररत्नमयानि 'मूला' मूलानि कन्दादधस्तिर्यनिःमृतजटाजूटावयवरूपाणि 'रिटामए' रिष्टमयः-रिष्टरत्नमयः 'कंदे' कन्दः मूलनालमध्यवर्ती ग्रन्थिः, 'वेरुलि. यामए' वैटयमय-वैडूयरत्नमयं ‘णाले' नालं-कन्दोपरि मध्यवर्त्यवयवः, 'बेरुलियामया' वडूयमयानि 'बाहिरपत्ता' बाह्यपत्राणि अत्राऽयं विशेषोऽन्यत्र वाह्यानि चत्वारि पत्राणि वैडूर्यमयानि अवशिष्टानि तु रक्तसुवर्णमयानीति 'जंबूणयामया' जाम्बूनदमयानि ईपद्रक्तचारयोजन का है इसका कारण यह मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतली हो गई है अतएव इसका आकार गोपुच्छ के जैसा हो गया है यह जो जगती का प्रमाण कहा है वह जल से ऊपर उठी हुइ जगती का प्रमाण कहा है क्यों कि यह जल के भीतर १० योजन तक गइ है सो वह प्रमाण यहां विवक्षित नहीं हुआ है इस जगती मे जो गवाक्षकटक-जालक समूह है वह भी ऊंचाई में आधे योजन का है और विष्कम्भ में ५०० धनुषका है, इस पद्म का वर्णावास-वर्णन पद्धति-इस प्रकार से है-जैसे-इसके मूल-कन्द से नीचे, तिरछे निकले हुए जटा जूटरूप अवयवविशेष-रिष्ट रत्नमय हैं कन्द-मूल-नाल को मध्यवर्ती गांठ-इसका वैडूर्यरत्नमय है नाल-कन्द के ऊपर मध्यवर्ती अवयव-वैडूर्यरत्नमय है बाह्य पत्र भी इसके वैडूर्यरत्नमय ही हैं यहां इतनी विशे આઠ યોજન જેટલો છે. તેમજ ઉપરમાં અને વિષ્કભ ચાર જન એટલે છે. એથી મૂળમાં એ વિસ્તૃત મધ્યમાં સંક્ષિપ્ત અને ઉપર પાતળી થઈ ગઈ છે. આને આકાર ગોપુછ જેવો થઈ ગયે છે. આને અત્રે જગતનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. તે પાણીથી ઉપરની તરફ ઉસ્થિત જગતીનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે એ પાણીની અંદર ૧૦ જન જેટલી પહેચેલી છે, તેથી તે પ્રમાણ અત્રે વિક્ષિત નથી. એ જગતીમાં જે ગવાક્ષ ક જાલક સમૂહ છે–તે પણ ઊંચાઈમાં અડધા જન એટલે છે. અને વિખંભમાં ૫૦૦ ધનુષ જેટલો છે. એ પદ્મની વર્ણન પદ્ધતિ આ પ્રમાણે છે એના મૂળે કન્ટથી નીચે ત્રાંસા બહિઃ નિરુત જટાજૂટ રૂપ અવયવ વિશેષ-રિષ્ટ રત્નમય ચે. એનું કેન્દ-મૂળ નાવની મધ્યવતી ગાંઠ વેડૂર્ય-રત્નમય છે. નાલ–કન્દની ઉપર આવેલ મધ્યવર્તી અવયવ-વૈર્યરત્નમય છે. એના બાહ્યપત્રે પણ પૂર્યરત્નમય છે. અહીં આટલી વાત વિશેષ સમજવી કે બહારના પત્રમાંથી ચાર પત્રો વડૂર્યનમય છે અને શેષ પત્ર Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २ पद्महृदनिरूपणम् सुवर्णमयानि 'अभितरपत्ता' अभ्यन्तरपत्राणि क्वचित्तु पीतस्वर्णमयान्युक्तानि तथा 'तवणि. जमया' तपनीयमयानि रकवर्णस्वर्णमयानि 'केसरा' केसराणि 'णाणामणिमया' नानामणिमयाः अनेकविधमणिमयाः ‘पोखरटिनाना' पुष्करास्थिभागाः कमलबीजविभागाः, 'कणगामई' कनकमयी-स्वर्णमयी 'कपिण' कर्णिका-वो जोशः, अथ कणिकामानाद्याह-'सा णं' सा खलु कर्णिका 'अद्धजोयणं' अर्द्ध योजनम् योजनस्यार्द्धम 'आयामविक्खंभेणं दैयेविस्ताराभ्याम् 'कोसं' क्रशं-क्रोशपर्यन्तम् 'बाहल्लेणं' बाहल्येन पिण्डेन, 'सवकणग:मई' सर्वकनकमयी सर्वात्मना कनकमयी स्वर्णमयी, 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवनिर्मला अत्र 'सण्हा' इत्यादि पदानामपि संग्रको बोध्यः, तथाहि- 'लष्टा घृष्टा नीरजाः निर्मला निष्पङ्का निष्कङ्कटच्छाया समभा समरीचिका सोद्योता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपति फलितम् । एग व्याख्या चतुर्भसूबातजातीवर्णने विलोकनीया। 'ती सेणं' तस्याः खलु 'कण्णियाए' कर्णिकायाः 'उप्पि' उपरि-ऊर्षे 'बहुसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमतलरमणीयः, 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स कीदृशः ? इत्यपेक्षायाषता-है कि वाहिर के पत्रों में से चार पत्र वैडूर्यरत्ननय हैं और बाकी के पत्र रक्त सुवर्णमय हैं तथा-भीतर के जो पत्र हैं वे जाम्नदमय-ईषद्क्त सुवर्णमय हैं कहीं २ ऐसा भी कहा गया है कि वे पीतस्वर्णमय हैं इसके केशर रक्त सुवर्ण मय हैं इसके कमलयीजविभाग अनेक विधमणिमय हैं कर्णिका इसकी स्वर्णमयी है (सा गं अद्धं जोयणं आयामविक्कंभेणं कोसं वाहल्लेणं सबकणगामई अच्छा) यह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा अर्धयोजन की है एवं बाहल्य-मोटाईकी अपेक्षा एक कोश की है यह सर्वात्मना स्वर्णमयी है तथा आकाश और स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है। यहां 'सण्हा' इत्यादि पदों का भी संग्रह हुआ है-जैसे 'लष्टा, घृष्टा, मृष्टा, नीरजा, निर्मला, निष्पंङ्का, निष्कंकटच्छाया, स प्रभा, समरीचिका, सोद्योता, प्रासादीया, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूप' इन રક્ત સુવર્ણમય છે. તેમજ અંદર જે પત્ર છે. તે જબુનદમય-ઈવરક્ત સુવર્ણમય છે. કેટલાક સ્થાને આવું પણ કથન છે કે એ પીત સ્વર્ણમય છે. એનાં કેશરે ૨ક્ત સુવર્ણ મય છે. એના કમળ બીજ વિભાગો અનેકવિધ મણિમયથી નિર્મિત છે. આની કણિકા सुवर्ष भय छे. 'सा गं अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं सव्वकणगामई છ” એ આયામ અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ અડધા જન જેટલી છે. અને બાહલ્ય જાડાઈની અપેક્ષા એક ગાવ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના સુવર્ણમયી છે તેમજ આકાશ અને म ११४मला वा निम . मी 'सण्हा' वगैरे पहाना ] स थये छ. रेभ -लष्टा, धृष्टा, मृष्टा, नीरजा, निर्मला, निष्पंका, निष्कंकटच्छाया, सप्रभा, समरीचिका, सोद्योता, प्रासादीया. दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा' से पहोनी त्याच्या याथा सूत्रात तीन वानमा नवी . 'ती घेणं कण्णियाए उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे ज०३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे माह-'से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा.' स यथा नामक आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यादि भूमिभागवर्णनं व्याख्यासहितं षष्ठ सूत्रतो बोध्यम् ॥सू० २॥ मूलम्-तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पणते, कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसविणविट्रे पासाईए दरिसगिज्जे । तस्ल णं भवणस्त तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता । तेणं दारा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अडाइजाई धणुसयाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं । सेआ वरकणगथूमिआ जाव वणमालाओ णेयव्वाओ। तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगावखरेइ वा । तर णं बहुमझदेसभाए एत्थ णं महई एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। सा णं मणिपेडिया पंच धणुसयाइं आयामविसंभेगं अड्डाइजाइंधणुसयाबाहल्लेणं, सवमणिमई अच्छा० । तीसेणं मणिपेढियाए उधि एत्थ णं महं एगे सयणिज्जे पण्णत्ते । सयणिज्ज वण्णओ भागियठवो । से गं परमे अण्णेणं अट्ठसएणं पउमाणं तदधुञ्चत्तप्पमाणमित्ताणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते । ते णं पउमा अद्धजोयणं आयामविखंभेणं, कोसं वाहल्लेणं, दसजोयणाई उव्वेहेगं, कोसं ऊसिया, जलंताओ साइरेगाइं दस जोयणाइं उच्चत्तेणं । तेसि णं पउभाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं पदों की व्याख्या-चतुर्थ सूत्र गत जगती के वर्णन में देखलेना चाहिये, (तीसेणं कणियाए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) इस कर्णिका के ऊपर का भूमि भाग ऐसा बहुसमरमणीय कहा गया है (से जाहा णामए आलिंग पुक्खर इति वा) जैसा की बहुसभरमणीय आलिङ्ग पुष्कर-मृदंग का मुखहोता है इत्यादि रूप से इस भूमि भाग का वर्णन व्यख्यासहित छठ वें सूत्रसे जान लेना चाहिये ॥२॥ पण्णत्ते' थे 11 ५२नो भूमिला। शव पसभ२ भाय ४ामा पास छ 'से जहा णामए आलिंगपुक्कर इति वा' : २ मईस भरणीय ४२- -भुमन હોય છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં એ ભૂમિભાગનું વર્ણન વ્યાખ્યા સહિત ષષ્ઠ સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. સૂ. ૨ | Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् जहा-इरामया मूला जाय कणगापाई करिणया। साणं कणिया कोसं आयामेणं अकोसं वाहल्लेणं, समकणगामई अच्छ इति । तीसे णं कग्णियाए उपि बहुसमरमणिज्जे जावणीहि उबसोभिए । तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउहं सामाणिसाहस्तीणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। तस्स णं पउमस्स पुरसिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउण्हं महत्तरियाणं चत्तारि पडमा पणत्ता । तस्ल पउमस्त दाहिणपुरस्थिमेणं सिरीए देवीए अभितरियाए परिसाए अट्टाहं देवसाहस्सीण अट्ट पउ. मसाहस्सीओ पपणत्ताओ। दाहिणेणं मज्झिमपरिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस पउमसाहस्तीओ पण्णत्ताओ। दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए वारसण्हं देवसाहस्तीणं बारस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सत्त पउमा पण्णत्ताओ। पच्चत्थिमेणं सत्तण्ड अणियाहिबईणं सत्त पउमा पण्णत्ता। तस्स णं पउमस्त चउदिसिं सरओ समंता इत्थ णं सिरीए देवीए सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। से गं तीहिं पाकिसेवेहि साओ समंता संपरिक्खित्ते, तं जहा-अभितरएण, मज्झिमएणं, बाहिर एणं । अभितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। मज्झिभए पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पणत्ताओ। बाहिरए पउसपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाइस्सीओ पगणताओ । एवामेव सपुठनावरेणं तिहिं पउमपरिक्खेवेहि एगा पदमकोडी वीसं च पउमसयसाहस्सीओ भवंतीति अक्वायं । से केणलेणं भंते । एवं वुच्चइ-पउम दहे दहे ?, गोयमा ! पउमदहेणं तत्थ २ देसे तहिं २ बहवे उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई पउमदहप्पभाई पउमद्दहवण्णाभाई सिरी य इत्थ देवी महिड्डिया जाव पलिओवमट्रिइया परिवसइ, से एएणणं जाव अदुत्तरं च णं गोयमा! पउमदहस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, ण कयाइ णासि न० ॥सू०३॥ , Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे छाया-तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम् , क्रोशमायामेन अर्द्धक्रोश विष्कम्भेण देशोनकं क्रोशमूर्ध्वमुचनत्वेन अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टं प्रासादीयं दशनीयम् । तस्य खलु भवनस्य त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञसानि, तानि खलु द्वाराणि पञ्चधनुःशतानि ऊर्यमुच्चत्वेन, सार्द्धतृतीयानि धनु शतानि विष्कम्भेण, ताव देव च प्रवेशेनाश्वेतानि वरकनजस्तूपिकानि यावत् वनमालाः ज्ञातव्याः। तस्य खलु भवनस्य अन्तः बहुसमरणीओ भूमिभागः प्रज्ञप्तः स यथा नामकः आलिङ्गपुष्कर इति वा । तस्य खलु बहुमध्यदेशभागे, अन खलु महती एका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता । सा खलु मणिपीठिका पञ्चधनुः शतानि आयामविष्कम्भेण, सार्द्धवतीयानि धनुःशतानि बाहल्येन, सर्वमणिमयी अच्छा० । तस्याः खलु मणिपीठिकायाः उपरि अत्र खलु महदेकं शयनीयं प्रज्ञसम् । शयनीयवर्णको भणितव्यः। तत् खलु पदमम् अन्येन अष्टशतेन पदमानां तदोच्च. त्वप्रमाणमात्राणां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् । तानि खलु अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भेण, क्रोशं बाहल्येन, दश योजनानि उद्वेधेन क्रोशमुच्छ्रितानि जलान्तात् सातिरेकाणि दश योजनानि सर्वाग्रेण तेषां खलु पद्मानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वन्मयानि मूलानि यावत् कनकमयी कर्णिका । सा खलु कणिका क्रोशमायामेन, अद्धक्रोशं वाहल्येन, सर्वकनकमयी अच्छा इति । तस्याः खलु कर्णिकाया उपरि बहुसमरमणीयो यावद मणिभिरुपशोभितः। तस्य खलु पद्मस्य अवरोत्तरे उत्तरे उत्तरपौरस्त्ये अत्र खलु श्रिया देव्याः चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां चतस्रः पद्मसाहस्त्र्यः प्रज्ञप्ताः । तस्य खलु पद्मस्य पौरस्त्ये अत्र खलु श्रिया देव्याः चतसृणां मइत्तरिकाणां चत्वारि पद्मानि प्रज्ञप्तानि, तस्य खलु पद्मस्य दक्षिणपौरस्त्ये श्रिया देव्याः आभ्यन्तरिकायाः परिषदः अष्टानां देवसाहस्त्रीणाम् अष्ट पद्मसाहस्त्र्यः प्रज्ञप्ताः । दक्षिणे मध्यमपरिषदौ दशानां देवसाहस्रीणां दश पद्भसाहस्थ्यः प्रज्ञप्ताः । दक्षिणपश्चिमे बाह्यायाः परिषदो द्वादशानां देवताहस्रोगांद्वादश पद्मसाइस्त्र्यः प्रज्ञताः, पश्चिमे सप्ता. नामनीकाधिपतीनां सप्त पद्मानि, प्रज्ञप्तानि। तस्य खलु पद्मस्य चतुर्दिशि सर्वतः समन्तात् अत्र खलु श्रिया देव्याःषोडशानामात्मरक्षकदेवसाहस्रीणां षोडश पद्मसाहस्यः प्रज्ञप्ताः तत् खलु त्रिभिः पद्मपरिक्षेपैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् , तद्यथा-आभ्यन्तरकेण१, मध्यमेन२, बाह्यकेन ३ आभ्यन्तरके पद्मपरिक्षेपे द्वात्रिंशत् पद्मशतसाहस्यः प्राप्ताः, मध्यमके पदमपरिक्षेपे चत्वारिंशत् पद्मशतसाहस्थः प्रज्ञप्ताः, बाह्यके पद्मपरिक्षेपे अष्टचत्वारिंशत् पद्मशतसाहस्यः प्रज्ञप्ताः । एवमेव सपूर्वापरेण त्रिभिः पद्मपरिक्षेपैः एका पद्मकोटीविंशतिश्च पद्मशतसाहस्त्र्यो भवन्तीति आख्यातम् । _ अथ के नार्थेन भदन्त ! एवम्मुच्यते पद्महदो पद्महदः, गौतम । पद्म इदः खलु तत्र२ देशे तत्र२ बहूनि उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि पद्महदवर्णाभानि श्रीश्चात्र देवी महर्दिका यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति तद् एतेनार्थेन यावत अदुत्तरम् ( अथ ) च खलु गौतम ! पद्महूदस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् । न कदाचित् नासीद् म० ॥ सू०३ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् टीका-'तस्स णं' इत्यादि । 'तस्स णं बहुसमरमणिजभूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे 'एत्थ णं' अत्र-अस्मिन् प्रदेशे खलु 'महं एगे भवणे पण्णत्ते' महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम् , अस्य भवनस्य मानाद्याह-'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेन 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण, 'देसूणगं' देशोनकं किश्चिन्यूनं 'कोसं' क्रोशम् 'अद्धं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन 'अणेगखंभसयसण्णिविट्टे' अनेक स्तम्भशतसंनिविष्टम्-अनेकानि बहूनि स्तम्भशतानि संनिविष्टानि-संलग्नानि यत्र तत्तथा अनेकशत स्तम्भयुक्तमित्यर्थः 'पासाईए दरिसणिज्जे.' प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं व्याख्या प्राग्वत् । 'तस्स णं भवणस्त तिदिसि' तस्य खलु भवनस्य त्रिदिशि तिसृषु दिक्षु 'तओ दारा पण्णत्ता' त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तत् द्वारत्रयमानाद्याह-'तेणं दारा पंच धणु सयाई तानि खल द्वाराणि पञ्चधनुः शतानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'अड्राइज्जाइं धणुसयाई विक्खंभेणं' अर्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्भेण 'तावइयं चेव पवेसेणं' तावदेव तत्प्रमाणमेव प्रवेशेन प्रवेशमार्गावच्छेदेन प्रज्ञप्तानि । तानि 'सेआ' श्वेतानि श्वेतवर्णानि बाहल्येनाङ्करत्नमयत्वात् 'वरकणगधूभिया' वरकनकस्तृपिकानि उत्तम स्वर्णमयलघुशिखरयुक्तानि 'जाव वण 'तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए-इत्यादि ।। टीकार्थ-(तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए) इस बहुसमरमणीय भूमिभाग के बीच में (रत्यगं एगे महं भवणे पण्णत्ते) एक विशाल भवेन कहा गया है (कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खेभेणं, देस. णगं कोसं उद्धं उच्यत्तेणं) यह भवन आयाम (लंबाई की अपेक्षा) एक कोशका विष्कम्भ (चोडाई) की अपेक्षा आधे कोशका और-ऊंचाई की अपेक्षा कुछ कम एक कोशका है (अणेगखंभसय सन्निविटे, पासाईए दरिसणिज्जे) यह भवन सैकडों खंभों के ऊपर खडा हुआ है तथा यह प्रासादीय एवं दर्शनीय है (तस्स गं भवणस्स तिदिसिं तओदारा पण्णता) इस भवन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं। (तेणं दारा पञ्चधणुसयाई उद्धं, उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाइं धणुस. 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए'-इत्यादि रा---'तस्स णं वहुसमरमणिज्स्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' समसभरभकीय भूभिमानी ४४म १२ये 'एत्थणं एगे महं भवणे पण्णत्ते' ४ सुविधा भवन मावस छ. 'कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तणं' से भवन मायाम (AED) ની અપેક્ષાએ એક ગાઉ જેટલું, વિધ્વંભ (ચેડાઈ)ની અપેક્ષાએ અડધા ગાઉ જેટલું અને अयानी अपेक्षा ४४ ४भ मे४ ॥२९ छ. 'अणेग खंभसय सन्निविटुं, पोसाईए दरिसणिज्जे से भवन से स्लो ५२ भु छे. तभी ये असाहीय मन शनीय छ. 'तस्स णं भवणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता' ये भवननी व हिशामा १ ३ मावा. 'तेणं दारा पच्चधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाई धणुसयाई विक्खंभेणं Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मालाओ णेयच्त्राओ' यावत् वनमालाः ज्ञातव्याः । अत्र यावत्पदेन इतो अग्रे ' हामगे ' इत्यारभ्य वनमालावर्णनपर्यन्तः सकलोऽपि पाठः तदर्थचात्रैव पूर्वमष्टमसूत्रस्य जम्बूद्वीप विजयद्वारवर्णनव्याख्यायां तथा राजप्रश्नीयसूत्रे सूर्याभदेव विमानद्वारवर्णने चतुष्पञ्चाशत्तमसूत्रादारभ्य एकोनषष्टितम गतवनमालावर्णनपर्यन्तं च विलोकनीयः । , 'तस्स णं भवणस्स तो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' तस्य खलु भवनस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीय भूमिभागः प्रज्ञप्तः स कीदृश इत्याह- ' से जमाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा० स यथानामक आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यादि भूमिभागवर्णनं सविवरणं षष्ठसूत्राबोध्यम् । 'तस्स णं' तस्य खलु भूमिभागस्य 'बहुमज्झ देस भाए' बहुमध्यदेशभागे 'एत्थ णं' याई विक्खंभेणं, तावतिअं चेव पवेसेणं. सेया वरकणगथ्रुभिया जाव वणमालाओ यव्वाओ) ये द्वार पांच सौ धनुष के ऊंचे हैं अढाई सौ धनुष के चौडे हैं तथा इनमें प्रवेश करने का मार्ग भी इतका ही चौडा है ये द्वार प्रायः अङ्करत्नों के बने हुए हैं तथा इनके ऊपर जो स्तृपिकाए है-लघुशिखर हैं- वे उत्तम स्वर्ण की बनी हुई हैं इनके चारों ओर वनमालाए हैं यहां यावत्पद से 'ईहामिंग' आदि रूप जो वनमालावर्णन करते तकका पाट है वह गृहीत हुआ है वह पाठ और उसकी व्याख्या इसी जम्बूद्वीप के विजय द्वार के वर्णन में कही गई है - देखना चाहिये तथा राज प्रश्नीय सूर्याम देवके विमान के वर्णन के प्रसङ्ग में कथित ४५ वें सूत्र से लेकर ५९ वें सूत्र तक में देखना चाहिये (तस्सणं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) उस भवन के भीतर का जो भूमिआग है वह बहुसमरमणीय कहा गया है ( से जहाणामए आलिंग पुक्खरेइवा) उस भूमि भाग का वर्णन इत्यादि रूप से छठे सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स तावतिअं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथ्रुभिया जात्र वणमालाओ णेयव्त्राओ' मे द्वार ५०० धनुष જેટલા ઊંચા છે અને ૨૫૦ ધનુષ જેટલા પહેાળા છે. તેમજ એમની અંદર પ્રવિષ્ટ થવાને મા પણ આટલે જ પહેાળે છે. એ દ્વારા પ્રાયઃ અંકરત્નાથી નિર્મિત છે. એમની ઉપર જે સ્તૂપિયાએ છે–લઘુ-શિખરા છે તે ઉત્તમ સ્વનિર્મિત છે. એમની थेाभेर वनभाजाओ। छे. अहीं' 'यावत्' पहथी 'ईहामिंग' वगेरे ३५ वनभाजाना वर्णुन सुधीनेो थाह छे, ते सहीं गृहीत थये। छे. आ पाई, सने पाडनी व्याच्या या 'भ्यू દ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ' માં પહેલા અષ્ટમ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં, વિજય દ્વારના વન વખતે કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જાણવા યત્ન કરે. તેમજ રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર' માં સૂર્યાંભદેવના વિમાન વન પ્રસ`ગમાં કથિત ૪૫ માં સૂત્રથી માંડીને ૫૯માં સૂત્ર સુધી એ પાડની વ્યાખ્યા અંગે જોઇ લેવુ જોઇએ. 'तस्स णं भत्रणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमि. भागे पण्णत्ते' ते अवननी हरनो ने लूमिल हे, ते खडुसभ रमणीय आहेवाय छे. 'से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा' ते भूमिलागर्नु वर्षान इत्यादि ३५मा छ। सूत्रमांधी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् अत्र-अस्मिन् प्रदेशे खलु 'महई' महती विशाला 'एगा' एका 'मणिपेढिया' मणिपीठिकामणिमयीपीठिका ‘पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता । तस्या मानाद्याह-'सा णं मणिपेढिया पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं' सा च मणिपीठिका पञ्चधनु:शतानि आयाम विष्कम्भेण देवं विस्ताराभ्याम् 'अड्राइजाइं धणुसयाई बाहल्लेणं' अर्द्धतृतीयानि धनुःशतानि बाहल्येन पिण्डेन, 'सव्वमणिमयी' सर्वणिमयी-सर्वात्मना मणिमयी 'अच्छा' अच्छा० अत्र श्लक्ष्णादिपदानां ग्रहणम् तत्संग्रहः तदर्थश्चात्रैव चतुर्थसूत्रे जगतीवर्णने विलोकनीयः। ___'तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि' तस्याः खलु मणिपीठिकायाः उपरि 'एत्थ णं' अत्र खल 'महं एगे' महदेकं 'सयणिज्जे' शयनीयं शय्या 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् , अत्र 'सयणिज्जवण्णओ' शयनीयवर्णकः शयनीयवर्णनकरः पदसमूहः 'भाणियव्यो' भणितव्यः वक्तव्यः इति, तच्छ. यनीयवर्णको यथा-'तस्स णं देवसयणिज्जस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तं जहा-णाणा णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महई एगा मणिपेढिया पण्णत्ता) उस भवन के भीतर के बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल मणिमयीपीठिका कही गई है (सा णं मणिपेढिया पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं, अद्धाइजाई धणुसयाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा) यह मणिपीठिका आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचसौ धनुष की है एवं मोटाई की अपेक्षा २५० धनुष की है यह सर्वात्मना मणिमयी है और आकाश एवं स्फटिक के जैसी निमल है' __(तीसे गं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं सयणिज्जे एण्णत्ते) उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल शयनीय कहा है (सयणिज्जवण्णओ भाणिअव्यो) यहां शतनीय का वर्णन करनेवाला पाठ कह लेना चाहिये जो इस प्रकार से है-(तस्स णं देवसयणिजस्स अयमेयारूवे बण्णावासे पण्णत्ते-तं जहासभ खे ले थे. 'तस्स णं बहुमझदेसभाए एत्य णं महई एगा मणिपेढिया .त्ता' તે ભવનની અંદર બહુસમરમણીય ભૂમિભાગની એકદમ વચ્ચે એક સુવિશાળ મણિમયી पी॥ ४३वाय छे. 'सा में मणिपीठिया पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेण, अद्धाइज्जाइं, धणुसयाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा' 21 मणिपा। मायाम मने विजनी गपेक्ष पांयसे! ધનુષ જેટલી છે. તેમજ જાડાઈની અપેક્ષા ૨૫૦ ધનુષ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના મણિમયી છે. અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક જેવી. નિર્મળ છે. અહીં “ક્ષણાદિ પદોનું ગ્રહણ કરવું જોઈએ. એ પદની વ્યાખ્યા ચતુર્થ સૂત્રમાં “જગતીના વર્ણનમાં કરવામાં આવેલ છે. _ 'तीसे णं मणिपेढियार उप्पिं एत्थ णं एगे मह सयण्णिज्जे पण्णत्ते' ते माराधी(83161 6५२ ४ सुविशा शयनीय है. 'सयणिज्ज वण्णओ भाणिअव्वो' ही शयनीय समधी पार्नु पन अपेक्षित छ. ते ॥ प्रमाणे छे-तस्स णं देवसयणिज्जस्स अयमेयारूवे वण्णावासे यहां श्लक्ष्णादि पदों का ग्रहण कर लेना उनकी व्याख्या चतुर्थ सूत्र में जगती के वर्णन में देख लेनी चाहिये। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मणिमया पडिपाया सोवणिया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणयमयाइं गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे रययामई तूली लोहियक्खमया बिब्बोयणा तवणिज्जमईओ गंडोवहाणियाओ से णं सयणिज्जे सालिंगणवट्टिए उभओ विब्बोयणे उभयो उण्णए मज्ज्ञेण य गंभीरे गंगा पुलिनवालुया उद्दालसालिसए ओयविय खोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आइणगरूयबूर णवणीयतूलतुल्लफासे सुविरइयरयत्ताणे रत्तंमुयसंवुडे मुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे इति । __एतच्छाया-"तस्य खलु देवशयनीयस्य अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणिमयाः प्रतिपादाः सौवर्णिकाः पादाः नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि जाम्बूनदमयानि गात्राणि वज्रमयाः सन्धयः नानामणिमयं व्यूतं रजतमयी तूली लोहिताक्षमयानि-उपधानकानि तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः तत् खलु शयनीयं सालिङ्गनवर्तिकं उभयतो बिब्बोयणं उभयत उन्नतं मध्ये नतगम्भीरं गङ्गापुलिनवालुकावदालसहकं ओयविय (विशिष्ट) क्षौमदु. कूल पट्टप्रतिच्छादनम् आजिनकरूतबूर नवनीत तूल तुल्यस्पर्श सुविरचितरजस्त्राणं रक्तांशुक संवृतं सुरम्यं प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपम्" इति । एतद्रयाख्या-तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु देवशयनीयस्य शय्याया पर्यन्तस्य अयमेतद्रपःवक्ष्यमाणस्वरूपः वर्णावासः वर्णनपद्धतिः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-नानामणिमया अनेकविधमणिमयाः प्रतिपादाः-मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः, सौवर्णिका:-स्वर्णमयाः पादाः णाणामणिमया पडिपाया सोवग्णिया पाया, णाणामणिमयाइं पायसीसगाई, जंबुणयमयाइं गत्ताइं वइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे रययामई तुली, लोहियक्खमया वियोयणा, तवणिज्जभईओ गंडोवहाणियाओ, से णं रायणिज्जे सालिंगणवहिए उमओ बिब्बोयणे उभओ उण्णए, मज्झे णयगंभीरे, गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए ओयवियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आईणगरुयबरणवणीयतलतुल्लफासे सुविरइयरयत्ताणे रत्तसुयसंवुडे सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे) इन पदों की व्याख्या इस प्रकार से है-उस देवशयनीय का यह इस प्रकार से वर्गावास-वर्णन-पद्धति-है-अनेक मणियों से बने हए इसके प्रतिपाद थे मूलपाये जिनके भीतर रखे जाते हैं ऐसे कटोरा पण्णत्ते-तं जहा णाणामणिमया पडिपाया सोवण्णिया पाया, णोणामणिमयाई पायसीसगाई, जंबुणयमयाइं गत्ताई बइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे रययामई तूली लोहियक्खमया विब्वोयणा तवणिज्जमईओं गंडोवहाणियाओ, से णं सयणिज्जे सालिंगणवट्टिए उभओ बिंबोयणे उभओ उणए, मज्झे णय गंभीरे, गंगापुलिणवालुया उद्दालसालिसए ओयविय खोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे आईणगरूयबूरणवणीयतूलतुल्लकासे सुविरइय रयत्ताणे रत्तंसुयसंबुडे सुरम्मे पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' २॥ ५हानी व्याच्या या પ્રમાણે છે-તે દેવશયનીયને વર્ણાવાસ-વર્ણન પદ્ધતિ-આ પ્રમાણે છે–એના પ્રતિપાદે અનેક Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् मूलपादाः, नानामणिमयानि अनेकविधमणिमयानि पादशीर्षकाणि पादानामुपरितनावयवविशेषाः जाम्बूनदमयानि स्वर्ण विशेषमयानि गात्राणि 'ईष' इति भाषाप्रसिद्धानि वज्रमयाः वज्ररत्नमयाः सन्धयः सन्धानानि नानामणिमयं विच्चं व्यूतं विशिष्टं वानम् रजतमयी रूप्यमयी तूली, लोहिताक्षमयानि बोहिताक्षरत्नमयानि उपधानकानि उच्छीर्षकाणि, तपनीयमय्यः - स्वर्णविशेषमय्यः गण्डोपधानिकाः गण्डस्थलोपधानिकाः गल्लमसूरकाणीत्यर्थः । २५ तत् खलु शयनीयं मालिङ्गनवर्तिकम् - आलिङ्गनवर्त्त्या शरीरप्रमाणोपधानेन सह यत्ततथा, तस्य शयनीयस्य उभयत उभयपार्श्वे 'विनोयणे' ति देशी शब्द उपधानार्थकः तेन शिरोन्त पादान्तावभिव्याप्य स्थिते उपधाने उपधानद्वयमिति । पुनः तच्छयनीयम् उभयतः उन्नतम् उच्चं मध्ये नढगम्भीरं नवम् अवनतं नम्रत्वात् गम्भीरं च महत्त्वात्, गङ्गापुलिनवालुकाऽवदालसदृशं गङ्गातटवालुकाया अवदालः पादादिव्यासेऽधो गमनं तत्सदृशं यत्तत्तथा के आकार जैसे जो छोटे २ गोल पाये होते हैं वे यहां प्रतिपाद शब्द से लिये गये हैं इनसे मूलपादों की रक्षा होती रहती है मूलपाद इसके सुवर्ण के बने हुए थे इसके सिरहाने के भाग और पैरों को पसार कर रखने के भाग अर्थात् इसके सीरा और पारी अनेक मणियों से बने हुए हैं इसके गात्र- शीर्ष जाम्बूनद स्वर्णविशेष के बने हुए हैं इसकी संधियां वज्ररत्न की बनी हुई हैं इस पर जो वान बुना गया हैं वह नाना मणियों से बना हुआ है इस पर जो तूली - गद्दा विछा हुआ है वह रजतमय है इस पर जो उपधानक - तकिया रखे हैं वे लोहिताक्षरत्न से बनाये हुए हैं तथा गाल के नीचे जो छोटा तकिया रखा जाता है वह स्वर्णविशेष से बनाया गया है यह शयनीय पुरुष प्रमाण उपधान से युक्त है तथा शिरहाने की ओर एवं पैरों की ओर इसके ऊपर दो तकिये और रखे हुए हैं बडी होने से वह शय्या मध्य भाग में-बीच में निम्न एवं गंभीर हैं अति મણુિએથી નિર્મિ'ત હતા. મુખ્ય પાયા જેની અંદર મૂકવામાં આવે છે એવા વાડેકાના આકાર જેવા જે નાના નાના ગેાળ પાયા હૈાય છે. તે પ્રતિપાદ કહેવાય છે. એનાથી મૂળ પાદેની રક્ષા થતી રહે છે એન મૂળપાદે સુવર્ણ નિર્મિત હૈાય છે. એના મસ્તકની માજુના ભાગા અને પદ્મ તરફના ભાગા એટલે કે એની સિરા અને પારી અનેક મણુિએથી નિર્મિત છે. એના ગાત્રા-ઈજ જમ્મૂના-સ્વર્ણ વિશેષના બનેલા છે. એની સધિએ વજ્ર રત્નની બનેલી છે. એની ઉપર જે નાળ’કરવામાં આવેલ છે તે અનેક પ્રકારના મણિએથી બનાવવામાં આવેલ છે. એની ઉપર જે તૂલી-ગાદલા પાથરેલા છે તે રજતમય છે. એની ઉપર જે ઉપધાનક (એ કું) મૂકવામાં આવ્યાં છે, તે લે।હિતાક્ષ રત્નથી અનેલાં છે. તેમજ ગાલની નીચે જે નાનુ એશીકું મૂકવામાં આવેલ છે તે સ્વણુ વિશેષથી નિતિ છે. એ શયનીય પુરુષ પ્રમાણ ઉપધાનથી યુક્ત છે. તેમજ મસ્તક તરફ અને પગ તરફ એ આસીકા વધારાના મૂકેલાં છે. વિશાળ હાવાથી એ શય્યા મધ્ય ભાગમાં નિમ્ન સ अ० ४ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'ओयविय' ति देशी शब्दो विशिष्टार्थकः तेन विशिष्टं-परिकर्मितं क्षुमं क्षुमा अतसी तभिर्मितं यद् दुकूलं वस्त्रं तदेव पट्टः एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम् आच्छादनं यस्य तत्तथा आजिनकरूतबूरनवनीततूलतुल्यस्पर्शम् आजिनकं सुकोमलं चर्मवस्त्रं रूतं परिकर्मितकासः बूरः कोमलवनस्पतिविशेषः, तूलम् अर्कादितूलं, तत्तुल्यः स्पों यस्य त तथा सुविरचितं मुष्ठुतया स्थापितं रखाणं रजोपनयनवस्त्रम् आच्छादनविशेषो यत्र तत्तथा, रक्तांशुकसंवृत्तं रक्तांशुकेन ‘मच्छरदानी' ति भाषा प्रसिद्धेन मशकगृहाभिधानेन वस्तूविशेषेण संवृतम् आ. तम्-( आच्छादितम् ) अत एव सुरम्यं मुष्टु-रमणीयं 'प्रासादीयं' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । मृद होने से यह शय्या गंगा के रेतीले मैदान जैसी नरम है तथा पैर रखते ही यह नीचे धस जाती है 'ओयश्यि' यह देशीय शब्द हैं और इस का अर्थ विशिष्ट संस्कार से-कसीदा आदि से सहित ऐसा है इस प्रकार कसीदा जिस पर काढा गया है ऐसे रेशमी वस्त्र से तथा कपास के या अलसी के बने हुए वस्त्र से यह आच्छादित है चर्ममय वस्त्र विशेषरूप आजिनक के समान, रुत रुई के समान कोमल वनस्पतिविशेषरूप बूर के समान, नवनीत-मक्खन-के समान, तथा अर्क तृल के समान इसका कोमल स्पर्श हैं आजिनक, स्वभावतः कोमल होता है नवतीत-मक्खन भी इसी प्रकार कोमल होता है तथा अर्क तूल भी ऐसा ही कोमल होता है इसी कारण उस शप्पा के स्पर्श को प्रकट करने के लिये वह यहां इन सब के स्पर्श से उपमित किया गया है अपरिभोगावस्था में-उपयोग नहीं करने की अवस्था में-इसके ऊपर धूलि निवारणार्थ आच्छादन विशेष पडा रहता है तथा मच्छरदानीरूप रक्तांशुक से यह युक्त रहता है अतएव यह सुरम्य है और प्रासादीय आदि पूर्वोक्त ४ विशेषणोंवाली અને ગંભીર છે. અતિ મૃદુ હેવા બદલ એ શમા ગંગાના વાલુકામય તટની જેમ નર્મ छे, मुडमा छे. तथ। २ ५॥ भूतानी साथै ४ नीचे सी लय छे. 'ओयविय' से દેશીય શબ્દ છે. આનો અર્થ વિશિષ્ટ સંસ્કારથી-કસબ વગેરેથી યુક્ત એવો થાય છે. આ પ્રમાણે જેની ઉપર કસબનું કામ કરવામાં આવેલ છે એવા રેશમી વસ્ત્રથી તેમજ કપાસ અથવા અળસીથી નિર્મિત વસ્ત્રથી એ આછાદિત છે. ચર્મમય વસ્ત્ર વિશેષ રૂપ આજિનકની જેમ, રૂત, પાસ ની જેમ કમળ વનતિ વિશેષ રૂપ “બૂર'ની જેમ, નવનીત-માખણની જેમ તેમજ અતૂલની જેમ આને સ્પર્શ કમળ છે. આ જિનક સ્વભાવતા કે મળ હોય છે. નવનીત–માખણ પણ આ પ્રમાણે જ કોમળ હોય છે. તેમજ અર્કતુલ પણ કમળ હોય છે. એથી જ આ શયાના સ્પર્શને પ્રકટ કરવા માટે એ સર્વ કમળ પદાર્થો અત્રે ઉપમાનના રુપરાં મૂકવામાં આવ્યા છે અ૫રિભોગાવસ્થામાં–અનુપયોગની સ્થિતિમાં-એની ઉપર ધૂળ પડે નહિ એ માટે એક આચ્છાદન વિશેષ પડિ રહે છે. તેમજ મચ્છરદાની રૂ૫ રકતાં શુકથી એ યુક્ત રહે છે. એથી એ સુરમ્ય છે-અને પ્રાસાદીય વગેરે પૂર્વોક્ત ૪ વિશેષણે Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ त्रस्थितभवनादिवर्णनम् २७ truate प्रथमपरिक्षेपमाह - ' से णं' इत्यादि । 'से णं' तत् पूर्वोक्तं खलु 'पउमे' पद्मम् 'अण्ण' अन्येन अपरेण 'वदद्दुच्चत्तप्पमागमित्ताणं' तदर्धोच्च त्वप्रमाणमात्राणां तस्य- मूलपद्मप्रमाणस्य अर्द्धम् अर्द्धरूपा उच्चत्वे उच्छ्रये प्रमाणे च - आयामविस्तार बाहल्यरूपे मात्रा प्रमाणं येषां तानि तथा तेषाम् । 'अट्टसर णं परमाणं' पद्मानामष्टशतेन 'सव्व ओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समता' समन्तात् सर्वविदिक्षु व 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तं परिवेष्टित तदर्घत्वं च पद्मानामायामविष्कम्भवाहल्यजलो परिभागोच्चत्वविषयकमेव विज्ञेयम् तदेव स्पष्टयति सूत्रकारः ' तेणं' इत्यादि, 'तेणं पडमा' तानि खल पद्मानि 'अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं' अर्द्धयोजनमायामविष्कम्भेण, एक 'कोर्स बाहल्लेणं' कोशं वाहल्येन पिण्डरूपेण 'दस जोयणाई उब्वेणं' दश योजनानि उद्वेवेन जलावगाहेन जलावगाहत्वेन मूलपद्मसाहश्यात् 'कोसं उसिया' क्रोशमेकमुच्छितानि 'पताभ' जलान्तात् - जलोपरिभागात्, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि क्रोशैकरूपातिरेकसहितानि 'दस जोयणाई' दश योजनानि सपाद दश योजनानीत्यर्थः ' सव्वग्गेणं' सर्वाग्रेण सर्वप्रमाणेन । एतत्प्रमाणं भूमिभागादारभ्य विज्ञेयम् । वर्णकमाह- 'सि णं पउमाणं' इत्यादि । 'तेसि णं परमाणं अयमेयारूवे' तेषां खलु पद्मानामयमेतद्रूपः वक्ष्यमाण स्वरूपः 'वण्णावासे' वर्णावासः - वर्णनपद्धतिः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा, तथाहि - 'बदरामया मूला' इत्यादि, 'जाव' अत्र यावच्छब्देन मूलपहै (से उसे अट्टए परमाणं तद्द्युच्च सप्पमाणमित्ताणं सव्वओ समता संपरिक्खिते) यह पूर्वोक्त कमल दूसरे और १०८ कमलों से कि जिनका प्रमाण इस प्रधान कमल से आधा धा चारों ओर से घिरा हुआ है (ते णं पडमा अद्वजगणं आवामविक्रमेणं, कोर्स बाहल्लेणं, दत्तनेयणाई उब्वेहेणं, कोसं ऊसिया जयंताओ साइगाई दस जोयणाई उच्चत्तेणं, तेसि णं परमाणं अय यावे वणवा पते ये सब प्रत्येक कमल आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा दो कोश के है मोटार की अपेक्षा से ये एक कोश के हैं उद्वेध - गहराइ की अपेक्षा से ये १० योजन के है और ऊंचाई की अपेक्षा से ये एक कोश के हैं और जल से ये कुछ अधिक १० योजन ऊंचे उठे हुए हैं इन कमलों के सम्बन्ध वाजी छे से णं पउमे अण्णेणं अट्टसएणं पऊमाणं तदद्युच्च तपमाणमित्ताणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' से यूरोति जीन अन्य १०८ मणोथी के भनु प्रमाणु से प्रधान उभरतां मधु तु यामेरथी मावृत्त तु 'तेणं पउमा अद्ध जोयण आयाम विक्खं. भेणं, कोसं बाहल्लेणं, दसजोयणाई, उब्वेणं कोर्स ऊसिया, जलंताओ साइरेगाई, दस जोयणाई उच्चत्तेण तेसि णं परमाणं, अयमेवाख्वे वण्णावासे पण्णत्ते' माथी हरे हरे भज આયામ અને વિષ્ણુભની અપેક્ષાએ બે ગાઉ જેટલાં છે. લડાઈની અપેક્ષાએ એ એક એક ગાવ જેટલાં છે. ઉદ્વેષ-ગભીરતા-ની દૃષ્ટિએ એ ૧૦ ચેાજન જેટલાં છે—અને ઉંચાઈની અપેક્ષાએ એ કમળા એક ગાઉ જેટલાં છે અને પાણીથી એ કમળા કઈક अधि४ १० योजनउपर उठे छे से मणी संबंधी वर्णन या प्रमाणे 'तं जहा ' Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र द्मवर्णनपाठः संग्राह्यः। अर्थोऽपि तत्रैव विलोकनीयः । 'कणगामई' कनकमयी मुवर्णमयी कण्णिया' कर्णिका । तस्या मानाधाह-'सा णं कष्णिया' इत्यादि । 'सा णं कणिया कोसं आयामेणं' सा खलु कणिका क्रोशं क्रोशपरिमिता आयामेन 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्क्रोशार्द्धपरिमिता 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-स्थौल्येन । कीदृशी सा ? इत्याह-सव्यकणगामयी' सर्वकनकमयी-सर्वात्मना कनकमयी 'अच्छा' अच्छा० इति अच्छा लक्षणा इत्यादि पाठोऽर्थश्च पूर्ववदेव । तस्या उपरि भूमिभागाद्याह-'तीसे णं कण्णियाए उप्पि' तस्याः खलु कणिकाया उपरि इत्यादि 'जाव मणीहि उवसोभिए' इत्यन्तं भूमिभागवर्णनं पष्टसूत्रा द्बोध्यम् । ___अथ द्विनीयपद्मपरिक्षेपमाह-'तस्स णं' इत्यादि । 'तस्स गं पउमस्स अबरुत्तरेणं तस्य मूलपद्मस्य खलु अपरोत्तरेवायव्यकोणे 'उत्तरेणं' उत्तरे-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तरपुरथिमेणं' उत्तरपौरस्त्ये ईशानकोणे सर्वसङ्कलनया तिरपु दिक्षु 'एत्थणं सिरीए देवीए चउण्हं सामाणि. यसाहस्सीणं चत्तारि' अत्र खलु श्रिया देव्याः चतसृणां सामानिकसाहनीणां चतस्रः 'पउमसाहस्सीओ' पनसाहस्त्र्यः चत्वारि पद्मसहस्राणि 'पण्णताओ' प्रज्ञप्ताः । 'तस्स णं पउमस्स' में इनका वर्णन देसा किया गया है-( जहा) जैसे-(वरामथा मूला, जाव कणगामई कणिया) मूल इनके सब के बञमय है, यावत् कणिका इनकी सब की सुवर्णमयी है (सा णं कणिया कोसं आयामेणं अद्धकोसं बाहरूलेणं सव्वकणगामई अच्छा (तीसे णं कणियाए उपि बहुसमरमणिज्जे जाव मणीहि उवसोभिए) वह कर्णिका आयाम की अपेक्षा एक कोश की है मोटाई की अपेक्षा आधे कोश की है यह सर्वात्मना कनकमयी है, और आकाश एवं स्फटिकमणिके जैसा निर्मल है इस कर्णिका के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावतू यह मणियों से सुशोभित है इत्यादि रूप से यहां भूमिभाग का वर्णन छठे सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स गं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेण एत्थणंसिरीए देवीए चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) उस मूलपद्भ की अपर उत्तर दिशा रूप वायव्य दिशा में उत्तर दिशा में एवं रेम-'वइरामया मूला, जाव कणगामई कण्णिवा' से i भजाना भू॥ १०॥भय छे. यावत् मे मकानो नि४ सुप यी छे. 'सा णं कणिया कोसं आयामेणं अद्ध कोसं बाहल्लेणं सव्व कणगामई अच्छा तीसेणं कण्णियाए उपि बहुसमरमणिज्जे जाव मणीहिं उवसोभिए' ते ण । मायामनी अपेक्षाओं मे रेटली छ. 435 पेक्षाये એક ગાઉ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના કનકમયી છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક મણિ જેવી નિર્મળ છે. યાવતુ એ મણિઓથી સુશોભિત છે. ઈત્યાદિ રૂપથી નહીં ભૂમિભાગનું વર્ણન ७४। सूत्रमil angla नये. 'तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेण उत्तरपुरस्थिमेण एस्थ ण सिरीए देवीए चउण्ह समाणियसाहस्सीण चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' ते भूग (भुम) ५मनी ઉપર ઉત્તર દિશારૂપ વાયવ્ય દિશામાં, ઉત્તર દિશામાં અને ઉત્તર પૂર્વ દિશા રૂપ ઈશાન Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् तस्य पद्मस्य खल 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वस्यां दिशि 'एत्थणं सिरीए देवीए ' अत्र खलु श्रिया देव्याः 'चउन्हं महत्तरियाणं' चतसृणां महत्तरिकाणाम् - अतिशयेन महत्यो महत्तरास्ता एव महत्तरिकास्तासाम्-'चत्तारि पउमा पण्णत्ता' चत्वारि पद्मानि प्रज्ञप्तानि अत्र पूर्ववर्णित - विजयदेव सिंहासन परिवारानुसारेण पार्षदादिपद्मसूत्राणि भणितव्यानि तद्विवरणं सुगमम् यावत् पश्चिमायां सप्तानिकाधिपतीनां सप्त पद्मानि । तथापि न्यस्यन्ते 'तस्य णं' इत्यादि, 'तस्स णं' तस्य मुख्यस्य खलु पउमस्स' पद्मस्य 'दाहिण पुरत्थिमेणं' दक्षिण पौरस्त्ये अग्निकोणभागे 'सिरोए देवीए' श्रियाः देव्याः 'अभितरियाए' आभ्यन्त रिकायाः अन्तर्वर्तिन्याः 'परिसाए' परिषदः सभायाः सम्बन्धिनीनां ' अहं देवसास्सीणं' अष्टानां देवसाहस्रीणाम्अष्टसहस्राणि पद्मानि 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः । ' दाहिणेणं' दक्षिणे- दक्षिणदिग्भागे 'मज्झिमपरिसाए' मध्यमपरिषदः सम्बन्धिनीनां 'दसलं देवसाहरसीणं' दशानां देवसाहस्रीणां 'दस पउमसाहस्सीओ' दश पद्मसाहस्त्र्यः - पद्मसहस्राणि 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, 'दाहिणपच्चत्थि - मेणं' दक्षिणपश्चिमे-नैर्ऋत्यकोणे 'बाहिरियाए बाह्याया: बहि भवाया: 'परिसाए' परिषदः उत्तर पूर्वदिशा रूप ईशान विदिशा में श्री देवी के चार हजार सामानिक देवों के चार हजारपद्म हैं ( तस्स णं पउमस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउन्हं महत्तरिआणं चत्तारि पउमा पण्णत्ता) उस मूलपद्म की पूर्वदिशा में श्रीदेवी की चार महत्तरिकाओं के चार पडूम हैं यहां पर पहिले वर्णित हुए विजय देव के सिंहासन के परिवार के अनुसार पार्षदादि के पद्मसूत्रों का वर्णन है जो इस प्रकार से हैं - (तस्स णं पउमस्स दाहिणपुरस्थिमेणं सिरीए देवीए अभितरिआए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठ पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) उस पद्म के दक्षिण पौरस्त्यदिशा रूप आग्नेयकोण में श्री देवी के आभ्यन्तर परिपदा के आठ हजार देवों के आठ हजार पद्म है । (दाहिणेगं मज्ज़िमपरिसाए दसहं देवसाहस्तीणं दस पाउम साहस्सीओ पण्णत्ताओ) दक्षिण दिग्भाग में मध्यमपरिषदा के दश हजार देवों के दश हजार पद्म है । ( दाहिणपच्चत्थि विद्विशामां श्री देवीना यार सहस सामानि देवाना यार हुनर झोछे. 'तस्स णं पउमस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए उन्हें महत्तरिआणं चत्तारि पउमा पण्णत्ता' ते भूज (મુખ્ય) પદ્મની પૂર્વ દિશામાં શ્રી દેવીની ચાર મહત્તરિકાએના ચાર પદ્મો છે. અહી' પડે વન કરાયેલ વિજયદેવના સિંહાસનના પરિવાર મુજબ પાદર્દિના પદ્મસૂત્રાનું વન છે, જે या प्रमाणे छे. 'तस्स णं पउमरस दाहिणपुरस्थि मेण सिरीए देवीए आभितरिआए परिसाए अहं देवसाहस्सी अट्ट परमसाहस्सीओ पण्णत्ताओं ते यद्मनी हक्षिणु पौरस्त्य दिशा રૂપ આગ્નેય કાણુમાં શ્રી દેવીના આભ્યંતર પરિષદાના આઠ હજાર દેવાના આઠ હજાર पद्मो 'दाहिणेण' मज्झिमपरिसाए दसह देवसाहस्सीणं दस पउमसाहसीओ पण्णत्ताओ' दक्षिण हिग्भागमा मध्यम परिषदांना हशसहस्र देवाना द्वश उमर पद्मो छे, 'दाहिण' Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सम्बन्धिनीनां 'बारसण्हं देवसाहस्सीणं' द्वादशानां देवसाहस्रीणां 'बारस पउमसाहस्सीओ' द्वादश पद्मसाहस्यः 'पणत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि 'सत्तण्हं अणियाहिबईणं' सप्तानाम् अनीकाधिपतीनां 'सत्त पउमा पण्णत्ता' सप्त पानि प्रज्ञप्तानि । ___ अथ तृतीयपदमपरिक्षेपमाह-'तस्स णं पउमस्स' इत्यादि, 'तस्स णं पउमस्स चउदिसिं' तस्य मुख्यस्य खलु पद्मस्य चतुर्दिशि चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक् तस्मिंस्तथा-दिक्चतुष्टये 'सव्यओ समंता' सर्वतः समन्तात् 'इत्थ णं' अत्र खलु "सिरीए' श्रियाः लक्ष्म्याः 'देवीए' देव्याः ‘सोलसण्हं आयरक्ख देवसाहस्सीणं' षोडशानाम् आत्मरक्षकदेव साहस्रीणाम् आत्मनि रक्षन्तीत्यात्मरक्षाः आत्मरक्षकास्ते च ते देवास्तेषां साहस्रीणां सहस्राणां 'सोलस पउमसाहस्सीओ' पोडश पद्मसाहस्यः कमलसहस्राणि 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, तथाहि-पूर्व पश्चिमदक्षिणोत्तर दिक्षु चत्वारि२ पद्मसहस्राणीत्येषां सङ्कलनया षोडश पद्मसहस्राणि सम्पद्यन्त इति बोध्यम् । अशोक्त व्यतिरिक्ता अन्येऽपि त्रयः परिक्षेपाः सन्तीत्याह-तत् खलु त्रिभिरित्यादि, 'से णं' तत् पद्म खलु 'तीहिं' त्रिभिः उक्त व्यतिरिक्तैः ‘पउमपरिक्खेवेहि' पद्मपरिक्षेपैः मेणं बाहिरियाए परिसाए बारसण्हं देवसाहस्सीण बारस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) दक्षिणपश्चिन दिग्भाग में-नैर्ऋत्यकोण में बाह्य परिषदा के १२ हजार देवों के १२ हजार पद्म है । (पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणीयाहिवईणं सत्त पउमा पण्णत्ता) पश्चिमदिशा में सात अनिकाधिपतियों के सात पद्म है। तृतीय पद्म परिक्षेप कथन__ (तस्स पउमस्स चउद्दिसिं सव्वओ समंता इत्थ णं सिरीए देवीए सोलसहं गयरक्खदेवसाहस्तीणं सोलस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) उस मूल पद्म की चारों दिशाओं में श्री देवी के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के १६ हजार पदम हैं। ये आत्मरक्षक देव प्रत्येक दिशा में ४-४ हजार की संख्या में रहते हैं (से णं तीहिं परम परिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते) यह मूल पच्चत्थिमेण बाहिरियाए परिसार बारसह देवसाहस्सीण बारस पउम साहस्सीओ पण्णत्ताओ' દક્ષિણ પશ્ચિમ દિભાગમાં નૈત્રત્ય કેણમાં બાહ્ય પરિષદના ૧૨ હજાર દેવેને ૨૨ હજાર ५ो छ 'पच्चत्थिमेण सत्तण्ह अणीयाहिबईण सत्त पउमा पण्णत्ता' पश्चिम दिशामा सात અનીકાધિપતિઓના સાત પદ્ધો છે. તૃતીય પદ્મ પરિક્ષેપ કથન 'तस्स ण पउमस्स चउदिसिं सवओ समंता इत्थण सिराए देवीर सोलसह आयरक्खदेवसाहस्सीण सोलस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' ते मूग (भु.) पानी योभेर શ્રી દેવીના સોળ હજાર અત્મરક્ષક દેવેના ૧૬ હજાર પડ્યો છે. એ આત્મરક્ષક દેવ દરેક दिशामा ४-४ २ २८सी सयामा २९ छे. 'से ण तीहि पउमपरिक्खेवेहिं सबओ समंता Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् पद्मरूपपरिवेष्टनैः 'सचओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' सम तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्त' संपरिक्षिप्त परिवेष्टितम् 'तं जहा' तद्यथा-'अधिभतरएणं मज्झिमएणं बाहिरएणं' आभ्यन्तरकेण१ मध्यमकेन२ बाह्यकेन३ । 'अभितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' तत्राभ्यन्तरके पद्मपरिक्षेपे द्वात्रिंशत् पद्मशतसाहस्त्यः कमललक्षाणि प्रज्ञप्ताः, 'मज्झिमए' मध्यमके मध्यमे 'पउमपरिक्खेवे? पद्मपरिक्षेपे 'चत्तालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' चत्वारिंशत् पद्मशतसाहस्त्र्यः प्रज्ञप्ताः' 'बाहिरए' बाह्यके वाद्ये 'पउमपरिक्खेवे' पद्मपरिक्षेपे 'अडयालीसं' चाष्टचत्वारिंशत् 'पउमसयसाहस्सीओ' पद्मशतसाहस्त्र्यःकमललक्षाणि पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, इदं च पदमपरिक्षेपत्रयमाभियोगिकदेव सम्बन्धिबोध्यम् । अत्र भिन्न पद्मपरिक्षेपत्रयख्यापनं तेषां भिन्न भिन्न कार्यकारित्वात् । ____ अथ परिक्षेपत्रिकस्य पद्मसर्वाग्रमाह-'एवमेव' इत्यादि । 'एवामेव' एवमेव उक्तरीत्या 'सपुव्वावरेणं' सपूर्वापरेण-पूर्वेण सहितः, अवरः सपूर्वापरस्तेन पौर्वापयमाश्रित्य स्थितरित्यर्थः, 'तिहिं त्रिभिः ‘पउमपरिक्खेवेहिं' पद्मपरिक्षेपैः कृत्वा 'एगा पउमकोडी' एका पद्मकोटी पद्म इन कथित पद्म परिक्षेपों से चारों ओर से घिरा हुआ है। (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं-(अभितरकेणं, मज्झिमएणं, बाहिरएणं) एक आभ्यन्तरिक पद्म परिक्षेप, दूसरा मध्यमक पद्म परिक्षेप और तीसरा बाह्य पदमपरिक्षेप इनमें जो (अभितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउम सथसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) आभ्यन्तरिक पद्मपरिक्षेप हैं उस में ३२ लाख पद्म है (मज्झिमए पउमपरिक्खेवे चत्तालोसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) मध्यमक जो पद्मपरिक्षेप है उस में ४० लाख पदूम है (बाहिरए पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ) तथा जो बाह्य पद्मपरिक्षेप है उस में ४८ लाख पद्म है। यह पद्म परिक्षेपत्रय आभियोगिक देव संबन्धी है यहां जो इसे भिन्नरूप से कहा गया है वह उन्हें भिन्न भिन्न कार्यकारी होने से कहा गया है। (एचामेव संपरिस्विते' ये भूग ५ से अथित ५५ परिक्षयो सिवाय मी ५ वा ५५ परिसपोथी याभेर घरायस छे. 'तं जहा' २ मा प्रमाणे छे. 'अभितरकेणं, मज्झिमएण बाहिरएण' પ્રથમ આત્યંતરિક પદ્ધ પરિક્ષેપ બીજું માધ્યમિક પદ્ધ પરિક્ષેપ અને તૃતીય બાહ્ય પદ્ધ પરિક્ષેપ से सभा २ 'अभितरए पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' 'त. २४ ५६ परिक्ष५ छ तभा ३२ बाय ५ो छ, 'मज्झिमए पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसय साहस्सीओ पण्णत्ताओ' मध्यनु २ ५५ परिक्ष५ छ तम यादी ५ पो छे. 'बाहिरए पउमपरिक्खेिवे अडयालीसं पउम सयसाहस्सीओ प० तेभा मा ५५ परिक्ष५ छे. तमा ૪૮ લાખ પદ્ધ છે. એ પદ્મ પરિક્ષેપ ત્રય અભિગિક દેવ સંબંધી છે. અહીં જે આને ભિન્ન રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે તેનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે તેઓ ભિન્ન-ભિન્ન ४यारी पाथी तेम ४उस छ. 'एवामेव सपुव्वावरेण तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा पउम Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'वीसं च' विंशतिश्च 'पउमसयसाहस्सीओ' पद्मशतसाहस्यः-विंशतिलक्षाधिकैककोटिसं. ख्यकानि पदमानि 'भवंतीति' भवन्ति इति 'अक्खाय' आख्यातं-तीर्थकरगणधरैःकथितम् । अत्रेदं बोध्यम् आम्यन्तरपद्मपरिक्षेपपद्मसंख्या द्वात्रिंशल्लक्षाणि मध्यमपद्मपरिक्षेपपद्मसंख्या चत्वारिंशल्लक्षाणि, बाह्य पद्मपरिक्षेपपदमसंख्या च अष्टचत्वारिंशल्लक्षाणि इति सर्वसंकलनया त्रिविधपद्मपरिक्षेपपद्मसंख्या विंशतिलक्षाधिका एका कोटिः (१,२०,०००००) भवति । सपरिवारायाः श्री देव्याः निवासपद्मसंख्या चैवम्-एकं पद्म (१) श्री देव्याः स पुव्वावरेणं तिहिं पउमपरिक्खेवेहिं एगा पउमकोडी वीसं च पउमसयसाहस्सीओ भवंतीति अक्खायं) इस प्रकार इन पद्मपरिक्षेपत्रयों की संख्या का प्रमाण इस प्रकार से है-श्री देवी का निवास भूत पदम एक है तथा श्री देवी के निवास भूत पदूम की चारों दिशाओं में जो पद्म हैं वे १०८ हैं चार हजार सामानिक देवों के निवासभूत पद्म ४ हजार है चार महत्तरिकाओं के निवास भूत पद्म ४ हैं आभ्यन्तर परिषदावर्ती ८ हजार देवों के निवासभूत पद्म ८ हजार हैं मध्यपरिपदावर्ती १० हजार देवों के निवासभूत पदम १० हजार है मध्यपरिषदावर्ती १२ हजार देवों के निवासभूत पद्म १२ हजार है सात अनीकाधिपतियों के निदासभूत पद्म ७ हैं । १६ हजार आत्मरक्षक देवों के निवासभूत पद्म १६ हजार हैं इस तरह सपरिवार श्रीदेवी के निवासभूत सर्व पद्मों की संख्याका जोड ५०१२० होता है । आभ्यन्तरमध्यम, एवं बाह्य पद्म परिक्षेप पद्म संख्या १ करोड २० लाख में इस संख्या को जोड देने पर एक करोड २० लाख ५० हजार एकसौ बीस (१२०५०१२०) समस्तपद्म होते हैं । अब गौतमस्वामी कोडी वीसं च पउमसयसाहस्सीओ भवंतीति अक्खाय' से प्रभारी से परिक्ष५ योनी સંખ્યાનું પ્રમાણ એક કરોડ ૨૦ લાખ હેય છે. સપરિવાર શ્રી દેવીના નિવાસભૂત પોની સંખ્યાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે છે. શ્રી દેવીના નિવાસસ્થાન રૂપ પ એક છે. તેમજ શ્રી દેવીના નિવાસભૂત પદ્મની ચોમેર ચારે દિશાઓમાં જે પડ્યો છે તે ૧૦૮ છે. ચાર સહસ્ત્રા સામાનિક દેવેના નિવાસસ્થાન રૂપ પો ચાર સહસ્ત્ર છે ચાર મહત્તરિકાઓના નિવાસ ભૂત પદ્મો ૪ છે. આત્યંતર પરિષદાવતી ૮ હજાર દેવના નિવાસ ભૂત પ ૮ સહસ છે. મધ્ય પરિષદાવત ૧૦ સહસ્ત્ર દેવના નિવાસભૂત પ ૧૦ સહસ્ત્ર છે. મધ્યમપરિષદાવતી ૧૨ સહસ્ત્ર દેવેના નિવાસસ્થાન રૂપ પદ્ધો ૧૨ હજાર છે. સાત અનીકાધિપતિઓના નિવાસ સ્થાન ભૂત પદ્મ ૭ છે, ૧૬ હજાર આત્મરક્ષક દેવના નિવાસ ભૂત પદ્ધ ૧૬ હજાર છે. આ પ્રમાણે સપરિવાર શ્રી દેવીના નિવાસભૂત સર્વ પદ્ધોની સંખ્યાને સરવાળે ૫૦૧૨૦ થાય છે. આલ્ચતર મધ્યમ તેમજ બાહ્યપદ્ધ પરિક્ષેપ પદ્મ સંખ્યા એક કરોડ ૨૦ લાખમાં એ સંખ્યાને જોડીએ તે એક કરોડ વીસ લાખ ૫૦ હજાર એકવીસ. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् ३३ श्री देवी निवासभूतपद्मचतुर्दिग्वर्ति पद्मानि अष्टोत्तरशतम् (१०८), चतुस्सहस्रसामा निक देवानां पद्मानि चत्वारि सहस्राणि (४०००), चतसृणां महत्तरिकाणां चत्वारि (४०); आभ्यन्तरपरिषद्द्वर्त्तिनाम् अष्टसहस्र देवानाम् अष्टसहस्राणि ८०००), मध्यमपरिषद्वर्त्तिनां दशसहस्रदेवानां दशसहस्राणि (१००००), बाह्य परिपवर्तिनां द्वादशसहस्र देवानां द्वादशसहस्राणि (१२०००), सप्तानाम् अनीकाधिपतीनां सप्त (७) पोडशसहस्रात्मरक्षकदेवानां च षोडशसहस्राणि (१६०००), इति सपरिवार श्री देवीनिवासभूतानां सर्वयद्मानां संकलनया पञ्चाशत् सहस्राणि एकं शतं विंशतिश्व (५०१२०) सर्वाणि निवासपद्मानि भवन्ति । आभ्य न्तरमध्यमबाह्य पद्मपरिक्षेपपरमसंख्यायां विगतिलक्षाधिकैक कोट्यात्मिकायां (१,२०,०००००) सपरिवारायाः श्रीदेव्या निवासपद्मसंख्याया विंशत्युत्तरैकशताधिकपञ्चाशत्सहस्रा त्मिकायाः (५०१२०) संमेलनेन सर्वाणि पद्मानि एका कोटि र्विशदिक्षाणि पञ्चाशत्सहत्राणि एकं शतं विंशतिश्च (१,२०,५०,१२० ) भवन्तीति । अथ पद्मदनामनिक्तं पृच्छन्नाह - ' से केणट्टेणं भंते !" इत्यादि, 'से केणद्वेणं भंते !" अथ हे भदन्त ! क्रेन अर्थेन कारणेन ' एवं वच्चइ' एवमुच्यते 'पउमद्दहे दहे ?" पद्महृदः पद्मद इति भगवामाह - 'गोयमा !' हे गौतम! 'पउमद्दणं' पद्महूदे खलु 'तत्थ - तत्थ' तत्र तत्र 'देसे तर्हि२' तस्मिंस्तस्मिन् देशे 'बहवे उप्पलाई' बहूनि उत्पलानि कमलानि 'जाव' यावत् 'सयसह सपत्ताई' शतसहस्रपत्राणि - लक्षपत्राणि यावत् प्रभु से ऐसा पूछते हैं - ( से केणट्ठे णं भंते ! एवं बुच्चह - परमद्दहे २) हें भदन्त ! आप इसे पद्महूद इस नाम से क्यों-किस कारण से कहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोवमा ! पउमद्दणं तत्त्र २ देसे तर्हि २ बहवे उप्पलाई जाव सयसहस्पत्ताई परमद्दहप्पभाई परमद्दहवण्णाभाई सिरीअ इत्थ देवी महि द्विया जाव पलिओवमट्टिईया परिवलइ से एएणद्वेणं जाव अदुत्तरंच णं गोयमा ! पउमद्दहस्स सासए णामवेज्जे पण्णत्ते न कयाइ णासि न.) हे गौतम ! पद्महृद में जगह २ अनेक कमल हैं यावत् शतसहस्त्रपत्तोंवाले पद्म हैं यहां यावत्पद से कुमुद, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र और सहस्रपत्र ' (૧૨૦૫૦૧૨૦) સમરત પદ્મો થાય છે. હવે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને આ પ્રમાણે પૂછે છે કે 'सेकेणटुणं भंते! एवं बुच्चइ - पउमदेहे २' हे लहन्त ! तमे आने पद्म गृह या नाभथी शा अरथी हे। छो ? सेना श्वामभां प्रभु डे छे - 'गोयमा ! पउमद्दणं तत्थ २ देसे तर्हि बहवे उप्पलाई जाव सय सहस्सपत्ताई परमदहापभाई पउमदहवण्णाभाई सिरीअ इत्थ देवी महिद्धिया जापलिओ मईया परिवसइ, से एएणट्टेणं जाय अदुत्तरं च णं गोयमा ! पउमदहस्स सासए णामघेज्जे पण्णत्ते ण कयाइ णासि न' हे गौतम! पद्माहृदभां हे! आमने उभा छे યાવત્ શત સહસ્ર પાંદડાવાળા પદ્મો છે. અહીંયા યાવત પદી કુમુદ, સુભગ, સૌગધિક, પુંડરીક, મહાપુ ડરીક, શતપત્ર અને સહસ્રપત્ર એ સર્વ કમળનું ગ્રહણ થયું છે, એ સર્વે ज० ५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3E RE: - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उत्पलानि सन्ति ! यावत्पदेन-कुमुदसुभगसौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रा. णीति संग्राह्यम् । तानि उत्पलानि कीदृशानि ? इत्य पेक्षायामाह - 'एउमदहप्पभाई' पद्महदप्रभाणि पदमइदाऽऽकाराणि आयत चतुरस्राकाराणीत्यर्थः । एतेन तन्त्र पसहदे वानस्प तानि पद्महूदाऽऽकाराणि पदमानि बहूनि सन्ति, शानि चाशाचतानि पूर्वोक्त प्रमाणानि पार्थिवानि तु शाश्वतामोति सूचितम् , तथा 'पउमद्दह वण्णामाई' पद्मद वर्णाभानि पदमहृद वर्णस्येवाऽऽभा प्रतिभासो येषां तानि तभ-सद्भहद वर्णप्रतिभासानि ततश्च पद्मानां विशेषणद्वयेन तानि पदमानि तदाकारत्वाचर्णत्वाच्च पद्मदानोति प्रसिद्धानि, ततस्तत्पमहदाख्यपद्मयोगादयं जलाशयोऽपि पद्महूदः, उभोपामपि नाम्नामनादि कालप्रवृत्तत्वेन नेतरेतराश्रयदोषः।। अथ पार्थिवपद्मतोऽप्यस्य नाम प्रवृत्ति र्जाताऽस्तीति ज्ञापयितुं प्रकारान्तरेण नामकारणमाह 'सिरीय इत्थदेवी' श्रीश्चात्र देवीत्यादि अन अस्मिन् पद्महदे श्री लक्ष्मीः देवी इन सब कमलों का प्रण हुभा है ये सब उत्पल पगढइ के जैसे आयत चतुरस्र आकारवाले हैं-इससे उस पदन हद में वनस्पतिकायिक कमल भी जो कि पद्मद के आकारवाले हैं बहुत परन्तु ये अशाश्वत है तथा पूर्वोक्त प्रमाण वाले जो कमल-पल-हैं वे शाश्वरा हैं और ये पृधिचीकायिक हैं ऐप्ता सूचित किया गया है ये पद्म पद्नहद के वर्ण के जैसे प्रतिभासित होते हैं इस तरह पद्मद के आकार वाले और पद्नहद के वर्ण के जैसे प्रतिभासदाले पद्मों को पदमहुद कह दिया गया है-अतः इनके भाव से इस जलाशय को भी पदम हृद ऐसा कहा गया है। इन दोनों के पद्म ऐसे जो नाम हैं वे अनादि काल से चले आ रहे हैं-इस कारण इतरेतराश्रय दोष भी इन दोनों में नहीं है, पार्थिव पद्म से भी इस जलाशय की पभ ह्रद इस नामकी प्रवृत्ति हुई है इस बात ઉત્પલે પધહદ જેવા આયત ચતુરગ્સ અકારવાળા છે. એથી તે પદાહદમાં વનસ્પતિકાયિક કમળ પશુ-કે જે પદના આકારવાળા છે–અનેક છે. પરંતુ એ સર્વ પ અશાશ્વત છે. તેમજ પૂર્વોક્ત પ્રમાણવાળા જે કમળો–પદ્મો- છે તેઓ શાશ્વત છે અને પૃથ્વીકાયિક છે. આ પ્રમાણે સૂચિત કરવામાં આવેલ છે. એ પદ્મ પદના વર્ણ જેવા પ્રતિભાસિત હોય છે. આ પ્રમાણે પહુદના આકારવાળા અને પવહુદના વણ જેવા પ્રતિભાસવાળા પોને પદ્મહદ કહેવામાં આવેલ છે એટલા માટે એમના ભાવથી એ જલ શયને પણ પદ્મહદ કહેવામાં આવેલ છે. એ બન્નેનું “પ” એવું જે નામ રાખવામાં આવેલ છે તે અનાદિ કાળથી ચાલતું આવી રહ્યું છે. તેથી ઈતરેતરાશ્રય દેષ પણ એઓ અને માં નથી. પાર્થિવ પટ્ટાને લીધે પણ આ જળાશયની પવહુદ એ નામની પ્રવૃત્તિ થઈ છે એ વાતને સમજાવવા માટે સૂત્રકાર પ્રકા૨ાતરથી નામકરણનું કથન કરે છે તેઓ શ્રી કહે છે કે એ પધહદમાં શ્રી દેવી રહે છે અને તે કમળમાં નિવાસ કરે છે. એથી શ્રી નિવાસ યોગ્ય , Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३ तत्रस्थितभवनादिवर्णनम् पद्मनिवासिनी परिवसति, ततश्च श्रीनिवासयोग्यपदनाश्रयत्वात् पद्मोपलक्षितो इद इति पद्मद आख्यायो, मध्यमपदलोपिकर्मधारय तत्पुरुषसमासात् । सा च श्रीः कीदृशीः ? इत्याह-'महिडिया' महद्धिका जार' यावद पलिओवाहिया एल्योपमस्थितिका महद्धिका इत्यारभ्य पल्यापमस्थितिकेति पर्यन्तानि विशेषणवाचकपदानि यात्पदेन सङ्ग्रहाह्याणि, तथाहि-मह दिका, महाद्युतिका, महाबला, महायशाः, महासौख्या, महानुभावा, पल्योपम स्थितिका, एतद्वन्याख्याऽष्टमसूत्रस्य विजयद्वारदेववर्णनाधिकारतो बोध्या, केवलं स्त्रीत्व पुंस्त्वकृनो भेदत्र पुस्त्वेनात्र तु स्त्रीत्वेन निर्देश इति सर्वभन्यत्समानम् । ___ अथ तत्र पद्महदे शाधतत्वं गवस्थापयितुमा:--'से एएणटेणं' इत्यादि-'से एएणटेणं' सः पद्महदः एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन 'जाव' यावत्-यावत्पदेन "एवमुच्यतेपद्मदः पद्मदः" इति संग्राह्यम् , 'अदुतरं च ण' अदुतरम् अथ च खलु 'गोयमा ! हे गौतम ! 'पउमद्दहस्स सासए' पदृपहूदस्य शाश्वतं शश्वत् सर्वदा भवः शाश्वतं 'णामधेज्जे' को समझाने के लिये अब सूत्रकार प्रकारान्तर से नामकरणका कथन करते हैं-वे कहते हैं कि इस पद्म इद में श्रीदेवी रहती है और वह कमल में निवास करती है इसलिये श्रीनिवासयोग्य पदन का आश्रय होने से इस जलाशय का नाम पद्महूद ऐसा कहा गया है शापार्थिव की तरह यहां मध्यम पदलोपी तत्पुरुष समान हुआ है यह श्रीदेवी महादिक है यावतू इसकी आयु एक पल्यो. पमकी है यहां यावत्पद ले' महाद्युतिका, महाबला, महायशाः, महासौख्या, महानुभावा' इन पदों का संग्रह हुआ-है इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्रस्थ जो विजय द्वार के देव का वर्णनाधिकार है उससे जानलेनी चाहिये वहां जो ये पद प्रयुक्त हुए है उन्हें लिङ्ग वात्यय से यहां श्रीदेवी के कारण निर्दिष्ट करलेना चाहिये इस प्रकार से पद्मद नाम होने का कारण का उल्लेखकरके अब सूत्रकार यह प्रकट करते है कि इस प्रकार जो इस हद का नाम है वह પદ્મનું શ્રયભૂત હેવાથી એ જલાશયનું નામ પડ્યહુદ છે. શ કાર્થિવની જેમ અહીં માધ્યમપદ લેપી તપુરુષ સમાસ થયેલ છે. એ શ્રી દેવી મહદ્ધિક છે યાવત્ એની ઉમર से ५८।५म सी छे. ही तू ५.थी--'मह शुतिकाः, महाबलाः, महायशाः, महासौख्याः, महानुभावाः' ये ५ १ ५५॥ छ. मे पहोनी व्याच्या अष्टम सूत्रस्थ रे વિજય દ્વારના દેને વર્ણન વિકાર છે ત્યાંથી જાણી લેવું જોઈએ, ત્યાં જે એ પદ પ્રયુક્ત થયા છે તેમને લિંગ વ્યયથી અહીં શ્રી દેવીના કારણે નિર્દિષ્ટ કરી લેવા જોઈએ. આ પ્રમાણે પદ્મના નામ સંબંધી કારણો સ્પષ્ટ કરીને સૂત્રકાર હવે એ પ્રકટ કરે છે કે આનુ જે આ પ્રમાણે નામ છે તે અનાદિ નિધન છે. જેમકે એવું જ નામ એનું ભૂતકાળમાં પણ હતું એવું જ નામ એનું વર્તમાન કાળમાં છે અને એવું જ એનુ નામ ભવિષ્યત કાળમાં પણ રહેશે જ અને ભૂતકાળ એ ન તે કે જેમાં એ નામ અસ્તિત્વ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नामधेयं नाम 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् शाश्वतत्वाद् स पद्महद: 'ण कयाइ णासि न.' न कदाचित् नाssसीत्, न कदाचिद् न भवति, न कदाचिद् न भविष्यति, अभूच्च भवति च भविष्यति च एतद्विवरणं चतुर्थसूत्रस्थ पवरवेदिका शाश्वतत्वाधिकाराद्बोध्यम् ।। सू० ३ ॥ अथ गङ्गा सिन्धु महानदी स्वरूपमाह - 'तस्स ण' इत्यादि । मूलम् - तस्स णं पउमद्दहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगा महाणई पवूढा समाणी पुरस्थाभिमुही पंच जोयणसयाई एव्वपूर्ण गंता गंगावण कूडे आवत्ता समाणी पंच तेवीसे जोयणसए तिष्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणामिमुही पव्त्रए गंता महया महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग जोयणसइएणं पत्राएणं पवडइ । गंगा महाई जओ पवडइ, इत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता । सा णं जिब्भिया अद्धजोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं मगरमुह विउट्टसंठाणसंटिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा० । गंगा महाणई जत्थ पत्रडइ, एत्थ णं महं- एगे गंगप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सवि जोयणाई आयामविवखंभेणं णउयं जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले समतीरे वइरामयपासाणे वइरतले सुवण्णअनादि निधन है क्योंकि ऐसा ही नाम इसका भूत काल में था, ऐसा ही नाम इसका वर्तमान काल में हैं और ऐसा ही इसका नाम भविष्यत्कालमेही रहेगा इसका भूत काल ऐसा नहीं हुआ है कि जिसमें यह नाम नहीं था वर्तमान काल भी इसका ऐसा नही है कि जिसमें यह नाम नहीं चल रहा है और भविष्यत् काल भी इसका ऐसा नहीं होगा कि जिसमें इसका यह नाम नहीं होगा अतः इसका ऐसा नाम था, अब भी यह है और भविष्यत् में भी यही रहेगा इस प्रकार से त्रिकाल में भी इसका अस्तित्वख्यापन करने से यह नाम इसका अनिमित्तक है ऐसा प्रकट किया गया है || सू० ३ ॥ ન હતું. આના વર્તમાનકાળ પણ એવેા નથી કે જેમાં એ નામનું અસ્તિત્વ ન હાય, અને આને ભવિષ્યત કાળ પણ આવે થશે નઠુિં કે જેમાં આનુ એ નામ અસ્તિત્વ ન ધરાવતું હોય. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આનું આ પ્રમાણેનું નામ હતું આપ્રમાણે નામ અત્યારે પણ છે અને ભવિષ્યત કાળમાં પણ એવું જ નામ રહેશે. આ પ્રમાણે ત્રિકાલમાં એનુ અસ્તિત્વભ્યાપન કરવાથી એ નામ એનું અનિમિત્ત છે આમ પ્રકટ કરवामां आवे छे. ॥ ३ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ३७ सुब्भरययामयबालुयाए वेरुलियमणिफालियपडलपञ्चोयडे सुहोयारे सुहोत्तारे णाणामणितित्थसुबद्धे वट्टे अणुपुव्वसुजाय वप्पगंभीरे सीयलजले संछण्णपत्तभिसमुणाले बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्तसयसहस्सात्तपफुल्ल केसरोवचिए छप्पयमहुयरपरिभुज्जमाणकमले अच्छविमलपत्थसलिले पुणे पडिहत्थ भमंतमच्छकच्छभ अणेगसउणगणमिहुणवियरिय सदुन्नइयमहुरसरणाइए पासाइए ४। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेगं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते वेइयावणसंडगाणं पउमाणं बण्णओ भाणियवो । तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तं जहा-पुरस्थिमेणं१ दाहिणेणं२ पञ्चत्थिमेणं३, तेसि णं तिसो. वाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पपणत्ते, तं जहा-वइरामया णेम्मा, रिट्टामया पइट्ठाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया, लोहियक्रमईओ सूईओ वइरामया संधी, णाणा मणिमया आलंबणा आलंबणबाहाओत्ति । तेसि णं तिसोवागपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता। ते णं तोरणा जाणामणिमया णाणामणिमएसु खंभेसु उवणिविसंनिविट्ठा विविहमुत्तरोवइया विविहतारारूपोवचिया ईहामिय उसहतुरगगरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभरमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेइया परिगयाभिरामा विजारजमलजुयगजंतजुत्ताविव अच्चीसहस्समालणिया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा घंटा वलिचलिय महुरमणहरसरा पासाईया ४। तेसि णं तोरणाणं उरि बहवे अट्र मंगलगा पण्णत्ता, तं जहा-सोथिए१, सिरिवच्छे २, जाव पडिरूवा तेसि णं तोरणाणं बहवे किष्णचामरज्झया जाव सुकिल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा० रुप्पपट्टा वइरामयदंडा जलयामलगंधिया सुरम्मा पासाईया ४ । तेसि णं तोरणाणं उपि बहवे छत्ताइच्छत्ता पड़ा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे गाइपडागा घटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्तपत्त हत्थगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ४ । तस्त णं गंगाप्पवाय. कुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते, अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं पण्णवीसं जोयणाइं परिबखेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सच्चवइरामए अच्छे सण्हे० । से णं एमाए परमवरवेड्याए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिरिक्वित्ते, वपणओ भाणियव्यो। गंगादीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिउजे भूमिभागे पण्णत्ते। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे भवणे पणत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विकखंभेणं देसूणगं च कोसं उ8 उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसणिविटे जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे से केणट्रेणं जाव सासए णामधेज्जे पण्णत्ते ॥सू० ४॥ छाया-तस्प खलु पद्महदस्य पौरस्त्येन तोरणेन गङ्गा महानदी प्रव्यूढा सती पूर्वाभिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्वतेन गत्वा गङ्गावत कूटे आवृत्ता सती पञ्चत्रयोविंशति योजनशतानि जींश्च एकोनशितिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलीहारसंस्थितेन सातिरेकयोजनशतकेन प्रपातेन प्रपतति गङ्गामहानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिविका प्रज्ञता। सा खलु जिविका अद्रयोजनमायामेन पद सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण अर्द्धकोशं वाहल्येन मारनुखविकृतसंस्थानसंस्थिता सर्वचत्रमयी अच्छा श्लक्ष्णा ० । गङ्गा महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं गङ्गाप्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , पष्टिं योजनानि आयामविष्कम्भेण, नवतं .योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण, दश योजनानि उद्वेधेन अच्छं श्लक्ष्णम् रजतमयवालुकाकम् वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यवतटं मुखावतारं सुखोतारं नानामणियोर्थसुबद्धं वृत्तम् आनुपूर्यसुजातवप्रगम्भीरशीतल जलं संछन्न पत्र बिसमृणालं बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्र सहस्र पत्र शतसहस्रपत्र प्रफुल्ल केसरोवचितं पदपद मधुकरपरिभुज्यमानकमलम् अच्छविमलपथ्यसलिलं पूर्ण परिहस्तभ्रमन्मत्स्यकच्छपानेकशकुनगणमिथुनपविचरितशब्दोम्नतिकमधुरस्वरनादितं प्रासादीयम् ४ । तत् खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्त , वेदिकावनपण्डयोः पद्मानां च वर्णको भणितव्यः । तस्य खलु गङ्गाप्रपात कृण्डस्य त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पौरस्त्ये दक्षिणे पाश्चात्ये तेषां खलु Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ३९ त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयाः नेमाः, रिष्टम यानि प्रतिष्ठानानि, वैडूर्यमयाः स्तम्भाः, सुवर्णरुप्यमयानि फल कानि, लोहिताक्षमस्य: सूचयः, वज्रमयाः सन्धयः, नानामणिमयानि आलम्बनानि आलम्बनबाहा इति । तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं२ तोरणाः प्रज्ञप्ताः । ते खलु तोरणा नानामणिमयाः नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टसंनिविष्टाः विविधमुक्तान्तरोपचिताः विविधतारारूपोपचिताः ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नररुरुशरमचमरकुजरतनलतापमलता भक्तिचित्राः स्तम्भोद्गतवज्रवेदिका परिगताभिरामाः विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्ता इव अर्चिः सहस्रमालनिकाः रूपकसहस्रकलिताः भासमानाः बाभास्यमानाः चक्षुर्लोकनश्लेषाः सुखस्पर्शाः सश्रीकरूपाः घण्टावलिचलितमधुरमनोहरस्वराः प्रासादीयाः ४ । तेषां खलु तोरणानामुपरि बहून्यष्टाष्टमङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-स्वस्तिकं १ श्रीवत्सः२ यावत्प्रतिरूपाणि४ । तेषां खलु तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरध्वजाः यावत् शुक्लचामरध्वजाः अच्छाः श्लक्ष्णाः रूप्यपट्ठाः वज्रमयदण्डाः जलजामलगन्धिकाः सुरम्याः प्रासादीयाः घण्टा युगलानि चामरयुगलानि उत्पलहस्तकाः-पमहस्तकाः यावत् शतसहस्रपत्रहस्तकाः सर्वत्नमयाः अच्छा. यावत प्रतिरूपाः । तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खल्लु महानेको गङ्गाद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, अष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पञ्चविंशति योजनानि परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशावुच्छितो जलन्तात् , पर्वयनमयः अच्छः लक्षणः । स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षतः वर्णको भणितव्यः । गङ्गा द्वीपस्य खलु द्वीपस्योपरि बहुसमरमणीयो शूमिभागः प्रज्ञप्तः । तस्य खलु बहुमध्यदेशमागे अत्र खलु एकं महद् गङ्गाया देव्या एकं भवनं प्रज्ञतम् , क्रोशमायामेन अर्द्धकोशं विष्कम्भेण देशोनकं च क्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन अनेक स्तम्भशतसम्मिविष्टं यावद बहुमध्यदेशभागे मणिपोठिकायां शयनीयम् । अथ केनार्थेन यावत् शाश्वतं नामधेय प्रज्ञशम् ।।४। टीका-'तस्स गं' इत्यादि । 'तस्स णं तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु 'पउमद्दहस्स' पद्मइदस्य 'पुरस्थिमिल्लेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन 'गंगा' गङ्गा-गङ्गानाम्नी 'महानई' महानदी-स्वपरिवारभूतचतुर्दशसहस्र नदी सम्पन्नत्वेन स्वतन्त्रतया समृद्रगामित्वेन गंगा सिन्धु महानदियों के स्वरूप का कथन 'तस्स णं पउमद्दहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं' टीकार्थ-(तस्स णं पउमदहस्स पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं) उस पद्महूद के पूर्व दिगवर्ती तोरण से (गंगा महाणई पबूढा समाणी पुरत्थाभिनुही पंचजोयणसयाई ગંગા–સિધુ મહાનદીઓના સ્વરૂપનું કથન'तस्स णं पउमदहस्स पुरात्थिम्मिल्लेणं तोरणेणं इत्यादि' टीय-'तस्स णं पउमदहस्स पुरथिम्मिल्लेणं तोरणेणं' ते पाहना पूर्व पिता तथी 'गंगा महाणई पवूढा समाणी पुरत्थाभिमुही पश्चजोयणसयाई पब्बएणं गता गंगा. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे च प्रकृष्टा नदी, एवमग्रे सिन्ध्वादिष्वपि प्रकृष्टत्वं बोध्यम् , 'पवूढा' प्रव्यढा निःमृता 'समाणी' सती 'पुरत्थाभिमुही' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वाभिमुखी 'पंच जोयणसयाई' पञ्चयोजनशतानि 'पर एणं' पर्वतेन-पर्वतमार्गेण यद्वा पर्वते पर्वतोपरि 'ण' खल 'गंता' गत्वा 'गंगावणकूडे' गङ्गावर्तकूटे-गङ्गावर्तनामके कटे गिरिशिखरे अत्र सामीप्ये सप्तमी तेन तत्समीपे गङ्गावर्तकूटस्याधस्ताद् 'आवत्ता' आवृत्ता-परावृत्ता 'समाणी' सती प्रत्यावृत्त्येत्यर्थः 'पंच तेवीसे जोयणसए' पञ्चत्रयोविंशानि योजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशतयोजनानि, 'तिण्णि य एगणती पइभाए जोयणस्स' त्रीश्च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य 'दाहिणाभिमुही' दक्षिणाभिमुखी 'पबएणं गता' पर्वतेन गत्वा 'महया घडमुहवत्तएणं' महाघटमुखप्रवृत्तिकेन महाघटः बृहद्घटस्तस्य यन्मुखं तस्मात् प्रवृत्ति निगमो यस्य स जलसमूहः स इव महाघटमुखप्रवृत्तिकस्तेन तथा-महाघटपुखानिस्सरजलसमूहवच्छब्दायमानवेगवता प्रपाते नेत्यग्रि. मेण सम्बन्धः, 'मुत्तावलिहारसंठिएणं' मुक्तावलिहारसंस्थितेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो पव्वएणं गंता गंगावत्तणकूडे आवत्ता समाणी) गंगा नामकी- महानदी अपनी परिवार भूत १४ हजार नदियों रूपी सम्पत्ति से युक्त होने के कारण तथा स्वतन्त्र रूप से समुद्रगामिनी होने के कारण प्रकृष्टनदी-निकली हैं सिन्धु आदिनादियों में भी इसी प्रकार से प्रकृष्टता जाननी चाहिये यह गंगा महानदी पूर्वाभिमुखी होकर पांचसो योजन तक उसी पर्वन के ऊपर बहती हुई गङ्गावर्त नामके कूट तक न पहुंच कर प्रत्युत उसके पास से लौटकर (पंच तेवीसे जोयणसए तिणि एगूणवीसहभाए जोयणस्त दाहिणाभिमुही पव्वए णं गंता) ५२३,२ योजन तक दक्षिणदिशा की तरफ उसी पर्वत से मुडजाती है (महया घडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिए णं साइरेगं जोयणसइएणं पवाएणं पव. डइ) और बडे जोर शोरके साथ घटके मुख से निकले हुए शब्दायमान जल प्रवाह के तुल्य तथा मुक्तावलिनिर्मित हार के जैसे संस्थान वाले ऐसे एक सौ वत्तणकूडे आवत्ता समाणी' ॥ महा नही पोताना परिवार भूत १४ १२ નદીઓ રૂપી સંપત્તિથી યુક્ત હોવા બદલ તેમજ સ્વતંત્ર રૂપથી સમુદ્રગામિની હવા બદલ પ્રકૃષ્ટ નદી છે. સિધુ આદિ નદીઓમાં પણ આ પ્રમાણે જ પ્રકૃષ્ટતા જાણવી જોઈએ. એ ગંગા મહાનદી પૂર્વાભિમુખ થઈને પાંચસો જન સુધી તેજ પર્વત ઉપર પ્રવાહિત થતી आवत नाम छूट सुधा नलि पलथीन परतुनी पासेथी पाठीशन 'पंच तेवीसे जोयणसए तिण्णिएगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गता' ५२32 यान सुधी क्षिाए हिशा त२५ ते ५% पासेथी पाछी ३२ छे. महया धडमुहपवत्तएणं मुत्तावलिहारसंठिए णं साहाइरेग जायणसइएण पवारण पवडई' मने भूम प्रय गथी अने प्रय २१२ सा2 घाना મુખમાંથી નિરુત શબ્દમાન જલ પ્રવાહ તુલ્ય તેમજ મૂક્તાવલિ નિર્મિત હાર જેવા સંસ્થાન Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सूः ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ४१ 1 हारस्तत्संस्थितेन तदा कारेण - प्रपाने धावल्येन बुदबुदानां तदाकारतया च तत्सादृश्यं बोध्यम् 'साइरेग जोयणस एवं सातिरेक योजनशतिकेन सातिरेका किञ्चिदधिका योजनशतिका योजनशत्येव यौनशतिका शतयोजनानि मानत्वेन यस्य तथाभूतेन यद्वा सातिरेका योजनाती प्रमाणमस्य तथाभूतेन 'पवारणं' प्रपातेन निर्झरेण तद्द्वारा 'पवड' प्रपतति प्रपात - कुण्डं प्राप्नोति, 'गंगा महाणई जओ' राजामहानदी यतः यस्मात् स्थानात् 'पवडई' प्रपतति, ' इत्थ णं' अत्र गङ्गाप्रपातस्थाने खलु 'महं' महती बृहती 'एगा जिब्भिया' एका जिविका fararaणाली 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता 'सा णं जिम्भिरा' सा व जिह्निका 'अद्ध जोयणं आयामेणं' अर्धयोजनमायामेन, 'उसकोसाई जोयणाई' सक्रोशानि कोशसहितानि षट् - योजनानि 'विक्खंभेण' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'अद्धकोसं वाहल्लेणं' अर्द्धकोशं बाहल्येन पिण्डेन 'मगरसं संठिया' मकरमुत विद्युतसंस्थानसंस्थिता विवृतमकरमुखाकारा अत्र विवृतत्वात् परप्रयोगः, 'सव्ववरामई' सर्वत्रमयी सर्वात्मना वज्ररत्नमयी 'अच्छा सण्डा ०' अच्छा लगा इत्यादि प्रारवत् 'गंना महागाई जत्थ पवड' यत्र गङ्गामहानदी प्रपतति 'एत्य णं' अत्र गङ्गाप्रपातस्थाने खलु 'महं एगे' एकं मत् बृहत् 'गंगप्पवाययोजन से भी कुछ अधिक प्रमाणोपेत प्रवाह से प्रपात कुण्ड में गिरती है (गंगामहाई जओ व इत्थपना यह जिनका पण्णत्ता) गंगामहानदी जिस स्थान से प्रपात कुण्ड में गिरती है वहां पर एक विशाल - जिह्निका जैसी आकृति - वाली प्रणाली है (सा पंजिनिया अद्ध जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्रमेणं असं बाहल्ले मगर दुह बिउ संठाणसंठिया सव्यवहरामई अच्छा सहा) यह जिहा के जैसी प्रणाली आयाम की अपेक्षा आधे योजन की है और विष्कम्भवस्तार की अपेक्षा यह १ कोश सहित ६ योजन की है । तथा इसका बाहल्य- मोटाई आये कोशका है इसका आकार मगर के खुले हुए सुख के जैसा है यह सर्वात्मना रत्ननयी है अच्छा-आकाश और स्फटिक के जैसी विलकुल निर्मल है और चिकनी है आर्य होने के कारण यहां विवृत शब्द का વાળા એકસા યન કરતા પશુ કંઈક અધિક પ્રમાણાપેત પ્રવાહથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે 'गंगा महाणई जओ पत्र, इत्थण एगा महं जिन्मिया पण्णत्ता' गंगा भडानही ने स्थान ઉપરથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાં એક વિશાળ જિહ્વા જેવી આકૃતિ ધરાવતી પ્રણાલી छे. 'साणं जिमिया अद्ध जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं बाहल्लेण मगर मुहबिउट्ठ संठाण संठिया सव्व बरामई अच्छा सहा' में दिखा नेवी પ્રણાલી આયામની અપેક્ષાએ અર્ધો યેાજન જેટલી છે અને કંભની (વિસ્તાર)ની અપેક્ષાએ એક ગઉ સહિત ૬ ચૈાજન જેટલી છે. તેમજ એની મેટાઇ (બાહુલ્ય) અર્ધા ગાઉ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી છે. અચ્છા--આકાશ અને સ્ફટિક જેવી એ તદ્દન નિળ અને સ્નિગ્ધ છે. આપ ડાવા બદલ અહી વિવૃત્ત શબ્દના ૫૬ પ્રયાણ થયેલ છે. ज० ६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे कुंडे' गङ्गाप्रपातकुण्डं 'णाम' नाम गङ्गाप्रपातकुण्डनामकं 'कुंडे' कुण्डं-यथार्थनामकं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तस्य मानाद्याह-'सर्टि जोयणाई' इत्यादि, 'सर्टि जोयणाई' षष्टिं योजनानि आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् ‘णउयं नर-नवत्यधिक 'जोयणसयं' योजनशतं "किंचिविसेसाहियं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना 'दसजोयणाई उव्वेहे। दशयोजनानि उद्वेधेन भूगनत्वेन 'अच्छे अच्छं स्फटिकवदुज्ज्वलम् 'सहे' श्लक्षणं-चिक्कणम् पुनः कीदृशमित्याहि 'रययामयकूले' इत्यादि, 'रययामयक्ले' रजतमयक्लं-रजतमयतटम् , 'समतीरे' समतीरं समानतटकम् , 'वइरामयपासाणे' वज्रमयपाषाणं वज्ररत्नमयपाषाणयुक्तम् , 'वइरतले' बज्रतलं वज्ररत्नमयतलयुक्तम् 'सुवण्ण सुब्भरय. यामयवालुयाए' सुवर्णशुभ्ररजतमयवालुकाकं शुभ्रं-शुक्लं यत् सुवर्ण रजतंचेत्युभयमयीवालुका यत्र तत्तथा भूतम् 'वेरुलियमणिकालियाडलपच्चोयडे' वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यव. तटं वैडूर्याख्यमणीनां स्फटिकानां च य पटलः समूहः तन्मयानि प्रत्यवतटानि तटसमीपवतिन उन्नतप्रदेशो यस्य तत्तथा 'सुहोयारे' सुखावतारं सुख करजलप्रवेशयुक्तं 'सुहोत्तारे' सुखोत्तारं सुखकरजलनिर्गमनयुक्तस् 'नानामणितित्थसुबद्ध' नानामणितीर्थसुबद्धं-अनेकविधमपर प्रयोग हुआ है (गंगा महानई जत्थ पचडई, एत्थ णं एगे महं मंगप्पवायकुंडे णामं कुडे पण्णत्ते) गंगा महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एकश्शिाल गंगा प्रपात कुण्ड नामका कुण्ड है (सहि जोषणाई आयामविखंभेणं न उभं जोयण सयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं दस जोयणाई उबेहेणं अच्छे सण्हें) आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा यह ६. योजल का है कुछ विशेषाधिक १९० योजन का इसका परिक्षेप है १० योजन की इसकी गहराई है यह आकाश और स्फटिकमणि के जैसा निर्मल है तथा चिकना है (रययामयकूले) इसका तट रजतमय है। (समतीरे) और वह सम है नीचा ऊंचा नहीं है (वइरामयपासाणे) वज्रमय इसके पाषाण-पत्थर हैं (वइरतले, सुवण्ण सुम्भरययामयवालयाए, वेरुलियमणि फालिय पडलपच्चोयडे, सुहोआरे, सुहोत्तारे, णाणामणि'गंगा महानई जत्थ पत्रडइ, एत्थणं एगे महं गंगाप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' ॥ महानदी न्यां ५3 छ त्यो से 11 प्रात ७ नाम छ. 'सढि जोयणाई आयाम विक्खंभेणं नउअं जोयणसयं किंचि विसोसाहियं परिक्खेवणं दस जोयणाई उठवेहेणं अच्छे सण्हे' આયામ અને વિડકંભની અપેક્ષાએ એ ૬૦ એજન જેટલું પ્રમાણ ધરાવે છે. કંઈક વિશેષાધિક ૧૯૦ જન પ્રમાણ આને પરિક્ષેપ છે. ૧૦ એજન જેટલી આની ઊંડાઈ છે. એ माश सन २६८५ मशुिवत् नि छ. तेभ स्निग्ध छ 'रयथामय कूले' सेना विना। भशतभय छे. 'समतीरे' मन ते समजे. नाया अया नथी. 'वइरामयपासाणे' भय सना पाषाणे-५०।-छे, 'वइरतले सुवण्णसुब्भरययामयबालुयाए, वेरुलियमणिफालिय पडल्लपच्चोयडे, सुहोआरे; सुहोत्तारे, णाणामणितित्थसुबद्ध बट्टे अणुपुव्वसुजाय वप्प गंभीरसीअलजले संणपत्तभिसमुणाले' मेने। तबमा ५० छ. सभा २ वायु Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् णिभिः सुबद्धं तीर्थम् अवतरणोत्तरणमार्गों यस्य तत्तथा अत्र प्राकृतत्वा तीर्थशब्दस्य पूर्वप्रयोगः सुबद्धशब्दस्य च परप्रयोगः, 'वट्टे' वृतं यत्तुलम्, 'आणुपुवसुजायवप्पगंभीरसीयलजले' आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलम् आनुपूर्येण क्रमेण सुनातं सुनिष्पन्नं वर्ष पाली यस्य, तच्च गम्भीरम् अगाधं शीतलं जलं यत्र तत्तथा, उभयो कर्मधारयः। 'संछण्णपत्तभिसमुणाले' संछन्नपत्रविसमृणालं-संछन्नानि व्याप्तानि पत्रविसमृणालानि पद्यानां पत्रकन्दनालानि यत्र तत्तथा, 'बहुउप्पलकुमुयणलिणतुभगसोगंधियपोंडरीयमहापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त सयसहस्स पत्तपफुल्लकेसरोचिए' बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपशोभितं तत्र बहूनि प्रचुराणि प्रफुल्लानि विकसितानि यानि उत्पलानि चन्द्रविकाशीनि कमलानि, पद्मानि सूर्यविकाशीनि कमलानि, कुमुदानि-कैरवाणि, तान्यपि चन्द्रविकाशीनि श्वेतरक्तादि वर्णानि भवन्ति तथा नलिनानि तित्थ सुबद्धे बट्टे आणुपु वसुजायवप्पगंभीरसीअलजले संछण्णपत्तभिसमुणाले) इसका तलभाग वनमय है इसमें जो वालुका समूह है वह सुवर्ण की और शुभ्र रजत की मिलावटवाली है इसके तटके आसन्नवर्ती जो उन्नत प्रदेश है वे वैडूर्य और स्फटिक के पटल से निर्मित हैं इसमें प्रवेश करने का और बाहर निकलने का जो मार्ग है वह सुखकर है घाट इसके अनेक मणियों द्वारा सुबद्ध हैं यह वर्तुल गोल है इसमें जो जल भरा हुआ है वह क्रमशः आगे २ अगाध होता गया है और शीतल होता गया है यह कमलों के कन्दो एवं पत्तों नालो से व्याप्त हो रहा है । (बहु उप्पलकुमुदणलिण सुभग सोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सय. पत्त सहस्तपत्तसयसहस्सपत्तपफुलकेसरोवचिए) यह प्रफुल्लित उत्पलों की, कुमु दों की, नलिनों की, सुभगों की, सौगन्धिकों की, पुण्डरीकों की, महापुण्डरीकों की, शतपत्रवाले कमलों की, हजार पत्रवाले कमलों की, एवं लाखपत्तों वाले कमलों की, किञ्जल्क से उपशोभित है चन्द्रविकाशी कमलों का नाम उत्पल है સમૂહ છે તે સુવર્ણની અને શુભ્ર રજતન વાલુકા ઓથી યુક્ત છે, અને તટના આસન્નવતી જે ઉનત પ્રદેશ છે તે વૈડૂર્ય અને સ્ફટિકના પટલથી નિર્મિત છે. એમાં પ્રવેશ કરવા માટે અને બહાર નીકળવા માટે જે માગે છે તે સુખકર છે. એના ઘાટે અનેક મણિઓ દ્વારા સુબદ્ધ છે, એ વસ્તુ લગેલાકારમાં છે. એમાં જે પાણી છે તે અનુક્રમે આગળ-આગળ અગાધ થતું ગયું છે અને શીતળ થતું ગયું છે એ કમળાના કંદ तभा पाये। मने नासोथी ०५६ २७ २हो छ 'बहुउप्पल कुमुदणलिण सुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त सयसहस्तपत्तपफुलकेसरोवचिए' से प्रति त्यसोनी, भुनी, नानानी, सुभगानी, सोधिनी, पुनी , महाधुरीमानी, શતપત્રવાળા કમળની, કિંજલ્કથી ઉપાભિત છે ચન્દ્રવિકાશી કમળાનું નામ ઉત્પલ છે Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सुभगानि कमलविशेषाः सौगन्धिानिहाराणि श्वेतवर्णानि सुगन्धीनि कमलानि, पुण्डरीकाणि-श्वेत कमलानि, तान्येव महान्ति-महापुण्डरीकाणि, शतपत्राणि-शतविशिष्टानि कमलानि, सहस्रपत्राणि-पत्रसहस्रयुक्तानि कमलानि, शतसहस्रपाणि -लक्षपत्रयुक्तानि कमलानि तेषां केसरैः किंजल्कैः उपशोभितम् । यद्वा-वहनि-प्रचुराणि प्रफुल्लानि विकस्वराणि केसरोपशोभितानि च उत्पलादीनि यत्र तत्तथा । अत्र प्रथम विग्रह प्रफुल्लसदस्य, द्वितीय विग्रहे प्रफुल्लकेसरोपशोभितपदस्य च परप्रयोग आर्षत्वात् 'छप्पयमहुयरपरिभुञ्जमाणकमले' षट्पदमधुकर परिसुज्यमानरूमलं पट्पदा ये मधुरराः भ्रमाः तैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणतया कुमुदादीनि च यत्र तत्तथा 'अच्छविमलपत्थसलिले' अच्छविमलपथ्यसलिलम् तत्र-अच्छविमलम् अत्यन्त विमलं पथ्यं हितं सलिलं जलं यत्र तत्तथा 'पुण्णे' पूर्ण जलै र्भतम् 'पडिहत्थ भमंतमच्छकच्छ म अणेग सउणगणनहुणवियरिब सदुइयमदुरसरणाइए' प्रतिहस्त भ्रमन्मत्स्यकच्छपानेक शकुनगण मिथुन प्रवि चरितशब्दोनतिमधुरस्वरनादितम् तत्र प्रति. हस्ताः अतिप्रभूताः अत्यधिकाः भ्रमन्तः इतस्ततश्चलन्तश्च ये मत्स्याः कच्छवाश्च, तथा अनेक शकुनगणमिथुनानि अनेकजातीय पक्षिगणानां स्त्री पुंसयुगलानि तैः प्रविचरिताः कृता ये सूर्य विकाशी कमलों का नाम पम है औरवों का नाम कुमुद है ये भी चन्द्रविकाशी ही होते हैं-पर इनमें रेवत, रक्त आदि वर्ग की अपेक्षा भेद होता है नलिन और सुभग ये भी कमलविशेष है श्वेतवर्णवाले सुगंधित कमलों का नाम सौगंधिक कमल कहा गया है केवल वर्ग में जो श्वेत होते हैं वे पुण्डरीक हैं इनकी अपेक्षा जो बडे होते हैं वे महा पुण्डरीक है (छमयमयरपरिभुजमाण कमले) इसके कमलों पर भ्रमर बैठकर उनकी किंजल्क का पान किया करते हैं (अच्छविमलपसत्यसलिले) इसका जल आकाश और स्कटिक के जैसा अत्यन्त निर्मल है तथा पथ्य हितकारक है (पुण्णे, पडिहत्यममंतमच्छकच्छभ अणेग सउणगणमिहुणपविअरिय सदुन्नइयमहरसरणाइए पासाईए) यह सदा जल से परिपूर्ण रहता है इसमें इधर उधर अनेक मच्छ कच्छप फिरते સૂર્ય વિકશી કમળાનું નામ પદ્ય છે. કેરનું નામ કુમુદ છે. એ પણ ચન્દ્ર વિકાશી જ હોય છે, પરંતુ એમાં વેત રક્ત આદિ વર્ણની અપેક્ષાએ ભેદ હોય છે. નલિન અને સુભગ એ પણ કમળ વિશેષ છે. - વર્ણવાળા સુગંધિત કમળને રોૌગધિક કમળ કહે વામાં આવે છે. કેવળ વર્ણમાં જે વેત હોય છે તે પુંડરીક છે. એમના કરતાં જે મોટા डाय छ त महापुरी छ. छापयमहुयरपरिभुज्जमाणकमले' मेना भणे ५२ प्रभ। मेसीन तमना Sexनु न ४२॥ २९ छ. 'अच्छ-विमलपसत्थसलिले' मेनु 7 मा२॥ सन २३८४नी म सत्यत नि छ. तम ५थ्य४।२४ छे. 'पुण्णे, पडिहत्थ भमंत मच्छ कच्छभ अणेग सउणगण मिहुण पविअरिय सदुन्नइय महुरसरणाइए पासाईए' से सह। यी परिपू २ छ. मे माम-तम मने भ२७ ४२७॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् शब्दास्तेपामुन्नतिर्यत्र तादृशो मधुरस्बरो माधुर्य गुणविशिष्टस्वरयुक्तो यो नादः स्तं, स जातोऽस्मिन्निति तथा, तथा 'पासाइए४' प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपं च एतद्वयाख्या प्राग्वत् । 'से णं' तत् गङ्गाप्रपातकुण्डम् खल 'एगाए पउमवर वेइयाए' एकया पद्मवरवेदिकया 'एगेण य वणसंडेणं' एकेन च वनपण्डेन 'सव्वओ समंना संपरिक्तिले' सर्वलः समन्तात् संपरिक्षिप्तं परिवेष्टितम् , अत्र 'वेइया वणसंडगाणां पउमाणं वण्णओ' वेदिका वनपण्टयोः पद्मानों च वर्णको वर्णनमत्रैव जगतीसूत्रव्याख्यातो 'भाणियब्यो' भणितव्यः, 'तम्स णं गंगप्पवायकुंडस्स' तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य 'तिदिसिं तभो' त्रिदिशि त्रीणि 'तिसोवाणपडिरूवगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सोपानत्रयरक्तिरूपाणि 'पण्णता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वे पूर्वस्यां दिशि 'दाहिणेणं' दक्षिागे दक्षिणस्यां दिशि 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि। 'तेसि णं' तेषां खलु 'तिसोवाणपडिरूवगाणं' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयमेयारूवे' अयमेतद्रूपः अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपो 'बण्णारहते हैं अनेक जातिके पक्षियों का जोडा यहां पर बैठकर नाना प्रकार के मधुर स्वरों से शब्द करता रहता है यह कुण्ड प्रासादीय है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है इन पदों की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है (सेणं एगाए पउमवरवेझ्याए एगेणय वणसंडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ते) यह कुण्ड एक पद्मवरवैदिका से और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है यहां (वेश्या वणसंडगाणं प उमाणं वग्गओ भागियचो) वेदिका का धनषंडका और पदमों का वर्णक जगती सूत्र की व्याख्या से कहलेना चाहिये--(तस्स गप्प वायकुंडस्प्ल तिदिसि तओ तिसोयाणपडिरूवगा प.) उस गंगा प्रपात कुण्ड की तीन दिशाओं में तीन त्रिसोपान प्रतिरूपक हैं (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं(पुरस्थिमे गं, दाहिणेगं पच्चत्यिमेणं) एक त्रिप्लोगन प्रतिरूपक पूर्वदिशा में है एक त्रिसोपान प्रतिरूपक दक्षिण दिशा में है और एक त्रिसोपान प्रतिरूपक पश्चिन ફરતા રહે છે. અનેક જાતિઓના પક્ષીઓના જોડા અહીં બેસીને અનેક પ્રકારના મધુર સ્વરોથી શબ્દો કરતાં રહે છે, એ કુંડ પ્રસાદીય છે, દર્શનીય છે, અભિરૂપ છે અને પ્રતિ३५ छ. ये पहनी ०५1५1 पडसा ४२वामा २ावी छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणय वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते' २२ र १२ वाथी ने ये वनमथी थामेर मात छे. २मही 'वेइयावणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणियव्यो' वहाना, વનખંડના અને પઘોના વર્ણન વિષે “જગતી સૂત્રની વ્યાખ્યામાંથી જાણી લેવું જોઈએ. 'तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा प० ते प्रपात उनी त्र हिशासीमा त निसोपान प्रति ३५। छे 'तं जहा' ते २॥ प्रमाणे छे. 'पुरथिमेणं दाहिणेणं पच्च. त्थिमेग' मे४ सोपान प्रति३५७ पूर्व दिशामा छ । त्रिसपान प्रति३५४ ६क्षि हिशमा छ, Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वासे' वर्णावासः वर्णनप्रकारः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, 'तं जहा' तद्यथा 'वइरामयाणेमा' इत्यादि । तत्र 'वइरामया' वज्रमयाः वज्ररत्नमयाः नेमाः भूमिभागादृवं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः 'रिट्ठामया' रिष्टमयानि-रिष्टरत्नमयानि 'पइहाणा' प्रतिष्ठानानि त्रिसोपानमूलप्रदेशाः 'वेरुलियामया' वैडूर्यमयाः वैडूर्यमणिमयाः 'खंभा' स्तम्भाः, 'सुवण्णरुप्पमया' सुवर्णरूप्यमयानि 'फलया' फलकानि त्रिसोपानाङ्कभूतानि 'लोहियक्खमईओ' लोहिताक्षमय्य:-लोहिताक्षरत्नमय्यः 'सूईओ' सूचयः फलकद्वयसंयोजककीलकानि 'वइरामया' वज्रमयाः वज्ररत्नसरिताः 'संधी' सन्धयः फलकद्वयान्तरालभागाः 'णाणामणिमया' नानामणिमयानि अनेकविधमणिमयानि 'आलंबणा' आलम्बनानि आरोहतामवरोहतां च स्खलननिवारणार्थमा श्रयभूताः केचिदवयवाः, च पुनः 'आलंबणवाहाओत्ति' अवलम्बनबाहाः-उभयपार्श्वयोरवलम्बनाश्रयी भूता भित्तयः, इति ।। दिशा में है (तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारवे वण्णावासे पण्णत्ते) इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णन इस प्रकार से कहा गया है-(तं जहा) जैसे-(वइरा मया नेमा, रिट्ठामया पहाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया लोहियखमईओ सूइओ, वहरामया संधी, णाणामणिमया आलंबणा, आलंवण बाहामओ) इनके भूभाग से ऊपर की ओर निकले हुए-प्रदेशरूप नेम वज्ररत्न के बने हुए हैं प्रतिष्ठान-त्रिसोपान के मूलप्रदेश रिष्ट रत्न के बने हुए हैं स्तम्भ इनके वैडूर्य रत्न के बने हुए हैं फलक पटिये-इनके सुवर्ण रुप्य के बने हुए हैं फलक द्वय की संयोजक कीलक के स्थानापन्नरूप सूचियां लोहिताक्ष रत्न की बनी हुई हैं फलकों की जो संधिया हैं वे वत्र की बनी हुई हैं तथा इनके ऊपर चढने वालों को या उतरने वालों को सहारे रूप जो आलम्बन हैं वे अनेकमणियों के बने हुए हैं। इसी तरह इन आलम्वनों के जो आलम्बनवाह हैं भित्तियां हैं वे भी अनेक मणियों के बने हुए हैं। (तेसिणं तिसोवाणपडि र विसोपान प्रति३५४ पश्चिम दिशामा छे 'तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पग्णत्ते' से विसापान प्रति३५।नु पाना प्रभारी उपाभा यात छ. तं जहा' रेमो 'वइरामया नेमा, रिद्वामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलया, लोहियक्खमईओ सूइओ, वइरामया संघी, णाणामणिमया आलंवणा आलंबणबाहाओ' એના ભૂભાગથી ઉપર નીકળેલા પ્રદેશ રૂપ નેમ વજરત્ન નિમિત છે. પ્રતિષ્ઠાન- ત્રિપાનના મૂલ પ્રદેશ રિપ્ટ રન-નિર્મિત છે. એના સ્તંભે ય રત્નથી નિર્મિત છે. ફલકે–પાટિયા એના સુવર્ણ અને રૂપાના બનેલા છે. ફલકદ્રયના સંજક કીલકના સ્થાનાપન્ન રૂપ સૂચીઓ. લેહિતાક્ષ રત્નની બનેલી છે. ફલકેની જે સંધિઓ છે, તે જ નિર્મિત છે. તેમજ એમની ઉપર ચઢનારાઓને અથવા ઉતરનારાઓને અવલંબનરુપ જે આલંબને છે તે અનેક મણિઓના બનેલા છે. આ પ્રમાણે એ આલંબનેના જે આલંબનવાહાએ-ભિંતે છે તે પણ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदी स्वरूपनिरूपणम् ४७ 'तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं ' तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां 'पुरओ पत्तेयं २' पुरतः प्रत्येकं पुरतः 'तोरणा पण्णत्ता' तोरणाः प्रज्ञप्ताः 'ते णं तोरणा' ते खलु तोरणाः 'णाणामणिमया' नानामणिमयाः अनेकविधमणिमया: 'णाणामणिमएस खंभेसु' नानामणिमयेषु स्तम्भेषु 'उवणिविद्वसंनिविट्ठा' उपनिविष्टसन्निविष्टाः उपनिविष्टाः समीप स्थिताः सनिविष्टाः निश्चलतया संलग्नाच 'विविहमुत्तंतशेवइया' विविधमुक्तान्तरोपचिताः विविध - मुक्ताभिः अनेकप्रकारमुक्ताफलैः अन्तरा मध्ये मध्ये उपचिताः वृद्धिमुपगताः तथा ' विविहतारारूवोवचिया' विविधतारारूपोपचिताः विविधानि यानि तारारूपाणि ताराssकारास्तैरुपशोभिताः, ईहामियउसह तुरगणरमगर विहगवालग किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्ता' ईहा मृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालक किन्नररुरुशर भचमरकुञ्जरवनलता पद्मलता भक्तिचित्राः तत्र - ईहामृगाः - वृकाः, वृषभाः - बलीवर्दाः, तुरगाः, अश्वाः, नराःमनुष्याः, मकराः - ग्राहाः, विहगाः - पक्षिणः, व्यालकाः - सर्पाः, किन्नराः - व्यन्तर देवाः, रुरवः- मृगाः, शरभाः अष्टापदाः, चमराः - चमरगावः, कुञ्जराः - हस्तिनः, वनलताः पद्मरूवगाणं पुरओ पत्ते २ तोरणा पण्णत्ता) इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों में से प्रत्येक त्रिसोपानप्रतिरूपक के आगे आगे तोरण कहे गये हैं । (तेणं तोरणा णाणामणिमया, णाणामणिमएस संभेस उपनिविट्ठ संनिविद्वाविविहमुत्ततरोवइआ, विविहतारारूवोवचिया, इहामिअ उसहतुरगणर मगरविहगवाल किण्णररुरु सरभचमरकु जरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता) ये तोरण अनेकविधमणियों से बने हुए हैं तथा अनेक मणिमय खंभों के ऊपर ये संनिविष्ट हैं त्रिसोपानप्रतिरूपकों से ये दूर नहीं हैं किन्तु उनके समीप में ही हैं अनेक प्रकार के मुक्ताओं से ये बीच २ में खचित हैं इनके अनेक प्रकार के ताराओं के आकार बने हुए हैं । ये ईहामृगों - वृकों की वृषभों की तुरगों की, मनुष्यों की, मकरों की, पक्षियों की, व्यालक सर्पों की, किन्नरों की, रुरु मृगविशेषों की, शरभ - अष्टापदकी, 1 भशियोथी निर्मित छे.' ते सिणं तिसोवाणपतिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता' से त्रिसो पान अतिउपमांथी प्रत्येक त्रिसोपान प्रतिपठनी आागण भागण तोरणे छे. 'तेणं तोरणा ाणामणिमया, णाणा मणिमएस खंभेस उपनिविट्ठ संनिविट्ठा विविहमुत्तंतरोवइआ विविद्दतारारूवो चिया, इहामि उसह तुरगणर मगरविहग वालग किण्णररुरु सरभचमरकुं जरवणलय पउमलय भत्तिचित्ता' मे तोरणे। अने विधमशियोथी निर्मित छे. तेभन भने मणिमय स्त लोनी ઉપર એ તેરણા સંનિવિષ્ટ છે. ત્રિસેાપાન પ્રતિરૂપકેથી એ તારણા વધારે દૂર નથી. પણ તેમની પાસે જ છે. અનેક પ્રકારના મુક્તાએથી એ તારણા મધ્ય-મધ્યમાં જડિત છે. એમાં અનેક પ્રકારના તારાના આકારેખનેલા છે. એ ઈહામૃગા-રૃકાની, વૃષભેાની, तुरगोनी, मनुष्योनी, भरोनी, पक्षीयोनी, व्यास - सर्पोंनी, हिन्नरोनी रुरु-भृण विशेपोनी, शरभ - अष्टापद्दोनी, यभर - थभरी गायोनी, क्रोनी, वनसतायोनी तेभन पद्म बता Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे लताः कमललताः कमलनालरूपाः एतासां या भक्तयः रचनाविशेषाः ताभिश्चित्राः अद्भुताः तथा 'खंभुरायवइरवेइया परिगयाभिरामा' स्तम्भोद्गतवज्रवेदिका परिगताभिरामाः तत्र स्तम्लोद्गता-स्तम्भोपरितनी या वज्र वेदिका वज्ररत्नमयी वेदिका, तया परिगताः युक्ताः सन्तः अभिरामाः रमणीयाः, तथा 'विज्जाहरजमलजुयलजनजुत्ताविव' विद्याधरयमल युगलयन्त्रयुका इव विद्याधराणां यद् यमलयुगल युग्मजातद्वयं समानाऽऽकारं तदेव यन्त्र सञ्चारिपु. रुषपुत्तलिकाद्वयलक्षणं तेन युकाः सहिता इत्र 'अच्चीसहस्समालणिया' अर्चिः सहस्रमाल. निकाः अर्चिषां किरणानां सहसं तेन मालन्ते शोभन्ते इति अर्चिसहस्रमालनाः, त एव अर्चिसहस्रम लनिकाः, 'रूवगसहस्सालिया' रूपकसहस्रकलिताः चित्रसहस्रयुक्ताः 'भिसमाणा' भासमानाः शोभमानाः, भिडिभसमाणा' बाभास्यमानाः अतिशयेन शोभमानाः 'चक्खुल्लोयणलेसा' चक्षुर्लो कनश्लेपाः तत्र-चक्षुपः-नेत्रस्य लोकनं दर्शन चक्षुर्लो कनं तस्मिन्नद्भुतदर्शनीयत्वात् श्लिष्यन्तीव लग्ना भवन्तीव येते तथा, नेत्रर्तकदर्शने ते तोरणा नेत्रयोलग्ना भवन्त इव सन्तीति भावः, 'सुहफासा' सुखस्पर्शाः सुखकरस्पर्शशालिनः, यद्वा शुभस्पर्शाः शुभः स्पर्णी येषां ते तथा कोमलस्पर्शसम्पन्नाः, 'सस्सिरीयरूपा' सश्रीकरूपाः-श्रिया सहि. चमर चमरी गायों की, कुञ्जरों को वनलताओं की एवं पद्मलताओं की रचना विशेष से अद्भुत-आश्चर्योत्पादक हैं तथा-(ग्वंभुग्गयवइरवेझ्या परिगयाभिरामा) इनके प्रत्येक खंभों में वज्रमयवेदिकाएं उत्कीर्ण की गई है अतः उनके द्वारा ये वडे सुहावने प्रतीत होते हैं (विज्जाहर जमलजुयलजंतजुत्ताविव अच्चिसहस्समालणीया रूधगह तकलिया, भिसमाणा, भिम्भिसमाणा, चमखुल्लोयणलेसा) विद्याधरों के चित्रित शमल-समश्रेणिक युगल से वे ऐसे ज्ञात होते हैं कि मानों ये सञ्चरिष्णु पुरुष के प्रतिभावय से ही युक्त हैं हजारों किरणों द्वारा ये प्रकाशित होते रहते हैं हजारों रूपकों से-चित्रों से ये शोभित हैं। स्वयं भी ये चमकीले हैं और विशिष्ट-अतिशयित शोभा से ये और भी अधिक चमकीले बन गये हैं । देखने परतो ये ऐसे मालूम पडते है कि मानों आखों में ही समाये मानी रया विशेषयी गहमुत पाश्चोत्पा६४ छ तमन 'खंभुनगयवइरवेइया परिगयाभिरामा' એમના દરેકે દરેક સ્તંભમાં જ મય વેદિક એ ઉત્કીર્ણ કરવામાં આવેલી છે. એથી એમના વડે से भयंत रमणीय सोय छे. 'विज्जाहर जमलजुयलजंत जुत्ताविव अच्चिसहस्स मालणीया रूव. गसहस्सकलिया, भिसमाणा, भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा' विद्यारशना चित्रित यमलाસમશ્રેણિક યુગલેથી તે એવી રીતે લાગતા હતા કે જાણે એઓ સંચરિષ્ણુ પુરુષની પ્રતિમાદ્વયથી જ યુક્ત ન હોય હજારો કિરણે વડે એ પ્રકાશિત થતા રહે છે. પિતે હજારે રૂપકેથીચિત્રોથી એ ઉપરોભિત રહે છે. પણ એ પ્રકાશમાન છે અને વિશિષ્ટ–અતિશયિત શેભાથી એ ઘણા વધારે પ્રકાશમાન બની ગયા છે, જેના પરથી તે એ એવા લાગે છે કે જાણે આ બે भो । सामानिष्ट था नाय. 'सुहफासा, सस्सिरीयरूवा, घंटावलिचलियम हुरमण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् तानि सश्रीकाणि तानि रूपाणि येषां ते तथा-शोभायुक्काऽऽकारसम्पन्नाः 'घंटावलिचलियमहुरमणहरसरा' घण्टापछिचलितमधुरमनोहरस्वराः-घण्टानामावलिः समूहो घण्टाऽऽवलिस्तस्या यद्वायुस्पर्शन चलितं चलने कम्पनं देन मधुरः कर्णमधुरः, अत एव मनोहरः स्वरः नादो येषां ते तथा-पानस्पर्शवशाद् घण्टा समूह कम्पनेन श्रवणरमणीय मनः प्रसादकनादसम्पन्नाः, 'पासाईया४' प्रायादीयाः दर्शनीय : अभिरूशः प्रतिरूपाः, एषां व्याख्या प्राग्वत् । 'तेसि णं तोरणाणं उस बहवे अट्ठ मंगलगा पण्णता तेषां खलु तोरणानामुपरि बहूनि अष्टाष्टः मङ्गलकानि प्रज्ञप्तानि, 'तं नहा' तद्यथा स्थिए सिस्विच्छे जात्र' स्वस्तिक श्रीवत्सः यावत्यावत्पदेन-"नन्दिकावर्तः, बर्द्धमानकं, भद्रासनं, कलश', मत्स्यः , दर्पणः" इति संग्राह्यम् , इत्यष्टमङ्गलक नामानि । तानि च प्रासादीपानि दर्शनीयानि अभिरूपाणि 'पडिरूया' प्रतिरूपाणि । 'तेसि णं तोरणाणं' तेषां तोरणाला परि गहवे' वश्वः 'किण्हचामरज्झया' कृष्णचामरध्वजाः कृष्णरणयुकचामरालङ्कृतध्वजाः, यावत्-यावत्पदेन-'नीलचामरध्वजाः, लोहितचामरध्वजाः, हारिद्रच मरध्वजाः' एषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्या, तथा 'सुकिल्लचामरज्झया' शुक्लचामरध्वजाः, 'अच्छा' अच्छा आकाश स्फटिकवदतिस्वच्छाः पुनः ‘सण्हा.' जा रहे हैं (सुहफासा, सस्सिरीयरूबा, घंटावलि चलियमहुरमणहरसरा) इनका स्पर्श सुखकारक है ये सभीक रूपवाले हैं इन पर जो घंटावलिनिक्षिप्त है वह जब पवन के स्पर्श से हिलती है तब उससे जो मधुर मनोहर स्वर निकलता है उससे ये ऐसे ज्ञात होते हैं कि मानों ऐसे स्वर से ये ही वोल रहे हैं। (तेसिं तोरणाणं उवरि बहवे अट्टमंगलगा प.) इन तोरणों के आगे अनेक आठ आठ मंगलक द्रव्ध है (तं जहा) जैसे-सोत्थिय, सिरिवच्छे जाव पडिरूवा) स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दिकावन, वर्द्धमाणक भद्रासन कलश, मत्स्य, और दर्पण ये सब मंगलक द्रव्य प्रासादीय हैं दर्शनीय है अभिरूप है और प्रतिरूप है । (तेसि णं तोरणाणं उवरिं वहवे किण्ह चामरज्झया जाव सुकिल्ल चामरज्झया अच्छा सहा तेसिणं तोरणाणं छत्ताइच्छता पडागाइपडागा, घंटा जुयला, चामर हरसरा' भनी २५श सुभ॥२४ छ. से सश्री ३५॥ छ. समनी ५२ २ धावत નિક્ષિત છે તે જ્યારે પવનના સ્પર્શથી હાલે છે ત્યારે તેમાંથી જે મધુર–મનહર રણકાર નીકળે છે. તેનાથી એ એવા લાગે છે કે જાણે એ એવા સ્વરથીજ બેલતા ન હોય. 'तेसिं तोरणाणं उवरि बहवे अदृद्र मंगलगा ५०' से तणनी भाग घ २08 RAI मगर द्रव्ये। छे. तं जहा' म 'सोत्थिय' सिरिवच्छे जाव पडिरूवा' स्वस्ति, श्री વત્સ, નંન્દિકાવર્ત, વદ્ધમાનક, ભદ્રાસન, કલશ, મત્સ્ય અને દર્પણ, એ સર્વે મંગલક द्रव्ये प्रासाहीय छ, शनीय छ, मनि३५ छ भने प्रति३५ छ 'तेसिणं तोरणाणं उवरि बहये किण्ह चामरज्झया जाव सुक्किल्लचामरज्झया अच्छा सण्हा तेसिणं तोरगाणं छत्ताइ च्छत्ता पडागाइपडागा, घंटाजुयला, चामरजुयला, उपलहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा. Jain Education Hotel Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे श्लक्ष्णाः चिक्कण पुद्गल स्कन्ध निष्पन्नाः, 'रुप्पपट्टा' रूप्यपट्टाः रजतमयपट्टशालिनः 'वइरामयदंडा' वज्रमयदण्डाः वज्ररत्नमयर ण्डयुक्ताः 'जलयामलगंधिया' जलजामलगन्धिकाः कमलसुगन्धसदृशसुगन्धसम्पन्नाः, 'सुरम्मा' सुरम्याः अतिमनोहारिणः 'पासाईया४' प्रासादीयाः दर्शनीयाः, अभिरूपाः प्रतिरूपाः । 'तेसिं णं तोरणाणं उप्पि' तेषां खलु तोरणानामुपरि 'बह.' बहूनि 'छत्ताइछत्ता' स्वातिच्छत्राणि छत्रात् लोकप्रसिद्धादेकस्माच्छत्रादतिशायीनि उपर्यधोभागेनानेकानि छन्त्राणि च्छत्रातिच्छत्राणि, 'पडागाइडागा' पताकाऽतिपताका:-पताकोपरिपताकाः, 'घंटाजुयला' घण्टायुगलानि अनेक घण्टायुगलानि 'चामरजुयला' चामरयुगलानि अनेकचामर युगलानि, 'उप्पलहत्थगा' उत्पल. हस्तकाः-कमलसमूहाः पद्महस्तका-पद्मसमूहाः 'जाव' यावत् यावत्पदेन "कुमुदनलिन सुभगसौगन्धिक पुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रहस्तकानां सङ्ग्रहो बोध्यः, तत्र कुमु. जुयला, उप्पलहत्थगा जाच सयसहस्सपत्तहथगा सव्वरयणामया अच्छा जावपडिरूवा) उन तोरणों के अनेक कृष्णवर्ण की ध्वजाएं जो कि चामरों से अलङ्कृत हैं, फहरा रही हैं यावत् नीलवर्णयुक्त चामरों से अलइकृत ध्वजाएं फहरा रही हैं, लोहितवर्ण युक्त चामरों से अलङ्कृत ध्वजाएं फहरा रही है, हारिद्रवर्ण युक्त चमरों से अलङ्कृत ध्वजाएं फहरा रही हैं, और शुल्कवर्णयुक्त चामरों से अल कृत ध्वजाएं फहरा रही है, ये सब ध्वजाएं अच्छ हैं-आकाश और स्फटिक के जैसी-अति स्वच्छ हैं चिक्कणपुद्गलों के स्कन्ध से निर्मित हैं, रजतमयपट्ट से शोभित हैं वज्रमयदण्डों वाली हैं कमल के जैसी गन्धवाली हैं अति मनोहर हैं प्रासादीय हैं दर्शनीय हैं अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं इन तोरणों के ऊपर तरके ऊपर अनेक छत्र हैं अनेक पताकातिपताकाएं हैं और अनेक घंटा युगल हैं अनेक चामर युगल हैं उत्पल हस्तक-कमल समूह है, पद्महस्तक-पद्मसमूह है, यहां यावत्पद से-'कुमुदनलिन सुभग सौगंधिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा' ते तारण ५२ अने, १८९३ नीयतया જેઓ ચામરોથી અલંકૃત છે–ફરકી રહી છે. યાવતુ નીલવર્ણ યુક્ત ચામરોથી અલંકૃત વિજાએ ફરકી રહી છે, હિતાક્ષ વર્ણયુક્ત ચામરોથી અલંકૃત દ રજાઓ ફરકી રહી છે. હારિદ્રવર્ણ ચામરોથી અલંકૃત દવાઓ ફરકી રહી છે અને શુકલવર્ણ યુક્ત ચામરોથી અલંકૃત વજાઓથી ફરકી રહી છે. એ સર્વે દવાઓ અચ્છ છે આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ અતિ સ્વચ્છ છે. ચિકકણ પુદ્ગલેના અંધથી નિર્મિત છે, રજતમય પટ્ટોથી શોભિત છે. વજમય દંડોવળી છે. કમળ જેવી ગંધવાળી છે, અતિ મનહર છે. પ્રાસાદીય છે દર્શનીય છે. અભિરૂપ છે અને પ્રતિરૂપ છે. એ તરણેની ઉપરના સ્તર ઉપર અનેક છગે છે. અનેક પતાકતિપતાકાઓ છે, અને અનેક ઘંટા યુગલે છે. અનેક ચામર યુગલો छे, ५ स्त४ ४मण समूछे. पास्त४ पनसमूह। छे. डा यावत्थी 'कुमुद मलिन सुभग सौगंधिक पुंडरीक महापुंडरीकशतपत्रसहस्रपत्र हस्तक' से पाउने सयक Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ५१ दानि कैरवाणि, नलिनानि कमलविशेषाः, शुषगानि कमलविशेषाः, सौगन्धिकानि सुगन्धी. न्येव सौगन्धिकानि कमलानि अत्र विनयादित्यात स्वार्थे उक् । यहा-मुगन्धः शोभनो गन्धः स प्रयोजनमेषामिति सौगन्धिकानि, अत्र "प्रयोजनम्" ५ ।१।१८९। (पा० सू०) इति ठक् तानि कमलविशेषाः, पुण्डरीकाणि श्वेतकमलानि, तान्येव महत्त्वविशिष्टानि महापुण्डरीकाणि-विशालश्वेतकमलानि, शतपत्राणि-शतपत्रयुक्तकमलानि, एवं सहस्रपत्राणि सहस्रपत्रयुक्तकमलानि च तेषां हस्तहाः समूहाः तथा 'सयपहस्तपत्तहत्थगा' शतसहस्रपत्रहस्तका:लक्षपत्रकमलसमूहाः, ते च 'सनरयणामया' सर्वरत्नमयाः सर्वात्मना रत्नमयाः, 'अच्छा जाव पडिरूया' अच्छाः यावत् प्रतिरूपाः अबाच्छादि प्रतिरूपान्तपदसङ्ग्रहो बोध्यः तथाहि. 'अच्छाः श्लक्ष्णाः घृष्टाः मृष्टाः नीरजसः निष्पङ्काः निकङ्कटच्छायाः सप्रभाः समरीचिकाः सोयोताः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपाः' इत्येषां पदानां संकलनं पर्यवसितं व्याख्या चतुर्थसूत्रतो बोध्या। _ 'तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्त बहुमज्झदेसभाए) तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदे. शभागे 'एत्थ णं' अत्र अत्रान्तरे खलु ‘महं एगे' महानेको 'गंगा दीवे णामं दीवे' गङ्गाद्वीपो नाम द्वीपः ‘पण्णते' प्रज्ञप्तः, तस्य मानाद्याह-'अजोयणाई' इत्यादि स गङ्गाद्वीपः 'अट्ठजोयणाई आयामविखंभेणं' अष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण दैयविस्ताराभ्याम् , 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किश्चिदधिकानि 'पणवीसं गोयणाई' पञ्चविंशति योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना, दो कोसे' द्वौ क्रोशौ ‘जलंताओ' जलन्तात् जलपर्यन्तात् 'उसिए' उच्छ्रितः सहस्रपत्र हस्तक' इस पाठ का संग्रह हुआ है इनका वाच्यार्थ पीछे लिखा जा चुका है ये सब भी सर्वात्मना रत्नमय हैं अच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं (तस्सणं गंगप्प वायकुंडस्त बहुमज्झदेसभाए एत्य णं एगे महं गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते) उस गंगाप्रपात कुण्ड के ठीक नीचे में एक बहुत विशाल गंगा दीप नामक द्वीप कहा गया है (अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पणवीसं जोयणाइं परिक्खेवेगं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे सण्हे) आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा यह द्वीप आठ योजन का कहा गया है इसका परिक्षेप कुछ अधिक २५ योजन का है जल के ऊपर यह दो कोश ऊंचा उठा થયે છે. એ સર્વને વાચ્યાર્થ એજ ગ્રંથમાં પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. એ સર્વે ५ सर्वात्मना २त्नमय छ, २५२७ छे, यावत् प्रति३५ छे. 'तस्सणं गंगप्पवायकुडस्स बहुमज्झदेसभाए एगे महं गंगादीवे णाम दीवे पण्णत्ते' ते ॥ प्रपात नाही मध्यमागमा से सुवि दीप नाम दी५४वामा भाव छ. 'अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेण दो कोसे ऊसिओ जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे सण्हे' मायाम भने १४ मनी अपेक्षा . दी५ २५18 योन प्रमाण ४ामा આવેલ છે. એ દ્વીપને પરિક્ષેપ-કંઈક વધારે ૨૫ પેજન જેટલું છે. પાણીની ઉપર એ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उच्चः 'सव्यवइरामए' सर्ववज्ररत्नमयः सर्वात्मना रत्नमय्यः 'अच्छे सण्हे.' अच्छः श्लक्ष्ण इत्यादि प्राग्वत् , 'से णं' स गङ्गाद्वीपो नामद्वीपः खलु ‘एगाए पउमवरवेइयाए' एकया पद्मवरवेदिकया 'एगेण य वणसंडेणं' एकेन वनपण्डेन च 'सव्य भो' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ते' संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितोऽस्ति । एतयोः पदमवरबेदिका वनपण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः वर्णनकारकः पदसमूहो ‘भाणियव्यो' भणितव्यः वक्तव्यः, स च क्रमेण चतुर्थपश्चमाभ्यां सूत्राभ्यां वोध्यः । 'गंगादीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' गङ्गाद्वीपस्य खलु द्वीपस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'तस्स णं' तस्य भूमिभागस्य खलु 'वहुमज्झदेसभाए' बुहमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ णं' अत्र अत्रान्तरे खलु गंगाए देवीए एगे' गङ्गाया देव्या एकं 'मह' महत् बृहद् ‘भवणे पण्णत्ते' भवनं प्रज्ञप्तम् । तस्य मानाद्याह-'कोसं' इत्यादि कोसं' क्रोशं-क्रोश. प्रमाणम् 'आयामेणं' आयामेन दैध्येण 'अद्धकोस' अर्द्धक्रोशं-क्रोशार्द्धम् 'विक्खंभेग' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'देसूणग' देशोनं किञ्चिन्यूनं 'कोसं' क्रोशम् ‘उड्डे' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' हुआ है सर्वात्मना यह वज्ररत्न का बना हुआ है यह अच्छ और श्लक्ष्ण है (सेणं एगाए पउमवरवेड्याए एगेण य यण संडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्त) यह गंगा द्वीप नामका द्वीप एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ हे (वण्णओ भाणियव्वो) यहां पद्मवरवेदिका और वनषण्ड का वर्णन चतुर्थ पंचम सूत्रों से जान लेना चाहिये (गंगा दीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) गंगा द्वीप नामके द्वीप के ऊपर का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है (तस्स गं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं च कोसं उद्धं उच्चत्तर्ण अणेगखंभसयसण्णिविढे जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे) उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बोच में एक बहुत विशाल गंगा देवी का भवन कहा गया है यह आयाम की अपेक्षा एक બે ગાઉ સુધી ઉપર ઉઠેલો છે. એ સર્વાત્મના વજરત્ન નિર્મિત છે. એ અચ્છ અને २सय छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडे सव्वओ समंता संपरिक्खिते' એ ગંગાદ્વીપ નામક દ્વીપ એક પદુ કવર વેદિકાર્યા અને એક વનખંડથી મેર આવૃત્ત छ. 'वण्णओ भाणियव्वो' से ५६१२ ६ि४ा अने वन विषेर्नु न यतु पयम संत्रीमाथी Me सेवुन. 'गंगादीवस्स ण दीवस्त्र उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' दी५ नाम ४ापना 6५२ भूमिमा मसभरीय उवामा मावत छ. 'तस्सण वहसमझदेसभाए एत्थण मह गंगाए देवीए एगे भवणे पण्णत्ते कोसं आयामेण अद्धकोस विक्खंभेणं देसूणगं च कोसं उच्चतेण अणेग खंभसयसण्णिविट्ठ जाव बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सयणिज्जे' ते मसमरणीय भूभिमानी मध्यसागमा थे अतीय વિશાળ ગંગાદેવીનું ભવન કંડવામાં આવેલ છે. આ ભવન આયામની અપેક્ષાએ એક ગાઉ . Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् उच्चत्वेन तद्भवनं वर्णयितुमाह-'अणेगे' त्यादि-आयामादि विभागादिकं शयनीयं वर्णकपर्यन्तं सूत्रं सव्याख्यमनन्तरसूत्रोक्त श्रीदेवी भवनानुसारेण बोध्यम् । ___अथ गङ्गाद्वीपस्यान्वर्थनामहेतुं पृच्छति-'से केणटेणं' इत्यादि। ‘से केणटेणं जाव' अथ केन अर्थेन कारणेन यावत् यावत्पदेन-"भंते ! एवं वुच्चइ गंगादीवे गंगादीवे ? गोयमा ! गंगाय इत्थ देवी मदिडिया महज्जुइया महव्वला महाजसा महासोक्खा महाणुभागा पलिओवमहिइया परिवसइ मैं एएणटेणं एवं वुच्चइ गंगादीवे" इति संग्राह्यम् । ___एतच्छाया-"भदन्त ! एवमुच्यते गङ्गाद्वीपो गङ्गाद्वीपः । गौतम गङ्गा चात्र देवी महदिका महाद्युतिका महाबलमहायशाः महासौख्या महानुभागा पल्योपमस्थितिका परिवसति तद् तेनार्थेन एवमुच्यते गङ्गाद्वीपो गङ्गाद्वीपः । 'अदुत्तरं च णं' इत्यादि, 'सासए नामधेज्जे पण्णत्ते' इत्यन्तं सर्व पद्महूदवद् विज्ञेयम् । व्याख्या स्पष्टा ।। सू० ४ ॥ कोश का है विष्कंभ की अपेक्षा आधे कोश का है तथा ऊंचाई की अपेक्षा यह कुछ कम आधे कोश का है अनेक शत स्तंभों ऊपर यह खडा हुआ है यावत् इसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है और उस मणिपीठिका के ऊपर एक शयनीय है इत्यादि रूप से सब वर्णन यहां पर श्रीदेवी के भवन का जैसा वणक किया गया है वैसा ही जानना चाहिये (स केगट्टेणं जाव सासए णामधेज्जे पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस द्वीप का नाम गंगा द्वीप ऐसा किस कारण से हुआ है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोथमा ! गंगा य इत्थ देवो माहड्डिया भहज्जुइया महन्बला महाजसा महासोक्खा महाणु मावा पलि ओवमट्टिइया परिवसह, से एएण?णं एवं वुच्चइ गंगादीवे गंगादावे) यह इस प्रकार का उत्तररूप सूत्रपाठ यहां यावत्पदसे गृहीत हुआ है तथा यह पाठ (अदुत्तरं च णं सासए णामधेज्जे पण्णत्ते) इस सूत्रपाठ तक गृहीत हुआ है इस पाठ गत पदों की व्याख्या पद्महूद प्रकरण में कथित पदों की व्याख्या के अनुसार ही है ।।सू०४॥ જેટલું છે અને વિષ્કભનાં અપેક્ષાએ અર્ધા ગાઉ જેટલું છે. તેમજ ઊંચાઈની અપેક્ષાએ ભવન કંઈક અ૬૫ અર્ધા ગાઉ જેટલું છે. અનેક શત તેની ઉપર એ ભવન સ્થિત છે. યાવત્ એની દીક મધ્ય ભાગમાં એક મણિ પીઠિકા છે, અને તે મણિપીકાની ઉપર એક શયનીય છે વગેરે બધું વર્ણન શ્રી દેવીના ભવન વિષે જે પ્રમાણે વર્ણન જ સમજવું. ४२वामा माय छे. ते प्रमाण ‘से केण?ण जाव सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' महतो દ્વીપનું નામ ગંગ દ્વા૫ શા કારણુ કારણથી પ્રસિદ્ધ થયું. એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે. 'गोयमा ! गंगा य इत्थ देवां महि ढिया महज्जुइया महबला महाजसा महासोक्खा महाणुभावा पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणणं एवं वुच्चइ गंगादीवे गंगादीवे' मा પ્રમાણેનો ઉત્તર રૂપ સૂત્ર પાઠ અડી યાવત્ પદથી ગ્રત થયેલું છે. તેમજ એ પાડ 'अदुत्तरं च ण सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' में सूत्र सुधा स.डी1 या 2. से पाइ. ગત પદની વ્યાખ્યા પહદ પ્રકરણમાં કથિતપદોની વ્યાખ્યા મુજબ છે. એ સૂ છે ૪ છે. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अस्या सम्प्रति येन तोरणेन निर्गमो, यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यावांश्च नदी परिवारो, यत्र च संक्रमस्तथा प्राह - ' तस्स णं' इत्यादि । मूलम् - तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहाई पढा समाणी उत्तरद्धभरहवासं एजमाणी २ सतहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ अहे खंडप्पवायगुहाए वेयद्धपव्वयं दालइत्ता दाभिरहवा एजमाणी २ दाहिणद्बभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोदसहिं सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ । गंगा णं महाणई पत्रहे छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं उव्वेहेणं, तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहे बासट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च विक्खंभेणं सकोसं जोयणं उव्वेहेणं पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता, वेइयावणसंडवण्णओ भाणियत्रो । एवं सिंधु वि णेयव्वं जाव तस्स णं पउमदहस्स पच्चत्थि - मिल्लेणं तोरणेणं सिंधु आवत्तणकूडे दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुडं, सिंधुदी अट्ठो सो चेव जात्र अहे तिमिसगुहाए वेयद्धपव्वयं दालइत्ता पञ्च्चत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणा चोइससलिला अहे जगई पच्चत्थि - मेणं लवणसमुहं जाव समप्पेइ, सेसं तं चेव त्ति ॥ सू० ५ ॥ छाया-तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेण गङ्गा महानदीप्रव्यूढा सती उतरार्द्ध भरतवर्षम् एज्जमाना २ सप्तभिः सलिलासहस्रैः आपूर्यमाणा २ अधः खण्ड प्रपातगुहाया वैताढपर्वतं दारयित्वा दक्षिणार्द्ध भरतवर्ष मेजमाना २ दक्षिणार्द्ध भरतवर्षस्य बहुमध्यदेशभागं गत्वा पूर्वाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहस्रैः समग्रा अधो जगतीं दारा पौरस्त्ये लवणसमुद्रं समर्पयति । गङ्गा खलु महानदी प्रवहे पट्टसक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण अर्द्ध कोशमुद्वेवेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया २ परिवर्धमाना २ मुखे द्विषष्टि योजनानि अर्द्धयोजनं च विष्कम्भेण सक्रोशं योजनमुद्वेधेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मघरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्यः एवं सिन्ध्वा अपि नेतव्यं यावत् तस्य खलु पद्महस्य पश्चिमेन तोरणेन सिन्ध्यावर्त कूटे दक्षिणाभिमुखी सिन्धुप्रपातकुण्डं सिन्धुद्वीपः अर्थः स एव यावद् अवस्तमिस्रगुहाया वैताढ्य - , , Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० ५ गङ्गामहानद्याः निर्गम- स्पर्शनादिनिरूपणम् पर्वतं दारयित्वा पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती चतुर्दशसलिला अधो जगतीं पश्चिमे लवणसमुद्रं यावत् समर्पयति शेषं तदेवेति ॥ सू० ५ ॥ टीका- 'तस्स णं' इत्यादि । ' तस्स णं गंगप्पवाय कुंडस्स दाहिणिल्लेणं' तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य दक्षिणदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन 'गंगामहाणई' गङ्गामहानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निःसृता 'समाणी' सती 'उत्तरद्धभरहवासं' उत्तरार्द्ध भरतवर्षम् 'एज्जमाणी २' एजमानार गच्छन्ती २ 'सत्तहिं' सप्तभिः 'सलिलास हस्से हिं' सलिलासहस्रैः नदीसहस्रैः 'आपूरेमाणी २' आपूर्यमाणार भ्रियमाणा २ ' अहे खंडप्पवाय गुहाए' अघःखण्ड प्रपातगुहायाः 'वेयडुपव्वयं' वैताढपर्वतं 'दालत्ता' दारयित्वा भिला 'दाहिणभर हवास' दक्षिणार्द्ध भरतवर्षम् 'एज्जमाणी २' एजमाना२ गच्छन्ती२ ' दाहिणभरहवासस्स' दक्षिणार्द्ध भरतवर्षस्य 'बहुमज्झभागं' बहुमध्यदेश भागम् - अत्यन्तमध्यदेशभागं 'गंता' गत्वा 'पुरस्थाभिमुही' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वाभिमुखी 'आवत्ता' आवृत्ता परावृत्ता 'समाणी' सती 'चोदसहि' चतुर्दशभिः ‘सलिलासहस्सेहिं’ सलिलासहस्रैः चतुर्दशसहस्रपरिमिताभिर्नदीभिः 'समग्गा' समग्रा 'तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं' टीकार्थ - इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने गंगानदी किस तोरण से निकली है, किस क्षेत्र की इसने स्पर्शना की है, कितना इसका नदी परिवार है, और यह कहां जाकर मिली है यह सब प्रकट किया है - (तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स दाहिपिल्लेणं तोरणेणं पवूढा) उस गंगाप्रपातकुंड के दक्षिणदिग्भागवर्ती तोरण से गंगा नाम की महानदी निकली है ( उतरद्ध भरतवास एज्जमाणी २ सत्तर्हि सलिलासहस्सेसिं आउरेमाणी २ अहे खंडप्पवाय गुहाए वेयद्वपव्वयं दालहन्ता दाहिणभरहवास एज्जमाणी २ दाहिणभर हवासस्स बहुमज्झदेस भागं गंता पुरस्थाभिमुही आवत्तासमाणी चोदसहिं सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ ) यह गंगा महानदी उत्तरार्द्ध 'तस्स ण' गंगपवायकुडस्स दाहिणिल्लेण तोरणेण ' इत्यादि ટીકા-આ સૂત્રવડે સૂત્રકારે ગંગાનદી કયા તેારણમાંથી નીકળી છે? કયા ક્ષેત્રના એણે સ્પ કર્યાં છે ? એ નદીના નદીપરિવાર કેટલે છે? અને એ કયાં જઇને મળી છે? એ બધુ` વર્ણવવામાં આવેલ છે. 'तस्स णं गंगपत्रायकुडल्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं पवूढा' ते गंगा प्रभात हुंडना दृक्षिण लिखत ते रथी गंगा नामे भहानही नीजी छे. 'उत्तरद्धभरहवासं एज्जमाणी २ सत्तहिं सलिला सहस्सेहिं आउरेमाणी २ अहे खंडप्पवायगुहाए वेयद्वपव्वयं दालपत्ता दाहिद्धभरहवास एज्जमाणी २ दाहिणभरहवासस्स बहुमज्झदे सभागं गंता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोदसहि सलिला सहरसेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमेणं लवणसमुदं समपे' मे गंगा भडानही उत्तराद्ध लरत તરફ પ્રવાહિત થતી તેમજ સાત હજાર Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सम्पूर्णा 'अहे' अधः अधोभागे 'जगई' जगतीं 'दालसा' दारयित्वा - भिवा 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वे पूर्वस्यां दिशि 'लवणसमुद्द' लवणसमुद्रं 'समप्पेइ' समुपसर्पति समुद्रे मिलतीत्यर्थः । अथास्या एव गङ्गामहानद्याः प्रवह-मुखयो विष्कम्भोद्वेषौ दर्शयितुमाह - 'गंगा गं' इत्यादि । 'गंगा गं' गङ्गा- गङ्गानाम्नी खल- 'महाणई' महानदी याऽस्ति सा 'हे' प्रवt, यस्मात् स्थानात् नदी प्रवोढुं प्रवर्तते स प्रवहः पद्महूदात्तोरणा निर्गमस्तस्मिन् तत् स्थानावच्छेदेन 'छ सकोसाई जोयणाई' सक्रोशानि एक क्रोशसहितानि समादानीत्यर्थः षट्रयोजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण - विस्तारेण, 'अद्धकोर्स' अर्द्धक्रोशं क्रोशस्यार्द्धम् 'उव्वेहेणं' उद्वेधेन गाम्भीर्येण 'तयणंतरं च णं' तदनन्तरं पद्महूदतोरण विस्तारादनन्तरम् एतेन यावत्क्षेत्रं स विस्तारो अनुवृत्तस्तावत्क्षेत्रादनन्तरं - गङ्गाप्रपात कुण्ड निर्गमादनन्तरमित्यर्थः सा गङ्गा- 'मायाए ' मात्रा २ - क्रमेण २ प्रतियोजनं प्रतिपाश्र्श्व धनुःपञ्चकवृद्धया उभयपार्श्वयोः संमील्य धनुर्दशकवृद्धयेत्यर्थः ' परिवद्धमाणी २' परिवर्द्धमाना २ वृद्धिं गच्छन्ती प्रवहमानात्समुद्र प्रवेशमानस्य भरतकी ओर जाती हुई तथा सात हजार नदियों से अपने आपको भरती २ खंडपात गुहा के नीचे से होकर दक्षिणार्द्ध भरत की तरफ गई है वहां जो वीच में बैनाढ्य पर्वत पडा है उसके बीच में होकर ये बहती है इस तरह दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के ठीक बीच में बहती हुई यह गंगानदी पूर्वाभिमुख होती हुई तथा १४ हजार नदियों के परिवार से परिपूर्ण होती हुई पूर्व दिग समुद्र में जाकर मिलगई है पूर्वदि समुद्र में पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिलने के लिये जाते समय इसने वहां की जो जम्बूदीप की जगती है उसको विदारित करदिया है (गंगा णं महानदी पवहे छसकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, अद्धको उच्छेदेणं तयणंतरं चणं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहे वासट्ठि जोयणाई अजोयणं च क्विंभे स कोसं जोयणं उन्हेणं उभओपासिं दोहिं परमवरवेइ आहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता वेइया वणसंडवण्णओ भाणियव्वो) यह गंगा नाम की નીએ'ના પાણીથી પ્રપૂતિ થતી ખંડ પ્રપાત ઝુહાના નીચેના ભાગમાંથી પસાર થઈ ને દક્ષિા ભરત તરફ પ્રવાહિત થઈ છે. ત્યાં જે મધ્યભાગમાં વૈતાઢય પર્યંત ઊભા છે, તેની મધ્યમાંથી પ્રવાહિત થઇને સ્વ પ્રમાણે દક્ષિણા ભરત ક્ષેત્રના ઠીક મધ્યમ પ્રવાહિત થતી એ ગંગાનદી પૂર્વાભિમુખ થઈ ને તેમજ ૧૪ હૅજાર નદીઓના પરિવારથી પરિપૂર્ણ થતી પૂર્વાંગ્સમુદ્રમાં જઈને મળી ગઈ છે. પૂર્વ દિગ્સમુદ્રમાં પૂર્વ દિગ્ધતિ લવણુસમુદ્રમાં મળવા જતી જતે આ નદીએ ત્યાંની જે જ ખૂદ્વીપની જગી છે તેને વિણું કરી दीघी छे. 'गंगा णं महानदी पवहे छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेण, अद्धकोसं उव्वेहेण तय तरं चणं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहे वासट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च विक्खंभेणं सकोसं जोयणं उदेहेण उभओपासि दोहिं परमवरवेइअ हिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता वेइयावणसंडवण्णओ भाणियव्वों' से गंगा नाम महानही ने स्थान उपरथी नीजीने वडेवा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू० ५ गङ्गामहानद्याः निर्गम- स्पर्शनादिनिरूपणम् ५७ दशगुणत्वात् 'मुरे' मुखे समुद्रप्रवेशे 'बासहिं जोयणाई' द्वापष्टि योजनानि 'अद्ध जोयणं च' अर्द्ध योजनम् योजनस्यार्द्ध च 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'सकोसं' सक्रोशं सपादं 'जोयणं उत्र्वेहेणं' योजनम् उद्वेधेन गाम्भीर्येण सार्द्धद्वाषष्टियोजन परिमित समुद्र प्रवेशव्यासस्य पञ्चाशत्तमभागे एतावन एवं समुपलभ्यमानत्वात् 'उभओ' उभयोः द्वयोः 'पासिं' पार्श्वयोः तटयोः 'दोहिं पउमवरवेइयाहिं' द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां 'दोहिं वनसंडेहि' द्वाभ्यां षण्डाभ्यां 'संपरिक्लित्ता' संपरिक्षित परिवेष्टिताऽस्ति, अत्र 'वेश्या वणसंडवण्णओ' वेदिकावनखण्डवर्णकः पद्मवर वेदिका वच्खण्डवर्णनकरपदसमूहो 'भाणियच्चो' भणितव्यः वक्तव्यः, स च क्रमेण चतुर्थपञ्चमाभ्यां सूत्राभ्यां बोध्यः । अथ गङ्गाया आयामादीनि सिन्धुनद्यां प्रदर्शयितुमाह - 'एवं सिंधूए वि' इत्यादि - ' एवं ' एवं गङ्गामहानद्या 'सिंधुए 'सिन्याः सिन्धु नाम महानद्या अपि स्वरूपं ' यव्वं ' नेतव्यं ज्ञानविषयतां प्रापणीयं ज्ञातव्यमित्यर्थः, 'जाव' यावत् एतत्पदं 'तोरणेन' इत्यनन्तरं महानदी जिस स्थान से निकल कर बहती प्रारम्भहोती है वह प्रवह- पद्महद के तोरण से इसके निर्गमन का स्थान- एक कोश अधिक ६ योजन का विष्कम्भ की अपेक्षा से है । अर्थात् छयोजनका उसका विस्तार है और इसका उद्वेध - गहराई आधे कोशका है उसके बाद गंगाप्रपात कुण्ड से निकलने के बाद वह महानदी गंग्रा कम २ से प्रतिपार्श्व में ५-५-धनुष की वृद्धि करती हुई अर्थात् दोनों पार्श्व में १० धनुष की वृद्धि करती हुई जहां वह समुद्र में प्रवेश करती है वह स्थान विष्कम्भ की अपेक्षा ३२|| योजन प्रयाण हो जाती है और १ योजन का वहां का उद्वेध हो जाता है यह गंगा अपने दोनों तटों पर दो पद्मवरवेदि काओं से और दो बनपण्डों से परिक्षिप्त है यहां वेदिका और वनषण्डों का वर्णन चतुर्थ एवं पंचम सूत्रों से जान लेना चाहिये ( एवं सिंधूए वि यत्रं) गंगामहानदी के आयाम आदिकों की तरह सिन्धु महानदी के आयामादि को भी जानना चाहिये ( जाय तस्म णं पउमद्दहस्स पच्चत्थिमिल्लेणं तोरणेणं, सिंधु લાગે છે તે પ્રવહ-મહંદના તારણથી એનું નિમન સ્થાન-એક ગાઉ અધિક ૬ ચેાજન પ્રમાણુ વિષ્ણુ ભની અપેક્ષાએ છે અર્થાત્ ૬ ૧ ચૈાજન જેટલે આને વિસ્તાર છે, અને આની ઊંડાઈ (દ્વે) અર્ધો ગાઉ જેટલી છે. ત્યાર બાદ ગંગા પ્રપાત કુંડમાંથી નીકળીને પછી તે મહા નદી ગંગા અનુક્રમે પ્રતિપાર્શ્વમાં ૫--૫ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ કરતી એટલે કે અને પાર્થીમાં ૧૦ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ કરી જ્યાં તે સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે, વિષ્ણુભની અપેક્ષાએ ૬૨૫ ચે!જન પ્રમાણુ થઈ જાય છે અને ૧૫ ચેાજન જેટલે તે સ્થાનના ઉદ્વેષ થઈ જાય છે. એ ગંગા પોતાના મન્તે કિનારાઓ ઉપર એ પદ્મવર વેદિકાએથી અને એ વનખડાથી પરિક્ષિત છે. વેર્દિકા અને વનખંડેનું વર્ણન ચતુ તેમજ પંચમ सूत्रोमांथी लगी होवु लेहये. 'एवं सिंधूए वि णेयव्वं' गंगा महानहीना आयाम वगेरेनी સ્થાન १०८ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे बोध्यम् , 'तस्त णं पउमदहस्स पञ्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं तस्य खलु पद्महृदस्य पाश्चात्येन तोरणेन यावत् यावत्पदेन 'सिन्धूमहानदी प्रव्यूढा सती पश्चिमाभिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्वतेन गत्वा' इत्यदि राङ्ग्रहो बोध्यः, 'सिंधु आपलण कूडे' सिन्ध्यावर्त कूटे आवृत्ता सती पञ्चयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि त्रींश्चैकोनविंशतिभागान 'दाहिणाभिमुही' दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपा. तेन प्रपतति, अत्र खलु महनी एका जिबिका प्रज्ञप्ता, सा खलु जिविका अर्द्धयोजनमायामेन षट्रसक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण अद्वयोजनं बाहल्येन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्ववज्रमयी अच्छा श्लक्ष्णा, सिन्धु महानदी अत्र खलु महदेकं 'सिंधुप्पवायकुंडं' सिन्धुप्रयातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , एतत्कुण्डमस्मिन्नेव सूने प्राक्त गङ्गाप्रपातकुण्डरदेव वर्णनीयम् । तस्य खलु सिन्धुप्रयालकुण्डस्य बहुमध्यदेवभागः, अत्र खलु महानेकः "सिंधु दीवा' सिन्धुआवत्तणकूडे, दाहिणाभिवही सिंधुप्प वायगुडं सिद्दीवो अट्ठो सोचेव जाव अहे तिमिरसगुहाए वेअदपवयं दाल इत्ता पच्यस्थित्राभिनुनी आवत्ता सनाणा चोदससलिला अहे जगई पच्चहिममे लवणमनुदं जाव लमध्येइ) यावत् यह सिन्धु महानदी उस पद्नद्रह के पश्चिनादिग्वर्तीतोरण से यावत पद के कथनानु. सार निकली है और पधिनदिशा की ओर वही है वहां से जहां से कि यह निकली है पांच सौ योजल तक उस पर्वत पर बहकर फिर यह सिन्ध्वावर्त कूट में, लौट कर ५२३. योजन ता उली पर्वत पर दक्षिण दिशा की ओर जाकर वडे जोर २ ले घट के मुख से निकले हुए जल प्रवाह की तरह अपने जल प्रवाह से गिरती है यह सिन्धुपालदी जिस स्थान में सिन्ध्वावर्तकृट में गिरती है वहां एक बहुत बढी 'जिहिला है। (१) इन सबका वर्णन पीछे गंगानदी के परम में किया जा चुका है। सिन्धु महानदी जहां गिरतो है वहां एक उसी नायका प्रपात कुण्ड है इसका भ सिन्धु महानही यामा परे ५१ . नी . 'जाव तरस णं पउमहहम्स पच्चत्थिमिल्ले गं तोरणेग सिंधु आवत्ताडे, दाहिणाभिमुह सिंधुप्पवायकुंडं सिंधु दीवो अट्ठो सो चेव जाव अहे तिमिसगुहाए वेअद्धाययं दालइत्ता पच्चथिमाभिमुही आवत्ता समाणा चोदससलिला अहे जगई पच्चस्थिमेणं लबणसमुदं जाप साप्पेइ' यवतू साधु મહા નદી તે પદ્મહદના પશ્ચિમ દિગ્વતી તોરણેથી યાવતુ પરના કથન મુજબ નીકળે છે. અને પશ્ચિમ દિશા તરફ પ્રવાહિત ર ય છે. જયાંશી એ નદી નીકળે છે ત્યાંથી પાંચસો જન સુધી તે પર્વત ઉપર પ્રવાહિત થઈને એ દિ વર્ત કુટમાં પાછી ફરીને પર૩ આ જન સુધી તે પર્વત ઉપર જ દક્ષિણ દિશા તરફ જઈને પ્રચંડ વેગથી ઘડાના મુખ માંથી નિકળતા જલ પ્રવાહ જેમ પતાના જલપ્રવાહ સાથે પડે છે. એ સિંધુ મહાનદી જે સ્થાનમાંથી સિવાવ કૂટમાં પડે છે તે એક સુવિશાળ ચિહ્નિકા છે. (એ સર્વનું વર્ણન પહેલા ગંગા મહાનદીના પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલું છે, સિંધુ મહાનદી જ્યાં પડે છે ત્યાં Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थयक्षस्कारः सू० ५ गङ्गामहानद्याः निर्गम स्पर्शनादिनिरूपणम् ५९ द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञतः, अयं द्वीपो गङ्गाद्वोचवर्णनीयः, हो सोचेव' अर्थः स एव-सिन्धु. महानदीसूत्रस्पार्थः स एव गजा महानदीसूत्रार्थ एव बोध्यः न त्वन्यः 'जाव' यावत-यावत्पदेन-'तस्थ खलु सिन्धुप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी प्रव्यूढा सती उत्तरार्द्धभरतवर्षम् इयती २ सलिलाबहरेः आपूर्यमाणा २” इति संग्राह्यम् , 'अहे' अधःअधोभागे 'तिमिसगुहाए' तमिसगुहायाः तभित्रनामक मुहायशः सकाशात् 'वेयद्धपव्ययं' वैता ढयपर्वतं 'दालइत्ता' दारयित्वा भित्ता पच्चत्थिमामिाही' पाश्चात्याभिमुखी पश्चिमाभिमुखी 'आवत्ता' आवृत्ता-परावृत्ता 'समाणा' सती योदपसलिला' चतुर्दशसलिलेति चतुर्दशभिः सलिलासहः सम्या राम्पूर्णा आहे जगई' अबो जगती दारयित्वा ‘पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि स्थितं लबणसमुद्र 'गाय' यावत् समप्पेड' समर्पयति 'सेस' शेषम् -उक्तातिरिक्तं प्रवह मुखसानादिकं तं बेब' तदेव राजा महानदी प्रसङ्गोक्तमेव बोध्यम् ॥सू०५।। मूलम-तस्त शं परहस्त उतरिल्लेणं तोरणेणं रोहियंसा महाणई पवूढा समापी दोषिण छापत्तरे जोयालए छच्च एणवीसइभाए जोयभी वर्णन गंगाप्रपात कुण्ड के जैसा ही है उसके बीच में सिन्धु महानदी सूत्र का वर्णन गंगाहीप के वर्णन जैसा ही है तथा सिन्धु महानदी सूत्र का अर्थ गंगामहानदी सूत्र के अर्थ जैसा ही है । यहां यावत्पद से 'तस्थ खलु सिन्धु प्रपात कुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धुमहानदी भव्यूढा सती उत्तरार्द्धम् भरतवर्षम् इयती २ सलिला सहः आपूर्यमाणा २' इस पाठ का संग्रह हुआ है यह सिन्धु महानदी खंउप्रपाल गुहा के नीचे से होकर तथा वैताढय पर्वत को विदारित कर पश्चिम दिशाकी और लौटती हुई २४ हजार नदियों रूप परिवार से युक्त हुई है इस प्रकार यह सिन्धु नदी पश्चिमदिशा के लवण समुद्र में जाकर मिलगई है इस कथन के अतिरिक्त और सब कथन गंगानदी के प्रकरण के जैसा हो है ऐसा जानना चाहिये सू०५॥ (तस्सणं पउनदहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं) એક તેજ નામધારી પ્રપાત કુંડ છે. એ પ્રપાત કુંડનું વર્ણન પણ ગંગા પ્રપાતવત્ સમજવું. તેના મધ્ય ભાગમાં સિંધુ ડીપ છે એ દ્વીપનું વર્ણન ગંગા દ્વીપના વર્ણનની જેમ જ છે. તેમજ સિધુ મહાનદી સૂત્રનો અર્થ ગંગા મહાનદી સૂત્રના અર્થ જે જ થાય છે मही यावत् ५४थी 'तस्य खलु सिन्धुपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धु महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरार्द्धम् भरतवर्ष इयती २ सलिलासहस्त्रैः आपूर्यमाणा २' में पहने। सबथयो छे. એ સિંધુ મહાનદી ખંડ પ્રપાત ગુફાના નિમ્ન ભાગમાંથી પ્રવાહિત થઇ તેમજ વૈતાઢયા પર્વતને વિદી કરતી પશ્ચિમ દિશા તરફ પાછી ફરતી ૧૪ હજાર નએ રૂપ પિતાના પરિવારથી યુક્ત થઈ છે. આ પ્રમાણે એ સિંધુ નદી પશ્ચિમ દિશાના લવણ સમુદ્રમાં જઈને મળે છે. એ કથન સિવાય શેષ બધું કથન ગંગા નદીના પ્રકરણ જેવું જ છે. જે સૂ. ૫ છે Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र णस्स उत्तराभिमुही पधए गंता महया घडमुहपत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोयणसइ एणं पवाएणं पडइ । रोहियंसा णाम महाणई जओ पवडइ, एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पणत्ता, सा णं जिब्भिया जोयर्ण आयामेणं अद्धतेरसजोषणाई विक्वंभेणं, कोसं बाह. ल्लेणं नगरमुहविउदृसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा रोहियंसा महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहियंसा पवायकुंडे णामकुंडे पण्णत्ते, सवीसं जोयणस आयामबिक्खंभेणं, तिषिण असीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, दसजोयणाइं उन्हेणं अच्छे कुंडवण्णओ जाव तोरणा, तस्स णं रोहियंसा पवायकुंडस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ गं महं एगे रोहियंसा णामं दोवे पण्गत्ते, सोलस जोयणाई आयामविक्वंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सव्वरयणामए अच्छे सण्हे० सेसं तं चेव जाव भवणं अट्रो य भाणियव्वोत्ति । तस्स णं रोहियंसाप्पबायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेगं रोहियंसा नहाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जमाणी २ चउद्दसहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरेभाणी २ सदावइ बट्टवेयड्डपब्वयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता सभाणी पञ्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पञ्चत्थिमेणं लवणतमुदं समपेइ, रोहियंसा णं परहे अद्धतेरसजोयणाइं विक्खंभेणं कोसं उव्वेहेगं, तयगंतरं च णं भायाएर परिवद्धमाणी २ मुहमूले पणवीसं जोयणसयं विक्वंभेग अड्डाइज्जाई जोयणाई उठवेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खत्ता ॥सू० ६।। छाया-तस्य खलु पद्महूदस्य औत्तराहेण तोरणेन रोहितांसा महानदी प्रव्यूढा सती इस छठे सूत्र का अर्थ इसकी छाया से ही जाना जा सकता है ऐसा है ॥सू.६।। ટીકા–આ છ સૂવને અર્થ એ સૂત્રની છાયા દ્વારા જ જાણી શકાય છે. સવા Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ६ रोहितांसामहानदीप्रपातादि निरूपणम् ६१ द्वे पट्सप्तते योजनशते षट्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेकयोजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति । रोहितांसा नाम महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिविका प्रज्ञप्ता । सा खलु जिहिका योजनमायामेन अर्द्ध त्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेण क्रोश बाल्पेन मकरमुखविवृत. संस्थानसंस्थिता सर्ववज्रमयी अच्छा; रोहितांसा महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं रोहितांसा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , तद् विशं योजनशतमायाम विष्पम्भेण, त्रीणि अशीतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, दश योजनानि उद्वेधेन अच्छम्०, कुण्डवर्णको यावत् तोरणाः । तस्य खलु रोहितांसा प्रपातकुण्ड'स्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु एको रोहितांसा नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, षोडशयोजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पञ्चाशतं योजनानि परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशावुच्छ्रितो जलान्तात् , सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः० शेषं तदेव यावद् भवनम् अर्थश्च भणितव्य हति, तस्य खलु रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य आत्तराहेण तोरणेन रोहितांसा महानदी प्रव्यूढा सती हैमवतं वर्षमियती २ चतुर्दशभिः सलिलास. हौः आपूर्यमाणा २ शब्दापातिवृत्तवैताढयपर्वतमर्द्धयोजनेनासम्प्राप्ता सती पश्चिमाभिमु. ख्यावृत्ता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभनमाना २ अष्टाविंशसा सलिलासहस्रः सनग्रा अधो जगतीं दारयित्वा पश्चिमेल गस गुद्रं समर्पयति । रोहितांसा खलु प्रबहे अर्द्ध त्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेण क्रोशमुद्वेधेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया २ परिवर्द्धमाना १ मुखमूले पञ्चविंश योजनशतं विष्कम्भेण अर्धतृतीयानि योजनानि उद्वेघेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां परमवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता ॥ सू० ६ ॥ ___टीका-'तस्स ' इत्यादि । 'तस्स णं पउमदहरस' तस्य खलु पद्मदस्य 'उत्तरिल्लेणं तोरणेणं' औत्तराहेण-उत्तरदिग्भवेन तोरणेन-बहिरिण 'राहियंसा महाणई पबुढा समाणी' रोहितांसा-तन्नाम्नी महानदी प्रव्यूढानिःसृता सती 'दोण्णि छायत्तरे जोयणसर छच्च एगृ. णवीस इभाए जोयणस्स' षट् सप्तते-षट् सप्तत्यधिके द्वे योजनशते पदचैकोनविंशतिभागान योजनस्य एतावती भुवम् 'उत्तराभिमुही पञ्चएणं गंता' उत्तराभिमुखी हैमवत् क्षेत्राभिमुखी सा नदी पर्वतेन गत्वा 'महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोयणसइ. एणं पवाएणं परडई' महाघटमुखेभ्यः प्रवृत्तिः निस्सरणं यस्य-प्रपातस्य तेन-महाघटमुख प्रवृत्तिकेन तथा-मुक्तावलिहारसंस्थितेन, तथा-सातिरेकं-किञ्चिदधिकं योजनशतं यत्र तेन सातिरेकयोजनशातिकेन-किश्चिदधिकशतयोजनविशिष्टेन उक्तत्रयविशेषणविशिष्टप्रपातेन प्रपतति । 'रोहियंसा णाम महाणई जो पवडई' रोहितांसा नाम्नी महानदी यतः-यस्मात स्थानात् प्रपतति, 'एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' अत्र खलु प्रपतनस्थाने महती अतिदीर्धा एका जिबिका-तदाकारं विशेषवस्तु, प्रज्ञप्ता-कथिता, 'सा णं जिब्भिया जोयणं आयामेणं अद्ध तेरस जोयणाई विक्खंभेणं, कोस बाहल्लेणं' सा खलु जिहिका योजनमेकम् आयामेन-दैर्येण, अर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेण-विस्तारेण, क्रोश बाह Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जम्बूद्वीपप्राप्ति ल्वेन-स्थौल्येन गङ्गा-जिहिकातः अस्या द्विगुणत्वात् , 'मगरमुह विउटसंठाणसंठिया सव्व वइरामई' मकरमुखविवृतसंस्थान-संस्थिता-मकर मुखमिव विवृतं-विदीर्ण यत्स्थानम्-आका रविशेषस्तेन-संस्थिता, सर्ववज्रमयी 'अच्छा रोहियंसा महाणई जहिं पवडइ' अच्छा-स्वच्छ। रोहितांसा महानदी यत्र प्रपतति, अथ कुण्डस्वरूपमाह-'एत्थणं महं एगे-रोहियंसा पवाय. कुडे णाम कुडे पण्णत्ते' अत्र खल्ल स्थाने महदेकं रोहितांसा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , 'सवीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेण' तत् कुण्डं विशम्-विंशत्यधिक योजनशतम् आयाम विष्कम्भाभ्यां दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् गङ्गाप्रपातकुण्डतोऽस्य द्विगुणत्वात् 'तिण्णि असीए जोय. णसर किंचि विसेमणे परिक्खेवेणं' त्रीणि योजनशतानि अशीतानि अशीत्यधिकानि किञ्चि द्विशेषोलानि परिक्षेपेण-परिधिना-परिवेष्टनेन 'दसजोयणाई उव्वे हेणं' दशयोजनानि उद्वे. धेन-गंभीरेण 'अच्छकुंड--बण्ण भी जाव तोरणा' अच्छम् ; कुण्डवर्णका-कुण्डस्य वर्णनं यावत्तो. रणानि तोरणपर्यन्तं वक्तव्यम् । अथात्र द्वीपमाह-'तस्स णं रोहियंसा पवायकुडस्स बहुमज्झ देसनाए एत्थ णं महं एगे रोहियंसा णामं दीवे पण्णत्ते' तस्य खलु रोहितांसा प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र खलु-स्थाने महान् एको रोहितांसो नाम द्वीपः प्रज्ञप्त:-कथितः, 'सोलसजोयणाई आगामविक्खंभेणं' स च द्वीपः पोडशयोजनानि आयामविष्कम्भाभ्यांदैयविस्ताराभ्याम् , 'साइरेगाइं प्रणासं जोयणाई परिक्खेवेणं' सौंतिरेकाणि पश्चाशतं योजनानि परिक्षेपेण-परिधिना, दो कोसे असिए जलंताओ' द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात्-जलपर्यन्तात् क्रोशद्वयमूवं गतः स द्वीपः 'सव्वस्यणामए अच्छे सण्हे ० सेसं तं चेव जाव भवणं अट्ठो य भाणियव्वो त्ति' सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः- शेषं तदेव यावद भवनम् अर्थश्च भणितव्य इति, सम्प्रति अस्या नद्याः ऐन तोरणेन निर्गनो यस्य च क्षेत्रस्य स्पर्शना यावांश्च नदी परिवारो यत्र च संक्रमस्तथाऽऽह-'तस्सण' इत्यादि । 'तस्स रोहि यंसाप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं' तस्य खलु रोहितांशाप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेणउतरदिग्भवेन तोरणेन-बहिरिण, 'रोहियंसा महाणईपवूढा समाणी' रोहितांसा महानदी प्रव्यूढा-निर्गता सती 'हेमवयं वासं एज्जमागी २' हैमरतं वर्षम् इर्यती२ गच्छन्ती २ 'चउ. इसहिं सलिलासहस्सेहि आपूरेमाणी २' चतुर्दशभिः सलिलासहस्रः-नदीसहस्त्रैर। पूर्यमाणार सदावइवट्टवेयपव्वयं अद्ध जोयणेणं असंपत्ता समाणी' शब्दापाति नामानं वृत्तपैताढ चपर्व तम् अर्द्ध योजनेनासम्प्राप्ता सती 'पच्चस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुद्दा विभयमाणी २' पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता-परावृत्ता सती हैमवतं वर्ष द्विधा विभनमाना २ 'अट्ठावीसाए सलिलासहस्से हि समगगा' अष्टाविंशत्या सलिलासहौः नदीसहस्रैः समग्रा. परिपूर्णा सती 'अहे जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लबणसमुई समप्पेई' जगतीम् अधो दारयि. स्था भित्वा पश्चिमे लवणसमुद्रं समर्पयति-प्रविशतीत्यर्थः, अस्या एव मूलविस्ताराधाह-'रोहि. यंगाणं पबहे अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेग कोसं उल्वे हेणं' रोहितांसा नाम्नी नदी खलु प्रवहे-प्रवहति यस्मादिति प्राहस्तस्मिन्-मूले अर्द्ध त्रयोदश योजनानि-सार्द्धद्वादशयोजनानि Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ६ रोहितांसामहानदीप्रपातादिकनिरूपणम ६३ विष्कम्भेण-विस्तारेण प्राच्यक्षेत्रनदीतो द्विगुणविस्तारकत्वात् , क्रोशमुद्वेधेन-उच्चत्वेन प्रव हव्यास पञ्चाशत्तमभागरूपत्वात् , 'तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २' तदनन्तरञ्च खलु मात्रया २ क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयो धनुर्विशत्या वृद्धया प्रतिपार्श्व धनुर्दशकवृद्धयेत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ 'मुहमूले पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेण' मुखमूले समुद्रप्रवेशे पञ्चविंशतं पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतं विष्कम्भेण, प्रवहव्यासाद्दशगुणत्वात् , 'अड्राइज्जाई जोयणाई उव्वेहेणं' अर्द्धतृतीयानि योजनानि-सार्द्धद्वे योजने उद्वेधेन मुखव्यासपञ्चाशत्तमभागरूपत्वात, 'उभओ पासिंदोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्याश्च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता वेष्टिता ॥सू.६॥ अथ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरिवर्तिकूटस्वरूपं दर्शयितुमाह 'चुल्लहिमवंते णं भंते !' इत्यादि । मूलम्-चुल्लहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पाणता? गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ चुल्लहिमवंतकूडे २ भरहकूडे३ इलदेवीकूडे ४ गंगादेवीकूडे ५ सिरीकूडे६ रोहियंसे कूडे७ सिंधुदेवीकूडे८ सुरदेवीकूडे ९ हेमवयकूडे १० वेसमणकूडे११ । कहि भंते । चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए सिद्धाययणकूडे णाम कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं चुल्लहिमवंतकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणकूडे णाम कूडे पणत्ते, पंच जोयणसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं मूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं मज्झे तिण्णि य पण्णत्तरे जोयणलए विक्खंभेणं उपि अद्धाइज्जे जोयणसए विक्खंभे, मूले एगं जोयणसहस्सं पंच च एगासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेबेध, मज्झे एग जोयणसहस्सं छलसीयं जोयणसयं किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, उप्पिं सत्त इकाणउए जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते, उप्पि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए सबरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइ. याए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, सिद्धाययणस्स कूडस्स णं उप्पिं बहुसभरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सिद्धा. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ययणे पण्णत्ते, पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणवीसं जोयणाई विभेणं, छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चतेणं जाव जिणपडिमा वण्णओ भाणियव्वो । कहि णं भंते! चुल्ल हिमवंते वासहरपव्वए चुल्लहिमवय कूडे णामं कूडे पण ? गोयमा ! भरहकूडस्स पुरस्थिमेणं सिद्धाययणकूडस्स पच्चत्थिमे, एत्थ णं चुल्लहिमत्रए वासहरपव्दए चुल्लहिमवएकडे णामं कूडे पण्णत्ते, एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविवखंभपरिक्खेवो जाव बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदे सभाए एत्थ णं महं एगे पासवर्डेस पण्णत्ते वासट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च उच्चत्तेणं इकतीसं जोयणाई कोसं चविकखंभेणं अवभुग्गयमूसियपहसिय विव विविह्मणिरयण भनिचित्ते वाउदद्ध्यविजयवेजयंती पडागाच्छत्ताइ च्छत्तक लिए तुंगे गगणतल मभिघ माणसिहरे जालंतररयणपंजरुम्मीलियव्व मणिरयणभूमियाए वियसियसयवत्त पुंडरीय तिलयर यणद्धचंदचित्ते जाणामणिमयदामालं किए अंतो बहिं च सण्हे वइरतवणिजरुइलवालुगापत्थडे सुहफासे सस्सिरीयरुवे पासाइए जान पडिरूवे, तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव सीहासणं सपरिवार से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ चुल्लहिमवंत कूडे २ ? गोयमा ! चुल्लहिमवए णामं देवे महिड्डिए जाव परिवसइ, कहि णं भंते! चुल्लहिमवयगिरिकुमा रस्स देवस्स चुल्लहिमवया णामं रायहाणी पण्णत्ता ?, गोयमा ! चुल्लहिमत्रकूडस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीवइत्ता अष्णं जंबुद्दी दीवं दक्खिणं बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता इत्थ णं चुल हिमवयस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवया णामं रायहाणी पण्णत्ता, बारस जोयणसहस्साइं आयामविवखंभेणं, एवं विजय रायहाणीसरिसा भाणियव्वा, एवं जाव अवसेसाण वि कूडाणं वतव्त्रया णेयव्वा आयामभिपरिकखेवासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अट्टो य देवाण य देवीणं य रायहाणीओ णेयव्वाओ, चउसु देवा चुल्लहिमवंते१ भरद्द२ " ५. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् हेमवय३ वेसमगकुडेसुर सेसेसु देवयाओ, से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ चुल्लहिमस्यासहरपवए ? २, गोयमा ! महाहिमवयवासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुम्वेहविक्खंभपरिक्खेवं पडुच्च ईसिं खुड्डतराए चेव हस्ततराए चे णीयतराए चेत्र, चुल्लहिमवंते य इत्थ देवे महिड्डिए जाव पलिओवमटिइए परिवसइ, से एएगणं गोयमा ! एवं वुच्चइचुल्ल हिमनए वासहरगठवए २, अदुत्तरं च गोयना ! चुल्लहिमवयस्स सासए णामधेज्जे पण्णने, जंण कयाइ पासी । सू० ७॥ छाया-क्षुद्रहिमवति खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते मतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! एकादशकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूटम् ? शुद्रदिश्वरकूटम् २ भरतकूटम् ३ इलादेवीकूटम् ४ गङ्गादेवीकूटम् ५ श्रीकूटम् ६ रोहिगांशाकूटम् ७ सिन्धु देवीकूटम् मुरादेवीकूटम्९ हैमवतकटम् १० वैश्रवणटम् ११। क्व खलु भदन्त ! शुद्राहिमवति वर्षधरपर्वते सिद्धायतनकूट नामकूटं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पौरस्त्यलयणसमुद्रस्प पश्चिमेन शुद्रहिमवत्कूटस्य पौरस्त्न अत्र घलु सिद्धायतनकूटं नाम कूट प्रज्ञप्तम् , पश्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन मूले पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण मध्ये त्रीणि च पश्च सप्ततानियोजनशतानि विष्कम्भेण उपरि अर्धेतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, मृले एकं योजनसहस्रं पञ्च च एकाशीतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपण मध्ये एक योजनसहस्रम् एकं च पडशीनं योजनशतं किञ्चिद्विशेषोनं परिक्षेवेण उपरि सप्तरकनवतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, मूले विस्तीर्ण, मध्ये संक्षिप्तम् , उपरि तनुकम् , गोपुच्छ संस्थानसंस्थितं सर्वरत्नमयम् अच्छम् , तत् खलु एकया पद्मवरवेदि. कया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् , सिद्धायतनस्य कूटस्य खलु उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्ता, यावत् तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु महदे सिद्धायतनं प्रज्ञप्त, पचाशतं योजनानि विष्कम्भेण पदत्रिशतं योजनानि ऊर्ध्वपुच्चत्वेन यावत् जिनप्रतिमा वर्णको भणितव्यः। क्व खलु भदन्त । क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमव कूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! भरतकूटस्य पौरस्त्येन सिद्धायतनकूटस्य पश्चिमेन, अब खलु क्षुद्रहिमवति वषेधरपर्वते क्षुद्र. हिमवत्कूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , एवं य एव सिद्धायतनकूटस्य उच्चत्वविष्कम्भ परिक्षेपो यावत् बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महान् एकः प्रासादावतंसका प्रज्ञप्तः, द्वापष्टिं योजनानि अर्द्ध योजनं च उच्चत्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भेण अभ्युद्गतोच्छित प्रहसित इव विविधमणिरत्नभक्तिचित्रः वातोश्रुतविजयवैजयन्तीपताकाच्छनातिच्छत्रकलितः तुङ्गः गगनतलमभिलङ्घयच्छिखरः जालान्तररत्नपञ्जरोन्मीलित ज०९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इव मणिरत्नस्तूपिकाकः विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्रः नानामणिमयदामालकृतः अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णवज्रतपनीयरुचिरवालुका प्रस्तुतः सुखस्पर्शः सश्रीकरूपः प्रासादीयः यावत् प्रतिरूपः, तस्य खलु प्रासादावतंसकस्य अन्तः बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् सिंहासनं सपरिवारम् , अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-क्षुद्रहिमवत्कूटं २ ? गौतम ! क्षुद्रहिमवान् नामदेवः मह द्धिक यावत परिवसति, क्व खलु भदन्त ! क्षुद्रहिमवगि रिकुमारस्य देवस्य क्षुद्रहिमवती नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! क्षुद्रहिमवत्कूटस्य दक्षिणेन तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य अन्यं जम्बूद्वीपं द्वीपं दक्षिणेन द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्र खलु क्षुद्रहिमवतो गिरिकुमारस्य देवस्य क्षुद्रहिमवती नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, द्वादशयोजनसहस्राणि आयामविष्कम्मेण एवं विजयराजधानी सदृशी भणितव्या, एवमवशेषाणामपि कूटानां वक्तव्यता नेतव्या, ओयामविष्कम्भ-परिक्षेप प्रासाद. देवताः सिंहासनपरिवारः अर्थश्च देवानां च राजधान्यो नेतव्याः, चतुषु देवाः क्षुद्रहिमवद १ भरत २ हैमवत ३ वैश्रवणकूटेषु४ शेषेषु देवताः, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षुद्रहिम वान् वर्षधरपर्वतः १२, गौतम ! महाहिमवद्वर्षधर पर्वतं प्रणिधाय आयामोच्चत्वोद्वेध विष्कम्भ. परिक्षेपं प्रतीत्य ईषत्क्षुद्रतरक एव हूस्वतरक एष नीवतरक एव क्षुद्रहिमवांश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वतः २ अदुत्तरम् अथ च खलु गौतम ! क्षुद्रहिमवत : शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञाम् यद् न कदा चिद् नाऽऽसीत् ॥ सू ० ७॥ टीका-'चुल्लहिमवंते णं' इत्यादि । 'चुलहिमवंते णं भंते ! वासहरपचए कह कूड। पण्णत्ता' क्षुद्रहिमवति खलु भदन्त । वर्षधरपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञतानि इति गौतमस्य प्रश्नः 'चुल्लहिमवंते णं भंते ! बासहरपव्यए कइ कूडा पण्णत्ता' । टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार हिमवंत पर्वत पर कितने कूट हैं ? इस बात को प्रकट कर रहे हैं-(चुल्लहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्यए कइ कूडा प.) इसमे गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! क्षुद्रहिमवत् वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुने कहा है--(गोयमा ! इक्कारस कूडा प. हे गौतम ! ११ कूट कहे गये हैं (तं जहा सिद्धाययणकूडे १, क्षुल्लहिमवंतकूडे 'चुल्लहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्यए कइकूडा पण्णत्ता इत्यादि' ટીકાથે- એ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકાર હિમવંત પર્વત ઉપર કડલા કૂટો આવેલા છે, એ वात २५ट ४२ छ-'चुल्लहिमवंतेणं भंते ! वासहरपधए कइ कडा प.' समां गौतम સ્વામીએ પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો છે-કે હે દંત હિમવત્ વર્ષધર પર્વત ઉપર ४ाटो ४ामा मासा छ ? उत्तरमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! इक्कारसकूडा प.' अ गौतम । ११ टो अवाम मावत छ. 'तं जहा सिद्धाययणकूडे १, क्षुल्लहिमवंत Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् ६७ भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'इक्कारसकूडा पण्णता' एकादशकूटानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-'सिद्धाययणकूडे १' सिद्धायतनकूटम् १ चुल्ल हिमवंतकूडे २' क्षुद्रहिमवत्कूटम्--इदं च क्षुद्रहिमवगिरिकुमारदेवस्वास्मिन्नेव सूत्रेऽये वक्ष्यमाणस्य कूटम् २, 'भरहकूडे ३' भरतकूटम्-भरताख्य देवस्य कूटम् ३, 'इलादेवीकूडे ४' इलादेवीषट्पञ्चाशदिक्कुमारी देवी वर्गमध्यवर्तिनी विशिष्टादेवी तस्याः कूटम् ४, 'गंगादेवीकूडे ५' गङ्गादेवीकूटं-गङ्गादेव्याः अनन्तरसूत्रोक्तायाः कूटम् ५, 'सिरि कूडे ६' श्रीकूटम्-श्री देव्याः कूटम् ६, 'रोहियंसकूडे ७' रोहितांसाकूटम्-रोहितांसादेव्याः कूटम् ७ 'सिंधुदेवीकूडे ८' सिन्धुदेवीकूटम्-सिन्धुदेव्याः २, भरहकूडे ३, इलादेवोकूडे ४, गंगादेवीकूडे ५, सिरिकूडे ६, रोहिअंसकूडे, ७, सिन्धुदेवीकूडे ८, सुरदेवीकूडे ९, हेमवयकूडे १०, वेसमणकूडे ११, उनके नाम इस प्रकार से हैं-१ सिद्धायतनकूट, क्षुद्रहिमवंतकूट २, भरतकूट ३, इलादेवीकूट ४, गंगादेवीकूट ५, श्रीकूट ६, रोहितांशाकूट ७, सिन्धु देवी कूट ८ सूरदेवी कूट ९, हैमवतकूट १०, और वैश्रवणकूट ११, आगे जिसके सम्बन्ध में इसी सूत्र में कहा जाने वाला है-ऐसे क्षुद्रहिमवद्भिरि कुमारदेव का जो कूट है वह क्षुद्रहिमवगिरि कूट है भरत नाम के देव का जो कट है वह भरतकूट है छप्पन दिनकुमारिकाओं के मध्य में इलादेवी एक विशिष्ट देवी है इस देवी का जो कूट है वह इलादेवी कट है अनन्तर सूत्रोक्त गंगादेवी का जो कूट है वह गंगादेवी कूट है श्रीदेवी का जो कूट है वह श्रीदेवी कूट है रोहितांशादेवी का जो कूट है वह रोहितांशा कूट है सिन्धुदेवी का जो कूट है वह सिन्धु देवी कूट है सुरादेवी का जो कट है वह सुरादेवी कूट है इलादेवी की तरह सुरादेवी भी-एक विशिष्टदेवी है हैम. वतवर्ष के अधिपति देवका जो कूट है वह हैमवतकूट है वैश्रवण-कुबेर-का जो कूडे २. भरहकूडे ३, इलादेवी कूडे ४, गंगादेवी कूडे ५, सिरी कूडे ६, रोहिअंस कूडे ७, सिन्धु देवी कूडे ४, सुरदेवी कडे १, हेमवय कूडे १०, वेसमण कूडे ११' तमना नामा આ પ્રમાણે છે–૧ સિદ્ધાયતન ફૂટ, ૨ સુદ્રહિમવત્, કૂટ, ૩ ભરત ફટ, ૪ ઈલાદેવી ફૂટ ૫ ગંગા-દેવીકૂટ, ૬ શ્રી ફૂટ, ૭ રહિમાંશા કૂટ, ૮ સિધુદેવી ફૂટ, ૯ સુરદેવી ફૂટ–૧૦ હૈમવંત કૂટ, અને ૧૧ વૈશ્રમણ કૂટ આગળ જેના વિષે આ સૂત્રમાં જ કહેવામાં આવશે એવા શુદ્ર હિમવ૬ ગિરિકુમાર દેવનો જે ફૂટ છે તે ક્ષુદ્રહિમગિરિ ફૂટ છે. ભરત નામક દેવને જે કૂટ છે તે ભરતકૂટ છે. ૫૬ દિકુમારિકાઓના મધમાં ઈલાદેવી એક વિશિષ્ટ દેવી છે. એ દેવીને જે કૂટ છે તે ઈલાદેરી ફૂટ છે. અનંતર સૂક્ત ગંગા દેવીનો જે કૂટ છે તે ગંગા દેવી ફૂટ છે. શ્રી દેવીને જે ફૂટ છે તે શ્રી દેવી ફૂટ છે. હિતાંશા દેવીને જે ફૂટ છે તે રોહિતાશા કૂટ છે. સિધુ દેવીને જે ફૂટ છે તે સિદેવી ફૂટ છે. સુરદેવીને જે ફૂટ છે તે સુરા દેવી ફૂટ છે. ઈલા દેવીની જેમ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कूटम् ८, 'सुरदेवीकूडे ९' सुरादेवीकूटम्-सुरा देव्यपि इलादेवीवत् तस्याः कूटम् ९ हेमव. यकूडे १०' हैमवत कूटम्-हैमवतवर्षाधिपतिदेवकूटम् १०, 'वेसमणकूडे ११' वैश्रवणकूटं-वैश्रवणः कुबेरो लोकपालविशेषः तम्य कूटम् ११, ___ अथ तेषामेव कूटानां स्थानादि स्वरूपं प्रश्नोत्तराभ्यां प्रदर्शयितुमाह-'कहि णं भंते !" इत्यादि, 'कहि णं भंते ! चुल्ल हिमवंते वासहरपन्धए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?' हे भदन्त ! कुत्र खलु क्षुद्रहिमवती वर्षधरपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं चुल्लहिमवंतकूडस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' पौरस्त्यलवण समुद्रस्य पश्चिमेन क्षुद्रहिमवत्कूटस्य पौरस्त्येन अत्र खल सिद्धायतनकूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् , तत्र-सिद्धा. यतनकूटस्य प्रथमतया मानाधाह-'पंचजोयणसयाई' इत्यादि 'पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं' नवरम्-पञ्च योजनशतानि पञ्चशतयोजनानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन, मूले (मूलदेशावच्छेदेन) सिद्धायतनकूटं यावदस्ति तावदाह-मूले पञ्चत्यादि-'मूले पंच जोयणसयाई विक्खंकूट है वह वैश्रवणकूट है (कहि णं भंते ! चुल्लाहमवंते वासहरपन्चए सिद्धाययकूडे णामं कूडे प.) भदन्त ! क्षुद्रहिमवत् वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतन नामका कूट कहाँ पर कहा गया है १ इसके उत्तर में प्रभु कहते है (गोयमा ! पुरस्थिमलवणवमुदस्स पच्चत्थिमेणं चुल्लहिमवंत कूडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणकडे णामंकूडे पण्णत्ते) हे गौतम ! पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र की पश्चिम दिशा में एवं क्षुद्रहिमवतू कूट की पूर्वदिशा में सिद्धायतन कूट नामका कूट कहा गया है (पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तण मूले पंच जोयणसयाई विखंभेणं मज्शे तिण्णिय पण्णत्तरे जोयणसए विखंभेणं उपि अद्धाहज्जे जोयणसए विक्खंभेणं, मूले एगं जोयणसहस्सं पंचय एगासीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मज्झे एग जोषणसहस्सं एगंच छलसीयं जोयणमयं किंचिंविसेमूणं સુરાદેવી પણ એક વિશિષ્ટ દેવી છે. હૈમવત વર્ષના અધિપતિ દેવનો જે કૂટ છે તે હેમपतट छ. वैश्रवण-मेरो २ फूट छ ते वैश्रवण ८ छ. 'कहिणं भंते ! चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' 3 मत! क्षुद्रभिवत् २ त ५२ सिद्धायतन ना रेट छ ते ४या मावेस छ ? सेना नाममा प्रमुछे-'गोयमा ! पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेगं चुल्लहिमवंतकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ ण सिद्धाययण कूडे णामं कूडे पण्णते' गौतम ! ५ हित १५ समुद्रनी पश्चिम दिशाम तमा क्षुद्र लिभपतनी शामा सिद्धायतनट नाम दूंट मावसछे-पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले पंचजोयणसयाई विक्खंभेण मज्झे, तिण्णिय पण्णत्तरे जोयणसए विखंभेण, उप्पि अद्धाइज्जे जोयणसए विक्खंभेणं, मूले एगं जोयणसहस्सं पंचय एगासीए जोयणसए Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्व तोपरितनकूटस्वरूपम् भेणं' मूले- मूलदेशावच्छेदेन पञ्च पञ्चसंख्यानि योजनशतानि योजनानां शतानि विष्कम्भेण विस्तारेण प्रज्ञप्तमिति पूर्वेणान्वयः, 'मज्झे तिष्णि य पण्णत्तरे जोयणसर विखंभेणं' एवमग्रेsपि मध्ये-मध्यदेशावच्छेदेन त्रीणि- त्रिसंख्यानि च पञ्चसप्ततानि पञ्चसप्तत्यधिकानि योजनशतानि विष्कम्भेण 'उपिभद्धा इज्जे जोयणसए विक्खंभेणं' उपरि- उपरितन देशावच्छेदेन अतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, इत्येवं मूल मध्यान्तेषु तस्य विस्तारप्रमाणमुक्त्वा परिक्षेपप्रमाणमाह- 'मूले एकम्' इत्यादि, 'मूले एगं जोयण सहस्सं पंच एगासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' मूळे एकं योजनसहस्रं पञ्च एकाशीतानि - एकाशीत्यधिकाfन योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि किञ्चिदधिकानि च परिक्षेपेण, 'मज्झे एगं जोयणसहस्सं एगं च छलसीयं जोयणसय किचिविसेसूणे परिवरखेवेणं' मध्ये - एकं योजनसहस्रम् एकं च पडशीत्यधिकं योजनशतं किञ्चिद्विशेषोनं किञ्चिन्यून परिक्षेपेण, 'उपि सत्त इक्काणउए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं' उपरि सप्त-सप्तसंख्यानि एकनव परिक्खेवेणं उपि सत्तइक्काणउए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णे, मज्झे संखिते उपिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सब्बरयणामए अच्छे ) यह सिद्धायतन छूट ५०० योजन ऊंचा है मूल में ५०० योजन का मध्य में ३७५ योजन का इसका विस्तार है, ऊपर में २५० योजन का विस्तार है, इस प्रकार से इसका मूल, मध्य और अन्त का प्रमाण कहा गया है अब इसके परिक्षेप का प्रमाण इस प्रकार से है-मूल में इसका परिक्षेप १५८१ योजन से कुछ अधिक हैं मध्य में इसका परिक्षेप १९८६ योजन से कुछ कम है ऊपर में इसका परिक्षेप ७९१ योजन से कुछ कम है १९८६ योजन से कुछ कम है ऐसा जो कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि ११ सौ योजन तो पूरे समझना चाहिये तथा-८६ योजनों में से ८५ योजन पूरे समझना चाहिये बाकी जो एक किं चिविसेसाहिए परिक्खेवेण मज्झे एगं ओयणसहस्सं एवं च छलसीयं जोयणसयं किंचि विसेसूणे परिक्खेवेण उपि सत्त एक्काणउर जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेत्रेण मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छ संठाणसंठिए सव्वरयणमए अच्छे' मे સિદ્ધાયતન ફૂટ ૫૦૦ ચેાજન જેટલે ઊંચા છે. મૂલમા ૫૦૦ યેાજન જેટલેા અને મધ્યમાં ૩૭૫ ૨ાજન જેટલેા એને વિસ્તાર છે. ઉપરમાં ૨૫૦ ચેાજન જેટલે વિસ્તાર છે. આ પ્રમાણે આ ફૂટનુ મૂલ, મધ્ય અને અંત સંબંધી પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે. હવે આના પરિક્ષેપ નું પ્રમાણુ આ પ્રમાણે છે. મૂળમાં આના અરિક્ષેપ ૧૫૮૧ ચેાજન કરતાં કાંઈક વધારે છે. મધ્યમાં આને પરિક્ષેપ ૧૧૮૬ ચેાજન કરતાં કંઈક ક્રમ છે. ઉપરમાં આનેા પરિક્ષેપ ૭૯૧ ચેાજન કરતાં કંઇક અલ્પ છે. ૧૧૮૬ ચૈાજન કરતાં કંઇક અલ્પ છે. આમ જે કહેવામાં આવેલ છે તેનું તાત્પ આ પ્રમાણે છે. કે ૧૧ સે ચેાજન તે પૂરા સમજવા જોઈએ. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तानि-एकनवत्यधिकानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषोनानि किञ्चिनानि परिक्षेपेण, अयंभाव:-एकं सहस्रं पूर्ण शतं च पूर्ण पञ्चाशीति योजनानि च पूर्णानि शेषं च क्रोशत्रयं धनुषा. मष्टशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि इति किश्चित्पडशीतितमं विवक्षितमिति, तथा उपरि सप्त योजनशतानि एक नवत्यधिकानि किञ्चिन्यूनानि परिक्षेपेण अयं भावः-सप्त शतानि नवति योजनानि पूर्णानि, शेष क्रोशद्वषं धनुषां सप्तशतानि पञ्चविंशत्यधिकानीति किश्चिद्वि. शेपोनम् एकनवतितमं योजनं विवक्षितम् , परिक्षेपेणेति सवत्र बोध्यम्, 'मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते-उप्पि तणुए गोपुच्छ संठाणसंठिए' मूले विस्तीर्ण बिस्तारयुक्तम् , मध्ये संक्षिप्तं मूल सत्कविस्तारापेक्षया अल्पविस्तारयुक्तम् उपरि शिखरे तनुकम् हस्वम् मूलमध्यापेक्षयाऽ ल्पतरविस्तरयुक्तम् , तथा गोपुच्छसंस्थानसंस्थितम् ऊवीकृत गोपुच्छाकार संस्थितम्' 'सव्वरयणामए अच्छे' सर्वरत्नमयम् अच्छं प्राग्वद् । योजन वचा है उसमें से ३ कोश ८२३ धनुष हो लेना चाहिये इस तरह यहां ११८६ योजन पूरे क कह कर इस प्रकार से कुछ कन कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये तथा ७९१ योजन को जो कुछ कम कहा गया है उसका भाव ऐसा है कि ७९० योजन तो पूरे लेलेना चाहिये बाकी १ योजन में से २ कोश और ७२५ धनुष लेना चाहिये इस तरह करके ७९१ योजन कुछ कम कहें गये हैं ऐसा जानना चाहिये इस तरह यह सिद्धायतन कूट मूल में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में तनुक पतला हो गया है इसलिये इसका आकार उर्वीकृत गोपुच्छ के आकार जैसा बन जाता है यह सिद्धायतन कूट सर्वात्मना रत्न मय है और अच्छ आकाश एवं स्फटिकमणि के जैसा निर्मल है (से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वण संडे गं सव्वओ समंता संपरिकिखित्ते सिद्धाययण. स्तकडस्स णं उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) यह सिद्धायतनकूट તેમજ ૮૬ જનોમાંથી ૮૫ જને પૂરા સમજવા જોઈએ. શેષ જે એક યોજન વધે છે, તેમાંથી ૩ ગાઉ ૮૨૩ ધનુષ જ લેવા જોઈએ. આ પ્રમાણે અહીં ૧૧૮૬ એજન. પૂરા ન કહીને આ પ્રમાણે કંઈક કમ કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ ૭૯૧ જનમાંથી કઈક અ૯૫ કહેવામાં આવેલ છે, તેને ભાવ આ પ્રમાણે છે કે ૭૯૦ જને તે પૂરા લેવા જોઈએ. બાકી એક એજનમાંથી ૨ ગાઉ અને ૭૨૫ ધનુષ લેવા જોઈએ. આ પ્રમાણે ૭૯૧ જનથી કંઈક અલ૫ કહેવામાં આવેલ છે. આમ જાણવું જોઈએ. આમ આ સિદ્ધાયતન ફૂટ મૂલમાં વિસ્તીર્ણ, મધ્યમાં સંક્ષિપ અને ઉપરમાં તનુ એટલે કે પાતળો થઈ ગયા છે. એટલા માટે આને આકાર ઉથ્વીકૃત પુચ્છના આકાર જેવો થઈ જાય છે એ સિદ્ધાયતન ફૂટ સર્વાત્મના રનમય છે. અને અચ્છ-આકાશ અને સ્ફટિક મણિવત્ નિર્મળ छ. 'से गं एगाए पउमवरवेइयाइ एगेण वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते सिद्धाय यणरस्स कूडस्स णं उप्प बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' 2 सिद्धायतनट मे ५५१२ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमघत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् अथात्र पावरवेदिका वनखण्डाधाह-'से गं' इत्यादि, ‘से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते' तत् खलु सिद्धायतनटकूटम् खलु एकया पदमवरवेदिकया एकेन वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं-वेष्टितम् , अत्र यदस्ति तत्सूचयितुमुपक्रमते-'सिद्धाययणस्स कूडस्से' त्यादि, 'सिद्धाययणस्स कूडस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णते, पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणबीसं जोयणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोयणाइं उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमा वण्णओ भाणियव्यो' सिद्धायतनस्य कूटस्य खलु उपरि वहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावत् तस्य खलु बहुसमर. मणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेश भागः, अत्र खलु महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम् , पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण, पत्रिंशतं योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यावत् जिनप्रतिमा वर्णको भणिएक पद्मवरवेदिका से एवं एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है इस प्तिद्धायतन कूट का ऊपर का भाग बहुसमरमणीय कहा गया है (जाव तस्सणं पहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झ देसभाए-एत्थणं एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते) यावतू इस सिद्धायतन के बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच एक महान सिद्धायतन कहा गया है (पण्णास जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई बिक्वंभण छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमा घण्णओ भाणियव्यो) यह सिद्धायतन आयाम की अपेक्षा ५० योजना का, विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन का और ऊंचाई की अपेक्षा ३६ योजन का कहा गया है 'जाव णं बहुसमरमणिज्जस्स' में पठित इस यावत् शब्द से-वैता. ढयगिरिगत सिद्धायतनकूट के वर्णन जैसा इसका भी वर्णन है ऐसा प्रकट किया गया है तथा 'उच्चत्तेणं जाव' यहां जो यावत् शब्द प्रयुक्त हुआ है વેદિકાથી તેમજ એક વનખંડથી ચોમેર આવૃત છે એ સિદ્ધાયતન ફૂટના ઉપરના ભાગ असभरभागीय ४ामा मावस छे. 'जाव तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहु. मज्झदेसभाए एत्मण एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते' यावत् से सिद्धायतनना पसम २मणीय भूमिलाना ही मध्यभा से विश सिध्यायतन छे. 'पण्णासं जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेण जाव जिणपडिमा वण्णओ भाणि यव्यो' थे सिद्वायतन - मायामनी अपेक्षाये ५० या १०४मनी અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન જેટલે, અને ઊંચાઈની અપેક્ષાએ ૩૬ જન કહેવામાં આવેલ छ. 'जाव णं बहुसमरमणिज्जस्स' मा ५ति यावत् शपथी वैताय शिशत सिद्धाયતન ફૂટના વર્ણન જેવું એનું પણ વર્ણન છે. આમ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તેમજ जाव णं बहुसमरमणिज्जस्स' मा ५६त से यावत् ४थी वैदयनित सिद्धायतन Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तव्यः । नवरं प्रथम यावत्पदेन-वैताढयगिरिगतसिद्धायतनकूटस्येवास्यापि वर्णको बोध्या, उच्चत्वेन यावत्-इत्यत्रत्येन द्वितीयेन यावत्पदेन-तद्गतसिद्धायतनादि वर्णको बोध्यः। ____ अथास्मिन्नेव वर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवगिरिकूटवक्तव्यतामाह-'कहि णं' इत्याहि, 'कहि णं भंते ! चुल्लहिमवते कासहरपन्चए चुल्ल हिमवंतकूडे णाम कूडे पण्णत्ते' हे भदन्त ! क्षुदहिमा वतिवर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवत्कूटं नाम कूट क्व खलु प्रज्ञप्तम् ? तस्योत्तरमाह-'गोयमे' त्यादि 'गोयमा !' हे गौतम ! 'भरतकूडस्प्त पुरथिमेणं सिद्धाययणकूडस्स पच्चत्थिमेणं, एत्य णं चुल्लहिमवंते वासहरपब्धए चुल्ल हिमवंत कूडे णामं कूडे पण्णते' भरतकूटस्य पौरस्त्येन सिद्धा. यतनकूटस्य पश्चिमेन, अत्र खलु क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वते क्षुद्रहिमवत्कूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , 'एबं जो चेवे त्यादि, एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो' एवम् उक्त प्रकारेण य एव सिद्धायतकूटस्य उच्चत्वविष्कम्भपरिक्षेपः-उच्चत्व-विष्कम्भ युक्त परिक्षेप इत्यर्थः, अत्र मध्यमपदलोपी समासो बोध्यः, स एवास्यापि बोध्यः, इदं च वचनमुपलक्षणम् , तेन पद्मवरवेदिका नपण्डादिवर्णनं बहुसमरमणीयभूमिभागवर्णनं च बोध्यम् किं उससे वहां के सिद्धायतन आदिका वर्णक पाठ यहां कहलेना चाहिए ऐसा कहा गया है । (कहिणं भंते ! क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए क्षुल्लहिमवंतकडे णामंकडे पण्णत्ते) इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि क्षुद्रहिमवत्पर्वतपर क्षुद्रहिमवत् कूट नामका कूट कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! भरहकूडस्स पुरस्थिमेणं सिद्धाययणस्सकूडस्स पच्चस्थिमेणं एत्थगं क्षुल्लहिमवंते वासहरपधए क्षुल्लहिमवंतकूडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे गौतम ! भरत कूट के पूर्व में एवं सिद्धायतनकट के पश्चिम में क्षुद्रहिमवंत पर्वत पर क्षुद्रहिमवत् कूट नामका कट कहा गया है, (एवं जो चेव सिद्धाययणकडस्प्त उच्चत्तविक्खभ परिक्खेवो जाव बहुसमरमणिजस्स दूटना न २ मेनु ५९ वर्णन छ. माम प्र४८ ४२वामां आवे छे. तेभा 'उच्चतेणं जाव' मडी २ यावत् प्रयुत च्येत छ, तेनाथी त्यांना सिद्धायतन परेन। व ५४ मही सभ ले नसे. 'कहि णं भंते ! क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए क्षुल्लहिमवंतकूडे णामं कूडे पण।' ये सूत्र 43 गौतमे प्रभुने मा प्रमाणे प्रश्न ध्या છે કે હે પ્રભુ! હિમવત્ પર્વત ઉપર હિમવત્ કૂટ નામક ફૂટ કયા સ્થળે આવેલ छ १ सेना wwi प्रभु ४३ ई. 'गोरमा ! भरहकूडस्स पुरथिमेणं सिद्धाययणस्स कूडरस पच्चत्थिमेणं एत्थणं क्षुल्लहिमवते वासहरपव्वए क्षुल्लहिमवंतकूडे , णामं कूडे पण्णत्ते' 3 गौतम ! ભરત ફૂટના પૂર્વમાં અને સિદ્ધાયતન ફૂટના પશ્ચિમમાં ક્ષુદ્ર હિમવત્ પર્વત ઉપર મુક भिवत् टूट नाम छूट मावेस छ ‘एवं जो चेव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो जाव बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए एत्थणं महं एगे पोसाय वडें. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् पर्यन्तं बोध्यम् इत्याह-'जाव' इत्यादि, यावत्-यावत्पदेन-"तस्य खलु क्षुद्रहिमवत्कूटस्य खलु उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य खलु" इति संग्राह्यम् 'तस्सणं बहुसमर. मणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडे सए पण्णत्ते बासहि जोयणाई अद्ध नोयणं च उच्चत्तेणं इकतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं' तस्य खलु बहुस. मरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु महानेकः प्रासादाक्तंसकः प्रासादेषु गृहविशेषेषु अवतंसक इव शिरोभूषण विशेष इव उत्तमप्रासाद इत्यर्थः. प्रज्ञप्तः, तस्य मानाधाह स खलु प्रासादावतंसकः द्वापष्टिं योजनानि अर्द्धयोजनं च उच्चत्वेन, एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भेण, अस्याऽऽयामस्तु समचतुरस्रत्वान्न सूत्रकृता विचिन्तितः, तत्र भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते) इस तरह सिद्धायतन कट की जितनी ऊंचाई कही गई है जितना विष्कम्भ कहा गया है और जितना परिक्षेष कहा गया है उतनी ही ऊंचाई उतना ही विष्कम्भ और उतना हो परिक्षेप इस कुटका भो जानना चाहिये यह वचन उपलक्षणरूप है इससे पावरवेदिका और बनखण्ड आदि का वर्णन और बहुसमरमणीय भूमि भाग का वर्णन भी करलेना चाहिये हस तरह यह वर्णन वहां तक करना चाहिये कि जहां तक इस क्षुद्र हिमवान् पर्वत के बहुसमरमणीय भूमि भाग का जो वीच का भाग है ऐसा पाठ कहा गया है इस बीच के भाग में विशाल प्रासादावतंसक कहा गया है (वासहि जोयणाई अद्ध जोयणं च उच्चत्ते णं इकतीसं जोयणाई कोसं च विखंभेणं अभुग्गय भूसियपहसिए विच विविहमणिरयणभत्तिचित्त) यह प्रासादावतंसक ऊंचाई में ६२॥ योजन है विष्कम्भ ३१ योजन और एक कोश का है इसका आयाम सूत्रकारने यहां इसके समचतुरस्र होने से प्रकट नहीं किया है कारण कि वैताढयगिरिगत प्रासाद के अधि. सए पण्णत्ते' २॥ प्रमाणे सिद्धायतन छूटनी रेटली यामां आवेदी छ,२ प्रभाभा વિધ્વંભ કહેવામાં આવેલ છે અને જે પ્રમાણમાં પરિક્ષેપ કહેવામાં આવેલ છે, તેટલી જ ઊંચાઈ તેટલે જ વિખંભ અને પરિક્ષેપ એ કૂટને પણ જાણ. એ વચન ઉપલક્ષણ રૂપ છે એનાથી પદ્વવર વેરિકા અને વનખંડ વગેરેનું વર્ણન અને બહસમરમણીય ભૂમિભાગનું વર્ણન પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે એ વર્ણન ત્યાં સુધી લેવું જોઈએ કે જ્યાં સુધી એ ક્ષુદ્ર હિમવાન પર્વતને જે બહુસમરમણીય ભૂમિભાગની વચ્ચેને ભાગ છે, અ પાઠ અત્રે સમજ. એ મધ્યભાગમાં વિશાળ પ્રાસાદાવતંસક કહેવામાં આવેલ છે 'वासढि जोयणाई अद्ध जोयणं च उच्चत्तण इक्कतीसजोयणाई कोसं च विक्खंभेणं अब्भुग्गय भूसिय पहसिए विव बिवहमणिरयणभत्तिचित्ते' से प्रासातसयामा १२॥ येन છે. આને વિષ્કભ ૩૧ જન અને એક ગાઉ જેટલો છે. એ સમચતુજ છે એથી સ્વ ज० १० Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कारणं वैताढय गिरिगतप्रासादाधिकारे निरूपितमिति जिज्ञासुभिस्ततो ज्ञेयम् , स प्रासादावतसकः कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-'अब्भुग्गयभूसिय पहसिय विव विविहमणिरयणभत्तिचित्ते' अभ्युद्गतोच्छ्रित प्रहसितः-अभ्युद्गतः आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गतः उच्छ्रितः-उच्च:गगनचुम्बी अतिधवल प्रभासमूहेन प्रहसिन इव, यद्वा-"अब्भुग्गय भूसिय पहसिय विव" इत्यस्य "अभ्युद्गत त्सृत प्रभासित इव" इति च्छाया, तत्पक्षे तु अभ्युद्गता-अभि-आभि. मुख्येन गता-सर्वतो विनिर्गता उत्ता-उत्-प्राबल्येन मृता सर्वदिक्षु प्रसूता यद्वा आकाशे प्रबलतया सर्वस्तिर्यक प्रमृता च या प्रभा द्युतिः, तया सित इव बद्ध इव तिष्ठनीति प्रतीयते, अन्यथा कथङ्कारं सोऽत्युच्चै निराधारः स्थातुं शक्नुयादिति भावः प्रभा रज्जु बद्धस्तु स्थातुं शक्नोतीति पर्यवसितम् , मूले प्राकृतत्वान्मकारागमः, तथा विविधमणिरत्नभक्तिचित्र:विविधानि नानाप्रकाराणि यानि मणिरत्नानि मणयो रत्नानि च तेषां भक्तिभिः विच्छित्तिभिः चित्रः अद्भुतः नानापर्णों वा, 'वाउद्घय विजयवे जयंति पडागच्छत्ताइच्छत्तकलिए' तथा वातोदधुत विजयवैजयन्ती पताकाच्छन्नातिच्छेत्रकलितः-वातोदधुता:-बायुकम्पिताः याः विजयवैजयन्त्यः-विजयसूचिकाः वैनयन्त्यः-पताकाः, पताकाः सामान्यपताकाश्च तथा छत्रातिछत्राणि उपर्युपरिस्थितानि च्छत्राणि च तैः कलितः-युक्तः, तथा 'तुंगे' तुङ्गः-उच्चः, कार में यह कहा जाचुका है अतः वहां से इसे जानलेना चाहिये यह प्रासादावतंसकअभ्युद्गतोच्छूित है और हसता जैसा प्रतीत होता है अर्थात् गगन. तल चुम्बित है और अपनी प्रभा से चमकता अथवा यह ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह समस्त दिशाओं में फैली हुई अपनी प्रभा से जकडा सा है नही तो फिर इतना ऊंचा होने पर वह कैसे निराधार रह सकता ९ मूल में प्राकृत होने से मकार का आगम हुआ है तथा यह प्राप्तादावतंसक अनेक प्रकार के मणियों एवं रत्नों द्वारा की गई रचना से अद्भुन या नानावों से युक्त सा प्रतीत होता है (वाउद्घय विजय वेजयंतीपडागच्छत्ता इच्छत्त कलिए तुगे गगणतलमणुलिકારે આ પ્રાસાદાવાંસકના આયામ વિષે સ્પષ્ટતા કરી નથી. કેમકે તાઢય ગિરિગત પ્રાસાદના અધિકારમાં એ કહેવામાં આવેલ છે. એથી ત્યાંથી જ આ વિષે જાણી લેવું જોઈએ. એ પ્રાસાદાવતંસક અદ્ભુતસ્થિત છે અને હાસ્ય કરતો હોય તેમ લાગે છે. અર્થાત એ પ્રાસાદાવતંસક ગગન તલચંકિત છે અને પિતાની પ્રભાથી ચમકી રહ્યો છે. અથવા એ પ્રાસાદાવતુંસક એ પ્રતિભાસિત થઈ રહ્યો છે કે જાણે એ સમસ્ત દિશાઓમાં પ્રસરેલી પિતાની પ્રભાથી રબદ્ધ થયેલ ન હોય. નહીતર એ આટલે બધે ઊંચે હોવા છતાં તે નિરાધાર કેવી રીતે રહી શકત? મૂળમાં પ્રાકૃત લેવા બદલ મકારાગમ થયેલ છે. તેમજ એ પ્રાસાદાવતંસક અનેકવિધ મણિઓ તેમજ રત્ન દ્વારા વિરચિત २यनाथी महमुत मथवा नानाविध पीथी युक्त डाय सेभ साणे छ. 'वाउछुय विजयवेजयंती पडागच्छत्ता इच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमणुलितसिहरे जालंतररयण पंज Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्र हिमवत्पर्वतोपरितनकूट स्वरूपम् 'गगनतलमभिलंघमाणसिहरे' अत एव गगनतरम् - आकाशतलम् अभिलङ्घ्यच्छिखरः - अति क्राम्यग्रभागः, 'जालंतररयणपंजरुम्मीलिया' जालान्तररत्नपञ्जरोन्मीलित इव - जालानि जालकानि प्रासादभित्तिस्थितानि, तेपामन्तरेषु मध्येषु शोभार्थं जटितानि रत्नानि यस्मिन् स तथोक्तः रत्नजटितगवाक्षमध्यभागयुक्त इत्यर्थः, तथा पञ्जरोन्मीलितश्च पञ्जरात् वंशादि निर्मिताच्छादनविशेषात् उन्मीलितः- तत्कालनिःसारितः इव यथा शोभमानः, अयं भावःयथा वंशादि निर्मितात् पञ्जराद् निःसारितं रत्ना दिकम विनष्टकान्तित्वादत्यन्तं शोभते, एवं सोऽपि प्रासादावतंसकः शोभत इति, यद्वा-जालान्तरगतैरत्न पञ्जरैः रत्नसमुदायैः उन्मीलित इव उन्मिति नेत्र इवेत्यर्थः, तथा - 'मणिरयण धूमियाए' मणिरत्न स्तूपिकाकः - मणिरत्नानां स्तूपिकाः लघुशिखराणि यस्य स तथोक्त:- मणिरत्नमयलघु शिखरयुक्त इत्यर्थः तथा - 'विय - सिय सयवत्तपुंडरीय तिलयरयणचंद चिते' विकसितशतपत्र पुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्र चित्रः हंत सिहरे जालंतररयणपं जहम मी लिएव्वमणिरयणधूभिआए, वियसिय सयवत्तपुंडरीय तिलयरयणद्धचंदचि णाणामणिमयदामालंकिए अंतो बहिं च , 9 सह वइरतवणिज्जरुइल वालुगापत्थडे) इसके ऊपर वायु से विजय वैजयन्तियां फहरा रही है पताकाओं से और त्रातिछत्रों से यह कलित है बहुत ऊंचा है इसकी शिखरे आकाशतल को भी स्पर्शकर रही हैं इसके मध्यभाग में जो गवाक्ष हैं वे रत्न जति है तथा यह प्रासादावनंसक ऐसा सुन्दर नया बनासा प्रतीत होता है कि मानो यह अभी ही वंशादिनिर्मित छादनविशेष से बाहर निकाला गया है वंशादिनिर्मित छादनविशेष से जो रत्नादिक वस्तु बाहर निकाली जाती है वह बिलकुल साफ सुथरी एवं अविनष्ट कान्तिवाली प्रतीत होती है अतः इसकी सुन्दरता देखकर यह ऐसी कल्पना की गई है इसकी जो स्तृपिकाएंलघुशिखरे है वे मणियों एवं रत्नों से बनी हुई है तथा विकसित शतपत्रों के पुण्डरीकों के एवं भित्यादिकों में लिखित रत्नमयतिलकों के तथा द्वार आदि में रुम्मीलिएव्व मणिरमणथूभिआए, वियसिव सथवत्त पुंडरीय तिजय रयणद्ध चंदचिते, णाणाममिदामालं किए अंतो बर्हि च सण्ह वर तयणिज्जरुइलवालुगापत्थडे' मे પ્રાસાદાવત...સક ઉપર વાયુથી આંદ્રેલિત થતી વિજય વૈજયન્તીએ ફરકી રહે છે. પતાકાએથી અને છત્રાતિછત્રાથી એ કલિત છે. એ અતીત ઊંચા છે. એના શિખરો આકાશને સ્પશી રહ્યા છે. એના માયભાગમાં જે ગવાક્ષેા છે તે રત્ન જટિત છે તેમજ એ પ્રાસાદાવત...સક અવે સુંદર નવીન ખનેલા જેવા લાગે છે કે જાણે એ અત્યારે જ વશાદિ નિમિત છ.દન વિશેષથી મહાર કાઢવામાં આવેલ ન હેાય. વાદિ નિમિત છાદન વિશેષથી જે રત્નાદિક વસ્તુએ `હાર કાઢવામાં આવે છે તે તદ્દન સ્વચ્છ અને અવિનષ્ટ કાંતિવાની પ્રતીત થાય છે. એથી એની સુંદરતા જોઇને એવી કલ્પનાએ કરવામાં આવેલ છે. એની જે સ્કૂપિકાઓ (લઘુશિખર) છે તે મર્માણુએ અને રત્નેથી નિર્મિત છે, તેમજ વિકસિત Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विकसितानि-फुल्लानि यानि शतपत्राणि शतपत्रविशिष्टानि कमलानि पुण्डरीकाणि श्वेतकमलानि च तथा तिलकरत्नानि भित्त्यादिषु रत्नमयतिलकानि अर्धचन्द्राः-अर्धचन्द्राकृतयश्च द्वारादौ लिखिता तैश्चित्र:- अद्भुतः नानावर्णों वा, तथा 'णाणामणिमयदामालंकिय अंतो बहिं च' नानामणिमयदामालङ्कृतः-अनेक प्रकारक मणिमय मालाशोभितः, अन्तः-अभ्यन्तरे बहिः प्रासादाद्वहिर्भागे च 'सण्हवइरतवणिज्जरुइलबालुगा पत्थडे' श्लक्ष्ण-वत्रतपनीय रुचिर वालुका प्रस्तुतः-लक्ष्णा:-चिक्कणाः वज्रतपनीयानां वज्ररत्न स्वर्णमय्यः अत एव रुचिराः शोभनाश्च याः वालुकाः सिकताः ताभिः प्रस्तृतः आच्छादितः, यद्वा श्लक्ष्ण इति पृथक् लुप्तविभक्तिकं पदं श्लक्ष्णः चिक्कणः प्रासादावतंसकः तथा वन्त्रतपनीयानां या रुचिरा वालुकाः कणिकास्तासां प्रस्तट:-प्रतरो यस्य (प्राङ्गणेषु) स तथा 'सुहफासे' सुखस्पर्शः सुखजनक स्पर्शयुक्तः 'सस्सिरीयरूवे' सश्रीकरूप:-शोभासम्पन्नाकारः, 'पासाइए' प्रासादीयः, 'जाव पडिरूवे' यावत्-यावत्पदेन दर्शनीयः अभिरूपः तथा प्रतिरूपः एषां व्याख्या प्राग्वत् । . 'तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे.पण्णत्ते, जाव सीहासणं सपरिवारं' तस्य खलु प्रासादावतंसकस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमतलः अत एव रमणीयः सुन्दरः भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावत् सिंहासनं सपरिवारम्-अत्र सपरिवार सिंहाउत्कीर्ण हुए अर्द्ध चन्द्राकार के जैसे चित्रों से यह वडा ही अनोखा दिखाई देता है इस पर अनेक मणियों से बनी हुई मालाएं पडी हुई है उनसे यह बहुत ही सुहावना प्रतीत होता है चिकनी वज्र एवं तपनीय सुवर्ण की रुचिर बालुकाओं से यह भीतर में और बाहर में आच्छादित है (सुहाफासे, सस्सिरीअरवे, पासा. ईए, जाब पडिरूवे) यह सुखकारी स्पर्शवाला है शोभा संपन्न आकार वाला है और प्रासादीय है यावत् प्रतिरूपक है यहां यावत्पद से 'दर्शनीयः अभि. रूपः' इन पदों का ग्रहण हुआ है (तस्सणं पासायवडे सगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागेप.) उस प्रासादावतंसकका भीतरी भाग बहसमरमणीय कहा गया है (जाव सीहासणं सपरिवारं) वहां पर सपरिवार सिंहासन का वर्णन શતપત્રમા–પુંડરીકેના તથા ભિત્યાદિકમાં લિખિત રત્નમય તિલકેના અને કાર વગેરેમાં ઉત્કીર્ણ થયેલા અર્ધ ચંદ્રાકાર જેવા ચિત્રોથી એ ખૂબજ અદ્ભુત લાગે છે. એની ઉપર અનેક મણિઓથી નિમિત માળાઓ લટકી રહી છે. તેમનાથી એ અતી સુંદર પ્રતીત થાય છે. વાની સુચિકકણ વાલુકાઓથી અને તપનીય સુવર્ણની રુચિર વાલુકાઓથી એ १२ मने महा२ २५-छाहित छ. 'सुहफासे, सरिस्सरीअरूवे, पासाईए, जाब पडिरूवे' એ સુખ કારી સ્પર્શવાળે છે. શભા સમ્પન્ન આકારવાળે છે અને પ્રાસાદીય છે. યાવત્ प्रति ३५४ छे. मी यावत् ५४थी 'दर्शनीय अभिरूपः' से पहनु अहुए थयु छ. 'तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' से प्रासातसने लातरी IPL मसमभाय ४३पामा मास छे. 'जाब सिहासणं सपरिवार' त्यो सपरिवार Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ভ७ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्र हिमवत्पर्वतोपरितनकूट स्वरूपम् सून वर्णनं बोध्यम्, तच्च राजप्रश्नीय सूत्रस्यैकविंशतितम द्वाविंशतितमसूत्रतः संग्राह्यम्, तदर्थश्च तत एव बोध्यः । 1 अथास्यान्वर्थे नाम व्याख्यातुमिच्छुराह - ' से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ चुल्ल हिमवंतकूडे२' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते क्षुद्रहिमवत्कुटम् २ ? अस्योत्तरमाह - 'गोयमा !' हे गौतम | 'चुल्लर्हिमवते - णामं देवे महिद्धीए जाव परिवस' क्षुद्रहिमवान् नामेत्यादि - हे गौतम ! अस्मिन् क्षुद्रहिमवत्कूटे क्षुद्रहिमवान् नाम देवः परिवसतीत्युत्तरेण सम्बन्धः स की - शः इत्याह- महर्द्धिकः यावत् - यावत्पदेन - 'महाद्युतिकः महाबलः महायशः महासौख्यः महानुभावः पल्योपमस्थितिकः' इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्याऽष्टमसूत्रस्थ विजयदेवाधिकाराद् बोध्या, परिवसति निवसति । तेन हेतुना एवमुच्यते क्षुद्रहिमवत्कूटं कूटम् इति । अथास्य राजधानी वक्तव्यतामाह - गौतमः पृच्छति 'कहि णं भंते !" इत्यादि, 'कहि णं भंते ! चुल्ल हिमवंत गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता ? कुत्र खल करलेना चाहिये यह वर्णन राज प्रश्नीय सूत्रके २१ वें और २२ वें सूत्र से जानलेना चाहिये तथा वहीं से उन सूत्रों के पदों की व्याख्या भी समझ लेनी चाहिये (से केणट्टे णं भंते ! एवं वुच्चइ खुल्लहिमवंत कूडे २) हे भदन्त ! आपने ऐसा 'बुल्लहिमवन्त' 'चुल्लहिमवंतकूड नाम किस कारण से कहा है ९ (गोयमा ! क्षुल्लहिमवंते णामं देवे महिद्धिए जाच परिवसइ) हे गौतन ! इस कूट पर क्षुद्र हिमवन्त नामका देवकुमार रहता है यह महर्द्धिक आदि विशेषण वाला है । यहां यावत्पद से 'महाद्युतिकः, महाबलः महायशाः महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिक:' इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्या ख्या अष्टम सूत्रस्थ विजयदेवाधिकार से ज्ञात कर लेनी चाहिये इस कारण उसे मैंने क्षुल्लहिमवन्त कूट इन नाम से कहा है । (कहिणं भंते! पंच चुल्लहिमवंतगिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं સિંહાસનનું વર્ષોંન કરી લેવુ જોઇએ. એ વર્ણન ‘રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર'ના ૨૧માં અને ૨૨ માં સૂત્રમાંથી જણી લેવુ જોઇએ. તેમજ ત્યાંથી જ એ સૂત્રેાના પદેની વ્યાખ્યા પણ समल सेवी लेहये. 'से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ क्षुल्लहिमवन्त कूडे २' डे ल ! आपश्री 'चुल्लहिमवन्त' क्षुसडिभवत डूड नाम शा रथी डेलु छे ? 'गोयमा ! क्षुल्लहिमवंते णाभं देवे महिइढीए जाव परिवसई' हे गौतम! ये छूट ३५२ क्षुद्र हिभન્વત નામક દેવકુમાર રહે છે. એ મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણા વાળા છે. અહીં યાવત્ पहथी 'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः' मे પદ્મ ગ્રહણ થયા છે, એ પદોની વ્યાખ્યા અમ સૂત્રસ્થ વિજયદેવાધિકારમાંથી જાણી લેવી જોઈએ આ કારણથી મે ક્ષુલ્લહિમવન્ત ફૂટ એ નામથી સ ંખે;ધિત કરેલ છે. 'भंते ! चुल्लहिमवंत गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ते' 3 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भदन्त ! क्षुद्रहिमवगिरिकुमारस्य देवस्य क्षुद्रहिमवता नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?' भगवानस्योत्तरमाह-'गोयमा !' इत्यादि, हे गौतम ! 'चुल्लहिमवंतकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णं जंबुद्दीवं दीवं दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं चुल्लहिमवंतस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता' क्षुद्रहिमवत्कूटस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि तिर्यगसंख्येयान् तिर्यक्प्रदेशे असंख्यातान् द्वीपसमुद्रान व्यतिव्रज्य-व्यतिक्रम्य उल्लङ्घय अन्य जम्बूद्वीपं द्वीपं दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य प्रविश्य अत्र अत्रान्तरे खलु क्षुद्रहिमवतः एतनामकस्य गिरिकुमारस्य पर्वतपुत्रस्य देवस्य क्षुद्रहिमवती नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, 'बारसजोयण सहस्साई आयामविक्खंभेणं' सा च द्वादश योजन सहस्राणि आयामविष्कम्भेण दैर्ध्यविस्ताराम्याम् प्रज्ञप्तेति पूर्वेण सम्बन्धः, 'एवं विजयरायहाणी सरिसा भाणियव्या' एवम् अनेन प्रकारेण इयं राजधानी वर्णनं चाष्टमसूत्राद्वोध्यम् । ‘एवं अवसेसाण विकूडाणं वत्तव्यया णेयब्या' एवं रायहाणी प.) हे भदन्त ! क्षुद्रहिमवन्तगिरिकुमार देव की क्षुद्रहिमवती नामकी राजधानी कहां पर है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! चुल्लहिमवंत कडस्स दहिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णंजबृद्दीवंदीवं दक्खि. णेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थणं चुल्लहिमवंतस्स गिरिकुमारस्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी प.) हे गौतम ! क्षुद्रहिमवन्तकूट की दक्षिण दिशा में तिर्यगलोक संबंधी असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार कर अन्य जंबूद्वीप नामके द्वीप में दक्षिण दिशा की ओर १२ हजार योजन आगे जाकर के आगत इसी स्थान में चुल्लहिमबंत गिरिकुमारदेवकी क्षुद्रहिमवतीनामकी राजधानी है । (बारस जोयणसहस्साई आयामविश्वंभणं, एवं विजय रायहाणी सरिसा भाणियव्वा) यह आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा १२ हजार योजन की है। बाकी का और सब कथन इसके सम्बन्ध मे अष्टमसूत्र में वर्णित विजयराज. ભવંતક્ષુદ્રહિમવન્ત ગિરિકુમાર દેવની હિમવતી નામક રાજધાની કયા સ્થળે આવેલી છે? सेना याममा प्रभु ४ छे-'गोयमा ! चुल्लहिमवंतकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णं जंणूदी दीवं दक्खिणेणं बारस जोयणसहरसाई ओगाहित्ता एत्थणं चुल्लहिमवंतस्स गिरिकुमारम्स देवस्स चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता' गौतम ! ક્ષુદ્રહિમવન્ત કૂટની દક્ષિણ દિશામાં તિય લેક સંબંધી અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને પાર કરીને અન્ય જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં દક્ષિણ દિશા તરફ ૧૨ પેજન આગળ જઈને જે સ્થાન આવે તે જ સ્થાનમાં ભુલકહિમવંત ગિરિકુમાર દેવની મુદ્ર હિમવતી નામક शधानी छ. 'बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं एवं विजय गयहाणी सरिसा માળિચરવા’ એ આયામ અને વિષ્કભની અપેક્ષા ૧૨ હજાર જન જેટલી છે. શેષ સર્વ ४यन सेना समयमा अष्टम सूत्रमा पति विय यानी ४ छ. 'एवं अव Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ७ क्षुद्रहिमवत्पर्वतोपरितनकूटस्वरूपम् क्षुद्रहिमवत्कूटवत् शेषाणाम् तदतिरिक्तानां भरतकूटादीनां फूटानां वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः नेतव्या ज्ञानविषयतां प्रापणीया ज्ञेयेत्यर्थः, आयामविक्खंभपरिक्खेव पासायदेवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठो य देवाण य देवीण य रायहाणीओ णेयव्याओ' तथा आयाम विष्कम्भ परिक्षेपप्रासाददेवताः सिंहासनपरिवारः अर्थश्च देवानों देवीनां च राजधान्यो नेतव्या इति पूर्वेण सम्बन्धः, 'चउसु देवा चुल्लहिमवंत१ भरहर२ हेमवय ३ वेसमणकूडेसु४ सेसेसु देव. याओ' तत्र चतुर्यु कूटेषु देवाः परिवसन्ति, केषु चतुर्यु ? इत्याह-क्षुद्रहिमवान् १ भरत २ हैमवत ३ वैश्रवणकटेषु ४ शेषेषु उक्तातिरिक्तेषु देवताः देव्यः परिवसन्ति, अथास्य क्षुद्रहिमवत्त्वे हेतुमाह-‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चुल्लहिमवते वासहरपयए' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-क्षुद्रहिमवान् वर्षधरपर्वतः २? भगवानस्योत्तरमाह-'गोयमा!' हे धानी के जैसा ही ज्ञात कर लेना चाहिये (एवं अवसेसाण वि कूडाणं वत्तव्वयाणेयव्वा) इसी प्रकार से हिमवतकूट के वर्गन की पद्धति के अनुसार ही भरत. कट आदि कटों की वक्तव्यता समझलेनी चाहिये इस तरह आयाम विष्कम्भ परिक्षेप, प्रासाद, देवता, सिंहासन परिवार अर्थ एवं देव देवियों की राजधानियाँ यह सब विषय हिमवत्कूट की वर्णन पद्धति के जैसा ही है ऐसा जानलेना चाहिये यही बात (आयामविक्खम्भ परिक्खेव पासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठोय देवाणय देवीण य रायहाणीओ णेयवाओ) इस सूत्र पाठ द्वारा प्रकट की गई है (चउसु देवा क्षुल्लाहिमवंत २ भरह ३ हैमवत् ४ वेसमणकूडेसु सेसेसु देवयाओ) क्षुद्रहिमवन्त कूट पर, भरतकूट पर हेमवत कूट पर, और वैश्रवण कुट पर, इन भरतकूटो पर देव रहते हैं तथा वांकी के कटों पर देवियां रहती हैं । (से केणढे णं भंते ! एवं बुच्चइ क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए) हे भदन्त ! आपने इसका नाम क्षुद्रहिमवन्तवषेधर पर्वत ऐसा किस कारण से सेसाण वि कूडाणं वत्तव्वया णेयव्वा' या प्रमाणे हिमत छूटना व ननी पद्धति मुरम જ ભરત કૂટ વગેરે કૂટની વક્તવ્યતા સમજી લેવી જોઈએ આ પ્રમાણે આયામ, વિષ્કભ પરિક્ષેપ, પ્રાસાદ, દેવતા, સિંહાસન પરિવાર, અર્થ તેમજ દેવ-દેવીઓની ૨.જધાનીઓ से मधु ४ छ. से समय से नये. मे पात 'आयाम विक्खंभपरिक्खेव पासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अट्ठोय देवाणय देवीणय रायहाणीओ णेयवाओ' से सूत्र५४ વડે પ્રકટ કરવામાં આવેલી છે. 'चउसु देवा चुल्लहिमवंत २ भरह ३ हेमवय ४ वेसमण कूडेसु सेसेसु देवयाओ' ક્ષુદ્રહિમવન્ત હેમવંત કૂટ ઉપર ભરત ફૂટ ભરત ફૂટ ઉપર હેમવંત કૂટ હેમવંતક ફૂટ ઉપર વિશ્રવણ કૂટ એ ચાર ફૂટો ઉપર દે રહે છે. તેમજ શેષ કૂટો ઉપર દેવીએ २९ छे. 'से केणटूठेणं भंते ! एवं बुच्चइ क्षुल्लहिमवंते वासहरपव्वए' -महत આપશ્રીએ એનું નામ શુદ્ર હિમવન્ત વર્ષધર પર્વત એવું શા કારણથી કહ્યું છે? Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे गौतम ! 'महाहिमवंत वासहरपव्वयं पणिहाय आयमुच्चत्तुवेहविक्खंभपरिक्खेवं पडुरच' महाहिमवद्वर्षधरपर्वतं प्रणिधाय आश्रित्य आयामोच्चत्वोद्वधविष्कम्भ परिक्षेपं प्रतीत्य अपे. क्ष्य 'ईसि खुड्डतराए चेव हस्सतराए चेव णीयतराए चेव चुल्लहिमवंते य इत्थ देवे महिदीए जाव पलिओवमटिइए परिवसइ' ईषत्क्षुद्रतरक एव किञ्चिल्लघुतर एव यथासंभवं योजनापेक्षया विधेयत्वेनाऽऽयामाधपेक्षया, इस्वतरक एव-अति हूस्व एव उद्वेधापेक्षया नीचतरक एव अति-नीच एब उच्चत्वापेक्षया, तथा क्षुद्रहिमवांश्च देवः अत्र अस्मिन् क्षुद्रहिमवति वर्षधरपर्वते परिवसति इति परेणान्वयः, स कीदृशः ? इत्याह-'महर्द्धिको यावद् पल्योपमस्थितिकः, यावत्पदेन-"महाद्युतिका, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानु. भावः, इत्येषां पदानो संग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्याऽष्टमसूत्राद् बोध्या परिवसति निव: कहा है ? (गोयमा ! महाहिमवंतवासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तुव्वेह विक्खंभपरिक्खेवं पडुच्च ईसिं खुडुतराए चेव हस्सतराए चेव णीअतराए चेव चुल्लहिमवंते इत्थ देवे महिडिए जाव पलि ओवमट्टिइए परिवप्लइ से एएणढे गं गोयमा ! एवं वुच्चइ चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए) हे गौतम ! महाहिमवन्तवर्ष घर पर्वत की अपेक्षा लेकर के-उसके आयाम, उच्चत्व उछेध विष्कम्भ, परिक्षेपको आश्रित करके-क्षुद्रहिमवत् पर्वत का आयाम आदिका विस्तार थोडा है लघुनर है महाहिमवान के उद्वेध इस्वतरक अति इस्व है। महाहिमवान के उच्चत्व की अपेक्षा उसका उच्चत्व अतिनीचा है । तथा क्षुद्रहिमवान् नामका देव इस क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत पर रहता है यह युद्रहिमवान् नामका देव महर्दिक है और यावत् एक पल्योपमकी स्थितिवाला है यहां यावत्पद से 'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्या, महानुभावः' इन पदोंका ग्रहण हुआ है इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्र से ज्ञातव्य है इस कारण हे गौतम ! 'गोयमा ! महाहिमवंतवासहरपञ्चयं पणिहाय आयामुच्चत्तुव्वेह विक्खंभपरिक्खेव पडुच्च ईसिं खुडुतराए चेव हस्सतराए चेवणीअतराए चेव चुल्ल हमवंत इत्थ देवे महिड्ढिए जाव पलिओवमटिइए पडिवसइ से एएढेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ चुल्ल हिमवंते वासहर पव्वए' 3 गोतम! महभिवन्त ध२ पतनी अपेक्षाये तना मायाम, ઉચ્ચત્વ, ઉધ વિખંભ, પરિક્ષેપને આશ્રિત કરીને શુદ્ર હિમવત પર્વતને આયામ વગેરે વિસ્તાર અલ્પ છે. લઘુતર છે. મહાહિમવાનના ઉધની અપેક્ષાએ આને ઉકેધ હસ્વતરક અતિ હસ્વ છે. મહાહિમવન્તના ઉચ્ચત્વની અપેક્ષાએ એ પર્વતની ઊંચાઈ ઓછી છે. બહુ જ કામ છે. તથા ક્ષુદ્ર હિંમવાન નામક દેવ એ ક્ષુદ્ર હિમવાનું વર્ષધર પર્વત ઉપર રહે છે. એ ક્ષુદ્રહિમાવાન નામક દેવ મહદ્ધિક છે અને યાવત્ એક પલેપમ જેટલી स्थिति धरावे छे. मी यावत् ५४थी 'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्याः, महानुभावः' से पहो असर थया छ. से पहनी व्याभ्या अष्टम सत्रमाथी one सेवी Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू० ७ क्षुद्र हिमवत्पर्य तोपरितनकूट स्वरूपम् ८१. सति 'से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - चुल्लहिमवंते वासहरपच्चए २' सः क्षुद्रहिमवानन् एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन गौतम ! एवमुच्यते क्षुद्रहिमवान् वर्षधरपर्वतः इति । अथास्य शाश्वतत्वे हेतुमाह - 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स सासए णामघेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासी' अथ च खलु गौतम ! क्षुद्रहिमवतः शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तं यत् यस्मात्कारणात् स न काचिद् नासीत् अपि तु आसीदे वेत्यादि चतुर्थसूत्रोक्त पद्मवर वेदिकावद् बोध्यम् ॥ ०७ ॥ अथाऽनेन क्षुद्रमित्रता वर्षधरपर्वतेन विभक्तस्य हैमवतक्षेत्रस्य वक्तव्यमाह - 'कहि णं भंते' इत्यादि । मूलम् - कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णसे ? गोयमा ! महाहिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्त्रयस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसमुहस्स पञ्च्चत्थिमेणं पञ्च्चत्थिमलवणसमुद्दस्त पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिष्णे पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुद्दे पुढे, पुरस्थिमिल्लाए कोडीए पुरस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्टे, दोणि जोयणसहस्साइं एगं च पंचुत्तरं जोयणसयं पंच य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विकखंभेणं, तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं छज्जोयणइस वर्ष धरपर्वत का नाम क्षुद्र हिमवान् वर्षघर - पर्वत - ऐसा मैंने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है (अदुत्तरं च णं गोयमा ! क्षुल्लहिमवंतस्स सासए णामघेज्जे प.) अथवा क्षुद्र हिमवान् पर्वत का 'क्षुद्रहिमवान्' ऐसा जो नाम कहा गया है उसका कारण कुछभी नहीं है क्यों कि वह तो शाश्वत है ( जंण कयाइ णासि ) ऐसा इसका यह नाम पहिले कभी नहीं था ऐसा नहीं है, भूतकाल में भी इसका यही नाम था इत्यादि सब कथन चतुर्थ सूत्रोक्त पद्मवरवेदिका की तरह से ही जानना चाहिये || सू०७|| જોઈએ આ કારણથી હું ગૌતમ ! એ વધર પર્યંતનુ નામ ક્ષુદ્ર હિમવાન વધર એવુ में रमने अन्य तीर्थ ४रे। मे धुं छे. 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स सासए णामघेज्जे प.' अथवा क्षुद्र हिभवन् पर्वतनुं 'क्षुद्रद्धिभवान्' मेवु' नाम ? अडेवामां आवेलु छे तेनुं भरगु नथी. उभडे ते तो शाश्वत छे. 'जं ण कयाई' येवु खानु मा નામ પહેલાં ન હતુ. એવુ નથી, ભૂતકાળમાં પણ એનુ એજ નામ હતુ. વગેરે મધુ अथन यतुर्थ सूत्रोक्त पद्मवरवेहिनी प्रेम लागी सेवु लेह मे. सू. ॥ ७ ॥ म० ११ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सहस्साई सत् य पणवपणे जोयणसए तिष्णि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा, पुरथिमिलाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चरिथमिल्लाए जाव पुट्टा सत्ततीसं जोयणसहस्साइं उच्च चउवत्तरे जोयणसए सोलस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसूणे आयामेणं, तस्स धणुं दाहिणेणं अद्भुतीसं जोयणसहस्साई सत्तं य चत्ताले ओयणसए दस य एगूणवीसहभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं, हेमवयस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं तइय समाणुभावो यहोति ॥ सु०८ ॥ छाया -क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! महाहिमवतो वर्षधर पर्वतस्य दक्षिणेन शुद्रमिवतो वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवण समुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवण समुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खल जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्षे प्रज्ञप्तम्, प्राचीनप्रतीचीनायतम् उदीचीनदक्षिणविस्तीर्ण पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितं द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टम्, पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रम् स्पृष्टम्, पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टम् द्वे योजनसहस्रे, एकं च पश्चोत्तरं योजनशतं पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य बाड़ा पौरस्त्यपश्चिमेन षट् योजनसहस्राणि सप्त च पञ्चपञ्चाशं योजनशतं त्रींव एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन, तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनायता द्विघाती लवणसमुद्रं स्पृष्टा, पौरकोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा सप्तत्रिंशतं योजनसह - स्राणि षट् च चतुः सप्तानि योजनशतानि षोडशं च एकोनविंशति भागान् योजनस्य किञ्चि द्विशेषोनान् आयामेन, तस्य धनुः दक्षिणेन अत्रिशतं योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिंशानि योजनशतानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, हैमवतस्य खलु भदन्त ! वर्षस्य कीदृशक आकार भावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, एवं तृतीयसमानुभावो नेतव्य इति ॥ सू० ८ ॥ टीका- 'कहि णं भंते!' इत्यादि । 'कहि णं भंते ! जंबूद्वीपे दीवे हेमवर णामं वासे पण्णत्ते, कुत्र - कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! जम्बूद्दीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तमिति 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमबए णामं वासे पण्णत्ते' ॥ सू०८|| टीकार्थ - इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है- ( कहिणं भंते ! 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते, इत्यादि' टीमर्थ सूत्र वडे गौतम स्वामीप्रभुने सेवा प्रश्न यछे - 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ८ हैमवतक्षेत्रस्वरूपनिरूपणम् गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा ! हे गौतम ! 'महाहिमवंतस्स बासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्धयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमबए णामं वासे पण्णत्ते' महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य उत्तरस्यां दिशि, पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमायाम् , पश्चिमलवणसमुद्रस्य पूर्वस्याम् , अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम्-कथितम्, 'पाईणपडीणायए' इदश्च प्राचीन-प्रतीचीनायतम्दीर्घम् , 'उदीण दाहिण विच्छिण्णे' उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णम् , 'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितम्-पर्यङ्काकारसंस्थितम् आयतचतुरस्रत्वात् , 'दुहा' इत्यादि, 'दुहालवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिभिल्लं लवणसमुदं पुढे, पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे' द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टम् , पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते) हे भदन्त ! क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत से विभक्त हैमवत क्षेत्र इस जम्बूद्वीपनामके द्वीप में कहां पर कहा गया है-१ इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा! महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए. णामं वासे-अण्णत्ते) हे गौतम ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में क्षुद्रहिमवान् पर्वत की उत्तरदिशा में, पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में जम्बूद्वीप नामके द्वीप में हैमवतक्षेत्र कहा गया है (पाईणपडीणायए) यह हैमवत क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है (उदीणदाहिण विच्छिण्णे) तथा उत्तर से दक्षिण तक चौडा है (पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिभिल्लाए कोडीए पुरस्थि. मिल्लं लवणसमुदं पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते' मत! क्षुद्र भिवान् वषधर पथ विसत भવાત ક્ષેત્ર આ જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ ४ छे. 'गोयमा! महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्वत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते', गौतम ! म भवान् वषधर પર્વની દક્ષિણ દિશામાં શુદ્ર હિમવાનું પર્વતની ઉત્તર દિશામાં પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુद्रनी पूर्ण हशमां दी५ नाम दीपभा भवत क्षेत्र आवे छे. 'पाईण पडीवायए' से भरत क्षेत्र पूर्वथा पश्चिम सुधी खiy छे. 'उदीणदाहिणविच्छिण्णे' तम उत्तरथी हक्षिण सुधी पहा छ. 'पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लषणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुई Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1415 ८४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे लवणसमुद्रं स्पृष्टम्, पाश्चात्यया कोटया पाथात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टम् ' दोणि जोयणसहस्साई एगं च पंचुत्तरं जोयणसयं पंच य एगुणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' द्वे योजनसहस्रे, एकं च पश्चोत्तरं योजनशतं पञ्चचैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेण, क्षुद्रहिमवत्पर्वतविष्कम्भादस्य विष्कम्भो द्विगुणः, अथास्य बाहाद्याह - ' तस्स बाहे 'त्यादि - 'तस्स बाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं छज्जोयणसहस्साइं सत्त य पणवण्णे जोयणसए तिणिय एगूणवीसभाए जोयणस्स आयामेणं' तस्य हैमवतवर्षस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन षड् योजनसह - स्त्राणि सप्त च पञ्च पञ्चाशं योजनशतं त्रींच एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन - दैर्येण, अथास्य जीवानाह - 'तस्स जीवे' त्यादि, 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण पडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा' तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनायता द्विधातो लवणसमुद्रं स्पृष्टा: 'पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्टा' इसका आकार जैसा पर्यङ्क का आकार होता है वैसा है क्यों कि यह आयत चतुरस्र है क्षुद्र हिमवत् पर्वत के विष्कम्भ से इसका विष्कम्भ द्विगुण कहा गया है वह दोनों और से लवण समुद्र को छू रहा है पूर्व की कोटि से पूर्व लवण समुद्र को और पश्चिम कोटी से पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्र को छू रहा है ( दोणि जोयणसहस्साइं एगंच पंचुत्तरं जोयणसयं पंचय एगूणच सहभागे जोयree विक्खंभेणं) इसका विस्तार २९०५ योजन का है (तस्स वाहा पुरत्थिमपच्चत्थिमेणं छज्जोयणसहस्साई सत्त य पणवण्णे जोयणसए तिष्णि य एगूणबीस भागे जोयणस्स आयामेगं ) इसको वाहा पूर्वपश्चिम में लम्बाई की अपेक्षा ६७५५, योजन की है (तस्त जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुहं पुट्ठा, पुरत्थिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दे पुट्ठा पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा) इसकी जीवा उत्तर दिशा में पूर्व से पश्चिम तक आयत लम्बी है यह दोनों तरफ से लवणसमुद्र को छूती है पूर्व की પુટ્ઠા' આ હૈમવત ક્ષેત્રના આકાર પકના જેવા આકાર હોય છે તેવા છે. કેમકે એ આયત ચતુરસ છે. ક્ષુદ્ર હિમવત્ પર્યંતના વિષ્ણુભથી આના વિષ્ણુભ દ્વિગુણુ કહેવામાં આવેલ છે. એ બન્ને તરફથી લવણુસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યો છે. પૂર્વ કેાર્ટિથી પૂલવણ समुद्रने भने पश्चिम है।टिथी पश्चिमद्विग्वर्ती सवसमुद्रने स्पर्शी रह्यो छे. 'दोणि जोयण सहस्साई एगं च पंचुत्तर जोयणसवं पंचय एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं' खना विस्तार २१०५ व योजन भेटलो छे. 'तस्स वाहा पुरस्थिमपच्चस्थिमेणं छज्जोयणसहस्साई सत्त य पणवण्णे जोयणसए तिष्णिय एगुणावीसइभागे जोदणस्स आया मेणं' भेनी वाडा- पूर्व पश्चिममां समानी अपेक्षा या योजन भेटली छे. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीर पुरत्थिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा' सेनी वा उत्तर दिशामा पूर्वथी पश्चिम सुधी આયત લાંખી છે. એ બન્ને તરફથી લવણુ સમુદ્રને સ્પર્શી રહી છે. પૂર્વાંની કેટીથી પૂ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कार: सू० ८ हैमवत क्षेत्र स्वरूपनिरूपणम् पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा, 'सत्ततीसं जोयण सहरुसाईं छच्च चउवत्तरे जोयणसए सोलस य एगुणत्रीसहभाए जोयणस्स किंचि विसेसूणे आयामेणं' सप्तत्रिंशतं योजनसहस्राणि षट् च चतुः सप्ततानि योजनशतानि षोडश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किञ्चिद्विशेषोनान आयामेन, 'तस्स घणुं दाहिणेणं अद्वतीसं जोयणसहस्साई सत्च य चत्ताले जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं तस्य हैमवतवर्षस्य धनुः- धनुष्पृष्टम्, दक्षिणेन- दक्षिणदिग्भागे अष्टत्रिंशतं योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिंशानि चत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण परिधिना, 'हेमत्रयस्स णं' इत्यादि, हेमवयस्स णं भंते! वासस्स रिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते' स्पष्टम् नवरम् आकारभावप्रत्यवतारः तत्राकारः - स्वरूपम् भावः - तदन्तर्गतः पदार्थः तद्युक्तः प्रत्यवतारः प्रकटी भावस्तथा, स कीदृशकः - कीदृशः प्रज्ञप्तः ?, 'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' हे गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, ' एवं तइयसमाणुभावो णेयव्वो त्ति' एवम् उक्तप्रकारेण तृतीयसमानुभावःतृतीयसमा - सुषमदुष्पमाऽरकस्तस्याऽनुभावः - स्वभाव' स्वरूपमिति यावत् नेतव्यः - ज्ञानविrai प्रापणीयो ज्ञातव्य इत्यर्थः । सू० ८ ॥ कोटी से पूर्वदिग्वर्ती लवगसमुद्र को छूती है और पश्चिमदिग्वर्ती कोटि से पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र को छूती है (सत्ततीसं जोयणसहस्साइं छच्च चउबत्तरे जोयणसए सोलस य एगूणवी सहभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं) यह आयाम की अपेक्षा कुछकम ३७६७४ १६ योजन की है (तस्स घ दाहिणं अतीसंजोयण सहस्साई सत्तय चत्ताले जोयणसए दस य एगूणवीसह भाए जोयणस्स परिक्खेवे गं) इसका धनुः पृष्ठ परिक्षेप की अपेक्षा ३८७४०१२ योजन का है (हेमवयस्सणं भंते! वासस्स केरिसए आयार भाव पडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है - हे भदन्त ! हैमवत् क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार स्वरूप कैसा कहा गया है १ उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्ण से एवं तइअसमाणुभावो णेयव्वोत्ति) દિગ્વીલવણ સમુદ્રને સ્પશી રહી છે અને પશ્ચિમ દિશ્વતી કેાટીથી પશ્ચિમ દ્વિગ્નતી समुद्रने स्पर्शी रही है. 'सत्त तीसं जोयणसहस्साईं छच्च चउत्तरे जोयणसए सोलस गूणवीसभाए जोयणस्स किंचि विसेसूणे आयामेणं' से मायामनी अपेक्षा ४६म्भि ३७६७४ भेटसी छे. 'तस्स धगु दाहिणेणं अट्ठतीसं जोयणसहस्साइं सत्त य त्ताले जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' खानु धनुःपृष्ठ परि क्षेपनी अपेक्षा ३८७४० योजन भेटलो छे. 'हेणवयस्स णं भंते ! वासस्स के रिसए आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते' हुवे गौतमे प्रभुने मा प्रभा प्रश्न ये है डे लहन्त ! भवत् क्षेत्रनो आठारभाव - प्रत्यवतार - स्व३५ वां छे ? उत्तरमा प्रभु ठंडे छे - 'गोयमा ! बहुसरम Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अथात्र क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपं प्रदर्शयितुमाह-'कहि णं भंते' इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! हेमवए वासे सदावई णामं वट्टवेयद्धपठवए पण्णत्ते ?, गोयमा ! रोहियाए महाणईए पञ्चत्थिमेणं रोहियंसाए महाणईए पुरस्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं सदावई णामं वट्टवेयद्धपवए पण्णत्ते, एगं जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइ. जाइं जोयणसयाइं उठवेहेणं सव्वत्थ समे पल्लंगसंठाणसंठिए एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसहस्साइं एगं च बावटुं जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सव्वरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते, वेइयावणसंडवण्णओ भाणियव्वो, सदावइस्त णं बट्टवेयद्धपव्वयस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे. पासायवडेंसए पण्णत्ते, बावर्द्धि जोयणाइं अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं, से केण. ट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ सदावई वट्टवेयद्धपव्वए ?२ गोयमा ! सदावइ वट्टवेयद्धपव्वए णं खुदा खुदियासु वावीसु जाव विलपंतियासु बहवे उप्पलाइं पउमाइं सदावइपभाई सदावइवण्णाभाई सद्दावई य इत्थदेवे महिड्डिए जाव महाणुभावे पलिओवमट्टिइए परिवसइत्ति, से गं तत्थ चउण्हें सामाणिय साहस्तीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे ॥सू० ९॥ छाया-क्व खलु भदन्त ! हैमवते वर्षे शब्दापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम ! रोहिताया महानद्याः पश्चिमेन रोहितांशाया महानद्याः पौरस्त्येन हैमवतपर्पस्य बहुहे गौतम ! यहां का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यहां पर सदा तृतीय काल सुषमदुष्षमारक की रचना रहती है ॥सू०८॥ णिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते एवं तइअ समाणुभावो णेयवोत्ति' गौतम ! मह मिला। બહુ સમરમgય કહેવામાં આવેલ છે. અહીં સર્વદા તૃતીયકાળ સુષમ દુષમારની રચના २० छ. ॥ सू. ॥ ८॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० ९ क्षेत्रविभाजक पर्वत स्वरूपनिरूपणम् मध्यदेशभागः, अत्र खलु शब्दापाती नाम वृत्त वैताढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, एकं योजनसहस्रम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अर्धतृतीयानि योजनशतानि उद्वेधेन सर्वत्र समः पल्यङ्क संस्थान संस्थितः, एकं योजनसहस्रम् आय। मविष्कम्भेण त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्टं योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः, सर्व रत्नमय्यः अच्छः, स खलु एकया पद्मवरवेदिया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, वेदिका वनपण्डवर्णको भणितव्यः, शब्दापातिनः खलु वृत्त - वैताढ्यपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य वहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महानेकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, द्वाषष्टिं योजनानि अर्द्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोश च आयामविष्कम्भेण यावत् सिंहासनं सपरिवारम्, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते शब्दापाती वृत्तवैतादयपर्वतः ? २, गौतम ! शब्दापातिवृत्तवैताढयपर्वते खलु क्षुद्राऽक्षुद्रिकासु वापीसु यावत् बिपक्तिका बहूनि उत्पलानि पद्मानि शब्दापाति प्रभाणि शब्दापात वर्णानि शब्दापाति वर्णाभानि, शब्दापाती चात्र देवो महर्द्धिको यावत् महानुभावः पल्योपमस्थितिक परिवसतीति, स खलु तत्र चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां यावद् राजधानी मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन अन्यस्मिन जम्बूद्वीपे द्वीपे || सू० ९ ॥ टीका- 'कहि णं भंते' इत्यादि । 'कहि णं भंते ! हेमवए वासे सदावई णामं वट्टवेयद्ध पत्र पण्णत्ते' हे भदन्त ! हैमवते तन्नामके वर्षे शब्दापाती नाम वृत्तवैतान्यपर्वतः क्व कस्मिप्रदेशे प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह - 'गोयमा !' गौतम ! 'रोहियाए' रोहितायाः रोहितानाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिग्भागे 'रोहियंसाए' रोहितांशायाः रोहितांशा नाम्न्या 'महाणईए पुरस्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए' महानद्या: पौर 'कहिणं भंते ! हेमवएवासे सदावइणामं वट्टवेअद्धपव्वए' ॥ सू० ९ । टीकार्थ- गौतमस्वामी ने प्रभु से इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है - ( कहि णं भंते ! हेमवए वासे सद्दावई णामं वट्टवेयद्धपव्वर पण्णत्ते) हे भदन्त ! हैमवतक्षेत्र में जो शब्दापाती नामका वृत्तवैताढ्य पर्वत कहा गया है वह कहां पर है १ इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! रोहियाए महार्णइए पच्चत्थिसेणं रोहिअंसाए महाणईए पुरस्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सदावई णामं ८७ 'कहि णं भंते हेमवएवासे सदावइणामं वट्टवेअद्धपव्त्र । इत्यादि, टीडार्थ - गौतमस्वाभीगे अलुने मा सूत्रपडे मेवे प्रश्न यछे - 'कहि णं भंते ! हेमवएवासे सद्दावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' हे लहन्त ! डैभवत् क्षेत्रमां ने ‘शब्दायाती' नाभ વૃત્તવૈતાઢય પર્વત કહેવામાં આવેલ છે, તે કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાખમાં પ્રભુ हे छे - 'गोयमा ! रोहियाए महाणइए पच्चत्थिमेणं रोहिअंसाए महाणईए पुरत्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सहावईं णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' हे गौतम! રાહિતા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં અને હિતાંશા મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં આ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सत्येन पूर्वदिग्भागे हैमवतवर्षस्य बहुमध्यदेशभागः अस्ति 'एत्थ णं' अत्र अस्मिन् बहुमध्यदेशभागे 'सावई णामं' शब्दापाती नाम 'वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' वृत्त वैतान्यपर्वतः प्रज्ञतः, अस्य वृत्तत्व विशेषणेन भरतादिक्षेत्रवर्ति वैताढ्यपर्वतवत्पूर्वापरायतत्वं व्यावर्त्यते अन्यथा तद्वत्पूर्वपश्चिमायतत्वमस्यापि प्रतीयेतेति वृत्तवैताढ्य इत्युपादीयते वृत्तः वर्तुलाकारः सचासौ Arcerer इत्यर्थः, अत एवैतत्कृतः क्षेत्रविभागः पूर्वतः पश्चिमतश्च सम्भवति, यथा पूर्व हैमतमपर हैमवतं चेति ननु पञ्चकलाधिकैकविंशतिशतयोजनप्रमाण विस्तारवतो हैमवतस्य मध्यवर्ती योजनसहस्रपान एष पर्वतः कथं क्षेत्रस्य द्विधा विभाजको भवति ? अत्रोच्यतेप्रस्तुतक्षेत्र विस्तारो हि पूर्वपश्चिमपार्श्वयोः रोहितारोहितांशाभ्यां महानदीभ्यां रुद्धो मध्यतस्त्वनेनेति नदीरुद्धक्षेत्र विहायातिरिक्तक्षेत्रमसौ द्विधा करोतीत्यन्वर्थाऽत्र वैताढ्य शब्दप्रवृ त्तिरिति, एवं शेषेष्वपि वृत्तवैत्ताढयेषु स्वस्वक्षेत्र नदीनामभिलापेन भाव्यम्, अथास्य मानाare - 'एग जोयणसहस्सं' मित्यादि सुगमम् नवरम् सर्वत्र अधोमध्योर्ध्व देशेषु समः सहस्रसहस्र विस्तारकत्वात्समानः, अत एव पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः पल्यङ्कः लाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन विरचितो धान्याधारकोष्ठकः तस्य यत संस्थानम् अवयव संनिवेशस्तेन संस्थितः, तथा - पल्यङ्काकारसंस्थित इत्यर्थः, द्वाषष्ठं द्वाषष्टयधिकं योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिकं किञ्चिद्विशेषेण गणनाकरणवशादागतेन सूत्रानुक्तेन राशिना अधिकम अतिरिक्त परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तम्, सर्वरत्नमयः - सर्वात्मना रत्नमयः, अच्छः उपलक्षणतया श्लक्ष्ण इत्यादीनां सङ्ग्रहो बोध्यः, ववेद्धपञ्च पण्णत्ते) हे गौतम ! रोहिता महानदी की पश्चिमदिशा में और रोहितांशा महानदी की पूर्वदिशा में यह शब्दापाती नामका वृत वैताढ्यपर्वत कहा गया है और यह हैमवत क्षेत्र के ठीक मध्यभाग में है ( एगं जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं अद्वाइज्जाई जोयणसयाई उब्वेहेणं सव्वत्थ समे, पल्लंगसंसंठाणसंठिए एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसहस्साई एगं च बाब जोयणसयं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते) इसकी ऊंचाई एक हजार योजन की है अढाई सौ योजन का इसका उद्वेध है यह सर्वत्र समान है पलंग का जैसा आयत चतुरस्र आकार होता है वैसा ही इसका आकार है इसका आयाम और विष्कम्भ १ हजार योजन का है तथा इसका परिक्षेप कुछ अधिक ३१५२ योजन का है (सव्वरयणामए अच्छे ) यह सर्वात्मना શબ્દાપાતી' નામક વૃત્ત વૈતાઢય પર્વત આવેલ છે, એ પર્યંત હૈમવત ક્ષેત્રના ઠીક મધ્ય लाभां छे. 'एग जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं अद्वाइज्जाई जोयणसयाई उव्वेहेणं सव्वत्थ समे, पल्लंग संठाण संठिए एगं जोयण सहस्स किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते' એની ઊંચાઈ એક હજાર ચેાજન જેટલી છે. ૨૫૦ ચૈાજન જેટલે આના ઉદ્વેષ છે. એ સવત્ર સમાન છે. પલંગના જેમ આયત ચતુરસ આકાર હૈાય છે, તેવા જ આકાર આ પર્યંતના પણ છે. આને આયામ અને વિષ્ણુલ ૧ હજાર ચૈાજન જેટલેા છે. તેમજ खाना परिक्षे ४ वधारे ३१५२ योजन भेटलो छे, 'सव्वरयणामए अच्छे' मे सर्वा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ९ क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपनिरूपणम् सः शब्दापाती वृत्तवैताढयपर्वतः खलु एकया पद्मपरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सर्वदिक्षु समन्तात् सर्वविदिक्षु संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितः, अत्र वेदिकावनषण्डवर्णकः-पद्मवरवेदिका वनषण्डयोवर्णकः वर्णनपरः, पदसमूहः भणितव्यः वक्तच्यः, स च चतुर्थ पञ्चमसूत्रतो बोध्यः। 'शब्दापातिनः खलु' इत्यादि-सुगमम् , अथास्य अन्वर्थनामार्थ निरूपयन्नाह-'अथ केनार्थेन भदन्त' इत्यादि-पूर्वोक्त ऋषभकूटप्रकरणवद् व्याख्येयम् , केवलमृषभकूटेति नामकृतोऽत्रभेदोऽव सेयः यतस्तत्र ऋषभकूटप्रभैरित्यादि शब्दैः कथितः, अत्र तु शब्दापाति रत्नमय है और आकाश तथा स्फटिक मणिके जैसा निर्मल है । (से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवरवेदिका और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है (वेड्या वणसंडवण्णओ भाणियव्यो) यहां पर वेदिका एवं छनषण्ड का वर्णन करलेना चाहिये। _ (सद्दावइस्स णं वट्टवेयद्धपचयस्स लवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागेपण्णत्ते) शब्दापाती बृतवैताढ यपर्वत के ऊपर का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है (तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे पासायव.सए पण्णत्ते) उस बहुसमरमणीय भूमिभाग में ठीक बीच में एक विशाल प्रासादावतंसक है । (बावदि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं) यह ६२॥ योजनका ऊंचा है तथा ३१॥ योजनका इसका आयाम और विष्कम्भ है यावत् इसमें सपरिवार सिंहासन है (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सद्दावई वटवेयद्धपव्वए) हे भदन्त ! आपने 'शब्दापाती वृतवैताढय पर्वत' इसे ऐसे मना रत्नमय छे. सन २४ तेभर २५८४ भागवत नि छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणस डेणं सधओ समंता सपरिक्खित्ते' मा ४ ५ २al मन वनपथी याभेर मावृत्त छ. 'वेश्या बण संडवण्णओ भाणियव्वो' मह वह અને વનખંડનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ. ___ 'सदावइस्स णं वट्टवेयद्धपव्वयस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' शvarपाती वृत वैताढय पतन ५२ने। भूमिमा गहुसभरमणीय ४३वामां मावेस छे. 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदे सभाए एत्थ णं महं एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते' તે બહસમરમણીય ભૂમિભાગના ઠીક મધ્યભાગમાં એક વિશાળ પ્રાસાદાવતંસક છે. 'बावट्टि जोयणाई अद्धजोयण च उद्धं उच्चत्तेणं इक्कतीसं ज़ोयणाइं कोसं च आयामविक्खंभेणं जाव सीहासणं सपरिवारं' से १२॥ योनि रेटतो या छ. ३१॥ જન જેટલે આને આયામ અને વિષ્ઠભ છે. યાવત્ એમાં સપરિવાર સિંહાસન છે. 'से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ सद्दावई वटवेयद्धपव्वए'हु महन्त' मा५श्रीये 'शापाती વૃત્તવૈતાઢય પર્વત એવું નામ આ કારણથી કહ્યું છે.? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે, म. १३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० raaturates प्रभैरित्यादि शब्दैरिति, अत्र यावत्पदेन दीर्घिकासु, गुञ्जालिकासु सरः पक्तिकासु, इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्या राजप्रश्नीयसूत्रस्य चतुषष्टितमसूत्रस्यास्मत्कृतसुबोधिनी टीकातो बोध्या, शब्दापाती चात्रदेवः परिवसतीत्युत्तरेणान्वयः, स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह - महर्द्धिकः यावत् यावत्पदेन - 'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्याः" इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, तथा - " महानुभावः पल्योपमस्थितिकः” एषां व्याख्याऽष्टमसूत्राद् बोध्या, अथ शब्दापातिदेवमेव विशिनष्टि “स खलु" इत्यादि - सः शब्दापातीदेवः खलु तत्र - शब्दापातिवृत्तवैताढ्यपर्वते चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां चतुः सहस्रसामानिकानां यावत् यावत्पदेन - " चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां परिषदां सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसादस्रीणां शब्दापातिनश्च नामसे क्यों कहा है ? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं - (गोयना ! सावइवह वे अद्ध पव्वणं खुद्दा खुद्दिआसु बाबोसु जाव विलपतिआसु बहवे उप्पलाई पउमाई सदावइप्पभाई सहावश्यण्णाई सद्दावति वण्णाभाई सदावइअ एत्थ देवे महिद्धीए जाव महाणुभावे पलिओ मठिइए परिवसइत्ति) हे गौतम! शब्दापाती वृतवैताढ्य पर्वत पर छोटी बडी वापिकाओं से यावत् विलपंक्तियों में अनेक उत्पलपद्मकी जिनकी प्रभा शब्दापाती के जैसी है वर्ण जिनका शब्दापाकी के जैसा हैं जो शब्दापाती के वर्ण के जैसी आभा वाले है, तथा यहाँ शब्दापाती नामका महर्द्धिक यावत् महानुभावशाली देव कि जिसकी एक पल्योपम की स्थिति है रहता है इस कारण इस पर्वत का नाम 'शब्दापाती' ऐसा कहा गया है । " 'से णं तत्थ चउन्हं समाणियसाहस्सीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे.' यह देव वहां पर अपने चार हजार सामानिकदेवों का यावत् चार सपरिवार अग्रमहिषियोंका तीन परिषदाओं का, सात अनीकोंका, सात अनिकाधिपतियोंका १६ हजार आत्मरक्षक देवोंका एवं 'गोयमा ! सद्दावई वे अद्धपव्वणं खुदाखुदिआसु वात्रीसु जाव विलपतिआसु बहवे उप्पलाई पउमाई सदावइप्पभाई सावइवण्णाई सदापति कृष्णा भाई सदावईअ इत्थ देवे महिद्धीए जाव महाणुभावे पलिओवमठिइए परिवसइत्ति' हे गौतम! शब्दायाती વૃત્ત વૈતાઢય પર્યંત ઉપર નાની-મેટીકાઓથી યાવત્ વિલયક્તિઓમાં અનેક ઉત્પલ-પદ્માની કે જેમની પ્રભા શખ્તાપાતી જેવી છે, જેમને વધુ શબ્દાપાતી જેવા છે. જે શબ્દાપાતીના વણ જેવી પ્રભાવાળા છે તેમજ અહીં શબ્દાપાતી નામક મહુદ્ધિ યાવત્ મહાનુભાવશાલી દેવ કે જેની એક પધ્યેાપમ જેટલી સ્થિતિ છે રહે છે. એથી આ પતનુ नाभ 'शब्दायाती' मा प्रभावामां आवे छे. 'से णं तत्थ चउन्हें सामाणिय साह - स्त्रीणं जाव रायहाणी मंदरस्स पव्त्रयस्स दाहिणेण अण्णंमि जंबुद्दीवे दोवे' मे देव त्यां પાતાના ચાર હજાર સામાનિક ા ચાવર્તી ચાર સપરિવાર અમ્રમષિીએ, ત્રણ પરિ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ९ क्षेत्रविभाजकपर्वतस्वरूपनिरूपणम् वृत्तवैताढयपर्वतस्य च शब्दापातिन्याश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां शब्दापातिनी राजधानी वास्तत्यानां देवानां दवीनां च आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वं महत्तरकत्वम् आज्ञेश्वर सेनापत्यं कारयन् पालयन् महताऽहतनाटयगीतवादित्र तन्त्रीतलताल त्रुटितघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति, क्व खलु भदन्त ! शब्दापातिवृत्तवैताढयगिरिकुमारस्य देवस्य शब्दापातिनी नाम” इत्येषां सङ्ग्रहः राजधानी प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! देवियोंका आधिपत्य पौरपत्य स्वामित्व, भातत्व, महत्तरकत्व, तथा आज्ञेश्वर सेनापत्य करता हुजा उसको-पालना करता हुआ अनेक प्रकारके नाटय गीत आदिके प्रसङ्गों पर बजाये गये भिन्न २ प्रकारके वादिनोंकी तुमुलध्वनि के साथ दिव्यभोगों को भोगता रहता है और आनन्द के साथ अपने समयको व्यतीत करता रहता है। यावत् मन्दर पर्वतकी दक्षिणदिशामें अन्य जम्बुद्वीप में इस शब्दापाती वृत्त वैताढय कुमार की शब्दापातिनी नामको राजधानी है। यहां जो 'शब्दापाती वृत्तवैताढय' ऐसा कहा गया है सो यह पर्वत् भरतादि क्षेत्रवर्ती वैतादय पर्वत को जैसा पूर्व से पश्चिम तक आयत नहीं है किन्तु गोलाकार है इसी वातको प्रकट करने के लिये 'वृत्त' ऐसा विशेषणपरक पद प्रयुक्त किया है इसी कारण से पूर्व हैमवत और उत्तर हैमवत् ऐसे दो विभाग इस क्षेत्र के हो गये हैं। यहां शंका ऐसी होसकती है कि हैमवत क्षेत्रका विस्तार २१०५५ योजन का कहा गया है और यह शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत उसके मध्यमें रहा हुआ है तथा इसका विस्तार एक हजार योजन का है तो फिर यह हैमवत् क्षेत्रना द्विधा विभाजक कैसे होता है ? उत्तर प्रस्तुत क्षेत्रका विस्तार पूर्व और પદાઓ ઉપર, સાત અનીકે ઉપર. સાત અનકાધિપતિઓ ઉપર, ૧૬ હજાર આત્મરક્ષક દેવ અને દેવીઓ ઉપર આધિપત્ય, પરિપત્ય, સ્વામિત્વ, ભતૃત્વ, મહત્તરકત્વ તેમજ આશ્વર સેનાપત્ય ધરાવતે તેની પાલન કરાવતે, અનેક પ્રકારના નાટ્યગીત વગેરે પ્રસંગે ઉપર વગાડવામાં આવેલા ભિન્ન-ભિન્ન પ્રકારના વાદિત્રોના તુમુલ સ્વરના શ્રવણ સાથે દિવ્ય ભેગો ભેગવતો રહે છે. અને આ પ્રમાણે આનંદ પૂર્વક પોતાને સમય પસાર કરે છે. યાવત્ મન્દર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં અન્ય જંબૂદ્વીપમાં એ શબ્દા પતિ વૃત્તવૈતાઢય કુમારની શબ્દા પતિની નામક રાજધાની છે. અહીં જે “શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય એવું કહેવામાં આવ્યું છે તે આ પર્વત ભરતાદિ ક્ષેત્રવતી વૈતાઢય પર્વતની જેમ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી આયત નથી પણ ગોળાકાર રૂપમાં છે. એજ વાતને પ્રકટ કરવા માટે “વૃત્ત એવું વિશેષણ પરક પદ પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલ છે. એથી જ પૂર્વ હૈમવત્ અને અપર હૈમવત્ એવા બે વિભાગે આ ક્ષેત્રના થઈ ગયા છે. અહીં આ જાતની શંકા ઉત્પન્ન થાય છે કે હૈમવત્ ક્ષેત્રનો વિસ્તાર ૨૧૦૫ જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે અને આ શદાપાત વૃત્ત વૈતાઢય પર્વતે તેના મધ્યમાં આવેલ છે. તેમજ આને Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पश्चिमकी ओर का तो रोहिता और रोहितांशा इन दो नदियों के द्वारा रुद्ध हुआ है और वीचका जो विस्तार है वह इस पर्वत के द्वारा रुद्ध हुआ है इसलिये नदी रुद्ध क्षेत्र को छोडकर अतिरिक्त क्षेत्र को वह द्विधा विभक्त करता है ऐसा जानना चाहिये इसी तरहसे जितने भी वृत्तवैताढय पर्वत है उन सबके सम्बन्ध मे भी जानलेना चाहिये लाट देश में प्रसिद्ध धान्यरखनेका जो कोष्ठकनुमाकोठी के जैसा-पात्र होता है उसका नाम पल्यंक है अच्छपदके द्वारा उपलक्षण रूप होने के कारण लक्षण आदि पदोंका ग्रहण हुआ है पद्मवर वेदिका और वनषष्डका वर्णन चतुर्थ पंचम सूत्रों से जानलेना चाहिये इस पर्वत के नामका कथन जैसा ऋषभकूट के प्रकरणमें 'ऋषभकूट नाम होने में कहा गया है वैसा ही वह कथन 'ऋषभ कूट' इस शब्दापाती वृत्तवैताढय ऐसा जोडकर करलेना चाहिये वहां के कमलों की प्रभा ऋषभकूट के जैसी है तब कि यहां के कमलादिकों की प्रभा शब्दापाती वृत्तवैतात्य के जैसी है 'जाव-विलपंतिसु' में जो यह यावत् शब्द आयाहै उसीसे 'दीर्घिकासु' गुञ्जालिकासु सरःपतितकासु' 'सरः सरःपङ्क्तिकासु' इन पदों का ग्रहण हुआ है इन पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्रके ६४ वे सूत्र की व्याख्या में दी गई है अतः वही से इसे जानलेना चाहिये (महिद्धिए जाव महाणुभावे' में जो यावत्पद आया है उससे વિસ્તાર એક હજાર યોજન જેટલું છે તે પછી આ હૈમવત ક્ષેત્રનું દ્વિધા વિભાજન કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે? ઉત્તર-પ્રસ્તુત ક્ષેત્રનો વિસ્તાર પૂર્વ અને પશ્ચિમની તરફ તે હિના હિતાંશા એ બે નદીઓ વડે રુદ્ધ થયેલ છે. અને મધ્યને જે વિસ્તાર છે તે આ પર્વત વડે રુદ્ધ થઈ ગયે છે. એથી નદી રુદ્ધ ક્ષેત્રને છેડીને અતિરિત ક્ષેત્રને એ દ્વિધા વિભક્ત કરે છે. એવું જાણવું જોઈએ. આ પ્રમાણે જેટલા વૈતાઢય પર્વ તે છે, તે સર્વના સંબંધમાં પણ જાણી લેવું જોઈએ. લાટ દેશમાં પ્રસિદ્ધ ધાન્ય ભરવા માટે જે કાષ્ઠકનુમા કોઠી જેવું પાત્ર હોય છે. તેનું નામ પલંક છે. અચ્છ પદ વડે ઉપલક્ષણ રૂપ હોવા બદલ ક્ષણ વગેરે પદ ગ્રહણ થયા છે. પદ્મવર વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન ચતુર્થ–પંચમ સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. એ પર્વતના નામનું કથન જેવું બાષભ કૂટ નામ કરણ સંબંધમાં કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ કથન “રાષભકૂટ’ એ શબ્દને સ્થાને “શબ્દાપાતી વૈતાઢય એવું જોડીને સમજી લેવું જોઈએ. ત્યાંના કમળની પ્રભા ભકૂટ જેવી છે. न्यारे महीना मानी प्रभा शपाती वृत्तवैतादय छे. 'जाव विलतियास' भा २ यावत् ५५४ मा छे. तनाथी 'दीर्घिकापु, गुजालिकासु, सरपंतिकासु सरः सरपंक्तिकासु' से पह। अ यया छ. से पानी व्याच्या २१०४ प्रश्नीय. सूत्रना ६४ मा सूचनी व्याभ्यामा ४२वामी मावशी छ. माटे त्यांची onी सेन. 'महि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १० हैमवतवर्षस्य नामार्थनिरूपणम् मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन तिर्यगसंख्येयान द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे दक्षिणेन द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य, अत्र खल शब्दापातिवृत्तवैतादयगिरिकुमारस्य शब्दापातिनी नाम राजधानी प्रज्ञप्ता, तस्या आयामादि मानादिकं विजयाराजधानीवत् अष्टमसूत्र तो बोध्यम् ॥ सू० ९ ॥ artana नामार्थं पृच्छति - ' से केणद्वेणं' इत्यादि । मूलम् - से केणणं भंते! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २१, गोयमा ! चुल्लहिमवंत महाहिमवंतेहिं वासहरपव्त्रएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ, णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासइ हेमवए य इत्थ देवे महिद्धिए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे ॥ सू० १०॥ " 'महाधुतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्य:' इन पदोंका ग्रहण हुआ है इन पदों की व्याख्या अष्टम सूत्र में की गई है 'जाव रायहाणी' में जो यावत्पद आया है उससे चतसृणां अग्रमहिषीणां तिसृणां परिषदां, सप्तानामनीका नाम् सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, षोडशानाम् आत्मरक्षक देव साह स्त्रीणां' इत्यादि पाठसे लेकर शब्दापातिनी नाम 'यहां तकका पाठ गृहीत हुआ है। शब्दापातिनीनाम की राजधानी मन्दर पर्वतकी दक्षिण दिशामें तिर्यग्लोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रोंको पारकरके अन्य जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें दक्षिण दिशाकी और १२ हजार योजन आगे जाने पर आती है इस राजधानी के आयाम आदिका मानादिक 'विजयराजधानी के जैसा ही है यह बात अष्टम सूत्र से जाननी चाहिये ॥ ९॥ द्विए जाव महाणुभावे' भां ? यावत् यह आवे छे तेनाथी 'महाद्युतिकः, महाबलः महायशाः, महासौख्यः सा हो श्रणु थया छे. या पहोनी व्याच्या आडमां सूत्रमां ४रेस हे 'जात्र राहाणी' मां ने यावत् यह आवे छे तेनाथी ' चतसृणां अग्रमहिषीणां, तिसृणां परिषद, सप्तानामनीकानाम् सप्तनामनीकाविपकीनाम् षोडशानाम् आरक्षक देवसाह स्त्रीणां' इत्यादि पाथी भांडीने 'शब्दापातिनी नाम' हीं सुधीने पाठ संग्रहीत थयो छे. શબ્દાપાતિની નામક રાજધાની મન્દર પર્યંતની દક્ષિણ દિશામાં તિય ગ્લેાકવતી અસખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને પાર કરીને અન્ય જમ્મૂઢીપ નામક દ્વીપમાં દક્ષિણ દિશા તરફ ૧૨ હજાર યાજન આગળ ગયા પછી આવે છે. એ રાજધાનીના આયામ વગેરે માનાર્દિક ‘વિજય રાજધાની' જેવુ જ છે. એ વાત અષ્ટમ સૂત્રમાંથી જાણી લેવી જોઇએ. ॥ સૂ. ૯ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे छाया-केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हैमनतं वर्ष वर्षम् ?, गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमबद्भयां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः समवगाढम् नित्यं हेम ददाति नित्यं हेम दत्त्वा नित्यं हेम प्रकाशयति, हैमवतोऽत्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत् केनार्थन गौतम ! एवम्मुच्यते हैमवतं वर्ष हैमवतं वर्षम् ॥ सू० १०॥ टीका-'से केणढेणं भंते' इत्यादि-अथ तदनन्तरम् केन अर्थन कारणेन एवमुच्यते हैमवत वर्ष वर्षमिति १, भगवानाह-हे गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमवद्भयां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः द्वयो दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः समवगाढं संश्लिष्टम् ततो हिमवतादिदं हैमवतं क्षुद्रहिमवमहाहिमवतोरन्तरालस्थितं क्षेत्रम् ततश्च द्वाभ्यां ताभ्यां यथाक्रमं द्वयो दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः कृतसीमाकमिति तदुभयसम्बन्धि तद्वर्ष निष्पद्यते, यद्वा-हैमवतं वर्ष नित्यं सततम् कालत्रयेऽपि हेम सुवर्ण ददाति निवासिभ्य आसनार्थ समर्पयति तत्र युग्मि मनुष्याणामुपवेशनाद्युप. 'से केणटेणं भंते ! एवं चुच्चइ हेमवए वासे २'-इत्यादि टीकार्थ-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ हेमवए वासे २' हे भदन्त ! आपने यह हैमवतू क्षेत्र है ऐसा नाम इसका किसकारण से कहा है उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चुल्लहिमवंत महाहिमवंतेहिं वासहरपुठ्वएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ णिच्चं हेमं दलइत्ता णिच्चं हेमं पगासई' हे गौतम ! यह क्षेत्र क्षुद्रहिमवत्पर्वत और महाहिमवत् पर्वत उन दोनों वर्षधर पर्वतों के बीच में है इसलिये महाहिमवत्पर्वत की दक्षिणदिशामें और क्षहिमवत्पर्वत की उत्तर दिशा में होने के कारण उनका सम्बन्धी है ऐसे विचार से हैमवत इस प्रकार के सार्थक नामवाला कहा है तथा वहां के जो युगल मनुष्य हैं वे बैठने आदि के निमित्त हेममय शिलापट्टकों का उपयोग करते हैं इस कारण यह क्षेत्र ही उन्हें इन्हें देता है इस अभिप्राय से 'णिच्चं हेमं दलइ' ऐसा यहां उप‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे-२ इत्यादि। -'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे-२' महत ! मायश्रीये 'मा भरत क्षेत्र छ. ये नाम शा ४१२९ था यु-गोयमा ! चुल्ल हिमवंतमहाहिमवंतेहिं वासहरपब्बएहि दुहओ समवगूढे णिच्चं हेमं दलइ णिच्च हेमं दलइत्ता णिच्चं हेम पगासइ, હે ગૌતમ! આ ક્ષેત્ર ક્ષુદ્રહિમવત્ પર્વત અને મહાહિમવત્ પર્વત એ બન્ને વર્ષધર પર્વતોના મધ્યભાગમાં છે. એથી મહાહિમવત્ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં અને શુદ્રહિમવત પર્વતની ઉત્તર દિશામાં હોવા બદલ આ ક્ષેત્ર તેમના વડે સીમા નિર્ધારિત હોવાથી તેની સાથે સંબંધ ધરાવે છે. એવા વિચારથી હૈમવતુ આ પ્રકારના સાર્થક નામવાળે કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ ત્યાંના જે યુગલ મનુષ્ય છે તેઓ બેસવા વગેરે માટે હેમમય શિલા પટ્ટોને ઉપયોગ કરે છે, એથી “આ ક્ષેત્ર જ તેમને એ આપે છે એ અભિપ્રાયથી 'णिच्चं बेमं दलइ' से ही पयारथी डेवामां आवे छे तेभ यु भनुध्यान Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १० हैमवतवर्षस्य नामार्थनिरूपणम् भोगे हेममयी शिला उपस्थापयतीति उपचारेण ददातीत्युक्तम् , तथा-नित्यं हेम दवा नित्यं कालत्रयेऽपि हेम प्रकाशयति प्रकटयति ततो हेमनित्य योगिप्रशस्तं वाऽस्त्यस्येति हेमवत हेमवदेव हैमवतम् प्रज्ञादित्वात स्वार्थेऽण प्रत्ययोऽत्र बोध्यः, अत्र-अस्मिन् हैमवते वर्षे हैमवतो नाम देवःपरिवसति, स कीदृशः ? इत्यादि, महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिका, अत्र यावत्पदेन संग्राह्यानां पदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्चाष्टमसूत्राद् बोध्यः, तेन हैमवत देव युक्तत्वाद् वर्षमिदं हैमवतमिति व्यवहियते, यद्वा-स्वामित्वेन हैमवतोऽस्यास्तीति हैमवतमिति अर्श आदित्वादप्रत्ययान्तं बोध्यम् इति तत् हैमरतं तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन हे गौतम ! एवमुच्यते हैंमवतं वर्ष हैमवतं वर्षमिति ॥ सू० १०॥ अथास्यैवोत्तरतः सीमाकारिणं वर्षधरभूधरं प्रदर्शयितुमाह-'कहिणं भंते' इत्यादि । ___ मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णानं वासहर पव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुढे पञ्चथिमिल्लाए चार से कहदिया है तथा युगल मनुष्यों को सुवर्ण देकर के वह उसी सुवर्ण का प्रकाश करता है सुवर्ण शिला पट्टकादि रूपमें प्रदर्शन करता है-अर्थात् प्रशस्त सुवर्ण-इसके पास है-एसा ही मानो अपना प्रशस्त वैभव यह इस रूप से प्रकट करता है परिस्थितियों से भी इसका नाम हैमवत् ऐसा कहा गया है तथा 'हेमवए अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमट्टिइए परिवसइ से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ हेमवए वासे-हेमवएवासे' हैमवत् नाम का देव इसमें रहता है यह हैमवत् देव महद्धिक देव है और पल्योपम की इसकी स्थिति है इस कारण से भी हे गौतम ! इसका नाम हैमवत् ऐसा कह दिया गया है ॥ १० ॥ સુવર્ણ આપીને તે તેજ સુવર્ણનો પ્રકાશ કરે છે, સુવર્ણ શિલાપટ્ટકાદિ રૂપમાં પ્રદર્શન કરે છે અર્થાત્ પ્રશસ્ત સુવર્ણ એની પાસે છે, એ અભિપ્રાયથી જાણે કે એ પોતાને પ્રશસ્ત વૈભવ એ રૂપમાં પ્રકટ ન કરતા હોય. આમ પરિસ્થિતિઓને અનુલક્ષીને પણ मेनु नाम भवत' सयु ४उवामां आवे छे. तेभा 'हेमवए अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमद्विइए परिवसइ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ हेमवए वासे हेमवए वासे' હૈમવત નામક દેવ એમાં રહે છે–એ હૈમવત દેવ મહદ્ધિક દેવ છે અને પાપમ જેટલી એની સ્થિતિ છે. આ કારણથી પણ હે ગૌતમ ! એનું નામ “હેમવત” એવું કહેવામાં આવેલ છે, જે સૂવ ૧૦ | Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुई पुटे दो जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोयणसहस्साइं दोषिण य दसुत्तरे जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं णव जोयणसहस्साई दोण्णि य छावत्तरे जोयणसए णव य एगूणवीसईभाए जोयणस्त अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्टा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा तेत्रणं जोयणसहस्साइं णब य एगतीसे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं, तस्स धणुं दाहिणेणं सत्तावणं जोयणसहस्लाई दोषिण य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्त परिक्खेवेणं, रुयगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते । महोहिमवंत. स्स णं वासहरपव्वएस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहि य तणेहि य उवसोहिए जाव आसयति सयंति य ॥सू० ११॥ छाया-क्य खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! हरिवर्पस्य दक्षिणेन हैमवतस्य वर्षस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन, पश्चिमलबणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयतः उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः द्विधालवणसमुद्रं स्पृष्टः पौरस्त्यया कोटया यावत् स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्र स्पृष्टः द्वे योजनशते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चाशतं योजनानि उद्वेघेन, चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च दशोत्तरे योजनशते दश च एकोनविंशतिभागान योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन नव योजनसहस्राणि द्वे च द्वा सप्तते योजनशते नव च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्ध भागं च आयामेन, तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा त्रिपञ्चाशतं योजनसहस्राणि नव च एकत्रिंशानि योजनशतानि षट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य किश्चिद्विशेषाधिकान आयामेन, तस्य धनुःदक्षिणेन सप्तपञ्चाशते योजनसहस्राणि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ११ सीमाकारोवर्षधरभूधरनिरूपणम् द्वे च त्रिनवते योजनशते दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, रुचकसंस्थान संस्थितः सर्वरत्नमयः अच्छ: उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तः, महाहिमवतः खलु वर्षधरपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो मूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावत् नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिश्च तृणैश्च उपशोभितः यावद् आसते शेरते च ॥११॥ टीका-'कहिणं भंते' इत्यादि ! 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वास. हरपव्वए पण्णत्ते' कुत्र खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः? 'गोयमा! हे गौतम ! 'हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवण समुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' हरिवर्षस्य दक्षिणेन हैमवतस्य वर्षस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन, पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बुद्वीपे द्वीपे महाहिमवान् नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः । 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाण 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंतं णाम'-इत्यादि टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्वए' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में महाहिमवन् नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिम लवणसमुदस्स पुरथिमेणं जम्बुद्दीवे दीवे महाहिमवंतं णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' हे गौतम ! हरिवर्ष की दक्षिण दिशा में और हैमवत् क्षेत्र की उत्तर दिशा में तथा पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पश्चिम दिशा में और पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पूर्व दिशा में इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप के भीतर महाहिमवन्त नामका महान सुंदर वर्षधर पर्वत कहा गया है 'पाईण पडी 'कहि पं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिवंत णाम-इत्यादि An-20 सूत्र गौतमे प्रमुन सेवी शत प्रश्न या छ , 'कहि णं भंते ! जंबुहीवे दीवे महाहिमवंते णामं वासाहरपव्वए' महन्त ! ये ४२पूदी५ नाम दीपमा મહાહિમવત્ નામક વર્ષધર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે 'गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणेणं हेमवयस्स वासस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं जम्बुद्दीवे दीवे महाहिमवंतं णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' हे गौतम! रिनी इक्षिण हिशमां मन भवत् क्षेत्रनी उत्तरमा તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી લવ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં એ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં મહાહિવત્ત નામક વર્ષધર પર્વત આવેલ छ. 'पाईणपडीणायए' से पत ५ थी पश्चिम सुधा खiमा छ. 'उदीण दाहिणवित्थिन्ने' अ० १३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे संठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे' प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः, उदीचीन दक्षिणविस्तीर्णः पल्यङ्क संस्थानसंस्थितो द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पौरस्त्यया कोटया यावत् स्पृष्टः पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टः, 'दो जोयण सपाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोयणसहस्साई दोण्णि य दसुत्तरे जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' नरं द्वे योजनशते ऊर्ध्वपुच्चत्वेन पूर्वोक्त क्षुद्रहिमवद्वर्षधराद् द्विगुणो. चत्वात् , पञ्चाशद् योजनानि उद्वेधेन भूगतत्वेन, मेरुवर्डसमयक्षेत्रगिरिणां स्वोच्चत्वचतुथांशेनोद्वेधत्वात् , चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च दशोत्तरे दशाधिके योजनशते दश च योजनैकोनविंशतिभागान् विष्कम्भेण-विस्तारेण, हैमवतक्षेत्राद् द्विगुणत्वात् , प्रथास्य बाहादि. सूत्रमाह-'तस्स बाहे' त्यादि, 'तस्त बाड़ा पुरस्थिमपच्चस्थिमेणं णव जोयणसहस्साई दोण्णि णायए' यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है 'उदीण दाहिणवित्थिन्ने' उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है। (पलियंकसंठाणसंठिए) पल्यङ्क का जैसा आकार होता है ठीक इस का भी वैसा ही आकार है 'दहा लवणसमुदं पुट्टे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे दो जोयणलयाई उद्धं उच्चत्तणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोयणसहस्साइं दोणिय दसुत्तरे जोयणसए दस य एगूणवीसइ भाए जोयगस्स विश्वंभेणं' यह अपनी पूर्व और पश्चिम दिग्वर्ती दोनों कोटियों से क्रमशः पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र को और पश्चिम दिग्वर्ती लवण को सर्श कर रहा है इस की ऊंचाई दो सौ योजन की है तथा इसका उद्वेध गहराई ५० थोजनकी है क्योंकि समय क्षेत्र गत पर्वतों फा उद्वध मेरु को छोडकर अपनी ऊंचाई के चतुर्थाश 'चौथा भाग' प्रमाण होता है इसका विष्कम्भ ४२१०१० योजन का है। कयोंकि हैमवत क्षेत्रकी अपेक्षा यह दूना है 'तस्स वाहा पुरस्थिनपच्चधिमेणं णव जोयणसहस्साइं दोणि य तभर उत्तरथी दक्षि सुधी विस्तृत छे. पलिअंकसंठाणसंठिए' ५ जना २।२।य छ, 818 माना ॥२ ५ त छ. 'दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चिस्थिमिल्ल लवणसमुदं पुढे दो जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पण्णासं जोयणाई उव्वेहेणं चत्तारि जोषणसहस्साई दोणिय दसुत्तरे जोरणसए दसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' से पोतानी पूर्व म2. पश्चिम हिवती सन्न टीमाथी मश: ५५ દિગ્વતી લવણું સમુદ્રને પશી રહ્યો છે. એની ઊંચાઈ બસ એજન જેટલી છે. તેમજ એની ઊંડાઈ (ઉધ) ૫૦ એજન જેટલી છે. કેમકે સમય ક્ષેત્રગત પર્વતની ઊંડાઈ મેરુને છેડીને પોતાની ઊંચાઈના ચતુર્ભાશ ( ચતુર્થ ભાગ) પ્રમાણ હોય છે. આને વિષ્ઠભ ૪૨૧૦ ૧૨ જન જેટલું છે. કેમકે હૈમવત ક્ષેત્રની અપેક્ષાએ દ્વિગુણિત છે. Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , २२ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ११ सीमाकारीवर्षधरभूधरनिरूपणम् य छावत्तरे जोयणसए पर य एगणवीसइभार जोयणस्स अद्ध भागं च आयामेणं' तस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन-पूर्वपश्चिमदिशि नबयोजनसहस्राणि, नवरं द्वे च द्वासप्तते द्विसप्तत्यधिक योजनशते नव चैकोनविंशतिभागान योजनस्य, अर्द्ध मागं चायामेन, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा तेवण्णं जोयणप्रहस्साई नव य एतीसे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं तस्य जीवा उत्तरस्यां दिशि प्राचीन प्रतीचीनायता-पूर्वपश्चिमयो दीर्घा द्विधालवणसमुद्रं स्पृष्टा, पौरस्त्यया कोटया-पूर्वदिग्भवेन. कोणेन पौरत्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा, पाश्चात्वया कोटया पश्चिमं लवणसमुद्रं स्पृष्टा त्रिपश्चाशतं योजनसहस्राणि नवचैकत्रिंशानि एकत्रिंशत्यधिकानि योजनशतानि, षट्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किञ्चिद् विशेषाधिकान् अायामेन, 'तस्स धणु दाहिणेणं सत्तावण्णं जोयणसह स्साइं दोण्णि य तेण उए जोयणसए दस य एगणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' तस्य धनुःदक्षिणेन सप्तपञ्चाशतं योजनसहस्राणि द्वे च त्रिनवते त्रिनवत्यधिक योजनशते दश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, 'रुयगसंठाणसंठिए सबरयणामए अच्छे उभओ छावत्तरे जोषणसए णव य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्ध भागं च आयामेणं' इस को वाहा आयाम की अपेक्षा पूर्व पश्चिम में ९२७२ :योजन की एवं आधे योजनकी है (तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुई पुट्ठा पुरथिमिल्लाए, कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा तेवणं जोयणसहस्साहं नव य एगतीसे जोअणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणरस किंचि विसेसाहिए) पूर्व दिशा वह जीवा पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम दिग्दर्ती वह जीवा पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र से स्पृष्ट है यह जीवा आयाम की अपेक्षा कुछ अधिक ५३९३१ ६ योजन की है 'तस्स धj दाहिजेणं सत्ताब जोयणसहस्साई दोणि य तेणउए जोयण सए दसय एगूणवीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं रुयगसंठाणसंठिए 'तस्स वाहा पुरथिमपच्चरिथमेणं णव जोयणसहस्साइं दोणिय छावत्तरे जोयणसए णव य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं' मेनी वा यमनी अपेक्षा पूर्ण पाश्चममा ८२७२ प य न मा अर्धा ये2ी छे. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण पडीणायया दुहा लणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए, कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुरो पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा तेवण्णं जोयणसहस्साई नव य एगतीसे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसाहिए आयामेणं' सेनी ७॥ उत्तरमा यूथी पश्चिम सुधी લાંબી છે. પૂર્વ દિશામાં તે જીવા પૂર્વ દિશ્વર્તી લવણુ સમુદ્રને સ્પર્શી રહી છે. તથા પશ્ચિમ દિગ્ગત તે જીવા પશ્ચિમ દિશ્વર્તી લવણ સમુદ્રને સ્પર્શી રહી છે. એ જીવા मायामनी अपेक्षा ४४४ पधारे ५३८31 4 योनिक्षी छ. 'तस्स धणु दाहिणेणं Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडे हिं संपरिक्खित्ते' रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्व रत्नमयोऽच्छः, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्त:-'महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्ययस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' महाहिम वतः खलु वर्षधरपर्वतस्योपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, भूमिभागवर्णनं षष्ठसूत्रतो बोध्यम् , 'जाव णाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहि य तणेहि य उपसोभिए जाव आसयंति सयंति य' यावत् नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिश्च तृणैश्चोपशोभितो यावदासते शेरते च, तथा यावद् आसत इत्यत्रत्य यावत्पदेन सङ्ग्राह्याणां पदानां स सङ्ग्रहोऽर्थः षष्ठसूत्रादेव ज्ञेयः॥.११॥ सव्वरयणामए अच्छे उभओ पासि दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहि संपरिक्खित्ते' इसका धनुः पृष्ठ दक्षिण दिशा में परिक्षेप की अपेक्षा ५७२९३ १० योजन प्रमाण है रुचक का जैसा संस्थान आकार होता है वैसा ही इसका आकार है यह सर्वात्मना रत्नमय है आकाश और स्फटिक के जैसा यह निर्मल है इसको दोनों ओर दो दो पद्मवरवेदिकाएं है और दो दो वनषण्ड है 'महाहिमवंतस्स णं वासहरपव्वयस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' महाहिमवान वर्षधर पर्वत के ऊपर का जो भूमिभाग है वह बहुसमरमणीय है 'जाव जाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहिं य तणेहिं य उवसोभिए जाव आसयंति सयंति य' यावत् यह अनेक प्रकार के पंचवर्णवाले मणियों से और तृणों से उपशोभित है यावतू यहाँ अनेक देव और देवियां उठती बैठती रहती है और शयन करती रहती हैं। यहां पद्मवर वेदिका और वनषंड का वर्णन पंचम सूत्र से जान लेना चाहिये भूमिभाग का वर्णन छठे सूत्र से और यावत्पद संगृहीत पदों का ग्रहण छठे सूत्र से जाननाचाहिये ।। सू० ११॥ सत्तावणं जोयणसहस्साई दोब्णिय तेणउए जोयणसए दसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं रुयगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं य दोहिय वणसंडेहि संपरिक्खित्ते' मेनु धनुः पृष्ठ क्षण शाम परिक्ष पनी अपेक्षाये પ૭ર૩ ૧૭ જન પ્રમાણ છે. રુચકને જેનું સંસ્થાન–આકાર હોય છે તેજ આકાર એનો છે. એ સર્વાત્મના રનમય છે. આકાશ અને સ્ફટિકવત્ એ નિર્મળ છે. એની બને त२५ ५५५२ ६४ामे। छ भने ५० वनमा छ. 'महाहिमवतस्स णं वासहरपव्वयरस उप्पि वहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' भडिभवान् ध२ ५ तना ५२ने। २ भूमिला छत मसभरणीय छे. 'जाव णाणाविहपंचवण्णेहिं मणिहिं य तणेहिं य उवसोभिए जाव आसयंति सयंति य' यावत् से सने ५२ पाय वर्णावा मणिमाथी भने ખૂણેથી ઉપરોભિત છે. યાવત્ અહીં અનેક દેવ અને દેવીઓ ઉડતી બે પતી રહે છે અને શયન કરતી રહે છે. પદ્મવેર વેદિકા અને વનડનું વર્ણન પંચમ સૂત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. ભૂમિભાગનું વર્ણન છ સૂત્ર દ્વારા અને યાવત પદ સંગૃહીત પદ્યનું ગ્રહણ છઠા સત્રમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. જે ૧૧ છે Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् अथात्र ह्रदस्वरूपं दर्शयितुमाह-'महाहिमवंतस्स' इत्यादि । __ मूलम्-महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउ. मदहे णामं दहे पण्णत्ते, दो जोयणसहस्साइं आयामेणं एगं जोयणसहस्सं विखंभेणं दस जोयणाई उठवेहेणं अच्छे रयणामयकूले एवं आयामविक्खंभविहणा जा चेव पउमदहस्स वत्तव्बया सा चेव णेयव्वा, पउमप्पमाणं दो जोयणाई अटो जाव महापउमदहवण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमट्टिइया परिवसइ, से एएणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! महाप उमदहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जंण कयाइ णासी ३, तस्त णं महापउमदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पवएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवाएणं प्रवडइ, रोहियाणं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता, सा गं जिब्भिया जोयणं आयामेणं अद्धतेरसजोय. णाई विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुह विउटुसंठाणसंठिया सव्ववइ. रामई अच्छा, रोहिया णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहियप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सवीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं तिषिण असीए जोयणसए किंचि विसेसूणं परिक्खेवेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओ, वइरतले वट्टे समतीरे जाव तोरणा, तस्स णं रोहियप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सम्बवइरामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, रोहियदीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पाणं च अटो य भाणियव्यो। तस्स णं रोहि. यप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं. तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी सदावई वट्टबेयद्धपव्वयं अद्धजोयणणं असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी विभयभाणी अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, रोहिया णं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे य मुहे य भाणियव्वा इति जाव संपरिक्खित्ता। तस्स णं महापउमदहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महागई बूढा समाणी पंचुतरे जोयणसए पंच एगूणवीसइभाए जोयगस्स उत्तराभिमुही पव्वएगं गंता महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तालिहारसंठिएणं साइरेग दुजोयणसएणं पवाएणं पवडइ, हरिकंता महाणई जओ पवडई एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता, दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुह विउठाणसंठिया सम्बरथणामई अच्छा, हरिकंता णं महागई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे हरिकंतप्यवायकुंडे णाम कुंडे पगत्ते, दोषिण य चत्ताले जोषणसए आयामविक्खंभेणं सत्त य उगटे जोयणसए परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंड वत्तव्वया सव्वा यत्रा जाव तोरणा, तस्स णं हरिकंतप्पबायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे हरिकंतदोवे णाम दीवे यण्णत्ते, बत्तीसं जोयणाई आयामविक्खंभेगं एगुत्तरं जोयणतयं परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडे जात्र संपरिक्वित्ते, वण्णओ भाणियम्वोत्ति, पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठो य भाणियो, तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडस्त उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिक्स्सं वासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी वियडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पञ्चत्थाभिमुही आवत्ता Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महस्वरूपनिरूपणम् १०३ समागी हरिवासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पञ्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेड़, हरिकंताणं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धा इजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं पंच जोयणाई उब्वेहेणं, उभओ पासिं दोहिं परमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता || सू० १२ ॥ छाया - महाहिमवतः खलु बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु एको महापद्महूदो नाम हूदः प्रज्ञप्तः, द्वे योजनसहस्रे आयामेन, एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेण, दस योजनानि उद्वेधेन अच्छः रजतमयकूलः, एवमायामविष्कम्भविधूना (विहीना ) यैव पद्महृदस्य वक्तव्यता सैव नेतन्या, पद्मप्रमाणं द्वे योजने, अर्थो यावत् महापद्महूदवर्णाभानि, ह्रीश्चात्र देवी यावत् पस्योपमस्थितिका परिवसति स एतेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते, अथ च खलु गौतम ! महापद्मइदस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यन्न कदाचिन्नासीत् ३, तस्य खलु महापद्महूदस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढा सती षोडश पश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्त केन मुक्तावलिहार संस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, रोहिता खलु महानदी यतः प्रपतति अत्र : खलु महती एका जिह्विका प्रज्ञप्ता, सा खलु जिह्विका योजनमायामेन अर्द्ध त्रयोदशयोजनानि विष्कम्भेण क्रोशं बाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी अच्छा, रोहिता खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं रोहितापातकुण्डं नामकुण्डं प्रज्ञप्तम्, सविंशति योजनशतम् आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्तः त्रीणि अशीतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण दश योजनानि उद्वेधेन अच्छं श्लक्ष्णं स एव वर्णकः, वज्रतलं वृत्तं समतीरं यावत् तोरणाः, तस्य खलु रोहिता प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खल महान एको रोहिता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, षोडश योजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि पञ्चाशतं योजनानि परिक्षेषेण द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात् सर्ववज्रमयः अच्छः, स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, रोहिता द्वीपस्य खलु द्वीपस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रज्ञप्तः, तस्य खल बहुसमरमणीयस्य भूमिमागस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम्, क्रोशमायामेन शेषं तदेव प्रमाणं च अर्थ भणितव्यः । तस्य खलु रोहिताप्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन रोहिता महानदी प्रव्यूढा सती हैमवतं वर्षम् एजमाना २ शब्दापातिनं वृत्तवैताढ्यपर्वतम् अर्द्धयोजनेन असम्प्राप्ता पौरस्त्याभिमुखी आवृत्ता सती हैमवतं वर्षे द्विधा विभजमानार अष्टाविंशत्या सलिला सहस्रैः समग्रा अधो जगतीं दलयित्वा पौरस्त्येन लवणसमुद्रं समुपैति, रोहिता खल Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यथा रोहितांशा तथा प्रवाहे च मुखे च भाणितव्येति यावत् संपरिक्षिप्ता । तस्य खलु महापद्महूदस्य औतराहेण तोरणेन हरिकान्ता महानदी प्रव्यूहा सती षोडश पश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुख प्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वियोजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, हरिकान्ता महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महती एका जिब्भिका प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आयामेन पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण अर्द्ध योजनं बाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी अच्छा, हरिकान्ता खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं हरिकान्ता प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, द्वे च चत्वारिंशे योजनशते आयामविष्कम्भेण सप्त एकोनषष्टानि योजनशतानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्यता सर्वा नेतव्या यावत् तोरणाः, तस्य खलु हरिकान्ता प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु महानेको हरिकान्ता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः द्वात्रिंशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण द्वौ क्रोशावुच्छ्रितो जलान्तात्, सर्वरत्नमयः अच्छः, स खलु एकया पद्मक्रवेदिकया एकेन च वनपण्डेन यावत् संपरिक्षिप्तः, वर्णको भणितव्य इति, प्रमाणं च शयनीयं च अर्थश्च भणितव्यः, तस्य खलु हरिकान्ताप्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन यावत् प्रव्यूढा सती हरि वर्ष वर्षम् जमाना २ विकटापातिनं वृत्तवैताढचं योजनेनं असम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती हरिवर्ष द्विधा विभजमाना २ पट् पञ्चाशता सलिलासहस्रैः समग्रा अधो जगतीं दलयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समुपैति हरिकान्ता खलु महानदी प्रहे पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण अर्द्धयोजनमुद्वेधेन तदनन्तरं च खलु मात्रयार परिवर्द्धमाना२ मुखमूले अर्द्धतृतीयानि योज - नशतानि विष्कम्भेण पञ्च योजनानि उद्वेधेन, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पदमवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता ।। सू० १२ ।। टीका - 'महाहिमवंतस्स णं' इत्यादि, 'महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्य णं एगे महामहे णामं दद्दे पण्णत्ते' महाहिमवतः खलु बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु एको महापद्महदो नामा हृदः प्रज्ञप्तः, 'दो जोयणसहस्साइं आयामेणं एगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं अब सूत्रकार हूद द्रह का स्वरूप दिखलाते हैं 'महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं' इत्यादि टीकार्थ - 'महाहिमवंतस्स बहुमज्झदेसभाए' महाहिमवंत पर्वत के ठीक बीच में 'एगे' एक 'महापउमद्दहे पण्णत्ते' महा पद्मद्रह कहा गया है 'दो जोयणહવે સૂત્રકાર હૃદ–દ્રહનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કરે છે 'महाहिमवतस्स णं बहुमज्झदेसमाए इत्यादि 'महावितरणं बहुमज्झ देसभाएँ' भडाडिभवन्त यवर्तना हो मध्य भागभां 'एंगे' 'महापमद्द पण्णत्ते' भडा पद्मगड भावे छे. 'दो जोयणसहस्साई आयामेणं पगं Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् १०५ इस जोयणाई उव्वे हेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स उत्तब्बया सा चेव णेयव्या' द्वे योजनसहरी आयामेन, एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेन, दश पोजनानि उद्वेधेन अच्छः रजतमयक्लः, एवमायामविष्कम्भविधूता-विहीना यैव पद्मदस्य वक्तव्यता सैव नेतव्या। 'पउमप्पमाणं दो जोयणाई, अट्ठो जाव महापउमदहवण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमहिइया परिवसइ' पद्मप्रमाणं द्वे योजने, अर्थों यावदू महापद्महद वर्गाभानि ह्रीश्चात्र देवी यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति ‘से एएणटेणं गोयमा एवं वुच्चई' स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महःपउमदहस्स सासए सहस्साई आयामेणं एगंजोयणसहस्सं विकावंभेणं दस जोयणाई उबेहेणं अच्छे रपयालय कूटे एवं आयाम विश्वंभ विहणा जा चेव पउमद्दहस्त वत्तव्यया सा चेव णेयव्वा' इसका आयाम दो हजार योजन का है और एक हजार योजन का इसका विष्कंभ है उद्वेध 'गहराई' इसका दस योजन का है यह आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है रजतमय इसका कूल है इस तरह आयाम और विष्कंभ को छोडकर बाकी की सब वक्तव्यता यहां पद्मद्रह की वक्तव्यता जैसी ही है ऐसा जानना चाहिये 'पउमप्पमाण दो जोयणाइं अट्ठो जाव महापउमद्दह वण्णाभाई हिरी य इत्थ देवी जाव पलिओवमहिइया परिवसइ, से एएलट्टेणं गोयमा ! एवंचुच्चई' इसके बीचमे जो कमल है वह दो योजन का है महापद्महद्र के वर्ण जैसे अनेक पद्म आदि यहां पर है इस कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम महापद्म हृद्र ऐसा कहा है इस सम्बन्ध में जो प्रश्न गौतमने किया है यह सब पीछे के प्रकरण में लिखा जा चुका है, अतः वहां से जानलेनाचाहिये -यह बात यहां आगत यावत् शब्द बतलाता है वहां पर ही नामकी देवी रहती जोयणसहस्सं विक्खंभेणं दस जोयणाई उज्वेहेणं अच्छे रययामयकूले एवं आयामविक्खंभ विहूणा जा चेव पउमदहस्स वत्तव्यया सा चेव णेयव्वा' मान। मायाम मे ११ योरन એટલે છે, અને એક હજાર એજન એટલે એને વિખંભ છે. ઊંડાઈ (ઉધ) એની દશ યોજન જેટલી છે. એ આકાશ અને સ્ફટિકવત્ નિર્મળ છે. એને કૂલ રજતમય છે. આ પ્રમાણે આયામ અને વિખંભને છોડીને શેષ બધી વક્તવ્યતા અહીં પાદ્રહની વક્તव्यता वा छे, मेवं सभा ने. 'पउमप्पमाणं दो जोयणाइं अट्ठो जाव महापउमद्दहवण्णाभाई हिरीय इत्थ देवी जाव पलिओवमद्विइया परिवसइ, से एएणट्रेणं गोयमा ! gવં એની મધ્ય ભાગમાં જે કમળ છે તે બે જન જેટલું છે. મહાપમહદના વર્ણ જેવા અનેક પ વગેરે અહીં છે. એથી હે ગૌતમ ! મેં એનું નામ મહાપદ્મ હદ એવું કહ્યું છે. આ સંબંધમાં જે પ્રશ્ન ગૌતમે કર્યો છે તે વિષે ગત પ્રકરણમાં ચર્ચા કરવામાં આવેલી છે. એથી જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણું લે એજ વાત અહીં પ્રયુક્ત થયેલ ચાવન શબ્દ પ્રકટ કરે છે. અહીં હી નામક દેવી રહે છે, યાવત્ એની એક પપસ ज० १४ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे णामधिज्जे पन्नत्ते जंण कयाइ णासो' अथ च खलु गौतम ! महापद्महदस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् , यन्न कदाचिन्नासीत् ३, इदं च प्रायः पदूमहदसूत्रानुसारेण व्याख्यातव्यम् , अथास्य दक्षिणद्वारानिःसृतां महानदी निर्दिशन्नाह-'तस्स णं महापउमदहस्स' तस्य खलु महापद्मदस्य--तस्य पूर्वोक्तस्य खलु महापद्मदस्य 'दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन तोरणेन 'रोहिया महाणई पबूढा समाणी' रोहिता रोहितानाम्नी महानदी प्रव्यूढा निःसृता सती 'सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोयणस्स' षोडश पश्चोत्तराणि पञ्चाधिकानि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान जनस्य 'दाहिणाभिमुही पव्वए णं गंता' दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन सह गत्वा 'महया घडमुहपवित्ति. एणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवाएणं पडई' महाघटमुखप्रवृत्तकेन महाघटः बृहद्धटस्तस्य यन्मुखं तस्मात् प्रवृत्तिः-निर्गमो यस्य स जलसमूहः स इव महाघटहै यावत् इसकी एक पल्योपमकी स्थिति है 'अदुत्तरं च णं गोयमा! महा पउमदहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जंण कयाइ णासी३' अथवा-हे गौतम ! महा पद्मद्र ऐसा जो इस इद्र का नाम है वह शाश्वत ही है क्योंकि ऐसा यह नाम इसका पूर्व काल में नहीं था, अब भी ऐसा इसका नाम नहीं हैं भविष्य काल में भी ऐसा इसका नाम नहीं रहेगा-सो ऐसी बात नहीं है पूर्व में भी यही नाम था, वर्तमान में भी यही नाम है और भविष्य काल में भी यही नाम रहेगा अतः इस प्रकार के नाम होने में कोई निमित्त भी नहीं है (तस्सणं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगूणवीसह भाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घटमुह पवित्तिएण मुत्तावलि हारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवाएणं पवडइ) इस महापद्मद की दक्षिणदिग्वर्ती तोरण से रोहितानामकी महानदी निकली है और महाहिमवंत पर्वत के उपर वह १६०५, योजन तक दक्षिणामिमुखी होकर वहती २वी स्थिति छ. 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महापउमदहस्स सासए णामधिज्जे प. जंण कयाइ णासी' अथवा गौतम ! मह। पढ्भ मेरे मनु नाम छेते शाश्वत छ, કેમકે એવું એ નામ એનું પૂર્વકાળમાં નહોતું હમણું પણ એનું નામ નથી. ભવિષ્યત્કાળમાં પણ એવું એનું નામ રહેશે નહિ, એવી વાત નથી પણ પૂર્વમાં પણ એજ નામ હતું. વર્તમાનમાં પણ એજ નામ છે અને ભવિષ્યન્કાળમાં પણ એજ નામ રહેશે. એથી मा १२ना नाम भाट निमित्त ५ नथी. 'तस्सणं महापउमद्दहस्स दक्विणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगूणवीसए भाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दो जोयणसइएणं पवडई' थे भडापानी क्षिय तितोरणेथी ३॥हिता नामे भरा નદી નીકળી છે અને મહાહિમવંત પર્વતની ઉપર તે ૧૬૦૫ જન સુધી દક્ષિણ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापनह्रदस्वरूपनिरूपणम् ૨૦૭ मुखप्रवृत्तिकस्तेन तथा महाघटमुखानिःसरजलसमूहबच्छब्दायमानवेगवता प्रपातेनेत्यग्रिमेण सम्बन्धः, मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशतिकेन साधिक योजनशतद्वयप्रमाणेन प्रपातेन निर्झरेण प्रपतति, अथास्याः प्रपततस्थानं प्रदर्शयितुमाह-'रोहिया णं' इत्यादि, 'रोहियाणं महाणई जओ पवडइ एत्य णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' रोहिता खलु महानदी यतः यस्मात् स्थानात् प्रपतति, अत्र तत्प्रपतनस्थाने खलु एका महती बृहती जिविका तदाकारवस्तुविशेषः प्रणालिका प्रज्ञप्ता, अथ तस्या जिहिकाया मानाद्याह-'साणं जिभिया' इत्यादि, सा खलु जिबिका-सा अनन्तरोक्ता खलु जिहिका 'जोयणं आयामेणं अद्धतेरस जोयणाई विखंभेणं' योजनमायामेन अर्द्धत्रयोदश योजनानि-द्वादश योजनानि पूर्णानि त्रयोदशस्य योजनस्यार्द्धम् विष्कम्भेण विस्तारेण, 'कोसं बाहल्लेणं मगरमुहविउद्यसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा' क्रोशम् एकं क्रोशम् बाहल्येन पिण्डेन, मकरमुखविकृतसंस्थानसंस्थिता विवृत (व्यात्त) मकरमुखवस्थिता, मूले विवृतस्य पूर्वप्रयोगाईत्वेऽपि परप्रयोगः प्राकृतखात् , सर्ववत्ररत्नमयी-सर्वात्मना वज्ररत्नमयी अच्छेति उपलक्षणतया श्लक्ष्णेत्यादि बोधकम् तत्सइग्रहः सार्थश्चतुर्थसूत्राद् बोध्यः। अथासौ रोहिता महानदी यत्र प्रपतति हुई अपने घटमुख प्रवृत्तिक एवं मुक्तावलिहार तुल्य ऐसे प्रवाह से पर्वत के नीचे रहे हुए रोहित नामके प्रपात कुण्ड में गिरती है पर्वत के ऊपर से नीचे तक गिरनेवाली वह प्रवाह प्रमाण में कुछ अधिक दो सौ योजन का है (रोहिआणंमहाणदी जी पवडइ एत्थणं महं एगा जिग्भिया पण्णत्ता) रोहिता नदी जिस स्थान से उस प्रपात कुण्ड में गिरती है वह एक विशाल जिबिका है (साणं जिब्भिया जोयणं आयामेणं अद्भुतेरस जोयणाई विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुखविउद्दसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा) यह जिविका आयाम में -लम्बाई में-एक योजनकी है तथा एक कोशकी इसकी मोटाई है आकार इसका खले हए मगर के मुह जैसा है यह सर्वात्मना वज्र रत्नमयी है तथा आकाश एवं स्फटिक के जैसी यह निर्मल है (रोहिआणं महामई जहिं पवडइ एस्थ णं ભિમુખ થઈનેવહે છે. એ પોતાના ઘરમુખ પ્રવૃત્તિક તેમજ મૂક્તાવલિહાર તુલ્ય પ્રવાહથી પર્વતની નીચે આવેલા રહિત નામક પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. પર્વત ઉપરથી નીચે સુધી ५नार ते प्रवाई प्रभाशुभ ४४ वधारे मसे। यान २८। छे. 'रोहिआ णं महाणदी जओ पवडइ एत्थणं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' हिंता नही २ स्थान ५२था प्रपात उभा ५ . ते स्थान में विशmlost ३५मा छ. 'सा गं जिन्भिया जोयणं आया. मेणं अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं मगरमुखविउटुसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छ।' से rlast मायाम-05--४ यान 2ी छे तेमन मे४ ॥ જેટલી એની મેટાઈ છે એને આકાર ખુલ્લા મગરના મુખ જેવું છે. એ સર્વાત્મના १२नमा छ तेम २0१३ म२६४२ नि छ. 'रोहिआणं महाणई जहिं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ...OREpihinddian R achana - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तण्कुण्डमाह-रोहिया णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहियप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' रोहिता खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं रोहिता-प्रपातकुण्डं नाम कुण्ड प्रज्ञप्तम् , तस्य मानाद्याह-'सवीसं' इत्यादि, 'सवीसं-जोयणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं, तिष्णि असीए जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दस जोयणाई उन्वे हेणं, अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओं' सविंशति-विंशतिसहितं योजनशतम् आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्यविस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तम् , त्रीणि अशीतानि अशीत्यधिकानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषोनानि किञ्चिदधिकन्यूनानि परिक्षेपेण परिधिना दश योजनानि उद्वेधेन भूगतत्वेन अच्छः श्लक्ष्णः स एव वर्णकः पूर्वोक्त एव वर्णनपरपदसमूहो बोध्यः स च २१ पृष्ठोक्त गङ्गाप्रपातकुण्डाधिकाराद बोध्यः, तदेवाह-वइरतले वट्टे समतीरे जाव तोरणा' वज्रतलं-वज्ररत्नमयतलयुक्तम् वृत्तं वर्तुलम् समतीरं समानतटकम् यावत् यावत्पदेन-'रजतमयकूलं वज्रमयपाषाणं सुवर्ण शुभ्र रजतमयवालुकाकम् वैडूर्यमणि स्फटिक पटलाच्छादितं सुखावतारं सुखोत्तारं नानामणितीर्थमहं एगे रोहियप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते) यह रोहिता नामकी महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एक विशाल प्रपातकुण्ड है इसका नाम रोहितप्रपातकुण्ड है (सवीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं पण्णत्तं तिणि असीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे सो चेव वण्णओ) यह रोहितप्रपात कुण्ड आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा १२० योजन का है इसका परिक्षेप कुछ कम ३८० योजन का है इसकी गहराई १० योजन की है अच्छ श्लक्ष्ण आदि पदों की व्याख्या गंगाप्रपातकुण्डके वर्णन से जान लेना चाहिये (वइरतले, वटूटे, समतीरे, जाव तोरणा, तस्सणं रोहिअप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते) इसका तल भाग वज्ररत्न का बना हुआ है यह गोल है, तीर भाग सम हैनीचा ऊंचा नहीं है यहां यावत् पद से 'रजतमयकूलं, वन्नमयपाषाणं, सुवर्ण पवडइ एत्थणं महं एगे रोहियप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' से डिता नाम४ महानही જ્યાં પડે છે ત્યાં એક વિશાળ પ્રપાત કુંડ છે. એનું નામ રોહિત પ્રપાત કુંડ છે. 'सवीसं जोयणसमें आयामत्रिक्खंभेणं पण्णत्तं तिणि असीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिवखेवेणं दस जोयणाई उच्वेहेणं अच्छे सण्हे सो चेत्र वण्णओ' २॥ शहित प्रपात' આયામ અને વિષકુંભની અપેક્ષાએ ૧૨૦ એજન જેટલું છે. આને પરિક્ષેપ કંઈક કમ ૪૮૦ જન જેટલું છે. એની ઊંડાઈ ૧૦ એજન જેટલી છે. અ૭, શ્લણ વગેરે ५हानी व्याज्या विष 1 प्रपात ना वनमाथी gी देवु नये. 'वइरतले, घट्टे, समतीरे जाव तोरणा सस्सणं रोहिअप्पवायकुण्डस्त बहुमल्झदेसभाए एत्थ णं मह एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' अन तसा १०२त्न निमित छ. से गाज छे. सेना तीर सागसम है, यानीय नथी. मी यापत ५४थी 'रजतमयकलं वनमयपाषाणं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ० १२ महापद्महदस्वरूपनिरूपणम् सुबद्धम् आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरं शीतलज़लं संच्छन्नपत्रविसमृणालं बहूत्पलकुमुदनलि. नसुभग सौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपचितं पदपदपरि भुज्यमानकमलम् अच्छविमलपथ्यसलिलं पूर्ण परिहस्तभ्रमन्मत्स्य कच्छपानेकशकुनगणमिथुनविचरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादितं प्रासादीयं ४, इत्यादि. २१ पृष्ठोक्तानुसारेण बोध्यम् , व्याख्या च तत्सूत्रतो बोध्या, एवं तोरणपर्यन्तं वर्णनीयम् , इत्याह-तोरणाः इति, अधुनाऽस्य द्वीपवक्तव्यतामाह-'तस्स णं रोहियप्पवायकुडस्स' तस्य खलु रोहिता प्रपातकुण्डस्य 'बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोदियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महान् एको रोहिता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः। तस्यायामाद्याह-'सोलस जोयणाई-आयामविक्खंभेणं' षोडश योजनानि आयामविष्कम्भेण, नवरं गङ्गाद्वीपतो द्विगु. णायामविष्कम्भत्वात् षोडशयोजनप्रमाणोऽयं रोहितो द्वीप इत्यर्थः, 'साइरेगाई पण्णासं जोय. शुभ्ररजतमय बालुकाकम् वैडूर्यमणिस्फटिकपटलाच्छादित, सुखावतारं सुखो. तारं, नानामणितीर्थसुबद्धम् आनुपूर्व्यसुजातवप्रगंभीरशीतलजलं, संच्छन्नपत्रविसमृणालं, बहूत्पल कुमुदनलिनसुभगसौगंधिकपुण्डरीकमहापुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपचितं, षटू पदपरिभुज्यमानकमलम्, अच्छविमल. पथ्यसलिलं, पूर्ण, परिहस्त भ्रमन्मत्स्यकच्छपानेकशकुनगणमिथुनविचरित शब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादितं, प्रासादीयं ४' इत्यादिरूप से यह पाठ गृहीत हुआ है। इन पदों की व्याख्या चतुर्थ सूत्र की व्याख्या करते समय की जाचुकी है। इस तरह का यह सब वर्णन तोरणों के वर्णन तक यहां पर करलेना चाहिये (तस्स णं रोहिअप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते) उस रोहितप्रपातकुण्ड के ठीक मध्यभाग में एक विशाल रोहितद्वीपनामका द्वीप कहा गया है (सोलसजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइ. रेगाई पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए सुवर्ण शुभ्ररजतमयवालुकाकम् वैडूर्यमणिस्फटिकपटलाच्छाडितं, सुखावतार सुखोत्तार, नानमणितीर्थ सुबद्धं आनुपूर्यसुजातवगंभीरशीतल जलं, संच्छन्न पत्र विसमृणालं, बहूत्पलकुमुद नलिन सुभग सौगंधिक पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र प्रफुल्लकेसरोपचित षट्पदपरिभुज्यमानकमलम्, अच्छविमलपथ्यसलिलं, पूर्ण, परिहस्तभ्रमन्मत्स्यकच्छपानेक शकुनगणमिथुनविचरितशब्दोन्नतिकमधुरस्वरनादितं प्रासादीयं ४' मेरे ३५ मे १४ सहीत થયો છે. એ પદની વ્યાખ્યા ચતુર્થ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે स! मधु वर्णन तन वर्णन सुची २.7 श से नये. 'तस्स णं रोहिअप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं मह एगे रोहियदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' त ति यात हुन। ४ भट भागमा से सुविण २डित दी५ नाम दी५ मा छे. 'सोलस जोयणाई आयामविक्ख भेणं साइरेगाइं पण्णासं जोयणाई परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलं. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S unandidate ११० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे णाई परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे' सातिरेकाणि पश्चाशतं योजनानि परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशौ उच्छ्रितो जलान्तात् सर्ववज्रमयोऽच्छः, ‘से णं एगाए पउ. मवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सधओ समंता संपरिक्खित्ते' स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, 'रोहियदीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' रोहिता द्वीपस्य खल द्वीपस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रज्ञप्तः, 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम् , 'कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अट्ठो य भाणियव्यो' शेषं तदेव पूर्वोक्तमेव प्रमाणं तच अर्धक्रोशम् विष्कम्भेण, देशोनक्रोशमुच्चत्वेनेति च शब्दात् रोहिता देवी शयनादि वर्णकोऽपि भणितव्यः, च पुनः अर्थः-रोहिता द्वोपनामकारणम् , अच्छे) यह द्वीप आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा से १६ योजन का है कुछ अधिक ५० योजन का इसका परिक्षेप है यह जल से दो कोस ऊपर उठा हआ है यह सर्वात्मना वनमय है आकाश और स्फटिक के जैसा यह निर्मल है (से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवरवेदिका से और एक वनषण्ड से चारों ओर से अच्छी तरह घिरा हुआ है (रोहियदोवस्स णं दीवस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणत्ते) इस रोहित द्वीप के ऊपर का जो भूमिभाग है वह बहुसमरमणीय कहा गया है (तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अट्ठोय भाणियव्यो) उस बहसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल भवन कहा गया है यह आयाम की अपेक्षा एक कोश का है विष्कम्भ की अपेक्षा आधे कोशका है कुछ कम एककोश की इसकी ऊंचाई है इत्यादि रूप से यहां और भी सब ताओ सब्ववहरामए अच्छे सेबी५ मायाम अने वि०४ सनी म.पेक्षा १६ योगनरेश छे. ક, અધિક ૫ યોજન જેટલો આને પરિક્ષેપ છે. એ પાણીથી બે ગાઉ ઉપર ઉઠેલો ७. सामना १०मय छे. 2408. अने टि४ । निम छे. 'से णं एगाए पउवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खिते' से ४ पातर साथी मन से वनमथा याभ२ सारी रीत परित छ. 'रोहियदीवस्स णं दीवस्स उप्पिं बह. समरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' २॥ २त दीपनी ०५२ २ भूमिमा छ तपसमरमणीय वामां मावल छे. 'तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्देसभाए पत्थ मह एगे भवणे पण्णत्तं, कोसं आयामेणं सेसं तं चेव पमाणं च अट्ठो य भाणिवच्यो' તે બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગના ઠીક મધ્યભાગમાં એક વિશાળ ભવન આવેલ છે. એ આયામની અપેક્ષાએ એક ગાઉ જેટલું છે. એ આયામની અપેક્ષાએ એ ભવન અર્ધા ગાઉ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्महद स्वरूपनिरूपणम् १११ भणितव्यः वक्तव्यः । अथास्या रोहिताया लवणसमुद्रगमनप्रकारमाह - ' तस्स णं' इत्यादि, 'तस्स णं रोहियप्पवाय कुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं' तस्य खल रोहिता प्रपातकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन - बहिर्द्वारेण 'रोहिया महाणई पवूढा समाणी' रोहिता महानदी प्रव्यूहा - निःसृता सती 'हेमवयं वासं एज्जेमाणी२' हैमवतं वर्षे प्रति एजमाना २ - आगच्छन्ती २ 'सदावइवट्टवेयद्धपच्त्रयं' शब्दापातिनं शब्दापातिनामानं वृत्तत्वैताढ्यपर्वतम् 'अद्ध जोयणेणं' अर्धयोजनेन - क्रोशद्वयेन 'असंपत्ता' असम्प्राप्ता असंस्पृष्टा दूरस्थितेत्यर्थः, 'पुरस्थाभिमुही' पूर्वाभिमुखी 'आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी ' आवृत्ता - परावृत्ता सती हैमवतं तन्नामकं वर्षे द्विधा विभजमानार द्विभागं कुर्वाणार 'अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा' अष्टाविंशत्या - अष्टाविंशति संख्यकैः सलिलासहस्रैः - महानदी सहस्रैः समग्रा सम्पूर्णा भरतनद्यपेक्षया द्विगुणनदीपरिवृतत्वात्, 'अहे जगई' अधःअधोभागे जगतीं जम्बूद्वीपभूमिं 'दालइत्ता पुरत्थिमेणं' दारयित्वा भित्वा पौरस्त्येन पूर्वभागेन 'लवणसमुद्दे समप्पेइ' लवणसमुद्रं समुपैति प्रविशति, 'रोहियाणं' इयं रोहिता खलु वर्णन जैसा तीसरे सूत्र में किया गया है वैसा ही यहां पर करलेना चाहिये (तस्स णं रोहिप्पवायकुण्डस्स दाक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पढा समाणी हेमवयवास एज्जेमाणी २ सहावई वहवे अद्धपव्वयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा बिभगमाणी २ अड्डाबीसाए सलिला सहस्सेहिं समग्गा आहे जगईं दालहन्ता पुरस्थिमेणं लवणसमुहं समप्पे ) उस रोहित प्रापातकुण्डकी दक्षिणदिशा के तोरण से रोहिता नामकी महानदी निकली है वह हैमवत क्षेत्रकी ओर आती २ शब्दापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत से दो कोश दूर रहकर फिर वहां से वह पूर्वदिशा की ओर लौटती है और हैमवत क्षेत्र को दो विभागों में विभक्त करती हुई २८ हजार परिवार भूत नदियों से युक्त होकर जम्बूद्वीप की जगती को भेदती हुई पूर्व लवण समुद्र में मिलती है (रोहिआणं जहा रोहिअंसा) रोहितांशा महानदी के वर्णन के જેટલું છે. કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલી એની ઊંચાઈ છે વગેરે રૂપમાં અહીં શેષ वार्डन ग्रीन सूत्र भुसम सेवु ले थे. 'तरस णं रोहियपवायकुण्डस्स दखिपिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवूढा समाणी हेमवयवासं एज्जेमाणीर सदावई वट्टवेअद्धपव्त्रयं अद्धजोयणेणं असंपत्ता पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हेमवयं वासं दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमेणं लवणसमुदं समવેટ રાહિત પ્રપાત કુંડની દક્ષિણ દિશાના તારણાથી રહિત નામક મહા નદી નીકળે છે. તે નદી હૈમવત ક્ષેત્ર તર્કુ પ્રવાહિત થતી શબ્દાપાતી વૃત્ત વૈતાઢય પર્વતથી એ ગાઉ દૂર રહોને પછી ત્યાંથી તે પૂર્વ દિશા તરફ પાછી ફરે છે. અને તે હૈમવત ક્ષેત્રને એ વિભાગેામાં વિભક્ત કરતી ૨૮ હાર પરિવાર ભૂત નદીએ।ર્થી યુક્ત થઈ ને જમ્મૂद्वीपनी भगतीने लेहित रती पूर्व व समुद्रमां भणे छे. 'रोहिआणं जहा रोहिअंसा' Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे महानदी 'जहा रोहियंसा' यथा-येन प्रकारेण आयामादिना रोहितांशा महानदी वर्णिता 'तहा पवाहे य मुहे य भाणियब्या' तथा तेन प्रकारेण प्रवाहे निर्गमे च पुनः मुखे समुद्रप्रवेशे च भणितव्या वर्णनीया, इति एतद्वर्णनं किम्पयन्तम् ? इत्याह-'जाव संपरिक्खिता' यावत् संपरिक्षिप्तेति-तथाहि-रोहिता खलु प्रवहे अर्द्धत्रयोदश योजनानि विष्कम्भेण, क्रोशमुद्वेधेन तदनन्तरं च खलु मात्रया२ परिवर्धमाना२ मूखमूले पञ्चविंशं योजनशतं, विष्कम्भेण अर्धतृतीयानि योजनानि उद्वेधेन उभयोः पाश्चयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तेति वर्णनं रोहितांशा महानद्यधिकाराबोध्यम् , ___ अथ हरिकान्ता नदीवक्तव्यतामाह-'तस्स शं महापउमदहस्स' इत्यादि तस्य खलु महापदमहदस्य 'उत्तरेणं तोरणेणं' औत्तरेण तोरणेन बहिरेण 'हरिकंता महाणई पवुढा समाणी जैसा ही इस नदी के आयाम आदि का वर्णन है इसलिये-(पवाहेअखे अ भा. णियवा) प्रवाह-निर्गम-में और मुख समुद्र प्रवेश में-जैसा कथन-'जाव संपरिक्खित्ता' इस पाठ तक रोहितांशा के प्रकरण में किया गया है वह सब कथन यहां पर भी जानलेना चाहिये-जैसे-'रोहिता प्रवह में-द्रह निर्गम में-विष्कम्भ की अपेक्षा १२॥ योजन हैं और उद्वेध की अपेक्षा १ कोशकी है इसके बाद थोडी २ बढती हुइ वह मुखमूलमे १२५ योजन के विष्कम्भवाली हो गई है और २॥ योजन प्रमाण :उद्वेधवाली हो गई है । तथा यह दोनों पार्श्व भाग में दो पदमवरवेदिकाओं से एवं दो वनषण्डों से घिरी हुई है ऐसा यह वर्णन रोहितांश महानदी के अधिकार से जानलेना चाहिये । हरिकान्तानदीवक्तव्यता (तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकंता महाणई पढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगृणवीसइभाए जोयणस्स उत्तराभिરોહિતાંશા મહાનદીના વર્ણન જેવું જ એ મહા નદીના આયામ વગેરેનું વર્ણન છે. मेथी 'पवाहेअमुखे अ भाणियव्वा' प्र-निगममा भने भु५ समुद्र प्रवेशमा रे ४थन-'जाव संपरिक्खित्ता' मा ५४ सुधी शतांशान घरमा ४वामां आवे छे, ते બધું કથન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. જેમકે રેહિતા પ્રવાહમાં-દ્રહ નિર્ગમમાંવિધ્વંભની અપેક્ષાએ તે ૧૨ એજન છે અને ઉદ્દેધની અપેક્ષા છે ૧ ગાઉ પ્રમાણ છે. ત્યાર બાદ સ્વલ્પ પ્રમાણમાં અભિવદ્ધિત થતી તે મુખ મૂળમાં ૧૨૫ પેજન જેટલા વિઠંભવાળી થઈ ગઈ છે. અને રા જન પ્રમાણે ઉપવાળી થઈ ગઈ છે. તેમજ એ અને પાશ્વ ભાગમાં બે પદ્મવર વેદિકાઓથી તેમજ બે વનખંડોથી આવૃત છે. એવું આ વર્ણન હિતાંશ મહાનદીના અધિકારમાંથી જાણી લેવું જોઈએ. હરિકાન્તા નદી વક્તવ્યતા 'तस्सणं महापउमदहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई पवूढा समाणी सोलस Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मादस्वरूपनिरूपणम् सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगुणवीस इभाए जोयणस्स उत्तराभिमुही पधएणं गंता महया घडमुह पव्वत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दुजोयणसइएणं पवारणं पवडई' हरिकान्ता महानदी प्रव्यूढा सती पोडशपश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य उत्तराभिमुखीपर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशटिकेन प्रपातेन-प्रवाहेण प्रपतति, 'हरिकंता महाणई-जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पन्नता, दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुडविउट्ठसठाणसंठिया सव्वरयणामई अच्छा हरिकान्ता महानदी यतः प्रपतति, अन खलु महती एका जिद्विका-तदाकार वस्तुविशेपः प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आपामेन पचविंशति योजनानि विष्कम्भेण, अर्द्ध योजनं बाहल्येन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी मुही पव्वएणं गंता महया घटमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दु जोयणसइएणं पवाएण पवडइ) उस महापद्भद्रह के उत्तरदिरवर्ती तोरण द्वारसे हरिकान्ता नामकी महानदी निकली है यह नदी १६०५५ योजन पर्वत के ऊपर से उत्तर की ओर जाकर बडे जोर शोर के साथ अपने घट के मुख से विनिर्गत जल प्रवाह के तुल्य प्रवाह से कि जिसका आकार मुक्तावलि के हारके जैसा है और जो कुछ अधिक दो सौ योजन प्रमाणपरिमित है हरिकान्तप्रपातकुण्ड में गिरती हैं (हरिकता महाणई जओ पवडइ-एत्थ णं एगा महं जिभिआ पणत्ता) यह हरिकान्ता महानदी जहां से हरिकान्तप्रपातकुण्डमें गिरती है वहां एक बहुत बडी जिबिका-नाली है-(दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाइं विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहवि उट्ठसंठाणसंठिया, सम्वरयणामई अच्छा) यह जिहिका आयामकी अपेक्षा दो योजन की है और विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की है इसका बाहल्य २ कोशका है। खुले हुए मगर मुखका पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगुणवोस इभाए जोयणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं गंता महया घट मुह पवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दु जोअणसइएण पवारण पवडइ' ते महा પદ્મદ્રહ ઉત્તરદિશ્વર્તી તોરણ ૮ થી હરિકાન્ત નામક મહાનદી નીકળે છે. આ નદી ૧૯૦૫ જન પર્વત ઉપરથી ઉત્તરની તરફ જઈને ખૂબ જ વેગ સાથે પિતાના ઘટમુખથી વિનિત જલ પ્રવાહ તુલ્ય જ પ્રવાહથી-કે જેને આકાર મુક્તાવલિના હાર જેવો હોય છે અને જે કંઈક અધિક બસે જન પ્રમાણુ પરિમિત છે.-હરિકાન્ત પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. 'हरिकंता महाणई जओ पवडइ एत्थण एगा महं जिभिआ पण्णत्ता' मा हुन्ति महा નદી જ્યાંથી હરિકાન્તા પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાંથી એક વિશાળ જિહિકા-નાલિકા છે. 'दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहवि. उसंताणसंठिया, सवरयणामई अच्छा' से rlt आयामनी अपेक्षामे मे योन જેટલી છે અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન જેટલી છે, એને બાહુલ્ય બે ગાઉ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे अच्छा, 'हरिकंता णं महाणई जहिं पवड' हरिकान्ता खलु महानदी यत्र प्रपतति, 'एत्थ णं महं एगे हरिकंतप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' अत्र खलु महदेकं हरिकान्ता प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , 'दोण्णि य चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं सत्त य उणढे जोयणसए परिक्खेवेण' चत्वारिंशे चत्वारिंशदधिके द्वे च योजनशते आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्यविस्ताराभ्याम् , एकोनषष्टानि-एकोनषष्टयधिकानि सप्तयोजनशतानि परिक्षेपेण, 'अच्छे एवं कुंडवत्तव्यया सव्वा नेयव्या जाव तोरण।' अच्छम् एवं कुण्डव कव्यता सर्या नेतव्या यावत् तोरणाः, 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडस्त बहुमज्झ देसभाए एत्थ मई एगे रिकंतदीवे णाम दीवे पन्नत्ते' तस्य खलु हरिकान्ता प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अन खलु महान् एको हरिकान्ता द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः 'बत्तीसं जोयणाई आयामविक्खंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं जैसा आकार होता है वैसा ही इसका आकार है। यह साना रत्नमयी है तथा आकाश और स्फटिक के जैसी निर्मल है । (हरिकंताणं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे हरिकतप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते) हरिकान्त नामकी यह महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एक विशाल हरिकान्त प्रपातकुण्डनामका कुण्ड है (दोणिय चत्ताले जोयणसए आयामविक्ख भेणं सत्तअउणट्टे जोयणसए परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंडवत्तव्वया सव्वा णेया जाव तोरणा) यह कुण्ड आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा दो सो चालीस योजन का है तथा इसका परिक्षेप ७५९ योजनका है । यह कुण्ड आकाश और स्फटिक के जैसा बिलकुल निर्मल है। यहां पर कुण्ड के सम्बन्ध की पूरीवक्तव्यता तोरण के कथन तक की कहलेनी चाहिये (तस्सणं हरिकंतप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे हरिकंतदीवे णामं दीवे प.) उस हरिकान्त प्रपातकुण्ड के ठीक बीच में एक विशाल हरिकान्त द्वीप नामक द्वीप कहा गया है। (बत्तीसं जोयणाई જેટલું છે. ખુલ્લા મુખવાળા મગરનો જે આકાર આને છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી छ तेभ 10 मने २५८४पत् सनी निर्मiत छ. 'हरिकंताणं महाणई जहिं पवडइ एत्थणं महं एगे हरिकंतप्पवायकुडे णामं कुंडे पण्णत्ते' हरित नाम महानही यां ५७ छ त्यो मे४ विशाण विन्त प्रपात : नाम छ 'दोणिय चत्ताले जोयणसए आयोमविक्खंभेणं सत्तअउणद्वे जोयणसए परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंडवत्तव्वया सव्वा णेया जाव तोरणा' से मायाम भने मिनी अपेक्षा असे. यासीस योनस તેમજ આનો પરિક્ષેપ ૭૫૯ જન જેટલું છે. એ કુંડ આકાશ અને સ્ફટિકવત્ એકદમ નિર્મળ છે અહીં કુંડ સંબંધી પૂરી વક્તવ્યતા તોરણના કથન સુધીની અધ્યાહુત કરી देवीन. 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे हरिकंतदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' ते २४ia प्रपात हुन मध्य सभा मे १ २. आन्त दी५ नाम दी५ मावेश छ. 'बत्तीसं जोयणाई आयामविक्खंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मदस्वरूपनिरूपणम् ११५ परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे' द्वात्रिशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण, एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशौ उच्छितो जलान्तात, सर्वरत्नमयोऽच्छः, 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते वण्णओ भाणियव्यो त्ति' स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन यावत् सम्परिक्षितः वर्णको भणितव्य इति, 'पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणिययो' प्रमाणश्च शयनीयश्च अर्थश्च भणितव्यः। 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एजमाणी २ वियडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहाविभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्च आयामविक्खंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिये जलंताओ सवरयणामए, अच्छे) यह द्वीप आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा ३२ योजन का है १०१ योजन का इसका परिक्षेप है तथा यह जल के ऊपर से दो कोशतक ऊंचा उठा है सर्वात्मना यह रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है (सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवर वेदिकासे और एक वनषण्डसे चारों ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ भाणिअव्वोत्ति) यहां पर पदमवर वेदिका और वनषण्डका वर्णन करलेना चाहिये (पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणियव्वो) तथा हरिकान्त द्वीपका प्रमाण, शयनीय एवं इस प्रकार के इसके नाम होने के कारण रूप अर्थ का भी वर्णन करलेना चाहिये (तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पबूढा समाणो हरिवस्सं वासं एज्जमाणी २ विअडावई वटवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुही आवत्तासमाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइता पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेई) उस हरिकान्त प्रपातकुण्ड के उत्तरदिग्वर्तीतोरण द्वार से यावत् परिक्खेवेणं दो कोसे उसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे' दी५ मायाम मन Av४. ભની અપેક્ષાએ ૩૨ જન જેટલું છે. ૧૦૧ જન જેટલે આને પરિક્ષેપ છે તેમજ એ પાણીની ઉપરથી બસે ગાઉ ઊંચે છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને આકાશ તેમજ २२४ २वी सनी निम न्ति छ. 'से गं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खिते' से ५१२ हाथी मन से वनथी योभे२ माटत छ. 'वण्णओ भाणिअव्वोत्ति' मा ५१२ ३६ सने ननु वन सम से नये. 'पमाणं च सयणिज्ज च अट्ठोय भाणियव्यो' तेम०४ ७२४न्त दीपनु प्रभ शयनीय तभनय मा प्रमाणे । मेनु नाम ४२९१ विषे ५ मडी २५ष्टता ४N सेवी ध्ये. 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा सप्राणी हरिवस्सं वास एज्जमाणी २ विअडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभय Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे थिमेणं लवणसमुदं समापेइ' तस्य खलु हरिकान्ता प्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन यावत् प्रव्यूढा सति हरिवर्षम् वर्षम् एजमाना २ विकटापातिनं वृत्तवैतादयं योजनेन असंप्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती हरिवः द्विधा विभजमाना २ षट् पञ्चाशता सलिलासहस्रैः समग्रा अधो जगतीं दलयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समुपैति, अधुना हरिकान्ता महानद्याः प्रवहादिमानं प्रदर्शयितुमाह-'हरिकता णं महाणई' इत्यादि हरिकान्ता खलु महानदी 'पवहे पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं' प्रबहे हुदनिर्गमे पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण, 'अद्ध जोयणं उन्हेणं' अर्द्धयोजनमुद्वेधेन भूगतत्वेन, 'तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धाइज्जइं जोयणसयाई विक्खंभेणं पंचजोयणाई उव्वे हेणं, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहिं य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' तदनन्तरं च मात्रया २ क्रमेण २ प्रति योजनं समुदितयोरुभयोः पार्श्वयोः चत्वारिंशद्धनुर्वृद्धया प्रतिपार्श्व धनुर्विंशति वृद्धयेत्यर्थः, निकलती हुई यह महानदी हरिवर्ष क्षेत्र में बहती बहती, विकटापाती वृत्तवैताढययर्वत को १ योजन दूर पर छोडकर वहां से पश्चिम की ओर मुडती, हरिवर्ष क्षेत्र को दो विभागों में विभक्त करके ५६ हजार नदियों के परिवार के साथ, जम्बूद्वीप की जगती को नीचे से ध्वस्त करके पश्चिमदिगवतीलवणसमुद्र में जा मिली है। (हरिकंता णं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाई.विक्खंभेगं, आद्धजोयणं उव्वेहेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धाहज्जाइं जोयणसयाइं विक्कंभेणं पंच जोयणाई उव्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउम परवेझ्याहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खिता) हरिकान्ता महानदी प्रवह में-द्रह निर्गम में-विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की उद्वेध (गहराई) की अपेक्षा अर्ध पोजन की-दो कोश की है इसके बाद वह क्रमशः प्रति पार्श्व में२०-२० धनुष की वृद्धि से बढती २ समुद्र प्रवेशस्थान में २५० सौ योजन प्रमाण विष्कम्भ. मणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समंग्गा अहे जगई दलइत्तो पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं સમવેરૂ તે હરિકાન્ત પ્રપતિ કુંડના ઉત્તર દિશ્વતી તેરણ દ્વારથી યાવત્ નીકળતી એ મહાનદી હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં પ્રવાહિત થતી વિકટાપાતી વૃત્તિ વૈતાઢય પર્વતને એક જન દૂર છેડીને ત્યાંથી પશ્ચિમ તરફ વળીને હરિવર્ષ ક્ષેત્રને બે વિભાગમાં વિભક્ત કરીને પદ હજાર નદીઓના પરિવાર સાથે જંબુદ્વીપની જગતીને દીવાલને નીચેથી ધ્વસ્ત કરીને पश्चिम १ १ समुद्रमा प्रविष्ट थाय छे. 'हरिकंताणं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाई विक्ख भेगं अद्धजोयणं उब्वेहेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २ मुहमूले अद्धाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं पंचजोयणाई उव्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइ. याहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' ति महा नही निगममा विमानी અપેક્ષાએ ૨૫ જન જેટલી ઊંડાઈ (ઉàધ)ની અપેક્ષાએ અર્ધા યેાજન જેટલી એટલે કે બે ગાઉ છે. ત્યાર બાદ તે કમશઃ પ્રતિપાશ્વમા ૨૦, ૨૦, ધનુષ જેટલી અભિવતિ થતી Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १३ हैमयत्यपधरपर्वतवतिकूटनिरूपणम् ११७ परिवर्द्धमाना २ मुखमूले समुद्रप्रवेशे अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण विस्तारेण पञ्चयोजनानि उद्वेधेन भूगतत्वेन, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवर वेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता-परिवेष्टिता ॥सू०१२॥ अथ हिमवद्वर्षधरपर्वतवर्ति कूटवक्तव्यमाह-'महाहिमवंते थे' इत्यादि । मूलभू-महाहिमवंते गं भंते ! वासहरपळवए कइकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे ? महाहिमवंतकूडे २ हेमवयकूडे३ रोहियकूडे ४ हिरिकूडे५ हरिकंतकूडे६ हरिवासकूडे७ वेरुलियकूडे ८, एवं चुल्लहिमवंतकूडाणं जा चेव वत्तवया सा चेव णेयव्वा। से के गट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाहिमवंते वासहरपव्वए२?, गोयमा! महाहिमवंतेणं वातहरपव्वए चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुञ्चतुम्वेहविक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमट्ठिइए परिवसइ ॥सू० १३॥ छाया-महाहिमवति खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अष्टकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूटं १ महाहिमवत्कूटं २ हैमवत्कूटं ३ रोहिताकूटं ४ हीकूटं ५ हरिकान्याकूटं. ६ हरिवर्षकूटं ७ वैडूर्यकूटम् ८, एवं क्षुद्रहितवत्कूटानां येव वक्तव्यता सैव नेतव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-महाहिमवान् वर्षधरपर्वतः २ ? गौतम ! महाहिमवान् खलु - वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तवर्षधरपर्वतं प्रणिधाय आयामोच्चत्वोद्वेध. विष्कम्भपरिक्षेपेण महत्तरक एव दीर्घतरक एव महाहिमवांश्चात्र देवो महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति ॥५०१३॥ टीका-'महाहिमवंते णं' इत्यादि 'महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपब्धए कइ कूडा पन्नत्ता? गोयमा ! अट्ठकूडा पन्नत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ महाहिमवंतकूडे २ हेमवयकूडे ३ रोहियकूडे ४ हिरिकूडे ५ हरिकंतकूडे ६ हरिवासकूडे ७ वेरुलियकूडे ८ अष्टकूटानि सिद्धायतनकूटम्-सिद्धानामायतनं गृहं तद्रूपं कूटम् १, महाहिमवत्कूटं-महाहिमवान् नाम चाली और ५ योजन प्रमाण उद्वेधवाली हो जाती है। इसके दोनों पार्श्व भागों में दो पद्मवर वेदिकाएं और दो वनपण्ड है। उनसे यह संक्षिप्त है ।।सू०१२॥ સમુદ્ર પ્રવેશ સથાનમાં ૨૫૦ અદ્ધ જન માણ વિષ્ઠભવાળી અને પ જન પ્રમાણ ઉધવાળી થઈ જાય છે. એના બને પર્વ ભાગમાં બે પાવર વેદિકાઓ અને બે વનખંડે છે. તેમનાથી એ સંપરિક્ષિત છે. સૂ ૧૨ છે Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अधिष्ठातृविशेषस्तस्य कूटम् निवासभूतं गिरिशृङ्गम् २, हैमवत कूटं - हैमवतोऽपि अधिष्ठातातस्य कूटम् ३, रोहिता कूटं - रोहितामहानदी देवीकूटम् ४, हीकूट - ही:- देवीविशेषः, तस्या कूटम्५, हरिकान्ताक्रूटं - हरिकान्तानदी - देवीकूटम् ६. हरिवर्षकूटं - इरिवर्ष :- हरिवर्षपतिस्तस्य कूटम् ७, वैडूर्यकूटं - वै तदाख्यरत्नविशेषस्तस्य कूट - वैरत्नमयकूटम्, यद्वा- - वैडूर्यः अधिष्ठातृविशेषस्तस्य कूटम्८, इत्यष्टकूटानामर्थः । ' एवं चुल्लहिमवंतकूडाणं जाचेव वत्तत्व्वया महाहिमवंते णं भंते । वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता ' टीकार्थ- इस सूत्र द्वारा गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है - (महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! महाहिमवान् पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं - उत्तर में प्रभु कहते हैं - ( गोयमा ! अडकूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! महाहिमवान् पर्वत पर आठ कूट कहें गये हैं । (तं जहा उनके नाम इस प्रकार से हैं (सिद्धाययणकूडे), महाहिमवंतकूडे, हेमवयकूडे, रोहियकूडे, हिरिकूडे हरिकंतकडे, हरिवासकूडे, वेरुलियकूडे ) सिद्धायतनकूट महाहिमवत्कूट, हैमवत्कूट, रोहितकूट, हीकूट, हरिकान्तकूट, हरिवर्षकूट, एवं बैडूर्यकूट । " सिद्धों का आयतन - गृह रूप जो कूट है वह सिद्धायतन कूट है महाहिमवान् नाम के अधिष्ठायक देव का जो कूट है वह महाहिमवत्कूट है । रोहितामहानदी देवी का जो कूट है वह रोहितकूट है । ही देवी विशेष का जो कूट है यह ह्रीकूट है । हरिकान्त नदी देवी का जो कूट है वह हरिकान्तकूट है । हरिवर्षपतिके कूट का नाम हरिवर्षकूट है । वैडूर्यरत्नमय अथवा वैडूर्यनामक अधिष्ठायक देवविशेष का जो कूट है वह वैडूर्यकूट है । 'महाहिमवंते णं भंते! वासहरपव्वए कइ कूडा - पण्णत्ता, इत्यादि' टीडार्थ-या सूत्र वडे गोतमे प्रभुने सेवा प्रश्न अर्थी छे- 'महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' हे महत ! भहाडि भवान् पर्वत उपर डेंटला ईटो आवेसा छे. उत्तरभां अलु डे छे - 'गोयमा ! अट्ठ कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! भहाडिभवान् पर्वत उधर माह छूट। छे. 'तं जहा' तेभना नाम या प्रमाणे छे- 'सिद्धाययणकूडे, महाहिमधत कूडे, हेमवय कूडे, रोहिय कूडे, हिरिकूडे, हरिकंतकूडे, हरिवासकडे, वेरुटियकूडे' सिद्धायतन छूट, भहाडिभवत् टूट, डैभवत्हूट, रोहित छूट, ही छूट, हरिभन्त छूट, हरि વર્ષી ફૂટ તેમજ વસૂ` ફૂટ. (૧) (૧) સિદ્ધોનુ આયતન-ગૃહ રૂપ જે ફૂટ છે, તે સિદ્ધાયતન ફૂટ છે. મહાદ્ગિમવાન્ નામક અધિષ્ઠાયક દેવ સંબંધી જે ફૂટ છે તે મહાહિમવત્ ફૂટ છે. રાહિતા મહાનદીને જે ફૂટ છે તે રાહિત ફૂટ છે. હી દેવી વિશેષના જે ફૂટ છે—તે હી કૂટ છે હરિકાન્તા ની દેવીના જે ફૂટ છે તે હરિકાન્ત ફૂટ છે. હરિવ`પતિના ફૂટનું નામ વિ ફૂટ છે વ રત્નમય અથવા વૈસૂર્યનામક અધિષ્ઠાયક દેવ વિશેષના જે ફૂટ છે તે વૈ ફૂટ છે, Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १३ हैमवत्वर्षधरपर्वतवतिफूटनिकरणम् ११९ सा चेव णेयव्या' एवं प्रदर्शितरीत्या क्षुद्राहिमवत्कूटानां यैव वक्तव्यता तदधिकारेऽस्ति सैव वक्तव्यता एपामपि महाहिमवत्कूटानां नेतन्या-वक्तव्या जेयेत्यर्थः, तथाहि कटानामुच्चत्वादि सिद्धायतनप्रासादानां मानादि तदधिष्ठातृदेवानां च महद्धिकत्वादि यत्र राजधान्यो येन रूपेगैतत्सर्वमुपवणितं तत्सर्वमत्रापि वर्णनीयं पर्यवसितम् केरलं नामभेदस्तद्देवानां तद्राजधानीनां चात्र बोध्यः। अधुना महाहिमवतो नामार्थ प्रदर्शयितुमाह- ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाहिमवंते वासहरपबए ?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेमहाहिमवान् वर्षधरपर्वतः २?, 'गोयमा ! महाहिमवंते णं वासहरपाए चुल्लहिमवंतं वासहरपन्धयं पणिहाय आयामुच्चत्तु वेहविक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव' नवरम्-हे गौतम ! महाहिमवान् खलु वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधर इस क्षद्राहिमवत् पर्वत संबंधी कूटों के विषय में जो वक्तव्यता पीछे कही जा चुकी है वही वक्तव्यता इन कूटों के भी संबंध में समझनी चाहिए यही बात (एवं क्षुल्लहिमवंतकूडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव णेयव्वा) इस सूत्रपाठ द्वारा सूत्रकार ने कही है । इस तरह के कथन से कूटों की उच्चता आदि का सिद्धायतन प्रासादों के प्रमाण आदिका देवों में महर्दिकत्व आदिका तथा जहां पर जिन देवों की राजधानियाँ जिस रूप से कहो गइ है वह सब कथन यहां पर भी कर लेना चाहिए केवल देवों के नामों में और उनकी राजधानियों के नामों में भेद है ( से केणटेणं भंते ! एवं वुच्च: महाहिमवंते वालहरपव्वए २९) हे भदन्त ! आपने इस वर्षघर पर्वत का नाम " महाहिमवान् ऐसा किस कारण से कहा है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है (गोयमा ! महाहिमवंते णं वासहरपव्वए चुल्लहिमवंतं वासहरपव्ययं पणिहाय आयामुच्चत्व विक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते य इत्थदेवे महिद्धिएजाव पलिओचमट्टिइए परिवसइ) हे गौतम ! इस वर्षधर पर्वत का जो महाहि - એ શુદ્ર હિમવત્ પર્વત સંબંધી કૂટોના વિષે જે વક્તવ્યતા પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે, તેજ વક્તવ્યતા એ કોના સંબંધમાં પણ જાણી લેવી જોઈએ. એજ વાત “ga चुल्लहिमवंतकूडाणं जा चेव वत्तव्यया सच्चेव णेयव्वा' से सूत्रा 43 सूत्र॥२ ४४ी છે. આ પ્રકારના કથનથી કૂટની ઉચ્ચતા વગેરે સંબંધી, સિદ્ધાયતન પ્રાસાદના પ્રમાણ વગેરે વિષે, દેવોમાં મહદ્ધિકત્વ વગેરેના સંબંધમાં તેમજ જ્યાં જે દેવેની રાજધાનીઓ જે રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે તે સંબંધમાં બધું કથન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. ફકત देवाना नाममा मन तमनी २४धानीनानाभाभी तसवत छे. 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ महाहिमवते वासहरपव्वए २१ 3 महन्त ! मा५ श्री से ये वधर यवतनु नाम 'महाहिमवान्' से श॥ ४॥२९शी छ ? सेना नाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! महाहिमव तेणं वासहरपत्रए चुल्लहिमवते वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्त विक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेय, महााहमवते य इत्थ देवे महिद्धिए जाव पलिओवमदिइए Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पर्वतं प्रणिधाय प्रतीत्य अपेक्ष्येत्यर्थः आयामोचत्वोद्वेवविष्कम्भपरिक्षेपेण अत्रायामादीनां समाहारद्वन्द्वस्तेनैकवद्भावः तत्र क्षुद्र हिनवदुच्चत्वापेक्षया प्रस्तुतो गिरिः महत्तरक एव अतिमहानेव आयामापेक्षया दीर्घतरक एव अतिदीर्घ एव, एवमुद्वेधाद्यपेक्षयाऽपि क्षुद्र हिमवतोऽयं गिरि महोद्वेषयुक्तः महाविष्कम्भयुक्तः महापरिक्षेत्रको भावनीयः । इत्येवं महाहिमवतो नाम्नो हेतुमुक्त्वा हेत्वन्तरमाह - 'महाहिमवतेय इत्थ देवे महिद्धीए जाव परियवमट्ठिए परिवस' महाहिमवांश्चात्र देवः परिवसतीत्यग्रिमेणान्वयः स कीदृश: ? इत्याह-महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः - महर्द्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इत्यन्तपद सङ्ग्रहः साथSष्टमसूत्रस्थ विजयदेवाधिकाराद् बोध्यः || सू० १३ ॥ अथ हरिवर्षनामक वर्षवक्तव्यमाह - 'कहिणं भंते' इत्यादि । (C मूलम् - कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वा पणते ? गोयमा । णिसहस्स वासहरपव्त्रयस्स दक्खिणेणं महाहिमवंतवासहरमवान् ऐसा नाम कहा गया है उसका कारण क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वतकी अपेक्षा इसका आयाम इसका उच्चत्व, इसका विष्कम्भ और इसका परिक्षेप यह सब अत्यधिक है, दीर्घतर है, 'अर्थात् क्षुद्रहिमवान् पर्वतकी उच्चता की अपेक्षा यह गिरि महत्तरक है अतिमहार है और आयामकी अपेक्षा दीर्घतरक है इसी तरह उद्वेध आदि की अपेक्षा यह गिरि क्षुद्रहिमवान् के उद्वेधादिकी अपेक्षा महाउद्वेधवाला है महाविष्कंभवाला है और महापरिक्षेपवाला है । अथवा हे गौतम! इस वर्षधर का जो ऐसा नाम हुआ है उसना कारण यह भी है कि इसमे महाहिमवान् नामका एक देव रहता है यह देव महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला है यावत् इसकी एक पल्पोषम की आयु है । यहाँ यावत्पद से संग्राह्य पाठ को अष्टमसूत्रस्थ विजय देवाधिकार से जान लेना चाहिए || १३ || परिवसइ' हे गौतम! मे वर्षधर पर्वतं ? महाहिमवान् खेवु नाम लेवामां आवेल છે તેનું કારણ ક્ષુદ્રાહમવાન્ ધર પર્વતની અપેક્ષાએ એના આયામ એની ઊંચાઇ એના વિષ્ણુભ અને એના પરિક્ષેપ એ બધું મહાન્ છે, અધિક છે, દીર્ઘતર છે.’ એટલે કે ક્ષુદ્રહિમવાન્ પવતની ઉચ્ચતાની અપેક્ષાએ એ ગિરિ મહત્તરક છે. અતિ મહાન છે અને આયામની અપેક્ષાએ દીતરક છે. આ પ્રમાણે ઉદ્વેધની અપેક્ષાએ એ ગિરિ ક્ષુદ્રહિંમવાના ઉદ્દેધાદિની અપેક્ષાએ મહા ઉદ્વેધવાળા છે મહાવિભવાળે છે અને મહા પરિક્ષેપવાળે છે. અથવા હું ગૌતમ! એ વધરનું જે એવું નાપ પ્રસિદ્ધ થયુ છે તેનું કારણ આ પણ છે કે એમાં મહિમાન્ નામે એક ધ્રુવ રહે છે. આ દેવ મિ વગેરે વિશેષણાવાળા છે યાવત્ એનું એક પલ્ટેપમ પદ્મથી સંગ્રાહ્ય પાને અષ્ટમ સુન્નસ્થ વિજય દેવાધિકારથી જાણી લેવા જોઇએ. ॥ સૂ. ૧૩ ॥ જેટલુ આયુ છે. અહીં યાવત્ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् पव्वयस्त उत्तरेणं पुरस्थिलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्त पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते, एवं जाय पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुरे, अट्ठ जोयणसहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइ भागं जोयणस्त विकलंभेणं, तस्स बाहा पुरथिमञ्चत्थिमेणं तेरस जोयणसहस्साइं तिण्णि य एगसट्टे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणंति, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीजयया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुट्टा तेवत्तरि जोयणसहस्साइं णव य एगुत्तरे जोयसए सत्तरस य एगणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं, तस्सधणुं दाहिणेणं चउरासीइं जोयणसहस्साइं सोलस जोयणाई चत्तारि एणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं! हरिवासस्स णं भंते! वासस्सकेरिसए आगरभावपडोपारे पप्णत्ते१, गोयमा! बहुसारमाणिज्जेभूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहिं तणेहि य उवसोभिए एवं मणीणं तणाण य वण्णो गंधो फासो सदो भाणियव्वो, हरिवासे णं तत्थर देसे तहिर बहवे खुड्डाखुड्डियाओ एवं जो सुसमाए अणुभाओ सो चेव अपरिसेसो वत्तवोत्ति ! कहि णं भंते ! हरिवासे वासे वियडावई णामं वटवेयद्धपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा! हरीए महाणईए पञ्चस्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरथिमेणं हरिवासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वियडावई णाम वट्टवेयद्धपत्रए पण्णत्ते, एवं जो चेव सदावइस्स विक्खंभुच्चत्तुव्वेह परिक्खेवसंठाणवण्णावासो य सो चेव वियडावइस्स वि भाणियव्वो, णवरं अरुणो देवो पउमाइं जाव वियडावइवण्णाभाई अरुणे य इत्थ देवे महिद्वीए एवं जाव दाहिणेणं रायहाणी णेयव्वा, से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ. हरिवासे हरिवासे?, गोयमा! हरिवासे णं मणुआ अरुणा अरुणो भासा सेया पं. संखदलसपिणकासा हरिवासे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव ज. १६ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पलिओ महिइए परिवसइ, से तेणçणं गोयमा ! एवं बुच्चइ ॥ सू० १४॥ छाया -क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्ष नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! निषधस्य वर्ष दक्षिणेन महाहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्ष नाम वर्षे प्रज्ञप्तम एवं यावत् पाश्चात्यया कोटचा पाश्वात्यं लाणसमुद्रं स्पष्टम् अष्ट योजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन त्रयोदशयोजन सहस्राणि त्रीणि च एकषष्टानि योजनशतानि षटे व एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धमागं च आयामेनेति, तस्य जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रतीचीनाssयता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं यावत् लवणसमुद्रं त्रिशतानि योजन सहस्राणि नव च एकोत्तराणि योजनशतानि सप्तदश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन, तस्य धनुः दक्षिणेन चतुरशीतानि योजनसहस्राणि षोडश योजनानि चतुर एकोनविंशतिभागान योजनस्य परिक्षेपेण । हरिवर्षस्य खलु भदन्त ! वर्षस्य कीदृशः आकारभावप्रत्यवहारः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमि भागः प्रज्ञप्तः यावद् मणिभिस्तृणैवोपशोभितः, एवं मणीनां तृणानां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दो भणितव्यः, हरिवर्षे खलु तत्र २ देशे तत्र २ बहवः क्षुद्राक्षुद्रिका एवं च य एव सुषमाया अनुभावः स एव अपरिशेषो वक्तव्य इति । क्व खलु भदन्त ! हरिवर्षे वर्षे विकापाती नाम वृत्तवैताढ्यपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! हरिता महानद्याः पश्चिमेन हरिकान्ताया महानद्याः पौरस्त्येन हरिवर्षस्य वर्षस्य वहुमध्यदेश मागः अत्र खलु विकटापाती नाम वृत्तवैताढ्य पर्वतः प्रज्ञप्तः, एवं य एव शब्दापातिनो विष्कम्भोच्चत्वोद्वेष परिक्षेप संस्थानवर्णावासश्च स एव विकटापा तिनोऽपि भणितव्यः, नवरम् अरुणो देवः पद्मानि यावत विकटापाति वर्णाभानि अरुणोऽत्र देवो महर्द्धिक एवं यावत दक्षिणेन राजधानी नेतव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते हरिवर्ष वर्षम् ?, गौतम ! हरिवर्षे खलु वर्षे मनुजा अरुणा अरुणावभासाः श्वेताश्च शङ्खदलसन्निकाशाः, हरिवर्षश्चात्र देवो महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति ॥ सू० १४ ॥ टीका- 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पत्ते' क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्ष नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् 2, 'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं हरिवर्षनामक क्षेत्रकी वक्तव्यता कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' टीकार्थ- गौतमस्वामीने प्रभु से इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है - ( कहि णं भंते ! હરિવષ નામક ક્ષેત્રની વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' इत्यादि टीडार्थ- गौतमे अलुने या सूत्र वडे व अश्न यछे ! 'कहि णं भंते जम्बुद्दीवे Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् १३३ महाहिमवंतवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरत्थिमलवणसादस्य पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णाम वासे पण्णत्ते' गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन महाहिमवर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु. जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्ष नाम वर्षे प्रज्ञप्तम् ‘एवं जाव पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुदं पुढे' एवं यावत् पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टम् 'अजोयणसहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणं' हरिवर्षवर्षस्य मानमाह-अष्टौ योजनसहस्राणि चत्वारिचएकविंशानि एकविंशत्यधिकानि एकं च एकोनविंशतिभागान्-एकोनविंशतितमभागान् अत्र प्राकृतत्वात्तमब्लोपः, योजनस्य विष्कम्भेण विस्तारेण, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भकत्वादिति । अथास्य वाहा जीवा धनुष्पृष्ठान्याह-'तस्स बाहा' इत्यादि-'तस्स बाहा पुरथिम जम्बूद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप मे हरिवर्ष नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णिसहस्त घासहरपव्वयस्स दक्षिणेणं महाहिमवंतवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एस्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशामें एवं महाहिमवान् पर्वत की उत्तर दिशा में तथा पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिरवर्ती लवणसमुद्र की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप नामके द्वीप के भीतर हरिवर्ष नामका क्षेत्र कहा गया है (एवं जाव पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, अट्ठ जोयण सहस्साइं चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगंच एगूणवीसइ भागं जोय. णस्स विक्खंभेणं) इस तरह यावत् यह क्षेत्र पश्चिमदिग्वर्ती कोटी के द्वारा पश्चिमदिगवर्ती लवण समुद्र को छूता है इसका विष्कम्भ ८४२१. योजन का दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' हे महन्त ! मे दीप नाम बीपभा हरि१५ नाम क्षेत्र ४या स्थणे मावत छ ? सेना ४ाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं महाहिमवंतवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिनलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते' ॐ गौतम ! निवषय२ ५'तनी दक्षिण दिशामा तभ०४ महिमवान् ५ तनी ઉત્તર દિશામાં તેમજ પૂર્વદિશ્વર્તી લવણુ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તથા પશ્ચિમદિગ્વતી લવણસમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપની અંદર હરિવર્ષ નામક ક્ષેત્ર આવેલ છે. 'एवं जाव पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुदं पुढे, अट्ठजोयण सहस्साई चत्ता. रय एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोवणस्स विक्खंभेणं' या प्रमाणे यावत् ॥ ક્ષેત્ર પશ્ચિમ દિવતી કેટીથી પશ્ચિમદિશા સંબંધી લવણસમુદ્રને સ્પર્શે છે. આને વિકંભ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पच्चत्थिमेणं तेरस जोयणसहस्साई तिण्णि य एगसटे जोयणसए' तस्य हरिवर्षवर्पस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन पूर्वपश्चिमयोः त्रयोदश योजनसहस्राणि त्रीणि च एकषष्टानि एकषष्टयधिकानि योजनशतानि 'छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स' षट् च एकोनविंशतिभागान् योज. नस्य 'अद्धभागं च आयामेणंति' अर्द्धभाग च आयामेन-देयेण, इति । 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण पडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए' तस्य जीवा उत्तरेण उत्तरदिग्भागे प्राचीनप्रतीचीनायता पूर्वपश्चिमदिशोर्दीर्घा, द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा पौरस्त्ययापूर्वदिग्भवया कोटया-कोणेन 'पुरथिमिल्लं जाव' पौरस्त्यं यावत् लवणसमुद्रं स्पृष्टा, यावत्पदेन पाश्चात्यया कोट्या पश्चिममिति सङ्ग्राह्यम् लवणसमुद्रं स्पृष्टा, तेवत्तरि-जोयणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोयणसए' त्रिसप्ततानि त्रिसप्तत्यधिकानि योजनसहस्राणि नव च एकोत्तराणि एकाधिकानि योजनशतानि 'सत्तरस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं' सप्तदश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन, 'तस्स धj है (तस्त वाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं तेरसजोयणसहस्साई तिण्णि य एगसढे जोयणसए छच्च एगूणवीसहभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं ति) इसकी वाहा पूर्व पश्चिम में आयामकी अपेक्षा १३३६१ योजन की है और एक योजन के १९ भागों में ६ भाग प्रमाण और अर्धभाग प्रमाण है । (तस्स जीवा उत्तरेणं पाडीणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडोए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुट्ठा तेवत्तरि जोयणसहस्साई णव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरसय एगूगवीसइ भाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं) उसकी जीवा उत्तर दिशामें पूर्व से पश्चिमतक लम्बी है यह पूर्व दिशा संबंधी कोटी से पूर्वदिसंबंधी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है और पश्चिमदिशा संबंधी कोटि से पश्चिमदिरवर्ती लवण समुद्र को स्पर्श करती है यह जीवा आयाम की अपेक्षा ७३९०१५ योजन और अर्द्ध भाग प्रमाण है (तस्स धणु दाहिणेणं चउरासीई ८४२११ या रेटा छ. 'तस्स वाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं तेरस जोयणसहस्साइं तिण्णिय एगसट्टे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं ति' सनी वाह। પૂર્વ પશ્ચિમમાં આયામની અપેક્ષાએ ૧૩૩૬૧ જન જેટલી છે. અને એક જનના १८ मागोमा ६ मा प्रसार सन 24 मा प्रभार छे. 'तस्स जीवा उत्तरेणं पाडीण पडीण यया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव लवणसमुदं पुढा तेवत्तरि जोयणस इस्साई णवय एगुत्तरे जोयणसए सत्तरसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आचामेण' सनी । उत्तरदिशामा पूर्वथी पश्चिम सुधी सामी छे. से પૂર્વ દિશા સંબંધી કોટીથી પૂર્વદિફ સંબંધી લવણ સમુદ્રને સ્પર્શે છે અને પશ્ચિમી શા સંબંધી કેટથી પશ્ચિમ દિવતી લવણ સમુદ્રને સ્પર્શ કરે છે. એ જીવા આયામની अपेक्षा ७३८०१ ६१ यान मन सभा प्रभार छे. 'तस्स धणु दाहिणेणं चउरासीई Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् दाहिणेणं चउरासीई जोयणसहस्साई सोलस जयणाई चत्तारि एगृणवीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं तस्य धनुः दक्षिणेन चतुरशीतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनसहस्राणि षोडशयोजनानि चतुर एकोनविंशति भागान् योजनस्य परिक्षेपेण। अथ हरिवर्षस्य स्वरूपं पिच्छिपुराह-'हरिबासस्स णं भंते' इत्यादि, हे भदन्त ! हरिवर्षस्य खलु वर्षस्य 'केरिसए आगारभावपडोयारे' कीदृशक:-कीदृशः आकारमाक्प्रत्यत्रतारः तत्राऽऽकारः-स्वरूपं, भावा:-पृथिवीवर्षधरप्रभृत्यस्तदन्तर्गताः पदार्थाः तद्युक्तः प्रत्यवतारः-प्रकटीभावः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ! वहुसमरमणिज्जे' हे गौतम ! बहुसमरमणीयः बहुसमः अत्यन्तसमो अत एव रमणीयः-सुन्दरः 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः इत्याह-'जाव मणीहि तणेहिं य उवसोभिए' यावत् मणिभिः अत्र यावत्पदेन नानाविध पञ्चवर्णैरिति संग्राह्यम्-एतादृशैः मणिभिः वैडूर्यस्फटिकादिभिरूपशोभित इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, जोयणसहस्साई सोलस जोयणाइं चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेगं) इसका धनु:पृष्ठ परिक्षेप की अपेक्षा दक्षिण दिशा में ८४०१६ योजन का है (हरिवासस्स गं भंते ! वासस्स केरिसए आयार भावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! हरिवर्ष क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार-स्वरूप-कैसा कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उवसोभिए एवं मणोणं तंगीण य वण्णो गंधो फासो सद्दो भाणियव्वो) हे गौतम ! हरिवर्ष क्षेत्रका भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् वह मणियों से और तृणों से उपशोभित है इसी प्रकार से मणियों के एवं तृणों के वर्ण, गंध, स्पर्श और शब्द का यहां पर वर्णन करलेना चाहिये यहां पर 'जाव मणीहिं' के साथ आगत यावत्पद से 'नानाविध पंचवर्णः' इस विशेषणरूप पद का ग्रहण हुआ है वर्ण गंधादि कों का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के १५ वे सूत्र से लेकर १९ वें सूत्र तक जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' सेना धनुY७ परिक्षपनी अपेक्षाये हक्षिण दिशामा ८४०१६ १ योनी छे. 'हरिवासरस णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' वे गौतमे प्रसुन मा જાતને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત! હરિવર્ષ ક્ષેત્રને આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર એ લે કે સ્વરૂપ पामा वि छ. मेना वासभा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उव सोभिए एवं मणीणं तणाणय वण्णो गंघो फासो सद्दो भाणियो' हे गौतम ! (२५५ क्षेत्रने लू मला पसभरमणीय ४उवामां आवे छे. થાવત્ તે મણિઓથી અને તૃણોથી ઉપ સિત છે. આ પ્રમાણે જ મણિઓના તેમજ तृणु न , मध, १५श मने शनु २५ वर्णन ४२] सेयु से. मी 'जाव मणिहिं' नी सा2 मावेत यावत् ५४थी 'नानाविधपंचवर्णैः' से विशेष ३५ ५४नु सय थयु Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पुनः तृणैश्चोपशोभितः, 'एवं मणीणं तणाण य वण्णो गंधो फासो सदो भाणियन्दो' एवम् अनेन प्रकारेण मणीनां तृणानां च वर्ण:-कृष्णादिः गन्धः स्वशः शब्दश्च भणितव्यः वक्तव्यः एतद्वर्णनं राजनीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रादारभ्यैकोनविंशतितमसूत्रपर्यन्तसूत्रेषु स्थितमिति जिज्ञासुभिस्ततो ग्राह्यम् । अथात्र विद्यमानजलाशयस्वरूपं प्रदर्शयितुमाह-'हरिवासे णं' इत्यादि, हरिवर्षे खलु 'तत्थ २ देसे तर्हि २ वहवे खुड्डा खुड्डियाओ' तत्र तत्र हरिवर्षवर्षवर्ति तस्मिंस्तस्निन् देशे तत्र तत्र तदवान्तर प्रदेशे बहवः-अनेका क्षुद्राक्षुद्रिकाः वापिकाः पुष्करिण्यः दीपिकाः गुञ्जालिकाः सरः पङ्क्तिकाः सरः सरःपक्तिकाः विलपङ्क्तिकाः, आसां वर्णनं विशेषजिज्ञासुभिः राजप्रश्नीयसूत्रस्य चतुष्पष्टितमसूत्रस्य मत्कृता सुबोधिनी टीका विलो. कनीया । अत्र काल निर्णयार्थमाह-'एवं जो सुसमाए' इत्यादि, एवम् उक्त प्रकारेण वर्ण्यमाने तस्मिन् क्षेत्रे यः सुषमायाः सुषमाख्यावसर्पिणी द्वितीयारकस्य 'अणुभावो सो चेव अपरिसेसौ वत्तव्वोत्ति' अनुभावः प्रभावः, स एव अपरिशेपः निःशेषः वक्तव्यः इति, अथास्य क्षेत्रस्य विभाजकपर्वतमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! हरिवासे वासे विय. की व्याख्या में किया गया है अतः वहां से इस कथन को समझलेना चाहिये (हरिवासे णं तत्थ २ देसे, तहिं २ बहवे खुड्डा खुइडियाओ, एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तव्वोत्ति) हरिवर्ष क्षेत्र में जगह जगह अनेक छोटी बडी वापिकाएं हैं पुष्करिणियां हैं दीपिकाएं हैं, गुञ्जालिकाएं हैं, सर है सरपक्तियां है इत्यादिरूप से जैसा इनका वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र के ६४ वें सूत्र में किया गया है वैसा ही वर्णन यहां पर भी जानलेना चाहिये इस क्षेत्र में अवसर्पिणि का जो द्वितीय आरक सुषमानामका है उसका ही प्रभाव रहता है अतः उसका ही यहाँ पर सम्पूर्ण रूप से वर्णन करलेना चाहिये (कहि णं भंते ! हरिवासे वियडावईणामं वटवेयपव्वए पण्णत्ते) हे भदन्त ! हरिवर्षक्षेत्र में विकटापति नामका वृत्तवैताढय पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में છે. વર્ણ-ગંધાદિનું વર્ણન “રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર ના ૧૫માં સૂત્રથી ૧માં સૂત્ર સુધીની વ્યાખ્યામાં કરવામાં આવેલ છે. એથી આ કથન વિશે ત્યાંથી જ જાણી લેવું જોઈએ. 'हरिवासेणं तत्थ २ देसे, तहिं २ बहवे खुड्डाखुड्डियाओ, एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो वत्तव्योत्ति' रिवष क्षेत्रमा स्थान-स्थान ५२ घरी नानी-मोटी पापिया છે, પુષ્કરિણીઓ છે, દીઘિકાઓ છે, શું જાલિકાઓ છે, સરે છે અને સરપંક્તિઓ છે ઈત્યાદિ રૂપમાં એમનું જે પ્રમાણે વર્ણન “રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૬૪માં કરવામાં આવેલ છે તેવું જ વર્ણન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. એ ક્ષેત્રમાં જે અવસર્પિણી નામક દ્વિતીય અરક સુષમા નામક છે, તેને જ પ્રભાવ રહે છે. એથી અત્રે તેનું જ સંપૂર્ણ રૂપમાં पन सम नसे. 'कहि णं भंते ! हरिवासे वासे वियडावई णामं वट्टदेयड्ढपव्वए पण्णत्ते से मत! विवर्षमा १४ापति नाम से वृत्तवैतादय पतियां Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् १२७ डावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' क्व खलु भदन्त ! हरिवर्षे वर्षे विकटापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, 'गोयमा ! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरत्थिमेणं हरियासस २ बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वियडाई णामं वट्टवेयद्धपव्यए पण्णत्ते' उत्तरसूत्रे-हे गौतम ! हरितः हरिन्सलिलाया महानद्याः पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि हरिकान्ताया महानद्याः पौरस्त्येन हरिवर्षस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागोऽस्ति, अन अत्रान्तरे खलु विकटापाती विकटापातिनामा वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, अत्र निगमयल्लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह 'एवं जो चेव सदावइस्स विवखंभुच्चत्तुव्वेहपरिक्खेवसंठाणवण्णवाप्सो य सो चेव वियडावइस्स वि भाणियव्यो' एवम् उक्तप्रकारेण विकटापाति वृत्तवैत्ताढयपर्वतवर्णने क्रियमाणे य एव शब्दापातिन:-शब्दापातिवृत्तवैताढयपर्वतस्य विष्कम्भोच्चत्वोद्वेधपरिक्षेपसंस्थानवर्णावसः विष्कम्भादीनां वर्णनराद्धतिः, चकारात् तत्रत्य प्रासादतत्स्वामि राजधान्यादि सङ्ग्रहो बोध्यः, स एव विकटापातिनोऽपि भणितव्यः । 'णवरं अरुणो देवो पउमाइं जाव बियडावइ वण्णाभाई अरुणे य इत्थ देवे महिद्धीए एवं जाव दाहिणेणं रायहाणी णेयव्या' नवरं केवलं विक. प्रभु कहते हैं (गोयमा! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेण हरिकंताए महाणईए पुरस्थिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थणं वियडावई णामं वट्टवेयड पच्चए पण्णत्ते) हे गौतम ! हरितनाकी महानदी की पश्चिमदिशामें और हरिकान्तमहानदी की पूर्व दिशा में इस हरिवई क्षेत्र का वहुमध्यभाग है सो वहीं पर विस्टापाती वृतवैताढय पर्वत कहा गया है (एवं जो चेव सद्दावइस्स विक्वंभुच्चब्बेहपरिक्खेव संठाणवण्णावासो सो वेव वियडावइस्त वि भाणियव्यो) इस विकटापाती वृतवैताढयपर्वत का विष्कम्भ ऊंचाई उद्वेध परिक्षेप और संस्थान आदिका वर्णन तथा वहां के प्रासाद उसके स्वामि की राजधानी आदि का कथन शब्दापानी वृत्तवैताब्य पर्वत के ही विष्कम्भ आदि के वर्णन जैसा है 'णवरं अरुणो देवो पउमाई जाव दाहिणे रायहाणी णेयव्वा) परन्तु इस विकटापाती वृत्तताढय पर्वत के ऊपर अरुण नामका देव रहता है यही इसके वर्णन भास छ ? मेना वामम प्रभु ४९ छे. 'गोयमा! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरथिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थण वियडावई णामं वहवे. यड्ढपत्रए पण्णत्ते' गौतम! रित नाम महानहीनी पश्चिम दिशामा मने र. કાન્ત મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં એ હરિવર્ષ ક્ષેત્રના બહુ મધ્ય ભાગમાં છે. તે ત્યાં જ विटामाती वृत्तवैतादय ५त मावस छे. एवं जो चेव सदाबइस्स विक्खंभुच्चत्तुव्वेह परिक्खेवसंठाण वण्णावासो सो चेव वियडावइस्स वि भाणियव्वो' से विपाती वृत्त વૈતાઢય પર્વતના વિકૅભ ઉચ્ચતા, ઉદ્વેધ, પરિક્ષેપ અને સંસ્થાન વગેરેનું વર્ણન તેમજ ત્યાંના પ્રાદે તેના સ્વામીની રાજધાની વગેરેનું કથન શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વતના १४ १४ महिना पणुन २ थे. ‘णवरं अरुणो देवो पउमाई जाव दाहिणणं रायहाणी Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसूत्रे टापातिवृत्तवैताढयपर्वतोपरि अरुणः अरुणनामकः देवः प्रतिगमति इलि विशेषः तत्र खलु क्षुद्र क्षुद्रामु वापीषु पुष्करिणीषु दीर्घिकासु गुञालिकासु सर पक्तिकालु सरः सरः--पङ्क्तिकासु बिलयक्तिषु बहूनि उत्पलानि कमलानि यावत् यावत्पदेच-"कुशुदसुभग सौगन्धिकपुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्राणि फुल्लानि केसरोगचितानि विकटापातिभानी" इत्येषां समहोबोध्यः, एषां व्याख्या १० पृष्टे गता, विकटापातिवर्णाभानि विकटापातिनो यो वर्णस्तस्य आभा कान्तिरिवाऽऽभा येषां तानि तथा, पूर्व देवभेदप्रदर्शनासारुणस्य देवस्योपादानम् अधुना तस्य वर्णनाय तदधिष्ठातृदेव उच्यते-अरुणश्चात्र देवः अत्र अस्मिन् विकटापातिवृत्तवैताढयपर्वते अरुणः-तन्नामा देवः तदधिष्ठातृदेवः परिवसतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स कीदृशः इत्याह महद्धिकः, एतदुपलक्षणम् तेन 'महाद्युतिकः, महावलः, महायशाः महासौख्यः, महानुभावः पल्योपमस्थितिकः" इत्येषां सङ्ग्रहः, एषां व्याख्याऽष्टमसूत्रादयोध्या, एवम् अनेन प्रकारेण यावदक्षिणेन राजधानी मेरो दक्षिणस्यां दिशि राजधानी पर्यन्तवर्णनपद्धतिः में और उसके वर्णन में अन्तर है वहां पर छोटी बडी वापिकाएं, पुष्करिणियां दीर्घिका, गुंजालिका, आदि जलाशय हैं उनमें अनेक उत्पल, कमल, कुमुद, सुभग, सोगंधिक पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्त्रपत्र आदि सदा प्रफुल्लित रहते हैं और इन सबकी प्रभा विकटाराती के वर्ण जैसी ही है यही सब कथन यहां यावत्पद से गृहीत हुआ है यहां जो ‘ण परं अरुणोदेदो' ऐसा पहिले कहकर के भी जो पुनः 'अरुणे य इत्थदेवे' ऐता पाठ कहा है वह इसके वर्णन के निमित्त कहा है पहिले का पाठ शब्दापाती वृत्तवैताढय के और विकटापाती वृत्तवैताढय के वर्णन में अन्तर प्रदर्शित करने के लिए कहा गया है-यह अरुण नामक देव महद्धिकदेव हैं उपलक्षणसे यह महाधुनिक, महावलिष्ठ, महायशस्वी, महासुखसंपन्न और एक पल्योपम की स्थितिवाला हैं इसकी राजधानी मेरुकी दक्षिण णेयव्या' ५२ से विटापाती वृत्तवैतादय यवत'नी ५२ २१२ नामे हे छे. એજ એના વર્ણનમાં તેનાં કરતાં વૈશિર્યો છે. ત્યાં નાની-મોટી વાપિકાએ, પુષ્કરિણીઓ દીધિંકાઓ, ગુંજાલિકાઓ વગેરેના રૂપમાં જલાશ છે. તે સર્વમાં અનેક ઉત્પલે, કમળે, કુમુદે, સુભગે, સગંધિ કે, પુંડરીકે, શતપત્ર, સહસ્ત્રપ વગેરે સર્વદા પ્રફુલ્લિત રહે છે. અને એ સર્વની પ્રભા વિકટાપાતીના વર્ણ જેવી જ છે. એ બધું કથન યાવત્ पहथी गृहीत थयेस छे. महीने 'णवरं अरुणो देवो' मे पान ४शन पुन: 'अरुणे य इत्थ देवे' मेवो । ४डेवामां आवे छे, सेना नना निमित्त ४९વામાં આવેલ છે. પહેલાના પાઠ શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢયના અને વિકટાપાતી વૃત્તવૈતાઢયના વર્ણનમાં અન્તર પ્રદર્શિત કરવા માટે કહેવામાં આવેલ છે. એ અરુણ નામક દેવ મહાદ્ધિક દેવ છે. ઉપલક્ષણથી એ મહાઇતિક, મહાબલિષ્ઠ, મહાયશસ્વી, મહામુખસંપન્ન અને એક પલ્યોપમ જેટલી સ્થિતિવાળે છે, એની રાજધાની મેરુની દક્ષિણ દિશામાં છે. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् नेतव्या ज्ञानविषयता प्रापणीया ज्ञेयेत्यर्थः. अथ हरिवर्षनामार्थ पिपृच्छिषुराह-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि । 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ हरिवासे२?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हरिव हरिवर्षम् , भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'हरिवासे णं वासे मणुया अरुणा अरुणोभासा सेया णं संखदलसण्णिकासा हरिवासे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमहिईए परिक्सइ, से : तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चई" उत्तरसूत्रे हरिवर्षे खलु वर्षे मनुजाः-मनुष्याः अरुणाः-रक्तवर्णाः, अरुणं च किमपि चीनपिष्टादिकं वस्तु समीपवर्तिनि पदार्थेऽमास्वरतयाऽरुणप्रकाशं न तथेत्याह-अरुणावभासाः रक्तावभासनकारिणः केचिच्च श्वेताः शुक्लवर्णाः खलु ते कीदृश श्वेतवर्णाः ? इत्याह-शङ्खदल-सभिकाशाः शङ्खखण्डसदृशा इति तद्योगात्क्षेत्रमिदं हरिवर्षमुच्यते, अत्र हरिशब्दं सूर्यचन्द्रोभयपरः तथा यत् सूर्यवदरुणाः चन्द्रवच्छ्वेतास्तत्र मनुष्याः सन्तीति पर्यवसितम् , एवं तद्वत् अरुणावभासाः श्वेतावभासाः, हरय इव हरयो मनुष्याः, हरिशब्दस्य हरिसदृशे लक्षणयाऽभेदः, ततश्च हरिसदृश मनुष्ययुक्तस्वाक्षेत्रं हरय इति व्यवहियते, हरयश्च तद्वर्ष चेति हरिवर्षम् यदा च तादृशमनुष्ययोगाद् हरिशब्दः क्षेत्रार्थे वर्तते तदा क्षेत्राणां बहुत्व स्वभावाद् बहुवचनान्तः प्रयुज्यते 'यथा इरयो विदे. हाश्च पञ्चालादि तुल्या इति, यद्वा हरिवर्ष नामात्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि हरिवर्ष नाम वर्षमुच्यते ॥९० १४॥ दिशामें है (से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ हरिवासे हरिवासे) हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यह क्षेत्र हरिवर्ष है ? अर्थात् इस क्षेत्र का ऐसा नाम होने का क्या कारण है ? उत्तर में प्रभु कहते है-(गोयमा ! हरिघासे णं वासे मणुथा अरुणा, अरुणो भासा, सेया णं संखदलसणिकासा हरिवासेय इत्थ देवे महिदिए जाव पलिओवमठिइए परिवसइ) हे गौतम ! हरिवर्षक्षेत्र में कितनेक मनुष्य अरुणवर्ण वाले हैं और अरुण जैसा ही उनका प्रतिभास होता है, तथा-कितनेक मनुष्य शसके खण्ड के जैसे श्वेतवर्ण वाले हैं इस कारण इनके योग से इस क्षेत्र का नाम 'हरिवर्ष' ऐसा कहा गया है, यहां हरिशब्द सूर्य एवं चंद्र इन दोनों को सूचित करने वाला है, अतः कितनेक 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हरिवासे हरिवासे' 3 RE ! २५ मे प्रमाणे ॥ ४२४थी કહે છે કે આ ક્ષેત્ર હરિવર્ષ છે? એટલે કે આ ક્ષેત્રનું નામ હરિવર્ષ શા કારણથી રાખपामा मावस छ ? वाम प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! हरिवासेणं वासे मणुया, अरुणा अरुण्णोभ.सा, सेयाणं संखदलसण्णिकासा हरिवासेय इत्थ देवे महि द्धिए जाव पलिओवमठिइए परिवसई' 3 गौतम ! विष क्षेत्रमा ४ भायुसे ABY १ ॥ छ भने અરુણ જેવું જ તેમનું પ્રતિભાસન હોય છે, તેમજ કેટલાક માણસો શંખના ખંડ જેવા श्वेत वाणा छ मेथी मेमना योगथी या क्षेत्रनु नाम 'हरिवर्ष' मा ४३वामा આવેલ છે, અહીં “રિ’ શબ્દ સૂર્ય અને ચંદ્ર એ બંનેને સૂચિત કરે છે. એથી કેટલાક ज०१७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जम्बूद्वीपप्रज्ञहि.सूत्रे ___ अथानन्तरोक्तं क्षेत्रं निषधनामक वर्षधरपर्वतादक्षिणस्यां दिश्युक्तं तत्र निषधः क्यास्तीति पृच्छति-'कहि णं भंते ! 'जंबुद्दीवे' इत्यादि। मूलम्-कहि गं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपवए पण्णत्ते ?, गोयमा ! महाविदेहस्स बासस्स दक्षिणेगं हरिवासस्स उत्त रेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपवए पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए जाव पुढे पञ्चस्थिमिल्लाए जाव पुढे, चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाइं उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साइं अ य बायाले जोयणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं वीसं जोयणसहस्साइं एगं च पण्णटुं जोषणसयं दुपिण य एगूणवीसईभाए जोयणस्त अद्धभागं च आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं जाव चउणवइं जोयणसहस्साइं एगं च छप्पण्णं जोयणसयं दुण्णि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं ति, तस्स धणुं दाहिणेगं एगं जोयणसयसहस्सं चउवीसं च जोयणसहस्साई तिष्णि य छायाले जोयणसए णत्र य एगूणवीसइभाए जोयणस्त परिक्खेवेणं, रुयगसंठाणसंठिए सव्वतवणिजमए अच्छे, उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं य वगसंडेहिं जाव संपरिक्खित्ते, णिसहस्त णं वासहरपव्वयस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव आसयंति सयंति, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिछि दहे णामं दहे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं दो जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले, तस्स तिगिच्छिद्दहसूर्य के जैसे अरुण और कितनेक चन्द्र के जैसे श्वेत यहां मनुष्य है ऐसा भाव इस कथन का पुष्ट होता हैं । (से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ) अर्थ स्पष्ट है ॥१४॥ મનુષ્ય અહીં સૂર્ય જેવા અરુણ અને કેટલાક ચન્દ્ર જેવા શ્વેત મનુ અહીં વસે છે Aनत मार ॥ ४थनथी पुष्ट थाय छे. 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चई' અર્થ સ્પષ્ટ છે કે સૂ. ૧૪ | Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधरपर्वतनिरूपणम् १३१ स्त चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, एवं जाव आयामविक्खंभविहणा जा चेव महापउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव तिगिछि दहस्स वि वत्तव्वया तं चेव पउमद्दहप्पमाणं अटो जाव तिगिछि वण्णाई धिई य इत्थदेवी महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिईया परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तिगिछिदहे तिगिछिद्दहे ॥सू० १५॥ ___छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम ! महाविदेहस्य वर्षस्य दक्षिणेन हरिवर्पस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः पौरस्त्यया यावत् स्पृष्टः पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टः चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन षोडश योजनसहस्राणि अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि योजनशतानि द्वौच एकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेण, तस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन विंशति योजनसहस्राणि एकं च पश्चषष्टं योजनशतं द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन, तस्य जीवा उत्तरेण यावत् चतुर्नवतिं योजनसहस्राणि एकं च षट् पञ्चाशं योजनशतं द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेनेति, तस्य धनु: दक्षिणेन एकं योजनशतसहस्रं चतुर्विंशति च योजनसहस्राणि त्रीणि च षट्चत्वारिंशानि योजनशतानि नव च एकोनविंशति भागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति रुचकसंस्थानसंस्थितः सर्वतपनीयमयः अच्छः उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां यावत् संपरिक्षिप्तः, निषधस्य खलु वर्षधरपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावद् आसते शेरते तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु महानेकः तिगिछि (पुष्परजो) ह्रदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीन दक्षिण विस्तीर्णः चत्वारि योजनसहस्राणि आयामेन द्वे योजनसहस्र विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन अच्छः श्लक्ष्णः रजतमयकूलः तस्य खलु तिगिछि (पुष्प रजो) हृदस्य चतुर्दिशि चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकानि प्रज्ञप्तानि, एवं यावत् आयामविष्कम्भविधूता (विहीना) या एव महापद्मदस्य वक्तव्यता सा एव तिगिछि (पुष्परजो) इदस्यापि वक्तव्या तदेव पद्महद प्रमाणम् अर्थों यावत् तिगिछि (पुष्परजो) वर्णानि, धृतिश्चात्र देवि महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थितिका परिवसति, अथ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-तिगिछि (पुष्परजो) हृदः २ ॥५० १५॥ टीका-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे २' इत्यादि, 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे २ णिसहे णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते' कुत्र खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेण हरिवासस्स उत्तरेणं Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पुरत्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपत्रए पण्णत्ते' महाविदेहस्य वर्षस्य दक्षिणेन हरिवर्षस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः, 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिण विच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे' प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः, पुरथिमिल्लाए जाव पुढे पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुढे' नवरं पौरस्त्यया यावत् यावत्वदेन 'कोटया पौरस्त्यलवणसमुद्रम्' इति सग्राह्यम् स्पृष्टः स्पृष्टवान् पाश्चात्यया यावत् यावत्पदेन 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे २ णिसहे णामं वासहरपव्वए' इत्यादि टीकार्थ-गौतमने प्रभु से पूछा है-(कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस जम्बुद्वीप नामके द्वीप में निषध नाम का वर्षधर पर्वत कहाँ पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! महावि. देहस्स वासस्स दक्खिणेणं हरिवासस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थि. मेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपञ्बए पाणत्ते) हे गौतम! महाविदेह की दक्षिण दिशा में और हरिवर्ष क्षेत्र की उत्तर दिशा में पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में एवं पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप के भीतर निषध नामका वर्षधर पर्वत कहा गया है। (पाईणपडीणायए) यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लंया है (उदीणदाहिणविच्छिपणे) तथा उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है (दुहालवणसमुदं पुढे) यह अपनी दोनों कोटियों से लवणसमुद्र को छू रहा हैं-(पुरस्थि मिल्लाए जाव पुढे पच्चस्थिमिल्लाए जाव पुढे) पूर्वदिग्वर्ती कोटि से पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र को और पश्चिमदिरवर्ती कोटि से पश्चिदिग्वर्ती लवणसमुद्र को छूता 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे २ णिसहे णाम वासहरपब्बए' इत्यादि ___ -गौतमै प्रभुने प्रश्नध्या-'कहि णं भंते ! जंबुदीवे दीवे णिसहे णाम वासहरपव्वए पण्णत्त' मत ! 20 दीपभा निषध नाम: १२ पर्वत ४या स्थणे आवस छ १ पासमा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स दक्खिणेणं हरिवासस्स उत्तरेणं पुरथिम लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थ ण जंबुहीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' 3 गौतम! महाविडनी दक्षिण दिशामा અને હરિવર્ષ ક્ષેત્રની ઉત્તર દિશામાં પૂર્વદિશ્વતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિગ્ગત લવણું સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જંબુદ્વીપની અંદર નિષધ नाम घ२ ५६त मावेश छ. 'पाईणपडीणायए' र ५त पूर्वथी पश्चिम सुधी cin छ. 'उदीण दाहिणविस्थिण्णे' तेभर उत्तरथी दक्षि सुधी विस्तृत छ. 'दुहा लवणसमुदं पुढे' से पातानी भन्ने टिमोथी सपए समुद्रने ५५॥ २९स छे. 'पुरथिमिल्लाए जाव पुढे पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुढे' पूर्व हिवती थी पूर्वहिवती Amसमुद्रने भने Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधरपर्वतनिरूपणम् -'कोटच्या पश्चिमलवणसमुद्रम्' इति सङ्ग्राह्यम् स्पृष्टः, तस्य मानमाह-'चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाइं उव्वे हेणं सोलस जोयणसहस्साई' चत्वारि योजनशतानि उर्ध्वमुच्चत्वेन, चत्वारि गव्युतशतानि उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन, षोडशयोजनसहस्राणि 'अट्ठय. बायाले जोयणसए' अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि द्विचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि 'दोण्णि य एगणवीसइभाए' द्वौ च एकोनविंशति भागौ 'जोयणस्स विक्खंभेणं' योजनस्य विष्कम्भेण, महाहिमवतो द्विगुणविष्कम्भमानत्वात्, तस्य बाहामानमाह-'तस्स बाहा' इत्यादि 'तस्स बाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं वीसं जोयणसहस्साई' तस्य निपधस्य वर्षधरपर्वतस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन पूर्वपश्चिमयोः विंशतियोजनसहस्राणि 'एगं च पण्णटुं जोयणसयं' एकं च पञ्चषष्टं पञ्चषष्टयधिक योजनशतं 'दुण्णि य एगूण वीसइभाए जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं' द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य अर्द्धभागं च आयामेन । तस्य जीवास्वरूपमानमाह-'तस्स जीवा उत्तरेणं जाव चउणवइं जोयणसहस्साई एगं च छप्पणं जोयणसयं तस्य जीवा उत्तरेण उत्तरदिग्भागे यावत् यावत्पदेन-'प्राचीनप्रतीची नायता द्विधातो लरणसमुद्रंस्पृष्टा पौरस्त्यया कोट्या पौरस्त्यं लवणसमुद्रं स्पृष्टा पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यलवणसमुदं स्पृष्टा' इति सन्नाह्यम्, चतुर्नवति योजनसहस्राणि एकं च षट् पच्चाशं षट् पञ्चाशदधिकं योजनशतं 'दुणिय एगूगवीसइभाए जोयणस्स आयामेणंति' द्वौ च एकोनविंशति भागौ योजनस्य आयामेन है (चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं सोलस जोयणसहस्साई अठ्ठय बायाले जोयणसए दोणिय एगूणवीसहभाए जोयणस्स विक्खंभेणं) इसकी ऊंचाइ ४०० योजन की है इसका उद्वेध ४०० कोश का है तथा विष्कम्भ इसका १६८४२. योजन का है (तस्स वाहा पुरथिमपच्चधि. मेगं वीसं जोयणसहस्साइं एगं च पण्गहँ जोयणसयं दुणिय एगूणवीसइ. भार जोयणस्स अद्धभागं च आयामेगं) तथा इसकी बाहा-पार्श्वभुजा-पूर्वपश्चिम में आयाम की अपेक्षा २०१६५२ योजन एवं अर्धभाग प्रमाण है । (तस्स जीवा उत्तरेणं जाव चउणवई जोयणसहस्साई एगंच छप्पणं जोयणसयं दुण्णि य एगूणवीसइभाए जोधणस्स आयानेणंति) तथा इसकी उत्तर जीवा का आयाम पश्चिम हिवती थी पश्चिम हिवती समुद्रने २५शी २९८ . 'चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गा ग्यसयाई उठवेहेणं सोलस जोयणसहस्साइं अट्ठ य बायाले जोयणसए दोणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' सेनी या ४०० यौन सी छे. सेना द्वेष ४८० 1.२८। छ, तम वि० १९८४२ १२१ योनी छे. 'तस्स. वाहा पुरथिमपच्चत्थिमेणं वीसं जोयण सहस्साइं एगं च पण्णटुं जोयणसयं दुण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणास अद्धभागं च आयामेण' तेम अनी पाई।- भुज-पूर्व पश्चिममा मायामथी अपेक्षा २०१७५ टके योन तेभ 4 मा प्रमाण छ. 'तस्स जीवा उत्तरेणं जाव चउणवई जोयणसहस्साई एगं च छप्पण्णं जोयणसयं दुणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणंति' तम अनी उत्तर पार्नु मायामनी अपेक्षा के प्रमाण ८४१५६ है योगन Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दैर्येण इति, तस्य धनुष्पृष्ठमाह-'तस्स धणु' इत्यादि, तस्य धनुः 'दाहिणेणं एगं जोय. णसयसहस्सं चवीसं च जोयणसहस्साई तिणिय छायाले जोयणसए णवय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति' दक्षिणेन एकं योजनशतसहस्रं चतुर्विशतिं च योजनसहस्राणि त्रीणि च षट् चखारिंशानि योजनशतानि नव च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, एवं बाह्यादि त्रयमुक्त्वा निषधं विशिनष्टि-'रुयगसंठाणसंठिए' रुचकसंस्थानसंस्थितः-रुचकं भूषणविशेषः तस्य संस्थानेनाऽऽकारेण संस्थितः वर्तुलाकार इत्यर्थः, 'सव्वतवणिज्जमए अच्छे' सर्वतपनीयमयः-सर्वात्मना विशिष्ट स्वर्णमयः, अच्छः इत्युपलक्षणं श्लक्ष्णादीनां तत्सङ्ग्रहः सार्थः प्राग्वत्, तज्जिज्ञासोत्कण्ठितचित्तैश्चतुर्थसूत्र टीका विलोकनीया । 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडे हिं जाव संपरिक्खित्ते' उभयोः द्वयोर्दक्षिणोत्तरयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च बनपण्डाभ्यां यावत यावत्पदेन-'सर्वतः समन्तात्' इति सङ्ग्राह्यम् संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितः अथ निषधवर्षधरपर्वतोपरिवर्ति भूमिभागे देवानामासनशयनादिकमाह-"णिसहस्स णं' इत्यादि, निषधस्य खलु की अपेक्षा प्रमाण ९४१५६.२ योजन का है। (तस्स धणु दाहिणेणं एगं जोयणसयसहस्सं चउवीसं जोयणसहस्साई तिणिय छायाले जोयणसए णवयएगूणवीसहभाए जोयणस्स परिक्खेवेणंति) इसके धनुःपृष्ठ का प्रमाण परिक्षेप की अपेक्षा दक्षिण दिशा में १२४३६४६० योजन का है अर्थात् एक योजन के १९ भागों में से ९ भाग अधिक है। (रुयगसंठाणसंठिए सब्बतवणिजमए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेहआहिं दोहि य वणसंडेहिं जाव संपरिक्खित्ते) इसका संस्थान रुचक के संस्थान जैसा है यह सर्वात्मना तप्तसुवर्णमय है आकाश और स्फटिक के समान यह बिलकूल निर्मल है इसके दोनों दक्षिण उत्तर के पाचभागों में दो पद्मवर वेदिकाएं और दो वनषण्ड है-उनसे यह चारों ओर से अच्छी तरह से घिरा हुआ है यहां यावत्पद से “सर्वतः समन्तात्" इन पदों का ग्रहण हुआ है । (णिसहस्स णं वासहरपव्ययस्स उपि बहुसमरमणिज्जे २८९ छ. 'तस्स धणु दाहिणेणं एगं जोयणसयसहस्सं चउनीसं जोयणसहस्साइं तिण्णिय छायाले जोयणसए णवय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं ति' सेना धनुष्नु प्रभार ५२. ક્ષેપની અપેક્ષાએ દક્ષિણ દિશામાં ૧૨૪૩૬૪ ૮ જન જેટલું છે એટલે કે એક જનના १८ मागोमाथा ८ मा मधि छे. 'रुयगसंठाणसंठिए सव्यतवणिज्जमए अच्छे उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि य वणसंडेहिं जाव संपरिक्खित्ते' मेनु संस्थान રુચકના સંસ્થાન જેવું છે એ સર્વાત્મના તપ્તસુવર્ણમય છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ એ તદ્દન નિર્મળ છે. એના બને દક્ષિણ ઉત્તરના પાશ્વભાગોમાં બે પદ્યવાર વેદિકાઓ છે અને બે વનખંડો છે. તેનાથી એ ચેમેરથી સંપૂર્ણ રૂપમાં પરિવૃત છે. અહીં यात् ५४थी 'सर्वतः समन्तात्' ये पह। अड ४२राया छे. “णिसहस्स णं वासहरपब्वयस्स Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधरपर्वतनिरूपणम् 'वासहरपब्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते जाव आसयंति संयंति' वर्षधरपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, यावद् आसते शेरते, अत्र यावत् यावत्पदेन-भूमिभागवर्णन परमालिङ्ग पुष्करादिपदनिकुरम्बं सङ्ग्राह्यम् तत्सर्व जिज्ञासुभिः राजप्रश्नीय-सूत्रस्य पञ्चदशसूत्रं विलोकनीयम् व्याख्या चास्य तत्सूत्रस्य मत्कृतमुबोधिनी टीकातो बोध्या, अथ पुष्परजोहूद वक्तव्यमाह-'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्यन्तमध्यदेशभागोऽस्ति 'एत्थ णं महं एगे तिगिंछिद्दहे ण मं दहे पण्णत्ते' अत्र अत्रान्तरे महानेका पुष्परजो हृदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, मूले तिमिछि हद इति कथितम् तत्र पुष्प रजशब्दस्य स्थाने तिगिंछयादेशो बोध्यः, यद्वा देशीयोऽयं शब्दः, तत्पक्षे अपि स एवार्थः, तस्य मानाद्याह-'पाईणपडीणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे चत्तारि जोयणसहस्साइं आयामेणं' प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः चखारि योजनसहस्रा ण आयामेन 'दो भृमिभागे पण्णत्ते, जाव आसयंति, सयंति) निषध वर्षधर पर्वत का ऊपरी भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् उसपर आकर देव और देवियां उठकी बैठती रहती है और आराम करती रहती है यहां यावत्पद ग्राह्य पाठको देखने को इच्छा वालों को राजप्रश्नीय सूत्र के १५ वेंसूत्र की टीका अवलोकन करनी चाहिए (तस्सणं बहुसमरमणिज्जस भूमिभागस्स बहमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे तिगिंछद्दहे णामं दहे पण्णत्ते) इस वर्षधर पर्वतके बहुसमरमणीय भूमिभागके ठीक बीच में एक विशाल तिगिच्छिद्रह-पुष्परज-नामका द्रह कहा गया है (पाईणपडीणायए उदीणदाहिविच्छिण्णे चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेण दो जोयणसहस्साई विक्खभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्णे रययामयकूले) यह द्रह पूर्वसे पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर दक्षिण दिशा में विस्तृत हैं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव आसयंति, सयंति' नि१५ वर्ष ५२ पता ઉપરિ ભૂમિભાગ બહુસમરમણીય છે. યાવત્ તેની ઉપર દેવ અ દેવીએ આવીને ઉડતી मेसती २९ छ, भने माराम ४२ छे. माही 'यावत्' ५६ आवे छे. पहथी २ पाठ ગ્રાહ્ય થયો છે તે “રાજપ્રશ્રીય સૂત્ર ના ૧૫ સૂવની વ્યાખ્યામાં નિરૂપિત થયેલ છે, તે જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જાણવા યત્ન કરે. _ 'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्य णं महं एगे तिगिंछ दहे णामं दहे पण्णत्ते' से वर्ष ५२ ५ तन बहुसभरमणीय भूमिमाना ही मध्यमां मे विश २७ -५५२००-नाम रेड मावेस छे. 'पाईणपडीणायए उदीण दाहिणविच्छिण्णे चत्तारि जोयणसहस्साई आयामेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं दो जोयणसहस्साई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामय कूले' से द्रह पूर्वथा पश्चिम सुधा લાગે છે અને ઉત્તર દક્ષિણ દિશામાં વિસ્તૃત છે. એને આયામ ચાર હજાર યોજન જેટલું Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जोयणसहस्सा विक्खंभेणं दसजोयणाई उठवेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले' द्वे योजनसहस्रे विष्कम्भेण दशयोज़नानि उद्वेवेन अच्छा लक्ष्णः रजतमयकूळः, अथास्य सोपानादि वर्णनायाह - ' तस्स णं' इत्यादि 'तस्स णं तिर्गिच्छिद्दहस्स चउद्दिसिं चचारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' तस्य पुष्परजोहूदस्य चतुर्दिशि दिचतुष्टये चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सुन्दराणि त्रिसोपानानि प्रप्तानि 'एवं जान' एवम् अनेन प्रकारेण हदे वर्ण्यमाने यावत् परिपूर्णा 'आयाम विक्संभवहूणा' आयामविष्कम्भविधूता (विहीना ) ' जा चेव महापउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चैव तिगिच्छदहस्स वि' यैव महापद्महदस्य वक्तव्यता सैव पुष्परजो हृदस्यापि 'वत्तव्वया' वतयता, एतदेव स्पष्टीकर्तुमाह - 'तं चैव पउमदहप्पमाणं' तदेव पद्द्महदप्रमाणमित्यादि - तदेव महापद्महूदगतमेव प्रमाणं धृतिदेवी कमलानां प्रमाणम्, विंशत्युतरकशताधिक पञ्चाशत्सहस्राधिकविंशतिलक्षोत्तरैककोटिरूपम् १२०५०१२०, अन्यथाऽत्र इसका आयाम चार हजार योजन का हैं और विष्कम्भ दो हजार योजन का है उद्वेध इसका दस योजन का है यह आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है चिकना है इसका कूल रजतमय है मूल में " तिगिच्छि " ऐसा निपात होता है अथवा 'तिगिछि' यह देशी शब्द है (तस्स णं तिगिछिद्दहस्स चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिवगा पण्णत्ता) उस तिगिंधि द्रह की चारों दिशाओं में त्रिसोपान प्रतिरूपक कहे गये हैं (एवं जाव आयामविक्खंभ विणा जा चेव महापउमद्दहस्स वक्तव्यया सा चेव तिर्गिच्छिद्दहस्स वि वत्तव्त्रया, तं चैव पउमद्दहपमाणं अट्ठो जाव तिगिंछि वण्णा इ) इस सूत्र पाठ में यावत् शब्द सम्पूर्णता का वाचक है अतः आयाम और विष्कम्भ को छोड़कर जो महापद्महूद की वक्तव्यता कही गई है वही तिििछद की भी वक्तव्यता जाननी चाहिये इस तरह जैसा प्रमाण महापद्मद्गत कमलोंका कहा गया है- अर्थात् महापद्महूद्गत कमलों का प्रमाण संख्या १ करोड २० लाख ५० हजार एक सौ २० कहा गया है सो यही प्रमाण છે અને વિશ્કલ છે હજાર ચેાજન જેટલે છે. એના ઉદ્વેષ દશ યેાજન જેટલે છે. એ આકાશ અને સ્ફટિક જેવા નિર્માળ છે અને એ ચીકણા છે. એના તટા રજતમય છે. भूसभां 'तिगिछिहद' मेव। पाठ छे तो पुष्पन्ना स्थानमा 'तिगिच्छि' मेवे। नियात थाय छे. अथवा 'तिगिछि' से देशी शब्द छे. 'तस्स णं तिगिछिद्दहस्त्र चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूत्रगा फनत्ता' ते तिगिंछि द्रडनी शोभर त्रिसोपान अति ३पडे। छे. ' एवं जाव आयाम विक्संभविहूणा जा चैव महो पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चैव तिगिच्छि इस विवत्तव्या, तं चैव पउमद्दहपमाणं अट्ठो जाव तिगिंछि वण्णाइ' से सूत्रपाठभां ચાવત્ શબ્દ સ ંપૂર્ણતા વાચક છે. એથી આયામ અને વિષ્ણુ ંભને બાદ કરીને જે મહા પદ્મહેદની વક્તવ્યતા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે, તેજ તિગિછિંદની પણ વક્તવ્યતા છે. આ પ્રમાણે જે રીતે મહાપદ્મદગત કમળનુ પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે, એટલે કે મહા Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० १५ निषधवर्षधरपर्वत निरूपणम् कमलानामायामविष्कम्भरूपप्रमाणस्य महापद्मइदगतपद्मेभ्यो द्विगुणत्वेन विरोधापत्तेः, हृदस्य प्रमाणमुद्वेधरूपं बोध्यम् आयामविष्कम्भयोः पृथगुक्तत्वादिति, 'अट्ठो जाव तिगिंछिवण्णाई' अर्थः नामार्थस्तस्य वक्तव्यः स चैवम् अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते इत्यादि प्राग्वत् यावत् यावत्पदेन तत्र बहूनि उत्पलकुमुद सुभगसौगन्धिक पुण्डरीक शतपत्र सहस्रपत्राणि फलानि केस रोपचितानि' इति सङ्ग्राह्यम् । पुष्परजोवर्णानि तेन पुष्परजः प्रधानस्वादयं पुष्परजोहदइत्येवमुच्यते, 'धिई य इत्थ देवी पलिओक्महिईया परिवसई' धृतिश्वात्र देवी अधिष्ठातृदेव परिवसति सा कीदृशी ? इत्याह- महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थितिका 'महर्द्धिका' इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिकेति पर्यन्तानां शब्दानामत्र सङ्ग्रहो बोध्यः, सच सार्थोऽष्टमसूत्राद्बोध्यः शेषं प्राग्वत्, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तिर्गिछिद २' अथ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते पुष्परजोहुदः २ इति ॥ ०१५ || धृति देवी के कमलों का यहां पर भी जानना चाहिये यहां इस प्रमाण शब्द से इनका आयाम विष्कम्भ रूप प्रमाण नहीं समझना चाहिये क्योंकि वह तो महापद्महूद्गत कमलों के प्रमाण से द्विगुणा कहा गया है तथा ह्रद का जो यहां प्रमाण कहा गया है वह उद्वेध का प्रमाण कहा गया है ऐसा जानना चाहिये आयाम और विष्कम्भ का जो प्रमाण कहा गया है वह तो पृथक रूप से सूत्रकारने स्वयं ही ऊपर में कह दिया है अर्थ शब्द से " हे भदन्त ! इस जलाaat आप किस कारण से तिगिच्छिद्रह ऐसा कहा है यहां गौतम का प्रश्न लिया गया है । इसपर ऐसा प्रभुकी ओर से उत्तर दिया गया है कि हे गौतम! यहां पर तिमिछिद्रह के वर्ण जैसे उत्पल आदि होते हैं तथा (घिई अ इत्थदेवी महिडिया जाय पलिओ महिईआ परिवसह, से तेणद्वेगं गोधना ! एवं बुच्चइ तिििछ २) यहां पर महर्द्धिक यावत् एक पल्योपमकी स्थिति वाली घृती પદ્મદગત કમળેાની પ્રમાણ સખ્યા ૧ કરોડ, ૨૦ લાખ, ૫૦ હજાર ૧ સે ૨૦ જેટલી કહેવામાં આવેલી છે તેા ધૃતિ દેવીના કમળાનું પ્રમાણુ અત્રે આટલું જાણી લેવુ જોઇએ. અહી’ એ પ્રમાણુ શબ્દથી એમનું આયામ વિધ્યુંભ રૂપ પ્રમાણુ સમજવુ નહિ જોઇએ. કેમકે તે તેા મહા પદ્મહૃદંગત કમળાના પ્રમાણથી ખમણુ કહેવામાં આવેલ છે. તેમજ હદનુ જે અત્રે પ્રમાણુ સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે તે તેના ઉદ્વેધનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે એવુ જાણવુ જોઇએ. આયામ અને વિષ્ય ભનુ જે પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે તે તે પૃથક્ રૂપમાં સૂત્રકારે પાતે જ ઉપર સ્પષ્ટ કરી દીધું છે. અ શબ્દથી હુ ભટ્ઠત ! એ જલાશયને આપશ્રીએ શા કારણથી તિગિષ્ટિ દ્રઢુ એ નામથી સમાધિત કરેલ છે ? ' એવે અત્રે. ગૌતમના પ્રશ્ન ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. પ્રભુ તરફથી એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે કે હૈ ગૌતમ ! અહીં તિગિષ્ટિ દ્રહના વણુ જેવા ઉત્પલે વગેરે હાય छे. ते 'धिई इत्थ देवी महिड्डिया जाव पलिश्रवमट्टिईआ परिवस. से तेणट्टेणं ज० १८ - Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे आथास्माद् या नदी दक्षिणेन प्रवहति तामाह-'तस्स णं तिगिछिद्दहस्स' इत्यादि, मूलम्-तस्त णं तिगिछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेगं हरिमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्ताइं चत्तारि य एकवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभाए जोयणस्स दाहिणाभिमुही पवएणं गंता महयाघडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पवाएणं पवडइ, एवं जा चेव हरिकंताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयव्वा, जिब्भियाए कुंडस्स दीवस्स भवणस्स तं चेव पमाणं अट्टो वि भाणियव्वो जाव अहे जगई दलइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ, तं चेव पवहे य मुहमूले य पमाणं उव्वेहो य जो हरिकंताए जाव वणसंडसंपरिक्खित्ता, तस्स णं तिगिछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओया महाणई पवूढा समागी सत्त जोयणसहस्लाइं चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउजोयणसइएणं पवाएणं पवडइ, सीओयाणं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिभिया पण्णत्ता, चत्तारि जोयणाई आयामेणं परणासं जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहविउट्ट संठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा, सीओया णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे नामकी देवी रहती है इस कारण हे गौतम इसका नाम तिगिछिद्रह ऐसा कहा है “ अट्ठो जाव" यहां जो यावत्पद आया है उससे " तत्र बहूनि उत्पलकुमुद सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र सहस्त्रपत्राणि फुल्लानि केसरोपचितानि " यह पाठ गृहीत हुआ है महर्द्धिका के साथ आगत यावत् पद ग्राह्य पदों का संग्रह अष्टम सूत्र से जान लेना चाहिये ॥१५॥ गोयमा ! एवं बुचव हे तिगि छिद्दहे २' मही महद्धि यावत् २४ पक्ष्या५म रही स्थिति વાળી ઘતિ નામક દેવી રહે છે. એ કારણથી છે ગૌતમ! એનું નામ તિગિછિ દ્રહ એવું २५मा माव्यु छे. 'अट्ठो जाव' महा २ यावत् ५४ मावस छ, तेनाथी 'तत्र बहूनि उत्पल-कुमुद, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्राणि, फुल्लानि केसरोपचितानि' से पाठ संग्रहीत थय छे. मदनी साये मावस 'यावत' ५४ ग्रा पहनु संग्रह અષ્ટમસૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞાસુ લોકે ત્યાથી જાણવા યત્ન કરે છે . ૧૫ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स. १६ तिगिच्छहदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १३९ सीओयप्पवायकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, चत्तारि असीए जोयणसए आया. मविक्खंभेणं पण्णरसअट्ठारे जोयणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं अच्छे, एवं कुंडवत्तव्वया णेयव्वा जाव तोरणा । तस्स णं सीओयप्प. वायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीओयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, चउसद्धिं जोयणाई आयामविक्खंभेणं दोणि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सम्ववइरामए अच्छ, सेसं तमेव वेइया वणसंडभूमिभाग भवणसयणिज अटो भाणियव्वो, तस्स णं सीओयप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओया महाणई पढा समाणी देवकुलं एज्जेमाणा एज्जेमाणा चित्तविचित्तकूडे पव्वए निसढदेवकुरु सूरसुलसविज्जुप्पभदहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी२ भदसालवणं एज्जेमाणी२ मंदरं पव्वयं दोहिं जोयणेहिं असंपत्ता पचस्थिमाभिमुही आवत्ता समाणी अहे विज्जुप्पभं. वक्खारपव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पव्वयस्त पञ्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं दुहा विभयमाणी२ एगमेगाओ चक्कवट्रिविजयाओ अट्ठावीसाएर सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहिं सलिलासयसहस्सेहिं दुतीसाए य सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जयंतस्स दारस्त जगई दालइत्ता पञ्चथिमेणं लवणसमुदं समुप्पेइ, सीओया णं महाणई पवहे पण्णासं जोय. णाइं विक्खंभेणं जोयणं उव्वेहेणं, तयणंतरं चणं मायाए परिवद्धमाणीर मुहमूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता। णिसढेणं भंते ! वासहरपव्वए णं कइकूडा पण्णत्ता ?, गोयमा! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ णिसढकूडे २ हरिवासकूडे ३ पुलविदेहकूडे४ हरिकूडे ५ धिईकूडे ६ सीओयाकूडे ७ अवरविदेहकूडे ८ रुयगकूडे ९, जो चेव चुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्तविक्खंभपरिक्खेवो पुत्रवणिओ रायहाणी य सच्चेव इहं पि णेयव्वा, से केण?णं भंते ! एवं Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे gas सिहे वासहरपव्ब ए २१, गोयमा ! जिसहे णं वासहरवव्वए कूडा णिसह संठाणसंठिया उसमसंठाणसंठिया, णिसहे य इत्थ देवे महिद्वीप जाव पलिओमइिए परिवसइ, से तेणटुणं गोयमा ! एवं वच्चइ सिहे वासहरपव्वए २ ॥ सू० १६॥ अच्छा, छाया - तस्य खलु गिच्छिदस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन हरिन्महानदी प्रव्यूहासती सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत् सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, एवं यैव हरिकान्ताया वक्तव्यता सैव हरितः अपि नेतव्या, जिहिकायाः कुण्डस्य द्वीपस्य भवनस्य तदेव प्रमाणम् अर्थोऽपि भणितव्यः यावद् अधो जगतीं दारयित्वा षट् पञ्चाशता सलिलासहस्रैः समग्रा पौरस्त्यं लवणसमुद्रं समाप्नोति, तदेव प्रवहे च मुखमूळे च प्रमाणम् उद्वेधश्च यो हरिकान्तायाः यावद् वनपण्ड संपरिक्षिप्ता, तस्य खेलु तिमिच्छिदस्य औतराहेण तोरणेन शीता महानदी प्रव्यूहा सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारिच एकविंशानि योजनशतानि एकं च एकोनविंशति भागं योजनस्य उत्तराभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुख प्रवृत्तिकेन यावत् सातिरेक चतुर्योजनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, शीतोदा खल महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिह्विका प्रज्ञप्ता, चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्ववज्रमयी शीतोदा खलु महानदी यत्र प्रपतति भत्र खलु महदेकं शीतोदा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् चत्वारि अशीतानि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण पञ्चदश अष्टादशानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्यता नेतव्या यावत् तोरणाः । तस्य खलु शीतोदा प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महानेकः शीतोदा द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, चतुष्पष्टि योजनानि आयामविष्कम्भेण द्वे द्वयुत्तरे योजनशते परिक्षेषेण द्वौं क्रोशावुच्छ्रितो जलान्तात् सर्ववज्रमयः अच्छः शेषं तदेव वेदिका वनपण्ड भूमिभाग भवनशयनीयार्थी भणितव्यः, तस्य खलु शीतोदा प्रपातकुण्डस्य औत्तराहेण तोरणेन शीतोदा महानदी प्रव्यूढा सती देवकुरु मेजमाना २ चित्रविचित्रकूट पर्वतौ निपधदेव कुरुसूरसुलसविद्युत्प्रमदांश्च द्विधा विभजमाना २ चतुरशीत्या सलिलासहस्रैः आपूर्यमाणा २ भद्रशालवनमेजमाना २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती अधोविद्युत्प्रभं वक्षस्कारपर्वतं दारयित्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेन अपरविदेहं वर्ष द्विधा विभजमाना २ पञ्चभिः सलिलाशतसहस्रैः द्वात्रिंशता च सलिलासहस्रैः समग्रा अधो जयन्तस्य द्वारस्य जगतीं दारयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समाप्नोति, शीतोदा खलु महानदी प्रवहे पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनमुद्वेधेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया मात्रया परिवर्द्धमाना २ मुखमूले पश्च योजनशतानि विष्कम्भेण दश योजनानि उद्वेधेन उभयोः पार्श्वयोः द्वःभ्यां Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४१ पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, निषधे खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते खलु कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा सिद्धायतनकूटं १ निष. धक्टं २ हरिवर्ष कूटं ३ पूर्व विदेहकूटं ४ हरिकूटं ५ धृतिकूटं ६ शीतोदाकूटं ७ अपरविदेह कूटम् ८ रुवककूटम् ९ य एव क्षुद्रहिमवत्कूटानामुच्चत्वविष्कम्मपरिक्षेपः पूर्वणितः राजधानी च सा एव इहापि नेतव्या, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते निषधो वर्षधरपर्वतः२१, गौतम ! निषचे खलु वर्षधरपर्वते बहूनि कूटानि निषधसंस्थानसंस्थितानि ऋपभसंस्थान. संस्थितानि, निपश्चात्रदेवो मह द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते निषधो वर्षधरपर्वतः २॥ सू० १६॥ ___टीका-'तस्स णं तिगिछिदहस्स' इत्यादि, 'तस्स णं तिगिछिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं हरिमहाणई पवढा समाणी सत्त जोयणसहस्साई चत्तारि य एगवीसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स दाहिणाभिमुही पबएणं गंता सहया घटमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउजोयणसाइएणं पवारणं पवडई' तस्य अनन्तरोक्तस्य खलु तिगिञ्छिदस्य दाक्षिणात्येन दक्षिण दिग्भवेन तोरणेन वहिारेण हरिन्महानदी हरिनामनी महानदी प्रव्यूढा निगेता सती सप्तयोजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि-एकविंशत्यधिकानि योजयशतानि योजनस्यैकमेकोनविंशतिभागं च दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्सातिरेक चक्षुर्यो जनशतिकेन प्रपातेन प्रपतति, इति प्राग्वत् , तत्र यावत्पदेन मुक्तावलिहारसंस्थितेनेति ग्राह्यम् , पर्वतमन्तव्यप्रदेशोपपत्तिस्तु-षोडश सहस्राष्टशत द्वाचत्वारिंशद्योजन 'तस्मणं तिमिछिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं'-इत्यादि टीकार्थ-(तस्सणं तिगिछिद्दहस्स) उस तिगिछिद्रहके (दक्खिणिल्लेण) दक्षिणदिग्वर्ती (तोरणेणं) तोरण द्वार से (हरिमहाणई पढा समाणी) हरितू नाम की महानदी निकली है और निकलकर वह (सत्तजोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए पगंच एगणवीसहभाग जोयणस्स दाहिणामुही पवएणं गंता महया घडमुहपवित्तिए णं जाव साइरेग चउ जोयण सइएणं पवाहेणं पक्डइ) ७४२१२० योजन तक उसी पर्वत पर दक्षिण दिशाको ओर वही है और घट के मुख से बडेवेग के साथ निकले हुए मुक्तावलिहार के जैसे निर्मल अपने प्रवाह 'तस्स णं तिगि छिदहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणे' इत्यादि साथ-'तस्स णं तिगि छिदहस्स' ते छिना 'दक्खिणिल्लेणं' क्षिा हिवती' 'तोरणेणं' तोरण दारथी 'हरिमहाणई वृढा समाणी' उरत नामनी महानही नी छ भने नीजान त 'सत्त जोयणसहस्साई चत्तारिय एकवीसे जोयणसए एगं च ६गूणवीसइभाग जोयणस्स दाहिणामुही पव्वएण गंता महया घडमुहपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयण सइएणं पवाहेणं पवडई' ७४२११४ या सुधा ते ५ ५२ ६क्षिण हिशा त२६ प्रवाहित થઈ છે. અને ઘટના મુખમાંથી અતીવ વેગ સાથે નીકળતા સૂફતાવલિહારના જેવા નિર્મળ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र प्रमाणानिषधविस्ताराद् द्विसहस्रयोजनप्रमाणे द्रदविस्तारेऽपहृते शेषेऽर्कीकृते भवतीति । निगमयन्नतिदेशसूत्रमाह--"एवं' इत्यादि, 'एवं जा चेव हरिकंताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयवा' एवम् अनन्तरोक्त प्रकारेण यैव वक्तव्यता हरिकान्ताया महानद्याः प्रागुक्ता सैव वक्तव्यता हरितोऽपि प्रकृताया हरिनाम्न्या महानद्या अपि नेतव्या ज्ञानविषयतां प्रापणीया ज्ञेयेत्यर्थः, 'जिब्भियाए कुंडस्स दीवस्स भवणस्स तं चेव पमाणं अट्ठोऽवि भाणियबो' अस्यामहानद्याः जिबिकायाः प्रणाल्याः कुण्डस्य द्वीपस्य हरिद्वीपस्य भवनस्य च प्रमाणं तदेव हरिकान्ता प्रकरणोक्तमेव बोध्यम् , अर्थोऽपि हरिद्वीप नाम्नो हेतुरपि भणितव्यः हरिकान्तानुसारेण वक्तव्यः अपि शब्दाच्छयनीयं ग्राह्यम् तथाहि-हरिन्महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिविका प्रज्ञप्ता, सा च द्वे योजने आयामेन, पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण अर्द्ध योजनं बाहल्येन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयो अच्छा, हरित् खलु से कि जिसका प्रमाण कुछ अधिक चार हजार योजन का है तिगिंछिप्रपात कुण्ड में गिरती है (एवं जा चेव हरिकंताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयव्वा) इस तरह जो हरिकान्ता महानदी का वक्तव्यता है वही वक्तव्यता इस हरित नामकी महानदी को भी जाननी चहिये यह महानदी पर्वत के ऊपर ७४२१३ योजन तक वही जो कही गई है सो यह प्रमाण इस प्रकार से निकाला गया है कि-निषध वर्षधर पर्वत का व्यास १६८४२ योजन का कहा जा चुका है उसमें से २००० योजन का ह्रद का प्रमाण घटा देने पर १४८४२ योजन वचते हैं सो इन्हें आधा करने पर पूर्वोक्त प्रमाण निकल आता है इस हरित नाम की महा. नदी की जिविका का, कुण्ड का, हरिद्वीप का, और भवन का प्रमाण हरिकान्ता के प्रकरण में जैसा इनका प्रमाण कहा गया है वैसा ही है तथा हरिद्वीप ऐसे नाम होने का कारण भी हरिकान्ता के प्रकरण के अनुसार जान लेना चाहिये इस पूर्वोक्त कथन के सम्बन्ध में स्पष्टी करण ऐसा है-यह हरित महाએવા પિતાના પ્રવાહથી કે જેનું પ્રમાણ કંઈક વધારે ચાર હજાર યોજન જેટલું છે-તિગિથિ प्रपात भा ५ छ. 'एवं जा चेव हरिकंताए वत्तव्वया सा देव हरीए वि णेयव्वा' या प्रमाणारे હરિકાન્ત મહાનદીની વક્તવ્યતા છે તે જ વક્તવ્યતા એહરિત નામક મહાનદીની પણ જાણવી જોઈએ. એ મહાનદી પર્વતની ઉપર ૭૪૨૧ જન સુધી પ્રવાહિત થતી કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ રીતે કાઢવામાં આવેલ છે, કે નિષધ વર્ષધર પર્વતને પાસ ૧૬૮૪૨ એ જન જેટલે કહેવામાં આવેલ છે. તેમાંથી ૨૦૦૦ એજન હદનું પ્રમાણ બાદ કરીએ તે ૧૪૮૪ર એજન શેષ રહે છે. તે આ સંખ્યાને અધ કરવામાં આવે તે પૂર્વોક્ત પ્રમાણે નીકળી આવે છે. એ હરિત નામક મહાનદીની જિલ્દિકાનું, કુંડનું, હરિદ્વીપનું અને ભવનનું પ્રમાણુ હરિકાન્તાના પ્રકરણમાં જે રીતે એ સર્વનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે, તેવું જ છે. તેમજ હરિદ્વીપ એવું નામ છે તેનું કારણ પણ હરિકાન્તાના પ્રકરણ મુજબ જ જાણું લેવું જોઈએ. એ પૂર્વોક્ત કથનના સંબંધમાં આ પ્રમાણે સ્પષ્ટતા કરી શકાય કે એ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छहदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४३ महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु मह देकं हरित्प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् , तच्च द्वे च चत्वारिंशे योजनशते आयामविष्कम्भेण सप्त एकोनषष्टानि योजनशतानि परिक्षेपेण अच्छम् एवं कुण्डस्य वक्तव्यता सर्वा नेतव्या यावत् खलु हरित्प्रपातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु महानेको हरिद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः द्वात्रिंशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण द्वौ क्रोशावुच्छ्रितो जलान्तात् सर्वरत्नमयः अच्छ, स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः अत्र पद्मवरवेदिका वननदी जिस स्थान से कुण्ड में गिरती है वहां एक महती जिहविका प्रणाली है इसका आयाम दो योजन का हैं विस्तार २५ योजन का है बाहल्य इसका आधे योजन का है तथा मगर के खुले हुए मुख का जैसा आकार होता है वैसा ही इसका आकार हैं यह सर्वात्मना रत्नमयी है तथा अच्छ आकाश और स्फटिक के जैसी सर्वथा निर्मल है। हरित महानदी जहां पर पर्वत के ऊपर से गिरती है वहां पर एक हरिप्रपात कुण्ड हैं इस कुण्ड का आयाम और विष्कम्भ २४० योजन का है तथा ७५० योजन का इसका परिक्षेप है यह अच्छ आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है और सर्वात्मना रत्नमय है ! इस तरह की जो कुण्ड की व्यक्तव्यता कही जा चुकी है वह सब तोरण तक उसी प्रकार से यहां पर भी कह लेनी चाहिये इस हरिप्रपात कुण्ड के बिलकुल मध्य भाग में एक हरिद्वीप नाम का द्वीप है । इसका आयाम और विष्कम्भ ३२ गोजन का है और १०१ योजन का इसका परिक्षेप है यह पानी के ऊपर से दो कोश ऊंचे उठा है यह द्वीप भी सर्वात्मना रत्नमय है और अच्छ हैं । यह द्वीप चारों ओर से एक पद्मवर वेदिका से और एकवनषण्ड से घिरा हुआ है। यहां पर पद्मवरवेહરિત મહાનદી જે સ્થાન પરથી કુંડમાં પડે છે, ત્યાં એક વિશાળ જિહિકા પ્રણાલી છે. એને આયામ બે જન જેટલું છે. અને વિસ્તાર ૨૫ પેજન જેટલે છે. એનું બાહલ્ય અર્ધા જન જેટલું છે. તેમજ મગરના ખુલા મુખને જેવો આકાર હોય છે તે જ આને આકાર છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી છે. તેમજ અચક, આકાશ અને સ્ફટિક જેવી સર્વથા નિર્મળ છે. હરિત મહાનદી જ્યાં પર્વત ઉપરથી નીચે પડે છે ત્યાં એક હરિ—પાત કુંડ આવેલ છે. એ કુંડનો આયામ અને વિષ્કભ ૨૪૦ એજન જેટલો છે તેમજ ૭૫૯ એજન એટલે એને પરિક્ષેપ છે. એ અચ્છ આકાશ અને સ્ફટિકવત્ નિર્મળ છે અને સર્વાત્મના રત્નમય છે. આ પ્રમાણે જે કુંડની વક્તવ્યતા કહેવામાં આવેલી છે તે બધી તરણ સુધીની તે પ્રમાણે જ અહીં જાણી લેવું જોઈએ. એ હરિ–પાત કુંડના એકદમ મધ્ય ભાગમાં એક હરિદ્વીપ નામક દ્વીપ છે. એ દ્વીપને આયામ અને વિખંભ ૩૨ જન જેટલું છે અને ૧૦૧ જન એટલે એને પરિક્ષેપ છે, એ પાણીની ઉપરથી બે ગાઉ ઊ એ ઉઠે છે. એ દ્વીપ પણ સર્વાત્મના રનમય છે અને અછ છે. એ દ્વીપ ચોમેરથી એક પદ્વવારેવેદિકાથી અને એક Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पण्डयो वर्णको भणितव्यः स च पञ्चमपष्ठसूत्रतो बोध्यः, तस्य खलु हरित्प्रपातकुण्डस्य औचराहेण तोरणेन यावत् प्रव्यूढा सति हरिवर्ष वर्षमे जमाना २ विकटापातिन वृत्तवैताहचं योजनेन असम्प्राप्ता पथिमाभिमुखी आवृत्ता सति हरिवर्ष द्विधा विभजमाना, २, इति, एतदेव सूचयितुमाह-'जाब अहे जगई दालइत्ता' इत्यादि, यावत् अधो जगती दारयित्वा अध:-अधो. भागे जगतीं पृथ्वी दायित्वा भित्वा 'छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरस्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ' पट् पञ्चाशता सलिलासहस्रैः महानदीसहस्रः समग्रा परिपूर्णा पौरस्त्यं पूर्वदिग्भवं लवणसमुद्रं सपाप्नोति, 'तं चेव पवहे य मुहमूले य पमाणं उव्वेहो य जो हरिकंताए जाव व संडसंपरिक्खित्ता' तदेव हरिकान्ता प्रकरणोक्तमेव प्रबहे च सुखमूले च प्रमाणमुद्रेधश्च यो हरिकान्तायाः यावत् वनपण्डसंपरिक्षिप्ता तथाहि-हरिता खलु महानदी प्रबहे पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण अर्द्धयोजनपुद्वेधेन तदनन्तरं च खलु मात्रया २ परिवर्द्ध माणा २ मुखमूले अर्द्धतूतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण पञ्च योजनानि उद्वेधेन, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता, इति, 'तस्स दिका और बनवण्ड का वर्णन कर लेना चाहिये यह वर्णन पंचम और छठे सूत्र से जान लेना चाहिये । उस हरितप्रपात कुण्ड के उत्तर दिग्वः तोरण द्वार से यावतू निकलनी हुई यह हरित महानदी हरिवर्ष क्षेत्रकी ओर आती २ विकटा पाती वृत्तवैताढय पर्वत की एक योजन दूरी पर छोड देती है और फिर वहां से पश्चिमकी ओर मुड़कर हरिचर्ष क्षेत्र के मध्यभाग में बहती है इससे इस क्षेत्र के दो हिस्से हो जाते हैं-फिर वहां से जम्बूद्वीप की जगती विदीर्णकर ५६ हजार नदियों के परिवार से युक्त हुई यहमहानदी पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र में आकर मिल जाती है यह हरित महानदी प्रवह में विष्कम्भकी अपेक्षा २५ योजन प्रमाण है और उद्वेध इसका आधे योजन का है इसके बाद बढते बढते मुखमूल में यह २५० योजन की विष्कम्भकी अपेक्षा हो गई है और उद्वेध इसका ५ योजन का हो गया है दोनों पार्श्व भागों में यह दो पद्मवर वेदिकाओं વનપંડથી આવૃત છે. અહીં પવરવેદિકા અને વનણંડનું વર્ણન સમજી લેવું જોઈએ એ વર્ણન પાંચમા અને છટ્ટા સૂત્રમાંથી જ શું લેવું જોઈએ. એ હરિપ્રપાત કુંડના ઉત્તર દિગ્ગત તેરણ દ્વારથી યાવત્ નીકળતી એ હરિત્ મહાનદી હરિવર્ષ ક્ષેત્રની તરફ પ્રવાહિત થતી વિટાપાતી વૃત્ત વૈતાઢય પર્વતને એક જન સુધી દૂર છોડી દે છે, અને પછી ત્યાંથી તે પશ્ચિમ તરફ થઈને હરિવર્ષ ક્ષેત્રના મધ્ય ભાગમાં પ્રવાહિત થાય છે. એથી આ ક્ષેત્રના બે ભાગ થઈ જાય છે. પછી ત્યાંથી જ બૂદી પમાં પ્રવાહિત થતી અને ૫૬ હજાર નદીઓના પરિવાર સાથે સંસ્કૃત થઈને એ મહાનદી પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રમાં આવીને મળે છે. એ હરિત મહાનદી પ્રવાહમાં વિખંભની અપેક્ષાએ ૨૫ જન પ્રમાણ છે અને આને ઉદ્વેધ અર્ધા યેાજન જેટલું છે ત્યાર બાદ વૃદ્ધિ પામીને મુખ મૂલમાં એ ૨૫૦ એજન જેટલી વિષ્કભની અપેક્ષાએ અને ઉધની અપેક્ષાએ એ ૫ જન જેટલી વિસ્તૃત થઈ ગઈ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः स्. १६ तिगिच्छहृदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४५ तिर्गिछिद्दहस्य उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सोभोया महाणई पवूढा समाणी' तस्य पूर्वोक्तस्य खलु तिगिच्छिहृदस्य औत्तराहेण उत्तरदिग्भवेन, तोरणेन बहिर्द्वारेण शीतोदा महानदी प्रव्यूढा निःता सती 'सत्त जोयणसहरसाईं चत्तारि य एगवी से जोयणसए एगं च एगूणवीस भागं जोयणस्स' सप्त योजनसहस्राणि चत्वारि च एकविंशानि एकविंशत्यधिकानि योजन - शतानि एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य 'उत्तराभिमुही पव्वणं गंता महया घडमुहपविचिएणं जाव साइरेग चउनोयणसइएणं पवाएणं पवडइ' उत्तराभिमुखी उत्तरदिभिमुखी पर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तिकेन बृहद्घटमुखा च्छन्दायमानजलौघवत्प्रवृत्तिशालिना अस्य प्रपातेनेत्यग्रिमेण सम्बन्धः पुनः कीदृशेन ? इत्याह- यावत् यावत्पदेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन - एतद्वयाख्या - हरिकान्ता प्रकरणवत् सातिरेकयो जनशतिकेन साधिकयोजनशतप्रमासे और दो वनषंडों से परिक्षिप्त है (तस्सणं तिगिंछिद्दहस्त उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओओ महाणई पवूढा समाणी सत्त जोयणसहस्साइं चत्तारिय एगवीसे जोयणसए एगंच एगूणवीसईभागं जोयणस्स उत्तराभिमुही पव्चएणं गंता महया घटमुह पवित्तिएण जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पवाएणं पवडइ) उसे तिििछहद के उत्तर दिग्वर्ती तोरण से सीतोदा नामकी महानदी निकली है यह महानदी पर्वत के उपर ७४२१ योजन तक उत्तर दिशा की ओर बहकर फिर यह घट के मुख से निकले हुए जलप्रवाह के तुल्य वेगशाली अपने विशाल प्रवाह से प्रपातकुण्ड में गिरती है । इसका प्रवाह प्रमाण कुछ अधिक सौ योजन का कहा गया है यह सीतोदा महानदी जहाँ से प्रपात कुण्ड में गिरती है वहां पर एक विशाल जिविका है इसका प्रमाण आवाम की अपेक्षा ४ योजन का है और विष्कम्भ ५० योजन का है तथा १ योजन का इसका बाहुल्य हैं इसका आकार मगर के खुले हुए मुख जैसा है तथा यह सर्वात्मा वज्रमयी છે. બન્ને પા ભાગેામાં એ એ પદ્મવરવેદિકાઓથી અને એ વનડાથી પરિક્ષિત છે. 'तस्स णं तिगिं छिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआमहाणई पवूढा समाणी सत्त जोयण सहस्साई चत्तारिय एगविसे जोयणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोयणस्स : उत्तराभिमुद्दी पव्वणं गंता महया घटमुपवित्तिएणं जाव साइरेग चउ जोयणसइएणं पवाएणं पवडई' તે તિગિષ્ટિ હદના ઉત્તર દિગ્બી તેરણાથી સીતાદા નામે મહાનદી નીકળે છે. એ મહા નદી પંતની ઉપર ૭૪૨૧૯ યાજન સુધી ઉત્તર દિશા તરફ પ્રવાહિત થઈને પછી એ ઘટના મુખમાંથી નીકળતા જલપ્રવાહની જેમ વેગશાલી પેાતાના વિશાલ પ્રવાહથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. એનુ... પ્રવાહે પ્રમાણ કંઈક વધારે ૧૦૦ સેાજન જેટલુ કહેવામાં આવેલ છે. એ સીતાદા મહાનદી જ્યાંથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે ત્યાં એક વિશાળ જિહ્નિકા છે. એનુ' આયામની અપેક્ષાએ પ્રમાણ ૪ ચેાજન જેટલુ અને વિકલનો અપેક્ષાએ ૫૦ ચેજન જેટલુ' છે. તેમજ એક ચેાજન જેટલા પ્રમાણનુ આનુ ખાહુલ્ય છે. એના આકાર મગરના खुला भुना वे छे तेभर मे सर्वात्मना वक्रभयी छे, भने सर्वथा निर्माण छे. 'सीओ ज० १९ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे णेन प्रपातेन प्रपतति । 'सीओयाणं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पण्णत्ता' शीतोदा खलु महानदी यतः प्रपतति अत्र खलु महत्येका जिविका - प्रणाली प्रज्ञप्ता, तस्या मानाद्याह- 'चत्तारि' इत्यादि । 'चत्तारि जोयणाई आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं atri वाहणं मगरमुह विउद्वसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा' चत्वारि योजनानि आयामेन पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन मकरमुखविवृतसंस्थान संस्थिता सर्ववज्रमयी अच्छा प्राग्वत्, अथ कुण्डस्वरूपमाह - 'सीओया णं' इत्यादि, 'सीओया णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे सीओयप्पवायकुडे णामं कुडे पण्णत्ते, चत्तारि असीए जोयणसए आयाम विक्खंभेणं पण्णरस अट्ठारे जोयणसए किंचिविसेणे परिक्खेवेणं अच्छे एवं कुंडवत्तव्वया यव्त्रा जाव तोरणा' शीतोदा खलु महानदी यत्र प्रपतति अत्र खलु महदेकं शीतोदा प्रपातकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, चत्वारि अशीतानि - अशीत्यधिकानि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, पञ्चदश अष्टादशानि अष्टादशाधिकानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, अच्छम् एवं कुण्डवक्तव्या नेतव्या यावत् तोरणाः । अत्र कुण्डस्य योजन - प्रमाणं हरिकुण्डतो द्विगुणं बोध्यम् । अथ शीतोदा द्वीपस्त्ररूपमाह - 'तस्स णं सीओयप्पवायकुंडस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं महं एगे सीओयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' तस्य खल शीतादापातकुण्डस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र अत्रान्तरे खलु महानेकः शीतोदा द्वीपों नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः, तस्य मानाद्याह- 'चउसट्ठि जोयणाई' चतुष्षष्टि योजनानि 'आयामविवखंभेणं है और विलकुल निर्मल है (सीओआणं महाणई जहिं पवडई एत्थ णं महं एगे सीओयप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते) सीतोदा महानदी जहां पर गिरती है वहां पर एक सोतोदाप्रपातकुण्ड कहा गया है (चत्तारि असीए जोयणसए आयामविक्खंभेणं पण्णरस अट्ठारे जोयणसए किंचि विसेसृणे परिक्खेवेणं अच्छे, एवं कुण्डवत्तव्त्रया णेयव्वा ४८० योजन का इसका आयाम और विष्कम्भ है तथा कुछ कम १५१८ योजन का इसका परिक्षेप है यह बिलकुल स्वच्छ है इस प्रकार से यहाँ कुण्डके सम्बन्धकी वक्तव्यता कह लेनी चाहिये (तस्सणं सीओअप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीओ अदीवे णामं दीवे पण्णत्ते) इस सीतोदा प्रपातकुण्ड के ठीक बीच भाग में एक आणं महाणाई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे सीओयप्पवाय कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' सतोहा भडा नही नयां पडे हे त्यां सीता प्रपात नाभ ॐ भावे छे. 'चत्तारि असीए जोयणसए आयामविक्खंभेणं पण्णरस अट्ठारे जोयणसए कि चिविसेसूणे परिक्खेवेणं अच्छे कुण्डवत्तव्त्रया णेयव्वा' ४८० योजन प्रभाशु भेने। आयाम छेतेन ક્રમ ૧૫૧૮ ચેાજન જેટલેા એના પરિક્ષેપ છે. એ સથા આ પ્રમાણે અહી કુંડ સંબંધી વક્તવ્યતા सम सेवी लेहये. 'तस्स णं सीओअप्पवायकुडस्स बहुमज्झ सभाए एत्थ णं महूं एगे सीओअदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' मे सीतोहा प्रपात डुडना ही मध्य थेने विष्णुं સ્વચ્છ છે. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १४७ दोण्णि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे सेसं तमेव' आयामविष्कम्भेण द्वे द्वयुत्तरे योजनशते परिक्षेपेण द्वौ क्रोशौ उच्छितो जलान्तात् सर्ववज्रमयोऽच्छः, नवरम् शेषम् उक्तातिरिक्तं तदेव गङ्गाद्वीपप्रकरणोक्तमेव तच्च शिष्यस्मर. णार्य शेषं नामतो निर्दिशति-'वेइया वणसंड' इत्यादि, 'वेइया वणसंडभूमिभागभवणसयणिज्ज अट्ठो भाणियबो' तत्र वेदिका पद्मवरवेदिका वनषण्डः भूमिभागः भवनं शयनीय च मूले प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः तथा अर्थः नामहेतुः भणितव्यः-वक्तव्यः स च गङ्गाद्वीपवत् । अथास्याः समुद्रप्रवेशप्रकारमाह-'तस्स णं सीओयप्पवायकुंडस्स' इत्यादि, 'तस्स णं सीओयप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं' तस्य खलु शीतोदाप्रपातकुण्डस्य औतराहेण उत्तरदिग्भवेन तोरणेन बहिारेण 'सीओया महाणई पवूढा समाणी' शीतोदामहानदी प्रव्यूढानिःसृता सती 'देवकुरु एज्जेमाणा' देवकुरून् मूले प्राकृतत्वादेकवचनम् , एजमाना २ गच्छती २ 'चित्तविचित्तकूडे पव्वए निसढ देवकुरुसूर-सुलस-विज्जुप्पभदहे अदुहा विभयमाणी सीतोद द्वीप नाम का द्वीप है (चउसटि जोयणाई आयामविक्खंभेणं दोणि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे असिए जलं ताओ सव्ववइरामए अच्छे) इसका आयाम और विष्कम्भ ६४ योजन का है तथा २०२ योजन का इसका परिक्षेप है यह जल के ऊपर से दो कोश ऊंचा उठा हुआ है यह द्वीप सर्वात्मना रत्नमय है और बिलकुल साफ-स्वच्छ है।.(सेयं तमेव वेइया वणसंडे-भूमिभाग भवण सयर्णिजइहो भाणियन्यो) गङ्गाद्वीपप्रकरण में जैसा पद्मवरवेदिका, धनखंड, भूमिभाग, भवण शयनीय और उसके इसप्रकार के नाम होने का हेतु कहा गया है वैसाही वह सब प्रकरणानुसार यहां पर भी कह लेना चाहिये (तस्सणं सीओअपप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महणई पवूढा समाणी देवकुरुं एज्जमाणा २ चित्तविचित्त कूडे परवए निसढदेवकुरु सूरसुलस विज्जुप्पभदहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्से हिं मागमा ४ सीता दीप नाम४ बी५ छ.' चउसद्धि जोयणाई आयामविक्खंभेणं दोणि वि उत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्ववइरामए अच्छे' मेन मायाम અને વિખંભ ૬૪ જન જેટલો છે. તેમજ ૨૦૨ જન એટલે એને પરિક્ષેપ છે. એ પાણી ઉપર બે ગાઉ સુધી ઉપર ઉઠેલ છે. એ દ્વીપ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને सया नि . 'सेयं तमेव वेइयावणसंडे भूमिभाग भवणसयणिज्जइट्ठो भाणियव्वो' ગંગા દ્વીપ પ્રકરણમાં જેવી પદ્યવરદિકા, વનખંડ, ભૂમિભાગ, ભવન, શયનીય અને ત્યાં તેમના નામ વિષે જે કારણે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલાં છે તેવું જ સર્વ કથન અહીં પણ ४२४ानुसार one से नये. 'तस्स णं सीओअप्पवायकुंडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महाणई पवूढा समाणी देवकुरु एज्जमाणा २ चित्त विचित्त कूडे पब्बए निसढ देवकुरु सूर सुलभ विज्जुपमदहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहि आपु. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे २' चित्रविचित्रकूटौ पूर्वापरतटवर्तिनौ पर्वतौ निषध १ देवकुरु २ सूर ३ मुलस ४ विद्युत्प्रभ५ ह्रदान् च द्विधा विभजमाना तन्मध्ये वहन्ती २ विभागक्रमश्चायम्-चित्रविचित्रकूटपर्वतयो मध्ये वहनेन चित्रकूट पर्वतं पूर्वतः कृत्वा विचित्रक्टं च पश्चिमतः कृत्वा देवकुरुषु वहन्तीतिभावः, हृदांश्च पश्चापि समश्रेणि वर्तिन एकैकशो द्विधा विभजमाना वहन्ती अत्रान्तरे देव. कुरु वर्तिभिः 'चउरा सीए सलिलासहस्सेहिं आरेमाणी २' चतुरशीत्या सलिला सहः महामदीसहस्रेः आपूर्यमाणा २ भ्रियमाणा २ 'भइसालवणं एज्जेमाणी २' भद्रसालवनं मेरुप्रथमवनम् एजमाना २ गच्छन्ती २। 'मंदरं पव्वयं दोहिं जोयणेहिं असंपत्ता पच्चत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणी' मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्याम् असम्बाप्ता असंस्पृशन्ती शीतोदा मेरोंरष्टौ क्रोशा अन्तरालमित्यर्थः, ततः पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता परावृत्ता सती 'अहे विज्जुप्पभं आपूरेमाणी २ भदसालवणं एज्जेमाणी २) उस सीतोदा प्रपातकुण्ड के उत्तर दिग्वर्ती तोरण द्वार से सीतोदा महानदी निकली है और निकलकर वह देवकुरुक्षेत्र में जाती २ पूर्व और अपर तटवर्ती चित्रविचित्र कूटों को-पर्वतों को निषध देवकुरु सूर सूलस एवं विद्युत्प्रभ इन समश्रेणिवर्ती पांच ह्रदों को विभक्त करती है उनके बीच में होकर वहती है विभागक्रम इस प्रकार से है चित्रविचित्र पर्वतों के बीच में वहनेसे चित्रकूटपर्वतको पूर्व में करके और विचित्रकूट पर्वतको पश्चिममें करके यह नदी देवकुरुमें वहती है समश्रेणिवर्ती पांचो हदों को एक एक करके प्रत्येक ह्रदको विभक्त करती है और उनमें बहती है इसी के दरम्यान वह देवकुरुवता ८४ हजार नदियों से युक्त हो जाती है भर जाती है एवं मेरु का जो प्रथमवन भद्रसाल वन है वहां जाती है जाते २ यह (मंदरपवयं दोहिं जोयणेहिं असंपत्ता) मेरु को तो २ योजन दूर परही छोडती जाती है इस तरह शीतोदा और मेरुका अन्तराल आठकोशका हो जाता है रेमाणी २ भइसालवणं एज्जेमाणी २' सीतह प्रपात उना उत्तरपिता तारण દ્વારથી સીતેરા મહા નદી નીકળે છે, અને નીકળીને તે દેવ કુરુક્ષેત્રમાં પ્રવાહિત થતી થતી પૂર્વ અને અપર તટવતી ચિત્ર-વિચિત્ર ફૂટને–પર્વતને-નિષધ, દેવકુફ સૂર સુલસ તેમજ વિદ્યુપ્રભ એ સમશ્રેણિવતી પાંચ હુને વિભક્ત કરતી તેમની મધ્યમાં થઈને પ્રવાહિત થાય છે. તે સંબંધમાં વિભાગકમ આ પ્રમાણે છે-ચિત્ર-વિચિત્ર પર્વ તેની વચ્ચે પ્રવાહિત થાય છે તેથી ચિત્રકૂટ પર્વતને પૂર્વમાં રાખીને અને વિચિત્ર ફૂટ પર્વતને પશ્ચિમમાં રાખીને આ નદી દેવકુમાં પ્રવાહિત થાય છે. સમશ્રેણિવતી પાંચે પાંચ હદેને એક એક કરીને દરેક હદને આ વિભક્ત કરે છે અને તેમની અંદરથી પ્રવાહિત થાય છે. એ સમયમાં જ એ દેવકરુવતી ૮૪ હજાર નદીઓથી યુકત થઈ જાય છે અને પ્રજ્વરિત થઈ જાય છે. અને પછી મેરુનું જે પ્રથમ વન ભદ્રશાલ વન છે ત્યાં જાય છે. જતાં જતાં से 'मंदरपव्वयं दोहिंजोयणेहि असंपत्ता' भेने तो ये २ योभन ६२५ भूही हे छ. या प्रमाणे शीता मन भे १२व्येन। सन्त माने थय छे. 'पच्चत्थिमाभिमुही' पछी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १६ तिगिच्छदात् दक्षिणेन अवमाननदीवर्णनम् १४९ वक्खारपव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पव्ययस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं' अधः अधोभागे विद्युत्प्रभं तनामकं वक्षस्कारपर्वतं नैतकोणवर्तिकुरुगोपकपर्वतं दारयित्वा भित्त्या मन्दरस्य पर्वतस्य पश्चिमेन अपरविदेहवर्ष-पश्चिमविदेहवर्ष 'दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चकवटिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहि द्विधा विभजमाना २ एकैकस्मात् चक्रवर्तिविजयात् अष्टाविंशत्या २ सलिलासहस्रैः महानदीसहस्रैः आपूरेमाणी २ आपूर्यमाणा२ संभ्रिः यमाणा २ तथाहि-अस्याः शीतोदा नद्या दक्षिणतटवर्तिषु अष्टासु विजयेषु गङ्गा सिन्धू इमे द्वे द्वे महानद्यौ चतुर्दश २ सहस्रनदीपरिवारयुते उत्तरतटवर्तिषु अष्टासु विजयेषु रक्तारक्तवत्यौ द्वे द्वे महानद्यौ चतुर्दश २ सहस्रनदीपरिवारयुते स्तः इति प्रतिविजयमष्टाविंशति नदीसहस्राणि । अथास्याः सकलनदीपरिवारं विशेषेण द्वारपरिगणयन्नाह-'पंचहि सलिलासयसहस्से हिं' पञ्चभिः सलिलाशतसहस्त्रैः महानदीलक्षेण 'दुतीसाए य सलिलासहस्से हिं समग्गा' (पच्चत्थिमाभिमुही) फिर यह पश्चिमकी ओर मुड़कर (अहे विज्जुप्पभं वक्खार पवयं दारइत्ता मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवद्विविजयाओ अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं आपू. रेमाणी २ पंचहिं सलिलासयसहस्सेहिं दुतीसाए य सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जयंतस्स दारस्स जगई दाल इत्ता पंचत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ) अधो. भागवर्ती विद्युत्प्रभ नाम के वक्षस्कार पर्वतको नैत्रत दिग्वतां कुरु गोपक पर्वत को-विभक्त करती हुई मन्दर पर्वतकी पश्चिम दिशा में वर्तमान अपर विदेहक्षेत्र में पश्चिमविदेह क्षेत्र में वहती है वहां पर इसमें एक एक चक्रवर्ती विजय से आ आकर २८-२८ हजार नदियां और दूसरी मिलजाती है चक्रवर्ति विजय १६ हैं इन सोलह चक्रवर्तिविजयों की २८-२८ हजार नदियों के हिसाब से ४४८००० नदियोंकी संख्या हो जाती है तथा इस संख्या में देवकुरुगत ८४००० नदियोंकी संख्या जोड़ देने पर यह सब नदियों की-परिवार नदियोंकी-संख्य से पश्चिम त२३ ४२ 'अहे विज्जुप्पमं वक्खारपव्वयं दारइत्ता मंदरस्स पव्वयस्त पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं यासं दुहा विभयमाणी २ एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए सलिलासह. स्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहि सलिलासयसहस्सेहिं दुतीसाए य सलिलासहस्से हिं समगा अहे जयं तस्स दारस्स जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लरणसमुदं समप्पेइ' मा माती विद्युत् मनाम: વક્ષસ્કાર પર્વત નૈઋત્ય દિગ્વતી, કુરુપક પર્વતને વિભક્ત કરતી મંદર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં વિદ્યમાન અપર વિદેહ ક્ષેત્રમાં અને પશ્ચિમ વિદેહ ક્ષેત્રમાં વહે છે. ત્યાં એમાં એક-એક ચક્રવર્તી વિજયથી આવી આવીને ૨૮–૨૮ હજાર બીજી નદીઓ મળે છે. ચક્રવતિ વિજ ૧૨ છે. એ ૧૬ ચકચતિ વિજયની ૨૮–૨૮ રહસ નદીઓના હિસાબથી ૪૪૮૦૦૦ જેટલી નદીઓની રાખ્યા થઈ જાય છે. તેમજ એ સંખ્યામાં દેવકુરુગત ૮૪૦૦૦ નદીઓની સંખ્યા જેડીએ તે એ સર્વ નદીઓને પરિવાર–સર્વ નદી ઓની સંખ્યા-પ૩૨૦૦૦ થઈ જાય છે. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे द्वात्रिंशता च सलिला सहस्रैः समग्रा परिपूर्णा तथादि-तटद्वयवर्तिषु षोडशसु विजयेषु अष्टाविंशतिर नंदीसहस्राणी त्यष्टाविंशतिसहस्राणि पोडशभिर्गुण्यन्ते, तथागुणने चतुर्लक्षाणि अष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि जातानि अत्र राशौ कुरुग ८४ सहस्रनदीप्रक्षेपे यथोक्तं मानं जातमिति, 'अहे जयंतस्स दारस्स जगईं दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समुप्पे ' अधः अधोभागे जयन्तस्य द्वारस्य पश्चिम दिग्वर्ति जम्बूद्वीप द्वारस्य जगतीं पृथ्वीं दारयित्वा भित्त्वा पश्चिमेन पश्चिमभागेन लवणसमुद्रं समाप्नोति । अथास्याः शीतोदाया मानाद्याह- 'सीओया णं महाणई' शीतोदा खलु महानदी 'पवहे पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं जोयणं उब्वेहेणं' प्रवहे ह्रदानि ५३२००० आ जाती है इसी बात को सूत्रकारने (एग मेगाओ चक्कवहिविजयाओ" आदि सूत्रपाठद्वारा समझाया है ये चक्रवर्तिविजय शीतोदा महानदी के दक्षिण तटपर आठ हैं और उत्तरदिग्वर्ती तट पर आठ हैं दक्षिण दिग्वर्ती तट पर जो आठ चक्रवर्ती विजय हैं उनमें गङ्गा और सिन्धु ये दो नदियां अपनी अपनी २१४ हजार नदियों के परिवार वाली हैं और उत्तर दिग्वर्ती तट पर जो चक्रवर्ती विजय है उनमे रक्ता और रक्तवती ये दो महानदियां हैं इनकी भी परिवारभूत नदियां १४ १४ हजार हैं । इस तरह हूर एक विजय में २८ २८ हजार नदियों का समूह है अतः १६ विजयों में वह परिवार कितना होगा ? तो इसे निकालने के लिए गणित पद्धति के अनुसार २८ हजार के साथ १६ का गुणा करने पर यह परिवार पूर्वोक्त रूपसे आ जाता है और फिर उसमें देवकुरुगत नदियों की संख्या जोड देने पर यह परिवार ५ लाख ३२ हजार हो जाता है । फिर यह नदीं वहां से मुडकर जम्बूद्वीप के पश्चिमदिग्वर्ती जयन्त द्वार की जगती को फोडकर पश्चिमभाग से लवणसमुद्र - - ये वातने सूत्रारे 'एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ' वगेरे सूत्रपाठ वडे स्पष्ट रीछे से ચક્રવતી વિજયા શીતેાદા મહાનદીના દક્ષિણ તટ ઉપર આઠ છે અને ઉત્તર દિગ્દર્તી તટ ઉપર આઠ છે, દક્ષિણ દિગ્ધતિ તટ પર જે આઠ ચક્રવતી વિજયા છે, તેમાં ગંગા અને સિંધુ એ એ નદીએ પોતપાતાની ૧૪ હજાર નદીએના પરિવારથી યુક્ત છે અને ઉત્તરદિગ્વી તટ તરફ જે આઠ ચક્રવર્તી વિજયે છે, તેઓમાં રક્તા અને રક્તવતી એ બે મહાનદીઓ છે. એ નદીઓની પરિવાર ભૂત અન્ય નદીઓ પણ ૧૪-૧૪ હજાર છે. આ પ્રમાણે દરેકે દરેક વિજયમાં ૨૮-૨૮ હૅર નદીઓને! સમૂહ છે. હવે ૨૬ વિજયામાં આ પરિવાર કેટલેા હશે ? એ જાણવા માટે ગણિત પદ્ધતિ મુજમ ૨૮ હજારની સથે ૧૬ના ગુણાકાર કરીએ તે આ પરિવાર પૂર્વોક્ત રૂપમાં આવી જાય છે. અને પછી તેમાં ધ્રુવકુરુગત નદીએની સંખ્યા જોડીએ તે એ પરિવાર ૫ લાખ, ૩૨ હજાર થઈ જાય છે. પછી આ નદી ત્યાંથી વળીને જમૂદ્રીપના પશ્ચિમ દિગ્વી જયન્ત દ્વારની જગ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू. १६ तिगिच्छहदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १५१ र्गमे पञ्चाशतं योजनानि विष्कम्भेणं विस्तारेण हरिनदी प्रवहादस्याः प्रवहस्य द्विगुणत्वात्, योजनमुद्वेधेन उण्डत्वेन, 'तयणंतरं च णं मायाए २ परिवद्धमाणी २' तदनन्तरं च मात्रया २ क्रमेण २ प्रतियोजनं समुदितयोर्द्वयोः पार्श्वयो रशीति धनुर्बुद्धया प्रतिपार्श्व चत्वारिंशद्धनुर्वृद्धयेत्यर्थः परिवर्द्धमाना २ 'मुहमूले पंव जोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उब्वेहेणं उभओ पासिं दोडिं' मुखमूले सागरप्रवेशे पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण प्रवहविष्कम्भापेक्षया मूखमूलविष्कम्भस्य द्विगुणत्वात्, दश योजनानि उद्वेधेन भूप्रवेशेन आद्यप्रवहोद्वेषापेक्षयाऽस्य दशगुणत्वात् उभयोः पार्श्वयोः भागयोः द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता' पद्मवर वेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ता । अथ निपधवर्षधर पर्वते कूटवक्तव्यमाह - 'सिढे णं भंते' निषधे खलु भदन्त ! ' वासहरपव्व णं में प्रवेश करती है (सीओयाणं महाणदी पवहे पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं जोयण उव्वेहेणं, तयणंतरंच णं मायाए परिवद्धमाणी२ मुहमूले पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उच्चेहेणं उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय . वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता) यह सीतोदा महानदी हूद से निर्गम के स्थान में हरित नदी के प्रवह की अपेक्षा उसके द्विगुणित होने से ५० योजन के विस्तार वाली है, उद्वेध इसका एक योजन का है इसके बाद वह क्रमशः बढती हुई प्रतियोजनपर दोनों पार्श्वभाग में ८० धनुषकी वृद्धिवाली होती २ अर्थात् एक पार्श्व में ४० धनुष की वृद्धि से वर्धित होती २ मुखमूल में - सागर में प्रवेश करने के स्थान में - यह पांचसौ योजन तकके मुखमूल विष्कम्भवाली हो जाती है क्यों कि वह विष्कम्भ की अपेक्षा मुखमूल का विष्कम्भ दुगुणा हो जाता है यह दोनों पार्श्वभाग में दो पद्मवर वेदिकाओं से और दो वनषंडो से परिक्षिप्त है (सिहे गंभते ! वासहरपव्वए णं कइ कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! निषध नाम तीने लेहीने पश्चिम लाग तर श्री सवशु समुद्रमा प्रवेश ४२ छे. 'सीओया णं महानदी पवहे पण्णासं जोयणारं विक्खंभेणं जोयणं उव्वेद्देणं, तयणंतरं च णं मायाए परिवद्धमाणी २ मुहमूले पंच जोयणसयाइ' विक्खंभेणं दसजोयणाई उब्वेहेणं उभोपासिं दोहिं परमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहि संपरिक्खित्ता' मा सीतोहा महानही हृदयी निर्गमन स्थानमां हरित નદીના પ્રવાહની અપેક્ષાએ તે દ્વિગુણિત છે તેથી પચાસ ચેાજન જેટલા વિસ્તારવાળી છે. એક ચેાજન જેટલેા એના ઉદ્દેધ છે. ત્યાર બાદ એ ક્રમશ અભિવર્ધિત થતી પ્રતિયેાજન અન્ને પાશ્ર્વભાગમાં ૮૦ ધનુષ જેટલી વૃદ્ધિ પામતી એટલે કે એક પાર્શ્વમાં ૪૦ ધનુષ જેટલી વિત થતી મુખમૂલમાં–સાગરમાં પ્રવિષ્ટ થાય તે સ્થાનમાં એ પાંચસો ચેાજન સુધીના મુખમૂલ વિષ્ણુભવાળી થઈ જાય છે કેમકે પ્રવહુ વિષ્ઠભની અપેક્ષા સુખમૂળના વિષ્કભ દ્વિગુણિત થઈ જાય છે. એ અને પાશ્વ ભાગ એ પદ્મવરવેદિકાએથી અને એ वनष डोथी सपरिक्षित छे. 'णिसणं भंते ! वासहरपव्वणं कइ कूडा पण्णत्ता' हे लहंत ! Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कइकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! णवकूडा पण्णता वर्षधरपर्वते कति कुटालि प्रज्ञशानि ? भगवा. नाह-हे गौतम! नव कूटानि प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा-सिद्धाययणकडे ?, णिसटकूडे २ हरिवासकूडे ३ पुत्रविदेह कूडे ४ हरिकूडे ५ घिईकूडे ६ सीओयाकूडे ७ अवरविदेहकूटे ८ रुयगकूडे ९ जो चेत्र चुल्लहिमवंतक्डाणं उच्चत्तविवखंभपरिक्खेवो पुव्यवष्णिो यहाणी य सच्चेव इहपि णेयच्या' नवरम् सिद्धायतने कूटम् १ निषधकूटम्-निषधवर्षधर पर्वताधिषवासं. कूटम् २, हरिवर्षक्टम्-हरिवर्षक्षेत्राधिएकूटम् ३ पूर्वविदेहकुटं-पूर्वविदेहाधिपकटम् ४, हरिकूट-हरि सलिलानदी देवी कूटम् ५, धृतिकूटम्-धृतिः तिगिञ्छिहृदाधिष्ठात्रीदेवी तस्याः कूटम् ६, शीतोदाकूट-शीतोदानदी देवीकूटम् ७, अपरविदेहकूटम्-अपरविदेहाधिपकूटम् ८, रुचाकूटं-रुचकः चक्रवालपर्वतविशेपस्तत्पतिकूटम् ९, अत्र वक्तव्येऽतिदेशसूत्रमाह-'जो के वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! नौ कूट कहे गये है-(तं जहा) उनके नाम इस प्रकार से है (सिद्धाययणकूडे, णिसढकूडे, हरिवासकूडे, पुत्वबिदेहकूडे, हरिकूडे, घिई. कूडे, सीओआकूडे, अवरविदेहकडे, रुअगकडे,) सिद्वायतनकूट निषधकूट, हरि. वर्षकूट, पूर्वविदेहकूट, हरिकट, धृतिकूट, सीतोदाकूट, अपरविदेस्कट, और रुच. ककूट इनमें । जो सिद्धों का गृह रूपकूट है वह सिद्धायतनकूट है निषध वर्षधर पर्वत के अधिपतिका जो कूट है वह निषध कूट है । हरिवर्षक्षेत्र के अधिपति का जो कूट है वह हरिवर्षकूट है। पूर्व विदेह के अधिपति का जो कूट है वह पूर्व विदेहकट है हरिसलिला नदी की देवी का जो कूट है वह हरिकूट है तिगिछिहद की अधिष्ठात्री देवी का जो कूट है वह धृतिकूट है शीतोदा नदी की देवी का जो कट है वह शीतोदाकूट है। अपरविदेहाधिपति का जो कूट है, वह अपर विदेहकूट है। चक्रवालपर्वत विशेषके अधिपति का जो कूट है वह रुचक कूट है। निषध नाम: १५२ त ५२ ८६॥ ट। छ ? ४१Rभ प्रभु ४ छ-'गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता' गौतम ! न ट। ४उपाय छे. 'तं जहा' ते छूटोना नाभी मा प्रभारी छे 'सिद्धाययणकूडे, णिसहकूडे, हरिवासकूडे, पुव्वविदेहकूडे, हरिकूडे, धिईकूडे, सीआ आ कुडे, अवरविदेहक्डे, रूअगकूडे' सिद्धायतन यूट, निष५ ठूट, विष छूट, पूर्व વિદેહ કૂટ, હરિ કૂટ ધતિ કૂટ, સીતેદા કૂટ, અપર વિદેહ ફૂટ અને ચક ફૂટ એમાં જે સિદ્ધોને ગૃહ રૂ૫ ફૂટ છે, તે સિદ્ધાયતન ફૂટ છે. નિષધ વર્ષધર પર્વતના અધિપતિનો જે કૂટ છે તે હરિષ ફૂટ છે. પૂર્વ વિદેહના અધિપતિને જે કૂટ છે તે પૂર્વ વિદેહ ફૂટ છે. હરિ–સલિલા નદીની દેવીને જે ફૂટ છે તે હરિકૂટ છે. તિબિંછ હદની અધિષ્ઠાત્રી દેવીને જે કૂટ છે તે ધતિ કૂટ છે શીદા નદીની દેવીને જે ફૂટ છે તે સીતેદા ફૂટ છે અપર વિદેહાધિપતિને જે ફૂટ છે તે અપરવિદેહ ફૂટ છે. ચકવાલ પર્વત વિશેષના અધિપતિને જે दूट छे ते रुयट छ. 'जो चेव क्षुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्त विक्खंभपरिक्खेवो पुव्व Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १६ तिगिच्छहदात् दक्षिणेन प्रवहमाननदीवर्णनम् १५३ देव चुल्लहिमवंतकूडाणं उच्चत्त विक्खंभपरिक्खेवा' 'य एवे' त्यादि-य एवं क्षुद्रहिमवत्कूहानाम् उच्चत्व विष्कम्भपरिक्षेपः-उच्चत्वविष्कम्भाभ्यां सहितः परिक्षेपस्तथा पूर्ववर्णित:पूर्व वर्णितः-उक्तः स एवैषामपि बोध्यः, तथा 'रायहाणी अ सच्चेव णेयया' राजधानी सा एवं पूर्वोक्तैव इहापि अस्मिन् निषधकूटप्रकरणेऽपि नेतव्या ग्राह्या, यथा-क्षुद्रहिमवत्पर्वतकूटस्य दक्षिणेन तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्यान्यस्मिञ्जम्बूद्वीपे क्षुद्रहिमवती नाम्नी राजधानी तथेहापि निषधनाम राजधानी बोध्येति, अथास्य नामाथे प्रश्नोत्तराभ्यां निदिशति ‘से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए२ ?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते निषधो वर्षधरपर्वतः २ उत्तरसूत्रे भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! "णिसहे गं पासहरपव्वए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिया उसमसंठाणसंठिया' निषधे खलु वर्षधरपर्वते बहूनि कटानि तानि कीदृशानि? इत्याह-निषधसंस्थानसंस्थितानि तत्र नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा न्यस्तं भारमिति निषधः-वृषभः पृषोदरत्वादयं साधुः, तत्संस्थानसंस्थितानि तदाकाराणि एतदेव शब्दान्तरेणाह-वृषभसंस्थितानि, 'णिसहे य इत्थ देवे महिद्धिए जाव (जो चेव क्षुलहिमवंतकहाणं उच्चत्त विक्खंभ परिक्खेवो) पुत्ववण्णिी रायहाणी य सच्चेव इहंवि णेयव्वा) पहिले जो क्षुद्रहिमवत् पर्वत के नौ कटों की उच्चता विष्कम्भ और परिक्षेपका प्रमाण कहा गया है वही प्रमाण उच्चता का, विष्कम्भ का और परिक्षेप का इन कूटों का है तथा यही पर भी पूर्वोक्त ही राजधानी है अर्थात् जैसी क्षुद्रहिमवत् पर्वत से तिर्यगू असंख्यात द्वीप समुद्रों को पारकरके अन्य जम्बुद्धीपमें क्षहिमवती नामकी राजधानी है। उसी प्रकार से यहां पर भी निषध नाम की राजधानी है। (सेकेणढे णं भंते ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए) हे भदन्त ! आपने इस वर्षधर पर्वत का नाम "निषध" ऐसा किस कारण से कहा है ? इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-(गोयमा णिसहेणं वासहरपव्वए वह कूडाणिसह संठाणसंठिया उसभसंठाण संठिया णिसहे इत्थदेवे महिद्धिए जाव पालिओववणिओ रायहाणीय सच्चेव इई वि णेयवा' पडसा र क्षुद्रहिमवत् ५'तना न टोना ઉચ્ચતા, વિષ્કભ અને પરિક્ષેપનું પ્રમાણ કહેવામાં આવેલ છે તેજ પ્રમાણુ આ કૂટોની ઉચ્ચતા, વિખંભ અને પરિક્ષેપનું સમજવું. તેમજ અહીં પણ પૂર્વોક્ત રાજધાની છે એટલે કે જે પ્રમાણે સુદ્રહિમવત પર્વતમાંથી તિયંગ અસંસ્કૃત દીપ સમુદ્રોને પાર કરીને અન્ય જબૂદ્વીપમાં ક્ષુદ્ર હિમવત નામક રાજધાની છે. તે પ્રમાણેજ અહીં પણ નિષધ નામની રાજધાની છે. ____'से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए' महन्त ! आपश्री वर्षधर પર્વતનું “નિષધ' એવું નામ શા કારણથી કહ્યું છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! णिसहेणं वासहरपव्वए बहवे कूडा णिसहसंठाणसंठिया उसभसंठाणसंठिया, णिसहेय इत्थ देवे महिद्धिए जाव पतिओवमदिइए परिवसइ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णिसहेलिवासहरपव्वए २३ गौतम ! से निष५ व ५२ ५५तनी ५२ अनेटो ज० २० Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णिसहे वासहरपव्यए२' अत्र निषधः तदाख्यो देवः परिवसतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स कीदृशइत्याह-महधिको यावत् पल्योपमस्थितिकः प्राग्वत् , स तेन कारणेन निषधाकारक्टयोगाग्निषध देवयोगाद्वा गौतम ! एवमुच्यते--निषधो वर्षधरपर्वतः वर्षधरपर्वतः इति सू० १६॥ अथ निषधसूत्रोक्तस्य महाविदेहवर्पस्य स्वरूपमाह-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे' इत्यादि। ___ मूलम् कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णते ? गोयमा! णीलरंतस्स वासहरवयस्त दविखणेणं णिसहस्स वासहरफायस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स एचस्थिमेणं पञ्चस्थिम लवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पञ्णत्ते, पाईणपडीणायए उदीगदाहिणविच्छिण्णे पलियंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिम जाव पुढे पञ्चस्थिमिल्लाए कोडीए पञ्चस्थिमिल्लं जाव पुढे तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारि य एगूणवीसइभाए जोयणस्त विखंभेणंति, तस्स बाहा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं तेत्तीस जोयणसहस्साई सत्त य सत्तसट्टे जोयणसए सत्त य एगूणवीसइभाए जोयगस्स आयामेणंति, तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्टा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुवा एवं पञ्चथिमिल्लाए जाव पुटा, एगं जोयण सयसहस्सं आयामेणंति, तस्स धगुं उभओ पासिं उतरदाहिणेणं एगं जोयणसयसहस्सं अट्ठावणं जोयणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोयण सयं सोलस य एगूणवीसइ भागे जोयणस्स किंचि विसेसाहिए परिमट्टिय परिवसइ से तेणटेणं गोयमा । एवं बुच्चइ णिसहे वासहरपव्वए २) हे गौतम ! इस निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर अनेक कूट निषध के संस्थान जैसे वृषभ के आकार जैसे हैं तथा इस वर्षधर पर्वत पर निषध नामका महर्द्धिक यावत् एक पल्योपमकी आयु वाला देव रहता है इस कारण मैने इस वर्षधर का नाम निषध ऐसा कहा है ॥१६॥ નિષધના સંસ્થાન જેવા–વૃષભ આકારના જેવા છે તેમજ એ વર્ષધર પર્વત ઉપર નિષેધ નામક મહદ્ધિક યાવત્ એક પલ્યોપમ જેટલા આયુષ્યવાળે દેવ રહે છે. એ કારણે મેં એ वषधर ५'तनु नाम निषध' युं छे ॥ सू. ११ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् क्खेवेगंति, महाविदेहेणं वासे चउव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहापुयविदेहे? अवरविदेहे२ देवकुरा३ उत्तरकूरा४, महाविदेहस्स णं भंते! वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते, गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहि चेव । महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते, तेसि णं मणुयाणं छबिहे संघयणे छविहे संठाणे पंचधणुसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं जहणणेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडीआउयं पालेंति पालेता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिज्झंति जाव अंतं करेंति। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे १२, गोयमा! महाविदेहेणं वासे भरहेरवयहेमवयहेरण्णवय हरिवासरम्मगवासे हितो आयामविक्खंभसंठाणपरिणाहेणं वित्थिपणतराए चेव विपुलतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसंति, महाविदेहे य इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलिओवमदिइए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे २, अदुत्तरं च णं गोयमा! महाविदेहस्त वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासि ३ ॥सू०१७॥ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् , गौतम ! नीलवतो वर्पधरपर्वतस्य दक्षिणेन निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पाश्चात्यलयणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् , प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतम् उदीचीन दक्षिणविस्तीर्ण पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितं द्विधा लवणसमुद्र स्पृष्टं पौरस्त्य यावत् स्पृष्टं पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं यावत् स्पृष्टं त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्राणि पट् च चतुरशीतानि योजनशतानि चतुरश्च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेणेति, तस्य बाहा पौरस्त्यपश्चिमेन त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्राणि सप्त च सप्तषष्ठानि योजनशतानि सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेनेति, तस्य जीवा बहुमध्यदेशभागे प्राचीन प्रतीचीनायता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा, पौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं यावत् स्पृष्टा एवं पाश्चात्यया यावत् स्पृष्टा, एकं योजन शतसहस्रम् आयामेनेति, तस्य धनुरुभयोः पार्श्वयोः उत्तरदक्षिणेन एकं योनसरातसहस्रम् अट पश्चाशतं योजनसहस्राणि एकं च त्रयोदशोत्तरं Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र योजनशतं षोडश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिकान् परिक्षेपेणेति, महाविदेहं खलु वर्ष चतुर्विघं चतुष्प्रत्यवतारं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-पूर्वविदेहः १ अपरविदेहः २ देवकुरवः ३ उत्तरकुरवः, ४ महाविदेहस्य खलु भदन्त ! वर्षस्य कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावत् कुत्रिमैश्चैव अकृत्रिम थैव । महाविदेहे खलु भदन्त ! वर्षे मनुनानां कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ?, तेषां खलु मनुजानां पडूविध संहननं षडूविध संस्थानं पञ्चधनुः शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वन जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उलार्षण पूर्वकोटयायुः पालयन्ति पालयित्वा अप्येकके निरयगामिनः यावत् अप्येकके सिध्यन्ति यावदन्तं कुर्वन्ति । अथ केनायेंन भदन्त ! एवमुच्यते-महाविदेहो वर्ष २१ गौतम ! महाविदेहः खलु वर्ष भरतैरवत-हैमवत हैरण्यवतहरिवर्षरम्यकवर्षेभ्यः आयामविष्कसंस्थानपरिणाहेन विस्तीर्णतरक एव विपुलतरक एव महंततरक एक सुप्रमाणतरक एव महाविदेहाश्चात्र मनुष्याः परिवसन्ति, महाविदेहश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते महाविदेहो वर्षम् ३ यदुत्तरं च खलु गौतम ! महाविदेहस्य वर्षस्य शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यन्न कदाचिन्नासीत् ३ ॥सू० १७॥ टीका-'कहिणं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे णाम वासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं' क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपेंद्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष चतुर्थ क्षेत्रं प्रज्ञप्तम् ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! णीलवंतस्स वास. हरपब्वयस्स दक्खिणेणं' गौतम! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य चतुर्थस्य क्षेत्र विभागकारिणो दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि 'णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं' निषधस्य वर्षधर महाविदेह स्वरूपकथन 'कहिणं भते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते"-इत्यादि टीकार्थ-गौतमने प्रभु से इस सूत्र द्वारा ऐसा पूछा है (कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते) हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में महाविदेह नामका द्वीप-चतुर्थद्वीप-कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा! णीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिणेण णिसहस्स वासहर. पव्वयस्स उत्सरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्द મહાવિદેહ સ્વરૂપ કથન 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते' इत्यादि टी-- गौतम ५सुने । सूत्र 43 प्रश्न ४ो छ , 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते' महत! सामूदी५ नाम दीपमां भविड नाम: दी५-यतु द्वी५ या स्थणे मावस छ ? सेना पसभा प्रभुश्री ४ छ 'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दोक्खणेणं णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमे एत्थ णं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे णाम Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् पर्वतस्य उत्तरेण उत्तरस्यां दिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन पूर्वस्यां दिशि 'एत्थ णं जंबृद्दीवे २ महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते' अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहो नाम वर्ष प्रज्ञाप्तम् , 'पाईण पडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' तच्च प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतं-पूर्वपश्चिमयोरायतं दीर्घम् उदीण दक्षिणविस्तीर्णम् उत्तर दक्षि. णयोर्दिशोविस्तीर्णम् 'पलियंकसंठाणसंठिए दुद्दा लवणसमुदं पुढे पुरथिम जाव पुढे' पल्यङ्क संस्थानसंस्थितम् आयतचतुरसत्वात् द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टः तदाह-पौरस्त्यया यावत् यावत्पदेन कोटया पौरस्त्यलवणसमुद्रम् इति सङ्ग्राह्यम् , स्पृष्टः पिच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थि मिल्लं जाव पुढे' पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं यावत् यावत्पदेन 'लवणसमुद्रम्' इति सङ्ग्राह्यम् स्पृष्टः, व्याख्या प्राग्वत् , अस्य मानमाह- तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स' त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्राणि पद च स्स पुरत्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे णामं वासे पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वतकी जो कि क्षेत्र विभागकारी चतुथै पर्वत है दक्षिण दिशा में तथा निषध वर्षधर पर्वतकी उत्तर दिशामें, एवं पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पश्चिमदिशामें और पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्रकी पूर्वदिशामें इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में महाविदेहनामका क्षेत्र कहा गया है। (पाईणपडीणायए) यह क्षेत्र पूर्वसे पश्चिमतक लम्बा है (उदीण दाहिणविच्छिणे) और उत्तर से दक्षिण तक विस्तृत है (पलिअंकसंठाणसंठिए) जैसा पल्यंकका संस्थान होता है वैसा ही इसका संस्थान है । (दुहा लवणसमुदं पुढे पुरत्थिम जाव पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं जाव पुढे) यह अपनी पूर्वपश्चिमकी कोटिसे क्रमशः पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्रको और पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्रको छूरहा है (तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारिय एगूण वीसइभाए जोय. वासे पण्णत्ते' हे गौतम ! नातवान् वषधर तिनी- २ क्षेत्र-विमा यतुथ पर्वत છે-દક્ષિણ દિશામાં તથા નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી લવણું સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં એ दी५ नाम द्वीपमा भविड नाम क्षेत्र मावेस छे. 'पाईणपडीणायए' । क्षेत्र पूर्वथा पश्चिम सुधा खim छ. 'उदीणदाहिणविच्छिण्णे' भने उत्तरथी दक्षिामा विस्तार युश्त छ. 'पलियंकसंठाणसंठिए' ५५ नुसस्थान डाय छ तेवु मेनु सस्थान है. 'दुहा लवणसमुदं पुछे पुरथिम जाव पुढे पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं जाव पुद्रे એ પિતાની પૂર્વ પશ્ચિમની કેટિથી–ક્રમશઃ પૂર્વ દિશ્વર્તી લવણ સમુદ્રને અને પશ્ચિમ દિગ્વતી सपY समुद्र ने २५ २wो छ. 'तेत्तीसं जोयणसहस्साई छच्च चुलसीए जोयणसए चत्तारिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' मा क्षेत्र विस्तार 33१८४४ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे चतुरशीतानि चतुरशी यधिकानि योजनशतानि चतुरथै कोनविंशतिभागान् योजनस्य 'क्वि भेणंति' विष्कम्भेण विस्तारेण प्रज्ञप्तमिति पूर्वेण सम्बन्धः, निपधविस्ताराद् द्विगुणविस्तारस्वात्, अथास्य बाहा जोवा धनुष्पृष्ठसूत्रमाद - 'तस्स वादा' इत्यादि, 'तस्स वाहा पुरथिम पच्चत्थिमेणं तेत्तीस जोयणसहस्साई सत्त य सत्तसट्टे जोयणसए' तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य पौरस्त्यपश्चिमेन त्रयस्त्रिंशतं योजनसहस्त्राणि सप्त च सप्तषष्ट्यधिकानि योजनशतानि 'सन य गुणवीसभाए जोस आयामेणंति' सप्त च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन दैर्येण इति, 'तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा' तस्य महाविदेस्य वर्षस्य जीवा बहुमध्यदेश भागे अत्यन्तमध्यदेशभागे प्राचीन प्रतीचीनाऽऽयता पूर्वपश्चिमदीर्घा द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा 'पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुट्ठा एवं पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा' पौरस्त्यया पूर्वदिग्भवया कोटया पौरस्त्यं यावत् यावत्पणस्स विक्खंभेणं) इस क्षेत्रका विस्तार ३३६८४ योजन का है इसप्रकार वर्ष, से दूना कुल पर्वत और कुल पर्वत से दूना आगेका वर्ष, इसतरह दूनी २ विस्ता की वृद्धि विदेह क्षेत्र पर्यन्त होती गई है इसके पश्चात् क्रमशः क्षेत्र से पर्वन और पर्वत क्षेत्रका विस्तार आधा २ होता गया है कहा भी है- वरिसा दुगुणो अद्दी अद्दी दो दुगुणि दो परोवरिसो जाव विदेहं दोहिं दुतत्तो अद्भुद्धहाणिीए " १ (तस्स बाहा पुरत्थिम पच्चत्थिमेगं तेत्तीस जोयणसहस्साई सत्तय सत्तसट्टे जोयणसए सत्त य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेगंति) इस क्षेत्रकी बाहा पूर्व से पश्चिम तक ३३७६७, योजन प्रमाण है (तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणपडीणा यवा दुहा लवणसमुद्दे पुट्टा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुट्ठा एवं पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा, एगं जोयण सयसहस्सं आया मेणंति) ચેાજન જેટલે છે. આ પ્રાણે વર્ષ કરતાં બે ગણા કુલ પવ ત અને કુલ પર્યંત કરતાં એ ગણા એના પછીના વર્ષે આ પ્રમાણે વિદેહ ક્ષેત્ર પર્યન્ત બેગણી વૃદ્ધિ થતી ગઈ છે. ત્યાર બાદ ક્રમશ ક્ષેત્રથી પર્યંત અને પતથી ક્ષેત્રના ત્રસ્તાર અર્ધો-અર્ધા થતા ગયા છે. કહ્યુ પણ છે— 'वरिसा दुगुणो, अदी अदीदो दुगुणि दो परोवरिसो जाव विदेहं दोहिं दुतत्तो अद्धद्धहाणीए २ ' तस्स बाहा पुरस्थिमपच्चत्थिमेगं तेत्तीस जोयणसहम्साई सत्त य सत्तट्ठे जोयणस सत्त य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आगामेगंति' या क्षेत्री વાહાપૂર્વથી પશ્ચિમ सुधी ३३७६७ योन्जन भेटली हे 'तरस जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईणयडीणायया दुहा लवणसमुदं पुट्ठा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं जाव पुट्ठा एवं पच्चत्थिमिल्लाए जाव पुट्ठा, एग जोयणसय सहस्सं आया मेणति' मध्य लागभां खेनी भेटले } मध्यगत (१) "तिलोयपण्णत्ती" पृ० १५५ - गाथा नं० १०६ (२) 'तिलोयपण्णत्ती' पृ. १५५, गाथा नं. १०६ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् १५९ देन 'लवणसमुद्रम्' इति सङ्ग्राह्यम् स्पृष्टा एवम् अनेन प्रकारेण पाश्चात्यया यावत् यावत्वदेन - "कोटया पाश्चात्यं लवणसमुद्रमिति संग्राह्यम् स्पृष्टा 'एगं जोयणसयसहस्सं आया मेणंति' एकं योजनशतसहस्रमायामेन दैर्घ्यणेति, 'तस्स धणु' तस्य महाविदेहस्य वर्षस्य खलु धनुः 'उमओ पासिं उत्तरदाहिणेणं' उभयोः द्वयोः पार्श्वयोः उत्तरदक्षिणेन भागेन 'एगं जोगणसयसहस्सं अट्ठावणं' एकं योजनशतसहस्रम् अष्टपञ्चाशतं च 'जोयणसहस्साई एगं च तेरमुत्तरं ' योजनसहस्राणि एकं च त्रयोदशोत्तरं त्रयोदशाधिकं 'जोयणसयं' योजनशतं 'सोलस य एगूrates भागे जोयणस्स किंचि विसेसाहिए परिकखेवेणंति' षोडश च एकोनविंशतिभागान योजनस्य किञ्चिद्विशेपाधिकान् परिक्षेपेणेति अत्राधिकपदेन सार्द्धाः पोडशकला ग्राह्याः । १९ अथ महाविदेवस्य भेदाभिरूपयितुमाह- 'महाविदेहेणं वासे चउन्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तं जहा - पुत्रविदेहे १ अवरविदेहे २ देवकुरा ३ उत्तरकुरा ४' महाविदेहः खलु वर्ष चतुर्विधं चतुष्प्रकारकं पूर्वविदेहादेर्महाविदेहत्वेन व्यवह्रियमाणत्वात् अत एव चतुष्प्रत्यवतारं जीवा इसकी मध्यभाग में अर्थात् मध्यगत जीवा- पूर्व पश्चिम की ओर दीर्घ है यह अपनी पूर्वकोटि से पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्रको और पश्चिम कोटिसे पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्र को छूती है इसकी दीर्घता का प्रमाण १ लाख योजन का है । (तस्स घणु उभओ पासिं उत्तर दाहिणेणं एगं जोयणसयसहस्सं अट्ठावर्ण जोगणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोयणसयं सोलस य एगूणवीसइभार जोयणस्स किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणंति) इस महाविदेह क्षेत्रका धनुपृष्ट परिक्षेपकी अपेक्षा दोनों पार्श्वभागों में उत्तर दक्षिण में एक लाख अठावन हजार एक सौ तेरह योजन और एक योजन के १९ भागों में से कुछ अधिक १६ भाग प्रमाण है १५८११३ अर्थात् १६ ॥ कला प्रमाण है (महाविदेहेणं वासे चउब्वि चप्पडोयारे पण्णत्ते) यह महाविदेह क्षेत्र चतुष्प्रत्यवतार वाला चार भेद वाला कहा गया है (तं जहा) जैसे- (पुत्र्वविदेहे १ अवरविदेहे २, देवकुरा ३ જીવા પૂર્વ પશ્ચિમ તરફ્ દીર્ઘ છે. એ પેતાની પૂર્વકાટિથી પૂદિગ્બી લવણ સમુદ્રને અને પશ્ચિમ ટિથી પશ્ચિમ દિગ્ની લવણુ સમુદ્રને સ્પશી રહી છે. એની દીર્ઘતાનુ प्रभा १ मे४ साथ योग्न नेट' छे. 'तम्स धणु उभओ प सिं उत्तरदाहिणं एवं जोयणसयसहस्सं अट्ठावणं जोयणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोयणसयं सोलसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेति' मा महाविद्वेषु क्षेत्रनु धनुःपृष्ठ परिक्षेपनी અપેક્ષાએ અને પા ભાગેમાં ઉત્તર-દક્ષિણમાં એક લાખ અઠ્ઠાવન હજાર એક સે તેર ચેાજન અને એક ચેાજનના ૧૯ ભાગે માંથી કંઇક વધારે ૧૬ ભાગ પ્રમાણ છે ૧૫૮૧૧૩Ě भेटले } १६ ॥ ४ प्रभाणु छे 'महाविदेहेणं वासे चउव्विहे चउडोयारे पण्णत्ते' आ भड्डा विद्वेडु क्षेत्र यतुष्प्रत्यवतार युक्त-यार लेह युक्त वामां आवे छे. 'तं जहा' भ 'विदेहे १ अवरविदेहे २, देवकुरा ३, उत्तरकुरा ४' पूर्वविद्वेष, पश्चिम विहेड, १६ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे चतुर्यु पूर्व विदेहापरविदेहदेवकुरूत्तरकुरूलक्षणेषु क्षेत्रविशेषेषु प्रत्यवतारः समवतारो विचार्यत्वेन यस्य तत् तथाभूतं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-पूर्वविदेह इत्यादि-तत्र पूर्वविदेहः पूर्वश्चासौ विदेहथेति यो मेरोर्जम्बूद्वीपगतः ?, अपरविदेहः-अपरश्वासौ विदेहः पश्चिमविदे:-पश्चिमदिग्गतोऽयं विदेहः २, देवकुरवः-अयं देवकुरुविदेहः दक्षिणतः ३, उत्तरकुरवः, उत्तरकुरुविदेह उत्तरतः४, कुरु शब्दस्य बहुत्वे दृष्टत्वेन मूले बहुवचनान्तत्वेन निर्देशः, अथास्य महाविदेहस्य स्वरूपं वर्णयितुमाह-'महावि देहस्स णं' इत्यादि, 'महाविदेहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव कित्तिमे हिंचेव अकित्तिमेहिंचेव' हे भदन्त ! महाविदेहस्य वर्षस्य खलु कीदृशकः आकारभावप्रत्यवतार: तत्राऽऽकारः स्वरूपं, भावाः तदन्तर्गताः पदार्थाः तदुभयसहितः प्रत्यवतारः प्रकटीभावः, प्रज्ञप्तः ? इति गौतमप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-गौतम ! तस्य बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमोऽत एव रमणीयः-मनोहरः भूमिभागः प्रज्ञप्तः स च कीदृशः ? इत्याह-यावत् यावत्पदेन 'आलि. उत्तरकुरा ४) पूर्व विदेह पश्चिम विदेह, देवकुरु और उत्तरकुरु मेरुकी पूर्वदिशा में जो विदेह है वह पूर्वविदेह है मेरुकी पश्चिम दिशा का जो विदेह है वह अपर विदेह है मेरुकी दक्षिणदिशाका जो विदेह है वह देवकुरु है और मेरुकी उत्तर दिशा का जो विदेह है वह उत्तरकुरु है। कुरु शब्दका प्रयोग बहुवचनमें देखा जाता है इसलिये यहां पर मूल में उसे बहुवचनान्त रूपसे निर्दिष्ट किया गया है (महाविदेहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमने इसी प्रसङ्ग में प्रभुसे ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार-स्वरूप कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा! बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव) हे गौतम ! वहां का भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् દેવકર અને ઉત્તર કુર. મેરુની પૂર્વ દિશા ને જે વિદેહ છે તે પૂર્વ વિદેહ છે અને મેરૂની પશ્ચિમ દિશાને જે વિદેહ છે તે અપર વિદેહ છે. મેરની દક્ષિણ દિશાને જે વિદેહ છે તે દેવ કુરુ છે અને મેરુની ઉત્તર દિશાનો જે વિદેહ છે તેઉત્તર કરે . કુરુ શબ્દનો પ્રયોગ બહુવચનમાં જોવા મળે છે એથી અહીં મૂલમાં તેને पवयनांत ३५थी निटि ४६वामां मात छ. 'महाविदेहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' ९२ गौतमस्वाभीसे असम ४ प्रभुने मानता प्रश्न છે કે ભદંત ! મહાવિદેહ ક્ષેત્રને આકાર, ભાવ, પ્રત્યવતાર એટલે કે સ્વરૂપ यु वामा मावस छ ? अनायासमा प्रभुश्री ४ छ-'गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते जाव, कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव' गौतम ! त्यांनी भूमिमा मधु સમરમણીય કહેવામાં આવેલ છે. યાવત કૃત્રિમ તેમજ અકૃત્રિમ નાનાવિધ પંચવર્ણોવાળા મણિઓથી અને તૃણોથી ઉપરોભિત છે. અહીં યાવત પકથી આલિંગ પુષ્કરમિયાદિ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स. १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् पुष्करमिति" वेत्यादि भूमिभागवर्णनपरपदजातं षष्ठसूत्रोक्तरीत्या सङ्ग्राह्यम् , स च पुनः कृतिमैश्वाकृतिमैश्च नानाविधपश्चवणैर्मणिभिः तृणैश्चोपशोभितः' इत्यादि वर्णनपरपदनातं राजप्रश्नीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रादारभ्यैकोनविंशतितमसूत्रपर्यन्तं दृष्ट्वा संग्राहम, अधुना महावि. देहवर्षात्पन्नानां मनुष्याणां स्वरूपं निरूपयितुमाह-'महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुयाणां केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' हे भदन्त ! महाविदेहे वर्षे खलु मनुष्याणां कीदृशकः आकारभावप्रत्यवतारः आकारः स्वरूपं, भावाः तवृत्ति संहननसंस्थानादयः पदार्थाः, तदुभयसहितः प्रत्यवतारः प्रादुर्भावः प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानाह-'तेसि णं मणुयाणं छविहे संहयणे छबिहे संठाणे पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं' तेपा महाविदेहोत्पन्नानां खलु मनु प्याणां संहननम् अस्थिसंचपः पविधं पट्प्रकारं वऋषभनाराच १ ऋषभनाराच २ वह कृत्रिम एवं अकृत्रिम नानाविध पंचवर्णों वाले मणिों से और तृणों से उपशोभित है यहां यावत पद से आलिङ्ग पुष्कर मित्यादिरूप से जैसा छठे सूत्र में वर्णन कहा गया है वैसा ही वह वर्णन यहां पर भी कह लेना चाहिये तथा वह कृत्रिम एवं अकृत्रिम मणियों एवं तृणों से उपशोभित है इत्यादिरूप से इसका वर्णन यदि देखना हो तो राजप्रश्नीय सूत्रके १५वे सूत्रसे लेकर १९वें सूत्रतक के कथन को देख लेना चाहिये (महाविदेहे णं भंते वासे !मणुयागं केरिसए आयारभावपूडोयारे पण्णत्ते) अब गौतम प्रभुसे ऐसा पूछ रहे हैं-हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में मनुष्यों का आकार भावप्रत्यवतार-स्वरूप कैसा कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-(तेसि णं मणुआणं छविहे संघयणे छविहे संठाणे पश्चघणुसयाई उद्धं उच्चत्तण जहण्णेणं अंतो मुहत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी आउयं पालेति) हे गौतम ! वहां के मनुष्योंका संहननछहों प्रकार का होता कहा गया है वनऋषभ नाराच संहनन भी होता कहा गया है, ऋषभनाराच संहनन भी होता कहा गया है, नाराच संहनन भी होता कहा गया है, अर्द्धनाराच संहनन भी होता है, कीलक संहनन भी होता कहा गया है, और सेवा संहनन રૂપથી જેમ ૬ઠા સૂત્રમાં વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તેવું જ વર્ણન અત્રે પણ સમજી લેવું જોઈએ. તેમજ તે કૃત્રિમ અને અકૃત્રિમ મણિઓ તેમજ તૃણેથી ઉપરોભિત છે ઈત્યાદિ રૂપમાં એનું વર્ણન જે જોવાનું હોય તે રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૧૫ માં સૂત્રથી માંડીને १६मा सुधीन ४थनने से से. 'महाविदेहेणं भंते ! वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' के गीतभस्वामी प्रसुन मेवा शते प्रश्न ४२ छ महत ! મહા વિદેહ ક્ષેત્રમાં માણસના આકાર, ભાવ પ્રત્યવતાર એટલે કે સ્વરૂપ કેવુ છે? એના वाम प्रभु ४९ है-'तेसिणं मणुआणं छव्विहे संघयणे छविहे संठाणे पश्च धणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुत्वकोडी आउयं पालेति' हे गौतम त्यांना મનુષ્યનું સંહનન ૬ પ્રકારનું કહેવામાં આવેલ છે. વાત્રાષભ નારાચ સંહનન હોય છે એવું કહેવામાં આવે છે. બાષભ નારાચ સહન હોય છે તેવું કહેવાય છે, નારાચ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नाराचा ३र्द्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवात ६ भेदात , तथा चोक्तम् "वज्जरिसभनारायं, पढमं बीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीलिया तह य छेवढें ॥१॥ छाया-वज्रऋषभनाराचं, प्रथमं द्वितीयं च ऋषभनाराचम् । नाराचा नाराच कोलिकास्तथा च सेवार्तम् ॥१॥ इति । संस्थानम् आकारविशेषः षडूविधं परिमंडल १ वृत्त २ स ३ चतुरंसा ४ ऽऽयता ५ ऽनित्थंस्थ भेदात् षट्प्रकारकम् प्रज्ञप्तमिति पूर्वेण सम्बन्धः, पञ्चधनुःशतानि पञ्चशत धनूषि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन उच्छ्र येण, 'जहणणेणं अंतो मुहुत्तं' जघन्येन अपकृष्टत्वेन अन्तर्मुहूर्तम् आयुरित्यग्रिमेण सम्बन्धः, 'उक्कोसेणं पुधकोडी आउयं पालेंति पालेत्ता' उत्कर्षेण उत्कृष्टत्वेन पूर्वकोटयायुः पूर्वाणां चतुरशीतिलक्षणां चतुरशीतिलौटुंणितानां वर्षाणां कोटी कोटीसंख्याः तत्परिमितम् आयुः पालयन्ति विदेहवर्षोत्पन्ना मनुष्याः, पालयित्वा 'अप्पेगइया' भी होता कहा गया है कहाभी है वजरिसभनारायं पढमं बीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीलिया तहय छेवढें ॥१॥ संस्थान नाम आकार का है यह संस्थान भी वहां छहों प्रकार का होता कहा गया है वे छह प्रकार इस प्रकार से हैं-परिमंडल संस्थान, वृत्तसंस्थान, ससंस्थान, चतुरंस संस्थान, आयत संस्थान और इत्थंस्थ संस्थान इन महाविदेह क्षेत्रों के मनुष्यों का शरीर ऊंचाई मे ५०० सौ धनुष का होता कहा गया है इनकी आयु जघन्यसे एक अन्तर्मुहर्तकी होती कही गई है। और उत्कृष्ट से १ पूर्व कोटिकी होती कही गई है। ८४ लाख वर्षों का १ पूर्वाङ्ग हेाता है ८४ लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व होता है ऐसे एक पूर्वकोटि की वहां उत्कृष्ट आयु होती कही गई है। (पलित्ता अप्पेगइया गिरयगामी जाव अप्पेगइया सिज्झंति जाव अंत करेंति) इतनी आयु पालन करके कितनेक वहां के जीवतो नरकगामी સંહનન હોય છે એવું કહેવાય છે. અદ્ધનારાચ સંહનન હોય છે એવું પણ કહેવાય છે. કીલક સંહનન પણ હોય છે. એવું કહેવાય છે. અને સેવાd સંહનન પણ હોય છે એવું કહેવાય છે. પણ કહ્યું પણ છેवज्जरिसभनारायं पढभं बीयं च रिसभनारायं । नाराय अद्धनाराय कीलिया तहय छेवढें ॥१॥ સંસ્થાના આકારનું નામ છે. એ સંસ્થાન પણ ત્યાં ૬ પ્રકારનું હોય છે. તે પ્રકારો આ પ્રમાણે છે-પરિમંડલ સંસ્થાન, વૃત્ત સંસ્થાન, ત્રેસ સંસ્થાન, ચતુરંસ સંસ્થાન, આયત સંસ્થાન, અને ઈત્યં સંસ્થાન. આ મહાવિદેહ ક્ષેત્રના મનુષ્યના શરીર ઊંચાઈમાં ૫૦૦ ધનુષ જેટલા કહેવામાં આવેલ છે. એમનું આયુ જઘન્યથી એક અખ્તમુહૂર્ત જેટલું હોય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ૧ પૂર્વ કેટિ જેટલું હોય છે. ૮૪ લાખ વર્ષોને એક પૂર્વાગ હોય છે. ૮૪ લાખ પૂર્વી ને એક પૂર્વ હોય છે. એવા ૧ પૂર્વ કેટિ જેટલું ત્યાં ઉત્કૃષ્ટ मायु ४३वामां मावेत छ. 'पलित्ता अप्पेगइया णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझंति Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् अप्येके केचित् 'णिरयगामी जाव अप्पेगइया सिझति जाव अंतं करेंति' निरयगामिनः नरकगतिगामिनः, यावत् यावत्पदेन-अप्येकके तिर्यगू गामिनः अप्येकके मनुजगामिनः अप्येकके देवगामिनः इति संग्राह्यम् अप्येकके सिध्यन्ति यावत यावत्पदेन "बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति सर्वदुःखानम्" इति संग्राह्यम् अन्तं नाशं कुर्वन्ति विशेषजिज्ञासुभिरेषां पदानामर्थ एकादशसूत्रटीकातो बोध्यः। अथास्य नामार्थ प्रश्नोत्तराभ्यां निरूपयितुमाह-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-महाविदेहो वर्षम् २ ? अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते महाविदेहो वर्षम् २ ? उत्तरसूत्रे तु 'गोयमा !' हे गौतम ! 'महाविदेहे णं वासे भरहेरवय हेमवय हेरण्णवयह रिवासरम्मगवासे हितो' महाविदेहः खलु वर्ष भरतैरवतहैमवत हैरण्यवतहरिवर्षरम्यकवर्षेभ्यः भरतादि रम्यकान्तवर्षापेक्षया 'आयाम विक्खंभसंठाणपरिणाहेणं विच्छिण्णतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव' आयामविष्कम्भसंस्थानपरिणाहेनहोते हैं कितनेक जीव देवगतिगामी होते हैं कितनेक जीव मनुष्यगतिगामी होते है कितनेक जीव तिर्यश्च गतिगामी होते हैं तथा कितनेक जीव मनुष्य-सिद्धगतिगामी भी होते हैं यावत् वे वुद्ध हो जाते हैं मुक्त होते हैं परिनिर्वांत हो जाते हैं एवं समस्त दुःखों का वे अंत कर देते हैं। इन पदों की टीका ११ वे सूत्र की टीका से देख लेना चाहिये (से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे २) हे भदन्त ! आपने इस क्षेत्र का नाम महाविदेह ऐसा किस कारण से कहा है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! महाविदेहे णं वासे भरहेरवय हेमवय हरिवास रम्मग वासेहितो आयामविक्खंभे संठाणपरिणाहेणं विच्छिण्णतराए चेव विउलतराए चेव महंतराए चेव सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहाय इत्थ. मणूसा परिवसति) हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र भरत क्षेत्र ऐरवत क्षेत्र, हैमवत क्षेत्र, हैरण्यवत क्षेत्र, और रम्यक क्षेत्र की अपेक्षा आयाम विष्कम्भ, संस्थान एवं परिक्षेप को लेकर विस्तीर्णतर है, विपुलतर है महत्तर है तथा सुप्रमाणतरक जाव अंतं करेंति मायु मायु ५सार ४शन त्यांना खi तो न२४ भी डाय છે, કેટલાક જ દેવગતિ ગામી હોય છે, કેટલાંક જે મનુષ્ય ગતિ ગામી હોય છે, કેટલાંક જે મનુષ્ય-સિદ્ધ ગતિ ગામી પણ હોય છે. યાવત્ તેઓ બુદ્ધ થઈ જાય છે, મુક્ત થઈ જાય છે. પરિનિર્વાત થઈ જાય છે. તેમજ તેઓ સમસ્ત દુઃખને અંત કરે छ. मे पहानी व्याभ्या ११ मां सूत्रनी Aawi ने सेवनध्ये. 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे २१३ मत मा५ श्री मा क्षेत्रनु नाम महविहे थे । ४१२६४थी ४ह्यु छ ? सेना वासभा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! महाविदेहे णं वासे भरहेरवयहेमवय हरिवास रम्मगवासेहितो आयामविक्खंभे संठाणपरिणाहे णं विच्छिण्णतराए चेव विउलतराए चेव महंततराए चेव सुप्पमाणतराए चेव महाविदेहाय इत्थ मणूसा परिवसंति' હે ગૌતમ ! મહાવિદેહ ક્ષેત્ર, ભરત ક્ષેત્ર, એરવત ક્ષેત્ર, હૈમવતક્ષેત્ર અને રમ્યક ક્ષેત્રોની અપેક્ષા આયામ વિધ્વંભ, સંસ્થાન પરિક્ષેપકને લઈને જોઈએ તે વિસ્તીર્ણતર છે, વિપુલ ___ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तत्रायामो दैय॑म् विष्कम्भो विस्तारः संस्थानम् आकारविशेषः परिणाहः परिधिश्चत्येषां समाहारस्तथाभूतेन; यथा सम्भवमस्ति विस्तीर्णतरक एव तत्र-विष्कम्भेणाति विस्तारयुक्त एव साधिक चतुरशीति पट् शताधिक त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्रप्रमाणत्वात् , विस्तारकः अतिवि. पुलः संस्थानेन-पल्यरूपेण महतरक एव अतिमहानेव आयामेन, सुप्रमाणतरक एव बृहत्प्रमाणक एव परिणाहेनेत्येव योजना बोध्या, अत एव 'महाविदेहा य इस्थ मणूसा परिवसंति' महाविदेहाः महान् गरीमान् देहः शरीरम् आभोग इति यावत येषां ते तथा, यद्वा महान् गरीयान् देहः शरीरं फलेवरं येषां ते महाविदेहाश्चात्र-महाविदेहवर्षे मनुष्याः परिवसन्ति, 'महाविदेहे य इत्थदेवे महिद्धीर जाव पलिओवमटिइए परिवसई' महाविदेहश्चात्र देवः परि वसतीत्युत्तरेण सम्बन्धः स च कीदृशः ? इत्याह-महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, इह है अर्थात् एक लक्ष प्रमाण जीवा वाला होने से यह आयाम की अपेक्षा महत्तर कही है, कुछ अधिक ८४ हजार ६ सौ ३३ योजन प्रमाण युक्त होने से यह विस्तीर्ण तरक ही है, पल्यङ्क रूप संस्थान से युक्त होने के कारण यह विपुल तरक हो है, तथा परिणाह-परिधि से यह सुप्रमाणतरक ही है। अतएव यहां के मनुष्य महाविदेह महान अतिशय विशिष्ट-भारी है-देह-शरीर-जिन्हों का ऐसे होते हैं विजयों में सर्वदा ५०० धनुषकी ऊंचाई वाला शरीर होता है तथा देवकुरु और उत्तरु कुरु में तीन कोश जितना ऊंचा शरीर होता हैं इसी महाविदेहता को लेकर अकर्मभूमिरूप भी देवकुरु और उत्तर कुरु इन क्षेत्रों को महाविदेह के भेद रूप से परिगणित किया गया है इस महाविदेहता से युक्त यहां रहते हैं और इन्हीं मनुष्यों के सम्बन्ध से इस क्षेत्र को महाविदेह कह दिया गया है तथा (महाविदेहे य इत्थदेवे महिदीए जाव पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे२) महाविदेह नाम का તર છે, મહત્તર છે તથા સુપ્રમાણ તરક છે એટલે કે એક લક્ષ પ્રમાણ છવાવાળું હોવાથી આયામની અપેક્ષાએ મહત્તર છે. કંઈક અધિક ૮૪ સહસ્ત્ર ૬ સે ૩૩ એજન પ્રમાણુ યુક્ત હોવાથી એ વિસ્તીર્ણ તક જ છે. પથંક રૂપે સંસ્થાનથી યુક્ત હવા બદલ એ વિપુલ તરક જ છે. તેમજ પરિણાહ-પરિધિથી એ સુપ્રમાણુ તરક જ છે. એથી અહીંના મનુષ્ય મહા વિદેહ, મહા અતિશય-વિશિષ્ટ ભારી છે જેમનાં શરીર એવા ભારી હોય છે, વિજયમાં સર્વદા ૫૦૦ ધનુષની ઊંચાઈવાળું શરીર હોય છે, તેમજ દેવકુરુ અને ઉત્તર કુરુમાં ત્રણ ગાઉ જેટલું ઉંચું શરીર હોય છે. આ મહાવિદેહતાને લઈને અકર્મ ભૂમિ રૂપ પણ દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુ એ ક્ષેત્રોને મહાવિદેહના ભેદ રૂપથી પરિણિત કરવામાં આવેલ છે. આ મહાવિદેહતાથી યુક્ત અહીં રહે છે અને એ મનુષ્યના સંબંધથી આ ક્ષેત્રને महाविड ४ामा मा छे. भ. 'महाविदेहे अ इत्थदेवे महिद्धिए जाव पलिओवमदिइए परिवसइ, से तेगडेणं गोयमा ! एवं वुच्चए महाविदेहे वासे २' महावित नाम४ ४५ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १७ महाविदेहवर्षस्वरूपनिरूपणम् यावत्पद संग्राह्य पदानां सङ्ग्रहार्थों विजयदेवाधिकारादष्टमसूत्रोक्तादवसेयो ‘से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ महाविदेहे वासे२' हे गौतम ! तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन महाविदेहाधिष्टितत्वेन एवम् इत्थम् उच्यते महाविदेहो वर्षम् २, 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! महा. विदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते' अदुत्तरम् अथ च खलु हे गौतम ! महाविदेह. स्य वर्षस्य शाश्वतं सर्वाधिकं नामधेयं नाम प्रज्ञप्तम् 'जं ण कयाई णासि ३' यत् यस्मात्कार णात् न कदाचित् कस्मिंश्चित् समये नाऽऽसीत् ? अपि स्वासीदेवेत्यादि प्राग्वत् ॥सू० १७॥ ___अधुनोत्तरकुरून विवक्षुस्तदुपयोगित्वेन प्रथमं गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतं प्रश्नोत्तराभ्यामाह'कहि णं भंते ! महाविदेहे' इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वखारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्त दाहिणेगं मंददेव यहां पर रहता है-यह देव महद्धिक है यावत् एक पल्पोपम की आयुवाला है यहां यावत्पद से संग्रह पद और उनका अर्थ विजयदेवाधिकार में उक्त अष्टम सूत्र की टीका से जान लेना चाहिये अतः इन सब कारणों को लेकर इस क्षेत्र का नाम 'महाविदेह' कहा गया है (अदुत्तरं च णं गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि ३) अथवा 'महाविदेह' ऐसा इस क्षेत्र का नाम अनादिकालिक है किसी निमित्त को लेकर नहीं है क्योंकि भूतकाल में इसका ऐसा ही नाम था, अब भी इसका यही नाम है और भविष्य में भी ऐसा ही इसका नाम रहेगा ऐसा कोईसा भी समय नहीं हुआ है कि जिस में ऐसा इसका नाम न रहा हो, वर्तमान भी ऐसा नहीं है कि इसका ऐसा नाम न चल रहा हो और भविष्यतू भी ऐसा नहीं होगा कि जिस में इसका नाम नहीं रहेगा ॥सू० १७॥ અહી રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક યાવત્ એક પામ જેટલું આયુષ્ય ધરાવે છે. અહીં થાવત્ પદથી સંગ્રહ ૫દ અને તેમનો અર્થ વિજ્યાધિકારમાં ઉક્ત અષ્ટમ સૂત્રની ટીકામાંથી જાણી લેવા જોઈએ. એથી ઉપર્યુક્ત સર્વ કારણોને લઈને આ ક્ષેત્રનું નામ “મહાવિદેહું એવું सवाभा मा०युछे. 'अदुत्तरं च णं गोयमा! महाविदेहस्स वासस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासि ३' अथवा 'महावि' मे मा क्षेत्रनु नाम मनात छे. अध નિમિત્તના આધારે એ ન મ નથી. કેમકે ભૂતકાળમાં એનું એવું જ નામ હતું, અત્યારે પણ એનું એવું જ નામ છે અને ભવિષ્યમાં પણ એનું એજ નામ રહેશે. એને કઈ કાળ એ નહતા કે જેમાં એનું નામ આ પ્રમાણે ચાલતું ન હોય વર્તમાનમાં પણ એવું નથી કે તેનું એ નામ ચાલતું ન હોય અને ભવિષ્યમાં પણ એવો કાળ આવવાને નથી કે તેમાં એનું એવું નામ રહેશે નહિ. એટલે કે ત્રણે કાળમાં એનું એજ નામ રહેવાનું છે. જે સુ. ૧૭ છે Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ rastra सूत्रे रस्स पव्वयस्स उत्तरपञ्चस्थिमेणं गंधिला इस्स विजश्स्स पुर स्थिमेणं उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खार पव्व पण्णत्ते, उत्तरदाहिणाय पाईणपडीणवित्थिपणे तीसं जोयणसहस्साइं दुणि य णउत्तरे जोयणसए छच्च य एगूणवीसइभार जोगणस्स आयामेणं णीलवंतवासहरपव्वयं तेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उब्वेहेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं तयणंतरं च णं मायाएर उस्सेहुव्वेह परिवदीए परिवद्धमाणे२ विक्खंभपरिहाणीए परिहायमाणे२ मंदरपव्वयं तेणं पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंच गाउयसयाई उव्वेहेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेगं पण्णत्ते गयदंतसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे, उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते, गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति । गंधयमायणे णं वक्खारपन्त्रए कइ कूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्त कूडा तं जहा - सिद्धाययणकूडे १ गंधमायणकूडे २ गंधिला. वईकूडे३ उत्तरकुरुकूडे ४ फलिहकूडे ५ लोहियकूडे ६ आनंदकूडे ७ । कहि णं भंते! गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?, गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपञ्च्चत्थिमेणं गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरस्थिमेणं, एत्थ णं गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाय कूडे णामं कूडे पणत्ते, जं चेव चुहाहिमवंते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं तं चेत्र एएसिं सव्वेसिं भाणियव्वं, एवं चैव विदिसाहिं तिणिकूडा भाणियव्वा, चउत्थे तइयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पंचमस्स दाहिणेणं, सेसा उत्तरदाहिणेणं, फलिहलोहियक्खेसु भोगंकरा भोगवईओ देवयाओ सेसेसु सरिसनामया देवा, छसुवि पासायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसासु, से केणणं भते ! एवं वुच्चइ, गंधमायणे वक्खारपव्वए २१, गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपव्त्रयस्स गंधे से जहा णामए कोटूपुडाण वा जाव पीसीजमाणाण वा उक्किरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वत निरूपणम् परिभुजमाणाण वा जात्र ओराला मणुण्णा जाव गंधा अभिणिस्सर्वति, भवे एयारुवे ? णो णट्टे समट्टे, गंधमायणस्स णं इत्तो इद्वतराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते से एएणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्खापव्व९२, गंधमायणे य इत्थ देवे महिड्डिए परिवसइ, अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे इति ॥ सू० १८॥ " छाया - का खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे गन्दमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, गौतम ! नीलवतो वर्षघरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन गन्धिलाबत्या विजयस्य पौरस्त्येन उत्तरकुरूणां पश्चिमेन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे गन्दमादनो नाम वक्षस्कार पर्वतः ः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः त्रिशतं योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे योजनशते षट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन नीलवद्वर्षघरपर्वतान्तेन चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेण तदनन्तरं च खलु मात्रया २ उत्सेधोद्वेषपरिवृद्धया परिवर्द्धमानः २ विष्कम्भपरिहान्या परिहीयमानः २ मन्दरपर्वतान्तेन पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चगव्यूतशतानि उद्वेधेन अङ्गुलस्य असंख्येयभागं विष्कम्भेण प्रज्ञप्तः गजदन्वसंस्थानसंस्थितः सर्वरत्नमयः अच्छः, उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षितः, गन्धमादनस्य खलु वक्षष्कार पर्वतस्य उपरि बहुसमरणणीयो भूमिभागः यावद् आसते । १६७ गन्धमादने खलु वक्षस्कारपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! सप्तकूटानि, तद्यथासिद्धायतनकूटम् १, गन्धमादनकूटम् २, गन्धिलावतीकूटम् ३, उत्तरकुरूकूटम् ४, स्फटिककूटम् ५, लोहिताक्षकूटम् ६, आनन्दकूटम् ७ । का खलु भदन्त ! गन्धमादने वक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन गन्धमादनकूटस्य दक्षिणपौरस्त्येन, अत्र खलु गंधमादनवक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम्, यदेव क्षुद्रहिमवति सिद्धायतनकूटस्य प्रमाणं तदेव एतेषां सर्वेषां भणितव्यम्, एबमेव विदिशासु त्रीणि कूटानि भणितव्यानि, चतुर्थ तृतीयस्य उत्तरपश्चिमेन पञ्चमस्य दक्षिणेन, शेषाणि तु उत्तर दक्षिणेन, स्फटिकलोहिताक्षयो भगङ्करा भोगवत्यो देवते, शेषेषु सदृशनामका देवाः, षट्स्वपि प्रासादावतंसका राजधान्यो विदिशासु, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २, गौतम ! गन्धमादनस्य खलु वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धः स यथा नामकः कोष्ठपुटानां वा यावत् पिष्यमाणानां वा उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा परिभुज्यमाणानां वा यावद् उदारा मनोज्ञा यावद् गन्धा अभिनिःस्रवन्ति, भवेद् एतद्रूपः ? नो अयमर्थः समर्थः, गन्धमादनस्य खलु इतइष्टतरक एव यावद् गन्धः प्रज्ञप्तः, स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २, गन्धमादनश्चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति, अदुत्तरं च खलु शाश्वतं नामधेयमिति ॥ सू० १८ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे टीका-'कहि णं भंते ! महाविदेहे' इत्यादि । 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपवर पणते' क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्ष गन्धमादनो नाम वक्षस्कार पर्वतः वक्षसि मध्ये स्वगोपनीयं क्षेत्रं द्वौ मिलित्वा कुर्वन्तीति वक्षस्काराः तज्जातीयोऽयमिति वक्षस्कारः स चासौ पर्वतश्चेति तथाभूतः प्रज्ञप्तः ?, 'गोयमा ! णीलवंतस्स बासहरपवयस्म दाहिणेणं मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं' गौतम ! नीलवतः तन्नामकस्य वर्पधरपर्वतस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन उत्तरस्याः पश्चिमायाश्च अन्तरालवर्तिनि दिग् विभागे वायव्यकोण इत्यर्थः, अत्र सप्तम्यन्तादेनप्प्रत्ययः, 'गंधिलाय. इस विनयस्स पुरच्छिमेणं उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपब्बए पन्नते' गन्धिलावत्याः शीतोदामहानद्युत्तरवर्तिनोऽष्टमस्य पौरस्त्येन पूर्वेण पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः, उत्तरकुरूगां सर्वोत्कृष्ट भोगभूमिक्षेत्रस्य पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि अत्र-अत्रान्तरे महाविदेहे वर्ष गन्धमादनो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, तस्य मानाद्याह-'उत्तर कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपश्वए' इत्यादि। टीकार्थ-अब गौतमस्वामी! इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछते हैं-(कहि णं भंते !महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वकूवारपव्वए पण्णत्त) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में गन्धमादन नामका वक्षस्कार पर्वत कहाँ पर कहा गया हैं ! इसके उत्तर में प्रभु कहते है-(गोयमा ! णीलवंतस्त वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं मंदरस्स पव्वपस्स उत्तरपच्चस्थिमेणं गंधिलावइस्स विजयस्स पुरच्छिमेणं उत्तरकुराए पच्चथिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपब्यए पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवान् वर्षधर पर्वतकी दक्षिण दिशा में, मन्दर पर्वत के वायव्यकोण में शीतोदामहानदो की उत्तर दिशा में रहे हुए अष्टम विजय रूप गन्धिलावती विजय की पूर्व दिशा में तथा उत्तर कुरु रूप सर्वोत्कृष्ट भूमि क्षेत्र की पश्चिम दिशा में महाविदेह क्षेत्र में गन्धमादन नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है जो 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्वए' इत्यादि, ट - वे गौतमस्वामी मा सूत्रपडे प्रभुनी सामे या प्रश्न भूः छ -'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णोमं वक्खारपव्वए पण्णत्ते' मत ! मह विहे क्षेत्रमागध. भाइन नाम१३२ पर्वत या स्थणे मावेश छ ? मेनसभा , प्रभु ४३ छ.-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-पच्चत्थिमेणं गंधिलावइस्स विजयम्स पुरस्थिमेणं उत्तरकुराए पच्चत्थिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं चक्खार पव्वए पण्णत्ते' गौतम ! नीतवान् १९५२ पतनी क्षिण दिशामा, भन्६२ पतना વાયવ્ય કોણમાં, શીદા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ અષ્ટમ વિજય રૂપ ગંધિલાવતી વિજયની પૂર્વ દિશામાં તેમજ ઉત્તર કુરૂપ સત્કૃષ્ટ ભૂમિક્ષેત્રની પશ્ચિમ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ગન્ધમાદન નામક વક્ષસ્કાર પર્વત આવેલ છે-કે જે બે પર્વતે મળીને Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १६९ दाहिणाय पाईणपडीण विच्छिन्ने तीसं जोयणसहस्साई दुण्णि य णउत्तरे जोयणसए' उत्तर दक्षिणायतः - उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायतः दीर्घः, प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः पूर्वपश्चिमदिशो विस्तीर्णः, त्रिशतं त्रिंशत्संख्यानि योजनसहस्राणि द्वे च नवोत्तरे नवाधिके योजनशते 'छच्च गूणवी सभाए जोयणस्स आयामेणं' षट् च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य आयामेन अत्र यद्यपि वर्षपर्वत संबद्धमूलानां वक्षस्कारपर्वतानां साधिकैकादशाष्टशत द्विचत्वारिंशद्यो जनप्रमाण कुरुक्षेत्रान्तर्गतानामेतावानायामो न संपद्यते तथाऽप्येषां वक्रत्वेन परिणततया बहुतरक्षेत्रप्रविष्टत्वादेतावानायामः संभवतीति, 'णीलवंतवासहरपव्त्रयं तेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाईं उब्वेहेणं पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं तयणंतरं च णं माया २ उस्सेहुवे परिवदीए परिवद्धमाणे २' नीलबद्वर्षेधरपर्वतान्तेन - नीलवद्वर्षधरपर्वतसमीपे चत्वारि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन भूमि • प्रविष्टत्वेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण - विस्तारेण तदनन्तरं च मात्रया २ क्रमेण दो पर्वत मिलकर अपने वक्षस-मध्य में क्षेत्र को छुपालेते हैं उनका नाम वक्ष स्कार पर्वत है ( उत्तरदाहिणाय ए - पाईण पडीण विच्छिष्णे तीसं जोयणसहस्साई दुण्णि य णउत्तरे जोयणसए उच्च य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, णीलवंतवासहरपव्वयंतेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तणं चत्तारि गाउयसयाई उन्हें पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं) यह गन्धमादन नामका वक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण दिशातक लम्बा है एवं पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण हैं इसका आयाम ३०२०९६ योजनका है यद्यपि वर्षधर पर्वत संबद्ध मूलवाले वक्षस्कार पर्वतों का जोकि कुछ अधिक ११८४२ योजन प्रमाण वाले कुरुक्षेत्र में है इतना आयाम नहीं बनता है तथापि ये वक्षस्कार वक्र है इसलिये बहुत क्षेत्र में प्रविष्ट होने से इनका इतना आयाम बनजाना संभावित है यह वक्षस्कारनीलवान् वर्षधर पर्वत के पास ४०० सौ योजनकी ऊंचाई वाला है उद्वेध इसका घोताना वक्षस-मध्यमां क्षेत्रने छुपानी से हे, तेनु नाम वक्षस्५२ पर्वत छे. 'उत्तर दाहि जाय पाईणपडीणविच्छिष्णे तीसं जोयण सहस्साई दुणि य उत्तरे जोयणसए छच्च य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं, पीलवंतवा सहरपव्वयं तेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउअसयाई उब्वेहेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं' से गंध માદન નામક વક્ષસ્કાર પ°ત ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંબે છે તેમજ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વસ્તી છે. એના આયામ ૩૦૨૯૦ ચેાજન જેટલે છે. જો કે વધર પર્યંત સમૃદ્ધ લવાળા વક્ષસ્કાર પર્વતના કે જે કંઈક વધારે ૧૧૮૪૨ ચેાજન પ્રમાણવાળા કુરુક્ષેત્રમાં છે-આટલા આયામ થતા નથી છતાં એ વક્ષસ્કાર વક્ર છે. એથી ઘણા ક્ષેત્રમાં પ્રવિષ્ટ હાવાથી એના આયામ થઈ જાય છે, એવી સંભાવના કરી શકાય. એ વક્ષસ્કાર નીલવાન વધર પર્વતની પાસે ૪૮૦ ચેાજન જેટલી ઊંચાઈવાળે છે. આના ઉદ્વેષ ૪૦૦ ગાઉ ज़ २२ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया-उत्सेधोद्वेधयोः उच्चत्वोण्डत्वयोः परिवृद्धया परिवर्धनेन परिवर्धमानः २ वृद्धि गच्छन् २ 'विक्खंभपरिहाणीए परिहायमाणे २ मंदसव्वयं तेणं पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं' विष्कम्भपरिहान्या विस्तार हासेन परिहीयमानः २ हसन् २ मन्दरपर्वतान्तेन मेरुपर्वतसमीपे पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन 'पंच गाउयसयाई उन्वेहेणं-अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते' पञ्च गव्यतशतानि उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम्-असंख्यभागं विष्कम्भेण विस्तारेण प्रज्ञप्तः, 'गयदंतसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे, उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं' स च गजदन्तसंस्थानसंस्थितः गजदन्त. स्य हस्तिदन्तस्य यद् आदौ नीचै रन्वे चोच्चैः संस्थानम् आकारविशेषः तेन तादृशेन संस्थानेन संस्थितः पुनः स सर्वरत्नमय:-सर्वात्मना रत्नमयः अच्छः आकाशस्फटिकवनिमल:. पुनः स उभयोः-द्वयोः पार्श्वयो भागयोः द्वाभ्यां पद्मरवेदिकाभ्यां 'दोहि य वणसंडेहि' द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां 'सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' सर्वतः सर्वदिक्षु समन्ततः सर्वविदिक्षु च संपरिक्षिप्तः परिवेष्टितः, 'गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे ४०० कोश का है तथा विष्कम्भ में यह पांच सौ योजनका है इसके बाद यह क्रमशः ऊंचाई में और उद्वेध मे तो बढता जाता है और विष्कम्भ में घटता जाता है इस तरह मन्दर पर्वत के पास पांच सौ योजन की ऊंचाई हो जाती है और पांच सौ कोशका इसका उद्वेध हो जाता है तथा (अंगुलस्स असंग्वि. जहभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण इसका विष्क म्भ रह जाता है-(गयदंतसंठाणसंठिए सव्यरयणामए अच्छे) यह पर्वत गज दन्त का जैसा संस्थान होता है वैसे ही संस्थान वाला है-तथा यह सर्वात्मन रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है यह (उभयो पारि दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि अ वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते) दोन पार्श्वभागों में दो पद्मवरवेदिकाओं से और दो वनषंडों से अच्छी तरह सब ओर से घिरा हुआ है (गंधमायणस्स णं वक्वारपव्ययस्स उपि बहुसमरम જેટલું છે તેમજ વિખંભમાં એ પ૦૦ એજન જેટલું છે. ત્યાર બાદ એ અનુક્રમે ઊંચાઈમાં અને ઉધમાં વધતો જાય છે અને વિકૅભમાં ઓછો થતું જાય છે. આ પ્રમાણે મંદર પર્વતની પાસે પાંચસે જન જેટલી એની ઊંચાઈ થઈ જાય છે. અને ૫૦૦ સે ગાઉ २a सेना द्वेष य छे. तेभर 'अंगुलस्स असंखिज्जइभागं विक्खंभेणं पण्णत्ते' अनुसना मसभ्यातमा मास प्रमाण यना विस २ गय छे. 'गयदंतसंटाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे से पति ४४ तर संस्थान डाय छ तेवा संस्थानवाणे છે. તેમજ સર્વાત્મક રનમય છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિકની જેમ નિર્મળ છે. એ 'उभयो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि दोहि अ वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते બન્ને પાર્શ્વ ભાગમાં બે પદ્મવર વેદિકાઓથી અને બે વનખંડેથી સારી રીતે ચેમેરર્થ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १७१ भूमिभागे जाव आसयंति' गन्धमादानस्य खलु वक्षस्कारपर्वतस्य उपरि शिखरे बहुसमरमणीयः अत्यन्तसमतया सुन्दरो भूमिभागः, यावत्-यावत्पदेन "प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलिअपुष्करमिति वा यावद् नानाविधपश्चवणे मणिभिस्तृणैरुपशोभितः, अत्र मणिशृणवर्णनं वक्तव्यम् एवं वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-शब्द पुष्करिणी गृहमण्डप पृथिवीशिलापट्टका बोध्याः, तत्र खलु बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्च" इति बोध्यम् आसते उपविशन्ति, एतत्सर्वं षष्ठसूत्रोक्त भूमिभाग वर्णकमनुसृत्य बोध्यम् अतो विशेषजिज्ञासुभिः षष्ठसूत्रटीका विलोकनीया। __ अधुना अत्र कूटवक्तव्यमाह-'गंधमायणेणं वक्खारपव्वए कइकूडा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तकूडा, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ गंधमायणकूडे २ गंधिलावईकूडे ३, उत्तरकुरुकूडे ४ णिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति) इस गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के ऊपर की भूमि का भाग-भूमिरूप भाग बहुसमरमणीय कहा गया है। यावत् यहां पर अनेक देव और देवियां उठती वैठती रहती है एवं आराम विश्राम शयन करती रहती है यहां आगत यावत् शब्द से 'पण्णत्ते' स यथा नामकः आलिङ्गपुष्करमितिवा, यावत् नानाविध पंचवर्णमणिभिस्तृणैरूपशोभितः अत्र मणि तृण वर्णनं वक्तव्यम् एवं वर्ण गंधरस स्पर्श-शब्द पुष्करिणी गृह मण्डप पृथिवी शिलापट्टकाः बोव्याः तत्र खलु बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्च' ऐसा पाठ गृहीत हुआ है. यह पाठ छठे सूत्र में भूमिभाग के वर्णन के प्रसङ्ग में कहा गया है अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये । (गंधमायणेणं वक्खारपन्वए कई कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! इस गन्ध मादन वक्षस्कार पर्वत के ऊपर कितने कूट कहें गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! सत्तकूडा-तं जहा सिद्धायणणकूडे, गंधिलावईकूडे, उत्तरकुरुडे, परिक्त छ. 'गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाब आसयति' 241 माहन क्ष४२ पतन। परनो भूमिमा भूभि३५ मा मासभरभणीय કહેવામાં આવેલ છે. યાવત્ અહીં અનેક દેવ અને દેવીઓ ઉઠતી-બેસતી રહે છે તેમજ माराम-विश्राम-शयन ४२ती २७ छे. माही मावस यावत्' शपथी 'पण्णत्ते स यथा नामकः आलिङ्गपुष्करमितिवा, यावत् नानाविधपंचवर्णैः मणिभिस्तृणैरुपशोभितः अत्र मणितृणवणर्णनं वक्तव्यम् एवं वर्णगंधरसस्पर्श-शब्द पुष्करिणी गृहमण्डप पृथिवी शिलापट्टकाः बोध्याः तत्र खलु बहवो व्यन्तरा देवाश्च देव्यश्च' मा ५४ सहीत 22 छ. 240 48 ૬ ઠા સૂત્રમાં ભૂમિભાગના વર્ણન-પ્રસંગમાં આવેલ છે. એથી ત્યાંથી જ જાણી લેવું જોઈએ. ___'गंधमायणेणं वक्खारपब्वए कइ कूडा पण्णत्ता' है मत! मधमान पक्षहार तनी ५२ टमाटी अवाम मावा छ ? सेना वासभा प्रभुश्री ४९ छ-'गोयमा ! सत्त कूडा, त जहा-सिद्धाययणकूडे, गंधमायणकूडे गंधिलावईकूडे, उत्तरकुरुकूडे, लोहि Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र फलिहकूडे ५ लोहियक्खकडे ६ आणंदकूडे ७" 'गन्धमादन' इत्यादि प्रश्नमूत्रमुत्तानार्थम् , उत्तरसूत्रे हे गौतम ! सप्तकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूटम् १, गन्धमादनकूटम् २ गन्धिलावतीकूटम् ३, उत्तरकुरुकूटम् ४ स्फटिककूटम् ५, लोहिताक्षकूटम् ६ आनन्दकूटं ७, तत्र स्फटिककूटं-स्फटिकमणिमयत्वात् , लोहिताशकूटम्-लोहितरत्नवर्णत्वात् , आनन्दकूटम् आनन्दनामकस्य देवस्थ कूटम् ।। ननु यथा वैताढयादि गत सिद्धायतनादिकूटानां व्यवस्था पूर्वापरतया कृता तथाऽत्रापि? किं वा ततः कश्चिद्विशेषः ? इत्याह-"कहि णं भंते ! गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णते ?, गोयना ! मंदरस्स पधयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरथिमेणं, एत्थ णं गंधमायणे वक्खारपव्यए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते" क्व खलु भदन्त ! इत्यादि-हे भदन्त ! गन्धमादने वक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं क्व कुत्र प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपश्चिमेन उत्तरपश्चिम दिशोरन्तराले वायव्यलोहियक्खकूडे, आणंदकूडे) हे गौतम ! इस पर सातकूट कहे गये हैं-उनके नाम इस प्रकार से है-सिद्धायतनकूट, गन्धमादनकूट, गंधिलावतीकूट, उत्तरकुरु कूट, स्फटिककूट, लोहिताक्षकूट और आनन्दकूट । इनमें स्फटिककूट स्फटिकरत्न मय है लोहिताक्षरत्नके जैसे वर्णवाला है और आनन्दकूट आनन्द नामक देवका कूट है। अब यहां पर गौतमस्वामी के इस प्रश्नका कि जिस प्रकार से वैताढय आदिगत सिद्धायतनादि कूटों की व्यवस्था पूर्व अपर आदि रूप से की गई है उसी तरह की व्यवस्था क्या यहां पर भी की गई है ? या उसकी अपेक्षा यहां की व्यवस्था में कुछ अन्तर है ? उत्तर देते प्रभु कहते हैं (गोयमा मंदरस्सपव्वयस्स उत्तरपच्चस्थिमेणं गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरथिमेणं गंधमायणे वक्रवारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्त-तं चेव क्षुल्लहिमवंते सिद्धाय यणस्स कूडस्स पमाणं तं चेव एएसिं सम्वेसिं भाणियवं) हे गौतम ! मंदर यक्खकूडे, आणंदकूडे' 3 गौतम! ये ५ ६५२ सात टो माया छे. तमना नाम આ પ્રમાણે છે-સિદ્ધાયતન કૂટ, ગંધમાદન કૂટ, ગંધિલાવતી ફૂટ, ઉત્તરકુરુ કુટ, સ્ફટિક કૂટ, ગંધમાદન કૂટ, લેહિતાક્ષ કૂટ, અને આનંદ કૂટ, એમાં સ્ફટિક ફૂટ સ્ફટિક રત્નમય છે, લેહિતાક્ષના રત્ન જેવા વર્ણવાળા છે. અને આનંદ કૂટ આનંદ નામક દેવને કૂટ છે. હવે અહીં ગૌતમ પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે કે જેમ વિતાઢય આદિગત સિદ્ધાયતનાદિ કૂટની વ્યવસ્થા પૂર્વ અપર વગેરે રૂપમાં કરવામાં આવેલી છે, તે પ્રમાણે જ શું અહીં પણ વ્યવસ્થા કરવામાં આવેલી છે? કે તેની અપેક્ષાએ અહીંની વ્યવસ્થામાં કંઈ તફાવત છે? भेना समां प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्म उत्तरपच्चत्थिमेणं गंधमायणकूडस्स दाहिणपुरथिमेणं एत्थणं गंधमायणे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकृडे णाम कूडे पण्णत्तेत चेत्र क्षुल्लहिमवते सिद्धाययणस्स कूडस्स पमाणं तचेव एएसि सव्वेसि भाणियव्व' ३ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १७३ कोणे गन्धमादनकूटस्य दक्षिणपौरस्त्येन दक्षिणपूर्वदिशोरन्तराले आग्नेयकोणे अत्र अत्रान्तरे सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , 'जं वेव चुल्लहिमवंते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं' यदेव प्रमाणं क्षुद्रहिमवती सिद्धायतनकूटस्य पूर्वमुक्तम् 'तं चेव एएसि सव्वेसिं भाणिग्व्वं तदेव प्रमाणम् एतेषां सिद्धायतनकूटादीनां सर्वेषां सप्तानां कूटानां भणितव्यम् , वक्तव्यम् , 'एवंचेव विदिसाहिं तिणि कूडा' एवमेव-सिद्धायतनकूटानुसारेण विदिक्षु (दिशासु) तिसृषु विदिक्षु वायव्यकोणेषु त्रीणि सिद्धायतनादीनि कूटानि 'भाणियव्या' भणितव्यानि वक्तव्यानि ननु एकैव वायव्य विदिक् कथं बहुत्वेन निर्दिष्टा? इति चेदुच्यते-अत्र तिस्रो वायव्यो विदिशो मिलिता विवक्षिता इति बहुत्वेन तन्निर्देशः, स च 'एवं चत्तारि वि दारा-भाणियव्वा' इति सूत्रविवरणोक्तयुक्त्या प्रमातव्यः, उक्तकूट त्रयावस्थानमेवम् --मेरुतो वायव्ये सिद्धायतनकूटम् तस्मादू वायव्ये गन्धमादनकूटम् , तस्माच्च वायव्ये गन्धिलावतीकूटम् ३, एवं तिस्रो वायपर्वत के वायव्यकोण में गंधमादन कूड के आग्नेय कोण में सिद्धायतन नामका कूट कहा गया है जो प्रमाण क्षुद्रहिमवान् पर्वत पर सिद्धायतनकूट का कहा गया है वही प्रमाण इन सिद्धायतन आदि सब सातों कूटों का कहलेना चाहिये । (एवं चेव विदिसाहिं तिपिण कूड़ा भाणियव्वा) इसी तरह सिद्धायतनकूट के कथनानुसारही तीन विदिशाओं में वायव्यकोनो में-तीन सिद्धायतन आदि कट कहलेना चाहिये शंका-वायव्यविदिशा तो एक ही होती हैं फिर यहां तीन वायव्यकोन ऐसा पाठ कैसा कहा ? उ. यहां जो ऐसा कहा गया है वह तीन वायव्यदिशाओं को समुदित करके कहा गया है 'एवं चत्तारि वि दारा भाणियव्वा' इन तीन. वायव्यदिशाओं को इस सूत्र के विवरण में उक्त युक्ति से समुदितकिया गया है तात्पर्य ऐसा है कि मेरु से उत्तर पश्चिमदिशाओं के अन्तराल में वायव्यकोने में सिद्धायतनकूट है इस सिद्धायतनकूट से वायव्यकोने में गन्धमादन कूट है इससे वायव्यकोने में गन्धिलावती कूट है इस प्रकार से ये ગીતમ! મંદર પર્વતના વાયવ્ય કોણમાં ગંધમાદન ક્રૂડના આગ્નેય કેણમાં સિદ્ધાયતન નામક કૂટ ઉપર કહેવામાં આવેલ છે. જે પ્રમાણુ શુહિમવાનું પર્વત ઉપર સિદ્ધાયતના–માટે કહેવામાં આવેલ છે, સિદ્ધાયતન વગેરે બધા સાતે કૃ માટે પણ આ મુજબ જ પ્રમાણ सभा एवं चेव विदिसाहि तिणि कूडा भाणियव्यो' २॥ प्रमाणे ४ सिद्धायतन छूटना ४थन મુજબ જ ત્રણ વિદિશામાં વાયવ્ય કોણમાં ત્રણ સિદ્ધાયતન વગેરે કૂટો કહેવા જોઈએ. શંકા-વાયવ્ય વિદિશા તો એક જ હોય છે પછી અહીં ત્રણ વાયવ્ય કોણ એવો પાડ શા માટે કહેવામાં આવેલ છે ઉત્તર–અહીં જે એવું કહેવામાં આવેલું છે તે ત્રણે वायव्य दिशामाने मनुसक्षान ४उवामां आवे छे. 'एवं चत्तारि वि दारा भाणियब्वा' से १९॥ વાયવ્ય દિશાઓને એ સૂત્રના વિવરણમાં ઉક્ત યુક્તિ વડે સમુદિત કરવામાં આવેલ છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે મેરુથી ઉત્તર-પશ્ચિમ દિશાઓના અત્તરાલમાં–વાયવ્ય Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ge जम्बूद्वीपतिसूत्रे व्यविदिशः सम्पद्यते कूटत्रयस्थामान्युक्त्वा चतुर्थकूटस्थानमाह - 'चउत्थे तत्तियस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पंचमस्स दाहिणेणं सेसा उ उत्तरे दाहिणेणं' चतुर्थमित्यादि - चतुर्थं चतुर्थकूटम्, उत्तरकुरुकूटं तृतीयस्य गन्धिलावती कूटस्य उत्तरपश्चिमेन - उत्तरपश्चिमायां विदिशि वायव्यकोणे पञ्चमस्य स्फटिककूटस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि प्रज्ञतम् पञ्चमादि कूटस्थानमाह - शेषाणि कूटचतुष्टयातिरिक्तानि स्फटिकादीनि त्रीणि कूटानि तु उत्तरदक्षिणेन उत्तरदक्षिणस्याम् उत्तरदक्षिणश्रेणि व्यवस्थया स्थितानि प्रज्ञप्तानि अत्रेदं तात्पर्यम् पञ्चमं चतुर्थहगोत्तरतः पण्ठस्य दक्षिणतः, षष्ठं पञ्चमस्योत्तरतः सप्तमस्य दक्षिणतः, सप्तमं षष्ठस्योत्तरत वायव्य विदिशा रूप कोने समुदितकियेगये है इसीसे 'विदिसाहिं तिष्णि' ऐसे बहुवचनका प्रयोग किया गया है। अब चतुर्थकूट का स्थान कहने के लिये सूत्र - कार (उत्थे ततिअस्स उत्तरपच्चत्थिमेगं पञ्चमस्स दाहिणेणं, सेसा उ उत्तर दाहिणेणं फलियलोहिअक्खेसु भोगंकर भोगवइओ देवयाओ सेसेसु सरिस - णामया देवा) इस सूत्र द्वारा समझाते हैं कि उत्तर कूट नामक जो चतुर्थकूट है वह तृतीयकूट जो गन्धिलावती कूट है उसकी वायव्य विदिशा में है और पांच वां जो स्फटिककूट है उसकी दक्षिणदिशा में है इन कूटों के अतिरिक्त जो स्फटिककूट लोहिताक्षकूट, आनन्दकूट. ये तीन कूट हैं वे उत्तर दक्षिणश्रेणि में व्यवस्थित हैं यहां ऐसा तात्पर्य है - पांचवां जो कूट स्फटिककूट है वह चतुर्थ कूटकी उत्तरदिशा में है और छठे कूट की दक्षिण दिशामें है छठा जो कूट है वह पंचमकूट की उत्तर दिशा में और सातवें कूट की दक्षिणदिशा में हैं सातवाँ जो कूट है वह छठे कूट की उत्तर दिशा में કાણમાં સિદ્ધયતન ફૂટ છે. એ સિદ્ધાયતનકૂટથી વાયકાણમાં ગંધમાદનકૂટ છે. એનાથી વાયવ્ય કાણુમાં ગધિાવતી ફૂટ છે. આ પ્રમાણે એ વાયવ્ય વિદિશા રૂપકો વડે સમુદ્રિત કરવામાં આવેલ છે. એથી ०४ 'विदिसाहिं तिष्णि' सेवा महुवयनने પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે. હવે ચતુર્થી ફૂટતુ સ્થાન કહેવા માટે સૂત્રકાર 'च उत्थे ततिअस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पचमस्स दाहिणेणं, सेसाउ, उत्तरदाहिणेणं फलिय लोहि खेसु भोगंकर भोगवइओ देवयाओ सेसेसु सरिसणामाया देवा' या सूत्र वडे સમજાવે છે કે ઉત્તર ફૂટ નામના જે ચતુર્થી ફૂટ છે તે તૃતીય ફૂટ જે ગ ંધિલાવતી ફૂટ છે, તેની વાયવ્ય દિશમાં છે અને પાંચમા જે ફાટક ફૂટ છે તેની દક્ષિણ દિશામાં એ ફૂટ સિવાય જે સ્ફટિક ફૂટ, લેાહિતાક્ષ ફૂટ અને આન ફૂટ એ ત્રણ ફૂટા છે તે ઉત્તર દક્ષિણુ શ્રેણિમાં વ્યવસ્થિત છે. અહી એવા અકરવામાં આવે છે કે-પાંચમા જે સ્ફટિક ફૂટ છે તે ચતુર્થાંફૂટની ઉત્તર દિશામાં છે અને ૬ ઠા ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં છે. છઠ્ઠા ફૂટ છે તે પંચમ—કૂટની ઉત્તર દિશામાં અને સાતમા કૂટની દક્ષિણ દિશામાં છે જે સાતમા કૂટ છે તે ૬ ઠા કૂટની ઉત્તર દિશામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પરસ્પરમાં ઉત્તર-દક્ષિણ ભાવ કહેવામાં આવેલ છે. સ્ફટિક ફૂટ અને લેાહિતાક્ષ ફૂટ એ બે કટાની Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कार: सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कार पर्वत निरूपणम् १७५ I इति परस्परमुत्तरदक्षिणभाव इति, अत्र पञ्चशतयोजनविस्ताराण्यपि कूटानि क्रमदीयमानेपि मन्धमादन पर्वते यन्मान्ति तत् सहस्राङ्ककूटान्यनुसृत्य बोध्यम् । अथैषां सप्तानां कूटानामधिष्टास्वरूपं निरूपयितुमाह - 'फलिह लोहियक्खेसु भोगंकर भोगवईओ देवयाओ सेसेसु सरिसणाया देवा' स्फटिक लोहिताक्षयोरित्यादि - तत्र स्फटिक लोहिताक्षयोः पञ्चम षष्ठयोः कूटयोः क्रमेण भोगङ्करा भोगवत्यौ देवते द्वे दिक्कुमार्यौ तदधिष्ठायौ वसतः, शेषेषु तदतिरिक्तेषु पञ्चसु कटेषु सादृशनामकाः तत्तत्कूटसदृशनामकाः देवाः तदधिष्ठातारो देवाः परिवसन्ति, 'छवि पासायवडेंसगा रायहाणी यो विदिसासु' षट्स्वपि षट्स्वेवकूटेषु प्रासादावतंसकाः तत्तत्कूट ( धिष्टातृ देववासयोग्य उत्तमप्रासादाः प्रज्ञप्ताः, तथाऽमीषां देवानां राजधान्यः अधिपतिवसतयोऽसङ्ख्यातत मे जम्बूद्वीपे विदिक्षु वायव्यकोणेषु प्रज्ञप्ताः । अधुनाऽस्य नामार्थ प्रश्नोत्तराभ्यां निरूपयितुमाह-' से केणद्वेगं भंते ! एवं बुच्चर' 'अथ केनार्थेन भदन्त !" इत्यादि - हे भदन्त ! केन अर्थेन कारणेन एवम् इत्थम् उच्यते कथ्यते 'गंधमायणे वक्खारपव्वए २ ?' गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २१ इति, भगवानुत्तरमाह'गोमा !' गौतम ! 'गंधमायणस्स णं वक्खारपव्त्रयस्स गंधे से जहाणामए' गन्धमादनस्य हैं। इस तरह परस्पर में उत्तर दक्षिण भाव कहा गया है । स्फटिककूट और लोहिताक्षकूट इन दो कूटों के ऊपर भोगंकरा और भोगवती ये दो दिक्कुमारिकाएं रहती है । बाकी के और समस्त कूटों पर कूटों के अनुरूप नामवाले देव रहते हैं । (छवि पासायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसासु) छह कूटों के ऊपर ही प्रासादावतंसक है- उस उस कूट के अधिष्ठायकदेवों के निवास करने योग्य उत्तमप्रासाद हैं तथा इन इन देवों की राजधानियां असंख्यातवेभाग प्रमाण जम्बूद्वीप में वायव्यकोणों में है (से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्वारपव्व २) हे भदन्त ! आपने इस पर्वत का नाम 'गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत ऐसा किसकारण से कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स गंधे से जहाणामए कोट्ठपुडाणवा जाव पीसिज्जमाणान ઉપર ભેગકરા અને ભાગવતી એ એ દિકુમારિકાઓ રહે છે. શેષ સ` ફૂટો ઉપર ફૂટા મુજબ નામવાળા દેવા રહે છે 'छवि पासायवडेंसगा रायहाणीओ विदिसःसु १ टे.नी ઉપર જ પ્રાસાદાવતસક છે. તત્ તત્ ફૂટના અધિષ્ઠાયક દેવાના નિવાસ માટે ચેગ્ય ઉત્તમ પ્રાસાદે છે, તેમજ તત્ તત્ દેવાની રાજધાનીએ અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ જ ખૂદ્વીપમાં वायव्य अशुभां छे. 'से के णट्टेण भंते ! एवं वुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २' हे लढत ! આપશ્રી એ આ પ તનું નામ ગન્ધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વત' એવું શા કારણથી કહ્યું છે ? मेनां भवाणमां अलु हे छे 'गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपव्वयस्स गंधे से जहा णामए कोण वा जाव पीसिज्जमाणाण वा उक्किरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाण वा जान ओराला मणुष्णा जाव गंधा अभिणिस्सवंति भवेयारूवे ? णो इणट्टे समट्टे' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे खलु वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धोऽभिस्रवति तत्र दृष्टान्तमुपन्यस्यति स यथानाम केत्यादि स गन्धः यथा येन प्रकारेण नामक नामैव नामक प्रसिद्धः, अत्र प्रसिद्धार्थकनामशब्दात् स्त्रार्थेऽकच् प्रत्ययो बोध्यः, नामेत्यस्याव्ययत्वात् स च टेः प्राक् तद्धितायाच् प्रत्ययस्य मध्यपतितत्वातन्मध्यपतितन्यायेन नामशब्देन नामक शब्दस्यापि ग्रहणादव्ययत्वात्सुपो लुक् । मूले तु प्राकृ तत्वात्पुंस्त्वेन निर्देश:, 'कोहपुडाण वा जाव' कोष्ठपुटानां वा यावत् यावत्पदेन - ' तगरपुटानां वा एलापुदानां वा चोरापुटानां वा चम्पापुटानां वा दमनकपुटीनां वा कुङ्कुमटानां वा चन्दपुटानां वा उशीरपुटानां वा मरुकपुटानां वा जातीपुटानां वा यूथिकापुटानां वा मल्लिकापुटानां वा स्नानमल्लिकापुटानां वा केतकीटानां वा पाटलीपुटानां वा नवमल्लिकीपुटानां अगुरुपुदानां वा लवङ्गपुटानां वा कर्पूरपुटानां वा वासपुटानां वा अनुवाते वा उद्भिद्यमा नानां वा कुटयमानानां वा भज्यमानानां वा' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः । 'पी' सज्ज - माणा वा उक्किरिजमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा जाव' पिष्यमानानां वा उत्कीर्यमाणानां वा विकीर्यमाणानां वा परिभुज्यमानानां वा यावत् यावत्पदेन - 'भाण्डाद् भाण्डान्तरं संह्रियमाणानां वा एषां पदानां संग्रहो बोध्यः, 'ओराला मणुष्णा जाव गंधा अभिणिस्सर्वति' उदाराः मनोज्ञाः यावत् यावत्पदेन - " मनोहराः, घ्राणमनो निवृतिकराः वा उक्किरिज्जमाणाण वा, विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जूमाणाण वा जाब ओराला मणुष्णा जाव गंधा अभिणिस्सर्वति भवेयारूवे ? णो इण्डे समट्ठे) हे गौतम | इस गंधमादननामक वक्षस्कार पर्वतका गन्ध जैसा पिसते हुए, बटते हुए कूटते हुए बिखरे हुए आदिरूप में परिणत हुए कोष्ठपुटों का यावत् तगरपुटादिकसुगन्धित द्रव्य का, गंध होता है उसी प्रकार का है वह जैसा उदार मनोज्ञ आदि विशेषणों वाला होता है उसी प्रकारका इस वक्षस्कार से सदागंध निकलतारहता है । 'णामए' में नाम शब्द से अकच् प्रत्यय किया गया है - तथ 'नामकः' ऐसा बनायागया है यहां यावत् शब्द से 'तगरपुटानां वा एलापुटानां वा, चोयपुटानां वा, चम्पापुटानां वा, दमनकपुटानां वा, जातीपुदानां वा, यूथिकापुटानां वा' इत्यादिपदों का संग्रह हुआ है तथा 'भाण्डात् भाण्डान्तरं संहियमाणानाम्' इन पदों का संग्रह द्वितीय यावत्पदसे हुआ है। हे गौतम ! આ ગન્ધમાદન નામક વક્ષસ્કાર પર્વતના गन्ध हजता, छूटता, વિકી થયેલાં વગેરે રૂપમાં પરિણત થયેલા કોમ્હેં પુટેના યાવત્ તગર પુટાદિક સુગ ંધિત દ્રવ્યોના ગન્ધ હૈાય છે, તેવા પ્રકારના છે. તે જેવા ઉદાર, મનેાજ્ઞ વગેરે વિશેષાવાળા હાય છે તેવાજ ગંધ આ वक्षस्ठारभांथी सर्वही नीतो रहे छे 'णामए' वा, चम्पा - नाम शब्द 'अकच्' प्रत्यय सगाडवामां आवे छे. मेथी 'नामकः' से मन्युं छे. अहीं यावत् शब्दथी 'तगरपुटानां वा एलापुटानां वा; चोयपुटानां पुटानां वा' दमनकपुटानां वा, जातीपुटानां वा, यूथिकापुटानां वा' वगेरे यह अणु थयेला छे, ते 'भाण्डात् भाण्डान्तरं संहियमाणानाम्' में होना संग्रह द्वितीय यावत् पहथी थयेस तनुं यह Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् सर्वतः समन्तात्" इत्येषां सङ्ग्रहः, एषां व्याख्या राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टादशसूत्रस्य मत्कृत सुबोधिनीटीकातो बोध्या, गन्धाः अभिस्रवन्ति अभिनिःसरन्ति एवमुक्ते सति शिष्यो भगवन्तं पृच्छति-'भवे एयारूवे ?' भवेदेतद्रूपः एतादृशो गन्धो गन्धमादनस्य भवेत् ?, भगवानाह-'णो इणटे समढे' नो अयमर्थः समर्थः अयं कोष्ठपुटादीनां गन्धरूपोऽर्थों नो समर्थः न युक्तः, यद्येवं तर्हि तदुपादानं किमर्थम् ? औपम्यं तत् गन्धमादनस्य 'गंधमायणस्स णं इत्तो इतराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते' गन्धमादनपर्वतस्य खल गन्धः इतः कोष्ठपुटादि गन्धतः इष्टतरकः अतिशयेनेष्टतर एव तथाभूत: अभीप्सिततर एव, तत्र कश्चिदकान्तोऽपि गन्धः कस्यचिदिष्टतरो भवतीत्याह-यावत् यावत्पदेन-"कान्ततरक एव मनोज्ञतरक एव मनोऽमतरक एव" इत्येषां सङ्ग्रहः, एपां विवरणं राजप्रश्नीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रस्य मत्कृत सुबोधिनी टीकातो बोध्यम् , एतादृशो गन्धः प्रज्ञप्तः कथितः, 'से एएणटेणं गोयमा ! एवं तृतीय यावत्पद से 'मनोहरा घ्राणमनोनिवृत्तिकराः सर्वतः समन्तात्' इन पदों का संग्रह हुआ है इन सब पदों को यदि व्याख्यासहित देखना हो तो राजप्रश्नीय सूत्रके अठारहवें सूत्रकी व्याख्याको देखना चाहिये । जब प्रभुने 'गन्धमादन' नाम होने के सम्बन्ध में ऐसा कहा तो गौतम ने पुनः प्रभु से ऐसा पूछा-तो क्या हे भदन्त ! ऐसाही गन्ध उससे निकलता है ? तब इसके उत्तर में प्रभुने उनसे कहा-हे गौतम ! ऐसा यह अर्थ समर्थ नहीं है क्यों कि (गंधमायणस्स णं इत्तो इतराए चेव जाव गंधे पण्णत्ते) गंधमादन वक्षस्कार पर्वत से जो गंध निकलती है वह तो इन कोष्ट पुटादिकों की गंध से भी बहुत अधिक इष्ट होती है यहां तो केवल गन्धमादनवक्षस्कार पर्वत की गंघको उपमित करने के लिए ही कोष्ट पुटादि सुंगन्धित पदार्थों की गन्ध को दृष्टान्त कोटि में रखा गया है। यहां यावत्पद से 'अभीप्सिततर एव कान्ततरएव' आदिपदों का ग्रहण छे. तृतीय यथार५४थी 'मनोहरा घ्राणमनोनिवृत्तिकराः सर्वतः समन्तात्' से पहोना संग्रह થયે છે. એ સર્વ પદેને વ્યાખ્યા જેવા હોય તે “રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર ના ૧૮મા સૂત્રની વ્યાખ્યાને જોવી જોઈએ. જ્યારે પ્રભુએ “ગંધમાદન' નામ વિશે આ જાતની સ્પષ્ટતા કરી ત્યારે ગૌતમે પ્રભુને પુનઃ પ્રશન કર્યો કે હે ભદન્ત! શું એ જ ગબ્ધ તે ગન્ધમાદનમાંથી નીકળે છે? ત્યારે એના જવાબમાં પ્રભુએ તેને કહ્યું કે હે ગૌતમ ! એ मथ समय नथी. भ. 'गंधमायणस्स णं इत्तो इद्रुतराए-घेव जाव गंधे पण्णत्ते' ગંધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વતમાંથી જે ગંધ નીકળે છે તે તે એ કેષ્ટ પુટાદિકની ગધ કરતાં પણ અધિક ઈષ્ટ હોય છે. અહીં તે ફક્ત ગંધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વતની ગંધને ઉપમિત કરવા માટે જ કષ્ટપુટાદિ સુગંધિત પદાર્થોની ગઘને दृष्टान्त टिभी भूस्वामां आवे छे. मी यावत् ५४थी 'अभिप्सिततर एव कान्ततर एव' पोरे पदो अक्षय या छे. मे गधना विशेष भूत पहानी याच्या ज० २३ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्रे वुच्चइ गंधमायणे वक्खारपब्बएर' स एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन गौतम ! एवम् इत्थम् उच्यते-गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २ गन्धेन स्वयं माधतीव मदयति वा तदधिष्ठातदेवदेवीनां मनांसीति गन्धमादनः अत्र बहुलकाद्दीधः स वक्षस्कारश्चासौ पर्वतश्चेति वक्षस्कारपर्वतः २ गन्धमादनेत्यन्वर्थनामसद्भावे हेत्वन्तरमपि न्यस्यति 'गंधमायणे य इत्थ देवे महिडीए परिवसइ' 'गन्धमादनश्चात्र देव' इत्यादि-गन्धमादनः तन्नामा देवः - तदशिष्टातासुरः परिवसति स च कीदृशः ? इत्याह-महर्दिकः-महती विपुला ऋद्धिः भवनपरिवारादि लक्षणा यस्य स तथा, अस्योपलक्षणतया 'महाधुतिः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः' इत्येषां संग्राहकता बोध्या, महर्द्धिकादि पल्योपमस्थितिकान्तपदानां व्याख्याऽष्टमसूत्राद् बोध्याः, 'अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे' इति, अदुत्तः हुआ है । इन गन्ध के विशेषण भूत पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्र के १९ वें सूत्र की व्याख्या से जानलेनी चाहिये (से एएणडेणं गोयमा ! एवं वुच्चद गंधमायणे वक्वारपव्वए २) इस कारण हे गौतम ! मैने इस पर्वत का नाम गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत ऐसा कहा है दूसरी बात इस पर्वत के इस प्रकार के नाम होने में ऐसी है (गंधमायणे अ इत्थ देवे महिद्धिए परिवसई) यहां पर विपुलभवन परिवार आदिरूप ऋद्धि से युक्त होने के कारण महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला गन्धमादन नामका एक व्यन्तर देव रहता है अतः उसके सम्ब. न्ध से इसका नाम 'गन्धमादन' ऐसा हो गया है । यहां यावत्पद से 'महाद्युतिः, महाबलः, महायशा, महासौख्यः, महानुभावः पत्योपमस्थितिकः' इन विशेषणभूत पदों का संग्रह हुआ है । इनकी व्याख्या आठवें सूत्र से ज्ञातव्य है । (अदु. '२४प्रश्नीय सूत्रना' न! १५ मा सूत्रनी व्यायामाथी ane सेवा मेय. 'से एएणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २' मेथी गोतम ! में 20 तनु नाम अन्धमान पक्ष२४२ ५ सयु ४थु छ 'गन्धेन स्वयं माद्यति मादयति। तदधिष्ठातृदेव देवीनां मनांसि इति गन्धमादनः' २॥ तनी व्युत्पत्तिशी से नाम गुण नियन्न नाम छ. 'बाहुलकात्' सूत्री 'मादन' मा प्रभार ही न 'गन्धमादन' मेव। श६ अन्य। छे. मा पतना नाम विशे मील मे पात सेवी छ । 'गंधमायणे अ इत्थ देबे महिद्धिए परिवसई' 48 qya भवन परिवार माहि ३५ द्धिथी युटत डोवा महस મહદ્ધિક વગેરે વિશેષવાળે ગંધમાદન નામક એક વ્યંતર દેવ રહે છે. એથી એના સંબંધથી એનું નામ “ગન્ધમાદન” એવું પ્રસિંદ્ધ થઈ ગયું છે. અહીં યાવત્ પદથી 'महाद्युतिः, महाबलः, महायशा, महासौख्यः महानुभावः पल्योपमस्थितिकः' से विशेष ભૂત પદને સંગ્રહ થયો છે. એ પદેની વ્યાખ્યા આઠમા સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ (१) गन्धेन स्वयं माद्यति मादयतिवा तदधिष्ठातृदेव देवीनों मनांसि इति गन्धमादन:' इस प्रकार की व्युत्पत्ति से यह नाम गुणनिष्पन्न है 'बाहुलकात्' सूत्र से मादन' ऐसा दीर्घ होकर गन्धमादन शब्द बना है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १८ गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतनिरूपणम् १७५ रम्-अथ च खलु गन्धमादनेति शाश्वतं सार्वदिकं नामधेयं नाम, शाश्वतत्वविवरणं च चतुर्थ. सूत्रोक्त पद्मवरवेदिकानुसारेण बोध्यम् इति ॥ सू०१८॥ अयोत्तर कुरु निरूपणायाह-'कहि णं भंते महाविदेहे' इत्यादि ___ मूलम् -कहिणं भंते महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता ? गोयमा ! मन्दरस्त पव्वयस्त उत्तरेण णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं गन्धमायणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं मालवंतस्स वक्खारपवयस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा अद्धचंद संठाणसंठिया इक्का रस जोयणसहस्साई अटु य बायाले जोयणसए दोण्णि य एग्रणवीसह. भाए जोयणस्स विक्खंभेगति, तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपव्वयं पुटा, तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पञ्चस्थिमिल्लाए जाव पञ्चस्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुटा, तेवण्णं जोयणसहस्साई आयामेणंति, तीसे णं धणुं दाहिणेणं सटुिं जोयणसहस्साई चत्तारि य अटारसे जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं, उत्तरत्तरं च णं सासए णामधिज्जे इति) इस प्रकार से निमित्तकृत 'गंधमादन' नामको प्रकट करके अब सूत्रकार इस सम्बन्ध में यह नाम अनिमित्तक है ऐसा कथन करने के अभिप्रायसे (अदुत्तरं चणं सासए णामधिज्जे इति) ऐसा कहते हैंइसमें यह समझायागया है कि इसका ऐसा नाम शाश्वत है इस सम्बन्ध में विशेषरूप से जो अन्य और विशेषण शाश्वतत्वके विवरण में कहे गये हैं उन्हें चतुर्थ सूत्रोक्त पद्मवरवेदिकाके अनुसार जानलेना चाहिये ॥सू०१८॥ छ. 'अदत्तरं च णं सासए णामधिज्जे इति' मा प्रमाणे निभित त आमाहन' नाम विशे સ્પષ્ટતા કરીને હવે સૂત્રકાર આ સંબંધમાં આ નામ અનિમિત્તિક છે એવા કથનના अभिप्राय साथे 'अदुत्तर च णं सासए णामधिज्जे इति' मे४३ छे. समां सवी २५टता કરવામાં આવી છે કે એનું એવું નામ શાશ્વત છે. એ સંબંધમાં વિશેષણ રૂપમાં જે અન્ય બીજા વિશેષણ શાશ્વતત્વના વિવરણમાં કહેવામાં આવેલ છે, તે સંબંધમાં ચતુર્થ સૂત્રોક્ત પદ્મવર વેદિકા મુજબ જાણી લેવું જોઈએ. એ સ. ૧૮ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पाणते, एवं पुत्ववणिया जच्चेव सुसमसुसमावत्तव्वया सच्चेव णेयव्वा जाव पउमगंधा१ मियगंधा२ अममा३ सहा४ तेतली५ सणिचारी६ ॥सू०१९॥ __ छाया-क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे उत्तरकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन गन्धमादनस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन अत्र खलु उत्तरकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः, प्राचीनप्रतीचीनायताः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णाः अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताः एकादशयोजनसहस्राणि अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेणेति, तासां जीवा उत्तरेण प्राचीनप्रचीतीनायता द्विधा वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, तद्यथापौरस्त्यया कोटया पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, एवं पाश्चात्यया यावत् पाश्चात्यं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, त्रिपश्चाशतं योजनसहस्राणि आयामेनेति, तासां खलु धनुः दक्षिणेन पष्टि योजनसहस्राणि चत्वारि च अष्टादशानि योजनशतानि द्वादश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, उत्तरकुरूणां खलु भदन्त ! कुरूणां कीदृशकः आकार भाव प्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः, गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, एवं पूर्ववर्णिता यैव सुषमसुषमा वक्तव्यता सैव नेतव्या यावत् पद्मगन्धाः १ मृगगन्धाः २ अममाः ३ सहाः ४ तेतलिन: ५ शनैश्वारिणः ६॥ सू० १९॥ टीका-'कहि णं भंते ! महाविदेहे' इत्यादि, 'उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता' इत्यन्तम् छाया गम्यम्, 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया इक्कारस उत्तरकुरुनिरूपण 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे' टीकार्थ-गौतमस्वामीने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है- (कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! महाविदेहक्षेत्र में उत्तरकुरु नामका क्षेत्र कहाँ पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है (गोयमा ! मंदरस्स पन्धयस्स उत्तरेणं णीलवंतरस वासहरपब्वयस्सदक्खिणेणं गंधमायणस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णाम ઉત્તરકુરુ-નિરૂપણ 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे इत्यादि -गौतमे मा सूत्र 43 प्रभुने सेवा प्रश्न या ४-'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता' भडविड क्षेत्रमा उत्त२२ नाम क्षेत्र ४या स्थणे आवेदन छ? सेना ४ासमा प्रभु छ-'गोयमा ! मंदरस्स पव्ययरस उत्तरेणं णीलवंतरस वासहर पव्वयस्स दक्खिणेणं वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता' गौतम! Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १९ उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् जोयणसहस्साई' एतान्यपि छाया गम्यानि, 'अट्ठ य बायाले जोयणसए दोण्णि य एगूणवीसहभाए जोयणस्स विक्खंभेगति' नवरम् अष्ट च द्वाचत्वारिंशानि-द्वाचत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि, द्वौ चैकोनविंशतिभागौ योजनस्य विष्कम्भेणेति, अथासामुत्तरकुरूणां जीवा माह-'तीसे जीवा उत्तरेणं पाइणपडीणायया दुहा वक्खारपव्वयं पुट्ठा' 'तासां जीवेत्यादिमूले प्राकृतत्वादेकवचनम् 'तार्सि' इति वक्तव्ये 'तीसे' इत्युक्तम्, तासाम् उत्तरकुरूणां जीवा प्रत्यश्चा सैव जीवा उत्तरेण उत्तरस्यां दिशि प्राचीनप्रतीचीनायता पूर्वपश्चिमदीर्घा, द्विधा वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा स्पृष्टवती, 'तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए-पुरथिमिल्लं वक्खारपव्ययं पुट्ठा' तद्यथा-पौरस्त्यया पूर्वया कोटया अग्रभागेन पौरस्त्यं प्राच्यं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा स्पृष्टावती, ‘एवं पञ्चत्थिमिल्लाए जाव पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपव्ययं पुट्ठा' एवम् अनेन प्रकारेण पाश्चात्यया पश्चिमया यावत् यावत्पदेन-'कोटया' इति ग्राह्यम् पाश्चात्यं कुरा पण्णत्ता) हे गौतम ! मन्दर पर्वत की उत्तरदिशामें, नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में, गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत की पूर्वदिशा में एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में उत्तरकुरु नामका क्षेत्र अकर्मभूमिका स्थान कहा गया है यह (पाईणपडीणायया, उदीणदाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंद्संठाणसंठिया, इक्कारसजोयणसहस्साई अट्टथबायाले जोयणसए दोणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स-विक्खंभेणंति) यह पूर्व से पश्चिमतक लम्बा है और उत्तर दक्षिण तक विस्तीर्ण है इसका विष्कम्भ ११८४२,२ योजन प्रमाण है (तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपवयं पुट्ठा) उस उत्तरकुरु क्षेत्र की जीवा-प्रत्यञ्चा उत्तर दिशा में पूर्व पश्चिम में दीर्घ है-लम्बी है-यह पूर्व दिग्वर्ती कोटि से पूर्वदिग्वर्ती वक्षस्कार पर्वतको छूती है और पश्चिमदिग्वी कोटि से पश्चिमदिग्वती वक्षस्कारपर्वत को छूती है यही बात (तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पच्चस्थिमिल्लाए जाय મંદર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં નીલવંત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, ગન્ધમાદન વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં ઉત્તર કુરુ નામક ક્ષેત્ર-અકર્મભૂમિકાનું સ્થાન-આવેલ छ. 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणवित्थिण्णा, अद्ध-चंदसंठाणसंठिया इक्कारसजोयणसहस्साई अट्रयबागले जोयणसए दोणिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणंति' से पूर्वथा પશ્ચિમ સુધી લાંબે છે અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એને આકાર અદ્ધ द्रा छ. सन Aug ११८४२ हे यान प्रभार छ. 'तीसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा वक्खारपव्ययं पुट्ठा' मा उत्त२ १२ क्षेत्रनी 40-प्रत्यया-उत्तर દિશામાં પર્વ પશ્ચિમમાં દીર્ઘ છે. લાંબી છે. એ પૂર્વ દિગ્વતી કેટથી પૂર્વ દિશ્વત વક્ષસ્કાર પર્વતને સ્પર્શે છે અને પશ્ચિમ દિગ્વતી કેટથી પશ્ચિમ દિગ્ગત વક્ષસ્કારને २५शा उस छ. से पात 'तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं आव वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पच्चथिमिल्लाए जाव पच्चत्थि मिल्लं बक्खारपव्वयं पुढा' मे सूत्र Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पश्चिमं वक्षस्कारपर्वतं स्पृष्टा, तस्या जीया मानमाह-'तेवणं जोयणसहस्साई आयामेणति' त्रिपञ्चाशतं योजनसहस्राणि-त्रिपञ्चाशत्सहस्रसंख्ययोजनानि आयामेन दैयण, तासां धनुष्पृष्ठमानमाह-तीसे णं धणुं दाहिणेणं सढि जोयणसहस्साई चत्तारिय अट्ठारसे जोयणसए' तासाम्, उत्तरकुरूणां खलु ५नुः दक्षिणेन दक्षिणभागे मेर्वासन्ने षष्टिं योजनसहस्राणि -पष्टिसहस्रसंख्ययोजनानि चत्वारि च अष्टादशानि अष्टादशाधिकानि योजनशतानि 'दुवालसय एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' द्वादश च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण-परिधिना, तथाहि-एकैकस्य वक्षस्कार पर्वतस्याऽऽयामस्त्रिंशत् योजनसहस्राणि द्वे च नवाधिके योजनशते षट् च कलाः तत उभयो निसङ्कलनया यथोक्तं मानं भवतीति बोध्यम् । अथोत्तरकुरूणां स्वरूपं निरूपयितुमाह - 'उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?' 'उत्तरकुरूणां खलु' इत्यादि । हे भदन्त ! उत्तरकुरूणां खलु कुरूणां कीदृशकः कीदृशः आकारभावप्रत्यवतार:-तनाकारः स्वरूपं भावाः तदन्तर्गताः पदार्थाः तत्सहितः प्रत्यवतारः आविर्भारः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह-'गोयमा ! बहुसमरम. णिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते' गौतम ! बहुसमरमणीयो भूमिमागः प्रज्ञप्ता, भूमिभागवर्णनं पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपब्वयं पुट्ठः) इस सूत्रद्वारा प्रकट की गई है। (तेवण्णं जोयणसहस्साई आयामेणंति) यह प्रत्यञ्चा आयाम में ५३०७.० योजन की है (तीसेणं धणुं दाहिजेणं सहि जोयणसहस्साइं, चत्तारिय अट्टारसे जोयण सए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं) इस प्रत्यञ्चा का धनुपृष्ठ आयामकी अपेक्षा दक्षिण दिशा में मेरु के पास में ६०४१८१२ योजन का है यह प्रमाण इस रूपसे निकलता है कि एक एक वक्षस्कार पर्वतका आयाम ३०२०९ योजनका है अतः दोनों वक्षस्कारोंका आयाम जोडने पर ६०४१८१३ आ जाता है (उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमने उत्तरकुरुका स्वरूप जानने के लिये प्रभुसे ऐसा पूछ। है -कि-हे भदन्त ! उत्तरकुरुका आकारभाव प्रत्यवतार स्वरूप-कैसा कहा गया है ? उत्तर में प्रभुने कहा है-(गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते एवं पुचः ४. ४२वामां आवे छे. 'तीसेणं धणु द हिणेणं सहूिँ जोयणसहस्साई, चत्तारिय अट्ठारसे जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' मा प्रत्ययानु धनुः या આયામની અપેક્ષાએ દક્ષિણ દિશામાં મેરુની પાસે ૬૦૪૧૮૧ જન જેટલું છે. આ પ્રમાણ એ રીતે જાણવા મળે છે કે એક–એક વક્ષસ્કાર પર્વતનો આયામ ૩૦૨૦૯ યોજન જેટલું હોય છે. એથી બને વક્ષસ્કારનો આયામ જોડીને ૬૦૪૧૮૧ આવી જાય છે. 'उत्तरकुराएणं भंते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते हुवे गौतमस्वामी ઉત્તર કરનું સ્વરૂપ જાણવા માટે પ્રભુને એવી રીતે પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત ! ઉત્તરકુરુના આકાર–ભાવ, પ્રત્યવતાર અને સ્વરૂપ કેવાં કહેવામાં આવેલ છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छ 'गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुव्ववणिया जच्चेव सुसम सुसमाव Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. १९ उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् चतुर्थसूत्राद बोध्यम् ‘एवं पुव्यवणिया जच्चेव सुसममुममा वत्तबया सच्चेव णेयव्वा' एवम् उक्तरीत्या पूर्ववर्णिता पूर्वम् २२ सूत्रे भरतवर्षप्रकरणे वर्णिता उक्ता यैव सुषमसुषमा वक्तव्यतासुपममुषमा अवसर्पिणीकालस्य प्रथमारकः, तस्याः वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः सैव नेतव्या ग्राह्या सा च किमवधिरित्याह-'जात्र पउपगंधा १, मियगंधा २, अममा ३ सहा ४ तेतली ५ सणिचारी ६' यावत् पद्मगन्धाः इत्यादि-पद्मगन्धाः-पद्मवद्गंधयुक्ताः १, मृगगन्धाः -मृगस्य कस्तूरी प्रधान मृगस्येव गन्धो येषां ते तथा २, अममा:-निर्ममाः ममता रहिताः ३, सहाः सहन्ते-शक्नुवन्ति कार्ये इति सहाः-शक्ताः कार्य समर्थाः ४, तेतलिन:-विशिष्ट. पुण्यशालिनः ५, शनैश्चारिण:-मन्दगमनशीलाः एवं विधा मनुष्या यावत् तावत् उत्तरकुरुवर्णनं बोध्यम्, इत्युत्तरकुरु वक्तव्यता निरूपिता ॥सू०१९॥ । अथोत्तरकुरुवर्तिनौ यमकपर्वतौ प्ररूपयितुमाहमूलम्-कहि णं भंते ! उत्ताकुराए जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता ?, गोयमा ! णोलवंतस्त वासहरपवयस्त दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ अजोयणसए चोत्तीसे चत्तारि य सत्तभाए जोयणस्त अबाहाए सीयाए महाणईए उभओ कूले एत्थ णं जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता जोयणसहस्सं उर्दू उच्चत्तेणं अड्डाइजाइं जोयणसयाइं उठवेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं उरि च पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं मूले तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावटुं जोयणसयं किंचि वणिया जच्चेव सुसमसुसमावत्तव्वया सच्चेव णेयव्वा जाव पउमगंधा १ मिअगंधार अममा३ सहा४ तेतली५ सणिंचारी६) हे गौतम ! वहांका भूमिभाग बहुसमरमणीय है इस तरह पूर्ववर्णित सुषमसुषमा नामक आरे की जो वक्तव्य ता है वही वक्तव्यता यहां कह लेनी चाहिये-यावत् वहां के मनुष्य पद्म जैसी गंधवाले हैं कस्तूरीवाले मृग जैसी गन्धवाले हैं ममता रहित है कार्य करने में सक्षम है तेतली विशिष्ट पुण्यशाली हैं और मन्द मन्द गति से चलनेवाले हैं। इसप्रकार से यह उत्तरकुरुका वर्णन हैं। ॥१९॥ त्तव्वया सच्चेव णेयव्वा जाव पउमगंधा १, मिअगंधा २, अममा ३, सहा ४, तेतली ५, सणिचारी ६' गौतम ! त्यांनी भूमिमा मतभरभक्षीय छ. २ प्रमाणे ५ વર્ણિત સુષમ સુષમા નામક આરાની જે વક્તવ્યતા છે તેજ વક્તવ્યતા અત્રે જાણવી જોઈએ. યાવત ત્યાંના મનુષ્ય પર્વ જેવી ગંધવાળા છે. કસ્તૂરી વાળ મૃગની જેવા ગંધ વાળા છે, મમતા રહિત છે, કાર્ય કરવામાં સક્ષમ છે. તેતલી વિશિષ્ટ પુણ્યશાલી છે. અને ધીમી ધીમી ચાલથી ચાલનાર છે. આ પ્રમાણે આ ઉત્તરકુરુનું વર્ણન છે. સૂ. ૧૯ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विसेसाहियं परिक्खेवेणं मञ्झे दो जोयणसहस्साई तिमि बावत्तरे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं उवरि एग जोयणसहस्सं पंच य एकासीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं मूले वित्थिण्णा मज्झे संखित्ता उपि तणुया जमगसंठाणसंठिया सव्वकगगामया अच्छा सहा पत्तेयं परमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं२ वणसंडपरिक्खित्ता, ताओ णं पउपवरवेइयाओ दो गाउयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंचधणुसयाइं विक्खंभेणं, वेइयावणसंडवण्णओ भाणियव्वो, तेसि णं जमगपञ्चयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव तस्त णं वहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा बावर्द्धि जोयगाइं अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविकखंभेणं पासायवण्णओ भाणियो, सीहासणसपरिवारा जाव एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसपहं आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भदासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ से केणट्रेणं भंते! एवं वुच्चइ जमगा पन्वया२१, गोयमा! जमगपव्वएसु णं तत्थर देसे तहिं २ बहवे खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव बिलपंतियासु बहवे उपलाइं जाव जमगवण्णाभाई जमगा य इत्थ दुवे देवा महिड्डिया, ते णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव भुंजमाणा विहरंति, से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जमगपव्वया २, अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे जाव जमगपव्वया २ । सू० २८॥ छाया-क्य खलु भदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ, गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात् अष्टयोजनशतानि चतुस्त्रिंशानि चतुरश्च सप्त भागान् योजनस्य अबाधया सीताया महानद्याः उभयोः कूलयोः अत्र खलु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ, योजन सहस्रमूवमुच्चत्वेन अर्द्धतनीयानि योजनशतानि उद्वेधेन मृले एक योजनसहस्रमायामविष्कम्भेण मध्ये अर्ड्सष्टमानि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण उपरि पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भेण मूले त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्टं योजनशतं किश्चि. द्विशेगाधिक परिक्षेपेण मध्ये द्वे योजनसहस्रे त्रीणि च द्वासप्ततानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण उपरि एक योजनसहस्रं पञ्च एकाशीतानि योजनशतानि किञ्चि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् द्विशेषाधिकानि परिक्षेपेणमूळे विस्तीर्णौ मध्ये संक्षिप्तौ उपरि तनुकौ यमकसंस्थानसंस्थिती सर्वकनकमयो अच्छौ श्लक्षणौ प्रत्येकं २ पद्मवरवेदिका परिक्षिप्तौ प्रत्येकं २ वनषण्डपरि क्षिप्तौ, ताः खलु पद्मवरवेदिकाः द्वे गव्यूते ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्च धनुःशतानि विष्कम्भेण, वेदिका वनषण्डवर्णको भणितव्यः, तयोः खलु यमक पर्वतयोरुपरि बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागः अत्र खलु द्वौ प्रासादावतंसकौ प्रज्ञप्तौ, तौ खलु प्रासादवतंसको द्वापष्टि योजनानि अर्द्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च आयामविष्कम्भेण प्रासादवर्णको भणितव्यः, सिंहासनानि सपरिवाराणि यावद् अत्र खलु यमकयोः देवयोः पोडशानामात्मरक्षकदेवसाहस्त्रोणां षोडश भद्रासनसाहस्त्र्यः प्रज्ञप्ता, ____ अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-यमको पर्वतौर ?, गौतम ! यमकपवतयोः खलु तत्र२ देशे तत्र२ क्षुद्राक्षुद्रिकासु वापिसु यावद् विलपङ्क्तिकासु बहूनि उत्पलानि यावत् यमकवर्णाभानि यमकौ चात्र द्वौ देवौ महद्धिकौ, तौ च तत्र चतसृणां सामा नेकसाहस्रीणां यावद भुञ्जानौ विहरतः, तौ तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-यमकपर्वतौर, अदुसरं च खलु शाश्वतं नामधेयं यावद् :यमकपर्वतौर ॥सू० २०॥ टीका-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए' इत्यादि-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जमगा णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' क्व खलु भदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ? भगवानाह-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ' हे गौतम । नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्याच्चरमान्तात्-इह ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी तेन दाक्षिणात्यं दक्षिणदिग्भवं चरमान्तं-सर्वान्तिमं प्रदेशम् आरभ्य-दाक्षिणात्याच्चरमान्तादारभ्याग्दिक्षिणाभिमुखमित्यर्थः, 'अट्ट जोयणसए' अष्ट-अष्टसंख्यानि योजनशतानि 'चोत्तीसे' चतुस्त्रिंशानि-चतु स्त्रिंशदधिकानि 'चत्तारि य सत्तभाए' चतुरश्च सप्तभागान 'जोयणस्स अवाहाए' 'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए' इत्यादि टीकार्थ-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जमगा नाम दुवे पव्धया पण्णत्ता' हे भगवन उत्तरकुरु में यमक नामके दो पर्वत कहाँ पर कहे गए हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ' हे गौतम ! णीलवन्त वर्षधर पर्वतके दक्षिण दिशा के चरमान्त से लेकर 'अट्ठजोयणसए चोत्तीसे' आठसो चोतीस योजन ___ 'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए' त्यहि साथ-'कहिणं भंते ! उत्तरकुराए जमगा नाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' भाव उत्तरशमा યમક નામ વાળા બે પર્વતે ક્યાં આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४३ छ -'गोयमा ! णीलवतस्स वासहरपव्वस्स दक्खिणिल्लाओ चरिमंताओ' 8 गौतम ! नीत १५२ ५५तना क्षिy हिशान य२मान्तथी सन 'अढ जोयणसए चोत्तीसे' - ज० २४ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे योजनस्य अबाधया-अपान्तराले कृत्वेति शेषः 'सीयाए' सीतायाः-नाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः 'उभओ' उभयोः एकः पूर्वस्मिन् अपरश्च पश्चिमे इति द्वयोः 'कूले' कूलयो:तटयोः 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे 'जमगा णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता' यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ, अयैतयोर्मानाद्याह-'जोयणसहस्सं' योजनसहस्र-सहस्रसंख्ययोजनानि 'उड्डूं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन-उन्नतत्वेन, 'अडाइज्जाई जोयणसयाई' अर्धतृतीयानि योजनशतानिसार्द्धशतद्वयसंख्ययोजनानि 'उव्वेहेणं' उद्वेधेन मूले-मूलावच्छेदेन 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् वृत्ताकारत्वात् 'मज्ञ मध्ये-मध्यदेशावच्छेदेन भूतलतः पञ्चशतयोजनातिक्रमे 'अट्ठमाणि जोयणसयाई' अष्टिमानि योजनशतानि-सार्द्धसप्तसंख्ययोजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण 'उरि च' उपरि-सहस्रयोजनातिक्रमे 'पंच जोयणसयाई पञ्च योजनशतानि-पश्चशतयोजनानि 'आयामषिक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण, 'मूले तिण्णि जोयणसहस्साई' मूले-त्रीणि 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स' एक योजन के चोथे भागके सप्तमांश 'अबाहाए' अबाधासे-अपान्तराल में 'सीयाए महाणईए' सीता नामकी महानदी के 'उभओ कूले पूर्वपश्चिम तट पर अर्थात् एक पूर्वतट पर एवं एक पश्चिम तट पर 'एस्थणं जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता' इस प्रकार से यमक नामके दो पर्वत कहे हैं। - अब इन दो पर्वत के आयाम विस्तारादि सूत्रकार कहते हैं-'जोयणसहस्सं' इत्यादि 'जोयणसहस्सं उडूं उच्चत्तण' एक सहस्र योजन उपर के भागमें ऊंचे एवं 'अडाइज्जाई जोयणसयाई ढाइसो योजन 'उव्वेहेणं' उद्वेध वाले अर्थात् पृथ्वीके अंदर रहे हुए 'मूले एगं जोयणसहस्सं' मूलभागमें एक हजार योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भवाले 'मज्झे अद्धहमाणि जोयणसयाई मध्यमें साडे सातसो योजन 'आयामविखंभेणं' आयाम विष्कमासा यात्रीस यान 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स' मे योजना : यार समांश 'अबाहाए' माया-मन्त विना 'सीयाए महाणईए' सीता नाभनी भडानहीन'उभओ પૂર્વ પશ્ચિમ કિનારા પર અર્થાત્ એક પૂર્વના કિનારા પર અને એક પશ્ચિમ કિનારા ५२ 'एत्थ णं जमगा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता' से रीते यम४ नामनामे पता ४ा . वे सूत्रा२ मे तना आयाम विस्तार मान मतावे. 'जोयणसहसं' SAls-'जोयणसहस्सं उड्ढं उच्चत्तण' मे४ २ थान ५२नी त२५ या छे. तभर 'अढाइज्जाई जोयणसयाई' अढीसा योग- 'उब्वेहेणं' देवाणा मे , सभीननी म२ २७स छ. 'मूले एग जोयणसहस्सं' भूख भागमा ४ १२ याराना मध्यभा 'आयामविक्खंमेणं' anा पणा व 'मज्झे अट्ठमाणि जोयणसयाई' मध्यमा सा सातसो योजना 'आयामविक्खंभेगा पापा 'उवरिं च मे बन२ योरन Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् १८७ योजनसहस्राणि-सहस्रत्रयसंख्ययोजनानि 'एगं च बावर्ट' एकं च द्वाषष्ट-द्वाषष्टयधिक 'जोयणसयं किंचि विसेसाहियं' योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं-कियत्कलमित्यर्थः, 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना वर्तुलत्वेनेत्यर्थः, 'मज्झे दो जोयणसहस्साई मध्ये-द्वे योजनसहस्रे-सहस्रद्वयसंख्ययोजनानि 'तिण्णि बावत्तरे' त्रीणि च द्वासप्ततानि-द्वासप्तत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचि विसेसाहिए' किञ्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना, 'उवरि' उपरि-शिखरे 'एगं' एक 'जोयणसहस्सं पंच य एकासीए' योजनसहस्रं पञ्च च एकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि 'जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, अत एव 'मूले वित्थिण्णा' मले विस्तीणौँ, 'मज्झे' मध्ये-मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ-अल्पपरिक्षेपको, 'उप्पि' उपरिशिखरे मूलमध्यापेक्षया 'तणुया' तनुकौ-स्वल्पतरायामविष्कम्भौ, तथा 'जमगसंठाणसंठिया' म्भ वाले एवं 'उवरिं च' ऊपर एक सहस्र योजन पर 'पंचजोयणसयाई' पांचसो योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भ से युक्त 'मूले तिमि जोयण सहस्साई मूलभागमें तीन हजार योजन 'एगं च बावडं जोयणसयं एकसो बासठ योजनसे 'किंचिविसेसाहियं' कुछ अधिक अर्थात् मूलभागमें ३१६२ योजनसे कुछ अधिक परिक्खेवेणं' परिधिवाले (गोलाइमें) 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यम भागमें दो हजार योजन 'तिन्निबावत्तरे जोयणसए' तीनसो बहत्तरयोजन से 'किचिविसेसाहिए' कुछ अधिक परिक्खेवेणं' परिक्षेप से युक्त 'उवरि शिखर के भाग में' 'एगं जोयणसहस्सं पंचय-एकासीए जोयणसए, एक हजार पाँचसो एकासी योजनसे 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' कुछ अधिक परिक्षेप वाले ये यमक पर्वत हैं ये 'मूले वित्थिन्ना' मूल भाग में विस्तार वाले 'मज्ज्ञे संखित्ता' मध्य भागमें कुछ संकुचित एवं 'उरि तणुया' शिखर के भागमें तनु अल्पतर आयाम विष्कम्भवाले है तथा 'जगमसंठाणसंठिया' यमक संस्था ५२ना मागमा 'पंचजोयणसयाई' पांयसो योन 'आयामविक्खंभेणं' मा पाजावाजा 'मूले तिन्नि जोयणसहस्साई' भूसभा र २ यापन 'एग च बावट्ठ जोयणसयं' मे सो मास: योनथी 'किंचि विसेसाहियं' ४७६ qधारे अर्थात भूजलागमा ३१६२ योनयी ४ धारे 'परिक्खेवेणं' परिधि मर्थात् ७४२मा 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यमाभा मे १२ यान 'तिन्नि बावत्तरे जोयणसए' से मांते२ योगनथी 'किंचि विसेसाहिए' ४४४ पधारे 'परिक्खेवेणं' ५३धिवा 'उवरि' शिमरनी ७५२ना मामा 'एग जोयणसहस्सं पंचय एकासीए जोयणसए' मे १२ पांयसो हासी योजना 'किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' ४४४ वधारे ५२५ मा यम: ५६त छे. या पति 'मूले वित्थिण्णा' भूगमा विस्तारवाणा 'मज्झे संखित्ता' मध्य भागमा ४४४ सय युक्त तथा 'उवर तणुया' ५२ना लामा तनु नाम म६५तर पायाभ 441 छे. तया Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र यमकसंस्थानसंस्थितौ-यमकौ-युग्मजातौ भ्रातरौ तयोर्यत् संस्थानम्-आकारविशेषस्तेन संस्थितौ-परस्परं सदृशसंस्थानौ, यद्वा-यमका:-पक्षिविशेषास्तत्संस्थिती, संस्थानं चानयो मलादारभ्य शिखरं यावत् ऊवीकृत गोपुच्छवत्क्रमिक हासवत्प्रमाणत्वेन बोध्यम् , तथा 'सव्वकणगामया' सर्वकनकमयौ-सर्वात्मना स्वर्णमयी 'अच्छा सण्हा' अच्छौ श्लक्ष्णौ पत्तेयं२' प्रत्येकम् २-एकैक एकैकः इति द्वौ पृथक् स्थितौ 'पउमवरवेइयापरिक्खित्ता' पद्मवरवेदिका परिक्षिप्तौ--पदमवरवेदिका परिवेष्टितौ 'पत्तेयं२' प्रत्येकं २ 'वणसंडपरिक्खित्ता' वनषण्डपरि. क्षिप्तौ-वनषण्डपरिवेष्टितौ, अत्रैवानन्तरोक्तयोः पद्मवरवेदिका-वनषण्डयोः प्रमाणाद्याह'ताओ गं' इत्यादि-'ताओ णं' ताः प्रागुक्ताः खलु 'पउमवरवेइयाओ' पद्मवरवेदिकाः 'दो गाउयाई द्वे गव्यते-चतुरःक्रोशान 'उद्धं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन 'पंच धणुसयाई पश्चधनुःशतानि-पञ्चशतधषि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'वेइयावणसंडवण्णओ' वेदिका नसे संस्थित अर्थात् परस्परमें समान संस्थान वाले ये यमक पर्वत है अथवा यमकनामके पक्षिविशेष के आकार के जैसा आकार वाले ये यमक पर्वत है । अर्थात् इसका संस्थान मूलसे शिखर पर्यन्त ऊंचे उठाए गए गाय के पुच्छ के आकार जैसे आकार वाले अर्थात् क्रमिक तनु होते जानेवाले प्रमाण वाला ये पर्वत है। ये यमक पर्वत 'सव्व कणगामया' सर्वात्मना सुवर्णमय है 'अच्छा सण्हा' अच्छ एवं श्लक्ष्ण है। 'पत्तेय २' प्रत्येक पृथक पृथक रहे हुए हैं अर्थात् दोनों अलग अलग स्थित है। 'पउमवरवेइया परिक्खित्ता' पद्मवर वेदिका से परिवेष्टित है 'पत्तयं २ वणसंडपरिक्खित्ता' वनषण्ड से प्रत्येक परिवेष्टित है। अब पद्मवरवेदिका एवं बनषण्ड का प्रमाण कहते हैं-(ताओ णं) इत्यादि (ताओणं) पहले कही हुई 'पउमवरवेइयाओ' पद्मवरवेदिका (दो गाउयाई) दो गव्यूत अर्थात् चार कोस की 'उद्धं उच्चत्तेणं' उपर की और ऊंची है 'पंच धणु'जमगसंठाणसंठिया' यम सस्थानथा सस्थित अर्थात् मन्यान्य समान संस्थानका આ યમક પર્વત છે. અથવા યમક નામધારી પક્ષિ વિશેષના આકાર જેવા આકારવાળા આ યમક પર્વત છે. અર્થાત્ તેમનું સંસ્થાન મૂળથી શિખર સુધી ઉચુ કરવામાં આવેલ ગાયના પૂંછડાના આકાર જેવા આકારવાળા એટલે કે કમકમથી પાતળા પડતા જતા પ્રમાણે वा मा ५४ पति छ. मा यम: ५५'त 'सव्व फणगामया' सामना सोनाना छ. 'अच्छा सण्हा' १२छ भने समय छे. 'पत्तयं पते प्रत्ये मला म २४सा छे. 'पउमवरवेइया परिक्खित्ता' ५१२ वय! पीटाया छ. 'पत्तेयं पत्ते वणसंडपरिखित्ता' દરેક વનષડથી વીંટાયેલા છે. वे ५५१२ ३४। भने वन प्रमाएर मताभ भाव छ.-'ताओण त्यात 'ताओणं' पडलi डेवामा भात 'पउमवरवेइयाओ' ५१२३। 'दो गाउयाई में गच्यूत अर्थात् यार IIG 'उद्धं उच्चत्तेणं' ५२नी त२५ यी छे. 'पंच, धणुसयाई" Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् वनपण्डवर्णकः-वेदिका-वनषण्डयोर्वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियव्वो' भणितव्यः-वक्तव्यः, स च चतुर्थपञ्चसूत्राभ्यां बोध्यः,। अधुना यमकयोरुपरियदस्ति तद्वार्णयितुमाह-'तेसिणं' इत्यादि-तेसि णं जमगपव्वयाणं' तयोः यमकपर्वतयोः खलु 'उप्पि' उपरि शिखरे 'बहुसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः-अत्यन्तसमोऽत एव रमणीय:-मनोहरो 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'जाव' यावत्-यावत्पदेन-'आलिङ्गपुष्करमितिवेत्यादि तद्वर्णनपरः पद. समूहो राजप्रश्नीयसूत्रस्य पञ्चदशसूत्रादारभ्यैकोनविंशतितममूत्रपर्यन्तानिबन्धादवगन्तव्यः, स च फिम्पर्यन्त इत्याह-'तस्स णं' इत्यादि-'तस्स णं बहुसमरमणीज्जस्स भूमिभागस्स बहुमध्यदेशभागः-अत्यन्तमध्यदेशभागः अस्तीति शेषः, 'एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा' अत्रसयाई' पांचसो धनुष जितना 'विक्खंभेणं' उसका विष्कंभ याने विस्तार है 'वेड्यावणसंडवण्णओ' वेदिका एवं वनषण्ड के वर्णन वाले विशेषण यहां 'भाणियवो' कहलेना यह वर्णन इस ४ थे वक्षस्कार के चतुर्थ एवं पांचवे सूत्र में कहे गए है अतः वहां से समज लेवें।। अब यमक पर्वत के उपरितन भागका वर्णन करते हैं-'तेसिं गं' इत्यादि 'तेसिंणं जमगपव्वयाणं उप्पि' वे यमक पर्वत के उपर के शिखरमें 'बहसमरमणिज्जे' अत्यन्त समतल होने से अत्यन्त रमणीय' भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभाग कहा है 'जाव' यावतू पदसे गृहीत 'आलिङ्गपुष्करमितिवा' इत्यादि वर्णन पर पदसमूह राजप्रश्नीय सूत्र के पंद्रहवें सूत्रसे लेकर उन्नीसवे सूत्र तक कहे गये वर्णन वहां से जान लेवें। वह वर्णन कहां तक का यहां ग्रहण होता है? इस शंका के निवृत्ति के लिए सूत्रकार कहते हैं 'तस्स णं इत्यादि। तस्त णं बहुसमरमणीयस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए' वह बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य भागमें 'एत्थ णं दुवे पासायवडे सगा' दो प्रसाद पायसो धनुष २८सा 'विक्खंभेणे' त विस्तार छ. 'वेश्यावणसंड वण्णओ, all सन बनना वर्णनाणा विशेष महिया 'भाणियब्वो' ४ी मे. ते पन ॥ ४था વક્ષસ્કારના ચોથા પાંચમાં સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે. તેથી તે વર્ણન ત્યાંથી જોઈ લેવું. हवे यम पतन 6५२न मागनु वर्णन ४२वामां मावे छे. 'तेसिणं' ऽत्यादि 'तेसिणं जमगपव्वयाणं उप्पि' ते यम ५५तनी ५२॥ शिमरमा 'बद्दसमरमणिज्जे' सत्यत समता पाथी रमणीय 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिमा उस छ. 'जाव' यावत पहथी अ५ ४२वामां आवस 'आल गपुक्खरमितिवा' त्या वर्णनना ५६समड રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના પંદરમાં સૂત્રથ લઈને ઓગણીસમાં સૂત્ર સુધી કહેવામાં આવેલ સમગ્ર વર્ણન અહીં સમજી લે. તે વર્ણન અહીંયા કયાં સુધીનું ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે? તે शहना शमन भाटे सूत्रधार ४ छे. 'तस्सणं' त्याहि 'तरसणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि भागस्स बहुमज्देसभाए' ते महु सरमा सेवा भूभी मायनी मरोम२ मध्य भागमा 'एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा' में प्रासामर्थात उत्तम भडेस ‘पण्णत्ता' वामां आवे छे. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अत्रान्तरे खलु द्वौ प्रासादावतंसको-प्रासादोत्तमौ 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तौ, तयोर्मानमाह- तेणं' इत्यादि, 'तेणं पासायवडिंसगा' तौ खलु प्रासादावतंसको 'बावढि जोयणाई अद्धजोयणं च' द्वापष्टिं योजनानि अर्द्धयोजनम् -योजनस्यार्द्धम् च 'उद्धं उच्चत्तेणं इक्कतीसं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोशम्-एकं क्रोशं च 'आयामविक्खं. भेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् प्रज्ञप्ताविति पूर्वेण सम्बन्धः, 'पासायवण्णओ' प्रासादवर्णकः-प्रासादवर्णकः-वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियब्वो' भणितव्यः-वक्तव्यः, सच राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टषष्टितमसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो बोध्यः, 'सीहासणा सारिवारा' सिंहासनानि सपरिवाराणि-इतरसिंहासनसहितानि मुख्य सिंहासनानि वर्णनीयानि तद्वर्णनमष्टममत्रस्य टीकातो बोध्यम् तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह 'जाव' यावत् 'एत्थ णं' इत्यादि-'एत्थ गं' अत्र-प्रासादस्थसिंहासनोपरि खलु 'जमगाण' यमकयोः-यमकनाम्नोः अर्थातू उत्तम महल 'पण्णत्ता' कहे हैं । प्रासाद का नाम कहते हैं-'तेणं' इत्यादि 'तेणं पासायवडे सगा' वे प्रासादावंतसक 'बावहि जोयणाइं अद्धजोयणं च' अर्द्ध योजन युक्त बासठ योजन 'उद्धं उच्चत्तणं' उपरकी और ऊंचाई वाले हैं 'एकत्तीसं जोयणाई' इकतीस योजन 'कोसं च' और एक कोस उनका 'आयाम विक्खंभेणं' आयाम विष्कम्भ वाले अर्थात् इन प्रासादों का विस्तार 'पण्णत्ता' कहा है 'पासायवण्णओ' प्रासाद का वर्णन 'भाणियवो' यहां पर कहलेने चाहिए। वह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रके ६८ अडसठवे सूत्र में मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी नाम की टीका से जान लेवें। 'सीहासणा सपरिवारा' यहां परिवार सहित सिंहासनों का वर्णन करलेवें वह वर्णन आठवें सूत्रकी टीकासे ज्ञात करलें। यह वर्णन कहां तक ग्रहण करना इसके लिए कहते हैं 'जाव' यावतू 'एत्थ णं' प्रासादमें रहे हुवे सिंहासनके ऊपरमें 'जमगाणं' यमक नामके 'देवाणं' देवके अर्थात् यमक पर्वत के अधिपति वे भानु भा५ ४ामा भाव 2. 'तेणं' या 'तेणं पासायवडेंसगा' ते उत्तम भडस 'बावर्द्धि जोअणाई अद्धजोयणं च' साल मास योगन 'उद्धं उच्चत्तेणं' S५२नी त२६ या छ. 'इक्कतीसं जोयणाई' त्रिीस योगन 'कोसंच मन मे 3G 'आयामविक्खंभेणं' मायाम विना अर्थात् टस से प्रासाहीना विस्तार ‘पण्णत्तो' ४डेवामां आवे छे 'पासायवण्णओ' प्रासानुस पूर्णपएन 'भाणियव्वो' मी ही लेन. ते न राप्रश्नीय सूत्रन। १८ २५सभा सूत्रनी મેં કરેલ સુધિની ટીકામાંથી સમજી લેવું. ____ 'सीहासणा सरिपवारा' या परिवार सहित सिहासनानुन ४ नये. તે વર્ણન આઠમા સૂત્રની ટીકામાંથી સમજી લેવું. એ વર્ણન અહિયાં ક્યાં સુધીનું લેવું તેને माट 'जाव' यावत 'एत्थणं' प्रासाहीनी १२ २२सा सिंहासनानी 3५२ 'जमगाणं देवाणं' Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् 'देवाण' देवयोः यमकारख्यपर्वताधिपत्योः सुरयोः 'सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीण' पोडशानाम् आत्मरक्षकदेवसाहस्रीणां-पोडशसहस्रसंख्यकात्मरक्षकदेवानाम् 'सोळसभदासणसाहस्सीओ' पोडश भद्रासनसाहस्थ्या-पोडशसहभद्रासनानि, 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, अथानयो मार्थं प्रश्नोत्तराभ्यां वर्णयितुमाह-'से केणतुणं भंते !' इत्यादि-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ' अथ-तदनन्तरं हे भदन्त ! केन अर्थेन - कारणेन एवमुच्यते यत् 'जमगा पव्वया' यमको पर्वतौर ? भगवानुत्तरयति-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जमगपधएमु णं तत्थर' यमक पर्वतयोः खलु तत्र तत्र-तस्मिस्तस्मिन् 'देसे तर्हिर' देशे तत्र २ तस्य देशस्यावान्तरे तस्मि स्तस्मिन् प्रदेशे 'खुडूडाखुडिया वावीसु जाव' क्षुद्राक्षुद्रिकासु वापीसु यावत्-यावत्सदेनपुष्करिणीषु, दीर्घिकासु, गुञ्जालिकामु, सरःपङ्क्तिकासु, सरःसर पङ्क्तिकामु' इत्येषां पदानां संग्रहो बोध्यः, तथा 'बिलपंतियासु' बिलपटिकासु, एषां पदानां व्याख्या राजप्रश्नीयसूत्रान्तर्गतचतुष्पष्टितमसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातो बोध्या, 'बहवे' बहूनि-पुष्कलानि देवके 'सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' सोलह हजार आत्मरक्षक देवोंके 'सोलस भद्दासणसाहस्सीओ' सोल हजार भद्रासन 'पण्णत्ताओ' कहे गए हैं अब उनके नामकी अन्वर्थता प्रश्नोत्तर द्वारा दिखलाते हैं-'से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ' हे भगवन् किस कारणसे ऐसा कहा जाता है कि 'यमगपन्वया ! ये यमक नामके पर्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा ! हे गौतम ! 'जमगपव्वएसुणं तत्थ २' यमक पर्वत के उस उस 'देसे तहिं २' देश एवं प्रदेशमें 'खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव' क्षुद्राक्षुद्र वाव में यावतू पुष्करिणीमें, दीर्घिकामें गुञालिकामें, सरपंक्तियोंमें, सरः सरपंक्तियों में 'बिलपंतियासु' बिलपंक्तिमें (इन पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्रान्तर्गत ६४ चोसठवें सूत्र की मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी नाम की टीका से जानलेवें) 'यहवे' अनेक-पुष्कल 'उप्पलाइं जाव' उत्पल यावत् कुमुद, नलिन, सुभगसौगन्धिक पुंडरीक,-महा. यम नामना हेवना अर्थात् यम: ५तना स्वामी हेपना 'सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीण' सो 6०१२ मात्मरक्ष४ हेवाना 'सोलस भद्दासणसाहसीओ' सण M२ भद्रासन 'पण्णत्ताओ' डेवामा मावता छ. वे प्रश्नोत्तर द्वारा तेनानामनी सार्थता मतावे छे. 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चई' डे भगवन् ॥ ४.२४थी म ४३पामा मात्र छे. 8-'यमगपव्वया' मा यम नामना पति छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ.-'गोयमा!' 3 गौतम ! 'जमगपव्वएसु णं तत्थ तत्थ' यम नाम पतनात ते 'देसे तहि तहि' हेश भने प्रदेशमा 'खुड्डाखुल्डीयासु बावीसु जाव' नानी नानी पावमा यावत् १५४२णियोमा, योमi, Jamla मामा, स२५तयोमi, स२: स२ ५तयोमा. 'बिलपंतियासु' मिelsतयामां ॥ તમામ પદનો અર્થ રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૬૪ ચેસઠમાં સૂત્રની મેં કરેલ સુધિની टीमो मायामां आवत छ तो शासुमे त्यांची सभ से. 'बहवे' मने'उप्पलाई Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'उप्पलाइ जाव' उत्पलानि यावत्-यावत्पदेन 'कुमुद-नलिन-मुभग-सौगन्धिक-पुण्डरीकमहापुण्डरीक-शतपत्रसहस्रपत्र-शतसहस्रपत्राणि फुल्लानि केसरोपचितानि पद्मानि यमकप्रभाणि यमकवर्णानि' एषां पदानां संग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्या प्राग्यत् । तथा 'जमगवण्णाभाई' यमकवर्णाभानि-यमकपर्वतवर्णसदृशवर्णानि, यद्वा - 'जमगा य इत्थ दुवे देवा महिडिया' यमकौ-यमकनामानौ चात्र द्वौ देवी महर्द्धिको परिवसतः, तेन यमको पर्वतौ २ एवमुच्यते, 'तेणं तत्थ' यमकाभिधदेवौ खलु तत्र-यमकपर्वतयोरुपरि 'चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं' चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां- चतुःसहस्रसामानिकानां देवानाम् 'जाव' यावत्यावत्पदेन-'चतसृणामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणां परिषदां सप्तानामनीकानां सप्ता. नामनीकाधिपतीनां षोडशानामात्मरक्षदेवसाहस्रीणां यमकयोः पर्वतयोर्यमकाया राजधान्या अन्येषां च वहूनां यमका राजधानीवास्तव्यानां देवानां च देवीनां चाधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तत्वं महत्तरकत्वमाशेश्वरसेनापत्यं कारयन्तौ पाल यन्तौ महता अहतनाट्यगीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितधनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान भोगभोगान' इत्येषां पदानां संग्रहो पुंडरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, शतसहस्रपत्र विकसित केसरयुक्त पदम यमक के प्रभावाले 'जमगवण्णाभाई' यमक के वर्णवाले अर्थात यमकपर्वत के वर्णसरीखे वर्णवाले होते हैं अतः अथवा 'जमगा इस्थ दुवे देवा महिडिया' यमक नामधारी यहां पर महर्द्धिक दो देव निवास करते हैं, इस कारणसे यमक पर्वत ऐसा यह कहा गया हैं। 'तेणं तस्थ' यमक नामधारी देव उस यमक पर्वत के ऊपर 'चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं' चार हजार सामानिक देवोंका 'जाव' यावत् परिवार सहित चार हजार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाका सात सेनाधिपतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, यमक पर्वत का यमका नामकी राजधानी का एवं अन्य बहुतसे राजधानी में निवास कमनेवाले देव देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व महत्तरकत्व, आज्ञेश्वर सेनापत्य करवाता उनका पालन करता हुआ जोर जोर से ताडित नाटय, गीत, वादिन्त्र जाव' Gue यावत् मुह, नलिन, सुभा, सौगन्धि४, १४, भारी, शतपत्र સહસ્ત્ર પત્ર શતસહસ્ત્ર (લાખ) પત્ર ખીલેલ કેસરવાળા પો ચમકની પ્રભાવાળા યમક વણવાળા અર્થાતુ યમક પર્વતના વણ જેવા વણવાળા હોય છે. તેથી અથવા 'जमगा इत्थ दुवे देवा महिद्द ढया' यम नाम मा मे । मडिया निवास કરે છે. એ કારણથી આ પર્વતનું નામ યમક પર્વત એ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે તેમાં तत्थ' र यमनाभवाणा व यम पतनी 6५२ 'चउण्डं सामाणिय साहस्सीणं' यार तर सामानि हेवानु 'जाव' यावत् परिवार सडित या२ १२ महिषयानु, ३) પરિષદાઓનું. સાત સેનાઓનું, સાત સેનાધિપતિનું, સેળ હજાર આત્મરક્ષક દેવેનું યમક પર્વતનું, યમકા નામની રાજધાનીનું તથા તે શિવાય અન્ય ઘણા એવા ચમક Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् १९३ बोध्यः, एषां व्याख्याऽष्टमसूत्राद्बोध्या, 'भुंजमाणा' भुञ्जानौ - अनुभवन्तौ 'विहरंति' विहरतः - तिष्ठतः, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चर' तौ यमकपर्वतौ तेन - अनन्तरोक्तेन अर्थेन - कारणेन हे गौतम ! एवमुच्यते- 'जमगपव्वया २' यमकपर्वतौ २, 'अदुत्तरं च णं' अदुत्तरम् - अथ च खलु ‘सासए णामधिज्जे' शाश्वतं नामधेयं ' जाव' यावत् - यावत्पदेन'प्रज्ञप्तम्, यत् न कदाचिद्ह्नाऽऽस्ताम् न कदाचिन्न भवतो न कदाचिन्न भविष्यतः अभूतां च भवतश्च भविष्यतश्च ध्रुवौ नियतौ शाश्वतौ अक्षतावव्ययौ अवस्थितौ नित्यौ तौ तेनर्थेन गौतम ! एवमुच्यते-' इत्येषां पदानां संग्रहो बोध्यः, व्याख्या चैषां चतुर्थसूत्रानुसारेणबोध्या, 'जमगपव्वया २' यमकता इति ॥ २० ॥ तंत्र तल ताल त्रुटित घनमृदंग के पटुपुरुषों द्वारा प्रवादित शब्दों के श्रवण पूर्वक दिव्य भोगोपभोगको 'भुंजमाणा' भोगता हुवा 'विहरंति' निवास करते हैं 'से तेणद्वेगं गोयमा ! एवं बुच्चइ' इस कारणसे हे गौतम! ऐसा कहा गया है कि 'जमाई' इसका नाम यमक पर्वत है । 'अदुत्तरं च णं' और यह नाम 'सास णामधिज्जे' शाश्वत है 'जाव' ये कदाचित् इस नामवाले नहीं था ऐसा नहीं है । वर्तमान में भी इस नामवाले नहीं है ऐसा नहीं है । भविष्यकाल में भी इस नामवाले नहीं होगा ऐसा नहीं है अर्थात् पहले भी इस नामवाले थे वर्तमान में भी इसी नाम वाले हैं एवं भविष्य में भी यही नाम होगा कारण कि ये ध्रुव, नियत एवं शाश्वत है । अक्षत, अव्यय, एवं एवस्थित है नित्य है इस कारण से है गौतम ! इसका नाम ऐसा कहा गया है । 'जमगपव्वया' यावत्पदा पदोंका अर्थ चोथे सूत्र में कहे अनुसार समज लेवें ॥ सू. २० ॥ રાજધાનીમાં વસનારા દેવ અને દૈવિયેતુ આધિપત્ય, પૌરપત્ય, સ્વામિત્વ, ભર્તૃત્વ મહત્તર કત્વ, આજ્ઞેશ્વર સેનાપત્યત્વ કરતા થકા તેઓનું પાલન કરતા થકે જોર જોરથી તાડન कुरायेस नाट्य, गीत, वाहित्र, तंत्री, तस, तास, त्रुटित, धनभृंगना चतुर पुष वगाउस शब्होना श्रवण पूर्व४ हिव्य लोगो लोगो ने 'भुजमाणा' लोगवता था 'विहरं' निवास ४रे छे. 'से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वच्चइ' मे भरथी हे गौतम! सेभ वामां मावेस छे. 'जमगपव्त्रया' मा पर्वतनुं नाम यभ पर्वत छे. 'अदुत्तरं च णं' अनेसा नाम 'सासए णामधिज्जे' शाश्वत व छे. 'जाव' यावत् तेथेो मे नाम वाजा न देता તેમ નથી. અર્થાત્ પહેલાં પણ આજ નામવાળા હતા. વમાનમાં પણ આ નામવાળા ની તેમ નથી અને ભવિષ્યમાં પણ આ નામવાળા થશે નહીં' તેમ નથી. અર્થાત્ પહેલા પણ આ નામ વાળા ઢુતા, વમાનમાં પણ એજ નામવાળા છે, તથા ભવિષ્યમાં પણ એજ નામવાળા થશે. કારણ કે એએ ધ્રુવ, નિયત અને શાશ્વત છે. અક્ષત અવ્યય અને અવस्थित छे, नित्य छे, मे धरएाथी हे गौतम! मे नाम या प्रमाणे उडेल छे. 'जमग पब्वया' मा पर्वतनुं नाम यभ पर्वत छे. यावत् पहथी श्रद्धा हरायेस होना अर्थ थोथा सूत्रभां ह्या प्रमाणे समल देवेो ॥ सू. २० ॥ ज २५ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथानयो राजधान्यौ प्रश्नोत्तराभ्यां वर्णयितुमाह - मूलम् - कहि णं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अष्णंमि जंबुद्दीवे दीवे वारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारस जोयणसहस्साइं आयाविक्खंभेणं सत्त तीसं जोयणसहस्साइं णव य अडयाले जोययसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, पत्तेयं२ पायारपरिक्खित्ता, ते णं पागारा सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं, मूले अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे छसफोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं, उवरिं-तिविण स अद्रकोस इं जोयणाइं विवखंभेणं, मूले वित्थिण्णा, मज्झे संखित्ता, उपि तणुआ, वाहि-चहा, अंतो- चउरंसा, सव्वरयणामया अच्छा, १९४ ते णं पागारा णाणाविहपंचवण्णमणीहिं कविसीसएहिं उवसोहिया, तं जहा - किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं, ते णं कविसीसगा अद्धकोसं आयामेणं देणं अद्धको उद्धं उच्चत्तेनं पंच धणुसयाई बाहल्लेणं सव्वमणिमया अच्छा जमिगाणं रायहाणीणं एगमेगाए बाहाए पणवीसं पणवीसं दारसयं पण्णत्तं, ते णं दारा बावद्धिं जोयणाई अद्धजोयणं व उद्धं उच्चतेगं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्र्खंभेणं तावइयं चैव पवेसेणं, सेया वरकणगथ्रुभियागा एवं रायप्पसेणइजविमाण वत्तव्वयाए दार वण्णओ जाव अटुटुमंगलगा इंति, ३ जमिगाणं रायहाणीणं चउद्दिसिं पंच पंच जोयणसए अबाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा - असोगवणे १ सत्तिवण्णवणे २ चंपगवणे चूयवणे ४, ते णं वणसंडा साइरेगाइं बारस जोयणसहस्साइं आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं पत्तेयं२ पागारपरिक्खित्ता किण्हा वणसंडवण्णओ भूमीओ पासायवडेंसगा य भाणियव्वा, जमिगाणं रायहाणीणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, वण्णगोत्ति, तेसिं णं बहु Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् १९५ रमशिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं दुवे उवयारियालयणा पण्णत्ता, बारस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसहस्साई सत्त य पंचाणउए जोयणसए परिक्खेवेणं अद्धकोसं च बाहल्लेणं सव्व जंबूणयामया अच्छा, पत्तेयं २ पउमवरवेइया परिक्खिचा, पत्तेयं२ वणसंडवण्णओ भाणियव्वो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणचउदिसिं भूमिभागा य भाणियवित्ति, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे पासायव.सए पण्णत्ते वावहिं जोयणाइं अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेगं इकतीसं जोयणाइं कोसं च आयामविक्खंभेणं वण्णओ उल्लोया भूमिभागा सीहासणा सपरिवारा, एवं पासायपंतीओ (एत्थ पढमापंती ते णं पासायडिंसगा) एकतीसं जोयणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाइं अद्ध सोलस जोय. णाई आयामविक्खंभेगं बिइयपासायपंती ते णं पासायवडेंसगा साइरेगाई अद्ध सोलस जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाइं अद्धटुमाइं जोयणाई आयामविखंभेणं तइय पासायपंती ते णं पासायवडेंसगा साइरेगाई अद्धटुमाइं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं साइरेगाइं अधुटुजोयणाई आयामविक्खंभेगं वण्णओ सीहासणा सपरिवारा तेसि णं मूलपासायवडिंसयाणं उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं जमगाणं देवाणं सहाओ सुहम्माओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छस्सकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसष्णिविट्राओ, सभावण्णओ, तासि णं सभाणं सुहम्माणं तदिसिं तओ दारा पण्णत्ता, ते णं दारा दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जोयणं विक्खंभेणं त्तावइयं चेव पवेसेणं, सेया वण्णओ जाव वणमाला, तेसि ऊं दाराणं पुरओ पत्तेयं २ तओ मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छस्सकोसाइं जोयणाई विक्खं. भेणं साइरेगाई दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव दारा भूमिभागायंति पेच्छाघरमंडवाणं तं चेव पमाणं भूमिभागो मणिपेढियाओत्ति, ताओ णं Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मगिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्व मणिमईया सीहासणा भाणियत्वा । तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविकखंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ, तासि णं उपि पत्तेयं २ तओ थूभा, ते णं थूभा जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं सेया संखतल जाव अट्टमंगलगा। तेसि णं थूभाणं चउदिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेडियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्ध जोयणं बाहल्लेणं, जिणपडिमाओ वत्तव्वाओ, चेइयरुक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयगाइं आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं चेइयरुक्खवण्णओत्ति । तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरओ ताओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं तासि णं उपि पत्तेयं २ महिंदज्झया पण्णत्ता, ते णं अद्धटुमाइं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं वइरामयवट्टवण्णओ वेइया वणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणियव्वा । __तासिणं सभाणं सुहम्माणं छच्च मणोगलिया साहस्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरथिमेणं दो साहस्तीओ पण्णत्ताओ पञ्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ दक्खिणेणं एगा साहस्सी उत्तरेणं एगा जाव दामा चिटुंतित्ति, एवं गोमाणसियाओ. णवरं धूवघडियाओत्ति, तासि णं सुहम्माणं सभाणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पणत्ते, मणिपेढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं तासि णं मणिपेढियाणं उप्पिं माणवए चेइयखंभे महिंदज्झयप्पमाणे उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेटा छक्कोसे वजित्ता जिणसकहाओ पण्णताओत्ति, माणवगस्स पुद्रवेणं सीहासणा सपरिवारा पचत्थिमेणं सय आत्ति , Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् णिज्जवण्णओ, सयणिज्जाणं उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए खुड्डगमहिंदज्झया मणिपेढिया विहूणा महिंदज्झयप्पमाणा, तेसिं अवरेणं चोप्फाला पहरणकोसा, तत्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा जाव चि ंति, सुहम्माणं उपि अट्टमंगलगा, तासि णं उत्तरपुरत्थिमेणं सिद्धाययणा एस चेव जिणघराण विगमोत्ति, णवरं इमं णाणत्तं एएसिं णं बहुमज्जदेसभाए पत्तेयं २ मणिपेढियाओ दो जोयणाई आपामविक्खंभेणं जोयणं बाह लेणं, तासि उपि पत्तेयं २ देवच्छंद गा पण्णत्ता, दो जोयणाई आयामविवखंभेणं साइरेगाईं दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेनं सव्वरयणामया जिणपडिमा वण्णओ जाव धूवकडच्छुगा, एवं अवसेसाण वि सभाणं जाव उववायसभाए सयणिज्जं हरओ य, अभिसेगसभाए बहुआ भिसेक्के भंडे, अलंकारियसभाए बहुअलंकारियभंडे चिट्ठइ, ववसायसभासु पुत्थरयणा, गंदा पुक्खरिणीओ, बलिपेढा दो जोयणाइं आयामविवखंभेणं जोयणं बाहल्लेणं जावति । वाओ कप्पो अभिसेय विहसणा य ववसाओ । अच्चणियसुधम्मगमो जहा य परिवरणा इद्धी ॥१॥ जावइयंमि पमाणंमि हुंति जमगाओ णीलवंताओ । तावइयमंतरं खलु जमगदहाणं दहाणं च ॥२॥ ॥सू० २१॥ छाया -क्व खलु भदन्त यमकयोर्देवयोर्यमिके राजधान्यौ प्रज्ञप्ते ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्र खलु यमकयोर्देवयोर्यमिके राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, द्वादश योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण सप्तत्रिंशतं योजनसहस्त्राणि नव च अष्टचत्वारिंशानि योजनशतानि किंचिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, प्रत्येकं २ प्राकारपरिक्षिप्ते, तौ खलु प्राकारौ सप्तत्रिंशतं योजनानि अर्द्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले- अर्द्धत्रयोदशानि योजनानि विष्कम्भेण, मध्ये षट् सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण, उपरि त्रीणि सार्द्धक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण, मूले- विस्तीर्णाः, मध्ये - संक्षिप्ताः, उपरि-तनुकाः, बहिर्वृत्तौ, अन्तश्चतुरस्रौ, सर्वरत्नमयौ, अच्छौ, तौ खलु प्राकारी नानाविध पञ्चवर्णमणिभिः कपिशीर्षकैरुपशोभितौं, तद्यथा कृष्णैर्यावत् शुक्लैः तानि खलु कपिशीर्षकाणि अर्द्धक्रोशमायामेन देशोनमर्द्धक्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चधनुःशतानि बाह १९७ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ल्येन, सर्वमणिमयानि अच्छानि, यमिकयो राजधान्योः एकेकस्यां बाहायां पञ्चविंशं पञ्च. विशं द्वारशतं प्रज्ञप्तम् , तानि खलु द्वाराणि द्वाषष्टिं योजनानि अर्द्धयोजनं च उर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं च विष्कम्भेण तावदेव प्रवेशेन, श्वेतानि वर कनकस्तूपिकाकानि, एवं राजप्रश्नीयविमानवक्तव्यतायां द्वारवर्णको यावत् अष्टाष्टमङ्गलकानि इति, __यमिकयो राजधान्योश्चतुर्दिशि पञ्चपञ्चयोजनानि अबाधायां चत्वारि वनखण्डानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अशोकवनम् १ सप्तपर्णवनम् २ चम्पकवनम् ३ चूतवनम्४, तानि खलु वनखण्डानि सातिरेकागि द्वादश योजनसहस्राणि आयामेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेण प्रत्येकं२ प्राकारपरिक्षिप्तानि कृष्णानि पनपण्डवर्णकः भूमयः प्रासादावतंसकाश्च भणितव्याः, यमिकयो राजधान्योरन्तबहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, वर्णक इति, तेषां खलु बहुसमरमणीयानां भूमि भागानां बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु द्वे उपकारिकालयने प्रज्ञप्ते, द्वादश योजनशतानि आयामविष्कम्भेण त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त च पश्चनवतानि योजनशतानि परिक्षेपेण, अर्द्धक्रोशं च बाहल्येन सर्वजाम्बूनदमयाः अच्छाः, प्रत्येकर पद्मवरवेदिका परिक्षिप्ताः, प्रत्येकं २ वनषण्डवर्णको भणितव्यः, त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि तोरणचतुर्दिशि भूमिभागाश्च भणितव्या इति, तस्य खलु बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु एकः प्रासादाक्तंसकः प्रज्ञप्तः, द्वाषष्टि योजनानि अर्द्धयोजनं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च आयामविष्कम्भेण वर्णकः उल्लोको भूमिभागौ सिंहासने सपरिवारे, एवं प्रासादपङ्क्तयः (अत्र खलु प्रथमा पङ्क्तिः ते खलु प्रासादावतंसकाः) एकत्रिशतं योजनानि क्रोशं च ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सातिरेकाणि अर्द्धषोडश योजनानि आयामविष्कम्भेण द्वितीया प्रासादपक्तिः -ते खलु प्रासादावतंसकाः सातिरेकाणि अर्द्धपोडशयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सातिरेकाणि अष्टिमानि योजनानि आयामविष्कम्भेण, तृतीया प्रासादपङ्क्तिः -ते खलु प्रासादावतंसकाः सातिरेकाणि अर्धाष्टमानि योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन सातिरेकाणि अध्युष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण, वर्णकः सिंहासनानि सपरिवाराणि, तयोः खलु मूलप्रासादावतंसकयोः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागः, अत्र खलु यमकयोर्देवयोः सभे सुधर्मे प्रज्ञप्ते, अद्ध त्रयोदश योजनानि आयामेन पट्सक्रोशानि विष्कम्भेण नव योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशतशतसन्निविष्टे, सभावर्णकः, तयोः खलु सभयोः सुधर्मयोः त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि तानि खलु द्वाराणि द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, योजनं विष्कम्भेण, तावदेव प्रवेशेन, श्वेतानि वर्णकः यावद् वनमाला, तेषां खलु द्वारागां पुरतः प्रत्येकं२ त्रयो मुखमण्डपाः प्रज्ञप्ताः, ते खलु मुखमण्डपाः, अर्द्ध त्रयोदशयोजनानि आयामेन पट्सक्रोशानि योजनानि विष्कम्भेण सातिरेके द्वे योजने ऊध्र्वमुच्चत्वेन यावद् द्वाराणि भूमिभागाश्चेति, प्रेक्षागृहमण्डपानां तदेव प्रमाणं भूमिभागो मणिपीठिका इति, ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण अर्द्धयोजनं बाहल्येन, सर्वमणिमय्या, सिंहासनानि भणितव्यानि, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् तेषां खलु प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताः खलु मणिपीठिकाः द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, योजनं बाहल्येन, सर्वमणिमय्यः, तासां खलु उपरि प्रत्येक प्रत्येकं त्रयस्तूपाः, ते खलु स्तूपा द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, द्वे योजने आयाभविष्कम्भेण, श्वेताः शङ्खतल यावत् अष्टाष्टमङ्गलकानि, तेषां खलु स्तूपानां चतुर्दिशि चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण, अर्द्धयोजनं बाहल्येन, जिनप्रतिमाः वक्तव्याः, चैत्यवृक्षाणां मणिपीठिकाः द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, योजनं बाहल्येन चैत्यवृक्षवर्णक इति । तेषां खलु चैत्यवृक्षाणां पुरतस्ताः मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण अर्द्धयोजनं बाहल्येन, तासामुपरि प्रत्येकं २ महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञप्ताः, ते खलु अष्टिमानि योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, अर्द्धक्रोशमुद्वेधेन, अर्द्धक्रोशं बाहल्येन, वज्रमयवृत्तवर्णकः वेदिकावनपण्डत्रिसोपानतोरणाश्च भणितव्याः, तयोः खलु सभयोः सुधर्मयोः षट् च मनोगुलिकासाहस्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पौरस्त्येन द्वे साहस्त्र्यौ प्रज्ञप्ते, पाश्चात्येन द्वे साहस्यौ दक्षिणेन एका साहस्री उत्तरेण एका यावत् दामानि तिष्ठन्तीति, एवं गोमानसिकाः, नवरं धूपघठिका इति, । तयोः खलु सुधर्मयोः सभयोः अन्तः बहुसामरमणियो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, मणिपीठिका द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, योजनं वाहल्येन, तयोः खलु मणिपीठिकयोरुपरि माणवके चैत्यस्तम्भे महेन्द्रध्वजप्रमाणे उपरि षटक्रोशान् अवगाह्य अधः षट्क्रोशान् वर्जयित्वा जिनसक्थीनि प्रज्ञप्तानि इति, माणवकस्य पूर्वेण सिंहासने सपरिवारे, पश्चिमेन शयनीयवर्णकः, शयनीययोरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे क्षुद्रकमहेन्द्रध्वजौ मणिपीठिकाविहीनौ महेन्द्रध्वजप्रमाणौ, तयोरपरेण चोप्पालौ प्रहरणकोशौ, तत्र खलु बहूनि परिघरत्नप्रमुखाणि यावत् तिष्ठन्ति, सुधर्मयोरुपरि अष्टाष्टमङ्गलकानि, तयोः खलु उत्तरपौरस्त्येन सिद्धायतने, एष एव जिनगृहाणामपि गम इति, नवरमिदं नानात्वम् एतेषां खलु बहु मध्यदेशभागः प्रत्येकं२ मणिपीठिका द्वे योजने आयामविष्कम्भेण योजनं बाहल्येन, तासामुपरि प्रत्येकं२ देवच्छन्दके प्रज्ञप्ते द्वे योजने आयामविष्कम्भेण, सातिरेके द्वे योजने, ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, सर्वरत्नमये, जिनप्रतिमा वर्णको यावत् धूपकटुच्छुका, एवमवशेषाणामपि सभान यावद् उपपातसभायां शयनीयं हृद. कश्च, अभिषेकसभायां बहुआभिषेक्यं भाण्डम् , अलङ्कारिकसभायां बहु अलङ्कारिकमाण्डं तिष्ठति, व्यवसायसभयोः पुस्तकरत्ने नन्दापुष्करिण्यौ, बलिपीठे द्वे योजने आयामविष्कम्भेण योजनं बाहल्येन यावदिति 'उपपातः सङ्कल्पः अभिषेकविभूषणा च व्यवसायः । अर्चनिका सुधर्मागमो यथा च परिवारणा ऋद्धिः ॥१॥ यावति प्रमाणे भवतो यमको नीलवतः। तावदन्तरं खलु यमकहूदाणां हूदाणां च ॥२॥सू० २१॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे टीका-'कहि णं भंते ! यमगाणां देवाणं' इत्यादि 'कहि णं भंते ! यमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणिओ पण्णत्ताओ' क्व खलु भदन्त ! यमकयो:-यमक नामकयोः देवयोः यमिके नाम राजधान्यौ प्रज्ञप्ते !, भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स' जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य-मन्दरनामकस्य 'पब्धयस्स उत्तरेणं' पर्वतस्स उत्तरेणउत्तरस्यां दिशि 'अण्णमि' अन्यस्मिन्-अपरस्मिन् 'जंबूद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई' जम्बूद्वीपे द्वीपे द्वादश योजनसहस्राणि-द्वादशसहस्रयोजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणिओ पण्णत्ताओ' यमकयोदेवयोयमिके राजधान्यौ प्रज्ञप्ते, तयोर्मानाद्याह-'गारस जोयण सहस्साई द्वादश योजनसहस्राणि-द्वादशसहस्रयोजनानि 'आयाम विक्खंभेणं 'सत्ततीसं जोयणसहस्साई' सप्तत्रिंशतं अब यमका राजधानी का प्रश्नोत्तर द्वारा वर्णन करते हैं-'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं' इत्यादि टीकार्थ-'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणिओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! यमक नामधारी देवकी यमिका नामकी राजधानी कहां पर कही गइ है ? गौतमस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान कहते हैं-गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबूद्दीवे दोवे' जंबुदीप नाम के द्वीपमें 'मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं' मंदर पर्वत की उत्तर दिशामें 'अण्णंमि' दूसरे 'जंबूदीवे दीवे बारस जोयण सहस्साई' जंबुद्धीप नामके द्वीपमें बारह हजार योजन 'ओगाहित्ता' अवगाहना करने पर-जानेपर 'एस्थ णं' यहां पर 'जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णताओ' यमक देवकी यामिका नाम वाली दो राजधानी कही गई है। अब उनका प्रमाण-विस्तार कहते हैं'बारस जोयणसहस्साई' बारह हजार योजन 'आयाम विक्खंभेणं' इनका व या याना प्रश्नोत्तर १२॥ १९॥ ४२वामा माय छे. 'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं त्यादि टी -'कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ' 8 सावन ચમક નામના દેવની યમિકા નામની રાજધાની કયાં આવેલ છે? ગૌતમસ્વામીના આ प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छे. 'गोयमा! गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे.' दीप नामना द्वीपमा 'मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं' म४२ पतनी उत्तर दिशामा 'अण्णमि' मीत 'जंबूदीवे दीवे बारस जोयण सहस्साई' भूदी५ नमन द्वीपमा पार m२ योन 'ओगाहित्तो' अवसाना ४२वाथी मात ४थी 'एत्थणं' त्या आपण 'जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ' यम बनी यभि नामनी मे २४ानीय। अपामा मावस छे. હવે તેનું પ્રમાણ વિરતાર કહે છે. 'बारस जोयणसहस्साई' मा२ १२ योन-'आयामविक्खंभेणं' तन आयाम १०४ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् योजनसहस्राणि ‘णव य' नव संख्यानि च 'अडयाले' अष्टचत्वारिंशानि-अष्टचत्वारिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचिविसेसाहिए' किञ्चिद्विशेषाधिकानि-किश्चिदधिकानि परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्ते इति पूर्वेण सम्बन्धः, एवमग्रेऽपि, ‘पत्तेयं२' प्रत्येक द्वे अपि 'पायारपरिक्खित्ता' प्राकारपरिक्षिप्ते-वरणपरिवेष्टिते, तौ प्राकारौ कीदृशौ ? इत्यवेक्षायामाह-'ते णं' इत्यादि-'ते णं' तौ-यमझाराजधानी द्वयपरिवेष्टनभूतौ खलु 'पागारा' प्राकारौ-चरणौ 'सत्ततीसं' सप्तत्रिंशतं-सप्तत्रिंशत्संख्यकानि 'जोयणाई' योजनानि 'अद्धजोवणं च' अर्द्धयोजनं योजनस्पार्द्ध-द्वौ क्रोशौ च 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वपुच्च वेन ‘मले' मूले-मूलदेशावच्छेदेन 'अद्ध तेरस' अर्द्धत्रयोदशानि-सार्द्धद्वादश 'जोयणाई विकखंभेगं' योज नानि विष्कम्भेण-विस्तारेण, 'मज्झे' मध्ये-मध्यदेशावच्छेदेन 'छ सकोसाई' पट्-पट. संख्यानि सक्रोशानि-क्रोशेन सहितानि 'जोयणाई विवखंभेणं' योजनानि विष्कम्भेणविस्तारेण, 'उवरि' उपरि उपरितनभागावच्छेदेन 'तिण्णि' त्रीणि-त्रिसंख्यानि 'स अद्धको. आयाम विष्कंभ है । 'सत्ततीस जोयणसहस्साई, सेतीस हजार ‘णवयअडयाले' नवसहित अडतालीस 'जोयणसए किंचिविसेसाहिए' अर्थात् ३७९४८ सेतीस हजार नव सो अडतालीस योजनसे कुछ अधिक परिक्खेखेणं' इसका परिक्षेप-घेराव है 'पत्तेयं प्रत्येक-दोनों 'पायार परिक्खित्ता' प्राकार से वेष्टित है। __ अब वह नाकारका वर्णन करते हैं 'तेणं' इत्यादि 'तेणं' यमिका नामकी दोनों राजधानी के वेष्टनभूत 'पागारा' प्राकार-महल 'सत्ततीसं जोयणाई' सेतीस योजन 'अद्धजोयणं च' एवं अधयोजन-दो कोश 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊपर की ओर ऊंचा है 'मूले अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं' मूलभागमें १२॥ साडे बारह योजनका इनका विष्कंभ है। अर्थात् इतना इसका मूलभागमें विस्तार है 'मज्झे छ सकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं' मध्यभागमें इसका विष्कंभ छह योजन एवं एक कोस का है। 'उपरि तिण्णि सअद्धकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं' Pा पडा छे. 'सत्ततीसं जोयणसहस्साई' सात्रीस २ ‘णवय अडयाले' नक्स। 243सीस 'जोयणसए किंचि विसेसाहिए' यानथी । धारे अर्थात् ३७८४८ सावीस २ नसे। सतासीस योगनी ४४ क्यारे 'परिक्खेवेणं' तन परिक्ष५ धेशवछ. 'पत्तेयं पत्तेय' ४२४ अर्थात् सन्न राजधानी 'पायारपरिक्खित्ता' प्रा१२-भडेसथा वाटाये छ. હવે તે પ્રાકાર મહેલેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. 'तेणं' यमि नामनी 28 २०४धानी वीटायर 'पागारा' भडसा 'सत्ततीसं जोयणाई' सात्रीस योन 'अद्ध जोयणं च' मने मध यान-2 13 'उद्धं उच्चत्तेण' ५२नी त२५ या छे. 'मूळे अद्ध तेरस जोयणाई विक्खंभेणं' भू भागमा साउ। मा२ योजना तना वि०४म छे. अर्थात् अटो मेन। भूण लागना विस्तार छे. 'मज्झे छसक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं' मध्य माममा तेनविन यापन अने से इन। छ, 'उवरि तिणि सअद्धको ज०२६ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे साई' सार्द्धक्रोशानि-क्रोशार्द्धसहितानि 'जोयणाई विवखंभेणं' योजनानि विष्कम्भेण, तो पुनरत एव 'मूले वित्थिण्णा' मूले विस्तीणौं-मध्योपरितनभागापेक्षया विस्तारवन्ती, 'मज्झे' मध्ये-मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ-अल्पविस्तारवन्तौ, 'उप्पि तणुया' उपरि तनुकौ-मूलमध्यभागापेक्षया स्वल्पतरविस्तारयुक्तौ, 'बाहिं वट्टा' बहिः-वृत्तौ-वर्तुलाकारौ, अंतो' अन्तः-मध्ये-'चउरंसा' चतुरस्रा-चतुष्कोणाकारो, 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमयौसर्वात्मना रत्नमयो, 'अच्छा' अच्छौ प्राग्वत्, तयोः कपिशीर्षकवर्णकमाह-'तेणं' इत्यादि, 'ते णं' तौ-अनन्तरोक्तौ खलु 'पागारा' प्राकारौ णाणा विह पंचवण्णमणीहि' नानाविधपञ्चवर्णमणिभिः-नानाविधा:- पद्मरागमरकतस्फटिकाञ्जनदादि भेदाः पञ्चवर्णा:-कृष्णादिवर्णविशिष्टाः मणयो येषु तानि नानाविधपश्चवर्णमणीनि तैः 'कविसीसएहिं' कपिशीर्षकैःकपिशीर्षाकारैः प्राकाराङ्गः, 'उवसोहिया' उपशोभितौ-अलङ्कृतौ, एतदेव विवृणोति 'तं ऊपरके भागमें इसका विष्कंभ तीन योजन एवं डेढ कोसका है। इस प्रकारका विष्कंभ होने से वे यमक पर्वत ' मूले वित्थिण्णा' मूल की ओर विस्तृत अर्थात् मध्यभाग एवं ऊपरके भागसे विस्तार वाला है 'मज्झे संखित्ता' मध्यभाग मूल भागसे संकुचित है अर्थात् अल्पविस्तार वाला है 'उपि तणुया' ऊपरको भाग मूलभाग एवं मध्यभागसे स्वल्प विस्तार वाला है । ये प्रासाद 'वाहिं वहो' बाहर की बाजु वर्तुल आकार वाले हैं 'अंतो चउरंसा' मध्यभागमें चौरस आकार वाले हैं 'सव्वरयणामया' सर्वप्रकारसे रत्नमय है 'अच्छौ' स्वच्छ स्फटिक सदृश है इत्यादि विशेषण पहले के समान समज लेवें। अब इनके कपिशीर्ष-अग्रभागका वर्णन करते हैं-'तेणं' इत्यादि 'तेणे' आगे कहे गए 'पागारा' प्राकार 'णाणाविह पंचवण्णमणिहिं' अनेक प्रकारके पद्मरागादि पांच प्रकार के मणियों से 'कपिसीसएहिं' कपिशीर्ष के साई जोयणाई विक्खंभेणे' ७५२ना लामा तन Arra त्रय यमन मन ही न . ॥ हारने ४ि पाथी ते यम ५'त 'मूले वित्थिण्णा' भूभागमा विस्तार वाणा अर्थात् मध्यमा भने ७५२ना माथी विस्तारवाणी छे. 'मज्झे संखित्ता' मध्य भाग भूमाथी सis3. छ. मेट , ५८५ विस्तार वा छे. 'उप्पिं तणुया' ५२ने। मगर भूसमा अने भय मा ४२i यो विस्तारवाणी छे. 24 प्रा२ 'बाहिं वट्टे' महारथी वतु ॥२ छ. 'अंतो चउरंसा' मध्य भागमा यारस मा४।२१।। छे. 'सबरयणा मया' स ४२थी २त्नभय छे. 'अच्छे' २१२७ २६४ना वा छे. त्या विशेषण। પહેલાં કહ્યા પ્રમાણેના સમજી લેવાં व तेन पिशीष- नागनु पर्षन ४२वामां भाव छ. 'तेणं' त्या 'तेणं' पडसा ४ाई गये। 'पोगारा' प्रा४।२। 'णाणाविह पंचवण्णमणिहिं' भने प्रा. २॥ ५५॥३॥ पांय ४२ना 'मणहि' मणियोथी 'कविसीसएहिं' पिशीष न। मारवा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् २०३ जहा - कि०हिं - जाव सुकिल्ले हिं' तद्यथा - कृष्णै र्याविच्छुक्लैः - कृष्णादिवर्णवर्णनप्रकारः पृष्ठसूत्रानुसारेण बोध्यः । अथैतेषां कपिशीर्षकाणां मानाद्याह- 'ते णं कविसीसगा' तानि खलु कपिशीर्षकाणि 'अद्धको आयामेणं' अर्द्धक्रोशम् आयामेन - दैर्येण, 'देसूणं' देशोनंकिञ्चिदेशेन हसितम् ' अद्धकोसं उद्धंउच्चत्तेणं' अर्द्धक्रोशम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन - उन्नतत्वेन प्रज्ञ प्तानि एवमग्रेऽपि, 'पंच धणुसयाई' पञ्च धनुः शतानि पञ्च शतधनूंषि 'बाहल्लेणं' बाहरयेन पिण्डेन 'सव्वमणिमया' सर्वमणिमयानि सर्वात्मना मणिमयानि - पद्मरागादि मणि निर्मितानि, 'अच्छा' अच्छानि - आकाशस्फटिकवन्निर्मलानि, अथ यमिकाराजधान्याः कियन्ति द्वाराणि सन्तीत्याह - 'जमिगाणं' इत्यादि - 'जमिगाणं' यमिकयो - यमिका नाम्न्योः 'रायहाणीणं एगमेगाए' राजधान्योः एकैकस्यां - प्रत्येकं 'बाह्राए' बाहायां - पार्श्वे 'पणवीसं पणबीसं' पञ्चविंशं २ पञ्चविंशत्यधिकं, 'दारसयं' द्वारशतं - द्वाराणां शतं शतसंख्यानि द्वाराणि आकार वाले प्राकार के अग्रभाग से 'उवसोहिया' शोभित किस प्रकारकी शोभा से युक्त थे ? सो कहते हैं- 'तं जहा किण्हेहिं जाव सुक्किल्लेहिं' कृष्णवर्णवाले यावत् शुक्लवर्णवाले कृष्णादिवर्ण का वर्णन प्रकार छट्ठे सूत्र से समझ लेवें । अब कपिशीर्ष का मानादिका वर्णन करते हैं - 'ते कपिसीसगा' वह कपिशीर्षक-प्रासादाग्र भाग 'अद्धकोसं आयामेणं' अर्धा कोसका आयाम वाला देसूणं अद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं' कुछ कम आधा कोस ऊपर की ओर से ऊंचा कहा है 'पंचधणुसयाई बाहल्लेणं' पांचसो धनुष बाल्य मोटाइवाला कहा है 'सव्वमणिमया' सर्वप्रकार मणिमय कहा है 'अच्छा' आकाश एवं स्फटिक सदृश निर्मल कहा है । अब यमिका राजधानी के द्वार संख्या कहते हैं 'जमिगाणं राहाणीण' यमिका नामकी राजधानीके 'एगमेगाए वाहाए' प्रत्येक पार्श्व में 'पणवीसं पणवीसं' पचीस पचीस अधिक 'दारसयं' सोद्वार प्राडारना अथलागथी 'उवसोहिया' शोलायमान् छे हैवी शोलाथी सुशोलित हुता ? मे बाभां वे छे. 'तं जहा किण्हेहिं जाव सुकिल्लेहिं भजा वर्षावाजा यावत् सह वर्णवाणा, કષ્ણાદિ વનું વન છઠ્ઠા સૂત્રથી સમજી લેવું. हवे उपशीर्षना भानाहिनु वर्षान ४२वामां आवे छे.- 'तेणं कविसीसगा' ते उपशीर्ष ४ प्रासादाग्रभाग 'अद्धको आयामेणं' अर्धा गाना आयाभवाजा छे. 'देसूणं अद्धकोसं उद्धं उच्चत्तेणं' अर्धा गाउ उपरनी मान्नु या छे. 'पंचधणुसयाई बाहल्लेणं' पांयसेो धनुष भेटसी माहुल्य-लडा वाजा अडेस छे. 'अच्छा' भााश भने स्टूटि वा निर्माण उडेल छे. હવે યમિકા રાજધાનીના દ્વારાની સખ્યા કહે છે. 'जमिगाणं रायहाणीणं' यमिश्रा राजधानीना 'एगामेगाए बाहाए' हरे पडणाभां 'पण वीसं पणवीसं' पन्थीस पसीस अधि 'दारसयं' सेवा से द्वारा ४ह्या छे. अर्थात् हरे मालु सवासेो सवासी हरवालथे। पण्णत्त' वामां आवे छे. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पञ्चविंशत्यधिकानि, 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम्, इति द्वारशतमित्यनेन सम्बध्यते, प्रज्ञप्तानीति द्वाराणी. त्यनेन उपरिष्टादानीय सम्बन्धनीयम्, तेषां द्वाराणां मानाद्याह-'तेणं' तानि-अनन्तरोतानि खलु ‘दारा' द्वाराणि 'वावडिं' द्वापष्टि-द्वाषष्टि संख्यानि 'जोयणाई अद्धयोजणं च' योजनानि अर्द्धयोजनं-योजनस्यार्द्ध-द्वौ क्रोशौ च 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'इक्कतीसं जोयणाई' एकत्रिंशतं योजनानि 'कोसं च क्रोशम्-एक क्रोशंच 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेणविस्तारेण प्रज्ञप्तानि, एवमग्रेऽपि तावइयं चेव' तावदेव-क्रोशाधिकैक-त्रिंशद्योजनप्रमाणमेव 'पवेसेणं' प्रवेशेन-भूमिगतत्वेन 'सेया' श्वेतानि-शुक्लवर्णानि, 'वरकणगथूभियागा' वरकनकस्तूपिकाकानि-उत्तमसुवर्णमयलघुशिखरविशिष्टानि, 'एवं' एवम्-एतत्प्रकारकः, 'रायप्प. सेणइज्जविमाणवत्तव्ययाए' राजप्रश्नीयसूत्रस्थ-विमानवक्तव्यतायां-राजप्रश्नीयसूत्रे यद्विमानंसूर्याभनामकं तस्य वक्तव्यतायां-वर्णने यो 'दारवण्णो ' द्वारवर्णकः-द्वारवर्णनपरः पदसमूहः स इहापि ग्राह्यः, स च किम्पर्यन्तः ? इत्याह-'जाव अट्ठ मंगलगाईति' यावदष्टाष्टमङ्गलकानि-अष्टाष्टमङ्गलकानीति पदपर्यन्तो द्वारवर्णको ग्राह्यः, स च वर्णको विजयद्वारवर्णनकहे हैं अर्थात् प्रत्येक बाजु एकसो पचीस एकसो पचीस द्वार 'पण्णत्तं' कहा है अब द्वारों के मानादिका वर्णन करते हैं-'तेणे' पहले कहे गए 'दारा' द्वार 'बावहि जोयणाइं अद्धजोयणं च' अर्द्ध योजन सहित बासठ योजन अर्थात् साडे बासठ योजन 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊपरकी तरफ ऊंचाइवाले 'इकतीसं जोयणाई कोसंच विभेणं' इकतीस योजन और एक कोस के विष्कंभवाले कहे हैं 'तावइयं चेव' इतनाही इकतीस योजन और एक कोस 'पवेसेणं' भूमिगत कहे हैं 'सेया देत 'वरकणगथूमियागा' श्रेष्ठ सुवर्णमय छोटे छोटे शिखरों से युक्त 'एवं' इस प्रकार से 'रायप्पसेणइज्जविमाण वत्तव्ययाए' राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभनामका विमान के वर्णन में 'दारवण्णओ' द्वारों के वर्णन परक पद कहे हैं वे यहां भी समज लेवें। वह वर्णन कहाँ तक कहना इसके लिए कहते हैं 'जाव अट्ठमंगलगा इति' आठ आठ मंगलवाले यह पदपर्यन्त द्वारका वर्णन यहां पर હવે દ્વારા માનાદિનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. તેને તે પહેલાં કહેવામાં આવેલ 'दारा' द्वारे। 'बावढेि जोयणाई अद्धजोयणं च' मर्दा यन सहित मास योन शर्थात् सा। मास यान 'उद्धं उच्चत्तेणे' 6५२ त२३ यावा 'इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं' मेवीस ये मन मे २६ (१४मवाणा डेत छे. 'तावइयं चेव' मेट सेट सेत्रीस यापन मन मे अस 'पवेसेणं' भूमिनी मह२ उस छ. 'सेया' स३४ 'वरकणगथूभियागा' उत्तम सुवा भय नाना नाना शिपथी युत 'एवं' से शतना 'रायप्पसेणइज्जविमाणवत्तव्ययाए' राप्रश्नीय सूत्रमा सूर्याम नामना विमानना १ नभा 'दार वण्णओ' द्वाशना न ४२ना२। ५हो २ ४ा छ, त બધા અહીંયાં પણ સમજી લેવાં. તે વર્ણન કયાં સુધીનું અહિયાં કહેવું તે માટે કહે છે. 'जाव अदृटु मंगलाई' मा मा४ मा ५४न ४थन पर्यन्त दारानु वन Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् प्रसङ्गेऽष्टमसूत्रटीकायां प्रागुक्तस्तत एव ग्राह्यः, ग्रन्थविस्तारभयादत्र नोपन्यस्यते । अथ यमिकTराधान्यो बहिर्भागे परितो वनपण्डवक्तव्यमाह - 'जमियाणं रायहाणीणं' इत्यादि - 'जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसि' यमिकयो राजधान्यो चतुर्दिशि-पूर्वादि दिकूचतुष्टये, 'पंच पंच जोवणसर अवाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता' पञ्च पञ्च योजनशतानि अबाधायाम् - व्यवधाने न्यस्य चत्वारि वनपण्डानि प्रज्ञतानि, एतदेव दर्शयति- 'तं जहा - असोगवणे' तद्यथा - अशोकवनम् - एतत्पूर्वस्याम् १ 'सत्तिवण्णवणे' सप्तपर्णवनम् - एतद्दक्षिणस्याम् २, 'चंपगवणे' चम्पकवनम् - एतत्पश्चिमायाम् ३, 'चूयवणे' चूतवनम् - आम्रवनम् एतदुत्तरस्याम् ४, अथैतेषां मानमाह - ' ते णं वणसंडा' इत्यादि - ' ते णं वणसंडा' तानि - अनन्तरोक्तानि वनपण्डानि - वनसमूहा, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि - किञ्चिदधिकानि 'बारसजोयणसहस्साई' द्वादशयोजन सहस्राणि - द्वादशसहस्रसंख्यानि योजनानि 'आयामेणं' आयामेन ग्रहणकर समझ लेवें । यह वर्णन विजयद्वारके वर्णन प्रसंग में आठवें सूत्रकी टीका पहले कहे हैं अतः वहां से समझ लेवें । ग्रन्थविस्तार भयसे वे यहां दुबारा नहीं कहते हैं । मिका राजधानी के बाहर के भाग में चारों तरफ वनषण्ड का वर्णन करते हैं- 'जमियाणं रायहाणीणं' इत्यादि 'जमियाणं राहाणीणं चउद्दिसिं' यमिका राजधानीके चारों ओर 'पंच पंच जोयणसए बाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णता' पांचसो पांचसो योजनके व्यवधान में चार वषण्ड कहे गये हैं । 'तं जहा' वे वनषण्ड इस प्रकार के थे । 'असोगवणे' अशोकवन, इसके पूर्व में १ 'सत्तवण्ण वणे' सप्तपर्ण वन यह दक्षिणमें२ 'चंपगवणे' चम्पकवन, यह पश्चिम में ३ 'चूयवणे' आम्रवन, यह उत्तर दिशा में २०५ अब वनषण्डका मान कहते हैं- 'तेगं वणसंडा' वह वनषण्ड 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'वार जोयणसहस्साई आयामेणं' बारह हजार योजन कि लम्बाई અહીંયા ગ્રહણ કરીને સમજી લેવું. તે વર્ણન વિજયદ્વારના વર્ણનના પ્રસંગમાં આઠમાં સૂત્રની ટીકામાં કહેલ છે. તેથી તે ત્યાંની સમજી લેવું યમિકા રોજધાનીના બહુારના ભાગમાં ચારે તરફ આવેલ વનખંડનુ વર્ણન કરવામાં यावे छे. 'जमिगाणं रायहाणीणं' इत्याहि 'जगणं रायहाणीणं चउद्दिसि' यभि सए अवाहा पत्तारि वणसंडा पण्णत्ता' वनपंडे छे. 'तं जहा' ते वनष' या पूर्वभां 'सत्तवण्णवणे' सप्तपर्णा वन थे पश्चिममां के 3 'चूयवणे' आम्रवन में उत्तर दिशामा छे. डुवे वनषतु मान-प्रभावामां आवे छे. 'तेणं वणसंडा' थे वनडे 'साइरेगाई' ४६६ वधारे 'बारस जोयण सहस्साइं आयामेणं' मार હજાર યેાજનની લ બાઈવાળા राजधानीनी यारे हिशाभां 'पंच पंचजोयणयसो पांयसो योग्नना व्यवधान वाजा यार प्रमाणे छे १ 'असोगवणे' शोवन तेनी दक्षिण दिशामा छे २ 'चंपगवणे' यवन, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'पंच' पञ्च-पश्चसंख्यानि 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण, 'पत्तेयं २' प्रत्येकं २ चत्वारोऽपि वनषण्डाः 'पागारपरिविखत्ता' प्राकारपरिक्षिप्ता:-वरणपरिवेष्टिनाः, 'किण्हा' कृष्णा:-कृष्णवर्णाः, एतत्पदोपलक्षतो जम्बूद्वीपपद्मवरवेदिका प्रकरणगतःसम्पूर्णी 'वणसंडवण्णओ' वनषण्डवर्णकः तथा 'भूमीओ पासायवडेंसगाय भाणियव्या' भूमयः प्रासादावतंसकाश्च भणितव्या:-वक्तव्याः, तत्र वनषण्डभूमिभागयोवर्णकः पञ्चमषष्ठसूत्राभ्यां ग्राह्यः, प्रासादावतंसकवर्णकश्च राजप्रश्नीयसूत्रस्याष्टषष्टितमसूत्रस्य मत्कृत सुबोधिनी टीकातोऽत्रत्याष्टमसूत्र टीकातश्च बोध्यः, तथैव बहुसमरमणीयो भूमिभागः उल्लोकः सपरिवाराणि सिंहासनानि च वक्तव्यानि, तत्र खलु चत्वारो देवा महर्द्धिका यावत् पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-अशोकः१ सप्तपर्णः२चम्पकः३ चूतः४, तत्राशोकनामा. देवोऽशोकवनप्रासादे परिवसति, एवं शेषेषु त्रिष्वपि वनसदृशनामानस्त्रयो देवाः परिवसन्ति । वाले हैं । 'पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं' पांचसो योजनका इसका विष्कंभ चोडाई-है। 'पत्तेयं प्रत्येक वनषण्ड 'पागार परिक्खित्ता' प्राकारसे परिवेष्टित हैं। 'किण्हा' कृष्णा: कृष्णवणेसे युक्त थे कृष्णादि पदोपलक्षित पदसमूह जंबूद्वीप पद्मवर वेदिका प्रकरणमें कहे अनुसार 'वनसंडवण्णओ' सपूर्ण वनषण्डका वर्णन कह लेना चाहिए । तथा-'भूमिओ पासायवडेंसगा य भाणियको' भूमि एवं प्रासादावतंसक कहना चाहिए' उसमें वनषण्ड और भूमिभागका वर्णन पांचवे एवं छटे सूत्रसे कहना चाहिए । तथा प्रासादावतंसकका वर्णन राजप्रश्नीय सूत्रके ६ वें सूत्रकी मेरे द्वारा की गई सुबोधिनी टीका से जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके आठवें सूत्रकी टीकासे समझ लेवें । वह इस प्रकार है-उसका भूमिभाग बहुसम एवं रमणीय है, उल्लोक-अगासी वाले हैं उसमें सपरिवार सिंहासन कहे गए हैं। उसमें चार देव जो कि महर्द्धिक यावत् पल्योपमकी स्थितिवाले है चार देवके नाम इस प्रकार हैं-अशोक१, सप्तपर्ण२, चम्पक३, एवं चूत४, उसमें अशोक Bा छे. 'पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं' पांयसा योगनना तमना वि०४-पडामा ४स छ. 'पत्तेयं पत्तेय' २४ वन 'पागारपरिक्खित्ता' प्राडारथी वीजायेत छे. 'किण्हा' કૃષ્ણ-કુણુ વર્ણવાળા છે. કષ્ણાદિ પદથી બેધકરાતા પદસમૂહ જંબુદ્વીપની પદ્મવરદિકાના ४२मा ४ा प्रमाणे 'वनसंडवण्णओ' संपूर्ण वन नु वर्णन ही नको. तभा 'भूमिओ पासायवडेंसगाय भाणियव्वा' भूभिमने प्रास होत ४& सेवन से. તેમાં વનખંડ અને ભૂમિભાગનું વર્ણન પાંચમા અને છટ્ઠા સૂત્રમાંથી કહી લેવું જોઈએ. તથા પ્રાસાદાવર્તાસકનું વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના ૬૮ મા સૂત્રની મારા દ્વારા કરવામાં આવેલ સુધિની ટીકામાંથી સમજી લેવું. તે વર્ણન આ પ્રમાણે છે-તેને ભૂમિભાગ બસમ અને મણીય છે. ઉલલેક-અગાસીવાળા છે. તેમાં સપરિવાર સિંહાસન કહેવામાં આવેલા છે. ચાર દેવ કે જેઓ મહદ્ધિક યાવત્ પલ્યોપમની સ્થિતિવાળા છે. તેમાં ચાર દેના નામ આ પ્રમાણે કહેલા છે. અશોક ૧ સપ્તપર્ણ ૨ ચમ્પક ૩ અને ચૂત ૪ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यम का राजधान्योर्वर्णनम् २०७ अथ यमिकयोरन्तर्भागवर्णकमाह-'जमियाणं' इत्यदि, 'जमिगाणं रायहाणीणं' यमिकयो राजधान्योः प्रत्येकम् 'अंतो' अन्तः-मध्यभागे 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तस्य 'वण्णगोत्ति' वर्णकः प्राग्वद्बोध्यः यथा प्राक आलिङ्गपुष्करमिति वा यावत् पञ्चवर्णमणिभिरूपशोभितः वनषण्ड विहीनो यावद् बहवो देवाश्च देव्यश्चाऽऽसते यावद विहरन्तीति पर्यन्तोऽभिहितः सोऽत्रापि ग्राह्यः, विशेष जिज्ञासुभिः पञ्चमषष्ठसूत्रे विलोकनीये । 'तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसमाए' तेषां च बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागः, 'एत्थ गं' अत्र-अत्रान्तरे खल 'दुवे उवयारियालयणा' द्वे उपकारिकालयने-उपकरोति-उपष्टभ्नाति प्रासादावतंसकानीत्युपकारिका-राजधानीपतिसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्रत्वियमुपकार्योपकारिकेति प्रसिद्धा, उक्तं च-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारिका' इति सा लयनमिव-गृहमिवेत्युनामधारी देव अशोक वन के प्रासाद में निवास करते है, इसी प्रकार बाकी के तीनों देव वन सरीखे नाम वाले तत् तत् प्रासादों में निवास करते हैं। अब यमिका राजधानीके अन्दर के भागका वर्णन करते हैं-'जमिगाणं' इ० 'जमिगाणं रायहाणीणं' प्रत्येक यमिका राजधानीके 'अंतो' मध्यभागमें 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अत्यन्त सम एवं रमणीय भूमिभाग कहा गया है। उसका वर्णन 'वण्णगोत्ति' जैसे पहले आलिंग पुष्करके समान यावत् पांच वर्ण वाले मणियोंसे शोभायमान थे एवं अनेक देव एवं देवियां शयन करते है यावत् विचरते है यह कथन पर्यन्त प्रथम कहे अनुसार समझ लेवें विशेष जिज्ञासु पांचवें एवं छट्ठा सूत्रमें देख लेवें। 'तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए' यह पहुसमरमणीय भूमिभागके ठीक मध्यभागमें 'एत्थर्ण' यहां पर 'दुवे उपयारियालयणा' दो उपकारिकालयन अर्थात् प्रासादावतंसक पीठिका जो उपकारिकाके नामसे प्रसिद्ध તે અશક નામવાળા દેવ અશોકવનના પ્રાસાદમાં નિવાસ કરે છે. એ જ પ્રમાણે બાકીના ત્રણે દેવે વનના નામ સરખા નામવાળા એ-એ પ્રાસાદોમાં નિવાસ કરે છે. वे यभि। २४धानीना ना नागनु वर्णन ४२पामा आवे छे. 'जमिगाणं' . 'जमिगाणं रायहाणीण' ४२४ भिड। २०४धानीन। अंतो' मध्य भागमा 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अत्यंत सम भने २भणीय अवो भूमिमा ४ छ. 'वण्ण ત્તિ” વર્ણન જેમ પહેલાં આલિંગ પુષ્કરની સરખા યાવત્ પાંચ વર્ણવાળા મણિયોથી શોભાયમાન હતા. તેમજ અનેક દેવ અને દેવિયો શયન કરે છે. યાવત્ વિચરે છે. આ કથન પર્યન્ત પહેલાં કથનાનુસાર સમજી લેવું. 'तेसिणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमझदेसभाए' ते मई सभरभणीय भूमि म २२५२ मध्य Twi ‘एत्थण' माडियां 'दुवे उवयारियाल पणा' में 6५. કારિકાલયન અર્થાત પ્રાસાદાવતંસક પીઠિકા કે જે ઉપકારિકાના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. કહ્યું Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पकारिकालयनं, तच्च द्वयोराजधान्योरेकैमिति द्वे ते इति द्वित्वेन निर्देश इति उपहारिकालयने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, तयोर्मानाद्याह-'बारस' इत्यादि-'बारसमायणसयाई भाषामविक्खंभेणं' द्वादशयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण-दैविस्ताराभ्याम् , मूले समाहारद्वन्द्वः, 'तिण्णि जोयणसहस्साई' त्रीणि-त्रिसंख्यानि योजनसहस्राणि 'सत्त य' सप्त- समसंख्यकानि ‘पंचाणउए' पञ्चनवतानि-पश्चनवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्ते इति पूर्वेण सम्बन्धः, एमग्रेऽषे 'अद्धकोलंच' अदकोशं क्रोशस्याई 'वाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, 'सव्वजंबूणयामया' सर्वजम्बूनदम पे--सर्वात्मना जाम्बूनदमयेजम्बूनदभवोत्तमजातिमुवर्णमये तथा 'अच्छा' अच्छे-आकाशस्फटिकवनिमले, 'पत्तेयं२' प्रत्येकं२ द्वे अपि 'पउमवरवेझ्यापरिक्खित्ता' पद्मवरवेदिका परिक्षिप्ते-पदमवस्वेदिकाभ्यां परिक्षिप्ते-परिवेष्टिते, 'पत्तेयं२' प्रत्येकं२-दुयोः 'वणसंडवण्णो ' वनपण्डवर्णकः वनपण्डयोः है। कहा भी है-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञा मुपकार्योपकारिका' राजाओंका गृहस्थान उपकारिका एवं अपकारिका से युक्त कहा है। वह गृह के जैसे उपकारिकालयन दोनों राजधानी में एक एकके क्रमसे दो 'पण्णत्ते' कहे हैं अब उपकारिकालयनका मानादि कहते हैं-'बारस' इत्यादि ... 'बारस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं' बारह योजन के लम्बे चौडे है 'तिणि जोयण सहस्साई' तीन हजार योजन 'सत्तय पंचाणउए जोयणसए' सातसो पंचाणु योजन 'परिक्खेवेणं' इसना परिक्षेप हैं 'अद्धकोसं च' आधाकोस की 'बाहल्लेणं' मोटाई है 'सव्वजंबुणयामया' सर्वात्मना जंबूनदमय उत्तम सुवर्ण मय है। 'अच्छा' आकाश एवं स्फटिक सदृशनिर्मल है । 'पत्तेयं २' प्रत्येक अर्थात् दोनों उपकारिकालयन 'पउमवरवेझ्या परिक्खित्ता' पद्मवर वेदिका से परिवेष्टित है ‘पत्तेयं २' दोनों 'वणसण्डवण्णओ' वनषण्ड वर्णन परक पदसमूह पण छ.-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकरिको साना स्थान ७५४॥२४॥ मन म५४१રિકાથી યુક્ત કહેલ છે. એ ઉપકારિકાલયન બેઉ રાજધાનીયોમાં ગૃહના રૂપમાં એક એકના भथी मे 'पण्णत्ता' छे. डवे ९५४॥२४ायनना भाना प्रभा मतावे छे. 'बारस' त्याह 'बारस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं' मारसो यौन २८मा inn पडाणाले. 'तिन्नि जोयणसहस्सा' प M२ योन 'सत्तय पंचाणउर जोयणसए' सोतसो पाया। योन. 'परिक्खेवेणं' तेन। परिक्ष५ ४३ छे. 'अद्धकोस च' मा की 'बाहल्लेणं' तनी 11 छे. 'सव्ब जंबूणया मया' सर्व शत भून नामाना उत्तम सुवा भय छे. 'अच्छा ' ४ाश सन २६टि४ स२५॥ न छ. 'पत्तेयं २' १२४ 23 64. ४२४ सयन 'पउमवरवेइया परिक्खित्ता' ५१२ थी पीटा छे. पत्तेयं' मेना 'वणसंड वण्णओ' पनपन वन संधी ५हो 'भाणिअव्वो' ही सेवा नये. से Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् वर्णकः-वर्णनपरः पदसमूहो 'भाणियव्यो' भणितव्यः-वक्तव्यः, स च पञ्चमसूत्रोक्त जम्बूद्वीप. जगतीवनषण्ड विवरणतो बोध्यः, उपकारिकालयनमध्ये चतुर्दिशि 'तिसोवाणपडिख्वगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सुन्दरारोहावरोहत्रिमार्गा 'तोरण चउद्दिसिं' तोरणचतुर्दिशीत्यत्र तोरणेति-लुप्तविभक्तिकं पदम् तेन तोरणानीति पृथक् बोध्यम् , ततश्चतुर्दिशि पूर्वादि दिक चतुष्टये तोरणानि-बहिराणि चत्वारि, तथा 'भूमिभागा य' भूमिभागा उपकारिकालयनमध्ये 'भाणियव्वत्ति' भणितव्याः, इति, तत्सूत्राणि जीवाभिगमोपाङ्गगतानि क्रमेणैवम्-'से वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं उपयारियालयणसमए परिक्खेवेणं, तेसि णं उवयारियालयाणं चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ, तेसि णं तिसो. वाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं२ तोरणा पण्णत्ता, वणो , तेसिणं उवयारियालयाणं उपि बहुसमरमणिज्जे भूपिमागे पणो जाव मणीहिं उपसोभिए इति, एतच्छाया व्याख्या च सुगमा। 'भाणियव्यो' कहना चाहिए। वह पद समूह पांचवें सूत्र में जंबूदीप जगती एवं वनषंडके वर्णन प्रसंगसे ज्ञात करलेवें । उपकारिकालयन के मध्य में चारों तरफ 'तिसोवाणपडिरूवगा' सुंदर आरोह अवरोह युक्त त्रिमार्ग कहे हैं 'तोरण चउदिसिं' चारों द्वारके चारों दिशामें तोरण चार कहे हैं 'भूमिभागाय' उपरिकालयन के बीच में भूमि भाग'भागियव्यति' कहना चाहिए तत्संबंधि सूत्रपाठ जीवाभिगम उपांममें कहे हैं वह क्रमसे इस प्रकार है 'से णं धणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चकवाल विश्वंभेणं उवरियालयण समए परिक्खेवेणं' तेसिंणं उवरियालयणाणं चउद्दिस्सि चत्तारि लिसोताणपडिरूया! पण्णता, वण्णओ तेसिणं तिसोवापापडिरूवगाणं पुरओ पत्तय २ तोरणा पण्णता। वण्णओ 'तेसिंणं उवयारियालयणाणं उपिं बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते जाव मणीहिं उवसोभिए इति' ___ अब यमक देवके मूल प्रासादका वर्णन करते हैं-'तस्स णं' उपरमें वर्णित વર્ણન સંબંધી પદ પાંચમાં સૂત્રમાં જંબુદ્વીપની જગળી અને વનખંડના વર્ણનના પ્રસંગથી समलव ५४सियननी वयां यारे यो 'तिसोवाणपडिरूवगा' त२। यह पाने अनुभव सुह२ १ भाग ४सा छे. 'तोरण चउदिसिं' यारे ४२वानना यारे हिशामा तो२५ ४ा छ. 'भूमिभागाय' हेभन भूमिमा 'भाणियव्वो' ४हिसे ये पन सधी सूत्र भिम नामना Bाम हे छे. ते भथी मा प्रभारी छ -'से गं वणसंडे देसूणाई दो जोषणाई चकवालविक्खंभेणं उवरियालयणसमए परिक्खेवेणं ते सिंणं उवरियालयणाणं चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा एण्णत्ता रणओ तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णत्ता वण्णओ तेसिणं उपरियालयणाणं उप्पि वहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिहि उव सोभिए इति' वे यम हेवनभूख प्रासानु वर्णन ४२पामा मावे . 'तस्स गं' ५२ १ ४२वामां मावेस ५४॥२४॥जयनना 'बहुमझदेसभाप' म. ज०२७ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २१० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ अथ यमकदेवयोर्मूलप्रासादस्वरूपमाह-'तस्स णं' इत्यादि-'तस्स गं' तस्य-अनन्तरोक्तस्य उपकारिकालयनस्य खलु 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागः, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते' एकः प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, अस्य मानमाह-'बावडिं' द्वापष्टि-द्वाषष्टि संख्यानि 'जोयणाई अद्धजोयणं च' योजनानि अर्द्धयोजन च-योजनस्याई च 'उद्धं उच्चत्तणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'इक्कतीसं एकत्रिंशतम्-एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोशं च 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम् प्रज्ञप्तः, तस्य 'वण्णओ' वर्णकोऽष्टमसूत्रगतविजयप्रासादानुसारेण बोध्यः, 'उल्लोण' उल्लोकोउपरितनभागौ, 'भूमिभागा' भूमिभागौ-अधोभागौ, 'सीहासणो सपरिवारा' सिंहासने सपरिवारे-सामानिकादि सुरपरिवाराणां भद्रासनरूपपरिवारसहिते, एपामुल्लोकादीनां द्वित्वेन प्रासादस्य चैकत्वेन विवक्षा सूत्रकारप्रवृत्तिवैचिच्यात्, अथ मूलप्रासादावतंसकस्य परिवारप्रासादपङ्क्तित्रयं प्ररूपयति-'एवं पासायपंतीओ' इत्यादि-‘एवं एवं-मूलप्रासादावतंसकवत् 'पासायपंतीओ' प्रासादपङ्क्तयः-परिवारप्रासादश्रेणयो ज्ञातव्याः, -ताश्च जीवाभिगमाद् उपकारिकालयन का 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभाग है एत्थणं' वहां पर 'एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते' एक प्रासादावतंसक महल विशेष कहा है । उस प्रासादावतंसक का मानादि का वर्णन करते हैं 'बावहि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तणं' साडि बासठ योजनकी उसकी उपरकी तरफकी ऊंचाइ कही है। 'इकतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खभेणं' एकतीस योजन और एक कोस का उसकी लम्बाइ चोडाई कही है, उसका 'वण्णओ' वर्णन आठवें सूत्र में विजय प्रासाद के वर्णन समान समझ लेवें 'उल्लोया' ऊपर का 'भूमिभागा' नीचे का भूमिभाग 'सीहासणा सपरिवारा' सपरिवार सिंहासन अर्थात् सामानिकादि देव परिवार के भद्रासन सहित कहना चाहिए। अब मूलप्रासादावतंसक की परिवारभूत तीन प्रामाद पंक्तिका वर्णन करते १२ मध्य भागमा 'एस्थणं' त्या मागण 'एगे पासायवडेंसए पण्णत्ते' में प्रासाहात અથત મહેલ કહેવામાં આવેલ છે. હવે એ મહેલના માપનું વર્ણન કરે છે. 'बावढि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेण' साडी मास योननी तनी या छ. 'इक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं त्रीस यान मन मे४ ॥२८॥ तनी मा पा ४स . तेनु 'वण्णओ' वर्णन मम सूत्रमा विस्य वारना वन प्रमाणु सभ ''उल्लोया' ५२ An 'भूमिभागा' नये। भूमिमा ‘सीहा सणा सपरिवारा' परिवार सहित सि सन। अर्थात् सामानि वगेरे वोना परिवाना ભદ્રાસને સહિત વર્ણન કરવું જોઈએ. હવે મૂળ પ્રાસાદાવતુંસકના પરિવાર રૂપ ત્રણ પ્રાસાદ પંક્તિનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् बोध्याः, ताश्च मूलप्रासादतश्चतसृषु दिक्षु पद्मानामिव परिवेष्टनरूपा बोध्याः, न पुनः सूचिश्रेणिरूपाः, तत्र प्रथम-प्रासादपक्ति पाठ एवम्-'सेणं पासायवडेंसए अण्णेहिं चउहिं तदधुच्चत्तपमाणमित्तेहिं पासायवडेंसएहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ते' एतच्छाया-स खलु प्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिस्तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः प्रासादावतंसकैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः' एतव्या या-सः- मूलप्रासादावतंसकः खलु अन्यैः-स्वातिरिक्तैः चतुर्भिः तदोच्चत्वप्रमाणमात्रैः-अत्रोच्चत्वशब्द उत्सेधपरः, प्रमाणशब्दश्च विष्कम्भायामपरः, तेन तस्मात्मूलप्रासादात् मूलप्रासादमपेक्ष्येत्यर्थः, अद्धम्-उच्चत्वम्-उत्सेधः, प्रमाणमात्रं-प्रमाणंमानं तदेव प्रमाणमात्रम् विष्कम्भायारूपप्रमाणमेव च येषां तादृशैः प्रासादावतसकैः सर्वतः-सर्वदिक्षु समन्तात्-सर्वविदिक्षु संपरिक्षिप्तः-परिवेष्टितः, एषां संपरिक्षेपप्रासादानामुच्चत्वादिकं तु सूत्रकारः साक्षादेवाह-'एक्कतीसं' इत्यादि-ते खलु प्रासादावतंसकाः 'एकतीसं' एकत्रिंशतम्-एकत्रिंशत्संख्यानि 'जोयणाई' योजनानि 'कोसं च' क्रोशम् एक क्रोशं च 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-अर्द्धकोशाधिकानि 'अद्धसोलस जोयणाई' अर्द्धषोडशयोजनानि-सार्द्धपञ्चदशयोजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य-विस्तारभ्याम् १, अथ 'बिइयपासायपंती' द्वितीयप्रासादहैं-'एवं' मूलप्रासादावतंसक के समान 'पासाय पंतीओ' परिवारभूत प्रासाद पंक्तियों का वर्णन समजलेवें । उसका वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जानलेवें। वे पंक्तियां मूलप्रासादसे चारों दिशामें पद्मों के समान परिवेष्टन रूप समजलेवें सूचि के श्रेणि समान न समजें वहां प्रथम प्रासादपंक्ति का वर्णनरूप पाठ इस प्रकारहै-'से णं पासायवडेंसए चउहिं तदुच्चत्तपमाणमित्तहिं पासायवउँसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' वह मूल प्रासादावतंसक दूसरे उससे अर्धा ऊंच्चत्वप्रमाण वाले चार प्रासादावतंसकों से सर्व दिशामें अर्थात् चारों ओर परिवेष्टित ऐसे कहे गए हैं। वे परिवेष्टित प्रासादों के उच्चत्वादि स्वयं कहते हैं-वे प्रासादावतंसक 'एक. तीसं' इकतीस 'जोयणाई कोसं च उद्धं उच्चत्तग' योजन एवं एक कोस उपर एवं' भूस प्रासावित सनी समान 'पासाय पंतीओ' परिवार भूत प्रासाद पतिચેનું વર્ણન સમજી લેવું. તે પ્રાસાદ પંક્તિ મૂલ પ્રાસાદની ચારે દિશામાં કમળની જેમ વીંટળાયેલ સમજી લેવી સેઈની પંક્તિ પ્રમાણે ન સમજે. त्यां पडसी प्रासातिना पान ३५ ५।मा प्रभारी छे. 'से णं पासायवडेंसए अण्णेहिं चउहि तदुच्चत्तपमाणमित्तेहिं पासायवडे सरहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते તે મળ પ્રાસાદાવતંસક બીજા તેનાથી અદ્ધિ ઉંચાઈ વાળા ચાર પ્રાસાદાવતંસકે થી ચારેય દિશામાં અર્થાત્ ચારે તરફ વીંટળાયેલ કહ્યા છે. તે વીંટળાયેલ પ્રાસદની ઉંચાઈ વિગેરે सपा ४थन स्वय' सार ४ छे. ते प्रासादात 'एकतीसं' मेत्रीस 'जोयणाई Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पङ्क्तिः , तत्सूचकपाठश्चैवम्-'तेणं पासा बडें सगा अण्णेहिं चउहिं तदधुच्चत्तप्पमागमित्तेहिं पासायव.सएहिं सव्वो समंता संपरिक्खिता' एतच्छाया-पाठमात्रगम्या, व्याख्यातु-ते-प्रथमपङ्क्तिगताश्चत्वारः खलु प्रासादावतंसकाः प्रत्येकम् अन्यैः-स्वभिन्नैः चतुभिः तदोच्चत्वप्रमाणमात्रै-मूलपासादोत्सेधविष्कम्भायामम्पन्नैः-मूलप्रासादापेक्षया चतुर्भागप्रमाणैः प्रासादैः संपरिक्षिताः, इति, अत एव चतुर्दिक्षु चत्वारश्चत्वार इति संकलनया सर्वे पोडश प्रासादाः, एषामुच्चत्वादिकं तु सूकृत साक्षादेवाह-'तेणं पासाय. वडेंसगा' ते खलु प्रासादावतंसका:-'साइरेगाई" सातिरेकाणि-अर्द्धक्रोशाधिकानि : पद्धसोळसजोयणाई' आर्द्धषोडशयोजनानि-सार्द्धपश्वदशयोजनानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चस्वेन, 'साइरेगाइ” सातिरेकाणि-क्रोशचतुर्थीशाधिकानि 'अट्टपाइ' अर्द्धाष्टमानि-सार्द्धसप्त 'जोयणाई' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयाम विष्कम्भेण इति २, अथ 'तइयपासायपंती' तृतीयप्रासादपङ्क्तिः -तत्सूचकपाठ एवम्-'ते णं पासायवडेंसगा अण्णेहि चउहिं की और ऊंचा कहा है। 'साइरेगाई' बु.छ अधिक अद्धसोलम जोयणाई' आयामविक्खंभेणं' साडे पंद्रह योजन उसकी लंबाई चोडाइ कही है। अब दूसरी प्रासादपंक्ति सूचक पाठ इस प्रकारहै-'तेणं पासायव.सया भण्णेहिं चरहिं तदधुच्चत्त पमाणमित्तहि पासायवडेंस एहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता' प्रथम पंक्ति में कहे गए चारों प्रासादावंतलक, दूसरे उससे आधि ऊंचाइवाले मूलप्रासाद से आधे उत्सेध आयामविष्कंभ वाले मूल प्रासाद की अपेक्षा चतुर्भाग प्रमाणवाले चार प्रासादों से परिवेष्टित कहे हैं, इस प्रकार चारों दिशाओं में चार-चार कहने से १६ सोलह प्रासाद हो जाते हैं। उनकी ऊंचाइ आदि मान सूत्रकार स्वयं कहते हैं-'तेणं पासायवडेंसगा' वे प्रासादावतंसक 'सातिरेगाई' अधे कोस अधिक 'अद्धसोलस जोयणाई' साडे पन्द्रह योजन 'उर्दू उच्चत्तग' ऊंचा कहा 'साइरेगाई पाव कोस अधिक 'अट्ठमाई जोयणाई आयामविक्खंभेणं' साडेसात योजनका इनका आयामविष्कंभकहा है। कोसं च उद्धं उच्चत्तेणं' यान अने से 13 220 या ह्या छे. 'साइरेगाई' ४४४ पधारे 'अद्धसोलस जोयगाई आयामविखंभेणं' सा७१ ५४२ यानी तेनी and पापा छे. व भी प्रात सधी पाई 3 छ-'ते णं पासायवडे सगा अण्णेहि चउहि तदधुच्चत्तपमाणमित्तेहि पासायबडे सराहे सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता' पड़ती પ્રાસાદ પંક્તિમાં કહેલ ચારે પ્રાસાદાવત એક બીજા તેનાથી અદ્ધિ ઉંચાઈવાળા મૂલ પ્રાસાદથી અર્ધા આયામ વિદ્ધભ અને ઉભેધવાળા મૂલ પ્રાસાદના કરતાં ચતુભોગ પીમાણુવાળા ચાર પ્રાસાદથી વીંટાયેલ છે. આ રીતે ચારે દિશામાં ચાર ચાર કહેવાથી ૧૯ સોળ मासाही २७ onय छे. तेनी या वगेरे प्रभार सूत्रा२ स्वयं मताव छ.-'तेणं पासाय. वडेंसगा' से प्रासाहात 'सातिरेगाइं अघों 34s 'अद्धसोलस जोयणाई' सा1५२ यान 'उद्धं उच्चत्तण' या ४९८ छ, 'साइरेगाई' ५। 13 मधि: 'अट्ठमाई Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कार: सू. २१ यम का राजधान्योर्वर्णनम् २१३ तदद्धुच्चत्तप्पमाणमितेहिं पासायवडेंस एहिं सन्त्रओ समंता संपरिक्खित्ता' एतच्छाया प्राग्वत् व्याख्यातु-ते- द्वितीयपरिधिगताः षोडशप्रासादावतंसकाः खलु प्रत्येकमन्यैश्रतुर्भिस्तदर्द्धाच्चत्व प्रमाणमात्रैः- मूलप्रासादापेक्षयाऽष्टांशप्रमाणञ्चत्वविष्कम्भायामैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, अत एव तृतीयपक्तिगताः प्रासादाश्चतुष्षष्टिः, एपामुच्चत्वादिकं सूत्रकृत् स्वयमाह'ते णं पासायवडेंसगा' ते - चतुष्षष्टिरपि प्रासादावतंसकाः खलु 'साइरेगाइ " सातिरेकाणि - भर्द्धक्रोशाधिकानि 'अद्धट्टमाई' अर्द्धाष्टमानि - सार्द्धसप्त 'जोयणाई' योजनानि 'उद्धं उच्च'तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'साइरेगाई' सातिरेकाणि - सार्द्धक्रोशाष्टमांशाधिकानि 'अद्धट्ठजोय'गाई' अध्युष्टयोजनानि - अध्युष्टानि - सार्द्ध तृतीयानि योजनानि ' आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेन- दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम् एषां सर्वेषां 'वण्णओ' वर्णकः - वर्णनपरः पदसमूहः 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि च सपरिवाराणि - सामानिकादि सुरपरिवाराणां भद्रा अब 'तइय पासा पंती' तीसरी प्रासादपंक्ति का वर्णन करते हैं - तेणं पासा - यवडेंसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धुच्चत्तपमाणमितेहिं सव्वओ समता संपरिवित्ता' दूसरी परिधिगत सोलह प्रासादावतंसक प्रत्येक दूसरे उससे आधे ऊंचे ऐसे चार प्रासादावतंसक की जो मूल प्रासाद की अपेक्षा अष्टमांश प्रमाण एवं आयामविष्कंभ से चारों तरफ संपरिक्षिप्त कहे हैं । अतः तीसरी पंक्तिगत चोसठ प्रासाद होते हैं । उसका उच्चत्वादि सूत्रकार स्वयं कहते हैं - ' तेणं पासायवडे - सगा' वे ६४ चोसठ प्रासादावतंसक 'साइरेगाई' आधा कोस अधिक 'अट्टमाइं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' साडे सात योजन ऊंचे कहे हैं। 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'अजोयणाई आयाम विक्खंभेणं' साडे सात योजन के आयाम विष्कंभवाले कहे हैं । इन सबका 'वण्णओ' वर्णन परक पद समूह 'सीहासणा सपरिवारा' परिवार सहित सिंहासन अर्थात् सामानिकादि देव के परिवार के भद्रासन रूप जोयणाई आयामविसंभेणं' साडा सात योजन भेटसी तेनी संमाह पडोजा अडेस छे. ये 'तइय पास पंती' त्री साहति पर्यन स्वामां आवे छे.- 'तेणं पासायवडेंसगा अण्णेहि ं चउहिं तदधुच्चत्तपमाणमित्तेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता' ખીજી પરિધિગત સેળ પ્રાસાદાવતસકે। દરેક ખીજા તેનાથી અધિ ઉંચાઇવાળા એવા ચાર પ્રાસાદાવતસકે કે જે મૂત્ર પ્રાસાદના કરતાં આઠમાં ભાગ જેટલા પ્રમાણના આયામ અને વિક ભવાળાથી ચારે બાજુ વી'ટાયેલ કહ્યા છે. રીતે ત્રીજી પંક્તિના ચેાસઠ आसाहो थाय छे. तेनी या विगेरे प्रमाणु सूत्रहार स्यं तावे छे.- 'ते णं पासायवडें सगा' थे ६४ आसाहावत' सी 'साइरेगाई' अर्धा गाउ अधि 'अट्टमाई जोयणाई उद्ध उच्चण' साडा सात योगन भेटला या उडेल छे. 'साइरेगाई' ४४४ वधारे 'अद्धट्ट जोयणाई आयामक्खिमेणं' साडा सात योजन भेटना आयाभ विष्ठाणा डेस छे. मंधाना 'वण्णओ' वान' यह 'सहासणा सपरिवार' परिवार साथै सिद्धासन આ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सनरूपपरिवारसहितानि प्राग्वत् संग्राह्याणि । अत्र पक्तिप्रासादेषु सिंहासनं प्रत्येकमेकैकम्, मूलप्रासादे तु मूलसिंहासनं सिंहासनपरिवारसहितमित्यादि, क्षेत्रसमासवृत्तौ, तथा प्रथमतृतीयपङ्क्तयोमलप्रासादे परिवारत्वेन भद्रासनानि द्वितीयपङ्क्तयौ च परिवारतया पद्मासनानि, इति जीवाभिगमोपाङ्गे' इत्यादि विसंवादसमाधानं बहुश्रुतगम्यम् , यद्यपि जीवाभिगमे विजयदेवप्रकरणे तथा श्री भगवत्यङ्गवृत्तौ चमरप्रकरणे चतस्रः प्रासादपङ्क्तथ उक्ताः, तथाऽपीह यमकाधिकारे तिस्र एवोक्ता इति बोध्यम् , तिमृणामपि पतीनां प्रासादसङ्कलनैवम्-मूलप्रासादेन सार्द्ध सर्वेषां प्रासादानां पञ्चाशीतिः संख्या ८५, अथात्र सभापञ्चक निरूपयिषुरादौ सुधर्मासभास्वरूपमाह-'तेसि णं मूलपासायव डिंसयाणं उत्तरपुरस्थिमे' तयोः खलु मूलप्रासादावतंसकयोः उत्तरपूर्वस्याम्-ईशानकोणे 'दिसीभाए' दिग्भागे दिशोर्द्वयोर्भागे-अंशे 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'जमगाणं देवाणं' यमकयोदेवयोः योग्ये 'मुहपरिवार सहित पहले वर्णित प्रकार से वर्णन करलेवें । यहाँ पंक्ति प्रासादों में प्रत्येक को एक एक सिंहासन कहे है। मूल प्रासाद में तो मूल सिंहासन सिंहासन के परिवार सहित क्षेत्र समास वृत्ति में कहे हैं। तथा प्रथम एवं तीसरी पंक्ति में मूल प्रासाद में परिवार रूप भद्रासन एवं दूसरी पंक्ति में परिवार भूत पद्मासन जीवाभिगम उपाङ्ग में कहां है । इस विसंवाद का समाधान बहुश्रुत गम्य है । यद्यपि जीवाभिगम में विजय देव के प्रकरण में तथा श्री भगवतीसूत्र में चमर के प्रसंग में चार प्रासाद पंक्ति कही है तथापि यहाँ यह गमकाधिकार में तीन ही प्रासादपंक्ति कही है। तीनों पंक्ति प्रासादों का संकलन करने पर कुल संख्या ८५ पचाशी आती हैं। ___ अब सभा पंचक का निरूपण करते हुए सूत्रकार प्रथम सुधर्मासभा का वर्णन करते हैं-'तेसिं णं मूल पासायवडिंसगाणं उत्तर पुरथिमे' उन मूल प्रासाद के અર્થાત સામાનિકાદિ દેવના પરિવારના ભદ્રાસને રૂપ પરિવાર સહિત પહેલાં વર્ણન કરેલ પ્રકારથી વર્ણન કરી લેવું. અહિં પક્તિ પ્રાસાદેમાં દરેકને એક એક સિંહાસન કહેલ છે. મૂળ પ્રાસાદમાં તે મૂળ સિંહાસન સિંહાસનના પરિવાર ક્ષેત્ર માસ વૃત્તિમાં કહેલ છે. તથા પહેલી અને ત્રીજી પંક્તિમાં મૂલ પ્રાસાદમાં પરિવાર રૂપ ભદ્રાસન તથા બીજી પંક્તિમાં પરિવાર ભૂત પદ્માસન વાભિગમ ઉપાંગમાં કહેલ છે. આ ફેરફારનું સમાધાન બહુશ્રુત જ સમજી શકે તેમ છે. જો કે જીવાભિગમમાં વિજય દેવના પ્રકરણમાં તથા શ્રી ભગવતી સૂત્રમાં ચમરના પ્રસંગમાં ચાર પ્રસાદ પંક્તિ કહી છે. તે પણ અહિંયા યમકાધિકારમાં ત્રણ જ પ્રાસાદપંક્તિ કહેલ છે. ત્રણે પ્રાસાદપંક્તિના પ્રાસાદો મેળવવાથી ૮૫ પંચાસી થાય છે. હવે સભા પંચકનું નિરૂપણ કરતા સૂત્રકાર પહેલા સુધર્મા સભાનું વર્ણન કરે છે. 'तेसिंण मूलपासायवडिसयाणं उत्तरपुरथिमे' से भू पासाहाती शान 'दिसीभाए' Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् २१५ माओ' सुधर्मे - सुष्टु शोभनो धर्मः - सापराधनिरपराधनिग्रहानुग्रहलक्षणो राजधर्मो यत्र ते तथा, एतन्नाम्न्यौ 'सहाओ' सभे प्रत्येकमेकैकेति द्वे 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते, तयोर्मानाद्याह- ' अद्धतेरस' इत्यादि 'अद्धतेरसजोयणाई' अर्द्धत्रयोदशयोजनानि 'आयामेणं छस्सकोसाई' आयामेन षट् सक्रोशानि 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण विस्तारेण 'णव जोयणाई' उद्धं उच्चत्तेणं' नव योजनानि ऊर्ध्वमुत्रत्वेन, अनयोर्वर्णकसूत्रमतिदिशति - ग्रन्थलाघवार्थम् 'अणेगखं भसयस ण्णिविट्ठाओ' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे इत्यादिपदघटितं तद्वर्णनपरं सूत्रं बोध्यम् एतावताऽपरितुष्यन्नाह - 'सभावण्णओ' इति स च जीवाभिगमोतो ग्राह्यः, स चैवम्'अणेगखं भसयस णिविट्ठाओ अब्भुग्गयसुकयवइरवेइया तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिहविसिद्वसंठिपसत्थवे रुलियविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयणख इयउज्जल बहुसमविभत्तइशान (कोण) 'दिसीभाए' दिशा की ओर 'एत्थणं' यहा पर 'जमगाणं देवाणं' यमक देव के 'सुहम्माओ' सुधर्मा नाम की 'सहाओ' दो सभा प्रत्येक की एक एक के क्रम से 'पण्णत्ताओ' कही गई है अब सूत्रकार उसका मानादि प्रमाण कहते हैं- 'अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं' इसका आयाम - लंबाई साडे बारह योजन की है । 'छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं' इसकी चोडाई एक कोस अधिक छ योजन की है- 'णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तें' नव योजन की इनकी ऊंचाई कही है 'अणेग खंभसयसण्णिविट्ठाओ' अनेक स्तंभ शत सन्निविष्ट इत्यादि पद घटित उसका वर्णन समझलेवे ! वह 'सभा वण्णओ' सुधर्मा सभा का वर्णन जीवाभिगम सूत्र में कहे अनुसार ग्रहण कह लेना वहां पर सभा का वर्णन इस प्रकार है 'अणेग खंभसयसन्निविट्ठाओ अन्भुग्गय सुकय वइरवेड्यातोरणवररइयसालभंजिया सुसलिहू विसि संठिय पसत्थ वेरुलियविमलखंभाओ णाणामणिकणगरयण खड्य उज्जल बहुसमसुविभत्तभूमिभायाओ ईहामिग उसभ तुरगणरमगर विहग हिशानी त२३ ' एत्थणं' अड्डी' आगण 'जमगाणं देवाणं' यम देवनी 'सुहम्माओ' सुधर्भा नाभनी 'सहाओ' मे सलामी हरेउनी मे भेठना उभथी 'पण्णत्ताओं' हे छे. हवे सूत्रार तेनु भानाहि प्रमाणु सतावे छे. - ' अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं' ते आयाम-संगाई साडी भार योजननी छे. 'छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं' तेनी पडेा थे! गाउ अधिछ योजननी छे. 'णव जोयणाई उद्ध उच्चत्तेणं' नव येोन भेटला ते या छे. 'अणेगखंभसयसण्णिविट्टाओ' मने४ सेडो स्तलोथी वीटजायेस त्यिाहि यह युक्त तेनुं वन समल सेवु' ते 'सभा वण्णओ' सुधर्भासभानु वर्शन वालिगम સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવુ જોઇએ. જીવાભિગમસૂત્રમાં સભાનું વર્ણન આ પ્રમાણે છે.'अणेगखंभसयसन्निविट्ठाओ अब्भुग्गय सुकय वइरवेड्या तोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्टविसिट्ट संठियपसत्थ वेरुलियविमलखंभाओ णाणामणिकणगर यणखइयउज्जल बहुसम सुविभत्त-भूमिभागाओ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे. भूमिभागाओ ईहा मिगउस भतुर गणर मगर विहगवालगकिन ररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्तिचित्तायो खंभुग्गयव इर वे इयापरिगयाभिरामाओ विज्जाहरजमलजुयल जंतजुत्ताओविव अच्चीसहरसमालणीयाओ रूवगसहस्सकलियाओ भिसमाणीओ भिब्भिसमाणीओ चक्खुल्लो. यणलेस्साओ सुहफासाओ सस्सिरीयरुवाओ कंचणमणिरयणधूभियागाओ णाणाविहपंचवष्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहराओ धवलाओ मरीइकवयं विणिम्मुयंत्रीओ लाउलोइयमहियाओ गोसीससरस सुरभिरत्तचंदणदद्दर दिष्णपंचंगुलितलाभो उवचियचंदण कलसाओ चंदणघड सुकतोरणपडिदुवार देसभागाओ आसत्तोसत्त विउ चट्टग्वारियमल्लदामकलावा ओ पंचवण्णसरससु रहिक एफपुंजीवयारकलियाओ कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुक्क धूवडज्झतम घमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ अच्छरगणसंघविकिण्णाओ दिव्वतुडियस संपणादियाओ सन्यरयणामईओ अच्छाओ जाव पडिख्याओ' इति एतच्छायाबालग किंनर रुरु सरभ चमर कुंजर वणलय पउमलय भत्तिचिताओ खंभुग्गय वइरवेड्या परिगयाभिरामाओ विज्जाहर जमल जुयलजंतजुत्ताओविव अच्ची सहस्समालणीयाओ रूवगसहस्सकलियाओ भिसमाणीओ भिभिसमा णीओ चक्खुल्लोघणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीयरूवाओ कंचण मणिरणधू भियागाओ णाणाविह पंचवण्ण घंटापडायमंडियग्ग सिहराओ धवलाओ मरीइ कबयं विणिम्मुयंताओ लाउल्लोइय महियाओ गोसीस सरस सुरभिरत्तचंदणदद्दर दिष्णपंचंगुलितलाओ उवचियचंदणकलसाओ चंदणघडसुकयतोरण पडिदुबारदेसभागाओ आसत्तोसन्त विउल वह वग्धारिय मल्लदाम कलावाओ पंच वण्ण सरस सुरहि मुक्क पुष्फपुंजीवयारकलियाओ कालागुरुपवरकुंदृरुक्क तुरुक्क धूव डज्यंत मघमघंत गंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवर गंधियाओ गंध भूयाओ अच्छरगण संघ विकिष्णाओ दिव्व तुडिय सद्दसंपणादियाओं हामि उभरगणर मगर विहगवा लग किंनर रुरुसरभचमरकुंजरवणलयप उमलयभत्तिचित्ताओ खंभुगवर वेइयापरिग्गयाभिरामाओ विज्जाहर जमलजुयलर्जतजुत्ताओ विव अच्ची सहरसमालणीयाओ, रूवगसहस्सक लियाओ भिसमाणीओ भिब्भिसमाणीओ चक्खुल्लोयणलेसाओ सुहफासाओ सस्सिरीयरूवाओ कंचमणिरयणभूमिभागाओ णाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहराओ धरलाओ मरीइकवयं विणिम्मुयंताओ लाउल्लोइयमहियाओ गोसीस सरस सुरभि - रतच दणददर दिष्ण पंचगुलितलाओ उचियचंद कलसाओ चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवा रदेसभागाओ आसत्तोसत्त विजलवट्टवग्वारियमल्लदामकलावाओ पंचवण्णसरस सुरहि मुक्कपुप्फपुंजोयाक लियाओ कालागुरुपवरकुंदुरुक्क तुरुकवडज्झतमघमघ तगंधुद्ध्याभिरामाओ सुगंधवरगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ अच्छरगणसंघविकिण्णाओ दिव्व तुडिय सद्दसंपणादियाओ सम्बरणामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ' मनेड से उडे । स्त लोधी युक्त नलु भां રહેલ. સુંદર વજ્રવેદિકાના સુંદર તેારણાની ઉપર શાલભ’છા–પુત્તળીચાની રચના Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २१७ अनेकस्तम्भशतशनिविष्टे अभ्युद्गतसुकृतवनवेदिकातोरणवररचितशालभञ्जिकासुश्लिष्टविशिष्टमंस्थितप्रशस्तवैडूर्यविमलस्तम्भे नानामणिकनकरत्नखचितोज्ज्वलबहुमममुविभक्तभूमिभागे ईहामृगवृषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नररुरुशरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रे स्तम्भोद्गतवज्रवेदिकापरिगताभिरामे विद्याधरयमलयुगलयन्त्रयुक्ते इव अचिः सहस्रमालनीये रूपकसहस्रकलिते भासमाने बाभास्यमाने चक्षुर्लोकनश्लेषे सुखस्पर्श सश्रीकरूपे काञ्चनमणिरत्नस्तूपिकाके नानाविधपञ्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखरे धवले मरीचिकवचं विनिर्मुञ्चन्त्यौ लायितोल यितमहिते गोशीर्षसरससुरभिरक्तचन्दनदईरदत्तपश्चा गुलितले उपचितचन्दनकलशे चन्दनघट मुक्ततोरणप्रतिद्वारदेशभागे आसक्तोत्सतविपुलवृत्तावलम्बितमाल्यदामकलापे पञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते कालागुरुप्रवरकुन्दुसव्व रयणा मईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ' अनेक से कडों स्तंभो से युक्त समीपस्थ सुकृत वज्रवेदिका के श्रेष्ठ तोरण के ऊपर शालभस्त्रिका -पुत्तलिका की रचना वाली अच्छे प्रकारसे संस्थित प्रशस्त वैडूर्यमणि का स्तंभ जिस में हैं ऐसी अनेक प्रकार के मणि, सुवर्ण एवं रत्नों से जिसका भूमिभाग खचित अत एव प्रकाशयुक्त भूमिभाग वाली, ईहामृग वृषभ, तुरग, नर, मगर, विहग, व्यालक, किन्नर, रुरु, शरभ, चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता, के चित्र से युक्त, स्तम्भ के भीतर वनवेदिका होनेसे अत्यंत मनोरम, विद्याधरों के यमल युगलों के यन्त्र युक्त न हो ऐसी सेंकडो किरणों से व्याप्त, हजारों रूपों से युक्त, प्रकाशमान, अत्यंत प्रकाशमान नेत्र से अवलोकनीय सुखद स्पर्शवाले सश्रीक रूपवाली कांचन, मणि एवं रत्नों की स्तृपिका वाली अनेक प्रकार के पंचवर्णवाले घण्टा एवं पताका-ध्वज से जिसका अग्रशिखर परिमंडित है ऐसी श्वेत किरण रूपी कवच को छोडनेवाली लीपी पोती अतः महित-शोभित गोरोचन रससे युक्त ऐसे चंदन के घट से प्रति द्वार में तोरण बनाये हैं जिस में ऐसी वारं वार सिक्त करने से बडि एवं गोलाकार लंबी मालाओं के समूहवालो पांच વાળી સારી રીતે રહેલ શ્રેડ ડૂર્યમણિના સ્તંભ જેમાં છે, એવા અનેક પ્રકારના મણિ. સુવર્ણ તેમજ રત્નોથી જેને ભૂમિભાગ જડેલે છે અને એટલે જ પ્રકાશવાળે છે તથા એકદમ સરખા અને સુવિભક્ત ભૂમિવાળી, ઈહિમૃગ, વૃષભ, તુરગ, નર, મગર, સિંહ, व्यास, (४२, २२, श२० यमरी-आय, हाथी, वनसता, पसताना चित्रोथी युत स्तनमा વા વેદિકા હોવાથી, અત્યંત મનોરમ, ઘિાધરના યુગલે યંત્રયુક્ત જ ન હોય? એવી સેંકડો કિરણથી વ્યાપ્ત, હજારો રૂપથી યુક્ત, પ્રકાશમાન, અત્યંત પ્રકાશમાન આંખેથી જોવા લાયક, સુખદ સ્પર્શવાળી, શ્રીકરૂપવાળી, કાંચન, મણિ તથા રત્નોની તૃપિકાવાળા અનેક પ્રકારના પાંચ વર્ણવાળા ઘંટા તેમજ પતાકા-ધજાઓથી જેને અગ્રભાગ શોભાય માન છે, એવી, ધોળા કિરણરૂપી કવચને છેડવાવાળી, લીપેલ તથા ધૂળેલ, અને તેથી જ મહિ -શેભિત ગોરોચન રસથી યુક્ત એવા ચંદનના ઘડાઓથી દરેક દ્વારમાં તેરણું Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे रुष्कतुरुष्कधूपदह्यमानमघमघायमानगन्धोद्भूताभिरामे सुगन्धवरगन्धिते गन्धवर्तिभूते अप्स - रोगणगङ्घविकीर्णे दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रनदिते सर्वरत्नमय्यौ अच्छे यावत् प्रतिरूपे' इति, एतव्याख्या चतुर्दशपञ्चदशसूत्रोक्तसिद्धाय तनवर्ण का नुसारेण बोध्या, तत्र नपुंसकत्वेनैकत्वेन च पदनिर्देशः, अत्र स्त्रीत्वेन द्वित्वेन च पदनिर्देश इति तत एतावान् भेदोऽन्यत्सर्वं समानम् । नवरम् - अप्सरोगणसङ्घविकीर्णे - अप्सरोगण - अप्सरः परिवारास्तेषां सङ्खेन समुदायेन विकीर्णे वि-सम्यक् - शोभनतया कीर्णे व्याप्ते तथा दिव्यत्रुटितशब्दसंप्रनदिते - दिव्यानां - दिवि भवानाम् त्रुटितानां - वाद्यानां ये शब्दास्तैः सम्- सम्यक् प्र-प्रकर्षेण नदिते- शब्दिते सर्वरत्नमय्यावित्यादि प्राग्वत् । अथ तयोः समयोः कति द्वाराणि सन्तीत्याह - 'तासि णं सभाणं' इत्यादि - 'तासि णं सभाणं सुद्दम्माणं' तयोः- सुधर्मयौः खलु सभयोः 'तिदिसि' त्रिदिशि- तिसृषु दिक्षु 'ओ वर्ण वाले सरस सुगन्धित पुष्पों के पुञ्ज से लक्षित, जलते कालागरु श्रेष्ठ कुंदुरुक, तुरुष्क, के धूप से मघमघायमान गंधसे अभिराम श्रेष्ठ सुगंधसे सुगन्धित गंध की गुटिका समान अप्सराओं के संघ द्वारा विकीर्ण दिव्य त्रुटित शब्द से शब्दायमान सर्व प्रकार से रत्नमयी अच्छ यावत् प्रतिरूप, आदि व्याख्या चौदहवें एवं पंद्रहवें सूत्र में वर्णित सिद्धायतन वर्णन के अनुसार समज लेवें । वहाँ पर नपुंसकत्वसे और एकवचन से वर्णन किया है। यहां पर स्त्री लिंग एवं द्वि. वचन से कहना चाहिए, इतना ही वहां का वर्णक के साथ भेद है, अन्य सब समान है विशेष यह है - ' अप्सरोगणसङ्घविकीर्णे' अप्सराओं के संघ समुदाय से व्याप्त, दिव्य त्रुटित शब्द से शब्दायमान, सर्व रत्नमय इत्यादि प्राग्वत् वर्णित कर लेवें । अब वे सुधर्म सभा के कितने द्वार थे वह सूत्रकार कहते हैं- 'तासिं णं सभा णं सुहम्माणं' वे सुधर्मसभा के 'तिदिसि' तीनों दिशाओं में 'तओ दारापण्णत्ता' મનાવેલ છે. એવી તથા વારંવાર છંટકાવ કરવાથી માટી અને ગેાલાકાર લાંખી માળાઓના સમૂહથી, પાંચ વર્ષોંવાળા સરસ સુગ ંધિત પુષ્પાના પુ ંજ-સમૂહથી જોવાતી કાલાગુરૂ, ઉત્તમ કુ દુષ્ક, તુરૂષ્કના ધૂપથી મઘમઘાયમાન ગંધથી અભિરામ, શ્રેષ્ઠ સુગ ધથી સુગ'ધિત ગંધની ગાળી સરખા, અપ્સરાઓના સમૂહ દ્વારા વેરાયેલ દિવ્ય ત્રુટિતના શબ્દોથી શાયમ'ન સવ રીતે રત્નમય અચ્છ યાવત્પ્રતિરૂપ વિગેરે વ્યાખ્યા ચૌદમા અને પંદરમાં સૂત્રમાં વર્ણવેલ સિદ્ધાયતનના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવી. ત્યાં નપુ ંસકથી અને એક વચનથી વન કરેલ છે, અને અહિયાં સ્ત્રીલિંગ અને દ્વિવચનથી હેવાનું છે. એટલેા જ એ वर्षानथी आ वर्षानमा ३२२ ४२वाना है. विशेषता या प्रमाणे छे. - ' अप्सरोगणसंघविकीर्णे' अप्सराओना समुहारथी व्याप्त, दिव्य, त्रुटितना शण्डोथी शब्दायमान सर्व रत्नમય ઇત્યાદિ પહેલાની જેમ વર્ણન કરી લેવુ. हवे सुधर्भ सलाना डेंटला द्वारा छे ? मे सूत्रभर हे छे.- 'तासिंणं सभाणं सुहम्मा णं' मे सुधर्भ सलानी 'तिदिसि' भणे हिशाभां 'ताओ द्वारा पण्णत्ता' त्र हरवालो Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् दारा पण्णत्ता' त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तेषां मानाद्याह- ते णं दारा' तानि खलु द्वाराणि 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'जोयणं विक्खंभेणं' योजनं विष्कम्भेण-विस्तारेण, 'तावइयं चेव तावदेव-योजनप्रमाणमेव 'पवेसेणं' प्रवेशेन-सभान्तःप्रवेशस्थलावच्छेदेन प्रज्ञप्तानीति पूर्वेण सम्बन्धः, त्रीण्यपि 'सेया वण्णओ' वर्णेन श्वेतानि-शुक्ल. वर्णानि, इत्युपलक्षणं सम्पूर्णद्वारवर्णकस्य एतदेवाह-वर्णकः-सम्पूर्णों वर्णनपरः पदसमूहोऽत्र बोध्यः, स च किम्पर्यन्तः ? इत्याह-'जाव वणमाला' यावद् वनमाला-वनमालापदपर्यन्तः, अयं वर्णकोऽष्टमसूत्राद्विजयद्वारवर्णकानुसारेण सन्याह्यः, ___अथ मुखमण्डपादि षट्कं निरूपयितुमाह-'तेसि गं' इत्यादि-'तेसि णं' तेषाम्-अनन्तरोक्तानां खलु त्रयाणां 'दाराणां पुरओ' द्वाराणां पुरतः-अग्रे 'पत्तेयं२' प्रत्येकम्२-एकैकस्य 'तओ मुहमंडवा' त्रयो मुखमण्डपा:-मुधर्मासभाद्वाराग्रवतिनो मण्डपा:-देवजनाश्रयाः 'पण्णत्ता' तीन द्वार कहे हैं 'ते णं दारा' वे द्वार 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तण' दो योजन के ऊंचे 'जोयणं विक्खंभेणं' एक योजना इनका विस्तार है, 'तावइयं चेव पवेसेणं' इतना ही इनका प्रवेश कहा है । तीनों द्वार 'सेया वण्णओ' श्वेतवर्ण वाले कहे हैं । यहां पर श्वेत पद उपलक्षण है अतः संपूर्ण द्वार का वर्णन करने वाले पद समूह यहां कहलेवें । वह वर्णन कहां तक कहना चाहिए ? इस शंका की निवृत्ति के लिए कहते है 'जाव वणमाला' वनमाला पद पर्यन्त वर्णन यहां ग्रहण करलेवें। वह वर्णन आढवे सूत्र में विजय द्वार वर्णन में कहा है अतः तदनुसार यहां पर वर्णित करलेवें। __ अब सूत्रकार मुखमण्डपादि का निरूपण करते है 'तेसिं णं दाराणं' आगे कहे गए तीनों द्वारों के 'पुरओ' आगे 'पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक के 'तओ मुहमंडवा' तीन मुख मण्डप-सुधर्म सभाके द्वारके आगे रहे हुवे मण्डप 'पण्णत्ता' कहे हैं४ा छे. 'तेणं दारा' दो। 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेण' में योजना या 'जोयण विखंभेण' से २८ तना विस्तार छ. 'तावइयं चेव पवेसेणं' मेरो १ मेना प्रवेश ४ छ. ये ऋणेय वारे। 'सेया वण्णओ' घाना डावानु ४ह्यु छ, અહિંયાં શ્વેત પઢ ઉપલક્ષણ છે. તેથી સંપૂર્ણ કારોનું વર્ણન કરનારા પદસમૂહ અહીં કહી લેવા જોઈએ એ વર્ણન કયાં સુધી કહેવાનું છે ? એ આ શંકાના સમાધાન भाट सू४२ ४३ छ. 'जाव वणमाला' बनमारा ५४ सुधीन से न ही अ श લેવું. એ વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજય દ્વારના વર્ણન પ્રસંગમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેથી તેના વર્ણન પ્રમાણે અહીં વર્ણન કરી લેવું. वे सूत्र४२ भृमम पाहनु नि३५४ ४२i ४३ छ-'तेसिंणं दाराण' मा ४सा त्रा द्वारानी 'पुरओ' मा 'पत्तेयं पत्तेयं' हरेन। 'तओ मुहमंडवा' ऋण भुम भ७५ मेट सुधम समाना दारी २मा । भ७५ 'पण्णत्ता' । छे. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे प्रज्ञप्ताः, तेषां मानाद्याह-'ते णं मुहमंडवा' ते खलु मुखमण्डपाः, 'अद्धतेरसजोयणाई' अर्द्धत्रयोदशयोजनानि-सार्दद्वादशयोजनानि 'आयामेणं'-आयामेन-दर्पण, 'छस्तकोसाई' पद सक्रोशानि-एकक्रोशसहितानि 'जोयणाई विक्खंभेणं' योजनानि विष्कम्भेण-विस्तारण, 'साइरेगाई' सातिरेके-किश्चिदधिके 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेनउन्नतत्वेन प्रज्ञप्ता इति पूर्वेण सम्बन्धः, एतेषां मुखमण्डपानामपि 'अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा' इत्यादिवर्णनं सुधर्मासभानुसारेण बोध्यम् तच्च किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव दारा' इत्यादि, 'जाव दारा' यावद् द्वाराणि-मुखमण्डपानां द्वाराणि 'भूमिमागायंति' भूमि भागांश्चाभिव्याप्य वर्णनं बोध्यम् । यद्यप्यत्र सभावर्णनं द्वारपर्यन्तमेव तथैव मुखमण्डपमूत्रेऽपि द्वारपर्यन्तमेववर्णनमायाति तथाऽपि भूमिभागपर्यन्तवर्णनमत्रोक्तं, जीराभिगमादिषु मुखमण्डपवर्णकप्रसङ्गे भूमिभागवर्णकदर्शनात् , अब उनके मानादि कहते हैं-'तेणं मुहमंडवा' वे मुखमंडप 'अद्ध तेरस जोय. णाई आयामेणं' साडे बारह योजन लम्बे है 'छास कोसाई' एक कोष सहित छह 'जोयणाई विक्खंभेणं' योजन विष्कंभ वाले है अर्थात् इतना चौडा है । 'साइरे गाइं दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' कुछ अधिक दो योजन के ऊंचे कहे है । इन मुखमण्डपों के भी 'अनेक से कडों स्तम्भोंसे युक्त' इत्यादि वर्णन सुधर्मा सभा के वर्णनानुसार समज लेवें । वह वर्णन कहां तक का यहां ग्रहण करना चाहिए? इसके समाधानार्थ कहते हैं-'जाव दारा' यावत द्वारवर्णन 'एवं भूमिभागायंति' एवं भूमिभाग के वर्णन पर्यन्त गृहीत कर लेना। यद्यपि यहाँ सभाका वर्णन द्वार पर्यन्त ही आता है अतः मुखमण्डप सूत्र में भी द्वार पर्यन्त ही वर्णन आसकता है तथापि यहां भूमि भाग पर्यन्त कहा है वह जीवाभिगमादि में मुखमण्डप वर्णन प्रसङ्ग, में भूमिभाग का वर्णन देखने में आता है अतः ऐसा कहा है। व तना मानानु थन ४२ छ-'तेणं मुहमंडवा' त भुणभयो 'अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं' सा। मा२ यान 26i ail छ. 'हस्सकोसाइ' ४ ३।स साथ छ 'जोयणाई विखंभेणं' या नना विrt युद्धत छ. अर्थात् सेटमा तेनी पडाणाछ 'साइरेगाइं दो जोयणाई उद्ध उच्चत्तणं' ४७ धारे मे योनी तनी या ४ी छे. એ મુખમંડપમાં પણ અનેક સેંકડો સ્તંભેથી યુક્ત છે. ઇત્યાદિ વર્ણન સુધર્મસભાના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું. એ વર્ણન ક્યાં સુધીનું અહિયાં ગ્રહણ કરવું જોઈએ તેના समाधान भाटे ४ छ-'जाव दारा' यावत् द्वार पन एवं भूमिभागाति' भूमिमाना વર્ણન પર્યન્ત એ વર્ણન ગ્રહણ કરી લેવું. જોકે અહીં સભાનું વર્ણન દ્વારા પર્યત જ આવે છે. તેથી મુખમંડપ સૂત્રમાં પણ દ્વાર પર્વતનું જ વર્ણન આવી શકે છતાં અહિં જે ભૂમિભાગ પર્યન્ત લેવાનું કહેલ છે તે વાભિગમ વગેરેમાં મુખમંડપ વર્ણનના પ્રસંગમાં ભૂમિભાગનું વર્ણન Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २२१ ar raat प्रेक्षामण्डप वर्णक माह - 'पेच्छाघरमंडवाणं' इत्यादि - 'पेच्छाघर मंडवाणं' प्रेक्षागृह - नाट्यशाला तस्य मण्डपानां 'तं चेव' तदेव मुखमण्डपोक्तमेव 'पमाणं' प्रमाणम् - आयामविष्कम्भोचत्व लक्षणं मानम् बोध्यम् तथा 'भूमिभागो' भूमिभागः- द्वारादारभ्य भूमिभागपर्यन्तं सर्वं वस्तु वनीयम् एषु च 'मणिपेढिया मत्ति' मणिपीठिका:- मणिमयासनविशेषा अपि वर्णनीया इति, एतावदर्थसूचकं सूत्रं चैत्रम् " 'सिणं मुहमंडवाणं पुरओ पत्तेयं २ पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता ते णं पेच्छाघरमंडवा अद्धतेरसजोयणाई' आयामेणं जाव दो जोयणाई उद्धं उच्चतेणं जाव मणिफासो, तेसि णं बहुमज्झदेसमाए पत्तेयं२ वइरामया अक्खाडया पण्णत्ता, तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ'ति, एतच्छायाऽथ सुगमौ, नवरम् - अक्षपाटका :- अक्षपाटा एवाक्षपाटकाः, ते च चतुष्कोणारस्राकारा मणिपीठिकाधारविशेषा भवन्तीति परिचयः, अब संक्षेप करने के लिए प्रेक्षामंडप का वर्णन कहते हैं- 'पेच्छाघरमंडवाणं' प्रेक्षागृह - नाटयशाला के मंडपों का 'तं चैव पमाणं' मुखमंडप के जितना ही प्रमाण है अर्थात् आयाम विष्कंभ उच्चत्वादि प्रमाण मुख मंडप के जितना : ही है । 'भूमिभागो' द्वार से लेकर भूमिभाग पर्यन्त सब वर्णन करना चाहिए और उस में 'मणिपेढियाओत्ति' मणिमय आसन विशेष का भी वर्णन करलेवें । वह बताने वाला सूत्रपाठ इस प्रकार है- 'तेसिणं मुहमंडवाणं पुरओ पत्ते २ पेच्छाघर मंडवा पण्णत्ता, तेणं पेच्छाघरमंडवा अद्ध तेरस जोयणाई आयामेणं जाव दो जोगणाई उद्धं उच्चत्तेनं जाव मणि फासो, तेसिं णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वहरामया अक्खाड्या पण्णत्ता तेसिणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं २ मणिपेढियाओ पण्णत्तेत्ति' अर्थ सुगम है । अक्षपादक --- चतुष्कोण अस्त्राकार मणिपीठिका आधार विशेष को कहते हैं કરેલ જોવામાં આવે છે. તેથી એ પ્રમાણે ગ્રહણ કરવાનું કહેલ છે. હવે સક્ષેપ કરવા भाटे झामंडप वर्शन उरे छे- 'पेच्छाघर मंडवाणं' प्रेक्षाગૃહ-નાટક शाणाना भडयोनु 'तं चेत्र पमाणं' भुखमंडप भेट प्रभाणु उडेल छे. અર્થાત્ આયામ વિખુંભ ઉચ્ચત્વાદિ પ્રમાણુ મુખ મંડપના પ્રમાણ જેટલું જ છે. ‘ભૂમિ भागो' द्वारी सई ने भूमिभाग पर्यन्त सघणु वार्जुन पुरी सेवु, अने तेमां 'मणिपेढिया ોત્તિ' મણિમય આસન વિશેષ નું વર્ણન પણ કરી લેવું. તે વર્ણન દર્શોક સૂત્રપાઠ प्रमछे 'तेसिंग मुहमंडपाणं पुरओ पत्तंय पत्तेय पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता तेणं पेच्छा घर मंडवा अद्धतेरस जोयगाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उद्ध उच्चत्तेनं जाव मणि फोसो, तेसिं णं बहुमज्झसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अक्खाडया पण्णत्ता, तेसिं णं बहु मज्झसभाए पत्तेयं पत्तेय मणिपेढियाओ पण्णत्तेत्ति' मा सूत्रपातो अर्थ सरण छे. अक्षर પાટ–ચાર ખુણાવાળા અસ્રાકાર મણિપીઠિકાના આધાર વિશેષને કહે છે. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - = जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तासां मणिपीठिकानां मानाद्याह-'ताओ णं' इत्यादि-'ताओ णं' ता:-अनन्तरोक्ताः खलु 'मणिपेढियाओ' मणिपीठिकाः 'जोयणं' योजनम्-एकं योजनम् 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य विस्ताराभ्याम्, 'अद्धजोयणं' अर्द्धयोजनं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, ताः पुनः 'सव्वमणिमईया' सर्वमणिमय्या-सात्मना-स्फटिकमरकतादि-मणिमययः, 'सीहासणा भाणियव्या' सिंहासनानि भणितव्याः, प्रज्ञप्ता इति पूर्वेण सम्बन्धः, __'तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ' तेषां खलु प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतो 'मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः 'ताओ णं मणिपेढियाओ दो जोयणाई' ताः खलु मणिपीठिकाः द्वे योजने 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण 'जोयणं बाहल्लेणं' योजनं बाहल्येन 'सव्वमणिमईओ' सर्वमणिाय्यः, अथ तन्मणिपीठिकोपरितनान् स्तूपान् वर्णयितुमाह'तासि णं' इत्यादि-'तासि णं' तासां खलु मणिपीठिकानाम् 'उप्पिं पत्तेयं२' उपरि प्रत्येकम्२-एकैकस्या मणिपीठिकायाः 'तओ' त्रयः-त्रिसंख्यकाः 'थूभा' स्तूपाः स्मृतिस्तम्भाः ____ अब मणिपीठिका के मानादि को कहते हैं-'ताओणं मणिपेढियाओ' आगे कही गई मणिपीठिका 'जोयणं आयामविक्खंभेणं' एक योजनलंबि चौडी है अद्ध जोयणं बाहल्लेणं' आधा योजन मोटी है 'सव्वमणिमइया' सर्वात्मना स्फटिक, मरकत आदि मणिमय है 'सीहासणा भाणियव्वा' यहां सिंहासन कहेगए हैं। तेसिंणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ' उनं नाट्यशालाओं के आगे 'मणिपेढियाओ पणत्ताओ' मणिपीठिका कही गई है । 'ताओणं मणिपेढियाओं दो जोयणाई' वे मणिपीठिकाएं दो योजन का 'आयाम विक्खंभेणं' आयाविष्कंभ वाली कही हैं 'जोयणं बाहल्लेणे' एक योजन इतनी मोटाई है। 'सव्व मणिमईओं' सर्वात्मना मणिमय है। । अब उन मणिपीठिका के ऊपर के स्तंभ का वर्णन करते हैं-'तासिंणं' उन मणिपीठिका के 'उप्पि' ऊपर 'पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक के 'तओ थूभा पण्णत्ता' तीन ३. मणिपाना भानाहिन ४थन ३२ छ-'ताओणं मणिपेढियाओ' ले भनि पी.81 'जोयणं आयामविक्खंभेणं' से यौन २८वी समी पडणी छे. 'अद्ध जोयण बाहल्लेण' अर्धा येनन विस्तार पाणी छे. 'सव्वमणिमइया' सर्वशते २५८४, भर४त विगैरे माणभय छे. 'सीहासणा भाणियव्वा' अखियां सिडासनानु ४थन ४श . _ 'तेसिंणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ' के नाटयशानी मा 'मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' महिपा४ि. ४९३ छ 'ताओणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई' मे महिषा में यानी 'आयामविक्खंभे' मायाम वि०४ पाणी छे. 'जोयणं बाहल्लेण' ४ यानी विस्तृत छे. 'सव्व मणिमइओ' सशते महिमय छे. वे से भरिपी81 6५२ना स्तमनु पनि ४२वामां आवे छे.-'तेसिणं' से भरि पानी 'उप्पि' 6५२ 'पत्तेय पत्तेय' प्रत्ये:ना 'तओ थूभा पण्णत्ता' २९। स्तन Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २२३ प्रज्ञप्ताः, जीवाभिगमादौ तु चैत्यस्तूपा इति पाठः 'तेणं थूभा ते स्तूपाः खलु द्वे 'जोणणाई' योजने 'उद्धं उच्चत्तेणं' अध्वंमुच्चत्वेन 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं' द्वे योजने आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य-विस्ताराभ्याम् , तत्र द्वे योजने देशोने ग्राह्ये अन्यथा मणिपीठिकातदुपरितनस्तूपयोः समानमानता स्यात् , जीवाभिगमादौ तु सातिरेके द्वे योजने उच्चत्वेन ते वर्णिताः, ते च स्तूपाः 'सेवा' श्वेताः-श्वेतवर्णाः, श्वेतत्वमेवोपमया दृढी करोति-'संख. तल जाव' शङ्कतलयावदिति-यावत्पदेनात्र-शङ्ख-दल शब्दघटितं पदं बोध्यम् तथा च 'शङ्खतलविमलनिर्मलदधिधनगोक्षीरफेनरजतनिकरप्रकाशः' इति ग्राह्यम् , तत्र शङ्खतलं-तदेव विमलं स्वच्छवण, प्राकृतत्वादिह विशेषणपरप्रयोगः, विमलशङ्खतलमिति पर्यवसितम् -निर्मलदधिधनः- स्वच्छगाढदधि गोक्षीरफेन:-गोदुग्ध फेनः रजतं-रूप्यम् एतेषां यो निकरःसमूहस्तस्य प्रकाश इव प्रकाशो येषां ते तथा-निर्मलशङ्खतलादि समूहसदृशश्वेतवर्णाः ते पुन: सर्वरत्नमयाः अच्छा यावत् प्रतिरूपाः' इति प्राग्वत् किम्पर्यन्तं ग्राह्यमित्याह-'अट्टमंगलगा' तीन स्तंभ कहे गए हैं । अर्थात् स्मृति स्तंभ कहे हैं। जीवाभिगम में चैत्य स्तूप ऐसा पाठ है 'तेणं थूभा' वे स्तंभ 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं' दो योजन ऊपर ऊंचे थे । 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं' दो योजन का इनका विस्तार हैं। वहां दो योजन देशून ग्राह्य है अन्यथा मणिपीठिका एवं उसके ऊपर के स्तुप का समान मान हो जायगा. जीवाभिगमादि में तो सातिरेक कुछ अधिक दो योजन कहकर वर्णित किया हैं । वे स्तूप 'सेया' श्वेत कहे हैं वे किस प्रकार की श्वेतता वाले हैं उसके लिए कहते हैं-'संखतल जाव' संखके तल के समान यावत् निर्मल दही के समान घन गाय के दूधके फेन के समान चांदी के ढेर के समान श्वेत है । वे सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छ यावत् प्रतिरूप इत्यादि पहले कहे अनुसार समजलेवें वह वर्णन कहां तक गृहण करे ? इसके लिए कहते हैं-'अट्ठ કહેલા છે, એટલે કે ત્રણ સ્મૃતિ સ્તંભે કહ્યા છે. જીવાભિગમમાં ચિત્યસ્તૂપ એ પ્રમાણેને ५४ . 'तेणं थूभा' थे. स्तनो 'दो ज़ोयणाई आयामविनखंभेण' मे. या रेसो तना मायाभविष्४ . 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' 2 योन 20 अया छे. महीयां આ બે પેજને કંઈક ન્યૂન ગ્રહણ કરવાના છે, નહીંતર મણિપીઠિકા અને તેની ઉપરના સ્તૂપનું સરખું માપ થઈ જશે. જીવાભિમ વગેરેમાં સાતિરેક-કંઈક વધારે બે એજન से प्रमाणे ४ही पनि ४२२ मा मावेस छ. से स्तू५ 'सेया' स३ उपमा माया छे. ते वा प्रा२नी सहा वाणा छे. ते मतावा भाटे सूत्र.२ ४९ छ.-'संखतल जाव' શંખના તળિયા સરખા અહિંયા યાવત્ પદથી નિર્મળ દહીંની સમાન ગાયના દૂધના ફીણની સમાન ચાંદીના ઢગલાની સમાન એ સફેદ છે. એ સ્તૂપ સર્વાત્મના રત્નમય છે. અચ્છ યાવત્ પ્રતિરૂપ ઈત્યાદિ વિશેષણો પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવાં. એ વર્ણન मडियां यां सुधानुग्रहण ४२वानु छ ३ माटे सूत्रार ४ छे. 'अट्ठ मंगलगा' मा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अष्टाष्टमङ्गलकानीति--अष्टाष्टमङ्गलकानीत्येतत्पदपर्यन्तम् । ___ अथ तत्स्तूपचतुर्दिशि यदस्ति तदाह-'तेसि णं शूभाणं चउद्दिषि' तेषां खलु स्तूपानां चतुर्दिशि-चतसृषु दिक्षु 'चत्तारि मणिपेढियाओ एण्णत्ताभी' चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, तासां मानमाह-'ताओणं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविखंभेग ताः खलु मणिपीठिकाः योजनम् आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्यविस्ताराभ्याम् , 'अद्धजोयणं बाहल्लेणं, अर्द्धयोजनं बाहल्येन-पिण्डेन, अत्र मणिपीटिकासु 'जिणपडिमाओ' जिनप्रतिमा:-जिनप्रतिकृतयो 'वत्तवाओ' वक्तव्याः , तत्सूत्रमेवम्-'तासि णं मणिपेढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिनपडिमाओ जिणुस्सेहप्पमाणमित्ताओ पलियंकसणि सण्णाओ थूभाभिमुहीओ चिटुंति, तं जहा-उसभा१ वद्धमाणा२ चंदाणणा३ वारिसेणा' एतच्छायाऽौँ सुगौ । एतद्वर्णनादिकं वैताढयपर्वतीय सिद्धायतनाधिकारे पूर्वमभिहितम् । । । इति स्तूपवर्णनम् ॥ मंगलगा' आठ आठ मंगल द्रव्य यह पद पर्यन्त समझ लेवें। __ अब वह स्तूप के चारों तरफ चार मणिपीठिकादि कहते हैं-'तेसिणं थूभार्ण चउद्दिसिं' वह स्तूप के चारों ओर 'चत्तारि मणिपेठियाओ पण्णत्ताओ' चार मणिपीठिकाएं कही गई है। 'ताओणं मणिपीढियाओ' वे मणिवीठिकाएं 'जोयणं आयामविक्खंभेणं' एक एक योजन की लंबी चौडी हैं । 'अद्ध जोयण बाहल्लेणं' आधे योजन की मोटी हैं इन मणिपीठिका में 'जिण पडिमाओवत्तवाओ' जिन प्रतिमा कहनी चाहिए । उसका सूत्रपाठ इस प्रकार का है-'तासिंणं मणिपेढिया ण उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणपडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमित्ताओ पलियंक सण्णिसण्णाओ थूभाभिमुहीओ चिट्ठति तं जहा-उसभा १ बद्धमाणा २, चंदाणणा ३ वारिसेणा ४ इसका अर्थ सुगम है। यह वर्णनादि वैताढय पर्वत में सिद्धायतन के वर्णन में पहले कहा हैं तदनुसार यहां पर वर्णित करलेवें। स्तूप वर्णन समास આઠ મંગલ દ્રવ્ય કહેલ છે. એ પાઠ પર્યન્ત એ કથન ગ્રહણ કરી લેવું. से स्तूपनी थारे पाणु या२ माथीहनु ४थन ४२वामां आवे छ.-'तेसि ण थभाणं चउद्दिसिं' से स्तूपनी न्यारे या 'चत्त रि मणिपीढियाओ पण्णत्ताओ' या मशि. पीडायोड छ. 'तओगं मणिपेढियाओ' २ मणीय 'जोयणं आयाम विक्खंभेणं' सस योसी दणी मने पाणी छे. 'अद्वजोयणं बाहल्लेणं' अर्धा येन की विस्त छ, ये मणिपीमा 'जिणपडिमाओ पण्णत्त ओ' 9 प्रतिमा ४८ . तन। सूत्रपा४ मा प्रमाणे छे. 'तासिंणं मणिपेढियाणं प पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिणएडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमित्ताओ पलियकसण्णिसण्णाओ थूभाभिमुहीओ चिदंति, तं जहाउसभा १ वद्धमाणा २ चंदाणणा ३ वारिसेणा ४' । पाने अथ स२स छ मेथी मापेस नथी. मा વર્ણન પહેલાં સિદ્ધાયતનના વર્ણનમાં કહેલ તે પ્રમાણે અહિંયાં પણ વર્ણન કરી લેવું. તૂપવર્ણન સમાપ્ત Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योवर्णनम् २२५ ___ अथ चैत्यवृक्षान् वर्णयितुमुपक्रमते-'चेइयरुक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं' चैत्यवृक्षाणां मणिपीठिकाः द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण योजनं बाहल्येन-पिण्डेन अत्र सम्पूर्णः 'चेइयरुक्खवण्णओत्ति' चैत्यवृक्षवर्णको वक्तव्यः स च जीवाभिगमप्रोक्तोऽत्र न्यस्यते-'तेसि णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारुवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा- वइरमूलरययमुपइट्ठियविडिमा रिद्वामयकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजायवरजायरूवपढमविसालसाला णाणामणिरयण विविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा विचितमणिरयणमुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया स उज्जोया अमयरससमरसफला अहियमणनयणणिव्वुइकरा पासाईया जाव पडिरूवा४' इति, एतच्छाया-तेषां खलु चैत्यवृक्षाणामयमेतद्रपो वर्णावास: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमूलरजतमुप्रतिष्ठितबिडिमाः रिष्टमयकन्दवैडूर्यरुचिरस्कन्धाः सुजातवरजातरूपप्रथमविशालशालाः नानामणिरत्नविविधशाखाप्रशाखावैडूर्यपत्रतपनीयपत्रवृन्ताः जाम्बूनदरक्त__ अब सूत्रकार चैत्यवृक्षका वर्णन करते हैं-'चइयरुक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेण' चैत्यवृक्ष की मणिपीठिका का आयाम विष्कम्भ-लंबाइ चोडाइ दो योजन की है एवं एक योजन की मोटाई है। 'चेइयरुक्खवण्णओ' यहां पर सम्पूर्ण जीवाभिगम में कहे अनुसार कहना चाहिए, जो इस प्रकार है-'तेसिंणं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तं जहा वहरमूलरयय सुपइष्ट्रिय बिडिमा रिट्ठामयकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजायवरजायरूव पढमविसालसाला णाणामणिरयणविविहसाहप्पसाह देरुलिय पत्ततवणिज्जपत्तवेंटा, जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लववरंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया, सप्पभा, सस्सिरीया सउज्जोया, अमयरससमरसफला अहियमणणयणनिव्वुइकरा पासाईया, दरिसणिजा जाव पडिरूवा ४ इति । वे सूत्र।२ चैत्यवृक्षनु न ४२ छ. 'चेइयरूक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं' चैत्यक्षनी मणियानो मायाम (AExams पामे योनी छे. तथा योगनना (धेरा१) विस्तारवाजी छे. 'चेइयरुक्खवण्णओ' અહીંયાં સંપૂર્ણ ચિત્યવૃક્ષનું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. એ વર્ણન જીવાભિગમસૂત્રમાં કહ્યા प्रमाणे ४ी से. रे । प्रमाणु छ-'तेसिंणं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' तं जहा-वइरमूलरयय सुपइट्ठियविडिमा रिट्टामयकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजाय-वरजाय रूव पढमविसालसालो णाणामणिरयण विविह साहप्पसाह वेरुलिय पत्ततवणिज्जपत्तवेंटा, जंबूणयरत्त मउयसुकुमालपवालवरंकुरधरा, विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला, सच्छाया, सप्पभा, सस्सिरिया, सउज्जोया, अमयरससमरसफला, अहिय मणणयण णिव्वुइकरा पासाइया दरिसणिज्जा जाव पडिरूवा, ४ इति Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D २२६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मृदुकसुकुमारप्रवालपल्लववराङ्करधराः विचित्रमणिरत्नसुरभिकुसुमफलभरणमितशालाः सच्छायाः, सत्प्रभाः, सश्रीकाः सोधोताः अमृतरससमरसफलाः अधिकमनोनयननितिकराः प्रासादीयाः यावत् प्रतिरूपाः' इति, एतद्व्याख्या-'तेसि गं' इत्यादि-तेषां खलु चैत्यवृक्षाणां-स्तूपवृक्षाणाम् अयमेतद्रूपा-अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपः वर्णावासः वर्णनक्रमः, प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमयरजतसुप्रतिष्ठितविडिमाः-वज्राणि एव वज्ररत्नमयानि मूलानि येषां ते वज्रमूलाः ते च ते रजतमुप्रतिष्ठितविडिमाः- रजतमेव रजतमयी सुप्रतिष्ठिता-मुष्ठु प्रतिष्ठिता अवस्थिता विडिमा अत्यन्तमध्यदेशभागे ऊर्ध्वनि मृतशाखा येषां ते तथाभूताश्चेति तथा, रिष्टमयकन्दवैडूर्यरुचिरस्कन्धा:-रिष्टमयः-रिष्टरत्नमयः कन्दो येषां ते रिष्टमयकन्दाः, ते च ते वैडूर्यरुचिरस्कन्धाः-वैडूर्यमेव-वैइयमयः रुचिरः शोभातः स्कन्धो येषां ते तथाभूताश्चेति तथा, सुजातवरजातरूपप्रथम विशालशाखा:-मुजातं मूलद्रव्यशुद्धं वरं-प्रधानं च यज्जातरूपं रजतं तदेव तन्मयी प्रथमा-मूलभूना, विशाला:-विस्तारयुक्ताः शाला:-शाखा येषां ते तथा, नानामणिरत्नविविधशाखावैडूर्यपत्रतपनीयवृन्ताः-नानामणिरत्नान्येव - नानामणिरत्नमय्यः विविधा:-अनेकप्रकाराः शाखा:-मूर.शाखा निःसतशाखाः प्रशाखा:-शाखानिःसृतशाखाः येषां ते तथाभूताश्च ते वैडूर्यपत्राः वैडूर्याण्येव-वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथाभूताश्च ते तपनीयवृन्ताः तपनीयानि-सुवर्णानि तान्येव-तन्मयानि वृन्तानि-प्रसवबन्धमानि येषां ते तथाभूताश्चेति तथा, जाम्बूनदरक्तमृदुकसुकुमारप्रवालपल्लववराङ्कुरघरा:-जाम्बूनदानि तनामकस्वर्णविशेषाः, तान्येव-तन्मया रक्ताः-रक्तवर्णाः मृदुकसुकुमारा:-मृदुकाः मृदव एव मृदुकास्तेषु-सुकुमारास्तथा-अत्यन्तकोमलाः प्रवाला:-ईषदुन्मीलितपत्रभावरूपाः पल्लवा:-संजात. उन स्तुप वृक्षों के वर्णन प्रकार इस प्रकार है-वज्रमय रजत सुप्रतिष्ठित इस की विडिमा-शाखाएं हैं । अर्थात् वज्ररत्नमय मूल प्रदेश रजत से सूप्रतिष्ठित शाखाएं हैं एवं वे शाखाएं बहुत ऊंची उठि हुई है। रिष्ट रत्नमय उनका कंद है, वैडूर्यरत्नमयरुचिर स्कंध है। सुंदर जातरूप-चांदी मय विस्तारयुक्त प्रथम शाखा. वाले, अनेक प्रकार के रत्नमय विविध शाखाबाले, दैडूर्य रत्नसरीसे पत्तेवाले, सुवर्णमय वृन्तवाले जंणूनद नाम के सुवर्णमय रक्तवर्णवाले कोमल अतएव सुकु. मार-अत्यन्त कोमल प्रवाल से युक्त, कुछ जुके हुवे पल्लव से युक्त, सुंदर अंकुर - એ સ્તૂપ વૃક્ષને વર્ણન પ્રકાર આ પ્રમાણે છે–વામય રજત સુપ્રતિષ્ઠિત તેની વિડિમા–શીખાઓ છે. અર્થાત્ વજરત્નમય મૂલપ્રદેશ રજતથી સુપ્રતિષ્ઠિત એવી શાખાઓ છે, તેમજ એ શાખાઓ ઘણું જ ઉંચી ગયેલ છે. રિષ્ઠરત્નમય તેનું થડ છે. વૈડૂર્યન મય રૂચિર સ્કંધ છે. સુંદર જાત રૂપ કહેતાં ચાંદિમય અને વિસ્તારવાળી પ્રથમ શાખા વાળા, અનેક પ્રકારના રત્નમય વિવિધ શાખાવાળા, વેડૂર્યરત્નના પાંદડાવાળા, સુવર્ણમય વૃત દીટાવાળા, જંબૂનદ નામના સુવર્ણમય લાલવર્ણવાળા કમળ એથીજ સુકુમાર અત્યંત કેમળ પ્રવાલથી યુક્ત, કંઈક નમેલ પાંદડાવાળા, જેના સુંદર અંકુર છે એવા પ્રાથમિક Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २२७ पूर्णप्रथमपत्रभावलक्षणाः ये वराङ्कुराः-प्राथमिकोझेदप्राप्ता अभिनवोदितः तेषां धराःधारका ये ते तथा, विचित्रमणिरत्नसुरभिकुसुमफलभरनमितशाखा:-विचित्राणि यानि मणिरत्नानि चैतदुभयानि तान्येव-तन्मयानि सुरभिकुसुमफलानि सुरभीणि-सुगन्धीनि यानि कुसुमानि-पुष्पाणि तानि फलानि चैतदुभयानि तेषां भरेण-समृहेन नमिता:-नम्री. कृताः शाखा येषां ते तथा, सच्छाया-सती-शोभना-निविडेति भावः छाया येषां ते तथा, सत्प्रभा:-सती-समीचीना प्रभा-कान्तियेषां ते तथा, 'सप्पभा' इत्यस्य 'सप्रभा" इतिच्छापापक्षे तु प्रभाया सहिता इति विवरणम् , अत एव सश्रीका:-श्रिया-शोभया सहिताः, सोयोता:-सप्रकाशाः मणिरत्नगणकिरणस्फुरणसत्वात् , अमृतरससमरसफला:-अमृतरससमरसानि-अमृतस्य यो रसः-द्रवः तेन समः-समानः रसो येषां तानि तथाभूतानि फलानि येषां ते तथा, अधिकमनोनयननिवृतिकरा:-अधिकं-प्रचूरं यथास्यात्तथा मनोनयननिति मनोनयनयो:-चित्तनेत्रयोः निर्वृतिम्-आनन्दं कुर्वन्ति-सम्पादयन्तीत्येवं शीलाः, प्रासादीयाः यावत्-पावत्पदेन 'दर्शनीयाः, अभिरूपा' इत्येत पदद्वयं सङ्ग्राह्यम् तथा प्रतिरूपाः, एषां व्याख्या प्राग्वबोध्या। 'तेणं चेइयरुक्खा अन्नेहिं बहूहि तिलयलवयच्छत्तोवगसिरीससत्तिवण्णदहिवण्णलोद्धधवचंदणनीवकुडवयंचपणसतालतमालपियाल पियंगुपाराश्यरायरुक्खनंदिरुक्खेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता' इति, एतच्छाया-'ते खलु अन्यैबहुभिः तिलकलबगच्छत्रोपमशिरीष जिन के हैं प्राथमिक ऊभेद को प्राप्त, नवोदित पत्ते से युक्त विचित्र मणि रत्नमय सुरभि कुसुम ऐवं फल के भार से नमित-जुकी हुई है शाखाएं जिनकी ऐसे अत्यंत गाढ छाया से युक्त, सुंदर कान्तिवाले एवं सुंदर कांति से युक्त शोभा से युक्त, मणि एवं रत्न समूह के किरण के स्फुरण से प्रकाशवाले, अमृत के रस सरीखे रसवाले फलोंसे युक्त, मन एवं नेत्र के अतीव आनंदप्रद प्रासादीय, यावत् दर्शनीय, एवं अभिरूप, प्रतिरूप कहे हैं प्रासादीय इत्यादि पदों का अर्थ पहले कहे गए हैं । अतः वह जिज्ञासु वहां से समजलेवें, 'तेणं चेइयरुक्खा अण्णेहिं बहुहिं तिलय लवयच्छत्तोवग सिरीससत्तिवण्ण दहिवण्ण लोद्ध धव चंदण नीव कुडय कयंव पणस ताल तमाल पियालपियंगु पाराबय रायरुक्खणंदीरुक्खेहिं सव्वओ ઉભેદને પ્રાપ્ત નવા આવેલ પાંદડાવાળા, વિચિત્રમણિ રતનમય સુગંધિત પુષ્પ અને ફળના ભારથી નમેલી છે શાખાઓ જેમની એવા, અત્યંત ઘાઢ છાયાવાળા, સુંદર કાંતિવાળા તેમજ સુંદર કાંતિથી યુક્ત, રોભાયમાન મણિ અને રત્નના સમૂહના કિરણના ફરકવાથી પ્રકાશવાળા, અમૃતના રસ જેવા રસવાળા ફળેથી યુક્ત. મન અને નેત્રને અત્યંત આનંદ આપવાવાળા. પ્રાસાદીય વિગેરે પદ્યને અર્થ પહેલાં કહેવામાં આવેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ ते अथ त्यांथी सम सेवा. 'तेणं चेइयरुक्खा अण्णेहिं बहुहिं तिलय लवयच्छत्तोवग सिरीससतिवण्णदहिवण्णलोद्धधवचंदणनीवकुडयकयंबपणसतालतमाल पियालपियंगुपारावयरायरुक्खणंदोरुक्खेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता इति' को थैत्यक्ष मी मने तिas Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सप्तपर्णदधिपर्णलोध्रधवचन्दननीपकुटजकदम्बपनसतालतमालप्रियालप्रियङ्गुपारायतराजवृक्षनन्दिवृक्षैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः, व्याख्या च च्छायागम्या, तिलकादि वृक्षपरिचयो लोककोशगम्यः, 'ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंतो कंदवंतो जाव सुरम्मा' छाया-ते खलु तिलका यावद् नन्दिवृक्षाः मूलवन्तः कन्दवन्तो यावत् सुरम्याः, इति, व्याख्या-ते खलु-उपयुक्ताः तिलका यावनन्दिवृक्षा:-तिलकादि नन्दिपर्यन्तवृक्षाः परिक्षेपभूताः कीदृशाः ? इत्याहमूलवन्तः कन्दवन्तो यावत्सुरम्याः, इह यावत्पदेन-'स्कन्धवन्तः, त्वग्वन्तः, शालावन्तः, प्रवालवन्तः, पत्रवन्तः, पुष्पवन्तः, बीजवन्तः, आनुपूर्वीसुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः एकस्कन्धिनः, अनेकशाखाप्रशाखाविटपाः, अनेक नरव्यामसुप्रसारिताग्राह्य धनविपुलवृत्तस्कन्धाः, अच्छिद्रपत्राः अविरलपत्राः, अवातीनपत्राः अनीतिपत्राः, निर्धत जरठपाण्डुपत्राः, नवहरितसमंता संपरिक्खित्ता इति' वे चैत्यवृक्ष अन्य अनेक तिलक, लवक, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव चन्दन, नींब, कुटज, कदम्ब, पनस, ताल तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारावत, राजवृक्ष नन्दीवृक्ष, इत्यादि वृक्षों से चारों ओर से व्याप्त हैं इनवृक्षों का परिचय लोकव्यवहार एवं कोष से समझ लेवें। तेणं तिलया जाव नंदीरुक्खा मूलवंतो कंदवंता जाव सुरम्माँ ऊपर में कहे गए तिलक, यावतू नंदिवृक्ष पर्यन्त के वृक्ष मूल से युक्त, कंद से युक्त यावत् सुरम्य हैं यहां यावत्पद से स्कंध से युक्त, त्वचासे युक्त, शाखासे युक्त, प्रवाल से युक्त, पत्र से युक्त, पुष्पसे युक्त, फलसे युक्त, बीज से युक्त, अनुक्रमसे सुंदर प्रकार के रुचिर वृत्तभाव से परिणत ऐसे एकस्कन्ध वाले अनेक शाखा प्रशाखा एवं पत्तेवाले, अनेक मनुष्य ने फेलाई हुई व्याम से ग्रहण करते योग्य ऐसा घन विस्तृत गोलाकार से युक्त स्कंधवाले, छिद्रविना के पत्तेवाले अविरल-सान्द्र पत्तेवाले नि मजाल से पीत पत्तेवाले नये अतएल हरित वर्णवाले प्रकाशमान स, छत्रास, शिरीष, साप, धिपशु, वे, ५१, यन, नाव, पुटर, हन, પણ, તમાલપિયાલ, પ્રિયંગુ, પારાદત, રાજવૃક્ષ, નંદીવૃક્ષ, વિગેરે વૃક્ષેથી ચારે તરફથી વ્યાપ્ત થયેલ છે. આ વૃક્ષને પારચય લેક વ્યવહાર તેમજ કેપ ગ્રંથથી સમજી લે. 'तेणं तिलया जाव गंदीरक्खा मूलवंतो, कंदवतो, जाव सुरम्मा ६५२ ४डवामां आवेद તિલક યાવત્ નંદીવૃક્ષ સુધીના વૃક્ષે, મૂલથીયુક્ત, કંદથીયુક્ત યાવતું સુરમ્ય છે, અહીયાં યાવસ્પદથી અંધથીયુક્ત, છાલથીયુક્ત, ડાળેથી યુક્ત, પ્રવાલથી યુક્ત, પત્રથીયુક્ત, પુપિોથી યુક્ત ફળેથી યુક્ત બીજેથી યુક્ત, અનુક્રમથી સુંદર પ્રકારના રૂચિર વૃન્તભાવથી પરિણત એવા એક સ્કંધવાળા, અનેક શાખા પ્રશાખા, તેમજ પત્રવાળા અનેક મનુષ્યએ ફેલાવેલ વામથી ગ્રહણ કરવા એગ્ય એવું ઘન વિસ્તારવાળું. ગેલાકાર સ્કંધવાળું છિદ્ર વિનાના પત્તાવાળું અવિરલ–સાન્દ્ર પત્તાવાળું. સિંધૂમ જરઠથી પીળા પત્તાવાળા નવા હોવાથી Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् भासमानपत्रमारान्धकारगम्भीरदर्शनीयाः, उपविनिर्गत नवतरुणपत्रपल्लवकोमलोज्ज्वलचलत्किसलयसुकुमारनवालशोभितवराङ्कुराग्रशिखराः, नित्यं कुसुमिताः, नित्यं मुकुलिताः, नित्यं लवकिताः नित्यं स्तवकिताः, नित्यं गुल्मिताः, नित्यं गुच्छिताः, नित्यं यमलिताः, नित्यं युगलिताः, नित्यं विनमिताः नित्यं प्रणमिताः, नित्यं सुविभक्तप्रतिमञ्जर्यवतंसकधराः, नित्यं कुसुमित मुकुलितलकितस्तबकितगुल्मितगुच्छितयमलितयुगलितविनमितप्रणमितसुविभक्तप्रतिमञ्जर्यवतंसकधराः, शुकबहिण-मदन-शलाका-कोकिल-कोरक-भृङ्गारक-कोण्डलक-जीवञ्जीवक-नन्दीमुख-कपिल--पिङ्गलाक्षक-कारण्डव-चक्रवाक कलहंस-सारसानेक शकुनगणमिथुनविरचितशब्दोनतमधुरस्वरनादिताः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो वोध्यः सुरम्याः एषां मूलवदादि सुरम्याणां पदानां व्याख्या पश्चमसूत्रतो बोध्या, ___ 'ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहू हिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सवओ समंता संपरिक्खिता' छाया-ते खलु तिलका यावनन्दिवृक्षाः अन्याभिर्बहुभिः पद्मलताभिः पत्रों के भार के अन्धकार से गम्भीर दर्शनीय, ऊपर ऊठे हुवे नथे एवं तरुण कोमल पत्ते से प्रकाशित चलायमान किसलय एवं सुकुमार प्रवाल से शोभित सुन्दर अंकुराग्र शिखरवाले, नित्य कुसुमित, नित्य मुकुलित, नित्य लवकित नित्य स्तबकित, नित्य गुल्मित, नित्य गुच्छित, नित्य यमलित, नित्य युगलित, नित्य विनमित, नित्य प्रणमित, नित्य अच्छे प्रकार से विभक्त प्रति मंजरी रूप अवतंसक-वस्त्र को धारण करनेवाले, शुक, बहि, मदनशलाका कोकिल-कोरक भृङ्गारक कोंडलक, जीवं जीवक-नंदीमुख-कपिल-पिंगलाक्षक कारंडव चक्रवाक, कलहंस सारसादि अनेक पक्षिगण के मिथुन के द्वारा किए गए उच्च एवं मधुर स्वर से नादित, इन सब पद यावत् पद से ग्रहीत करलेना। सुरम्य आदि पदों की व्याख्या पांचवें सत्र से समझलेवें । 'तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहुहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं લીલારંગ વાળા પ્રકાશમાન પત્રોના ભારના અંધકારથી ગંભીર, દર્શનીય ઉપર ઉઠેલા નવા અને તરૂણ કે મળ પત્રોથી પ્રકાશિત ચલાયમાન કિસલય અને સુકુમાર પ્રવાલેથી શોભાયમાન સુંદર અંકુરાગ્ર શિખરવાળા નિત્ય કુસુમિત્ત, નિત્ય મુકુલિત, નિત્ય લક્તિ, નિત્ય રસ્તબક્તિ, નિત્ય ગુદ્ધિમત, નિત્યછિત, નિત્યયમલિત, નિત્ય યુગલિત, નિત્ય વિનમિત, નિત્ય પ્રસુમિત, નિત્ય સુંદર રીતે વિભક્ત, પ્રતિમંજરી રૂપ અવતંસક–વસ્ત્રને ધારણ કરવાવાળા શુક, બહિ, यनशा , २४, भृगा२४, is ४, ७१४, नहीभुम-पिस, (Anाक्ष ४२१ ચક્રવાલ, કલહંસ સારસાદિ અનેક પક્ષિગણેના મિથુને દ્વારા કરવામાં આવેલા ઉંચા મીઠા સ્વરોના નાદવાળા, આ બધા પદે યાવત પદથી સમજી લેવા. સુરમ્ય વિગેરે પદની વ્યાખ્યા પાંચમાં સૂત્રથી સમજી લેવી. 'तेणं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नाहिं बहुहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सव्वओ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २३० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यावच्छ्यामलताभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, व्याख्या स्पष्टा नवरं पदगलताभिर्याप च्छयामलताभिरित्यत्र यावत्पदेन-'अशोकलताभिः, चम्पकलताभिः, चूतलताभिः, वनळताभिः, वासन्तीलताभिः' इति सङ्ग्राह्यम् । 'ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ निच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ' छाया-ताः खलु पद्भलताः नित्यं कुसुमिता यावत् प्रतिरूपाः, व्याख्या स्पष्टा-प्रथमयाव. पदेन-नागलताः, अशोकलताः, चम्पकलताः वनलताः, वासन्तीलताः, अतिमुक्तकलताः, तिनिशलता, चूतलताः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहः, द्वितीययावत्पदेन नित्यं मुकुलिता इत्यादि पदाना मत्रैव सूत्रे संगृहीतानां ग्रहणं कार्यम्, एषां व्याख्या पञ्चमसूत्रतो बोध्या, किन्तु प्राक्संगृहीतेषु सम्पादिमतभ्रमरादिपदानां सङ्ग्रहो नास्ति तेषां सङ्ग्रहो व्याख्या चैते ५ञ्चमसूत्रादेव ग्राो । सव्वओसमंना संपरिक्खित्ता' ये तिलक यावत् नंदीवृक्ष अन्य बहुसंख्यक पद्मलता यावत् श्यामलताओं से चारों ओर सर्वात्मना व्याप्त रहते कहे हैं। यहां यावत्पद से अशोकलता, चम्मकलता, आम्रलता वनलता, वासन्तीलता का संग्रह समझ लेवें । 'ताओणं पउमलयाओजाव सामलयामोनिच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरुवाओ' वह पद्मलता यावत् श्यामलता नित्य कुसुमित यावत् प्रतिरूप आदि विशेषण विशिष्ट कही गई है। यहां प्रथम के यावत्पद से नागलता, अशोकलता, चम्पक लता वनलता, वासन्तीलता, अतिमुक्तकलता, तिनीशलता, आम्रलता, कुन्दलता इन लताओं का ग्रहण समझलेवें । एवं दूसरे यावत्पद से नित्यं मुकुलिता इत्यादि पद जो इसी सूत्र में पहले कहे गये हैं वे यहां पर भी ग्रहीत करलेवें । इन पदों का अर्थ पांचवें सूत्रसे समझलेवे। परंतु पहले संग्रहीत संम्पातिम, दृप्त, भ्रमर आदि पद का यहां ग्रहण नहीं है। 'तेसिणं चेयरुक्खाणं उप्पिं अट्ठ मंगलया बहवे झथा छत्ताइछत्ता' वे चैत्यसमंता संपरिक्खत्ता' से तिसय यावत् नाहियक्ष - पी पायता भने श्यामसतामाथी ચારે તરફ સર્વાત્મના વ્યાસ રહે છે. અહિંયા યાવત્પદથી અશેલતા, ચમ્પકલતા, આમ્ર લતા, વનલતા, વાસન્તીલતાના સંગ્રડ થયેલ સમજી લેવું. 'ताको णं पउमलयाओ ज़ाव सामलयाओ निच्चं कुसुमियाओ, जाव पडिरूवाओ' से પાલતા યાવત શ્યામલતા નિત્ય કુસુમિત યાવત્રુતિરૂપ વિગેરે વિશેષણથી વિશેષિત કહેવામાં આવેલ છે, અહિંયાં પહેલાના યાવાદથી નાગલતા, અકલતા, ચમ્પકલતા, વાસન્તીલતા, અતિમુક્તકલતા, તિનીશલતા, આમ્રલતા, કન્દલતા, આ લતાએ ગ્રહણ કરાઈ છે. तभर भी यावत्पथी 'नित्यं मुकुलिता' वि३ ५। २ मा०४ सूत्रमा पस। ४ाई ગયેલ છે, તે અહીંયાં ગ્રહણ કરી લેવાં. આ પદને અર્થ પાંચમાં સૂવથી સમજી લેવા. પરંતુ પહેલાં સંગ્રહ કરાયેલ સંપતિમ–દસ ભ્રમર વિગેરે પદ અહીંયાં ગ્રહણ કરવાના નથી. 'वेसिणं चेइयरुक्खाणं उप्पि अटुट्ठ मंगलया बहवे झया छत्ताइछत्ता' ये चैत्यवृक्षनी Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्ण नम् २३१ 'तेसि णं चेइय रुक्खाणं उप्पि अट्टमंगलया बहवे झया छत्ताइच्छत्ता' छाया-तेषां खलु चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टाष्टमङ्गलकानि बहवो ध्वजाः छत्रातिच्छत्राणि' इति, व्याख्या छायागम्या, चैत्यवृक्षवर्णनं चैत्यस्तूपवद् बोध्यम् । इति चैत्यवृक्षवर्णनम् । अथ महेन्द्रध्वजावसरः-'तेसि णं चेइयरुवखाणं' इत्यादि-'तेसि गं' तेषां खलु पूर्वोक्तानां 'चेइयरुक्खाणं पुरओ' चैत्यवृक्षाणां पुरतः-अग्रे 'ताओ' ता:-पूर्वोक्ताः 'मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, तासां म नमाह-'ताओ णं मणिपे. याओ जोयणं आया. मविक्खंभेणं' ताः खलु मणिपीठिकाः योजनमायामविष्कम्भेण दै--विस्ताराभ्याम् 'अद्धजोयणं' अर्द्ध योजनम्-योजनस्यार्द्ध 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, 'त.सि णं उप्पि' तासां मणिपीठिकानामुपरि पत्तेयं२' प्रत्येकम् २ एकस्यामेकर.म् 'महिंद झा पण्णत्ता' गहेन्द्र ध्वजाः प्रज्ञप्ताः, ते मानमाह-'ते णं' इत्यादिना-'ते' ते अनन्तताः खलु महेन्द्र ध्वजाः 'अट्ठमाइ' अष्टिमानि-सार्द्धसप्त 'जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन-उन्नतत्वेन 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्-क्रोशस्यार्द्धम् 'उन्हेणं' उद्वेधेत-उण्डत्वेन 'अद्धवृक्ष के उपर में आठ, आठ, मंगलक अनेक ध्वजाएं, एवं छत्रातिछत्र कहे हैं । ॥ चैत्यवृक्ष का वर्णन समाप्त ।। ___अब महेन्द्र ध्वज का वर्णन किया जाता है-'तेसिंणं चेइयरुस्खाणं पुरओ' पूर्वोक्त चैत्येवृक्ष के आगे 'ताओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' वे पूर्वोक्त मणिपीठिकाएं कही है। 'तामोणं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविखंभेणं' वे पूर्वोक्त मणिपीठिकाएं एक योजन का आयाम विष्कंभ-लंबाई चोडाइ वाली एवं 'अद्ध जोयणं बाहल्लेणं' आधे योजन की बाहल्यवाली कही है 'तामिणं उम्पि' वे मणि पीठिका के ऊपर 'पत्तेयं२,' प्रत्येक के ऊपर 'महिंदज्झया पन्नत्ता' महेन्द्रध्वजाएं कही गई हैं। 'तेणं' वे महेन्द्रध्वजाएं 'अद्धहमाई' साडे सात 'जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' योजन की ऊंची कही है। 'अद्धकोसं उन्हेणं' आधे कोस की उडाई वाली है। यहां आधा कोस का माप एक सहस्र धनुष जितना ले। उसी प्रकार ઉપર આઠ આઠ મંગલક અનેક ધજાઓ તેમજ છત્રાતિછ હેવાનું કહેલ છે. ચૈત્યવૃક્ષનું વર્ણન સમાપ્ત वे भरेन्द्र पननु वन ४२चामा या छ -'तेसिणं चेइयरुक्खाणं पुरओ' से ...वृक्षानी म 'ताओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ' से पुति म पाह। ४९ छे. 'ताओणं मणिपेढियाओ जोयणं आयामरिक्खंभेणं' से पूर्वात मणिषीयाना मा.म सन १४ मे योगनर ४ छ. तर 'अद्ध जोयणं बाहल्लेणं' २ यौन २८मा विस्तारवाणी हेस छे. 'तेसिणं उप्पि' से मणिनी ५२ 'पत्तेय' ४२४ना ७५२ 'महिंदज्झया पण्णत्ता' भडन्द्र पन्तये। इस छ. 'तेणं' से भडन्द्र पन्तमा 'अद्धदमाई' सा। सात 'जोयणाई उद्ध उच्चत्तेणं' म स २८दी थी छे. महीयां मर्या Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कोसं' अर्द्धक्रोशमानं च धनुः सहस्रं बोध्यम्, तदेव च 'बाहल्लेणं' बाहल्येन पिण्डेन, एवं महेन्द्रध्वजानां मानमुक्खा विशेषणमाह-'वइरामयवदृवण्णओ' वज्रमयवृत्तेति-एतच्छन्दघटितं तद्वर्णकसूत्रं बोध्यम् तथाहि 'वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्टमहसुपर ट्ठिया अणेगवरपंचवण्ण कुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्धृयविजयवेज़यंती पडागा छत्ताइच्छत्तकलिया तुंगा गगणतलमभिलंघमाणसिहरा पासाईया जाव पडिरूवा' इति छाया-वज्रमयवृत्तलष्ट. संस्थित सुश्लिष्ट परिघृष्ट मृष्ट सुप्रतिष्ठिताः अनेक वर पञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमण्डिताभिरामाः वातोद्धृतविजयवैजयन्ती पताकाच्छत्रातिच्छत्रकलिताः तुङ्गाः गगनतलमभिलव-यच्छिखराः प्रासादीयाः यावत् प्रतिरूपाः' इति, व्याख्या-बक्रेत्यादि-यज्राण्येव-वज्रभयाश्च तेच वृत्तलष्ट मंस्थिताः-वृत्तं-वतुलं-मनोहरं संस्थितं-संस्थानं येषां ते तथा तेच मुश्लिष्टा:-स्वाधारे चारुरीत्या संबद्धाः-संलग्नाः तेच परिघृष्टाः-सम्यक् खरशाणया घर्षणप्राप्ता ये प्रस्तरास्तं इव-परिघृष्टकल्पाः तेच मृष्टाः कोमलशाणया मार्जन प्राप्ता इव-मृष्ट सदृशाः ते च सुप्रतिष्ठिता:- सुस्थिरा:-निश्चलाश्चेति तथा, अनेकेत्यादि-अनेकानि यानि वराणि-प्रधानानि पञ्चवर्णानि-कृष्ण-नील-लोहित-हारिद्र-शुक्लवर्णानि कुडभीसहस्राणि कुडभीनां लघुपताकानां सहस्राणि तैः परिमण्डिताः-सुशोभिताः अतएवाभिरामा:-मनोबाहल्लेणं' उनका बाहल्य का मान हैं अर्थात् उद्वेध के जितना ही इनका बाहल्य है। 'वइरामय वह वण्णओ' वज्रमय वृत्त इत्यादि शब्दवाला उनका वर्णक सूत्र कह लेवें वह इस प्रकार है-'वइरामय वट्टलट्ठ संठिय सुसिलिट्ठ परिघट्ट मट्ट सुप. इट्ठिया अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्घय विजयवेजयंती पडागा छत्ताइछत्त कलिया, तुंगा, गगणतलमभिलंधमाणसिहरा, पासा. इया जाव, पडिरूवा' इति वज्रमय वृत्त-वर्तुलाकार एवं मनोहर संस्थान वाले स्वाधार में संलग्न एवं खरसाण में घिसागया प्रस्तर-पथ्थरके जैसे कोमल शा. णसे छिटके गए एवं सुस्थिर और निश्चल अनेक जो श्रेष्ठ पांचवर्ण-कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, एवं शुक्ल ऐसे पांचवर्ण के छोटि छोटिपताका से सुशोभित सनु भा५ को २ धनुष २९ देवानु छ. मे प्रमाणे 'बाहल्लेणं' तेनी - यतानु भा५ पर्थात् द्वेधना रे तेनु साक्ष्य छे. 'वइरामय वटवण्णओ' नभय वृत्त विगेरे होवाणु तेनु वर्ष सूत्र मडीया ४डी से ते २॥ प्रभारी छ.-'वइरामय वट्टलट्ठसंठियमुसिलिट्ठ, परिघट्ट मट्ठ सुपईडिया अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहरसपरिमंडिया भिरामा वाउद्धृय विजयवेजयंती पडागा छत्ताइछत्तकलिया, तुंगा, गगणतलमभिलंघमाणसिहरा; पासाइया. जाव पडिरूवा' इति भय वतुसा२ तेम भने । २ संस्थानवाणापोताना આધારમાં રાંલગ્ન તેમજ ખરશાણમાં ઘસેલ પથ્થરના જેવા કામળ શાણથી છંટકાવ કરેલ તેમજ સુચિથર તથા નિશ્ચલ અનેક જે ઉત્તમ પાંચવર્ણ-કૃષ્ણ, નીલ, લેહિત, હારિદ્ર, અને શુકલ, એવા પાંચ રંગની નાની નાની ધજાઓથી શોભાયમાન અને તેથી જ મનને Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् २३३ हराः, वातोद्धृतेत्यादि-चाते न- वायुना उद्धृताः-उत्कम्पिता याः विजयवैजयन्तीपताका:विजयवैजयन्त्यः-विजयसचिका वैजयन्त्यः पताकाः, पुनरन्याः सामान्याः पताकाच, तथाछत्रातिच्छत्राणि छत्रात सामान्यच्छत्रात् अतिशायीनि च्छत्राणि च एतैः कलिता:-युक्ताः, तुङ्गाः-उन्नताः, अत एव गगनतलम्-आकाशतलम् अभिलङ्घयच्छिखरा:-अभिलङ्घयत्अतिक्राम्यत् शिखरम् - अग्रभागो येषां ते तथा, प्रासादीयाः यावत्-यावत्पदेन-दर्शनीयाः, अभिरूपाः, इति पदद्वयं ग्राह्यम् तथा प्रतिरूपाः, एषां व्याख्या प्राग्वत्. एवं महेन्द्रध्वजानां वर्णकः तथा 'वेश्यावणसंडतिसोवाणतोरणा य भाणियव्या' वेदिका-वनषण्ड-त्रिसोपानतोरणाश्च भणितव्याः-वक्तव्याः, तत्र वेदिका-वनषण्डयोवर्णनं पञ्चम-षष्ठ सूत्राभ्यां बोध्यम् त्रिसोपानवर्णनं राजप्रश्नीयसूत्रस्य द्वादशमूत्राब्दोध्यम् । तोरणवर्णनं चाष्टमसूत्रस्थ विजय द्वाराधिकाराब्दोध्यम् तत्सूचकसूत्रमेवम्-'तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरओ तिदिसि त भो' गंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छत्सकोसाइं जोयणाई विक्खं. अतएव अभिराम सुंदर वायु से कम्पायमान विजय सूचक पताका,सामान्य छन्त्र एवं विशेष प्रकार के छत्रसे युक्त उच्च होनेसे आकाश को उल्लंघन करे ऐसा अग्रभागवाले प्रासादीय, यावत् पद से दर्शनीय अभिरूप ये पद गृहीत हुए हैं इन शब्दों का अर्थ प्राकथनानुसार समझलें। इसी प्रकार महेन्द्रध्वज का वर्णन करलेवे। तथा 'वेइया वणसंड तिसोवाण तोरणाय भाणियव्वा'. वेदिका, वनपंड, एवं त्रिसोपान पंक्ति यहां पर कहलेना उन में वेदिका एवं वनषण्ड का वर्णन पांचवें एवं छठे सूत्रसे समझलेवें और त्रिसोपान का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के बारहवे सूत्र से समझलेवे तथा तोरण को वर्णन आठवे सूत्र में विजयद्वार के वर्णनावसरसे समझलेवें । वह वर्णक सूत्र इस प्रकार है-'तेसिंणं महिंदझयाणं पुरओ तिदिसिं तो णंदा पुक्खरिणीो पणत्ताओ अद्भुतेरस जोयणाई आयामेणं छ सकोसाइं जोय. આનંદ આપનાર તેમજ પવનથી કંપાયમાન વિજ્ય સૂચક પતાકા સામાન્ય છત્ર તથા વિશેષ પ્રકારના છત્રથી યુક્ત ઉંચી હોવાથી આકાશનું ઉલ્લંઘન કરે એવા અગ્રભાગવાળી પ્રાસાદય, યાત્પદથી દશનીય, અભિરૂપ એ બન્ને પદ ગ્રહણ કરાયા છે. તથા પ્રનિરૂપ આ શબ્દનો અર્થ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવો. તેમજ એજ રીતે મહેન્દ્ર ધજાઓનું ५५ णुन ४ तया 'वेश्या वणसंडतिसोवाण तोरणाय भाणियव्या' वह, पन, તેમજ ત્રિપાન પંક્તિનું કથન અહીંયા કરી લેવું. તેમાં વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન પાંચમા તથા છઠ્ઠા સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે જેથી ત્યાંથી સમજી લેવું. તથા ત્રિપાન પંક્તિનું વર્ણન રાજપ્રક્ષીય સૂત્રના બારમા સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું તથા તેરણનું વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજયદ્વારના વર્ણન પ્રસંગમાંથી સમજી લેવું. તે વર્જક સૂત્રપાઠ આ પ્રમાણે छ-'तेसि णं महिंदझयाण पुरओ तिदिसितओ गंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छसक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सहाओ पुक्खरिणी ज० ३० Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णी पत्तेयं २ पउमवर वेइया परिक्खित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्ण भो, तथा 'ताणि णं णंदापुक्खरिणीणं पत्तय २ तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ तोरण वण्णी य भाणियन्वो जाव छत्ताइच्छत्ताइ' इति, एतच्छायाौँ मुगौ । अथ सुधर्मा सभयोर्यदस्ति तदाह-'तासि गं' इत्यादि-तासि गं' तयोः-पूर्वोक्तयोः खलु 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्मयोः सभयोः 'छच्च' षट् षट् संख्यकाः 'मणोगुलिया साहस्सीभो' मनोगुलिका साहस्यः-पट् सहस्रीमनोगुलिका इत्यर्थः, ताः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ता:णाई विक्खं भेणं दस जोयणाई उज्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणी वण्णओ पत्तयं पत्तेयं वणसंड परिविवत्ताभो तामिणं णंदापुनरिणी पत्तेयं पत्तेय तिदि सिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तेसिंणं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ तोरणवण्णओय भाणियञ्चो जाव छत्ताइच्छत्ताई इति । उस महेन्द्रध्वज के तीन दिशा में तीन नंदापुष्करिणो कही है। वह साडे बारह योजन का आयामवाली एवं एक कोस और छ योजन के विष्कंभ वाली तथा दस योजन की गहराइ वाली कही है। वे अच्छ माने स्वच्छ एवं निर्मल कही है। वे पुष्करिणीका प्रत्येक पद्मवरवेदिका से व्याप्त है। प्रत्येक वनषंड से व्याप्त हैं इत्यादि वर्णन कर लेना उन नंदा पुष्करिणी के आगे प्रत्येक के तीन दिशा में तीन तीन त्रिसो. पानप्रतिरूपक कहे हैं उन त्रिसोपान प्रतिरूपक का वर्णन एवं तोरण का वर्णन यहाँ पर 'जाव छत्ताइछत्ताई' यह पद पर्यन कर लेना चाहिए । . अब सुधर्मसभा के भीतरी भाग का वर्णन करते हैं-'तेसिणं' उन पूर्वोक्त 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्मसभा में 'छच्च मणोलिका साहस्सीओ' छह हजार वण्णओ पतेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्तानो तासिणं गंदा पुक्खरिणीगं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसिं णं तिसोवाण डिरूवगाणं वण्णओ तोरणवण्णओ य भाणियव्वो जाव छत्ताइछत्ताई इति' से भडन्द्र धानी महिशाwi ना'४६ ४हेस છે, તે પુષ્કરિણીયે સાડા બાર એજન જેટલા આયામવાળી અને એક કેસ અને છ યેજના જેટલા વિકંભવાળી તથા દસ એજન જેટલી ઉંડી કડી છે. તે અચ્છ અર્થાત સ્વચ્છ અને નિર્મલ કહેલ છે. એ દરેક પુષ્કરિણીઓ પવરવેદિકાઓથી વ્યાપ્ત છે. દરેક પુષ્કરિણી વનપંડથી વ્યાપ્ત છે. વિગેરે વર્ણન કરી લેવું એ નંદાપુષ્કરિણીની આગળ દરેકની ત્રણ દિશામાં ત્રણ ત્રણ ત્રિપાન પ્રતિરૂપક કહેલ છે. એ ત્રિસપાન પ્રતિકરૂપકનું વર્ણન તથા तोरनु वन मडिया 'जाव छत्ताइ छत्ताई' को ५६ ५यन्त ४N : वे सुधर्म समानी १२ना मागनु न ४२ छ.-'तेसिणं' से पूरित 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्भ समामा 'छच्च मणोगुलिया साहस्सीओ' छ १२ भनामि। अर्थात् Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् तत्र मनोगुलिकाः-पीठिकाः, 'तं जहा-पुरस्थिमेणं, तद्यथा-पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि दो साहस्सीओ' द्वे साहस्त्र्यौ-सहस्र 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ते 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि दो साहस्सीओ' द्वे साहस्थ्यौ, 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि 'एगा साहस्सी' एका साहस्री 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'एगा' एका साहस्री, अत्र सर्वत्र स्त्रीलिङ्गपूर्वादि शब्देभ्यः सप्तम्येकवचनान्तेभ्य एनप्प्रत्ययः, 'सर्वनाम्नोवृत्तिमात्रे पुंवद्भाव' इति पुंबद्भावेनापो निवृत्तिः, 'जाव दामा चिटुंतीत्ति' यावद् दामानि तिष्ठन्तीत्यत्र यावस्पदेन 'तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, तेसि णं सुवण्णरुप्प. मएमु फलगेसु बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं वइरामएसु नागदंतेसु बहवे किसुत्तवग्धारियमल्लदामकलावा जाव सुकिल्लमुत्तबग्घारियमल्लदामकलावा, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसना चिटुंतित्ति, एषां पदानां छायाऽौँ सुगौं । संवैचैतदष्टमसूत्रोक्तविजयद्वारानुसारेण बोध्यम् , 'एवं' एवम्-मनोगुलिकावत् 'गोमाणसियाओ' गोमानसिका:गोमानस्य एव गोमानसिका:-शय्यारूपाः स्थानविशेषा वक्तव्याः , 'णवरं' नवरं-केवलं 'धूव. घडियाओ त्ति' धूपघटिका:-दामस्थाने धृपटिकावर्णनीयाः, इति मनोगुलिकापेक्षया गोमानसिकावण ने विशेषः, तदतिरिक्तं द्वयोः सर्व समानमेव वर्णनम् । मनोगुलिका अर्थात् पीठिका कही है-'तं जहा' वह इस प्रकार है 'पुरस्थिमेणं दो साहस्सीओ' पूर्व दिशा में दो हजार 'पण्णत्ताओ' कही है 'पच्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ' पश्चिम में दो हजार (जाव दामा चिटुंतीत्ति) यावत् दामा-पुष्पमालाएं रक्खि हैं यहां पर यावत् शब्द से (तासुणं मनागुलियासु बहवे सुवण्ण रूपमया फलगा पण्णत्ता) इत्यादि पाठ जो टीका में लिखा गया है वह समझलेवें सरल होनेसे अर्थ नहीं दिया है सो मूलसे ज्ञात करलें । यह संपूर्ण वर्णन आठवें सूत्र में विजय द्वार के वर्णनानुसार समझलेवें (एवं) पीठिका के जैसा (गोमाणसिया ओ) गोमानसिका-शय्यारूप स्थान विशेष समझलेवें। (णवरं) केवल (धूवधडियाओत्ति) दाम के स्थान पर धूपदानी कहनी चाहिए, इतना मनोगुलिकासे गोमानसिका के वर्णन में अन्तर है अन्य सब वर्णन दोनों का समान ही है। पी81 ४९ छ. 'तं जहा' ते मा प्रभारी छ. 'पुरथिमेणं दो साहस्सीओ' पुहिशामा मे ॥२ 'दक्खिणेणं एगा साहस्सी' दक्षिण दिशामा मे M२ 'उत्तरेण एगा' उत्तर हिशामा ४ १२ 'जाव दामा चिटुंतित्ति' यावत् १०५मालामे रामे छे. माडियां या. शिथी 'तासुणं मणोगुलियासु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता' विगैरे ५४२ टीम લખવામાં આવેલ છે. તે સર્વ પાઠ અહીયાં સમજી લે. સરલ હોવાથી તેને અર્થ આપેલ નથી. આ સંપૂર્ણ વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજય દ્વારનું વર્ણન અનુસાર સમજી લેવું. तथा पीनाम 'गोमाणसियाओ' शोमानसि। २५। ३५ स्थान विशेष समवे. 'णवरं' व 'धूपघडियाओत्ति' होभना स्थान १२ घूमहानी ४३वान सट ४ मतर મને ગુલિકાના વર્ણનથી ગમાનસિકાના વર્ણનમાં છે. બીજું બધું વર્ણન બનેનું સરખું જ છે. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ अथ सुधर्मयोरेव भूमिभागवर्णकमाह-'तासि णं' इत्यादि-'तासि णं सुहम्माणं अंतो' तयोः खलु सुधर्मयोः समयोः अन्त:-मध्ये, 'बहुसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः-अत्यन्तसमः-अत्यन्तसमतलः अतएव रमणीयः-सुन्दरः 'भूमिभागे पण्णते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, भूमिभागवर्णनमष्टमसूत्रोक्तविजयद्वारवबोध्यम् , अत्र मणीनां वर्णादयो वर्णनीयाः, उल्लोकाः पद्मलतादयोऽपि च चित्ररूपा ऊहनीयाः, अब विशेषतो वक्तव्यं व्यनक्ति-'मणिपेडिया' इत्यादि-अनयोः सुधर्मयोः सभयोर्मध्यभागे 'मणिपेढिया' मणिपोठिका-मणिमयीपीठिकाआसनविशेषः, प्रत्येक वक्तव्या, अम्या मानमाह-दो जोयणाई' द्वे योजने 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्घ्य-विस्ताराभ्याम् , 'जोय' योजनम् -एक योजनं 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन, प्रज्ञप्तेति सम्बन्धः, 'तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि' तयोः खलु मणिपीठिकयोः ऊपरि-ऊर्चे प्रत्येक माणवए' माणवके-माणकनामके 'चेइयखंभे' चैत्यस्तम्भे 'महिंद झप्पमाणे' महेन्द्रध्वजप्रमाणे-महेन्द्रध्वजसमाने प्रमाणतोऽर्धाष्टमयोजनप्रमाणे ___ अब सुधर्मसभाके भूमिभागका वर्णन करते हैं-(तासिंणं सुहम्माणं सभाणं अंतो) वे सुधर्मसभा के मध्य में (बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) अत्यन्त समतल युक्त होने से रमणीय भूमिभाग कहा है । यहां भूमिभागका वर्णन आठवें सूत्र में विजयद्वार के जैसा समझलेवे। यहां मणियों के वर्णादि का वर्णन भी करलेवें एवं उल्लोक पद्मलतादि का वर्णन भी चित्ररूपसे कहलेना। यहां पर विशेषवक्तव्य इस प्रकार है-ये सुधर्मसभा के मध्यभागमें 'मणिपेढिया' मणिः मय आसनविशेष प्रत्येक में कहने चाहिए (दो जोयणाइं आयामविश्वंभेणं) दो योजन की लंबाई चोडाई है । (जोयर्ण बाहल्लेणं) एक योजन की मोटी है। (तासिंणं मणिपेढियाणं उम्पि) उन मणिपीढिका के ऊपर (माणवए चेइयखंभे) माणवकनामक चैत्यस्तम्भ (महिंदज्झयप्पमाणे) महेन्द्रध्वज के समान प्रमाण वाला अर्थात् साडे सात योजन प्रमाण इत्यादि महेन्द्रध्वज के वर्णन सरीखा वे सुधम समाना भूमिलानु पनि ४२वामा माछ.-'तेसिणं सुहम्माणं सभाणं अंतो' से सुधर्म समानी मध्यमा 'बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अत्यन्त समतल युद्धत હોવાથી રમણીય ભૂમિભાગ કહેલ છે. અહીંયાં ભૂમિ ભાગનું વર્ણન આઠમાં સૂત્રમાં વિજ્યદ્વારના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું અહિંયાં મણિના વર્ણાદિનું વર્ણન પણ કરી લેવું તથા ઉલેક પડ્યૂલતા વિગેરેનું વર્ણન પણ કહી લેવું અહીંયાં વિશેષ વક્તવ્ય આ प्रमाण छ. से सुधर्मसमाना मध्य भागमा 'मणिपेढिग' भएमय आसन विशेष ६२४मा अहेवाले 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेण" मे यानी पडणाही छ. 'जोयणं बाहल्लेण' से योनिक्षी मोटी छे. 'तासिणं मणिपेढियाण उप्पि' मे महिपीनी ५२ 'मणवए चे ईयखंभे' माए।१४ नामने। यत्य स्तम' माहिदज्झસામ” મહેન્દ્ર કાજના સરખા પ્રમાણવાળે અર્થાત્ સાડા સાત જન જેટલા પ્રમાણે Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् वर्णकतो महेन्द्रध्वजवत् 'उपरि' उपरि 'छकोसे ओगाहित्ता' षट्क्रोशान् अवगाह्य-प्रविश्य उपरितनान् पट् क्रोशान वर्जित्वा विहाय 'हेडा' अधः-अधस्तादपि 'छकोसे वज्नित्ता' षट् क्रोशान् वर्जित्वा मध्येऽर्धपश्चमेषु योजनेषु इति गम्यम् , 'जिणसकहाआ' मिनसक्थीनिजिनकीकसानि 'पग्णत्तामोति प्रज्ञप्तानि इति, इह जिनसक्थिग्रहणे व्यन्तरजातीयानां देवानां नाधिकारो स्ति, किन्तु सौधर्मशानवमरवलीन्द्राणामेव तद्ग्रहणेऽधिकारोऽस्तीति जिनसक्थीनि-जिनदंष्ट्रारूप साथीनि तत्र निक्षिप्तानि प्रज्ञप्तानीति बोध्यम् , अशिष्टो वर्णकश्च जीवाभिगससूत्रोक्तो बोध्यः स चैवम् 'तस्स णं माणगचेयस खंभस्स उत्ररि छक्कोसे ओगाहित्ता हेवा वि नकोसे यजित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं वहवे सुवण्णरुपमया फलगा पण्णता तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं यहवे रययामया सिकगा पण्णता, तेसु णं बहवे वइरामया गोवट्टसमुग्गया पण्णत्ता, तेसु णं बहवे जिणसकाहाओ सणि: विखत्ताओ चिटुंति, जाभी णं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बहूणं वागमतराणं देशण य (उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता) ऊपर के भाग में छ कोस जाने पर अर्थात् ऊपरका छ कोस के छोडकर एवं (हेहा छ कोसे वजित्ता) नीचेसेभी छह कोस वर्जित कर मध्य के साडे चार योजन में (जिण सकहाओ) जिन के साथी हड्डी (पण्णत्ताओ) कहें हैं यहां पर जिन सक्थी कहनेसे व्यन्तर जाती के देव का अधिकार नहीं है, किन्तु-सौधर्म, ईशान, चमर एवं बलीन्द्रका हो अधिकार आजाता है अतः 'जिन सक्थी' कहने से जिनकी दाढ रूपी हड्डी वहां रखी हुई है ऐसा समझ लेवे। शेष वर्णन जीवाभिम में कहे अनुसार समझ लेवें । वहां वह वर्णन इस प्रकार हैं-'तस्स णं माणवगचेश्यस्स वभस्म उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता' हेहावि छ कोसे वज्जित्ता, मज्झे अद्ध पंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवाणरुपमया फलगा पणत्ता, तेसुबहवे वइरामयाणागदंतगा पण्णत्ता, तेलुणं बहवे वरामया गोलयवसमुग्गया पणत्ता, तेसुणं बहवे जिण सकहाओ सण्णिविग्नत्ताओ चिति, वाणे वगेरे महेन्द्र व प्रमाणे समन्यु 'उवरि छकोसे ओगाहित्ता' पनी त२३ छ उस पाथी अर्थात् ५२ना ७ ठोसने छोडीन एवं हेढा छक्कोसे वज्जित्ता' नीना छ उस छोडी क्या सा भार यापनमा 'जिणसकहाओ' सथ ( 881) 'पण्णत्ताओ' छ. गडीयान सथि ४ाथी ०५-१२ तिना वन अधि४२ नथी પરંતુ ઈશાન સૌધર્મ યમર અને બલીન્દ્રનેજ અધિકાર આવી જાય છે. તેથી જીનસકિથ કહેવાથી જીનની દાઢ રૂપ હાડકું ત્યાં રાખેલ છે તેમ સમજી લેવું. ત્યાં એ વર્ણન આ प्रभारी छ.-'तस्सणं माणवगचेइयरस खंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्टा वि, छक्कोसे. वज्जित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थणं बहवे सुवण्णरुपरमया प.लगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे वइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसु णं बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता तेसु णं बहवे जिणसकहाओ सण्णिक्खित्ताओ चिटुंति जाओ णं जमगाणं देवोणं अन्नेसिच बहूणं बाणमतराणं देवाण य Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूणिज्जाओ सकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ' इति, एतच्छाया-तस्य खलु माणवकचैत्यस्य स्तम्भस्य उपरि षट् क्रोशानवगाह्य अधोऽपि पदक्रोशान् वर्जयित्वा मध्ये अर्द्धपश्चमेषु योजनेषु अत्र खलु बहूनि सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु खलु बहवो वज्रमया नागदन्तकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु खलु बहूनि रजतमयानि शिक्यकानि प्रज्ञप्तानि, तेषु खलु वयो वत्रमया गोलकवृत्तसमुदगकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु खलु बहनि जिनसक्थीनि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, यानि खलु यमकयोदेवयोः अन्येषां च बहूनां वानमन्तराणां (व्यन्तराणां) देवानां च देवीनां च अर्चनीयानि वन्दनीयानि पूजनीयानि सत्करणीयानि सम्माननीयानि कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं पर्युपासनीयानि' इति, एव्याख्या छायागम्या, नवरम्-गोलकवृत्तसमुद्गका:-गोलक:-वर्तुलोपलस्तद्वद्वृत्त :-तुलाः सद्गकाः-समुद्गाः सुगन्धिद्रव्यविशेषसम्पुटकाः, त एव समुद्गकाः, अर्चनीयानि-चन्दनादिना, वन्दनीयानि-स्तुत्यादिना, पूजनीयानि-पुष्पादिना, सत्करणीयानिवस्त्रादिन', सम्माननीयानि बहुमानकरणात् , कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनी. यानि-सेवनीयानीति, एतदाशातनामयेनैव तत्र देवा युवतिभिर्देवीभिः सम्मोगादिकं नाचजाओणं जमगाणं देवाणं अन्नेसिं च बहूणं बाणमंतराणं देवाण य देवीणव अच्चणिज्जाओ वंदणिजाओ पूणिज्जाओ सकारणिज्जाओ सम्माणणिजाओ' इति. वह माणवक चैत्य स्तंभ के ऊपर के छ कोस तथा नीचे के छ कोस को वर्जित कर मध्य के साडे चार योजन पर अनेक सुवर्णरूप्य मय फलक कहे हैं उसमें अनेक वज्रमय खीले कहे हैं उसमें अनेक रजतमय शिके कहे हैं। उसमें अनेक गोल वर्तल सगुद्गक-सुगन्धि द्रव्य विशेष के सम्पुट कहे हैं । उसमें अनेक जिनसक्थि-जिनकी हइडियां रखी हुई है जो यमक देव के एवं अन्य अनेक वानव्यन्तर जाति के देव एवं देवियों के अर्चनीय. वंदनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय, कल्याणस्वरूप, मङ्गलस्वरूप, दैवतस्वरूप उपासनीय कही है। इनकी आशातना के भयसे ही वहां देव देवि के साथ सम्भोगादि का आचरण नहीं करते। मित्ररूप देवादि हास्य क्रीडादि भी नहीं करते। देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ, पूयणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ सकारणिज्जाओ इति' से માણવક ચૈત્યસ્તંભની ઉ ૨ના છ કેસ તથા નીચેના છ કેસને છોડીને વચલા સાડા ચાર યજન પર અનેક સુવર્ણ રૂપ્યમય ફલક-પાટિયા કહ્યા છે. તેમાં અનેક વજમય ખીલાઓ કહેલ છે, તેમાં અનેક રજતમય શીકાઓ કહેલ છે. તેમાં અનેક ગેળ વર્તુલ સમુગકસુગન્ધિ દ્રવ્ય વિશેષના સંપુટો કહેલ છે, તેમાં અનેક જીનસકિથ-જનના હાડકાઓ રાખેલ છે. જે યમક દેવના તેમજ બીજા અનેક વાનવ્યન્તર જાતના દેવ તથા હેવિયેના અર્ચનીય વંદનીય, પૂજનીય, મંગલસ્વરૂપ, દૈવતસ્વરૂપ ઉપાસનીય કહેલ છે. તેમની આશાતના થવાના ભયથી જ ત્યાં દેવ દેવિયેની સાથે સંભેગાદિનું આચરણ કરતા નથી મિત્રરૂપ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् रन्ति, नापि मित्रभूतैर्देवादिस्यिक्रीडादि । 'माणवगस्स' इत्यादि-'माणवगस्स' माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य 'पुव्वेणं' पूर्वेण-पूर्वस्यां दिशि सुधर्मयोः 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासने सपरिवारे--भद्रासनपरिवारसहिते स्तः, 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि 'सयणिज्जवण्णो ' शयनीयवर्णकः-शयनीयेस्तः तयोर्वर्णको वक्तव्यः, स च श्रीदेवीवर्णनाधिकारतो ग्राह्यः, तयोः 'सयणिज्जाणं उत्तरपुरस्थिमे शयनीययोः उत्तरपौरस्त्ये-ईशानकोणे 'दिसीभाए' दिग्भागे 'खुड्डगमहिंदज्झया' क्षुद्रकमहेन्द्रध्वजौ स्तः, तौ च मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणी, सार्द्धसप्तयो जन-माणावूर्वमुच्चत्वेन अर्द्धकोशमुद्वेधेन बाहल्यत इत्यर्थः । ननु यदीमौ मानतो महेन्द्रध्वजप्रमाणावुक्तौ तदा तत्तुल्यतायाः सूपपादत्वात् क्षुद्रत्व. विशेषेणं तत्र न किश्चिदुपकारकम् - इति चेत् सत्यम् , अत्र मणिपीठिका विहीनत्वेन क्षुद्रत्वं _ 'माणवगत्स पुव्वेणं' माणवक चैत्यस्तम्भ की पूर्व दिशा में सुधर्म सभा में 'सीहासणा सपरिवारा' परिवार सहित भद्रासनादि परिवार युक्त सिहासन कहे हैं । 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमदिशा में 'सयणिज्ज वण्णओ' शयनीय-शय्या स्थान हैं उसका वर्णन यहां करलेना चाहिए। वह वर्णन देवी के वर्णनाधिकार से समझ लेवें । 'सयणिज्जाणं उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए' शयनीय के ईशान कोण में 'खुदगमहिं दज्झया' दो क्षुद्रक-छोटा महेन्द्रध्वज कहा है। उन दोनों का मान महेन्द्रध्वज के समान हैं अर्थात् साडे सात योजन प्रमाण ऊंचे, आधा कोस का उद्वेध बाहल्यवाले है। शंका-यदि ये दोनों महेन्द्रध्वज के समान है तो महेन्द्रध्वज के तुल्य कहना चाहिए अतः यहां 'क्षुद्र' यह विशेषण की क्या आवश्यकता है ? उत्तर-यहां पर मणिपीठिका रहित होनेसे क्षुद्रत्व है प्रमाणसे क्षुद्र नहीं है। इससे ऐसा समझें की दो योजन की पीठिका के ऊपर रहनेसे पूर्वका महेन्द्रध्वज हेपाह हास्य ३५ । विगैरे ५५ ४२ता नथी, 'माणवगरस पुट्वेणं' भा. 2 यत मनी पूर्व हिशा सुधम समामा 'सीहासणा सपरिवारा' परिवार सहित मद्रासना परिवार साथ सिडासना सा छे. 'पच्चत्यिमेणं' पश्चिम दिशामा 'सयणिज्जवण्णओ' शय्यारयान छे. मडीयां तेनु वएन ४री नये. ये व न हीन वन वि४।२थी A9 से. 'सयणिजाणं उत्तरपुरथिमे दिसीभाए' शयनीयन शान मां 'खुड्डुगम हिंदज्झया' में क्षुद्र:નાના મહેન્દ્રધ્વજ કહેલ છે. એ બન્નેનું માપ મહેન્દ્રવજની સરખું છે. અર્થાત્ સાડા સાત જન પ્રમાણ ઉંચા અર્ધા કેસ જેટલા ઉધ-બાહલ્યવાળા છે. શંકા–જે એ બેઉ મહેન્દ્રવજ સરખા છે તે તેને મહેન્દ્રધ્વજ સરખા કહેવા જઈ એ. તેથી અહિયાં શુદ્ર એ વિશેષણુનીશી આવશ્યક્તા છે? ઉત્તર- અહીંયાં મણિપીઠિકા રહિત હોવાથી શુદ્ધત્વ છે. પ્રમ ણથી શુદ્ધત્વ નથી, તેથી એવું સમજવું કે બે એજનની પીઠિકાની ઉપર રહેવાથી પહેલાનો મહેન્દ્રવજ મહાન Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे न तु प्रमाणविहीनत्वेन, ततश्चेदं पर्यवसितम् , द्वि योजनत्रमाण मणिपीठिकोपरिस्थितत्वेन पूर्व महान्तो महेन्द्रध्वजास्तदपेक्षया महेन्द्रध्वजाविमौ क्षुद्राविति, एतदाह 'मणि पेढिया विहूणा महिंदग्झ पप्पमाणा' मणिपीठिका विहीनौ महेन्द्रध्वजप्रमाणौ इति, 'तेसिं' तयोः क्षुद्रमहेन्द्र ध्वजयोः एकैक राजधानीवर्तिन्योः, 'अवरेणं' अपरेण-अपरस्यां-पश्चिमायां दिशि 'चोप्फाला' चोप्पालौ तन्नामको 'पहरणकोसा' प्रहरणकोशौ-प्रहरणानि--आयुधानि तेषां कोशौभाण्डागारे, प्रज्ञप्ती, 'तत्थ णं' तत्र-तयोः प्रहरणकोशयोः खलु 'बहवे' बहूनि 'फलिहरयणपामुकला' परिघरत्नप्रमुखाणि-परिघरत्नादीनि 'जाव' यावत्-यावत्पदेन-प्रहरणरत्नानि सन्निक्षिप्तानि, इति ग्राह्यम् तानि 'चिटुंति' तिष्ठन्ति-सन्ति । 'मुहम्माणं उप्पि' इत्यादितयोर्द्वयोः 'सुहम्माणं' सुधर्मयोः सभयोः 'उप्पि' उपरि-ऊर्श्वभागे 'अमंगलगा अष्टाष्टमङ्गलकानि-स्वस्तिक १ श्रीवत्स२ नन्दिकावर्त ३ बर्द्धमानक४. भद्रासन५ कलश६ मत्स्य७ दर्पण८ 'भेदादष्टमङ्गलानि प्रज्ञप्तानि, इत्यारभ्य बहवः सहस्त्रपतकाः सर्वरत्नमयाः इत्यादि तद्वर्णनमिह बोध्यम् । तच्च राजप्रश्नीयसूत्रस्य चतुर्दशसूत्रात् संग्राह्यम् । सुधर्म सभातः परं महान है, उस अपेक्षा से ये दोनों क्षद्र कहना चाहिए। वहीं सूत्रकार कहते हैं 'मणिपेदिपा विहणा महिंदज्झयप्पमाणा' मणिपीठिका रहित एवं महेन्द्र वज के प्रमाण से युक्त है 'तेसिं' उन राजधानी के क्षुद्रमहेन्द्र वज 'अवरेणं' पश्चिमदिशा में 'चोप्फाला' चोप्फाल नामके 'पहरण कोसा' आयुध के कोष-भंडार कहा है । 'तत्य णं' उस प्रहरण कोष में 'बहवे फलिहश्यणपामुक्खा ' परिध आदि 'जाव' यावतू प्रहरण रत्न आदि 'चिट्ठति' रक्खे हुए हैं ! 'मुहम्माणं उपि उन सुधर्मसभा के ऊपर 'अट्ठ मंगलगा' आठ आठ मंगल द्रव्य जो इस प्रकार है-स्वस्तिक १, श्रीवत्स २, नंदिकावर्त ३, वर्धमानक ४, भद्रासन ५, कलश ६, मत्स्य ७, दर्पण ८, रक्खे हैं तथाच अनेक सहस्र पत्र हाथ में धारण किए, सर्व रत्नमय इत्यादि उसका सब वर्णन यहां पर समझलेवें। वह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के १४ चौदहवे सूत्र से ज्ञात करले। छ, को पेक्षा २॥ मन्नन क्षुद्र वा नये गे सूत्र४।२४९ छ.-.णि पेढियाविणा महिंदझयापमाणा' भलिपी विनाना अने भन्न ! प्रथी युद्धत छ. 'तेसि' ये ४ ४ ४धानी क्षुद्र महेन्द्रका 'अवरेणं' पश्चिम हिमा 'चोरफाला' या नामना पहरणकोसा' मायुध - १२ ४९८ छ. 'तत्थण' से ५. ए पमा 'बहवे फलिहरचणपामोक्खा' परिघ २न विगेरे 'जाव' यावत् घड २४ विगेरे 'चिटुंति' राणे छ. 'सुहम्माणं उत्रि' ये सुधर्मसमानी ५२ 'अदृढ मंगलगा' मा मा8 भी द्रव्य छ જે આ પ્રમાણે છે.–સ્વસ્તિક ૧ શ્રીવત્સ ૨ નંદિકાવ ૩ વર્ધમાનક ૪ ભદ્રાસન ૫ કલશ ૬ મત્સ્ય ૭ દર્પણ ૮ રાખેલ છે. તથા અનેક સહસ્ત્ર પત્ર હાથમાં ધારણ કરેલ, સર્વ રત્નમય વિગેરે તેનું તમામ વર્ણન રાજકીય સૂત્રને ૧૪માં સત્રમાંથી સમજી લેવું, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् किमस्तीत्याह - 'तासि णं' इत्यादि - 'तासि णं' तयोः सुत्रर्मयोः खल 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - उत्तरपूर्वस्याम् - ईशानकोणे विदिशि 'सिद्धाययणा' सिद्धायतने- द्वे प्रज्ञप्ते, प्रतिसभमेकैकसद्भावात्, अत्र लाघवार्थमतिदेशमाह - 'एस चेव' इत्यादि - 'एस चेव' एष एव - सुधर्मासभोक्त एव 'गमोत्ति' गमः - पाठः 'जिणधराण वि' जिनगृहाणामपि - बोध्यः, स च गम एवम् -'ते णं सिद्धाययणा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छस्सकोसाई विक्खंभेणं णव जोयणाईं उद्धं उच्चत्तेनं अणेगखं भसयस णिट्ठिा' इत्यादि, एतच्छाया - ते खलु सिद्धायतने अर्द्ध त्रयोदशयोजनानि आयामेन पट् सक्रोशानि विष्कम्भेण नव योजनानि ऊर्ध्वमुच्यत्वेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे' एतद्व्याख्या स्पष्टा, यथा सुधर्मसभया पूर्वदक्षिणोत्तरदिग्वर्तीनि त्रीणि द्वाराणि सन्ति, तेषां च पुरतो मुखमण्डपाः, तेषां च पुरतः प्रेक्षामण्डपाः, तेषां च पुरतः स्तूपाः, तेषां च पुरतश्चैत्यवृक्षाः तेषां च पुरतो महेन्द्रध्वजाः, तेषां च पुरतो सुधर्मसभा में और क्या है सो कहते हैं 'तेसि णं' उन सुधर्म सभा के 'उत्तरपुरत्थिमेणं' ईशान कोण में 'सिद्धाययणा' दो सिद्धायतन कहे हैं ।' प्रत्येक सभा में एक एक होने से दो कहे हैं। 'एसचेव गमोत्ति' यही सुधर्मसभोक्त सब पाठ 'जिनघराण वि' जिनग्रह का भी कहना चाहिए | वह पाठ इस प्रकार है- 'तेणं सिद्धाययणा अद्धतेरस जोयणाई' आयामेण छस्स कोसाई विक्खंभेणं णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तर्ण अगखंभसयसन्निवि' वे सिद्धायतन साडे बार हजार योजन के आयामवाले हैं। एक कोस के सहित छ योजन के विष्कंभवाले हैं । नव योजन के ऊंचे हैं । अनेक सेकड़ों स्तम्भी से युक्त कहे हैं जिस प्रकार सुधर्मसभा के पूर्व, दक्षिण एवं उत्तर दिशा में तीन दरवाजे उनके आगे मुखमंडप, उनके आगे प्रेक्षामंडप उनके आगे स्तूप, उनके आगे चैत्यवृक्ष, उनके आगे महेन्द्रध्वज, उनके आगे नंदा पुष्करिणी कही है तदनन्तर सभामें-छहजार मनोगुलिका छह हजार गोमानसी कही है उसी प्रकार यहां २४१ सुधर्भसलामा श्री शुं हो? ये बात छे. 'तेसिणं' से सुधर्भ' सभाना 'उत्तर पुरत्थिमेण' ईशान शुभां 'सिद्धाययणा' मे सिद्धायतना उडेला छे. 'एस चैव गमोत्ति' खेल सुधर्म सलाम उस घणो पाठ 'जिनघराण वि' न हो पशु उही सेवेो लेखे याप्रमाणे देव छे. 'तेणं सिद्धाययणा अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छस्सकोसाईं विक्खंभेण णवजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखं भसयसन्निविट्ठा' थे सिद्धायतन साडा मार ચેજનના આયામવાળું છે. એક કેસ અને છ ચૈાજનના વિષ્મભવાળું છે, નવ ચાજન ઊંચુ છે. અનેક સેંકડા સ્તંભોથી યુક્ત છે. જે રીતે ધર્માંસભાના પૂર્વાં, દક્ષિણ, અને ઉત્તર દિશામાં ત્રણ દરવાજાએ છે. તેની આગળ મુખ મંડપ તેની આગળ પ્રેક્ષા મંડપ તેની આગળ સ્તૂપ તેની આગળ ચૈત્ય વૃક્ષ તેની આગળ મહેન્દ્રધ્વજ તેની આગળ નંદા પુષ્ક રિણી કહેલ છે. તે પછી સભામાં છ હજાર મનેગુલિકા છ હજાર ગામાનસી હેલ છે, ज० ३१ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नन्दापुष्करिण्य उक्ताः, तदनन्तरं सभायां षड्मनोगुलिकासहस्राणि षट् च गोमानसीसहस्राणि प्रोक्तानि तथैव जिनगृहविषयेऽपि सर्व वक्तव्यमिति भावः । अत्र च सुधर्मासभातो यो विशे. षस्तमाह-'णवरं' इत्यादि-'णवरं' नवरं केवलम् 'इम' इदम्-एतत् 'णाणत्तं' नानात्वम्-अनेकत्वम्-भेद इति भावः, सुधर्मासभापेक्षयेतिशेषः 'एएसिणं' एतेषां-जिनगृहाणां खलु 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमव्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'पत्तेयं२' प्रत्येकं२ एकैकस्मिन् जिन. गृहे 'मणिपेढियाओ' मणिपीठिकाः-मणिमयासनविशेषाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिकाः प्रमाणतः 'दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं' द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण-दैर्ध्यविस्ताराभ्याम्, 'जोयणं बाहल्लेणं' योजनं बाहल्येन-पिण्डेन, 'तासि' तासां-मणिपीठिकानाम् 'उप्पि' उपरि-ऊध्र्वभागे पत्तेयंर' प्रत्येकर 'देवच्छंदगा' देवच्छन्दके-जिनदेवासने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, तन्मानमाह-'दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं' द्वे योजने आयामविष्कम्भेण 'साइरे. गाई' सातिरेके-किञ्चिदधिके 'दो जोयणाई' द्वे योजने 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, ते च देवच्छन्दके 'सवरयणामया' सर्वरत्नमये-सर्वात्मना रत्नमये, 'जिणपडिमा' जिनप्रतिमा जिनगृह में भी यह सब वर्णित करलेवे । यहां पर सुधर्मसभा से जो विशेष वक्तव्यता है वह कहा जाता है-'णवरं इमं णाणत्तं' केवल यही यहाँ पर सुधर्मसभा से भिन्नता है 'एएसियं! इन जिन गृहों के 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्यभाग मैं 'पत्तयं पत्तेयं एक एक गृह में 'मणिपेढियाओ' मणिमय आसन विशेष कहे हैं। उन मणिपीठिका का प्रमाण इस प्रकार कहा है-'दो जोयणाई आयाम विश्वंभेणं' उनका विस्तार 'दो योजन का कहा है अर्थातू उनकी लंबाइ चोडाइ दो योजन की कही है। 'जोयणं बाहल्लेणं' उनका बाहल्य एक योजन का कहा है। 'तासिं' उन मणिपीठिका के 'उप्पि' ऊपर के भागमें 'पत्तेयं पत्तथ' प्रत्येक में 'देवच्छंदगा' जिनदेव का आसन 'पण्णत्ता' कहा है 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' वे आसन को लंबाई चोडाइ दो योजन की कही है। 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'दो जोयणाई उद्धं उच्च એજ પ્રમાણે અહીં જનગૃહમાં પણ એ તમામનું વર્ણન કરી લેવું. ___महीयां सुधम समान वर्ष थी र विशेष पतव्य छ, ते वामां आवे छ.- ‘णवरं इमं णाणत्तं' मडियां 4m सुधम समाथी मेटली on भिन्नता छ. 'एएसिण' से न अडानी 'बहुमज्झरेसभाए' समि२ भ६५ माममा पत्तेयं पत्तेयं' ४ मे मा 'मणि રેઢિયાળો’ મણિમય આસન વિશેષ કહેલા છે. એ મણિપીઠિકાનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે કહેલ छ. 'दो जोयणाई आयामविक्ख भेण' तेन विस्तार मे. योन। ४९ छ. अर्थात तना 5 पडणे. योगननी ४९ छ. 'जोयणं बाहल्लेण' तेनु साक्ष्य मे ये ननु उस छे. 'तासि' ये भलिपीन 'उप्प' उप२। मागमा पत्तेयं पत्रेय' १२४भा 'देव च्छंदगा' नवना भासन 'पण्णत्ता' डेस छे. 'दो जोयणाई आयामविक्ख भेणं' से मासननी मा पाजामे योगननी उस छ. 'साइरेगाइ' ५४ पधारे 'दो जोयणाई Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधात्योर्वर्णनम् २४३ वक्तव्या तस्याश्च ‘वण्ण भो' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहश्च वक्तव्यः, किम्पर्यन्तः ? इत्याह-'जाव धूवकडुच्छुगा' यावद् धूपकटुच्छुका-अष्टसहस्रसौवर्णकलशादितत्प्रमाणधूपकटुच्छुकापर्यन्तोवर्णको राजप्रश्नीयसूत्रस्य सप्ताशीतितमसूत्रादवसेयः। ___ अथ सुधर्मासभोक्तमेव सभाचतुष्टयेऽतिदिशनाह-'एवं अवसेसाण वि सभाणं' इत्यादि 'एवं' एवम्-सुधर्मासभावत् 'अवसेसाणवि' अवशेषाणां-सुधर्मासभाऽतिरिक्तानाम् उपपातादि समानाम् वर्णनं प्राकथितानुसारेणबोध्यम् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव उववायसभाए' यावत् उपपातसभायाम्-उत्पित्सु देवोत्पत्युपलक्षितसभायां 'सयणिज्ज' शयनीयं गृहकं चाभिव्याप्य वर्णनीयम् तथा 'हर ओय' ह्रदश्च नन्दापुष्करिणी प्रमाणो वक्तव्यः, सचोत्पन्नदेवस्य शुचित्व-जलक्रीडाद्यर्थः, 'अभिसेयसभाए' ततोऽभिषेकसभायाम्-अभिनवोत्पन्नदेवाभिषेक तेणं' दो योजन के ऊंचे हैं। वे आसन 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रत्नमय कहे है 'जिणपडिमा' यहां जिन प्रतिमा कही है 'वण्णओ' इसका वर्णन कहलेना वह कहांतक कहे इसके लिए कहते है 'जाव धूवकडुच्छुया' यावत् धूप कडुच्छक पर्यन्त कहे अर्थातू आठ हजार सुवर्ण कलशादि उनके प्रमाण जितनी धूपदानी कही है यह कथन पर्यन्त वर्णन समझलेवें । यह वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के ८७ सतासीवे सूत्र में कहे अनुसार समझलेवे। ____ अब सुधर्मसभा में जो चार सभा कही है उसका वर्णन किया जाता है'एवं' सुधर्मसभा के कथनानुसार 'अवसेसाणं वि' सुधर्मसभासे अतिरिक्त उपपातादि सभाका वर्णन भी समझलेवें वह वर्णन 'जाव उववायसभाए' यावत् उपपात सभा देवोत्पत्युपलक्षित सभामें 'सयणिज्ज' शयनीय गृह पर्यन्त यह वर्णन कह लेना तथा 'हरओय' नन्दा पुष्करिणी प्रमाण हृदका वर्णन कहे वह वहां उत्पन्न देव के जल क्रीडार्थ है 'अभिसेगसभाए' तदनन्तर अभिषेक सभा में उद्ध उच्चत्तेणं' में यौनस यो छ. ये मास 'सव्वरयणामया' सर्वात्मना रत्न. भय ४ा छ. 'जिणपडिमा' 8 9 प्रतिमा ४३ छ.. 'वष्णओ' तेनु वर्णन ४॥ देते पणुन यां सुधानु ४२ ते भाटे सूत्रा२ ४ छे. 'जाव धूवकडुच्छया' यावत् ધૂપ કચ્છક પર્યન્ત તે વર્ણન કહેવું. અર્થાત્ આઠ હજાર સુવર્ણ કલશાદિ તેના પ્રમાણ જેટલી ધૂપદાની કહેલ છે. આ કથન પર્યન્ત વર્ણન સમજી લેવું. આ વર્ણન રાજકશ્રીય સૂત્રના ૮૭ સત્યાશીમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવુ. હવે સુધર્મસભામાં જે ચાર સભા કહેલ છે. તેનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. ‘एवं' सुधम समाना थन प्रमाणे 'अवसेसाण वि' सुधर्म समाथी अन्य 6५पाता समानुपए न ५सभ यु. में वन 'जाव उबवायसभाए' यावत् पातसमा हेवोत्पत्युपतक्षित समाभा 'सयणिज्ज' शयनीय ५यन्त २पाणुन ४डी यु तथा 'हरओय' नह। पु०४२७ प्रमाणु हनु पर्युन ४ ते ६ त्या उत्पन्न थयेस वानी Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे महोत्सवस्थानभूतायां 'बहु अभिसेक्के' बहु आभिषेक्यम्-अभिषेकयोग्यं 'भंडे' भाण्ड-पात्रं वक्तव्यम्, 'अलंकारियसभाए' अलङ्कारिक सभायाम्-अभिषिक्तदेवानां भूपणधारणस्थानरूपायां 'बहु अलंकारिय भंडें' बहु अलङ्कारिकमाण्डम्-अलङ्कारयोग्यं भाण्डं 'चिटई' तिष्ठन्ति, 'ववसाय सभासु' व्यवसायसभयो:-अलङ्क्तानां देवानां शुभाध्यवसायानुचिन्तनस्थानरूपयोः 'पुत्थयरयणा' पुस्तकरत्ने- उत्तमपुस्तके ततो 'णंदा पुक्खरिणीओ' नन्दा पुष्करिण्यौ 'बलि पेढा' बलिपीठे 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' द्वे योजने आयाम-विष्कम्भेण-दैर्घ्यविस्ताराभ्याम्, अर्चनिकोत्तरकालं नवोत्पन्नदेवयोवलिविसर्जनपीठे अपि तथैव, 'जोयणं बाहल्लेणं' योजनं बाहल्येन-पिण्डेन 'जावत्ति' यावत्-यावत्पदेन-'सर्वरत्नमये अच्छे प्रासादीये दर्शनीये अभिरूपे, तत्र नन्दाभिधाने पुष्करिण्यौ च बलिक्षेपोत्तरकालं सुधर्मा. सभायां जिगमिषतोरभिनवोत्पन्नयोर्देवयोहस्तपादप्रक्षालनार्थे बोध्ये, अथ यथा सुधर्मसभातअभिनवोत्पन्न देवाभिषेक स्थानरूप 'बहु अभिसेक्के' अनेक अभिषेक योग्य 'भंडे' पात्र कहे हैं 'अलंकारियसभाए' अभिषेक देव के भूषण धारण स्थान रूप 'बहु अलंकारिय भंडे' अनेक अलङ्कार योग्य पात्र 'चिट्ठह' रखे हैं 'ववसायसभासु' अलंकार धारण किये हुवे देवों के शुभ अध्यवसाय का चिन्तन करने का स्थान रूप स्थल 'पुत्थयरयणा' उत्तम पुस्तकरत्न 'नंदा पुक्खरिणीओ' दो नन्दापुष्करिणी वावडी 'बलिपेढा' दो पलिपीठ 'दो जोयणाई आयाम विश्वंभेणं' वह बलिपीठ दो योजन के लंबाई चोडाई वाले हैं अर्चनिका काल के अनन्तर नया उत्पन्न हुवे देवके बलिरखनेका पीठ भी तथा 'जोयणं बाहल्लेणं' वह एक योजन का मोटाई वाला है 'जावत्ति' यहां यावत्पदसे सर्व रत्नमय अच्छा, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप वहां नन्दा पुष्करिणी नामकी दो वावडी बलिरखने के अनन्तर सुधर्मा VA1 भाट छ. 'अभिसेगसभाए' a पछी अभिषे समय न ५.न थयेवानिषेध स्थान ३५ 'बहुअभिसेक्के' भने मलिषे योग्य 'भंडे' पात्रो ४ा छ, “अलंकारिय सभाए' मनिष रायस हेवना माभूषा धार ४२१:ना स्थान ३५ 'बहु अलंकारियमंडे' मन मार योग्य पात्र 'चिदुइ' रामेसा छे. 'ववसायसभासु २ ४२ धारण ४२ हेवाना शुभ सयवसायनु चिन्तन ४२वाना स्थान ३५ 'पुत्थयरयणा' उत्तम पुस्त४२त्न 'नंदा पुक्खरिणीओं मे नही ४२५ वा 'बलिपेढा' मेसिपी6 'दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं' से पसीपी में योगनरसी aiमी पडणी छे. मानस पछी नपा Surन येस हेवना मलि पाना पी8 ५५] त 'जोयण वाहल्लेणं' से मे४ योन २८मा विस्तारवाणु छ. 'जावत्ति' मी यावत्पथी सवरत्नमय. २०२७, प्रासाहीय, शશનીય, અભિરૂપ એ વિશેષણે ગ્રહણ થયેલ છે. ત્યાં નંદા પુષ્કરિણી નામની બે વા બલિ રાખ્યા પછી સુધર્માસભામાં જવાની ઈચ્છાવાળા અને નવા ઉત્પન્ન થયેલ દેવના હાથ પગ ધેવા માટે છે તેમ સમજવું. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २१ यमका राजधान्योर्वर्णनम् ईशानकोणे सिद्धायतनं तथा तस्येशानकोणे उपपातसभा एवं पूर्वस्मात् २ परं परमीशानकोणे वक्तव्यं यावद्वलिपीठादुत्तरपूर्वस्यां नन्दापुष्करिणीति, कनिद् द्वित्वेन क्वचिच्चैकत्वेन पदनिर्देशः सूत्रकारप्रवृत्तिवैचिच्याद् बोध्यः।। इति यमिका राजधान्योर्गनम् ।। ___ अथ रमिका राजधान्यधिपयोर्यमकदेवयो रुत्पत्यादि स्वरूपं संक्षिपन् सङ्ग्रहगाथामाह'उववाओ संकप्पो' इत्यादि-'उववाओ' उपपात:-यमिकाभिधयोर्देवयोरुत्पत्तिः सा वाच्या, ततः 'सकप्पो'- सङ्कल्पः-उत्पन्नयो देवयोः शुभव्यवसायचिन्तनलक्षणः सङ्कल्पः ततः 'अभिसेय विहसणा' अभिषेक-विभूषणा अभिषेक:-इन्द्रकृताभिषेकः तत्सहिता विभूषणासभा में जाने की इच्छावाले एवं नये उत्पन्न देवके हस्तपाद-हाथ पाउं धोने के लिये है ऐसा समझे जैसा सुधर्म सभा के ईशान कोण में सिद्धायतन कहा है उसी प्रकार सिद्धायतनके ईशान कोण में उपपात सभा है एवं पूर्व से अन्य अन्य ईशान कोण में कहना चाहिए यावत् बलिपीठ के ईशान में नन्दापुष्करिणी कही है। ___'कहिं पर द्विवचन एवं कहिं पर एक वचन से जो निर्देश किया है सो सूत्र कार की शैलि की विचित्रता से समझे' . 'यमिकाराजधानी का वर्णन समाप्त' अब यमिका राजधानी के अधिपति यमकदेव के उत्पत्ति आदि स्वरूप को संक्षिप्त कर संग्रह गाथा कहते हैं-'उववाओ संकप्पो' इत्यादि-'उववाओ' उपपात यमिक नामधारीदेव की उत्पत्ति कहनी तदनन्तर 'संकप्पो' उत्पन्न हुवे देव के शुभव्यवसाय चिन्तनरूप संकल्प उसके पीछे 'अभिसेय विहसणा' इन्द्रने किया हुवा अभिषेक सहित अलङ्कार सभा में अलङ्कारों से शरीर को अलंकृत करना જેવું સુધર્મસભાની ઇશાન દિશામાં સિદ્ધાયતન કહેલ છે. એજ રીતે સિદ્ધાયતનની ઈશાન દિશામાં ઉપપાત સભા આવેલ છે, પહેલાંથી અન્ય-અન્ય ઈશાન દિશામાં કહેવા જોઈએ યાવત્ બલિપીઠની ઈશાનમાં નંદા પુષ્કરિણી કહેલ છે. ક્યાંક દ્વિવચન અને કયાંક એકવચનથી જે કથન કરેલ છે તે સૂત્રકારની શૈલીની વિચિત્રતાથી છે તેમ સમજવું. યામિકા રાજધાનીનું વર્ણન સમાપ્ત છે હવે યામિકા રાજધાનીના અધિપતિ યમક દેવની ઉત્પત્તિ આદિના કથનને ટુંક્વીને સંગ્રહ ગાથા કહે છે. 'उववाओ संकप्पो' त्या 'उववाओ Sund-यभि: नावाणा हेवनी पत्ति पी ते ५छ। 'संकप्पो' उत्पन्न येत ४॥ शुमायसायन यिन्तन ३५ स४८५, ते पछी 'अभिसेयविहूसणा' /न्द्रे ४२८ मनिष सहित २ सलाम म थी शरीरने Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अलङ्कारसभायामलङ्कारैः शरीरालङ्करणम् च-पुनः विवसायो' व्यवसायः-पुस्तकरत्नोद्घा टनलक्षणो व्यवसायः। ततो 'अच्चणिय सुधम्मगमो' अर्चनिका सुधर्मगमः-अर्चनिका-सिद्धा. यतनाधर्चा तत्सहितः सुधर्मगम:-सुधर्मायां सभायां, गमः-गमनम् 'जहा य' यथा च 'परिवरणा' परिवारणा-परिवेष्टना तत्तदिशि परिवारस्थापना सैव 'इद्धी' ऋद्धिः-सम्पत् यथा यमकयो देवयोः सिंहासनयोः परितो वामभागे चतुः-सहस्रसामानिकभद्रासनस्थापना तथा वक्तव्यं जीवाभिगमादितः,अथ यमकौ हूदाश्च यावताऽन्तरेण परस्परं स्थितास्तनिणेतुमाह'जावइयंमि' इत्यादि-'जावइयंमि पमाणमि' यावति-यत्प्रमाणके प्रमाणे-माने 'णीलवंताओ' नीलवतः-तनामकात् पर्वतात् 'हंति जमगाओ' यमको पर्वतौ भवतः 'तावइयमंतरं' तावत्कं-तावत्-तत्प्रमाणकम् 'खलु' खलु-निश्चयेन 'जमगदहाणं-दहाणं च' यमकहूदयो हदानां चान्तरं बोध्यम् तच्चान्तरं योजनसप्तभागचतुर्भागाभ्यधिक चतुस्त्रिंशदधिकाष्टशतयोजनरूपं ज्ञेयम् उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ।।सू०२१॥ और 'ववसायो' पुस्तकरत्न के खोलने रूप व्यवसाय तत्पश्चात् 'अच्चणिय सुहम्मगमो' सिद्धायतन आदि की अर्चा सहित सुधर्म सभा में जाना 'जहाय' जैसे 'परिवरणा' उस दिशामें परिवार की स्थापना वही 'इद्धी' सम्पत्ति जैसा कीयमिक देवके सिंहासन की चारों ओर चार चार हजार सामानिक देव के भद्रासन की स्थापना जीवाभिगम आदि में कहे अनुसार कहे । अब यमिका राजधानी एवं हृद जितने अंतर से परस्पर में स्थित है उसका निर्णयार्थ कहते हैं-'जावइयंमि पमाणमि' जितने प्रमाण के मान 'णीलवंताओ' नोलवंत पर्वत के 'हंति जमगाओ' यमक पर्वत कहे है, 'तावइयमंतरं' उतना प्रमाण निश्चय से 'जमगदहाणं च' यमक हृदका एवं अन्य हृदका अन्तर समझ लेना वह अंतर ८३४ योजन सातिया चार भाग प्रमाण समझना उपपत्तिका कथन पहले कहे अनुसार कहना ॥स०२१॥ शाला. मने 'ववसायो' पुस्त: २त्नना मोसवा ३५ व्यवसाय, ते पछी 'अच्चणिय सुहम्मगमो' सिद्धायतन विगैरेनी मर्या सहित सुधम समामा - 'जहाय' म 'परिवरणा' તે તે દિશામાં પરિવારની રથાપના “ી સમ્પત્તિ જેમકે યમિક દેવના સિંહાસનની ચારે તરફ ચાર ચાર હજાર સામાનિક દેવના ભદ્રાસનની સ્થાપના જીવાભિગમ વિગેરેમાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવા. - હવે યમિકા રાજધાની અને હદનું અંતર કેટલું છે તેના નિર્ણય માટે સૂત્રકાર કહે छ-'जावईमि पमाणमि' २८९प्रभाधुनु मा५ ‘णीलवंताओ नीस' ५'तनु छ 'जम गाओ तावइयमंतरं' यम४ ५'तनु ५४ ते २ छे. 'जमगदहाणं दहाणं च' यम હદનું અને બીજા હનું અંતર સમાન છે. એટલે કે તે અંતર ૮૩૪ જન સાતિયા ચાર ભાગ જેટલા પ્રમાણનું કે સમજવું ઉપપત્તિનું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવું સૂ. ૨૧ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २२ नीलवन्तादिह्रदवर्णनम् अथ येषां इदानामन्तरमानं प्रागुक्तं तान् स्वरूपतो निर्दिशति । मूलम्-कहि णं भंते ! उत्तरकूराए णीलवंतदहे णामं दहे पण्णत्ते ? गोयमा ! जमगाणं दक्विगिल्लाओ चरिमंताओ अट्रसए चोत्तीसे चत्तारि य सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए सीयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं णीलवंतदहे णामं दहे पण्णने दाहिणउत्तरायए पाईणपडीविस्थिपणे जहेव पउमदहे तहेव पण्णओ पेयव्वो णाणत्तं दोहिं पउआवरवेइयाहिं दोहि य वगसंडेहिं संपरिक्खत्ते, णीलवंते णामं णागकुमारे देवे सेसं तं चेव णेयव्वं, णीलवंतदहस्स पुत्वावरे पासे दस २ जोयगाइं अबाहाए एत्थ णं वीसं कंचगगफ्वया पण्णत्ता, एगं जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं । मूलंमि जोयणसयं पण्णत्तरि जोयणाई मज्झमि । उवरितले कंचणगा पण्णासं जोयणा हुंति ॥१॥ मूलंमि तिणि सोले सत्तत्तीसाइं दुण्णि मज्झंमि । अट्ठावण्णं च सयं उवरितले परिरओ होइ ॥२॥ पढमित्थ नीलवंतो? बितीओ उत्तरकुरु२ मुणेयव्यो। चंदबहोत्थ तइओ३ एरावय४ मालवंतो य ५ ॥३॥ एवं वाणओ अटो पमाणं पलिओवमट्टिइया देवा ॥ सू० २२ ॥ छाया-क्च खलु भदन्त ! उत्तर कुरुषु नीलवद् हुदो नाम इदः प्रज्ञप्तः, गौतम ! यमकयोर्दाक्षिणात्याच्चरमान्तात् अष्टशतं चतुस्त्रिंशं चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया सीतागा महानद्या बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु नीलवद्धदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, दक्षिणोत्तरायतः प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णः यथैव पद्महूदः तथैव वर्णको नेतव्यः, नानात्वं द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्तः, नीलवान् नाम नागकुमारो देवः शेषं तदेव नेतव्यम्, नीलवद्धदस्य पूर्वापरे पार्श्व दश २ योजनानि अबाधयाऽत्र खलु विंशतिः काश्चनकपर्वताः प्रज्ञप्ताः, एकं योजनशतमूर्ध्वमुच्चत्वेन मुले योजनशतं पञ्चसप्ततिर्योजनानि मध्ये । उपरितले कञ्चनकाः पश्चाशद्योजनानि भवन्ति ।।१।। मूले त्रीणि पोडशे सप्तत्रिंशे द्वे मध्ये । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अष्ट पञ्चाशंच शतमुपरितले परिरयो भवति ॥२॥ प्रथमो नीलवान् १ द्वितीय उत्तरकुरुतिव्यः२ । चन्द्र ह्रदोऽत्र तृतीयः ३ ऐरावतश्च४ माल्यवांश्च ५॥३॥ एवं वर्णकः अर्थः प्रमाण पल्योपमस्थितिका देवाः ॥सू ०२२॥ टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए गोलवंतबहे णामं दहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! क्व-कुत्र उत्तरकुरुषु२ नीलवद्धदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः ?, भगवानाह'गोयमा ! जमगाणं दक्खिणिल्लाओ' गौतम ! यमकयोः दाक्षिणात्यात्-दक्षिणदिग्भवात् 'चरिमंताओ' चरमान्तात्-सर्वान्तात् 'अट्ठपए' अष्टशतम्-अष्ठानां शतानां समाहारोऽष्टशतम् 'चोत्तीसे' चतुस्त्रिंश-चतुस्त्रिंशदधिकं 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए' चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया कृत्वेति गम्यम् अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, 'सीयाए' सीतायाः-तन्नाम्न्याः 'महाणईए बहुमज्झदेसभाए' महानद्याः बहुमध्यदेशभाग:-अस्ति, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खल ‘णीलवंतदहे णामं दहे पण्णत्ते' नीलवढ्दो नाम हदः प्रज्ञतः, स च हृदः 'दाहिण उत्तरायए' दक्षिणोत्तरायतः-दक्षिणोत्तरयोर्दिशोः आयतः-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः पूर्वपश्चिमयोर्दिशो विस्ती कहिणं भंते ! इत्यादि, टीकार्थ-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए णीलवंतद्दहे णामं दहे पण्णत्ते' हे हे भगवन् उत्तरकुरु में नीलवंत नामका हृद कहां पर कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा जमगाणं दक्विणिल्लाओ' हे गौतम ! यमक के दक्षिण दिशाके 'चरिमंताओ' चरमान्त से 'अट्ठसए' आठसो 'चोत्तीसे चोत्तीस 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अवाहाए' योजनका ४ भाग अपान्त. रालको छोडकर 'सीयाए' सीता नामकी 'महाणईए बहुमज्झदेसभाए' महानदी का ठीक मध्यभाग है 'एत्थ णं' यहां पर 'णीलवंतबहे णामं दहे पण्णत्ते' नीलवंत हद नामका हृद कहा है। वह हृद 'दाहिणउत्तरायए' दक्षिण उत्तर दिशा में लंबा है 'पाईणपडीणवित्थिपणे' पूर्व पश्चिम दिशा की ओर विस्तार युक्त है । उस 'कहिणं भंते !' त्या टी -'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए णीलवंतबहे णामं दहे पण्णत्ते' ३ मा उत्तर ७३मां नीतह ४यां डेरा छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री ३ छ-'गोयमा! जम गाणं दक्खिणिल्लाओ' हे गौतम ! यमनी हक्षिण हिशाना 'चरमंताओ' य२मान्तथी 'अदसए' मा से। 'चोत्तीसे' यात्रीस 'चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए' योगनना ४ मा सपा-तराखने छ। 'सीयाए' सीतनामनी 'महाणईए बहुमज्झदेसभाए' महानहीन पराम२ मध्यमा छे. 'एत्थणं' त्यो ‘णीलवंतहहे णामं दहे पण्णत्ते' नlaai नामनु । इस छ, ते 'दाहिणउत्तरायए' क्षिा उत्तर दिशामi aij छे. 'पाईण पईण वित्थिण्णे' Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २२ नीलवन्तादिह्रदर्णनम् २५९ :-विस्तारयुक्तः, तस्य च 'जहेव पउमदहे' यथैव पद्महदः 'तहेव वण्णो णेययो' तथैव वर्णको नेतव्यः-ग्राह्यः, 'णाणत्त' नानात्वं-विशेषश्चायम्-'दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां संपरिक्षिप्तःपरिवेष्ठितः,-अयं भावः- पद्महदस्तु एकया पद्मपरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सम्परिक्षिप्तः, अयं नीलवान् हदस्तु द्वाभ्यां२ ताभ्यां सम्परिक्षिप्तः सोतामहानद्या द्विभागीकृतत्वेन उभयपार्श्ववति वेदिकाद्वययुक्तत्वात् , अत्र ‘णीलवंते णामं णागकुमारे देवे' देवश्च नीलवान् नागकुमारः इति विशेषः 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव पद्महदोक्तमेव 'णेयव्वं' नेतव्यम्-ग्राह्यम्, पद्मादिकं शेष पद्मदवबोध्यम् , तन्मानसंख्या परिक्षेपादिकं च तथैव । ___ अथ काञ्चनगिरिव्यवस्थामाह-‘णीलवंतद्दहस्स' इत्यादि-'णीलवंतदहस्स पुवावरे' हृदका वर्णन 'जहेव पउमद्दहे' इस कथनानुसार पद्महृद के वर्णन के समान 'तहेव वण्णओ जेयत्वों' उसका वर्णन समझलेवे' 'णाणत्तं' उसवर्णन एवं इस वर्णन में जो विशेषता है वह इस प्रकार है 'दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' यह हृद दो पद्मवर वेदिका और दो वनषंडसे परिवेष्टित है । कहने का भाव यह है कि पद्महृद एक पद्मवरवेदिका और एक वनषण्ड से परिवेष्टित है तब की यह नीलवंत हृद दो पद्मवर वेदिका एवं दो वनषंडसे परिवेष्टित है। सीता महानदी का दो भाग करने से दोनों पार्श्ववर्ति दो वेदिका युक्त होने से दो दो कहा है। ___यहां पर 'नीलवंते नागकुमारेदेवे' नीलवान नामका नागकुमारदेव है यह विशेष है 'सेसं तं चेव' अन्य सब कथन पद्महृद् के समान ही 'णेयत्वं' कहना चाहिए, पद्मादिक शेष सब कथन पद्महृद के समान ही समझलेवें, उसका मान परिक्षेप आदि भी उसी प्रकार है । पूर्व पश्चिम दिशा त२५ विस्तारवा छे. ते नुवर्णन 'जहेव पउमदहे' थे 3थन प्रमाणे पाहना पणन स२ छ. 'तहेव वण्णओ णेयव्वो' तेनु न समय से 'णाणत्तं' ये पाणन भने । पाणुनमा २ विशेषता छ ते या प्रमाणुनी छे. 'दोहिं पउ. मवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्तो' हो ५१२ at सनसे पनप थी વીંટળાયેલ છે. કહેવાને ભાવ એ છે કે–પડ્યહુદ એક પદ્મવર વેદિકા અને એક વનણંડથી વીંટળાયેલ છે. અને નીલવંત હદ બે પાવર વેદિકા અને બે વનખંડથી વીંટળાયેલ છે, સીતા મહા નદીના બે ભાગ કરવાથી બન્ને બાજુથી બે વેદિકા યુક્ત હવાથી બલ્બ કહેલ છે. दीया नीलवंते नाम नागकुमारे देवे' नीतवान् नाभना नाममा२ हेव छ. सेट विशेष छे. 'सेसं त चेव' भी तमाम ४थन पहना ४थन सरभु ४ 'णेयव्वं' ही લેવું પદ્માદિક બાકીનું તમામ કથન પદ્મદના સરખું જ સમજી લેવું, તેનું માપ પરિક્ષેપ વિગેરે પણ એજ પ્રમાણે છે. ज० ३२ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे नीलवद्धदस्य पूर्वापरे-पूर्वस्मिन्नपरस्मिंश्च 'पासे दस२ जोयणाई अवाहाए' पार्श्व दश २ योजनानि अबाधया कृत्वेति गम्यम्-अपान्तराले मुक्त्वेति भावः, 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु दक्षिणोत्तरश्रेण्या परस्परं मूले संबद्धाः, अन्यथा शतयोजनविस्ताराणा मेषां सहस्रयोजनमाने हुदायामेऽवकाशासम्भव इति 'वीसं विंशतिः-विशति संख्यकाः२ 'कंचणगपव्वया' काञ्चनपर्वताः-सुवर्णपर्वताः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, 'एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं' एकं योजनशतम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, एषां काञ्चनपर्वतानां विष्कम्भ-परिक्षेपौ गाथाद्वयेनाह-'मलंमि जोयणसयं' इत्यादि-'मृलंमि' मुले-मुलावच्छेदेन 'जोयणसयं' योजनशतम् 'पण्णतरि जोयणाई मज्झमि' मध्ये पञ्चसप्ततिः योजनानि, 'उवरितले' उपरितले-शिखरतले 'कंचणगा' काचनका:-काश्चनपर्वताः 'पण्णासं जोयणा हंति' पञ्चाशतं योजनानि भवन्ति ।। 'मूलंमि तिण्णि' मूले त्रीणि योजनशतानि 'सोले' पोडशानि-पोडशाधिकानि, 'सत्त - अब काश्चनगिरिकी व्यवस्था कहते हैं-'नीलवंतस्स दहस्स पुवावरे' नीलवंत हृद के पूर्व एवं पश्चिम 'पासे दस जोयणाई अबाहाए' पार्श्व में दस दस योजन की अबाधासे अर्थात् अपान्तराल में छोड करके 'एस्थ गं' यहां दक्षिणोत्तर श्रेणीसे परस्पर मूल में संबद्ध अन्यथा सो योजन विस्तार वाले, इनको हजार योजन मान में हृद का आयाम-लंबाई का अवकाशका असम्भव होता 'वीसं' वीस 'कंचणगपव्वया' कांचन पर्वत-अर्थात् सुवर्ण पर्वत 'पण्णत्ता' कहा है वे पर्वत 'एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं' एकसो योजन का ऊंचा है। __अब वे कांचन पर्वत का विष्कम्भपरिक्षेप दो गाथा से कहते हैं-'मूलंमि जोयणसयं मूल भाग में सो योजन 'पण्णत्तरि जोयणाई मज्झमि' मतावन योजन मध्य भाग में 'उवरितले शिखर के भाग में कांचन पर्वत 'पण्णासं जोयणा हुंति' पचास योजन होता है ॥१॥ वे iयन GIRना समयमा ४थन ४२वामा मात्र है-'नीलवंतस्स दहस्स पुव्वा वरे' नीसन व अने पश्चिम ‘पासे दस दस जोयणाई अबाहाए' से इस દસ એજનની અબાધાથી અર્થાત્ અપાન્તરાલમાં છેડીને “સ્થળ ત્યાં આગળ દક્ષિણેત્તર શ્રેણીથી પરસ્પર સંબદ્ધ અન્યથા સે જન વિસ્તારવાળા અને હજાર એજનના માપમાં हुन। मायाम-साधना २०१४ाशनअसलथात, 'वीसं' वीस 'कंचणग पव्वया' यन पर्वत अर्थात् सुवर्ण पत ‘पण्णत्ता' ४उस छे. थे त 'एगं जोयणसयं उद्धं उच्च. - એ જન જેટલે ઉંચે કહેલ છે. वे ते यन यतन विष्म अने परिक्ष५ मे था दा॥ ४ छ, “मूलंमि जोयणसयं' भू भागमा सो योन 'पण्णत्तरि जोयणाई मझमि' सत्तावन येन भय नाभा 'उवरितले' शिरना लाभलयन पत 'पण्णासं जोयणा हुति' पयास योगानने। થાય છે. જે ૧ છે Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २२ नीलवन्तादिह्रदर्णनम् २५१ तीसाई दुणि मज्झं मि' मध्ये सप्तत्रिंशे-सप्तत्रिंशदधिके द्वे योजनशते 'उवरितले' उपरितले 'अट्ठावण्णं च' अष्टपञ्चाशम् अष्ट पञ्चाशदधिकं 'सयं' शतं 'परिरओ' परिरयः-परिधिः।। इह च मूले परिधौ मध्यपरिधौ च किश्चिद्विशेषाधिकमनुक्तमपि बोध्यम् , अथ क्रमेण पञ्चा. नामपि इदानां नामानि निर्दिशति-'पढमित्थ' इत्यादि-'पढ मित्थ' प्रथम:-आदिमः 'णीलवंतो'-बितीओ उत्तरकुरुर मुणेयवो' नीलवान् १ द्वितीय उत्तरकुरुः२ ज्ञातव्यः-बोध्यः, 'चंदद्दहोत्थ तइओ३' महदः अत्र-पञ्चसु तृतीयः३ 'एरावए' ऐरावतः चतुर्थः४ 'मालवंतो य' माल्यवान् च पञ्चमः५ बोध्यः ।। अथानन्तरोक्तानां काञ्चनपर्वतानामेषां हृदादीनां च स्वरूपनिरूपणार्थ लाघवार्थमेकमेव सूत्रमाह-‘एवं वण्णओ' इत्यादि-‘एवं' एवं-नीलवद्धदानुसारेण उत्तरकुरु इदादीनामपि 'वण्णओ अट्ठो' वर्णकोऽर्थश्च बोध्यः, तथा तेषां 'पमाणं' प्रमाणं-मानं तत्र पल्योपमस्थितिका __ 'मूलंमि तिष्णि' मूल में तीनसो योजन 'सोले' सोलह अर्थात् मूल में तीन सो सोलह योजन 'सत्ततीसाई दुण्णि मज्झंमि' दोसो से तीस योजन मध्य में 'उवरितले' ऊपर के भाग में 'अट्ठावगं च' अठावन 'सयं' सो अर्थात् अट्ठावनसो का 'परिरओ' परिधि-घेराव है ॥२॥ यहां मूलकी परिधि एवं मध्य की परिधि में कुछ विशेषाधिक भी कहा है। अब क्रम से पांचों हृदों के नाम कहते हैं-'पढमित्थणीलवंतो' प्रथम नील वंत पर्वत है, "बितीयो उत्तरकुरु मुणेयत्वो' दूसरा उत्तरकुरु कहा है, 'चंद६होत्थ तइओ' चंद्र हृद तीसरा कहा है 'एरावए चउत्थ' ऐरावत चोथा है 'माल वंतो य' माल्यवान् पांचवां कहा है ॥३॥ अब पूर्वोक्त कांचन पर्वत एवं उनके हृदादि के स्वरूप निरूपणके लिए लाघव करने के हेतु से एक ही भूत्र कहते हैं-"एवं' नीलवंत हृद् के कथनानुसार उत्तर कुरु हृदादि के भी 'वण्णओ अट्ठो' वर्णन करलेना, तथा उनका 'मूलंमि तिण्णि' भूगमा से। यो। 'सोले' सोण अर्थात् भूगमा सो सोग य४न 'सत्ततीसाईदुल्हि मज्झंमि' मसेसात्रीस या मध्यभा 'उवरितले' 8५२ना लामा 'अट्ठावण्णं च' महावन 'सयं' सो अर्थात् सट्टावन सोन। 'परिरओ' ५२छि धेशव छ. ॥२॥ અહીંયાં મૂલની પરિધિ અને મધ્યની પરિધિમાં કંઈક વિશેષાધિક પણ કહેલ છે. उ थी पाय होना नाम ४९ छ.-'पढमित्थ णीलवंते' प नlade छे. 'बितीयो उत्तरकुरु मुणेयवो' भाले उत्तर १३ ४उस छ. 'चंददहोत्थ तईयो' यह श्रीन ४स छे. 'एरावए चउत्थे' मैरावत या छे. 'मालवंतोय' माल्यवान् पांय छे. ॥3॥ હવે પૂર્વોક્ત કાંચન પર્વત અને તેના હૃદાદિના સ્વરૂપનું કથન કરવા માટે સક્ષેપ કરવાના હેતુથી એક જ સૂત્ર કહે છે-“gવં” નીલવંત હદના કથન પ્રમાણે ઉત્તર કુરૂ આદિ दीनु 'वण्णओ अट्ठो' पणुन ४ . तथा तेनु ‘पमाणं' भाना प्रभार ५ मेग Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवाश्च बोध्याः पद्मवरवेदिकावनषण्ड त्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणमूलपद्माष्टोत्तरशतपद्मपरिवारपदमशेषपदमपरिक्षेपश्यवर्णनमपि बोध्यम् । तथैवार्थः- उत्तरकुर्वादि इदनामान्वर्थ:-उत्तरकुरुहूद प्रभोत्तरकुरुहूदाकारोल्पलादियोगाद् उत्तरकुरुदेवस्वामिकत्वाच्च उत्तरकुरुहूदः२ इति । चन्द्रहदप्रनागि-वन्द्रहृदाकाराणि चन्द्रहदवर्णानि चन्द्रश्चात्र देवःस्त्रामोति तद्योगात्तदधिष्ठित्तत्वाच्च चन्द्रहदः३, ऐरावतं-तनामकमुत्तरपार्श्ववर्तिभरतक्षेत्रप्रतिरूपकक्षेत्रम् तत्प्रभाणितदाकाराणि-आरोपितज्यधनुराकाराणि उत्पलादीनि ऐरावतश्चात्र देवः स्वामीत्यैरावतः, माल्यवद्वक्षस्कारप्रभोत्पलादि योगान्माल्यवदेवस्वामिकत्वाच्च माल्यवहद इति, प्रमाणं च 'पमाणं' मानादि प्रमाण भी उसी प्रकार समझ लेवे' वहां के देव की स्थिति एक पल्योपम की कही है । पद्मवर वेदिका, वनषंड, त्रिसोपान प्रतिरूपक, तोरण मूल, एक सो आठ पद्म, पदमका परिवार, पद्मशेष, तीन पद्म परिक्षेप का वर्णन भी यहाँ करलेवें । उत्तर कुरु आदि हृदों का 'अन्वर्थ नाम जैसे उत्तर कुरु हृद में उत्पन्न उत्तर कुरु हृद् के आकार वाले पद्म के योग से एवं उत्तर कुरु देव स्वामी होने से उत्तर कुरु हृद ऐसा नाम कहा है। चन्द्र हृद के प्रभा-के जैसा प्रभा होने से, चन्द्र सुद के आकार वाले होने से, चन्द्र हृद के जैसे वर्ण होने से एवं चन्द्र यहो के देव होने से चन्द्र यहां के अधिष्ठाता होने से चंद्र हृद एसा नाम कहा है ॥३॥ ऐरवत नाम वाला उत्तरपार्श्व में भरतक्षेत्र के समानक्षेत्र है। उसकी प्रभा. वाले, उसके जैसे आकार वाले अर्थात् सजकिए धनुष के जैसे आकार वाले उत्पलादि होने से ऐरावत देव वहां का स्वामी होने से उसका नाम ऐरवत ऐसा कहा है। ____ माल्यवान् वक्षस्कार की प्रभा होने से एवं उत्पलादि माल्यवान के जैसे होने से तथा माल्यवान देव वहां का स्वामी होने से भाल्यवान् हृद ऐसा कहा પ્રમાણે સમજી લેવું ત્યાંના દેવની સ્થિતિ એક પમિની કહેલ છે. પાવર વેદિકા વનખંડ, ત્રિપાન પ્રતિરૂપક, તરણ મૂળ એક આઠ પદ્ધ, પોનો પરિવાર, પદ્મશેષ અને ત્રણ પદ્મ પરિક્ષેપનું વર્ણન પણ અહીંયાં કરી લેવું. ઉત્તરકુરુ વિગેરે હુનું અન્વથ નામ કેમ ઉત્તર કરૂ હદમાં ઉત્પન્ન થયેલ ઉત્તરકુરૂ હદના આકારવાળા પાના વેગથી તેમજ ઉત્તર કુરૂ હુદાકાર ઉ૫લ વિગેરેના વેગથી ઉત્તરકુરૂ હુદ એવુ નામ કહેલ છે. ચંદ્ર હ ની પ્રભાન જેવી પ્રભા હોવાથી ચંદ્ર હૃદના જે આકાર હેવાથી, ચંદ્ર હદના જે વર્ણ હોવાથી તેમજ ચંદ્ર તેને દેવ હોવાથી, ચંદ્ર તેને અધિષ્ઠાતા હોવાથી ચંદ્રહૃદ એવું નામ કહેલ છે. ૩ એરવત નામનું ઉત્તર પાર્ધામાં ભરતક્ષેત્રના સરખું ક્ષેત્ર છે. તેની પ્રભાવાળું, તેના આકારવાળું અર્થાત સજજ કરેલ ધનુષના જેવા આકારવાળા ઉપલાદિ હોવાથી એરવત દેવ ત્યાંના અધિષ્ઠાતા દેવ હોવાથી તેમનું નામ એરવત એ પ્રમાણે કહેલ છે. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थ वक्षस्कारः सू० २२ नीलवन्तादिह्रदर्णनम् २५३ सहस्रं योजनानि आयामः, तदर्द्ध विष्कम्भः, इत्यादिकम्, तत्राऽऽयस्य नागेन्द्र उक्तः, शेषाणां व्यन्तरेन्द्राः काञ्चनपर्वतानां वर्णको यमक पर्वतवद् वक्तव्यः, नामन्वर्थस्तु काञ्चनवर्णोत्पलादि योगात् काञ्चनपर्वताः प्रमाणं योजनशतोच्चत्वं मूले योजनस्तं विस्तार इत्यादिकम् उत्तरकुरुहदादिशेषहद पार्श्ववर्तिकाञ्चनपर्वतापेक्षयेदं बोध्यम् अथवा प्रमाणं प्रतिहदं विंशतिः प्रतिपार्थ दश सर्वसंख्या संकलनया शतमित्यादिकम् 'पलिओमडिया देवा' पल्योपमस्थितिकाच देवा इति, राजधान्यश्चैतेषामनुक्का अपि यमकदेवराजधानीवद् वक्तव्याः, ताश्च तत्तदमिलापेन वाच्या, १ सू० २२|| जाता है। उसका प्रमाण एक हजार योजन का आयाम एवं उससे अर्द्धा विष्कम्भ कहा है । उनमें प्रथम जो उत्तर कुरु नामका हृद है उसका इन्द्र नागेन्द्र कहा है, बाकी के सब हृदों के व्यन्तरेन्द्र इन्द्र है । कांचन पर्वत का वर्णन यमक पर्वत के समान कहना चाहिए उसके नामकी अन्वर्थता कांचन वर्णन उत्पलादि होने से एवं उसके योग से कांचन पर्वत ऐसा कहे जाते हैं । उसका प्रमाण एकसो योजन ऊंचा मूल में सो योजन के विस्तारवाले इत्यादि उत्तर कुरु हृदादि शेषहद के पार्श्वस्थ कांचन पर्वत की अपेक्षा से जानना, अथवा प्रतिहृद का प्रमाण वीस योजन प्रतिपा का दस योजन संघ को जोडने से सो योजन इत्यादि समझलेवें 'पलिओदमट्टिईया देवा' पल्योपम की स्थितिवालेदेव इत्यादि तथा उनकी राजधानी यहाँ न कहने पर भी यमक देवकी राजधानी के कथनानुसार समझलेवें ||०२२ ॥ માલ્યવાન્ વક્ષસ્કારના જેવી કાંતી હેાત્રાથી તેમજ ઉત્પલ વિગેરે માલ્યવાનના જેવા હાવાથી તથા માન્યવાન દેવ ત્યાંના સ્વામી હાવાથી માલ્યવાન્ ઃ એવું નામ કહેવાય છે. તેનું પ્રમાણ એક હજાર યેાજન જેટલા આયામ અને તેનાથી અર્ધો વિષ્ણુભ કહેલ છે. તેમાં પહેલુ' જે ઉત્તરકુરૂ નામનુ હૃદ છે, તેના ઈન્દ્ર નાગેન્દ્ર કહેલ છે. ખાીના ખીજા બધા હદના ઈંદ્ર વ્યન્તર દેવ છે. કંચન પતનું વન યમક પતના વર્ણન પ્રમાણે કડવુ જોઇએ. તેના નામની અન્વર્થાતા કાંચન વધુ ના ઉત્પલા, હાવાથી અને તેના ચેગથી કાંચન પર્વત એ પ્રમાણેનુ નામ કહેવાય છે. તેનું પ્રમાણ એક સે યાજન જેટલેા ઉંચા મૂલમાં એક સે ચેાજનના વિસ્તારવાળા ઇત્યાદિ પ્રકારથી ઉત્તરકુરૂ હૃદાદિ શેષ હૃદના પાશ્ર્વત્થ કાંચન પર્યંતની અપે. ક્ષાથી સમજવુ' અથવા દરેક હદનું પ્રમાણુ વીસ ચેાજનનું દરેક પાનું દસ ચેાજન अधाने भेजववाथी सेो योजन यर्ध लय छे त्याहि सम सेवु 'पलियो मट्ठिया देवा' પચેપમની સ્થિતિવાળા દેવા ત્યાદિ તથા તેમની રાજધાની અહિયાં ન કહેવા છતાં ચમક દેવની રાજધાનીના કથનાનુસાર સમજી લેવી. ॥ સૂ. ૨૨ ૫ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ यन्नाम्नायं जम्बूद्वीपः ख्यातस्तां सुदर्शनानाम्नी जम्बू विवक्षुस्तदधिष्ठानमाह मूलम-कहि ; भंते! उत्तरकुराए २ जंबूपेढे णामं पेढे एण्णते ?, गोयमा! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं मंदरस्स उत्तरेणं माल वंतस्स वखारपव्ययस्स पञ्चत्थिमेणं सीयाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थ णं उत्तरकुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं पण्णरस एक्कासीयाइं जोयणसयाई किंचिविलेसाहियाइं परिक्खेवेणं, बहुमज्झदेसभाए बारस जोयणाई बाहल्लेणं, तयणंतरं च णं मायाए २ पएसपरिहाणीए २ सव्वेसु णं चरिमपेरंतेसु दो दो गाउयाइं बाहल्लेणं सव्वजंबूणयामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दुहंपि वण्णओ, तस्स णं जंबूपेढस्स चउदिसिं एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा एण्णत्ता, वण्णओ जाव तोरणाइं, तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं मणिपेढिया पण्णत्ता, अटजायणाई आयामविकखंभेणं, चत्तारि जोयगाइं बाहल्लेणं, तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं जंबूसुदंसणा पण्णत्ता, अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं, तीसेणं खंधो दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं, तीसे णं साला छ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं बहुमज्झदेसभाए अट जोयणाई आयामविक्खभेणं साइरेगाइं अट्ठ जोयणाइं सव्वग्गेणं, तीसे णं अयमेयारूवे वाणावासे पण्णत्ते-वइरामया मूला रययसुपइट्रियविडिमा जाव अहियमणणिव्वुइकरी पासाईया दरिसणिज्जा. __ जंबूए णं सुदंसणाए चउदिसिं चत्तारि साला पण्णत्ता, तेसि णं सालाणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं सिद्धाययणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोणं विक्खंभेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसणिविटें जाव दारा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणे जाव वणमालाओ मणिपेढिया पंचधणुसयाइं आयामविक्खंभेणं अद्धाइजाइं धणुसयाइं बाहल्लेणं, तीसे Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् ___ २५५ णं मणिपेढियाए उप्पिं देवच्छंदए पंचधणुसयाई आयामविखंभेणं साइरेगाइं पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, जिणपडिमावण्णओ णेयम्वोत्ति। तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले एत्थ णं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं, एवमेव णवरमित्थ सयणिज्ज सेसेसु पासायवडेंसया सीहासणा य सपरिवारा इति। जंबू गं बारसहिं पउमवरवेइयाहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता, वेइयाणं वण्णओ, जंबू णं अण्णेगं असएणं जंबू णं तद चत्ताणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता, तासि णं वाणओ, ताओ णं जंबू छहिं पउभवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता, जंबूए जरदसणाए उत्तरपुरस्थिमेणं उत्तरेणं उत्तर पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि जंबूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तीसे णं पुरथिमेणं चउण्हं अग्गमहिसीणं चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ-दक्खिणपुरत्थिमे दक्खिणेण तह अवरदक्खिणेणं च। अट्टदस बारसेव य भवंति जंबूसहस्साई ॥१॥ अणियाहिवाण पञ्चस्थिमेण सत्तेव होति जंबूओ। सोलस साहस्तीओ चउदिसिं आयरक्वाणं ॥२॥ जंबएणं तिहिं सइएहिं वणसंडेहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ता, जंबूए णं पुरस्थिमेणं पण्णासं जोयणाई पढमं वणसंडं ओगाहित्ता एत्थ णं भवणे पाणते, कोसं आयामेणं सो चेव वण्णओ सयणिजं च । एवं सेसासु विदिसासु भवणा, जंबूए णं उत्तरपुरस्थिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयगाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि युक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पउमा १ पउमप्पभा २ कुमुदा ३ कुमुदप्पभा ४ ताओ णं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं पंचधणुसयाई उव्वेहेणं वण्णओ, तासि णं मज्झे पासायवडेंसगा कोसं आयामेणं अद्धकोसं विखंभेणं देसूणं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं वगणओ सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसासु विदिसासु, गाहा-पउमा पउमप्पभा चेब, कुमुदा कुमुदप्पहा! उप्पलगुम्मा णलिणा, उप्पला उप्पलुज्जला ॥१॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भिंगा भिंगप्पभा चेव, अंजणा कज्जलप्पभा। सिरिकता सिरिमहिमा, सिरिचंदा चेव सिरिनिलया ॥२॥ जंबूए णं पुरथिमिल्लस्त भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्त दक्खिणेणं एत्थ णं कूडे पण्णत्ते, अट्ट जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं, दो जोयगाइं उव्वेहे मूले अट्ठजोयणाइ आयामविकखंभेणं बहुमज्झदेसभाए छ जोयणाइं आयामविकखंभेगं उवरिं चत्तारिजोय गाइं आयामविक्खंभेणं पणवोसटोरस बारसे मूले य मज्झि उवरिं च । सविसेसाई परिरओ कूडस्प्त इमस्स बोद्धयो ॥१॥ मूले वित्थिाणे मझे संखित्ते उवरिं तणुए सव्वकणगामए अच्छे वेइया-वणसंडवाओ, एवं सेसावि कूडा इति । जंबू र णं सुदंसणाए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहासुदंसगा १ अमोहा २ य, सुप्पबुद्धा ३ जसोहरा ४ । । विदेह जंबू ५ सोमणप्ता ६ णियया ७ णिच्चमंडिया ८ ॥१॥ सुभदा ९ य विसाला १० य, सुजाया ११ सुपणा १२ विया। सुदंसणाए जंबूए णामधेज्जा दुवालस ॥२॥ जंबूए णं अवमंगलगा पणत्ता, से केणटे भंते ! एवं वुच्चइ जंबू सुदंसणा २१, गोयमा ! जंबूए णं सुदंसणाए अणाढिए णामं जंबूद्दीवाहिवई परिवसइ महिद्धीए. से णं तत्थ च उपहं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं, जंबूदीवस्स ण दीवस्स जंबूए सुदंसणाए अगाढियाए रायहाणीए अण्णेसिं च ब्रहण देवाण य देवीण य जाव विहरइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! जंबूसुदंसणा जाव भुविं च ३ धुवा णियया सासया अक्खया जाव अवट्रिया । कहिणं भंते ! अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णामं रायहाणी पण्णत्ता ?, गोयमा : जंबूद्दीवे मंदरस्स पव्ययस्त उत्तरेणं ज चेव Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् पुववणियं जमिगापमाणं तं चेव णेयव्वं, जाव उववाओ अभिसेओ य निरवसेसोत्ति ॥सू०२३॥ छाया-क्व खलु उत्तरकुरुषु २ जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नीलवतो वर्षः धरपर्वतस्य दक्षिणेन मन्दरस्य उत्तरेण माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन सीताया महानद्याः पौरस्त्ये कूले अत्र खलु उत्तरकुरुषु कुरुषु जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम्, पञ्च योजनशतानि आयाम विष्कम्भेण, पञ्चदश एकाशीतानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, बहुमध्यदेशभागे द्वादश योजनानि बाहल्येन तदनन्तरं च खलु मात्रया २ प्रदेशपरिहान्या २ सर्वेभ्यः खलु चरमपर्यन्तेषु द्वे द्वे गव्यू ते बाहल्येन सर्वजम्बूनदमयम् अच्छम् । तद् एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तान् संपरिक्षिप्तम्, द्वयोरपि वर्णकः, तस्य खलु जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि एतानि चसारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, वर्णकः यावत् तोरणानि, तस्य खलु जम्बूपीठस्य बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, अष्टयोजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बाहल्पेन, तस्याः खलु मणिपीठिकाया उपरि अत्र खलु जम्बूसुदर्शना प्रज्ञप्ता, अष्टयो ननानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अर्द्धयोजनमुद्वेधेन, तस्याः खलु स्कन्धः द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अर्द्धयोजनं बाहल्येन, तस्याः खलु शाला पडूयोजनानि ऊर्ध्वप्नुच्चत्वेन बहुमध्यदेशभागे अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण, सातिरेकाणि अष्टयोजनानि सर्वाग्रेण, तस्याः खलु अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः-वज्रमयमूला रजतसुप्रतिष्ठ विडिमा यावत् अधिकमनोनितिकरी मासादीया दर्शनीया । जम्ब्बाः खलु सुदर्शनायाः चतुर्दिशि चतस्रः शालाः प्रज्ञप्ताः, तासां खलु शालानां बहुमध्यदेशभागः, अत्र खलु सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम्, क्रोशमायामेन अर्द्धकोशं विष्कम्भेण देशोनकं क्रोशमूर्ध्वमुच्चखेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टं यावद् द्वाराणि पञ्चशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यावद् वनमाला: मणिपीठिका पञ्च धनु शतानि आयामविष्कम्भेण अर्द्धतृतीयानि धनुः शतानि बाहल्येन, तस्याः खलु मणिपाठिकाया उपरि देवच्छन्दकं पञ्च धन:शतानि आयामविष्कम्भेण साति. रेकाणि पश्च धनुःशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, जिनप्रतिमावर्णको नेतव्य इति । तत्र खलु या सा पौरस्त्या शाला अत्र खलु भवन प्रज्ञप्तम्, क्रोशमायामेन एवमेव नवरमत्र शयनीयं शेषासु प्रासादवतंसकाः सिंहासनानि च सपरिवाराणीति । जम्बूः खलु द्वादशभिः पद्मवर वेदिकाभिः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ता, वेदिकानां वर्णकः, जम्बूः खलु अन्येन अष्टशतेन जम्नां तदर्थोच्चत्वानां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता, तस्याः खलु वर्णकः, ताः खलु जम्ब्बः पभिः पद्मवर वेदिकाभिः संपरिक्षिप्ताः, जम्ब्वाः खलु सुदर्शनायाः उत्तरपौरस्त्येन उत्तरेण उत्तरपश्चिमेन अत्र खलु अनादृतस्य देवस्य चत्तसृणां सामानिकसाहस्रीणां चतस्रो जम्बूसाहस्यः प्रज्ञप्ताः तस्याः खलु पौरस्त्येन चतसृणामग्रमहिषीणां चतस्रो जम्ब्वः प्रज्ञप्ताः-दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणेन तथा अपरदक्षिणेन च । अष्ट दश द्वादशैव च भवन्ति जम्बूसहस्राणि ।। अनीकाधिपानां पश्चिमेन सप्तैव भवन्ति जम्ध्वः । षोडशसाहस्यश्चतुर्दिशि ज०३३ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे आत्मरक्षाणाम् ।२। जम्ब्वः खलु त्रिभिः शतिकैः वनपण्डैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ता:, जम्बाः खलु पोरस्त्येन पञ्चाशतं योजनानि प्रथमं वनपण्डम् अवगाह्य अत्र खलु भवनं प्रज्ञसम्, क्रोशमायामेन स एव वर्णकः शयनीयं च, एवं शेषास्वपि दिक्षु भवनानि, जम्ब्याः खलु उत्तरपौरस्त्येन प्रथमं वनपण्डं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु चतस्रः पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पद्मा१ पदमप्रभा २ कुमुदा ३ मुदप्रभा ४. ताः खलु क्रोशमाया मेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण पञ्चधनुःशतानि उद्वेधेन, वर्णकः, तासां खलु मध्ये प्रासादावतंसकाः क्रोशमायामेन, अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण, देशोनं क्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन, वर्णकः सिंहासनानि संपरिवाराणि, एवं शेषासु विदिक्षु, गाथा-पद्मा पद्मप्रभा चैव, कुमुदा कुमुदप्रभा । उत्पलगुल्मानलिना उत्पलोज्ज्वला ।। भृङ्गा भृङ्गप्रभा चैव, अञ्जना कज्जलप्रभा। श्रीकान्ता श्रीमहिता श्रीचन्द्रा चैव श्रीनिलया ।। जम्बाः खलु पौरस्त्यस्य भवनस्य उत्तरेण उत्तरपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन अत्र खलु कूटं प्रज्ञप्तम्, अष्ट योजनानि ऊर्ध्व मुच्चत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन मूले अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण बहुमध्यदेशभागः षड्योजनानि आयामविष्कम्भेण उपरि चखारि योजनानि आयामविष्कम्भेण-पञ्चविंशतिमष्टादश द्वादशैव मूले च मध्ये उपरि च । सवि शेषाणि परिरयः कूटस्यास्य बोद्धव्यः ।। मूले विस्तीर्ण मध्ये संक्षिप्तमुपरि तनुकम् सर्वकनकमयम् अच्छम् वेदिकावनषण्डवर्णकः, एवं शेषाण्यपि कूटानि इति । . जम्ब्वाः खलु सुदर्शनायाः द्वादश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सुदर्शना १ अमोघा २ च सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ । विदेह जम्बूः ५ सौमनस्या ६ नियता ७ नित्यमण्डिता ८॥१॥ सुभद्रा च ९ विशाला च १० .सुजाता ११ सुमना १२ अपि च । सुदर्शनाया: जम्ब्बाः नामधेयानि द्वादश ॥२॥ जम्ब्वाः खलु अष्टाष्टमङ्गल कानि०, केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते जम्बूः सुदर्शना २ ? गौतम ! जम्ब्यां खलु सुदर्शनायामनातो नाम जम्बूद्वीपाधिपतिः परिवसति महर्द्धिकः, स खलु तत्र चतसृणां सामानिकसाहस्रीणां यावद् आत्मरक्षदेवसाहस्रीणां, जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य जम्ब्वाः सुदर्शनायाः अनादृतायाः राजधान्या अन्येषां च बहूनां देवानां च देवीनां च यावद् विहरति, सा तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते अदुत्तरं च गौतम ! जम्बूसुदर्शना यावद् अभूत् च ३ ध्रुवा नियता शाश्वती अक्षया यावद् अवस्थिता । क्व खलु भदन्त ! अना. दृतस्य देवस्य अनादृता नाम राजधानी प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण यदेव पूर्ववर्णितं यमिका प्रमाणं तदेव नेतव्यम्, उपपातोऽभिषेकश्च निरवशेष इति ॥सू०२३॥ 'अब जिन के नामवाला यह जम्बूद्वीप कहा है वह सुदर्शनानामवाली जम्बू का कथन करने की विवक्षा से उसका अधिष्ठान कहते हैं હવે જેના નામથી આ જંબુદ્વીપ કહેલ છે તે સુદર્શના નામવાળા જાંબુનું કથન કરવાની વિવક્ષાથી તેનું અધિષ્ઠાન કહે છે, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए २ जंबूपेढे णाम पेढे पण्णत्ते' क खलु भदन्त ! उत्तरकुरुषु जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-'गोयमा! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं' हे गौतम ! नीलवंतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेनदक्षिणस्यां दिशि 'मंदरस्स' मन्दरस्य-तनामक पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि'मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं' माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेनपश्चिमायां दिशि 'सीयाए' सीतायाः-एतनाम्न्याः 'महाणईए पुरथिमिल्ले' महानद्याः पौरस्त्ये पूर्व दिग्भवे 'कूले' कूले-तटे-सीताद्विभागी कृतोत्तरकुरुपूर्वाः तत्रापि मध्यभागे 'एत्थ णं उत्तरकुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' अत्र खलु उत्तरकुरूणां जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम् , अस्य मानाद्याह-'पंच जोयणसयाई' पञ्च योजनशतानि-तत् पीठं पञ्चशतयोजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्यां प्रज्ञप्तम् एवमग्रेऽपि कहिणं भंते ! इत्यादि । टीकार्थ-'कहि णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' हे भगवन् उत्तरकुरु में जंबूपीठ नामका पीठ कहां पर कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं' हे गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण दिशा में 'मंदरस्स' मंदर पर्वत के 'उत्तरेणं' उत्तर दिशाकी ओर 'मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं' माल्यवान् वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम दिशा में 'सीयाए महाणहए पुरथिमिल्ले कूले' सीता महा नदी की पूर्व दिशा के किनार में अर्थात् दो भाग कि गई सीता महानदी के उत्तर कुरु रूप पूर्वार्द्ध में उसके भी मध्य भाग में 'एत्थ णं उत्तरकुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' यहां पर उत्तर कुरु का जंबू पीठ नामका पीठ कहा है। ____ अब इसका मानादि प्रमाण कहते हैं-पंच जोयणसयाई' वह पीठ पांचसो 'कहि णं भंते' त्यादि टी - 'कहिणं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' मावन उत्तर કુરૂમાં જંબૂ પીઠ નામનું પડ ક્યાં કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં મહાવીર પ્રભુશ્રી કહે छ.-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं' है गौतम ! नlana १२ ५ तनी दक्षिण दिशामा 'मदरस्स' भ६२ पतनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशानी त२५ 'मालवंतस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं' भास्यवान् वक्षर४२ पतनी पश्चिम दिशामा 'सीयाए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले' सीता महानहान ५ नारे मात 2. भागमा वित थये। सीता भला नहीनत्त२ १३ ३५ पूर्वाभा तन ५५४ मध्य भागमा 'पत्थणं उत्तरकुराए जंबूपेढे णाम पेढे पण्णत्ते' त्या उत्तर३३नु भूपी: नामनु पी8 ४९ छे. ३ तेनु माना६ प्रमाण ४९ छ.-'पंच जोयणसयाई' ते पी8 पांयसो योजन Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पतिसूत्रे 'पण्गरस एक्कासीयाइ' पञ्चदश एकाशीतानि - एकाशीत्यधिकानि 'जोयणसयाइ किंचिविसेसाहियाइ" योजनशतानि किञ्चिद्विशेपाधिकानि - किञ्चिदधिकानि 'परिकखेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना, तत् - पुनः 'बहुमज्झदेसभा ए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्तमध्यदेशभागावच्छेदेन 'बारसजोयणाई बाहल्लेणं' द्वादशयोजनानि बाहल्येन - पिण्डेन, 'तयणंतर' च णं' तदनन्तरं च - ततः परं च खलु 'मायाए २' मात्रया २ - क्रमेण २ 'पएसपरिहाणीए २' प्रदेशपरिहान्या किञ्चित्प्रदेशस्य ह्रासेन परिहीयमानं - ह्रस्वी भवत् 'सव्वेषु णं चरिमपेरं ते सु' सर्वेभ्यः खलु चरमपर्यन्तेषु - अन्तिमपर्यन्तेषु पोठेषु मध्यतोऽर्द्धतृतीययोजनशतोल्लङ्घने 'दो दो गाउयाई' द्वे द्वे गव्यूते - क्रोशयुग्मे चतुः क्रोशान् 'बाहल्लेणं' बाहल्येन - पिण्डेन, 'सव्वजंबूणयामए' तत् जाम्बूनदमयं - जाम्बूनदाख्योत्तमस्वर्णमयम् 'अच्छे' अच्छम् - आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलम् - एतदुपलक्षणं श्लक्ष्णादीनामपि तद्व्याख्या प्राग्वत् ' से णं' तत् अनन्तरोक्तं जम्बूपीठं खलु 'एगाए पउमवर वेइयाए एगेण वणसंडेणं सव्वय समता' योजन के 'आयामविक्खंभेणं' विस्तार वाला है अर्थात् इतना इसका विष्कंभ है । तथा 'पण्णरस एक्कासीयाई' पंद्रहसो इकासी 'जोयणाई किंचि विसेसाहि याई' योजन से कुछ विशेषाधिक 'परिक्खेवेणं' उसका परिक्षेप अर्थात् परिधि कही है । वह पीठ 'बहुमज्झदेस भाए' ठीक मध्य भाग में 'बारस जोयणाई बाहल्लेणं' बारह योजन स्थूल-मोटा है । 'तयणंतरंच णं' तत्पश्चात् 'मायाए मायाए' क्रम क्रम से 'पएसपरिहाणीए' कुछ प्रदेश का ह्रास होने से लघु होता हुआ 'सब्वेसु णं चरिमपेरंतेसु' सब से अन्तिम भाग में अर्थात् मध्य भागसे ढाइसयोजन जाने पर 'दो दो गाउयाई' दो दो गच्यूत अर्थात् चार कोस 'बाह ल्लेणं' मोटाई से कहा है । 'सभ्व जबूणयामए' सर्वात्मना जम्बूनद नामके सूवर्ण मय है, 'अच्छे' आकाश एवं स्फटिक के समान अत्यन्त निर्मल है यहां 'अच्छ' पद उपलक्षण है अतः श्लक्ष्णादि सब कथन पूर्व के जैसे समझलेवें । 'आयाम विक्खंभेणं' विस्तारवाणु छे. अर्थात् भेटते तेनेो विष्णुंभ (घेराव) है, तथा 'पन्नरस एक्कासीयाई' पं४२ से ८१ मेाशी 'जोयणाई किचि विसेसाहियाई' येोन्नथी ४:४४ विशेषाधिः ‘परिक्खेवेणं' परिक्षेप अर्थात् परिधि आहेत हे ते पीड 'बहुमज्झदेसभा ' अरेशभर मध्य भागमां 'बारसजोयणाई बाहल्लेणं' गार योजन भेटसु लडु छे. 'तयणंतरं चणं ते पछी 'माया मायाए' उभश 'पएस परिहाणीए' ४६ प्रदेशनो हास थवाथी नानी थतां थतां 'सव्वेसु णं चरिमपेरंतेसु' मद्याथी छेला लागभां अर्थात् मध्यभागमां अदि सौ योजन भवाथी 'दो दो गाउयाई' जम्मे गव्यूत अर्थात् यार गाउ 'बाहल्लेणं' भेटसी मोटाई युक्त उस छे. 'सव्व जंबूणयामए' सर्व प्रारथी नह नामना सुवर्णुभय छे 'अच्छे' आश भने स्कूटिना समान अत्यंत निर्माण छे. अहींयां 'अर सक्षय है. तेथी सहि तमाम विशेष पडेलानी प्रेम समक सेवा. 'सेणं' से जू. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजन्यर्णनम् २६१ एकया पद्मवरवेदकिया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात-सर्वदिग्विदिक्षु 'संपरिक्खिते' सम्परिक्षिप्तम् , 'दुहंप' द्वयोरपि-पमवरवेदिका-वनपण्डयोरुभयोरपि 'राणो ' वर्णकःवर्णनपरपदसमूहः अत्र योध्यः, स च पञ्चम-पष्ठ सूत्राभ्यां ज्ञेयः, तच्च जम्बूपीट जघन्यतोऽपिवरमान्ते द्विक्रोश्युच्चकथं सुखारोहावरोहम् ? इत्याशङ्कयाह -'तस्स णं' इत्यादि'तस्स थे' तस्य-पूर्वोक्तस्य खलु 'जंबूपेढस्स चउद्दिसी' जम्बूपीठस्य चतुर्दिशि-चतुस्टषु दिक्षु-'एए चत्तारि' एतानि-इमानि चत्वारि 'तिसोवाणपडिरूवगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-मुन्दरत्रिसपानानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, तेषां 'वण्णओ' कर्णकोऽत्र बोध्यः, सच किम्पर्यन्तः इत्याह-'जाव तोरण ई' यावत् तोरणानि-तोरणवर्णनपर्यन्तः, त्रिसोपानप्रतिरूपकवर्णको द्वादशसूत्रतो राजप्रश्नीयस्य तोरणवर्णकश्च त्रयोदशसूत्रतो बोध्यः, 'सेणं' वह जम्बूपीट 'एगाए पउमवरवेइयाए एगेण वणसंडेणं सवओ समंता' एक पावरवेदिका एवं एक वनषंड से चारों ओर से 'संपरिक्खित्ते' व्याप्त रहता है ? 'दुण्हपि वपणओ' पद्मवरवेदिका एवं वनषंड का वर्णन सर्व प्रकार से यहां पर समझलेवें' वह वर्णन पांचवें एवं छठे सूत्र से ज्ञातकर लेवें। वह जम्बूपीठ कम से कम चरमान्तमें दो कोस की ऊंचाई वाला होने से सूख पूर्वक आना जाना कैसे बन सकता है ? इस शंका की निवृत्ति के लिए कहते हैं 'तस्न णं जंबूपेढस्स चउद्दिसी' वह पूर्वोक्त जंबूपीठ के चारों दिशा में 'एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' यह चार सुंदर पगथिएं कहे हैं। उसका 'वष्णओ' समग्र वर्णन यहां पर समझलेवे वह वर्णन कहां तक का गृहण करने योग्य है ? इसके लिए कहते है 'जाव तोरणाई' यावत् तोरण वर्णन पर्यन्त उसका वर्णन यहां पर कहलेवें। त्रिसोपान प्रतिरूपकका वर्णन राज. प्रश्नीय सूत्र के बारहवें सूत्र से एवं तोरण का वर्णन तेरहवें सूत्र से समझ पी'एगाए पउमवरवेइयाए एगेण वणसंडेणं सव्वओं समंता' से ५४१२ ३६४ तभर या नथी थारे त२५थी 'संपरिक्खित्ते' व्यास २९ छ. 'दुण्हं पिवण्णओ' ५५१२ વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન પાંચમા અને છડા સૂત્રથી સમજી લેવું. એ જંબૂ પીઠ એ છામાં ઓછું અરમાન્તર્થી બે ગાઉ જેટલી ઉંચાઈવાળું હોવાથી સૂખ પૂર્વક આવવા જવાનું (જવર અવ૨) કેવી રીતે થઈ શકે છે? આ પ્રકારની શંકાના समाधान भाटे ४३ छ–'तस्सणं जंबूपेढस्स चउदिसी' ये पूरित पानी थारे शामi 'एए चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' २॥ यार सुद२ ५थियाग ४९ छे. तेनु 'वण्णओ' से पूषु पाणुन मीयां श से. ते वर्णन ४य सुधीनु अ५ ४२१नु छ ? ते भाटे ४३ छ–'जाव तोरणाई' यावत तोरपना ५य-त तेनु न मायाही લેવું. ત્રિસપાનપ્રતિરૂપકનું વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રના બારમા સૂત્રમાંથી અને તેરણનું વર્ણન તેરમાં સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. વિસ્તાર ભયથી અહીંયાં તેને ઉલેખ કરેલ નથી. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - - २६२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ जग्बूपीठस्य मणिपीठिका वर्णयितुमाह-'तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमज्झदेसभाए' तस्य खलु जम्बूपीठस्य बहुमध्यदेशभाग:-अत्यन्तमध्यदेशभागः अस्तीतिशेषः, 'एत्य णं' अत्र-अत्रा स्तो खलु ‘मणिपेढिण' मणिपीठिका-मणिमयासनविशेषः, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणं' अष्ट योजनानि आयाम-विष्कम्भेण-दैर्ध्य-विस्ताराभ्याम् , 'चत्तारि जोयणाई पाहल्लेणं' चत्वारि योजनानि बाहल्येन-पिण्डेन, 'तीसे णं' तस्याः-अनन्तरो. क्तायाः खलु मणिपेढियाए उपि' मणिपीठिकायाः उपरि-ऊर्श्वभागे 'एत्थ णं जंबू सुदंसणा' अत्र खलु जम्बूः-सुदर्शनानाम्नी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, तस्या मानमाह-'अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्रेणं' अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'अद्धजोयणं उब्वे हेणं' अर्द्ध योजनम् उद्वेधेनभूप्रवेशेन, अथास्याः स्कन्धमानमाह-'तीसे गं' तस्याः-मणिपीठिकायाः खलु 'खंधो' स्कन्धः- कदादुपरितनशाखानिर्गमनस्थानपर्यन्तोऽवयवः 'दो जोयणाई उद्धं उच्च तेणं' लेवें विस्तार भय से यहां उल्लेख नही किया है। अब जंबूपीठ की मणिपीठिका का वर्णन करते हैं-'तस्स णं जंबू पेढस्स बह मज्झदेसभाए' उस जंबूपीठका ठीक मध्य भाग में 'एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता' मणिपीठिका कही है। 'अद्ध जोयणाई आयामविक्खभेणे' वह जंबुपीठ की मणिपीठि का आठ योजन की लंबाई चोडाई वाली है। 'चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं' चार योजन की माटाई वाली है । 'तीसे णं मणिपेढियाए' वह पूर्वोक्त उस मणिपीठिका के 'उप्पि' ऊपर के भाग में 'एत्थ णं जंबूसुदंसणा पत्ता ' जंबूसुदर्शना नाम की मणिपीठिका कही है। 'अट्ट जोयणाई उई उच्चत्तणं वह पीठिका आठ योजन की ऊंची है, 'अद्ध जोयणाइं उब्वेहेणं' आधा योजनका उसका उद्वेध हैं अर्थात् इतना भाग भूमि के भीतर प्रविष्ट है। ___ अब इसका स्कंधका मान कहते हैं-'तीसे गं' उस मणिपीठिका का 'खंधो' स्कन्ध-कन्द से उपर की शाखा का उद्गमस्थान पर्यन्त का भाग 'दो जोयणाई दीपनी मनपा ४ानुन ४२वामां आवे छे.-'तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमझदेसभाए' से यूपीना सशस२ क्या नाम 'एत्थणं मणिपेढिया पण्णत्ता' भलिपी। अंडेय. 'अट जोयणाई आयामविक्खंभेणं' पीनी मणिपानी पहनाई 24 3 यौन २८०ी छ. 'चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं' तेनी 131 या२ योन सी छे. 'तीसेणं मणिपेढियाए' पूत मणिपानी 'उप्पि' ५२ना लामा 'एत्थणं जंबूसुदंसणा पण्णत्ता' यू सुशन नामनी मणिपीl8४ ४३ छ. 'अदमोयणाई उड्ढं उच्चत्ते fa पी881 28 योभन सी यी छे. 'अद्धजोयणाई उव्वेहेणं' अ योनिमा તેને ઉધ છે. અર્થાત્ એટલે ભાગ ભૂમિની અંદર રહેલ છે. वेतन। २४५ भागनु भा५ मतावे छे.-'तीसेणं' मे भएपीstan 'खंधे' २४.५ यी ५२नी मानु रामस्थान सुधाना मा 'दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तण' मे योन Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः स. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २६३ द्वे योजने ऊर्ध्वमुच्चत्वेन - उच्छ्रयेण, 'अद्धजोयणं बाहल्लेणं' अर्द्धयोजनं बाहल्येन - पिण्डेन प्रज्ञप्त इति सम्बन्धः, 'तीसे णं' तस्याः - पूर्वोक्तायाः मणिपीठिकायाः खलु 'साला' शालाfasमापरपर्यायादि प्रसृता शाखा 'छजोयणाई उद्धं उच्चतेणं' षडू योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, तथा 'बहुमज्झ देसभा ए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्त मध्यदेश भागे 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं' अष्ट योजनानि आयाम - विष्कम्भेण - दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम्, जम्बू: प्रज्ञप्तेति बोध्यम्, तानि चास्याः स्कन्दोपरितनभागाच्चतसृष्वपि दिक्षु प्रत्येक मेकैका शाखा निर्गता, ताथ शाखाः क्रोशोनानि चत्वारि योजनानि तेन पूर्वापरशाखा दैर्घ्य-स्कन्धबाहल्य सम्बन्ध्यर्द्धयोजन मेलनेनानन्तरोक्तसंख्या पूर्तिर्जायते बहुमध्यदेश भागश्चात्र व्यावहारिको ग्राह्यः, वृक्षादीनां शाखोद्भवस्थाने मध्यदेशस्य लोकैर्व्यवहियमाणत्वात्, यथापुरुष कटिभागीमध्यदेशो व्यपदिश्यते, अन्यथा विडिमायाः द्वियोजनातिक्रमणे निश्चितस्य मध्यदेशभागस्य उद्धं उच्चतेणं' दो योजन के ऊंचाई एवं 'अद्ध जोयणाई बाहल्लेणं' आधा योजन का मोटा कहा है 'ती से णं साला' वह पूर्वोक्त मणिपीठिका की शाखाएं 'छ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' छ योजन की ऊंची 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं' आठ योजन की लंबाई चोडाइ वाली कही है । वे शाखा के 'बहुमज्झदेसभाए ' ठीक मध्य भाग में 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं' आठ योजन पर्यन्त की लम्बी चोडी कही है । वे शाखाएं इसके स्कन्द के ऊपर के भाग से चारों दिशा में प्रत्येक दिशा में एक एक के क्रम से चार नीकलती है । वे शाखाएं एक कोस कम चार योजन की कही है । अतः पूर्व पश्चिम की शाखा की लंबाई-स्कन्धकी मोटाई सम्बन्धी आधा योजन मिलाने से पूर्व कथित संख्या की पूर्ति हो जाती है । बहुमध्य देश भाग यहां पर व्यावहारिक लेना चाहिए कारण की वृक्षादि की शाखा के उद्गमन स्थान को लोक में मध्य देश भाग से व्यवहार करते हैं । भेटी उयाधवाणी मने 'अद्धजोयणाई बाहल्लेणं' अर्धा योजन भेटलो लडो उद्यो छे. 'तीसेणं साला' ते पूर्व भणिपंडिजनी शाणाओ। 'छ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' छ येोन्न भेटसी उंची हे. 'अट्ठ जोयणाई आयामविसंमेणं' आयोजन नेटली संगा पहला मुडेस छे. ये शामायाना 'बहुमज्झदेसमाए' रोमर मध्यभागमा 'अट्ठ जोयणाई आयामविक्खभेणं' रमाई योवन भेटसी तेनी संग्रामने होणार हे छे. ते शामाया तेना સ્કઃ—થડના ઉપરના ભાગથી ચારે દિશાઓમાં દરેક દિશામાં એક એકના ક્રમથી ચાર નીકળે છે. તે શખાએ એક ગાઉ એછા એવા ચાર ચેાજન જેટલી કહેલ છે. તેથી તેની પૂર્વ પશ્ચિમ દિશાની શાખાની લંબાઈ-થડની જાડાઇમાં અર્ધા ચેાજન જેટલી વધારવાથી પૂકથિત સંખ્યાની પૂર્તિ થઈ જાય છે. અહીંયાં ખડુમશ્ર દેશભાગ વ્યવહારિક લેવા જોઈએ કારણ કે વૃક્ષાદિની શાખાઓના ઉદ્ગમનસ્થાનને મધ્યભાગ તરીકે વ્યવહાર કરે છે. જેમ પુરૂષના કમ્મર ભાગને મધ્યભાગ તરીકે કહે છે. આ રીતે ન કહે તે શાખાના એ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ग्रहणे पूर्वापरशाखाद्वयविस्तारस्य विषमश्रेणिकत्वाद् ग्रहणं प्रसक्तं स्यात्, यद्वा-बहुमध्यदेशभागः कासामित्य पेक्षायां शाखानामिति गम्यते, यतश्चतुर्दिक शाखामध्यभागस्तस्मिन्नित्यर्थः, अष्टयोजनानयनं तु प्राग्वदेव । उच्चताया तु 'सव्वग्गेणं' सर्वाग्रेण सर्वसङ्ख्य या कन्द-स्कन्धविडिमापरिमाणमेलने 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-किश्चिदधिकानि 'अट्ट जोयणाई अष्ट योजनानि जम्बूसुदर्शना प्रज्ञप्तेति सम्बन्धः। अथास्या वर्णकमाह-'तोसे णं अयमेयाख्वेवण्णावासे पण्णत्ते' तस्याः-जम्बूसुदर्शनायाः खलु अयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, 'वहरामया मूला' वज्रमयानि-वज्ररत्नमयानि मूलानि यस्या सा तथा-दीर्घश्च प्राकृतत्वात्, 'स्ययसुपइट्ठियविडिया' रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा-रजतयेर-तन्मयी साचासौ मुप्रतिष्ठितबिडिमासुप्रतिष्ठिता-मुष्ठ स्थिता विडिमा-बहुमध्यदेशभागे उपरिनिस्मृता शाखा यस्या सा तथा, 'जाव' यावत्--यावत्पदेन चैत्य वृक्षवर्णकः सर्वोऽपि ग्राह्योऽत्र । किम्पर्यन्तो वर्णक इत्याहजैसा पुरुष के कटि भाग को मध्य भाग से कहते हैं, इस प्रकार न कहे तो शाखा के दो योजन पर्यन्त फैलने पर निश्चित मध्यभाग का गृहण करने पर पूर्व पश्चिम की दो शाखा के विस्तार की विषम श्रेणी हो जाती अतः यह व्यावहारिक मध्यभाग ग्रहण करना ठीक है । अथवा किसका बहुमध्यदेशभाग इस अपेक्षा में शाखा का ऐसा जान पडता हैं अतः चारों दिशा की शाखा का मध्य भाग ऐसा कहा जायतो पहले के कथनानुसार आठ योजन आजाता है। उच्चत्व के बारे में 'सव्वग्गेणं' सर्वात्मना स्कन्द-स्कन्ध एवं शाखा का मान का मिलान करने से 'साइरेगाई' कुछ अधिक 'अg जोयणाई' आठ योजन की जम्बू सुदर्शना कही है। अब जंबू सुदर्शनाका वर्णन करते हैं-'तीसे णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' उस जंबू सुदर्शना का वर्णन प्रकार इस प्रकार कहो है 'वइरामया मला' वन्नरत्नमय उसका मूल भाग है 'रययसुपइठियविडिमा' रजतमय सुप्रतिष्ठिन विडिमा-शाखाएं हैं अर्थात् बहुमध्य देशभाग में ऊपर की ओर જન પર્યત ફેલાવાથી નિશ્ચિત મધ્યભાગનું ગ્રહણ કરવાથી પૂર્વ પશ્ચિમની બે શાખાના વિસ્તારની વિષમ શ્રેગી થઈ જાત એથી આ વ્યવહારિક મધ્યભાગ ગ્રહણ કરે એજ ઉચિત છે. અથવા તેનો બમધ્ય દેશભાગ એ અપેક્ષામાં શાખાનો મધ ભાગ એમ કહેવામાં આવે તે પહેલાના કથન પ્રમાણે આઠ ચીજન આવી જાય છે. ઉંચાઈના કથનમાં 'सचम्गेण सर्वात्मना २४१-२४ यासानु मा५ भेजवायी ‘साइरेगाइ' ५४ धारे 'अद्र जोयणाई' मा यौन सी सुदर्शन ४डस छे. सुशननु वाणुन ४२वामां आवे छे.-'तीसेणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' मे भूशनना ' ४१२ मा ते ४२स छ.-'वइरामया मूला' १०० २त्न भय तेना भूण | छ. 'रययसुपइट्ठिय विडिमा' २०४तमय सुप्रतिहत विमा-मामे। छ. अर्थात् मर्डमध्य शिक्षामा ५२नी त२५ नाणे शामा। छे. 'जाव' यावत् Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् 'अहियमणणिव्वुइकरी' अधिकमनोनिर्वृतिकरी-अत्यन्तचित्ताऽऽनन्दकारिणी 'पासाईया दरिसणिज्जा' प्रासादीयदर्शनीयेत्यादिप्राग्वत् । अथास्याः शाखाः परिगणयन्नाह-"जंबूएण सुदंसणाए चउदिसिं' जम्ब्वाः खलु सुदर्शनायाः चतुर्दिशि-दिक्चतृष्टये 'चत्तारि साला पण्णत्ता' शाला:-शाखाः ताः प्रतिदिक् एकै. केति चतस्रः प्रज्ञप्ताः, 'तेसि ' तासां-अनन्तरोक्तानां खलु 'सालाणं' शालानां-शाखानां यो 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागोऽस्ति, 'एत्थ णं' अत्र-मत्रान्तरे खल उपरितनविडिमाशाखायामित्यर्थः, एकं 'सिद्धाययणे पण्णत्ते' सिद्धायतनं प्रज्ञतम्, इदं च सिद्धायतनं वैताढयगिरिसिद्ध कूटगतसिद्धायतनवद बोध्यम् अस्य मानाद्याह-'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेन-दैर्येण 'अद्धकोसं विक्खभेणं' अर्द्धकोशं विष्कम्भेण विस्तारेण, 'देसूणगं' देशोनं-किञ्चि नीकली हुई शाखाएं है । 'जाव' यावत् चैत्यवृक्ष के वर्णन के समान समग्र वर्णन यहां पर कहलेवें । यह वर्णन कहां तक का ग्रहण करना चाहिए' इसके लिए कहते हैं-अहियमणणिन्वु इकरी' अत्यन्त चित्तको आनंद कराने वाली 'पासाइया दरिसणिज्जा' प्रासादीय दर्शनीय इत्यादि पहले कथनानुसार समझलेवें। ___ अब शाखा की गिनती करते हुए कहते हैं-'जंबूएण सुंदसणाए चउदिसिं' जंबूसुदर्शना की चारों दिशामें 'चत्तारि साला पण्णत्ता' चार शाखाएं कही है 'तेसिं णं सालाणं' वे पूर्वोक्तशोखाओं का जो 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भाग है 'एत्थ ण यहां पर अर्थात् ऊपर शाखा में "एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' एक सिद्धायतन कहा है । यह सिद्धायतन वैतादयगिरि के सिद्ध कूट में कहा गया सिद्धायतन के जैसा जाने। 'अब उसका मानादि प्रमाण कहते है 'कोसं आयामेणं' एक कोस उसका आयाम नाम लंबाई चोडाई कही है। 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' आधा कोसका ચિત્ય વૃક્ષના વર્ણન પ્રમાણે બધું જ વર્ણન અહીંયાં કરી લેવું. એ વર્ણન કયાં સુધીનું मडिया सेवानु छे. ते भाट सू॥२ ४ छे. 'अहियमणणिव्वुडकरी' वित्तरे सत्यत मान ४रावना२ 'पासाइया दरिसणिज्जा' प्रासाहीय शनीय छत्यात ५सा ह्या प्रमाणे અહીંયાં કથન સમજી લેવું. मानी पत्री ४२di 3 छ –'जंबूएणं सुदंसणाए चउदिसिं' पू सुश नानी यारे हिशामा ‘चत्तारि साला पण्णत्ता' यार शामाये। छे. अर्थात् ४२४ हशमां से येन। मथी २२ ॥॥ थाय छे. 'तेसिंणं सालाणं' से शामासाना रे 'बहुमज्झदेसभाए' ५२।१२ वयो। म छ. 'एत्थगं' त्यां मम अर्थात् शापानी ७५२ 'एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' सिद्धायतन उस छ. से सिद्धायतन बैंताय ना सिद्धटमा કહેલ સિદ્ધાયતનના જેવું સમજવું. र तना माना प्रभानु ४थन ४२ छ.-'कोसं आयामेणं' से 15 Real ज ३४ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देशन्यून 'कोसं उद्धं उच्चत्तेणं' क्रोशम्-ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, तथा-'अणेगखभसयसण्णिविटे' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टम्-इत्यारभ्य 'जाव दारा' यावद् द्वाराणि-द्वारपर्यन्तवस्तु वर्णकोऽत्रबोध्यः, अनेकस्तम्भादिपदव्याख्या पश्चदशसूत्राब्दोध्या, द्वारवर्णनमष्टमसूत्रोक्त विजयद्वाराधिकाराब्दोध्यम्, तानि द्वाराणि च 'पंचधणुसपाई' पञ्चधनुःशतानि-पञ्चशतीधनूंषि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन इत्यारभ्य 'जाव वणमालाभो' यावत् वनमाला:-वनमाला पर्यन्तवर्णन. मिह बोध्यम्-अत्र 'मणिपेढिया' मणिपीठकाऽपि वर्णनीया सा च 'पंचधणुसयाई आयामविवखंभेणं' पञ्चधनु:-शतानि आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य-विस्ताराभ्याम् 'अद्धाइज्जाई घणुसयाई बाहल्लेणं' अर्धेतृतीयानि धनुः शतानि बाहलपेन पिण्डेन, 'ती से गं' तस्याः अनन्तरोक्तायाः खलु 'मणिपेढियाए उम्पि' मणिपीठिकायाः उपरि-ऊर्ध्वमागे 'देवच्छंदप' देवउसका विस्तार है 'देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तेणं' कुछ कम एक कोस का ऊंचा है। तथा 'अणेगखंभसय सगिविट्टो अनेक से कडों स्तम्भों से सन्निविष्ट यहां से आरंभ करके 'जाव दारा' यावत् द्वार पर्यन्त का वर्णन यहाँ पर समझलेवे' अनेकस्तम्भादि पदों का अर्थ पंद्रहवें सूत्र से समझलेवें । द्वारों का वर्णन आठवे सूत्र में कहे गए विजयद्वाराधिकार से जानलेवे । वे द्वार 'पंच धणुसयाई' पांचसो धनुष के ऊंचे कहे हैं यहां से आरंभ करके 'जाव वगमालाओ' यावत् वनमाला-वनमालाके वर्णन पर्यन्त का वर्णन यहां पर ग्रहण कर लेवें । यहाँ पर 'मणिपेढिया' मणिपीठिका का वर्णन भी वर्णित करलेवें। यह मणिपीठिका का 'पंचधणुसयाई आयामविखंभेणं' पांचसो धनुष का आयाविष्कंभ कहा है। 'अद्धाइजाई धणुसयाई बाहल्लेणं' ढाइसो धनुष की मोटाई कही है, 'तीसेणं मणिपेढियाए उधि' उसमणिपीठिका के ऊपर 'देवच्छंदए' देवों के बैठने का मायाम-र्थात् मा पहाडी छ. 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' मर्धा २तेना विस्तार छे. 'देसूर्ण कोसं उद्ध उच्चत्तण' 8 मेछमे 203 रेसी तनी या छे. तथा 'अणेगखंभसयसन्निविद्वा' मने से तमाथी सन्निविष्ट माथी मार मीन 'जाव दारा' यावत् ३२ सुधार्नु पणन महाया सभोवुः मने स्तमाहिपहोन। પંદરમાં સૂવથી સમજી લેવે દ્વારેનું વર્ણન આઠમા સૂરમાં કહેલ વિજય દ્વારના અધિકાર मांथी सम . मे द्वारे। 'पंच धगुमयाई' पांयसे। धनुष २टा या ४ छे. मा ४थनथी मार न. ४0 'जात्र वणनालाओ' यावत् नम:-बनमाणाना वर्णन पंतनु वन महीयां सभ . महीया मणिपेडिया' भाषा४िानुन ५४४ से शत मणिपानि पंचधणुसयाई आयामविक्ख भेग' पांयसो धनुष रेटले मायाम १८४ उस छ. अद्धाइज्जाइं धणुसयाई बाहल्लेण' मढी से। धनुष २८सी तेनी ४ ४२स छ 'तीसेणं मणिपेढियाए उप्पि' २५ मणिपानी ७५२ 'देवच्छंदए' हेवार सपाना सासन हेय छे. ते शासन 'पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणे' Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षरकारः सृ. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् च्छन्दकं-देवोपवेशनार्थमासनम् प्रज्ञप्तम्, तच्च 'पंचधणुसयाई पश्च धनुःशतानि-पञ्चशतधपि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेणं 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-साधिकानि 'पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं' पञ्चधनु:-शतानि ऊध्वमुच्चत्वेन । अत्र 'जिणपडिमा वण्णओ' जिन प्रतिमावर्णको बोध्यः, स च प्राग्वत् ‘णेयव्वोत्ति' नेतव्यः-ग्राह्यः, इति । 'तत्थ णं तत्र-चतसृषु शालासु खलु 'जे से पुरथिमिल्ले' या सा पौरस्त्या-पूर्व दिग्गता 'साले' शालाऽस्ति 'एत्थःणं' अत्र-अत्रान्तरे खलु एक 'भवणे' भवनं-गृहं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तच्च मानतः 'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेन प्रज्ञप्तम्, 'एवमेव' एवमेव-भवनवदेव ‘णवरमित्थ' नवरं-केवलम् अत्र-भवने 'सयगिज्ज' शयनीयं शय्या, वर्णनीयम् 'सेसेसु' शेषासु-पूर्व दिगवस्थितशालातिरिक्तामु दाक्षिणात्यादि शालासु मूले पुस्त्वं प्राकृतत्वाब्दोध्यम् प्रत्येकमेकैकसद्भावेन त्रयः 'पासा. यवडेंसया' प्रासादातंसका:-प्रासादवराः 'सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि-सपरिवागणि आसन कहा है वह आसन 'पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्तणं' पांचसो धनुष का ऊंचा है। यहां पर 'जिणपडिमावण्गओ' जिनप्रतिमा व्यन्तरादिक का वर्णन कर लेवें। वह वर्णन पहले कहे अनुसार 'णेयम्वोत्ति' समझलेवें। ___ 'तत्थ णं'चार शाखा में 'जे से पुरथिमिल्ले साले' जो पूर्व दिशा की ओर गई हुई शाखा है 'एत्थ णं' वहां पर एक 'भवणे' भवन 'पण्णत्तं' कहा है। उसका मान 'कोसं आछामेणं' एक कोस का उसका आयाम कहा है 'एव मेव' भवन के जैसा ही उसका वर्णन समझलेवें । 'णवरं मित्थ' विशेष केवल इस भवन में 'सयणिज्ज' शय्या का वर्णन करलेवें' 'सेसेसु' पूर्वदिशा में गई हुई शाखा से अतिरिक्त दक्षिण दिशादि अन्य दिशा की ओर गई हुई शाखाओं में मूल में जो पुल्लिग से निर्देश किया है वह प्राकृत होने से हुवा है ऐसा समझले। प्रत्येक दिशामें एक एक के क्रम से तीनों दिशा की तीन शाखा होती है 'पासाय वडे सया' प्रासादावतंसक अर्थात् उत्तम महल 'सीहासणा सपरिवारा' भद्रासनादि पायसो धनुष २८९ यु. महीया 'जिणपडिमा वण्णओ' यन्त न प्रति भानु वर्णन ४री यु. से वर्ष न पडता ४ प्रमाणे 'णेयव्वोत्ति' समय से 'तत्थणं' थे यार शायामा 'जे से पुरथिमिल्ले साले' रे पूर्व दिशा त२३ गयेशाम छे. 'एत्थणं' त्यो ४ 'भवणे' भवन 'पण्णतं' डेस छे. तेनुमान-कोसं आयामेण' मे । तना मायाम ४डस छ 'एवमेव' भवनना ४थन प्रमाण तनु वन सभा'. 'णवरमित्थ' विशेष व मालवनमा 'सयणिज्जं' शव्यानुन ४श से. 'सेसेस' पूर्व दिशामा गये शिवायनी दक्षिण वगेरे दिशामा गये शामायामा મૂલમાં જે પુલિંગથી નિર્દેશ કરેલ છે તે પ્રાકૃત હેવાથી થયેલ છે. તેમ સમજવું. દરેક शाम से मना भथी ऋणे हिशानी र शामाया थाय छे. 'पासायवडेंसया' प्रासात अर्थात् उत्तम भी 'सीहासणा सपरिवारा' भद्रासना परिवार सहित Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - २३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भद्रासनपरिवारसहितानि वक्तव्यानि, इति, तेषां प्रासादावतंसकानां प्रमाणं भवनस्येव बोध्यम् तत्र शयनीयानि खेदापनोदार्थानि, प्रासादावतंसकेषु सर्वेषु स्वास्थानपरिषद् इति बोध्यम् । ननु भवनानि विषमाऽऽयामविष्कम्भाणि भवन्ति पद्महदादि-मूलपद्मभवनानां तथा दृष्टत्वात् प्रासादस्तु समानायामविष्कम्माः दीर्घताढयकूटगतानां वृत्तवैताढयगतानां विजयादि राजधानीगतानां तदतिरिक्तानामपि विमानादिगतानां प्रासादानां समचतुष्कोणत्वेन समानायामविष्कम्भत्वस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् कथमत्र प्रासादानां भवनवत् प्रमाणं घटते ? उच्यते-'ते पासाया कोसमूसिया अद्धकोसवित्थिण्णा' इत्यस्य गाथार्द्धस्य वृत्तौ 'ते प्रासादा क्रोशमेकं देशोनम्' इति शेषः, उच्छ्रिता:-उन्नताः, अर्द्धक्रोशम्-कोशस्याद्धम् विस्तीर्णाः विस्तारयुक्ताः, परिपूर्णमेकं क्रोशं दीर्घा इति केचिदाहुः, तथा-जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे 'प्राच्ये शाले भवनम् इतरेषु प्रासादाः मध्ये सिद्धायतनं सर्वाणि विजयार्द्धमानानीति श्रीमदुपरिवार सहित सिंहासन कहलेवें । उन प्रासादावतंसकका प्रमाण भवन के जैसा समझलेवें। वहां खेददूर करने योग्य शयनीय, सर्व प्रासादावतंसको में आस्थान परिषद कही है ऐसा समझलेवें । - शंका-भवन विषम आयामविष्कम्भ वाले होते हैं, पद्मदर्पद मूल पद्म भवनों में उस प्रकार देखेजाने से । प्रांसाद तो समान आयाम विष्कंभ वाले होता है । दीर्घ वैताढय कूटगत, वृत्तवैताढय कूट गत, विजयादि राजधानीगत उनसे अतिरिक्त विमानादि गत प्रासादों के समचतुष्कोण होने से समान आयाम विष्कंभवाला होना सिद्धान्त सिद्ध है, तो यहां पर प्रासादों के भवन के जैसा प्रमाण किस प्रकार घटित होता है ? उत्तर-'ते पासाया कोसमूसिया अद्धकोसविधिण्णा' इस गाथा की वृत्ति में 'ते प्रासादा क्रोशमेकं देशोनं' यह शेष है अर्थात् वे प्रासाद कुछ कम एक कोश ऊंचे हैं, एवं आधा कोसका उसका विस्तार है । परिपूर्ण एक कोस लंबे हैं ऐसा સિંહાસને કહી લેવા. એ પ્રાસાદાવાંસકનું પ્રમાણ ભવનના પ્રમાણ જેટલું સમજી લેવું. ત્યાં ખેદ દૂર કરવા યંગ્ય શયનીય તથા સર્વ પ્રાસાદા વાંસકોમાં આસ્થાન પરિષદુ કહેલ छ. तभ सभा. શંકા-ભવને વિષમ આયામ વિધ્વંભવાળા હોય છે. પદ્મહદાદિ મૂળ પવા ભવનમાં એ રીતે જોઈ શકાય છે. અને પ્રાસાદતે સમાન આયામ વિઝંભવાળા હોય છે. દીર્ઘ વૈતાઢય કૂટ ગત તેનાથી અતિરિક્ત વિમાનાદિગત પ્રાસાદ સમચતુષ્કોણ હોવાથી સમાન આયામ વિષ્ક્રભનું તેવું સિદ્ધાંત સિદ્ધ છે તે અહીંયાં પ્રાસાનું ભવનના સરખું પ્રમાણ કેવી રીતે ઘટી શકે છે ? उत्तर-'ते पासाया कोसभूमिया अद्धकोसवित्थिण्णा' माथानी वृत्तिमा 'ते प्रासादा क्रोशमेकं देशोनं, . शेष छ. अर्थात् ते प्रासह ४४४ माछा मे४ 06 २८८i Gया Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् मास्वातिवाचकः, तथा-पासाया सेसदिसासालासु वेयद्धगिरिगयव्य तओ' इत्यस्या गाथाया अवचूर्णी-'शेपासु तिसयु शाखासु प्रत्येक मेकैव भावेन तत्र त्रयः प्रासादाः-आस्थानोचितानि मन्दिराणि देशोनं क्रोशमुच्चाः क्रोशार्द्ध विस्तीर्णाः पूर्ण क्रोशं दीर्घाः' इति मुणरत्नसूरयः प्राहुः। तदाशयेन प्रस्तुतोपाङ्गस्योत्तरत्र जम्बूपरिक्षेपकवनवापीपरिगतप्रासादप्रमाणसूत्रानुः सारेण च जम्यूपकरणप्रासादा विषमाऽऽयामविष्कम्भाः सन्तीति निश्चिन्मः । यत्तु जीवाभिगमसूत्रवृत्तौ-'क्रोशमेकमूर्ध्वाच्चैस्त्वेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण' इत्युक्तं तच्चिन्त्यम् । ___अथास्याः पद्मवरवेदिकादि स्वरूपमाह-'जंबू णं' इत्यादि-'जंबू णं' जम्बूः खलु किसी का मत है । तथा जंबुद्वीप के समास प्रकरण में पूर्व की शाला में भवन एवं अन्य शाला में प्रासाद तथा मध्य में सिद्धायतन ये सबका मान जो विज. यद्वार के वर्णन में कहा है उससे आधा है, ऐसा उमास्वाति वाचक का कथन है । तथा 'पासाया सेसदिसासालासु वेयद्धगिरि गयव्वतओ' इस गाथा की अवचूर्णि में शेष तीन शाखाओं में प्रत्येक में एक एक के क्रम से तीन प्रासादठहरनेयोग्य स्थान वह कुछ कम एक कोस ऊंचे हैं आधाकोस का उसका विस्तार है, एक कोस पूरे लंबे हैं इस प्रकार गुणरत्न सूरिका कथन है। इस आशय से प्रस्तुत उपांग में कहा हैं यहाँ जम्बूपरिक्षेपक वन, वन, में कहे गए प्रासाद का प्रमाण सूत्रानुसार जम्बू प्रकरण प्रासाद से विषम आयाम विष्कंभवाले हैं ऐसा निश्चित है । जीवाभिगम सूत्र की वृत्ति में एक कोस ऊंचा एवं आधा कोसका विष्कंभ वाला कहा है वह विचारणीय है। __अब इसकी पदमवरवेदिकादिके स्वरूपका कथन करते हैं-'जंबूणं' जंबूद्वीप 'धारसहिं बारह 'पउअवरवेझ्याहिं' प्राकार विशेषरूप पद्मवरवेदिकासे 'सव्वओ છે. તેમજ અર્ધા કેસને તેનો વિસ્તાર છે. પરિપૂર્ણ એક ગાઉ જેટલા લાંબા છે. એમ કોઈકને મત છે. તથા જંબુદ્રવના સમાસ પ્રકરણમાં પૂર્વની શાલામાં ભવન તથા અન્ય શાલામાં પ્રાસાદ તથા મધ્યમાં સિદ્ધાયત એ તમામનું માપ જે વિજય દ્વારના વર્ણનમાં ४थु छ, तेनायी मधु छ, अभ उभास्वाति वायनुयन छ. तथा 'पासाया सेसदिसा सालासु वेयद्धगिरि गयव्धतओ' मा uथानी अवयूणिमा शेष ऋणु शापामा २४मांगे सेना ક્રમથી ત્રણ પ્રાસાદે-રહેવા ગ્ય સ્થાન છે. તે કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલા ઉંચાં છે. અર્ધા ગાઉ જેટલે તેને વિસ્તાર છે. પૂરા એકમાઉ જેટલા લાંબા છે. આ પ્રમાણે ગુણરતનસુરીનું કથન છે. આ આશયથી પ્રસ્તુત ઉપાંગમાં કહ્યું છે. અહીંયાં જંબૂ પરિક્ષેપક વન, વાવમાં કહેલા પ્રાસાદનું પ્રમાણ સૂત્રોનુસાર જંબૂ પ્રકરણના પ્રાસાદેથિ વિષમ આયામ વિકંભવાળું છે, એ નિશ્ચિત છે. જીવાભિગમ સૂત્રની વૃત્તિમાં એક ગાઉ ઉંચા અને અર્ધા ગાઉના વિષ્કભવાળા કહેલ છે. તે વિચારણીય છે. હવે તેની પદ્મપર વેદિકાદિના સ્વરૂપનું કથન કરવામાં આવે છે – વંતૂi જંબૂઢીપ 'बारसहिं' मा२ 'पउमवरवेइयाहिं' ४२ विशेष३५ ५५१२ aftथी 'सव्वओ समंता' Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'बारसहिं' द्वादशभिः-द्वादशसंख्यकाभिः 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभिः-प्राकारविशेष. रूपाभिः 'सयओ' सर्वतः सर्वदिक्षु 'समंता' समन्ताद-सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिप्ता-परिवेष्टिता अस्तीति शेषः, तासां-'पउमवरवेइयाणं वष्णो' पद्मवरवेदिकानां वर्णकः प्राग्वद् वक्तव्यः, स च चतुर्थसूत्राद् ग्राह्यः । इमाश्च पद्मवरवेदिकाः मूलजम्बू परिवेष्टय स्थिता बोध्याः, यातु पीठपरिवेष्टिका पदमवरवेदिका सा पूर्व मेव प्रतिपादिता । ___अथास्याः जम्न्याः प्रथमपरिक्षेपमाह- 'जंबू णं अण्णेणं' इत्यादि-'जंबूणं अण्णेणं' अम्बूः खलु अन्येन-स्वातिरिक्तेन 'अट्ठसएणं' अष्टशतेन-अष्टोत्तरशतेन 'जंबू णं' जम्बूनांजम्बूवृक्षाणां 'तदधुच्चत्ताणं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' तदोच्चत्वानां सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिता, तत्र 'तदर्थोच्चत्वानामित्युपलक्षणं, तेन तदर्थों द्वेधायाम वष्कम्भाणामित्यपि जम्बूनां विशेषण समर्पकं बोध्यम् । तस्याः-मूल जम्ब्याः अर्धम्-अर्धप्रमाणाः उद्वेषायामविष्कम्मा यासां जम्बूनां तास्तदोद्वधायामविष्कम्भास्तासां तथा, तथाहि--'ता अष्टाधिकशतसंख्या जम्न्त्रः प्रत्येकं चत्वारि योजनानि उच्चस्त्वेन क्रोशमे कमवगाहेन एक समंता' सर्वतः चारों ओर से 'संपरिक्खित्ता' परिवेष्टित है । वे 'पउनवरवेइया णं वण्णओ' पद्मवरवेदिकाकावर्णन पहले के समान कहलेवे । वह वर्णन चौथे सूत्रानुसार ग्रहण करले। इन पद्मवरवेदिका मूल जंबू को वेष्टित होकर स्थित है ऐसा समझें । जो पीठकोपरिवेष्टित पद्मवरवेदिका कही है वह पहले ही प्रतिपादित की है। ____ अब इस जंबूका प्रथमपरिक्षेप का कथन किया जाता है-'जंबू णं अण्णेणं' जब दसरे 'अट्टसएणं' एकसो आठ 'जंबूणं' जंबूवृक्षों से कि जो 'तदधुच्च ताण सव्व ओ समंता संपरिक्खित्ता' मूल जंबू से आधि ऊंचाइ वाले चारों ओर से परिवेष्टित करके स्थित हैं ? यहां पर तदद्धोच्चत्व यह उपलक्षण है, इससे उससे आधा उद्वेध आयाम विष्कंभका भी ग्रहण हो जाता है, मूल जंबू से आधा प्रमाणका उध-आयाम विष्कंभवाले वे एकसो आठ जंबू प्रत्येक चार सत: यार माथी 'संपरिक्खित्ता' वाटायेस छे. ते 'पउमवरवेइयाणं वण्णओ' पावर વેદિકાનું વર્ણન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે ગ્રહણ કરી લેવું. આ પધવરવેદિકા મૂળ જંબૂને વીંટળાઈને રહેલ છે. તેમ સમજવું. પીઠને વીંટળાઈને રહેલ જે પદ્મવદિકા કહી છે, તે પહેલા જ વર્ણવેલ છે. के 41 पूना पडा परिक्ष५नु ४थन ४२वामां आवे छे-'जंबूणं अण्णेणं' भू पीकत 'अदृसएणं' से। माई 'जंबूणे' यू वृक्षाथी २ 'तधुच्चत्ताणं सव्वओ समंता પવિત્ત મૂળ જંબુથી અદ્ધિ ઉંચાઈવાળા ચારે બાજુથી વીંટળાઈને રહેલ છે. અહિંયા 'तदद्धोच्चत्व' से सक्षम छे. तेथी तेनाथी अर्धा द्वेध-मायाम मिनु ५९] ग्रहण થઈ જાય છે. મૂળમાં જંબુથી અર્ધા પ્રમાણને ઉદ્વેષ આયામ વિષંભવાળા તે એક સે આઠ જંબૂ દરેક ચા૨ જન જેટલા ઉંચા છે. તથા એક ગાઉ જેટલે તેને અવગાહ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् योजनमुच्चः स्कन्धः त्रीणि योजनानि विडिमा सर्वाग्रेणोच्चैस्त्वेन सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि, तत्रैका शाखा अर्द्धक्रोशहीने द्वे योजने दीर्घा, क्रोशपृथुत्वः स्कन्धः इति सर्वसंख्यया आयामविष्कम्भतश्चत्वारि योजनानि संपद्यन्ते, आसु जम्बुषु चानादृतदेवस्याभरणादिकं तिष्ठति, आसां वर्णक सूचनार्थमाह-'तासि णं वण्णओ' इति, 'तासि णं' तासां पूर्वोक्तानां जम्बूनां खलु 'धण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र वक्तव्यः, स च मूलजम्बूवदेव बोध्यः । अथाऽऽसां यावत्यः पद्मवरवेदिकास्ता आह-'ताओ णं' इत्यादि-ताओ णं' ता:अनन्तरोक्ताः खलु 'जंबू छहि जामः षभिः-पटसंख्याभिः 'पउमवरवेइयाहि संपरिक्खित्ता' पद्मवर येहिकाभिः स.परिक्षिताः-परिवेष्टिताः, प्रति जम्बूतरु पट् पट् पद्मपरवेदिकास्तद्वेष्टनभूनाः सन्तीत्यर्थः, एतासु जम्बूपु अत्रमूत्रे जीवाभिगमे बृहक्षेत्रविचारादौ सूत्रकृतो वृत्तिकृतश्च योजन के ऊंचे हैं। तथा एक कोस का उसका अवगाह-ऊंडाई कही गई हैं। एक योजन के ऊंचाइवाले स्कंध तथा तीन योजन ऊंचाई वाली शाखाएं हैं सर्वात्मना ऊंचाइ कुछ अधिक चार योजन की हैं। उसमें एक शाखा देढ योजन की लंबी है। एक कोस की मोटाई स्कंध की है इस प्रकार सर्व प्रकार से आयामविष्कंभ चार योजन मिल जाता है, इस जंबू में अनादृतदेव के आभरणादि रहते हैं। इसका वर्णक सूचनार्थ कहते हैं-'तासिं णं वण्णओ' पूर्वोक्त जंबू के वर्णन पद परक पद-समूह यहां पर कहलेवें। वह वर्णन पद परक पद मूल जंबू के वर्णन के जैसा समझलेवें। अब इसकी जितनी पद्मवरवेदिका कही है उसको कहते हैं-'ताओ णं' पूर्वोक्त 'जंबू छहि' जंबूवृक्ष छह 'पउमवरवेइयाहिं संपरिविवत्ता' पद्मवरवेदिका से घिरेहुए हैं। अर्थात् वे प्रत्येक जंबू वृक्ष छह, छह पदमवरवेदिका से घिराया हुआ है। इन जंबू में इस सूत्र में एवं जीवाभिगम की बृहत्क्षेत्र विचारादिमे ઉંડાઈ કહેલ છે. એક યોજન જેટલી ઉંચાઈવાળા સ્કંધ અને ત્રણ ચોજન ઉંચાઈવાળી શાખા ડાળ છે. સર્વાત્મના ઉંચાઈ કંઈક વધારે ચાર જનની છે. તેમાં એક શાખા દેઢ જન જેટલી લાંબી છે. સ્કંધની જાડઈ એક કેસ જેટલી છે. આ રીતે સર્વ પ્રકારથી આયામ વિઠંભથી ચાર ભેજન મળી જાય છે. આ જંબુમાં અનાદત દેવના આભરણાદિ २ छे. तेनु न सूयनाथ ४९ छे.-'तासिंग वण्णओ' पूर्वरित यू पाणुन ५४५२५ ५६ સહ અહીંયાં કહી લેવાં આ વર્ણન પરક પદ મૂલ જંબુના વર્ણનની જેમ સમજી લેવા. हवे तेनी २०ी पावर ४डी छे तेनु ४थन ४२ छ.-'ताओ णं' पूर्वरित 'जंबू छहि' यू१६ ७ 'पउमवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता' ५१२ हाथी धेशयेत छे. અર્થાત્ એ દરેક જંબૂવૃક્ષ છે, છ પવરવેદિકાથી ઘેરાયેલ છે. આ જંબૂમાં આ સૂત્રમાં અને જીવાભિગમની બૃહક્ષેત્ર વિચારાદિમાં સૂત્રકાર તથા વૃત્તિકારે જનભવન અને ભવન Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जिनभवन भवनप्रासादानां च न चक्रुः, अन्येऽपि विद्वांसो मूलजम्बूवृक्षगततत्प्रथमवनखण्डगतकूटाष्टकजिनभवनैः सह संकलय्य सप्तदशाधिकशतं जिनभवनानां स्वीकुर्वाणा इहाप्येकै सिद्धायतनं प्रागुक्तप्रमाणं स्त्रीचक्रुः, ततोऽत्र तत्वं केवलिनो विदुरिति ।। अधुनाऽस्याःशेपपरिक्षेपान् वक्तुं सूत्रचतुष्टयमाह- 'जंबूए णं सुदंसणार उदरपुरस्थियेणं' जम्ब्याः सुदर्शनायाः खलु उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तरपचत्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन-उत्तरपश्चिमायां-वायव्यविदिशि 'एन्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे दिक्त्रये खलु 'अणाढियस्स' अनादृतस्य अनादृतनामकस्य 'देवस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं' देवस्य चतसणां सामानिकसाहस्रीणां-चतुःसहस्रसंख्ययामानिकानां वित्तारि जंबुसाहस्सीओ' चतस्रो जम्बूसाहस्यः-चतुःसहस्रसंख्याजम्यः ‘पत्ताओ' प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'तीसे गं' सूत्रकार एवं वृत्तिकारने जिन भवन एवं भवन प्रासादों की चर्चा नहीं की है अन्य विद्वान भी मूल अंबूवृक्षमें कही हुई उस प्रथम वनखण्डमें कही हुई जिन भवन के साथ आठ कूट का संकलन करके एकसो सत्रह जिन भवनों का स्वीकार करके यहाँ पर प्रथम कहे प्रमाण वाला एक एक सिद्धायतन का स्वीकार करते हैं तो इसमें क्या हेतु है सो केवलि भगवान ही जाने। _अब इसके शेष परिक्षेप को कहने के हेतु से चार सूत्र कहते हैं-'जबएणं सदसणाए' इत्यादि "जबूएणं सुदंसणाए उत्तरपुरस्थिमेणं' जंबू सुदर्शना के ईशानकोणमें 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तर पश्चिम अर्थात वायव्यकोण में 'एस्थ णं' ये तीनों दिशा में 'अणाढियस्स देवस्स' अनाहत नामक देवका 'चउण्हं सामाणिय साहस्सीणं' चार हजार सामानिक देवों के 'चत्तारि जंबू साहस्सीओ' पण्णत्ताओ' चार हजार जयूवृक्ष कहे हैं। 'तीसेणं' उस जंतू सुदर्शना के 'पुरत्यिमेणं' पूर्वदिशामें 'चउण्हं अग्गमाहिसीण' चार अग्रપ્રાસાદની ચર્ચા કરેલ નથી. અન્ય વિદ્વાને પણ ભૂલ જંબૂવૃક્ષમાં કહેલ એ પ્રથમ વનખંડમાં કહેલ જીનભવનેની સાથે આઠ ફૂટનું મિલાન કરી એક સે સત્તર જનભવનેનો સ્વીકાર કરીને અહીંયાં પહેલા કહેલ પ્રમાણવાળા એક એક સિદ્ધાયતનને સ્વીકાર કરે છે. તે તેમ કરવામાં તેમને શું હેતુ છે? તે કેવલી ભગવાન જ જાણી શકે. व तना शेष परिक्षने. ४डवाना हेतुथी या२ सूत्र ४ छ.-'जंबूएणं सुईसणाए' छत्याशिनानी शान शिामा 'उत्तरेणं' उत्तर ६शामा 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तर पश्चिम अर्थात् पायव्य (शमा 'अणाढियस्स देवस्स' मनहत नामना बना 'चउण्हं सामाणियसोहस्सीणं' या२ ॥२ साभानि वाना 'चत्तरि जंबूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' यार २२ । ४ा छे 'तीसेणं' ये भूसुश नानी 'पुरस्थिमेणं' पूर्व हिशमां 'चउण्हं अगामहिसीण' या२ म अमलिवियाना 'चत्तारि जंबूओ पण्णत्ता' या२०४५ वृक्षो ४ा छ. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २७३ तस्याः-जम्बूसुदर्शनायाः खलु 'पुरथिमेणं पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि 'चउण्हं' अग्गमहिसीणं' चनमृणाम् अग्रमहिषीणां-प्रधानमहिषीणाम्-सर्वश्रेष्ठराज्ञीनाम् 'चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ' चतसो जम्ब्बः प्रज्ञप्ताः-कथिताः । अथ गाथाद्वयेन पार्षददेवजम्बूराह-'दक्खिणेत्यादि'दक्षिणपुरस्थिमे' दक्षिणपौरस्त्ये-अग्निकोणे, 'दक्खिणेण' दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि 'तह भारइक्खिणेणं च' तथा अपरदक्षिणेन अपरदक्षिणस्यां नैर्ऋत्यविदिशि च-एतद्दित्रये यथाक्रमम् । 'अट्टदसबारसेव य' अष्टदशद्वादश-तत्राग्निकोणे अष्ट, दक्षिणस्यां दिशि दश, नैऋत्यकोणे द्वादश च 'भवंति जंबूसहस्साई' जम्बूसहस्राणि-जम्बूनां सहस्राणि भवन्ति एव शब्दोऽवधारणार्थः, तेन न न्यूनानि नाधिकानि इति व्यवच्छेदार्थः ।। 'अणियाहिवाण' अनीकाधिपानाम्-सेनाधिपतीनां देवानां सप्तानां 'पच्चत्थिमेण' पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि 'सत्तेव होंति जंबूओ' सप्तैव सप्तसंख्या एव न न्यूनाधिका जम्ब्वो भवन्ति । इति द्वितीयः परिक्षेपः। ___ अथ तृतीयपरिक्षेपमाह-'सोलसे' इत्यादि-'आयरक्खाणं' आत्मरक्षाणाम्--आत्मरक्षाकारिणाम् अनादृतदेवस्य सामानिक 'चतुर्गुणानां सोलस साहस्सीओ' पोडशसहस्त्राणां देवानां महिषियों के 'चत्तारि जंबूओ पण्णताओ' चार जंबू वृक्ष कहे हैं। ___ अब दो गाथा से पार्षद देव के जंबू कहते हैं-'दक्षिण पुरथिने' अग्निकोणमें 'दक्षिणेण' दक्षिण दिशामें 'तहअवर दक्खिणेणं च' नैऋत दिशामें ये तीनों दिशामें ऋमसे 'अट्ठदस बारसेव'आठ, दस, बारह उनमें अग्निकोणमें आठ, दक्षिण दिशामें दस नैऋत्य कोण में बारह 'भवंति जंबू सहस्साई' इतना हजार जंबूवृक्ष होते हैं । अर्थात् अग्निकोणमें आठ हजार, दक्षिण दिशामें दसहजार नैऋत्य कोण में बारह हजार जंबूवृक्ष होते हैं-इससे न्यूनाधिक नहीं होते हैं ।१। 'अणियाहिवाण' सात सेनापतिदेवों के 'प्रच्चत्थिमेण' पश्चिमदिशामें 'सत्तेव होंति जंबूओ' सात जंबूवृक्ष होते हैं। यह दूसरा परिक्षेप कहा२ अब तीसरा परिक्षेप कहते हैं-'आयरक्खाणं' अस्मरक्षक देवों के सामानिकों से चोगुने होने से 'सोलहसाहस्सीओ' सोलह हजार 'चउद्दिसि' पूर्वादि चारों व आयाथी पाप हेवन पू छ.-'दक्षिणपुरत्थिमे' यानेयमा 'दक्खिणेण' इक्षिा शामा 'तह अवरदक्खिणेणं च' नेऋत्य हिशाम मात्रणे हिशमां अभश: 'अट्ठ दस बारसेव' 28, ४स, मा२,-तेमांमनभां मा8, इक्षिण दिशाम इस नैऋत्यअभी मार 'भवंति जंबूसहस्साई' मा १२ भूवृक्ष डाय छे. अर्थात् ममि मां આઠ હજાર, દક્ષિણ દિશામાં દસ હજાર, નિત્ય કેણમાં બાર હજાર જંબુ વૃક્ષે હોય છે. तनाथी माछापत्ता होता नथी. ॥१॥ 'अणियाहिवाण' सात सेनापति वान। 'पच्चत्थिमेण' पश्चिम दिशामा 'सत्तेव होंति जंबूओ' सात वृक्षो डाय छे. सामान परिक्ष५ ४ह्यो. ॥२॥ हवेत्रीले परिक्ष५ वामां आवे छे.-'आयरक्खाणं' मात्मरक्ष हेवान। सामाColथी या२ डापाथी ‘सोलहसाहस्सीओ' से १२ 'चउद्दिसि' पूर्वाहि या शाम ज० ३५ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'चउद्दिसिं' चतुर्दिशि - पूर्वादि दिक्चतुष्टये षोडश साहस्त्रयः जम्बूनामितिशेषः भवन्तीति क्रियाध्याहारोऽत्र बोध्यः, तत्र एकैकस्यां दिशि चतस्रश्चतस्रः साहस्त्र्य इति दिक्चतुष्टये षोडश सात्र्यो भावनीयाः । यद्यप्यनयो द्वितीय तृतीयपरिक्षेपयोः प्रमाणचर्चा पूर्वाचार्यैर्न कृता, तर्हि मानज्ञानं कथमनयोः स्यादिति जागर्ति जिज्ञासा, तथाऽपि पद्महृदपद्मपरिक्षेपानुसारेण पूर्वपूर्वपरिक्षेपजम्ब्वपेक्षयोत्तरोत्तर परिक्षेपजम्ब्बोऽर्द्धप्रमाणा बोध्याः, अत्रापि प्रत्येकं परिक्षेपे एकैकस्यां श्रेण्यां विधीयमानां क्षेत्रसङ्कीर्णत्वेनानवकाशदोषस्तथैव प्रादुर्भवति तेन परिक्षेपजातयस्तिस्रस्तथैव वक्तव्याः । अधुनाऽस्या एव त्रिवनपण्डी परिक्षेपान् वक्त्तुमाह'जंबूएणं' इत्यादि - 'जंबूए णं तिर्हि' जम्ब्वाः खलु त्रिभिः - त्रिसंख्यकैः 'सइएहि ' शतिकै :- योजनशत प्रमाणैः, 'बणसंडेर्हि सच्चओ समता संपरिक्खित्ता' वनपण्डैः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्ताः - परिवेष्टताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अभ्यन्तरेण मध्यमेन बाह्येन चेति । अथात्र यथा यदस्ति तथा तदाह - 'जंबुए णं' ' इत्यादि - जंबूए णं' जम्ब्वाः सपरिवारायाः दिशा में सोलह हजार जंबूवृक्ष होते हैं' एक एक दिशामें चार हजार के क्रम से चारों दिशा में मिलके सोलह हजार समझ लेवें । यद्यपि इन दूसरे तीसरे परिक्षेप के प्रमाण की चर्चा पूर्वाचार्यने की नहीं है तब उसका मानादिज्ञान कैसे जाना जा सके ? इस प्रकार की जिज्ञासा जाग्रत होती है, तो भी पद्महद के पद्मपरिक्षेप के कथनानुसार पूर्व पूर्व परिक्षेप जंबू की अपेक्षा से उत्तर उत्तर के परिक्षेप जंबू से अर्द्ध प्रमाण वाला समझें । यहां पर भी प्रत्येक परिक्षेपमें एक श्रेणी में होने वाली क्षेत्र संकीर्णता से अनवकाश दोष उसी प्रकार आ जाता है अतः तीन३ परिक्षेप जाती कहनी चाहिए । अब तीन वनषण्ड के परिक्षेप का कथन करते हैं- 'जंबूएणं तिहिं सहएहिं ' जंबू तीनसो योजन प्रमाण वाले 'वणसंडेहिं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता' वनषण्डों से चारों दिशामें व्याप्त होकर स्थित है। वे तीन वनषण्ड इस प्रकार हैआभ्यन्तर, मध्यम एवं बाह्य । સેળ હજાર જ ખૂલ્લે હૈાય છે. એક એક દિશામાં ચાર હજારના ક્રમથી ચારે દિશાના મળીને સેળ હજાર થાય છે તેમ સમજવું. યદ્યપિ આ બીજા અને ત્રીજા પરિક્ષેપના પ્રમાણુની ચર્ચા પૂર્વાચાર્યાંએ કરેલ નથી. તે તેના માનાદિનું જ્ઞાન દૈવી રીતે જણી શકાય ? આ રીતની જીજ્ઞાસા ઉત્પન્ન થાય છે, તે પણ પદ્મદના પદ્મ પરિક્ષેપના કથનાનુસાર પૂર્વી પૂર્વ પરિક્ષેપ જંબૂથી અર્ધો પ્રમાણવાળા સમજે, અહીયાં પણ દરેક પરિક્ષેપમાં એક શ્રેણીમાં થવાવાળી ક્ષેત્ર સ ́કીનાથી અનવકાશ દ્વેષ એજ રીતે આવી જાય છે. તેથી ત્રગુ પરિક્ષેપ જાતી કહેવી જોઈએ. वे ऋणु वनषडेना परिक्षेय उन रेछे- 'जंबूएणं तिहि सइएहिं जू त्रासेो येनन प्रभाणुत्राणा 'वनसंडेहि सन्त्रओ समता संपरिक्खित्ता' वन डेोथी यारे हिशामां व्यास पते रहेत छे, येणे वनडे या प्रमाणे छे,- माल्यांतर, मध्यम अने माहा. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २७५ खलु 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वेण पूर्वदिशि 'पण्णासं जोयणाई पढम' पञ्चाशतं योजनानि प्रथमम्-आदिमं 'वणसंडं ओगाहित्ता' वनषण्डम्' अबगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खल 'भवणे' भवनं-गृहं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तस्य मानमाह-'कोसं आयामेणं' क्रोशमायामेनदैर्पण, प्रज्ञप्तम् एतावताऽपरितुष्यन्नाह-'सो चेव' स एवेति-सः-पूर्वोक्तो मूल-जम्बू पूर्वशाखागत भवनसम्बन्ध्येव 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः, 'सयणिज्जं च' शयनीयं शय्या, अनादृतदेवयोग्यम् यत् तदपि बोध्यम् ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'सेसासु वि' शेषासु-अवशिष्टासु दक्षिणादिषु तिसृषु 'दिसासु' दिक्षु प्रत्येकं पञ्चशतं योजनान्यवगाब प्रथमवनषण्डे 'भवणा' भवनानि वक्तव्यानि, अथात्र प्रथमवने पुष्करिणी चतुष्टयं वर्णयति'जंबूए णं' इत्यादि-जंबूए णं उत्तरपुरस्थिमेणं' जम्ब्वाः खलु उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे दिग्भागे 'पढमं वणसंडं पण्णासं-ज़ोयणाई ओगाहित्ता' प्रथम वनषण्डं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ णं' अत्र-अत्रान्तरे खलु 'चत्तारि' चतस्रः-चतुःसंख्याः ___अब जंबू वृक्षके भीतरी भाग का वर्णन करते हैं-'जंबूएणं' सपरिवार जंबू के 'पुरथिमेणं' पूर्वदिशा की तरफ 'पण्णासं जोयणाई पढम' पचास योजन पर पहला 'वणसंड ओगाहित्ता' वनषंड में प्रवेश करके 'एत्थ णं भवणे पण्णत्त' यहां पर भवन कहा है, वह भवन 'कोसं आयामेणं' एक कोस लंबा है, 'सोचेव वण्णओ' मूल जंबू के वर्णन में पूर्वशाखा में कहा हुआ भवन संबंधी समस्त वर्णन यहां पर समझ लेवें, 'सयणिज्जं च' अनाहत देव के योग्य शय्या भी कह लेवें । 'एवं' इसी प्रकार 'सेसासु' बाकी की दक्षिणादि तीनों 'दिसासु' दिशाओं में प्रत्येक में पांचसो २ योजन प्रविष्ट होने पर प्रथम यवनषंड में "भवणा' भवन कह लेवें। अब प्रथमभवन में चार पुष्करिणियों का वर्णन करते हैं-'जंबूएणं उत्तर पुरत्थिमेणं' जंबू की ईशान दिशा में 'पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई' ओगा भूक्षन। २५४२॥ मागनु वर्णन ४२ छ-'जंबूएणं' सपरिवार न। पुरस्थिमे पूर्व हशानी त२५ ‘पण्णासं जोयणाई पढम' ५यास यान ५२ पता 'वनसंडं ओगाहित्ता' वनमा प्रवेश ४२. 'एत्थ णं भवणे पण्णत्तै' त्यो सपना मावा छे. से भवन 'कोसं आयामेणं' में 1822 aiमा छ. 'सो चेव वण्णओ' भूण गुना वर्णनमा ५ शामi डेस भवन समधी सघन मी यां सभसे. 'सय णिज्जं च' मनात वने योग्य शय्या ५४ ४डी वी ‘एवं' से शते 'सेसासु' महीना क्षित्रिी 'दिसासु' हिशायमा ४२४मां पांयसे। यान प्रवेश ४२वायी पडसा वन५मा ‘भवणा' अपने सभ सेवा डवे पडसा वनमा या२ ४२ योनु न ४२ छ.-'जंबूरणं उत्तरपुरस्थिमेण' भूनी नशामा ‘पढमं वणसंडं पण्णासं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता' पडसावन Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः-चर्तुलवापीनाम जलाशयविशेषाः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, ता नामतो निर्दिशति-तं जहा' तद्यथा-'पउमा' पद्मा १ 'पउमप्पभा' पद्मप्रभा २ 'कुमुदा' कुमुदा३ 'कुमदप्पभा' कुमुदप्रभा ४, एताः पूर्वादि दिक्रमेण स्वविदिग्गतप्रासादं परिवेष्टय व्यवस्थिताः, अनयैव रीत्याऽग्निकोणादि विदिक्त्रये प्रत्येकं चतस्रश्चतस्रः पुष्करिण्यो वक्तव्याः, तासां मानमाह-'ताओ णं' ताः खलु पुष्करिण्यः 'कोसं आयामेणं' क्रोशम् आयामेन-दर्पण, 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्-क्रोशस्याई 'विवखंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'पंच धणुसयाई' पश्च धनुःशतानि पञ्चशतीधनूषि 'उध्वेहेणं' उद्वेधेन-भूप्रवेशेन प्रज्ञप्ताः । तासां 'वण्णओ' वर्णकः वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च प्रकरणान्तराद ग्राह्यः, 'तासि णं' तासां चतसृणां वापीनां खलु 'मज्झे' मध्ये-मध्यभागे 'पासायवडेंसगा' प्रासादावतंसकाः-प्रासादेषु उत्तमाः प्रासादाः प्रज्ञप्ताः, अत्र बहुवचनमुक्तवक्ष्यमाणवापीनां प्रासादापेक्षया बोध्यम् तेन प्रतिहित्ता' प्रथम वनषण्ड के पचास योजन प्रवेश करने पर 'एत्थ णं' यहां पर 'चत्तारि' चार 'पुक्खरिणीओ' वावडियां 'पण्णत्ताओ' कही गई है-उनके नामादि कहते हैं-'तं जहा-'पउमा' पद्मा१ 'पउमप्पभा' पद्मप्रभा२, 'कुमुदा'३ 'कुमुदप्पभा' कुनुप्रभा४ ये पूर्वादि दिशा के क्रमसे अपने से विदिशामें आये हुए प्रासादको चारों ओर से घिरकर स्थित रहते हैं। इसी प्रकार से अग्निकोणादि तीन विदिशाभे प्रत्येक को चार चार पुष्करणियां कहनी चाहिए । उनका मान कहते हैं-'ताओ' वे पुष्करणियां 'कोसं आयामेणं' एक कोस की लंबाई वाली कही है 'अद्धकोसं विखंभेगं' आधा कोसका उसका विष्कंभ-विस्तार कहा है। 'पंचधणुसयाई उव्येहेणं' पाँचसो धनुष का उनका उद्वेध-गहराई हैं । 'वण्णओ' इनका समग्र वर्णन अन्य प्रकरण में कहे अनुसार समझ लेवें । 'तासिगं' वे चारों वावडिके 'मज्झे मध्य भागमे 'पासायपडेंसगा' प्रासादावतंसक-श्रेष्ठ महल कहे है। यहां बहुवचन वक्ष्यमाणवापी के प्रासादों की अपेक्षा से जानना पमा पयास योगन प्रवेश ४२वाथी 'एत्थण' महीयां 'चत्तारि' यार 'पुक्खरिणीओ' पाव। 'पण्णत्ताओ' ४ामा मावेस छे. तेन नामा6ि २॥ प्रमाणे छे 'तं जहाँ भी 'पउमा' ५ १ 'पउमप्पभा' ५ममा २ 'कुमुदा' मुह। 3 'कुमुदप्पभा' भुना ४ से પૂર્વાદિ દિશાના કમથી પિતાનાથી વિદિશામાં આવેલ પ્રાસાદને ચારે તરફથી ઘેરીને રહે છે. એ જ પ્રમાણે અગ્નિ કેણાદિ ત્રણ વિદિશામાં પ્રત્યેકને ચાર ચાર પુષ્કરિણિયે કહેવી नये. तनु भा५ मतावे छे.-'ताओ गं' से पुरियो 'कोसं आयामेणं' ४ ॥ रेली aiमी ४ छ 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्धा ॥ २ तेन नि विस्तार उस छे. 'पंच धणुसयाई उव्वेहेणं' पांयसो धनुष २ तेन। उद्वेध- S xsी छे. 'वण्णओ' तेनु स पूर्ण वर्णन मन्य प्ररशुभां पडेसा या प्रमाणे सभ यु'. 'तासिणं' मे प्यारे पावनी 'मझे' भव्य सामने 'पासायवडेंसगा' प्रासात उत्तम भडेस Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २७७ वापि एकैकप्रासादसद्भावेन चत्वारः प्रासादाः सम्पद्यन्ते इति बोध्यम् । एवं निर्देशोलाघवार्थः । ते च प्रासादाः 'कोसं' क्रोशम्-एकं क्रोशम् 'आयामेणं' आयामेन-दैर्येण प्रज्ञप्ताः, एक्मग्रेऽपि, 'अद्धकोसं' अर्द्धक्रोशम्-क्रोशस्याई 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारण 'देसूणं' देशोनं-किञ्चिद्देशविहीन 'कोसं उद्धं उच्चत्तेणं' क्रोशम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, तेषां प्रासादानां 'वण्णो' वर्णकोऽत्र वक्तव्यः तत्र सीहासणा सपरिवारा' सिंहासनानि सपरिवाराणि भद्रासनरूपपरिवारसहितानि वक्तव्यानि जीवाभिगमेत्वपरिवाराण्येव सिंहासनानि वर्णनीय. तयोक्तानि, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'सेसासु विदिसामु' शेषासु' शेषासु ईशान विदिगभिन्नासु आग्नेयादि विदिक्षु पुष्करिण्यः (वाप्यः) प्रासादावतंसकाश्च वाच्याः, एतासामीशानादिविदिक्पूर्वादिदिग्गतवापीनां क्रमेण नामनिर्देष्टुं पद्यद्वयमाह-गाथे पधे-'पउमा' पद्मा १ 'पउमप्पभाचेव' पद्मप्रभा २ चैव 'कुमुदा' कुमुदा ३ 'कुमुदप्पहा' कुमुदप्रभा ४। चाहिए । इससे प्रत्येक वापीमें एक एक प्रासाद होने से चार प्रासाद होते हैं ऐसा समझ लेवें । यह निर्देश लाघवार्थ किया है । वे प्रासाद 'कोसं' एक कोस 'आयामेणं' लंबे 'अद्धकोसं' आधा कोसका उनका 'विक्खंभेणं' विष्कंभ कहा है। 'देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तण' कुछ कम एक कोस ऊंचा है। उन प्रासादों का 'वण्णओ' वर्णन परक पदसमूह यहां कह लेवें। वह इस प्रकार से है- वहां 'सीहासणा-सपरिवारा' भद्रासनरूप परिवारसहित सिंहासन कहे हैं । जीवा भिगममें विना परिवार सिंहासन का वर्णन कहा है। ‘एवं' इस प्रकार से 'सेसासु विदिसासु' शेष ईशान विदिशा से भिन्न आग्नेयादि विदिशा में पुष्करिणियां वावडियां एवं प्रासादावतंसक कह लेवें । ये ईशानादिविदिक एवं पूर्वादिदिशामें कही हुई वापी के क्रम से नाम निर्देश के लिए दो पद्य कहते हैं'पउमा' पद्मा१ 'पउमप्पभाचेव' पद्मप्रभा२, 'कुमुदा ३, 'कुमुप्पहा' कुमुद કહ્યા છે, અહીંયાં બહુવચન વયમાણ વના પ્રાસાદની અપેક્ષાથી છે તેમ સમજવું. એથી દરેક વાવમાં એક એક પ્રાસાદ હોવાથી ચાર પ્રાસાદ હોય છે, તેમ સમજવું. मानिश सपास छ. ये पासाहो 'कोसं' मे ॥ २८। 'आयामेण ein छ. 'अद्धकोस' अर्धा २८। तेना 'विक्ख भेणं' वि०४ हेर छे. 'देसूणं कोसं उद्ध उच्चत्तेण' iss सोछ। ४ ॥ २८॥ ॥ छ. से प्रासानु-'वण्णओ' वर्णन ४२ना२: wी ही सेवा ते मा प्रमाणे छे-'सीहासणा सपरिवारा' त्यां भद्रासन ३५ परिवार सहित सिहासननु वर्णन ४ से. 'एवं' से प्रमाणे 'सेसासु विदिसास બાકિની ઈશાન વિદિશાથી બીજી આયાદિ વિદિશામાં પુષ્કરિણી-વાવ અને પ્રાસાદાવતંસક કહો લેવા. એ ઈશાનાદિ વિદિશા અને પૂર્વાદિ દિશામાં કહેલ વાના કમથી નામ मता माटे मे ५यो हेरा छ. सभा-'पउमा' ५॥ १ 'पउमप्पभा चेव' ५५ प्रना २ 'कुमुदा' भु. 3, 'कुमुदुप्पहा' भुमिमा ४' 'उप्पलगुम्मा' ५ शुभ ५, 'णलिणा' Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'उप्पलगुम्मा' उत्पलगुल्मा ५ 'णलिणा' नलिना ६ 'उप्पला' उत्पला ७ 'उप्पलुज्जला' उपत्पलोज्ज्वला८॥१॥ 'भिंगा' भृङ्गार 'भिंगप्पभा चेव' भृङ्गप्रभा चैव१० 'अंजणा' अञ्जना ११ 'कज्जलप्पभा' कज्जलप्रभा१२ । 'सिरिता' श्रीकान्ता१३ 'सिरिमहिता' श्रीमहिता १४ 'सिरिचंदा' श्रीचन्द्रा १५ 'चे सिरिनिलयाचा श्रीनिलया १६।२। इमे गाथे स्पष्टार्थे । पद्मादीनां प्रागुक्तत्वेन पुनरिहोक्तिः पुनरुक्तिको सम्भावयति परन्तु स पुनरुक्तिः पद्मबद्धत्वेन तेषां संग्रहणान्निराकरणीया । एताश्च सर्या अपि पुष्करिण्यः त्रिसोपानचतुर्दारालङ्कृताः पद्मवरवेदिका-वनषण्डमण्डिताश्च बोध्याः। तत्राग्नेयकोणे उत्पल गुल्मा, पूर्वस्यां नलिना, दक्षिणस्यामुत्पलोज्ज्वला, पश्चिमायामुत्पला, उत्तरस्यां तथा, नैऋत्यकोणे भृङ्गा भङ्गप्रभा अञ्जना कज्जलप्रभा तथा वायव्यकोणे श्रीकान्ता श्रीमहिता श्रीचन्द्रा श्रीनिलया चेति दिग्विपर्यासेन बोध्यम् ।। प्रभा ४ 'उप्पलगुम्मा' उत्पलगुल्म ५, ‘णलिणा' नलिना ६, 'उप्पला' उत्पल ७, 'उप्पलुज्जला' उत्पलोज्ज्वला८, ॥१॥'भिंगा' भंग९ 'भिंगप्पभाचेव' भृगप्रभा१० 'अंजणा' अंजना ११ 'कजलप्पभा' कजलप्रभा १२ 'सिरिकंता' श्रीकान्ता १३ 'सिरिमहिता' श्री महिता१४ 'सिरिचंदा' श्रीचन्द्रा १५ 'चेव सिरिनिलया' श्री निलया१६॥२॥ पद्मादि का कथन पहले किया गया है अतः यहां पर दुवारा कथन पुनरुक्ति दोष की सम्भावना करते हैं परन्तु वह पुनरुक्ति पद्मबद्धत्व से निरस्त हो जाती है। ये सभी पुष्करिणियां तीन सोपानपंक्ति एवं चार द्वारों से सुशोभित एवं पद्मवरवेदिका एवं वनषण्ड से मंडित हैं। उसमें अग्निकोणमें उत्पल गुल्म, पूर्वमें नलिन, दक्षिण में उत्पलोज्ज्वला, पश्चिम में उत्पला , उत्तर दिशा एवं नैऋत्य कोण में भृगा एवं भृगप्रभा अंजना कज्जल प्रभा, वायव्य कोण में श्रीकान्ता, श्री महिता, श्रीचन्द्रा श्रीनिलया ये दिशाके विपर्यास से जान लेवें। नलिना , 'उप्पला' ५९॥ ७, 'उप्पलुज्जला' Guatorqat ८, ॥ १ ॥ 'भिंगा' भृग, 'भिंगप्पभा चेव' मा १०, 'अंजणा' न। ११, 'कज्जलप्पभा' ४veमा १२, "सिरिकंता' श्री ना १3, ‘सिरिमहिता' श्री माता १४, ‘सिरिचंदा' श्री यंदा १५, चेव सिरिनिलया' श्री निसय १६. ॥ २ ॥ પડ્યાદિનું કથન પહેલા કરવામાં આવી ગયેલ છે. તેથી અહીયાં ફરીથી કથન પુન ઉક્તિ દેશની સંભાવના કરે છે. પરંતુ એ પુનરૂક્તિ પદ્મબદ્ધત્વથી દૂર થઈ જાય છે. એ તમામ વાવો ત્રણ સોપાનપંક્તિ અને ચાર દરવાજાઓથી સુશોભિત અને પાવર વેદિક અને વનવંડથી યુક્ત છે. તેમાં અગ્નિકોણમાં ઉત્પલ ગુલ્મ, પૂર્વમાં નલિન, દક્ષિણમાં ઉત્પલેજવલા, પશ્ચિમમાં ઉત્પલા, ઉત્તર દિશા તથા નિત્ય કેણમાં ભંગ અને ભૃગપ્રભ', અંજના, કાજલપ્રભા, વાયવ્ય કેણમાં, શ્રી કાન્તા, શ્રી મહિતા શ્રી ચંદ્રા, શ્રી નિલયા એ બધા દિશાના ફેરફારથી સમજી લેવા. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थ वक्षस्कार: सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २७९ अथास्य वनस्य मध्यवर्तीनि कूटानि स्वरूपतो दर्शयति- 'जंबूर णं' इत्यादि - 'जंबूए नं' जम्ब्वा: - जम्बूसुदर्शनायाः अस्मिन्नेव प्रथमे वनपण्डे 'पुरथिमिल्लस्स' पौरस्त्यस्य - पूर्वदिभवस्य 'भवणस्स' भवनस्य गृहस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तरपुरथिमिल्लस्स' उत्तरपौरस्त्यस्य - ईशानकोणगतस्य 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादादतंसकस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिणस्यां दिशि 'एत्थ णं' अत्र - अत्रान्तरे खलु ' कूडे' कूटं - शिखरं 'पण ते ' प्रज्ञप्तम्, तच्च मानतः 'अहजोयणाई' उद्धं उच्चतेणं' अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'दो जोयणा उब्वेणं' द्वे योजने उद्वेधेन - भूप्रवेशेन, वृत्तत्वेन य एवाऽऽवामः स एव विष्कम्भ इति, तच्त्र पुनः 'मूले' मूले मूलावच्छेदेन 'अहनोयणाई आयामविक्खंभेणं' अष्टयोजनानि आयाम - विष्टम्भेन- दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम् 'बहुमज्झ देस भाए' 'बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्तमध्यदेशभागावच्छेदेन भूमितश्चतुर्षु योजनेषु गतेषु 'छ जोयणाई' षडूयोजनानि 'आयामवित्रखंभेणं' आयानविष्कम्भेण- दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम्, 'उवरिं' उपरि - शिखर भागे ' चत्तारि जोयणाई' आयाम विक्खंभेण चत्वारि योजनानि आयामविष्कम्भेण - आयाम - विष्कम्भाभ्याम्, - अब वन के मध्यवर्ति कूट का स्वरूप कहते हैं- 'जंबूएणं' जम्बू सुदर्शना के इसी प्रथम वनषण्ड में 'पुरथिमिल्लस्स भवणस्स' पूर्वदिशा में रहे हुए गृह का 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'उत्तर पुरथिमिलस्स' ईशान दिशा में रहे हुए 'पासाय व डेंसगस्स' उत्तम प्रासाद-महल के 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में 'एत्थणं' यहां पर 'कूडे' शिखर 'पण्णत्ते कहा है उसका मान इस प्रकार से है'अट्ठजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' आठ योजन का ऊंचा है 'दो जोयणाई उव्वेहेणं' दो योजन का उद्वेध-भूमि के अंदर कहा है । वृत्त-वर्तुल होने से जितना उसका आयाम - लंबाई कहा है उतना ही उसका विष्कंभ चोडाई कहा है । वह आयाम विष्कंभ 'मूले' मूल भाग में 'अट्ठजोयणाई आयामविवखंभेणं' आठ योजन का आयामविष्कंभ है 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भागमें भूमि से चार योजन गत होने पर 'छ' जोयणाई आयामविक्खंभेर्ण' छ योजन आयाम विष्कंभ हवे वननी मध्यभां आस छूट पान ४रे छे.- 'जंबूएणं' सुदर्शनाना भा वनषउभां 'पुरत्थिमिल्लस्स भवणस्स' पूर्व दिशामां आवेस भवनांनी 'उत्तरेण" उत्तर दिशामां 'उत्तरपुरत्थिमिल्लस्स' ईशान दिशाभां आवेला 'पासायवडेंसगस्स' उत्तम आसाह-भडेसना 'दक्खिणेणं' क्षिणु हिशामा 'एत्थनं' या स्थणे 'कूडा' शिमरे। 'पण्णत्ता' डेला छे. तेनु भाष या प्रमाणे छे.- 'अट्ठ जोयणोई उद्धं उच्चतेणं' आयोजन भेटता या छे. 'दो जोयणाई उब्वेहेणं' मे योन नेटसेो द्वेष-भीनी अंदर प्रवेशेला छे. वृत्त-तु હાવાથી જેટલા તેના આયામ છે. એટલેજ તેના વિષ્ઠભ–પહેાળાઇ કહેલ છે. તે આયામ विष्jल 'मूले' भूस लागमां 'अट्ठ जोयणाई अयामविखंभेण' योजन भेटलो आयाम विष्णुं छे. 'बहुमज्झदेसभाए' र मध्य भागमां भीनथी यार योन उचाई पर 'छ जोयणाई आयाम विक्ख भेणं' छान्न भेटलो आयाम विष्टुं छे. '' Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे ____ अथैषां परिधि वक्तुं पद्ममाह-पृषां प्रासादावतंसकानां 'मूले' मूले-मूलाबनछे न 'पणवीसं' पञ्चविंशति योजनानि सविशेषाणि किश्चिदधिकानि परिरय:--परिधिः वर्तुलत्यम्, चपुनः 'मज्झि' मध्ये मध्यदेशावच्छेदेन 'हारस' अशदश योजनानि 'सविसेसाई विशेपाणि 'परिरओ' परिरयः-परिधिः, च-पुन: 'उरि उपरि-निखर भागे 'बारसेव' द्वादशयोजनानि सविशेषाणि परिरयो 'कूडस्स इमस्त वाद्धयो' अरर-कूटस्य बोद्धव्यः इति रीत्या यथासंख्यं योजनीयम् । एवं सति तत्कूटं 'मूले वित्थिपणे' मूले-विस्तीर्ण-विस्तारयुक्तम् 'मज्झे संखित्ते' मध्ये संक्षिप्तम् इस्वतां गतम्, “उरि' उपरि-शिखरमागे हणुए' तनुकम्प्रतनु-मूलमध्यापेक्षया, तथा-तत्कूटं 'सम कणनामए' सर्वरत्नमयम्-सात्मना-वैडूर्यादिरत्नमयम्, 'अच्छे अच्छम्-आकाशस्फटिकनिर्मलम्, उपलक्षणमेतत् श्लक्ष्णादीनाम् तेन श्लक्षणम् इत्याद्यपि वक्तव्यम् तेषां व्याख्या प्राग्वत्, 'वेइया-वणसंडवण्णओं' वेदिका वनहोता है 'उवरि' शिखर के भाग में 'चत्तारि जोयणाई आयामविक्वंभेणं' चार योजन का आयामविष्कंभ कहा है। अब उसकी परिधी का मान कहते हैं-इन प्रासादावतंसक के 'मूले' मूल भाग में 'पणवीसं' पचीस योजन से कुछ अधिक परिधि-वर्तुलत्व कहा है। 'मज्झि' मध्य भाग में 'टारस' अठारह योजन से 'सविसेसाई' कुछ अधिक 'परिरओ' परिधि 'कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो' इस कूट का प्रमाण जान लेना चाहिए । इस प्रकार से वह कूट 'मूले वित्थिपणे' मूल भागमे विस्तृत 'मज्झे संखित्ते' मध्यने संकुचित 'उवरि' शिखर के भाग में 'तणुए' मूल भाग एवं मध्य भाग की अपेक्षा से पतला कहा है । तथा वह कूट 'सन्धकणगामए' सर्वास्मना रत्नमय 'अच्छे' आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल यह अच्छ पद लक्षण इत्यादि का उपलक्षण है तिः श्लक्ष्णादि समग्र विशेषणविशिष्ट कहलेना। इन पदों की व्याख्या पूर्ववत् समझलेवें वेइया वणसंडवण्णओ' यहां पर वेदिका एवं वनषंड का वर्णन संपूर्ण कह लेवें। मासमा 'चत्तारि जोयणाई आयामविक्ख भेणं' यार यो मायाम वि स छ. व तनी परिधीनु भा५ मतावे छे.- मासाहात सीना 'मूले' भूलनामा 'पणवीसं' ५व्यास योनथी , वधारे ५२धि-पतु सता ४९स छ. 'मज्झि' मध्यभागमा 'टारस' सदार यानी 'सविसेसाई' ४४ पधारे 'परिरओ' परिधी ४ छ. उवरि ५२ना मागमा 'बारसेव' मा२ या नथी 8 वधारे 'परिरओ' ५२घि 'कूडस्स इमस्स बोद्धब्बो' आछूटनु प्रभार समान स. सीते से छूट ‘मले वित्थिण्णे' भूसमागमा विस्तारवाणे 'मज्झे संक्खित्ते' मध्यमा सथित 'उवरि' शिमरना मामा 'तणुए' भूभाग मन मध्यभागी अपेक्षाथी पाती छे. तथा ये टूट 'सव्वकणगामए' सर्वात्मना २त्नभय, બ૪ આકાશ અને સ્ફટિકની જેવા નિર્મળ આ અચ્છ પદ ક્ષણાદિનું ઉપલક્ષણ છે. તેથી શ્લષ્ણ વિગેરે તમામ વિશેષણેથી વિશેષિત કહિયે. આ પદની વ્યાખ્યા પહેલાની જેમ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २८१ षण्डरकोऽत्र - बोध्यः, अथ शेषकूटवक्तव्यतामतिदिशति - ' एवं सेसावि कूडा इति' एवं शेषायपि कूटानि - एवम् - प्रथमकूटवत् शेषाणि - प्रथमकूटातिरिक्तानि द्वितीयादीन्यपि सप्तकुटानि बोध्यानि इति । तानि शेषकूटानि वर्णप्रमाणपरिध्याद्यपेक्षयोक्तरीत्या बोध्यानि तेषां स्थानविभागस्त्वेवम्-तथाहि - पूर्वदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणतः आग्नेयविदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरतो द्वितीयं कूटम् तथा - दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वस्यां वह्निकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य पश्चिमायां दिशि तृतीयं कूटं, तथा नैर्ऋत्यकोणभाविनः प्रासादावतंस - कस्य पूर्वस्यां दिशि चतुर्थं कूटम् तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणस्यां दिशि नैर्ऋत्यकोण भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरस्यां दिशि पञ्चमं कूटम् तथा पश्चिमदिग्भाविनो भवनस्योत्तरस्यां वायव्यकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणस्यां षष्ठं कूटम् तथोत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां दिशि वायव्यकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वस्यां दिशि सप्तमं कूटं, तथोत्तरदिग्भाविनो भवनस्य पूर्वस्यां दिशि ईशानकोणभाविनः प्रासादावतंसकस्य अब शेष कूटों का वक्तव्य कहते हैं- 'एवं सेसावि कूडा' इसी प्रकार बाकी के सात कूट के विषय में भी समझलेवें । वे सबकूट वर्णा, प्रमाण, परिधि आदि की अपेक्षा से पूर्वोक्त प्रकार से समझलेवें उनके स्थानादि भाग इस प्रकार से हैं-पूर्व दिशा के भवन कि दक्षिणदिशा में आग्नेय विदिशा के भवन की उत्तर दिशा में दूसरा कूट कहा है । तथा दक्षिण दिशा के भवन के पूर्व में अग्नि कोण भावि भवन की पश्चिम दिशा में तीसरा कूट आता है। तथा नैऋत्यकोण भावि भवन की पूर्व दिशा में चौथा कूट कहा है । तथा पश्चिम दिग्भावि भवन की दक्षिण दिशा में, नैऋत्यविदिग्भावि भवन की उत्तर दिशा में पांचवां कूट कहा है । तथा पश्चिम दिशा के भवन से उत्तर दिशा में, वायव्यकोण भावि भवन के दक्षिण दिशा में छट्टाकूट कहा है । तथा उत्तर दिशा के भवन की पूर्व दिशा में ईशान सम सेवी. 'वेइया वणसंडवण्णओ' अडींयां वेहि भने वनषउनु वर्षानस पूर्णा री सेवु. हवे माडीना टोन उथन ४रे छे. - ' एवं सेवावि कूडा' ४ प्रमाणे माडीना सात ફૂના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. તે બધા ફૂટ વ, પ્રમાણ, પરિધિ વિગેરેની અપેક્ષાથી પૂર્વોક્ત પ્રકારથી સમજી લેવા. તેમના સ્થાનાદિ વિભાગ આ પ્રમાણે છે. પૂર્વ દિશાના ભવનની દક્ષિણ દિશામાં, આગ્નેય વિદિશાના ભવનની ઉત્તર દિશામાં બીજો ફૂટ કહેલ છે. તથા દક્ષિણ દિશાના ભવનની પૂર્વમાં, અગ્નિ કાણુમાં આવેલ ભવનની પશ્ચિમ દિશામાં ત્રીજો ફૂટ આવેલ છે. તથા નૈઋત્ય ણુમાં આવેલ ભવનની પૂર્વ દિશામાં ચેાથેા ફૂટ કહેલ છે. તથા પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ ભવનની દક્ષિણ દિશામાં નૈઋત્યવિકિ. શામાં આવેલ ભવનની ઉત્તર દિશામાં પાંચમે ફૂટ આવેલ છે. તથા પશ્ચિમ દિશાના ભવનથી ઉત્તર દિશામાં વાયન્ય કાણુમાં આવેલ ભવનની દક્ષિણ દિશામાં છઠ્ઠો ફૂટ કહેલ છે. તથા ઉત્તર દિશામાં આવેલ ભવનથી પશ્ચિમ દિશામાં વાયવ્યુ કાણુમાં આવેલ ભવનની ज० ३६ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૨ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पश्चिमदिश्यष्टमं कूटमित्यष्टौ कटानि सन्ति तत्तत्स्थानस्थितानि । अत्रैषां स्थापना यथा यन्त्रे तथा द्रष्टव्या। कूटाष्टकस्थापना-यन्त्रम्--- अ० प्रा०० भ. कू० प्रा०० ०० भ० ०० ० ० उत्तर . दक्षिण ० ०० ० ०० वा० प्रा०० ००16 __ h _ अथ जम्ब्बाः सुदर्शनाया द्वादशनामान्याह-'जंबूए णं' इत्यादि-'जंबूए णं' जम्ब्वाः खलु 'सुदंसणाए-दुवालसणामधेज्जा' सुदर्शनायाः द्वादशनामधेयानि-नामानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा-'सुदंसणा सुदर्शना १, 'अमोहा य' अमोवा २ च 'मुप्पबुद्धा' मुप्रबुद्धा ३ 'जसोहरा' यशोधरा ४ । 'विदेहबू' विदेहजम्बूः ५ 'सोमणसा' सौमनस्या ६ कोण भावि भवन की पश्चिमदिशा में आठवां कूटकहा है ? इस प्रकार से आठ कूट कहे हैं। वे सभी ततू तत् स्थान में स्थित है। इनकी स्थापना संस्कृत टीका में यंत्र रूप में दिखलाइ है सो वहां देखकर समझलेवे । अब जम्बू सुदर्शना के बारह नाम कहते हैं-'जंबूएणं सुदंसणाए' जंबू सुदर्शना के 'दुवालस नामधेज्जा पण्णत्ता' बारह नाम कहे हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'सुदंसणा' सुदर्शना१, 'अमोहाय' अमोघा२, 'सुप्पबुद्धा' सुप्रबुद्धा३, 'जसोहरा' यशोधरा४, “विदेह जंबू' विदेह जंबू५, 'सोमणसा सौमनस्या ६, ‘णियया' नियता७, 'णिच्चमंडिया' नित्यमंडिता८, ॥१॥ 'सुभदाय' પૂર્વ દિશામાં સાત ફૂટ આવેલ છે. તથા ઉત્તર દિશામાં આવેલ ભવનની પૂર્વ દિશામાં ઈશાન કોણમાં આવેલ ભવનની પશ્ચિમ દિશામાં આઠમો કૂટ કહેલ છે. આ રીતે આઠ ફૂટે કહેલા છે તે બધા તે તે સ્થાન પર આવેલ છે. તેની સ્થાપના સંસ્કૃત ટીકમાં યંત્ર રૂપે બતાવેલ છે. તે ત્યાંથી જોઈને સમજી લેવી. यू सुश नाना मार नामा ४डेवामां मावे छे.-'जंबूएणं सुदसणाए' भूसुश. नाना “दुवालस नामधेजा पण्णत्ता' मार नाभा । छे. तं जहां २ मा प्रभा छे. 'सुदसणा' सुश ना १ 'अमोहाय' सभा २ 'सुप्पबुद्धा' सुप्रभुद्ध 3 जसोहरा' यशोधरा ४ 'विदेहजंबू' वि यू ५ 'सोमणता' सौमनस्या है 'णियया' नियता ७ 'णिच्चमंडिया' Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सृ. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् 'णियया' नियता ७ 'णिच्चमंडिया' नित्यमण्डिता ८।१। 'सुभदा च' सुभद्रा ९ च 'क्सिाला य' विशाला १० च 'सुजाया' सुजाता ११ 'सुमणा' सुमनाः १२ अपि च । 'सुदंसणाए जंबूए णामधेजा दुवालस' सुदर्शनाया जम्ब्वा नामधेयानि द्वादश ।२। तत्र-सुदर्शना-सु-मुष्ठु-शोभनं दर्शनं-नेत्रमनआइलादकं वीक्षणं यस्याः सा तथा १, अमोघा-मोघाविफला न मोघा अमोघा-नत्र विरोधार्थक इति विफला विरोधिनी सफलेत्यर्थः इयममोघा हि स्व स्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्यं जनयति, तद् विना तद्देश स्वामित्वस्यैवायोगात् २, सुप्रबुद्धा-सु-अतिशयेन प्रबुद्धा-उत्फुल्ला-उत्फुल्ल फुल्ल -योगादि. यमप्युत्फुल्ला ३, यशोधरा-धरतीति धरा पचादित्वादच यशसः-सर्वजगद्व्यापिनो यशसो धरा यशोधरा, अनया जम्ब्या हि जम्बूद्वीपस्त्रिभुवने ख्यातप्रभाव इत्यन्वर्थ नामधेयमस्याः ४ । विदेहजम्बूः-विदेहेषु-स्वनामख्यातक्षेत्रविशेषेषु जम्बू विदेह जम्बूः-विदेहान्तर्वत्युत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् ५। सौमनस्या-सौमनस्यं सुमनसो भावः, तदस्त्यस्याः जन्यत्वेति सुभद्रा ९, 'विसालाय' विशाला १०, 'सुजाया' सुजाता ११, 'सुमणा' सुमना १२, दूसरा प्रकार इस प्रकार कहा है 'सूदसणाए जंबूए नामधेजा दुवालस' सुदर्शना जंबू के बारह नाम कहे हैं । सुदर्शना अर्थात् नेत्र एवं मनको प्रीतिकारक होता है दर्शन जिसका वह सुदर्शना कहलाता है १, 'अमोघा' निष्फल न होने वाला अर्थात् सफला, यह अमोघा ही स्वस्वामिभाव से प्राप्त होती हुई जंबूद्वीप का आधिपत्य को करता है, कारण उसके विना उस देशके स्वामि त्वका ही अभाव रहता है२, सुप्रबुद्धा अतिशय प्रबुद्ध खिले हुए३, यशोधरा सर्व जगद्व्यापीयश को धारण करने वाला इससे जंबू से जंबूद्वीप तीनों भवनों में विख्यात प्रभाव वाला है इससे यह नाम यथा योग्य है ४, बिदेह जंबू-विदेशे में-स्वनामसे, प्रसिद्ध क्षेत्रों में जो जंबू है वह विदेह जंबू कहलाता है, विदेहान्त प्रति उत्तरकुरु में निवास करने से भी विदेह जंबू कहते हैं ५, सौमनस्या' सुमनित्यम डिता ८ ॥ १ ॥ सुभदाय' सुभद्रा ८ 'विसालाय' विशाखा १० 'सुजाया' सुलता ११, 'सुमणा' सुमना १२, भीन्न २ २१प्रमाणे ४ छे-'सुदंसणाए जंबूए नामधेज्जा दुवालस' सुशाना જબૂના બાર નામ કહેલા છે. સુદર્શન અર્થાત્ આંખ અને મનને પ્રતિકારક હોય છે, ४शन नुते सुश ना ४उपाय छे. १, 'अमोघा' नि न थापा अर्थात् ससा, આ અમેઘા જ સ્વસ્વામિભાવથી પ્રાપ્ત થનારા જબુદ્ધીનું અધિપતિ પણું કરે છે. કારણ तेन विना से देशना स्वाभियान। मा २९ छे. २, ‘सुप्रबुद्धा' मत्त प्रमुख ખીલેલા ૩, શેધરા સર્વ જગત વ્યાપી યશને ધારણ કરવાવાળો આનાથી જબૂથી જબદ્વીપ ત્રણે ભવનમાં વિખ્યાત પ્રભાવવાળે છે. તેથી આ નામ યેાગ્ય જ છે. ૪, વિદે જંબૂ-વિદેહમાં સ્વનામથી પ્રસિદ્ધ ક્ષેત્રમાં જે જંબૂ છે તે વિદેહ જંબૂ કહેવાય છે. વિદેહાનર્વતિ ઉત્તરકુરૂમાં નિવાસ કરવાથી પણ વિદેડ જંબૂ કહેવાય છે. ૫, સૌમનસ્ય સુમનસને Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૪ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे आयाम-1 सौमनस्या - सौमनस्योत्पादिका द्रष्टृ जनमनःप्रसादिनी ६ । नियता - सदाऽवस्थिता शाचतत्वात् ७, नित्यमण्डिता - नित्यं सततं मण्डिता - भूषिता तथा सदा भूषणसमलङ्कृतत्वात् ८|१| सुभद्रा-सु-सुष्ठु अव्याहत भद्रं कल्याणं यस्याः सा सुभद्रा-सुन्दरकल्पाणवती निरुपद्रवा महर्द्धिकदेवाधिष्ठितत्वात् ९ । च शब्दः समुच्चयार्यकः । विशाळा - विस्तारयुक्ता १० - विष्कम्माभ्यामुच्चत्वेन चाष्टयोजनप्रमाणत्वात्, चः प्राग्वत्, सुजाता - सु-शोभनं - जातं-जननं यस्या सा तथा, स्वच्छमणिकनकरत्नमूलद्रव्यजनितत्वेन जन्मदोषरहितेति भावः ११ । सुमनाः सु - शोभनं मनो यतः सा तथा १२, अपिचेति समुच्चयार्थे अव्यये । अत्र जीवाभिगमादिषु नामव्यत्यासेन पाठस्य दृष्टत्वेऽपि न कश्चिद्विरोधः, क्रमत्यागेऽपि द्वादशसंख्यापूर्तिसम्भवात् । जम्ब्ब्यां - जम्बू सुदर्शनायां खलु अष्टाष्ट मङ्गलकानि - स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्दिकावर्त ३ वर्धमानक ४ भद्रासन ५ कलश ६ मत्स्य ७ दर्पण इत्यष्टौ मङ्गलानि एव मङ्गलकानि-कल्याणकराणि - - अत्र मङ्गलजनकेषु मङ्गलत्वमौपचारिकम् उपलक्षणमिदं तन ध्वजच्छत्रादीन्यपि वर्णनीयानीह बोध्यानि, नस को उत्पन्न करने वाला अर्थात् देखने वाले के मनको आनंद देने वाला ६, नियता-सदा अवस्थितरहने से अर्थात् शाश्वत होने से ७, नित्यमंडिता - सतत भूषण से अलंकृत रहने से ८ ॥ १॥ सुभद्रा - सुंदर कल्याण करनेवाली - निरूपद्रव होने से महर्द्धिकदेव के अधिष्ठानभूत होने से ९ । विशाला - विस्तारयुक्त होने से १०, अर्थात् आयाम, विष्कंभ एवं उच्चत्व से आठ योजन प्रमाण होने से । सुजाता - स्वच्छमणि कनकरत्न मूल द्रव्य को उत्पन्न करने वाला होने से अर्थात् जन्म दोषरहित होने से ११, सुमना - शोभन मन होने से १२, यहां जीवाभिगमादि में नामका व्यत्यास - फिरफार वाला पाठ होने पर भी कोई विरोध नहीं है । क्रम का फिरफार होने पर भी बारह की संख्या पूर्ण होती है । जंबू सुदर्शना में आठ आठ मंगलक कहे हैं जो इस प्रकार से हैं - स्वस्तिक, श्रीवत्सर, नंदिकावर्त ३, वर्धमानक ४, भद्रासन ५, कलश ६, मत्स्य ७, दर्पण ઉત્પન્ન કરવાવાળા અર્થાત્ જોનારાના મનને આનંદ આપનાર ૬, નિયતા, સદા અવસ્થિત રહેવાથી અર્થાત્ શાશ્વત હોવાર્થી ૭, નિત્યમંડિતા—સતત આણેાથી અલ'કૃત રહેવાથી ૮, ૫ ૧ ૫ સુભદ્રા-સુંદર કલ્યાણ કરવાવાળી નિરૂપદ્રવ હાવાથી મહદ્ધિક દેવના અધિષ્ઠાન ભૂત ૯, વિશાલા—વિસ્તાર યુક્ત હોવાથી આયામ વિષ્ણુભ અને ઉચ્ચત્વથી આઠ યાજન પ્રમાણુ હેવાથી. ૧૦, સુજાત-સ્વચ્છ મણિકનક રત્ન મૂલ દ્રવ્યને ઉત્પન્ન કરનારા હેાવાથી અર્થાત્ જન્મ દોષ રહિત હાવાથી ૧૧, સુમના-શોભનમન હોવાથી ૧૨, અહીં જીવાભિ ગમાદિમાં નામના ફેરફાર વાળા પાઠ હાવા છતાં પણ ખારની સંખ્યા પૂરી થાય છે. સ્વસ્તિક ૧, हर्षायु ८, જસુદન માં આઠ આઠ મંગલક કહેલા છે. જે આ પ્રમાણે છે. श्रीवत्स २, नहीावर्त 3, वर्धमान ४; लट्रासन यु, पुस ६, मत्स्य ७, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २३ सुदर्शनाजन्बूयर्णनम् २८५ अधुना सुदर्शनाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं प्रष्ठुकाम इदमाह-'जंबूए णं' इत्यादि-जंबूर णं' अट मंगलगा पण्णत्ता' जम्ब्बाः खलु अष्टाष्ट मंगलकानि 'से' अथ-सुदर्शनास्वरूपवर्णनानन्तरम् 'भंते !' हे भदन्त ! इयं जिज्ञासोदेति यत् 'केणटेणं' केन अर्थेन-कारणेन ‘एवं' एवम्इत्थम् 'वुच्चई उच्यते-कथ्यते-'जंबू सुदंसणा २?' जम्बूः सुदर्शना २ इति ?, भगवांस्तदुत्तरमाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबूए णं सुदंसणाए अणाढिए' जम्ब्यां खलु सुदर्शनायाम् अनादृतः-नादृताः-न सम्मानिताः स्वातिरिक्ता जम्बूद्वीपनिवासिनो देवा येन सोऽनादृतःउपेक्षितान्यमहर्दिकः अनादृतेत्यन्वर्थनामको ‘णाम' नाम-प्रसिद्धो 'जंबूदीवाहिवई' जम्बू. द्वीपाधिपतिः 'परिवसई परिवसति, स कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह-'महिद्धीए' महद्धिकः-महती भवनपरिवारादि समृद्धिर्यस्य स तथा, इदमुपलक्षणं तेन "महाद्युतिकः, ८। ये आठ मंगलक ही कल्याण करने वाले कहे हैं। यहां मंगल जनकों में मंगलत्व यह औपचारिक है यह उपलक्षण है अतः यहां ध्वज छत्रादिका भी वर्णन करलेना चाहिए। ___ अब सुदर्शना शब्द की प्रवृत्ति के निमित्त को लेकर पूछने की इच्छा से इस प्रकार कहते हैं-'जंबू सुदर्शना में आठ आठ मंगल द्रव्य कहे हैं "से' सुद र्शना के स्वरूप वर्णन के पीछे 'भंते !' हे भगवन् इस प्रकार की जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि-केणटेणं एवं धुच्चइ' किस कारण से इस प्रकार कहा जाता है कि 'जंबू सुदंसणा जंबू सुदंसणा' यह जंबूसुदर्शना इस प्रकार से कहा जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर निमित्त महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जंबूएणं सुदंसणाए' जंबूसुदर्शना में 'अणाढिए णाम' अनाहत नामधारी देव 'जंबू दीवाहिवई' 'जंबूझोप का अधिपति 'परिवसई' निवास करता है। वह कैसा है इस प्रकार की जिज्ञासा निवृत्यर्थ कहते हैं-'महिड्डीए' भवनपरिवारा. આ આઠ મંગલક જ કલ્યાણ કરનારા કહ્યા છે. અહીં મંગલ જનકમાં મંગલત્વ એ ઔપચારિક છે. એ ઉપલક્ષણ છે. તેથી અહીં ધવજ અને છત્રાદિનું વર્ણન પણ કરી લેવું. હવે સુદર્શન શબ્દની પ્રવૃત્તિના નિમિત્તને લઈ ને પૂછવાની ઈચ્છાથી આ પ્રમાણે ४ छ.-'जंबूएणं अह मंगलगा पण्णत्ता' भूसुदशनामा 2416 2415 मार द्र०य त छ. 'से' सुशिनाना २१३५ पननी पछी 'भंते !' भगवन् मावी रीतनी ज्ञासा पन्न थाय -केगनेणं एवं वुच्चइ' श॥ रथी मारीत ४ामा आव छ -जंबूसदसणा जंबूसुदंसणा' २ सुशन से प्रमाणे ४पाय छे ? २॥ प्रश्नन। उत्तरमा श्रीमहावीर प्रम -'गोयमा! गीतम ! जंबूएणं सुसणाए' ४ भूसुहश नाभा 'अणाढिए णाम' मनात नामाव, 'जंबू दीवाहिवई' दीप नाभन दीपना मधिपात 'परिवसइ' निवास ४२ छे. ते या छ ? मे शतनी शानी निवृत्ति माटे ४३ छ-'महिड्डीए' भवन परिवारा સમૃદ્ધિથી યુક્ત હોવાથી મહદ્ધિક છે. મહદ્ધિક પદ ઉપલક્ષણ છે, તેથી મહાદ્યુતિવાળા, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र महाबलः, महायशाः, महासौख्या, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः” इत्येषां ग्रहणम्, व्याख्याचाष्टमसूत्राद्बोध्या । ‘से णं तत्थ स खलु अनादृताभिधो देवः, तत्र-जम्बू सुदर्शनायाम् विहरति, किं कुर्वन् ? इत्यपेक्षायामाह-'चउण्हं' चतमृणाम् इत्यादि-'चउण्हं' सामाणिय साहस्सीणं' चतसृणां सामानिक-साहस्रीणां रतुः सहस्त्र संख्यक सामानिक देवानाम् 'जाव' यावत्-यावत्पदेन 'चतसृणामग्रमहिषीणाम्, सपरिवाराणां तिमृणां परिषदां सप्तानामनीकानाम् सप्तानामनीकाधिपतीनाम्, षोडशानाम्' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः,एषां व्याख्या - ष्टमसूत्राबोध्या । 'आयरक्ख देवसाहस्सोणं' आत्मरक्षदेवसाहस्रीणाम्-पोडशसंख्यानामात्मरक्षकसहस्राणाम् तथा 'जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खलु द्वीपस्य तथा-'जंबूर सुदंसणाए' जम्ब्धाः सुदर्शनायाः तथा 'अणाढियाए' अनादृतायाः-अनादृताभिधानायाः 'रायहाणीए अण्णेसिं च' राजधान्याः अन्येषाम्-चतुसहस्रसामानिकदेवायतिरिक्तानां च 'बहूणं देवाण य देवीण य' बहूनां देवानां च देवीनां च 'जाव' यावत्-यावत्पदेन-आधिपत्यं दिसमृद्धि से युक्त होने से महद्धिक है-महर्द्धिक पद उपलक्षण हैं अतः महाधुति वाला महाबल शाली, महान् यशवाला, महा सुखवाला, महानुभाव एक पल्योपम की स्थितिवाला है इन पदों का अर्थ आठवे सूत्र में कहे अनुसार समझलेवें से णं तत्थ' वह अनादृतदेव जंबू सुदर्शना में निवास करते हैं-वहाँ निवास करता हुआ वह क्या करते हैं इस जिज्ञासा शमनार्थ कहते हैं-'चउण्हं सामाणिय साहस्सीणं' चार हजार सामानिक देवों का 'जाव' यावत्पद से परिवार सहित चार हजार अग्रमहिषीयों का तीन परिषदाओं का सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियोंका यहां षोडश पद का संग्रह समझलेवें अतः 'आय. रक्खदेवसाहस्सीणं' सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा 'जंबूद्दीवस्स णं दीवस्स' जंबूद्वीप नामक द्वीपका तथा जंबूए सुदंसणाए' जंबू सुदर्शनाका तथा 'अणाढियाए' आनादृता नामकी 'रायहाणोए' राजधानी का इससे भिन्न 'बहू णं देवाण य देवीण य' अनेक देव देवियों का 'जाव' यावतू अधिपतित्व, परમહાબલશાલી, મહાન યશવાળા, મહાસુખવાળા, મહાનુભાવ, એક પોપમની સ્થિતિવાળા छ, मा तमाम पहाना सथ भाभा सूत्रमा ४ह्या प्रमाणे सभ७ सेवा. 'से गं तत्थ भी અનાદત દેવ જંબુસુદર્શાનામાં નિવાસ કરે છે. ત્યાં નિવાસ કરતાં કરતા તે શું કરે છે ? यज्ञासाना शमन भाटे सूत्रा२ ४३ छ–'चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं' यार २ सामाCAN Bानु 'जाव' यावत् ५४थी स५/२वार यार ७०४२ २५महिषयानु, ऋण परिषहाઓનું, સાત સેનાઓનું સાત સેનાધિપતિનું, અહિંયાં ડિશ પદને સંગ્રહ સમજી . तेथी 'आयरक्खदेवसाहस्सीणं' से M२ २मात्मरक्षा हेवानु, तथा 'जंबूदीवस्स गं दीवस्स' दी५ नामना दीपनु, तथा 'जंबूए सुदंसणाए' ४५ सुदृशनानु, तथा 'अणाढियाए' मनात नमनी 'रायहाणीए' २:४धानानु शिवाय 'बहूणं देवाण य देवीण य' Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वं महत्तरकत्वम् आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन् पालयन् महताऽहतनाटय गीतवादित्रतन्त्रीतलतालत्रुटितधनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानः' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोथ्यः, एषां विवरणमष्टमसूत्राद् बोध्यम्, 'विहरइ' विहरति-विद्यते । 'से तेणटेणं गोयमा !' सा-जम्बूः सुदर्शना तेन - अनन्तरोकतेन अर्थेन-कारणेन हे गौतम ! 'एवं' एवम्-इत्थम् 'वुच्चइ' उच्यते-कथ्यते-जम्बूसुदर्शना २ जम्बूश्वासौ सुदर्शना-सुसुष्ठु-शोभनमतिशयिनं वा दर्शनम् तन्निवासिदेवस्यानादृतदेवस्येव महर्दिकत्वस्य ज्ञानं यस्यां सा, यद्वा-सु-शोभनमतिशयितं वा दर्शनं विचारणमनन्तरोक्तस्वरूपं चिन्तनमनादृतदेवस्य यतः सा सुदर्शना, इति, अथ जम्बूसुदर्शनायाः शाश्वतत्वसंशयमपनुदन्नाइ-अदुत्तरं चेत्यादि, 'अदुत्तरं च णं' अदुत्तरम् देशीयोऽयं शब्दोऽयथार्थे, तेन अथ अनन्तरम् इत्यर्थः, च खलु पतित्व स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञेश्वर सेनापतित्व करता हुवा, पालता हुवा जोर जोर से वादित नाय्य, गीत, वादिन तंत्री, तल, ताल, त्रुटित घन मृदंग को चतुर पुरुषों द्वारा प्रवादित शब्द के साथ दिव्य भोगोपभोग को भोगता हुआ 'विहरई' निवास करता हैं यहां यावत् पद से जिन शब्दों का ग्रहण हुआ है इनका विशेष स्पष्टार्थ आठवें सूत्र में कहे हैं अतः जिज्ञासु वहां से समझलेवें । 'से तेणटेणं गोयमा !' है गौतम ! पूर्वोक्त कारणों को लेकर 'एवं' इस प्रकार से 'बुच्चई' कहा जाता है जंवू सुदर्शना जंवू सुदर्शना अथवा सुंदर है दर्शन जिसका ऐसा उसमें निवास करने वाले अनाहत देव का महर्द्धि कत्वादि ज्ञान जिसमें हो अथवा सुशोभाति शायि है दर्शन जिसका वह सुदर्शना कहलाती है। अब जंबुसुदर्शना के शाश्वतत्व संबंधी संशय को दूर करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'अदुत्तरंच ' अथ अनन्तर 'गोयमा ! हे गौतम ! 'जंबुसुदंसणा' मन है। वियान 'जाव' यावत् मधिपतित्व, पु२पतित्व, स्वामित्व, मतृत्व, महत्तरકત્વ, આશ્વર સેનાપતિત્વ, કરતા થકા જોરજોરથી વાગતા તંત્રી, તલ, તાલ, ત્રુટિત, ઘન મૃદંગને ચતુર પુરૂષો દ્વારા વગાડાતા શબ્દોની સાથે દિવ્ય એવા ભેગોગોને लागवता या 'विहरइ' वियरे छे. महीयां यावत्पथी २ श»हे। अहY ४२।या छ, तना વિશે સ્પષ્ટ અર્થ આઠમાં સૂત્રમાં કહેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુએ ત્યાંથી સમજી લેવા. से तेणटेणं गोयमा' गौतम ! पूर्वरित ४२णाने सधन ‘एवं वुच्चई' के प्रमाणे કહેવામાં આવે છે. જંબુસુદર્શના જબૂસુદર્શનાં. અત્યંત સુંદર છે દર્શન જેનું એવા તેમાં નિવાસ કરવાવાળા અનાદત દેવનું મહદ્ધિકતાદિ જ્ઞાન જેમાં હોય, અથવા ભાતિશાયિ છે દર્શન જેનું તે સુદર્શન કહેવાય છે. હવે જંબૂ સુદર્શનાના શાશ્વતત્વ સંબંધી સંશયને દૂર કરતા થકા સૂત્રકાર કહે છે 'अदुत्तरं च णं' अथ मनत२ 'गोयमा ! गौतम ! 'जंबूसुदंसणा' ४ सुशना 'जाव' यावत् Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'गोयमा !' गौतम ! 'जंबुसुदंसणा' जम्बुसुदर्शना - 'जाव' यावत् - यावत्पदेन - इति शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् यत् 'भुविं च ३' न कदाचित्नाssसीत् न कदाचिनास्ति, न कदाचिन्न भविष्यति 'धुवाणियया सासया अक्खया जाव' ध्रुवा नियता शावती अक्षया यावद-याव त्पदेन - अव्यया इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, 'अवडिया' अवस्थिता, इत्येवां व्याख्याऽष्टमसूत्राद्बोध्या । अथ प्रसङ्गादनादृतदेवस्य राज शनीं विपक्षुराह- 'कहि ' इत्यादि - 'कहि णं भंते !" कुत्र खलु भदन्त ! 'अणाढियस्स' अनादृतस्य - अनाहतनामकस्य 'देवा' देवस्य 'अणादिया' अनाहता 'णार्म' नाम प्रसिद्धा 'रावहाणी' राजधानी - राजनिवासस्थानविशेषः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता ?, इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह - 'गोवमा !" हे गौतम ! 'जम्बूदीवे' जम्बूद्वीपे - जम्बूद्वीपवर्तिनः 'मंदरस्स' मन्दरस्य - मन्दराभित्रस्य, 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि अत्र सप्तम्यन्तादेनप्प्रत्ययः, 'जं चेव' यदेव 'पुण्ववणियं' पूर्ववर्णितं - पूर्व प्राक् वर्णितम् - उक्तम्, 'जमिगा पमाणं' यमिका प्रमाणं - यमिकायाः - तन्नाग्न्या राजवान्याः जंबुसुदर्शना 'जाव' यावत् शाश्वत नाम कहा है । 'भुविंच ३' कोई समय वह नाम नहीं था ऐसा नहीं है । वर्तमान में नहीं है ऐसा नहीं है । भविष्य में वह नाम नहीं होगा ऐसा भी नहीं है । 'धुवा णियया सासया अक्खया जाव' ध्रुव, नियत शाश्वत, अक्षय यावत्पद से अव्यय पद का ग्रहण समझ लेवे अवडिया' अवस्थित है इन शब्दों की व्याख्या आठवें सूत्र से समझ लेवें । अब प्रसंगोपात अनादृत देव की राजधानी का वर्णन करने की इच्छा से कहते हैं- 'कहिणं भंते ! अणाढियस्स देवस्स' हे भगवन् अनाहत देवकी 'अणदिया णामं रायहाणी' अनाहता नामकी राजधानी 'पण्णत्ता' कही गई है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- गोयमा ! है गौतम ! 'जंबूद्दीवे' जंबूद्वीप में 'मंदree Darea' मंदर नामके पर्वत से 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा मे 'जमिगा पमाणं' यमिका नाम की राजधानी के समान प्रमाण वाली अर्थात् आयाम विष्कंभ, शाश्वत नाम उडेल छे. 'भुत्रिंच ३' अर्ध पशु समये से नाम न तु तेभ नथी वर्तमानमां नथी खेभ पशु नथी. अने लविष्यभां से नाम नही हुशे खेभ पशु नथी. 'धुवो, णियया, सासया, अक्खया, जाव' ध्रुव, नियत, शाश्वत, यावत्पथी अव्यय, पहनु ग्रहण सम सेवु. 'अवट्टिया' व्यवस्थित छे आ शहानी व्याख्या सभां सूत्रयी समल देवी. हुवे प्रसंगोपात अनाहत हेवनी राजधानी वर्षान उरवानी रिछार्थी हे छे-'कहि भंते! अणासि देवस्स' हे भगवन् अनाहत हेवनी 'अणाढिया णामं रायहाणी, अना हत नामनी राज्धानी श्यां 'पण्णत्ता' उस छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४ छे- 'गोयमा !' हे गौतम! 'जंबुद्दीवे' मूद्रीयभां 'मंदरस्स व्वयस्स' भंडर नामना पर्वतनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा 'जमिगापमाण, यभि નામની રાજધાની સરખા પ્રમાણવાળી અર્થાત્ આયામ,વિષ્કભ, પરિધિના સરખા પ્રમાણુ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् प्रमाणम्-आयामविष्कम्भपरिधिरूपमानं 'तं चेव' तदेव अत्रापि 'णेयवं' नेतव्यं-बुद्धिपथ प्रापणीयं-योध्यमिति यावत्, तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव' इत्यादि-यावत्-यावत्पदेन'अण्णमि-जंबुदीवे दीवे बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स अणालिया णामं रायहाणी पण्णत्ता. बारसजोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं, सत्ततीसं जोयणसहस्लाइणव य' इत्यारभ्य 'उववाओ अभिसेओ य' इति पर्यन्तः 'निरवसेसो' निरवशेषः सर्वः पाठोऽत्र बोध्यः, स च सव्याख्यो यमिका राजधानी वर्णनाधिकाराद् ग्राह्यः ॥१०२३॥ अथोत्तरकुरुनामार्थ पिपच्छिषुराह ___मूलम्-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ -उत्तरकुरा२१, गोयना ! उत्तरकुराए उत्तरकुरू णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जान पलिओवाहइए, से तेणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-उत्तरकुरा२, अदुत्तरं न गंति जाव सासए । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं उत्तरकुराए पुरस्थिमेणं वच्छस्स चकाटिविजयस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे मालवंते णानं वखारपव्वए पाणचे उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे जं चेव गंधमायपरिधि के प्रमाण वाली 'तं चेवणेयव्वं' यमिका राजधानी का सब वर्णन यहां भी कह लेना वह कहां तक कहे ? इस जिज्ञासा के लिए कहते हैं-'जाव' यावत् यहां यावत्पदसे 'अण्णंमि जंबूद्दीवे दीवे बारस जोयण सहस्साइं ओगहित्ता एत्थ ण अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णामं रायहाणी पण्णत्ता यारस जोयणसहस्साई आयामविखंभेणं सत्तत्तीसं जायणसहस्साई णवय' यहां से लेकर 'उववाओ अभिसेओ' इस कथन पर्यन्त 'निरवसेसो समग्र पाठ यहां कह लेवें। वह पाठ व्याख्या सहित यमिका राजधानी के वर्णन से यहां पर ग्रहण कर कह लेवें॥सू०२३॥ वाणी 'तं चेव णेयव्वं' यभि:। यानीनु सघणु वन महीया ५ ४ . त વર્ણન કયાં સુધીનું ગ્રહણ કરવું તે જીજ્ઞાસાની નિવૃત્તિ માટે કહે છે-“ના” યાવત્ અહીંયા याप.५६थी 'अण्णमि जंबूद्दीवे दीवे बोरस जोयण सहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स अणाढिया णामं रायहाणी पण्णत्ता बारस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साइं णवय' मा सूत्राथ. सन 'उववाओ अभिसेओ' मा ४थन पर्यत 'निरवसेसो' स पूर्ण पा8 महीया ही बेवा. ते पा तेनी व्याच्या साथे यमि २१ધાનીના વર્ણનથી અહીંયાં ગ્રહણ કરી લે છે સૂ. ૨૩ છે ज. ३७ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ___जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्रे णस्स पमाणं विक्खंभो य णवर मिमं णाणत्तं सव्ववेरुलियामए अवसिटुं तं चेव जाव गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे० (गाहा) सिद्धे य मालवंते, उत्तरकुरु कच्छप्तागरे रयए । सीयाए पुण्णभद्दे हरिस्सहे चेव बोद्धव्वे ।। ___ कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरत्थिमेणं मालवंतस्स कूडस्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं एत्थ णं सिद्धाययणे कूडे पण्णत्ते पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिटुं तं चेव रायहाणी, एवं मालवंतस्स कूड. स्त उत्तरकुरुकूडस्स, एए चत्तारि कूडा दिसाहिं पमाणेहिं णेयव्वा, कूडसरिसणामया देवा, कहि णं भंते ! मालवंते सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! वच्छकूडस्स उत्तरपुरथिमेणं रययकूडस्स दक्खिणेणं एत्थ णं सागरकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अवसिटुं तं चेव सुभोगा देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं रययकूडे भोगमालिणी देवी रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं, अवसिट्टा कूडा उत्तरदाहिणेणं णेयव्वा एक्केणं पमाणेणं ॥सू० २४॥ छाया-अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-उत्तरकुरवः ?, २ गौतम ! उत्तरकुरुषु उत्ता कुर्नामदेवः परिवसति महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यतेउत्तर कुरवः २, अदुत्तरं च खलु इति यावत् शाश्वतम् । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे व माल्यवान् नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन नील वतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन उत्तरकुरुभ्यः पौरस्त्येन वच्छस्य चक्रवर्तिविजयस्य पश्चिमेन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे माल्यवान् नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीन प्रतीचीनविस्तीर्णः यदेव गन्धमादनस्य प्रमाणं विष्कम्भश्च नवरम् इदं नानात्वं सर्ववैडूर्यमयः अवशिष्टं तदेव यावद् गौतम ! नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धायतनकूटं० 'सिद्धं च १ माल्यवत् २ उत्तरकुरु ३ कच्छ ४ सागरे ५ रजतम् ६ सीतायाः ७ पूर्णभद्रं ८ हरिःस्सा ९ चैव बौद्धव्यम् ॥१॥ क्व खलु भदन्त ! माल्यवतिवक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूट प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन माल्यवतः कूटस्य दक्षिणपश्चिमेन अफ खल सिद्धायतनं कूटं प्रज्ञप्तम् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अवशिष्टं तदेव यावत् राज Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सु. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् २९६ धानी, एवं माल्यवतः कूटस्य उत्तरकुरुकूटस्य कच्छ कूटस्य, एतानि चत्वारि कूटानि दिग्भिः प्रमाणेः नेतव्यानि । क्व खलु भदन्त ! माल्यवति सागरकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! कच्छकूटस्य उत्तरपौरस्त्येन रजतकूटस्य दक्षिणेन अत्र खलु सागरकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अवशिष्टं तदेव सुभोगादेवी राजधानी उत्तरपौरस्त्येन रजत कूटं भोगमालिनी देवी राजधानी उत्तरपौरस्त्येन अवशिष्टानि कूटानि उत्तरदक्षिणेने नेतव्यानि एकेन प्रमाणेन सू०२४।। टीका-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि-प्रश्न सूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे-'गौयमा !' हे गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरुषु मूले प्राकृतत्वादेकचनम् 'उत्तरकुरु णाम' 'उत्तरकुरुर्नाम 'देवे' देवः 'परिवसइ' परिवसति, स च कीदृशः ? इत्याह-'महद्धीए जाव पलिओवमहिइए' महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक:-महद्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति-पर्यन्तपदानां तद्विशेषणतया संग्रहो यावत्पदेन बोध्यः-तथाहि-महर्द्धिकः, महाधुतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः, इति फलितम् एपां व्याख्याऽष्टमसूत्रादवगन्तन्या, 'से तेणटेण गोयमा! तत् तेनार्थेन गौतम ! ते-अनन्तरोक्ताः उत्तरकुरवः तेन-प्रागु ॥से केणटेणं भंते ! इत्यादि। टीका-'से केणटेणं भते! एवं वुच्चह' हे. भगवन् किस हेतु से ऐसा कहा गया है 'उत्तर कुरा उत्तरकुरा' अर्थात् उत्तरकुरा इस प्रकार से किस कारण से कहा जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम ! 'उत्तर कुराए' उत्तर कुरु मे 'उत्तरकुरूणाम' उत्तर कुरु नाम वाला 'देवे परिवसई' देव निवास करता है। वह देव 'महड्डीए जाव पलिओवमट्टिईए' महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है। यहां पर महद्धिक पद से लेकर पल्योपम स्थिति वाला इतने तक के पद का संग्रह यावत्पद से हुआ है, जो इस प्रकार है-महर्द्धिक महापुतिक, महाबल, महायश, महासौख्य, महानुभाव, पल्योपम की स्थिति वाला इन पदों की व्याख्या आठवें सूत्र से समझ लेवे 'से तेणट्टेणं गोयमा ! इस __'से केण?णं मंते !' त्यादि टी -से केणटुंणं भंते ! एवं वुच्चइ' 3 सावन् । ४।२४थी मे मामा मार छे. 'उत्तरकुरा उत्तरकुरा' अर्थात् उत्त२१२। ये प्रमाणे ॥ ॥२६४थी ४ वामां आवे छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री ४३ छ-'गोयमा !' गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तभ३मा 'उत्तर कुरुणामा' उत्त२४३ मे नामधारी 'देवे परिवसइ' हेव निवास ४२ छ. ते देव 'महड्डीए जाव पलिओवमदिईए' भद्धि यावत् से४ ५८यापभनी स्थितिवाणी छे. मडीया मद ५४था લઈને પપમની સ્થિતિવાળો એટલા સુધીના પદોને સંગ્રહ યાવત્ પદથી થયેલ છે. જે આ પ્રમાણે છે-મહદ્ધિક, મહાદ્યુતિક, મહાબલ, મહાયશ, મહાસીઓ, મહાનુભાવ, પપમની स्थितिवाणी, मा मा पहानी व्याभ्या मामा सुत्रयी सभ a से वेणद्वेणं गोयमा !' Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र क्तेन अर्थेन कारणेन हे गौतम ! 'एवं वुच्चइ' एवमुच्यते-उत्तर कुरवः२ इति 'अदुत्तरं' अथ 'च गंति' च खलु इति 'जाव सासए' यावच्छाश्वतम् 'अदुत्तरं च णं' इत्यारभ्य 'सासए णाम. धिज्जे पण्णत्ते' शाश्वतम् नामधेयं प्रज्ञप्तम् इति पर्यन्तं वर्णनीयम्, तथाहि-'अदुत्तरं च णं उत्तरकुराए ति सासयं णामधिज्जं पण्णतं' अथ च खलु उत्तरकुरव इति शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तम् । ___ अथ यस्मात्पश्चिमायामुत्तरकुरव उक्तास्तं माल्यवन्तं नाम द्वितीयं गजदन्ताकारं पर्वतं निरूपति-'कहि णं' इत्यादि-प्रश्न सूत्रं स्पष्टार्थम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा!' हे गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य-मन्दरनामकस्य 'पन्चयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-उत्तरपूर्वेण ईशानकोणे 'णीलवंतस्स' नीलवतः नीलवन्नाम्नः 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरुभ्यः 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि कारण हे गौतम ! वह पूर्वोक्त उत्तर कुरु को 'एवं वुच्चइ' उत्तर कुरु इस प्रकार से कहते हैं-'अदुत्तरं च णंति' इससे अलावा वह 'जाव सासए' यावत् शाश्वत है 'अदुत्तरंच णं' यहां से लेकर 'सासए नामधिज्जे पण्णत्ते' शाश्वत नाम कहा है यहां तक समग्र वर्णन कह लेवें । वह वर्णन इस प्रकार से है--'अदुत्तरं च णं उत्तर कुराएति सासयं नाम धिज्जं पण्णत्तं' उत्तर कुरु इस प्रकार का नाम शाश्वत कहा है। ___अब जिसकी पश्चिम दिशा में उत्तर कुरु कहा है वह माल्यवन्त नाम का गजदन्ताकार दूसरा पर्वत का वर्णन करते हैं-'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे' हे भगवन् महाविदेह वर्ष में कहां पर 'मालते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते' माल्यवंत नाम का वक्षस्कार पर्वत कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! मन्दरस्त पव्वस्त' मन्दर नाम के पर्वत के 'उत्तर पुरथिमेणं' ईशान कोण में 'णीलवंतत्स' नीलवंत नाम का 'वासहरपब्वयस्स' वर्षधर पर्वत की 'दाहिणेणं दक्षिण दिशा में उत्तर अराए' उत्तर कुरु से 'पुरत्थिमेण' पूर्व दिशा में कच्छस्स मे २९थी गीतम! 2 पूर्वात उत्त२३ने 'एवं वुच्चइ' उत्त२४३ मे प्रमाणे ४३ छे. 'अदुत्तरं च णंति' तेनाथी मौतु ते 'जाव सासए' यावत् शाश्वत छ. 'अदुत्तरं च णं' से ५४थी छन सासए नामधिज्जे पण्णत्ते' शाश्वत नाम ४३ . मेट। सुधीनु समय पान N दे. ते पन मा प्रमाणे छे. 'अदुत्तरं च णं उत्तरकुराएति सासयं नामधिज पण्णत्तं उत्त२ १३ मे २k नाम शाश्वत यु छे. હવે જેની પશ્ચિમ દિશામાં ઉત્તર કુરૂ કહેલ છે તે માલ્યવન્ત નામના ગજદન્તાકાર मील ५'तनु वा न ४२ छ- कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे' उगवन् महाविड भां ४यां मा 'मालवंते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते' माझ्यत नामना पक्षा२ ५वत इस छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ-'गोयमा ! ' गौतम ! 'मंदस्स पव्ययस्स' भर नामाना पतनी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' शान मा ‘णीलवंतस्स' नासवान नामाना 'वासहरपव्वयस्स' १५२ ५ तनी दाहिणेणं' दक्षिण दिशामा 'उत्तरकुराए' उत्त२ १३था 'पुरस्थिमेण' Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् २९३ 'कच्छस्स' कच्छस्य-कच्छ-नामकस्य 'चकवहिविजयस्स' चक्रवर्तिविजयस्य 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महाविदेहे' महाविदेहे-महाविदेह नामके 'वासे' वर्षे-क्षेत्रे 'मलवंते' माल्यवान् ‘णाम' नाम वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतः सीमाकारिपर्वतः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः, अस्य मानाधाह-'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतः-उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायत:-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिपणे' प्राचीन-प्रतीचीनविस्तीर्णः-पूर्वपश्चिमयोर्दिशोविस्तीर्णः-विस्तारयुक्तः, किंबहुना 'जं चेव' यदेव 'गंधमायणस्स' गन्धमादनस्य-पूर्वोक्तवक्षस्कारपर्वतस्य 'पमाणं' प्रमाणं 'विक्खंभो' विष्कम्भ:-विस्तारः 'य' च, उक्तस्तदेव प्रमाणं स एव च विष्कम्भो बोध्यः, 'णवरं' नवरम्-केवलम्-'इम इदम् 'णाणत्तं' नानात्वं-भेदः-विशेषोऽयम् 'सव्ववेरुलियामए' सर्ववैडूर्यमयः-सर्वात्मना-वैडूयरत्नमयः 'अवसिर्ट' अवशिष्टं-शेष 'तं चेव' तदेव-पूर्वोक्तमेव, तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्यपेक्षायामाह'जाव गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता' यावद् गौतम नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, स्पष्टम् 'तं जहा' तद् कच्छ नाम के 'चकवहिविजयस्स' चक्रवतिविजय के पच्चत्थिमेणं पश्चिमदिशा में 'एत्थ' यहाँ पर 'णं' निश्चय से 'महाविदेहे' महाविदेह नाम का 'वास' क्षेत्र 'मालवंते णाम' माल्यवान नाम का 'वक्खारपव्वए' सीमाकारी पर्वत 'पण्णत्ते' कहा हैं। अब इसका मानादि प्रमाण कहते हैं-'उत्तरदाहिणायए' वह पर्वत उत्तर दक्षिण में लंबा है, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशा की ओर विस्तार वाला है, अधिक क्या कहे, जं चेव गंधमायणस्स' जो गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का 'पमाण' प्रमाण 'विक्खंभो' विष्कंभ या जो कहा है वही प्रमाण और वही विष्कंभ इसका भी समझ लेना । 'णवरं' केवल 'इमं यही 'णाणत्तं' विशेष कथन कि 'सव्ववेरुलियामए' यह पर्वत सर्वात्मना वैडूर्य रत्नमय कहा है 'अवसिष्ट्र तं चेव' बाकिका सर्वकथक पूर्वोक्त कथन के जैसा ही है। वह कथन कहां तक का ग्रहण करना चाहिए इस संशय की निवृत्यर्थ कहते हैं 'जाव गोयमा ! नवकूडा पूव शिामा 'कच्छरस' ४२७ नमन। 'चक्काट्टिविजयस्स' यती वियना 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामi ‘एत्थ' मडीयो ‘णं' निश्चयथी 'महाविदेहे' महाविनामना 'वासे क्षेत्र 'मालवंते णाम' भाइयवान् नामना 'वक्खारपव्यए' सीमा ५वत 'पण्णत्ते' हेस छ.. व तेना मानाहि प्रभानु ४थन ४२ छ-'उत्तर दाहिणायए' ते पत उत्तर दक्षिwi aiम. 'पाईणपडिविस्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशा त२५ विस्तारवा छे. पधारे शु उपाय ? 'जं चेव गंधमायणस्स' ? गंधमान वक्ष२४२नु पमणं .. "विव खंभो' વિäભ ત્યાં જે કહેલ છે. એ જ પ્રમાણ અને એજ વિષ્કભ આને પણ સમજી લે. 'णवर' व 'इम' से 'णाणत्तं' विशेषता छ, 3-'सव्ववेरुलियामए' मा पर्वत सा. भनाइ नभय छे. 'अवसिटुं. तं चेव' साठीनुसघणु ४थन पडसाना ४थन प्रमाणे જ છે તે કથન કયાં સુધીનું ગ્રહણ ક વું જોઈએ? એ જીજ્ઞાસાની નિવૃત્તિ માટે કહે છે, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र यथा-'सिद्धाययणकूडे ०' सिद्धायतनकूटम् ० इत्यादीनि नवकूटानि यावत् इति तानि नवकूटानि नामनिर्देशेनाह-'सिद्धेय' सिद्धं च इत्यादि स्पष्टम् नवरम उत्तरसूत्रे उक्तस्यापि सिद्धायतनकूटस्य पुनरुपादानं गाथानिवद्धत्वेन सर्वकूटसङ्ग्रहार्थमिति, सिद्ध-सिद्धायतनकूटम् नामैकदेशे नामग्रहणात्, च शब्दः पादपूरणार्थकः१, 'मालवंते' माल्यात्-माल्यवन्नामकं कूटम् प्रस्तुतवक्षस्कारप्रतिकूटम् २, 'उत्तरकुरु' उत्तरकुरुनामकं कूटम्-उत्तरकुरुदेवकूटं ३, 'कच्छसागरे' कच्छसागरे-कच्छं कच्छविजयाधिपं कुटं सागरं च सागरनामकं कूटम्४-५, 'रयए' रजतं-रजतनामकं कूटम् इदश्चान्यत्र रुचकनाम्ना प्रसिद्धम् ६, 'सीयाए' सीतायाः सीतानद्याः सूर्याः कूटम् क्वचित् 'सीओयेति' पाठः तत्पक्षे सीते चेतिच्छाया, सीताकूटमिति पण्णत्ता' यावत् हे गौतम ! नव कूट कहे है इस कथन पर्यन्त पूर्वोक्त कथन ग्रहण करलेवें । 'तं जहा' वे नवकूट इस प्रकार से कहे हैं-'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतन कूट, इत्यादि नवकूट कहे हैं । अब वे नव कूटों के पृथक् पृथकू नाम निर्देश दिखलाते हैं-'सिद्धया' सिद्ध इत्यादि स्पष्ट है । विशेषता यह है कि यह सिद्ध कूट उत्तर सूत्र में कहने पर भी सिद्धायतन कूटका पुनरुच्चारण गाथा में सर्व कूटों के नाम संग्रहार्थ कहा है ऐसा समझलेवें । गाथा में 'सिद्ध' कहनेसे सिद्धा. यतन कूट ऐसा समझलेना चाहिए, कारणं कि नामका एकदेश के कहनेसे संपूर्ण नाम ग्रहण होजाता है १, 'मालवंते' माल्यवान नामका कूट यह प्रस्तुत वक्षस्कारका प्रतिकूट है २, 'उत्तरकुरू' उत्तरकुरु नामका कूट यह उत्तरकुरु देव का कूट है ३, 'कच्छसागरे' कच्छ नाम का कूट ४ तथा सागर नाम का कूट ५, 'रयए' रजत नाम का कूट यह अन्य स्थान में रुचक नामसे प्रसिद्ध है ६, 'सीयाए' सीता नदी का सूर्य कूट हैं, कहीं पर 'सीयोएति' ऐसा पाठ है, इस पक्ष में 'सीता जाव गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता' यावत् गौतम ! नटी ४ा छ. ॥ ४थन पर्यन्त पति ४थन अरु ४श से 'तं जहा' त न छूटे। २मा प्रमाणे छे. “सिद्धाययणकूडे' સિદ્ધયતન ફૂટ ઈત્યાદિ નવ કૂટો છે. वयन टी नुहा नुहा नाम निशपू मताव छ-'सिद्धेय' सिद्ध त्याल માથાર્થ સ્પષ્ટ છે. વિશેષતા એ છે કે-આ સિદ્ધ કૂટ ઉત્તર સૂત્રમાં કહેવા છતાં પણ સિદ્ધાથતન કટનું પુનરચ્ચારણ ગાથામાં સર્વ કૂટના નામને સંગ્રહ બતાવવા માટે કહેલ છે. तभ समो . गाथामा 'सिद्ध' वाथी सिद्धायतन सेभ समय से नये. ४१२५ -नामना मे देश ४ाथी संपूर्ण नाभनु श्रड २६ नय छ ? 'मालवंते' भास्यवान नाभन दूट से प्रस्तुत क्षारने प्रतिकूट छ. २ 'उत्तरकुरु' उत्त२१३ नामना १ मा उत्तर ७३ नामना वना छूट छे 3 'कच्छसागरे' ४२७ नामनेट ४ तथा सागर नाभनट ५ 'रयए' २०१त नामना छूट मा ठूट सन्य स्थानमा ३३४ नामथी प्रसिद्ध ७.६ 'सीयाए' सीतानहीनो सूर्य कूट छ. ४यis 'सीयोएत्ति' सेवा ५४ छे से पक्षमा 'सीता Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् तदर्थः, नामैकदेशे नाम्नोग्रहणात् तत्र सीतानदी देवीकूटमिति परमार्थः, च समुच्चये७, 'पुण्णभद्दे' पूर्णभद्र-पूर्णभद्रनामकस्य व्यन्तराधिपस्य कूटं पूर्णभद्रकूटम् ८, 'हरिस्सहे चेव बोद्धव्वे' हरिस्सहं चैत्र बोद्धव्यम्, हरिस्सह नाम्न उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूटं हरिस्सहकूटम् च समुच्चये, एव शब्दोऽवधारणे बोद्धव्यं - ज्ञेयम्९, अथ नवकूटस्थानं निरूपयितुमाह'कहि णं भंते !' क्व खलु भदन्त ! इत्यादि-प्रश्नसूत्रमुत्तानार्थकम् उत्तरसूत्रे-गोयमा ! गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य-एतनामकस्य 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-उत्तरपूर्वदिगन्तराले ईशानकोणे 'मालवंतस्स' माल्यवतः 'कूडस्स' कूटस्य, 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन निऋतिकोणे 'एत्थ' अत्र 'ण' खलु 'सिद्धाययणे' सिद्धयतनं 'कूडे कूटं 'पण्णत्त' प्रज्ञप्तम् तत् किम्प्रमाणं कीदृशं चेत्यपेक्षायामाह-'पंच जोयणचेति' ऐसी छाया होती है अतः सीता कूट ऐसा उसका अर्थ होताहै कारण कि नामैकदेश के ग्रहण से समग्र नामका ग्रहण हो जाता है इस पक्ष में सीतानदी देवीकूट ऐसा अर्थ हो जाता है ७ । 'पुण्णभद्दे' पूर्णभद्र, पूर्णभद्र नामका व्यन्तराधिपति देवका कूट पूर्णभद्र कूट है ८, 'हरिस्सहे चेवबोद्धव्वे' हरिस्सह नामका उत्तर श्रेणि का अधिपति विद्यत्कुमारेन्द्र का कूट हरिस्सह कूट है ऐसा जानना ९, __अब नव कूटों के स्थानों का निरूपण करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'कहिणं भंते ! मालवंते वखारपव्वए' हे भगवन् माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत में 'सिद्धाययण कूडे णामं कूडे पण्णत्ते' सिद्धायतन कूट नामका कूट कहां पर कहा है ? इसी प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री गौतम को कहते है 'गोयमा !' हे गौतम ! 'मंदरस्स' मंदर नाम के 'पव्वयस्स' पर्वत के 'उत्तरपुरस्थिमेणं' ईशान कोण में 'माल. वंतस्स' माल्यवान् 'कूडस्स' कूटका 'दाहिण पच्चत्थिमेणं' नैऋत्य कोण में 'एस्थ' यहां पर 'णं' निश्चित 'सिद्धाययणे' सिद्धायतन 'कूडे' कूट 'पण्णत्तं' कहा गया है રેતિ એવી છાયા થાય છે. તેથી સીતા કુટ એવો તેનો અર્થ થાય છે. કારણ કે-નામિક દેશના ગ્રહણથી સંપૂર્ણ નામનું ગ્રહણ થઈ જાય છે. એ પક્ષમાં સીતા નદી દેવી કૂટ मेवा अर्थ / जय छ ७, 'पुण्णभद्दे' ५ भद्र व्यन्त२.धिपतिपने दूट पूरा भद्र ८ . ८; 'हरिस्सहे चेव बोद्धव्वे' सिह नामना उत्तर श्रेणीना अधिपति विधुत्माરેન્દ્રને ફૂટ હરિસ્સહ ફૂટ છે. તેમ સમજવું ૯. वे न ठूटोना स्थानानु नि३५५५ ४२तां सूत्रा२ ४ छे.-'कहिणं भंते ! मालवंतवक्खारपव्वए' 3 सावन मास्यन्त क्ष४१२ ५वतमा 'सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' સિદ્ધાયતન નામને કૂટ કયાં આવેલું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે है-'गोयमा ! 3 गौतम ! 'मंदरस्स' म १२ नमन। 'पव्वयस्स' ५ तन 'उत्तरपुरस्थिमेणं' शान शुभा 'मालवंतस्स' मास्यवान् 'कूडस्स' ठूटना 'दाहिणपच्चत्थिमेण' नैऋत्यहिशामां एत्थ' महीया 'ण' निश्चयथा 'सिद्धाययणे' सिद्धायतन 'कूडे' दू 'पण्णत्तं' ४३ छ. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सयाई' पश्चयोजनशतानीत्यादि-पञ्चशतयोजनानि 'उद्धं' ऊर्वम् 'उत्तेज उच्चत्वेन 'अवसिटुं' अवशिष्टं-मूलविष्कम्भादिकम् 'तं चेव' तदेव-गन्धमादनसिद्धायतनकूटोक्तमेवमूल विष्कम्भादिकमत्रापि वक्तव्यम् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव रायहाण' यावद् राजधानी वर्णकपर्यन्तम्-अयमाशय:-सिद्धायतनकूटवणके सामान्यतः कूटवर्णकसूत्रं विशेषतः सिद्धायतनवर्णकसूत्रं चेतदद्वयमपि वक्तव्यम् तत्र सिद्धायतनकूटे राजधानीसूत्रं न युज्यतेऽतो राजधानीसूत्रं विहाय तदधस्तनसूत्रं वक्तव्यमिति, अत्र यावच्छब्दो न सङ्ग्राहकः किन्त्ववधिमात्रसूचकः, अथ लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह-एवं मालवंतस्स' एवं माल्यवतः इत्यादि-एवम्इत्थम्-सिद्धायतनकूटवत् माल्यवतः-माल्यवन्नामकस्य 'कूडस्स' कूटस्य 'उत्तरकुरुकूडस्स' उस कूट का क्या प्रमाण है एवं वह कूट कैसा है इस अपेक्षा निवृत्यर्थ सूत्रकार कहते हैं-'पंच जोयणसयाई' पांच सो योजन का 'उद्धं उच्चत्तेणं' उपर के भाग में ऊंचा है 'अवसिडे' शेष कथन अर्थात् मूल विष्कंभादि का कथन चेव' गंधमादन एवं सिद्धायतन कूट के जैसाही कहा है। वह कथन कहांतक समान है ? इसके लिए कहते हैं 'जाव रायहाणी' यावत् राजधानी अर्थात् राजधानी का वर्णन पर्यन्त वह कथन ग्रहण करलेवें। . इस कथन का भाव यह है कि सिद्धायतन कूट के वर्णन में सामान्य से कट वर्णन सूत्र एवं विशेषतया सिद्धायतन का वर्णन सूत्र ये दोनों कहना चाहिए उस कथन में सिद्धायतन कूट के वर्णन में राजधानी सबंधी सूत्र नहीं कहना चाहिए अतः राजधानी के कथन को छोडकर उसके नीचे का वर्णन परक सूत्र कहलेवें। यहां पर यावत् शब्द संग्रहार्थ में नहीं है अपितु अवधिमात्र सूचक है। अब संक्षेप करने के उद्देश से अतिदेश सूत्र कहते हैं-'एवं मालवंतस्स' सिद्धायतन कूट के कथनानुसार माल्यवान् नामक 'कूडस्स' कूटका 'उत्तरकुरू | એ કટનું શું પ્રમાણ છે? અને એ કૂટ કેવો છે? એ અપેક્ષાની નિવૃત્તિ નિમિત્તે सूत्रा२ ४ छ.-'पंचजोयणसयाई' पांयसे। येन a 'उद्धं उच्चत्तणं' 6५२नी त२५ य। छ. 'अवसिटु' मानु ४थन अर्थात् भूदा वि०४ विगेरे ४थन 'तं चेव' मान मत सिद्वायतन छूटनी रमा ४ छे. जाव रायहाणी' यावत् २।यानीना वर्णन यन्त તે કથન ગ્રહણ કરી લેવું. આ કથનને ભાવ એ છે કે–સિદ્ધાયતન ફૂટના વર્ણનમાં સામાન્ય રીતે કુટનું વર્ણન કરનાર સૂત્ર અને વિશેષ રીતે સિદ્ધાયતનનું વર્ણન કરનાર સૂત્ર એ બન્ને કહેવા જોઈએ. એ કથમાં સિદ્ધાયતન ફૂટના વર્ણનમાં રાજધાની સંબંધી સૂત્ર કહેવાનું નથી. તેથી રાજધાનીના કથનને ત્યાગ કરીને તેની નીચેનું વર્ણન પરક સૂત્ર કહી લેવું. અહીંયાં યાવત્ શબ્દ સંપ્રહાર્થમાં નથી. પરંતુ અવધિમાત્ર સૂચક છે. डवे स२५ ४२पाना उद्देशथी मतिदेश सूत्र ४३ छ.-'एवं मालव तस्स' सिद्धायतन Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः स. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् तरकुरुकूटस्य उत्तरकुरुदेवकटस्य' 'कच्छस्स' कछस्य-कच्छविजयाधिपकूटस्य आयामवेष्कम्भादिकं वक्तव्यम्, इत्युपरिष्टादध्याहार्यम्, अथैतानि किं परस्परं स्थानादिना तुल्यानेवाऽनुल्यानीत्यपेक्षायामाह-'एए चत्तारि' एतानि चत्वारि' इत्यादि-एतानि-अनन्तरोक्ताने चत्वारि-सिद्धायतनादीनि 'कूडा' कूटानि परस्परं 'दिसाहि' दिग्भिः-ईशानादिविदिगक्षणाभिः ‘पमाणेहिं प्रमाणैः-आयामादिभिर्मानैः तुल्यानि 'नेयव्वा' नेतव्यानि-बोधपथं पिणीयानि बोध्यानि, अयमाशयः-प्रथमं सिद्धायतनकूटं १, मेरोरुत्तरस्यां दिशि स्थितम्, तस्तद्दिशि द्वितीयं माल्यवस्कूटं २ ततस्तस्यामेव दिशि तृतीयमुत्तरकुरुकूटं ३, ततोऽ. पुष्यां दिशि चतुर्थ कच्छकूटम् ४, एतानि चत्वार्यपि कूटानि विदिग्वर्तीनि मानतो 'हेमवत्कूटतुल्यानि इति । एषु कटेषु किं नामका देवाः ? इत्याइ-'कूडसरिसनामया देवा' कूटसदृश-नामकाः देवाः-यथा कूटानां नामानि तथा देवानामपि, परमत्र कूडस्स' उत्तर कुरु देव कूट का 'कच्छस्स' कच्छविजयाधिपति के कूटका आयाम विष्कंभादिक कहलेवें। _ये सब कूट के स्थानादि समान है ? या असमान है ? इस शंका कि निवत्तिके लिए सूत्रकार कहते हैं 'एए चत्तारि कूडा' ये पूर्वोक्त चार कूट आपस में 'दिसाहि' ईशानादि दिशाओं के 'पमाणेहिं' प्रमाण से अर्थात् आयामादि प्रमाण से समान 'णेयव्या' जानलेना। __इस कथन का भाव यह है कि-पहला सिद्धायतन कूट मेरु की उत्तर दिशा में स्थित हैं १, उस के पीछे उसी दिशामें दूसरा माल्यवान् कूट कहा है २, तदनन्तर उसी दिशामें तीसरा उत्तरकुरु कूट आता है ३, पश्चात् उसी दिशामें चौथा कच्छ नामका कूट आता है ४, यह चारों कूट विदिशामें स्थित है एवं इन सबका मान हिमवान् कूट के समान है। इन कुटों में कौन नाम धारी देव वसते है वह कहते हैं-'कूडसरिसनामया देवा' कूट के नाम सरीखे नाम धारी देव टना ४थन प्रमाणे माझ्यवान् नाभना 'कूडस्स' टूटना 'उत्तरकुरुकूडस्स' उत्त२ २३ देव दूटना 'कच्छरस' ४२७ विन्याधिपतिना टूटना मायाम वि०४ावा . આ બધા કૂટના સ્થાનાદિ એક સરખા છે? કે અસમાન છે? એ શંકાના સમાधान निभित्ते सूत्रा२ ४ छ 'एए चत्तारिकूडा' 20 पूर्वाहत यार छूट ५२२५२मा 'दिसा हिं' शानदहशासाना ‘पमाणेहिं' प्रमाथी अर्थात मायामा प्रभाथी ४ स२॥ 'णेयव्वा' सभ से - આ કથનને ભાવ એ છે કે-પહેલે સિદ્ધાયતન કૂટ મેરૂની ઉત્તર દિશામાં રહેલ છે ૧ તેના પછી એજ દિશામાં બીજે માલ્યવાન કૂટ કહેલ છે ૨, તે પછી એજ દિશામાં ત્રીજે ઉત્તરકુર ફૂટ આવેલ છે ૩, તે પછી એજ દિશામાં એથે કચ્છ નામને ફૂટ આવે છે. છે, એ ચારે ફૂટ વિદિશામાં રહેલ છે. એ બધાનું માપ હિમાવાન કૂટના સરખું છે આ दूटोमा ४॥ नाम है। से छेत सूत्रा२ ४३ .-'कूडसरिसनामया देवा' दूटना Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे 'यावत्संभवं विधि प्राप्ति' रिति न्यायात् सिद्धायतनकूटातिरिक्तेषु त्रिषु कूटेषु माल्यवदादिषु कूटसदृशनामका देवा इति बोध्यम्, सिद्धायतनकूटेतु सिद्धायतनं न तु देवः, अन्यथा 'छ सयरिकडेसु तहाचूलाचउवणतरुसु जिणभवणा। भणिया जंबुद्दीवे सदेवया सेस ठाणेसु॥१॥' एतच्छाया-पट् सप्रतिकूटेषु तथा चूलाः चतुर्वनतरुषु जिनभवनानि । भणितानि जम्बूद्वीपे सदेवकानि शेषस्थानेषु ॥१॥ इति वचने न विरोध: स्यात् । तस्मात्तत्र सिद्धानामायतन मेरास्तीति निश्चितम् । अथ शेषकूटस्वरूपमाह-'कहि णं' क्व खलुइत्यादि--प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'कच्छकूडस्स' कच्छकूटस्य वहां वसते हैं अर्थात् जैसा कूटका नाम है वैसाही उन उन कूटाधिष्ठित देवका नाम है। परंतु यहां पर 'यावत् संभव विधि की प्राप्ति' इस न्याय से सिद्धायतन कूट से भिन्न तीन कूटों में अर्थात् माल्यवदादि में कूट के सदृश नामवाले देव हैं ऐसा समझलेवें । परंतु सिद्धायतन कूटमें सिद्धायतन है देव नहीं हैं अन्यथा 'छसयरि कटेसु तहा चूला चउवण तरुसु जिणभवणा। भणिया जंबुद्दीवे सदेवया सेसठाणेसु ॥१॥ सडसठ कूटों में तथा चूला, चार वन तरुओं में जिन भवन कहे है शेष स्थानों जंबूद्वीप में देव सहित कहें है, इस वचन में विरोध नहीं आता हैं। अतः सिद्धायतन कूट में सिद्धों का आवासही है यह निश्चित होता है अब शेष कूटों के स्वरूप का निरूपण करते हैं'कहि णं भंते ! हे भगवन् कहांपर 'मालवंते सागरकडे णाम' माल्यवन्त सागरकट नामका 'कूडे पण्णत्ते' कूट कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'कच्छ कूडस्स' चोथा कच्छकूड के 'उत्तरपुरस्थि નામ સરખા નામવાળા દેવ ત્યાં વસે છે. અર્થાત્ જેવું કૂટનું નામ છે. એવાજ નામવાળા તે તે કૂટાધિષ્ઠિત દેવ છે. પરંતુ અહીંયાં યાવત્સભવ વિધિની પ્રાપ્તિ એ ન્યાયથી જુદા ત્રણ કૂટમાં અર્થાત્ માલ્યવદાદિમાં કૂટના સરખા નામવાળા દેવ છે. તેમ સમજી લેવું પરંતુ સિદ્ધાયતન ફૂટમાં સિદ્ધાયતન દેવ નથી. નહીંતર 'छसयरि कूटेसु तहा चूला चउणतरुसु जिणभवणा । भणिया जंबुद्दीवे सदेवया सेसठाणेसु ॥ १ ॥ જંબુદ્વીપમાં સડસઠ ફૂટોમાં તથા ચૂલા, ચાર વન તરૂઓમાં જીનભવને કહેલા છે. બાકીના સ્થાને દેવ સહિત કહ્યા છે. આ વચનમાં વિરોધ આવતું નથી. તેથી સિદ્ધાયતન ફૂટમાં સિદ્ધોને આવાસ જ છે. એ વાત નિશ્ચિત થાય છે. वे माडीना छूटाना २१३५नु नि३५५५ ४२वामां आवे है.-'कहिणं भंते ! 'मापन ४५i in 'मालवते सागरकूडे णाम' भास्यवान् सागर छूट नामन'कूडे पण्णत्ते' कूट से छ? सा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री हे छ-'गोयमा ! गौतम ! 'कच्छकूडस्स' या Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् चतुर्थस्य ‘उत्त(पुरस्थिमेगं' उत्तरपौरस्त्येन-उत्तरपूर्वस्याम् ईशानकोणे 'रययकूडस्स' रजत कूटस्य 'दक्खिणेण' दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि ‘एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे ‘णं' खलु 'सागरकूडे सागरकूटं 'गाम' नाम 'कूडे' कूटं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम्, तस्य मानमाह-'पंच जोयणसयाई पञ्च योजनशतानि-पञ्चशतयोजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'अवसिडें' अवशिष्टं-शेषम् मूलविष्कम्भादिकम् 'तं चेव तदेव-गन्धमादनाभिधवक्षस्कारपर्वतवत्, अत्र देवीमाह-'मुभोगादेवी' सुभोगादेवी-अधोलोकवासिनी दिकूकुमारी, अस्या राजधानीमाह'रायहाणी' राजधानी . 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-उत्तरपूर्वस्याम्-ईशानकोणे, अथ रजतकूटे देवीमाइ-'रययकूडे' रजतकूटे-षष्ठे, 'भोगमालिणी' भोगमालिनी दिक्कुमारी देवी, अस्या राजधानीमाह-'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे, एवं षट्कूटान्युक्तानि अथ सप्तमादि नवमान्तकूटानि निरूपयितुमाह-'अवसिहा कूडा' अवशिष्टानि कूटानि सीताकूटादोनि त्रीणि 'उत्तरदाहिणेणं' उसरदक्षिणेन-उत्तरदक्षिणस्यामनेतन्यानि-बोधपथं- नेयानि बोध्यानि, अयमाशयः-पूर्वस्मात्पूर्वस्मात् कूटात् उत्तरोत्तरं कूटमेणं' ईशाम कोण में 'रययकूडस्स' रजतकूट की 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में 'एत्थ' यहां पर 'णं' निश्चय से 'सागरकूडे णाम' सागरकूट नामका 'कूडे पण्णत्ते' कूट कहा है । 'पंच जोयणसयाई' पांचसो योजन का 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊंचा है। "अवसिढे' शेष मूल विष्कंभादि कथन 'तं चेव' गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के जैसा ही कहा हैं। 'सुभोगादेवी' अधोलोक में वसनेवाली दिक्कुमारी सुभोगा यहां की देवी है। __ अब सागर कूट की राजधानी का कथन करते हैं-'रायहाणी उत्तरपुरथिमेणं यहाँ की राजधानी ईशान कोणमें कही है। इस प्रकार छ कूटों का कथन किया हैं। अब सातवें कूट से लेकर नववे कूट का कथन करते हैं-'अवसिट्टा कूडा अवशिष्ट सीतादि तीन कूट 'उत्तरदहिणेणं' उत्तर दक्षिणमें समझलेवें। इस कथन का भाव यह है कि-पहले पहले कूटों से पीछे पीछेका कूट उत्तर २७ फूटनी 'उत्तर पुरथिमेणं' शान दिशामा 'रयय कूडरस' २४ टनी 'दक्खिणेणं' दृक्षि शमां 'एत्थ' महीयां 'ण' निश्चय 'सागर कूडे णाम' सार छूट नाभन 'कूडे पण्णत्ते' छूट ४९ छ 'पंच जोयणसयाई' पांयसा योगान 'उद्धं उच्चत्तेणे' या छ 'अवसिट्र' माटीना भूण विविगेरे ४थन 'तं चेव' गधमान वक्ष४२ ५तना अथन प्रमाणे स छे. 'सुभोगा देवी' मघौलीमा सनारी भारी सुमोगा महीनी हेवी छे. व साग२ टनी यानीनु ४थन ४२ छे.-'रायहाणी उत्तरपुर स्थिमेणं' महीनी २०४ધાની ઈશાન કેણમાં કહેલ છે. આ રીતે છ કુટોનું કથન કરવામાં આવેલ છે. व सातमा झूटथी ६२ नवमांट सुधीना टोनु थन ४२ छ-'अवसिद्धा कूडा' माडीना सीता झूट 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तर दक्षिमा सम वा. આ કથનને ભાવ એ છે કે–પહેલા પહેલા ફૂટથી પછિ–પછિના કૂટો ઉત્તર દિશામાં Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुत्तरस्यामुत्तरस्यां दिशि, यच्चोत्तरस्यामुत्तरस्यां स्थितं तस्मादुत्तरस्मादुत्तरस्मात्कूटात् पूर्वं पूर्व कूटं दक्षिणस्यां दक्षिणस्यां दिशि स्थित मिति, तानि त्रीण्यपि कूटानि सीत कूटादीनि 'एक्केणं' एकेन तुल्येन 'पमाणेणं' प्रमाणेन स्थितानि सर्वेषामपि हिमवत्कूट प्रमाणत्वात् ॥ सू० २४|| अथ पूर्वेषु नवसु कूटेषु नवमं हरिस्सहकूटं सहस्राङ्कमिति तत् पृथग्निर्देष्टुमाह मूलम् - कहि णं भंते ! मालवंते हरिस्तहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? गोयमा ! पुण्णभद्दस्स उत्तरेणं नीलवंतस्स दक्खिणेणं एत्थ णं हरिस्सहकुडे णामं कूडे पण्णत्ते, एगं जोयणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं जमगपमा णं यव्वं, रायहाणी उत्तरेणं असंखेज्जे दीवे अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे उत्तरेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं हरिस्सहस्स देवस्त हरिस्सहा णामं रायहाणी पण्णत्ता, चउरासीइं जोयणसहस्साई आयाम विकखंभेणं बे जोयणसयसहस्साईं पण्णट्ठि च सहस्साइं छच्च छत्तीसे जोयणसए परिक्खेवेणं, सेसं जहा चमरचंचाए रायहाणीए तहा पमा भाणियन्त्रं, महिद्धीए महज्जुईए, से केणणं भंते! एवं बुच्चइमालवते वक्खारपव्वए २१, गोयमा ! मालवंते णं वक्खारपव्वए तत्थ तत्थ देते तहि बहवे सरियागुम्मा णोमालियागुम्मा जाव मगदंतिया गुम्मा, ते णं गुम्मा दसवण्णं कुसुमं कुसुमेंति, जे णं तं मालवंतस्स वक्खा यस्स बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं वायविधुयग्गसालामुक्कपुफपुंजोपचारकलियं करेंति, मालवंते य इत्थ देवे महिद्धीए जाब पलिओenior परिवसइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं च णं जाव विच्चे ॥सू० २५॥ दिशा में कहा है एवं जो उत्तर दिशामें स्थित है उस उत्तर उत्तरकूट से पहला पहलाकूट दक्षिण दिशामें रहे हुवे हैं वे तीनों सीतादिकूट 'एक्केणं' एक सरीखे 'पमाणेणं' प्रमाण से स्थित है कारण कि सब कूटों का प्रमाण हिमवत्कूट के सदृश कहा गया है । अतः समान प्रमाण वाले तीनों कूट कहे हैं । सू. २४ ॥ કહેલા છે. અને જે ઉત્તર દિશામાં રહેલા છે એ ઉત્તર ઉત્તર ફૂટથી પહેલા પહેલા કૂટો दृक्षिण दिशाभां रडेला छे. येत्रो सीताहिछूट 'एक्केणं' श्रेष्ठ सरणा ' पमाणेणं' प्रभाणुथी રહેલા છે. કારણ કે બધા ફૂટનું પ્રમાણ હિંમફૂટના સરખુ કહેવામા આવેલ છે. તેથી સરખા પ્રમાણુવાળા ત્રણે ફૂટા કહેલા છે. ! સૂ ૨૪ ૫ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २५ हरिरसहकूटनिरूपणम् __ छाया-क्य खल भदन्त ! माल्यवति हरिस्सहकूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! पूर्णभद्रस्य उत्तरेण नीलवतो दक्षिणेन अत्र खलु हरिस्सहकूटं नामकूटं प्रज्ञप्तम्, एक योजनसहस्रम् ऊर्ध्वमुच्चत्वेन यमकप्रमाणेन नेतव्यम्, राजधानी उत्तरेण असंख्येयान् द्वीपान् अन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरेण द्वादश योजनसहस्राणि अवगाह्य अत्र खलु हरिस्सहस्य देवस्य हरिस्सहा नाम राजधानी प्रज्ञता, चतुरशीति योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण द्वे योजनशतसहस्त्रे षट् पष्टि च सहस्राणि पदं च पत्रिंशाति योजनशतानि परिक्षेपेण शेषं यथा चमरचञ्चाया राजधान्यास्तथा प्रमाणं भणितव्यम्, महद्धिको महाद्युतिकः, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-माल्यवान् वक्षस्कारपर्वतः २?, गौतम ! माल्यवति खलु वक्षस्कारपवते तत्र तत्र देशे तत्र तत्र बहवः सरिकागुल्माः नवमालिकागुल्माः यावद् मगदन्तिकागुल्माः, ते खलु गुल्मा: दशार्द्धवर्ण कुसुमं कुसुमयन्ति, ये खलु तं माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य बहुसमरमणीयं भूमि. भागं वातविधुताग्रशालामुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितं कुर्वन्ति, माल्यवांश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते, अदुत्तरम् (अथ) च खलु यावत् नित्यः॥सू० २५॥ ____टीका-'कहि णं भंते !' क्व खलु भदन्त' इत्यादि-व-कुत्र खलु भदन्त ! 'मालवंते' माल्यवति-माल्यवनामके वक्षस्कारपर्वते 'हरिस्सहकूडे' हरिस्सह कूटं ‘णाम' नाम 'कूडे' कूट 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् १, इति प्रश्नस्योत्तर भगवानाह-'गोयमा !" गौतम ! 'पुण्णभहस्स' पूर्णभद्रस्य--अनन्तरसूत्रोक्तस्य तन्नामककूटस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'णीलवंतस्स' नीलवतः पर्वतस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'हरिस्सहकूडे' हरिस्सहकूटं 'णाम' नाम 'कूडे' कूटं 'पण्णत्तं' प्रज्ञप्तम्, तत् किं प्रमाणम् ? 'कहि णं भंते ! मालते हरिस्सहकूडे' इत्यादि टीकार्थ-'कहि णं भंते ! मालवंते' हे भगवन् कहांपर माल्यवान् नामक वक्षस्कार पर्वत में 'हरिस्सहकूडे' हरिस्सह कूट 'णामं कूडे' नामका कूट 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्नके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा! हे गौतम ! पुण्ण भहस्स' पूर्व सूत्र में कहा हुआ पूर्णभद्र कूट की 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामें 'णील. वंतस्स' नीलवान पर्वत की 'दक्षिणेणं' दक्षिण दिशामें 'एरथ' यहां पर 'णं' निश्चयसे 'हरिस्तह कूडे' हरिस्सकूट 'णामं कूडे' नामका कूट 'पण्णत्ता' कहा 'कहि णं भंते ! भालवं ने हरिस्सहकूडे' त्या 14-"कहि णं भंते ! मालवते' 3 रन ४यां मा0 मास्यवान् न. १६.४ार पर्वतमा 'हरिस्सह कूडे' रिस छूट ‘णामं कूडे' मना छूट 'पण्णत्ते उस छ । प्रश्रन। त्तरमा प्रधुश्री ४३ छ-'गोयमा ! गौतम ! 'पुण्णभदस्स' पूर्व सूत्रमा ४० नद्रटनी 'उत्तरेण' उत्तर awi णील तस्स' नासवान् पतनी दक्खिणेणं' दक्षिण दिशामा 'एत्थ' मी या 'ज' निश्चयथा 'हरिस्सहकूडे' ७२२स छूट ‘णामं कूडे' नामना Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्याह-'एग' एक 'जोयणसहस्सं' योजनसहस्रम् 'उद्धं' ऊर्ध्वम् ‘उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन अवशिष्टमायामविष्कम्भादिकम् 'जमगपमाणेणं' यमकप्रमाणेन-यमकनामकपर्वतप्रमाणेन ‘णेयव्वं' नेतव्यं-बोधपयं प्रापणीयं-बोध्यम् तथाहि-'अद्धाइज्जाइ जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं' एतच्छाया-अर्द्धवतीयानि योजनशतानि उद्वेधेन मूले एक योजनसहस्रम् आयामविष्कम्भेण, व्याख्या चास्य सुगमा, इत्यादि यमकपर्वतप्रमाणेनास्योद्वेधादि बोध्यम, अस्य हरिस्सहकूटस्याधिपतेरन्य राजधानीतो दिक्प्रमाणाधैर्विशेषो राजधान्यामिति तां राजधानीवक्तुकाम आह-'रायहाणी' राजधानी अग्रे वक्ष्यमाणा हरिस्तहाभिधाना 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि, एतदेव विशदयति-'असंखेज्जे' असंख्येयान्संख्यातुमशक्यान् 'दीवे' द्वीपान् अस्याग्रेतनेन "अवमाह्य" इत्यनेन सम्बन्धः, इदमुपलक्षम्तेन "मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाइ दीवसमुद्दाई वीईवइत्ता" इदं ग्राह्यम्, है । 'एगं जोयणसहस्सं' वह एक हजार योजन 'उद्धं' ऊपर की ओर 'उच्चत्तेणं' ऊंचा है। शेष आयाम विष्कंभादिक 'जमगपमाणेणं' जमक नाम के पर्वत के आयाम विष्कंभ के समान 'णेयव्य' जान लेवें । जो इस प्रकार से है-'अद्वाहज्जाई जोयणसयाई उव्वेहेणं मूले एगं जोयणसहस्सं आयामविक्खंभेणं ढाईसो योजन का उसका उद्वेध है, मूल में एक हजार योजन इसका आयाम विष्कंभ कहा है । इत्यादि समग्र कथन यमक पर्वत के कथनानुसार समझ लेवें। इस हरिस्सहकूट केअधिपति की राजधानी के कथन में अन्य राजधानी से दिकूप्रमाणादि से विशेषता है अतः उस राजधानी का कथन करते हैं-रायहाणी' इसकी राजधानी हरिस्सहा नामकी 'उत्तरेणं' इत्तर दिशा में 'असंखेज्जे' असंख्यात 'दीवो' द्वीपों को 'अवगाहन करके ऐसा आगे सम्बन्ध आता है यह द्वीप पद उपलक्षण है अतः 'मंदस्स पवयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाइं दीव. समुहाई वीईवइत्ता' यह पाठ ग्रहण होता है ? मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में दूट 'पण्णत्त' ४ छ. 'एगं जोयणसहस्सं' से छूट से 8M२ या 'उद्ध' उपनी सानु 'उच्चत्तेण' ये छे. मानु मायाम qिuia विगेरे 'जमगपमाणेण' यम नामना - तना पायाभ मिनी सरभु णेथव्व' सभ9 . २ मा प्रभा छे–'अद्धःइज्जाई जोयणसयाई उज्वेहेणं मूले एगं जोयणसहसं आयामविक्खंभेण' पढिसे। यान रे। તેને ઉધ છે. વિગેરે તમામ કથન યમક પર્વતના કથનાનુસાર સમજી લેવું. રાજધાનીના કથનમાં આ હરિસ્સહ કૂટના અધિપતિની અન્ય રાજધાનીથી દિક્ પ્રમાણાદિથી વિશેષપણું तथा से धानानु ४थन ४२वामा माछ.-'रायहाणी' सनी २४धानी रिस्स। नामनी 'उत्तरेण' उत्तर दिशामा 'असंखेज्जे' मसच्यात 'दीवे' दीवाने अति शन से प्रभारी माग स माव छ. २मा दी५ ५६ GAक्ष छे. तेथी 'मंदरस्स पव्यय Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम् ३०३ एतच्छाया-'मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण तिर्यगसंख्येयान् द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य' इति एतस्य व्याख्या स्पष्टा नवरम् व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य 'अण्णंमि' अन्यस्मिन् 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'उत्तरेणं उत्तरेण-उतरस्यां दिशि 'बारस' द्वादश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि द्वादशसहस्रयोजनानीति मुकुलितार्थः, 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'हरिस्सहस्स' हरिस्सहस्य-एतनामकस्य 'देवस्स' देवस्य-हरिस्सहकूटाधिपस्य 'हरिस्सहा' हरिस्सहा 'णाम' नाम 'रायहागी' राजधानी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, तस्या मानमाह-'चउरासीइ चतराशीति 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'आयामविक्खंभेग' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्य विस्ताराभ्याम् 'वे' द्वे 'जोयणसयसहस्साई' योजनशतसहस्रेयोजनलक्षे 'पण्णार्टि' पञ्चषष्टि 'च' च 'सहस्साई' सहस्राणि-योजनसहस्राणि 'छच्च' षट् च 'छत्तीसे' पत्रिंशानि-पत्रिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्तेति पूर्वेण सम्बन्धः, 'सेस' शेषम्-अवशिष्टम् उच्चखोद्वेधादिकम् - 'जहा' यथा-येन प्रकारेण 'चमरचंचाए' चमरचश्चाया:-'रायहाणीए' राजधान्याः चमरेन्द्रतिरछे असंख्यात द्वीप समुद्रों को उल्लंघन करके 'अण्णंमि' दूसरे जवुद्दीवे' जंधु द्वीप नाम के 'दीवे' द्वीप में 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'वारस जोयणसहस्साई' बारह हजार योजन 'ओगाहित्ता' प्रवेश करके 'एत्व' यहां पर 'ण' निश्चय से 'हरिस्सहस्स देवस्स' हरिस्सह नाम के देवका 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण्णत्ता' हरिस्सहा नामकी राजधानी कही है। अब इसका प्रमाण कहते हैं-'चउरासीइं जोयणसहस्साई' चोरासी हजार योजन 'आयाम विक्खंभेणं' उसकी लंबाई चोडाई कही है। 'बे जोयणसयसहस्साई' दो लाख योजन'पण्णडिं च सहस्साई पैंसठ हजार 'छच्च छत्तीसे'छत्तीस अधिक 'जोयणसए' छसो योजन 'परिक्खेवेणं' ईसका परिक्षेप कहा है । 'सेस' बाकिका समग्र कथन अर्थात् उच्चत्व उद्वेधादिक 'जहा' जैसा 'चमरचंचाए' चमस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीवसमुदाई वीईवइत्ता' मा ५४ अ याय छे. भन्६२ पतनी उत्तर दिशामा तिमिस च्यात द्वीप समुद्रीन सागीर 'अण्णमि' गीत 'जंबूहोवे' दी५ नामना 'दीवेद्वीपमा उत्तरेण' उत्तर दिशामा 'बारस जोयणमहस्साई' मार १२ यान 'ओगाहित्तो' प्रवेश परीने 'एत्थ' शडीयो 'ण' निश्चयथा 'हरिस्सहस्स देवस्स' हरिस्सर नामनावनी 'हरिस्सहा णामं रायहाणी पण् गत्ता' रिडी नामनी ॥धानी ४हेस छे. व तेनु प्रभा मतावामां आवे छे.-'चउरासीई जोयणसरस्साइ' यार्याशी संपर यो- 'आयामविक्ख भेण' तेनी मा पा डेसी छे. 'बे जोयणसयसहस्साइ' २ en५ योन 'पण्णद्धिं च सहस्साई' पांसर 'छच्च छत्तीसे' छत्रीस पधारे 'जोयण सए' सो यौन परिक्खेवेण' तेना परिक्ष५ ४३ छ. 'सेस' मादीनु समय ४थन अर्थात् या पाहि 'जहा' र 'चमरचंचाए' यभ२ या नामानी रायहाणीए' २०४पानानु Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे राजधान्यास्तम्नाम्न्याः 'तहा' तथा-तेन प्रकारेण 'पमाणं' प्रमाणं-प्रासादादीनां मानम् 'भाणियव्वं' भणितव्यं-वक्तव्यम्, अस्यां राजधान्यां हरिस्सहाभियो देवः 'माद्धीए महज्जुइए' महर्दिकः महाद्युतिकः 'जाव' यावत् 'पलिओवमटिइए' परिवसति यावत्पदसम्राह्याणि पदानि अष्टमसूत्रतः सव्याख्यानि सङ्ग्रहीतव्यानि, यद्यपीह जाव शब्दो नास्ति तथापि सूचकतया महर्दिकादिपदेनैव तद्बोद्धमुचितत्वेन तेषां सङ्ग्रहो बोध्यः । एवं हरिस्सइकूटस्थ नामविषयप्रश्नोत्तरे सूचयति, तेन तस्यान्वर्थनामप्रश्नसूत्रं बोध्यम् तथाहि-"से केणद्वेशं भंते ! एवं वुच्चइ-हरिस्सहकूडे २ ? गोयमा ! हरिस्सहकूडे बहवे उप्पलाई पउमाई हरिस्सहकूडसमवणाई जाव हरिस्सहे णामं देवे य इत्थ महिदीए जाव परिवसइ से तेणटेणं जाव अदुत्तरं च णं गोयमा ! जाव सासए णामधेज्जे" इति, एतच्छाया-अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हरिस्सहकूटं २ ? गौतम ! हरिस्सहकूटे बहूनि उत्पलानि पदमानि हरिस्सहकूटसमरचंचा नामकी 'रायहाणीए' राजधानी का कहा है 'तहा' वैसा ही 'पमाणं' प्रासादिक का मान 'भाणियव्वं' कह लेना चाहिए। इस राजधानी का अधिपति हरिस्सह नाम का देव है, वह 'महद्धीए महज्जुइए' महाऋद्धिसंपन्न एवं महाद्युतिवाला है 'जाव पलिओवमहिइए' यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला निवास करता है। यहां पर यावत्पदसे संग्राहक पद आठवें सूत्र से अर्थ सहित ग्रहण कर लेवें । यद्यपि यहां पर 'जाव' शब्द नहीं है तो भी महर्द्धिकादिक पद से उसको जान लेना उचित होने से उन पदों का संग्रह समझ लेवें । इस प्रकार हरिस्सह कट के नाम विषयक प्रश्नोत्तर में सूचित है । अतः उसका अन्वर्थ नाम विषय पाठ समझ लेवें । जो इस प्रकार है-'सेकेणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ हरिस्सहकूडे हरिस्सह कूडे ? गोयमा ! हरिस्सह कूडे बहवे उप्पलाई पउमाई हरिस्सहकूटसमवण्याइं जाव हरिस्सहे णाम देवे य इत्थ महिद्धीए जाव परिवसह से तेणटेणं जाव अदुत्तर च णं गोयमा ! जाव सासए नामधेज्जे' इति हे भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यह हरिस्सह नाम का हरिस्सह कूट है ? डस छ 'तहा' से प्रभारी ‘पमाण' प्रासादिनु भा५ 'भाणियव्वं' ४श न . ॥ पानीमा रिस नामना हे छे. ते हेव 'महद्धीए महज्जुइए' मडादि सपन्न तमा भातिवाछ. 'जाव पलिओवमद्विइए' यावत् ते व ४ ५त्योपमनी स्थिति છે તે નિવાસ કરે છે અહીંયાં યાત્પદથી સંગ્રહ થતા પદે આઠમાં સૂત્રથી અર્થ સહિત ઠાગ કરી લેવાં જે કે અહીંયાં “કાવ' શબ્દ આપેલ નથી તે પણ મહદ્ધિકાદિ પદથી તેને સમજી લેવું યોગ્ય હોવાથી તે પદોનો સંગ્રહ સમજી લે. એ રીતે હરિસ્સહ ફૂટ નાનામ વિષયક પ્રશ્નોત્તરમાં સૂચવેલ છે. તેથી તેના અન્વર્થ નામ સંબંધી પાઠ સમજી सेवा २ मा प्रमाणे छे.-'से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ हरिस्सह कूडे हरिस्सहकूडे ? गोयमा ! हरिस्सहकूडे बहवे उप्पलाई पउमाइं हरिस्सहकूड समवण्णाई जाव हरिस्सहे णामं देव य इत्थ महिद्धीए जाव परिवसइ से तेणद्वेणं जाव अदुत्तर च ण गोयमा ! जाव सासए नाम Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम् वर्णानि यावद् हरिस्सहो नाम देवश्चात्र महद्धिको यावत् परिवसति, तत् तेनार्थेन यावद् अदुत्तरं च खलु गौतम ! यावत् शाश्वतं नामधेयम्" इति । एतद्वयाख्या सुगमा, अथास्य वक्षस्कारपर्वतस्य नामार्थ पृच्छति-'से केणटेणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् उत्तरसूचकसूत्रे-गोयमा !' हे गौतम ! 'मालवंते' माल्यवति-एतनामके 'ण' खलु 'वक्खारपव्यए' वक्षस्कारपर्वते 'तत्थ तत्थ तत्र तत्र-तस्मिंस्तस्मिन् 'देसे देशे-स्थाने 'तहिं२' तत्र २-देश-देशे-देशावान्तरप्रदेशे 'बहवे' बहवः-अनेके 'सरियागुम्मा' सरिकागुल्माः --सरिका पुष्पलता विशेषः, तस्या गुल्मा:-स्तम्बाः, 'णोमालिया-गुम्मा' नवलिका शुल्मा:-नयमालिका -पुष्पलतातिशेषस्तद्गुल्माः, 'जाव' यावत् -'मगदंतियागुम्मा' मगइन्तिकागुल्मा:-मगदन्ति: कापुष्पलता विशेषस्तद्गुल्माः सन्तीति शेषः, 'ते' ते-पूर्वोक्ताः 'ण' खलु 'गुम्मा' गुल्माः उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं हे गौतम ! हरिस्सह कूट में बहुत से उत्सल एवं बहत से पद्म हरिस्सह कूट के समान वर्ण वाले है । यावत् हरिस्सह नामका देव जो महद्धिकादिक विशेषण विशिष्ट है वह यहां निवास करता है। इस कारण से इस कूट का नाम हरिस्सह ऐसा हुआ है। इससे अलावा हे गौतम! यह नाम शाश्वत है। अब इस वक्षस्कार पर्वत के नामार्थ विषयक प्रश्न करते हैं__'से केणटेणं मते ! एवं वुच्चई' हे भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मालवते वक्खारपव्वए' यह माल्यवन्त नामका वक्षस्कार पर्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं-'गोयमा !' हे मौतम ! मालवंते' माल्यवान् नाम के 'णं' निश्चय से 'ववखारपव्वए' वक्षस्कार पर्वत में 'तस्थ तत्थ उस २ 'देसे प्रदेश में अर्थात् स्थान में 'तहिं तहिं स्थान के एक भाग मे 'बहवो' अनेक 'सरियागुम्मा' सरिका नामक पुष्पवल्ली विशेष के समूह 'णोमाघेज्जे' तिसावन ध्या रथी सेम डेवामा मा छ, मा हुरिस नामना હરિસ્સહ ફૂટ છે? ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે-હે ગૌતમ! હરિસ્સહ કૂટમાં ઘણું ઉત્પલે અને ઘણુ પો હરિસહ ફૂટના સરખા વર્ણવાળા છે, યાવત્ હરિસ્સહ નામના દેવ કે જે મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણ વાળા છે. તે ત્યાં નિવાસ કરે છે. એ કારણથી આ કૂટનું નામ હરિસહ એવું પડેલ છે. તે સિવાય હે ગૌતમ ! એ નામ શાશ્વત નામ છે. वे से वक्ष२४१२ पतन नामार्थ समधी प्रश्न ४२ छ-'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चई' मगवन् ॥ १२yथी ये ४वामां आवे छे -'मालवते वक्खारपव्वए' । માલ્યવંત નામને વક્ષસ્કાર પર્વત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં શ્રી મહાર પ્રભુ કહે છે'गोयमा ! गौतम ! 'मालव'ते' माझ्यवान् नामना 'ण' निश्चयथी 'वक्खारपव्वए' पक्ष १२ मा तत्थ तत्थ' ते 'देसे' हेशमा अर्थात् स्थानमा 'तहिं तहि' स्थानना ४ मा 'बहवे' अने: 'सरिया गुम्मा' सरिता नाभन ५०५ पक्षी विशेषना समूह Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'दसद्धवणं' दशार्द्धवर्ण - पञ्चवर्ण-कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लवर्णमिति यावत् 'कुसुम' कुसुमं पुष्पं 'कुसुमेंति' कुसुमयन्ति कुसुमं जनयन्ति, अत्र कुसुमशब्दाज्जनि धात्वर्थे णिच् 'जे' ये 'णं' खलु गुल्माः तं - प्रसिद्धं भूमिभागमित्यग्रिमेण सम्बन्धः, 'मालवंतस्स' माल्यवतः - माल्यवन्नामकस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'बहुसमरमणिज्जं ' बहुसमरमणीयम् - अत्यन्तसमतलमत एव रमणीयं मनोहरं 'भूमिभागं' भूमिभागं 'वायविधुयग्गसाला मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं' वातविधुताग्रशालामुक्त पुष्पपुञ्जोपचारकलितं - वातेन वायुना विधुताग्रा - विधुतं - कम्पितमग्रम् - उपरिभागो यस्याः सा तथाभूता या शाला- शाखा तया मुक्तो यः पुष्पपुञ्जः - पुष्पसमूहः स एवोपचारः - शोमासामग्री तेन कलितं युक्तं 'करेंति' कर्वन्ति ततः 'मालवंते' माल्यवान् माल्यं - पुष्पमाल्यं पुष्पं वा नित्यमस्त्यस्येति माल्यवान - माल्यवन्नामकः 'य' च ' इत्थ' अत्र -१ - अस्मिन् माल्यवति वक्षस्कारपर्वते देवः - अधिष्ठाता परिवसतीत्यग्रेतनेन सम्बन्धः, स च कीदृश: ? इत्याह- 'महद्धिए जाव पलिओ मट्ठिए' महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः - महर्द्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकपदानामत्र यावत्पदेन सङ्ग्रहो बोध्यः, स च सार्थोऽष्टमसूत्राद्बोध्यः । तेन तद्यो लिया गुम्मा' नवमालिका नामकी पुष्पलता विशेष के 'समूह जाव' यावत् 'मग' दतिया गुम्मा' मगदंतिका नामक पुष्पलता के समूह हैं । 'तेणं गुम्मा' वे समूह 'दसद्धवर्ण' कृष्ण नील लोहित हारिद्र एवं शुक्ल ऐसा पांच वर्ण वाले 'कुसुमं कुसुमें ति' पुष्पों को उत्पन्न करते हैं । 'जे णं' जो वल्ली समूह 'मालव' तस्स' माल्यवान नामके 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'बहुसमरमणिज्ज' अत्यन्त समतल होने से रमणीय 'भूमिभागं' भूमि भाग के वायविधुयग्गसाला मुक्कपुष्फपुंजो वयारकलियं वायु के द्वारा कंपित अग्रभाग वाली शाखाओं से गिरे हुए पुष्प समूह रूपी शोभा सामग्री से युक्त 'करेति' करते हैं । तथा 'मालवंते' माल्यवान नाम का देव ' इत्थ' यहां पर निवास करते हैं यह सम्बन्ध आगे कहा जायगा वह देव कैसा है ? सो कहते हैं - 'महद्धीए जाब पलिओ मट्ठिइए' महर्द्धिक से 'णोमालिया गुम्मा' नव भावि नामनी पुष्पलता विशेषना समूह 'जाव' यावत् 'माग दंतिया गुम्मा' भाग इति नामनी पुण्यवताना समूह छे. 'तेणं गुम्मा' से समूह 'दस द्धवणं' कृष्ण, नीस, सोहित, हरिद्र, भने शुभ्स सेभ यांय रंगवा 'कुसुमं कुसुमेंति' यो उत्पन्न ४२ छे. 'जेणं' ने सता सभूइ 'मालवंतस्स' भादयवान् नाभना 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्४२ पर्वतना 'बहुसमरमणिज्जं' अत्यंत समरस होवाथी रमणीय सेवा 'भूमिभागं' भूमिभागने 'वायविधुयग्गसाला मुक्कपुष्प पुं जोवयारकलिय" पवनथी ४५यमान अथलागवाणी सामायोथी भरेला पुण्य समूह ३पी शोलाथी युक्त 'करें ति' रे छे. तथा 'मालव'ते' भाझ्यवान् नामना देव ' इत्थ' त्या निवास १रे छे से सम्बन्ध भागण उडेवामां आवशे ते देव देवा हे ? ते छे 'महद्धा जाव पलिओ मट्टिइए' भर्द्धि ચાવતુ એક પત્યેાપમની સ્થિતિવાળા છે. અહીંયાં મહદ્ધિક પદથી લઈ ને પલ્યાપમની Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २५ हरिस्सहकूटनिरूपणम् ३०७ गादसावपि माल्यवानित्युच्यते, तदेवाह-'से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ स तेनार्थन गौतम एवमुच्यते, सः-अनन्तरोक्तो माल्यवान् वक्षस्कारपर्वतः तेन-पूर्वोक्तेन अर्थेनकारणेन एवम्-इत्थम् उच्यते-माल्यवानिति । 'अदुत्तरं च णं' अदुत्तरम्-अथ च खलु 'जाव णिच्चे' यावद् नित्यम्-नित्य इति पर्यन्तः पाठो बोध्यः॥सू०२५॥ इह द्विविधा विदेहाः पूर्वापरभेदाभ्याम्, तत्र पूर्वविदेहाः मेरोः पूर्वस्यां सीताख्यमहानया दक्षिणोत्तरभागाभ्यां द्विधा विभक्ताः, अपरविदेहाश्च मेरोः पश्चिमायां सीतामहानया कृतद्विभागाः एवं विदेहानां भागचतुष्टयं प्रदर्शितम्, अधुनाऽमीषु विजयवक्षस्कारादिव्यवस्था लाघवाय पिण्डार्धगत्या सूत्रकारेण दर्शयिष्यमाणया रीत्या दुरावगमाः प्रतिभान्ति विजयादय इति विस्तरेण प्ररूप्यन्ते, तत्रैकस्मिन् भागे माल्यवत्प्रभृति गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वतस्यालेकर पल्योपम की स्थिति पर्यन्त के उसके विशेषण वाचक पदों का यावत्पद से संग्रह जान लेवें । वह समग्र पाठ अर्थ सहित आठवें मूत्र से समझ लेवें । इस देव के योग से यह पर्वत भी माल्यवान् नाम से कहा जाता है वही सूत्र. कार कहते हैं 'से तेणटेणं गोयमा एवं वुच्चइ' इस कारण से हे गौतम ! यह माल्यवान् पर्वत है ऐसा कहा जाता है। 'अदुत्तरं च गं' इससे अलावा भी 'जाव णिच्चे यावतू यह माल्यवान ऐसा नाम नित्य है। यहां यावत् पद से नित्य पर्यन्त का संपूर्ण पाठ ग्रहण कर लेवें ॥२५॥ यहां पूर्व एवं अपर के भेद से विदेह दो कहा है इसमें पूर्वविदेह मेरुकी पूर्व दिशा में सीता महा नदी के दक्षिण तथा उत्तर भाग से दो भाग में अलग किया है। अपरविदेह मेरु की पश्चिम दिशा में सीता महा नदी के द्वारा विभक्त है। इस प्रकार विदेह के चार भाग दिखाया है। अब इसमें विजयव. क्षस्कारादि की व्यवस्था को संक्षिप्त करने के लिए पीडार्ध गति से सूत्रकार द्वारा સ્થિતિ પર્યન્તના તેના વિશેષણ વાચક પદને સંગ્રહ યાવત્પદથી સમજી લે. એ સંપૂર્ણ પાઠ અર્થ સાથે આઠમાં સૂવથી સમજી લેવું. એ દેવના યેગથી આ પર્વત પણ માણ્યવાન नामथी ४उवाय छे. 'से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चई' से ४२४थी गौतम! मामात्यवान् पर्वत छ, सम वामां आवे छे. 'अदुत्तरं च ण" ते शिवाय ५५५ 'जाव णिच्चे' થાવત્ આ માલ્યવાનું એવું નામ નિત્ય છે. અહીંયાં યાવત્પદથી નિત્ય પર્યન્તને સંપૂર્ણ પાઠ ગ્રહણ કરી લેવો છે સૂ. ૨૫ | અહીંયાં પૂર્વ અને અપરના ભેદથી વિદેહ બે કહ્યા છે. તેમાં પૂર્વ વિદેહ મેરૂની પૂર્વ દિશામાં સીતા મહા નદીના દક્ષિણ તથા ઉત્તર ભાગથી બે ભાગમાં અલગ કર્યા છે. અપર વિદેહ મેરૂની પશ્ચિમ દિશામાં સીતામહા નદી દ્વારા અલગ કરાયેલ છે. એ રીતે વિદેહના ચાર ભાગ બતાવ્યા છે. હવે તેમાં વિજય વક્ષસ્કાર દિની વ્યવસ્થાને સંક્ષિપ્ત કરવા માટે પડાઈ ગતિથી સૂત્રકાર દ્વારા કહેવામાં આવનારી રીતથી વિજયાદિ દુર્બોધ જેવા પ્રતીત થાય છે. તેથી વિસ્તાર પૂર્વક તેનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. તેમાં એક Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सन्न एको विजयः, तथा चत्वारः ऋजवो वक्षस्कारपर्वतास्तिस्रोऽन्तनधः, एतत्सप्तकस्या ऽन्तराणि, प्रत्यन्तरे एकैकविजयसत्त्वेन षडू विजयाः, एते चत्वारो वक्षस्कारपर्वता एकैक मध्यवर्तिनद्याऽन्तरिता इति चतुर्णा वक्षस्कारपर्वतानां मध्ये तिस्रोऽन्तन द्य इति तद्वयवस्था बोध्य, तथा वनमुखमवधीकृत्यैको विजय इति प्रतिविभागेऽष्टौ विजयाः सिद्धाः-चत्वारो वक्षस्कारगिरयस्तिस्रोऽन्तनद्य एकं धनमुखमिति इयमत्र तद्वयवस्था-पूर्वविदेहेषु माल्यवतो गजदन्तपर्वतस्य पूर्वस्यां सीताया महानद्या उत्तरस्यामेको विजयः, ततः पूर्वस्यां प्रथमो वक्षस्कारपर्वतः, ततः पूर्वस्यां द्वितीयो विजयः, ततः पूर्वस्यां प्रथमाऽन्तर्नदी, एवं क्रमेण तृतीयो विजयो द्वितीयो वक्षस्कारपर्वतश्चतुर्थों विजयो द्वितीयाऽन्तनदी पञ्चमो विजयस्तृ. तीयो वक्षस्कारगिरिः, पष्ठो विजयस्तृतीयाऽन्तनदो, सप्तमो विजयश्चतुर्थों वक्षस्कारगिरिकही जाने वाली रीति से विजयादि दुर्बोधसा प्रतीत होता है। अतः विस्तार पूर्वक इसका निरूपण करते हैं । उसमें एक भाग में माल्यवदादि गजदंताकार वक्षस्कार पर्वत के नजदीक एक विजय कहा है । तथा चार ऋजु वक्षस्कार पर्वत तीन अन्तर्नदियां इन सातों के अन्तर, प्रत्यन्तर में एक एक विजय होने से छ बिजय हो जाते हैं । ये चार वक्षस्कार पर्वत एक एक मध्यवर्तिनी म्दी से अंतरित है, इस प्रकार चार वक्षस्कार पर्वत के बीच में तीन अन्तर्नदीयां होती है, इस प्रकार की इनकी व्यवस्था समझें। तथा प्रत्येक वनमुख में एक प्रक विजय कहा है इस प्रकार प्रति विभाग में आठ विजय सिद्ध होते हैं ? चार वक्षस्कार पर्वत तीन अन्तदीयां एक वनमुख इस प्रकार उसकी व्यवस्था होती है-पूर्वविदेह में माल्यवान् गजदन्त पर्वत की पूर्व दिशा में तथा सीता महानदी की उत्तर दिशा में एक एक विजय होता है । उससे पूर्व में पहला वक्षस्कार पर्वत आता है। उसके पूर्व में दूसरा विजय, उससे पूर्व में पहली अन्तर्नदी, इस प्रकार के क्रम से तीसरा विजय तथा दूसरा वक्षस्कार पर्वत, चोथा विजय तथा दूसरी ભાગમાં માલ્યવદાદિ ગજદન્તાકાર વક્ષસ્કાર પર્વતની નજીક એક વિજયે કહેલ છે. તથા ચાર ૪જી વક્ષસ્કાર પર્વત ત્રણ અન્તનદી એ સાતેના અંતર, પ્રત્યુત્તરમાં એક એક વિજય હેવાથી છ વિજય થઈ જાય છે આ ચાર વક્ષસ્કાર પર્વત એક એક મધ્યમાં આવેલ નદીથી અન્તરવાળા છે, આ રીતે ચાર વક્ષસકાર પર્વતની વચમાં ત્રણ અન્તર્નાદી થાય છે. આ રીતની વ્યવસ્થા સમજવી. તેથી દરેક વનના મુખ પ્રદેશમાં એક એક વિજય કહેલ છે. આ રીતે દરેક વિભાગમાં આઠ વિજયે સિદ્ધ થાય છે. ૧ ચાર વક્ષસ્કાર પત, ત્રણ અન્તર્નાદીયે, એક વનમુખ આ રીતે તેની વ્યવસ્થા હોય છે પૂર્વ વિદેહમાં માલ્યવાન ગજદન્ત પર્વતની પૂર્વ દિશામાં તથા સીતા મહા નદીની ઉત્તર દિશામાં એક એક વિજય હોય છે. તેનાથી પૂર્વમાં પહેલે વક્ષસ્કાર પર્વત આવે છે. તેની પૂર્વમાં બીજુ વિજય, તેનાથી પૂર્વમાં પહેલી અન્તર્નાદી, આ રીતના કમથી ત્રીજુ વિજય તથા બીજો વક્ષસ્કાર પર્વત ચેાથ વિજય તથા બીજી અન્તર્નાદી, પાંચમું વિજય અને ત્રીજો વક્ષસ્કાર પર્વત છડું Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३०९ रष्टमो विजय एवं जगत्यासन्न वनसुखमिति, एवं सीतामहानद्या दक्षिणस्यामपि सौमनसगजदन्तगिरेः पूर्वस्यामय मेव विजयादि व्यवस्थाक्रमः, तथा सीतामहानद्या उत्तरस्यामपि गन्धमादनस्य पश्चिमायां विजयादि स्थापनाक्रमो बोध्यः । अथ प्रदक्षिणक्रमेण विजयादि निरूपणेऽयमेव प्रथमइति, प्रथमविभागमुखे कच्छविजयनिरूपयिषुराह मूलम-कहि णं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्त दक्षिणेगं चित्तकूडस्स वक्खारपवयस्स पञ्चस्थिमेणं मालवं. तस्त वक्वारपायस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे पलियंकसंठाणसंठिए गंगा-सिंधुहिं महाणईहिं वेयद्धेण य पव्वएणं छन्भागपविभत्ते सोलस जोयणसहस्साइं पंच य बाणउए जोयणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं दो जोयणसहस्साई दोणि य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेणंति कच्छस्स णं विजयस्त बहुमझदेसभाए एत्थ णं वेयद्धे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं कच्छविजयं दुहा विभयमाणे २ चिटइ, तं जहा-दाहिणद्धकच्छं १ च उत्तरद्धकच्छं चेति, कहिणं भंते! अंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते ?, गोथमा! वेयद्धस्स पवयस्त दाहिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पचत्थिमेणं मालतस्स वक्वारपवयस्त पुरस्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दोवे दीवे महाअन्तर्नदी, पांच विजय एवं तीसरा वक्षस्कार पर्वत, छट्ठा विजय तथा तीसरी अन्तर्नदी, सातवां विजय तथा चौथा वक्षस्कार पर्वत, आठवां विजय एक जगती के नजदीक का वनख ईसी प्रकार सोता महानदी की दक्षिण दिशा में भी सौमनस तथा मजदन्त पर्वत के पूर्व में यही विजयादि व्यवस्था का क्रम है तथा सीता महानदी के उत्तर में नया गन्धमादन के पश्चिम में भी विजगदि की स्थापना का क्रम समझ लेवे। વિજા અને ત્રીજી અનદી, સાતમું વિજ તથા ચેશે વક્ષસ્કાર પર્વત, આઠમું વિજય, અને એક જગતીની નજીકનું વન ખ એ રી સીતા મહા નદીની ઉત્તરમાં તથા ગન્ધમાદનની પશ્ચિમમાં પણ વિજ્યાદિની સ્થાપનાને કેમ સમજી લે. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र विदेहे वासे दाहिणद्धकच्छे णामं विजए पाणत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीवित्थिणे अट्ठ जोयणसहस्साई दोणि य एगसत्तरे जोयणसए एकं च एगूणवीसइ भागं जोयणस्त आयामेणं दो जोयणसहस्साई दोण्णि य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेगं पलियंकसंठाणसंठिए, दाहिणद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तं जहा कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमे हिं चेन, दाहिणद्वकच्छे णं भंते ! विजए मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा! तेसिणं मणुयाणं छविहे संघयणे जाव सम्पदुक्खागमंतं करेंति । ___ कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे विजए वेयद्धे णाम पव्वए ?, गोयमा दाहिणद्धकच्छविजयस्स उत्तरेणं उत्तरद्धकच्छस्स दाहिणेणं चित्तकूडस्स पञ्चस्थिमेणं मालवंतस्त वक्खारपव्वयस्त पुरत्थि मेणं एत्थणं कच्छे विजए वेयद्धे णामं पाए पण्णत्ते, तं जहा पाईणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिणे दुहा वक्खारपवए पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए जाव दोहिं वि पुट्टे भरहवेयद्धसरिसए णवरं दो गाहाओ जीवा धणुपटुं च णं कायव्वं विजयविक्खंभसरिसे आयामेणं, विक्खंभो उच्चत्तं उव्वेहो तहेव च विजाहर आभियोगसेढीओ तहेव, णवरं पणपणं २ विज्जाहरणगरावासा पण्णत्ता,आभियोगसेढीए उत्तरिल्लाओ सेढीओ सीयाए ईसाणस्स सेसाओ सकस्सत्ति, कुडा-सिद्धे १ कच्छे २ खंडग ३ माणी४ वेयद्ध५ पुण्ण ६ तिमिसगुहा ७ कच्छ ८ वेसमणे ९ वा वेयद्धे होंति कूडाइं ॥१॥ कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते ?, गोयमा ! वेयद्धस्स फवयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपवयस्स दाहिणेणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे जाव सिझंति, तहेव णेयव्वं सव्वं । कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरद्धकच्छे विजए सिंधुकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते ?, गोयमा ! Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३११ मालवंतस्त वक्खारपव्ययस्स पुरथिमेणं उसभकूडस्स पञ्चत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरडकच्छविजए सिंधु कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, सर्टि जोयणाणि आयामविक्खंभेणं जाव भवणं अट्रो रायहाणी य णेयव्वा, भरहसिंधु कुंडसरिसं सव्वं णेयव्वं जाव तस्स णं सिंधुकुंडस्स दाहिजिल्लेणं तोरणेणं सिंधुमहाणई पवूढा समाणी उत्तर कच्छविजयं एज्जेमागी२ सत्तहिं सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी२ अहे तिमि. सगुहाए वेयद्धपवयं दालयित्ता दाहिणकच्छविजयं एज्जेमाणी २ चोदसहिं सलिलाप्सहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीयं महाणई समप्पेइ, सिंधु महाणई पवहे य मूले य भरहसिंधुसरिसा पमाणेणं जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ता । कहिणं भंते! उत्तरद्धकच्छविजए उसभकूडे णामं पवए पण्णत्ते ?, गोयमा ! सिंधुकुंडस्स पुरथिमेणं गंगाकुंडस्स पञ्चत्थिमेणं णीलवंतस्त वासहरपव्वयस्त दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ ण उत्तरद्धकच्छविजए उसहकूडे णामं पवए पण्णत्ते, अट्ट जोयणाइं उद्धं उच्चत्तेणं तं चेव पमाणं जाव रायहाणी से णवरं उत्तरेणं भाणियव्वा । कहि णं भंते ! उत्तरद्धकच्छे विजए गंगाकुंडे णामं कुंडे पग्णत्ते ?. गोयमा ! चित्तकूडस्स वक्खारपवयस्त पञ्चत्थिमेणं उसहकूडस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं उत्तरद्धकच्छे गंगाकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते सहि जोयणाई आयामविक्खंभेणं तहेव जहा सिंधू जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्ता । से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए ?, गोयमा ! कच्छे विजए वेयद्धस्त पव्वयस्त दाहिणेणं सीयाए महाणईए पञ्चत्थिमेणं दाहिणद्धकच्छविजयस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं खेमाणामं रायहाणी पण्णत्ता विणीया रायहाणीसरिसा भाणियव्वा, तत्थणं खेमाए रायहाणीए कच्छे णामं राया समुप्पजइ, महया हिमवंत जाव सव्वं भरहोयत्रणं भाणियव्वं निक्खमणवज्जं सेसं सत्वं भाणियत्वं Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जान भुंजए माणुस्सए सुहे कच्छ णासधेज्जे य कच्छे इत्यदेवे महिडीए जाव पलिओवमट्ठिईए परिसर से एएण गोमा ! एवं बुच्चइ कच्छे विजए कच्छे विजए जाव णिच्चे ॥सू० २६ ॥ " छाया-क खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वोघे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सीताया महानद्या उत्तरेण नीलवतो वर्षपर्वतस्य दक्षिणेन चित्रकूटस्य वक्षस्कापर्वतस्य पश्चिमेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खल जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे कच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतिचीनविस्तीर्णः पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः गङ्गा-सिन्धुभ्यां महानदीभ्यां वैताढचेन च पर्वतेन षड् मागप्रविभक्तः षोडश योजनसहस्राणि पञ्च च द्विनवतानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेन द्वे योजनसहस्रे द्वे च त्रयोदशोत्तरे योजनशते किञ्चिद्विशेषाने विष्कम्भेणेति ! कच्छस्य खलु विनयस्य बहुमध्यदेश भागे अत्र खलु वैताढ्यो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, यः खलु कच्छं विजयं द्विधा विभजमानः २ तिष्ठति, तद्यथा- -दक्षिणार्द्ध कच्छमुत्तरार्द्ध कच्छं चेति, क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! वैतान्यस्य पर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन माल्यaat aardar पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीन प्रतीचीनविस्तीर्णः अष्ट योजनसहस्राणि द्वे च एकसप्तते योजनशते एकं च एकोनविंशतिभागं योजनस्य आयामेन द्वे योजनसहस्रे द्वे च त्रयोदशोत्तरे योजनशते किञ्चिद्विशेषोने विष्कम्भेण पल्यङ्क - संस्थानसंस्थितः, दक्षिणार्डकच्छस्य खलु भदन्त ! विजयस्य कीदृशक आकार भावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! बहुसमरमणीय भूमिभागः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - यावत् कृत्रिमैश्चैव अकृत्रिमैश्चैव । दक्षिणार्द्धकच्छे खलु भदन्त ! विजये मनुजानां कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! तेषां खल मनुजानां षड्विधं संहननं यावत् सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति । क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदे वर्षे कच्छे विजये वैताढ्यो नाम पर्वतः ?, गौतम ! दक्षिणार्द्ध कच्छ विजयस्य उत्तरेण उत्तरार्द्धकच्छस्य दक्षिणेन चित्रकूटस्य पश्चिमेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु कच्छे विजये वैताढ्यो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- प्राचीनप्रतीचिनाऽऽयतः उदीचीदक्षिणविस्तीर्णः द्विधा वक्षस्कारपर्वतौ स्पृष्टः- पौरस्त्यया कोट्या यावद् द्वाभ्यामपि स्पृष्टः भरतवैताढ्यसदृशकः नवरं द्वे बाहे जीवा धनुष्पृष्ठं च न कर्तव्यम्, विजयविष्कम्भसदृशः आयामेन, विष्कम्भ उच्चत्वमुद्वेधस्तथैव च विद्याधराभियोग्यश्रेण्यौ तथैव नवरं पञ्चपञ्चाशदुरविद्याधर नगरावासाः प्रज्ञप्ताः, आभियोग्यश्रेण्यां अत्तराह्यः श्रेणयः सीतायाः ईशानस्य शेषाः शक्रस्येति, कूटानि - सिद्धं १ कच्छं २ खण्डक ३ माणि ४ वैताढ्य ५ पूर्ण ६ तमिस्रगुद्दा ७ कच्छं ८ वैश्रवणं ९ वा वैता ढये भवन्ति कूटानि |१| का खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महा Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् विदेहे वर्षे उत्तरकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! वैताढयस्य पर्वतस्य उत्तरेण नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे यावत् सिध्यन्ति, तथैव नेतव्यं सर्वम्, क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उत्तरकच्छे विजये सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम! माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन ऋषभकूटस्य पश्चिमेन नीळवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षि णात्ये नितम्बे अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उत्तरार्द्धकच्छविजये सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, षष्टिं योजनानि आयामविष्कम्भेण यावद् भवनम् अर्थों राजधानी च नेतव्या, भरतकुण्डसदृशं सर्व नेतव्यम्, यावत् तस्य खलु सिन्धुकुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन सिन्धु. महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरार्द्धकच्छविजयम् इयती २ सप्तभिः सलिलासहः आपूर्यमाणा २ अधस्तमिस्रगुहायाः वैताढयपर्वतं दारयिखा दक्षिणकच्छविजचं इर्यती २ चतुर्दशभिः सलिलासहौः समग्रा दक्षिणेन सीतां महानदी समाप्नोति, सिन्धु महानदी प्रवहे च मूले च भरतसिन्धुसदृशी प्रमाणेन यावद् द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता। क्व खलु भदन्त ! उत्तरार्द्धकच्छविजये ऋषभकूटो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सिन्धुकुण्डस्य पौरस्त्येन गङ्गाकुण्डस्य पश्चिमेन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु उत्तरार्द्धकच्छविजये ऋषभकूटो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन तदेव प्रमाणं यावद् राजधानी सा नवरम् उत्तरेण भणितव्या । क्व खलु भदन्त ! उत्तरकच्छे विजये गङ्गाकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन ऋषभकूटस्य पर्वतस्य पौरस्येन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु उत्तरार्द्धकच्छे गङ्गाकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, षष्टिं योजनानि आयामविष्कम्भेण तथैव यथा सिन्धुः यावद् वनषण्डेन च सम्परिक्षिप्ता । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-कच्छो विजयः कच्छो विजयः?, गौतम ! कच्छे विजये वैताढयस्य पर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण गङ्गाया महानद्याः पश्चिमेन सिन्ध्वा महानद्याः पौरस्त्येन दक्षिणाद्धकच्छविजयस्य बहुमध्यदेशभागे, अत्र खलु क्षेमा नाम राजधानी प्रज्ञप्ता विनीता राज. धानी सदृशी भणितव्या, तत्र खलु क्षेमायां राजधान्यां; कच्छो नाम राजा समुत्पद्यते, महाहिमवत्० यावत् सर्व भरतसाधनं भणितव्यम् निष्क्रमणवर्जे शेष सर्व भणितव्यं यावद् भुक्ते मानुष्यकानि सुखानि, कच्छनामधेयश्च कच्छोऽत्र देवो महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक परिवसति, स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-कच्छो विजयः कच्छो विजयः यावत् नित्यः ॥सू०२६॥ ___ अब प्रदक्षिणा के क्रम से विजयादि के निरूपण में यही पहला है, इस हेतु से प्रथम विभागमुख से कच्छाविजय का निरूपण करने की इच्छा से सूत्रकार હવે પ્રદક્ષિણના કમથી વિજ્યાદિના નિરૂપણમાં આજ પહેલે છે, એ હેતુથી પહેલાં FRIभुमयी ४२७ (4यनु नि३५४४ ४२वानी छायी सूत्रा२ सूत्र ४९ छे–'कहिणं ज० ४० Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जम्बूद्वीपप्रति टीका- 'कहि णं भंते ।' इत्यादि - 'कहि णं भंते !" क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दी वे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे' कच्छ ः 'णार्म' नाम 'विजए' विजय: - चक्रवर्ति विजेतव्य - भूविभागरूपः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह - 'गोयमा !" गौतम ! 'सीयाए महाईए' सीताया महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण - उत्तरदिशि, अत्र सप्तम्यन्तादेन पूप्रत्ययः, एवमग्रेऽपि, तथा 'णीलवंतस्स' नीलवत: 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दक्खिणं' दक्षिणेन - दक्षिणदिशि तथा 'चित्त कूडस्य' चित्रकूटस्य - एतन्नामकस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमदिशि 'मालवंतस्स' माल्यवतःगजदन्ताकारस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कार पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि - 'एत्थ ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे णामं विजए' कच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञतः, स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह - 'उत्तरदाहिणायए' उत्तर दक्षिणार्यतः- उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायतः - दीर्घः, तथा 'पाइणपडीणसूत्र कहते हैं - 'कहिणं भंते ! इत्यादि टीकार्थ- 'कहि ण भंते ! जंबूदीवे दीवे' हे भगवन जंबू द्वीप नाम के द्वीप में 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'कच्छे णामं' कच्छ नामका 'विजए' विजय चक्रवर्ति के द्वारा जितने योग्य भूमिभागरूप 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर मे प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! हे गौतम! 'सीयाए महाणईए' सीता महानदी के 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में तथा 'णीलवतस्स' नीलवान् 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधर पर्वत के 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में तथा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नामका 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में 'मालवंतस्स' गजदन्ताकार माल्यवान 'वक्खार पव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'पुरत्थिमेणं' पूर्वदिशा में 'एत्थ णं' यहां पर निश्चय से 'जंबू दीवे दीवे' जंबू द्वीप नाम के द्वीप से 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'कच्छे णामं विजए' कच्छ नामका विजय 'पण्णत्ते' कहा है । वह विजय किस प्रकार का है ? इस अपेक्षा निवृत्ति के लिए कहते हैं- 'उत्तरदाहिणायए' वह भंते!' त्याहि अर्थ – 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे' हे भगवन् वृद्वीप नामना द्वीभां 'महाविदेहे वासे' भावित क्षेत्रमा 'कच्छे णाम' ४२४ नामनु 'विजय' विनय येडवति द्वारा तवाने योग्य भूभिलाग ३५ 'पण्णत्ते' 'डेस छे ? या प्रश्नना उत्तरां प्रभुश्री हे छे'गोयमा ! ' हे गौतम! 'सीयाए महाणईए' सीता भड्डा नहीनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामां तथा 'णीलवंतस्स' नीतवान् 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधर पर्वर्तनी 'दक्खिणेणं' दृक्षिशुद्दिशाभां तथा 'चित्तकूडस्स' चित्रछूट नामना 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्५२ पर्वतनी 'पच्चत्थिमेणं' पूर्व द्विशाभां ‘एत्थणं' भडीयो निश्चय 'ज'बुद्दीवे दीवे' यूद्वीप नामना द्वीपना 'महाविदेहे वासे' महाविद्वेड क्षेत्रमां 'कच्छे णामं विजए' ४२७ नाभनु विनय 'पण्णत्ते' हे छे. ते विभय देवु छे? ते अपेक्षानी निवृत्ति भाटे उड़े हे- 'उत्तरदाहिणायए' ते उत्तर दक्षिण दिशामा सांभु Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३१५ वित्थिण्णे' प्राचीन प्रतीचीनविस्तीर्णः-पूर्वपश्चिमयोर्दिशोविस्तारयुक्तः, तथा 'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थित:-पर्यङ्काकारेण संस्थितः, आयतचतुरस्रत्वात्, 'गंगा-सिंधूहि' गङ्गा-सिन्धुभ्याम् 'महाणई हिं' महानदीभ्याम् 'वेयरेण य' वैताढन्येन च-वैताढय-नामकेन च 'पव्यएण' पर्वतेन 'छब्भागाविभत्तः' षड्भागप्रविभक्तः-षभिर्भागैःप्रविभक्तः-षड्धा खण्डितः एवमन्येऽपि विजया भावनीयाः, परन्तु सीताया उदीचीनाः कच्छादयः शीतोदाया दाक्षिणात्याः पक्ष्मादयो गङ्गा सिन्धुभ्यां पडधा विभक्ताः, सीताया दाक्षिणात्या वच्छादयः शीतोदाया उदीचीना वप्रादयो रक्तारक्तवतीभ्यां षडधा विभक्ता इति उत्तरदक्षिणायतेति विशदयति 'सोलस' इत्यादि 'सोलस' षोडश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'पंच य' पश्च च 'बाणउए' द्विनवतानि-द्विनवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'जोयणस्स' योजनस्य 'दोण्णि य' द्वौ च 'एगूणवीसइभाए' एकोनविंशतिभागौ 'आयामेणं' आयामेनउत्तर दक्षिण दिशा में लंबा है ‘पाईणपईणवित्थिपणे' पूर्वपश्चिम दिशा में विस्तृत है तथा 'पलियंकसंठाणसंठिए' पर्यङ्काकार से स्थित है, लबा एवं चौकोण होने से । 'गंगासिंधूहि' गंगा एवं सिंधु नामकी 'महाणईहिं' महानदी से तथा 'वेयड्रेण य' वैताढय नाम के 'पन्चएण' पर्वत से 'छम्भागपविभत्त' छ भाग मे विभक्त होता है। इसी प्रकार अन्य विजयों के संबंध में भी समझ लेवें। परंतु सीता महानदी की उत्तर दिशा में कच्छादि विजय शीतोदा की दक्षिण दिशा के पक्षमादि गंगा एवं सिंधु महानदी के द्वारा छ प्रकार से विभक्त होता है। सीता महानदी की दक्षिण ओर के वच्छादि तथा शीतोदा की उत्तर दिशा में वप्रादि रक्त एवं रक्तवती नदी के द्वारा छ प्रकार से विभक्त होता है। ___ अब उत्तर दक्षिण की दीर्घता को स्पष्ट करते हैं-'सोलसजोयणसहस्साई' सोलह हजार योजन 'पंचय वाणउए' जोयणसए' पांचसो विरानवें अर्थात १६५९२१९ जोयणस्स' एक योजन के 'दोणिय' दो 'एगूणवीसइ भागे' उन्नीसवां छ. 'पाईणपईणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशामा विस्तृत छ. तथा 'पलियंकसंठाणसंठिए' पय ४४२ शैत स्थित है. सामु भने यतु । वाथी 'गंगासिंधूहि ॥ भने सिधु नामनी 'महोणईहि' महा नहीथी तथा 'वेयड्ढेणय वैतादय नामना पव्वएणं' तथा 'छम्मागविभत्ते' छ भागमा म थाय छे. मा०४ Na मीन विन्याना समयमा ५ समल લેવું. પરંતુ સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં કચ્છાદિ વિજયે શીતાદાની દક્ષિણ દિશાના પમાદિ ગંગા અને સિંધુ મહાનદી દ્વારા છ પ્રકારથી અલગ થાય છે. સીતા મહાનદીની દક્ષિણ તરફના વછાદિ તથા શીતેદાની ઉત્તર દિશામાં વપ્રાદિ રક્ત અને રક્તવતી નદી દ્વારા છ ભાગમાં અલગ થાય છે. हवे उत्तर दक्षिरानी मा ५८ ४रे छ-'सोलस जोयणसहरसाई' सो र यो पंचय बाण उए' पायसे। मासु 'जोयगस्स' मे याना 'दोण्णिय' में 'एगूणवीसइ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दैर्येण, इहोपपत्ति रेवम्-योजन ३२६८४ कला ८ रूपाद्विदेहविस्तारात्सीतायाः शीतोदाया वा नद्या विस्तारो पञ्चशतमित योजनलक्षणः प्राप्यते, यथोक्तमानं शेषस्या॰ लभ्यते, इह ययपि सीतायाः शीतोदाया वा नद्याः समुद्रप्रवेशस्थाने एव पञ्चशतयोजनप्रमाणो विस्तारोऽस्ति अन्यत्र तु स्वल्पः स्वल्पतरो विस्तारोऽस्ति, तथापि कच्छादिविजयसमीपे तटद्वयवर्तिनौ रमणदेशावादाय पञ्चशतयोजनप्रमाणो विस्तारो लभ्यत इति, कच्छविजयस्योत्तरदक्षिणायतखविवरणं गतम्, अधुना पूर्वपश्चिमविस्तीर्णत्वं विवियते-'दो जोयणसहस्साई' इत्यादि-द्वे योजनसहस्र 'दोणि य' द्वे च 'तेरसुत्तरे' त्रयोदशोत्तरे-त्रयोदशाधिके 'जोयणसए' योजनशते 'किंचिविसेसूणे किश्चिद्विशेषोने-किश्चिन्यूने 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण प्रज्ञप्त इति, इहाऽप्युपपत्ति रेवम्-इह महाविदेहेषु देवकुरुत्तरकुरुमेरुभद्रशालवनवक्षस्कारपर्वतान्तरनदीवनमुखाभाग अर्थात् एक योजन के उन्नीसिया दो भाग । 'आयामेणं' लंबाई से होते है। यहाँ इस प्रकार से समझना चाहिए-३२६८४ योजन कला ८ रूप विदेह क्षेत्र के विस्तार से सीता एवं सीतोदा नदी का विस्तार पांचसो योजन के प्रमाणवाला मिलता है। यथोक्त प्रमाण शेष के आधे से प्राप्त होता है, यहां पर यद्यपि सीता अथवा शीतोदा नदी के समुद्र प्रवेशस्थान में ही पांचसो योजन प्रमाण का विस्तार है अन्यत्र स्वल्प या स्वल्पतर विस्तार होता है तो भी कच्छादि विजय के समीप दोनों तटवर्ति प्रदेश क्रीडास्थान को लेकर पांचसो योजन प्रमाण का विस्तार लभ्य हो जाता है, इस प्रकार कच्छ विजय का उत्तर दक्षिण में लंबाई का विवरण होता है।। अब पूर्व पश्चिम के विस्तार का निरूपण करते हैं-'दो जोयण सहस्साई दो हजार 'दोणि य तेरसुसरे जोयणसए' दोसो तेरह योजन से 'किंचि विसेसूणे' कुछ कम 'विक्खंभेण' विष्कंभ से कहा है। यहां पर भी इस प्रकार से ज्ञात भागे' सागसमा भाग अर्थात ४ योजना १६ मागणीसयां मे मा 'आयामेण समाथाय . અહીંયાં આ રીતે સમજવું જોઈએ ૩૨૬૮૪ જન કલા ૮ રૂપ વિદેહ ક્ષેત્રના વિસ્તારથી સીતા અને શીતેદા નદીને વિસ્તાર પાંચસે જન પ્રમાણ મળે છે. યક્ત પ્રમ ણ શેષના અર્ધામાં મળે છે. અહીંયાં જે કે સીતા અગર શીતેદા નદીના સમુદ્ર પ્રવેશ માર્ગમાં જ પાંચસે જન પ્રમાણને વિસ્તાર છે, બીજે સ્વલ્પ અગર સ્વ૫તર વિસ્તાર થાય છે. તે પણ કચછાદિ વિજયની નજીક બેઉ તટવતિ પ્રદેશ ક્રિીડા સ્થાનને લઈને પાંચસે જન પ્રમાણુને વિસ્તાર પ્રાપ્ત થઈ જાય છે. આ રીતે કચ્છ વિજયની ઉત્તર દક્ષિણમાં લંબાઈનું વર્ણન થાય છે. - वे पूर्व पश्चिमना विस्तारनु नि३५ ४२ छ.-'दो जोयणसहस्साई' मे 'दोणि य तेरसुत्तरे जोयणसए' मा ते२ यो१४ नयी "किंचि विसेसूणे' ४४४ ४५ 'विक्खंभेणं' Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३१७ तिरिक्तेषु सर्वेषु विजयाः सन्ति, ते च पूर्वपश्चिमयोः समविस्तारकाः, तत्रैकस्मिन् दक्षिणभागे उत्तरभागे वा वक्षस्कारपर्वता अष्टौ सन्ति, एकैकस्य वक्षस्कारपर्वतस्य-पञ्चशतयोजनप्रमाण मायामः, अष्टानां वक्षस्कारगिरीणामायामसङ्कलनाया चतुःसहस्रयोजनानि भवन्ति । तत्रान्तरनद्यः षट् सन्ति, तासु एकैस्या अन्तरनद्या विस्तारः पञ्चविंशत्यधिक योजनशतम्, षण्णामन्तरनदीनां विस्तारप्रमाणसंख्यासङ्कलनायां पञ्चाशदधिकान् सप्तशती सम्प. छते, वनमुखे च द्वे स्तः, तत्रैकैकस्य वनमुखस्य विस्तारो द्वाविंशत्यधिकैकोन त्रिश. च्छतानि २९२२, द्वयो विस्तार-संख्यासंकलनायां चतुश्चत्वारिंशदुत्तराष्ट पञ्चाशच्छतानि ५८४४, मेरुविस्तारो दशसहस्र योजनानि १००००, पूर्वपश्चिममद्रशालवनयोरायामश्चतुश्चत्वारिंशत् सहस्राणि ४४०००, सर्वसंख्यासंकलनाया चतुर्नवत्यधिक पञ्चशताधिक चतुष्पष्टिहोता है-महाविदेह क्षेत्र में देवकुरु एवं उत्तरकुरु, मेरु भद्रशालवन वक्षस्कार पर्वतसे अन्तरित नदी वनमुख से भिन्न सर्वस्थान में विजय कहे हैं। वे पूर्व पश्चिम में समान विस्तार वाले हैं। उसमें एक एक के दक्षिण भाग में अथवा उत्तर भाग में आठ वक्षस्कार पर्वत होते हैं। एक एक वक्षस्कार पर्वत का पांचसो योजन का आयाम-लंबाई है । आठों पर्वतों के आयाम का संकलन करने से चार हजार योजन हो जाता है। उसमें अन्तनदियां छह होती है, उनमें एक एक अन्तर्नदी का विस्तार के प्रमाण की संख्या को जोडने से ७५० सातसो पचास हो जाता हैं। वनमुख दो होते हैं उनमें एक एक वनमुखका विस्तार २९२२ उन्तीससौ बावीस होता है, दोनों के विस्तार की संख्या को जोडने से ५८४४ पांच हजार २ आठसो चवालीस होता है । मेरु का विस्तार १०००० दस हजार योजन का हैं पूर्व पश्चिम के भद्रशालवन का आयाम ४४००० चुचालीस हजार योजन का होता है । सब को जोडने से चौसठ हजार पांचसो चउराणवे વિખંભ કહેલ છે. અહીંયા પણ આ રીતે જણાય છે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં દેવકુરૂ અને ઉત્તરકુરૂ, મેરૂ, ભદ્ર શાલવન વક્ષસ્કાર પર્વતથી અંતરવાળું, નદી વનમુખથી અલગ બધા સ્થાનમાં વિજય કહ્યા છે. તે પૂર્વ પશ્ચિમમાં સરખા વિસ્તારવાળા છે. તેમાં એકના દક્ષિણ ભાગમાં અથવા ઉત્તરભાગમાં આઠ વક્ષસ્કાર પર્વત હોય છે. એક એક વક્ષસ્કાર પર્વતને પાંચસો જનને આયામ-લંબાઈ છે. આઠે પર્વતની લંબાઈ મેળવવાથી ચાર હજાર યોજન થઈ જાય છે. તેમાં અન્તનદી હોય છે. તેમાં એક એક અન્તર્નાદીને વિસ્તારના પ્રમાણુની સંખ્યા મેળવવાથી ૭૫૦ સાતસો પચાસ થઈ જાય છે. વનમુખ બે હોય છે. તેમાં એક એક જનસુખને વિસ્તાર ૨૯૨૨ ઓગણ ત્રીસસે બાવીસ થાય છે. બેઉના વિસ્તારની સંખ્યા મેળવવાથી પાંચ હજાર આઠસે ચુંમાલીસ થાય છે. મેરૂને વિસ્તાર ૧૦૦૦૦ દસ હજાર જનને છે. પૂર્વ પશ્ચિમના ભદ્રશાલવનને આયામ-૪૪૦૦૦ ચુંમાળીસ હજાર એજનને Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सहस्राणि ६४५९४, एतत्प्रमाणं जम्बूद्वीपविस्ताराच्छोध्यते । ततश्च शेषं जातम्-३५४०६ षडुत्तरचतुःशताधिक पञ्चत्रिंशत्सहस्राणि, एकैकस्मिन् दक्षिणे उत्तरे वा भागे षोडश विजयाः सन्ति, ततः पोडशभि र्भागे हृते ३५४०६ १६= २२१३ लब्धानि किञ्चिन्यूनत्रयोदशाधिक द्वाविंशति शतानि, त्रयोदशस्य योजनस्य षोडशचतुर्दशभागरूपत्वात्, एतावानेव एकैकस्य विजयस्य विस्तारोऽस्ति । अयं च कच्छविजयो भरतवद् वैताढयपर्वतेन द्विधा विभक्त इति द्विधाविभाजकं वैताढयं वर्णयितुमाह- कच्छस्स णं' इत्यादि-कच्छस्य खलु 'विजयस्स' विजयस्य 'बहुमज्झ देसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'णं' खलु 'वेयद्धे' वैताढयः 'णाम' नाम 'पव्यए' पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, 'जे णं' यः खलु 'कच्छं विजयं' कच्छं विजयम् 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणे २' विभजमानः २ विभक्तं कुर्वाणः २ 'चिट्ठइ' तिष्ठति, विभागप्रभारमाह-'तं जहा' तद्यथा-'दाहिणद्धकच्छं' दक्षिणार्द्धकच्छ 'च' च 'उत्तरद्धकच्छंचेति' उत्तरार्द्धकच्छंचेति कच्छद्वयं विभजमानो वैताढयपर्वतस्तिष्ठतीति ६४५९४ योजन है। यह प्रमाण जंबूद्वीप के विस्तार से शोधित किया जाता है। उसमें से शेष पैंतीस हजार चारसो छ ३५४०६ योजन होता है। दक्षिण अथवा उत्तर की ओर सोलह विजय होते हैं। उसका सोल से भाग करने पर कुछ कम बावीससो तेरह प्राप्त होते हैं। तेरहवें योजन के सोलहवे या चौदहवे भागरूप होने से इतना ही एक एक विजय का विस्तार होता है। यह कच्छविजय भरत के जैसा वैताढय पर्वत से दो भाग में विभक्त हुआ है अतः दो भाग में विभक्त करने वाला वैताढय पर्वत का वर्णन करने के उद्देश्य से कहते हैं-'कच्छस्स णं विजयस्स' कच्छ विजय के 'बहमज्झदेसभाए' ठीक मध्यभाग में 'एत्थणं' यहां पर 'वेयड़े णामं पवए पण्णत्त' वैताढय नामका पर्वत कहा है। 'जेणे' जोकि 'कच्छं विजयं कच्छ विजय को 'दहा विभयमाणे२' दोभाग में विभक्त करता हुआ 'चिट्ठइ' स्थित है। 'तं जहा' विभक्त છે. એ બધાને મેળવવાથી ૬૪૫૯૪ ચોસઠ હજાર પાંચસે ચોરાણુ જન થાય છે. આ પ્રમાણુ જંબુદ્વીપના વિરતારથી શેજિત કરવામાં આવે છે. તેમાંથી બાકીના ૩૫૪૦૬ પાંત્રીસ હજાર ચારસો છ રાજન થાય છે. દક્ષિણ અને ઉત્તરની તરફ સોળ વિજ્ય હોય છે. તેને સેથી ભાગવાથી કંઈક ઓછા ૨૨૧૩ બાવીસ સે તેર પ્રાપ્ત થાય છે. તેમાં જનના સેળમાં અગર ચૌદમા ભાગ રૂપ હોવાથી એટલેજ એક એક વિજયને વિસ્તાર હોય છે. આ કચછ વિજય ભારતની જેમ વૈતાઢય પર્વતથી બે ભાગમાં વહેંચાયેલ છે. તેથી બે ભાગમાં અલગ કરનાર વૈતાઢય પર્વતનું વર્ણન કરવાના ઉદ્દેશથી સૂત્રકાર કહે છે– 'कच्छस्स णं विजयस्स' ४२७ वियना 'बहुमज्झदेसभाए' सशस२ मध्य भागमा 'एत्थ णं' महीयां 'वेयडूढे णामं पव्वए पण्णत्ते' वैदय नाभन डेस छ. 'जे णं' २ कच्छं विजय' ४२७ विनयने 'दुहा विभयमाणे २१ मे मासमा यीन 'चिइ' स्थित छे. 'तं जहा' मा ४२वान। प्रा२ मा प्रभारी छे. 'दाहिणद्धकच्छं च' क्षिा ४२७ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३१९ पूर्वेणान्वयः । च शब्दद्वयमुभयोः कच्छयोः समकक्षता सूचनार्थम् । दक्षिणार्द्धकच्छः कुत्रास्तीति पृच्छन्नाह-'कहि णं भंते' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'वेयद्धस्स' वैताढयस्स 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि ‘सीयाए' सीतायाः-सीताभिधानायाः 'महाणईए' महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि-'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य-चित्रकूटनामकस्य 'वक्खारपव्वस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'एत्थ' अत्रअत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दक्षिणार्द्धकच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायत:-उत्तर-दक्षिणयोदिशोरायतः-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिपणे' प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्ण:-पूर्वपश्चिमदिशोविस्तारयुक्तः, 'अट्ठ' अष्ट का प्रकार इस प्रकार है-'दाहिणद्धकच्छंच' दक्षिणाईकच्छ एवं 'उत्तरद्धकच्छंच' उत्तरार्द्ध कच्छ ऐसे दो कच्छ के विभाग करने वाला वैताढय पर्वत है। 'कहिणंभंते ! जंबू द्दीवे दीवे' हे भगवन् ! जंबू द्वीप नाम के द्वीप में कहां पर 'महावि. देहेवासे' महाविदेह क्षेत्र में 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दक्षिणार्धकच्छ नाम का विजय 'पण्णच' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं'गोयमा !' हे गौतम ! 'वेयद्धस्स पव्वयस्स' वैताढ्य पर्वत की 'दाहिणेणं' दक्षिण दिशा में 'सीयाए महाणईए' सीता महानदी की 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नाम के 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में 'एस्थणं' यहां पर जंबुद्दीवे दीवे' जंबू द्वीप नाम के द्वीप के 'महां विदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'दाहिणकच्छे णामं विजए' दक्षिणाई कच्छ नाम का विजय 'पण्णत्ते' कहा है । वह 'उत्तर दाहिणायए' उत्तर दक्षिण दिशा में लंबा है । 'पाईणपडीणविस्थिणे' पूर्व पश्चिम दिशा में विस्तार वाला है 'अट्ठभने 'उत्तरद्धकच्छं च' उत्तरा २७ मे शते थे में मारामा ४२७ वियन ससस ४२ना२ वैतादय पर्वत छ. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे' हे भगवन् दी५ नामना द्वीपमा ४यां सागण 'महाविदेहे वासे' महावित क्षेत्रमा 'दाहिणद्धकच्छे णामं विजए' दृक्षिा ४२७ नामनु विश्य 'पण्णत्ते' है.उस छ ? 20 प्रश्न उत्तर भां महावीर प्रसुश्री ४. छ-'गोयमा !' गौतम ! 'वेयद्धस्स पव्वयस्स' वैताय ५तनी 'दाहिणेणं' क्षिष्य शिम 'सीयाए महाणईए' सीता महानहीनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा 'चित्तकूडस्स' चित्र दूट नामना 'वक्खारपव्ययस्स' १३४२ ५'तनी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'एत्थ णं' मडीया 'जबुद्दीवे दीवे' दी५ नामना दीपना 'महाविदेहे वासे' भविस क्षेत्रमा 'दाहिणकच्छे णामं विजए' क्षिा ४२७ नामनु विन्य ‘पण्णत्ते' ४९ छ, ते विन्य Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोण्णि' द्वे 'य' च एगसत्तरे' एकसप्तति 'जोयमसए' योजनशते 'एक्कं एक 'च' च 'एगृणवीस इभागं' एकोनविंशतिभागं 'जोयणस्स' योजनस्य 'आयामेणं' आयामेन-दैर्येण 'दो' द्वे 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोणि' द्वे 'य' च 'तेरसुत्तरे' त्रयोदशोत्तरे-त्रयोदशाधिके 'जोयणसए' योजनशते 'किंचिविसेसणे' किश्चि द्विशेषोने-किञ्चिन्न्यूने 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण, इत्यायाम-विष्कम्भाभ्यां तयु. क्त्वा संस्थानेनाह-'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः-पर्यङ्काकारेण संस्थितः । अथास्याकारभावप्रत्यवतारं प्रश्नोत्तराम्यामाह-'दाहिणद्धकच्छस्स' इत्यादि-दक्षिणार्द्धकच्छस्य ‘णं' खलु 'विजयस्स' विजयस्य 'केरिसए' कीदृशक:-कीदृशः 'आयारभावपडोयारे' आकारभावप्रत्यवतारः-तत्राऽऽकार:-स्वरूपम् भावा:-पृथिवीवक्षस्कारादयस्तदन्तर्गताः पदाजोयणसहस्साई' आठ हजार योजन 'दोणिय एगसत्तरे जोयणसए' दो हजार एकसो इकहत्तर योजन ‘एक्कच' एक 'एगूणवीसइभाग उन्नीसवां भाग 'जोय. णस्स' योजन का 'आयामेणं' लंबाई से 'दो जोयणसहस्साई' दो हजार योजन 'दोण्णि' दो 'तेरसुत्तरे' तेरह अधिक 'जोयणसए' योजन शत अर्थात् दोसो तेरह योजन से 'किंचि विसेसूणे' कुछ कम 'विक्खंभेणं' विस्तार से है। इस प्रकार आयाम विष्कंभ से वर्णन करके उसका संस्थान कहते हैं-'पलि यंकसंठाणसंठिए' पर्यकाकार से स्थित है।। अब इसका आकार भाव प्रत्यवतार प्रश्नोत्तर द्वारा कहते हैं-'दाहिणद्ध कच्छस्स णं' दक्षिणार्द्धकच्छ 'विजयस्स' विजय का 'केरिसए' किस प्रकार का 'आयारभावपडोयारे' आकार भाव प्रत्यवतार आकार अर्थात् स्वरूप भाव माने पृथिवी वक्षस्कारादि उसके अन्तर्गत पदार्थ सोही कहा है प्रत्यवतार माने प्रकटी'उत्तर दाहिणायए' उत्तर दक्षिण दिशामा सामु छ. 'पाईणपईणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम शामा विस्तृत छ. 'अटु जोयणसहस्साई' २।४ 61२ योन 'दोष्णिय एगसत्तरे जोयणसए' मेडलर मेसो ते२ योन 'एक्कं च' मे४ योजना 'एगूणवीसइभागं' मोगशीसम मा 'जोयणस्स' योगनना 'आयामेणं' माथी 'दो जोयणसहस्साई' में पर योरन दोणिय' से 'तेरसुत्तरे' ते२ 'जोयणसए' योnशत अर्थात से ते२ यौनया 'किचि विसेसृणे' ४४ ४म 'विक्खंभेणं' विस्तारथी छे. ॥शत मायाम विजयी - ४रीन तनु सस्थान मतावे छ.-'पलियंक संठाणसंठिए' ५५°४४॥२थी स्थित छे. वेतन मा२ मा प्रत्यवता२ प्रश्नोत्तर दा॥ ४३ छे. 'दाहिणद्धकच्छस्स . दक्षिा ४२छन। 'विजयस्स' वियनु 'केरिसए' या प्रश्न 'आयारभावपडोयारे' આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર આકાર એટલે સ્વરૂપ ભાવ એટલે પૃથિવી વક્ષસ્કારાદિ તેના અંતगत पहाथी, प्रत्यवतार मेटले प्रटी मा 'पण्णत्ते' ४ छ ? ॥ प्रश्न उत्तरमा श्री Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२१ र्थाः, तद्युक्तः प्रत्यवतारः-प्रकटीभावः, 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! अस्य दक्षिणार्द्धकच्छविजयस्य 'बहुसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः अत्यन्त समोऽत एव रमणीयः मनोहरः 'भूमिभागे' भूमिभागः' 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, तस्य वर्णनं सूचयितुमाह'तं जहा' तद्यथा 'जाव कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव' यावत् कृत्रिमैश्चैव अकृत्रिमैश्चैव अत्र यावत्पदेन 'आलिंगपुक्खेरइ वा' इत्यारभ्य कृत्रिमैश्चैवाकृत्रिमैश्चैव मणिभिस्तृणैचोपशोभित इति पर्यन्तो वर्णको ग्राह्यः, सच षष्ठसूत्रादवगन्तव्यः, ग्रन्थविस्तरभयादत्र नोपन्यस्यते । अधुनाऽत्र वास्तव्यानां मनुष्याणामाकारभावप्रत्यवतारं प्रश्नोत्तराभ्यामाह-'दाहिणकच्छे' इत्यादिदक्षिणा कच्छे प्रागुक्त स्वरूपे 'णं' खलु 'भंते !' भदन्त ! 'विजए' विजये 'मनुयाणं' मनुजानां मनुष्याणां 'केरिसए' कीदृशकः कीदृशः 'आयारभावपडोयारे' आकारभावप्रत्यवतार:तत्राकारः स्वरूपम् भावाः तदन्तर्गताः संहननादयः पदार्थाः तदुभयसहितःप्रत्यवतारःप्रादुभाव 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीमहावीर प्रभुश्री कहते हैं'गोयमा' हे गौतम ! इस दक्षिणार्द्ध कच्छ विजय का 'बहुसमरमणिज्जो' अत्यन्त समहोने से रमणीय 'भूमिभागे' भूमिभाग 'पण्णत्ते' कहा है। उसका वर्णन मूचनार्थ कहते हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार है 'जाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव' यावतू कृत्रिम अथवा अकृत्रिम यहां यावत्पदसे 'आलिंग पुक्खरे इवा'-अलिंगपुष्कर के कथन से प्रारंभ कर के कृत्रिम अथवा अकृत्रिम मणि एवं तृणों से उपशोभित इस कथन पर्यन्त का वर्णन करलेना चाहिए वह वर्णन छठे सूत्र से समझलेवें ग्रंथ के विस्तार भय से यहां पुनः प्रदर्शित नहीं किया है। ___अब दक्षिणार्द्ध कच्छ में निवास करनेवाले मनुष्यों के आकारभाव प्रत्यवतार प्रश्नोत्तर द्वारा कहते हैं-'दाहिणद्धकच्छे' इत्यादि पूर्वोक्त दक्षिणार्द्धकच्छ में 'णं भंते! हे भगवन् 'विजए' विजय में 'मणुयाणं मनुष्यों के 'केरिसए' किस महावीर प्रभुश्री ४९ छ 'गोयमा ! ' मौतम ! म क्षिा ४२७ वियना 'बहुसमरमणिज्जे' सत्यत समहापाथी रमणीय मेव 'भूमिभागे' भूमिमा 'पण्णत्ते' . तेनु न सूयन। ३५ मतावे छे. 'तं जहा' २ मा प्रमाणे . 'जाव कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव' यारत् त्रिम 440 मत्रिम महीयां यावत् ५४थी 'आलिंगपुक्खरेના આલિંગ પુષ્કરના કથનથી આરંભ કરીને કત્રિમ અથવા અકત્રિમ મણિયે અને તૃણાથી શોભાયમાન આ કથન પર્યન્તનું સઘળું વર્ણન કરી લેવું તે વર્ણન છઠા સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. પુસ્તકના વિસ્તારભથથી અહીંયાં તે પુનઃ બતાવેલ નથી. હવે દક્ષિણાર્ધ કચ્છમાં વસનારા મનુષ્યના આકાર ભાવ અને પ્રત્યવતાર પ્રશ્નોત્તર द्वारा प्रगट ४२ छ.-'दाहिणद्धकच्छे' त्या प्रति क्षिा २७भा 'णं भंते !' है मगन्, 'विजए' वियमा 'मणुयाणं' मनुष्याना 'केरिसए' वा ना 'आयारभावपड़ो ज० ४१ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे र्भावः 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः, इति प्रश्ने भगवानाह - 'गोयमा !' गौतम ! 'तेसि' तेषां दक्षिणार्द्ध विजयोत्पन्नानां 'णं' खलु 'मणुयाणं' मनुजानां 'छन्त्रिहे' षड् विधं 'संघयणे' संहननम् - अस्थिसंचयः तत् ' षड्विधं - वज्रऋषभनाराच १ ऋपमनाराच २ नाराच ३ अर्द्धनाराच ४ कीलिका ५ सेवा ६ भेदात् 'जाव' यावत्-अत्र यावत्पदेन 'छव्विहे संठाणे पंचघणुसयाई उद्धं उच्चेत्तेणं जहणेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं पुव्वकोडी आउयं पालेति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगइया सिज्झति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति' इति सङ्ग्राह्यम् एतच्छाया-'षड़विधं संस्थानं पञ्चधनुः शतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोटचायुः पायलन्ति पालयित्वा अप्येकके निरयगामिनः यावत् अप्येकके सिद्ध्यन्ति बुध्यन्ते मुच्यन्ते परिनिर्वान्ति' इति 'सव्वदुक्खाणमंतं' सर्वदुक्खानामन्तं 'करेंति' कुर्वन्ति एषां व्याख्या प्रकार का आयारभाव पडोयारे' आकारभाव प्रत्यवतार आकार माने स्वरूप भाव -अन्तर्गत भाव अर्थात् संहननादि पदार्थ उन दोनों के साथ प्रत्यवतारप्रादुर्भाव 'पण्णत्ते ?' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते हैं - 'गोयमा ! ' हे गौतम! 'तेसिं' उस दक्षिणाई विजय में उत्पन्न हुए 'णं मणुयाणां' मनुष्यों के 'छवि' छह प्रकार का 'संवयणे' संहनन अर्थात् अस्थिसंचय - वह छप्रकार वज्रऋषभनाराच१, ऋषभनाराच२, नाराच३, अर्द्धनारणं ४, कीलिका ५, सेवार्त्त ६, के भद से हैं 'जाव' यावत् यहां यावत्पद से 'छविहे संठाणे पंच धणुसयाई उद्धं उच्चत्ते णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुञ्चकोडी आउयं पार्लेति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगइया सिज्झति बुज्झति मुच्चति परिणिग्वायंति' इन पदों का संग्रह हुवा है । इस का अर्थ इस प्रकार है- -छ प्रकार का संस्थान है, पांचसो धनुष के ऊंचे है, जघन्य से अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट से पूर्वकोटि की आयुवाले हैं. आयु के क्षय होने पर कितनेक मोक्षगामी होते हैं यावत् कितनेक सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होते हुए परिनिर्वाण को प्राप्त कर के 'सव्व दुःखाणमंत ચારે આકાર ભાવ અને પ્રત્યવતાર અર્થાત્ આકાર એટલે સ્વરૂપ ભાવ એટલે અ ંત ત लाव अर्थात् सांडुननाहि पदार्थ प्रत्यवतार - प्रादुर्भाव 'पण्णत्ते' 'हेस ? या प्रश्नना वामां प्रभुश्री डे - - ' गोयमा !' हे गौतम! 'तेसिं' थे दक्षिणार्ध विषयमा उत्पन्न धयेला 'णं मणुयाणं' भनुष्योना 'छव्विहे' ७ प्रहारना 'संघयणे' संहनन अर्थात् अस्थि संयय . ते प्रहार भी प्रमाणे छे. - ऋषभनाराय १, ऋषलनारा २, नाराय 3, अर्धनाराय ४; सिप, सेवार्ता लेहथी छे. 'जाव' यावत् अडींयां यावत्यथी 'छविहे संठाणे पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेंण जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्त्रकोडी आउयं पालेति पालेत्ता अप्पेगइया निरयगामी जाव अप्पेगईया सिज्झति, मुच्चत्ति, परिणिव्वायति' मा होने સંગ્રહ થયેલ છે. આના અર્થ આ પ્રમાણે છે.-છ પ્રકારના સંસ્થાન છે. પાંચસે ધનુષ જેટલા ઉંચા છે. જઘન્યથી અન્તમુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂ` કોટિનુ... આયુષ્ય છે. આયુને Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेम कच्छविजयनिरूपणम् ३२३ चैकादशसूत्राद बोध्या । एवं चास्य कर्मभूमिरूपत्वं निर्णीतम् अथास्य सीमाकारी वैताढयपर्वतः कुत्रास्तीति पृच्छति-'कहि णं' इत्यादि क्व खलु 'भंते ! भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे' कच्छे 'विजए' विजये 'वेयद्धे' वैतादयः ‘णाम' नाम 'पव्वए !' पर्वतः ? प्रज्ञप्त इति शेषः, इति प्रश्ने भगवानाह'गोयमा !' गौतम ! 'दाहिणद्धकच्छविजयस्स' दक्षिणार्द्धकच्छविजयस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'चित्तकूडस्स' चित्रकटस्य पर्वतस्य 'पञ्चत्थिमेण' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'मालवंतस्स' माल्यवतः माल्यवनानकस्य 'वक्खारपव्वयस्सा वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र-पत्रान्तरे 'ण' खलु 'कच्छे विजए' कच्छे विजये 'वेयद्धो णाम' करे ति समस्त दुःखों का अन्त-पार करते हैं। इस की समग्र व्याख्या ग्यारहवें सूत्र से समझलेवें। इस प्रकार इस का कर्मभूमिरूप निरूपित किया है। अब सीमाकारी वैताढय पर्वत कहां पर है ? इस विषय की गौतमस्वामी पृच्छा करते हैं-'कहि णं भंते !' हे भगवन् कहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नाम के द्वीप में 'महाविदेहे वासे' महाविदेहक्षेत्र में 'कच्छे विजए' कच्छनाम का विजय में 'वेयद्ध' वैताढय 'णाम' नामका 'पव्वए' पर्वत कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! हे गौतम 'दाहिणद्ध कच्छविजयस्स' दक्षिणाई कच्छविजय की 'दाहिणेणं दक्षिणदिशा में 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट पर्वत की 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमदिशा में 'मालवंतस्स' माल्यवान् नाम के 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरस्थिमेणं' पूर्वदिशा में 'एत्थ' यहां पर 'णं' निश्चित 'कच्छे विजए' कच्छविजय में 'वेयद्धो णाम पव्वए' वैताढय नाम का पर्वत 'पण्णत्ते' कहा है 'तं जहा' वह पर्वत कैसा है ? सो कहते हैंક્ષય થવાથી કેટલાક મિક્ષગામી થાય છે. યાવત કેટલાક સિદ્ધ, બુદ્ધ, અને મુક્ત થઈને पानवायु प्रात ४रीन 'सव्व दुक्खाणमंतं करें ति' सामान मत-पार ४२ छे. આની તમામ વ્યાખ્યા અગીયારમાં સૂત્રમાંથી સમજી લેવી. આ રીતે આમનું કમભૂમિ રૂપ નિરૂપણ કરેલ છે. હવે સીમાકારી વૈતાઢય પર્વત કયાં આવેલ છે? આ વિષય સંબંધી ગૌતમસ્વામી प्रश्न ४२ छे.-'कहिणं भंते !' भगवन् ! यो माग 'जंबुद्दीवे दीवे' मृद्धी५ नामना दीपभा 'महाविदेहे वासे' महाविड क्षेत्रमा 'कच्छे विजए' ४२७ नामनाविन्यमा 'वेयद्धे' वैतादय 'णाम' नामन 'पव्वए' ५१त ४स छ ? ____ा प्रश्न उत्तरमा मडावीर प्रभुश्री ४. छ.-'गोयमा !' 3 गौतम ! 'दाहिणद्ध कच्छविजयस्स' lagn'४२७ विशयनी 'दाहिणेणं' दक्षिण 'चित्तकूडस्स' (यट ५६तनी “पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'मालवंतस्स' माझ्यवान् नामना 'वखारपव्वयस्स' १३२४।२ ५'तनी 'पुरथिमेगं' पूर्वम एत्थगं' त्यो भा 'कच्छे विजए' ४२७ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. . ........ . जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पव्वए' वैताढयो नाम पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः 'तं जहा' तद्यथा-क्वचिदेतत्पाठो नास्ति, स च कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह-'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायत:-पूर्वपश्चिमदिशो दीर्घः 'उदीणदाहिणविस्थिण्णे' उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः-उत्तरदक्षिणदिशो विस्तारयुक्तः 'दुहा' द्विधा 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतौ 'पुढे' स्पृष्टः स्पृष्टवान् अत्र स्पृश् धातोः कर्तरिक्त प्रत्ययस्तेन कर्मणि द्वितीया, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरस्थिमिल्लाए' पौरस्त्यया पूर्वदिग्भवया 'कोडीए' कोटया-अग्रभागेन 'जाव' यावत् यावत्पदेन-'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं' इति सङ्ग्राह्यम् एतच्छाया-'पौरस्त्यं वक्षस्कारपर्वत पाश्चात्यया कोटया पाश्चात्यं वक्षस्कारपर्वतम्' इति, एतद्वयाख्या सुगमा, एताभ्यां (दोहि वि) द्वाभ्यामपि कोटीभ्यां पूर्वोक्तौ पौरस्त्यपाश्चात्यौ चित्रकूटमाल्यवन्तो वक्षस्कारपर्वतौ (पुढे) स्पृष्टः स्पृष्टवान् एवं स: (भरहवेयद्धसरिसए) भरतवैताढयसदृशकः भरतवर्षवर्तिवैताढयवत् रजतमयत्वाद्रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाच्च बोध्यः (णवरं) नवरं-केवलम् (दो बाहाओ) द्वे बाहे (जीवा) जीवा (धणुपुटं च) धनुप्पृष्ठं चैतद्वस्तुत्रयं (ण कायव्व) न 'पाईणपडीणायए' पूर्व एवं पश्चिमदिशा में वह लंबा है। 'उदीण दाहिणवित्थिण्णे' उत्तर एवं दक्षिण दिशा में विस्तार युक्त है । 'दुहा' दोनों तरफ 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कार पर्वत 'पुट्ठो' स्पृष्टः स्पृष्ट हैं' 'पुरथिमिल्लाए' पूर्वदिशसिंबंधी 'कोडीए' कोटी से 'जाब' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पूर्वदिशा के वक्षस्कार पर्वत को 'पच्चस्थिमिल्लाए कोडीए' पश्चिमदिशा संबंधी कोटी से 'पच्चथिमिल्लं बक्खारपव्वयं' पश्चिमदिशा के वक्षस्कार पर्वत को इस प्रकार ये 'दोहि वि' दोनों कोटी से पूर्वपश्चिम के चित्रकूट एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत 'पुढे' स्पृष्ट है। इस प्रकार वह 'भरह वेयद्धसरिसए' भरत वैताढय के समान अर्थात् भरत वर्षस्थित वैताढय के सदृश-अर्थात् रजतमय एवं रुचक संस्थान में संस्थित होने से समझलेवें । 'णवरं' केवल 'दो वाहाओ' दो बाहा 'जीवा' विश्यमा 'वेयद्धे णामं पव्वए' वैताय नाभन त पण्णत्ते' खस छ. 'तं जहा त ५वता छ १ मे मतावे छे. 'पाईणपडीणायए' पूर्व भने पश्चिम दिशाभi aaiमा छ. 'उदीणदाहिणवित्थिण्णे' उत्तर मनक्षिण दिशामा विस्तारवाणी छे. 'दुहा' भन्ने त२३ 'वक्खारपव्वए' पक्षा२ ५'त 'पुढे' २५२ छ 'पुरथिमिल्लाए' पूर्व ही संधी 'कोडीए' थी 'जाव' यावत् 'पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं' पू शाना ११४॥२ ५५ तन 'पञ्चथिमिल्लाए कोडीए' पश्चिम दिशा समाधी टीथी 'पच्चथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पश्चिम हिशान पक्षा२ ५तन से रीते थे 'दोहिवि' पूर्व पश्चिम भन्न टिथी अर्थात यित्रट म माझ्यवान् १९२४॥२ 'तने 'पुढे' २५0 छ. या शते 'भरहवेयद्ध सरिसए' मरत भने वैतादय तो सरमेटले रत्नमय भने ३३४ स्थानमा सस्थित पाथी म सम यु 'णवरं' ३१ दो वाहाओं' मे पास। 'जीवा' ७१ 'धणु Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२५ कर्तव्यम्-न वर्णनीयम् त्याज्यम् अवक्रक्षेत्रवर्तित्वात् लम्बभागश्च न भरतवैताढ व्यवदित्याह(विजयविक्खंभसरिसे) विजयविष्कम्भसदृशः-विनयस्य-कच्छादिरूपस्य यो विष्कम्भःविस्तारः किश्चिन्यूनत्रयोदशाधिक द्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश:-तुल्यः (आयामेणं) आयामेन-दैर्येण अयम्भावः-कच्छादिविजयस्य यो विष्षम्भभागः सोऽस्य वैताढयस्यास्य यामभाग इति, (विक्खंभो) विष्कम्भः-विस्तारः (उच्चत्त) उच्चत्वम् (उज्वेह) उद्वेधःभूमिप्रवेशश्चैते (तहेव) तथैव-भरतवैताढयवदेव बोध्याः , तत्र-विष्कम्भः पञ्चाशद्योजनात्मकः, उच्चत्वं पञ्चविंशतियोजनरूपम् उद्वेधश्च-पञ्चविंशतिक्रोशलक्षणो भरतवैताढयस्य यथा (तहेव) तथैव अस्य वैताढयस्यापि, (च) च-पुन: (विज्जाहरआभिओगसेढीओ) विद्याधराऽऽभियोग्यश्रेण्यौ-विद्याधराणामाभियोग्यानां च श्रेण्यो तत्र-विद्याधरश्रेण्यौ प्रथमदशयोजनानन्तरं (तहेव) तथैव भरतवर्षवर्तिवैताढयवदेव बोध्ये (णवरं) नवरं केवलम विशेषोऽयम् जीवा 'धणुपुटुंच' धनुष्पृष्ठ ये तीनों 'ण कायव्वं' न कहे अवक्रक्षेत्रवर्ति होने से पूर्वोक्त तीनों अवक्तव्य है । इस का दीर्घभाग भरत एवं वैताढय के सदृश नहीं है। 'विजयविक्खंभसरिसे' कच्छादि विजय का जो विस्तार अर्थात् कुछ कम बावीससो तेरह २२१३ योजन २२५ उसके समान 'आयामेणं' दीर्घता से इस कथन का भाव यह है की कच्छादि विजय का जो विष्कम्भ भाग है वह इस वैताढय का आयाम भाग अर्थात् दीर्घ भाग है 'विक्खंभो' विष्कंभ-विस्तार 'उच्चत्तं' उच्चत्व 'उव्वेहो' उद्वेध भूमि के अन्तर्गत भाग ये सब 'तहेव' भरत एवं वैताढय के समानही समझलेवें, उसमें विष्कंभ पचास योजनात्मक एवं उच्चत्व पचीस योजनात्मक एवं उद्धेध पचीस कोशात्मक भरत वैताढय का जैसा कहा है 'तहेव' उसी प्रकार इस वैताढय पर्वत का भी समझना चाहिए' 'च' और 'विजोहर आभिओगसेढीओ' विद्याधर एवं आभियोग्य देवों की श्रेणी उसी प्रकार कही है अर्थात् विद्याधरों की श्रेणी प्रथम दश योजन के पुढेच' धनुष्ट मात्र ‘ण कायव्वं' न ४ा अपक्षेत्रात पाथी पूर्वात ४डेपाना नथी. तन ail माग भरत भने वैतादयना २वा नथी 'विजयविक्खंभसरिसे કચ્છાદિ વિજયને જે વિસ્તાર અર્થાતુ કંઇક ઓછો બાવીસ સે તેર ૨૧૧૩ જનરૂપ तेनी समान 'आयामेग' माथी छे. २॥ ४थन। माप से छे -२ वियनारे वि०४ मा छे. ते ॥ वैतादयने। मायाम मा मेटले समाज मा छे. 'विक्खंभे विस्तार 'उच्चत्तं' या 'उव्वेहो' उद्वेष पति भीननी मरन। लाम से मधु तहेव' ભરત અને વૈતાઢય પર્વતની સરખા જ સમજી લેવા. તેમાં વિષ્ક ૫૦ પચાસ યોજનામક અને ઉંચાઈ પચીસ જનાત્મક તથા ઉપ પચ્ચીસ કેશાત્મક (પચીસ ગાઉ જેટલે) सरत वैतादयन र प्रमाणे डेस छ. 'तहेव' से प्रभारी I वैतादय पतन पy सभन य. 'च' भने 'विज्जाहरआभिओगसेढीओ' विद्याधर अने मालियोग्य Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे (पणपण्णं २) पञ्चपञ्चाशत् २ अस्य दक्षिणश्रेण्यां पञ्चपञ्चाशत् उत्तरश्रेण्यामपि पश्च पश्चाशत् (विज्जाहरणगरावासा) विद्याधरनगरावासाः (पण्णत्ता) प्रज्ञप्ताः, भरतवर्षवर्तिवैताढन्यस्य तु दक्षिणश्रेण्यां पञ्चाशत् उत्तरश्रेण्यां च षष्टि विद्याधरनगरावासा इति ततो भेदः, एवमाभियोग्यश्रेण्योः पञ्चपञ्चाशत् पञ्चपञ्चाशविद्याधरनगरावासाः ते चाभियोग्यश्रेण्यौ विद्याधरश्रेणिभ्याम् ऊर्ध्व दशयोजनानन्तरं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वेस्तः प्रत्येकं श्रेणौ समा विद्या घरनगरावासाः, ता श्रेणयः कस्य कस्येति जिज्ञासायामाह-'आभियोगसेढीए' आभियोग्यश्रेण्याम् 'सीआए' सीताया महानद्याः 'उत्तरिल्लाओ' उत्तराह्यः उत्तरदिग्भवाः 'सेढीओ' श्रेण्यः 'ईसाणस्स' ईशानस्य द्वितीयकल्पेन्द्रस्य 'सेसाभो' शेषाः अवशिष्टाः सीता महा. नदीदक्षिणस्थाः श्रेणयः 'सकस्सत्ति' शक्रस्य प्रथमकल्पेन्द्रस्य अयम्भावः सीताया उत्तरदिशि ये विजयवैतादयास्तेषु यो दक्षिणोत्तरवर्तिन्य आभियोग्य पश्चात् 'तहेव' भरत वर्षवति वैताढय के सदृश समझलेवें 'णवरं' केवल यही विशेषता है 'पणपण्णं' पचपन 'विज्जाहर णगरावासा' विद्याधरों के नगरावास इसकी दक्षिण श्रेणी में ५५ एवं उत्तर श्रेणी में भी ५५ विद्याधर नगरावास 'पण्णत्ता' कहा है भरतवर्षवर्ति वैताढय पर्वत का दक्षिण श्रेणी में प्रचास एवं उत्तर श्रेणी में ६० साठ विद्याधरों के नगरावास कहा है यही भेद-भिन्नता है। उसी प्रकार आभियोग्य श्रेणी से ५५ पचपन योजन विद्याधरों के नगरावास है। वे अभियोग्य श्रेणी विद्याधर श्रेणी से उपर दश योजनानन्तर दक्षिणोत्तर के भेद से दो कहे हैं । प्रत्येक श्रेणी में सरखें विद्याधरों के नगरावास है ।बे श्रेणी किसकिसकी कही है ? इस जिज्ञासा के शमनार्थ कहते हैं-'आभिओग से ढीए' आभियोग्य श्रेणी 'सीआए' सीता महानदी के 'उत्तरिल्लाओ' उत्तर दिशा દેવેની શ્રેણી એજ પ્રમાણે કહેલ છે. અર્થાત વિદ્યાધરોની શ્રેણી પહેલા દસ જન પછી 'तहेव' १२ वर्षमा मावेस वैतादयना समान समझ से. 'णवर' मे विशेपता छ है 'पणपण्णं' ५५ ५यान 'विज्जाहरनगरावासा' विधायरीन नारावास मेट કે આની દક્ષિણ શ્રેણીમાં ૫૫ અને ઉત્તર શ્રેણીમાં પણ ૫૫ વિદ્યાધરના નગરવાસે 'पण्णत्ता' ४॥ छे. १२तष पति वैतादय पतनी क्षिष्य श्रेणीमा पयास भने उत्तर શ્રેણીમાં ૬૦ સાઈઠ વિદ્યાધરના નગરાવાસો કહેલા છે. એજ આમાં જુદાઈ છે. એ જ રીતે આભિ5 શ્રેણીથી પ૫ પંચાવન જન વિદ્યાધરના નગરવાસે છે. તે આભિગ્ય શ્રેણી વિદ્યાધર શ્રેણીથી ઉપર દશ જન પછી દક્ષિણેત્તરના ભેદથી બે કહેલ છે દરેક શ્રેણીમાં સરખા વિદ્યાધરેના નગરાવાસે છે. તે શ્રેણી કેની કેની કહેલ છે? એ જીજ્ઞાसाना निवृत्ति भाटे सूत्रा२ ४ छ. 'आभिओगसेढीए' माभियोग्य श्रेणीमा 'सीआए' सीता महानहीना 'उत्तरिल्लाओ' उत्तर दिशानी 'सेढीओ' श्रेष्ाये'ईसाणस्स' शानवनी 'सेसाओ' मीनी सी। महानहीनी क्षिy Anी श्रेणी 'सक्कस्सत्ति' शन्द्रनी उस Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२७ श्रेण्यस्ताःसर्वाः सौधर्मेन्द्रस्य, अत्र बहुवचनं विजयवति सर्ववैताढयश्रेण्यपेक्षया बोध्यम्, अथात्र कूटानि नामतो निर्दिशन्नाह-'कूडा' कूटानि यथा-'सिद्धे' सिद्धं सिद्धायतनकूटं १, तच पूर्वदिशि ततः पञ्चमदिशि शेपाण्यष्टावपि कूटानि वक्तव्यानि यथा-'कच्छे' कच्छदक्षिणकच्छार्द्धकूटं द्वितीयम् २, खंडग' खण्डीकं-खण्डप्रपातगुहाकुटं तृतीयम् ३'माणी' माणि माणिभद्रकूटम् चतुर्थम् ४ नामैकदेशो नामग्रहणात् 'वेयद्ध' वैताढयकूटम् पञ्चमम् ५ 'पुण्ण' पूर्ण भद्रकूटं षष्ठम् ६ 'तिमिसगुहा' तमिस्रगुहा तमिस्रगुहाकूटं सप्तमम् ७ 'कच्छे' कच्छं-कच्छकूटम् अष्टमम् ८ 'वेसमणे वा' वैश्रवणकूटं नवमम् ९ वा, एतानि नव 'वेयद्धे' वैताढये वैताढयपर्वते 'होति' भवन्ति 'कूडाई कूटानि ॥१॥ इति । ___ अथोत्तरकच्छविजयं पृच्छति-'कहि णं' क्व खलु 'भंते !' भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' की 'सेढीओ' श्रेणी 'ईसाणस्त' ईशान देवकी 'सेसाओ' शेष सीता महा नदी की दक्षिणदिशा की श्रेणी 'सकस्मत्ति' शकेन्द्र की कही है। इस कथनका भाव इस प्रकार है-सीता महा नदो की उत्तरदिशा में जो विजय वैताढय है, उसमें जो दक्षिणोत्तर दिग्वति आभियोग्य अणीयां है, सब सौधर्मेन्द्र की कही है। यहां पर बहु वचन का प्रयोग विजयवर्ति सर्व वैताढय श्रेणियों की अपेक्षा से है। अब नामनिर्देशपूर्वक कूटों का कथन करते हैं-"कूडा' कूटें यथा 'सिद्धे सिद्धायतन कूट१, वह पूर्व दिशामें हैं उसकी पश्चिम दिशामें शेष आठों कूट कहना चाहिए। कथा 'कच्छे' कच्छ-दक्षिणकच्छार्द्धकूट यह दूसरा कूट है२, 'खंडग' खंडकप्रपातगुहाकूट नामका तीसरा कूट है ३, 'माणी' माणिभद्रकूट नामका चोथा कूट है४, 'वेयद्ध' वैताढय कूट नामका पांचवां कूट है, 'पुण्ण' पूर्णभद्रकूट नामका छठा कूट है ६, तिमिसगुहा' तिमिस्रगुहाकूट नामका सातवां कूट है, 'कच्छे' कच्छकूट नामका आठवां कूट है८, 'वेसमणे या' वैश्रवणकूट नववां कूट है९, ये नव 'वेयद्धे' वैताढयपर्वत में होति' होते हैं 'कूडाई' कूट होते हैं ॥१॥ છે. આ કથનને ભાવ આ પ્રમાણે છે.–સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં જે વિજય પતા હય છે તેમાં જે દક્ષિણેત્તર દિગ્ગતિ આભિગ શ્રેણી છે એ બધી સૌધર્મેદ્રની કહેલ છે. અહીંયાં બહુ વચનનો પ્રયોગ વિયેવર્તિ સઘળી વૈતાઢય શ્રેણિયોની અપેક્ષાથી છે. ३ नाम निश पूर्व स्टोनु ४थन ४२ छ-'कूडा' ठूटोम? 'सिद्धे' सिद्धायतन ८ १, २ पूर्व दिशामा छ. मान आहे ४ा नये. २-'कच्छे' ४२७ ४क्षिण ४२छा दूट । माले टूट छ. २, 'खंडग' ५४ात गुखाट नाभनेत्री . छ. 3, 'माणी' मटि नमना याथे फूट छ. ४, 'वेयद्धा' वैताय नमनपांयम ठूट छ. 'पुण्णा' यू मद्रनाभने। छट्टो छ १, 'तिमिसगुहा' तिमिसगुडाट सातभा छ ७, 'कच्छे' ४२७ फूट नामन। मे। फूट छे. ८, 'वेसमणे वा' श्रवण नाभन नवमा ठूट छ. ८, से नव 'वेयद्धे' वै॥य ५'तमा 'होति' हाय छे. 'कूडाई' फूट डाय छे. ॥१॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए' उत्तरद्धकच्छो. नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ! गौतमः ! वेयद्धस्स' वैतादयस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्प 'उतरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि ‘णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपवयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'मालवंतस्स' माल्यवतः 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेणं पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पच्चरिथमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'जाव सिझंति' यावत् सिद्धयन्ति अत्र यावत्पदेन । 'ऊत्तरद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण वित्थिण्णे अट्ठजोयणसहस्साई दोणिय एगसत्तरे जोयणसए एक्कं चं एगूणवीसइभागं जोयणस्स आयामेणं दो ____ अब गौतमस्वामी कच्छविजय के विषय में प्रभु से प्रश्न करते हैं-'कहि गं' कहां पर "भते' हे भगवन् 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नामक द्वीपमें 'महाविदेहे वासे महाविदेह वर्षमें 'उत्तरद्धव.च्छे णामं विजए' उत्तरार्द्धकच्छ नामका विजय 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् श्री महावीर प्रभु कहते हैं'गोयमा! हे गौतम ! 'वेयद्धस्स' वैताढय 'पव्वयस्स' पर्वत की 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामें 'णीलवंतस्स' नीलवान 'वामहरपब्वयस्स' वर्षधर पर्वत की 'दाहिजेणं' दक्षिणदिशा में 'मालवंतस्स' माल्यवान् 'वक्खार पव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरथिमेणं' पूर्व दिशामें 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नाम के 'वक्खार पव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पचत्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'एत्थ' यहां पर 'ण' निश्चित 'जंघुद्दीवे दीवे' जंबुद्वीपनामक द्वीपमें 'जाव सिज्झंति' यावत् सिद्ध होते हैं। यहां यावत्पद से 'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए पण्णत्ते, 'उत्तरदाहिणायए, पईण. व गौतमस्वामी ४२७ वियना विषयमा प्रमुने प्रश्न पूछे छे 'कहिणं' या मागण 'भंते !, भगवन् 'जंबुद्दीवे दीवे' दी५ नमनदीपमा 'महाविदेहे वासे' महाविस वर्षमा 'उत्तरद्धकच्छे णामं विजए' उत्तराध ४२७ नाम वि०४५ 'पण्णत्ते' ४ छ ? । प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ-'गोयमा !' गौतम ! 'वेयद्धस्स' वैतादय ‘पवयरस' यवतनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा ‘णीलवंतस्स' नासवान 'वासहरपब्वयस्स' वर्षधर ५ तनी 'दाहिणणं' इक्षिण हिशामा 'मालवंतस्स' मास्यवान् 'वक्खारपव्वयस्स' पक्षा२ पवर्तनी 'पुरथिमेण' दिशामा 'चित्तकूडस्स' शिट नामना 'वक्खारपव्वयस्स' १३४१२ . तनी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम ६शामा 'एत्थणं' मी माण 'जंबुद्दीवे दीवे' दीपनामना दीपभा 'जाव सिझंति' यावत् सिद्ध थाय छे. महीया या१५४थी 'उत्तरकच्छे णाम विजए पण्णत्ते, उत्तर दाहिणायए पाईणपडीणवित्थिण्णे, अट्ठ जोयण सहस्साइं दोण्णिय एगसत्तरे जोयणसए एकं च एगूणवीसई भागं जोयणस्स आयामेणं दो जोयणसहस्साई Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थ वक्षस्कारः सू .२६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३२९ जोयणसहस्साई दोणि य तेरसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेखणे विक्खंभेणं पलियंकसंठाणसंठिए, उत्तरद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पप्णते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते तं जहा कित्तिमे हिं चेव अकित्तिमेहिं चेव जाव उवसोभिए, उत्तरद्धकच्छे णं भंते ! विजए मणुयाणं के रिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोयमा ! तेसि णं मणुयाणं छविहे संघयणे जाव बहूई वासाई पालेति पालित्ता अप्पेगइया णियरगामी अप्पेगइया तिरियगामी अपऐगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइया' इतिपर्यन्तपदसग्रहो वोध्यः, एतच्छायाऽयों सुगमौ सिझंतीत्युपलक्षमं तेन 'बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्यायंति, सम्बदुक्खाणमंतं करेंति, इत्येषां सङ्ग्रहः एतद्वन्याख्या चैकादशसूत्राद् ग्राह्या । एवं दक्षिणार्द्धकच्छवद् बोध्यम् एतदेव सुचयितुमाह-'तहेव णेयव्वं सव्वं तथैव नेतव्यं सर्वमिति तथैव दक्षिणाईकच्छवदेव सर्वम् आयामविष्कम्मादिकम् नेतव्यं बोधपथं प्रापणीयं बोध्यमित्यर्थः, पडीणवित्थिपणे अट्ठ जोयणसहस्साई दोण्णिय एगसत्तरे जोयणसए एकं च एगूणवीसहभागं जोयणस्स आयामेणं दो जोयणसहस्साई दोणिय तेरसुत्तरे जोयणसए किंचि विसेसूणे विक्खंभेणं पलियंकसंठाणसंठिए, उत्तरद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्त ? गोयमा ! बहुसम रमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' तं जहा-कित्तिमेहिं चेव अकिति मेहिं चेव जाव उवसोभिए, उत्तरद्धकच्छे णं भंते ! विजए मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा! तेसिणं मणुयाणं छव्विहे संघयणे जाव बहुइं वासाई पालेंति पालित्ता अप्पेगइया गिरयगामी अप्पेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगाइया' इन पदों का संग्रह हुआ है। इन पदों का अर्थ सुगम है अतः यहां नहीं दिया है । 'सिझंति' यह पद उपलक्षण है अतः 'बुज्झंति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सव्वदुःखाणमंतं करें ति, इन पदों को भी ग्रहण करलेवें। और सब वर्णन दक्षिणार्द्ध कच्छ के वर्णन के जैसा दोण्णि य तेरपुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे विक्खंभेणं पलियंकसंठाणसंठिए उत्तरद्धकच्छम्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तं जहा कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव जाव उपसोभिए ! उत्तरद्धकच्छे णं भंते ! विजए मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! तेसिणं मणुयाणं छविहे संघयणे जाव बहुइं वासाई पालेंति पालिता अप्पेगइया णिरयगामी अप्पेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुयगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पे ।इया' 20 होना सह थय। छ. या पहोना पथ स२५ . मेथी मी या मतावर नथी. 'सिझंति' ५। ५५ Gaक्षण छ. तेथी 'बुझंति, मुच्चंति, परिणिव्वाति सव्वदुःखाणमंतं करें ति' २५॥ પદને પણ ગ્રહણ કરી લેવા બીજુ તમામ વર્ણન દક્ષિણાદ્ધ કચછના વર્ણનની જેમ સમજી वे. २ मतावा भाटे सूत्रारे 'तहेव णेयव्यं सां' हा ४२छनवर्णननी सरभु ज०४२ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथैतदन्तर्वति सिन्धुकुण्डं विवर्णयि पुराह-'कहि णं भंते !' क्व खलु भदन्त ! 'जंबु. दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्ष 'उत्तरद्ध कच्छे विजए' उत्तरार्द्धकच्छे विजये 'सिंधुकुंडे णामं कुंडे' सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'मालवंतस्स' माल्यवतः 'वक्वारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'उसभकूडस्स' ऋषभकूटस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये-दक्षिणदिग्भवे 'णितंबे' नितम्बे-मध्यभागे मेखलारूपे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे ‘णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'उत्तरकच्छविजए' समझलेवें, यह कहने के लिए सूत्रकार ने 'तहेव णेयव्वं सव्वं' उसी प्रकार अर्थात् दक्षिणार्द्धकच्छ के वर्णन के सदृश सब वर्णन समझलेवें यह पद दिया है। इसका आयाम विष्कंभ आदि सबवर्णन दक्षिणा कच्छ के कथनानुसार समझलेवे। ___अब उत्तराईकच्छविजय के अंतर्गत सिंधुकुंड का वर्णन करने की इच्छा से सूत्रकार कहते हैं-'कहि णं भंते !' हे भगवन् कहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे जंबूद्वीप नाम के द्वीपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह वर्षमें 'उत्तरद्धकच्छे विजए' उत्तरा कच्छ विजय में 'सिंधुकुंडे णामं कुडे' सिंधुकुड नामका कुंड 'पएणत्त' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'मालवंतस्स' माल्यवान् नाम के 'वक्खारपवयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पुरस्थिमेणं' पूर्व दिशामें 'उसभडस्स' ऋषभकूट नाम के वक्षस्कार पर्वत के 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'णीलवंतस्स' नीलवंत 'वासहरपवयस्स' वर्षधर पर्वत के 'दाहिणिल्ले दक्षिण दिशा के 'णितंबे मध्यभाग में-मेखलारूप में 'एत्थणं' यहां पर 'जंबुद्दीवे दीवे' जंबूद्वीप नाम के द्विपमें 'महाविदेहे वासे' महाविदेह તમામ વર્ણન સમજી લેવું. આ પદ આપેલ છે. આના આયામ વિખંભાદિ સઘળું વર્ણન દક્ષિણાર્ધ કચ્છના વર્ણન પ્રમાણે સમજી લેવું. હવે ઉત્તરાર્ધ કચ્છ વિજયની અંદર આવેલ સિંધુ કુંડનું વર્ણન કરવાની ભાવનાથી सूत्रार ४ छ-'कहि णं भंते !' भगवन् ४यां मा 'जंबुद्दीवे दोवे' दी५ नामना द्वीपमा 'महाविदेहे वासे' भविड वर्षमा 'उरद्धकच्छे विजए' उत्तराध ४२७ विन्यमा "सिंधुकुंडे णामं कुडे' सिंधु नामना हु 'पण्णत्ते' ४डस छ ? २॥ प्रशन उत्तरमा भवी२ प्रभुश्री ४ छे. 'गोयमा!' गौतम ! 'मालवंतस्स' मास्यवान् नमन। 'वक्खारपव्वयस्स' १क्ष२४१२ पतनी 'पुरथिमेणं' पूर्व दिशामा 'उसभकूडस्स' पम ट नामना पक्ष२४।२ पतनी ‘पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'णीलवंतस्स' नासवत 'वासहरपव्वयस्स' व २ पतनी 'दाहिणिल्ले' क्षिा हिशाना 'णितंबे' मध्य भागमां-भेमा ३५मा 'एत्थ णं महीं मा 'जंबुद्दीवे दीवे' दी५ नामना दीपभा 'महाविदेहे वासे' महेिड Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवस्कारः सू. २६ विभागमुखेम कच्छविजय निरूपणम् ३३१ उत्तरार्द्धकच्छ विजये 'सिंधुकुंडं णामं कुंडं' सिन्धुकुण्डं नाम कुण्डं 'पण्ण' प्रज्ञप्तम्, तच्च 'सट्ठि ' षष्टिं 'जोयणाणि' योजनानि ' आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण - दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम् 'जाव भवणं' यावद् भवनं - भवनपर्यन्तम् वर्णनीयम् 'अहं' अर्थ :- सिन्धुकुण्डेति नामार्थः ' रायहाणी' राजधानी 'य' च 'णेयव्वा' नेतव्या प्रापणीया बोध्या, लाघवार्थमतिदेशमाह-'भरहसिंधुकुंड सरिसं सव्वं यव्वं' भरत सिन्धुकुण्डसदृशं सर्व नेतव्यं भरतवर्षवर्ति सिन्धुकुण्डवत् सर्वं नेतव्यम् ज्ञेयम् । तच्च किम्पर्यन्तम् इत्याह- 'जाव' इत्यादि - यावत् 'तस्स' तस्य 'णं' खलु 'सिंधु कुंड' सिन्धुकुण्डस्य 'दाहिणिल्लेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरन बहिर्द्वारेण 'सिंधु महाणई' सिन्धुमहानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निर्गता 'समाणी' सती 'उत्तरद्ध कच्छ विजयं' उत्तरार्द्ध कच्छ विजयम् 'एज्जेमाणी २' इर्यतो २ भूयो भूयो गच्छन्ती 'सत्तर्हि ' सप्तभिः 'सलिलासहस्सेहिं' सलिलासहस्त्रैः - नदीसहस्त्रैः 'आपूरेमाणी२' आपूर्यमाणा २ पुनः वर्ष में 'उसरट्रकच्छ विजए' उत्तरार्द्ध कच्छविजय में 'सिंधुकुंडे णामं कुंड' सिन्धुकुंड नामका कुंड 'पण्णत्ते' कहा है। वह सिंधुकुंड 'सट्ठि' साइठ ६० 'जोगणाणि' योजन 'आयासविखंभेणं' लंबाई चोडाइ से कहा है ' जाव भवणं' यावत् भवन के वर्णन पर्यन्त का वर्णन करलेवें' 'अहं' सिंधुकुंड के नामार्थ 'राहाणी' उसकी राजधानी 'य' एवं 'णेयव्वा' सब वर्णन समझलेवें इस वर्ण को संक्षेप करने के हेतु से अतिदेश द्वारा सूत्रकार कहते हैं- 'भरह सिंधु कुंडसरिसं सव्र्वणे' भरतकुंड के वर्णन के समान समग्र वर्णन समझलेवें । वह वर्णन यहां कहांतक का ग्राह्य है ? इस के लिए कहते हैं 'जाव' इत्यादि यावत् 'तस्स णं' उस 'सिंधुकु'डस्स' सिंधुक्कुड कि 'दाहिणिल्लेणं' दक्षिणदिश के 'तोरणेणं' बहिर्द्वार से 'सिंधु महाणई' सिंधु महा नदी 'पवूढासमाणी' निकलती हुई 'उत्तरद्वकच्छविजयं' उत्तरार्द्ध कच्छविजय को 'एज्जमाणी२' स्पर्श करती हुई २ 'सत्तहिं' सात 'सलिला सहस्सेहिं' हजार नदीयों से 'आपूरे वर्षभां 'उत्तरद्धयच्छविजए' उत्तरार्ध ४२७ विश्यमा 'सिंधुकुंडे णामं कुंडे' सिधुडु उ नामना झुंड 'पण्णत्ते' हे छे यो सिधुडुङ 'सट्ठि' सा १० 'जोयणाणि' योन 'आयाम विकखंभेणं' संगाई होणाश्री डेस छे, 'जाव भवणा यावत् लवनना वार्जुन पर्य ंतनुं वार्जुन भरी सेवु 'अहं' सिधुडु उना नाभार्थ 'रायहाणीय' रामधानी વિગેરે ઊઁચત્ર' સઘળું વન સમજી લેવું. આ વનને સ ંક્ષેપ કરવાના હેતુથી व्यति देश द्वारा सूत्र ४ छे. - ' भरहसिंधुकुडसरिसं सव्वं णेयव्वं' लरतडुडेना वर्षान પ્રમાણે સઘળું વન સમજી લેવું. એ વન અહીંયાં કયાં સુધીનુ ગ્રહણ કરવાનુ છે ? मे लज्ञासा निवृत्ति भाटे हे छे-'जाव' त्यिाहि यावत् 'तस्स णं' ये 'सिंधुकु'डस्स' सिंधु हुंडेनी ' दाहिणिल्लेगं' दृक्षिशु हिशाना 'तोरणेणं' अहिर्द्वारथी 'सिंधुमहाणई' सिंधु महानही 'पवूढा समाणी' नीजीने 'उत्तरकच्छविजयं' उत्तरार्ध १२ विनयने 'एज्जमाणी २' स्पर्शती स्पर्शती 'सत्तहिं' सात 'सलिला सहस्सेहिं' भर नहीओ 'आपूरेमाणी २' वारंवार लरती Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पुनः सम्पूरिता भवन्ति 'अहे' अधःअधोभागे 'तिमिसगुहाए' तिमिस्रगुहायाः 'वेयद्धपव्वयं' वैताव्यपर्वतं दालयित्ता' दारयित्वा 'दाहिणकच्छविजयं' दक्षिणकच्छविजयम् 'एज्जेमाणी २' इर्यती २ पुनः पुनः, गच्छन्ती 'चोदसहि' चतुर्दशभिः 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहस्त्रैः 'समग्गा समग्रा-सम्पूर्णा 'दाहिणणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीयं' सीतां 'महाणइं' महानदी 'समप्पेइ' समाप्नोति सम्-सम्यक्तया आप्नोति गच्छति प्रविशतीतिभावः, 'सिंधुमहाणई' सिन्धुमहानदी 'पवहे' प्रवहे-समुद्रप्रवेशे 'य' च पुनः 'मूले' मूले निर्गमस्थाने 'य' च 'भरहसिंधुसरिसा' भरतसिन्धुसदृशी भरतवर्षवर्ति सिन्धुमहानदीवत् 'पमाणेणं' प्रमाणेन आयामविष्कम्भादिमानेन इत्यारभ्य 'जाव दोहिं वणसंडे हिं संपरिक्खित्ता' यावद् द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता परिवेष्टिता इति पर्यन्तं वर्णनं बोध्यम् । एतत्सर्वं भरतवर्षवर्ति सिन्धुमहानदी प्रकरणतो ग्राह्यम् । अथोत्तरार्द्धकच्छान्तर्वति ऋषभकूट पर्वतं वर्णयितुमाह-'कहि णं भंते !' क्व खलु माणी२' बार बार पूरित होती हुई 'अहो' अधो भागमें 'तिमिसगुहाए' तमिस्रा गुहामें 'वेयद्वपव्वयं' वैताढयपर्वत को 'दालयित्ता' पार कर के 'दाहिणकच्छविजयं' दक्षिणदिशा के कच्छविजय को 'एजमाणी२' बार बार स्पर्शती हुई 'चोदसहि' चतुर्दश चौदह 'सलिलासहस्सेहिं' १४ हजार नदीयों से 'समग्गा' सम्पूर्ण होती हुई 'दाहिणेणं' दक्षिण दिशामें 'सीयं 'महा गई' सीता महानदी को 'समप्येई' प्राप्त करती है अर्थात् सीता महा नदी में मिलती है । 'सिंधुमहाणई' सिंधु महा नदी 'पवहेय' समुद्र प्रवेश में और 'मूले' मूलमें अर्थात् उद्गमस्थान में 'य' और 'भरह सिंधुसरिसा' भरतवर्षेगत सिंधु महानदी के जैसी 'पमाणेणं' आयामविष्कभादि प्रमाण से यहां से आरम्भ कर 'जाव दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्वित्ता यावत् दो वनषण्डों से वेष्टित होती हुई इस कथन पर्यन्त का सम्पूर्ण वर्णन समझलेवें । यह सब वर्णन भरत. वर्ष में रही सिंधुमहा नदी के वर्णनावसर से समझलेवें। यही 'अहे' यो भागमा 'तिमिसगुहाए' तिमिसगुलामा 'वेबद्धपव्वयं' वैतादय पतन 'दालयित्ता' पार ४शत 'दाहिणकच्छविजय' शिष् शान ४२७ वियन एज्जमाणी२' २५शती २५ ती 'चोदसहि' यो: 'सलिलासहस्सेहिं' १२ नहीयोथी 'समग्गा भराती मराती 'दाहिणेणं' शिम 'सीयं महाणई' सीता महानहीन 'समप्पेइ' पास ४२ छे. मात् सीता मानहीन भणे छे. 'सिंधु महोणई' सिधुमडानही 'पवहेय' समुद्र प्रवे. शमा अने. 'मूले' भूम ये 3 अत्पत्ति स्थानमा 'य' भने 'भरहसिधु सरिसा' सरत 4.भा मारेर सिधु महानहीना देवी ‘पमाणेणं' आयाम विष्ठा प्रभाथी मही थी मार मीन 'जाव दोहि वणसंडेहि संपरिक्खित्ता' यावत् मे वनपथी वीटातीमा ४थन પર્યન્તનું પુરેપુરું વર્ણન સમજી લેવું. આ બધું વર્ણન ભરતવર્ષમાં આવેલ સિંધુમહા નદીના વર્ણન પ્રસંગથી સમજી લેવું. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३३ भदन्त ! 'उत्तरकच्छ विजए' उत्तरार्द्धकच्छविजये 'उसमकडे णामं ऋषभकूटो नाम 'पन्चए' पर्वतः 'पण्ण ?' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ' गौतम ! 'सिंधुकुंडस्स' सिन्धुकुण्डस्य 'पुरस्थिभेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'गंगाकुंडस्स' गङ्गाकुण्डस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'णीलवंतस्त' नीलबतः 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये 'णितंबे' नितम्बे मध्यभागे मेखलालक्षणे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'णं' खलु 'उत्त. रद्ध कच्छविजए' उत्तरार्द्धकच्छविजये 'उसह कूडे' ऋषभकूटः 'णाम' नाम 'पव्यए' पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च 'अट्ठ' अष्ट 'जोयणाई' योजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन प्रज्ञप्तः 'तं चेव' तदेव एकोनविंशतितमसूत्रोक्तोत्तरार्द्धभरतवर्षवर्तिऋषभकूटपर्वतवदेव 'पमाणं' प्रमाणम् उच्चत्वोद्वेधादिमानं बोध्यम् एवं तत्रत्यः सौं वर्णकोऽत्र ग्राह्यः, स च अब उत्तरार्द्रयच्छ के अन्तर्वति ऋषभकूट पर्वत का वर्णन करते हुवे सूत्रकार कहते हैं-'कहिणं भंते !' हे भगवन् कहां पर 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरा कच्छविजय में 'उसभकूडे नाम ऋषभकूट नामका पयए' पर्वत 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान श्री कहते हैं-'गोयमा !' हे गौतम ! 'सिंधुकुडस्स सिंधुकुड की 'पुरस्थिमेणं' पूर्वदिशा में 'गंगाकुडल्स' गंगाकुड की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में 'णील तस्स' नीलबान 'वासहरपव्ययस्त' वर्षधर पर्वत को 'दाहिणिल्ले' दक्षिगका 'णि बे' मेखलारूप मध्यभाग में "एत्थणं' यहां पर 'उत्तरेद्धकच्छविजए' उत्तरार्द्धयच्छ विजय में 'उसहकूडे' ऋषभकूट 'णाम' नामका 'पवए' पर्वत 'पण्णत्ते' कहा है। वह पर्वत' अg' आठ' जोयणाई' योजन 'उद्धं उच्चत्तेग' ऊपर की ओर ऊंचा है। 'तचेव' उन्नीसवे सूत्र में कहा गया उत्तराई भरत वर्ष ऋषभकूट पर्वत के कथनानुसार ही 'पमाणं' प्रमाण अर्थात् उच्चत्व उछेध आदि मान जानना चाहिए । इसी प्रकार ऋषभकूट वे उत्तरा ४२७ना तात' पलट ५'तनु वा न ४२त सूत्रा२ ४ छ–'कहि ण भंते ! भगवन् या मा 'उतरद्धयच्छविजए' उत्तरा ४२७ वियम 'उसभकूडे णामं' 12 नामनी पव्यए' ५'त 'पण्णत्ते' ४ छ ? २॥ प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ 'गोगमा !' गौतम! 'सिंधुकुडस्स' सिंधु उनी 'पुरस्थिमेणं' पूर्व ६शमा 'गंगाकुंडस्स' । उनी 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'णीलवंतस्स' नासान् 'वासहरपव्वयस्स' वर्ष ५२ पनी 'दाहिणिल्ले' क्षिा सामना 'णितंबे' मध्य भागमा 'एत्थणं' मी माग 'उत्तरद्ध कच्छविजए' उत्तराध ४२७ वि. यमा 'उसहकूडे' ऋषमट 'णाम' नाभन पव्वए' पर्वत पण्णत्ते' ४९ छे. ५वत 'अ' 413 'जोयणाई' योशन 'उद्धं उच्चत्तण' अ५२नी मान्थे । छ 'तं चेव' यासणी. સમાં સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ ઉત્તરાર્ધ ભરત વર્ષવર્તિ અષભ કૂટ પર્વતના કથન પ્રમાણેનું ‘पमाणं' प्रभार अर्थात यव, द्वेष, विगेरे भा५ समवे. Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे किम्पर्यन्तः इत्याह-'जाव रायहाणी' थावद् राजधानी राजधानीवर्णकपर्यन्तः, किन्तु तत्र दक्षिणेन राजधानी प्रोक्ता अत्र तु 'से' सा राजधानी 'णवरं' केवलं 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'भाणियन्त्रा' भणितव्या-वक्तव्या, अन्यत् सर्व तद्वदेव वर्णनीयमिति । विशेषजिज्ञामुभिरेकोलविंशतितमसूत्रं विलोकनीयम् । अथैतदन्तर्वतिगङ्गाकुण्डं वर्णयितुमाह-'कहिणं भंते !! इत्यादि क्व खलु भदन्त ! "उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरार्द्धकच्छविजये 'गंगाकुडे' गङ्गाकुण्ड 'णाम' नाम 'कुडे' कुण्डं 'पण्णते' प्रज्ञतम् ?, इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा !' गौतम । "चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य 'वक्खारपच्चयरस' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'उसभकूडस्स' ऋषभकूटस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्पेन-पूर्वदिशि ‘णीलवंतस्स' नीलवतः 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये पर्वत का समग्र वर्णन यहां समझलेना चाहिए । वह वर्णन कहां तक का ग्रहण करना इस के लिए कहते हैं 'जाव रायहाणी' यावत् राजधानी के वर्णन पर्यन्त का सभी वर्णन यहां पर समझलेवें। परंतु वहां पर राजधानी दक्षिणदिशा में कही गई है, एवं यहां पर से वह राजधानी 'णवरं' केवल 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामें भाणियव्वा' कहनी चाहिए। और सभी कथन वहां के वर्णनानुसार वर्णित करलेवें । विशेष जिज्ञासुओं को उन्नीसवां सूत्र देखलेना चाहिए। अब उसके अन्तर्वर्ति गंगाकुड का वर्णन करने के हेतु से कहते हैं-'कहि णं भंते !' इत्यादि हे भगवन् कहाँ पर 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरार्द्धकच्छविजय में 'गंगाकुडे' गंगाकुड 'णाम' नामका 'कुडे' कुड 'पप्णत्त' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री महावीर प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम ! 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट 'वक्खारपव्वयम्स' वक्षस्कारपर्वत की 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिम दिशामें 'उसभकूडस्स' ऋषभकूड 'पव्वयस्स' पर्वत की 'पुरथिमेणं' पूर्वदिशामें એ જ પ્રમાણે ભ કૂટ પર્વતનું સંપૂર્ણ વર્ણન અહીંયાં સમજી લેવું. તે વર્ણન ज्या सुधानु अ५ ४२ १ २ माटे ४ छे–'जाव रायहाणी' यावत् राजधानी ५-तनु બધુ વર્ણન અહીંયાં સમજી લેવું જોઈએ પરંતુ ત્યાં રાજધાની દક્ષિણ દિશામાં કહેલ છે. भने माडीयां 'से' से रायानी 'णवरं' व 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामा 'भाणियव्वा' या જોઈએ. બીજું તમામ કથન ત્યાંના વર્ણન પ્રમાણે વર્ણવી લેવું. વિશેષ જિજ્ઞાસુઓએ ઓગણીસમું સૂત્ર જોઈ લેવું જોઈએ. व तेनी ४२२मावेस गनु १ - ४२पाना तुथी ४ छ 'कहिणं भंते !' भगवन् ४यां सामण 'उत्तरद्धकच्छविजए' उत्तरा ४२७ विश्यमा 'गंगाकुडे' ' 'णाम' नोमन 'कुडे' ' 'पण्णत्ते' स छ ? सा प्रश्न उत्तरमा महावीर प्रभु श्री र छ-'गोयमा !' गौतम ! 'चित्तकूडस्स' यिट 'वक्खारपब्बयस्स' वृक्षः४२ पतनी पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामा 'उसभकूडस्स' अषस टूट 'पव्ययस्स' ५वत ना 'पुरस्थिमेणं' Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजय नि रूपणम् ३३५ "णितंबे' नितम्बे मध्यभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'उत्तरद्धकच्छे' उत्तरार्द्धकच्छे 'गंगाकुंडे' गङ्गाकुण्डम् ‘णाम' नाम 'कुंडे' कुण्डं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तच्च 'सहि पष्टिं 'जोय. णाई' योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण-दैर्ध्यविस्ताराभ्याम् प्रज्ञप्तम् इदं च 'तहेव' तथैव तद्वदेव 'जहा' यथा 'सिंधू' सिन्धुः-सिन्धुमहानदी गङ्गामहानदीवद् गङ्गासिन्धुस्वरूपवर्णनाधिकारे वर्णिता तद्वर्णकांशमेव दर्शयितुमाह-'जाव वणसंडेण य संपरिक्खितेति' यावद् वनषण्डेन च सम्परिक्षिप्ता तत्र सिन्धु-प्रपातकुण्डं गङ्गाप्रपातकुण्डवदेव वर्णितं तदशेष वर्णनमिहापि वाच्यम् तथा चात्र गङ्गाकुण्डं सिन्धुकुण्डरद् वर्णनीयमिति पर्यवसितम् किन्तु तत्र प्रथमं गङ्गावर्णनं ततः सिधुवर्णनम् अत्र तु व्यत्ययः, तत्कारणं च माल्यवद्वक्षस्कारतो विजयप्ररूपणायाः प्रक्रान्तत्वेन तदासनावात् सिन्धुकुण्डस्य प्ररूपणा प्रथमतः कर्तु'णीलवंतस्स' नीलवान् ‘वासहरपव्ययस्स' वर्षधर पर्वत की 'दाहिल्ले' दक्षिण दिशा के 'णितं.' मध्यभाग में 'एस्थणं' यहां पर 'उत्तरद्धकच्छे' उत्तरार्द्धकच्छ का 'गंगाकुडे' गंगाकुंड 'णाम' नामका 'कुडे' कुंड 'पण्णत्ते' कहा गया है। वह कुंड 'सहि' साईट 'जोयणाई' योजन 'आयामविखंभेणे' लंबाई चोडाई से कहा है। इसका वर्णन 'तहेव' वैसाही समझें कि 'जहा' जिस प्रकार "सिंधू' सिंधुमहा नदी गंगामहा नदी के वर्णनसमान गंगा सिंधुस्वरूप वर्णनाधिकार में वर्णित किया है + उस वर्णनांश को प्रकट करते हुवे कहते हैं-'जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्तेत्ति' यावद्धनचंड से परिक्षिप्त वहां पर सिंधुप्रपातकुड का वर्णन गंगाप्रपातकुड के सदृशही किया है, वही समग्र वर्णन यहां पर भी कहलेना चाहिये। इस प्रकार यहां पर गंगाकुड का वर्णन सिंधुकुड के सदृशवर्णित कर लेना यह निश्चित हुआ। परंतु वहां पर पहला गंगाका वर्णन आया है, तदनन्तर सिन्धु का वर्णन है। यहां पर व्यत्यय है उसका कारण माल्यवान् वक्षस्कार ५ ६शामा ‘णीलवंतस्स' नावान् 'वासहरपव्ययस्स' १२ पतनी 'दाहिणिल्ले' हक्षिण ६शाना 'णितंबे' मध्यभागमा 'पत्थणं' महीयां 'उत्तरद्धकच्छे' उत्तराध ४न्छन। 'गंगाकुंडे' पाडू'णाम' नामन'कुडे' ॐ 'पण्णत्ते' ४ छ. ये 3 'सर्व्हि' सा 'जोयणाई' योरन 'आयामविक्खंभेग' as art 3 छ. तेनु वाणुन तहेव' मे समा. 'जहा' २ प्रमाणे सिंधू' सिधु भानही ॥ महानहीनासमान, ॥ सिधु-१३५ १ ना४ि।२भांस छ. ये वर्ष नाशने प्रयट ४२di डे -'जाव वणसंडेण य संपरिक्खित्तेत्ति' यावत् वनपथी व्यात त्या नधु प्रपात हुनु वर्णन यातना સરખું જ કરેલ છે. એ તમામ વર્ણન અહીંયાં પણ કહી લેવું જોઈએ. એ રીતે અહીંયાં ગંગાકુંડનું વર્ણન સિંધુકંડકા વર્ણન પ્રમાણે વર્ણવી લેવું તેમ નિશ્ચય થયેલ છે. પરંતુ ત્યાં આગળ પહેલાં ગંગાનું વર્ણન આવેલ છે. તે પછી સિંધુનું વર્ણન છે. પણ અહીંયાં તેમાં ફેરફાર છે. તેનું કારણ માલ્યવાન વક્ષસ્કાર પર્વતથી વિજયની પ્રરૂપણના પ્રકારા Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुचितेति तन्निर्गतायाः सिन्धोः अपि प्ररूपणात्र प्रथमतः कृता ततो गङ्गाया इति, परन्तु गङ्गाप्रपातकुण्ड निर्गता गङ्गामहानदी खण्डप्रपातगुहाया अधो वैताढ्यगिरिं दारयित्वा दक्षिणभागे सीतानदी मुपैतीति विशेषः । अथ प्रश्नोत्तराभ्यां कच्छविजयेति नामार्थमाह- 'से केणट्टे णं भंते !" इत्यादि - अथ केनान केन कारणेन भदन्त ! ' एवं बुच्चइ' एवमुच्यते 'कच्छे विजए कच्छे विजए ?' कच्छो नाम विजयः कच्छो विजयः इति, गौतमस्वामिनः प्रश्नोत्तरं भगवानाह - 'गोयमा !” गौतम ! 'कच्छे विजए' कच्छो विजयः 'वेयद्धस्स' पैताढयनामकस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'सीयाए' सीतायाः 'महाणईए' महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'गंगाए' गङ्गायाः 'महाणईए' महानद्या : 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'सिंधुए ' सिन्ध्या 'महाणईए' महानद्या: 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि ' दाहिणद्धकच्छविजयस्स' पर्वत से विजय की प्ररूपणा का प्रकारान्तर से उसका समीपवर्तिपना होने से सिंधुकुंड की प्ररूपणा प्रथम करना उचित होने से वहाँ से निर्गत सिंधु की प्ररूपणा प्रथम की है, तत्पश्चात् गंगाकुड की । परंतु गंगाप्रपातकुंड से निकली हुई गंगामहा नदी खंडप्रपातगुहा के नीचे वैताढ्य गिरिको दबाकर दक्षिणभाग में सीतानदी को प्राप्त होता है यह विशेष है । अब प्रश्नोत्तर द्वारा कच्छविजय नामका अर्थ कहते हैं-' से केणट्टेणं भंते!' हे भगवन् किस कारण से 'एवं बुच्चई' ऐसा कहा जाता है कि 'कच्छेविजए कच्छेविजए' इस का नाम कच्छविजय इस प्रकार कहा है ? गौतमस्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान कहते हैं- 'गोमा !" हे गौतम 'कच्छे विजए' कच्छविजय 'वेयद्धस्स' वैताढ्य 'पव्वयस्स' पर्वत की 'दाहिणेणं' दक्षिणदिशा में 'सीयाए' सीता 'महाणईए' महानदी कि 'उत्तरे णं' उत्तरदिशा में 'गंगाए' गंगा ન્તરથી તેનું નજીક પણું હાવાર્થી ત્યાંથી નીકળેલ સિધુની પ્રરૂપણા પહેલાં કરેલ છે. તે પછી ગંગાકુંડની પરંતુ ગંગાપ્રપાત કુંડથી નીકળેલ ગંગા મહાનદી ખંડ પ્રપાત ગુહાની નીચે વૈતાઢય પર્યંતને દબાવીને દક્ષિણ ભાગમાં સીતા નદીને મળે છે એ વિશેષતા છે. हवे प्रश्नोत्तर द्वारा ४२ विभ्य नाम अर्थ मतावे छे - 'से केद्वेण भंते ! ' भगवन् शारथी 'एवं बुच्चइ' मेम वामां आवे छे. - ' कच्छे विजए, कच्छे बिजए' આનું નામ કચ્છ વિજય એ પ્રમાણે કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે'गोयमा !' हे गौतम! 'कच्छे विजए' ४२७ विनय 'वेयद्धस्स' वैताढ्य 'पन्चयरस' पर्वतनी 'दाहिणेण' दृक्षिणु हिशामां 'सीयाए' सीता 'महाणईए' महानहीनी 'उत्तरेणं' उत्तर द्विशामां 'गंगाए गंगा 'महानदीए' भडा नहीनी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामां 'सिंधु' सिंधु 'महाणईए' भानही ती 'पुरस्थिमेणं' पूर्व दिशाभां 'दाहिणकच्छ विजयस्स' दक्षिणाध १२ विजयनी 'बहुमज्झदे सभाए ' हु मध्य देशलागमां 'एत्थणं' गडींयां 'खेमा णामं ' Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३७ दक्षिणार्द्धकच्छविजयस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-मध्यखण्डे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे ‘णं' खलु 'खेमाणाम' क्षेमा नाम 'रायहाणी' राजधानी 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'वि. णीया रायहाणी सरिसा' विनीता राजधानी सदृशी विनीताराजधानीवत् 'भाणियव्या' भणितव्या वक्तव्या, विनीतावर्णकः सूत्रान्तराद् ग्राह्य : 'तत्थ' तत्र 'ण' खलु 'खेमाए' क्षेमायाम् 'रायहाणीए' राजधान्याम् 'कच्छे णाम' कच्छो नाम 'राया' राजा चक्रवर्ती 'समुप्पजइ' समुत्पद्यते संजायते। अयम्भाव:-क्षेमाराजधान्यामुत्पद्यमानः षट्खण्डैश्वर्यभोगी कच्छ इति लोकैय॑यहियते, अत्र वर्तमाननिर्देशेन सर्वदाऽपि यथासम्भवं चक्रवर्तिराजोत्पत्तिः सूचिता, ननु भरतवर्षक्षेत्र इव चक्राति राजोत्पत्तौ कालनियम इति, स च राजा कीदृशः १ इति जिज्ञासायामाह-'महया हिमवंत०' महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्रसारः--महाहिमवान्-हैमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरः पर्वतः, मलयः- पर्वतविशेषः, मन्दरः- मेरुः, महेन्द्रः-पर्वत'महाणदीए' महानदी की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमदिशा में सिंधु सिधु 'महाणईए' महानदी के 'पुरथिमेणं' पूिर्वदशा में 'दाहिणद्ध कच्छविजयस्स' दक्षिणाईकच्छविजय के 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशमाग में 'एत्थ णं' यहां पर 'खेमा णाम' क्षेमा. नामकी 'रायहाणी' राजधानी एण्णत्ता' कही गई है। वह राजधानी 'विणीयारायहाणी सरिसा' विनीता राजधानी के समान 'भाणियव्वा' कहनी चाहिए। विनीता का वर्णन अन्य सूत्र से ज्ञात करलेवे। 'तत्थ णं' वहां पर 'खेमाए' क्षेमा 'रायहाणीए' राजधानी में 'कच्छे णामं' कच्छनामका 'राया' चक्रवर्ति राजा 'सनुप्पज्जइ' उत्पन्न होगा ! इस कथन का भाव इस प्रकार है-क्षेमाराजधानी में उत्पन्न होनेवाला कच्छनामका राजा षटूखंड ऐश्वर्य का भोक्ता होगा ऐसा लोकोक्ति है। यहां पर वर्तमान निर्देश से यथासम्भव चक्रवर्ति राजा की उत्पत्ति सूचित की है-भरतवर्ष क्षेत्र के जैसे चक्रवर्ति राजा की उपत्ति में कालनियम नहीं है, वह राजा कैसा है ? इस के लिए कहते हैं-'महयाहिमवंत' महाहिमचन्मलयमंदर महेन्द्र के जैसे सारवान् महाहिमवान्-हैमवत क्षेत्र के उत्तर में सीमाकारी मा नामनी रायहाणी' यानी 'पण्णत्ता' ४ छ. थे यानी 'विणीयारायहाणी 'सरिसा' विनीता साधानानी सरजी भाणियव्वा' ४२वी स. विनीता शयानानु वन भी सूत्र यामाथी jी : 'तत्थ गं' या मागण 'खेमाए' मा नामनी 'रायहाणीए' सधानीमा 'कच्छे णाम' ४२७ नामधारी 'राया' यति २० षट्श्व यन ભેગવનાર થશે તેમ લેકેતિ છે અહીંયાં વર્તમાનના નિર્દેશથી સર્વદા યથાસમેવ ચક્રવતિ રાજાની ઉત્પત્તિ સૂચવેલ છે. ભરત વર્ષ ક્ષેત્રના જેવા ચક્રવર્તિ રાજાની ઉત્પત્તિમાં ४८ नियम नथी. ते शत वो छ ? मता भाट ४ छे. 'महयाहिमवंत' महा હિમવન્મલય મંદર મહેન્દ્રના જે સારવાળે મહાહિમવાન-હૈમવતક્ષેત્રની ઉત્તરમાં સીમાકારી વર્ષધર પર્વત. મલય–પર્વત વિશેષ; મન્દર-મેરુ મહેન્દ્ર–પર્વત વિશેષ આ બધાની ज० ४३ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विशेषश्चैते इव सारः-प्रधानः' इत्यादि पदसमूहो राजवर्णनपरोऽत्र बोध्य इति सूचयितुमाह'जाव' यावत 'सवं' सर्व 'भरहोअवणं' भरतसाधनं-भरतक्षेत्रस्वायत्तीकरणमभिव्याप्य 'भाणि. यव्वं' भणितव्यम् वक्तव्यम् परन्तु 'णिक्खमणवज्ज' निष्क्रमणवर्ज प्रव्रज्याग्रहणं त्यक्त्वा 'सेसं' सर्व निःशेष 'भाणियव्वं' भणितव्यम् वाच्यम् यतो भरतचक्रवर्तिना सर्वविरतिः स्वीकृता कच्छचक्रवर्तिनस्तु सर्वविरतिस्वीकारे नियमाभावो लभ्यते इति, तत्सर्वे किम्पर्यन्तम् ? इत्यपेक्षायामाह-'जाव भुंजए माणुस्सए सुहे' यावद् 'भुंक्ते मानुष्यकानि सुखानि' मानुष्यकानि मुखानि' मानुष्यकानि 'मनुष्यसम्बन्धीनि सुखानि भुंक्ते' इत्येतद्वर्णकपर्यन्तमित्यर्थः अत्रत्य यावत्पदसग्राह्य औपपातिकसूत्रस्यैकादशसूत्रतः कार्यः, तदर्थश्च तत्रैव मत्कृतपीयूपवर्षिणी टीकातो बोध्यः, इत्येकं कच्छविजयनामकारणम् अपरं च कारणमाह-कच्छणामधेज्जे य' कच्छनामधेयश्च 'कच्छे इस्थ' कच्छोऽत्र विजये 'देवे' देवः राजा परिवसतीति वर्षधर पर्वत मलय-पर्वतविशेष-मन्दर-मेरु-महेन्द्र पर्वतविशेष-ये सब के समान प्रधान इत्यादि पदसमूह यहां पर राजवर्णनपरक कहलेवें। यह सूचन के लिये कहते हैं-'जाच' यावत् 'सव्वं' सब 'भरहोअवणं' भरतक्षेत्र के स्वायत्ती करण से लेकर 'भाणियव्वं' कहलेवें परंतु 'णिक्खमणवज्ज' निष्क्रमणप्रव्रज्या ग्रहण को छोडकर 'सेस' अवशिष्ट निष्क्रमण प्रतिपादक वर्णनातिरिक्त 'सव्वं' समग्र वर्णन 'भाणियव्वं' कहलेवें । कारण भरत चक्रवर्ति ने सर्वविरति (दीक्षा) का स्वीकार किया था। कच्छचक्रवर्ति ने तो दीक्षास्वीकार में नियमाभाव होता है । वह सब वर्णन कहांतक का ग्रहण करना इस लिये कहते हैं-'जाव भुंजए माणुस्सए सुहे' यावतू मनुष्य संबंधी सुख भोगते हैं यह कथन पर्यन्त यहां के यावत्पद से ग्रहण करने योग्य संग्रह औपपातिक सूत्र के ग्यारहवें सूत्र से ग्रहण करलेवें । उसका अर्थभी वहां पर मेरे द्वारा की गई पीयूषवर्षिणी टीका से समझलेवें । यह कच्छविजय इस नाम होने का एक कारण है। સરખે પ્રધાન ઈત્યાદિ પદસમૂહ અહીંયાં રાજવર્ણનના સંબંધમાં કહી લેવા. એ સૂચન भाटे सूत्रधार ४ छ-'जाब' यावत् 'सव्वं' सणु 'भरहोअवणं' १२ क्षेत्रना स्वाधीन ४२४थी सधन 'भाणियव्व' ४डी . परंतु 'णिक्खमणवज्ज' निभष्य-प्रन्या प्रयने छ।डीन 'सेस' माहीनु निष्ठभएर प्रतिपा४ १ शिवाय 'सव्व' सघणु पन' भाणि. व्वं' ४डी : ४२४ भरत यतिथे सर्व वि२ति (हीक्षा)ना स्वा२ च्या ता. કચછ ચક્રવતિએ દીક્ષાસ્વીકારમાં નિયમાભાવ થાય છે. આ બધું વર્ણન ક્યાં सुधानु अडए ४२ थे मता ४ छ. 'जाव भुंजए मणुस्सए सुहे' यावत् मनुष्यसप સંબંધી સુખે ભેગવે છે. આ કથન પર્યન્ત ગ્રહણ કરી લેવું. અહીંના ચાવત્પદથી ગ્રહણ સંગ્રહ ઔપપાતિક સૂત્રના અગીયારમાં સૂવથ ગ્રહણ કરી લેવું. તેનો અર્થ પણ ત્યાં મેં કરેલ પિયૂષવર્ષિણી ટીકામાંથી સમજી લેવું. કચ્છ વિજય એ નામ થવાનું આ એક કારણ છે. Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३९ परेणान्वयः स च कीदृश: ? इत्यपेक्षायामाह - 'महद्धीए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसई' महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति - 'महर्द्धिक' इत्यारभ्य ' पल्योपमस्थितिक' इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकपदानां सङ्ग्रहो अत्र वोध्यः सचाष्टमत्रात् कार्यः, तदर्थश्व तत्रैव कृतो ग्राह्यः 'से' सः - कच्छ विजयः 'एएणडेणं' एतेनार्थेन अमुना हेतुना 'गोयमा !" गौतम ! ' एवं बुच्चइ' एवम् इत्थम् उच्यते कथ्यते 'कच्छे विजए कच्छे विजए' कच्छो विजयः कच्छो विजयः कच्छराजाधिष्ठितत्वाच्च कच्छविजयः कच्छविजय इत्युच्यत इति 'जाव णिच्चे' यावन्नित्यः नित्यः इति पदपर्यन्तं सूत्रमत्र बोध्यम् तथाहि - कच्छो विजयः खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति १, गौतम ! न कदाचिन्नाssसीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति, अभ्रूच्च भवति च भविष्यति च ध्रुवो नियतः शाश्वतोऽक्षयोऽव्य अब दूसरा कारण कहते हैं- 'कच्छणामधेज्जेय' कच्छ नामका 'कच्छे इत्थ' कच्छ यहां पर विजय में 'देवे' देव राजा रहता हैं-वह राजा कैसा हैं- 'मइदीए जाव पलिओवमट्ठिए परिवसई' महद्धिक यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला निवास करता है । महर्द्धिक इस पद से आरंभ कर के पल्योपमस्थिति पर्यन्त के तद्विषेषण वाचक पद का संग्रह यहां पर समझलेवें । वह आठवें सूत्र से समझलेवें । उसका अर्थ भी वहां पर लिखा हैं वहां से समझ'लेवें । 'से' वह कच्छविजय को 'एएट्ठेणं' इस कारण से 'गोयमा !' हे गौतम ! 'एवं बुच्चर' ऐसा कहा जाता है 'कच्छे विजए कच्छेविजए' यह कच्छविजय है यह कच्छविजय है 'जाव णिच्चे' यावत् वह नित्य है 'नित्य' पद पर्यन्त का सूत्र यहां पर कहलेवें वह इस प्रकार है-हे भगवन् कच्छविजय काल से कितना होता है ? हे गौतम ! वह कदापि नहीं था वैसा नहीं हैं अर्थात् भूतकाल में वह था, वर्तमान में नहीं है वैसाभी नही है वर्तमान में विद्यमान है । एवं भविष्य में नहीं होगा वैसा नहीं है । भूतकाल में था, वर्तमान में है एवं भविष्य भर अतावे छे.- 'कच्छणामघेज्जेय' १२४ नामना 'कच्छे इत्थ' मडीयां छवियां 'देवे' देव राल रहे छे. ते शन्न है! छे ? ते तावे छे. 'महद्धीए जाव पलिओ मट्ठिईए परिवसइ' भहुर्द्धि यावत् मे पढ्योपभनी स्थितिवाणी निवास रे છે. મહદ્ધિક એ પદથી આરંભ કરીને પલ્સેાપમની સ્થિતિ સુધીના તેના વિશેષણેા ખતાવનારા પદ્મના સગ્રહ અહીંયાં સમજી લેવા. તે સંગ્રહ આઠમા સૂત્રમાંથી સમજી લેવે. तेना अर्थ पशु त्यां मतावेस छे, 'से' मे १२छ विनयने 'एएट्टेणं' से ४।२णुथी ‘गोयमा !’ ड्डे गौतम! 'एवं वुच्चइ' सेभ हेवामां आवे छे. 'कच्छे विजए कच्छे विजए' २४२७ विभ्य है, मा ४२छ विनय छे. 'जाव णिच्चे' यावत् ते नित्य छे. नित्य यह सुधीना सूत्रपाठ અહીંયાં કહી લેવા. તે આ પ્રમાણે છે. હે ભગવન્ ચ્છ વિજય કાળથી કેટલા કહેવાય છે ? હે ગૌતમ ! તે કોઈ કાળે ન હતા તેમ નથી. અર્થાત્ ભૂતકાળમાં તે હતા, વમાનમાં वे जी Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र योऽवस्थितो नित्यः' इति सूत्रपर्यवसितम् एतद्विवरणं चतुर्थसूत्राब्दोध्यम् तत्र पद्मवरवेदिका प्रस्तावात् स्त्रीत्वेन विवृतम् अत्र पुंस्त्वेन विवरणीयमिति भेदः । अन्यत् समानम् । इति प्रथमस्य कच्छविजयस्य वर्णनं सम्पूर्णम् ॥सू० २६॥ अथ चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन कच्छविजयउक्तस्तत्रोस्थिताकाङ्क्षचित्रकूटं वर्णयितुमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि। ... मूलम्-कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपव्वर पण्णत्ते ?, गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेगं कच्छविजयस्स पुरथिमेणं सुकच्छविजयस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे सोल. जोयणसहस्साइं पंचय बाणउए जोयणसए दुषिण य एगूणवीसइभाए जोयणसए आयामेणं पंचजोयणसयाइं विक्खंभेणं णीलवंतवासहरपठनयंतेणं चत्तारि जोयणसयाइं उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उठवेहेणं तयगंतरं च णं मायाए २ उस्सेहोव्वेहपरिवुद्धीए परिवद्धमाणे २ सीधामहागई अंतेणं पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंच गाउयसवाइं उठनेहेणं अस्सखंधसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूये उनओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं य वणसंडेहिं संपमें होगा। शुध, नियत शाश्वत अक्षय अव्यय, अवस्थित एवं नित्य हैं। यह कथन पर्यन्त सबकथक समझलेवें । इसका विवरण चौथे सूत्रे से समझलेवें वहां पर पनदरवेदिका के प्रस्ताव से स्त्रीलिंग से वर्णन किया है। यहां पर पुल्लिग से वर्णन करना यही भेद समझें। और सब कथन समान होते हैं॥२६॥ इस प्रकार पहला कच्छविजय का कथन सम्पूर्ण । તે નથી તેમ પણ નથી. વર્તમાનમાં તે વિદ્યમાન છે. તેમજ ભવિષ્ય કાળમાં તે નહીં હૈય તેમ પણ નથી. અર્થાત્ ભૂતકાળમાં હતા, વર્તમાનમાં છે, અને ભવિષ્યમાં પણ હશે જ એટલે કે તે ધ્રુવ, નિયત, શાશ્વત, અક્ષય, અવ્યય, અવસ્થિત અને નિત્ય છે. આ કથન પર્યન્તનું સઘળું કથન અહીંયાં સમજી લેવું. આનું વિશેષ વિવરણ ચોથા સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. ત્યાં આગળ પદ્વવર વેદિકાના પ્રસ્તાવથી તે સ્ત્રીલિંગના નિર્દેશથી વર્ણવેલ છે, અને અહીંયાં પુલિંગના નિર્દેશથી વર્ણન કરવાનું છે એટલે જ ફરક છે. બાકીનું तमाम ४थन सर । छे. ॥ सू. २६ ॥ આ રીતે પહેલા કચ્છ વિજયનું કથન સંપૂર્ણ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् रिक्खिते, वग्णओ दुण्ह वि, चित्तकूडस्स णं वक्खारपवयस्स उम्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंति, चित्तकूडे णं भंते! वक्वारपव्वए कइ कूडा पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे चित्तकूडे कच्छकूडे सुकच्छकूडे, समाउत्तरदाहिणेणं परुपति, पढमं सीयाए उत्तरेणं चउत्थए णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेगं एत्थ णं चित्तकूडे णामं देवे महिद्धीए जाव रायहाणी से त्ति ॥सू० २७॥ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे चित्रकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सीताया महानद्या उत्तरेण नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन कच्छविजयस्य पौरस्त्येन सुकच्छविजयस्य पश्चिमेन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे चित्रकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः षोडशयोजनसहस्राणि पश्च द्विनवतानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशति भागौ योजनस्य आयामेन पञ्च योजनशतानि विष्कम्भेण नीलवद्वधरपर्वतान्ते खलु चत्वारि योजनसहस्राणि ऊर्ध्व मुच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतशतानि उद्वेधेन, तदनन्तरं च खलु मात्रया २ उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया परिवर्धमान्: २ सीतामहानद्यन्ते खलु पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्च गव्यूतशतानि उद्वेधेन अश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थितः सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः यावत् प्रतिरूपः उभयोः पार्श्वयोभ्यां परवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्तः, वर्णको द्वयोरपि, चित्रकूटस्य खलु वक्षस्कारपर्वतस्य उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः यावद आसते, चित्रकूटे खलु भदन्त ! वक्षस्कारपर्वते कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! चत्वारि कटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा सिद्धायतनकूटं १ चित्रकूटं २ कच्छ कूटं ३ सुकच्छकटम् ४, समानि उत्तरदक्षिणेन परस्परमिति, प्रथमं सीताया उत्तरेण चतुर्थकं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन अत्र खलु चित्रकूटो नाम देवो महर्द्धिको यावर राजधानी सेति ॥सू० २७॥ यह कच्छविजय चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में है-अतः अब उस चित्रकूट वक्षस्कार का कथन किया जाता है 'कहिणं मले। अंदीवे दीये महाविदेहे वासे' इत्यादि। टीकार्थ-गौतमने प्रभु से पूछा है-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेडे આ કુછ વિજ ચિત્રકૂટ, વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ છે. એથી હવે તે ચિકૂટ વાસ્કરનું કથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવે છે 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' इत्यादि टी -गौतम प्रभुन २॥ तना प्रश्न : 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महा Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફેર जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे टीका- 'कहि णं भंते !' इत्यादि - छायागम्यम्, नवरम् 'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणा यतः - उत्तरदक्षिणयो दिशो रायतः दीर्घः - ' पाईणपडीणवित्यण्णे' प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णः - पूर्वपश्चिमयोः दिशोर्विस्तीर्णः विस्तारयुक्तः 'सोलस जोयणसहस्साई' पोडशयोजन सहस्राणि - पोडशसहस्रयोजनानि 'पंच य' पञ्च च 'बाणउए' द्विनवतानि द्विनवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'दुण्णि य' द्वौ च 'एगूणवीसइभाए' एकोनविंशतिभागौ 'जोयणस्स' योजनस्य ‘आयामेणं' आयामेन दैर्येण प्रज्ञप्त इति पूर्वेणान्वयः, एवमायामोsस्य विजयवत् परन्तु 'पंचजोयणसयाई' पञ्च योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण - विस्तारेति विशेषः नतु विष्कम्भे पञ्च योजनशतानीति कथम् ?, इति चेदुच्यते - जम्बूद्वीपपरिवासे' हे भयन्त ! जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में महाविदेहक्षेत्र में 'चित्रकूडे णामं वक्खारपञ्चए पण्णत्ते' चित्रकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेण णीलवंतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं कच्छविजयस्स पुरस्थिमेणं सुकच्छविजयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले चित्तकूडे णामं वक्खारकवर पण्णत्ते' हे गौतम ! सीतामहानदी की उत्तर दिशा में नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में कच्छविजय की पूर्वदिशा में, और सुकच्छविजय की पश्चिमदिशा में जंबूद्वीप नाम के द्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेहक्षेत्र में चित्रकूटनाम का वक्षस्कार पर्वत कहा गया है 'उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणचिच्छिणे' यह पर्वत उत्तर से दक्षिणतक दीर्घ है तथा पूर्व पश्चिम दिशा में विस्तीर्ण है 'सोलसजोयणसहस्साई पंचय बाणउए जोयणसए दुण्णिय एगूणवी सहभाए जोयणस्स आयामेणं पंच जोयणसाईं विक्खंभेणं' इस का आयाम १६५९२६ योजन का है और ५०० सौ योजन का इस का विष्कम्भ है 'नीलवंतवास हरपञ्चयंतेणं चत्तारि जोयणसयाई विदेहे वासें डे लঃ ंत! मुद्वीप नामक द्वीपमा महाविद्वेषु क्षेत्रमा 'चित्तकूडे णामं वक्खारपore पण्णत्ते' चित्रट नाम वक्षस्र पर्वत या स्थणे आवे छे? सेना उत्तरभा प्रभु छे - 'गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं कच्छ विजयस्स पुरत्थिमेणं सुकच्छविजयरस पच्चत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपव्त्रए पण्णत्ते' हे गौतम! सीता महानहीनी उत्तर दिशामां नीस બન્ત વધર પર્યંતની દક્ષિણ દિશામાં કચ્છ વિજયની પૂર્વ દિશામાં અને સુકચ્છ વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં જમૃદ્વીપ નામક દ્વીપની અંદર વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ચિત્રકૂટ નામક વક્ષરકાર पर्वत यावेस छे, 'उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिणे' मा पर्वत उत्तरथी दक्षिण सुधी हीघ्र छे तेन पूर्व-पश्चिम दिशामां विस्ती छे. 'सोलस जोयणसहस्साई पंचय बाणउए जोयणसए दुण्णिय एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं पंच जोयणसयाई बिक्खंभेणं' थे। आयाम १६८२ योजन भेटलो छ भने ५०० योजन भेटो सेना Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् माणविस्तारात पण्णवतिसहस्रेषु शोधितेषु शेषाणि चत्वारि सहस्राणि एकस्मिन् दक्षिणे उत्तरे वा भागेऽष्टौ वक्षस्काराः पर्वताः सन्तीति तैरष्टाभिर्विभज्यन्ते ततो वक्षस्काराणां पर्वतानां प्रत्येकं प्रागुक्तो विष्कम्भः सम्पद्यत इति, इह विदेहेषु विजयान्तरनदीमुखवनमेदि विहायान्यत्र सर्वत्र वक्षस्काराः पर्वताः पूर्वपश्चिमदिशो विस्तृताः सन्ति तेच समानविष्कम्भा इति विष्कम्भपरिमाणमेवम्, तत्र पोडशानां विजयानां विस्तारः पडुतरचतु:शताधिक पञ्च. त्रिंशत्सहस्राणि ३५४८६, षण्णामन्तरनदीनां विस्तारः पञ्चाशदधिकसप्तशती ७५०, मेरो विस्तारः पूर्वपश्चिमवर्तिभद्रशालवनस्य चायामः ५४०००, मुखवनयोविस्तारः-चतुश्चत्वारि शदधिकाऽष्टपञ्चाशच्छती ५८४४, सकलसङ्कलनाया १६०००, षण्णवतिसहस्राणि जातानि उद्धं उच्चत्तण, चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं' नीलवन्त वर्षघर पर्वत के समीप यह चार सौ योजन की ऊँचाई वाला है तथा इसका उद्वेध चारसौ कोश का है विष्कम्भ जो इसका पांचसो योजन का कहा गया है वह इस प्रकार से कहा गया है जम्बूद्वीप का परिमाण १ लाख योजन का कहा गया है उसमें से ९६००० कम करनेपर ४००० रह जाते हैं दक्षिणभाग में आठवक्षस्कार पर्वत हैं और उत्तर भागमें आठवक्षस्कार पर्वत है ४००० में आठका भाग देनेपर ५०० आते हैं यही प्रत्येक वक्षस्कारपर्वत का विष्कम्भ आता है इन विदेहों में विजयान्तरनदीमुख वन मेरु आदि को छोड कर अन्यत्र सर्वत्र वक्षस्कार पर्वत पूर्व पश्चिम दिशामें विस्तृत हैं और समान विष्कम्भवाले हैं। इसलिये यह विष्कम्भ का परिमाण है । १६ विजयों का विस्तार ३५४०५ है ६ अन्तरनदियों का विस्तार ७५० है मेरु का विस्तार और पूर्वपश्चिमवर्ती भद्रशालवन का आयाम-विस्तार ५४००० है दोनों मुखवनों का विस्तार ५८४४ है इस प्रकार से (१५४ . 'नीलवंतवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्ध् उच्चत्तणं चत्तारि गाउअसयाइं उबहेणं' नीसन्त १५२ पतनी पासे से यारसे योशन रेसी ઊંચાઈવાળે છે તેમજ આને ઉપ ચાર ગાઉ જેટલું છે. એને જે વિષ્ઠભ પાંચસો જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે તે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. જંબુદ્વીપનું પરિમાણુ એક લાખ જન જેટલું કહેવામાં આવેલ છે તેમાંથી ૯૬૦૦૦ બાદ કરીએ તે ૪૦૦૦ શેષ રહે છે. દક્ષિણ ભાગમાં આઠ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે અને ઉત્તર ભાગમાં આઠ વક્ષસ્કાર પર્વતે આવેલા છે. ૪૮૮૦ માં આઠને ભાગાકાર કરીએ તે ૫૦૦ આવે છે. એ જ દરેકે દરેક વક્ષસ્કાર પર્વતને વિઝંભ છે એ વિદેહમાં વિજયાનન્તર નદી મુખ, વન, મેરૂ વગેરેને બાદ કરીને અન્યત્ર સર્વ સ્થળે વક્ષસ્કાર પર્વત પૂર્વ પશ્ચિમ દિશામાં વિસ્તૃત છે અને સમાન વિધ્વંભાળે છે. આમ આ વિધ્વંભનું પરિણામ છે. ૧૬ વિજયને વિસ્તાર ૩૫૦૫ છે. ૬ અનન્તર નદીઓનો વિસ્તાર ૭૫૦ છે. મેરુને વિસ્તાર અને પૂર્વ-પશ્ચિમવતી ભદ્રશાલ વનને બાયામ-વિસ્તાર ૫૪૦૦૦ છે. બન્ને મુખ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे इति, तथा 'णीलवंतवासहरपव्ययंतेणं' नीलवद्वर्षधरपर्वतान्ते खलु-नीलवन्नामकस्य वर्षधरपर्वतस्य अन्ते निकटे अन्तशब्दस्यात्र समीपपरत्वात् तथा चोक्तम् 'अन्तः स्वरूपे निकटे प्रान्ते निश्चय नाशयोः' इति हैमकोशे, 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयणसयाई' योगन्शतानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'चत्तारि' चत्वारि 'गाउयसयाई' गव्यूतसतानि 'उब्वेहे' उद्वेधेन भूप्रवेशेन 'तयणंतरं चणं' तदनन्तरं च खलु 'मायाए२' मात्रया२-क्रमेण २ 'उस्सेहोव्वेहपरिवुद्धीए' उत्सेधोद्वेधपरिवृद्धया उच्चत्वभूप्रवेशयोः परिवर्धनेन "परिवद्रमाणे २' परिश्द्धमानः २ यत्र यावानुत्सेधः तत्र तच्चतुर्थभाग उद्वेध इति द्वाभ्यां प्रकाराभ्यां पुन: पुनरधिकतरो भवन् 'सीयामाहाणई अंतेणं' सीतामहानद्यन्ते खलु-सीतामहानदौसमीपे 'पंच जोयणसयाई' पञ्च योजनशतानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'पंचगाउयसयाई' पञ्चगव्यतशतानि-दशशतक्रोशानिति पदद्वयार्थः, 'उव्वेहेण' उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन, अत एव 'अस्सखंधसंठाणसंठीए' अश्वस्कन्धसंस्थानसंस्थितः घोटकस्कन्धाकारेण संस्थितः आदौ निम्नत्वादन्ते क्रमेण तुङ्गत्वात् स च 'सव्वरयणामए' सर्वरत्नमय:-सर्वात्मना रत्नमयः 'अच्छे' अच्छ:-आकाशस्फटिकवनिर्मल: 'सण्हे' श्लक्ष्णः इत्यारभ्य 'जार पडिरूवे' याव. त्प्रतिरूपः-प्रतिरूप इति पर्यन्तस्तद्वर्णकपदसमूहो बोध्यः स च चतुर्थसूत्राद् ग्राह्यः, इन सबका जोड़ ९६००० होता है इन्ही को जम्बूद्वीप के विस्तार में कम किया गया है-'तयणंतरं च णं मायाए २ उस्लेहोब्वेयपरिखुड्डीए परिवद्धमाणे२ सीयामहाणदी अंतेणं पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंचगाउयसयाई उव्हेण अस्सखंधसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूवे' फिर यह चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत नीलवन्त वर्षधर के पास से क्रमशः उत्सेध और उद्धेध की परिवृद्धि करता २ सीतामहानदी के पास में इसकी ऊँचाई पांचसो योजन की हो जाती है और उद्वेध इस का ५०० कोश का हो जाता है इस का आकार जैसा घोडे का स्कंध होता है वैसा है। यह सर्वात्मना रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा वह निर्मल है। श्लक्ष्ण यावत् प्रतिरूप हैं यहां यावत्पदग्राह्य पदों વનેને વિસ્તાર ૫૮૪૪ છે. આ પ્રમાણે એ બધાને સરવાળો ૯૬૦૦૦ થાય છે. એમને दीपन विस्तारमाथी मा ४२वामां आवेद छ. 'तयणंतरं च णं मायाए २ उस्से होव्वेहपरिबुड्ढोए परिवद्धमाणे २ सीया महाणदी अंनेणं पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेण पंचगाउयसयाई उव्वेहेण अस्सखंधसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडि. रूवे' ५छी से यित्रकूट वक्षा२ पर्वत नीसवन्त वषधरनी पासेथी भश त्सेध मन ઉધની પરિવૃદ્ધિ કરતે-કરતે સીતા મહા નદીની પાસે પાંચસો યેજન જેટલે ઊંચો થઈ જાય છે, અને આને ઉદ્દેધ ૫૦૦ ગાઉ જેટલું થઈ જાય છે. એનો આકાર ઘોડા જેવો છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને આકાશ તેમજ સફટિકની જેમ એ નિર્મળ છે. લક્ષણ યાવત્ પ્રતિરૂપ છે. અહી યાવત્ પદથી જે પદોનું ગ્રહણ થયું છે તે સર્વની Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् तदर्थश्च तत्रैव द्रष्टव्यः, 'उभओ पासिं' उभयोः-द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहि' द्वाभ्यां 'पउमारवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्याम् 'दोहि य' द्वाभ्यां च 'वणसंडेहिं' वनषण्डाभ्याम् 'संपरिक्खि' सम्परिक्षिप्तः सम्यक् प्रकारेण परिवेष्टितः, 'वण्णओ' वर्णकःवर्णनपरः पदसमूहः 'दुण्ड ।' द्वयोरपि अत्र अन्यत उद्धृत्य न्यसनीयः, तत्र पद्मवरवेदिका वर्णकश्चतुर्थसूत्रात् वनपण्डवर्णश्च पञ्चमसूत्राद्बोध्यः। अथास्य शिखरभागवर्णनमाह-'चित्रकूडस्स' चित्रकूटस्य 'णं' खलु 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कार एवंदस्य 'उप्पि' उपरि 'बहुसमरमणिज्जे' बहुसमरमणीयः 'भूमिभागे' भूमिभाग. 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः 'जाव आसयंति' याचदासते अत्र यावत्पदेन भूमिमागवणन तथा 'तत्य यहवे वाण मन्तरा देवाय देवीओय' इति दस ग्रााद, एमाया'तत्र बहवः व्यन्तराः 'वानमन्तराः' देवाश्च देव्यश्च' इति, तत्र भूमिमागवर्णनं पाठ सूत्रात् संग्राह्यम् तथा-तत्रेत्यादीनां पदानामर्थश्च तत एव बोध्यः । की जानकारी चतुर्थ सूत्र से करलेनी चाहिये 'उभओ पासिं दोहिं व उभयरवेड्याहिं दोहि य वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' यह दोनों पार्श्वभागों की तरफ दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो वनषंडो से अच्छी तरह से घिरा हुआ है । 'वगओ' वनपंड और पद्मवरवेदिका का वर्णन यहां पर करलेना चाहिये यह इसका वर्णन क्रमशः पंचम सूत्र और चतुर्थ सूत्र में किया जा चुका है। 'चित्तकूडस्स वक्खारपव्ययस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' चित्रकूटनामके वक्षस्कार पर्वत का ऊपर की भूमिका जो भाग है वह बहुसमरमणीय है 'जाव आसयंति' यहां यावत् अनेक देव देवियां आराम किया करती है तथा सोती उठती बैठती रहती हैं। यहां यावतू पद से भूमिभाग के वर्णन करने की एवं 'तत्थ बहवे याणमंतरा देवाय देवीओय' इस प्रकार से पाठको ग्रहण करने की बात कही गई है भूमिभाग के वर्णन को जानने के लिये छठा सूत्र देखना चाहिये 'चित्तकूडे णं वक्खारपव्वए कह कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! व्याच्या यतुथ सूत्रमाथी न वी नसे. 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिय वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' से पति मन्त्र पाव भाग त२३ मे ५१२ २६गाथी तभी मे वनमाथी सारी शत परिवृत छ. 'वण्णओ वन मन ५१२ वहानुन અહીં કરવું જોઈએ એ બન્નેનું વર્ણન કમશઃ પંચમ સૂત્ર અને ચતુર્થ સૂરમાં કરવામાં मावेश छ. 'चित्तकडस्स वक्खारपव्वयस्स उपि बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते' यत्र કૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વતની ઉપરની ભૂમિકાને જે ભાગ છે. તે બહુ સમરમય છે. 'जाव आपयंति' मही यावत् भने देव-वी। माराम ४२ती २७ छे तेभ सूती, ती-असती २९ छे. सही यावत पहथी भूभिमागनु वर्णन ४२वानी भर 'तत्थ बहवे वाणमंतरदेवा य देवीओ य' मा प्रमाणे पाई अडय ४२वानी वात वामां मावेसी छे. भूमिलान वर्णन विषे नवा माटे छ। सूत्रनी व्याच्या वायवी नसे. 'चित्तकूडे ज०४४ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ___ अथास्य कूटानां वर्णनं चिकीर्षुः संख्यां प्रदर्शयितुमाह-'चित्तकडे' चित्रकूटे 'ण' खल 'वक्खारपधए' वक्षस्कारपर्वते 'कई कति 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ? इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा." भो गौतम ! 'चत्तारि' चत्वारि 'कूडा' कुटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'तं जहा' तद्यथा 'सिद्धाययणकडे' सिद्धायतनकूटम् इदं च द्वितीयस्य चित्रकूटस्य दक्षिणस्यां दिशि१, 'चित्तकूडे' चित्रकूटम् इदं च सिद्धायतनकूटस्योत्तरदिशि २, 'कच्छकूडे' कच्छकूटम् इदं च चित्रकूटस्यास्य उत्तरदिशि ३, 'सुकच्छकूडे' सुकच्छकटम् इदं च कच्छकूटाइक्षिणस्यां दिशि, इमानि च सीता महानद्या नीलवद्वर्षधरपर्वतस्य च कस्यां दिशि सन्तीत्याह-'पढम' प्रथमं सिद्धायतनकूटम् 'सीयाए उत्तरेणं' सीताया उत्तरेण उत्तरदिशि 'चउत्थे' चतुर्थ सुकच्छकूटम् 'नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स' नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि द्वितीयं चित्रकूटं तु सूत्रोक्तक्रमवलात् सिद्धायतनान्तरं बोध्यम् तृतीयं कच्छकटं च सुकच्छात् प्राक् अवसेयं । चत्तारि कडा पण्णत्ता' हे गौतम ! चार कट कहे गये हैं 'तं जहा' वे इस प्रकार से हैं-'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूट-यह द्वितीय चित्रकूट की दक्षिण दिशामें है 'चितकूडे' चित्रकूट-यह सिद्धायतनकूट की उत्तर दिशा में है 'कच्छकूडे' कच्छकूट-यह कच्छकूट चित्रकूट की उत्तर दिशा में है । 'सुकच्छकूडे' और चतुर्थ सुकच्छकूट यह कच्छकूट से दक्षिण दिशा में है। ये सीतामहानदी और नीलवान वर्षधर पर्वत की किस दिशा में हैं अब इस बात को सूत्रकार प्रकट करते हैं। ___ 'पढमं सीयाए उत्तरेणं, चउत्थे नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं प्रथम जो सिद्धायतनकट है वह सीता महानदी की उत्तरदिशा में है। तथा चतुर्थ जो सुकच्छकूट है वह नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशामें द्वितीय चित्र कूट सूत्र क्रमके बल से सिद्धायतनकूट के बाद है तीसरा कच्छकूट लुकच्छकृट के पहिले है । 'एत्थ णं चित्तकूडे णामं देवे महिद्धिए जाव परिवसइ) चित्रकूट जो णं वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' 3 ! म यित्रट १९२४२ ५' ५२ ८८ ट। भावना छ ? वामां प्रभुश्री ४३ छ-'गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता' गौतम! यार दूटा मावा छे. 'तं जहा' ते ट। २॥ प्रमाणे छे–'सिद्धाययणकडे' सिद्धायतन छूट द्वितीय चित्रटनी क्षिy हिशामा छे. 'चित्तकूडे' यिट-से सिद्धायतन छूटनी तर ६शाम छे. 'कच्छकूडे' ४२७५८-24॥ ४२४५८ भित्रटनी उत्तर ६शाम छे. 'सुकच्छकूडे' मन यतुर्थ સુક છ ફૂટ એ કચ્છકૂટથી દક્ષિણ દિશામાં આવેલ છે. એ સીતા મહાનદી અને નીલવાનું વર્ષ ५२ पतनी हिशा त२६ मावत छ, ते मागे सूत्रधारे २५०टता रे छे-'पढमं सीयाए उत्तरेणं, चउत्थे नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं' प्रयम २ सिद्धायतन टूट , ते સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં આવેલ છે, તેમજ ચતુર્થ જે સુચ્છ ફૂટ છે તે નીલવન વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં-દ્વિતીય ચિત્રકૂટ સૂત્રોક્ત ક્રમના બળથી સિદ્ધાયતન કૂટ ५छी मावस छे. त्रीने ४२७ फूट छे ते सु४२७ फूटनी ५३ छे. 'एत्थ णं चित्तकुडे णामं देवे Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २७ चित्रकूटवक्षस्कारनिरूपणम् अथास्य नामार्य प्ररूपयितुमाह-एत्थ' इत्यादि-अत्र-अस्मिन् चित्रकूटे 'ण' खलु 'चित्तकूडे णाम' चित्रक्टो नाम 'देवे' देवः परिवसति, स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह'महिद्धीए जाव' महद्धिको यावत् यावत्पदेत-'महाद्युतिकः, महाबळ:, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः' इत्येषां पदानां संग्रहो वोध्यः, तदर्थश्चाष्टमसूत्राबोध्यः, तथाऽस्य 'रायहाणी' राजधानी मेरुगिरेरुत्तरस्यां दिशि सीतामहानद्या उदीच्य वक्षस्काराधिपत्वात् एवमग्रिमेष्वपि वक्षस्कारगिरिषु यथासम्भवं वक्तव्यमिति ।।९० २७॥ ॥ इति प्रथमवक्षस्कारवर्णनं समाप्तम् ॥ अथ द्वितीयविजयं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि। मूलम-कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दोवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णाम विजए पण्णत्ते ? गोयमा! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पच्चस्थिमेणं चित्तकू डस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे विजए तहेव सुकच्छे विजए, णवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया समुपज्जइ ऐसानाम इसका हुआ है उसमें कारण यह है कि यहां पर चित्रकूट नामका महर्द्धिक यावत् एकपल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है 'यहां यावत् पदसे महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थि. तिकः' इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या जानने के लिये अष्टम सूत्र देखना चाहिये इस चित्रकूट नामक देवकी राजधानी मेरु पर्वत की उत्तरदिशा में है। क्योकि यह सीता महानदी की उत्तर दिशा के वक्षस्कार का अधिपति है इसी प्रकार से आगे के वक्षस्कार गिरियों-पर्वतों के सम्बन्ध में भी यथा संभव कहलेना चाहिये ॥२७॥ प्रथमवक्षस्कार वर्णन समाप्त महिद्धिए जाव परिवसई' भित्रकूट मेयु नाम र मेनु सुप्रसिद्ध थयु छ तमा २६ मा छ કે અહીં ચિત્રકૂટ નામક મહદ્ધિક યાવત્ એક પલ્યોપમ જેટલી સ્થિતિવાળો દેવ રહે છે. मही आवेता यावत् ५४थी-'महाद्युतिकः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः महानुभावः पल्योपमस्थितिकः' से पहनु हुए थयु छ. ये पहनी व्याच्या onjan मार्ट मष्टभ સૂત્રની વ્યાખ્યા જેવી જોઈએ. એ ચિત્રકૂટ નામક દેવની રાજધાની મેરુ પર્વતની ઉત્તર દિશામાં છે, કેમકે એ સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશાના વક્ષસ્કારનો અધિપતિ છે. આ પ્રમાણે હવે પછીના વક્ષસ્કાર-ગિરિઓ-પર્વ તેના સંબંધમાં પણ યથા સંભવ સ્પષ્ટતા ४री सेवी नये. ॥ सू. २७ ॥ પ્રથમ વક્ષસ્કાર વર્ણન સમાસ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૮ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तहेव सव्वं । कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे पण्णत्ते ? गोयमा ! सुकच्छविजयस्स पुरथिमेणं महाकच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते, जहेव रोहियंसाकुंडे तहेव जाव गाहावइ दीवे भवणे, तस्त णं गाहावइस्स कुंडस्त दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पवूढा समाणी सुकच्छमहाकच्छविजए दुहा विभयमाणी २ अट्ठावीसाए सलिला सहस्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीयं महाणइं समप्पेइ, गाहावई णं महाणई पवहेय मुहेय सम्वत्थ समा पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं अद्धाइजाइं जोषणाई उज्वेहेणं उभओ पासिं दोहि य पउमवरवेइयाहिं दोहिय वर्गसंडेहिं जाव दुण्हवि वण्णओ इति । कहि णं भंते ! महाविदेहे वाले महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते !, गोयमा ! जीलवंतस्स वासहरमयस्स दाहिणेगं सीयाए महाणईए उत्तरेणं पउमकूडस्स बक्खारवव्वयस्स पच्चत्थिमेणं गाहावईए पुरथिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पाणत्ते, सेसं जहा कच्छविजयस्त जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिद्धीए अट्रोय भाणियठयो। कहिणं भंते ! महा विदेहे बाट पाउमडे णामं वक्खारपवए पण्णत्ते?, गोयमा ! णीलवं. तस्त दविल सीयाए महाणईए उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरथिमेणं कच्छाईए पञ्चत्यिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पउमकूडे णानं वक्खारपयर पज्जत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीविस्थिपणे सेसं जहा चित्तडस नाव आसयंति, पउभकूडे चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा सिद्धाययणकूडे ? पउमकूड २ महाकच्छकूडे ३ कच्छावइकूडे एवं जाव अट्टो, पउमकूडे इत्थ देवे महद्धीए पलिओवमदिईए परिवसइ, से तेगडेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावई णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए महा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीयसुकच्छविजयनिरूपणम् ३४९ पईए उत्तरेणं दहावईए महाणईए पच्चस्थिमेणं पउमकूडस्स पुरस्थि मेणं इत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छावई णामं विजए पण्णत्ते, उत्तर दाहिणायए पाईणपडीणवित्थपणे सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव कच्छावई य इत्थ देवे, कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे दहावई कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते ?, गोयमा ! आवत्तस्स विजयस्स पञ्चत्थिमेणं कच्छगावईए विजयस्स पुरस्थिमेणं णीलवंतस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थ णं महाविदेहे वासे दहावई कुंडे णानं कुंडे पण्णत्ते, सेसं जहा गाहावई कुंडस्स जाव अट्ठो, तस्स णं दहावईकुंडस्स दाहिणेगं तोरणेणं दहावई महाणई पवूढा समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा विभयमाणी२ दाहिणेणं सीयं महाणई समप्पेइ, सेसं जहा गाहावईए। कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते ? गोयमा! णीलतस्स वासहरपव्वयस्त दाहिणेणं सोयाए महाणईए उत्तरेणं णलिणडस्त वनखारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं दहावईए महाणईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते, सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स इति । कहि भंते ! महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपव्वए पण्णते ?, गोयमा ! णीलांतस्स दाहिणेणं सीयाए उत्तरेणं मंगलावइस्स विजयस्त पञ्चस्थिमेणं आवरात्स विजयस्स पुरस्थिमेणं इत्थ णं महानिदेहे वासे गलिणडे णानं वक्वारपवए पपणत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणडीविस्थिपणे सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयंति णालणकडेणं मंते ! कइ कूडा पण्णता ?, गोयमा! चत्तारि कूडा पष्णता, तं जहा-सिधाययण कूड़े लिणकूडे आवत्तकूडे मंगलावत्तकूडे, एए कूडा पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेणं ।। कहि जयंते ! नहाविदेहे बासे गलावते णामं विजए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णीलवंतस्स दक्षिणेणं सीयाए उत्तरेणं गलिणकूडस्स पुर Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे त्थिमेणं पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थणं मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते, जहा कच्छस्स विजए तहा एसो भाणियन्त्रो जाव मंगला वत्तेय इत्थ देवे परिवसइ, से एएट्टे | कहि णं भंते! महाविदेहे वासे पंकावई कुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते ?, गोयमा ! मंगलावत्तस्स पुरत्थिमेणं पुक्खल विजयस्स पच्चत्थिमेणं नीलवंतस्स दाहिणे णितंबे, एत्थ णं पंकावई जाव कुडे पण्णत्ते तं चैव गाहावइकुंडप्पमाणं जाव मंगलवत्त पुक्खलावत्तविजए दुहा विभयमाणीर अवसेसं तं चैव जं चैव गाहावईए । कहि णं भंते । महाविदेहे वासे पुक्खलावते णामं विजय पण्णत्ते ?, गोयमा ! नीलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए उत्तरेणं पंकावईए पुरत्थिमेणं एक्कसेलस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं पुक्खलावत्ते णांमं विजए पण्णत्ते जहा कच्छविजय तहा भाणियव्वं जाव पुक्खले य इत्यदेवे महिड्डीए पलिओवमट्टिए परिवसइ, से एएणणं कहि णं भंते! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! पुक्खलावत्तचक्कवहिविजयस्स पुरस्थिमेणं पोक्खलावs चक्कवहिविजयस्स पञ्चस्थिमेणं णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं, एत्थ णं एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, चित्तकूडगमेणं णेयव्वो जाव देवा आसयंति चत्तारि कूड़ा, तं जहा - सिद्धाययणकूडे एगसेलकूडे पुक्खलावत्तकूडे पुक्खलावईकूडे, कूडाणं तं चैव पंचसइयं परिमाणं जाव एगसेले य देवे महिद्धीए । " कहि णं भंते! महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं चक्कवहिविजय पण्णत्ते ?, गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं उत्तरस्स सीयामुहवणस्स पञ्चत्थिमेणं एगसेलस्स वखारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजय पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा कच्छविजयस्स जाव पुक्खलावई य इत्थ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीयसुकच्छविजयनिरूपणम् देवे परिवसइ, एएणटेणं । कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए उत्तरिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे पाणते ?, गोयमा! णीलवंतस्स दक्षिणेणं सीयाए उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पुक्खलावइ चक्कवट्टिविजयस्स पुरथिमेगं, सीयामुहवणे णा वणे पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे सोलसजोयणसहस्साइं पंच य बाणउए जोयणसए दोण्णि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं सीयाए महाणईए अंतेणं दो जोयणसहस्साइं नव य बावीसे जोयणसए विक्वंभेणं तयणंतरं च णं मायाए २ परिहायमाणे २ णीलवंतवासहरपवयंतेणं एगं एगूणवीसइभागं जोयणस्स विक्खंभेणंति, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिक्खित्तं वण्णओ सीयामुहवणस्स जाव देवा आसयंति, एवं उत्तरिल्लं पासं समत्तं । विजया भणिया रायहाणीओ इमाओ-खेमा१ खेमपुरा२ चेव, रिट्टा३ रिट्ठपुरा४ तहा । खग्गी ५ मंजसा ६ अवि य ७ पुंडरीगिणो ८॥१॥ ___ सोलसविजाहरसेढीओ तावइयाओ अभियोगसेढीओ सव्वाओ इमाओ ईसाणस्स, सव्वेसु विजएसु कच्छवत्तव्वया जाव अट्ठो रायाणो सरिसणामगा विजएसु सोलसण्हं वक्खारपबयाणं चित्तकूडवत्तव्वया जाव कूडा चत्तारि २ बारसण्हं गईणं गाहावइ वत्तव्वया जाव उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिय वण्णओ ॥सू०२८॥ छाया-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे सुकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सीताया महानद्याः उत्तरेणं नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन ग्राहावत्या महानद्याः पश्चिमेन चित्रकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महा. विदेहे वर्षे सुकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः यथैव कच्छो विजयः तथैव सुकच्छो विजयः, नवरं क्षेमपुरा राजधानी सुकच्छो राजा समुत्पद्यते तथैव सर्वम् । क्व खल भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे ग्राहावतीकुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! सुकच्छविजयस्य पौरस्त्येन महाकच्छस्य विजयस्य पश्चिमेन नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे ग्राहावतीकुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ययैव रोहितां Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शाकुण्डं तथैव यावत् ग्राहावतीद्वीपं भवनम् तस्य खलु ग्राहावत्याः कुण्डस्य दाक्षिणात्येन तोरणेन ग्राहक्षावती महानदी प्रव्यूढा सती सुकच्छमहाकच्छविजयौ विद्या विभज्यमाना २ अष्टाविंशत्या सलिलासहस्त्रैः समग्रा दक्षिणेन सीनां महानदीं समाप्नोति, प्राधानासाः खलु महानद्याः प्रबहे च मुखे च सर्वत्र सभा पञ्चविंशनियोजनशतानि विष्कम्भेण अर्द्धनीयानि योजनानि उद्वेधेन उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां च पक्षावर येदिकाभ्यां द्वाभ्यां व वरूपण्डाभ्यां यावद द्वयोरपि वर्णकः इति । क्य खलु भदन्त ! महानिदेहे वर्षे महाकच्छो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेत सीताया महानया उत्सरेण पक्षाकटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन ग्राहावत्या महानद्याः पौरस्पेन मत्र खलु महाविहे वर्ष महाकच्छो नाम विनयः प्रज्ञप्तः, शेषं यथा फच्छ विजयस्य यावद् महाकच्छोऽत्र देवो महद्धिकः अर्थश्च भणितयः । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे पक्षम कूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रजातः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया महागधाः उतरेण महाकच्छस्य पौरस्त्येन कच्छावत्याः पश्चिमेन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे पक्ष्मकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः शेषं यथा चित्रकूटस्य यावदासते, पक्ष्मकूटे चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि, तथा सिद्धायतनकूटं १ पक्ष्मकूटं २ महाकच्छ कूटं ३ कच्छावतीकूटम् ४ एवं यावद अर्थः, पक्ष्मकूटोऽत्र देवो महद्धिकः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे कच्छावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण हृदावत्या महानद्याः पश्चिमेन पक्ष्मकूटस्य पौरस्त्येन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे कच्छावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः शेषं यथा कच्छस्य विजयस्य यावत् कच्छावती चात्र देवः, क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे ह्रदावती कुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम्, गौतम ! आवर्तस्य विजयस्य पश्चिमेन कच्छकावत्या विजयस्य पौरस्त्येन नीलवतोदाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु महाविदेहे वर्षे इदावतीकुण्डं नामकुण्डं प्रज्ञप्तम्, शेषं यथा ग्राहावतीकुण्डस्य यावअर्थः, तस्य खलु ह्रदावतीकुण्डस्य दक्षिणेन तोरणेन हूदावती महानदी प्रव्यूढासती कच्छावत्यावौँ विजयौ द्विधा विभजमाना २ दक्षिणेन सीतां महानदीं समाप्नोति, शेपं यथा ग्राहावत्याः। ___ क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे आवतॊ नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणेन सीताया महानद्या उत्तरेण नलिनकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन इदावत्या महानद्याः पौरस्त्येन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे आवतों नाम विजयः प्रज्ञप्तः, शेष यथा कच्छस्य विजयस्य इति । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे नलिनकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः १, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण मङ्गलावत्याः विजयस्य पश्चिमेन आवर्तस्य विजयस्य पौरस्त्येन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे नलिनकूटो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः शेष यथा चित्रकूटस्य यारत् आसते, नलिनकूटे खल भदन्त ! कतिकूटानि प्राप्तानि ?, गौतम ! चत्वारि कूटानि प्रज्ञप्तानि, Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् तद्यथा-सिद्धायतनकुटं १ नलिनकूटं २ आवर्त कूटं ३ मङ्गलावर्त्तकूटम् ४ एतानि कूटानि पञ्चशतिकाराजधान्य उत्तरेणे, क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे मङ्गालावत्तौ नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण नलिनकूटस्य पौरस्त्येन पङ्कावत्याः पश्चिमेन, अत्र खलु मङ्गालवत्तॊ नाम विजयः प्रज्ञप्तः, यथा कच्छस्य विजयः तथा एष भणितव्यः यावद् मङ्गलावतोऽत्र देवः परिवसति, स एतेनार्थेन । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे पङ्कावती कुण्डं नाम कुण्डं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मङ्गलावर्तस्य पौरस्त्येन पुष्कल विजयस्य पश्चिमेन नीलवतो दाक्षिणात्ये नितम्बे अत्र खलु पङ्कावती यावत् कुण्डं प्रज्ञप्तम्, तदेव ग्राहावातीकुण्डप्रमाणं यावत् मङ्गलावर्तपुष्कलावर्तविजयौ द्विधा विभजमाना २ अवशेषं तदेव यदेव ग्राहावत्याः। ___ क्व खलु भदन्त । महाविदेहे वर्षे पुष्कलावतों नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण पावत्याः पौरस्त्येन एकशैलस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन, अत्र खलु पुष्कलावत्तॊ नाम विजयः प्रज्ञप्तः, यथा कच्छविजयः तथा भणितव्यम् यावत् पुष्कलोऽत्र देवो महर्दिकः पल्योपमस्थितिकः प्रतिवसति, स एतेनार्थेन । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे एकशैलो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! पुष्कलावर्त चक्रवर्तिविजयस्य पौरस्त्येन पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयस्य पश्चिमेन नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण, अत्र खलु एकशैलो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः, चित्रकूटगमेन नेतव्यो यावद् देवा आसते, चत्वारि कूटानि तद्यथा-सिद्धायतनकूटम् १ एकशैलकूटं २ पुष्कलावतकूटं ३ पुष्कलावीकूटम् ४, कटानां तदेव पञ्चशतिकं प्रमाणं यावद् एकशैलोऽत्रदेवो महर्द्धिकः । क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे पुष्कलावती नाम चक्रवर्ति विजयः प्रज्ञप्तः?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण औत्तराहस्य सीतामुखवनस्य पश्चिमेन एकशैलस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु महाविदेहे वर्षे पुष्कलावती नाम विजयः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः एवं यथा कच्छविजयस्य यावत् पुष्कलावती चात्रदेवः परिवसति, एतेनार्थन। क्व खलु भदना ! महाविदेहे वर्षे सीताया महानद्या औत्तराहे सीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नीलवतो दक्षिणेन सीताया उत्तरेण पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पुष्कलावती चक्रवर्तिविजयस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु सीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्, उत्तरदक्षिणायतं प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्ण पोडश योजनसहस्राणि पश्च च द्वानवतानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेन सीताया महानद्या अन्तेन योजनसहस्राणि नव च द्वाविंशानि योजनशतानि विष्कम्भेण तदनन्तरं च खलु मात्रया २ परिहीयमानं २ नीलवरपंधरपर्वतान्तेन एकोनविंशतिभागं योजनस्य विष्कम्भेणेति, तत् खलु एकया पद्मवरवे. दिकया एकेन च वनषण्डेन संपरिक्षिप्तम् वर्णकः सीतामुखवनस्य यावद् देवा आसते, एवमौत्त. राहं पार्श्व समासम् । विजया भणिताः । राजधान्य इमा:-क्षेमा १ क्षेमपुरा २ चैव अरिष्ठ। ३ अरिष्ठपुरा ४ तथा । खड्गी ५ मज्जूषा ६ अपि च औषधी ७ पुण्डरीकिणी ८॥१॥ ज० ४५ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे षोडश विद्याधरश्रेण्यः तावत्य आभियोग्यश्रेणयः सर्वा इमा ईशानस्य, सर्वेषु विजयेषु कच्छवक्तव्यता यावत् अर्थों राजानः सदृशनामकाः विनयेषु षोडशानां वक्षस्कारपर्वतानां चित्रकूटवक्तव्यता यावत् कूटानि चत्वारि २ द्वादशानां नदीनां ग्राहावती वक्तव्यता यावद् उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां वनषण्डाभ्यां च०, वर्णकः ॥सू० २८॥ टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'सुकच्छे णामं विजए' मुकच्छो नाम विजयः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्न भगवानाह-'गोयमा !' इत्यागुत्तरसूत्रं सुगम कच्छवद्वर्णनीयत्वात् 'णवरं' द्वितीय विजय वक्षस्कार का वर्णन 'कहि णं भंते ! जंबूद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' इत्यादि टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतम प्रभु से ऐसा पूछ रहे हैं-'कहि णं भंते । जं. दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के छीपमें जो महाविदेह क्षेत्र है उसमें सुकच्छनामका विजय कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं गाहावईए महाणईए पंच्चत्थिमेणं चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं जंबूद्दीवे दीवे-महाविदेहे वासे सुकच्छेणामं विजए पण्णत्ते' हे गौतम । सीता महानदीकी पश्चिम दिशामें, नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशामें ग्राहावती महानदी की पश्चिम दिशामें एवं चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशामें जम्बूद्रीप नामके द्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेह क्षेत्रमें सुकच्छ नामका विजय कहा गया है 'उत्तरदाहिणायए जहेव દ્વિતીય વિજયવક્ષસ્કારનું વર્ણન । 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' इत्यादि । टाथ-सूत्र गौतभस्वामी प्रभुने २ जतने। प्रश्न ४२ छ -'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' 3 Ra! दी५ नाम દ્વપમાં જે મહાવિદેહ ક્ષેત્ર છે, તેમાં સુચ્છ નામક વિજય કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવા सभ प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! सीयाए महाणईए उत्तरेणं णील तस्स बासहरपव्ययर दाहिणेणं गाहा. वईए महाणईए पच्चत्थिमेणं चित्तकूडस्स वक्खारपवयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबूहीवे दीवे महाविदेहे वासे सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' गौतम ! सीता महानहीनी उत्तर दिशामा नासવંત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં ગહાવતી મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં, જમ્બુદ્વીપનામક દ્વીપની અંદર વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં सु४२७ नाम विन्य मावेस छे. 'उत्तरदाहिणायए जहेव कच्छे विजए तहेव सुकच्छे णाम विजए पण्णत्ते' २॥ सु४२७ नाम विय उत्तरथी क्षिा हि सुधी पायत दी छे भने पूर्वथा Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थ वक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३५५ नवरं केवलम् 'खेमपुरा रायहाणी' क्षेमपुरा राजधानी, तत्र 'सुकच्छे राया' सुकच्छो राजा सुकच्छ नामा राजा चक्रवर्ती 'समुप्पज्जई' समुत्पद्यते विजयस्वायत्तीकरणादिकं 'तहेव' तथैवकच्छवदेव 'स' सर्व वाच्यमितिशेषः । अथ प्रथमान्तरनदीं वर्णयितुमुपक्रमते - ' कहि णं भंते ' इत्यादि - क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे ' गाहावइकुंडे' ग्राहावतीकुण्डं ग्राहावत्याख्यान्तरनदी प्रभवस्थानं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ?, इति प्र भगवानाह - 'गोयमा !" गौतम ! 'सुकच्छविजयस्स' सुकच्छविजयस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरसत्येन - पूर्वदिशि 'महाकच्छस्स विजयस्स' महाकच्छस्य विजयस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमदिशि 'णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स' नीलवतो वर्षघरपर्वतस्य 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये 'णितंबे' नितम्बे मध्यभागे 'इत्थ' अत्र अत्रान्तरे मध्यभागसमीपे 'णं' खलु 'जंबूदीवे कच्छे विजए तहेव सुकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' यह सुकच्छ नामका विजय उत्सर से दक्षिण दिशातक आयत लम्बा है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है इत्यादि रूपसे सब कथन कच्छ विजय प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसाही वह सब कथन इस सुकच्छ विजय प्रकरण में भी करलेना चाहिये 'णवरं खेमपुरा रायहाणी, सुकच्छे राया, समुप्पज्जइ तहेव स' परन्तु यहां पर क्षेमपुरा नामकी राजधानी है उसमें सुकच्छ नामका चक्रवर्ती राजा शासन करता है इत्यादि सब कथन जैसा कच्छ विजय प्रकरण में कच्छ चक्रवर्ती राजा के सम्बन्ध में किया जा चुका है वैसाही वह सब कथन यहां पर भी कहलेना चाहिये । 'कहि णं भंते ! जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुडे पण्णत्ते' हे भदन्त ! जम्बूद्रीप नामके इस द्वीपमें वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती नामका कुंड कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा । सुकच्छ विजयस्स पुरत्थिमेणं महाकच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स बासहरत्रयस्स दाहिणितले णितंवे एत्थ णं जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे પશ્ચિમ સુધી વિસ્તી છે. ઇત્યાદિ રૂપથી સર્વ કથન કચ્છ વિજય પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કડેલુ છે તેવુ જ બધું કથન આ સુકચ્છ વિજય પ્રકરણમાં પણ સમજી લેવુ જોઇએ. 'णवरं खेमपुरा रायहाणी सुकच्छे राया, समुप्पज्जइ तहेव सव्वें' पशु अडी क्षेभपुरा नामह રાજધાની છે તેમાં મુકચ્છ નામક ચક્રવર્તી રાજા શાસન કરે છે, વગેરે મધુ કથન જેવુ કચ્છ વિજય પ્રકરણમાં કચ્છ ચક્રવતી રાજાના સંબંધમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. તેવુ જ બધું કથન અહીં પણ સમજી લેવું જોઇએ. 'कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुंडे पण्णत्ते' हे लत् ! भ्यूદ્વીપ નામક આ દ્વીપમાં વમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં ગ્રાહાવતી નામક કુંડ ક્યા સ્થળે मावेस छे? सेना श्वाश्रभां प्रभु ! छे - 'गोयमा ! सुकच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं महा कच्छस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं णीलवंतस्स वासहरपव्त्रयस्स दाहिणिल्ले णितंबे एत्थणं जंबु Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दीवे' जम्बूद्रोपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'गाहावइकुंडं णामं कुण्डं' ग्राहावती. कुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तत् कीदृशम् ? इत्यपेक्षायामाह-'जहेव रोहियंसाकुंडे तहेव' यथैव रोहितांशा कुण्डं तथैव-अयम्भावः-रोरितांशाकुण्डं यथा-'सवीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं तिणि असीए जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं दस जोयणाई उव्वे हेणं' इत्यादि वर्णकेन वर्णितं तथैवेदमपि वर्णनीयमिति किम्पर्यन्तम् इत्यपेक्षायामाह -'जाव गाहा. वइ दीवे भवणे' यावद् ग्राहावती द्वीपं भवनम् ग्राहावत्यां द्वीपं भवनं चाभिव्याप्य वर्णनीयम् अस्योपलक्षणतया तन्नामार्थ सूत्रमपीह बोध्यम् तथाहि-'से केणटेणं भंते एवं वुच्चइ-गाहावई दीवे गाहावई दीवे ?, गोयमा ! गाहावई दीवे णं वहुई उप्पलाई जाव सहस्सपत्ताई गाहावइ दीपसमप्पभाई समवण्णाई' इत्यादि एतच्छाया-अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-ग्राहावती द्वीपो ग्राहावती द्वीपः ?, गौतम ! ग्राहावती द्वीपे खलु बहूनि उत्पलानि यावत् सहस्रपत्राणि ग्राहावती द्वीपसमप्रभाणि समवर्णानि' इत्यादि, एतद्वयाख्या सुगमा, गाहावइकुंडे णामं कुंडे पण्णत्ते' हे गौतम ! सुकच्छ विजयकी पूर्व दिशामें महा कच्छ विजयकी पश्चिम दिशामें नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशामें वर्तमान नितम्ब के ऊपर-ठीक मध्यभाग के ऊपर-जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें वर्तमान महाविदेह क्षेत्रमें ग्राहावती कुड नामका कुण्ड कहा गया है 'जहेव रोहिअंसा कूडे तहेव जाव गाहावइदीवे भवणे' रोहितांशा कुण्ड की तरह इसका आयाम और विष्कम्भ १२० योजन का है परिक्षेप इसका कुछकम ३८० योजन का है १० योजन का उद्वेध है इत्यादि रूप से सब वर्णन इसका करलेना चाहिये ग्राहावती नामका इसमें द्वीप है और उसमें इसी नामका भवन है। इस द्वीपका ऐसा नाम किस कारण से हुआ है ? तो इस सम्बन्ध में ऐसा कह लेना चाहिये कि ग्राहावती द्वीप में अनेक उत्पल यावत् सहस्त्रपत्र ग्राहावती द्वोपकी जैसी प्रभा. वाले होते हैं । अतः इसका नाम ग्राहावती द्वीप हुआ है तथा और भी जो कथन हीवे दीवे महाविदेहे वासे गाहावइकुडे णामं कुडे पण्णते' हे गौतम ! सु४२७ विनी पूर्ण દિશામાં મહાકછ વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં નીલવત વર્ષધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં વર્તમાન નિતંબની ઉપર ઠીક મધ્યભાગની ઉપર જબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં વર્તમાન મહાविड क्षेत्रमा ग्राही नाम मावस छे. 'जहेव रोहिअंसाकुडे तहेव जाव गाहावइ दीवे भवणे' तिin ॐनी १५ मेनो मायाम भने १ext १२० योरन જેટલો છે. એને પરિક્ષેપ કંઈક અલ્પ ૩૮૦ એજન જેટલું છે. ૧૦ એજન જેટલે એને ઉધ છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં બધું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. યાવતુ ગ્રાહાવતી નામે એમાં એક દ્વીપ છે અને તેમાં એજ નામવાળું ભવન છે. એ દ્વીપનું નામ ગ્રાહાવતી કેવી રીતે સુપ્રસિદ્ધ થયું? તે એ સંબંધમાં આટલું જાણી લેવું જોઈએ કે ગ્રાહાવર્તી દ્વીપમાં અનેક ઉત્પલે યાવત્ સહસ્ત્રપત્ર ગ્રાહાવતી દ્વીપના જેવા પ્રભાવાળાં હોય છે. એથી એનું Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्थवक्षरकारः सू० २८ द्वितीय सुकच्छबिजयनिरूपणम् ३५७ अथास्माद् ग्राहावती कुण्डान्निः सरन्ती स्रोतस्वतीं वर्णयितुमुपक्रमते-'तस्स णं' तस्य खलु 'गाहावईस' ग्राहावत्याः 'कुंडस्स' कुण्डस्य 'दाहिणिल्लेणं' दाक्षिणात्येन दक्षिणदिग्भवेन 'तोरणेणं' तोरणेन बहिरेण 'गाहावई' ग्राहावतो 'महाणई' महानदी 'पवृढा' प्रव्यूढा निर्गता 'समाणी' सती 'सुकच्छ महाकच्छविजए' सुकच्छमहाकच्छविजयौ 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणी२' विभजमाना२ विभक्तो कुर्वाणार 'अट्टावीसाए' अष्टाविंशत्या 'सलिलासहस्सेहि' सलिलासहस्रैः नदी सहस्रः 'समग्गा' समग्रा सम्पूर्णा मेरोः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणभागेन 'सीयं महाणई' सीतां महानदीम् 'समप्पेइ'समाप्नोति समुपैति अथास्या ग्राहावत्या विष्कम्भादिकमाह-'गाहावई णं' ग्राहावती खलु 'महाणई' महानदी 'पवहे य मुहे य' प्रबहे-ग्राहावती कुण्डानिर्गमे च पुन: मुखे-सीतामहानदी प्रवेशे च 'सव्वस्थ' सर्वत्र मुख प्रवहयोस्तथा तदतिरिक्तेऽपि स्थाने 'समा' समानविष्कम्भो द्वेधा प्रज्ञप्ता, एतदेव प्रदर्शयति-पणवीसं जोयणसयं' पञ्चविंशं-पश्चविंशत्याधिकं योजनशतम् 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'अद्धाइज्जाई' अर्द्धतृतीयानि 'जोयणाई' योजनानि 'उव्वेहेणं' उद्वेधेन-भूप्रवेशेन उण्डत्वेन सपादशतयोजनानां पञ्चाशत्तमभागे एतावत एव मानस्य लाभात्, पृथुलता च पूर्व पत्, तथाहि-महाविदेहेषु कुरुमेरुभद्रशालविजयवक्षस्कारइस नामनिक्षेप में जैसा पीछे कहा जा चुका है वैसा ही करलेनी चाहियेयावत् यह शाश्वत नाम वाला हैं। ___ 'तस्सणं गाहावइस्स कुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पबूढा समाणी सुकच्छमहाकविजए दुहा विभजमाणी २ अट्टावीसाए सलिलासह. स्सेहिं समग्गा दाहिणेणं सीअं महाणई समप्पेइ' उस ग्राहावती कुण्ड के दक्षिणदिग्यः तोरण से ग्राहावती नामकी नदी निकली है और सुकच्छ और महाकच्छ विजयों को विभक्त करती हुई यह २८ हजार नदियों से परिपूर्ण होकर दक्षिण भाग से सीता महानदी में प्रविष्ट हो गई है 'गाहावईणं महाणई पवहे अ मुहें य सम्वत्थ समा पणवीसं जोयणसयं विखंभेणं अद्वाइज्जाई जोयणाई उज्वेहेणं, उभओ पासिं दोहिंय पउमवरवेइआहिं दोहि अ वण નામ ગ્રાહાવતી દ્વીપ તરીકે સુપ્રસિદ્ધ થયું. તેમજ બીજું જે કંઈ કથન એ નામ નિક્ષેપમાં સંભવી શકતું હોય તે પહેલાં જેમ કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ સમજી લેવું જોઈએ. યાવત્ એ શાશ્વત નામવાળે દ્વીપ છે. 'तरसणे गाहावइस्स कुंडस्स दाहिणिल्लेणं तोरणेणं गाहावई महाणई पवूढा समाणी सुकच्छ महाकच्छविजए दुहा विभजमाणी २ अट्ठावीसाए सलिलासहस्से हिं समग्गा दाहिणेणं सीअं महाणइं समप्पेइ' ते पाहावती नी क्षणे मावा तोरथी पासपती नाम नही. नाजी છે, અને સુકચ્છ અને મહાકચ્છ વિજયેને વિભક્ત કરતી એ ૨૮ હજાર નદીઓથી પરિ પૂર્ણ થઈને દક્ષિણ ભાગથી સીતા મહાનદીમાં પ્રવિષ્ટ થઈ ગઈ છે. 'गाहावईणं महाणई पवहे अ मुहे य सव्वत्थ समापणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂટ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुखवनातिरिक्तेषु सर्वत्रान्तरनद्यः सन्ति, ताथ पूर्वपश्चिम विस्तृताः समविस्तारप्रमाणाः, ततश्चैवं प्रमाणम् - तत्र - मेरुविष्कम्भस्य पूर्वपश्चिमवति भद्रशालयनयोरायामस्य च प्रमाणं चतुः पञ्चाशत्सहस्राणि ५४०००, विजयविस्तारथ षडुतरचतुः शताधिकपञ्चत्रिंशत् सहस्राणि ३५४०६, दक्षस्कारपर्वतविस्तारः चत्वारि सहस्राणि ४०००, मुखयनयोर्विस्तारः ५८४४ चतुश्चत्वारिंशदधिकाष्टशत्युत्तरपञ्चशती, राकलसंकलनायां कृतायाम्, पञ्चाशदधिकद्विशत्युत्तर नवनवतिसहस्राणि ९९२५०, एतच्च प्रमाणं जम्बूद्वीपस्य लक्षयो जनप्रमाणविष्कम्भात् संशोसंडेहिं जाव दुण्ह वि वण्णओ इति' यह ग्राहावती महानदी प्रवह में-ग्राहावती कुण्ड से निर्गम स्थान में एवं सीता नदी में जहां से प्रवेश करती है उस स्थान में सर्वत्र समान है अर्थात् मुख प्रवह एवं इनसे अतिरिक्त स्थानों में समान विष्कंभ और समान उदेघ वाली है इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं इसका विष्कंभ १२५ योजन का है और उद्वेध इसका २ || योजन का है क्योंकि १२५ योजन का पचासत्र भाग इतना हो होता है । उसकी मोटाई पूर्ववत् समझ लेवें । महाविदेह क्षेत्र में कुरु, मेरु भद्रशालविजय वक्षस्कार सुखवन के सिवाय सर्वत्र अन्तर्नदीयां कही गई हैं । वे नदीयां पूर्व पश्चिम में विस्तार वाली है, समान विस्तार वाली हैं, इस प्रकार उनका प्रमाण होता हैमेरु के पूर्व पश्चिम में भद्रशालवन के आयाम का प्रमाण ५४००० चोपन हजार, योजन, विजय का विस्तार ३५४०६ पैंतीस हजार चार सो छह योजन, वक्षस्कार पर्वत का विस्तार ४००० चार हजार योजन, मुखबन का विस्तार ५८४४ पांच हजार आठ सो चुमालिस योजन | सबको जोडने से - ९९२५० नण्णाणु हजार दो सो पचास योजन होता है अद्धा इज्जाई जोयणाई उवेहेणं, उभओ पासिं दोहिं य पउपवरवेइआहि दोहि अ वणसंडे हिं जात्र दुह विण्णओ इति' मे आडावती भानही प्रवहुम-आडावती डुडना निर्गभन સ્થાનમાં-તેમજ સોતા નદીમાં જમાંથી પ્રવેશ કરે છે તે સ્થાનમાં-સત્ર સમાન છે. એટલે કે મુખ પ્રવહ તેમજ અન્ય ખીત સ્થાનામાં સમાન વિકલ અને સમાન ઉદ્દેધવાળી છે. એ વાતને સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે આના વિષ્ણુભ ૧૨૫ યાજન જેટલે છે અને ઉર્દૂધ રા ચેાજન જેટલે છે. કેમકે ૧૨૫ ચૈાજનના પચાસથે ભાગ આટલા જ થાય છે. તેની જાડાઈ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજવી એઈ એ મહાવિદે ુ ક્ષેત્રમાં મેરુ ભદ્રશાલવિજય વક્ષસ્કાર મુખવન સિવાય બધે જ અન્તનદીયે કહેલી છે. તે નદીયા પૂર્વપશ્ચિમમાં વિસ્તારવાળી છે. અને તે સમાન વિસ્તારવાળી છે, તેનું પ્રમાણ આ રીતે થાય છે-મેરૂ પતના વિષ્ણુ ંભની પૂર્વ પશ્ચિમમાં ભદ્રશાલવનના આયામનું પ્રમાણુ ૫૪૦૦૦ ચાપન હજાર ચૈાજન, વિજયને વિસ્તાર ૩૫૪૦૬ પાંત્રીસ હન્તર ચારસે છ યેાજન, વક્ષસ્કાર પતના વિસ્તાર ૪૦૦૦ ચાર હાર ચેાજન, મુખવનના વિસ્તાર ૫૮૪૪ પાંચહજાર આઠસા ચુ'માળીસ ચેાજન, એ બધાને મેળવવાથી ૯૯૨૫૦ નવાણુ હજાર બસેા પયાસ ચેાજન થાય છે. Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ध्यते तथा सति पश्चाशदधिक सप्तशती ७५० सम्यते, इदं च विष्कम्भप्रमाणं दक्षिणोत्तरयो भांगयोरन्तर्वतिनीनां पण्णां नदीनां षभिर्भागे हते लभ्यते इति, आयामस्तु विजयस्य तद्वक्षस्कारपर्वतान्तरनदीमुखबनानां च सम एवेति, ननु अन्तरनदीनामुक्त आयामो न सङ्गच्छते पश्चचवारिंशत्सहस्रप्रमाणस्यैवायामस्य सत्चात् तथा चोक्तम् जावइया सलिलाओ माणुसलोगंमि सव्वंमि । पणयालीस सहस्सा आयामो होइ सबसरियाणं ॥ एतच्छाया-यावत्यः सलिला मानुष्यलोके सर्वस्मिन् । पञ्चचत्वारिंशत् सहस्वाणि आयामो भवति सर्व सरिताम् ॥ इतिचेत्, अत्रोच्यते-पञ्चदत्वारिंशत्सहसायामप्रतिपादक.श्चन मिदं भरतान्तर्गतगङ्गादि यह प्रमाण जंबूद्वीप के एक लाख शोजन विष्कंभ से शोधित करने पर ७५० सात सो पचास योजन रह जाता है। यह विष्कंभ प्रमाण दक्षिण एवं उत्तर भाग में अन्तवर्तिनी छह नदीयों के छह से भाग देने पर निकलता है। विजय वक्षस्कार का आयान एवं अन्तवर्ति वक्षस्कारों का एवं नदी मुख वनों का आयाम समान ही कहा है शंका-अन्तर्नदीयों का उक्त आयाम कहना ठीक नहीं होगा कारण चोपन हजार का ही-आयाम पहले कहा है कहाँ भी है-सर्व मनुष्य लोक में जितनी नदीयाँ हैं उनका आयाम चोपन हजार योजन का ही कहा है। ___ उत्तर-चोपन हजार योजन का आयाम का प्रतिपादक यह बचन भरत क्षेत्रान्तर्गत गंगादि नदीयों का साधारण कहा है अतः जैसे वहां नदी क्षेत्र का अल्प परिणाम होने से अनुपपत्ति होने से उसकी उपपत्ति कोट्ठाकरण न्याय का आश्रयणीय है આ પ્રમાણે જબૂદ્વીપના એકલાખ યે જનના વિકૅભમાંથી બાદ કરવાથી ૭૫૦ સાડાસાત જન શેષ રહે છે આ વિષ્કણનું પ્રમાણ દક્ષિણ અને ઉત્તર ભાગમાં અન્તર્વતિ છ નદીને છથી ભાગવાથી નીકળે છે. વિજય વક્ષસ્કારનો આયામ અને અન્તર્વતિ વક્ષસ્કાર અને નદી મુખવનને આયામ સરખે જ છે. શંકા-અન્તર્નાદીને એ પ્રમાણેનો આયામ કહે તે બરાબર નથી કારણ કે-તે આયામ ચોપન હજાર એજનનો જ કહ્યું છે. કહ્યું પણ છે–બધા મનુષ્ય લેકમાં જેટલી નદી છે, તેને આયામ ચિપન હજાર એજનને જ છે. ઉત્તર-ચોપન હજાર એજનને જ આયામ કહે. તે બરાબર નથી. કારણ કે–તે પ્રમા શેના આયામનું પ્રતિપાદક આ વચન ભરતક્ષેત્રવતિ ગંગાદિ નદીનું સાધારણ કહેલે છે. જેથી ત્યાં નદી ક્ષેત્રનું અ૫પ્રમાણુ કહેવાથી સંગતતા ન થવાથી તેની સંગતી માટે કેપ્ટાકરણ ન્યાયનો આશ્રય લઈને સમજી લેવું. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नदीसाधारणं तेन यथा तत्र नदीक्षेत्रस्याल्पपरिमाणत्वे नानुपपत्तौ तदुपपत्तय कोट्टाककरणमाश्रयणीयं भवति तथाऽत्रापि तमाश्रयणीयम्' ___'उभओ पासिं' उभयोः द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहि य पउमवरवेइयाहिं' द्वाभ्यां च पद्मवरवेदिकाभ्याम् 'दोहि य वणसंडे हि' द्वाभ्यां च वनपण्डाभ्यां 'जाव' यावत् यावत्पदेन 'संपरिक्खित्ता' इति सङ्ग्राह्यम् संपरिक्षिप्तेति तच्छाया तदर्थश्व परिवेष्टितेति 'दुण्हवि' द्वयोरपि पद्मवरवेदिका-वनषण्डयोरपि वर्णकः वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः, सच चतुर्थपञ्चसूत्रतो ग्राह्य ः, अथ तृतीयं महाकच्छविजयं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इसकी दोनों तरफ दो पद्मवरवेदिकाएं हैं और दो वनषण्ड हैं उनसे यह घिरी हुई है (जाव दुण्ह वि वणओ) यहां यावतू शब्द से वावर वेदिका एवं वन षण्ड इन दोनों का वर्णन कर लेना चाहिए (कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामका विजय कहां पर कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपन्वयस्स दाहिजेणं सीयाए महाणइए उत्तरेणं पउमकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेगं गाहावईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पणते) हे गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत की दक्षिण दिशा में सीता महानदी की उत्तर दिशा में पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत की पश्चिम दिशा में एवं ग्राहावती महानदी की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर महाकच्छ नामका विजय कहा गया है (सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थदेवे महिद्धीए अट्ठो अभाणियचो) बाकी का और सब कथन इसके सम्बन्ध काजैसा कच्छ विजय के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही जानना चाहिए इसका महाकच्छ विजय ऐसा जो नाम हुआ है उसका कारण यावत એના બનને પાધભાગમાં બે પર વેદિકાઓ છે અને બે વનડે છે, તેમ नाथी थे परिवृत छ. 'जाव दुण्ह वि वण्णओ' मही यावत् मन्ननु वर्णन शबु नसे 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते' 3 मत ! भड़ा વિદેડ ક્ષેત્રમાં મહાકછ નામક વિજય કયા સ્થળે આવેલ છે. એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे-'गोयमा ! णीलवतस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं सीआए महाणईए उत्तरेणं प उमकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं णोहावईए पुरस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते 3 गोतम ! नासवत वष ध२ पतनी दक्षिण दिशाम सीता महानहीनी ઉત્તર દિશામાં પઘકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ગ્રાહાવતી મહાનદીની पूर्व शमां महाविड क्षेत्रनी २०१२ मा ४२७ नामे वि०४य मावद छ. 'सेसं जहा कच्छविजयस्स जाव महाकच्छे इत्थ देवे महिद्धीए अट्ठो अ भाणिययो' शेष मधु કથન એ સંબંધમાં જેમ કચ્છ વિજય પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેવું જ સમજવું જોઈએ. એ વિજયનું મહાક૭ વિજય એવું જે નામ પ્રસિદ્ધ થયું છે તેનું કારણ યાવત Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३६१ इत्यादि छायागम्यम् नवरं 'जाव' महाकच्छे इत्थ देवे' यावद महाकच्छोऽत्र देवः, परिवसति स च कीदृशः १ इत्याह-'महिद्धीए' महद्धिकः इत्युपलक्षणम् तेन महाद्युतिक इत्यादिपदानां सङ्ग्रहो बोध्यः स चाष्टमसूत्रात् सव्याख्यो ग्राह्यः, यावत्पदेन-'तत्थ णं अरिद्वाए रायहाणीए महाकच्छे णामं राया समुप्पज्जइ, महया हिमवंत जाव सव्वं भरहो अवणं भाणियव्वं, णिक्खमणवज्ज सेसं भाणियव्वं जाव भुंजइ माणुस्सए सुहे, महाकच्छणामधेज्जे' इति ग्रहीतव्यम् __ एतच्छाया-'तर खलु अरिष्टायां राजधान्यां महाकच्छो नाम राजा समुत्पद्यते, महाहिमवद यावत सर्व भरतसाधनं भणितव्यं यावद् भुकते मानुष्यकानि सुखानि महाकच्छनामधेयः' इति तत्र 'महाहिमवद् यावद् इत्यत्र यावत्पदेन-'मलयमन्दरमहेन्द्रसारः इति ग्राह्यम् तस्य च महाहिमवत्पदेन योगो बोध्यः, तथा सति महाहिमवन्मलयमन्दरमहेन्द्रमहाकच्छ नामका यहां पर महर्द्धिक देव कि जिसकी एक पल्योपम की स्थिति है रहता है यहां यावत् पद से महाद्युतिक महावल आदि पदों का ग्रहण हुआ है तथा 'तत्थ णं अरिट्टाए रायहाणीए महाकच्छे णामं राया समुप्पज्जइ महया हिमवंत जाव सव्वं भरहो अ वणं भाणियव्वं णिक्खमणवज सेस भाणियव्वं जाव भुंजइ माणुस्सए सुहे महाकच्छणामधेज्जे" वहां पर अरिष्ठा नामकी राजधानी है महाकच्छ नामका चक्रवर्ती राजा उसका शासन करता है यह महाहिमवंत पर्वत आदि के जैसा विशिष्ट शक्तिशाली और अजेय है भरतचक्रवर्ती की तरह यह मनुष्य भव सम्बन्धी सुखों का भोक्ता है परन्तु इसने अपने जीवन में सकल संयम धारण नहीं किया ऐसा यह सब प्रकरण पूर्व की तरह यहां पर कह लेना चाहिये महाकच्छ ऐसा नाम इसका क्यों हुआ सो इस सम्बन्ध में यहां पर महाकच्छ नाम का ही चक्रवर्ती यहां पर होता रहता है तथा महाकच्छ नामका देव रहता है इस कारण इसका नाम महाकच्छ ऐसा कहा गया है। મહાકચ્છ નામક મહદ્ધિક દેવ કે જેની એક પામ જેટલી સ્થિતિ રહે છે. અહી यावत् ५४थी 'महाद्युतिकः' पोरे पोर्नु थ छे. तेभ 'तत्थण अरिद्वाए रायहाणीए महाकच्दे णामं राया समुपजइ, महया हिमत जाव सव्वं भरहोअवणं भाणिय णिक्खमणवज्जं जाव सेसं भाणियब्बौं जाव भुंजइ, माणुस्सए सुहे महाकच्छ णामधेज्जे' त्या म२ि०नामनी ॥४ધાની છે. મહા કચ્છનામક ચક્રવર્તી રાજા તેને શાસન કર્તા છે. એ મહાહિમવંત પર્વત વગેરે જે વિશિષ્ટ શક્તિશાળી અને અજેય છે. ભરત ચકીની જેમ એ મનુષ્ય ભવ સંબંધી સુખને ભોક્તા છે, પણ તેણે પિતાના જીવનમાં સકલ સંયમ ધારણ કર્યું નથી એવું તે બધું પ્રકરણ પૂર્વવત્ અહીં પણ સમજી લેવું જોઈએ. મહાકચ્છ એવું નામ એનું શા કારણથી પ્રસિદ્ધ થયું ? તે એના સંબંધમાં આટલું જ કહેવું પર્યાપ્ત છે કે અહીં મહાકછ નામે ચક્રવર્તી રહે છે તેમજ મહાક૭ નામક દેવ રહે છે આ કારણે એનું નામ મહાકછ એવું કહેવામાં આવેલ છે, Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सार इति समस्तं पदम्, तद्वयाख्या पूर्व गता, 'यावद् भुक्त' इत्यत्रत्य यावत्पदसग्राह्यानां पदानां सङ्ग्रह औपपातिकसूत्रस्यैकादशसूत्रतः कार्यः तदर्थश्च तत्रैव मत्कृतपीयुषवर्षिणी टीकातो वोध्यः, ईदृशाभिलापेन महाकच्छशब्दस्य 'अस्थो य भाणियव्यो' अर्थश्व भणितव्यः वाच्यः सम्प्रति ब्रह्मकूटाख्यं वक्षस्कारपर्वत वर्णयितुमुपक्रमते 'कहिणं भंते !' इत्यादि छायागम्यम् नवरम् 'सेसं जहा चित्तकूड़स्स जाव आसंयंति' शेषं यथा चित्रकूटस्य यावदासते-शेषं वर्णितातिरिक्तं सर्व यथा चित्रकूटस्थ तथा वाच्यम् तत् किम्पर्यन्तम् इत्याहयावदासते-यावत्पदेन आयामादि सूत्रं भूमिभागवर्णनसूत्रपर्यन्तं च सर्व भणितव्यम्, अथात्र कूटानि वर्णयितुमाह-'पउमकूडे चत्तारि कूडा' इत्यादि-सुगमम् ‘एवं' एवम्___ (कहि ण मंते ! महाचिदेहे वासे पउमकूडे णामं वक्खारपच्चए पण्णत्ते) हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में पद्मकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णीलवंतस्स दक्षिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं महाकच्छस्स पुरथिमेणं कच्छावईए पचत्थिमेणं एस्थ णं महाविदेहे वासे पउमकूडे णामं पवक्खारपन्यए पण्णत्त) हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीता महानदी की उत्तर दिशा में, महाकच्छ विजय की पूर्व दिशा में एवं कच्छावती की पश्चिम दिशा में महाविदेह के भीतर पद्म कूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । (उत्तरदाहिणायए पाईणपडीण विच्छिन्ने) यह पद्मकूट नामका वक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण तक तो लंबा है तथा पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है-(सेसं जहा चिसकूडस्स जाव आसयंति) बाकी का और सब वर्णन इसके सम्बन्ध का चित्रकूट वक्षस्कार के प्रकरण में जैसा कहा गया है पैसा ही है यावतू वहां पर अनेक व्यन्तर देन और देवियां आराम करती है विश्राम करती है । (पउमकूडे चत्तारि कूडा पत्ता ) पाकूड के ऊपर ___ 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे पउमकडे णामं वक्खारपवर पण्णत्ते' ७ लत ! મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં પાકૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ છે ? એના જવાબમાં प्रभु छ ? 'गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए महाणईर पच्चत्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे पवउमडे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते' 3 गोतम ! नीसन्त पतनी इक्षिय દિશામાં સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં, મહાકચછ વિજયની પૂર્વ દિશામાં તેમજ કચ્છपतीनी पश्चिमाशामा मडाविनी २२ ५मट नाम १६४ार पत मावत छ. 'उत्तर दाहिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने' से पट नाम १३२४।२५ उत्तरथी दक्षिण सुधी दो छ तेभ पृथी पश्चिम सुधा विस्ती छे. 'सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयंति' से સંબંધમાં શેષ બધું વર્ણન ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કારના પ્રકરણમાં કહ્યું છે તેવું જ સમજવું. યાવત hi व्यन्तर हेवे। मने देवी-यो माराम ४२ छ, विश्राम ४२ छे. 'पउमकूडे चत्तारि कूडा पण्णत्ता' ५५टनी 6५२ या२ टूटी ४ामा मायेद छ. 'तं जहा' तेमना नाभी या Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थ वनस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकन्छविजयनिरूपणम् ३६३ अनेन प्रकारेण चित्रकूटयक्षस्कारपर्वतान्त कूटानुसारेण इमानि चत्वारि कूटानि वर्णनीयानि जाव' यावत्-यावत्पदेन 'समा उत्तरदाहिणेणं परुप्परंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं' इत्यादि सङ्ग्राह्यम् एतत्समस्तमनन्तरोक्त सूत्राद्बोध्यम्, छायाऽयौँ तत एव ज्ञातव्यो 'अट्टः' अर्थ:ब्रह्मकूटेति नाम्नोऽर्थः प्राग्वत् तथाहि-'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-पउमकूडे पउमकूडे ? गोयमा ! पउमकूडे य इत्थ देने मदिद्धीए जाव पलिओक्मट्टिईए परिवसइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चा पउमडे पउमकूडे' इति एतच्छायार्थों सुगमौ, अत्र देवविशेषणवाचकानां महद्धिकादि पल्योपमस्थितिकपयेन्तानां पदानां सङ्ग्रहः सव्याख्योऽष्टमसूत्रस्थाद्वि. जयद्वारदेवाधिकाराद्वोध्या, ____ अथ चतुर्थ कच्छकावतीनामकं विजयं वर्णमितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते !' इत्यादिचार कूट कहे गये हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-(सिद्धायणकूडे १, पउमकूडे २, महाकच्छकूडे ३, कच्छावाकूडे४) सिद्धायतनकूट, पद्मकूट, महाकच्छकूट और कच्छवतीकूट, (एवं जाव अट्ठो) यहां आगत इस यावत्पद से (समा उत्तर दाहिणेणं परुपरति, पढमं सीयाए उत्तरेणं) इत्यादि पदों का संग्रह हुआ है यह सब कथन अनन्तरोक्त सूत्र से जाना जा सकता है। पद्मकूट ऐसा इसका नाम क्यों हुआ-इस विषय में आलाप इस प्रकार से बनाना चाहिये 'से केणटेणं भंते. एवं वुच्चइ पउमकूडे' उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' पउम कूडे य इत्थ देवे महिदीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसह, से तेण तुणं गोयमा! एवं वुच्चहप उमकूडे २,' इस आलापक की, जो प्रश्न और उत्तर रूपमें है अर्थ सुगम है। देवके विशेषणभूत महर्दिक आदि पदोंकी व्याख्या अष्टमसूत्रस्थ विजयद्वार के देवाधिकार से जानलेनी चाहिये। (कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते) हे भदन्त ! प्रमाणे छ. 'सिद्धाययणकूडे १, पउम डे-२, महाकच्छकूडे ३, कच्छावइकूडे-४' सिद्धा. यतन २, ५८, मडा४२७ . २मने ४२छाती फूट एवं जाव अट्ठो' मी मावस यावत् ५४थी 'समा उत्तरदाहिणेणं परूप्परेंति, पढमं सीयाए उत्तरेणं' पोरे यहोनु अडान થયું છે. આ બધું કથન અનન્તરોક્ત સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ છે. એનું નામ પદ્મ કૂટ એવું શા કારણથી સુપ્રસિદ્ધ થયું ? આના સંબંધમાં આલાપક એવી રીતે સમજ नये ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमकूडे' उत्तरमा प्रभु ४ छ- 'गोयमा ! पउमकूडे य इत्थदेवे महिद्धीए जाव पलिओवमदिईए परिवसइ, से तेजटेणं गोयमा ! एवं पुच्चइ पउमकूडे, २' से माता५। ३२ प्रश्न म उत्त२ ३५मा छ-मथ सुगम छे. हेवन। विशेષણભૂત મહદ્ધિક વગેરે પદની વ્યાખ્યા અષ્ટમ સૂરસ્થ વિજયદ્વારના દેવાધિકારમાંથી જાણી લેવી જોઈએ. 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते' सन्त ! महा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सुगमम् नवरं 'कच्छकावती-कच्छ: तटं, स एव कच्छकः सोऽस्त्यामिति कच्छ कावती अतिशयार्थेऽत्र मतुप् प्रत्ययः स्त्रीत्वान्ङीप् दीघस्तु शरादित्वाद्बोध्या, 'सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स' शेषम् उक्तातिरिक्तं सर्वकथनम् यथा कच्छस्य विजयस्य तथाऽस्यापि विजयस्य सर्व वक्तव्यम् तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह-'जाव कच्छगावई य इत्थ देवे' यावत् कच्छकावती चात्रदेवः परिवसतीति पर्यन्तं सर्व वाच्यम्, तत्र देवविशेषणानि प्राग्वत् अथास्मात्प्राच्यमन्तरनदी वर्णयितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं सुगमम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'आवत्तस्स' आवर्तस्य-एतनामकस्य 'विजयस्स' विजयस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि : कच्छगावईए' करछकावत्याः एतनामकस्य 'विजयस्स' विजयस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि ‘णीलवंतस्स' नीलवतः एतनामकस्य वर्षधरपर्वतस्य 'दाहिपिल्ले' दाक्षिणात्ये 'णितंबे' नितम्बे-मध्यभागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महा. महाविदेह क्षेत्रमें चतुर्थ कच्छकावती नामका विजय कहां पर कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं दहावतीए महाणईए, पच्चत्थिमेणं पउमकूडस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छगावती णामं विजए पण्णत्ते' हे गौतम ! नीलवन्त की दक्षिणदिशा में, सीता महानदी की उत्तरदिशा में, हृदावती महानदी की पश्चिमदिशा में एवं पद्मकूट की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर कच्छाकावती नामका विजय कहा गया है। (उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने) यह विजए उत्तर दक्षिण दिशाकी ओर दीर्घ-लंबा है और पूर्व और पश्चिम की तरफ विस्तीर्ण है। 'सेसं जहा कच्छस्स विजयस्त जाव कच्छगावई अ इत्थदेवे' इस से अवशिष्ट और सब कथन कच्छविजय के कथनानुसार ही जानना चाहिये यावत् कच्छकावती नामका देव यहां पर रहता है।। 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे दहाचई कुंडे पत्त' हे भदन्त ! महाविदेह વિદેહ ક્ષેત્રમાં ચતુર્થ કચ્છકાવતી નામક વિજય ક સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં प्रभु ४३ छ–'गोयमा ! भीलवंतरस दाहिणेणं सीयार महाणईए उत्तरे णं दहावतीए महाणईए पच्चत्थिमेणं पउRकूडस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वाले कच्छ गावती णामं विजए पण्णत्ते' હે ગૌતમ ! નીલવન્તની દક્ષિણ દિશામાં, સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં, હુદાવતી મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પાકૂટની પૂર્વ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રની અંદર કશ્મકાવતી नाम विन्य मावेत. 'उत्तरदाहिणायए पाई० पर्ड णविच्छिन्ने' से विय उत्तर दक्षिण हिश त२५ वी मेट , aiमा छ, भने पूर्व मने पश्चिम त२५ विस्ती छ. 'सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स जाव क छावई अ इत्थ देवे' शेष मधु ४यन २छवियना न भुम ongी से नये. यावत् ४२७४ापती नाम व सही छे. 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे दहावई कुडे पप्णते' 8 महन्त भाविहे क्षेत्रमा द्रावती नाम ॐ ४३॥ २५णे यावर ___ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू) २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३६५ विदेहे' महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'दहावईकुंडे णामं कुंडे' हुदावती कुण्डं नाम कुण्डं 'पण्णते' प्रज्ञप्तम् ‘सेसं' शेषम् आयामविष्कम्भादिकम् 'जहा' यथा 'गाहावई कुंडस्स' ग्राहावतीकुंडस्य तथाऽस्यापि बोध्यम् किम्पर्यतम् ? इत्याह-'जाव अट्ठो' यावदर्थः-ग्राहावतीति नामार्थवर्णनपरसूत्रपर्यन्तमित्यर्थः, नवरं हूदावतीद्वीपो हृदावती देवीभवनं हदावतीप्रभपद्मादि योगादिदं कुण्डमपि दावतीत्यन्वर्थनामकम् इति बोध्यम् तत्र इदाः अगाधा जलाशयास्ते सन्त्यस्यामि हुदावती अत्र शरादित्वाद्दीर्घः पूर्ववत् सुज्ञानः, अथ यथेयं सीतामहानदीं गच्छति तथाऽऽह 'तस्स णं' इत्यादि तस्य खलु दाहावई कुंडस' इदावतीकुण्डस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिकस्थेन 'तोरणेणं' तोरणेन बहिरेण 'दहावई महाणई' इदावती महानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निर्गता 'समाणी' सती 'कच्छावई आवत्ते' कच्छावत्यायत्तौं 'विजए' विजयौ 'दुहा' द्विधा "विभयमाणी २' विभजमाना २ दाहिणे' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीयं' सीताम् 'महाणई' महानदी 'समप्पेइ समाप्नोति समुपैतीत्यर्थः, अथ पञ्चमं विजयं क्षेत्र में हृद्रावती नामका कुण्ड कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा! आवत्तस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं कच्छगावइए विजयस्स पुरथिमेणं नीलवंतस्स दाहिणिल्ले णितंवे एस्थ णं महाविदेहे वासे दहावईकुंडे णाम कुंडे पण्णत्ते' हे गौतम ! आवर्तनामक विजय की पश्चिमदिशा में कच्छकावती विजय की पूर्वदिशा में, तथा नीलवन्त पर्वत के दक्षिण दिशा में रहे हुए नितम्बपर महाविदेह क्षेत्र के भीतर दहावती नामका कुण्ड कहा गया है । 'सेसं जहा गाहावई कुंडस्स जाव अट्टो' इस कथन के अतिरिक्त और सब इस कुण्ड के विषय का आगेका कथन ग्राहावती कुण्ड के कथन जैसाही यावत् इसका नाम ऐसा क्यों हुआ इस अन्तिम कथन तक यहां पर जानना चाहिये 'तस्स णं दहावइ कुंडस्स दाहिणेणं तोरणेणं दहावई महाणई पबूढा समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा विभजमाणी२ दाहिणेणं सीअं महाणई समप्पेइ' उस द्रहायती कुण्डके दक्षिणतोरणद्वार छ १ से १५मा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! आवत्तस्स विजयस पच्चस्थिमेणं कच्छगाबइए विजयस्स पुरस्थिमेणं णीलवंतस्स दाहिणिल्ले णितंवे एत्थ णं महाधिदेहे वासे दहावई कुडे णामं कुडे पण्णत्ते' गीतम! मावत' नाम विशयनी पश्चिम दिशामा ४२७४वती विशयनी પૂર્વ દિશામાં તથા નીલવન્ત પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ નિતંબ ભાગ ઉપર મહાવિદેહ क्षेत्रनी ४२ द्रावती नाम मा छे. 'सेसं जहा गाहावई कुंडस्स जाव अट्ठो' २४थन શિવાય બીજું બધું આકુંડ વિષેનું કથન ગ્રહ વતી કુંડના કથન જેવું જ છે યાવત્ એનું નામ એવું શા કારણથી રાખવામાં આવ્યું આ અંતિમ કથન સુધી અહીં જાણી લેવું જોઈએ. 'तस्स णं दहावइ कुंडस्प्त दाहिणेणे तोरणेगं दहावई महाणई पवूढो समाणी कच्छावई आवत्ते विजए दुहा विभजमाणी२ दाहिणेणं सीअं महाणई समप्पेइ' ते द्रावती 3 क्ष तोरण Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वर्णयितुमुपक्रमते-'कहिणं भंते ! इत्यादि-म खलु भदन्त ! 'महाविदेहे' महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'आपत्तो णामं विजए' आवों नाम विजयः 'पण्णते ?' प्रज्ञप्तः ? 'गोयमा !' इत्याधुत्तरसूत्रं स्पष्टार्थकम्, नवरम् ‘सेसं' शेषम् आयामविष्कम्भादिकम् ‘जहा कच्छस्स विजयस्स' यथा कच्छस्य विजयस्य तथाऽस्याप्यावर्त्त विजयस्येति । अथ तृतीयं नलिनकूटनामकवक्षस्कारपर्वतं वर्णयितुमुपक्रमते 'कहि णं भंते !" इत्यादि-प्रभसूत्रमुत्तरसूत्रं च स्पष्टम् से दहावती नामकी नहानदी निकली है और यह महानदी कच्छावती एवं आवर्त विजयको दो विभागों में विभक्त करती हुई दक्षिण दिशा में सीता महानदी में प्रविष्ट हो जाती है 'सेसं जहा गाहाचईए' इस के सम्बन्ध में आगे का और सब कथन ग्राहावती नदी के सम्बन्ध में कहे गये वतव्य के अनुसार समझना चाहिये 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे आवते णामं विजए पण्णत्ते' हे भदन्त ! महाविदेह क्षेत्र में आवर्तविजय नामका विजय कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! णीलवन्तस्स वासहरपव्ययस्स दाहिणेणं सीयाए महागई उत्तरे लिणकुंडस्स चक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं दहावतीए महाणईए पुरथिमेगं एत्थ शं महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए प्राणत्त' हे गौतम ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में सीता महानदी की उत्तरदिशा में नलिनकुण्ड वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में द्रहावती महानदी की पूर्वदिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर आवर्त नामका विजय कहा गया है। 'सेसं जहा कच्छरस विजयस्स इति' इसके आयाम और विष्कम्भ आदि का कथन जैसा कच्छविजय का प्रकरण में कहा जा चुका है वैसाही है 'कहि णं भंते ! દ્વારથી દ્રાવતી નામે મહી નદી નીકળી છે અને એ મહાનદી કચ્છાવતી અને આવર્ત વિજયને બે વિભાગમાં વિભક્ત કરતી દક્ષિણ દિશામાં સીતા મહાનદીમાં પ્રવિષ્ટ થઈ જાય છે. 'सेसं जहा गाहावईए' सेना समयमा शेष मधु ४३ श्राहावती नहीन समयमा स्पष्ट ४२वामां मादा तय मुमत आयुन. 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णाम विजय पण्णत्ते' 3 लत ! महाविड क्षेत्रमा मावत वि४५ नाम विय ४॥ स्थणे मावेस छ ? पाni प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं सीयाए. महाणईए उत्तरेणं णलिणकुंडस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चथिमेणं हारतीए महाणईए पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पाते' र गौतम ! नीसवन्त वर्ष ધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં સીતા મહા નદીની ઉત્તર દિશામાં નલિન કુંડ વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ દિશામાં કહાવતી મહાનદીની પૂર્વ દિયામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રની અંદર मावत' नाम वि५ मा छे. 'सेसं जहा कच्छस्स विजयस्त इति' सेना सयाम विना અંગેનું કથન જે પ્રમાણે કચ્છ વિજયના પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેવું જ છે. 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे णलिणकूडे णामं वक्खारपव्यए पण्णत्ते' 3 नन्त भी Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीयगुणकच्छविजयनिरूपणम् नवरम् सच 'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतः-उत्तरदक्षिणदिशोदीर्घः 'पाईगवडीणवित्थिण्णे' प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्ण:-पूर्वपश्चिम दिशो विस्तारयुक्तः 'सेसं' शेषम्-उद्वेधादिकम् 'जहा' यथा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूटस्य तथाऽस्यापि तत् किम्पयन्तम् ? इत्याह--'जाव आसयंति' यावदासते अन्न यावत्पदेन-'तत्थ णं वहचे वाण मन्तरा देवा य देवी भो य' इति सङ्ग्राहयम्, एतच्छाया-तत्र खलु बहवो व्यन्तराः 'वानव्यन्तराः' देवाश्च देव्यश्व इति 'आसत' इत्युपलक्षणम् तेन 'सयंति चिट्ठति णिसीयंति तुरटुंति रमंति ललंति कीलंति किट्ठति मोहंति' इत्येषां ग्रहणम्, एतच्छाया- 'शेरते तिष्ठन्ति निपीदन्ति, त्वचयन्ति, रमन्ते, ललन्ति, क्रीडन्ति, कीर्तयन्ति, मोहन्ति इति एषां व्याख्या पष्ठसूत्रे गताऽतस्ततो बोध्या, महाविदेहे वासे णलिणकूडे णानं बक्खारपन्चए पत्ते' हे भदन्न । महाविदेह क्षेत्र में नलिनकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! णीलवंतस्स दाहिनेणं सीयाए उत्सरेणं मंगटावइस विज. यस्स पच्चस्थिमेणं आवत्तस्स विजयस्स पुरथिमेगं एस्थ णं महाविदेहे वासे णलिणकूडे सामं वखारपचर पात' हे गौतम ! नीलवन्त पर्वत की दक्षिण दिशामें, सीता महानदी की उत्तरदिशा में, मंगलावती विजय की पश्चिमदिशा में और आवर्त विजय की पूर्व दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर नलिनकूट नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । 'उत्तरदाणिायए, पाईणपडीणविच्छिण्णे, _ 'सेसं जहा चित्त कूडस्स जाव आसयंति' यह नलिनकूट नामका वक्षस्कार पर्वत उत्तर और दक्षिण में आयत-दीर्घ-लम्बा है, तथा पूर्व पश्चिम में विस्तीर्ण है। बाकीका इसके सम्बन्धका-और सब आयामादि के प्रमाण का कथा जैसा चित्रकूट के प्रकरण में कहा गया हैं वैसा ही है यहां यावत् पद से अनेक વિદેડ ક્ષેત્રમાં નલિન કૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત કયા સ્થળે આવેલ છે? જવાબમાં પ્રભુ ४३ छ-'गोयमा! णीलवंतरस दाहिणेणं सीयार उत्तरेणं मंगलावइस्स विजयस्स पच्चलिमेणं आवत्तस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे गलियाकूडे णामं वक्खारपब्बए TUાઁ હે ગૌતમ! નીલવન્ત પતની દક્ષિણ દિશામાં સીતા મહા નદીની ઉત્તર દિશામાં મંગલાવતી વિજયની પશ્ચિમ દિશામાં અને આવર્ત વિજયની પૂર્વ દિશામાં મહાવિદેહ क्षेत्रनी ५१२ नलिन छूट नामे १९२४॥२ 'त मावेस छे. 'उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविच्छिण्णे, सेसं जहा चित्तकूडस्स जाव आसयंति' मा नलिन 2 ना १४२४२ ५' उत्तर અને દક્ષિણમાં આયત-દી–લ છે. તેમજ પૂર્વ પશ્ચિમમાં વિસ્તીર્ણ છે. આ સંબંધમાં શેષબધું આયામ અંગેના પ્રમાણનું કથન જેવું ચિત્રકૂટના પ્રકરણમાં કડેવામાં આવેલ છે, તેવું જ સમજવું યાવત્ પદથી અહીં અનેક બખ્તર દેવ-દેવીઓ આવીને વિશ્રામ કરે છે मने माराम २ छे. (१) (मही यावत् ५४थी 'सयंति, चिट्ठति, णिसीयंति, तुयदृती (रमंति, ललंति, कीलंति, किति, मोहंति) ५ही सहीत थया छ. से पहानी व्याय Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे - पश्चश अथ नलिनकूटाख्यवक्षस्कार गिरौ कूटानि पिपृच्छिपुराह- 'नलिणकूटे णं भंते' इत्यादिछायागम्यम्, नवरं तत्रोत्तरसूत्रे 'एए कूडा पंचसइया' एतानि कूटानि पंञ्चशतिकानि-1 तप्रमाणानि कूटवर्तिन्यो राजधान्यः कस्यां दिश्यवतिष्ठन्त इत्याह- 'रायहाणीओ उत्तरेणं' राजधान्यः- राजवसतयः, उत्तरेण-उत्तर दिशि, अथ षष्ठं विजयं वर्णयितुमुपक्रमते - ' कहि णं भंते !' इत्यादि सुगमम्, नवरं 'पंकावईए' व्यतर देव-देवियां आकर विश्राम करती है और आराम करती है । " 'णणिकूडे भंते! कतिकूडा पन्नत्ता' हे भदन्त ! नलिनकूट के ऊपर कितने कूट कहे गये हैं ! 'गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता' हे गौतम ! चार कूट कहे गये हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं- 'सिद्धाययणकूडे, णलिणकूडे, आवत्तकूडे मंगलाच सकूडे, एए कूडा पंचसइया राहाणीओ उत्तरे गं) सिद्धायतन कूट, नलिन कूट, आवर्त कूट, और मंगलावर्त्त कूट ये कूट, पांच सौ हैं यहां पर राजधानियां उत्तर दिशा में हैं । ( कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते) हे भदंत ! महाविदेह क्षेत्र में मंगलावर्त नामका विजय कहां पर कहा गया है (गोयमा ! नीलवंतस्स दक्खिणेणं सीयाए उत्तरेणं णलिणकूडस्स पुरस्थिमेण पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थ णं मंगलावन्ते णानं विजए पण्णत्ते) हे गौतम ! नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में, सीता महानदी की उत्तर दिशा में, नलिन कूट की पूर्व दिशा में एवं पंकावती की पश्चिम दिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर मंगलावर्त्त नामका विजय कहा गया है । छठ्ठा सूत्रमाथी लड़ी क्षेत्री लेहये. 'णलिणकूडेणं भंते ! कति कूडो पन्नता' हे लत ! नविन छूट पर सा टूटो (शिणरे।) आवेला छे ? 'गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता डे हे गौतम! यार टो आसा छे. 'तं जहा' तेना नाभी था प्रमाणे छे. 'सिद्धाययणकूडे, लिणकूडे आवत्तकूडे, मंगलावत्तकूडे, एए कूडा, पंचसइया रायहाणी उत्तरेण' सिद्धा યતનકૂટ, નલિન ક્રૂર, આવ ફૂટ અને મંગલાવ ફૂટ એ ફૂટો ૫૦૦ છે. અહીં રાજ धानीगो उत्तर दिशाभां उड़ी छे. 'कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णामं विजए पण्णत्ते' हे लहन्त ! मह विहेड क्षेत्रमां मंगलावर्त नाभविश्य ध्या स्थणे यावेस छे ? 'गोयमा ! नीलवंतस्स दक्खिणं सीयाए उत्तरेणं णलिणकूडस्स पुरत्थिमेणं पंकावईए पच्चत्थिमेणं एत्थ मंगलावत्ते णाम विजए पण्णत्ते' हे गौतम! नीलवन्त पर्वतनी हक्षिण दिशामां, સીતા મહાનદીની ઉત્તર દિશામાં નલિન ફૂટની પૂર્વ દિશામાં તેમજ પકાવતીની પશ્ચિમ द्विशामां महाविछेड क्षेत्री महर मंगलावर्त्त नामे विनय व्यावेस छे, 'जहा कच्छस्स (१) यहां यावत् शब्द से" संयंति, चिति, णिसीयंति, तुम्हृति, रमंति, ललंति, कीलंति, किहंति, मोहंति" इन पदोंका ग्रहण हुआ है इनकी व्याख्या छठे सूत्र से जान लेनी चाहिए । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २८ द्वितीय सुकच्छविजयनिरूपणम् ३७७ सम्भवात् तथा 'तावइ आओ' तावत्यः पोडशसंख्यकाः 'अभियोगसेढीओ' आभियोग्यश्रेणयः वक्तव्याः 'सव्वाओ इमाशो' स; इमाः-अनन्नरोक्ता:-आभियोग्यश्रेणयः 'ईसाणस्स' ईशानस्य ईशानाख्यस्येन्द्रस्य अधीना बोध्याः मेस्त उत्तरदिग्वर्तित्वात्, अथावशिष्टानां विजयवक्षस्कारपर्वतादीनां स्वरूपं वर्णयितुं लाघवार्थमलिदेशसूत्रमाह-'सव्वेसु विजएसु' इत्यादि-सर्वेषु विजयेषु 'कच्छयत्तव्यया' कच्च्वक्तव्यता-कच्छस्य विजयस्य या वक्तव्यता वर्णनरीतिः सा बो या, सा किम्पयन्ता ? इत्याह-जाव अट्ठो' यावदर्थः-अर्थः तत्तद्विजयानां नामार्थः तत्पर्यन्ता वक्तव्यतामोध्या तत्र च विजयेषु 'रायाणो' राजानः अधिपत्यः 'सरिसणामगा' सदृशनामकाः तत्तद्विजयसदृशनामका बोध्याः, तथा 'विजयेसु' विजयेषु 'सोलाप्पण्हं' 'षोडशानां वक्खारपव्ययाणं' वक्षस्कारपर्वतानां 'चित्तकूडवत्तव्यया' चित्रकूटवक्तव्यता-चित्रकूटपर्वतवद् वक्तव्यता वर्णनरीतिः बोध्या 'जाब कूडा चत्तारि २' यावत् कूटानि __ अब सूत्रकार कच्छादि विजयों में से प्रत्येक विजय में जो दो दो विद्याधर श्रेणियां है उनका निर्देश करते हुए कहते हैं-(सोलस विज्जाहरसेढीओ तावइयाओ आभि मोगसेढीओ सव्वाओ इमाओ ईसाणस्स)इन पूर्वोक्त कच्छादि विजयों में प्रति वैताहय पर्वत के ऊपर दोश्रणियों के सद्भाव से तथा इतनी ही आभियोग्य श्रेणियों के सदभाव से १६ विद्याधर श्रेणियां और १६ आभियोग्य श्रेणियां हैं । ये आभियोग्य श्रेणियां ईशानेन्द्र की हैं अर्थातू ईशान देव लोक के इन्द्र की अधीनता में ये रहती हैं। क्यों कि ये मेरु से उत्तर दिशा में वर्तमान हैं। (सम्वेल विजएस कच्छ वधया जाय अहो रायाणो सरि. सणामगा विजरसु सोलहण्हं वस्खारपव्वाणं चित्तकूड वत्तव्वया जाव कूडा पत्तारि २ बारसण्हं नईणं गाहाचा पत्तक्या जाश उभओ पासि दोहिं पउमघरवेझ्याहिं वणसंडेहि अण्णओ) जिलने ये विजय कहे गये है उन सब विजयों में जो वक्तव्यता है वह उस २ विजय के नाम पर्यन्त तक कच्छ विजय इमाओ ईसाणस्स' से पूरित छह विल्यमा प्रति वैतादय पतनी 6५२ श्रेणीએના સદુભાવથી તેમજ એટલી જ આભિયોગ્ય શ્રેણીઓના સદુભાવથી ૧૬ સોળ વિદ્યાધર શ્રેણીઓ અને ૧૬ સેળ આભિગ્ય શ્રેણીઓ ઈશાનેન્દ્રની છે. અર્થાત્ ઈશાનદેવલોકના ઈન્દ્રની અધીનતામાં એ રહે છે. કેમકે એ મેરૂથી ઉત્તર દિશામાં વર્તમાન છે. सव्वेसु विजएसु कच्छवत्तवया जाव अहो रायणो सरिसणामगा विजएसु सोलसण्हं वक्खार पब्बयाणं चित्तकूडवत्तव्बया जाव कूडा चत्तारि २ बारसण्हं नईणं गाहावइ वत्तव्वया जाव उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिं अ वण्णओ' माथे किन्यो वामां આવેલા છે તે સર્વ વિજેમાં જે વક્તવ્યતા છે તે વક્તવ્યતા તત્સંબંધી વિજયના નામ સુધી કચ્છ વિજયની વક્તવ્યતા જેવી છે તેમજ તે વિજયોના જેવાં નામો છે, તે નામ અનુસાર જ ત્યાં ચક્રવર્તી રાજાઓના નામ છે. તેમજ એક વિજયમાં એક-એક વક્ષસ્કાર ज०४८ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे चत्वारि २ चत्वारि २ कूटानि यावद्वर्णितानि भवन्ति तावत् चित्रकूटवक्तव्यता बोध्या, तथा 'बारसहं' द्वादशानां 'णईणं' नदीनाम्-अन्तरनदीनाम 'गाहावइवत्तव्यया' ग्राहावतीवक्त. यता बोध्या, साच किम्पर्यन्ता ? इत्याह-'जाव उभभो' इत्यादि यावद् उभयोः द्वयोः 'पासि' पार्श्वयोः 'दोहि' द्वाभ्यां 'पउमयरवेइयाहि' पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां 'वणसंडेहिं' वनषण्डाभ्यां सम्परिक्षिप्ता इति पर्यन्ता, तत्र पद्मवरवेदिकावनपण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः वर्णनपरपदसमूहो योध्यः, सच चतुर्थपञ्चमसूत्रानुसारेण बोधयः ॥सू० २८॥ ' अथ द्वितीयं विदेहविभागं प्रदर्शयितुमाह-'काहि णं भंते' इत्यादि ___मूलम् - कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते ?, एवं जहचेव उत्तरिल्लं सीयामुहवणं तह चेव दाहिणं पि भाणियव्वं, णवरं णिसहस्त वासहरपवयस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दहिणेण पुरथिमलवणसमुदस्स एचरिथमेण वच्छस्स विजयस्स पुरस्थिभेणं एत्थ णं जंबु. दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णरं णिसहवासहर पवयंतेणं एगमेगूणवीसहभागं जोयणस्स विक्वंभेणं किण्हे किण्होभासे जाव महया गंधद्धाणिं मुअंते जाव आसयंति उभओ पासिं की बक्तव्यता जैसी है तथा उन विजयों का जैसा नाम है उसी नाम के अनुसार वहां चक्रवर्ती राजाओं का नाम है। तथा विजयों में जो प्रत्येक विजय में एक एक वक्षस्कार पर्वत के होने से १६ वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं। उन वक्षस्कार पर्वतों की वक्तव्यता चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत की वक्तव्यता जैसी है तथा इन वक्षस्कार पर्वतों के ऊपर हर एक वक्षस्कार पर्वत पर ४-४ जो कट प्रकट किये गये हैं उनकी वक्तव्यता चित्रकूट पर्वत के कूटों जैसी है। तथा १२ अन्तर नदियों की वक्तव्यता ग्राहावती नदी की दोनों पाच भागों में दो पदम वर वेदिकाएं और दो वनरंडों के वर्णन तक की वक्तव्या के जैसी है ॥२८॥ - પ્રવત હોવાથી કુલ ૧૬ વક્ષસ્કાર પર્વતે થાય છે. તે સર્વ વક્ષસ્કાર પર્વત વિષેની વક્તવ્યતા ચિત્રકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની વક્તવ્યતા જેવી છે તેમજ એ વક્ષસ્કાર પર્વતની ઉપર એટલે કે દરેકે દરેક વક્ષસ્કાર પર્વત ઉપર રચાર–ચાર કૂટ પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે અને તેમની વક્તવ્યતા ચિત્રકૂટ પર્વતના જેવી છે. તેમજ ૧૨ અંતર નદીઓની વક્તવ્યતા ગ્રાહાવતી નદીના બને પાશ્વભાગોમાં બે પદ્મવાદ કા અને બે વનખંડે સુધી વક્તવ્યતા જેવી છે ૨૮ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् दोहिं पउमवरवेइयाहि वणवण्णओं इति । ___कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे बच्छे णाम विजए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णिसहस्स वासहरपायस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं दाहिगिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं तिउडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णत्त तं चेव पमाणं सुसीमा रायहाणी १, तिउडे वक्खारपवए सुवच्छे विजए कुंडला रायहाणी २, तत्तजलाणई, महावच्छे विजए अपराजिया रायहाणी ३, वेसणकूडे वक्वारपवए वच्छावई विजए पभंकरा रायहाणी ४, मन्तजलाई रम्मे विजए अंकावई रायहाणी ५, अंजणे वक्खारपव्वए रम्मगे विजए पम्हावई रायहाणी ६, उम्मत्तजला महाणई रमणिज्जे विजए सुभा रायहाणी ७, मायं जणे वक्खारपवए मंगलावई विजए रयणसंचया रायहाणीति ८, एवं जह चेव सीयाए महाणईए उत्तरं पासं तहचेव दक्खिपिल्लं भाणियव्वं, दाहिणिल्लं सीयामुहवणाइ, इमे वक्खारफूडा-तं जहा-तिउडे १ वेसमणकूड २ अंजणे ३ मायंजणे ४ (एई उ तत्तजला १ मत्तजला २ उम्मत्त जला ३) विजया तं जहा-वच्छे सुवच्छे महावच्छे, चउत्थे वच्छगावई । रम्मै रमाए चेक, रमणिन्जे मंगलावई १॥ रायहाणीओ तं जहा-सुसीमा कुंडला चेन अपराजिय पहंकरा । अंकावई पम्हावई सुहा रयणसंचया ॥२॥ वच्छस्स विजयस्स णिसहे दहिणेणं सीया उत्त. रेण दाहिणिल्ले सीयामुहवणे पुरस्थिमेणं तिउडे पञ्चस्थिमेणं सुसीमा रायहागी पमाणं तं चेवेति, वच्छाणंतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्तजला णई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपब्बए वच्छावई विजए मत्त जला णई रम्मे विजए अंजणे वक्खारपधए रम्मए विजए उम्मत्तजला गई रमणिज्जे विजए मायंजणे वक्खारपवए मंगलावई विजए ॥ सू०२९॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे छाया-क्य खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे शोताया महानधाः दाक्षिणात्यं शीतामुखवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ? एवं यथैव औत्तराई शोतामुखवनं तथैव दक्षिणमपि भणितव्यम्, नवरं निषधस्य वर्षयरपर्वतस्य उत्तरेण शीताया महानद्या दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन वत्सस्य विजयस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे शीताया महानद्या दाक्षिणात्यं शीतामुखवनं नाम बनं प्रज्ञतम् उत्तरदक्षिणायतं तथैव सर्व नवरं निषधवर्षधर - पर्वतान्तेन एकमेकोनविंशतिभागं योजनस्य विष्कम्भेण कृष्णं कृष्णावमासं यावत् महागन्धघ्राणिं मुश्चन्तो यावद् आसते उभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरवेदिशाभ्यां वनवर्णक इति । का खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे वत्सो नाम विजयः प्रज्ञप्तः ?, गौतम! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण शीताया महानद्या दक्षिणेन दक्षिणात्यस्य शीतामुखवनस्य पश्चिमेन त्रिकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे वत्सो नाम विजयः प्रज्ञप्तः, प्रमाणं सुसीमा राजधानी १, त्रिकूटो वक्षस्कारपर्वतः सुवत्सो विजयः कुण्डला राजधानी २, तप्त जला नदी महावत्सो विजयः अपराजिता राजधानी ३, वैश्रवणकूटो वक्षस्कारपर्वतो वत्सावती विजयः प्रभङ्करा राजधानी ४, मलजला नदी रम्यो विजयः अङ्कावती राजधानी ५, अञ्जनो वक्षस्कारपर्वतो रम्यको विजयः पक्ष्मावती राजधानी ६, उन्मत्तजला महानदी रमणीयो विजयः शुभा राजधानी ७, मातजनो वक्षस्कारपर्वतो मङ्गलावती विजयः रत्नसश्चया राजधानी ८, एवं यथैव शीताया महानद्या उत्तरं पाव तथैव दाक्षिणात्यं भणितव्यम्, दाक्षिणात्यशीतामुखवनादि, इमानि वक्षस्कारकूटा: तद्यथा त्रिकूटः १ वैश्रवणकूटः २ अञ्जनः ३ मातञ्जनः ४ 'नदी तु-तप्तजला ? मत्तजला २ उन्मत्तजला ३' विजयाः तद्यथा-वत्सः सुवत्सो महावत्सः चतुर्थों वत्सकावती । रम्यो रम्यकश्चैव रमणीयो मङ्गलावती ॥१॥ राजधान्यः, तद्यथा-मुसीमाकुण्डला चैव अपराजिता प्रभङ्करा अङ्कावती पक्ष्मावती शुभा रत्नसञ्चया ॥२॥ वत्सस्य विजयस्य निषधो दक्षिणेन शीता उत्तरेण दाक्षिणात्यसीतापुखवनं पौरस्त्येन त्रिकूटः पश्चिमेन सुसीमा राजधानी प्रमाणं तदेवेति, वत्सानन्तरं त्रिकूटः, ततः सुक्त्सो विजयः, एतेन क्रमेण दप्सजला नदो महावत्सो विजयः वैश्रवणकूटो वक्षस्कारपर्वतो कसावती विजयो मत्तजला नदी रम्यो विजयः अञ्जनो वक्षस्कारपर्वतः रम्यको विजय उन्मनजला नदी रमणीयो विजयो मातञ्जनो वक्षस्कारपर्वतः मङ्गलावती विजयः॥सू० २९॥ दितीय विदेह की प्ररूपणा'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले'-इत्यादि टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहि णं દ્વિતીય વિદેહ વિભાગની પ્રરૂપણ 'कहिण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' इत्यादि 4-0 सूत्र 3 गौतमत्वामी प्रभुने सवारीत ५ ये छे ४ 'काहणं भंते ! Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् ___टीका-कहि णं भंते ! इत्यादि- खलु भदन्त ! 'जंबुद्दोवे' जम्बूद्वीपे जम्बूद्वीपनामके 'दीवे' द्वीपे 'महाविदेहे' महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'सीयाए' शीताया शीतानाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्यं-दक्षिणदिग्वति 'सीयाहवणे' शीतामुखवनं 'णाम' नाम 'वणे' वनं 'पण्णते?' प्रज्ञप्तम् ?, इतिप्रश्ने औत्तराह शीतामुखलनरत् तद्वर्णयितुमतिदेशसूत्रत्वेनोत्तरसूत्रमाह-'एवं जहचेव' इत्यादि-एवम् अमुना प्रकारेण यथैव 'उत्तरिल्लं' औत्तराहम्-उत्तरदिग्वर्ति 'सीयामुहवणं' शीतामुखवनं प्रामुक्तं 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'दाहिणंपि' दक्षिणमपि-दक्षिणदिग्वर्त्यपि शीतामुखवनं 'भाणियव्वं' भणिदव्यं वक्तव्यम्, परन्तु अनन्तरसूत्रोक्तोत्तराह-शीतामुखवनायो विशेषस्तं प्रदर्शयितुमाह-गवरं' इत्यादि नवरं केवलं 'णिसहस्स' निषधस्य-निषधनामकस्य 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यळवणसमुदस्य-पूर्वेदिग्वतिलवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'वच्छस्स' वत्सस्य-वत्सनामकस्य विदेहद्वितीय भागवतिनः प्रथमस्य 'विजयस्स' विजयस्य 'पुरस्थि मेणं' पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि 'एत्थ' अत्रभंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीया. मुहवण्णे णामं वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नाम के इस द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में सीता महानदी का दक्षिण दिग्भागवर्ती सीता मुखवन नामका वन कहां पर कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-एवं जह चेव उत्तरिल्लं सीया. मुहवणं तह चेव दाहिणपि भाणियव) हे गौतम ! जैसा कथन सीता महानदी के उत्तर दिग्वती सीतामुखवन नाम के वन के विषय में किया गया है वैसा ही कथन इस दक्षिणदिग्वर्ती सीतामुखवनके विषय में भी जान लेना चाहिए (णवरं णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दाक्षिणेणं पुरथिम लवणसनुदस्स पच्चत्थिनेणं वच्छस्स विजयस्त पुरथिमेणं एस्थणं जवुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे) परन्तु उत्तरदिग्वती सीतामुखवन की अपेक्षा जो इस वन जंबुदीवे दीवे महाविवेहे वासे सीयाए महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहबणे णोमं वणे पण्णत्ते ભરંત ! એક લાખ જન વિસ્તારવાળા જંબુદ્વીપ નામક આ દ્વીપના મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં સીતા મહાનદીના દક્ષિણ ભાગ સીતામુખવન નામે વન કયા સ્થળે આવેલ છે? એના જવાબમાં प्रसुश्री ४३ है-'एवं जहचेत्र उत्तरिल्लं सीयामुहवणं तहचेव दाहिणं पि भाणियवं' 3 गौतम! જેવું કથન સીતા મહાનદીના ઉત્તર દિશ્વર્તી સીતા મુખવન નામક વન વિષે સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે, તેવું જ કથન આ દક્ષિણ દિગ્વતી સીતા મુખવન નામક વનવિષે પણ ongी देवु . 'णवरं णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं सीयाए महाण ईए दाहि र्ण पुरत्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं वच्छस्स विजयस्स पुरथिमेणं एत्थर्ण जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' ५ उत्तरति सीता भुभवानी अपेक्षा २ मा बनना Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे 'दीदे' द्वीपे 'महाविदेहे' महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्यं-दक्षिण दिग्वति 'सीयामुहवणे' शीतामुखरनं 'णाम' नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, एतच्च 'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतम्-उत्तरदक्षिणदिशोर्दीर्घ 'तहेव' तथैव औत्तराहशीतामुखवनवदेव 'सव्वं' सर्व प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्ण षोडशयोजनसहस्राणि पञ्च च द्वानबत्यधिकानि योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य आयामेन इत्येतत्समस्तं च तथैव अतः परं ततो विशेष दर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं केवलं 'णिसहवासहरपव्वयंते णं' निषधवर्षधरपर्वतान्ते-निषधनामक वर्षधरपर्वतस्यान्ते समीपे खलु “एगं' एकम् ‘एगूणवीसइभागं' एकोनविंशतिभागम् 'जोयणस्स' योजनस्य 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण पुनस्तत् कीदृशम् ? इत्याहके कथन में विशेषता है वह ऐसी है कि यह दक्षिणदिग्वर्ती सीतामुखवन निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में, सीतामहानदी की दक्षिण दिशा में, पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में और विदेह के द्वितीय भाग में रहे हुए वत्स नाम के प्रथम विजय की पूर्व दिशा में इस जंबूद्वीप के अन्तर्गत विदेह क्षेत्र के भीतर कहा गया है । यह वन (उत्तर दाहिणायए तहेव सव्वं णवरं णिसहवासहर पव्वयंतेणं एगमेगूणवीसभागं जोयणस्त विक्खंभेणं, किण्हे किण्होभाले, जाव महया गंधद्धाणिं मुयंते जाव आसयंति) उत्तर से दक्षिण तक लम्बा है इत्यादि रूप से सब कथन उत्तर दिग्वर्ती सीता मुखवन की तरह से यहां पर कह लेना चाहिए तथाच पूर्व से पश्चिम तक विस्तृत है १६५९२,३ योजन का इसका आयाम है इत्यादि परन्तु यह क्रमशः घटते २ निषध वर्षधर पर्वत के पास में योजन प्रमाण अर्थात् १ योजन के १९ भागों में से १ भाग प्रमाण विस्तार वाला रह जाता है यह वन क्रचित् २ कृष्ण કથનમાં વિશેષતા છે તે આ પ્રમાણે છે કે આ દક્ષિણ દિગ્દર્ટી સતા મુખેવન નિષેધ વર્ષધર પર્વ ની ઉત્તર દિશામાં સીતા મહી નદીની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિશ્વર્તી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને વિદેહના તિીય ભાગમાં આવેલ વત્સ નામક પ્રથમ (Arयनी ५ ६॥ त२१ ४ापविभा छ. 40 पन 'उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवरं णिसहवासहरपव्ययतेणं एगमेगूणवीसइभागं जोयणरस विक्खंभेणं किण्हे किण्होभासे, जाव महया गंधद्वाणिं मुयते जाव आसयंति' उत्तरी क्ष सुधी ही छ, વગેરે રૂપમાં બધું કવન ઉત્તર દિગ્વતી સીતા મુખવનની જેમ જ અહીં પણ સમજી લેવું જોઈએ. તથાચ પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તૃત છે. ૧૬ ૯૨ જન જેટલે એને આયામ છે ઈત્યાદિ, પણ આ અનુક્રમે ક્ષીણ થતું ગયું છે અને નિષધ વર્ષધર પર્વતની પાસે , જન પ્રમાણ એટલે કે ૧ પેજનના ૧૯ ભાગોમાંથી ૧ ભાગ પ્રમાણ વિસ્તાર યુત રહી જાય છે. આ વન વિચિત્ક્વ ચિત કૃષ્ણ વર્ણવાળા પત્રથી યુક્ત લેવા બદલ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् 'किण्हे' इत्यादि-कृष्णं कृष्णवर्णम् मध्यमावस्थायां कृष्णवर्णपत्रसम्पन्नखाइनमपि कृष्णवर्णम् न चोपचारमात्रेण कृष्णमिति व्यपदिश्यते किन्तु कृष्णतया प्रतिभासनात् तथाऽऽह 'किण्डो भासे' कृष्णावभासम् यावति वनभागे कृष्णदलानि सन्ति तावति तद्भःगे तद्वनमतीव कृष्णवर्णमवभासमानम् अतः परं नीलं नीलावभासमित्यादि सङ्ग्रहीतुमाह-'जाव' अत्र यावत्पदेन सङ्ग्राहयपदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्च पश्चमसूत्रटीकातो बोध्यः 'महया गंधद्धाणि' महागन्धघ्राणि 'मुअंते' मुश्चन्तः इत्यारभ्य 'जाव आसयंति' यावदासते 'आसते' इति पर्यन्तानां पदानां सङ्ग्रहोऽत्र बोध्याः स च सार्थः पश्चमषष्ठसूत्राभ्यां बोध्यः। तथा तत् 'उभो पासिं उभयोः द्वयोः पार्श्वयोः भागयोः 'दोहिं' द्वाभ्यां 'पउमवरवेइयाहिं' पद्मवरवेदिकाभ्यास इत्युपलक्षणं तेन द्वाभ्यां वनषण्डाभ्यां च सम्परिक्षिप्तम् इत्येतत्पदद्वयस्य सङ्ग्रहो बोध्यः, तयोः 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः स च प्राग्वत् चतुर्थपञ्चमसूत्राभ्यां बोध्यः । ____ अथ द्वितीये महाविदेहविभागे वत्सादिविजय-तत्प्रमाणसुसीमादि-राजधानी त्रिकूटादि वक्षस्कारपर्वतः तप्तनलादि नदी व्यवस्थामाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टम्, वर्ण वाले पत्रों से युक्त होने के कारण कृष्ण है, और इसी कारण यह कृष्ण रूप से प्रतिभासित होता है क्वचित् २ यह वन नील पत्रों से युक्त होने ने कारण नीला है और इसी से यह नीला प्रतीत होता है इत्यादि रूप से इस वन का वर्णन पंचम सूत्र की टीका के अनुसार कर लेना चाहिये यहाँ आगत यावत्पद से यही बात प्रकट की गई है 'महया गंधद्वाणि मुयंते" से लेकर "जाव आसयंति" यहां तक के पदों का संग्रह पंचम और छठे सूत्र के कथनानुसार यहां पर कर लेना चाहिये यह वन (उभो पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्त) दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो बनपंडों से घिरा हुआ है इन दोनों का पद्भवरवेदिका और वाषंड का-वर्णनकरने वाले पदसमूह समग्र प्रकार से यहां चतुर्थ पंचम सूत्र से समझ लेना चाहिये (कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे बाले वच्छे णानं विजए पग्गत्ते) भदन्त ! जंबुद्वीप કુષ્ણુ છે. અને એથી જ આ કૃષ્ણ રૂપમાં પ્રતિભાવિત થાય છે. ફવચિત-ફવચિત્ આ વન નીલપત્રથી યુક્ત હોવા બદલ નીલું છે અને એથી જ આ નીલું પ્રતીત થાય છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં આ વનનું વર્ણન પંચમ સૂવની ટીકા મુજબ સમજી લેવું જોઈએ. सही भावना यातू ५४थी ये पात घट ४२शम मावी छ 'हया गंधद्धागि मुयंते' सही थी भोजन 'जोव आसयंति' मही सुधीन५होनु ५ यम भने ५४ सूचना थन भु०४५ मही' ४श से न . 240 41 'उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहिं वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते' भन्ने त२३ मे ५५१२३हाथी तभश मे वनमाथी सात छ પાવર વેદિકા અને વનખંડ વિષેનું વર્ણન ચતુર્થ અને પંચમ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું छे. (ज्ञासुमातेमांथी वा यत्न ४२. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिलने उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'णिसहस्स' निषधस्य-निषधनामकस्य 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' मानधाः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'दाहिणिल्लस्स' दाक्षिणात्यस्य दक्षिणदिग्वर्तिनः 'सीयामुहवणस्स' शीताखवनस्य 'पञ्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'तिउडस्स' त्रिकूटस्यत्रिकूटनामकस्य 'वक्खारपदयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य ‘पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे जम्बूद्वीपे 'दीवे' द्वीपे 'महाविदेहे महाविदेहे 'वासे' वर्षे 'वच्छे' वत्सः 'णाम' नाम 'विजए' विजयः 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तः, अस्य 'तं चेव' तदेव 'पमाणं' प्रमाणम् 'सुसीमा' मुसीमा-मुसीमा नाम्नी 'रायहाणी' राजधानी अस्याः प्रमाणमयोध्याराजधानीवत्, अथ विनयविभाजकं वक्षस्कारगिरिमाह-'तिउडे' त्रिकूटः त्रिकूटनामकः 'वक्खारपत्रए' वक्षस्टारपर्वतः १, 'सुवच्छे' सुवत्सः-मुवस्सनामा 'विजए' विजयः 'कुंडला' कुण्डला कुण्डलानाम्नी 'रायहाणी २' राजधानी 'तत्तजलाणई' तप्तजला नदी नाम के द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में वत्स नाम का विजय कहां पर कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयना ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीयाए महाणईए दाहिणेणं दाहिणिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चस्थिमे तिउडस्स वक्खारपब्बयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णत्ते) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में सीता महानदी की दक्षिण दिशा में, दक्षिण दिग्वती सीता मुखवन की पश्चिम दिशा में त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में वर्तमान विदेह क्षेत्र-महाविदेह क्षेत्र के भीतर वत्स नाम का विजय कहा गया है (तं चेव पमाणं सुसीमा रायहाणी तिउडे वखारपव्वए सुवच्छे विजए कुंडला रायहाणो २ तत्तजला गई महाव-छे विजए अपराजिया रायहाणी ३) इसका प्रमाण वही है सुसोमा यहां राजधानी है इसका वर्णन अयोध्या राजधानी के णामं विजए पण्णत्ते' 8 मत ! दीपभां, महाविहे क्षेत्रमा वत्स नाम विय ४॥ २५णे या छ ? सेना १.५ प्रभु ४३ छ-'गोयना ! णिसहस्स बासहरपठनयस उत्तरेणं सीयाए महावईए दाहिणेणं दाहिणिल्लस्स सीयामुहवणस्स पच्चत्थिमेणं तिउडस्स वक्खारपव्ययस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णत्त' હે ગૌતમ! નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં, સતા હાનદીની દણિ દિશામાં, દક્ષિણ દિશ્વતી સીતા મુખવનની પશ્ચિમ દિશામાં, ત્રિકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશા માં, જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં વર્તમાન વિદેહ ક્ષેત્ર-મહાવિદેહની અંદર વત્સ નામક વિજ્ય मावत छ. 'तं चेव पमाणं सुसीमा रायहाथी तिउडे वक्खारपव्वए सुवच्छे विजए कुंडला रायहाणी २ तत्तजला णई महावच्छे विजए अपराजिया रायहाणी ३' मेनु प्रमाण पूर्ववत જ છે. અહીં સુસીમા નામે રાજધાની છે. એનું વર્ણન અધ્યા રાજધાની જેવું છે. Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० २९ द्वितीयविदेहविभागनिरूपणम् उत्तर नदी 'महावच्छे' महावत्सः-महाक्त्सनामा 'विजए' विजयः 'अपराजिया' अपरा. जिता-अपराजितानाम्नी रायहाणी' राजधानी ३ 'वेसमणकूडे' वैश्रवणकूट:-वैश्रवणकूटमामा 'वक्खारपत्रए' वक्षस्कारपर्वतः 'वच्छावई विजए' वत्सावती विजयः 'पभंकरा' प्रभ. रा-प्रभङ्करा नाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ४ 'मत्तजला णई' मत्तजला नदी 'रम्मे विजए' रम्यः रम्यनामा विजयः 'अंकावई रायहाणी' अङ्कायती राजधानी ५ 'अंजणे' अञ्जन: अञ्जननामा 'वक्खारपवए' वक्षस्कारपर्वतः 'रम्मगे' रम्यका-रम्यकनामा 'रिजए' विजयः 'पम्हावई' पक्षमावती-पक्ष्मावतीनाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ६, 'उम्पत्तजला महाणई उन्मत्तला उन्मत्त जलानाम्नी महानदी रिमणिज्जे' रमणीय:-रमणीयनामा 'विजए' विजयः 'सुभा' शुभा-शुभानाम्नी 'रायहाणी' राजधानी ७ 'मायंजणे' मातञ्जन:--मातनमनामा 'चक्खारपव्यए' वक्षस्कारपर्वत : 'मंगलावई विजए' मङ्गलावती-मङ्गलावतीनामकः जैसा है । त्रिकूड नाम का वक्षस्कार पर्दत है सुवत्स विजय है, कुंडला नामकी यहां राजधानी है और तप्लजला नाम की नदी है महावत्स नामका विजय है अपराजिता नाम की राजधानी है (एवं वेतमणकूडे वखारपव्वए) वैश्रवण कूट नामका वक्षस्कार पर्वत है (वच्छावई विजए पभंकरा रायहाणी) वत्सावती विजय है और इसमें प्रभंझरा नामकी राजधानी है (मत्तजला गई) मत्तजला नाम की नदी है (रम्मे विजए, अंकाचई रायहाणी ५ अंजणे वक्खारपव्वए) रम्य नाम का विजय है, अङ्कावती नाम की इसमें राजधानी है अंजन नाम का वक्षस्कार पर्वत है (रम्मगे विजए पम्हावई रायहाणी ६ उन्मत्तजला महाणई) रम्यक नान का विजय है, पद्मावती नामकी इसमें राजधानी है और उन्मत्त जला नामको नदी है (रमणिज्जे विजय सुभा रायहाणी ७ मायंजणे वक्खारपचए) रमणीय नाभका विजय है शुभा नामही राजभानी है और मातञ्जन नाम का वक्षस्कार पर्वत है (मंगलादई विजए रयणंसचया रायहाणी ८) मंगलावती અહીં ચિત્રકૂટ નામે વક્ષસ્કાર પર્વત છે અને સુવત્સ વિજય છે અહીં કુંડલા નામક રાજધાની છે અને તપ્તજડા નામ ની છે. મહાવરા નામક વિજ્ય છે અને અપરાGral नाम २धानी छे. 'एवं वेसमा कूडे वखारपयए' पर छूट नाम वक्ष२४.२ ५त छ. 'वच्छावई विजए पकरा रायहाणी' परसाती विनय छ भने मां प्रम ४२॥ नाम पानी छे. त्तजला गई' भत्ता नाम नही छे. 'रम्मे विजए, अंकावई रायहाणी ५ अंजणे वग्वारपच्चए' २५ नाम विय, वती नामे मां राधानी छे. सन नाम ५१२४१२ पति छ. 'रम्मगे विजए पम्हावइ रायहाणी ६ उम्मत्तजला महाणई' २.५४ नाम विशय छे. भापती नाम सभा २४ानी छ भने उन्मत्त ren नाम नही छे. 'रमणिज्जे विजए सुभा रायहाणी ७ मायंजणे वक्खारपव्वए' ૨મણુંય નામક વિજય છે. શુભા નામક રાજધાની છે અને માતંજન નામક વક્ષસ્કાર ज०४९ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'विजय' विजय: 'रयणसंचया रायहाणी' रत्नसञ्चया-रत्नसञ्चयानाम्नी राजधानी ८, इमा राजधान्यः शीतामहानदी दक्षिणदिग्वर्तित्वेन विजयानामुत्तरार्द्धमध्यमखण्डेषु बोध्या, अथ विजयादीनां विष्कम्भादि समानत्वे दर्शितेऽपि कचिदपि पार्श्वयोः परस्परं भेदी न स्फुटी भवितुमर्हेदिति संशयं निराकर्तुमाह एवं जह चेव' इत्यादि - एवम् पूर्वोक्तप्रकारेण यथैव-येनैव प्रकारेण 'सीयाए' शीताया: 'महाणईए' महानघाः 'उत्तरं पासं' उत्तरं पार्श्व प्राच्यम् 'तह चेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'दक्खिणिल्लं' दाक्षिणात्यं - दक्षिणदिग्वर्ति पार्श्वमपि 'भाणियन्वं' भक्तिव्यं वक्तव्यं तच कीदृशम् इत्याह- ' दाहिणिल्लसोयामुहवणाई' दाक्षिणात्यशीता मुखवनादि - दाक्षिणात्यं शीवामुखदनमादिः प्रथमं यस्य तद् दाक्षिणात्यशीतामुखनादि एतेन यथा प्रथमविभागस्य कच्छविजय आदिरभिहितस्तथा द्वितीयविभागस्यादिः दाक्षिणात्यशी तामुवनमुक्तमिति तथा 'इमे ववखारकूडा' इमे वक्षस्कार कूटा: - वक्षस्काराश्च ते कूटा : - कूटानि सन्त्येषामिति कूटा : - कूटवन्तः अत्रार्श आदिस्वादच् प्रत्ययो बोध्यः, वक्षस्कारकूटाः- वक्षस्कारपर्वताः 'तं जहा ' तद्यथा - 'तिउडे' त्रिकूट : १ 'वेसमणकूडे ' वैश्रवणविजय है रत्नसंचया नामकी राजधानी है ये सब राजधानियां शीता महानदी की दक्षिण दिशा में हैं इस कारण विजयों के उत्तरार्ध मध्य खंडो में व्यवस्थित हैं । ( एवं जहचेव सीयाए महानईए उत्तरं पासं लहचेव दक्खिपिल्लं भाणियां) इस तरह जैसा सीता नदी का उत्तर दिग्यति पर्श्वभाग कहा गया है वैसा ही सीता नदी का यह दक्षिण दिग्वर्ती पश्चिमभाग कहा गया है (दाहिणिल्ल सीयामुह वगाह) जिस प्रकार से प्रथम विभाग की आदि में कच्छ विजय कहा गया है इसी प्रकार से इस द्वितीय विभाग की आदि में दक्षिण दिग्वर्ती सीतामुख बन कहा गया है (हमे वक्खारकूडा) ये वक्षस्कार पर्वत हैं (तं जहा ) जैसे- (तिउडे ? वेलमणकूडे २ अंजणे ३ मायंजणे४, (गइ तत्तजला १ मजला, उम्मत्तजला३, ततजला १ मत्तजलार और उन्मत्तजला३ ये नदियां है पर्वत छे. 'मंगलाबाई विजए स्वणसंचया रायहाणी ८ मंगावती विश्य छे. रत्नसंयया નામક રાજધાની છે. એ સવ રાજધાનીઓ શીતા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં છે એથી मेदिन्याना उत्तरार्ध मध्य मां व्यवस्थित है 'एवं जहचेत्र सीयाए महाणईए उत्तरं पासं तहचेव दक्खिणिल्लं भणियव्वं' याप्रमाणे शेन सीताना उत्तर द्विती પાર્શ્વ ભાગ વિષે વસ્તુન કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ આ સીતા નદીન દક્ષિણ દિગ્વી पश्चिम लाग पशु ४वामां आवे छे. 'दाहिणिरुसी या मुहवणाई ३' प्रमाणे प्रथम વિભાગના પ્રારભમાં કચ્છ વિજય વિષે કહેવામાં આવેલુ છે તે પ્રમાણે આ દ્વિતીય વિભાગના પ્રારંભમાં દક્ષિણુંદિગ્ધી સીત મુખ વન विषेपण समन्वु ले थे. 'इमे वक्खारकूड।' न्या बक्षस्४२ पर्वता छे. 'तं जहा' प्रेम है- 'तिउडे १, देसमणकूडे २, अंजणे ३, मायंजणे ४, ' त्रिइट, वैश्रभाट, संकट अने भायन छूट 'नइ उत तजला १, मत्तजला २, उम्मत्त जला ३, " તપ્તજલા ૧, મત્તજલા ૨, અને ઉન્મત્તજલ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू० २९ द्वितीय विदेहविभाग निरूपणम् ૨૮૭ कूट: २ 'अंजणे' अञ्जनः ३ 'मायंगणे' मातञ्जनः ४ 'नईउ तत्तजला १ मत्तजला २ उम्मतजला ३' नदीतु - वप्तजला १ मतजला २ उन्मत्तजला ३ इमास्तिस्रः । अथ वत्सादि विजयानां सङ्ग्रहार्थमाह- 'विजया तं जहा' इत्यादि - विजयाः तद्यथा- 'वच्छे सुवच्छे' इत्यादि पद्यमुत्तानार्थम् १, एतच्च पद्यं विजयानामेकदैव सुखबोधार्थमुक्तं तेन न पुनरुक्तिः शङ्कनीया, एवं राजधानीनामेकत्र नामानि सङ्ग्रहीतुं पद्यमाह - 'रायहाणीओ तं जहा ' इत्यादि राजधान्यः, तद्यथा 'सुसीमा कुंडला चेव' इत्यादि पद्यं सुगमम् । अथ पूर्वसूत्राद्वत्स विजयस्य दिनियमे सुगमेऽपि सूत्रप्रवृत्तिवैचित्र्यात्तनियमनार्थ क्रमान्तरमाह - 'वच्छस्स' इत्यादि-वत्सस्य-वत्सनामकस्य 'विजयरस' विजयस्य 'णिसहे' निषध:- निषधनामको वर्षधरपर्वतः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि तथाऽस्य 'सीया' शीता - शीतानाम्नी महानदी 'उत्तरेणं' उत्तरेश उत्तरदिशि वर्तते 'दाहिणिल्लसीयामुहवणे' दाक्षिणात्यशीताखवनं 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि 'तिउडे' त्रिकूट: - त्रिकूटनामा वक्षस्कारगिरिः 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'खुसीमा' सुसीमा 'रायहाणी' राजधानी अस्याः 'पमाणं' प्रमाणं 'तं चेव' तदेव - पूर्वोक्तमेव - अयोध्यारा जधानीवत् इतिभावः, राजधान्याः पुनरुपादानं प्रमाणकथनार्थम् तेन न पुनरुक्तिदोषः, (विजया तं जहा ) ये विजय हैं- (बच्छे, सुवच्छे, महाबच्छे, चउत्थे वच्छगावई रम्मे स्म्मए चैव रमणिज्जे मंगलाइ ||१|| वत्स, सुवत्स, महावत्स, areकावती, रम्य, रम्यक, रमणीय और मंगलावती (रायहाणीओ (तं जहां ) ये राजधानियां हैं- (सुसीमा कुंटला चेत्र अपराजिय परंकरा अंकावई पम्हावई सुहा रयणसंचा) सुसीमा, कुंडला, अपराजिता, प्रभंकरा, अंकावती, पक्ष्मावती, शुभा और रत्नसंचया, (दच्छास विजयस्त सिहे दाहिणेणं सीया उत्तरेणं दाहिणिलसीपाहवणे दुरत्थिनेणं तिउडे पच्चत्थिमेणं सुसीमा राय'हाणी पमाणं तं चैवेति) वत्स विजय की दक्षिण दिशा में निषध पर्वत है और उत्तर दिशा में सीता महानदी है तथा पूर्वदिशा में सीतामुखचन है और पश्चिम मे अधी नहीओ। थे. 'विजया तं जहा ' भिड़े- 'वच्छे, सुत्रच्छे, महावच्छे, चत्थे वच्छ गाव, रम्मे रम्मए चेव रमणिज्जे मंगलावई ॥ १॥' वत्स, सुवत्स, भडावत्स, वत्सावती, रभ्य, २भ्२४, २भागीय भने मंगसावती. 'रायहाणीओ तं जहा' भी रा०४धानी छे - 'सुसीमा कुंडलाचेत्र अपराजिय पहुँकरा अंकावई पम्हावई सुहा रयणसंचया' सुसीमा, मुंडा, अपराजिता, प्रदेश, अावती, पक्षमावती, शुभा भने रत्नसंयया 'वच्छस्स विजयस्स णिसहे दाहिणेणं सीयः उत्तरेणं दाहिणिल्लसीया मुहवणे पुरत्थिमेणं तिउडे पच्चत्थिमेण सुसीमा रायहाणी पमाणं तं चैवेति' वत्सविक्यनी हक्षिषु द्विशामां निषध મČત છે અને ઉત્તર દિશામાં સીતા મહાનદી છે તેમજ પૂર્વ દિશામાં સીતા મુખવન છે અને પશ્ચિમ દિશામાં ત્રિકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વત છે. સુસીમા અહીં રાજધાની છે. એનું Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथैषां वत्सादि विजयानां स्थानक्रमं प्रदर्शयितुमाह-विच्छाणंतरं' इत्यादि-वत्सानन्तरं वत्सस्य वत्सनामकविजयस्य अनन्तरं-परम् 'तिउडे' निकूट:-त्रिकूटनामको वक्षस्कारपर्वतोऽस्ति स च पश्चिमतो बोध्यः 'तो' ततः-त्रिकूटानन्तरं 'छुपच्छे' सुबत्स:-सुवत्सनामकः 'विजए' विजयः 'एएणं' एतेन अनन्तरोक्तेन 'कमेणं' क्रमेण रीत्या 'तराजला' तप्तजला 'णई' नदी शेषं स्पष्टम् ॥मू० २९॥ अथ क्रमप्राप्त सौमनसाख्यं गजदन्तपर्वतं लक्षयितुमाह--'कहि णं भंते !' इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वाले सोमणसे णामं वक्खारपव्वए पक्षण ?, गोयमा गिलहस्त बासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मंदरस्स पव्ययस्स दाहियापुरस्थिमेणं मंगलवई विजयस्स पच्च. स्थिमेणं देवकुराए पुत्थिमेणं एत्थ जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्रवारपवए पष्णते, उत्तरदाहिणायए पाईणपड़ीणविस्थिपणे जहा मालवंते वश्वारपवए तहा, वरं सवरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे, णिसहवासहरपवयंतेणं चतारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊयसयाई उठवेहेणं सेसं तहेव सव्वं णवरं अट्ठो से दिशा में त्रिकूट वक्षात्कार पर्वत है सुसीमा यहां राजधानी है इसका प्रमाण अयोध्या के जैसा ही है (वच्छाणंतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्तजला णई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपव्वए वच्छावई विजए मत्तजला णई) वत्स विजय के अनन्तर ही त्रिकूट नामका वक्षस्कार पर्वत है और यह पश्चिम दिशा में है त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत के अनन्तर सुवत्स नामका विजय है इस अनन्तरोक्त क्रम के अनुसार तप्तजला नाम को नदी है इसके बाद महावत्स नामका विजय है उसके बाद वैश्रमणकूट है फिर वत्सावती विजय है बाद में मत्तजला नामकी नदी है इत्यादि रूप से ही आगे का यह कथन स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए ॥२९॥ प्रभाष भयोध्या २४ छ. 'वच्छाणंतरं तिउडे तओ सुवच्छे विजए एएणं कमेणं तत्त जलाणई महावच्छे विजए वेसमणकूडे वक्खारपाए वच्छावई विजए मत्तजला गई' વત્સ વિજય પછી જ ત્રિકૂટ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે અને આ પશ્ચિમ દિશામાં છે. ત્રિકૂટ વક્ષસ્કાર પર્વત પછી સુવત્સ નામક વિજય છે. આ અનંતરોત કમ મુજબ તપ્ત જલા નામે નદી છે. ત્યાર બાદ મહાવત્સ નામક વિજય છે. ત્યાર બાદ વિશ્રમણ ફૂટ છે. પછી વસાવતી વિજય છે. ત્યાર બાદ મત્તલા નામક નદી છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં શેષ કથન સમજી લેવું જોઈએ. ૨૯ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् ३८६ गोयमा ! सोमगसेणं वक्वारपवए बहवे देवा य देवीओ य सोमा सुमणा सोमणसे य इत्थ देवे महिद्वीए जाव परिवसइ से एएगटेणं गोयमा ! जाव णिच्चे । सोमणसे वक्खारकच्यए कइकूडा पण्णता ?, गोयमा ! सत्तकूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धे१, सोमणसे२, बिअ बोद्धव्वे मंगलावई कूडे३, देवकूडे ४ विमल५ कंचण६ वसिट्रकूडे७ य बोद्धव्वे॥१॥ एवं सव्वे पंचसइया कूडा, एएसिं पुच्छा दिसिविदिसाए भाणियबा जहा गंधमायणस्स, विमलकंचणकूडेसु णवरं देवयाओ सुवच्छा वच्छमित्ताय अवसिट्रेसु कूडेसु सरिसणामगा देवा रायहागीओ दक्षिणेणंति। - कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णता ?, गोयमा ! मंदरस्स एव्वयस्स दाहिणेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पहस्त वक्खारपठायस्त पुरस्थिमेणं सोमणसवक्खारपन्न यस्स पञ्चस्थिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता पाईणपडीयायया उदीणदाहिणविस्थिःणा इकारस जोयणसहस्साइं अट्र य बायाले जोयणसए दुण्णि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खंभेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधा मियगन्धा अममा सहा तेतली सणिचारीति ६ :सू. ३०॥ ___ छाया-च खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे सौमनसो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिण पौरस्त्येन मङ्गलावती विजयस्य पश्चिमेन देवकुरुणां पौरस्त्येन अन खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे सोमनसो नाम वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः उत्तरदक्षिणाचतः प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णः यथा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वतः तथा, नवरं सर्वरत्नमयः अच्छो यावत् प्रतिरूपः, निषधवर्षधरपर्वतान्तेन चवारि यो जनशतानि ऊर्ध्वमुच्च वेन चत्वारि गव्यूतशतालि उद्वेधेन शेषं तथैव सर्व नवरम् अर्थः सः गौतम ! सौमनसे खलु वक्षस्कार पर्वते बहवो देवाश्च देव्यश्च सौम्याः सुमनसः सौमनसश्चात्र देवो महद्धिको यात्रत् प्रतिवसति स एतेनार्थेन गोतम ! यावन्नित्यः। सौमनसे वक्षस्कारपर्वते कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! सच कूटानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथासिद्धं १ सौमनसमपि च २ बोद्धव्यं महालातो कूटम् ३ । देवकुरु ४ विमल ५ कञ्चन ६ वासिष्ठकूटं ७ च बोद्धव्यम् ॥१॥ एवं सर्वाणि पश्वशतिकानि कूटानि, एतेषां पृच्छा दिग्वि. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० मम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दिशि भणितव्या यथा गन्धमादनस्य, विमलकाञ्चनकूटयोः नवरं देवताः-सुवत्सा वत्समित्रा च, आशिष्टेषु कूटेषु सदृशनामका देवाः, राजधान्यो दक्षिणेनेति । ___क्व खलु भदन्त ! महाविदेहे वर्षे देवकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण विद्युत्प्रभस्य दक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन सौमनसरक्षस्कारपर्वतस्य पश्चिमेन अत्र खलु महाविदेहे वर्षे देवकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञप्ताः प्राचीनप्रतीचीनायताः उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णाः एकादश योजनसहस्राणि अष्ट च द्वाचवारिशानि योजनशतानि हो च एकोनविंशतिभागी योजनस्य विष्कम्भेण यथोत्तरकुरुणां वक्तव्यता यावद् अनुसज्जन्तः पद्मगन्धरः मृगगन्धाः अममाः सहाः तेतलिनः शनैश्चारिण इति ॥सू०३०॥ टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टार्थकम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' हे गौतम ! 'णिसहस्स' निषधस्य-निषधनासकस्य 'वासहरपव्वयस्म' वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'मंदरस्स' मन्दरस्य-मन्दरनामकस्य 'पत्रयस्स' पर्वतस्य 'दाहिणपुरथिमेणं' दक्षिणयौरस्त्येन-आग्नेयकोणे 'मंगलावई विजयस्त' मङ्गलानतीविजयस्य 'पञ्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'देवकुराए' देवकुरूणां 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'ए-थ' अत्र सौमनस गजदन्त पर्वत का कथन 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीचे दीपे महाविदेहे दाले-इत्यादि। टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा अब गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे) हे भदन्त ! कहां पर इस जंबूदीप के भीतर महाविदेह क्षेत्र में (सोमणसे णाम) सौमनस नामका (वक्वारपव्यए) वक्षस्कार पर्वत (पण्णत्ते) कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! णिसहस्स वासहरपवयस्स उत्तरेणं मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणपुरथिमेणं मंगलावई विजयस्स पच्चस्थिमेणं देवकुराए पुरस्थिनेणं एत्थणं जंबुद्दीवे २ महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वखारपब्बए पण्णते) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में मंदर की आग्नेय विदिशा में-आग्नेय कोण में-मंगलावती विजय की સૌમનસ ગજદન્ત પર્વતનું કથન 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे-इत्यादि स14-20 सूत्र व गौतमस्वामी प्रभुने सेवा रीते प्रश्न छ ?-'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' 3 सन्त! या २५ मे दीपनी ४२ भला विड क्षेत्रमा 'सोमणते णाम' सौमनस नाम 'वखारपत्रए' १९२४२ ५'त 'पणत्ते' ४३वामा मावेस छ ? कोना ४५i x ४ छ-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेगं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपुरथिमेगं मंगलावई विजयस्स पच्चस्थिमेणं देवकुराए पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे २ महावि देहे वासे णामं वक्खारपव्वए पण्णते' 3 गौतम! निषध घर . પર્વતની ઉત્તર દિશામાં મંદર પર્વતની આનેય વિદિશામાં–ખાય કેણુમાં-મંગલાવતી Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३० सोमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् अत्रान्तरे 'ण' खलु निश्चयेन 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'सोमणसे णाम' सौमनसो नाम 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, सच कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह-'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतः-उत्तरदक्षिणदिशोर्दीर्घः, पुनः 'पाईणपडीणवित्थिण्णः' प्राचीनप्रतिचीन विस्तीर्णः-पूर्वपश्चिमयो दिशो विस्तारयुक्तः, अयं हि 'जहा' यथा 'मालवंते' माल्यवान् नाम 'वक्खारपव्यए' वक्षस्कारपर्वतः प्राग्वर्णितः 'तहा' तथा वर्णनीयः, ततोऽत्र यो विशेषस्तं दर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं केवलं 'सवरययामए' सर्वरजतमयः-सर्वात्मना रजतमयः माल्यवांस्तु वैडूर्यमयः तथा 'अच्छे जाव पडिरूवे' अच्छो यावत्प्रतिरूपः अच्छ इत्यारभ्य प्रतिरूप इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकानां पदानामत्र सङ्ग्रहो बोध्यः, स च बहुषु सूत्रेषु प्रसङ्गात्कृतो बोध्यः । अयं च 'णिसह वासहर पव्वयंतेणं' निषधवर्षधरपर्वतान्ते-निषधवर्षधरनामकपर्वतसमीपे खलु माल्यवांस्तु नीलवत्समीपे 'चत्तारि' चवारि 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेगं' उच्चत्वेन 'चत्वारि' चवारि पश्चिम दिशा में-एवं देवकुरु की पूर्वदिशा में जंबूद्वीप नाम के द्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में सोमनस नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है (उत्तरदाहिणायए पाइणपईणवित्थिणे) यह वक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण तक दीर्घ है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है। (जहा मालवंते वक्खारपव्वए तहा-वरं सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे) जिस प्रकार से माल्यवान पर्वत के वर्णन के सम्बन्ध में कथन किया जा चुका है उसी प्रकार का वर्णन इस पर्वत का है, परन्तु यह सौमनस नामका वक्षस्कार पर्वत सर्वात्मना रत्नमय है आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है यावत् प्रतिरूप है यहां पर दर्शनीय आदि शेष पदों का संग्रह यावत् पद से किया गया है इन संग्रहीत पदों की व्याख्या यथास्थान कंइ स्थलों में की जा चुकी है अतः वहीं से इसे समझ लेना चाहिये (णिसहवासहरपवयंतेणं चत्तारि जोयण વિજ્યની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ દેવકુરુ ક્ષેત્રની પૂર્વ દિશામાં જબૂદ્વપ નામક દ્વીપની અંદર पमान मडाविड क्षेत्रमा सौमनस नाम मतिरमणीय पक्ष४२ ५त आल छे. 'उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणविस्थिष्णे' मा पक्ष४२ उत्तरी क्ष सुधीही छ, भने पूर्व थी पश्चिम सुधी विस्तीछे. 'जहा मालवंते वक्खारपव्वए तहा-णवरं सव्वरयणामए अच्छे जाव पडीरूवे' प्रमाणे मावा पतना वन वि घन ४२वामा मासु छे. તેવું જ વર્ણન આ પવર્તનું છે, પણ આ સૌમનસ નામક વક્ષસકાર પર્વત સર્વાત્મના २त्नभय छे. २४ भने २५४ी भ नि यावत् प्रति३५ छ. डी. 'दर्शनीय' વગેરે શેષ પદેનું ગ્રહણ યાવત્ પદથી થયેલું છે. એ પદેની વ્યાખ્યા યથાસ્થાન અનેક स्थान ४२वामा मामी छे, मेथी जिज्ञासुमा त्यांधी ananyar यत्न ४२. "णिसवासहरपव्ययंतेणं चत्तारि जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि गाउयसयाई उव्वेहेणं सेसं तहेव सव्वं Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'गाऊयसयाई' गव्यूतशतानि 'उव्वे हेणं' उद्वेधेन-भूमिप्रवेशेन 'सेस' शेषम् अवशिष्टम्विष्कम्भादि 'तहेव' तथैव-माल्यवद्वक्षस्कारगिरिवदेव 'सव्वं' सर्व बोध्यम् 'णवरं' नवरं केवलम् 'अट्रो' अर्थः सौमनसेतिनामार्थः शेषेषु विशेषः तं च नामार्थ प्ररूपयितुं सूत्रं स्मारयति-'से' इति-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सोमण से वक्खारपव्वए २१, इत्यादि सूत्रं बोध्यम् अथ केना. थैन भदन्त ! एवमुच्यते-सौमनसो वक्षस्कारपर्वनः २ ? इति, प्राग्वत् 'गोयमा !' भो गौतम ! 'सोमणसे' सौमनमे 'ण' खलु 'वक्खारपब्वए' वक्षस्कारपर्वते 'बहवे' वध्वः 'देवाय' देवाश्च 'देवीओ य' देव्यश्च 'सोमा' सौम्या:-सरल स्वभावाः 'सुमणा' सुमनसः-सुभावनाकलितमानसाः आसते यावद् मेहन्ते ततः सुमनसामयमावासः सौमनसोऽयं गिरिः, अत्र देवमाह'सोमणसे य' सौमनसश्च 'इत्थ' अत्र देवे देवः तदधिपतिः परिवसतीति परेणान्वयः, सच देवः कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह- महिद्धीए जाव परिवसइ' महद्धिको यावत् परिवसतिमहद्धिक इत्यारभ्य परिवसतीति पर्यन्तानां पदानामत्र सङ्ग्रहो बोध्यः तथाहि-'महर्दिकः, महाद्युतिका, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः महानुभावः, पल्योपमस्थितिक परिवसति' इति, एषामर्थश्चाष्टमसूत्रव्याख्यातो ग्राह्यः । इति नामकारणमुक्खोपसंहरति-से एएणटेणं सयाई उद्धं उच्चत्तणं चत्तारि गाउयसयाई उठवेहेणं सेसं तहेव सव्वं, णवरं अट्ठो से गोयमा । सोमणसेणं धक्खारपंव्यए बहवे देवा य देवीओ अ) यह सौमनस नामका वक्षस्कार पर्वत निषध वर्षधर पर्वत के पास में चारसौ योजन का ऊंचा है, और चारसौ कोश का उद्वेध याला है बाकी का और सब विष्कंभ आदि का कथन माल्ययान पर्वत के प्रकरण जैसा ही है। किन्तु इसका जो "सौमनस" ऐसा नाम कहा गया है वह यहां पर अनेक देव और देवियां आकर विश्राम करती है आराम करती है । ये सब देव और देवियां सरल स्वभाव वाली होती है और शुभ आवना वाली होती हैं। तथा (सोमणसे अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ) सौमनस नामका देव जो महर्दिक आदि विशेषणों वाला है यहां पर रहता है (से एएगटेणं गोयमा ! जाव णिच्चे) इस णवरं अट्ठो से गोयमा ! सामणसेणं वक्खारसव्वए बहवे देवाय देवीओ अ' २१ सौमनस નામક વક્ષસ્કાર પર્વત નિષધ વર્ષધર પર્વતની પાસે આવેલ છે અને તે ચાસે (૩૦૦) જન જેટલે ઊંચે છે. અને ચારસો (૪૦૦) ગાઉ જેટલા પ્રમાણમાં ઉધનાળે છે શેષ બધું વિઠંભ વગેરેના સંબંધમાં કથન માલ્યવાન વક્ષસ્કાર પર્વતના પ્રકરણ જેવું જ છે. પણ अनुरे 'सौमनस' से नाम वा माव्यु छेतेनु४१२६ गडी भने ४ हेव-हवामा આવીને વિશ્રામ કરે છે, આરામ કરે છે. એ દેવ દેવીઓ સરલ સ્વભાવવાળાં હોય છે. भने शुभ माना डाय छ त 'सोमणसे अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसई' सौमनस नाम हे रे महद पोरे विशेष वाम छ मही रहे छे. 'से एएणदेणं गोयमा ! जाव णिच्चे' थी 3 गौतम ! मेनु नाम 'सौमनस' से वामा माव्यु Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् . ३९३ गोयमा !' इति सः-सौमनसो वक्षस्कारगिरिः एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन हे गौतम ! एवमुच्यते सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः २ इति 'ज़ाव णिच्चे' यावन्नित्य:-'अदुत्तरं च णं गोयमा ! सोमणसेति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते । सोमणसेणं भंते ! किं सासए असासए?, गोयमा ! सिय सासए सिय असासए, से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा ! दवट्ठयाए सासर वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासए, से तेणढेणं एवं वुच्चइसिय सासए सिय असासए । सोमणसे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ?, गोधमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सइ सुर्वि च भवइ य भविस्सा य धुवे णियए सासए अक्खए अब्धए अवहिए णिच्चे' इति सूत्रं पर्यवसितमिति, व्याख्या चास्य चतुर्थस्त्रटीकातो बोध्या, चतुर्थसूत्रे पद्मवरवेदिका प्रसङ्गात्स्त्रीत्वेनोक्तमत्र पुरत्वेन वक्तकारण हे गौतम ! इसका नाम "सौमनस" ऐसा कहा गया है "जय जिच्चे" इस सूत्रांश को संगत बैठाने के लिये इसके पहिले 'अदुतरंच णं-गोचमा! सोमणसे ति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते ! सोमणसेणं भंते ! किंसासए अनासए गोयमा सिय सासए सिय असासए से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा! दव्वट्टयाए सासए, वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असा. सए से तेणटेणं एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए सोमणसेणं भंते ! कालओ केवरिचरं होई ? गोयमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविंच भवइय भविस्सह य धुवे णियए, सासए अक्खए, अव्वए, अवहिए णिच्चे' यह पाठ लगालेना चाहिये इस पाठकी व्याख्या चतुर्थ सूत्रकी टीका से जानलेनी चाहिये चतुर्थ सूत्रमें यह पाठ पद्मवर वेदिका के प्रसङ्ग में स्त्री लिङ्ग में पदोंको रखकर कहा गया है और यहां उसे पुलिङ्ग में पदोंको रखकर कहा गया है बस यही अन्तर हैं अर्थ में कोई अन्तर नहीं हैं (सोमणसे. छ. 'जाव णिच्छे' मा सूत्रांनी सगति मेसा । भाटे मनी परai 'अदुत्तरं च णं गोयमा सोमणसे ति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते सोमणसेणं भंते ! किं सासए असासए गोयमा सिय सासए सिय असासए से केणडेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा ! दवढयाए सासए वण्ण पज्जवेहि गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासए से तेणद्वेणं एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए सोमससेणं भंते कालओ केवच्चिरं होई ? गोयमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च भवइय भविस्सइ य, धुवे णियए सासए अक्खए, अबए अवट्रिए णिच्चे' मा ५४ भू नये. म पानी व्याच्या, यतुथ सूत्रना ટીકામથી વાંચી લેવું જોઈએ. આ પાઠ ચતુર્થ સત્રમાં પદ્મવદિકાના સંદર્ભમાં સ્ત્રી લિંગમાં પદેને મૂકી ને કહેવામાં આવેલ છે, પણ અહીં તે પાઠના પદને પુલિંગનાં ગોઠવીને અધ્યાહુત કરવામાં આવેલ છે. માત્ર અહીં તફાવત આટલે જ છે. અર્થમાં કઈ Yaad तत नथी. 'सोमणसे वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' 3 मत ! | ज० ५० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 2 व्यमिति स्वयमूहनीयम्, अथास्योपरिवर्तीनि सिद्धायतनादीनि कूटानि वर्णयितुमाह- 'सोमणसे' इत्यादि - सौमनसे - सौमनसनामके 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वते 'क' कति कियन्ति 'कूडा ' कूटानि शिखराणि 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तानि अत्र पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सूत्रकृतोक्तम् एवमग्रेSपि इतिप्रश्ने भगवानुत्तरमाह - 'सत्त' सप्त कूडा ' कूटानि 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तानि तानि नामतो निर्दिशति - 'तं जहा - सिद्धे' इत्यादि तद्यथा - सिद्धं - सिद्धायतनकूटम् अत्र नामैकदेशग्रहणे नामग्रहणम्' इति नियमेन सिद्धेति नामैकदेशेन सिद्धायतनकूटेति सम्पूर्णनामग्रहणं बोध्यम् एवमग्रेऽपि १, 'सोमणसे २ वि य' सौमनसमपि च - सौमनसकूटमपि च 'बोद्धव्वे' बोद्धव्यं ज्ञेयम् २, 'मंगलावईकूडे ३' मङ्गलावती : म् ३ | 'देवकुरु ४ विमल ५ कंचण ६ वसिटुकडे ७' देवकुरु ४ विमल ५ कश्चन ६ वासिष्ठकूटम् अत्र समाहारद्वन्द्वान्ते श्रूयमाणस्य कूटस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् देवकुरुकूटं ४ विमलकूटं ५ काश्चनकूटम् ६ वासिष्ठकूटमित्यर्थः, 'य' च 'बोद्धव्वे' बोद्धव्यम् ॥ १॥ अथादितः सर्वकूटसङ्कलनायां यावन्ति कूटानि भवन्ति तावन्स्याह' एवं सव्वे पंचसया कूडा' इति एवम् इत्थम् सर्वाणि आदित आरभ्य सौमनसपर्वतोपरिवdfन सकलानि सप्तापि कूटानि पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि जायन्ते, 'एएसिं' वक्खारपत्रए कइकूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! इस सौमनसवक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? 'पण्णत्ता' में पुलिङ्गता प्राकृत होने से कही गई है । उत्तर में प्रभु ने कहा है- (गोयमा ! सत्त कूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! यहां पर सात कूट कहे गये हैं (तं जहा) उनके नाम इस प्रकार से हैं (सिद्धे सोमणसे विष बोद्धवे मंगलावईकूडे, देवकुरु विमल कंचनवसिट्ठ कूडेअ बोद्धव्वे) सिद्धायतनकूट १, सौमणसकूटर, मंगलावतीकूट ३, देवकुरुकूट४, विमलकूट५, कंचनकूट, और वशिष्ठकूट७ ऐसा नियम हैं कि नामके एकदेश से पूरे नामका ग्रहण हो जाता है - अतः इसी नियमके अनुसार 'सिद्धे' पद से सिद्धायतनकूट ऐसा पूरा नाम गृहीत हो गया है तथा द्वद्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकं संबद्धयते' इस कथन के अनुसार प्रत्येक पद के साथ कूट शब्द का प्रयोग हुआ जानलेना सौमनस वक्षस्ार पर्वत पर डेटा:। ( शिमरे।) भावेसा है ? 'पण्णत्ता' भां आत होवाथी पुलिंगता प्रवासी छे. सेना वामां प्रभु छे - 'गोयमा ! सत्त कूडा पण ' डे गौतम गडी सात छूटो भावेसा है. 'तं जहा' ते टोना नाभी या प्रमाणे छे-'सिद्धे सोमणसे पिय बोद्धव्वे मंगलावई कूडे, देवकुरु विमल कंचण वसिकूडे अबोद्धव्वे' सिद्धातन छूट १, सौमनस छूट २, मंगलावती छूट 3, देवरु ८ ४, પ્રેમલ ફૂટ પ, કંચન ફૂટ ૬ અને વશિષ્ઠ ફૂટ ૭ એવા નિયમ છે કે નામના એક हेराथी पूरा नाम श्र थाय छे. येथी यो नियम भुल्म 'सिद्धे' पथी सिद्धायत ड्रेट शोधुं पुरुं नाम शृद्धीत थ्यु छे ते 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकं संबध्यते' २३ ધન મુજબ દરેક પૃષ્ઠની સાથે કૂટ શબ્દ પ્રદ્યુમ્ત થયેલ છે, એવું સમજી લેવું જોઇએ t Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् एतेषां प्रागुक्तानां कूटानां 'पुच्छ।' पृच्छा सूत्रनिर्दिष्टः प्रश्नः 'दिसि विदिसाए' दिग्विदिशि-दिशश्च विदिशश्चैषां समाहारो दिग्विदिक तस्मिन् दिग्विदिशि-दिक्षु विदिक्षु चेत्यर्थः 'जहा' यथा येन प्रकारेण 'गंधमायणस्स' गन्धमादनस्य पर्वतस्य भणिता तथा 'भाणियव्या' मणितव्या वक्तव्या प्रथमवक्षस्कार गन्धमादनवदेषां कूटानां प्रश्नसूत्रं दिग्विदिक्षु वक्तव्यमिति समुदितार्यः, तत्र प्रश्नसूत्र हि-'कहि णं भंते ! सोमणसे वक्खारपन्चए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?' इत्यादि, एतच्छाया-क खलु भदन्त ! सौमनसि वक्षस्कारपर्वते सिद्धायतनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् ? इति कूटानां दिग्विदिग्वक्तव्यताहि-मेरुगिरेः समीपवर्ति दक्षिणपूर्वस्यां विदिशि सिद्धायतनकूटं १ तस्य दक्षिणपूर्वस्यां विदिशि द्वितीयं सौमनसकूटं २ तस्य च दक्षिणपूर्वस्यां विदिशि तृतीयं मालावतीकुटम् ३ तस्य दक्षिणपूर्वस्यां पश्चमस्य विमल. चाहिये (एवं सव्वे पंच सइया कूडा) इस तरह आदिसे लेकर सौमनस पर्वत तक के जितने भी कूट कहे गये हैं वे सब पांचसो योजन प्रमाणवाले हैं। (एएसिं पुच्छा दिसि विदिसाए भाणिअव्वा) इन सौमनस पर्वत सम्बन्धीकूटों के होने में दिशा और विदिशाको लेकर प्रश्न पूछना चाहिये जैसा कि पहिले (गंध. मायणस्स) गन्धमादन पर्वत के कूटों के प्रकरण में पूछा गया है । अर्थात् (कहिणं भंते ! सोमणसे वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे भदन्त ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन नामका कूट कहां पर कहा गया है। इत्यादि-तो इन प्रश्नों के उत्तर में ऐसा कहना चाहिये-मेरुगिरिके पास उसकी दक्षिण पूर्व दिशा के अन्तराल में सिद्धायतन कूट कहा गया है उसकी दक्षिण पूर्व दिशा के अन्तराल में द्वितीय सौमनसकूट कहा गया है और उसकी दक्षिण पूर्वदिशा के अन्तराल में तृतीय मंगलावती कूट कहा गया है ये ३ कूट विदिग्भावी हैं। मंगलावती कूटकी दक्षिण पूर्व दिशा के अन्तराल में और 'एवं सब्वे पंचसइया कूडा' २॥ प्रमाणे प्रारमधी भांडी सौमनस पति सुधीना रेखा दूटे। ४३वामा सादा छ, ते ५५ पायसे योन प्रमाणपणा छे. 'एएसिं पुच्छा दिसि विदिसाए भाणि अव्वा' से सौमनस ५ तथी सम्म छूटीना मस्तित्व वि मन हिशा तभREAL विरे प्रश्नो ४२वा नये. पटसे ४२ प्रमाणे 'गंधमायणस्स' माहन પર્વતના ફુટેના પ્રકરણમાં પ્રશ્નો પૂછવામાં આવેલા છે. તેવી જ રીતે અહીં પણ પ્રશ્નો ४२॥ न २ अर्थात् 'कहिणं भंते ! सोमणसे वक्खारपब्बए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' હે ભદંત! સૌમનસ વસ્કાર પર્વત ઉપર સિદ્ધાયતન નામને કૂટ કયા સ્થળે આવેલ છે ? ઈત્યાદિ. એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં આ પ્રમાણે સમજવું જોઈએ કે મેરુગિરિની પાસે તેની દક્ષિણ પૂર્વ દિશાના અન્તરાલમાં સિદ્ધયતન ફૂટ છે. તે કૂટની દક્ષિણ પૂર્વ દિશાના અંતરાલમાં દ્વિતીય સૌમનસ ફૂટ આવેલ છે અને તેની પણ દક્ષિણ પૂર્વ દિશાના અંતરાલમાં તૃતીય મંગલાવતી કૂટ આવેલ છે. એ ત્રણ કટ વિદિભાવી છે. મંગલાવતી ફુટની દક્ષિણ પૂર્વ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कूटस्योत्तरस्यां चतुर्थे देवकुरुकूटम् ४, तस्य दक्षिणस्यां पश्चमं विमलकूटं ५ तस्य च दक्षिणस्यां षष्ठं काञ्चनकूटम् ६, तस्य दक्षिणस्यां निषधस्योत्तरस्यां सप्तमं वासिष्ठकूटम् ७, एतानि च सर्वात्मना रत्नमयानि बोध्यानि, हिमवत्कूटप्रमाणानि, तत्प्रासादादिकमपि तद्वदेव बोध्यम्, तत्र यो विशेषस्तं दर्शयति-'विमलकंचकूडेसु णवरं देवयाओ' विमलकाश्चनकूटयोः नवरंदेवते-देव्यौ ते च 'मुवच्छा वच्छमित्ताय' सुवत्सा वत्स मित्रा चेति द्वे क्रमेण देव्यौ बोध्ये 'अवसिद्वेसु कूडेसु' अवशिष्टेषु पञ्चसु कूटेषु 'सरिसणामगा देवा' सदृशनामकाः कूटसदृशनामकाः देवाः अधिपतयो बोध्याः तेषां 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'दक्खिणेण' दक्षिणेनदक्षिणस्यां दिशि मेरोरिति शेषः इति । इदानी देवकुरुं निरूपयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि-क खलु भदन्त ! 'महापंचम विमलकूट की उत्तर दिशामें चतुर्थ देवकुरु नामका कूट कहा गया है देवकुरु कूटकी दक्षिण दिशामें पांचवा विमलकूट कहा गया है विमलकूट की दक्षिणदिशा में छहा काश्चनकूट कहा गया है काश्चनकूट की दक्षिण दिशा में और निषध पर्वत की उत्तरदिशा में सातवां वसिष्ठकूट कहा गया है ये सब कट सर्वात्मना रत्नमय हैं। परिमाण में ये सब हिमवत् के कुटों के तुल्य हैं यहां पर प्रासादादिक सब उसी प्रकार से हैं । (विमल कंचणकूडेसु णवरं देवयाओ वच्छमित्ताय, अवसिढेसु कडेसु सरिसणामया देवा रायहाणीओ दक्षिणेणंति) विमलकूट पर और कांचनकूट पर केवल सुवत्सा और वत्समित्रा ये दो देवियां रहती हैं और बाकी के कूटों पर-पांच कूटों पर- कूट सदृश नामवाले देव रहेते हैं इनकी राजधानियां मेरुकी दक्षिण दिशा में हैं। देवकूरू का निरूपण (काह णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरू णामं कुरा पण्णत्ता) हे भदन्त ! દિશાના અંધારામાં અને પંચમ વિમળફૂટની ઉત્તરદિશામાં ચતુર્થ દેવકુરુ નામક કૂટ આવેલ છે. દેવકુરુ કૂટની દક્ષિણ દિશામાં પંચમ વિમળ ફૂટ આવેલ છે. વિમળ ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં ષષ્ઠ કાંચન કૂટ આવેલ છે. કાંચન ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં અને નિષધ પર્વતની ઉત્તર દિડામાં સપ્તમ વશિષ્ઠ ફૂટ આવેલ છે. એ બધા કૂટ સર્વાત્મના રત્ન છે. પરિમાણમાં એ બધા હિમવતના કૂટ તુલ્ય છે. અહીં પ્રાસાદાદિક બધું તે પ્રમાણે જ છે. 'विरालकं वणकूडेसु सरिसणामयो देवयाओ वच्छमित्ताय, अवसिढेसु कूडेसु, सरिहणायया देवा रायहाण ओ दक्खिणेगति' विभा ५८ ५२ ने यिन एट पर त सुरत्सा भने વત્સમિત્રા એ બે દેવીઓ રહે છે અને શેષ કૃટ ઉપર એટલે કે પંચ કૂટો ઉપર ફૂટ સદશ નામવાળા દે રહે છે. એમની રાજધાનીઓ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં છે. દેવમુરુનું નિરૂપણ 'कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरु णामं कुरा पण्णत्ता' महत! महाडमा Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३० सौमनसगजदन्तपर्वतवर्णनम् विदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'देवकुरा णामं कुरा' देवकुरवो नाम कुरवः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, इतिप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा!' इत्यादि-गौतम ! “मंदरस्स' मन्दरस्य 'पव्वयस्स' पर्वतस्य दाहिणेण' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'णिसहस्स' निषधस्य 'वासहरपव्ययस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'विज्जुप्पहस्स' विद्युत्प्रभस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'सोमणसवक्खारपव्वयस्स' सौमनसबक्षस्कारपर्वतस्य पचत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'देवकुरा णाम' देवकुरवो नाम 'कुरा' कुरवः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः, ते च कीदृशाः ? इत्याह-पाईणपडीणायया' प्राचीनप्रतीचीनायता:-पूर्वपश्चिमदिशोर्दीर्घाः 'उदीण. दाहिणवित्थिण्णा' उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णाः-उत्तरदक्षिणयोर्दिशोः, विस्तारयुक्ताः 'इक्कारस' एकादश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'अट्ट य' अष्ट च 'बायाले' द्वाचत्वारिंशानिद्वाचत्वारिंशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'दुण्णि य' द्वौ च 'एगूणवीसइभाए' एकोनविंशतिभागौ 'जोयणस्स' योजनस्य 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण प्रज्ञप्ताः, एषां शेषवर्णनमुत्तरकुरुवन्निर्देष्टुमाह-'जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया' यथा उत्तरकुरूणां वक्तव्यता महाविदेह में देवकुरु नामके कुरु कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं(गोयमा ? मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं विज्जुप्पहरूस वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं सोमणसवक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थणं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पण्णत्ता) हे गौतम । मन्दर पर्वत की दक्षिणदिशा में निषध वर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में, विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वत की पूर्व दिशा में, एवं सौमनस वक्षस्कार पर्वत की पश्चिमदिशा में महाविदेह क्षेत्र के भीतर देवकुरु नाम के कुरु कहे गये हैं । (पाईण पडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा) ये कुरु पूर्व से पश्चिम तक दीर्घ हैं और उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण हैं (एकारसजोयणसहस्साइं अट्ठय बायाले जोयणसए दुण्णि य एगूणवीसहभाए जोयणस्स विक्खंभेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्यया ४३४२ वा ३ गाविस छ ? सेना पाममा प्रभु ४९ छे–'गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं णिसहस्स बासहरपव्ययरस उत्तरेणं लिज्जुप्पहस्स वखारपव्वयस्स पुरथिमे सोमणसत्रक्खारपव्ययस्स ५च्चरिथमेणं एत्य गं महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा' पण्णत्ता' હે ગીતમ! મન્દર પવની દાઢાણ દિશામાં, નિષધ વર્ષધર પર્વતની ઉત્તર દિશામાં. વિધ...ભ વક્ષરકાર પર્વતી પૂર્વ દિશામાં તેમજ સૌમનસ વક્ષસ્કાર પર્વતની પશ્ચિમ दिशाम भविड झरनी १२ वरु नामे रुमाल छे. 'पाईण पडीणायया पुदीण दाहिणविच्छिण्णा' से शुरुमे यू विन सुखी होछ भने उत्तरथी हक्षिा संधी विस्ता छ. 'एक्कारसजोयणसहस्साइं अट्ठय बायाले जोयणसए दुण्णिय एगूणवीसइ भाए जोयणस्स विखंभेणं जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधभि Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वर्णनरीतिः तथैषामपि बोध्या, सा च किम्पयन्ता ? इत्याह-'जाव अणुसज्जमाणा' यावद् अनुपज्जन्त:-सन्तानेनानुवर्तमानाः सन्ति, तत्रानुषज्जन्तीति अनुषजन्त इति वर्तमाननिर्देशः कालत्रयेऽपि एषां सत्ता सूचनार्थः, तेऽनुपजन्तः के सन्ति ? इत्याह-'पम्हगंधा मियगंधा अममा सहा तेतकी सणिचारीति ६' पद्मगन्धाः १, मृगगन्धाः २, अममाः ३, सहाः ४, तेतलिनः ५, शनैश्चारिणः ६ इति षडू मनुष्यजाति भेदाः, एपां विशेषतो विवरणं सुपमसुषमाकाळवर्णनप्रसङ्गे प्रागुक्तं, तज्जिज्ञासुभिस्ततो बोध्यम् ॥ ३०॥ अथात्र वर्तिनौ चित्रविचित्रकूटौ गिरी वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि । ___ मूलम्-कहि णं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णामं दुवे पवया पण्णत्ता ?, गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अटू चोत्तीसे जोयणसए चत्तारि य सत्तभाए जोयणस्त अबाहाए सीयोयाए महाणईए पुरस्थिमपञ्चस्थिमेणं उभओ कूले एत्थ णं जाव अणुसज्जमाणा पम्हगंधमिअगंधा अमया सहा तेतली सणिचारीति) इनका विस्तार ११८४२ योजन और एक योजन के १९ भागों में से दो भाग प्रमाण है बाकी का इनका शेष वर्णन उत्तर कुरु के वर्णन जैसा है-यही बात सूत्रकारने (जहा उत्तरकुराए वत्तव्यया) इस सूत्रपाठ द्वारा प्रकट की है यहां वर्णन उत्तर कुरु के जैसा 'अणुसज्जमाणा पम्हगन्धा, मिअगंधा अमया सहा तेतलीसणिचारीति' वहां के इस वर्णन तक करना चाहिये 'अणुसज्जमाणा' पद यह प्रकट करता है कि इनकी बंशपरंपरा का त्रिकाल में भी विच्छेद नहीं होता है इनके शरीर की गन्ध पद्म की गन्ध जैसी होती है इत्यादि रूपसे वहां की षट्र प्रकार की मनुष्यजाति के भेदों का वर्णन करनेवाले इन मृगगंध आदि पदों की व्याख्या सुषम सुषमाकाल वर्णन के प्रसङ्ग में हमने पहिले करदी है अतः वहीं से यह समझलेनी चाहिये ॥३०॥ अगंधा अमया सहा तेतली सणिचारीति' सेमनी विस्तार ११८४२ येन भने मे જનના ૧૯ ભાગમાંથી બે ભાગ પ્રમાણ છે અમનું શેષ બધું વર્ણન ઉત્તરકુરુના વર્ણન २ छ. मे पात सूत्रधारे 'जहा उत्तरकुराए वत्तव्यया' मा सूत्रा 43 ५४ ४२॥ मही शेष वन उत्त२४२.नी म 'अणुसज्जमाणा पम्हगंधा मिअगंधा अमया सहा तेतली सणिचारीति' मही सुधान सभा नसे. 'अणुसज्जमाणा' ५६ मा पात ५४८ ४२ छे કે એમની વંશપરંપરાને ત્રિકાલમાં પણ વિકેદ શક્ય નથી. એમના શરીરને ગંધ પદ્ધ છે ગંધ જે છે. વગેરે રૂપમાં ત્યાંના ૬ પ્રકારની મનુષ્યગતિઓના ભેદના વર્ણન કરનારા से 'मृगगंध' वगेरे पहानी व्याज्य। सुषम सुषमा नना प्रसमा भे पडसारी છે. એથી જિજ્ઞાસુ લેકે ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે છે સૂ-૩૦ છે Jain.Education.international Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३१ चित्रविचित्रादिकूटनिरूपणम् चित्तविचित्तकूडा णाम दुवे ५०वा पण्णत्ता, एवं जं चेव जमगपवयाणं तं चेव एएसि, रायहाणीओ दक्खिणेणंति ॥ सू० ३१॥ ___छाया- क्व खलु भदन्त ! देवकुरुषु चित्रविचित्रकूटौ नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ ?, गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य औत्तराहात् चरमान्तात् अष्ट चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तभागान् योजनस्य अबाधया शीतोदास महानद्याः पौरस्त्यपश्चिमेन उभयोः कलयोः अत्र चित्रविचित्रकूटौ नाम द्वौ पर्वतौ प्रज्ञप्तौ, एवं यदेव यम कपर्वतयोः तदेवैतयोः, राजधान्यो दक्षिणेनेति ॥ ३१॥ टीका-'कहिणं भंते ! देवकुराए' इत्यादि । सुगमम्, नवरम् एवम् उक्तरीत्या 'यं वेव' यदेव वर्णनं 'जमनपच्वयाणं' यमकपर्वतयोः प्रागक्तयोः 'तं वेव' तदेव वर्णनं 'एएसिं' एतयोः चित्रविचित्रकटयोः पर्वतयो बोध्यम्, एतयोरधिपती चित्रविचित्रौ स्वनामसदृशनामको, तयोः चित्रविचित्र पर्वतों की व्याख्या 'कहिणं भंते ! देवकुराए चिरधिचित्तकूडा'-इत्यादि टीकार्थ-(कहिणं भंते! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णामं वे पश्चया पण्णता) हे भदन्त ! देवकुरु में चित्र और विचित्र नाम के दो पर्वत कहां पर कहे गये हैं ? उत्तर में प्रधु कहते हैं-'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपवयस्स उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अट्ट चोत्तीसे जोपणसए चलारिय सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सोओयाए महाणईए पुरथिम पच्चस्थिमेणं उभओ कूले एत्थणं चित्तविचित्तकूडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्ता) हे गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तर दिग्वर्ती चरमान्त से ८३४-योजन की दूरी पर सीतोदा महानदी के पूर्व पश्चिम दिशा के अन्तराल में दोनों तटों पर ये चित्रविचित्र नाम के दो पर्वत कहे गये है। 'एवं जंचेव जमग पव्वयाणं तं चेव एएसिं रायहाणीओ दक्खि ચિત્ર-વિચિત્ર પર્વતની વ્યાખ્યા 'कहिणं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा' इत्यादि टी -'कहिणं भंते ! देवकुराए चित्तविचित्तकूडा णामं दुवे पव्वया पण्णत्तो' ! દેવકુરુમાં ચિત્ર અને વિચિત્ર નામક એ બે પર્વત કયા સ્થળે આવેલા છે ? જવાબમાં प्रभुश्री ४ -कोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उतरिल्लाओ चरिमंताओ अटु चोत्तीसे जोयणसए चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सोओयाए महाणईए पुरथिमपच्चत्थिमेणं उभओ कूले एत्थणं चित्तविचित्तकूडा णाम दुबे पव्यया पण्णत्ता' 3 गौतम ! ५५ ५२ પર્વતના ઉત્તર દિગ્વતી ચરમાન્તથી ૮૩૪હૈ યે ન જેટલે દૂર સીતાદા મહાનદીની પૂર્વ પશ્ચિમ દિશાના અન્તરાલમાં બને કિનારાઓ ઉ.૨ એ ચિત્ર-વિચિત્ર નામે બે પર્વતે माया छ. 'एवं जं चेव जमगपव्वयाणं तं व एएसिं रायहाणोओ दक्खिणेणंति'२ वर्णन यम Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'रायहाणीओ' राजधान्यौ चित्रा विचित्रे 'दाहिणेण' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि योध्ये॥सू. ३१॥ अथ पञ्चानां इदानां स्वरूपमाह-'कहि णं मंते !' इत्यादि । मूलम् -कहि णं भंते! देवकुराए कराए णिसडदहे गा दहे पणते ?, गोयमा ! तेसिं चित्तविचित्तकूडाणं एव्ययाणं उत्तरिल्लाओ चरिताओ अट्ट चोत्तीसे जोयणसए चत्तारि य सत्तभाए जोयणरस अबाहार सीओयाए महाणईए बहुमज्झदेसमाए एस्थ नंगिसहदहे पाहत बहे पण्णते, जा चेत्र नीलवंत उत्तरकुरु चंदे रावयमालवंतागं वक्तव्यासाचे निसह देवकुरुसूरसुलसविज्जुप्पभाणं णेयवारापहाणीओ दक्षिणेणंति .३३॥ छाया-क्य खलु भदन्त ! देवकुरुषु कुरुपु निपधहदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! तयो श्चित्र-विचित्रकूट यो पर्वतयो? औतराच्चरमान्तात् अष्ट चतुस्त्रिंशानि योजनशतानि चतुरश्च सप्तमागान् योजनस्य अबाधया शीतोदाया महानद्याः बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु निपधहदो नाम हृदः प्रज्ञप्तः, यैव नीलादुत्तरकुरुचन्द्रैरातमाल्यवतां वक्तव्यता सैव निषधदेवकुरु सूरसुलसविद्युत्प्रभाणां नेतव्या राजधान्यो दक्षिणेनेति ॥सू० ३२॥ णेणंति) जो वर्णन यमक पर्वतों के सम्बन्ध में कहा गया है वहीं वर्णन इन चित्र विचित्र पर्वतों के सम्बन्ध में कहा गया है इनके अधिपति चित्रविचित्र नाम के हैं इनकी राजधानियां भी चित्रा विचित्रा नामकी है और ये मेरु की दक्षिण दिशा में हैं ॥३१॥ 'कहि णं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहद्दहे णामं दहे पण्णत्ते' इत्यादि टीकार्थ-(कहि णं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहद्दहे णामं दहे पण्णत्ते) हे भदन्त ! निषध द्रह नामका द्रह देवकुरु में कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभश्री कहते हैं-गोयमा! तेसिं चित्तविचित्तकूडाण पव्वयार्ण उत्तरिल्लाओ चरिमंताओ अट्टचोत्तीसे जोयणसए चत्तारिय सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सीयोयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थणं णिसहद्दहे णाम दहे पण्णत्ते) हे પર્વતના સંદર્ભમાં કરવામાં આવેલું છે તે જ વર્ણન આ ચિત્રવિચિત્ર પર્વતના સંદર્ભમાં પણ જાણવું જોઈએ. એમના અધિપતિ ચિત્રવિચિત્ર નામક છે. એમની રાજધાનીઓ પણ ચિત્ર-વિચિત્રા નામક છે અને એ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં આવેલી છે. જે ૩૧ 'कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहद्दहे णामं दहे पण्णत्ते' इत्यादि टी -'कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए णिसहदहे णामं दहे पण्णत्ते' 3 RE ! निषध द्र नाम के हेरुमा ४या स्थणे आवे छ ? ४१मा प्रभुश्री ४ छ-'गोयमा ! तेसिं चित्त-विचित्तकूडाणं पव्वयाणं उत्तरिल्लाओ चहिमंताओ अट्ठ चोत्तीसे जोयणसए चत्तारि य Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाकाशि टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३२ चित्रविचित्रादिकूट निरूपणम् टीका- 'कहि णं भंते ! देवकुराए' इत्यादि - सुगमम्, नवरम् एवम् उक्तालापकानुसारेण यैव नीलवदुत्तरकुरुचन्द्रैरावतमाल्यवतां पञ्चानां हृदानामुत्तरकुरुषु वक्तव्यता सैव निषधदेव कुरुसूरसुलसविद्युत्प्रभाणामपि वक्तव्यता नेतव्या बोधपथं प्रापणीया बोध्येति भावः, एषां राजधान्यः 'दक्खिणं' दक्षिणेन - मेरोर्दक्षिणा दिशि वोध्या इति ॥ सू० ३२॥ अथ देवकुरुष्वेव कूटशाल्मलीपीठं वर्णयितुमपक्रमते - 'कहि णं भवे !' इत्यादि । ल्प कहि णं भंते! देवकुराए कुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते ?, गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपचस्थिमेण हिस्स वासहरपल उत्तरेणं विज्जुप्पभस्स ववखारपव्ययस्स दुरस्थमेणं सीओए महाणईए पञ्चस्थिमेणं देवकुरु पञ्चस्थिमद्धस्स बहुप्रदेस - भए एत्थ णं देवकुराए कूडसामलीपेढे णामं पेढे पण्णत्ते, पंजा चेव सुदंसणाए वक्तव्वया सा चैव सामलीए वि भाणियव्वा पामविहूणा गरुलदेवे रायहाणी दक्खिणेणं अवसिद्धं तं चैव जाव देवकुरुय इत्थदेवे पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणट्टणं गोयमा ! एवं बुच्चइ देवकुरार, अदुत्तरं च णं देवकुराए० || सू० ३३ ॥ ४०१ गौतम ! उन चित्र विचित्र पर्वतों के उत्तर दिग्वर्ती चरमान्त से ८३४ ४ योजन की दूरी पर सीतोदा महानदी के ठीक मध्यम भाग में निषध नाम का वह कहा गया है । (जा चेव णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावयमालवंताणं वतव्वया सा चेव णि सहदेवकुरुसूरसुलसविज्जुप्पभाणं णेयव्वा रायहाणीओ दक्खिणेणंति) जो वक्तव्यता नीलवंत, उत्तर कुरु, चन्द्र, एरावत और मालवंत इन पांच द्रहों की उत्तर कुरु में कही गई है । वही वक्तव्यता, निषेध, देवकुरु, सूर सुलस और age इन पांच द्रहों की कही गई है ऐसा जानना चाहिये । यहाँ पर इसी के नाम के देव है इनकी राजधानियां मेरु की दक्षिण दिशा में हैं ॥३२॥ सत्तमा जोयणस्स अबाहाए सीयोयाए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थणं णिसह णामं दहे ત્તે' હું ગૌતમ ! તે ચિત્રવિચિત્ર પર્વતના ઉત્તરદિશ્વતી ચરમાન્તથી ૮૩૪૪ આઇસે ચેાત્રીસ સાીયાચાર ચેાજન જેટલે દૂર સીતાદા મહાનદીના ઠીક મધ્યભાગમાં નિષધ નામે દ્ર आवे छे. 'जा चेव णीलवंत उत्तरकुरु चंदेरावयमालवंताणं वत्तव्वया सा चेव णिसहदेव कुरुसूरसुलसविज्जुष्पभाणं णेयव्वा रायहाणीओ दक्खिणेणंति' ? वतव्यता उत्तरमुरुमां नीसवते, ઉત્તરકુરુ, ચન્દ્ર, ઐરાવત અને માલવન્ત એ પાંચ દ્નહેા વિષે કહેવામાં આવેલી છે, તેજ વક્તવ્યતા નિષધ, દેવકુરુ, સૂર, સુલસ અને વિદ્યુપ્રભ એ પાંચ દ્રહાની પણ કહેવામાં આવેલી છે. એવું જાણી લેવુ જોઇએ. અહીં એનાજ નામવાળા દેવ છે. એ સર્વાંની રાજધાનીએ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં આવેલી છે. ! સૂ. ૩૨ ॥ ज० ५१ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे - छाया-क्व खलु भदन्त ! देवकुरुषु कुरुषु कूटशाल्मलीपीठं नाम पोठं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमेन निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण विधुत्प्रभस्य वक्षस्कारपर्वतस्य पौरस्त्येन शीतोदायाः महानद्याः पश्चिमेन देवकुरुपश्चिमार्द्धस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु देवकुरुषु कुरुषु कूटशाल्मलीपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तम्, एवं यैव जम्बाः सुदर्शनायाः वक्तव्यता सैव शाल्मल्या अपि भणितव्या नामविहीना गरुडदेवः राजधानी दक्षिणेन अवशिष्टं तदेव यावद् देवकुरुश्चात्र देवः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तत् तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-देवकुरवः कुरवः, अदुत्तरं च खलु देवकुरूणां ॥सू० ३३॥ टीका-'कहि णं भंते देवकुराए' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं सुगमम्, नवरं कूटशाल्मलीपीठं-कूटं शिखरं, तदाकारा शाल्मली-वृक्षविशेषः, कूट शाल्मली, तस्याः पीठम्-आसनम् कूटशाल्मलीउत्तरसूत्रे-गोयमा !' गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैत्यकोणे 'णिसहस्स' निषधस्य 'वासहरपव्वयस्स' वर्षयरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'विज्जुप्पभस्स' विद्युत्प्रभस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'सीयोयाए' शीतोदाया-शीतोदानाम्न्याः 'महाणईए' महानद्याः ‘पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'देवकुरुपच्चत्थिमद्धस्स' देवकुरुपश्चिमार्द्धस्य 'बहुमज्झ देसभाए' बहुमध्यदेशभागे एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'देवकुराए' देवकुरुषु -कूटशाल्मली पीठ वक्तव्यता"कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए कूडसामली" इत्यादि टीकार्थ-गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा-है(कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते) हे भदन्त ! देवकुरु नाम के कुरु में कूट शाल्मलीपीठ कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा! मंदरस्स पव. यस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विज्जुप्पभस्स वखारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं सीयाए महाणईए पच्चस्थिमेणं देवकुरुपचस्थिमद्धस्स बहमज्झदेसभाए एत्थ णं देवकुराए कूडसामलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते) हे गौतम! मन्दर पर्वत के नैऋतकोण में निषधवर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में विद्युत्प કૂટ શાલ્મલી પીઠ વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते ! देवकुराए कूडसामली' इत्यादि साथ-गोतमे 20 सूत्र प्रभुने मा तने। प्रश्न ४य छ -'कहिणं भंते ! देव कुराए कुराए कुडसामिलिपेढे णामं पेढे पण्णत्ते' मन् हे३ नामनाभाट भ. साधी ४यां मावत छ ? 'गोयमा ! मंदरस्स पव्ययस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं विज्जुष्पभस्म वक्खोरपव्वयस्स पुरथिमेणं सीयाए महाणईए पच्चत्थिमेणं देवकुरु पच्चस्थिमद्धस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं देवकुराए कूडसामलिपेढे णाम पेढे पण्णत्ते' हे गौतम ! भ.४२ ५'तना नैऋत्य मा. नि५५ ५२ पतनी इत्तर दिशामा, Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३३ कूटशारमलीपीठवर्णनम् ૐ 'कुराए' कुरुषु 'कूडसामलीपेढे' कूटशाल्मीपीठं 'णामं' नाम 'पेढे' पीठं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ' एवं ' एवम् - अनन्तरोक्तसूत्रानुसारेण 'जा चेव' यैव 'जम्बूए' जम्ब्वाः 'सुदंसणाए' सुदर्शनायाः 'वत्तव्वया' वक्तव्यता 'सा चेव' सैव 'सामलीए वि' शाल्मल्या अपि 'भाणियव्वा' भणितव्या वक्तव्या, इह जम्बूसुदर्शनातो विशेषं दर्शयितुमाह-'णामविहूणा' नाम विहीना नामभिः प्रागुक्तैर्द्वादशभिर्जम्बूनामभिर्विहीना - वर्जिता वक्तव्यता भणितव्या इह शाल्मली नामानि न सन्तीति तद्विहीना वक्तव्यता वाच्येति तात्पर्यम्, तथा 'गरुडदेवे' गरुडदेवः जम्बूसुदर्शनायां तु अनाहतो देव इति ततोऽत्र विशेषः, तत्र गरुडजातीयो वेणुदेवनामा देवो निवसतीति तदर्थः तस्य च 'रायहाणी' राजधानी 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन मेरुगिरितो दक्षिणदिशि विद्यत इति बोध्यम् 'अवसिद्धं' अवशिष्टं शेषं प्रासादभवनादि 'तं चेव' तदेव जम्बूसुदर्शनावदेव बोध्यम्, तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्याह- ' जाव देवकुरु य इस्थ देवे' यावद् भवक्षस्कार पर्वत की पूर्वदिशा में, एवं शीतोदा महानदी की पश्चिमदिशा में देवकुरु के पश्चिमाई के - शीतादा नदी द्वारा द्वीधाकून देवकुरु के पश्चिमाई के - बहु मध्य देशभाग में देवकुरु क्षेत्र में कूट शाल्मली पीठ कहा गया है । ( एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणाए वक्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणियव्वा णामविहूणा गरुल देवे रायहाणी दक्खिणेणं) जो वक्तव्यता जम्बू नामक सुदर्शना की है वही वक्तव्यता इस शाल्मली पीठकी है जम्बू सुदर्शना के उसकी वक्तव्यता में १२ नाम प्रकट किये गये हैं पर ऐसे १२ नाम यहां शाल्मली पीठ की वक्तव्यता में नहीं कहे गये हैं । गरुडदेव यहां पर रहता है - जैसा कि वहां पर अनादृत देव रहता है । इसकी राजधानी मेरुकी दक्षिणदिशा में है । (अवसिहं तं चैव जाव देवकुरु अ देवे पलिओ महिइए परिवसइ) प्रासाद भवनादिका कथन जम्बू सुदर्शना के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही कहलेना चाहिये - यावत् देवकुरु नामका देव यहां पर रहता है । इसकी एक पल्योपमकी स्थिति है । यहां વિદ્યુત્પ્રભ વક્ષસ્કાર પતની પૂર્વ દિશામાં અને શીતેાદા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં, દેવ કુરુના પશ્ચિમાદ્ધના–સીતાદા નદી વડે દ્વિધાકૃત દેવકુરુના પશ્ચિમાદ્ધના-મહુમધ્ય દેશલાगमां, हेवपुरु क्षेत्रमां छूट शाहभसीची आवे छे. 'एवं जच्चेव जम्बूए सुदंसणा ए वत्तव्वया सच्चेव सामलीए वि भाणियव्वा णामविहूणा गरुलदेवे रायहाणी दक्खिणेणं' ने वक्तव्यता જમ્મૂ નામક સુદનાની છે તેજ વક્તવ્યતા આ શામલીપીઠની પણ છે. જમ્મૂસુદના માટે તેની વક્તવ્યતામાં ૧૨ નામેા પ્રકટ કરવામાં આવેલાં છે પણ શામવીપીઠની અહી જે વક્તવ્યતા છે તેમાં નામે પ્રકટ કરવામાં આવ્યા નથી. અહીં ગરુડ દેવ રહે છે. અને त्यां अनाहत हेव रहे छे. योनी राजधानी भेरुनी दक्षिण दिशामा छे ' अवसिट्टं तंचेव जाव देवकुरु अदेवे पलिओवमट्टिइए परिवसई' प्रासाद लवनाहिङ विषेनु प्रथन भ्यूसुदर्शनाना પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે તેવુ જ અહીં પણ સમજવું જોઈએ. યાવતુ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र देवकुरुश्चात्र देवः 'पलिओक्मटिइए' पल्योपमस्थितिकः 'परिवसई' परिवसति इह यावत्पद सङ्ग्राह्यपदानि अष्टमसूत्रात्सङ्ग्राह्याणि, तदर्थश्च तत एव ज्ञेयः, देवकुरुनामार्थसूत्रं प्राग्वद्विवरणीयम् ॥सू० ३३।। ___ अथ चतुर्थ विद्युत्प्रभनामकं वक्षस्कारपर्वतं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे' इत्यादि। मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पभे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं देवकुराए पञ्चस्थिमेणं पम्हस्स विजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पो णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालते गवरं सव्वतवणिजमए अच्छे जाव देवा आसयंति । विज्जुप्पभेणं भंते ! वक्खारपव्वए कइकूडा पण्णत्ता.? गोयमा ! नवकूडा पण्णता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे विज्जुप्पभकूडे देवकुरुकूडे पम्हकडे कणगकूडे सोवस्थियकूडे सीयोयाकूडे सयजलकूडे हरिकूडे । सिद्धे च विज्जुणामे देवकुरु पम्हकणगसोवत्थी । सीयोया य सयज्जल हरिकूडे चेव बोद्धव्वे ॥१॥ एए हरिकूडवजा पंचसइया णेयव्या, एएसि कूडाणं पुछा दिसि विदिसाओ णेयवाओ जहा मालवंतस्त हरिस्सहकूडे तह चेव हरिकूडे रायहाणो जह चेव दाहिणेणं चमरचंचा रायहाणी तह णेथव्वा, कणगसोवस्थियकूडेसु वारिसेणबलाहयाओ दो देवयाओ अब ससु कूडसरिसणामगा देवा रायहाणीओ दाहिणेणं से केणटेणं भंते ! एवं वुच्छह विज्जुप्पभे वक्खारपव्वए २?, गोयमा ! यावत्पद संग्राह्य पदों को और उनके अर्थ को जानने के लिये अष्टम सूत्र से जानलेना चाहिये तथा देवकुरु नामार्थ सूत्र पहिले कथित पद्धति के अनुसार ही विवृत करलेना चाहिये ॥३३॥ દેવકુરુ નામક દેવ અહીં રહે છે. એની એક પલ્યોપમ જેટલી સ્થિતિ છે. અહીં યાવત પદ સંગ્રાહ્ય પદે અને તેમના અર્થ જાણવા માટે અષ્ટમ સૂત્રમાં જેવું જોઈએ. તેમજ વકુરુ નામાર્થ સૂત્ર પૂર્વ કથિત પદ્ધતિ મુજબ જ વિવૃત કરી લેવું જોઈએ છે સૂ. ૩૩ છે Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कार: सू. ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् विज्जुप्पभेणं वक्खारपन्त्रए विज्जुमिव सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोवेइ पासइ विज्जुभे य इत्थ देवे पलिओवमटिइए जाव परिवसई, से एएणट्टेणं गोगमा ! एवं बुच्चइ - विज्जुष्पभे२, अदुत्तरं च णं जाव णिच्चे ||० ३४॥ छाया - क खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे विद्युत्प्रभो नाम वक्षस्कार पर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरेण मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणपश्चिमेन देवकुरूणां पश्चिमेन पद्मस्य विजयस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे विद्युत्प्रभो नाम वक्षस्कार पर्वतः प्रज्ञप्तः, उत्तरदक्षिणायतः एवं यथा माल्यवान् नवरं सर्वतपनीयमयः अच्छो यावद् देवा आसते । विद्युत्प्रभे खलु भदन्त ! वक्षस्कारपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! नव कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सिद्धायतनकूटं विद्युत्प्रभकूटं देवकुरुकूटं कनककूटं स्वस्तिककूटं शीतोदाकूटं शतज्जलकूटं हरिक्कूटम् । सिद्धं च विधुन्नाम देवकुरु पद्मकनक - स्वस्तिकानि । शीतोदा च शतज्ज्वल हरिकूटं चैव बोद्धव्यम् ॥ १॥ एतानि हरिकूटवर्जानि पञ्चशतिकानि नेतव्यानि, एतेषां कूटानां पृच्छा दिग्विदिशो नेतव्याः यथा माल्यवतो हरिस्सहकूटं तथैव हरिकूटं राजधानी यथैव दक्षिणेन चमरवश्चा राजधानी तथा नेतव्या, कनक - स्वस्तिक कूटयोः वारिपेणा - बलाहि द्वेदेवते, अवशिष्टेषु कूटेषु कूटसदृशनामका देवाः राजधान्यो दक्षिणेन, अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - विद्युत्प्रभो वक्षस्कारपर्वतः २ १, गौतम ! विद्युत्प्रभः खलु पर्वत सर्वतः समन्ताद् अवभासते उद्योतयति प्रभासते विद्युत्प्रभात्र 'देवः पल्योपस्थितिको यावत् परिवसति स एतेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-विद्युत्प्रभः २, अदुत्तरं च खलु यावन्नित्यः || सू० ३४ । टीका- 'कहिणं ते जंबुद्दी वे' - इत्यादि - सुगमम्, किन्तु माल्यवानिवाय मुक्तस्तत्र माल्यवतो विशेषं दर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं केवलं 'तवणिज्जमए' तपनीयमयः- तपनीयं रक्तविद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वत को वक्तव्यता 'कहिणं भंते ! जबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्पमें' इत्यादि । टीकार्थ - ( कहिणं भेते ! जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे) हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में विद्युतप्रभ नाम का वक्षस्कार पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोयमा ! णिसहવિદ્યુત્પ્રભ સ્કાર પતનો વક્તવ્યતા 'कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुपभे' इत्यादि टीडार्थ' - 'कहिणं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' डे महंत ! सा द्वीप नामक Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सुवर्ण, तन्मयोऽयम् तथा 'अच्छे' अच्छ:- आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलः 'जाव' यावत्यावत्पदेन श्लक्ष्णः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजाः, निर्मलः, निष्पङ्कः निष्कङ्कटच्छायः, सप्रभः, समरीचिकः, सोद्द्योतः प्रासादीयः, दर्शनीयः, अभिरूपः, प्रतिरूपः' इत्येषां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषां व्याख्या चतुर्यसूत्रटीकातो बोध्या तथा तत्र खलु बहवो व्यन्तरा इत्येषामपि स्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मंदरस्स पत्रयस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं देव कुराए पच्चस्थिमेण पम्हम्स विजयस्स पुरत्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुपभे णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते) हे गौतम । निषध वर्षधर पर्वत की उत्तर दिशा में, मेरु पर्वत के दक्षिण पश्चिम कोने में देवकुरु की पश्चिम दिशा में और पद्म विजय की पूर्व दिशा में जम्बूद्वीप के भीतर वर्तमान महाविदेह क्षेत्र में विद्युत्प्रभ नामका वक्षस्कार पर्वत कहा गया है (उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते णवरि सव्व तवणिजमए अच्छे जाव देवा आसयंति) यह वक्षस्कार पर्वत उत्तर से दक्षिण तक दीर्घ है इस तरह से जैसा कथन माल्यवन्त पर्वत के प्रकरण में किया गया है वैसा ही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये यह पर्वत सर्वात्मना तपनीय मय है आकाश और स्फटिक के जैसा निर्मल है यावत् इस पर अनेक व्यन्तर देव और देवियाँ आकर विश्राम करती हैं और आराम करती है। यहां यावत्पद से 'श्लक्ष्णः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजा, निर्मलः, निष्पङ्कः, निष्कंटक छायः, सप्रभः, समरीचिकः, सोद्योतः प्रासादीयः, दर्श नीयः अभिरूपः," इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या चतुर्थ सूत्र દ્વીપમાં, વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વિદ્યુત્પ્રભ નામક વક્ષસ્કાર પત કયા સ્થળે આવેલ छे ? श्वाणभां प्रभु श्री डे छे - 'गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं देवकुराए पच्चत्थिमेणं पम्हस्स विजयस्स पुरत्थिमेण एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुपभे णामं वक्खारपञ्चए पण्णत्ते' हे गौतम! निषेध वर्षधर पर्वतनी उत्तर દિશામાં, મેરુ પર્યંતના દણિક્ષ પશ્ચિમના કાણુમાં, દેવકુની પશ્ચિમ દિશામાં અને પદ્મ વિજયની પૂર્વ દિશમાં જમૂદ્રીપની અંદર વર્તમાન મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં વિદ્યુત્પ્રભ નામે क्षार पर्वत आवे छे. 'उत्तरदाहिणायए एवं जहा मालवंते णवरि सव्वतवणिज्जमए अच्छे जाव देवा आसयति' मा १२४.२ पर्वत उत्तरथी दृक्षिषु सुधी हीधे छे. आ प्रभाषे જેવું કથન માલ્યવન્ત પર્વતના પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલું છે તેવું જ થન અહીં પણ સમજવુ ોઈ એ. આ પર્યંત સર્વાત્મના તપનીયમય છે. આકાશ અને સ્ફટિકવત નિર્મળ છે. યાવત્ એની ઉપર ઘણાં બ્યન્તર દેવ અને દેવીએ આવીને વિશ્રામ કરે છે અને माराम पुरे छे, सहीं यावत् यथी 'श्लक्ष्णः, घृष्टः, मृष्टः, नीरजः, निर्मलः, निष्पङ्कः, निष्कंटकछायः, सप्रभः, समरीचिकः, सोद्योतः प्रासादीयः, दर्शनीयः अभिरूपः, प्रतिरूपः, ये પદનુ ગ્રહણ થયું છે. એ પટ્ટાની વ્યાખ્યા ચતુર્થાં સૂત્રમાંી જાણી લેવી જોઈએ ‘ધ્રુવ’ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३४ बिद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् . ४०७ संग्रहः 'देवा' देवाः इत्युपलक्षणं, तेन वहवो देव्यश्च 'आसयंति' आसते इत्यप्युपलक्षणं तेन शेरते तिष्ठन्ति निपीदन्ति त्वग्वर्त्तयन्ति इत्यादि बोध्यम् । ___ अथात्र कुटानि वर्णयितुमुपक्रम ते-'विज्जुप्पभे णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्रमुत्तानार्यम्, उत्तरसूत्रे तु-नवकूटानि यथा 'सिद्धाययणकडे' सिद्धायतनकूटम् १ 'विज्जुप्पभकूडे' विद्युप्रभकूटं-विधुत्प्रभो वक्षस्कारपर्वतविशेषः तत्सदृशनामकं कूटम् २, एवं 'देवकुरुकूडे' देवकुरुकूटं देवगुरुनामक कुरुविशेषसह शनामकं कूट म् ३ 'पम्हकूडे' पक्ष्मकूटं-पक्ष्मनामक विजयसहशनामकं कूटम् ४ 'कणगकूडे' कनककूटम् ५ 'सोवस्थियकडे' स्वस्तिककूटम् ६ 'सीयोयाकूडे' शीतोदाक्टम्७ 'सयजलकडे' शनुज्वलकटम् ८ 'हरिकुडे' हरिकटं-हरेः-हरिनामकस्य दक्षिणश्रेण्यधिपस्य विद्युत्कुमारेन्द्रस्य कूटं हरिकूटम् ९ इति, इमान्येव नव कूटानि से समझ लेनी चाहिये देव पद यहां उपलक्षणरूप है इससे देवियों का भी ग्रहण हो जाता है। तथा 'आसयंति' इस क्रियापद से उपलक्षण रूप होने के कारण 'शेरते, तिष्ठन्ति, निषीदन्ति, स्वरवर्तयन्ति, इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण हो जाता है। (विजुप्पभेणं भंते ! धक्खारएव्वए कइ कूडा पण्णत्ता) हे भदन्त ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! नवकूडा पण्णत्ता) हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं (तं जहा) उन कूटों के नाम इस प्रकार हैं-(सिद्धाययणकूडे, विज्जुप्पभकूडे, देवकुरुकूडे, पम्हकूडे, कणगकूडे, सोवत्थियकूडे, सीओआकूडे, सयजलकूडे, हरिकूडे,) सिद्धेय, विज्जुणामे, देवकुरु पम्हकणग, सोवत्थी सीओआ य सयजल हरिकूडे चेव योद्धव्वा ॥१॥ (एए हरिकूडवजा पंचसइया णेयवा) सिद्धायतनकूट, विद्युत्प्रभकूट, देवकुरुकूट, पद्मकूट कनककूट, स्वस्तिककूट, सीतोदाकूर, शतज्वलकूट, और हरिकूट इनमें ५४ ही सक्षय ३५ छे. सनाथी हवामानु ५ अ ययुछे. तथा 'आसयंति' या डिया५४थी ७५६५ ३५ डा महस 'शेरते, तिष्ठन्ति, निषीदन्ति, स्ववर्तयन्ति' विगैरे ક્રિયાપદ ગ્રહણ થઈ જાય છે. 'विजुप्पभेणं भंते ! वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' 8 महन्त ! विधुत्प्रन १३२ ५'त 6५२ ट। आवेद। छ ? सेना वासमा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! नवकूडा पण्णत्ता' गौतम ! नव ट। मावा छ. 'तं जहा' ते टोना नाम 40 प्रमाणे -'सिद्धाययण कूडे, विज्जुप्पभकूडे, देवकुरुकूडे, पम्हकूडे, कणगकूडे, सोवत्थियकूडे, सीओआकूडे, सयज्जलकूड, हरिकूडे सिद्धेय, विज्जुणामे देवकुरु पम्हकणगसोवत्थि सीओआ य सयज्जवल हरि कूडे चेव बोद्धव्वे ॥ १ ॥ एए हरिकूडवज्जा पंचसइया णेयव्या' सिद्धायतन फूट, विपन કૂટ, દેવકુરુ કુટ, પદ્ધકૂટ, કનક કૂટ, સ્વસ્તિક ફૂટ, સીદી કૂટ, શતજવલ કૂટ અને હરિ કુટ. એમાં જે વિદ્યુભ વક્ષસ્કાર પર્વત વિશેષ જેવા નામવાળે કૂટ છે, તેનું નામ વિધુત્રભ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र गाथया सङ्ग्रहीतुमाह-'सिद्धे य' इत्यादि-छायागम्यम्, अथ सर्वाणि कूटालि परिगणयि. तुमाह-'एए हरिकुडवज्जा' एतानि हरिकूटवर्जानि हरिकूटं वर्जयित्वा हरिकूटस्य सहस्रयोजनप्रमाणत्वात्, शेषाणि सिद्धायतनादीनि अष्टकूटानि 'पंचसइया' पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि 'णेयव्वा' नेतव्यानि बोधपथं प्राप्याणि बोध्यानि, तत्र हरिकूटस्य प्रमुखता परिगणनायामैच्छिकी न तु कामिकी 'एएसि' एतेषाम् अनन्नरोक्तानाम् 'कूडाणं' कूटानां पुच्छा' पृच्छा-सूत्रनिर्दिष्टः प्रश्नः प्रश्नस्त्रमिति भावः तथा तदाधारतया 'दिसिविदिसाओ' दिग्विदिशः दिशो विदिशश्च ‘णेयताओ' नेतव्या:-ज्ञातव्याः, तत्र प्रश्नसूत्रं हि-'कहि णं भंते ! विज्जुप्पभे वक्खारपवए सिद्धाययणकूडे णानं कूडे पण्णसे ?' एवमादिरूपम्, दिग्विदिशश्चैवम्-मेरोदक्षिणपश्चिमायां विदिशि मेरुसमीपवति प्रथमं सिद्धायतनकूट, तस्य नितिकोणे विद्युत्प्रभकूटं नाम द्वितीयं कूटम्, तस्य नि:तिकोणे तृतीयं देवकूटं, जो विद्युत्प्रभ वक्षस्कारपर्वत विशेष के जैसे नाम वाला कूट है ? उसका नाम विद्यत्प्रभ कूट है। देवकुरु के जैसे नाम वाला देवकुरुकूट है पक्ष्म नामक विजय के जैसा नाम वाला पक्ष्मकूट है दक्षिण श्रेणी का जो अधिपति विद्यत्कुमारेन्द्र हैं उसका जो कूट है वह हरिकूट है इन्हीं नौ कूटों का इस सिद्ध आदि गाथा द्वारा संग्रह किया गया है-इनमें हरि कूट को छोडकर बाकी के जो आठ कूट हैं वे एक एक कूट पांचसौर योजन के हैं हरिकूट का प्रमाण एक हजार योजन का (एएसिं कूडाणं पुच्छा दिसि विदिसाओ णेयव्वाओ जहा मालवंतस्स) इन कटों के सम्बन्ध में दिशा में और विदिशा में कौन कौन कूट हैं" ऐसा पृच्छा यहां पर कर लेनी चाहिये "जैसे कहिणं भंते ! विज्जुप्पभे वक्खारपच्चए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्त) हे भदन्त ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कारपर्वत पर सिद्धायतन नामका कूट कहाँ पर कहा गया है ? तथ उत्तर में ऐसा कहना-हे गौतम! मेरु के दक्षिण पश्चिम कोने में मेरुसमीपवर्ती प्रथम सिद्धायतन कूट कहा गया है ફટ છે. દેવમુરુ જેવા નામવાળે દેવકુરુ ફૂટ છે. પક્ષમ નામ વિજયના જેવા નામવાળે પમ કૂટ, છે. દક્ષિણ શ્રેણીને જે અધિપતિ વિદુકુમારેન્દ્ર છે, તેને જે ફૂટ છે તે હરિફૂટ છે. એ નવ ફૂટેનો આ સિદ્ધ આદિ ગાથા વડે સંગ્રહ કરવામાં આવેલ છે. એમાં હરિકૂટને બાદ કરી શેષ જે આઠ કૂટ છે તે દરેકે દરેક પાંચસે લેજન જેટલા છે. હરિફૂટનું પ્રમાણ मे यान युं छे. 'एएसिं कूडाणं पुच्छा दिसि विदिसाओ णेयव्वाओ जहा मालवंतस्स' से दूटोना समयमा हिशमां मने विदिशाम ४३॥ ४॥ टाछ ? गोवी छ। अत्र ४श सेवी न. रेम-'कहिणं भंते ! विज्जुप्पभे वक्खारपव्यए सिद्धाययणकडे णामं कूडे पण्णत्ते' 3 महत! विधुप्रिम पक्ष२४।२ ५ ७५२ सिद्धायतन टूट च्यां स्थने આવેલ છે? ત્યારે જવાબમાં પ્રભુ કહે છે-હે ગૌતમ! મેરુના દક્ષિણ-પશ્ચિમ કેણમાં મેરુ સમીપવતી પ્રથમ સિદ્ધાયતન ફૂટ આવેલ છે. સિદ્ધાયતન ફૂટની નૈઋત્ય વિદિશામાં વિદ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् तस्य निर्ऋतिकोणे चतुर्थे पक्ष्मकूटं, पक्ष्मकूटस्य निर्ऋतिकोणे स्वस्तिक कूटस्योत्तरदिशि पञ्चमं कनककूट, तस्य दक्षिणस्यां दिशि स्वस्तिककूटं नाम षष्ठं कूटं, तस्य दक्षिणदिशि सप्तमं शीतोदकूटं, तस्य दक्षिणदिशि शतज्वहकूटं नामाष्टमं कूटं, नवमं हरिकूटं शीतोदाकूटस्य दक्षिणस्यां दिशि निषधपर्वतसमीपवर्ति, अस्य यो विशेषस्तमतिदिशति - 'जहा मालवंतस्स' यथा माereat वक्षस्कारपर्वतस्य 'हरिस्टकडे' हरिहसहकूटं नाम कूटयेकसहस्रयोजनोच्चमईतृतीयशतान्यवगाढं मूले सहस्रयोजनानि विस्तीर्ण यमकप्रमाणेन ज्ञातुं प्रानिर्दिष्टं 'तह चेव' aथैव हरिकूटं बोध्यम्, हरिस्तहकूटं च पूर्णमद्रस्योत्तरदिशि नीव्यतो दक्षिणदिशि प्रागुक्तम्, अस्य राजधानीं प्रदर्शयितुमाह- 'शयहाणी जह चैव दहिणं नमश्चचा रायहाणी तह बच्चा' राजधानी यथैव दक्षिणेन-दक्षिणदिशि चमरचञ्चा राजधानी वर्जिता तथैव सिद्धायतन कूट की नैऋत विदिशा में विद्युत्प्रभ कूट कहा गया है विद्युत्प्रभ कूट की नैऋत विदिशा में देवकुरु कूट कहा गया है देवकुरु कूट की नैऋत विदिशा में पक्ष्मकूट कहा गया है पक्ष्मकूट की नैर्ऋत विदिशा में और स्वस्तिक कूट की उत्तर दिशा में पाचवां कनककूट कहा गया है कनकूट की दक्षिण दिशा में स्वस्तिककूट नामका छट्टा कूट कहा गया है स्वस्तिक की दक्षिण दिशा में सातवां शीतोदाकूट कहा गया है, शीतोदाकूट की दक्षिण दिशा में शतज्वल नामका आठवां कूट कहा गया है नौवा जो हरिकूट है यह शीतोदा कूट की दक्षिण दिशा में निषध पर्वत के समीपवर्ती कहा गया है। जैसा माल्यवन्त वक्षस्कारपर्वत का (हरिस्तहकूडे तह चेव हरिकूडे ) हरिस्सह नाम का कूट है वैसा ही यह कूट है यह कूट एक हजार १००० योजन का ऊंचा है २॥ सौ २५० योजन का इसका जमीन के भीतर अवगाह है मूल में यह एक हजार योजन का मोटा है ऐसा ही हरिस्सहकूट है हरिस्सहकूट पूर्णभद्र की उत्तर दिशा પ્રભ ફૂટ આવેલ છે. વિદ્યુત્પ્રભ ફૂટની નૈૠત્ય વિદિશામાં ધ્રુવકુરુ ફૂટ આવેલ છે. દેવકુરુની નૈઋત્ય વિદિશામાં પદ્મકૂટ આવેલ છે. પક્ષ્મ ફૂટની નૈઋત્ય દિશામાં અને સ્વસ્તિક ફૂટની ઉત્તર દિશામાં પાંચમા કનકૂટ નામના ફ્રૂટ આવેલ છે. કનક ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં સ્વસ્તિક ફૂટ નામના છટઠે! ફૂટ આવેલ છે. સ્વસ્તિક ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં શતવલ નામક અષ્ટમ કૂટ આવેલ છે. નવમા જે હરિકૂટ છે તે શીતેાદા ફૂટની દક્ષિણ દિશામાં નિષધ પર્વતની પાસે આવેલ છે. જેવા भोस्यवन्त वक्षस्र पर्वतन 'हरिस्सह कूडे तहचेव हरिकूड़े' रिस्सर नाभ४ ईट छे तेव આ હરિકૂટ પણ છે. આ ફૂટ એક હજાર ચેાજન જેટલે ઊંચા છે. જમીનની અંદર એના અવગાહ યેાજન જેટલા છે. મૂળમાં એક હજાર ચાજન જેટલા એ મેટા છે. એવા જ હેરિસ્સહ ફૂટ છે. હરિસ્સઢ ફૂટ પૂર્ણ ભદ્રની ઉત્તર દિશામાં છે અને નીલવન્ત પર્યંતની દક્ષિણ दिशाभां छे. आ प्रमाणे पडेला उहेवाभां भाव्युं छे. 'रायहाणी जहचेव दाहिणेणं चमर ૨૫૦ ज० ५२ ४०९ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे हरिकूटस्यापि राजधानी नेतव्या बोधपथं प्रापणीया बोध्या 'कणगसोवत्थियकूडेसु' कनक स्वस्तिककूटयोः 'वारिसेण बलाहयाओ' वारिषेणा बलाहिके 'दो देवयाभो' द्वे देवते दिक्कुमार्यो देव्यो परिवसतः 'अवसिहेसु' अवशिष्टेषु विद्युत्प्रभादिषु 'कूडेसु' कूटेषु 'कूडसरिसणामगा' कूटसदृशनामकाः 'देवा' देवाः परिवसन्ति, तेषां 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि बोध्याः। .. अथास्य नामार्थं प्रदर्शयितुमुपक्रमते-'से केणटेणं भंते !' इत्यादि-अथ केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! 'एवं वुचई' एवमुच्यते 'विज्जुप्पभे' विद्युत्प्रभः 'वक्खारपव्वए २१ वक्षस्कारपर्वतः २ ?, इतिप्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'विज्जुप्पभेणं' विद्युत्प्रभः खलु 'वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतः 'विज्जुविव' विधुदिव रक्तवर्णत्वात् 'सव्वओ' सर्वतः में है और नीलवंत पर्वत की दक्षिण दिशा में हैं ऐसा पहले कहा जा चुका है (रायहाणी जह चेव दाहिणणं चमरचंचा रायहाणी तह णेयव्वा) जिस प्रकार से दक्षिण दिशा में चमरचञ्चा नामकी राजधानी कही गई है अर्थात् चमरचंचा नामकी राजधानी का जैसा वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन यहां की राजधानी का भी कहा गया है ।हरि कूट की भी यह राजधानी मेरु की दक्षिण दिशा में है। (कणगसोवत्थिय कूडेसु वारिसेणवलाहयाओ दो देवयाओ अवसिहेसु कडेसु कूडसरिसणामगा देवा रायहाणीओ दाहिणेणं) कनक कूट और सौवस्तिक कूट इन दो कूटों पर वारिसेणा और बलाहका ये दो दिक्कुमारिकाएं रहती है और अवशिष्ट विद्युत्प्रभ आदि कूटों पर कूट जैसेही नाम वाले देव रहते हैं। इनकी राजधानियां मेरू की दक्षिण दिशा में है। (से केणट्टेणं भंते ! एव बुच्चइ विज्जुप्पभे २ वक्खारपव्वए) हे भदन्त ! इस पर्वत का विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत ऐसा नाम किस कारण से कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है (गोयमा! विज्जुप्पमेणं वक्खारपध्वए विज्जुमिष पंचा रायहाणी तह णेयव्वा' २ प्रभारी क्षि दिशामा समस्यया नाम थानी सावली છે એટલે કે અમર ચંચા નામક રાજધાનીનું જે પ્રમાણે વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તેવું જ વર્ણન અહીંની રાજધાનીનું પણ છે. હરિફૂટની રાજધાની પણ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં છે. 'कणगोवत्थियकूडेसु वारिसेणबलाहयाओ दो देवयाओ अवसिद्धेसु कूडेसु कूटसरिसणामगा देवा रायहाणीओ दाहिणेणं' ४४ टूट भने सोपात 2 से ट ५२ वारिसेप्य। એક બલાહકા એ બે દિકુમારિકાઓ રહે છે. અને અવશિષ્ટ વિદ્યપ્રભ વગેરે કૂટ ઉપર ફૂટના જેવા નામવાળા દે રહે છે. એમની રાજધાનીએ મેરુની દક્ષિણ દિશામાં આવેલી છે. _ 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ विज्जुप्पभे २ वक्खारपव्वए' ! २0 'तनु વિધુત્રભ વક્ષસકાર પર્વત એવું નામ શા કારણથી રાખવામાં આવેલું છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ छ-'गोयमा ! विज्जुप्पभेणं वक्खारपव्वए विज्जुमिव सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जो Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थबक्षस्कारः सू. ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु च 'ओभासेइ' अवभासते द्रष्टुगां लोचनपथे प्रतिभाति यदयं विद्युत्प्रकाश इति, एतदेव दृढयितुमाह-'उज्जोवेइ' उद्योतयति भासुरत्वात् स्वासन्न वस्तुजातं प्रकाशयति, स च स्वयमपि 'पभासइ' प्रभासते प्रकाशते तेन विद्युत्प्रभः विधुदिव प्रभातीति विद्युत्प्रभोऽन्वर्थनामाऽयं वक्षस्कारगिरि अस्य देवमाह-'विज्जुप्पभे य इत्थ देवे' विद्युत्प्रभश्चात्र देवः परिवसतीत्यग्रिमेणान्वयः, स च देवः कीदृशः ? इत्याह'पलिभोवमटिइए जाव परिवसई' पल्योपमस्थितिको यावत् परिवसति महर्द्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति पर्यन्तपदानामत्र सग्रहो बोध्यः, स चाष्टमसूत्रात् सविवरणो बोध्यः एतादृशो महर्दिकत्वादि विशिष्टो देवः परिवसति तदधिष्ठितवादपि विद्युत्प्रभ इत्येवमुच्यते एतदेवोपसंहरति-स एएणटेणं गोयमा !' स:-विद्युत्प्रभः एतेन-अनन्तरोक्तेन अर्थेन हेतुना हे गौतम ! एवमुच्यते विद्युत्प्रभो इति शेषं प्राग्वत् ॥सू० ३४॥ सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोवेइ, पभासेइ विज्जुपभे य इत्थ देवे पलिओ. वमट्ठिए जाव परिवसइ से एएणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ विज्जुप्पभे २) हे गौतम ! यह विधत्प्रभ नाम का वक्षस्कार पर्वत विद्युत् की तरह रक्तवर्ण होने से दिशाओं और विदिशाओं में चमकता रहता है अतः लोकों को ऐसा प्रतीत होता है कि यह विजली का प्रकाश है भासुर होने के कारण यह अपने निकटवर्ती पदार्थो को भी प्रकाशयुक्त करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है इसी कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम विद्युत्प्रभ ऐसा कहा है ! दूसरी बात यह भी है कि यहां पर विद्युत्प्रभ नाम का देव रहता है इसकी एक पल्योपम की स्थिति है यहां यावत् शब्द से महर्द्धिक से लेकर पल्योपम स्थिति तक के बीच में आये हुए पदों का संग्रह हुआ है ! इन पदों का अर्थ अष्टम सूत्र से जाना जा सकता है अतः हे गौतम ! विद्युत के जैसी आभा वाला होने से तथा विद्युत्प्रभ देव का निवास स्थान होने से इस पर्वत का नाम विद्युत्प्रभ ऐसा कहा गया है ॥३४॥ वेइ, पभासेइ विज्जुप्पभेय इत्थ देवे पलिओवमद्विइए जाव परिवसइ से एएणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ विज्जुप्पभे २' गीतम! मा विधुत्प्रम नाम४ १६२४।२ ५ त विद्युत्नी रेम રક્તવર્ણ હોવાથી દિશાઓ અને વિદિશાઓમાં ચમકતો રહે છે. જેથી લોકોને એવું લાગે છે કે એ વિદ્યને પ્રકાશ જ છે. ભાસુર હેવાથી એ પોતાના નિકટવર્તી પદાર્થોને પણ પ્રકાશયુક્ત કરે છે અને સ્વયં પણ પ્રકાશિત થાય છે. એથી જ હે ગૌતમ! મેં એનું નામ વિદ્યુ—ભ એવું રાખ્યું છે. બીજી વાત એ છે કે અહીં વિધુત્રભ નામે દેવ રહે છે. એની એક પલેપમ જેટલી સ્થિતિ છે. અહીં ચાવત શબ્દથી મહદ્ધિકથી માંડીને પલ પમ સ્થિતિ સુધીના સર્વ પદનો સંગ્રહ થયે છે. એ પાને અષ્ટમ સૂત્રમાંથી જાણી શકાય Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ महाविदेहवर्षस्य दाक्षिणात्यपश्चिमाख्यं तृतीयविभागं वक्तुं तदन्तर्वर्तिनो विजयादीनाह - ' एवं पम्हे विजए' इत्यादि । मूलम् एवं पन्हे विजए अस्सपुरा रायहाणी अंकावई दक्खारपव्वए ? सुपम्हे विजए सीहपुरा रायहाणी खीरोदा महाणई २, महापम्हे विजए महापुरा रायहाणी पम्हावई वक्खारपव्वए ३, पम्हगावई विजय विजयपुरा रायहाणी सीयसोया महाणई ४, संखे विजए अबराइया रायहाणी आसी विसे वक्खारपव्वए ५, कुमुदे विजए अरजा रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई ६, णलिणे विजए असोगा रायहाणी सुहावहे वक्खारपन्वए ७, णलिणावई विजए वीयसोगा रायहाणी ८, दाहिणिल्ले सीयोया मुहवणसंडे, उत्तरिल्ले वि एवमेव भाणियव्वे जहा सीथाए, वप्पे विजए विजया रायहाणी चंदे वक्खारपक्व १, सुवये विजए जयंती रायहाणी उम्मिमालिणीणई, महावप्पे विजय जयंती रायहाणी सूरे वक्खारपव्वए ३, वप्पावई विजए अपराइया रायहाणी फेणमालिणी ई ४. वग्गू विजए चक्कपुरा रायहाणी णागे वक्खारपव्व ५, सुवग्गू विजए खग्गपुरा रायहाणी गंभीरमालिणी अंतरणई ६, गले विजए अवज्झा रायहाणी देवे वक्खारपत्र ७, गंधिला - वई विजय अयोज्झा रायहाणी ८, एवं मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमिल्लं पातं भाणियव्वं, तत्थ ताव सीयोयाए ईए दाहिणिल्ले णं कूले इमे विजया सं जहा पन्हे सुपम्हे चउत्थे पम्हगावई संखे । कुमुए णालणे, अमे णलिपावई ॥ १॥ इमाओ रावहाणीओ, तं जहा- आसपुरा सौहपुरा चेव हब विजयपुरा, अवराइया य अश्या असोगा तह वीयसोगा य ॥ २॥ इमे वक्खान, तं जहा - अंके पम्हे आसीविसे सुहावहे एवं इत्थ परिवाडीए दो दो विजया कूडसरिणामगा भाणियव्वा दिसा विदिसाओ य भाणियव्वाओ, सीयोयामुहरणं च भाणियव्वं તેમ છે. એથી હું ગૌતમ ! વિદ્યુત્ જેવી આભાવાળા હાવાથી તેમજ વિદ્યુત્પ્રભદેવનુ નિવાસસ્થાન હોવા બદલ આ પર્યંતને વિદ્યુત્પ્રભ નામથી સ ંખેાધમાં આવે છે. ૫ સુર ૩૪૫ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्तकृतिविजयदिनि०४१३ सोयोयाए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च, सीयोयाए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया, तं जहा-वप्पे सुवप्पे महावप्पे चउत्थे वप्पयावई । वग्गू य सुवग्गू य, गंधिले गंधिलावई ॥१॥ रायहाणीओ इमाओ, तं जहा-विजया वेजयंती जयंती अपराजिया। चक्कपुरा खग्गपुरा हवइ अवज्झा अउज्झाय ॥२॥ इमे वक्खारा, तं जहा-चंदपव्वए १ सुरपव्वए २णागपवए ३ देवपव्वए ४, इमाओ णईओ सीयोयाए महाणईए दाहिणिल्ले कूले-खीरोया सीयसोया अंतरवाहिणीओ णईओ ३, उम्मिमालिणी १ फेणमालिणी २ गंभीरमालिणी ३ उत्तरिल्लविजयाणंतराउत्ति, इस्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयसरिसणामया भाणियव्वा, इमे दो दो कूडा अवट्ठिया, तं जहासिद्धाययणकूड पव्वयसरिसणामकूडे ॥सू० ३५॥ __छाया-एवं पक्ष्मो विजयः अश्वपुरी राजधानी अङ्कावती वक्षस्कारपर्वतः १, सुपक्ष्मो विजयः सिंहपुरी राजधानी क्षीरोदा महानदी २, महापक्ष्मो विजयः महापुरी राजधानी पक्ष्मावती वक्षस्कारपवेतः ३, पक्ष्मकावती विजयः विजयपुरी राजधानी शीतस्रोता महानदी ४, शङ्खो विजयः अपराजिता राजधानी आशीविशो वक्षस्कारपर्वतः ५, कुमुदो विजयः अरजा राजधानी अन्तर्वाहिणी महानदी ६, नलिनो विजयः अशोका राजधानी सुखावहो वक्षस्कारपर्वतः ७, नलिनावती विजयः वीतशोका राजधानी ८, दाक्षिणात्ये शीतोदामुखवनखण्डे, औत्तराहेऽपि एवमेव भणितव्यम् यथा शीतायाः वनो विजयः विजया राजधानी चन्द्रो वक्षस्कारपर्वतः १, सुनमो विजयः जयन्ती राजधानी उर्मिमालिनी नदी २, महावप्रो विजयः जयन्ती राजधानी सूरो वक्षस्कारपर्वतः ३, वप्रावती विजयः अपराजिता राजधानी फेनमालिनी नदी ४, वला विजयः चक्रापुरी राजधानी नागो वक्षस्कारपर्वतः ५, सुवल्गुविजयः खड्गपुरी राजधानी गम्भीरमालिनी अन्टरनदी ६, गन्धिलो विजयः अवध्या राजधानी देवो वक्षस्कारपर्वतः ७, गन्धिलाक्ती विजयः अयोध्या राजधानी ८, एवं मन्दरस्य पर्वतस्य पाश्चिमात्यं पार्थ भणितव्यम् तत्र तावत् शीलोदाया नद्या दाक्षिणात्ये खलु कूले इमे विजया:, दद्यथा-पक्ष्मः सुपक्ष्मो महापामः, चतुर्थः पक्षमकावती । शङ्खः कुमुदो नलिनः, अष्टमो कलिनावती ॥१॥ इमा राजधान्यः, तद्यथा-अश्वपुरी सिंहपुरी महापुरी चैव भवति विजयपुरो । अपराजिता च अरजा अशोका वधा वीतशोका च ॥२॥ इमे वक्षस्काराः, तद्यथा-अङ्कः पक्ष्म आशीविषः सुखावहः एवमत्र परिपाटयां द्वौ द्वौ विजयौ कूटसदृशनामको भणितव्यौ दिशो विदिशश्च भणितव्याः, शीतोदामुखवनं च भणितव्यं शीतोदाया Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दाक्षिणात्यमौत्तराहं च शीतोदाया औत्तराहे पार्श्वे इमे विजयाः, तद्यथा-वप्रः सुवप्रो महावप्रश्चतुर्थो वप्रकावती । वल्गुश्च सुवल्गुश्च गन्धिलो गन्धिलावती ||१|| राजधान्य इमा, तद्यथा - विजया वैजयन्ती जयन्ती अपराजिता । चक्रपुरी खड्गपुरी भवति अवध्या अयोध्या च ॥२॥ इमे वक्षस्काराः पर्वतस्य चन्द्रपर्वतः १, सूरपर्वतः २, नागपर्वतः ३, देवपर्वतः ४, इमा नयः शीतोदाया महानद्या दाक्षिणात्ये कूले- क्षीरोदा १ शीतस्रोता २ अन्तरवाहिन्यौ नद्यौ, ऊर्मिमालिनी १ फेनमालिनी २ गम्भीरमालिनी ३ औत्तराह विजयानामन्तरा इति, अत्र परिपाटयां द्वे द्वे कूटे विजयसदृशनामके भणितव्ये, इमे द्वे द्वे कूटे अवस्थिते, तद्यथा सिद्धायतनकूटं १ पर्वतसदृशनामकूटम् २ || सू० ३५ ॥ टीका- 'एवं पम्हे विजए' इत्यादि - छायागम्यम्, नवरम् 'अस्सपुरा' अश्वपुरी, मूले आवन्तत्वं त्वार्षत्वात्, एवमग्रेऽपि ' सीहपुरा' इत्यादौ बोध्यम्, इति शीतोदा महानद्या दाक्षिणात्यमुखनखण्डे विजयराजधानी वक्षस्कारपर्वत नदीनिरूपणम् । अथ महाविदेह ४१४ 'एवं पम्हे विजए अस्सपुरा रायहाणी अंकावई वक्खारपव्वए' इत्यादि टीकार्थ- इसी तरह पक्ष्म नाम का विजय है उसमें अश्वपुरी नामकी राजधानी है और अङ्कावती नाम का वक्षस्कार पर्वत है ( सुपम्हे विजए सीहपुरा रायहाणी खीरोदा महाणई) सुपक्ष्म नाम का विजय है, सीहपुरी नाम की राजधानी है क्षीरोदा नाम की इसमें महानदी है : ( महापम्हे विजए महापुरा रायहाणी पहावई वक्खारपव्वए) महापक्ष्म नामका विजय है इसमें महापुरी नाम की राजधानी है और पक्ष्मावती नाम का वक्षस्कार पर्वत है (पम्हगावई विजए विजयपुरा रायहाणी सीअसोआ महाणई) पक्षमावती नाम का विजय है, इसमें विजयपुरी नाम की राजधानी है शीतस्रोता नाम की महानदी है (संखे विजए अवराइया रायहाणी आसीविसे वक्खारपव्वए) शंख नाम का विजय है इसमें अपराजिता नाम की राजधानी है और आशीविषानाम का "एवं पम्हे विजए अत्सपुरा रायहाणी अंकावई वक्खारपव्वए' इत्यादि ટીકા – આ પ્રમાણે પદ્મ નામક વિજય છે. તેમાં અશ્વપુરી નામક રાજધાની છે. मने अावती नाम वक्षस्र पर्वत छे. 'सुपम्हे विजए सीहपुरा रायहाणी खीरोदा महाજ્જુ સુપમ નામક વિજય છે. સૌહપુરી નામક રાજધાની છે. ક્ષીરાદા નામક એમાં મહા नही छे. 'महापम्हे विजए महापुरा रायहाणी पम्हावई वक्खारपन्नए' महायक्ष्म नाम વિષય છે. એમાં મહાપુરી નામક રાજધાની છે અને પદ્માવતી નામક વક્ષસ્કાર પત छे. 'पम्हगावई विजए विजयपुरा रायहाणी सीअसोआ महाणई' पभावती नाम विश्य छे. शोभां विभ्यपुरी नाम राजधानी छे, शीतस्रोता नाभः भानही छे. 'संखे विज़ए अव राइया रायहाणी आसीविसे वक्खारपव्वए' शं नाभा विभ्य छे. शेभां अपराजिता नाम राज्धानी छे भने आशीविष नाम वक्षस्र पर्वत छे. 'कुमुदे विजए, अरजा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कार: सू. ३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्तर्वर्तिविजयदिनि० ४१५ स्य चतुर्थ विभाग शीताया औत्तराह मुखवनखण्डे विजयादीनिरूपयितुमाह - ' उत्तरिल्ले वि एवमेव भाणियच्चे' इत्यादि - औत्तराहे - उत्तरदिग्भवे अपि च शीदाया मुखवनखण्डे एवमेवउक्तप्रकारेणैव शीताया दाक्षिणात्यमुखवनखण्डव देव विजयादि भणितव्यं वक्तव्यम्, एतदेव: efigure - 'जहा सीयाए' इति यथा येन प्रकारेण शीताया महानद्या दाक्षिणात्यं मुखवनखण्डं भणितं तथैवौत्तराहवनखण्डमपि भणितव्यमित्यर्थः, तत्र विजयादी निर्दिशति - 'वप्पे विजए' इत्यादि सुगमम्, नवरम् 'उग्मिमालिणी' ऊर्मिमालिनी-ऊर्मीन्- तरङ्गान-मालते वक्षस्कार पर्वत हैं (कुमुदे विजए, अरजारायहाणी, अंतोवाहिणी महाणई) कुमुद नाम का विजय है इसमें अरजा नामकी राजधानी है और अन्तर्वाहिनी नाम की महानदी है (णलिणे विजए असोगा रायहाणी, सुहावहे वक्खार ए) नलिन नामका विजय है, इसमें अशोका नाम की राजधानी है और सुखावह नाम का वक्षस्कार पर्वत है ( णलिणावई विजए, वीयसोगा रायहाणी दाहिणिल्ले सीओआमुहवणसंडे) नलिनावती विजय है, इसमें वीतशोका नाम की सुरम्य राजधानी है और दक्षिण दिशा में रहा हुआ शीतोदा मुखवनपण्ड है ( उतरिल्लेवि एमेव भाणिअव्वे जहा सीआए) दाक्षिणात्य शीतामुखवन के कथन अनुसार ही उत्तर दिग्भावि शीतोदा मुखवनषण्ड में भी ऐसा ही कथन कर लेना चाहिये जिस तरह से शीता के दक्षिणदिग्वर्ती मुखवन में विजयादिकों का व्याख्यान किया गया है उसी तरह से शीता के उत्तरदिग्वर्ती मुखवन में भी विजयादिकों का कथन कर लेना चाहिये इसी बात को अब सूत्रकार स्पष्ट करते हैं (वप्पे विजए विजया रायहाणी, चंदे ararose) शीता महानदी के उत्तरदिग्वर्ती मुखवनखण्ड में वप्र नाम का विजय है विजया नाम की राजधानी है और चन्द्र नाम का वक्षस्कारपर्वत है रायहाणी अंतोवाहिणी महाणई' हुभु नाम विनय छे. सेमां भरत नभ४ राजधानी छे अने अन्तर्वाहिनी नाम भहानही छे. 'णलिणे विजय असोगा रायहाणी, सुहावहे वक्खारपव्वए' नविन नाभे विषय छे. शेभां अशोभनाभ४ राज्धानी हे मने सुभावड नाम वक्षस्५२ पर्यंत छे. ' णलिणावई विजए, वीयसोगा रायद्दाणी दाहिणिल्ले सीओआमुहवणસંઢે” નલિનાવતી વિજય છે એમાં વીતશેાકા નામક રાજધાની છે અને દક્ષિણ દિશામાં आवेस शोतेोहा वनखंड छे. 'उतरिल्ले वि एमेव भाणिअब्वे जहा सीआए' हाक्षिणात्य શીતા મુખવનના કથન પ્રમાણે જ ઉત્તર દિગ્બાવીશીàદા મુખ઼વનખંડમાં પણ એવુ જ કથન સમજી લેવું જોઇએ. જેમ સીતાદાના દક્ષિણ દિશ્વતી મુખવનમાં વિન્ત્યાદિકે વિષે નિરૂપણૢ કરવામાં આવેલું છે તેમજ શૈતાના ઉત્તરદિશ્વતી મુખવનમાં પણ વયાક્રિકાનું કથન કરી લેવુ જોઈએ. એજ વાતને હવે સૂત્રકાર સ્પષ્ટ કરે छे. 'वप्पे विजए विजया रायहाणी, चंदे वक्खारपव्यए' શીતા મહાનદીના ઉત્તર Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूरे धारयतीत्येवं शीला अत्र 'मल, मल्ल धारणे' इति भौवादिक मलधातो णिनि प्रत्यये नान्तलक्षणो ङीप्प्रत्ययः स्त्रियां बोध्यः, एवमग्रे फेनमालिनी गम्भीरमालिनीत्यमापि, तत्र गम्भीरमालिनीत्यस्य गम्भीरं-निम्नं जलं मालते इत्येवं शीलेत्यर्थः ‘एवं मंदस पब्वयस्स' इत्यादि-एवम्-उक्ताभिलापेन शीतोदा महानदीकृतविभाग मुगलान्तर्गत विजयादि निरूषणप्रकारेण मन्दरस्य पर्वतस्य 'पञ्चस्थिम' पाचात्य 'पास' पाच 'मामिया' भणितव्यंवक्तव्यम् 'तत्य' तत्र विजयादिषु 'ता' ताल्ल् इति वाव यालङ्कारे 'सीयोगाए णईए' (सुवप्पे विजए वेजयंती रायहाणी मोहिमालिगो नई) सुबमा नामका विजय है, वैजयन्ती नामकी राजधानी है और अनिमालिनी नाम की नदी है (महावप्पे विजए जयंति रायहाणी, सूरे वक्वारपवए) महावन लाम का विजय है जयन्ती नामकी राजधानी है और सूर नाम का वक्षस्कार पर्वत है (वप्पावई विजए, अपराया रायहाणी फेणमालिणी णई) चप्रावती नामका विजय है अपराजिता नाम की राजधानी है और फेनमालिनी नामका नदी है (बग्गू विजए चक्कपुरारायहाणी, णागे वक्खारपचए) बल्गू नाम का विजय है, चक्रपुरी नामकी राजधानी है और नाग नाम का वक्षस्कार पर्वत है (सुवग्गू विजए, खरगपुरा रायहाणी, गंभीरमालिणी अंतरणई) सुवल्गू नाम का विजय है, खड्गपुरी नामकी राजधानी है, और गंभीरमालिनी नामकी अन्तर नदी है (गंधिल्ले विजए, अवज्झा रायहाणी, देवे वक्खारपव्वए) गंधिल्ला नामका विजय है, अवध्या नामकी राजधानी है और देव नाम का वक्षस्कार पर्वत है (गंधिलावई विजए अओझा रायहाणी) ८ वां विजय गंधिलावती नाम का है और इसमें अयोध्या नाम की राजधानी है (एवं मंदरस्स पव्व. દિગ્યતા મુખવનખંડમાં વપ્ર નામક વિજય છે. વિજયા નામે રાજધાની છે. અને ચન્દ્ર नाम पक्ष४२ ५'त छ. 'सुवप्पे विजए वेजयंती रायहाणी ओम्मिमालिणी नई' सुवन નામક વિજય છે. વિજયન્તી નામે રાજધાની છે અને ઉમિમાલિની નામની નદી છે. 'महावप्पे विजए, जयंति रायहाणी, सूरे वक्खारपव्वए' महा नाम४ विन्य छ. श्यन्ती नाम४ सयानी छ भने सूर नाम पक्ष२ पर्वत छ. 'वप्पावई विजए, अपराइया रायहाणी फेणमालिणी गई' प्रावती नाम विन्यछे. अ५ird नाभे यानी छ भने निमा. जिनी नाम नही छे. 'वग्गू विजए चक्कपुरा, रोयहाणी णागे वक्खारपव्वए' पशु नामे विन्य छ, यधुरी नाम४ सयानी छ भने नानाभ ११४१२ ५त छे. 'सुवग्गू विजए, खग्गपुरा रायहाणी, गंभीरमालिणी अंतरणई' सुवन नामे विनय छे. मेमा ५३॥ धुरी नाम यानी छ भने बी२ मालिनी नाम अन्तर नही छे. 'गंधिल्ले विजए, अवज्झा रायहाणी, देवे वक्खारपव्वए' घिe नाम विन्य छे. सध्या नाम २१धानी छ अन, ४१ नामे पक्षा२ पति छ. 'गंधिल्लाबई विजए अओज्झा, रायहाणी' Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका-चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्ततिविजयदिनि०४१७ शीतोदाया नद्याः महानद्याः 'दक्खिणिल्ले' दाक्षिणात्ये-दक्षिण दिग्भवे ‘णं' खलु 'कूले' कूले तटे 'इमे' इमे अनुपदं वक्षमाणाः 'विजय' विजयाः चक्रवर्तिविजेतव्या विषयाः, तघथा-गाथया तान् विजयानाह'पम्हे' इत्यादि-छायागम्यम् । एवं राजधानी राह--'इमामो रायहाणीओ इमाः वक्ष्यमाणा राजधान्यः सन्ति 'तं जहा' तद्यथा-ता राजधानी थियाह'मास पुरा' इत्यादि-स्पष्टम् । वक्षस्कारपर्वतानाह-'इमे वक्खारा तं जहा अंके' इत्यादि अङ्क: अङ्कावती नामैकदेशे नामग्रहणात्, एवं 'पम्हे' पक्ष्मः-पक्ष्मावती 'आसीविसे' आशीविष: 'सुहावहे' सुखावह इति, अथ द्वात्रिंशतोऽपि विजयानां नामानि प्रदर्शयितुमाह-एवं इत्थ यस्स पच्चथिमिल्लं पासं भागियव्व तत्थ ताव सीओआए गईए दक्खिपिल्ले णं कूले इमे विजया) इस तरह से मन्दर पर्वत का पश्चिम दिग्वर्ती पार्श्वभाग कहलेना चाहिये, वहां पर शीतोदा महानदी के दक्षिण दिग्वर्ती कूल पर ये विजय है-(तं जहा) उनके नाम इस प्रकार हैं-(पम्हे, सुपम्हे, महापम्हे, चउत्थे पम्हगावई, संखे, कुमुए, णलिणे, अट्टमे णलिणावई) पक्ष्म सुपक्ष्म, महापक्षम, पक्ष्मकावती, शङ्ख, कुमुद, नलिन, नलिनापती (इमाओ रायहाणीओ तं जहा) ये वहां राजधानियां हैं जिनके नाम इस प्रकार से है (आसपुरा सीहपुरा, महापुराचेव, हवइ बिजयपुरा, अवराध्या य अरया असोग तहकीयसोगा य) अश्वपुरी, सिंहपुरी, महापुरी, विजयपुरी, अपराजिता अरजा अशोका और वीतशोका (इमे वक्खारा तं जहा) ये वहां वक्षस्कार पर्वत है जिनके नाम इस प्रकार से हैं-(अंके, पम्हे, आसीविसे, सुहायहे एवं इस्थ परिवाडीए दो दो विजया कडसरिसणामया भाणियव्वा, दिसाविदिसाओ अ भाणियव्याओ एवं सीआमुहदणं च भाणिअव्व) अङ्क-अङ्कायती पक्ष्माभाभी विन्य अघिमावती नामे छ. मेमा भयो। नामRAधानी छे. 'एवं मंदरस्स पव्वयस्स पञ्चत्थिमिल्लं पासं भाणियव्वं तत्थ ताव सीओआए णईए दक्खिणिल्ले णं कूले इमे विजया' 241 प्रमाणे भ२ पतन पश्चिम ती पाश्वमा विष ५ वर्णन समल લેવું જોઈએ ત્યાં શીદા મહાનદીના દક્ષિણ દિશ્વર્તી કૂલ પર એ વિજો આવેલા છે 'तं जहा' तमना नाम। 241 प्रमाणे छ-'पम्हे, सुपम्हे, महापम्हे, चउत्थे, पम्हगावई, संखे, कुमुए णलिणे, अट्ठमे णलिणावई' ५६म, सुपक्षभ, भा५६म, ५६मावती, शम, मुह, नलिन भने नलिनापती. 'इमाओ रायहाणीओ तं जहा मां २प्रमाणे राधानीमा छ तमना नाभी 20 प्रमाण छ-'आसपुरा, सीहपुरा, महापुरा चेव हवइ विजयपुरा, अवराइया अरया असोगतह वीयसोगाय' ५श्वरी, सिपुरी, महापुरी, विन्यपुरी, अ५२ilordi. A२०॥ भी, अन पीत४। 'इमे वक्खारा तं जहा' २॥ प्रमाणे त्या क्ष४२ पता मासा छ. तमना नाभा मा प्रभारी छ- 'अंके पम्हे, आसीविसे, सुहावहे एवं एत्थ परिवाडीए दो वो विजया कूडसरिसणामया भाणियन्त्रा, दिसाबिदिसाओ अ भाणियवाओ एवं सीआमुह म० ५३ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र परिवाडीए' इत्यादि एवम्-अनन्तरोक्त प्रकारेण अत्र अस्यां परिपाटया-महाविदेह विभाग चतुष्टयवर्ति विजयक्रमे 'दो दो विजया' द्वौ द्वौ विजयौ 'कूड सरिसणामगा' कूटसदृशनामको 'भाणियव्वा' भणितव्यौ स्वस्वविजयविभाजकवक्षस्कारपर्वत तृतीय चतुर्थकूट सदृशनामको वक्तव्यौ, तथाहि-चित्रकूटाभिधवक्षस्कारगिरौ कूट चतुष्टये कच्छकूटसुकच्छकूटे तृतीयचतुर्थे उक्ते तत्सदृशनामको कच्छसुकच्छौ विजयौ, एवमन्यत्र सर्वत्रोहनीयम् तथा 'दिसो विदिसाओ य भाणियव्वाओ' दिश:-पूर्वादयः, विदिशः दिग्द्वयोरन्तरालभागवता अमिकोणादयः, च अपि भणितव्याः वक्तव्याः, एवं दिग्विदिनियमो विधेयः, तथाहि कच्छो विजयः शीतामहानद्या उत्तरदिशि नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिण दिशि चित्रकूटस्य सरल. वक्षस्कारगिरेः पश्चिमदिशि माल्यवतो गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वतस्य पूर्वदिशि वर्तत इति, एवं सुकच्छादि विजयेष्वपि स्वस्वदिग्वर्तिवस्त्वनुसारेण तत्तद्दिशो नियमनीया, एवं 'सीयो. वती आशीविष एवं सुखावह इस परिपाटीरूप इस तरह विभाग चतुष्टयवर्ती विस्तारक्रम में कूट के समान नाम वाले दो दो विजय कह लेना चाहिये तथा दिशाएं और विदिशाएं भी इनके होने के सम्बन्ध में अर्थात चित्रकूट नामका वक्षस्कार गिरि के ऊपर चार कूट कहे गये हैं उनमें कच्छकूट और सुकच्छकूट ये तृतीय और चतुर्थ स्थान पर कहे गये हैं और इन्हीं के नाम जैसे कच्छ विजय और सुकच्छ विजय कहे गये हैं इसी प्रकार से इसे अन्यत्र जान लेना चाहिए । अर्थात् ये किस किस दिशा में किस २ विदिशा में हैं इस प्रश्न के उत्तर में ये अमुक २ दिशा में अमुक २ विदिशा में है इस प्रकार से दिशाओं को और विदिशाओं को भी कहलेना चाहिये । जैसे कच्छविजय शीता महानदी की उत्तर दिशा में नीलवन्त पर्वत की दक्षिण दिशा में सरल वक्षस्कार गिरिरूप चित्रकूट की पश्चिम दिशा में एवं गजदन्ताकार रूप भाल्यवन्त वक्ष कार वणं च भाणिअव्वं' ५४, आती, ५६भाती, भावि५ मन सुभाष या परिपाटी રૂપ એટલે કે આ પ્રમાણે વિભાગ ચતુટયવતી વિસતાર ક્રમમાં કૂટ જેવા નામવાળા બબે વિજય ભાવેલા છે, તેમજ દિશાઓ અને વિદિશાઓના સંબંધમાં અર્થાત્ ચિત્ર કૂટ નામક વક્ષસ્કાર ગિરિની ઉપર ચાર કૂટો આવેલા છે. તેમાં કચ્છકૂટ અને સુચ્છકૂટ એ કુટે ત્રીજા અને ચોથા સ્થાન ઉપર આવેલા છે. અને એમના નામ જેવા જ કચ્છવિજય અને સુકચ્છવિજય આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ સંબંધમાં અન્યત્રથી પણ જાણી શકાય છે. એટલે કે એ કઈ કઈ દિશામાં અને કઈ કઈ વિદિશાઓમાં આવેલા છે? એ પ્રશ્નના જવાબમાં એ અમુક-અમુક દિશાઓમાં અમુક-અમુક વિદિશામાં આવેલા છે. આ પ્રમાણે દિશાઓ અને વિદિશાઓ વિશે પણ જાણી લેવું જોઈએ. જેમ કચ્છ વિજય શીતા મહામદીની ઉત્તર દિશામાં, નીલવન્ત પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, સરલવક્ષસકાર ગિરિરૂપ ચિત્રકૂટની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ ગજદંતાકાર રૂપ માલ્યવંત વક્ષસ્કાર પર્વતની પૂર્વ દિશામાં છે. આ પ્રમા Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका -तुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्तर्वर्तिविजयादिनि० ४१९ यामुहवणं च ' शीतोदामुखवनं च 'भाणियन्त्र' भाणितव्यं वाच्यम् तद्विभागतो दर्शयितुमाह'सीयोयाए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च' इति शीतोदाया: महानद्या दाक्षिणात्यं दक्षिणदिग्भवम् औत्तरिकम् उत्तरदिग्भवं च शीतोदामुखवनं भणितव्यमिति पूर्वेण सम्बन्धः । अथ चतुर्थ विभागगत विजयादीन् सङ्ग्रहीतुमाह - 'सीयोयाए' शीतोदाया महानद्याः 'उत्तरिल्ले' औत्तराई- उत्तरदिग्भवे 'पासे' पार्श्वे 'इमे' इमे अनुपदं वक्ष्यमाणाः विजयादयः, सन्तीति शेषः तत्र विजयान् गाथयाऽऽह - ' तं जहा ' इत्यादि - तद्यथा 'वप्पे सुवप्पे महावपे' इत्यादि गाथा - छायागम्या, नवरं 'वप्पगावई' कावती वावती विजयः ॥ १ ॥ विजयादि राजधानी: सङ्ग्रहीतुमाह - 'रायहणीओ इमाओ' राजधान्यः इमाः अनुपदं वक्ष्यमाणाः सन्तीति शेषः 'तं जहा ' तद्यथा 'विजया' इत्यादि छायागम्यम् । वक्षस्कारगिरीन् सग्रहीतुमाह'इमे वक्खारा' अनुपदं वक्ष्यमाणाः वक्षस्काराः वक्षस्कारपर्वताः सन्ति 'तं जहा ' तद्यथापर्वत की पूर्वदिशा में है इसी प्रकार से सुकच्छादि विजयों में भी अपने दिग्वर्ती वस्तु के अनुसार उन २ दिशाओं को नियमित कर लेना चाहिये । तथा इसी प्रकार से शीतोदा महानदी का दक्षिण दिग्वर्ती और उत्तर दिग्वर्ती मुखवन भी कहलेना चाहिये (सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया - तं जहा ) इस शीतोदा महानदी के उत्तर दिग्वर्ती पार्श्व भाग में ये विजय हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं - (बप्पे, सुवप्पे, महावप्पे, चाउथे, वप्पगावई वग्गू सुवग्गूय गंधिले गंधिलावई ॥१॥ वप्र, सुवप्र, महावप्र, वप्रकावती, वल्गू सुवल्गू, गन्धिल और गन्धिलावती (रायहाणीओ इमाओ तं जहा) ये राजधानियाँ हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं - (विजया, वेजयंती, जयंती अपराजिता, चक्कपुरा, खरगपुरा, हदइ, अवज्झाय || २ || विजया वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता चक्कपुरी, खड्गपुरी, अवन्ध्या और अयोध्या (इमे वक्खारा - तं जहा(चंद पव्वए, सूरपञ्चए, नागपच्चए, इमाओ ईओ-सीओदाए महाणईए दाहिગ્રેજ સુકચ્છાદિ વિન્ત્યામાં પણ તત્ તત્ દ્વિગ્નતી વસ્તુ મુજખ તત્ તત્ દિશાઓને નિયમિત કરી લેવી જોઇ એ. તેમજ આ પ્રમાણે જ શીતેાદા મહાનદીનું દક્ષિણ દિશ્વતી અને ઉત્તર દિગ્દતિ મુખવન વિષે पडी सेवु लेहये. 'सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया-तं जहा' मा शीतोही भहानहीना ઉત્તર દિગ્વતી પાર્શ્વ ભાગમાં એ વિજયા આવેલા છે. વિયેના નામે આ પ્રમાણે છે'वप्पे, सुवप्पे, महावप्पे, चउत्थे, वप्पगवई, त्रम्गूय, सुवग्गूय, गंधिले, गंधिलावई ॥ १ ॥ ' पत्र, सुवय, भडाव, वप्रावती, वढ्गू, सुवदगू, गन्धित भने गन्धिलावती. 'रायहाणीओ इमोओ तं जहा' राज्धानीओ। अने तेभना नाम या प्रमाणे छे - विजया, वैजयंती, जयंती, अपराजिया चक्कपुरा, खरगपुरा, हव अवज्झाय ॥ २ ॥ विल्या, वैभ्यन्ती भयन्ती, अयशनिता, यहूपुरी, अड्गपुरी, अवन्ध्या भने अयोध्या, 'इमे बक्खारा - तं जहा Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ U. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'चंदपव्वए' इत्यादि छायागम्यम्, अधुना प्रागनुक्ता अपि पाश्चात्यविभागद्वयान्तरनदी: सङ्ग्रहीतुमाह-'इमाओ गईओ सीयोयाए' इत्यादि-इमाः अनुपदं वक्ष्यमाणाः नद्यः सीतोदायाः 'महाणईए' महानद्याः 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्ये 'कूले' फूले तटे सन्ति 'खीरोया' क्षीरोदा 'सीयसोया' शीतस्रोताः शीतं शीतलं स्रोतः अम्बुसरणं यस्याः सा शीतस्रोता: इमे द्वे 'अंतरवाहिणोओ' अन्तरवाहिन्यो ‘णईओ' नद्यौ स्तः, अथ शीतोदाया औत्तराहतटवर्तिनां वप्रसुवप्रमहावप्रवप्रावतीप्रभृति विजयानामन्तरनदीं सङ्ग्रहीतुपाह-'उम्मिमालिणी १, ऊर्मिमालिनी १ 'फेणमालिणी २, फेनमालिनी २ 'गंभीरमालिणी ३, गम्भीरमालिनी ३ इमास्तिस्रः 'उत्तरिल्ल विजया णंतराउ त्ति' औत्तराह विजयानाम् अन्तराः अन्तरपिल्ले कूले खीरोआ, सीहसोआ, अंतरवाहिणीओ गईओ) ये वक्षस्कार पर्वत हैं नाम उनके इस प्रकार से हैं-चन्द्र पर्वत सूर्य पर्वत एवं नाग पर्वत ये नदियां हैं जो सीतोदा महानदी के दक्षिण दिग्वर्ती कूल पर हैं-एक क्षीरोदा और दूसरी शीतस्रोता ये दोनों अन्तर नदियां है । अब शीतोदा महानदी के उत्तर दिग्वर्ती तट पर रहे हुए वप्र सुवन महावप्र, एवं वप्रावती विजयों की जो अन्तर नदियां हैं उनका नाम ऐसा है, (उम्निमालिनी फेणमालिणी गंभीरमालिणी उत्तरिल्ल विजयाणन्तरा उत्ति) उर्मिमालिनी फेनमालिनी गंभीरमालिनी इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि वप्रविजय में विजया राजधानी है और चन्द्र नाम का वक्षस्कार पर्वत है सुवप्रा नाम के विजय में वैजयन्ती नामकी राजधानी है और उमिमालिनी नामकी नदी है महावप्रविजय में जयन्ती नामकी राजधानी है सूर नामका वक्षस्कार पर्वत है वप्रावती विजय में अपराजिता नाम की राजधानी है और फेनमालिनी नामकी नदी है वल्गूविजय में चक्रपुरी राज चंदपव्वए सूरपवए, नागपत्रए, इमाओ गई ओ-सीओए महाणईए दाहिणिल्ले कूले खीगे आ सीहसोआ, अंतरगहिणीओ गईओ' मे पक्ष३४२ ५। छे. तेमना नाभ। २प्रभारी છે–ચન્દ્ર પર્વત, સૂર્ય પર્વત અને નાગ પર્વત. આ નદીઓ છે-કે જેઓ સીતેદા મહા નદીના દક્ષિણ દિગ્દતી કૂલ ઉપર છે–એક ક્ષીરદા અને બીજી શીતસ્રોતા. એ બને અન્તર નદીઓ છે. હવે સદા રહાનદીની ઉત્તર દિગ્ગત તટ પર આવેલા વમ, સુવપ્ર, મહા१५ तभ पावती विन्योनी तक नहीया छ-मनामी मतावामां भाव छे. उभिमालिणी, फेणमालिणी, गंभीरमालिणी, उत्तरिल्लविजयाणन्तराउत्ति' मासिनी, इन માલિની, ગંભીર માલિની. આ કથનને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે પ્રવિજયમાં વિજ્યા રાજધાની છે અને ચન્દ્ર નામક, વક્ષસ્કાર પર્વત છે. સુવપ્ર નામક વિજયમાં વૈજયન્તી નામક રાજધાની છે અને ઉમિમાલિની નામક નદી છે. મહાવપ્ર વિજયમાં જયન્તી નામક રાજધાની છે સૂર નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે. વમવતી વિજયમાં અપરાજિતા નામક રાજધાની છે અને ફેનમાલિની નામક નદી છે. વલ્થ વિજયમાં ચક્રપુરી રાજધાની છે અને નાગ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू.३५ महाविदेहस्य तृतीयविभागान्तर्वतिविजयदिनि० ४२१ नद्यः सन्ति अत्रोत्तरपदलोपो बोध्यः, तत्रोत्तरपदलोपविधायकं वार्तिकम्-'विनाऽपि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयो वा लोपो वाच्यः' इति, यथा-भीमः, भीमसेनः, सत्या, सत्यभामा, पावः, पार्श्वनाथः, इत्यादि । यत्तु पूर्वविभागे विजयादयः प्राच्यविभागद्वये चान्तरनधो न सङ्ग्रहीताः, तत्र सूत्रकृतां प्रवृत्तिवैचित्र्यमेव बीजं व्यवच्छिन्नसूत्रत्वं वेति बोध्यम् , अत्र सरलवक्षस्कारकूटेषु नामानयनप्रकारमा ह-'इत्थ परिवाडीए' इत्यादि-अत्र अस्यां परिपाटया-वक्षस्कारपर्वतानुक्रमे 'दो दो कूडा' द्वौ द्वौ कूटौ 'विजयसरिसणामगा' विजयसदृशधानी है और नाग नाम का वक्षस्कार पर्वत है सुवल्गू विजय में खङ्गपुरी नामकी राजधानी है और गंभीरमालिनी नामकी अन्तर नदी है गन्धिल विजय में अवध्या नामकी राजधानी है और देव नामका वक्षस्कार पर्वत है गन्धिलावती विजय में अयोध्या नामकी राजधानी हैं। इस तरह शीतोदा नदी के द्वारा कृत विभागद्वय में वर्तमान विजयादिकों के निरूपण से मन्दर पर्वत का पाश्चात्य पार्श्व भणितव्य कहा गया हो जाता है ऐसा यह सब कथन ऊपर से स्पष्ट कर दिया गया है। इस तरह ये उर्मिमालिनी आदि जो तीन नदियां हैं ये शीतोदा नदी के उत्तर दिग्वी तट पर रहे हुए, वप्र सुवप्र आदि विजयों की अन्तर नदियां हैं । “अंतराउत्ति" में जो नदी शब्द का प्रयोग नहीं किया है वह 'विनाऽपिप्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयो लोपो वाच्यः' इस वार्तिक के अनुसार लुप्त हो गया है तथा पूर्व विभाग में विजयादिकों का और प्राच्य विभाग द्वय में अन्तर नदियों का जो संग्रह नहीं किया गया है वह सूत्रकारों की प्रवृत्ति की विचित्रता का द्योतक है। अथवा इनका संग्रह कारक सूत्र व्यवच्छिन्न हो गया है ऐसा जानना चाहिये (इत्थ परिवाडीए दो दो कूडा विजयसरिसणामगा નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે. સુગૂ વિજયમાં ખપુરી નામક રાજધાની છે અને ગંભીર માલિની નામક અન્તર નદી છે. ગલ્પિલ વિજયમાં અવધુ. નામક રાજધાની છે અને દેવ નામક વક્ષસ્કાર પર્વત છે. ગધિલાવતી વિજયમાં અધ્યા નામક રાજધાની છે. આ પ્રમાણે શીતેદા નદી વડે વિભક્ત બે ભાગમાં વર્તમાન વિજ્યાદિકના નિરૂપણથી મન્દર પર્વતને પાશ્ચાત્ય પાર્શ્વભાગ કાનીય છે એવું સ્પષ્ટ થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આ બધુ કથન પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે. આમ એ ઉર્મિમાલિની વગેરે જે ત્રણ નદીઓ છે તે શીતેદા નદીના ઉત્તર દિગ્યતા તટ ઉપર આવેલા વમ, સુવપ્ર, વગેરે વિજયેની અખ્તર नही छे 'अंतराउत्ति' भा २ 'नदी' ने प्राय ४२वामा माया नया 'विनाऽपि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोलोपो वाच्यः २मा पाति भु सुस २७ गयो छे. तेभ पूर्व विभा. ગમાં વિજયાદિકને અને પ્રામ્ય વિભાગમાં દ્રયમાં અન્તર નદી બને જે સંગ્રહ કરવામાં આવ્યું નથી તે સૂત્રકારની વિચિત્ર પ્રવૃત્તિને લક્ષિત કરે છે. અથવા એમના સંગ્રહથી सम्म सूत्र व्यवछिन्न थ आयु छ, सेल सेवु नये. 'इत्थ परिवाडीए, दो दो कूडा विजयसरिसणामगा भाणियवा' ५२२४ानी मानुषी भां मध्ये झूटो पात-पोताना Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र नामके 'भाणियावा' भणितव्यौ वक्तव्यौः, अयमाशयः-प्रतिवक्षस्कारं चत्वारि चवारि कूटानि सन्ति तत्रादिमे द्वे नियते एव, तथा सूत्रकारः स्वयं वक्ष्यति, तृतीयचतुर्थे चानियते, तत्र यो यो वक्षस्कारपर्वतो यौ यो विजयो विभजते, तत्र विजयमानविजयमध्ये यो यः पाश्चात्ये विजयस्तद्विजयसदृशनामकं तृतीयं कूटं तस्मिन्वक्षस्कारगिरौ बोध्यम, यो यश्च पूर्वी विजयस्तद्विजयसदृशनामकं चतुर्थ कुटं तत्र ज्ञेयम्, 'इमे दो दो कूडा अवटिया' इमे द्वे द्वे कूटे अवस्थिते नियते 'तं जहा' तद्यथा-'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूटम् १, अपरं च 'पवयसरिसणामकूडे' पर्वतसदृशनामकूटम्-वक्षस्कारपर्वतसदृशनामक.कूटम् २, कस्मिन्नपि वक्षस्कारपर्वते इमे द्वे कूटे स्वनामाक्षरपरिवर्तनं न प्राप्नुत इदि हेतो स्वस्थिते यथावद्वयवस्थिते एव तिष्ठतः, नगु द्वयोः कूटयोर्मध्ये सिद्धायतनकूटस्यावस्थितत्वं समीचीनं परन्तु पर्वतसदृशनाभाणियव्या) बक्षस्कारों की आनुपूर्वी में दो दो कूट अपने २ विजय के जैसे नाम वाले कह लेना चाहिये तात्पर्य इस कथन का ऐसा है की-हर एक वक्षस्कार में चार २ कूट होते हैं इनमें आदि के दो कूट तो नियत रूप से हैं और तृतीय चतुर्थ कूट अनियत (अनिश्चित) है इस बात को सूत्रकार स्वयं कहने वाले हैं। इनमें जो जो वक्षस्कार पर्वत जिन दो कूटों को विभक्त करता है उस विभज्यमान पर्वत के जो जो पाश्चात्य विजय है उसके जैसे नाम वाला उस वक्षस्कार पर्वत पर तृतीय कूट है और जो अग्रिम विजय है उसके जैसे नामवाला चतुर्थ कूट है इस तरह से तृतीय और चतुर्थ कूट में अनियतता प्रकट की गई है और जो प्रथम एवं द्वितीय क्रूट में नियतता प्रकट की गई है उसका तात्पर्य ऐसा है कि सिद्धायतन कूट और दूसरा पर्वत के नाम वाला कूट इनका नाम नहीं बदलने से ये दो कूट अवस्थित हैं यदि यहां पर ऐसी आशंका की जावे कि सिद्धायतन कर तो अवस्थित जो कहा गया है वह तो नाम नहीं बदलने से अवस्थित माना વિજયના જેવા નામવાળા જાણું લેવા જોઈએ. આ કથનને ભાવાર્થ એ થાય છે કે દરેકે દરેક વક્ષસ્કારમાં ચાર કૂટો છે એમાં પ્રારંભના બે ફૂટો તે નિયત અને તૃતીયચતુર્થ કટ અનિયત છે. એ વાતને સૂત્રકાર પોતે કહેશે એમાં જે-જે વક્ષસ્કાર પર્વત જે બે ફટેને વિભક્ત કરે છે, તે વિભાજયમાન પર્વતના મધ્યમાં જે-જે પાશ્ચાત્ય વિજયે છે તેના જેવા નામવાળા તે વક્ષસ્કાર પર્વત ઉપર તૃતીય કૂટ છે અને જે અગ્રિમ વિજય છે તેના જેવા નામવાળા ચતુર્થ કૂટ છે. આ પ્રમાણે તૃતીય અને ચતુર્થ કૂટમાં અનિયતતા પ્રન્ટ કરવામાં આવી છે અને પ્રથમ અને દ્વિતીય કૂટમાં નિયતા પ્રકટ કરવામાં આવી છે. તેને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે સિદ્ધાયતન ફૂટ અને બીજે પર્વત જેવા નામ વાળ કૂટ એ બન્નેના નામે નહિ બદલાવાથી એ બને ફૂટ અવસ્થિત છે. જે અહીં એવી આશંકા કરવામાં આવે કે સિદ્ધાયતન ફૂટ તે અવસિથત કહેવામાં આવેલ છે, તે તે નામ નહિ બદલવાથી અવસ્થિત કહી શકાય તેમ છે પણ દ્વિતીય ફૂટ જેવું તેના પર્વતનું નામ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मैरुपर्वतस्य वर्णनम् ४२३ मकस्य कूटस्य तत्तद्वक्षस्कारनामानुसारिनामकत्वेन कथमवस्थितत्वमिति चेद् ? अत्रोच्यतेपर्वतसदृशनामकत्वलक्षणधर्मस्य सफलवक्षस्कार द्वितीयकूटेषु समनुगतत्वाद् व्यभिचारिणा तेन धर्मेणावस्थितत्वं पर्वतसदृशनामककूटस्यापि युक्तमेव, न चैवं विजयसदृशनामकत्वरूप. धर्मेण कच्छसुकच्छयोरिव तदन्ययोरपि कूटयोरवस्थितत्वं प्रसज्जेदुक्तधर्मस्य कच्छसुक च्छातिरिक्तेषु सर्वेष्वपि तत्तद्वक्षस्कारत्तीयचतुर्थकूटेषु समनुगतत्वेनाव्यभिचरितत्वादिति पाच्यम्, विजयसदृशनामकत्वधर्मस्य तत्तद्वक्षस्कारसदृशनामकयो द्वयोः कूटयोवृत्तित्वेन तेन तयोरेकतरस्य निर्णयाभावेन नामव्यवहारस्य सपदि तुमशक्यत्वादिति । सू० ३५॥ ..अधुना महाविदेहवर्षस्य पूर्वपश्चिमविभाजकं मेरुं 'मंदरं' वर्णयितुमुपक्रमते-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे २ इत्यादि ! मूलम्-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे णाम पव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! उत्तरकुराए दक्षिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुवविदेहस्स वासस्स पञ्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरथिमेणं जंबुद्दीवस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरे णामं पठाए पण्णत्ते, णवणउइजोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं एग जोयणसहस्सं उठवेहेणं मुले दसजोयणसहस्साई णवई च जोयणाई सय एगारसभाए जोयणस्स विक्खंभेणं, धरणियले दस जोयणसहस्साई विखंभेणं तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिहापमाणे परिहायमाणे उवरितले जा सकता है परन्तु द्वितीय कूट जैसा उसके पर्वत का नाम होगा पैसा उसका नाम हो जाने से अवस्थित नाम वाला कैसे हो सकता है ? तो इसका समाधान ऐसा है की यहां जो अवस्थित नामता कही गई है वह कूटों के नाम के सदृश नाम को लेकर ही कही गई है अतः जितने भी कूट होंगे और उनमें जो नामता होगी वही द्वितीय कूट का नाम होगा ऐसी नामता तृतीय चतुर्थ कुट में नियमित नहीं है। इसी हृद्य को लेकर सूत्रकार ने (इमे दो दो कूडा अवटिया सिद्धाययणकूडे पव्वयसरिसणामकूडे) यह सूत्र कहा है ॥३५॥ હશે તેવું તેનું નામ થઈ જવાથી અવસ્થિત નામવાળો કેવી રીતે થઈ શકશે ? તે આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે કે અહીં જે અવસ્થિત નામતા કહેવામાં આવેલી છે, તે કુટેના નામ સદશ નામને અનુલક્ષીને જ કહેવામાં આવેલી છે. એથી જેટલા કૂટ હશે અને તેમાં જે નામતા થશે તેજ દ્વિતીય ફૂટનું નામ હશે. એવી નામના તૃતીયयतुर्थ टूटमा नियमित नथी. से। आशयन सधन सू।४।२ 'इमे दो दो कूडा अवदिया सिद्धाययणकूडे पव्वयसरिसणामकूडे' २३॥ सूत्र ४खु छे. ॥ ३५ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसमे एगं जोयणसहस्सं विवखंभेणं मूले एकतीसं जोयणसहस्साइं णव य दसुत्तरे जोयणसए तिष्णि य एगारसभाए जोयणस्स परिवखेवेणं धरणिअले एकतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसए परिवखेवेणं उवरितले तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावÇ जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिवखेत्रेणं मूले विस्थिपणे मज्झे संखिते उवरिं तजुए गोपुच्छसंटाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हेति । से णं एगाए परवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते वणओन्ति, मंदरेण भंते ! पव्वए कइ वणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा - भद्दसालवणे १ दणवणे२ सोमणसवणे३ एंडगवणे४, कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे वण्णते ?, गोयमा ! धरणिअले एत्थ णं मंदरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे पण्णत्ते पाहणपडीणायए उदीणदाहिणवित्थिष्णे सोमणस विज्जुप्पहगंधमा मालवं हि वक्खारपव्वएहिं सीयासीयोयाहिं य महाणई हिं अनुभागपविभत्ते संदरस्स पव्त्रयस्स पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं बावीस बावीसं जोयणसहस्सा आयामेणं उत्तरदाहिणेणं अद्धा इजाई अद्धा इज्जाई जोयणसचाई विक्खंभेणंति, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते दुहत्रि वण्णओ भाणियव्त्रो, किहो किण्होभासो जाव देवा आसयंति सयंति, मंदरस्य णं पव्वयस्स पुरस्थिमेणं मद्दसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते पण्णासं जोयणाई आयामेणं पणवीसंजोयणाई विक्खंभेणं छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविट्टे वण्णओ, तस्त णं सिद्धाययणस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता, ते णं द्वारा अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयगाइं विक्खंभेणं तावइयं चेत्र पत्रेसेणं सेया वरकणगथ्रुभियागा जाव वणमालाओ भूमिभागो य भाणियच्वो, तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ठ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयगाई वाहल्लेणं सव्वरयणामई अच्छा, तीसे णं मणिपेढियाए उवरि देवच्छंदए अजोयणाई आयाम विक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ट जोयगाई उद्धं उच्चत्तेणं जाव जिणपडिमा वण्णओ देवच्छंदगस्स जाव धूमकडुच्छआणं इति । मंदरस्त णं पबयस्त दाहिणणं भहसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसि पि मंदरस्स भइसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणियठवा, मंदरस्त णं पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं भदसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि गंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पउमा १ पउमप्पभा २ चेत्र कुमुदा३ कुमुदप्यभार, ताओणं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं वण्णओ वेइयावणसंडाणं भाणियव्यो, चउदिसिं तोरणा जाव तासिणं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्थणं महं एगे ईलाणस्स देविंदस्स देवरणो पासायवडिंसए पण्णत्ते पंच जोयणसया इं उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइज्जाइं जोयणसयाई क्विखंभेणं, अब्भुग्गयमूसि य एवं सपरिवारो पासायडिंसओ भोणियो, संदरस्स गं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं पुक्खरिणीओ उप्पलगुम्मा लिणा उप्पला उपलजला तं चेत्र पमाणं मज्झे पासायडिसओ सकस्स सपरिवारो ते णं चेत्र पाणेणं दाहिणपञ्चस्थिमेण वि पुक्खरिणीओ भिंगा भिंगणिभाव, अंजणा अंजणप्पा पासायवडिंसओ सकस्त सीहासणं सपरिवारं उत्तरपञ्चस्थिमेणं पुक्खरिणीओ सिरिकता? सिरिचंदार सिरिमहिया३ चे सिरिणिलथा४। पासायडिंसओ ईसाणस्त सीहासगं सपरिवारंति । अंदरेणं भंते ! पवए भदसालवणे कइ दिसाहन्थिकूडा पाणता?, गोयमा ! अटु दिसाहस्थिकूडा पण्णत्ता, तं जहा-पउमुत्तरे। णीलवंते२ सुहत्थी३ अंजणगिरि४। कुमुदे य ५ पलासे य६ वडिसे७ रोयणागिरी८॥१ कहि णं भंते ! मंदरे पाए भदसालवणे पउमुत्तरे गाभं दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते', गोयमा ! मंदर स्स पत्रयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं पुरस्थिमिल्लाए सीयाए उत्तरेणं एत्थ णं Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जम्बूद्धीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पउमुत्तरे णाम दिसाहन्थिकूडे पण्गत्ते पंचजोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पंचगाउयसयाई उठवेहेणं एवं विखंभपरिक्खेवो भाणियको चुल्लहिमवंतसरिसो, पासायाण य तं चेव पउमुत्तरो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं१ । एवं णीलवंतदिसाहथिकूडे संदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं पुरस्थिमिल्लाए सीयाए दक्खिणेणं एयस्त विणीलवंतो देवो रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेग२, एवं सुहस्थिदिसाहथिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरस्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीयोयाए पुरथिमेणं एयस्स वि सुहत्थी देवो रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं३, एवं चेव अंजणगिरिदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहि. णपञ्चस्थिमणं दक्विणिल्लाए सोयोयाए पञ्चन्थिमेणं, एयस्त वि अंज गिरिदेवो रायहाणी दाहिण पच्चत्थिमेणं, एवं कुमुदे वि दिसाहथिकूडे भंदग्स्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं पञ्चथिमिल्लाए सीयोयाए ददिखणेणं एयस्स वि कुमुदो देशो रायहाणी दाहिणपञ्चस्थिमेणं५, एवं पलासेविदिसाहत्यिकूडे मंदरस्स उत्तरपञ्चस्थिमेणं पञ्चस्थिमिल्लाए सीयोयाए उत्तरेणं एयरल हि पलासो देओ रायहागी उत्तर पञ्चस्थिमेणंद, एवं वडेंसे विदिसाहथिकूडे मंदरस्स उत्तरपुरस्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीयाए महाणईए पचत्थिमे एयरस वि वडेंसो देवो रायहाणी उत्तर पञ्चस्थिमेणं, एवं रोषणागिरिदिसाहथिकूडे अंदरस्स उत्तरपुरस्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीयाए पुरस्थिमेणं एयस्स वि रोयणागिरि देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं ॥सू० ३६॥ ___ छाया-चव खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्ष मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! उत्तरकुरूणां दक्षिणेन देवकुरूणामुत्तरेणं पूर्वविदेहस्य वर्षस्य पश्चिमेन अपरविदेहस्य वर्षस्य पौरस्त्येन जम्बूद्वीपर बहुमध्यदेश मागे अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, नवनवति थोजन सहस्त्राणि ऊर्ध्वरत्वेन एकं योजनसहस्रमुद्वेधेन मूले दशयोजनसहस्राणि नवति च योजनानि दश च एकादशभागान् योजनस्य विष्कम्भेण, धरणितले दशयोजनसहस्राणि विष्कम्भेग तदनन्तरं च खलु मात्रया मात्रया परिहीयमानः परिहीय. मानः उपरितले एकं योजनसहस्रं विष्कम्भेण मूले एकत्रिशतं योजनसहस्राणि नव च यशो Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारःसू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् ताणि योजनशतानि त्रीश्च एकादशभागान योजनस्य पारेक्षेपेण धरणितले एकत्रिंशतं योजनमत्राणि पर च त्रयोविंशा ने यो ननशतानि परिक्षेपेण उपरिनुले त्रीणि योजनसह. स्राणि एकं च द्वाषष्ठं योजनशतं किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण मूले विस्तीर्णः मध्ये संक्षिप्तः उपरि तनुकः गोपुच्छ संस्थानसंस्थितः सर्व रत्नमयः अमा: श्लक्षण इति । स खलु एकया पदमवरवेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, वर्णक इति, __ मन्दरे खलु भदन्त ! पर्वते कति वनानि प्रज्ञप्तानि !, गौतम! चत्वारि वनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भद्रशा (सा) लवनं १ नन्दनवनं २ सौमनसवनं ३ पण्ड कवनम् ४ का खलु भदन्त ! मन्दरपर्वते भद्रशालवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! धरणितले अत्र खलु मन्दरे पर्वते भद्रशालयनं नाम वनं प्रज्ञानं प्राचीनप्रतीचीनायतम् उदीण दक्षिण विस्तीर्ण सौमनसविधुत्प्रम गन्धमादनाल्यवद्भि वक्षस्कारपर्वतः शीताशीतोदाभ्यां च महानदीभ्याम् अष्टभागप्रविभक्तं मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यपश्चिमेन द्वाविंशति द्वाविशति योजनसहस्राणि आयामेन उत्तरदक्षिणेन अर्द्धतृतीयानि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेणेति, तत् खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षप्तं द्वयोरपि वर्णको भवणितव्यः कृष्णः कृष्णाय नासः याद् देशा भासते शेरते, मन्दरस्प खलु पर्वतस्प पौरस येन भद्रशालवनं पञ्चशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु महदेकं सिदायतनं प्रज्ञप्तं पञ्चाशतं योजनानि आयामेन पञ्चविंशति योजनानि विष्का भेण पत्रिंशतं योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टं वर्णकः, तस्य खलु सिद्धायतनस्य त्रिदिशि त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञतानि, तानि खलु द्वाराणि अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण तावदेव च प्रवेशेन श्वेताः वरकन कस्तूपिकाकाः यावद् वनमाला: भूमिभागश्च भणितव्यः, तस्य खलु बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महत्येकामगिपीठका प्रज्ञप्ता अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बाइल्येन सर्वरत्नमयी अच्छा, तस्याः खलु मणिपीठिकाया उपरि देव. छन्दकोऽष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण सातिरेकाणि अष्टयोजनानि अर्ध्वमुच्चत्वेन यावत् जिनप्रतिमावर्णकः देवच्छन्दकस्य यावद् धृपाडुच्छुकाणामिति । मन्दरस्य खलु पर्व. तस्य दक्षिणेन भद्रशालयनं पञ्च शतं (योजनानि) एवं चतुर्दिश्यपि मन्दरस्य भद्रशालपने चत्वारि सिद्धायतनानि भणितव्यानि मन्दरस्य खलु पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन भद्रशालवनं पञ्चाशतं योजनानि आमाह्य अत्र बलु चतस्रो नन्द पुकरियः प्रज्ञप्ताः तयया-पद्मा १ पद्मप्रभा २ चेव कुमदा ३ कुमयमा ४, ताः खलु पुष्करिण्यः पञ्चशतं योजनानि आयामेन पञ्चविंशति योजनानि विष्कम्भेण दशयोजनानि उद्वेधेन वर्ण : वेदिका वनषण्डयो भणितव्यः, चतुर्दिशि तोरणाः यावत् तासां खलु पुष्करिणीनां बहुमध्यदेश भागे अत्र खलु महानेक ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य प्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः पञ्चयोजनशतानि ऊर्ध्वरत्वेन अतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण, अभ्युद्गत रिछत० एवं सपरिवा प्रासादावतं को भणि तव्यः, मन्दरस्य खलु एवं दक्षिणपौरस्त्येन पुष्करिण्यः उत्पगुल्मा Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे १ नलिना २ उत्पला ३ उत्पलोज्ज्वला ४ तदेव प्रमाणं मध्ये प्रासादावतंसक शक्रस्य सपरि वारः तेनैव प्रमाणेन दक्षिणपश्चिमेनापि पुष्करिण्यः - भृङ्गा १ भृङ्गनिभा २ चैव अञ्जना ३ अञ्जनप्रभा ४ | प्रासादावतंसकः प्रक्रस्य सिंहासनं सपरिवारम् उत्तरपश्चिमेन पुष्करिण्यः श्रीकान्ता १ श्रीचन्द्रा २ श्रीमहिता ३ चैव श्री निलया ४ प्रासादावतंसकः ईशानस्य सिंहासनं सपरिवारमिति । मन्दरे खलु भदन्त ! पर्वते भद्रशालाने कति दिग्हस्तिकूटानि प्रज्ञतानि ?, गौतम ! अष्ट दिग्वस्ति कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा- पद्मोत्तरो १ नीलवान् २ सुह स्ती ३ अञ्जनागिरिः ४ । कुमुदश्च ५ पलाशश्च ६ अवतंसो ७ रोचनागिरिः ८ || १|| क्व खलु भदन्त ! मन्दरे पर्वते भद्रशालवने पद्मोत्तरो नाम दिग्वस्तिकूटः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन पौरस्त्यायाः शीताया उत्तरेण अत्र खलु पद्मोत्तरो नाम दिग्रहस्तिकूटः प्रज्ञप्तः, पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्चगव्यूतशतानि उद्वेधेन, एवं विष्कम्भपरिक्षेपो भणितव्यः, क्षुद्र हिमवत्सदृशः, प्रासादानां च तदेव पद्मोत्तरो देवो राजधानी उत्तरपौरस्त्येन १, एवं नीलवद्दिग्हस्तिकूटो मन्दरस्य दक्षिणपौरस्त्येन पौरस्त्यायाः शीताया दक्षिणेन एतस्यापि नीलवान देवो राजधानी दक्षिणपौरस्त्येन २, एवं सुहस्तिfaraftaar मन्दरस्य दक्षिणपौरस्त्येन दाक्षिणात्यायाः शीतोदायाः पौरस्त्येन एतस्यापि सुहस्ती देवो राजधानी दक्षिणपौरस्त्येन ३, एवमेव अञ्जनगिरिदिग्हस्तिकूटो मन्दरस्य • दक्षिणपश्चिमेन दाक्षिणात्यायाः शीतोदायाः पश्चिमेन, एतस्यापि अञ्जन गिरिर्देवो राजधानी दक्षिणपश्चिमेन पाश्चात्यायाः शीतोदायाः दक्षिणेन एतस्यापि कुमुदो देवो राजधानी दक्षिण. पश्चिमेन ५, एवं पलाशो विदिग्हस्तिकूटो मन्दरस्य उत्तरपश्चिमेन पाश्चात्यायाः शीतोदाया उत्तरेण एतस्यापि पलाशो देवो राजधानी उत्तरपश्चिमेन, एवमक्तंसो विग्विस्तिकूटो मन्द रस्योत्तरपश्चिपेन भौतरिकायाः शीताया महानद्याः पश्चिमेन एतस्यापि अवतंसो देवो राजधानी उत्तरपश्चिमेन, एवं रोचना गिरिदिग्दस्तिकूटो मन्दरस्य उत्तरपौरस्त्येन औत्तरिकायाः शीतायाः पौरस्त्येन एतस्यापि रोचनागिरिर्देवो राजधानी उत्तरपौरस्त्येन || सू० ३६ ॥ टीका- 'कहिणं भंते ! जम्बूदी वे' इत्यादि - प्रश्नसूत्रं छायागम्पम् उत्तरसूत्रे 'गोयमा ' मेरु यक्तव्यता 'कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे' इत्यादि टीकार्थ - (कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे णामं पव्वए पण्णत्ते) इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है की हे भदन्त ! इस जम्बू द्वीप नाम के द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में मन्दर नाम का पर्वत किस स्थान पर कहा गया है ? મેરુ વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे' इत्यादि टीर्थ' - 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे णामं पव्व पण्णत्ते' સૂત્ર ડે ગૌતમસ્વામી એ પ્રભુને એવા પ્રશ્ન કર્યાં છે કે હે ભદન્ત ! આ જ મૂદ્દીપ નામક દ્વીપમાં Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थ वक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् " गौतम ! 'उत्तरकुराए' उत्तरकुरूणाम् मूले प्रकृतत्वादेकवचनेन निर्देशः, यद्वा-कस्यचिन्मतेर्नककवचनेऽपि प्रयोगा उत्त/ कुरोरित्यर्थः एवमग्रेऽपि 'दक्खिणेणं' दक्षिणदिशि 'देवकुराए' देवकुरूणाम् 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि ' पुच्चविदेहस्स' पूर्वविदेहस्य 'वासस्स' वर्षस्य ' पच्च त्वमेण पश्येन - पश्चिमदिशि 'अवरविदेहस्स' अपरविदेहस्य पश्चिम महाविदेहस्य 'वासस्स' वर्षस्य 'पुरत्थमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि 'जंबुद्दी स्स' जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्तमध्यदेश मागे 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु जंबुद्दीवे दीवे' जम्बुदीपे द्वीपे 'मंदरे णाम' मन्दरो नाम 'पव्वए' पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च किं प्रमाणकः ? इति जिज्ञासायामाह - 'णवणउति जोयणसहस्ताई' नवनवति योजनसहस्राणि - नवनवति - सहस्रयोजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चते।' उच्चत्वेन 'एगं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् - एक लहस्रमित योजनानि 'उच्बेणं' उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन 'मूले' मूछे -मूलावच्छेदेन 'दस जोयणसहस्ताई' दशयोजन सहस्र णि- दशसहस्रयोजनानि 'णवई च जोयणाई' aafi च योजनानि 'दस य' दश च 'एगारसमाए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण - विस्तारेण प्रज्ञप्तः 'वरणिअले' धरणितले पृथिवीतले समे भागे इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - ( गोपमा ! उत्तरकुराए दक्खिगेणं देवकुराए उत्तरेणं पुच्वविदेहस्त वासस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरस्थिमेणं जंबुद्दीवस्स बहुमज्ञसभाए एत्थ णं जबुद्दीवे मंदरे णाभं पव्वए पण्णत्ते) हे गौतम! उत्तर कुरु की दक्षिण दिशा में देवकुरु की उत्तर दिशा में पूर्वविदेह क्षेत्र की पश्चिम दिशा में एवं अपरविदेह क्षेत्र की पूर्वदिशा में जंबूद्वीप के भीतर ठीक उसके मध्यभाग में मन्दर नामका पर्वत कहा गया हैं (णवण उइजोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेनं एगं जोयणसहस्सं उच्वेहेणं मूले दसजोयणसहस्साई णवई व जोयणाई दसय एगारसभाए जोयणस्स विक्खंभेणं) इस पर्यंत की ऊंचाई ९९ हजार योजन को है एक हजार योजन का इसका उद्वेध है १००९०१ योजन का मूल में विस्तार है ( धरणियले दसजोचणसहस्साइं विक्खंभेणं तयणंतरं च णं ४२९ મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં મદર નામક પર્યંત કયા સ્થળે આવેલ છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે - 'गोत्रमा ! उत्तरकुराए दक्खिणेणं देवकुराए उत्तरेणं पुव्वविदेहस्स वासस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहस्स वासस्स पुरत्थिमेगं जंबुद्दीवम्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरे ण.मं पव्व पण्णत्ते' हे गौतम! उत्त? दुरुनी हक्षिण दिशामां देवरुनी उत्तर दिशाभा પૂર્વ વિદેહ ક્ષેત્રની પશ્ચિમ દિશામાં, તેમજ અરવિદેહ ક્ષેત્રની પૂર્વ દિશામાં જબુદ્બીપની पर्वत यावेस छे. 'णवणउइजोयणसह डर होतेना मध्यभागमा २०३२ नाम स्साईं दस य एगारसभाए जोयणस्स विक्खंभेणं' मा पर्वर्तनी (या ८८ उमर योवन જેટલી છે. એક હજાર ચેજન જેટલે એના ઉદ્દેધ છે. ૧૦૦૯ યેાજન મૂળમા એના Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'दस जोयणसहस्साई' दशयोजनसःस्राणि विक्वंभेणं' विष्कम्भेण, मूलतो योजन्सहस. मूर्ध्वगमेन मूलगतानि नवतियोजनानि योजनस्य दश बैकादश भागास्त्रुटिमापुरित्यर्थः 'तयणंतरं च तदनन्तरं च ततः परं च 'मायाए २' मात्रमा २ क्रमेण २ अर्धगमने सम्प्रति मन्दरपर्वतवर्तिवनखण्डाणि वर्णयितुमुपक्रमते-'मंदरेणं' इत्यादि मन्दरे इत्यादि प्रश्नपूत्रं स्पष्टा मायाए २ परिहायमाणे २ उचरितले एगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं मूल एकतीसं जोयणसहस्साई व य दसुत्सरे जोयणसए परिव खेवेणं उवरितले तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावर्ट जोयणसयं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं भृले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उबरिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सम्वरयणामये अच्छे सण्हेत्ति) पृथ्वी पर इसका विस्तार १० हजार योजन का है इसके बाद यह क्रमश: २ घटना २ ऊपर में इसका विस्तार १ एक हजार योजन का रह गया है मूलमें इसका परिक्षेप ३१९१० योजन का है और ऊपर में इसका परिक्षेप कुछ अधिक तीन हजार एकसौ बासठ योजन का है यह इस तरह मूलमे विस्तीर्ण हो गया है, मध्य में संक्षिप्त हो गया है और उपर में पतला हो गया है-इसलिये इसका आकार जैसा गाय की पूंछ का आकार होता है वैसा हो गया है यह सर्वात्मना रत्नमय है आकाश और स्कटिक के जैसा यह निर्मल है एवं लक्ष्म आदि विशेषगों से युक्त है (से णं एमाए पउमयरवेड्याए एगेण य थणसंडेणं सचओ समंतः संपरिक्खित्ते) यह एक पावरवेदिका से और एक वनषण्ड से चारों ओर से अच्छी तरह से धिराहुआ है (वण्णओत्ति) यहां पर पद्मवरवेदिका और वनषण्ड का जैसा पीछे वर्णन किया जा चुका वैसाही वर्णन विस्तार छे. 'धरणियले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेगं तयणंतरं च णं मायार २ परिहायमाणे २ उवरितले एग जोयणसहस्सं शिक्खंभे मूले एकतीसं एगं च बाबी जोयणसयं किं. चि विसेसाहियं परिक्खेवेणं मूले हिच्छिण्णे मज्झे संखिते उरि तगुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सम्बरणामये अच्छे सण्हेत्ति' पृथ्वी पर थे। विस्ता५ १० १२ येशन सोछे. ત્યાર બાદ અનુક્રમે ક્ષણ થતું-થો ઉપર અને વિસ્તાર ૧ હજાર યોજન જેટલે રહી ગયે છે. મૂલમાં એને પરિક્ષેપ ૩૯૧૦ એજન જેટલું છે અને ઉપરના ભાગમાં એને પરિક્ષેપ કંઈક વધારે ત્રણ હજાર એકસો બાસઠ જન જેટલું છે. આમ આ મૂળમાં વિસ્તીર્ણ થઈ ગયેલ છે, મધ્યમાં સંક્ષિપ્ત થઈ ગયો છે. અને ઉપરના ભાગમાં પાતળું થઈ ગયે છે. એથી એને અ કાર ગાયના પૂંછના આકાર જે થઈ ગયેલ છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે. આકાશ અને સ્ફટિક જેવો એ નિર્મળ તેમજ ક્ષણ વગેરે વિશેષણેથી યુક્ત 2. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सध्यओ समंता संपरिक्खित्ते' मा । ५५३२ वाथी आने से बनी योमे२ सारी 1 वाये। छे. 'वण्णओत्ति' Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका चतुर्ववक्षस्कार: सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् ४३१ र्थम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा !' गौतम ! 'चत्तारि' चत्वारि 'वणा' वनानि ' पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'ते जहा ' तद्यथा- 'भद्दसालणे' भद्रावनं-भद्रः सद्भद्भवत्वेन सालाः शाला:- आलयाः 'वाला ः ' वृक्षशाखा व यस्मिन् तत् भद्रशालं 'सालं तच्च तद्वनं भदशालवनम् यद्वा भद्राः समझलेबें (मंदरेणं भंते ! कइ वणा पण्णत्ता) हे भदन्त मंदर पर्वत पर कितने वन कहे गये है ? (गोधमा ! चत्तारि दणा पण्णत्ता) हे गौतम ! चार बन कहे गये हैं (ओ) यहां पर पद्मत्ररवेदिका और वनपण्ड का वर्णन करनेवाला पद समूह पीछे के सूत्रों द्वारा कहा जा चुका है अतः वहीं से इसे समझलेना चाहिये सुमेरु पर्वत का विस्तार एक लाख योजन का कहा गया है- सो इसमें ९९ हजार योजन की तो उसकी ऊंचाई है और १ हजार योजन का इसका उद्वेध है इस तरह १ लाख योजन पूरा हो जाता है परन्तु इसकी जो चूलिका है वह ४० चालीस हजार योजन की है अतःयह प्रमाण मिलाने से सुमेरु पर्वत का १ लाग्व योजन से अधिक प्रमाण हो जाता है । यह जो पहिले कहा गया है कि जितनी ऊंचाई जिस पर्वत की होती है उसका चतुर्थांश उसका उद्वेष होता है सो यह बात मेस्वर्ज पर्वतों के ही सम्बन्ध मे लागू पडती है इस मेरु पर्वत के सम्बन्ध में नही इसलिये इसका उद्वेध १ हजार योजन का कहा गया है। अब चार वनों का नाम निर्देश करने के निमित्त प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं - ( तं जहा - भद्दसालवणे, पणंदणवणे सोमणसवणे, पंडगवणे) हे गौतम ! उन चार वनों के नाम इस प्रकार से हैं- भद्रशालवन, नन्दनवन, सौमनसवन और पण्डकवन इनमें जो भद्रशाल અહી પદ્મવરવેર્દિક અને વન ડેનું પહેલાંની જેમ જ વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે ‘મળ भंते! कापणतः ' डे महांत ! मन्दरपर्यंत उपर डेटा बना आवे छे ? 'गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णत्ता' हे गौतम! यार वो वामां आवेला है. 'वण्णओ' सहीं पद्मवश्वेभि અને વનખ’ડના વણું નથી - મ્બદ્ધ પદો પૂર્વોક્ત સૂત્રેામાં કહેવામાં આવેલા છે. એથી જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે સુમેરુ પર્વતના વિસ્તાર એક લાખ ચેાજન જેટલે કહેવામાં આવેલ છે, એની ૯૯ હજાર ચાજન જેટલી ઊંચાઇ છે અને એક ૧ હજાર ચેન એના ઉદ્વેધ છે. આ પ્રમાણે ૧ લાખ ચેાજન પૂરા થઈ જાય છે. પણ એની જે ચૂલિકા છે તે ચાલીસ હજાર ચેજન જેટલી છે એથી આ પ્રમાણ મેળવવાથી સુમેરુ પર્યંતનું ૧ લાખ ચેન કરતાં વધારે પ્રમાણ થઇ જાય છે. એ જે પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે કે જે પર્વતની જેટલી ઊંચાઇ હોય છે તેના ચતુર્થાંશ જેટલે તેને દ્વેષ હોય છે. તે આ વાત મેરુ સિવાયના પર્વતેને જ લગ્ પડે છે. આ મેરુ પ ́તને આ વાત લાગૂ પડતી નથી, એથી જ એને દ્વેધ ૧ હજાર ચેજન જેટલે કહેવામાં આવેલ છે. હવે ચાર વનાના नाम निर्दिष्ट ४२वा अलु गौतमने उसे हे - ' तं जहा भद्दसालवणे, णंदणवणे सोमणसवणे पंडागवणे' हे गौतम! ते यारा नाम आ प्रमाणे छे-लाशावन, नहनवन, सोम Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शालाः वृक्षाः यरिमस्तद् भद्रशालं शेषं प्राग्वत् १, 'णंदणवने' नन्दनवनं नन्दयति--सुगदीनानन्दयतीति नन्दनं तच्च तद्वनं नन्दनवनम् २, 'सोमणसवणे' सौमनसवनं सुमनसो देवास्तेषामिदं सौमनसं तच्च तद्वनं तथा, देवोपभोग्य भूमिकासनादि शालित्वात् ३, 'पंडगवणे' पण्डकवनं-पण्डते तीर्थकृतत्यन्माभिषेकधामतया सकलवनेषु मूर्धन्यतां गच्छतीति पण्डकं, तच्च तद्वनं तत्तथा ४, इमानि चत्वारि मन्दरं परिवेष्टय स्वस्वस्थाने तिष्ठन्ति तत्र प्रथमवन स्थान निर्देष्टुमुपक्रमते - 'कहि णं भंते 1 वव खलु भदन्त ! इत्यादि प्रश्नमूत्रं सुगमम्, उत्तरसूत्रे - 'गोयमा !' गौतम ! 'धरणिअले' धरणितले 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खल 'मंदरेमेरो 'प' पर्वते 'भदसालवणे' भद्रशालवनं 'णा'' नाम 'वणे' यनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञतम्, तच्च ' पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनाप्तं पूर्वपश्चिपदीर्घम् 'सोमणस विज्जुप्पहगंध'मायणमालवं ते हिं' सौमनसवि द्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवद्भिः 'वक्खारपव्वएहि' वक्षस्कार पर्वतैः 'सीया सीयोयाहि' शोताशोतोदाभ्यां 'य' च 'महाणई वि' महानदीभ्याम् 'अट्टभागपविभत्ते ' वन है उसमें आलय या वृक्षशाखाएँ या वृक्ष बहुत ही सरल है सीधे हैं टेडे. मेडे नही हैं । द्वितीय नन्दन वन में देवादिक आनन्द करते हैं सौमनसवन एक प्रकार से देवताओं का घर जैसा है तथा जो पंडकवन है उसमें तीर्थकरों का जन्माभिषेक होता है अतः इसे सब वनों से उत्तम कहा गया है ये चार वन मेरुको अपनी अपनी जगह पर घेरे हुए स्थित है। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं - (कहिणं भंते ! मंदरे पच्चए भद्दसालवणे नाम वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! मन्दर पर्वत पर भद्रशालवन कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोयमा ! धरणिअले एत्थणं मंदरे पाए भद्दसालवणे णामंबणे पण्णत्ते) हे गौतम ! इस पृथ्वी पर वर्तमान सुमेरु पर्वत के ऊपर भद्रशालवन कहा गया है (पाईणपडीवायए) यह वन पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है (उदीर्णदाहिणविच्छिणे) उत्तर और से दक्षिणतक विस्तीर्ण हैं (सोमणसविज्जुप्पह गंधमायण मालवतेहिं નસવન અને પડકવન. એમાં જે ભદ્રશાલ વન છે, તેમાં આલય અથવા વૃક્ષશાખાએ અથવા વૃક્ષે અતીવ સલ છે–સીતા છે—વાંકાચૂકા ની, દ્વિતીય નન્દનવનમાં દેાર્દિકે આનંદ કરે છે. સૌમનસવન એક રીતે દેત્રતાએના માટે ઘર જેવું છે. તથા જે પ`ડકવન છે તેમાં તીકરાના જન્માભિષેક થાય છે, એથી આને બધા વનામાં ઉત્તમ કહેવામાં આવેલ છે એ ચાર વના મેરુને પોતપોતાના સ્થાને આવૃત કરીને સ્થિત છે. હવે ગૌતમસ્વામાં પ્રભુને सालवना प्रश्न उरे छे 'कहिणं भंते! मं रे पव्वए भदसालवणे पण्णत्ते' हे लढत ! भरपर्वत उपर लद्रशासन यां स्थणे मावेस छे ? रोना भाभ अ हे- 'गोयमा ! धरणिअले पत्थगं मंदरे पव्वए मदस लवणे णामं वणे पण्णत्त' हे गौतम! या पृथ्वी उपर वर्तमान सुमेरु पर्वतनी ३५२ लद्रशास वन आवे छे. 'पाईणपडीणायए' आ वन पूर्वथी पश्चिम सुधी दीर्घ छे. 'उदीणदाहिण विच्छ्रिणे' भने उत्तरथी 'क्षण सुधी Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् ४३३ अष्टभागप्रविभक्तम् अष्टया कृतम्, तद्यथा मेरुगिरेः पूर्वस्यां दिशि प्रथमो भागः १, तस्यैव गिरेः पश्चिमायां दिशि द्वितीयोभागः २, विद्युत्प्रभ सौमनसयो वक्षस्कारपर्वतयोर्मध्ये दक्षिणस्यां दिशि तृतीयो भागः ३, गन्धमादनमाल्यवतो वक्षस्कारपर्वतयो मध्ये उत्तरस्यां दिशि चतुर्थों भागः४, मेरूत्तरतो वहन्त्या शीतोदा महानद्या पूर्वपश्चिमविभागाभ्यां द्वैधीकृतदक्षिणखण्डरूपः पञ्चमो भागः५, मेरुपश्चिमदिशि वहन्त्या शीतोदाया दक्षिणोत्तरविभागाभ्यां द्वैधीकृतपश्चिमखण्डरूपः षष्ठो भागः६, मेरुदक्षिणाभिमुखवाहिन्या शीतामहानद्याः पूर्वपश्चिमविभागाभ्यां द्वैधीकृतोत्तरखण्डरूपः सप्तमो भागः ७, तथैव नद्याः पूर्वाभिमुखवाहिन्यां वक्खारपव्व एहिं सीया सीओदाहि य महाणईहिं अट्ठ भागपविभत्ते मंदरस्स पव्वयस्स पुरिस्थिमपच्चत्थिमेणं बावीसे २ जोयण सहस्सा आयामेणं) यह वन सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन, और माल्यवान् इन वक्षस्कार पर्वतों से एवं शीतासीतोदा महानदियों से आठ विभाग रूप में विभक्त कर दिया गया है उसके आठ भाग इस प्रकार से हैं-मेरुगिरिकी पूर्व दिशा में इसका प्रथम भाग है मेरुगिरि की पश्चिमदिशा में इसका द्वितीय भाग है विद्युत्प्रभ सौमनस इन दो वक्षस्कार पर्वतों के बीच में दक्षिणदिशा की ओर इसका तृतीयभाग है गन्धमादन और माल्यवान् वक्षस्कार पर्वतों के बीच में उत्तर दिशा की ओर इसका चतुर्थ भाग है मेरु की उत्तरदिशा में बहनेवाली शीतोदा महानदी के द्वारा पूर्व पश्चिम भाग रूप से द्वैधीकृत दक्षिणखण्डरूप इसका पांचवां भाग है मेरु की पश्चिमदिशा में वहनेवाली शीतोदा महानदी के द्वारा दक्षिण पश्चिम भाग रूप से वैधीकृत पश्चिमखण्डरूप छट्ठा भाग है मेरु की दक्षिणदिशा की ओर बहनेवाली शीता महानदी के द्वारा पूर्वपश्चिम विभागरूप से वैधीकृत उत्तर खंड विस्ती छ. 'सोमणसविज्जुप्पहगंधमायण मालवंतेहि वक्खारपव्वएहि सीया सीओ दाहिय महाणई हिं अट्ठ भागपविभत्ते मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमपच्चत्थिमेणं बावीसे २ जोयणसहस्साई आयामेणं' मा न सोमनस, विधुत्प्रन, अधमान मने माल्यवान से વક્ષસ્કાર પર્વતાથી તેમજ સીતા સીતાદા મહાનદીઓથી આઠ વિભાગ રૂપમાં વિભક્ત કરવામાં આવેલ છે. તેના એ આઠ ભાગે આ પ્રમાણે છે મેરુ ગિરિની પૂર્વ દિશામાં એને પ્રથમ ભાગ છે. મેરુ ગિરિની પશ્ચિમ દિશામાં અને દ્વિતીય ભાગ છે. વિભ સૌમનસ એ બે વક્ષસ્કાર પર્વતના મધ્ય ભાગમાં દક્ષિણ દિશા તરફ એને તુતીય ભાગ છે. ગન્ધમાદન અને માલ્યવાન વક્ષસ્કાર પર્વતના મધ્યમાં ઉત્તર દિશા તરફ એને ચતુર્થ ભાગ છે, મેરુની ઉત્તર દિશામાં પ્રવાહિત થતી શીતા મહાનદી વડે પૂર્વ પશ્ચિમ ભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત દક્ષિણ ખંડ રૂપ એને પંચમ ભાગ છે. મેરુની પશ્ચિમ દિશામાં પ્રવાહિત થતી શીદા મહાન વડે દક્ષિણ પશ્ચિમ ભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત પશ્ચિમ ખંડરૂપ ષષ્ઠ ભાગ છે. મેરુથી દક્ષિણ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીતા મહા નદી વડે પૂર્વ ___ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दक्षिणोत्तरविभागाभ्यां द्वैधीकृतपूर्वखण्डरूपोऽष्टमो भागः ८, विभागाष्टक कोष्ठम् - T 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'पव्ययस्स' पर्वतस्य 'पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं' पौरस्त्यपश्चिमेन पूर्वपश्चिमयो दिशोः प्रत्येकं 'बावीसं २' द्वाविंशतिं २ 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'आयामेणं' आयामेन, तत्प्रकारो यथा-कुरुजीवा ५३००० त्रिपश्चाशयोजनसहस्राणि, एकैकस्यां जीवायां स्थितस्य वक्षस्कारपर्वतस्य मूले विस्तारः पञ्चयोजनशतानि ५०० द्वयो यो क्षस्कारपर्वतयोर्मूले विस्तारमानं योजनसहस्रं तस्य पूर्वराशौ प्रक्षेपे ५४००० चतुष्पञ्चाशइसका सातवां भाग है । तथा मेरु से पूर्व दिशा की ओर बहनेवाली शीता महानदी के द्वारा दक्षिण उत्तरविभाग रूप से द्वैधीकृत पूर्वखण्डरूप इसका ८ आठवां भाग है । मन्दरपर्वत की पूर्वपश्चिम दिशा में इसका आयाम बाईस बाईस हजार योजन का है यहां पर संस्कृत टीका में दी हुइ आकृति देख लेना चाहिये। (उत्तर दाहिणेणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाई) तथा उत्तर और दक्षिण दिशा में इसका विष्कम्म २-२॥ सो योजन का है इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है-कुरुक्षेत्र की जीवा प्रत्यश्चा-५३००० योजन की है एक एक जीवा में स्थितों वक्षस्कार पर्वत का मूल में विस्तार ५०० सौ योजन का है दो वक्षस्कार पर्वत के मूल में विस्तार का प्रमाण १००० योजन का होता है-५३००० में इस પશ્ચિમ વિભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત ઉત્તર ખંડ એને સપ્તમ ભાગ છે. તેમજ મેરુથી પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીતા મહા નદી વડે દક્ષિણ ઉત્તર વિભાગ રૂપથી દ્વિધાકૃત પૂર્વ ખંડ રૂપ એને અષ્ટમ ભાગ છે. મન્દર પર્વતની પૂર્વ પશ્ચિમ દિશામાં એને આરામ બાવીસ હજાર જન જેટલું છે. અહીં સંસ્કૃતમાં આપ્યા પ્રમાણે આકૃતિ જોઈ લેવી. - उत्तरदाहिणेणं अद्धाइग्जाइं जोयणसयाइ' भ४ उत्तर दक्षिण दिशामा सेना वि २॥२॥ સે યે જન જેટલું છે. એનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે-કુરુક્ષેત્રની જીવા પ્રત્યંચા-પ૩૦૦૦ જન જેટલી છે. એક–એક છવામાં સ્થિત વક્ષસ્કાર પર્વતને મૂલમાં વિસ્તાર ૫૦૦ એજન જેટ છે. બે વક્ષસ્કાર પર્વતના મૂળના વિસ્તારનું પ્રમાણ ૧૦૦૦ એજન જેટલું હોય | Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थबक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् योजनसहस्राणि, तस्मान्मेरुविस्तारे शोधिते शेषं ४४००० चतुश्चवारिंशद्योजनसहस्राणि, तेषामः २२००० द्वाविंशति यॊजनसहस्राणि मन्दरपर्वतस्य पूर्वपश्चिमयो दिशो भवन्ति, एतत्प्रकारान्तरं हि-शीतावनमुखं २९२२ द्वाविंशत्यधिक नवशताधिक द्वि सहस्र योजनानि, अन्तरनद्यः षद् च ७५० सार्द्ध सप्तशतयोजनानि, अष्टौ वक्षस्कारपर्वताःचतुःसहस्रयोजनानि ४०००, षोडशविजयविस्तारः ३५४०२ द्वयधिकचतुःशताधिक पञ्चत्रिंशद्योजनानि, शीतोदामुखवनं २९२२ शीतामुखवनवद् द्वाविंशत्यधिकनवशताधिक द्विसहस्रयोजनानि, एतेषां विस्तारसंख्यासंकलनायाम् षद चत्वारिंशधोजनसहस्राणि भवन्ति, एतत्प्रमाणं च लक्षप्रमाणमहाविदेहजीवायाः शोध्यते, शेष चतुःपञ्चाशद्योजनसहस्राणि, एतत्पमाणं भद्रशालवन क्षेत्रं, तच्च मेरुयुतमिति धरणितलवृत्ति दशयोजनसहस्रशोधने शेषं चत्वारिंशद्योजनएक हजार की राशि को जोडने पर ५४००० होते हैं मेरु के विस्तार में से ५४००० कम कर देने पर ४४००० बचते हैं-इनको आधा करने पर २२००० जो आते हैं यही मन्दर पर्वत की पूर्व पश्चिम दिशा में इसके आयामका प्रमाण निकल आता है अथवा यह संख्या इस प्रकार से भी लभ्य हो जाती है शीता नदी का वनमुख २९२२ योजन का है छह अन्तर नदियों का विस्तार ७५० योजन का है आठ वक्षस्कारों का विस्तार ४००० योजन का है १६ विजयों का पृथुत्व ३५४०६ योजन का है शीतोदानदी का वनमुख २९२२ योजन का है इन सबका जोड ४६००० आता है महाविदेह क्षेत्र की जीवा का प्रमाण १ लाख योजन का है एक लाख मे से ४६ हजार को घटाने से ५४००० हजार बचते हैं सो यह प्रमाण भद्रशाल वन क्षेत्र का है इस में मेरुके धरणीतल का प्रमाण भी सम्मिलित है-अतः मेरु के धरणीतल का १००० हजार योजन का प्रमाण और कम कर देने पर ४४ हजार योजन आ जाते हैं इनका आधा છે. પ૩૦૦૦મા આ એક હજાર જેટલી રાશિને જેડીએ તે ૫૪૦૦૦ થાય છે. મેરુના વિસ્તારમાંથી ૫૪૦૦૦ સંખ્યા બાદ કરવાથી ૪૪૦૦૦ શેષ રહે છે. આ સંખ્યાને અર્ધા કરીએ તે ૨૨૦૦૦ થાય છે. અજ મન્દર પર્વતની પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં એના આયામનું પ્રમાણ છે. અથવા આ સંખ્યા આ પ્રમાણે પણ મેળવી શકાય તેમ છે. શીતા નદીનું વનમુખ ર૩૨ જન જેટલું છે. ૬ છ અંતર નદીઓને વિસ્તાર ૭૫૦ એજન જેટલો છે. ૮ વક્ષસ્કારેને વિસ્તાર ૪૦૦ એજન જેટલું છે. ૧૬ વિજયેથી સમ્બદ્ધ પૃથુત્વ ૩૫૪૦૨ જન જેટલું હોય છે. શીતદા નટ્ટીનું વનમુખ ૨૯૨૨ જન જેટલું છે. એ સર્વને સરવાળે ૪૬૦૦૦ થાય છે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રની જીવાનું પ્રમાણ ૧ લાખ જન જેટલું છે. એક લાખમાંથી ૪૬ હજારને બાદ કરીએ તે પ૪૦૦૦ શેષ રહે છે. તે આ પ્રમાણ ભદ્રશાલ વન ક્ષેત્રનું છે. આમાં મેરુના ધરણીતલનું પ્રમાણ પણ સમ્મિલિત છે. એથી મેરના ધરણતલનું ૧૦૦૦ (એક હજાર) જન પ્રમાણે કમ કરવાથી ૪૪ હજાર જન આવી Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सहस्राणि तस्याः एकैकस्मिन् पार्श्वे द्वाविंशतिः २ योजनसहस्राणि सम्पद्यन्त इति । तथा मन्दरगिरेः 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन उत्तरदक्षिणयो दिशोः प्रत्येकं 'अद्धाइज्जा २' अर्द्धवतीयानि २ 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण भद्रशालवनं देवोत्तरकुरुषु प्रविष्ट मित्यर्थः, अथैतस्य पद्मवरवेदिकावनषण्डपरिवेष्टितत्वेन तद वर्णयति-से गं' तत् खलु भद्रशालवनं 'एगाए' एकया 'पउमवरवेइया' पद्मवरवेदिकया 'एगेण य' एकेन च 'वणसंडेणं' इनषण्डेन 'सव्वओ समंता' सर्वतःसमन्तात् 'संपरिक्खित्ते' सम्परिक्षिप्तं-परिवेष्टितमस्ति, अनयोः 'दुहवि' द्वयोरपि पद्मवरवेदिका वनषण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहः 'भाणियबो' भणितव्यः-वक्तव्यः, तत्र पद्मवरवेदिकावर्णकश्चतुर्थ सूत्रव्याख्यातो बोध्यः, वनषण्डवर्णकोऽपि 'किण्हे किण्होभासे' कृष्णः कृष्णावभास इत्यादिः चतुर्थ सूत्रव्याख्यातो बोध्यः, तदर्थोऽपि तत एव बोध्यः, 'जाव देवा आसयंति सयंति' यावद् देवा आसते शेरते-इत्यत्र यावत्पदेन-'तत्थ णं बहवो बाणमन्तरा' २२ हजार २२ हजार योजन होता है सो यही प्रमाण इसके पूर्व पश्चिम दिशा में आयाम का निकल आता है तथा दक्षिण और उत्तर में जो इसके विस्तार का प्रमाण २॥२॥ योजन का कहा गया है सो इसका तात्पर्य ऐसा है कि यह देवकुरु और उत्तर कुरु में २॥२॥ सो योजन तक भीतर प्रवेश किया हुआ है (से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सधओ समंता संपरिक्खित्ते) वह भद्रशाल वन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से अच्छी तरह सब तरफ से घिरा हुआ है (दुण्हविवण्णओ) यहां पर इन दोनों का वर्णक पाठ चतुर्थ सूत्र से और वनषण्ड का वर्णक पाठ "किण्हे किण्हो भासे" इत्यादि रूप में चतुर्थ सूत्र की व्याख्या से समझलेना चाहिये (जाव देवा आसयंति सयंति) यहा यावत्पद से "तत्थणं बहवे वाणमन्तरा" इन पदों का संग्रह हुआ है "देवा" पद यहां उपलक्षण रूप है इसमें "देवीओ य" इस पदका संग्रह हो जाता है જાય છે. એના બે ભાગ કરીએ તે ૨૨ હજાર, ૨૨ હજાર જન થઈ જાય છે. એજ પ્રમાણુ એના પૂર્વ પશ્ચિમ દિશામાં આયમનું નીકળી આવે છે. તેમજ દક્ષિણ અને ઉત્તરમાં જે એના વિસ્તારનું પ્રમાણ રા ર જન જેટલું કહેવામાં આવેલું છે તો એને ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે કે આ દેવકુરુ અને ઉત્તરકુરુમાં રા–રા જન સુધી અંદર પ્રવિષ્ટ थय छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सब्वओ समंता संपरिक्खित्ते' તે ભદ્રશાલવન એક પવરવેદિકા અને એક વનખંડથી ચોમેર સારી રીતે વીંટળાયેલું है. 'दुण्ह त्रि वण्णओ' मी मन्नन। १४ 48 sी नये. सभा २ ५५१२a६ छ, तेने साता १ ५४ यतुर्थ सूत्रमाथी मने नमन। १७४ ५४ 'किण्हे किण्होभासे' वगैरे ३५मा यतुर्थ सूत्रनी व्यायामांथी ngी यु नये. 'जाव देवा भासयंति सयंति' मी या ५४थी 'तत्थणं बहवे वाणमंतरा' थे. पहीन सय थय। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् ४३७ इति सङ्ग्राह्यम् 'देवा' इत्युपलक्षणं, तेन 'देवी भी य' इत्यस्य ग्रहणम् 'आसते शेरते' इत्युपलक्षणं, तेन 'चिटुंति णि तोयं ते' इत्यादीनां पदानां ग्रहणम्, एतेषां पदानां विवरणं पञ्चमसूत्राब्दोध्यम् , अथात्र सिद्धायतनादि वक्तव्यमाह-'मंदरस्स णं' मन्दरस्य खलु 'पव्वयस्स' पर्वतस्य मेरुगिरेः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वस्यां दिशि ‘भद्दसालवनं' भद्रशालवनं 'पण्णासं' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य - अतिक्रम्येति यावत् 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे ‘णं' खलु 'महं एगे' महदेवं 'सिद्धाययणे' सिद्धायतनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च प्रमाणादिना वर्णयति-पण्णासं' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'आयामेणं' आयामेन दैयेण, 'पणवीसं' पञ्चविंशति 'जोयणाई' योजनानि विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारण 'छत्तीसं' पत्रिशतं 'जोयणाई योजनानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उच्चत्तेणं' उच्चत्वेन 'अणेगखंभसयसणिविद्वे' अनेकस्तम्भशतसभिविष्टम् इत्युपलक्षणं, तेन स्तम्भोद्गतेत्यादि पदानां सङ्ग्रहणम् एवं 'वण्णो ' वर्णकोऽत्र बोध्यः, स च पञ्चदशसूत्रात्सार्थों बोध्यः, अथात्र द्वारादि वर्णयितुमाह-'तस्स णं तस्य-सिद्धायतनस्य खलु 'तिदिशि त्रिदिसि तिसृषु दिक्षु "आसते शेरते" ये क्रियापद भी उपलक्षण रूप है-इन से" चिट्ठति, णिसीयंति" इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण किया गया है इन सबका विवरण पंचम सूत्र से समझलेना चाहिये (मंदस्स गं पव्वयस्स पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थणं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते) मंदर पर्वत की पूर्वदिशा में भद्रशाल बन है इस से ५० योजन आगे जाने पर एक बहुत विशाल सिद्धा. यतन है (पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं, छत्तीसं जोयणई उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसंनिविद्वं वण्णओ) यह सिद्धायतन आयाम की अपेक्षा ५० योजन का है और विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन का है इसकी ऊंचाई ३६ योजन की है यह सैंकडो स्तम्भों के उपर खडा हुआ है इसका वर्णकपाठ पंद्रह १५ वे सूत्र से जानलेना चाहिए (तस्स णं सिद्धायय. छ. 'देवा' ५६ मही SARY ३५ छ. सभी 'देवीओ य' मा पढाना सब थयो । 'आसते, शेरते' से या५हो ५Y SURRY ३५ छे. अनाथी-'चिटुंति, णिसीयंति, पत्यादि ક્રિયાપદનું ગ્રહણ થયું છે. એ સર્વનું વિવરણ પંચમ સૂત્રમાંથી સમજી લેવું જોઈએ. 'मंदरस्स ण पव्वयस्स पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एस्थणं महंगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' भ२ ५तनी पूर्व ६शामा मद्रास नाव छ. सनाथी ५० योसन मा rai S५२ मे २मता विश सिद्धायतन साव छ. (पण्णासं जोयणाई आयामेणं, पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं छत्तीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तण अणेगखंभसय. संनिविद्रं वण्णओ' मा सिद्धायतन मायामनी अपेक्षाये ५० योन यु छ. मन मिनी અપેક્ષાએ એ ૨૫ પેજન જેટલું છે. એની ઊંચાઈ ૩૬ જન જેટલી છે. આ સહસ્ત્રો સ્ત ઉપર ઊંભુ છે. એને વર્ણક પાઠ ૧૫ પંદરમાં સૂત્રમાંથી જાણું લે જઈ એ. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'तओ दारा' त्रीणि द्वाराणि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, 'ते णं' तानि खलु 'दारा' द्वाराणि 'अट्ठ जोयणाई' अष्ट योजनानि 'उद्धं उच्चत्तेन' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण - बिस्तारेण 'तावइयं चेव' तावदेव - तत्प्रमाणमेव योजनचतुष्टयमेवेत्यर्थः 'पवे सेणं' प्रवेशेन प्रवेशमार्गावच्छेदेन, 'सेया' श्वेतानि-शुक्लवर्णानि 'वरकणमधूभियागा' वर कनकस्तूपिकानि - उत्तमस्वर्णमय शिखरयुक्तानि, एतद्वाराणि वर्णयितुं सूचयति - 'जाव वणमालाओ' यावद्वनमाला :- ईहामृगेत्यारभ्य वनमालापर्यन्तवर्णको बोध्यः, सचाष्टमसूत्रात्सार्थी ग्राह्यः । तथा 'भूमिभागो य' भूमिभागच 'भाणि यव्त्रो' भणितव्यः - वक्तव्यः तस्य वर्णनं पञ्चमस्त्राद्बोध्यम्, 'तस्स णं' तस्य भूमिभागस्य खलु 'बहुमज्झ देसभाए ' बहुमध्यदेशभागे - अत्यन्तमध्यदेश भागे 'एत्थ णं' अत्र - अत्रान्तरे खलु 'महं एगा' महत्येका 'मणिपेडिया' मणिपीठिका मणिमयत्रासनविशेषः, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'अट्ठ' अष्ट 'जोयणाई' योजनानि ' आयाम विक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण दैर्घ्यविस्ताराभ्याम् ' चत्तारि ' णस्स तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता) इस सिद्धायतन के तीन दिशाओं में तीन दरवाजें कहे गये हैं । (ते णं दारा अट्ठजोयणाई उर्दू उच्चत्तण, चत्तारि जोयणाई' विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेआ वरकणगथुभियागा जाव वणमालाओ भूमिभागो य भाणि वो) ये द्वार आठ योजन के ऊंचे हैं चार योजन का इनका विष्कम्भ है और इतना ही इनका प्रवेश है ये श्वेत वर्ण के हैं और इनकी जो शिखरे हैं वे सुन्दर सोने की बनी हुई हैं। यहां पर वन मालाओं का एवं भूमिभाग का वर्णन करलेना चाहिये वनमालाओं का वर्णन "इहामिय" आदि पाठ से जान लेना चाहिये यह पाठ अष्टम सूत्र से और भूमिभाग का वर्णन पश्चम सूत्र से समझ लेना चाहिये वनमाला और भूमिभाग के वर्णन तक ही इन द्वारों का वर्णन किया गया है (तस्सणं बहुज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता) उसी भूमिभाग के ठीक बीच में एक विशाल मणिपीठिका 'तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसिं तओ द्वारा पण्णत्ता' मा सिद्धायतननी ऋणु हिशायोभां त्रशु हरत्रालय। आवेला छे. 'तेणं द्वारा अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खं. भेणं तावइयं चैव पवसेणं सेआ वरकणगथूमियागा जाव वणमलाओ भूमिभागो य भाणियब्बो' એ દ્વારા આઠ યાજન જેટલા ઊંચા છે. ચાર ચેાજન જેટલા એ દ્વારેના વિષ્પભ છે, અને આટલે જ એમના પ્રવેશ છે. એ દ્વારા શ્વેત વણુ વાળાં છે. એમના જે શિખરે છે તે સુદર સુવર્ણ નિર્મિત છે. અહી વનમાળાએ તેમજ ભૂમિભાગનું વર્ણન કરી લેવુ' જોઇએ. वनभाजाओ ं वर्षान 'इहामिय' वगेरे पाडची भागी सेवु लेह से. आ पाई अष्टम सूत्रમાંથી અને ભૂમિભાગનું વર્ણન પંચમ સૂત્રમાંથી જાણી લેવુ જોઇએ. વનમાળા અને ભૂમિछे. ' तस्स णं बहुमज्झसि - ठीउ मध्य भागमा भे भागना वार्जुन सुधी ४ मे द्वारा भाप एत्थ महं एगा मणिपेढिया वार्डन अरवामां आवे पण्णत्ता' ते भूमिभागना Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् पणनम् ४३९ चत्वारि 'जोयणाई' योजनानि 'बाहल्लेणं' बाहल्येन-पिण्डेन 'सबरयणामई' सर्वरत्नमयी सर्वात्मना रत्नमयी 'अच्छा' अच्छा, इदमुपलक्षणं, तेन श्लक्ष्णादि परिग्रहः पूर्ववत् । 'तीसे णं' तस्याः खलु 'मणिपेढियाए' मणिपीठिकायाः 'उवरि' उपरि 'देवच्छंदए' देवच्छन्दकः देवोपवेशनार्थमासनम्, स च 'अट्ठ जोयणाई' अष्ट योजनानि 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भेण 'साइरेगाई' सातिरेकाणि-किञ्चिदधिकानि 'अट्ट जोयणाई' अष्ट योजनानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'जाव जिणपडिमावण्णओ' यावज्जिनप्रतिमावर्णकः अत्र यावत्पदेन-'इत्थ अट्ठसए जिणपडिमाणं पण्णत्ते, तासि णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' इत्यादिरूपो जिनप्रतिमानां-यक्षप्रतिमानां वर्णको ग्राह्यः, तथा 'देवच्छंदगस्त' देवच्छन्दकस्य देवासनविशेषस्य 'सव्वरयणामये' इत्यादिरूपो वर्णको बोध्यः 'जाव धूवकडच्छुयाणं' कही गई है (अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं) इस मणिपीठिका का आयाम और विष्कम्भ आठ योजन का है । (चत्तारिजोयणाबाहल्लेणं सव्वरयणामई अच्छा) इसका बाहल्य-मोटाई-चार योजन का है यह सर्वात्मना रत्नमयी है और आकाश एवं स्फटिक मणिके जैसी निर्मल है "अच्छा" यह पद यहां उपलक्षण रूप है, इस से श्लक्ष्ण आदि पदों का ग्रहण हो जाता है (तीसे णं मणिपेटियाए उवरि देवच्छंदए अट्ट जोयणाई आयामविखंभेणं, साइरेगा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं जाव जिणपडिमा वण्णओ) उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवच्छन्द-देवों के बैठने का आसन है उस आसन का आयाम और विष्कम्भ आठ योजन का है और इसकी ऊंचाई भी कुछ अधिक आठ योजन की ही है यहां यावत् जिन प्रतिमाएं है यहां यावत्पद से "इत्थ अट्ठसए जिण पडिमाणं पण्णत्ते तासिणं जिणपडिमाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते" इस पाठ का संग्रह हुआ है यहां जिनप्रतिमा से कामदेव की प्रतिमा तथा यक्ष विशाल भणी मावली छ. 'अट्ट जोयणाई आयामविक्खंभेणंओ' मा मणिपाडाना मायाम-१०४ मा यो रे। छे. 'चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वरयणामई अच्छा' એને બહલ્ય એટલે કે મેટાઈ ચાર યેાજન જેટલી છે. આ સર્વાત્મના નામયી છે, અને ॥श मा २५टि मणिवत् निभ छ. 'अच्छा' मा ५६ मडी Saक्ष ३५ छे. सनाथी २०६९ पोरे पहानु हय थयु छे. 'तीसेणं मणिपेढियाए उवरि देवच्छंदए अढ जोयणाई आयामविक्खंभेणं, साइरेगाइं अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं जाव जिणपडिमा वण्णओ' ते મણિપઠિકાની ઉપર એક દેવચછન્દ એટલે કે દેવેને બેસવા માટેનું આસન છે તે આસનને આયામ–વિખંભ આઠ જન જેટલું છે અને તેની ઊંચાઈ પણ કંઈક વધારે આઠ योन रेक्षी छ. म 'यावत्' पहथी जिन प्रतिमामाने। सह थयेछे. मह यावत्पथी 'इत्थ अट्ठसए जिणपडिमाणं पण्णत्ते तासिणं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णा. वासे पण्णत्ते' थे पाउने सह थयो छे. मडी नि प्रतिमामाथी महेवनी प्रतिमा Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यावद्धूपकडुच्छुकानाम् अत्र यावत्पदेन 'असए' इत्यस्य ग्रहणम्, तथा च अष्टशतं धूपकटुच्छुकान धूपपात्र विशेषाणां प्रज्ञप्तम्, अनयोजिनप्रतिमा धूपकडुच्छकयो र्वर्णको राजप्रश्नीयसूत्रस्याशीतितमैकाशीतितमाभ्यां सूत्राभ्यां ग्राह्यः, तदर्थश्च तयोरेव मत्कृतसुबोधिनीcharasata इति । अथावशिष्ट सिद्धायतनवर्णनार्थमुक्तरीतिं प्रदर्शयति- 'मंदरस्स णं' मन्दरस्य खलु 'पव्त्रयस्स' पर्वतस्य ' दाहिणेणं' दक्षिणेन- दक्षिणदिशि 'भदसालवनं' भद्रशालवनं 'पण्णा' पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्येति ग्राह्यम् ' एवं ' एवम् उक्तरीत्या 'चउद्दिसिंपि' चतुर्दिश्यपि दिक्चतुष्टयेऽपि 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'भद्दसालवणे' भद्रशालवने 'चत्तारि' चत्वारि 'सिद्धाययणा' सिद्धायतनानि 'भाणियन्वा' भणितव्यानि वक्तव्यानीत्यर्थः यदत्र सिद्धायतनत्रिकस्यातिदेशे कर्त्तव्ये तच्चतुष्टयातिदेशः कृतस्तत्र समाधानं जम्बूद्वीप-द्वारवर्णकोक्तम् ' एवं चत्तारि वि दारा भाणियव्वा' इत्येतत्सूत्रव्याख्यानमनुसृत्य बोध्यम्, अथैतदन्तर्गतपुष्करिणी चतुष्टयं वर्णयितुमुपक्रमते - 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'णं' खलु 'पव्वयस्स' पर्वतस्य 'उत्तरपुरत्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे 'भदसालवनं' भद्रशालवनं 'पण्णा सं' प्रतिमाओं को जानना चाहिये (देवच्छंदगस्स जाव धूवकडुच्छुगाणं इति) यह देवच्छंद सर्वात्मना रत्नमय है यावत् यहां पर १०८ धूपकडा हे हैं - जिनमे धूप जलाई जाती है जिनप्रतिमा और धूपकटाहों का वर्णन जानने के लिये राजप्रश्नीय सूत्र के ८० और ८१ सूत्रों को देखना चाहिये उनकी टीका में मैने इस विषय को स्पष्ट किया है (मंदरस्स णं पव्वयस्स दाहिणेणं भद्दसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसि पि मदरस्स भद्दसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणियव्वा) मन्दर पर्वत की दक्षिणदिशा में भद्रशालवन में ५० योजन आगे जाने पर - भद्रशाल वन में ५० योजन प्रवेश करने पर मन्दर पर्वत की चारों दिशाओं में भद्रशाल वन में सिद्धायतन है यहां तीन सिद्धायतन कहना चाहिये थे - परन्तु जो चार सिद्धायतन कहे गये हैं इस सम्बन्ध में समाधान जम्बूद्वीपद्वार के वर्णक में कह तेभन यक्ष प्रतिभायो लागुवी लेई मे. 'देवच्छंद्गरस जाव धूवकडुच्छ्रयाणं इति' भा દૈવચ્છંદ સર્વાત્મના રત્નમય છે. યાવત્ અહીં ૧૦૮ ધૂપ કટાહા છે. જેમાં ધૂપ સળગાવવામાં આવે છે. જિનપ્રતિમા અને ધૂપ કટાહાના વન વિષે જાણવા માટે રાજ પ્રશ્નીય સૂત્રના ૮૦ અને ૮૧મા સુત્રો જોવા જોઈએ. એ સૂત્રોની ટીકામાં મેં આ વિષયનુ स्पष्टी यु छे. 'मंदरस्स णं पव्वयस्स दाहिणेण भदसालवणं पण्णासं एवं चउद्दिसिं पिमंदरस्स भहसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा भाणियव्वा' भर पर्वर्तनी दक्षिणु डिशाभां *ભદ્રશાલ વનમાં ૫૦ ચેાજન આગળ જવાથી ઉપર ભદ્રશાલવનમાં ૫૦ ચાજન પ્રવિષ્ટ થયા પછી મન્દર પર્યંતની ચેામૈર, ભદ્રશાલ વનમાં ચાર સિદ્ધાયતને આવેલા છે. અહીં ત્રણ · સિદ્ધાયતના કહેવાં જોઈએ પણ ત્રણના સ્થાને જે ચાર સિદ્ધાયતને કહેવામાં આવેલાં છે, · એ સબંધમાં સમાધાન જ ખૂદ્રીપ દ્વારના વર્ણાંકમાં કરવામાં આવેલુ છે. આ સમાધાન ४४० Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवसस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य धनम् पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'ओगाहित्ता' असाह्य अतीत्य 'एत्य णं' अत्र अत्रान्तरे खलु 'चत्तारि' चतस्रः 'णंदापुक्खरिणीभो' नन्दापुष्करिण्यः नन्दाख्याः शाश्वताः पुष्करिण्य: 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा 'पउमा' पदमा१ 'पउमप्पभा' पदमप्रभा २ 'चेव' चैव 'कुमुदा' कुसुदा ३ 'कुमुदप्पभा' कुमुदप्रभा ४ इति, ताः प्रमाण दितो वर्णयितुमाह-'ताओणं' इत्यादि ताः अनन्तरोक्ताः खलु 'पुक्ख विणीओ' पुष्करिण्यः ‘पंचासं' पश्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'आयामेणं' आयामेन दैयेण 'पणवीसं' पञ्चविंशतिं 'जोयणाई योजनानि 'विक्खंभेणे' विष्कम्भेण विस्तारेण 'दसमोयणाई दशयोजनानि 'उध्वे हेणे' उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन उण्डत्वेन 'वेइया वनसंडाण' वेदिका वनषण्डयोः 'वण्णओ' वर्णकः 'भाणियध्वो' भणितव्यः-वक्तव्यः, स च चतुर्थस्य मत्कृतव्याख्यातो बोध्यः, तदर्थश्च तत एव बोध्यः, 'चतुदिया गया है यह समाधान वहां एवं चत्तारिवि दारा भाणियव्वा' इस सूत्र के अनुसार जान लेना चाहिये (मन्दरस्स णं पव्ययस्स उत्तरपुरस्थिमेणं भदसालवर्ण पण्णसिं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थणं चत्तारि गंदापुक्खरिणीओ पण्णसाओ) मन्दर पर्वत के ईशानकोण में भद्रशालवन को ५० योजन पार करके आगतस्थान में चार नन्दा नामकी शाश्वत पुष्करिणियां हैं (तं जहा) इनके नाम इस प्रकार से है-(पउमा१, पउमप्यभार, चेव कुमुदा ३, कुमुदप्पभा४) पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा और कुमुदप्रभा (ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोगणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विखंभेणं, दस जोयणाई वेहेणं वण्णी वेड्यावणसंडाणं भाणियव्यो) ये पुष्करिणियां आयाम में ५० योजन की हैं और विष्कम्म में २५ योजन की हैं तथा इनकी गहराई १० योजन की हैं । यहाँ वेदिका और वनषण्ड का वर्णन करलेना चाहिये और वह चतुर्थ सूत्रकी व्याख्या से समझलेना चाहिये (चउद्दिसिं तोरणा जाव तासिणं पुक्खरिणी] त्यां एवं चत्तारि वि दारा भाणियव्या' मा सूत्र भु५ on ough a - 22. 'मंदररस णं पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं भदसालवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि गंदापुवखरिणीओ पण्णत्ताओ' भन्६२ ५तना शान मां भद्रशासनने ५० 210 पापी જઈએ ત્યારબાદ જે સ્થાન આવે છે ત્યાં નન્દા નામક ચાર શાશ્વત પુષ્કરિણુએ છે 'तं जहा' तमन। नाम। ॥ प्रमाणे छे-'पउमा १, पउमप्पभा २, चेव कुमुदा ३ कुमुदप्पमा ४' ५, ५५मा, भुडी भने सुभुप्रभा. 'ताओणं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोयणाई आयामेगं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं, दस जोयणाई उव्वेहेणं वष्णओ वेइयावणसंडाणं भाणियव्वों से પુષ્કરિણીઓ આયામની અપેક્ષાએ ૫૦ એજન જેટલી છે. અને વિષ્કભની અપેક્ષાએ ૨૫ જન જેટલી છે. તેમજ એમની ગંભીરતા ઊંડાઈ) ૧૦ એજન–જેટલી છે. અહીં વેદિકા અને વનખંડનું વર્ણન કરી લેવું જોઈએ. અને વેદિકા અને વનખંડ વિષેનું વર્ણન ચતુર્થ सूत्रनी व्यायामांयी तशी नसे. 'चउदिसिं तोरणा जाब तासिणं पुक्खरिणीणं Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे हिसि' चतुर्दिशि-दिक्चतुष्टये तोरणानि वहिराणि 'जाव' यावत्-अत्र यावत्पदेन-'नानामणिमयानि' इत्यादीनां तोरणविशेषणवाचकपदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, स च सार्थः राजप्रश्नीयसूत्रस्य त्रयोदशसूत्रस्य मत्कृतसुबोधिनी टीकातोऽवसे यः, अथैतत्पुष्करिणीमध्यवर्तिप्रासादावतंसकं वर्णयितुमुपक्रमते-'तासि णं' तासां खलु 'पुक्खरिणीण' पुष्करिणीनां 'बहुमज्झदेसमाए' बहुमध्यदेश मागे-अत्यन्तमध्यदेशमागे 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महं एगे' सहानेकः 'ईसाणस्स देविंदस्स देवरगो' ईशारस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'पासायवडिंसर' प्रासादावतंसकः उत्तमप्रासादः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः -स्वपरिवेष्टनीभूतपुष्करिणीचतुष्टयबहुमध्यदेशभागवर्ती प्रासादोऽयमुक्त इत्यर्थः, स च 'पंचगोयणसयाई' पश्च योजनशतानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वपुच्चत्वेन 'अद्धाइज्जाई' अर्द्धतीयानि 'जोयण नयाई योजनशतानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण 'अब्भुग्गयमूसियपहसिय इव' अभ्युद्गतोपिछूतमहराित इव इत्यादिपदानां प्रासादविशेषणवाचकानामत्र सङ्ग्रहो शेयः, स च राजप्रश्नीयसूत्रस्य मत्कृतबहुमज्झदेसभाए एस्थणं एगे महं ईसाणस देविंदस्स देवरको पासायडिंसगे पण्णत्ते) यहां चारों दिशाओं में तोरण-बहिार है यहां यास्पद से “नाना मणिमयानि" इत्यादिरूप से कहे गये तोरणों के विशेषणों का ग्रहण हुआ है इन्हें राजप्रश्नीय सूत्र की सुबोधिनी टीका से समझलेनी चाहिये इ. पुष्करिणियों के ठीक मध्यभाग में एक विशाल देवेन्द्र देवराज ईशान का प्रासादावतंसक-श्रेष्ठ प्रासाद-कहा गया है (पंच जोरसगाई उड़' उच्चत्तण अद्धाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेग, अभुग्गयमूशिय एवं सपरिवार पासायवडिंसगो भाणियव्यो) यह प्रासादावतंसक ऊंचाई में ५ योजन क है २५० योजनका इसका विष्कम्भ है "अभुग्गय इत्यादि पदों का जोकि प्रासादावतंसक के विशेषणरूप से प्रयुक्त किये गये हैं यहां संग्रह हुआ है इन पदों का संग्रह श्रीराजप्रश्नीय सूत्र से समझलेना चाहिये प्रासादातंसक का वर्णन मुख्यासन और गौणासन रूप परिवार सहित करलेना चाहिये (मंदर बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं ईसाणस्स देविंदरस देवरको पालायडिंसगे पण्णत्ते' मी यारे हिशासोमा २४- ५२-हे. २५डी यावत् ५४थी नाना मणिमयानि' वगैरे ३५मां કથિત તેણેના વિશેષણનું ગ્રહણ થયું છે. એ વિશેષણને અર્થ ‘ા પ્રશીયસૂત્ર” ની સુધિની ટીકામથી જાણી લેવું જોઈએ. એ પુષ્કરિણીઓના ઠીક મદ ભાગમાં એક વિશાળ हेवेन्द्र १२४ थाना प्रासारतस-श्रेष्ठ प्रासाद से, ‘पंच जोरणसयाइं उड्ढे उच्चत्तणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिध एवं सपरिवारो पासायडि सगो भाणियव्वो' मा प्रासाहवत स४ मा ५ थान २ छ. २५० येन सेना वि४४ छे. 'अभुग्गय पोरे पानी मात्र सेयर थये छ. प्रासाहाय. હિંસાના વિશેષણ રૂપમાં પ્રયુક્ત થયેલાં છે. એ પાને ભાવાર્થ રાજમશ્રીય સૂત્રમાંથી Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् सुबोधिनी टीकातः सार्थोऽवसेयः, 'एवं' एवम् -अनेन प्रकारेण 'सपरिवारो' सपरिवारः मुख्यासनगौणासनरूपपरिवारसहितः 'पासायवडिसो' प्रासादावतंसकः 'भाणिययो' भणितव्यः वक्तव्यः अथ प्रदक्षिणक्रमेण वर्तमानावशिष्टकोणगतपुष्करिण्यादि प्ररूपयितुमाह'मंदरम्स गं' मन्दरस्य मेरोः खलु एवं' एवम् उक्तरीत्या-भद्रशालबनं पञ्चाशतं योजनान्यवगाह्य 'दाहिणपुरथिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-अग्निकोणे 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः चतस्रः प्रज्ञप्ताः, ताश्च पूर्वक्रमेगेमाः 'उप्पलगुन्ना' उत्पलगुल्मा १ 'णलिणा' नलिना २ 'उप्पला' उत्पडा ३ 'उप्पलुजला' उत्पलोज्ज्वला ४ इति, 'तं चेत्र' तदेव ईशानकोणगतप्रासादप्रमाणमेष एतासामपि पुष्करिणीनां मध्यवर्तिप्रासादस्य ‘पमाणं' प्रमाणम् एतदग्निकोणगतपुष्करिणीनां 'मज्झे' मध्ये पासायडिंसओ' प्रासादावतंसकः 'सक्कस्स' शक्रस्य-शक्रेन्द्रस्य 'सपरिवारो' सपरिवारः परिवारसहितो वक्तव्यः, स च प्राग्वत् 'तेणं चेव' तेनैव-पूर्वोक्तेनैव 'पमाणेणं' प्रमाभेन वाच्यः 'दाहिणपच्चस्थिमेण वि' दक्षिणपश्चिमेनापि-नैर्ऋन्यकोणेऽपि 'पुक्लरिणीओ' पुष्करिण्यः चतस्रः प्रज्ञताः, ताश्च 'भिंगा' भृङ्गा १ 'भिंगनिभा' भृङ्गनिभा २ 'चेव' चैा 'अंजणा' अञ्जना ३ 'अंजणप्पभा' अञ्जनप्रभा ४ इति । एतन्नैर्ऋत्यकोणवर्तिस्सणं एवं दाहिणपुरथिमेणं पुकवरिणीओ उप्पलगुम्माणलिणा उप्पला उप्पलुजला तंचेव पमाणं मज्झे पासायडिंसओ सक्कस्स सपरिवारो) इसी प्रकार मन्दर मेरुके भद्रशाल वनके भीतर ५० योजन जानेपर आग्नेयकोण में चार पुष्करिणियां हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं उत्पलगुल्मा १, नलिना २ उत्पला ३ और उत्पलोज्ज्वला ४ इन पुष्करिणियों के भी ठीक मध्यभाग में एक प्रासादाब. तंसक है इसका भी यहां पर प्रमाण ईशान कोणगत प्रासादावतंसक के जितना ही है यह देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र का है यहां पर शक्रेन्द्र अपने परिवार सहित रहता है ऐसा वर्णन इसका भी करलेना चाहिये (ते णं चेव पमाणेणं दाहिणपच्चस्थिमेणवि पुस्खरिणीओ भिंगा, भिंगनिभा चेव, अंजणा अंजणप्पभा पासायवडिंसओ सक्कस्स सीहासणं सपरिवारं) इसी प्रकार से नैर्ऋतकोण में સમજી લેવો જોઈએ. પ્રાસ દાવંતસકનું વર્ણન મુખાસન અને ગૌણાસન રૂપે પરિવાર સહિત ४री से नये. 'भंदरस्स णं एवं दाहिणपुरस्थिमेण पुनखरिणीओ उप्पलगुम्मा णलिणा उप्पला उप्पलुज्जला तं चेव पमाणं मज्झे पासायव डिसओं सक्कस्स सपरिवारो' मा प्रभार જ મન્દર મેરુના ભદ્રશાલવનની અંદર ૫૦ સેજલ ગયા પછી આગ્નેય કોણમાં ચાર પુષ્કरिणीया छ. तभना नामा ॥ प्रमाणे छे--पशु-१, नलिना-२, पक्षा-3, अने ઉત્પલેજજવલા ૪. એ પુષ્કરિણીઓના પણ ઠીક મધ્યભાગમાં એક પ્રાસાદાવતંસક છે. એનું પ્રમાણ પણ ઈશાન કેણુગત પ્રાસાદાવતંક જેટલું જ છે. આ પ્રાસાદાવતંસક દેવેન્દ્ર દેવરાજને છે. અહીં શબ્દ પિતાના પરિવાર સાથે રહે છે. એવું વર્ણન એનું પણ કરી લેવું જોઈએ 'वेणं चेव पमाणेणं दाहिणपच्चत्थिमेण वि पुक्खरिणीओ भिंगा, भिंगनिभा चेव, अंजणा, Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र पुष्करिणी बहुमध्यदेशभागवर्ती 'पासायवडिंसओ' प्रासादावतंसकः 'सकस' शक्रस्यशक्रेन्द्रस्य शक्रेन्द्राधिष्ठितोऽयमितिभावः, तत्प्रासादावतंसकवर्ति 'सीमासणं' सिंहासन 'सपरिवारं' सपरिवारं-भद्रासनादि परिवारसहितं पूर्ववदेवात्रापि वक्तव्यम्, तथा 'उत्तरपञ्च. त्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन वायव्यकोणे 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः सिरिकता' श्रीकान्ता १ 'सिरिचंदा' श्रीचन्द्रा २ 'सिरिमहिया' श्रीमहिता ३ 'चेव' चैव 'सिरिणिलया' श्रीनिलया ४ एतत्पुष्करिणी बहुमध्यदेश भागवर्ती 'पासायडिंसओ' प्रासादावतंसकः 'ईसाणस्स' ईशानस्य-ईशानेन्द्रस्य तत्प्रासादमध्यवर्ति 'सीहासणं' सिंहासनं 'सारिवारं' सपरिवारंभद्रासनादि परिवारसहितं वक्तव्यमिति । अधुनाऽस्मिन्नेव भद्रशालवने दिग्वस्तिकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते-'मंदरे णं' इत्यादि-मन्दरे-मेरो खलु 'भंते !' भदन्त ! 'पन्नए' पर्वते 'भद्दसालवणे' भद्रशालवने 'कई' कति कियन्ति 'दिसाहथिकूडा' दिगृहस्तिकूटानि 'पण्णता ?' भी चार पुष्करिणियां है उनके नाम इस प्रकार से हैं-भृङ्गा, भृङ्गनिभा, अंजना और अञ्जनप्रभा इन पुष्करिणियों के ठीक मध्यभाग में प्रासादावतंसक है यह प्रासादावतंसक भी शक्रेन्द्र से अधिष्ठित है इस प्रासादावतंसक का मध्यवता सिंहासन भी पूर्व की तरह अपने परिवारभूत अन्य सिंहासनों से परिवेष्टित है (उत्तरपुरथिमेणं पुक्खरिणिओ) इसी प्रकार वायव्यकोण में भी पुक्खरिणियां हैं उनके नाम (सिरिकता, सिरिचंदा, सिरीमहिया चेव सिरिणिलया) श्री कान्ता, श्रीचन्द्रा, श्री महिता, और श्री निलया है (पासायडिंसओ ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारं) इनके मध्यभाग में भी प्रासादावतंसक कहे गये हैं यह प्रासा दावतंसक ईशानेन्द्रका है इस प्रासादावतंसक का मध्यवर्ती सिंहासन भीअपनेअपने परिवारभूत सिंहासनों के साथ वर्णित करलेना चाहिये (मंदरेणंभंते !पव्वए भहसालवणे कइ दिसाहत्थिकूडा पण्णत्ता हे भदन्त ! इस मन्दरपर्वतवर्ती अंजणप्पभा पासायवडिंसओ सक्कस्स सीहासणं सपरिवार' मा प्रभारी नेत्य मां पर यार ५४रिणीय छे. तेमना नाभी प्रमाणे छ-न-१, मनिला-२, 24113, અને અંજનપ્રભા ૪. આ પુષ્કરિણીઓના ઠીક મધ્યભાગમાં પ્રાસાદાવંતસક છે. આ પ્રાસા- દાવંતસક પણ શકેન્દ્ર વડે અધિષ્ઠિત છે. આ પ્રાસાદાવતંસકનું મધ્યવતી સિંહાસન પણ पलानी म पाताना परिवार भूत अन्य सिंहासनाथी परिवटित छ. 'उत्तरपुरस्थिमेणं पुक्खरिणिओ' मा प्रमाणे वायव्य शुभा ५९य पुरिणीय छे. तमना नाभ। मा प्रभारी छ-'सिरिकता, सिरिचंदा, सिरिमहिया चेव सिरिणिलया' श्री हन्ता, श्री यन्द्री, श्री भडिता भने श्री निसया. 'पासायव डिसओ ईसाणस्स सीहसणं सपरिवारं' अमना मध्य ભાગમાં પણ પ્રાસાદાવતંસક આવેલા છે. એ પ્રસાદાવંતસક ઈશાનેન્દ્ર છે. આ પ્રાસા દાવતસકનું મધ્યવર્તી સિંહાસન પણ પિત–પિતાના પરિવાર ભૂત સિંહાસની સાથે વર્ણિતા श से नये. 'मंदरेणं भंते ! पव्वए भहसालवणे कइ दिसाहत्थि कूडा पण्णत्ता' महन्त ! ખા બંદર પર્વતવતી ભદ્રશાલ વનમાં કેટલા દિહરિત કૂટો આવેલા છે ? અ ફૂટે ઈશાન Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् ४४५ प्रज्ञतानि ?, 'गोयमा " गौतम ! 'अट्ठ' अष्ट 'दिसाहत्थिकूडा' दिग्रहस्तिकूटानि दिक्षु ऐशान्यादिषु विदिगादिषु हस्तिकूटानि हस्त्याकाराणि कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा 'पउमुत्तरे' पद्मोत्तरः १, 'णीलवंते' नीलवान् २, 'सुहत्थी' सुहस्ती ३, 'अंजणगिरी' अञ्जनगिरिः, अत्राञ्जनशब्दस्य 'वनगिर्योः संज्ञायां कोटरकिं' शुलुकादीनाम् । ६|३|११७ ||' इति पाणिनीयसूत्रेण दीर्घः ४, 'कुमुदे य' कुमुदश्च ५, 'पलासे य' पलाशच ६, 'वर्डिसे' वतंसः ७, 'रोयणागिरी' रोचना गिरिः क्वचिद् रोहणागिरिः पठ्यते अत्रापि उपरितनसूत्रेणैव दीर्घः ८ | || १॥ अथैषां कूटानां दिशो व्यवस्थापयितुमुपक्रमते - 'कहि णं भंते!" इत्यादि - क खलु भदन्त ! 'मंदरे पव्वए' मन्दरे पर्वते, 'भदसालवणे' भद्रशालवने 'पउमुत्तरे' पद्मोतरः पद्मोदरं 'णा' नाम प्रसिद्धं 'दिसाहस्तिकूडे ' दिगृहस्तिकूटं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् कथितम् ? 'गोयमा !' गौतम ! 'मंदरस्स पञ्चयस्स' मन्दरस्स पर्वतस्य 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन - ईशानकोणे 'पुरथिमिल्लाए' पौरस्त्यायाः - पूर्वदिग्वर्तिन्याः भद्रशाल वन में कितने दिगहस्ति कूट कहे गये हैं । ये कूट ईशान आदि विदिशाओं में एवं पूर्वादि दिशाओं में होते हैं और आकार इसका हस्ति का जैसा होता है इस कारण इनको हस्तिकूट कहा गया है उत्तर में प्रभु कहते हैं - (गोपमा ! अट्ठ दिसाहस्थि कूडा पण्णत्ता) हे गौतम! आठ दिगहस्तिकूट कहे गये हैं (तं जहा) जो इस प्रकार से है (पउमुत्तरे १ णीलवंते२ सुहस्थि३, अंजणागिरि४, कुमुदेअ५ पलासे ६, वर्डिसे७, रोयणागिरि ॥८॥ ) पद्मोत्तर १, नीलवान् २ सुहस्ति ३, अंजनगिरि४, कुमुद, पलाश, वतं स७ और रोचनागिरि या रोहणागिरि (कहिणं भंते ! मन्दरे पवए भहसालवणे पउमुत्तरे णानं दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते) हे भदन्त ! मन्दर पर्वत पर वर्तमान भद्रशाल वन में पद्मोत्तर नामका दिए हस्तिकूट कहां पर कहा गया है ? उत्तर मे प्रभु कहते है (गोयमा ! मंदरस्स फवग्रस्त उत्तरपुरत्थिमेणं पुरथिमिल्लाए सीयाए उत्तरेणं एत्थणं परमुत्तरे णामं दिशाहत्थि कूडे पण्णत्ते) हे गौतम! વગેરે વિદિશાઓમાં તેમજ પૂર્વાદ ક્રિશાએમાં હાય છે. અને આકાર એમનેા હસ્તિક જેવા હાય છે. એથી જ એ હસ્તિફૂટ કહેવામાં આવ્યા છે. જવાબમાં પ્રભુ કહે છે— 'mant! ag fengfage; qonar' & lau! 28 Gogfa şi sequi mida v. ३, सुत्थि ४, अंजणागिरि ५, कुमु , पद्मोत्तर - १, नीतवान्-२, सुद्धस्ति अने शथनागिरि शहाजिरि 'तं जहा' ते या प्रमाणे छे - १ पउमुत्तरे २ णीलवंते अ ६, पलासे ७, वडिसे ८, रोयणागिरि ९ ||१|| 3, मननगिरि–४, भुह-य, पलाश - ६, वतंस-७, 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वर भहसालवणे पउमुत्तरे णामं दिस (हथिकूडे पण्णत्ते' हे अहं'त ! મંદર પર્વત ઉપર વમાન ભદ્રશાલવનમાં પદ્માત્તર નામક દિવ્હસ્તિ ફૂટ કાચા સ્થળે आवे छे ? उत्तर अलु डे हे - 'गोयमा ! मंदरस्स पव्त्रयस्स उत्तरपुरत्थिमेणं पुरस्थि - मिल्लाए सीयाए उत्तरेणं एत्थणं पउमुत्तरे णामं दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते' हे गौतम! मंडर Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्र 'सोयाए' शीलाया मदानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि ‘एत्य अत्र-अनान्तरे 'ण' खलु 'पउभुत्तरे' पनोत्तर:-पद्मोत्तरनामकं 'णाम' नाम प्रसिद्धं 'दिसाहस्तिकूडे' दिग्हस्तिकूटं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तच्च 'पंचजोयणसयाई' पंत्र योजनशतानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' उर्ध्वमुच्चत्वेन 'पंचगाउयसयाई' पञ्चगव्यूशतानि 'उ वेहेणं' उद्वेधेन-भूमिप्रवेशेन ‘एवं' एवम् उच्चत्वादिवत् 'विक्खंभपरिक्खेवो' विष्कम्भपरिक्षेपः विष्कम्भपरिक्षेपः विष्कम्भो विस्तारस्तत्सहितः परिक्षेपः परिधिः 'माणियञ्यो' भणितव्यः वक्तव्यः, तथाहि मूले पञ्चयोजनशतानि मध्ये योजनानां शतत्रयम् पञ्चसप्तत्यधिकम् उपरि अर्द्धतृतीयानि योजनशतानीत्येवंरूपो विष्कम्भः, परिक्षेपश्च-मूले पञ्चदशयोजनशतानि एकाशीत्यधि कानि, मध्ये एकादशयोजनशतानि षडशीत्यधिकानि किश्चिदनानि उपरि किश्चिन्यूनानि एकनवत्यधिकानि सप्त योजनशतानि इत्येवं रूपः 'चुल्ल हिमवंतस रिसो' क्षुद्रहिमवत्सदृशो वक्तव्यः (पासायाण य) प्रासादानां च मन्दर पर्वत की उत्तरदिशा और पूर्वदिशा के अन्तराल में-इशान कोणमें पद्मोत्तर नापका दिग्हस्निकूट कहा गया है (पंव जोयणमयाई उद्धं उच्चत्तर्ण पंच गाउयल्याई उव्वेहेणं एवं विक्खंभपरिक्खेवो भाणियव्यो चुल्लहिमवंतसरिसो) यह कूट पांचसो योजन की ऊंचाई वाला है तथा जमीन के भीतर यह पांचसौ कोश तक नीचे गया है अर्थात जमीन के भीतर इसकी नीव ५०० कोशतक गहरी गई हुई है विष्कम्भ और परिक्षेप इसका इस प्रकार से है मूलमें इसका विष्कम्भ ५०० पांचसो योजन का है मध्यमे इसका विस्तार ३०० तीनसौ ७५ योजन का है और ऊपर में इसका विस्तार २५० योजन का है मूलमें इसका परिक्षेत्र १५८१ सौ योजन का है मध्य में इसका परिक्षेत्र कुछका ११८६ योजन का है और ऊपर में इसका परिक्षेप कुछ कम ७९१ योजन का है। इस तरह यह कूट क्षुद्र हिमवान् पर्वत के जैसा है (पासायाग य तं चेव) जो प्रमाण क्षुद्रहीमवत् પર્વતની ઉત્તર દિશા અને પૂર્વ દિશાના અંતરાલમાં ઈશાન કોણમાં તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી शीता महा नहीनी उत्तर ६शामा पभेत्तरे नाम (स्ति छूट मा छे 'पंच जोयणसगाई उद्धं उच्चत्तेणं पंच गाउयसयाइं उन्हेणं एवं विक्खंभपरिक्खेको भाणियन्बो चुल्लहिमવંતરિતો’ આ કૂટ પાંચસે જન જેટલી ઊંચાઇવાળે છે તેમજ જમીનની અંદર પણ પાંચસે ગાઉ સુધી નીચે ગયેલે છે. એટલે કે જીનની અંદર એની નીમ ૫૦૦ ગાઉ જેટલી ઉંડી છે. એના વિષ્ક–પરિક્ષેપ આ પ્રમાણે છે. મૂલમાં એને ઝિંભ ૫૦૦ જન જેટલું છે. મધ્યમાં અને વિસ્તાર ૩૭૫ રજન જેટલો છે અને ઉપર એનો વિસ્તાર ૨૫૦ જન જેટલું છે એ પરિક્ષેપ ૧૫૮૧ જન જેટલો છે. મધ્યમાં એને પરિક્ષેપ કંઈક કમ ૧૧૮૬ જનને છે, અને ઉપર તેને પરિક્ષેપ ૭૯૧ જન જેટલો છે. આ प्रमाण मा क्षुद्र भिवान पत रेवा छे. 'पासायाणव तं चेव' २८ प्रमाण क्षुद्रलिमવત્ કૂટપતિના પ્રાસાદ માટે કહેવામાં આવેલું છે, તેટલું જ પ્રમાણ આની ઉપર આવેલાં Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् ४४७ 'तं चेव' तदेव प्रमाणम् बोध्यं यत् क्षुद्रहिमवत्कूटाधिपप्रासादस्य, अत्र बहुत्वेन निर्देशो वक्ष्यमाण दिग्दस्तिकूटवर्ति प्रासादेष्वपि प्रमाणसाम्यसूचनार्थः, पद्मोत्तरस्याधिपतिमाह'पउमुत्तरो देवो' पद्मोत्तरः पद्मोत्तर नामको देवः तदधिपतिरस्तीति शेषः, अस्य देवस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तपुरथिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे तद्वति कूटाधिपत्वादिति १, अथ शेषकूटानि प्रदक्षिणक्रमेण वर्णयितुमतिदिशति-'एवं णीलवंतदिसाहथिकूडे' इत्यादि एवम् उक्तप्रकारेण नीलबदिग्दस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'दाहिणपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-अग्निकोणे 'पुरथिमिल्लाए' पौरस्त्यायाः 'सीयाए' शीताया महानद्याः 'दक्खिजेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि बोध्यम्, 'एयस्स वि' एतस्थापि नीलवनामकस्यापि कूटस्य णीलवंतो देवो' नीलवान् देवः अधिपतिः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी दाहिणपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन अग्निकोणे अस्तीति शेषः २, 'एवं' एवम् उक्ट वत् 'सुहत्थि दिसाहत्थिकूडे' सुहस्तिदिग्हस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दस्य पर्वतस्य (दाहिणपुरस्थिमेणं) दक्षिण कूरपति के प्रासाद का कहा गया है वही उसके ऊपर रहे हए देव प्रासादों का कहा गया है। यहाँ बहुवचन का निर्देश वक्ष्यमाणदिग्हस्ति कूटयति प्रासादों को लेकर किया गया है अतः उन सबके प्रमाण भी क्षुद्र हिमवत् कूट के अधिपति के प्रासाद के जैसा ही है ऐसा प्रकट किया गया जानना चाहिये (पउमुत्तरो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणं) इस पद्मोत्तर दिग्हस्तिकूट का अधिपति पद्मोत्तर मामका देव है इसकी राजधानी ईशानकोणमे है । (एवं णीलवंत दिसाहन्थिकूडे मंडरस्स दाहिणपुरत्थेिमेणं पुरथिमिल्लाए सीयाए दक्षिणेणं एयस्स विणीलबंतो देवो रायहाणी दाहिणपुरधिमेणं) इसी प्रकार नीलवन्तदिग्हस्ति कूट मन्दर पर्वत के अग्निकोण में तथा पूर्व दिग्वर्ती सीता महानदी की दक्षिण दिशा में है इस नीलवन्त नामक दिग्हस्ति कूटका अधिपति इसी नामका है इसकी राजधानी इस दिग्दस्लिकूट के आग्नेयकोण में है। (एवं सुहस्थिदिसाहत्थिकूटे अंदर दाहिणपुरस्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पुरथिमेणं દેવ પ્રાસાદ્યો માટે પણ જાણવું. અહીં બહુવચન કથન વક્સમાણ દિલ્ડસ્તિકૂટવતી પ્રાસાદોને લઈને કરવામાં આવેલું છે. એથી તે બધાનું પ્રમાણ પણ ક્ષુદ્રહિમવત્ ફૂટના અધિપતિના प्रसादु छ, मेवु नी यु नये. 'पउगुत्तरो देवो रायहाणी उत्तरपुरथि મેળ' આ પત્તર દિહતિ ફૂટને અધિપતિ પત્તર નામક દેવ છે. એની રાજધાની शान म. सावी . 'एवं णीलवंतदिसाहन्थिकूडे मंदस्त दाहिणपुरस्थिमेणं पुरथिमिल्लार सीयोए दक्खिणेणं एयस्स वि णीलवंतो देवो रायहाणी-दाहिणपुरस्थिमेणं' मा પ્રમાણે જ નીલવન્ત દિગ્વસ્તિ ફૂટ મન્દર પર્વતના અગ્નિકોણમાં તેમજ પૂર્વ દિગ્વતી સીતા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ છે. આ નીલતન્ત નામક દિહસ્તિ ફૂટને અધિ પતિ એ જ નામ છે એની રાજધાની મા દિતિ ફૂટના આગ્નેય કેશુમાં આવેલી Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपमासिस्वे पौरस्त्येन अग्निकोणे 'दविखणिल्लाए' दाक्षिणात्यायाः दक्षिणदिग्वतिन्याः 'सीओयाए' शीतोदायाः 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि अस्तीति शेषः 'एयस्स वि' एतस्यापि मुहस्थिनामकस्यापि कूटस्य 'सुहत्थी' सुहस्ति नामकः 'देवो' देवः अधिपतिः अस्तीति शेषः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दाहिणपुरस्थिमेणं' दक्षिणपौरस्त्येन-अग्निकोणे अग्निकोणपतिकूटाधिपतित्वात् ३, ‘एवंचेव' एवमेव उक्तप्रकारेणैव 'अंजणागिरिदिसाहत्थिकूडे' अञ्जनागिरिदिग्हस्तिकूटं 'मदरस्स' मन्दरस्य मेरोः पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैत्यकोणे 'दक्खिणिल्लाए' दाक्षिणात्याः दक्षिणाभिमुखं वहन्त्याः 'सीओयाए' शीतोदायाः महानद्याः 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि अस्तीति शेषः, 'एएस्स वि' 'एतस्स वि' एतस्यापि कूटस्य अंजनागिरी देवो अञ्जनागिरि नाम देवः अधिपोऽस्ति, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दाहिण पचत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैऋत्यकोणेऽस्ति ४, ‘एवं' एवम् अनेन प्रकारेण 'कुमुदे वि दिसाइरिथडे' कुमुदः कुमुदा विदिग्दस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'दाहिणपच्चत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन नैत्रत्यकोणे 'पन्चथिमिल्लाए' पाश्चिमात्यायाः-पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः 'सीओयाए' शीतोदाया महानद्याः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेनएयरस विसुहत्थि देवो रायहाणी दाहिणपुरथिमेणं) सुहस्ती नामका दिग्हस्तिकूट भी मन्दर पर्वत की आग्नेय विदिशा में हैं तथा दक्षिण दिगवर्ती सीतोदा. नदी की पूर्वदिशा में है इस कूटका भी अधिपति सुहस्ती नामका देव है और इसकी राजधानी आग्नेयकोण में है (एवंचेच अंजणागिरि दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं दक्खिणिल्लाए सीयोयाए पच्चत्थिमेगं एयस्स वि अंजणगिरि देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमे गं) अंजनगिरि नामका जो दिग्हस्तिकूट है वह मन्दर पर्वत की नैऋतविदिशा में है तथा दक्षिण की ओर बहती हुई सीतोदा महानदी की पश्चिमदिशा में है इस कूट पर इसी नामका देव रहता है इसकी राजधानी इसी कूट के नैतकोने में है । (एवं कुमुदे विदिसाहथिकूडे मंदरस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमिल्लाए सीओआए दक्खिणेण) कुमुद 5. एवं सहत्थि दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपुरथिमेणं दक्खिणिल्लाए सीओआए पुरथिमेणं एयस्स वि सुहत्थिदेवो रायहाणी दाहिणपुरस्थिमेणं' सुस्ति नाम हस्ति। પણ મંદર પર્વતની અને વિદિશામાં આવેલ છે તથા દક્ષિણ દિગ્વતી સીતાદા નદીની પ દિશામાં આવેલ છે. આ ફૂટને અધિપતિ પણ સુહસ્તી નામક દેવ છે અને એની समाधान मानेय भां मावली ले. 'एवं चेव अंजणागिरि दिसाहत्थिकूडे मंदरस्स दाहिणपनि म रिनामे रे हस्तिदूट छे. ते भन्४२ पतनी नैऋत्य दिशामा छ તથા દક્ષિણ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી સીતેદા નામની મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં છે એ કુટ ઉપર એજ નામને દેવ રહે છે એની રાજધાની એજ કૂટના નૈવલ્ય કેણમાં આવેલી एवं कुमुदे विदिसाहत्थिकूडे मंदररस दाहिणपच्चत्थिमेणं पच्चथिमिल्लाए सीओआए Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३६ मेरुपर्वतस्य वर्णनम् दक्षिणदिशि विद्या इति शेषः (एयस्सवि) एतस्यापि कूटस्य 'कुमुदो देवो' कुमुदो नामदेवाअधिपोऽस्ति अस्य 'रायहाणी' राजधानी दाक्षिणपचत्थिमेणं' दक्षिणपश्चिमेन-नैर्ऋत्यको णेऽस्ति ५, ‘एवं' एवम् बनेन प्रकारेण 'पलासे' पलाश:-पलाशाभिधं 'विदिसाहथिकूडे' विदिग्ह स्तिकूट 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन वायव्यकोणे 'पञ्चस्थि. मिल्लाए' पाश्चिमात्यायाः पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः 'सीयोयाए' शीतोदाया माहानद्याः 'उत्त. रेणं उत्तरेण-'उत्तरदिशि अस्तीति शेष: 'एयस्स वि' एतस्यापि कूटस्य 'पलासे देवो' पलाशो नाम देव:-अधिपतिरस्तीति शेषः, अस्य 'रायहाणो' राजधानी 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन वायव्य कोणे अस्तीति शेषः ६, 'एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'वडेंसे' अवतंस:--अवतं. साभिधं 'विदिसाहत्यिकडे' विदिग्हस्ति कूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपच्चत्थिमेणं' उत्तरपश्चिमेन-वाय कोणे 'उत्तरिल्लाए' औत्तराद्याः उत्तराभिमुखं वहन्त्याः 'सीयाए' शीतायाः 'महाणईए' महानधाः 'पत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि विद्यत इति शेषः, 'एयस्स नामका जो दिग्हस्निकूट है वह मन्दर पर्वत की नैऋतकोण में है तथा पश्चिम. दिशा की ओर बहती हुई शीतोदा महानदी की दक्षिण दिशा में है (एयस्स वि कुमुदो देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेणं) इस कट के अधिपति का नाम कुमुद है और यह देव है इसकी राजधानी इस कूट की नैऋतरूप विदिशा में है (एवं पलाने वि दिसाहत्थिकडे मंदरस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पच्चधिमिल्लाए सीओआए उत्तरेण एयस वि पलासो देवो रायहाणी उत्तरपच्चधिमेण) इसी सरह पलाश नामका जो दिग्नास्तिकट है यह कूट भी मन्दर पर्वत की वायव्यकोणरूप विदिशा में हैं तथा पश्चिमदिशा की ओर बहनेवाली शीतोदा महानदी की उत्तरदिशा में है इस कटका देव इसी पलाश नामका है इसकी राजधानी वायव्यकोण में है (एवं वडेंले विदिसाहस्थिडे संदरस्स उत्तरपच्चस्थिमेणं उत्तरिल्लाए दक्खिणेणं' मुह नामे हस्ति दूट छ त मन्४२ ५ तना नत्य मा मावस छ તથા પશ્ચિમ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીદા મહાનદીની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ છે. 'एयस्स वि कुमुदो देवो रायहाणी दाहिणपच्चत्थिमेणं' २॥ यूटना धिपतिनु नाम मुह છે અને આ અધિપતિ દેવ છે. એની રાજધાની આ ફૂટના નિત્ય રૂ૫ દિશામાં આવેલી छ. 'एवं पलासे विदिसाहत्थिकूडे मंदरस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं पच्चस्थिमिल्लाए सीओआए उत्तरेणं एयस्स वि पलासो देवो रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं' 0 प्रमाणे ताश नाम: દિલ્ડસ્તિ કૂટ છે, આ કૂટ પણ મન્દર પર્વતની વાયવ્ય-કણ રૂપ વિદિશામાં આવેલ છે. તેમજ પશ્ચિમ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી શીદા મહાનદીની ઉત્તર દિશા માં આવેલ છે. આ કૂટને દેવ પલાશ નામથી જ સુપ્રસિદ્ધ છે અને એની રાજધાની વાયવ્ય કોણમાં આવેલી છે. ___ 'एवं वडेसे विदिसाहत्थिकूडे मदरस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीयाए महाण Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप प्रचप्तिसूत्रे वि' एतस्यापि कूटस्य 'वडे सो देवो' अवतंसो नाम देवः अधिपतिरस्तीति शेषः, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरपच्चस्थिमेणं' उत्तरपश्चिगेन-वायव्य कोणे अस्तीति शेषः ७, ‘एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण 'रोयणागिरी' रोचनागिरिः एतनामकं 'दिसाहथिकूडे' दिग्हस्तिकूटं 'मंदरस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'उत्तरपुरस्थियेणं' उत्तरपौरस्त्येन-ईशानकोणे 'उत्तरिल्लाए' औत्तराद्याः उत्तराभिपुखं वहन्त्याः 'सीपाए' शीताया. महानद्याः 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येनपूर्वदिशि विद्यत इति शेषः 'एयस्स वि' एतस्यापि कूटस्य शेयणागिरी देवो' रोदनागिरिनाम देवः अधिपतिरस्ति अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तर पुरथिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे वर्तेत इति शेषः ८॥ सू०३६ ॥ अथ नन्दनवनं वर्णयितुमुपक्रमते-कहि णं भंते ! मंदरे' इत्यादि। मूलम्-कहि णं भंते ! भंदरे फनए णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते?, गोयमा ! भदसालवणस्त बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ पंचजोयणसयाई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पवए गंदणरणे णानं वणे पण्णत्ते पंच जोयणसयाइं चकवालविक्खंभेणं बटे वलयाकारसंठाणुसंठिए जे णं मंदरं पव्वयं सवओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइति णवजोयणसीयाए महाणईए पच्चत्यिमेणं एयस्स वि वडेंसो देवो रायहाणी उत्तरपच्चस्थिमेणं) वतंस नामका जो दिग्हस्तिकूट है वह मन्दर पर्वत की वाय विदिशा में है तथा उत्तरदिशा की ओर वहनेवाली सीता महानदी की पश्चिमदिशा में है इस कूट के अधिपति देवका नाम क्तंस है इसकी राजधानी वायव्यकोण में है (एवं रोअणागिरि दिसा हथिकूडे मंदरस्स उत्तरपुरस्थिमेगी, उत्तरिल्लाए सीआए पुरस्थिमेणं एयस्स वि रोयणागिरि देवो रायहाणी उत्तर पुरथिमेणं) रोचनागिरि नामका जो दिग्हस्तिकूट है वह अन्दर पर्वत की ईशान विदिशा में है तथा उत्तरदिशा की ओर वहती हुई सीतानदी की पूर्व दिशा में इस कूट के अधिपति का नाम रोचनागिरि है इसकी राजधानी ईशानकोण में है ॥३६॥ ईए पच्चत्थिमेणं एयस्स वि वडेंसो देवो रायहाणी उत्तरपच्चत्थिमेणं' पतस नाम - હસ્તિ ફૂટ છે તે મંદર પર્વતની વાયવ્ય-વિદિશામાં આવેલ છે તેમજ ઉત્તર દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી સીતા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં છે. આ ફૂટના અધિપતિ દેવનું નામ વતંસ छ. सनी यानी वाव्य शुभां भावी छे. “एवं रोअणागिरि दिसाहत्थि कूडे मंदरस्स उत्तरपुत्थिमेणं उत्तरिल्लाए सीआए पुरथिमेणं एचस्स वि रोयणगिरि देवो रायहाणी उत्तर पुरथिमेणं' शयन नाम तिट छ, ते भन्६२ ५६ तनी शान वशमा આવેલ છે તથા ઉત્તર દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી સીતા નદીની પૂર્વ દિશામાં આવેલ છે. આ કટના અધિપતિનું નામ રચનગિરિ છે. એની રાજધાની ઈશાન કેણુમાં આવેલી છે. સૂત્ર ૩૬ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम् ગ सहस्साई णत्र य चउप्पपणे जोवणसए छच्चेगारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिवि एमडी जोयणसहस्साइ चत्तारि य अउणासीए जोयसर किंचितसाहिए चाहिं गिरिपरिरएणं अटू जोयणसहस्साइं णव व चप्पण्णे जोगणसए उच्चेगारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खनो अट्ठावीस जोगणसहस्साई तिमि य सोलसुत्तरे जोयणसए अट्ट य इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरए, सेणं एगाए पउमरवाए एंगेज व वयसंडेणं सनओ समंता संपरिक्खित्ते वण्णओ जात्र देवा आतयंति, मंदरस्त णं पव्वयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पगत्ते, एवं चउद्दिसिं चत्तारि सिद्धाययणा विदिसासु पुत्रखरिणीओ तं चैव पमाणं सिद्धाययणाणं पुक्खरिणीणं च पासायडिंगा तहचेत्र सक्केसाणाणं तेणं चेव पमाणेणं, णंदणवणेगं भंते! कद कूडा पण्णत्ता ?, गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-दणत्रणकूडे १ मंदरकूडे २ सिहकूडे ३ हिमवयकूडे ४ रययकूडे५ रुयगकूडे६ सागरचित्तकूडे७ वइरकूडेट बलकूडे ९ । कहि णं भंते ! णंदणत्रणे णंदणवणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ?. गोयमा ! मंदरस्स पव्यस्त : पुरथिमिल्ल सिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासावडेंसयस्स दक्खिणे ं, एत्थ णं णंदणवणे णंदणवणे णामं कूडे पण्णत्ते पंच सइया कूडा पुव्ववण्णिया भाणियव्वा, देवी मेहंकरा रायहाणी विदिसान ति१, एयाहिं चेत्र पुत्राभिलावेणं णेयव्वा, इमे कूडा इमाहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरत्थिमि. ल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं मंदरे कूडे मेहवई रायहाणी पुठवेणं२ दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेणं दाहिणपुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स रच्च स्थिमेणं जिस कूडे सुमेहा देवी रायहाणी दक्षिणेणं३ दक्खि जिल्लस्स भवगस्स पञ्चत्थिमेणं दक्षिण रच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरत्थिमेणं हेमत्रए कूडे हेममालिणी देवी रायहाणी दक्खि Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुंदई जम्बूद्वीपतिसूत्रे पणेणं, दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पञ्च्चत्थिमेणं दक्खिणपञ्च्चत्थिमिज्लस्स पासाय वडेंसगस्स उत्तरेणं रथए कूडे सुत्रच्छा देवी राहाणी पञ्चस्थिमेणं५ पच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपचत्थिमि मल्लरूस पासाय asia दक्खिगं रुयगे कूडे वच्छमिता देवी राहाणी पञ्चत्थि - मेणं६ उत्तरिल्लस्त भवणस्स पञ्च्चत्थिमेणं उत्तरपञ्चत्थिमिल्लस्स पासाय वडेंसगस्स पुरस्थिमेणं सागरवित्ते कूडे वइरसेका देवी राहाणी उत्त रेण७ उत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेवं उत्तरपुर स्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरस्थिमेणं सागरवित्ते कूडे बइसेगा देवी रायहानी उत्तरेणं७ उत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरस्थिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पञ्च्चत्थिमेणं वइरकूडे बलाहया देवी रायहाणी उत्तरेणंतिट, कहि भंते ! णंदणवणे बलकडे णामं कूडे पष्णते ?, गोयमा ! मंदरस्त पवयस्स उत्तरपुर स्थिमेणं एत्थ णं णंदणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, एवं जं चेत्र हरिस्तहकूडस्स पमाणं रायहाणी य तं चेत्र बलकूडस्स वि, णवरं बलो देवो रायहाणी उत्तरदुरस्थिमेणं ॥ सु० ३७॥ छाया - क खलु भदन्त ! मन्दरे पर्वते नन्दनवनं नाम वनं प्रज्ञतम् ? गौवन ! भद्रशालमनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिभागात् पञ्च योजनशतानि ऊर्ध्वमुत्पत्य अत्र खलु मन्दरे पर्वते नन्दनवनं नाम वनं प्रज्ञतम् पञ्च योजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेण वृत्तं वलयाकार संस्थानसंस्थितं यत् खलु मन्दरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य खलु तिष्ठतीति नवयोजनसह स्राणि नव च चतुष्पञ्चाशानि योजनशतानि षट् चैकादश भागान् योजनस्य बहिर्गिरिविष्कम्भः एकत्रिंशतं योजनसहस्राणि चत्वारि च ऊनाशीतानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिsaf बहिर्गिरिरयेण अष्ट योजनसहस्राणि नव च चतुष्पञ्चाशानि योजनशतानि षट् चैकादशभागान् योजनस्य अन्तर्गिरिविष्कम्भः अष्टाविंशतिं योजनसहस्राणि त्रीणि च षोडशोत्तराणि योजनशतानि अष्ट च एकादशभागान् योजनस्य अन्तर्गिरिपरिरयेण तत् खलु एकया पद्मवर वेदिकया एकेन च वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तम्, वर्णकः यावद् देवा आसते, मन्दरस्य खलु पर्वतस्य पौरस्त्येन अत्र खलु महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम्, एवं चतुर्दिशि चत्वारि सिद्धायतनानि विदिक्षु पुष्करिण्यः तदेव प्रमाणं सिद्धायतनानां पुष्करिणीनां च प्रासादावतंसकास्तथैव शक्रेशानयोः तेनैव प्रमाणेन, नन्दनवने खलु भदन्त ! कति कूट। नि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! नव कटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - नन्दनवनकूटं १ मन्दरकूटं २ निषधकूटं Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम् ३ हिमव कूट ४ रजतकूटं ५ रुचककूटं ६ सागरचित्रकूटं ७ वज्रकूटं ८ बलकूटम् ९ क्व खलु भदन्त ! नन्दनवने नन्दनवनकूटं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् 2, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्यसिद्धायतनस्य उत्तरेणं उत्तरपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन, अत्र खलु नन्दनवने नन्दनवनं नाम कूटं प्रज्ञप्तं पञ्चशतानि कूटानि पूर्ववर्णितानि भणितव्यानि, देवी मेघङ्करा राजधानी विदिशति १, एताभिरेव पूर्वाभिलापेन नेतव्यानि इमानि कूटानि आभिर्दिग्भिः पौरस्त्यस्य भवनस्य दक्षिणेन दक्षिणपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य उत्तरेण मन्दरे कूटे मेघवती राजधानी पूर्वेण २, दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पौरस्त्येन दक्षिणपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य पश्चिमेन निषधे कूटे सुमेधा देवी राजधानी दक्षिणेन ३, दाक्षिणात्यस्य भवनस्य पश्चिमेन दक्षिणपश्चिमरूप प्रासादावतंसकस्य पौरस्त्येन हैमवते कूटे हेममालिनी देवी राजधानी दक्षिणेन ४, पाश्चात्यस्य भवनस्य दक्षिणेन दक्षिणपश्चिमत्य प्रासादावतंसकस्य उत्तरेण रजते कूटे सुवस्सा देवी राजधानी पश्चिमेन ५, पाश्चिमात्यस्य भवनस्य उत्तरेण उत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य दक्षिणेन रुचके छूटे वत्समित्रा देवी राजधानी पश्चिमेन ६, औत्तराहस्य भवनस्य पश्चिमेन उत्तरपश्चिमस्य प्रासादावतंसकस्य पौरस्त्वेन सागरचित्रे कूटे वज्रसेना देवी राजधानी उत्तरेण ७, भौत्तरादस्य भवरस्य पौरस्त्येन उत्तरपौरस्त्यस्य प्रासादावतंसकस्य पश्चिमेन वज्रकूटे बलादिका देवी राजधानी उत्तरेणेति ८, व खलु भदन्त ! नन्दनवने बलकूटं नाम कूटं प्रज्ञतम् ?, गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरपौरस्त्येन अत्र खलु नन्दनवने बलकूट नाम - कूटं प्रज्ञतम्, एवं यदेव हरिसदकूटस्य प्रमाणं राजधानी च तदेव बलकूटस्यापि, नवरं बलो देवो राजधानी उत्तरपौरस्त्येनेति ॥ सू० ३७|| टीका- 'कहि णं भंते ।" इत्यादि का खल भदन्त ! 'मंदरे पवए' मन्दरे - मेरौ पर्वतें 'दणवणे णामं' नन्दनवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञसम् 2, इति प्रश्नस्योत्तरं भगवा- 'गोयमा !" हे गौतम ! 'भद्दसालवणस्स' भद्रशालवनस्य 'बहुसमरमणिजाओ' बहुसम नाइ -' नन्दवन वक्तव्यता 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए णंदणवणे णामं दणे पण्णत्ते' इत्यादि टीकार्थ- गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है- (कहि णं भंते मंदरेपव्व णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! मंदर पर्वत में नन्दन वन नामका वन कहाँ पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं (गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ पंचजोयणसयाई उद्धं उप्पइस्ता નદનવન વક્તવ્યતા णंदणवणे णामं वणे पण्णत्ते इत्यादि प्रभुने या सूत्रवडे ओवी रो प्रश्न यछे 'कहिणं भंते ! मंदरे पण्णत्ते' हे महंत ! भर पर्वतमा नहेन वन नाभे वन ध्या वास अनु छे - 'गोयमा ! मद्दसालवणस्स बहुसमरमणि - 'कहिणं भंते । मंदरे पव्व टी ठार्थ- गौतमस्वामी tore raणे णामं वणे स्थणे आवेस हे ? सेना Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे रमणीत-अत्यन्तसमतलरमणीयात् 'भूमिभागाओ' भूमिभागात ' पंजोयणसयाई, पंच योजनशतानि 'उद्धं' ऊर्ध्वम् 'उप्पइत्ता' उत्पत्य गत्वा अग्रतो वर्धिष्णाविति गम्यम्, तस्य वक्ष्यमाणेन 'मंदरे पर्वते' इत्येनान्वयः 'एत्य' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'मंदरे पव्वए' मन्दरे पर्वते 'णपणवणे णाम नन्दनवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तं, तच्च 'पंचजोयणसयाई पश्च योजनशतानि 'चकवालविक्खंभेणं' चक्रचालविष्कम्भेण चक्रवालशब्दोऽत्र समचक्रवालपरो विशेषस्य सामान्यान्तर्गतत्वात्, तेन समचक्रवालं सममण्डलं तस्य यो विष्कम्भः स्वपरिधेः सर्वतः समप्रमाणत्वेन विस्तारस्तेन, अत्र समत्वविशेषणोपादानेन विषमत्वादि विशिष्ट चक्रवालविष्कम्भस्य व्यावृत्तिः, अत एव तद्वनं 'वट्टे' वृत्तं-चर्तुलं, तच्चायोगोलकादिवद् धनमपि सम्भाव्ये तेत्यत आह-'वलयाकारसंठाणसंठिर' वलयाकारसंस्थानसंस्थितःवलयः कङ्कणं तच्च मध्यविवरयुतं भवति, तस्येव आकार:-स्वरूपं रिक्तमध्यत्वं यस्य संस्थानस्य तद वलयाकारं तच्च तत् संस्थानं वलयाकारसंस्थानं तेन संस्थितम् एतदेव स्पष्टीकरोति'जे णं' यत् खलु ‘मंदरं पव्ययं' मन्दरं पर्वतं 'सयो ' सर्वतः-सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात् एस्थणं मंदरे पथए णंदणवणे णा वणे पणत्ते) हे गौतम ! भद्रशालवन के बहु समरमणीय भूमिभाग से पांचसौ योजन ऊपर जाने पर आगत ठीक इसी स्थान पर मन्दर पर्वत के ऊपर नन्दनवन नामका वन कहा गया है (पंचजोयण. सयाई चक्कवालविक्खंभेणं कद्दे वलयाकारसंठाणसंठिय) यह वन चकवाल विकम्भ की अपेक्षा पांचसौयोजन विस्तार वाला है चक्रवाल शब्द से यहां समचक्र बाल विवक्षित हुआ है सम चक्रवाल का अर्थ सममंडल ऐसा होता है अपनी परीधि का जो बराबर का विस्तार है वही समचक्रवाल विष्कम्भ है। विष्कंभ चक्रवालविष्कम्भ की निवृत्ति के लिये यहाँ समविशेषण का उपादान करलेना चाहिये इसी कारण इस वनको "वह" वृत गोल बतलाया गया है और इसी से इसका आकार जैसा वलय का होता है वैसा प्रकट किया गया हैं। (जे णं मंदरं पव्वयं ज्जाओ भूमिभागाओ पंच जोयणसयाई उद्धं उप्पइत्ता एथणं मंदरे पव्वए गंदणवणे णाम वणे पण्णत्ते' 3 गौतम ! मद्रास बनना मसभामयीय भूमि माथी पायसे। येन ઉપર જવા બાદ જે સ્થાન આવે છે, ઠીક તે સ્થાન ઉપર મંદર પર્વતની ઉપર नहनन नाम वन माव छ. 'पंच जोयगसयाई चक्कवालविक्खंभेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए' मा वन याद 4 अपेक्षा पांयसे। योन છે. ચક્રવાલ શબ્દથી અહીં સમચક માલ વિવક્ષિત થયેલ છે. સમચક્રવાલને અર્થ સમ મંડળ એ થાય છે. પિતાની પરિધિને જે બરાબર વિસ્તાર છે તે જ સમચકવાલ વિધ્વંભ છે. વિષ્કભ ચક્રવાલ વિખંભની નિવૃત્તિ માટે અહીં સમાવિશેષણનું ઉત્પાદન કરી લેવું જોઈએ. એ કારણથી જ એ વનને “વ” એટલે કે વૃત્ત (ગાળ) બતાવવા માં આવેલ છે, અને એથી જ એને આકાર જે વલયને હોય છે, તે જ પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम् ४५५ सर्वविदिक्षु 'संपरिक्खित्ता' 'संपरिक्षिप्य - परिवेष्टय 'णं' खलु 'चिट्ठ इति' तिष्ठतीति, अथ मन्दरस्य बहिर्विष्कम्भादिमानमाह - 'णव जोयणसहस्साई' इत्यादि - नव नवसंख्यानि योजन - सहस्राणि 'णव य' नव च 'चउप्पण्णे' चतुष्पञ्चशानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 'जोयणसए' योज 'नशतानि 'छच्चेगार सभाए' षट् चैकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'बाहि' बहिः बहिः प्रदेशे 'गिरिविवखंभो' गिरिविष्कम्भः गिरिः मन्दरस्य पर्वतस्य विष्कम्भः विस्तारः, पर्वतानां हि नितम्बभागे वाह्याभ्यन्तरभेदाद् द्वौ विष्कम्भौ भवतः, तत्र बाह्यो विष्कम्भः उक्तः, तथा - 'एगत्तीसं' एकत्रिंशतं 'जोयणसदस्साई' योजन सहस्राणि 'चत्तारि य' चत्वारि च 'अउ - 'णासीए' ऊनाशीतानि - ऊनाशीत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचिविसे साहिए' किञ्चिद्विशेषाधिकानि - किञ्चिदधिकानि 'बाहिं' बहि:- बहिः प्रदेशवर्ती 'गिरिपरिएणं' गिरिपरियः गिरेः मन्दरस्य परिरयः परिधिः 'णं' खलु अस्तीति शेषः तथा 'अटु' अष्ट 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'णव य' नव च 'चउप्पण्णे' चतुष्पञ्चाशानि चतुष्पञ्चाशदधिका नि 'जोयणसए' योजनशतानि 'छच्चेगारसभाए ' षट् चैकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'अंतो' अन्तः - मध्ये नन्दनवनात् प्रागू 'गिरिदिक्खंभो' गिरिविष्कम्भः - मेरु पर्वत विस्तारः, तथा (अट्ठावीस ) अष्टाविंशर्ति (जोयणसहस्साई ) योजनसहस्राणि ( तिष्णिय) त्रीणि च 'सोलसुत्तरे' षोडशोत्तराणि - षोडशाधिकानि ( जोयणसए) योजनशतानि (अट्ठय) अष्टच सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइति) यह नन्दन वन सुमेरु पर्वत को चारों ओर से घेरे हुए है । (णवजयणसहस्साइणव य चउप्पण्णे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोगणसए बाहिं गिरिबिक्खंभो ) सुमेरुपर्वत का बाह्य विष्कम्भ ९९५४ योजन का और एक योजन के ११ भागों में ६ भाग प्रमाण है ( एगतीसं जोयणसहस्सा चत्तारि य अउणासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए चाहिँ गिरिपरिरएणं, अट्ठ जोयणसहस्साइं णव य चत्रपणे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविवखंभो इस गिरि का बाह्य परिक्षेप कुछ अधिक ३१४७९ योजन का है और भीतरी विस्तार इसका ५९५४ योजन का है और एक योजन के ११ भागों में से छ भाग प्रमाण है (अट्ठावीसं जोयणसहस्साइ 'जेणं मंदरं पव्वयं सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइत्ति' या नंदनवन समेरु पर्वतथी ચામેર . આવૃત छे. 'णव जोयणसरस्साई णबय चउप्पण्णे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोयस बाहिं गिरिविक्खंभो' सुमेरु पर्वतन माह्य विष्ल ८५४ सोन भेटलो ाने खेड योजना ११ लोगोमा लाग प्रमाणु छे. 'एगतीसं जोयणसहस्साइं चत्तारिय अणसीए जोणस किंचि विसेलाहिए बाहिं गिरिपरिरएणं, अट्ठ जोयणसहस्साई णवय चउपणे जोयणसए छच्चेगारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खंभों मा गिरिन। बाह्य પરિક્ષેપ કૈંક અધિક૩૧૪૭૯ ૨ાજન જેટલે છે અને ભીતરી વિસ્તાર એના ૮૯૫૪ योजन बेटो भने ४ योजना ११ लोगोमांथी आग प्रभाणु छे 'अट्ठाषीसं जोयण Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E - - अम्बूखीपप्रतिर (इकारसभाए) एकादशभागान् (जोयणस्त) योजनस्य (अंतो) अन्त:-अभ्यन्तरवर्ती (गिरिपरिरए) पिरिपरिरय:-मेरुपर्वतपरिधिः (णं) खलु अस्तीति शेष:, अथात्र पावरवेदिकादि. कमाह-से णं एगाए) इत्यादि तद् नन्दनवन खलु एकया (पउमवरवेइयाए) पद्मवरवेदिकया (एमेण य) एकेन च (दणसंडेगं) वनषण्डेन (सबओ) सर्वतः सर्वदिक्षु (समंता) समन्तात्सर्वविदिक्षु (संपरिक्खित्ते) सम्परिक्षितं-परिवेष्टितं विद्यत इति शेषः, तयोः पद्मवरवेदिकाबनण्डयोः (वण्णओ) वर्णकः-वर्णनपरपदसमूहोऽत्र बोध्यः, स च चतुर्थपश्चमसूत्रतो ग्राह्यः, सच किम्पर्यन्तो ग्राह्य इति जिज्ञासायामाह-'जाव देवा आसयंति' यावदेवा आसते 'देवा आसते' इति पदपर्यन्तो वर्णको ग्राह्यः, अत्र यावत्पदसाह्यपदसङ्गहः पञ्चमस्त्रात्कर्तव्यः, तत्र-'देवा' इत्युपलक्षणं, तेन 'सयंति, चिटुंति' इत्यादिनां ग्रहणम्, एवं पदानां व्याख्या पञ्चमसूत्रव्याख्यातोऽवसेया, अथात्र सिद्धायतनानि वर्णयितुमुपक्रमते-'मंदरस्स णं पव्वयस्स' इत्यादि-मन्दरस्य मेरोः खलु पर्वतस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्य अत्रतिणि य सोलसुत्तरे जोयणसए अट्टय इक्कारसभाए जोयणरू अंतोगिरि परिरयेणं) तथा इस गिरिका भीतरी परिक्षेप २८३१६ योजन का और एक योजन के ११ भागों में से आठ भाग प्रमाण है । (से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते) वह नन्दन वन एक पद्मवर वेदिका से और एक वनपण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ जाव देवा आस यंति) इस पद्मवर वेदिका और वनषण्ड का वर्णक यहां पर कहलेना चाहिये इसे जानने के लिये चतुर्थ और पंचम सूत्र देखिये यहाँ पर यह वर्णन 'आसयंति' पद कहा गया है यहां यावत्पद से जो पद संगृहीत हुए हैं वे पंचम सूत्र से जाने जा सकते हैं। "आसयंति" यह पद उपलक्षण रूप है इससे "सयंति चिट्ठति" सहस्साई तिष्णिय सोलसुत्तरे जोयणसए अट्ठय इक्कारसभाए जोयणरस अंतो गिरि परिर ન તેમજ આ ગિરિને અંદરને પરિક્ષેપ ૨૮૩૧૬ જન જેટલે અને એક એજનના ११ मागीमाथी २४ मा प्रभाएर छे. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए ऐगेण य वणसंडेगं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' मा नन्दन वन ४ ५५१२ थी भने सनम'थी याभर मात छ. 'घण्णओ जाव देवा आसयंति' मा ५२ ३६४ मन बनना १९५४ વિષે અહીં અધ્યાહુત કરી લેવું જોઈએ. એ સબંધમાં જાણવા માટે ચતુર્થ અને પંચમ सत्रमा सुशासन ने से. मी. या पणन 'आसयंति' ५४थी समछ. मही' યાવત પદથી જે પદ સંગૃહીત થયા છે તે અહીં પંચમ સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ છે. 'आसयंति' मा ५४ GRAY ३५ छ. सनाथी सयंति चिति' वगेरे 04हानु अरुय थ . से पहोनी व्याय॥ ५यम सूत्रमा ४२वामा मावसी छे. 'मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथि. मेणं एत्थणं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते' २॥ म ४२ ५५तनी पूर्व शाम से विशण सिद्वायतन मावस छ. 'एवं चउदिसि च तारि सिद्धाययणा विदिसामु पुक्खरिणीओ तं चेत्र पमाणं Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः रु. ३७ नन्दनवनस्व-पवर्णनम् अत्रान्तरे 'ण' खलु 'मह एगं' महदेकं "सिद्धारयणे' सिद्धायतनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तं एवं' एवम्-अनन्तरसूत्रोक्तभद्रशालबनानुसारेण 'चउदिमि' चतुर्दिशि पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रतिदिगेकैकमिति 'चत्तारि' चत्वारि 'सिद्धाययणा' सिद्धायतनानि प्रज्ञप्तानि, तथा 'विदिसामु' विदिक्षु ईशानादिकोणेमु 'पुक्खरिणीओ' पुष्करिण्यः प्रज्ञप्ता: आसाम् 'तंचेव' तदेव भद्रशालवनोक्तमेव 'पमाणं' प्रमाणं-विष्कम्भादिमानम् 'सिद्धाययणाणं' सिद्धायतनानाम् 'पुक्खरिणीर्ण च' पुष्कारिणीनां च बहुमध्यदेशभागवर्तिनः 'पासायडिंसगा' प्रासादावतंसका; 'तहचेव' तथैव भद्रशालवनतिनन्दापुष्करिणीगतप्रासादावतंसकलदेव 'सकेसाणाणं शक्रेशानयोः-शकेन्द्रसम्बन्मिन ईशानेन्द्रसम्बन्धिनश्च भणितव्याः, अयमाशयः यथा भद्रशालयने शक्रेन्द्रसम्बन्धिन आग्नेय नैऋत्य कोणवर्तिनः प्रासादावतंसकाः उकाः तथेशानेन्द्रसम्बन्धिनो वायव्येशान. आदि क्रिया पदों ग्रहण हुआ है। इन पदों की व्याख्या पंचम सूत्र में की गई है। (मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमेणं एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्त) इस मन्दर पर्व की पूर्व दिशा में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है (एवं चउदिसिं चत्तारि सिद्धाययणा विदिमासु पुक्खरिणीओ तंचेच पमाणं) मेरु पर्वत की पूर्वदिशा में भी एक एक सिद्धायतन कहा गया है इस तरह कुल सिद्धायतन पूर्वादि दिशाओं में से एक दिशा में एक एक के होने से ४ प्रतिपादित हुए हैं। (विदिसासु पुक्वरिणीओतंचेव पमाणं) तथा इस कथन के अनुसार विदिशाओं में ईशान आदि कोनों में पुष्करिणियाँ प्रतिपादित हुई है। इन पुष्करिणियों के विष्कंभादि के प्रमाण भद्रशाल वन की पुष्परिणियों के विष्कंभादि के प्रमाण जैसा ही कहा गया है तथा (सिद्धायथणाणं) सिद्धायतनों का विष्कं. भादि प्रमाण भी भद्रशाल के प्रकरण में कथित सिद्धाश्तन के प्रमाण जैसा ही कहा गया है। (पुस्खरिणोणं च पासायव.सगा तह चेव) पुष्करिणियों के बहुमध्यदेशवर्तिमासादावतंसक भद्रशालवनवर्ती नन्दा पुष्करिणिगत प्रासादावतंक के जैसे ही हैं। (तहचेव सरकेसाणाणं तेणं चेव पमाणेणं) મેરુ પર્વતની પૂર્વ દિશામાં જેવું સિદ્ધાયતન કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે પૂર્વ વગેરે सारेयार दिशाभांगे-मे सिद्धायतन छ तेथी उस या२ सिद्धायतन थयां 'विदिसासु पुखरिणीओ तं चेव पमाण' तेम २॥ ४यन मु श मिश २ मा ४. રિણીએ પ્રતિપાદિત થઈ છે. એ પુષ્કરિણીઓના વિઝંભાદિના પ્રમાણ ભદ્રશાલવનની પુષ્ક(२०ी योना विमहिनामा - छ. तेमा 'सिद्धाययणा णं' सिद्धायतनाना १०४ प्रभाष्य ५४ लद्रशासन प्र४२शुभ थित सिद्धायतनाना प्रभाश्वत् छे.'पुक्खरिणी णं च पासाय वडे सगा तहचेव' पुरिए सोना मर्डमध्य शत प्रासादात सौ ५५५ भद्रशासनती नन्हा Red प्रातस। । ४ छ. 'तहचेव सक्केसाणाणं तेणं चेव प्रमाणेणं' એ પ્રાસાદાવતંસકે શક અને ઈશાનના છે એટલે કે જેમ ભદ્રશાલ વનમાં આગ્નેય અને Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कोणवर्तिनः प्रासादावतंसका भणिताः, तथैव नन्दनबनेऽपि शक्रेशानेन्द्रयोहततत्तत्कोणवर्तिनः प्रासादावतंसका वाच्या इति, ते च प्रासादा भद्रशालवनवति पूर्वोत्तरादि कोणगत पादि पुष्कारिणीबहुमध्यदेशवर्तिन इव नन्दनवनवति पूर्वोत्तरादिकोणगतनन्दोत्तरादि पुष्करिणी बहुमध्यदेशवर्तिनो बोध्याः, ताश्च पुष्कारिण्योऽत्र नामतो निर्दिश्यन्ते तथाहि-नन्दोत्तरा १नन्दा २सुनन्दा ३नन्दिवर्धना ४चैता ईशानकोणे, तथा-नन्दिषेणार अमोवा२ गोस्तूपा३ सुदर्शना४ चैता आग्नेयकोणे, तथा-भद्रा१ विशाला२ कुमुदा३ पुण्डरीकिणी४ चैता नैऋत्यकोणे, तथा-विजया१ वैजयन्ती२ अपराजिता ३ जयन्ती ४ चैता वायव्यकोणे, इति प्रतिकोणं ये प्रासादावतंसक शक्र और ईशान के है-अर्थात् जिस प्रकार से भद्रशाल वन में आग्नेय और नैऋत्यकोण संबंधी प्रासादावतंसक शकेन्द्र संबंधी कहे गये हैं तथा वायव्य और ईशानवर्ती प्रासादावतंसक ईशानेन्द्र संबंधी कहे गये हैं उसी प्रकार से इस नन्दनवन में भी आग्नेय और नैऋत्यकोणवर्ती प्रासादावतंसक शक्रेन्द्र संबंधी और वायव्य एवं ईशानकोणवर्ती प्रासादावतंसक ईशानेन्द्र सम्बंधी है ऐसाजानना चाहिए। वे प्रासाद भद्रशालबनवर्ति पूर्वोत्तरादिकोण गत पदमादि पुष्करिणियों के बह मध्यदेश भाग में जैसे प्रकट किये गये हैं वैसे ही ये प्रासाद नन्दनवनवर्ती पूर्वोतरादिकोग गत नन्दोत्तरादि पुष्करिणियों के बहुमध्य देशदर्ती हैं ऐसा जानना चाहिये यहां पर नन्दोत्तरा, नन्दा, सुनन्दा नन्दिवर्धना ये चार पुष्करिणियां ईशान कोण में हैं तथा-नन्दिषेणा, अमोघाँ गोस्तृपा, और सुदर्शना ये चार पुष्करिणियां आग्नेयकोण में हैं भद्रा, विशाला, कुमुदा और पुण्डरीकिणी ये चार पुष्करिणियां नैत्रत्यकोण में हैं और विजया, वैजयन्ती जयन्ती और अपराजिता ये चार पुष्करिणियां वाचायकोण में हैं इस મૈત્ય કોણથી સંબદ્ધ પ્રાસાદાવતંસકો કેન્દ્ર સંબંધી કહેવામાં આવેલા છે અને જેમ વાયવ્ય અને ઈશાનવતી પ્રાસાદાવત સક ઈશાનેન્દ્ર સંબંધી કહેવામાં આવેલ છે તેમજ આ નદનવનમાં પણ આગ્નેય અને નૈઋત્ય કેણવતી પ્રાસાદાવસ કે કેન્દ્ર સંબંધી અને વાયવ્ય તેમજ ઈશાન કેણુવતી પ્રાસાદાવ કે ઈશાનેન્દ્ર સંબં-1 છે, એવું જાણવું જોઈએ. એ પ્રાસાદે ભદ્રશાલવન વર્તિ પૂર્વોત્તરાદિ કેણ ગત દિ ૫ કરિણીઓના બહુમધ્ય દેશ ભાગમાં જે પ્રમાણે નિરૂપિત કરવામાં આવેલ છે તેવા જ એ પ્રાસાદે નન્દનવનવર્તિ પૂર્વે ત્તરાદિ કેણુ ગત નોત્તર દિ પુષ્કરિણીઓના બહુમધ્ય દેશવતી છે. એમ જાણવું જોઈએ. અહીં નોત્તરે, નન્દા, સુની, નન્દિવર્ધન એ ચાર પુષ્કરિણીઓ ઈશાન કોણમાં આવેલી છે. તેમજ નન્દિષેણા, અમદા, ગેસ્તુ અને સુદશના એ ચાર પુષ્કરિણુઓ આગ્નેય કેશુમાં આવેલી છે. ભદ્રા વિશાલા, કુમુદા અને પુંડરીકિણી એ ચાર પુષ્કરિણીઓ નિત્ય કેણમાં આવેલી છે, અને વિજ્યા, વૈજયન્તી, જયન્તી અને અપરાજિતા એ ચાર પુષ્કરિણીઓ, Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम् चतस्रवतस्रः पुष्करिण्योऽवसे याः, एतत्पुष्करिणी बहुमध्यदेशभागवर्तिनस्ते प्रासादाः 'तेणं चेव भद्रशालानगतप्रासादोक्तेन र पञ्चशतयोजनोच्चत्वादिरूपेण 'पमाणेणं' प्रमाणेन वाच्याः वक्ष्यमाणानि कूटाण्यपि मेरुपर्वतात्तावत्येवान्तरे सिद्धायतनप्रासादावतंसकमध्यवर्तीनि बोध्यानि, तत्र संख्या-नामकृतभेदं प्रदर्शचितुमाह-'गंदणवणे णं भंते !' इत्यादि-नन्दनवने खलु भदन्त ! 'क' कति-कियन्ति 'कडा' कूटरनि 'पग्गना' प्रज्ञतानि 'गोयमा' गौतम ! 'णव' नव 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञसानि 'तं जहा' सहाथा-'णंदणवणकूडे' नन्दनवनकूटं१ 'मंदरकूडे' मदाकूटं २ 'णिसहकूडे' निषश्कूटं ३ 'हिपवयकूडे' हिमवस्कूट४ 'स्ययकूडे' रजतकूटं ५ 'रुयगकूडे' रुवककूटं६ 'सामाचित्तकूडे' सागरचित्रकूटं७ 'वइरकूडे' वज्रकूटं८ 'बलडे' बलकूटम् । तत्र प्रथभकूटं पृच्छति-'कहि णं भंते ! णंदणवणे' क्व खलु भदन्त ! तरह हर एक कोण में चार २ पुष्करिणियां है ? इन पुष्करिणियों के बहुमध्यदेश भाग में प्रासादावतंसक हैं जिस प्रकार की पांचसो योजन की उच्चता आदि रूप प्रमाणता भद्रशालवनगत प्रासादों की कही गई है वैसी ही उच्चता आदिरूप प्रमाणता इन प्रासादों की भी कही गई जाननी चाहिये । मेरु पर्वत से उतने ही अन्तर में सिद्धावतन और प्रासादावतंसकों के मध्य में ये नो कूट कहे गये हैं गौतमस्वामी ने जब प्रभु से ऐसा पूछा-(णंदणवणेणं भंते । कइकडा पण्णत्ता) हे भदन्त । नन्दनवन में कितने कर कहे गये हैं ? तब प्रभुने उनसे ऐसा कहा(गोयमा ! णव कडा पण्णत्ता) हे गौतम ! यहां पर नौ कूट कहे गये है (तं जहा-) उनके नाम इस प्रकार से हैं-(णंदणवणकुडे, मंदरकूडे, णिसहकडे, हिमवयकूडे, रययकूडे, रुयगकूडे, सागरचित्तकूडे, वइर कूडे, बलकूडे) नन्दनवनकूट, मन्दरकूट, निषधकूट, हिमवतकूर, रजतकूट, रुचककूट, सागरचित्रकूट, वनकूट, और बलकट । अब गौतम !ने प्रभु से ऐसा पूछा है-(कहि णं भंते !णंदणवणे णंदवणकूडे पण्णत्ते) हे भदन्त ! नन्दन वनमें नन्दन वन नामका कूट कहां पर कहा વાયવ્ય કે ણમાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે દરેક કેણમાં ચાર-ચાર પુષ્કરિણીઓ આવેલી છે. એ પુષ્કરિણીઓના બહુ મધ્ય દેશભાગમાં પ્રાસાદાવલંડ આવેલા છે. જે પ્રકારની પાંચ જન જેટલી ઉતા વગેરે રૂપ પ્રમાણતા ભદ્રશાલવનગત પ્રાસાદની કહેવામાં આવેલી છે, તેવી જ ઉચ્ચતા વગેરે રૂપ પ્રમાણતા એ પ્રાસાની પણ કહેવામાં આવેલી છે. મેરુ પર્વતથી તેટલા જ અંતરે સિદ્ધાયતન અને પ્રાસાદાવતં લોકોના મધ્યમાં એ નવ ફૂટ આવેલા છે. હવે गौतमतभी प्रभुनाशते प्रश्न - 'गंदणवणेण भंते ! कइकूडा पण्णत्ता'मत! नन्दनवनमा माटो ४३वामा मासा छ ? त्यारे प्रभुमे तेभने ४थु-'गोयमा ! णव कूडो पण्णत्ता' गौतम !नवटामा या छ. 'तं जहा' भनः नामे मा प्रमाणे छ.गंदणवणकडे, मंदरकूडे, णिसहकूडे, हिमवयकूडे, रययकूडे, रुयगकूडे, सागरचित्तकूडे, वइरकूडे, बलकूडे' नन्दनवन फूट, म४२५., निळूट, भिवत् ८, २४ २, रुयट, सा॥२ चित्र, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नन्दनवने 'गंदणवणकूडे णाम' नन्दनवनकूटं नाम 'कूडे' कूटं 'पण्णते ?' प्रज्ञप्तम् 'गोयमा' गौतम ! 'मंदरस्स पव्ययस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य 'पुरस्थिमिल्लसिद्धाययणस्य' पौरस्त्य सिद्धायतनस्य 'उतरेणं उतरेण-उत्तरदिशि 'उत्तरपुरस्थिमिल्लस्स' उत्तरपौरस्त्यस्य-ईशानकोणवर्तिन: 'पासायवडेंसयस्स' प्रासादावतंसरुस्य 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिण दिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'णंदणवणे' नन्दनवणे 'गंदाणे णाम' नन्दनवनं नाम 'कूडे' कुट 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् अत्रापि मेरुतः सिद्धायतनपश्चाशयोजनानि व्यतिक्रम्यैव क्षेत्रनियमो बोध्यः, अन्यथाऽस्य प्रासादावतंसकभवनयोरन्तरालमित्वं न स्यात् । ___ अथ वर्णितवर्णयिष्यमाणकूटानां सङ्ख्यामतिदेष्टुमाह-'पंचसइया कूडा' पञ्चशतिकानि कूटानि 'पुव्ववणिया' पूर्ववणितानि-पूर्व-त्राग् विदिग्रहस्तिकूटवर्णनप्रसङ्गे वर्णितानि उच्चत्वविष्कम्भपरिधिवर्णसंस्थानदेवराजधानी दिगादिभिरुक्तानि तानि चात्र 'भाणियव्या' भणितव्यानि वक्तव्यानि सदृशपाठवात् अत्र 'देवी' देवी अधिष्ठात्री देवता 'मेहकरा' मेघ. गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्ले सिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडे सयस्त दक्खिणेणंएत्थणं गंदवणे गंदणवणे णामं कूडे पण्णत्त) हे गौतम ! मन्दर पर्वत की पूर्वदिशा में रहे हुए सिद्धायतन की उत्तरदिशा में तथा-ईशानकोणवती प्रासादावतंसक की दक्षिणदिशा में नन्दनवन में नन्दनवन नामका कूट कहा गया है यहां पर भी मेरुको पचास योजन पार करके ही क्षेत्रका नियम कहा गया जानना चाहिये । यदि ऐसा न मानाजावे तो फिर प्रासादावतंसक और भवन के अन्तराल में वर्तित्व इस कूट में नहीं आवेगा। (पंचसईयाकूडा पुःववणिया भाणियव्या, देवी मेहंकरा रायहाणी विदिसाएत्ति) जिस प्रकार से विदिग्हस्तिकूट के प्रकरण में उच्चता, व्यास-विष्कम्भ, परिधि परिक्षेप-वर्ण, संस्थान, देव, बनट म पट. Nथा गौतभी प्रमुन सेवा प्रश्न ज्यों है कहिण भंते ! णदण वणे गंदणवण कूडे पण्णत्ते' ३ मत ! नन्हनवनभान नवन नामेट ४या स्थणे मावस छ? सना १५ प्रमु ४ -'गोयमा मंदरस्स पवयस्स पुरथिमिल्ले सिद्धाययणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसयस्स दक्खिणेणं एत्थ णं गंदणवणे णंदणवणे णामं कूडे पण्णत्ते' ३ गौतम ! भन्४२ पतनी पूर्व दिशामा मावा सिद्धायतननी उत्तर દિશામાં તેમજ ઈશાન કેણુવતી પ્રાસાદાવતંસકની દક્ષિણ દિશામાં નન્દન વનમાં નન્દનવન નામે ફૂટ આવેલ છે. અહીં પણ મેરુને પચાસ એજન પાર કરીને જ ક્ષેત્રને નિયમ કહે વાએલે જાણ જોઈએ. જે આ પ્રમાણે માનવામાં નહિ આવે તે પછી પ્રાસાદાવાંસક मन मन मतसति माटमा साप ना. पंचसईया कूडा पुत्र पणिया भाणियव्वा, देवी मेहंकरा गयहाणी विदिसाएत्ति' २ प्रमाणे विस्त टना પ્રકરણમાં ઉચતા, વ્યાસ, વિષ્કભ પરિદ્ધિ-પરિક્ષેપ વર્ણ, સંસ્થાન દેવ રાજધાની દિશા Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थबक्षस्कारः सु. ३७ नन्दनवन स्वरूपवर्णनम् ક ङ्कराभिधाना अस्षा : देव्याः 'रायहाणी' राजधानी 'विदिसाएत्ति' विदिशि- ईशान कोणे पद्मोत्तर कूटवद्वर्णनीयत्वात् इति प्रथमकूटवर्णनम् १ अथावशिष्टकूटानां तदेवीनां तद्राजधानीनां च व्यवस्थां चिकीर्षुराह - 'एयाहिं' इत्यादि - एताभिः देवीभिः 'चेव' चकारात् राजधानीभिः - अनन्तरसूत्रे वक्ष्यमाणाभिरेव सह 'पुव्त्राभिलावेणं' पूर्वाभिलापेन-पूर्वेण नन्दनवनकूटोक्तेन अभिलापेन - सूत्रपाठेन 'णेयव्त्रा' नेतव्यानि, बोध्यानि 'इमेकूडा' इमानि वक्ष्यमाणानि कूटानि 'इमाहिं दिसाहि' इमाभिः वक्ष्यमाणाभिर्दिग्मिः भणितव्यानीति शेषः, एतदेव स्पष्टीकरोति 'पुरथिमिलस्स' पौरस्त्यस्य - पूर्वदिग्भवस्य 'भवणस्स' भवनस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिण दिशि 'दाहिण पुरत्थिमिल्लस्स' दक्षिणपौरस्त्य आग्नेयकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण - उत्तरदिशि 'मंदरे ' मन्दरे - मन्दरनाम्नि 'कूडे ' कूटे 'मेहवई' मेघवती नाम 'रायहाणी' राजधानी 'पुवेणं' पूर्वेण पूर्वस्यां राजधानी दिशा आदि द्वारों को लेकर कूटवर्णित किये गये हैं उसी प्रकार से यहाँ पर भी इन कूटों का वर्णन इन्हीं सब उच्चता आदि द्वारों को लेकर करलेना चाहिये क्योंकि उस पाठ में और यहां के पाठ में कोई अन्तर नहीं है । अतः इन द्वारों को लेकर जैसा प्रश्नोत्तर रूप से वहां पर कूटों का कथन किया गया है वैसा ही वह सब कथन यहां पर भी है उस वर्णन में और इस वर्णन में कोई अन्तर नहीं है ये सब कूट पांचसौ योजन के विस्तारवाले हैं। यहां पर देवी मेघङ्करा नामकी है इसकी राजधानी विदिशा में ईशानकोण में है इस तरह पद्मोत्तरकूट की तरह ही इस कूटका वर्णन है (एयाहिं चेव पुग्वाभिलावेण यत्रा इमे कूडा इमाहिं दिसाहिं पुरथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणे णं दाहिण पुरथिमिल्लस्स पासाघवडें सगस्स उत्तरेणं मंदरे कूडे मेहबईराय • हाणी) इसी मेघकुटोक्त अभिलाप के अनुसार इन २ दिशाओं में देवियों और राजधानियों से युक्त ये अवशिष्टकूट समझलेना चाहिये जैसे कि पूर्व વિગેરેના દ્વારાથી માંડીને કૂટ વિષે વર્ણન કરવામાં આવેલુ છે, તે પ્રમાણે જ અહીં પણ એ ફૂટેનું વર્ણન સમજી લેવુ' જોઈ એ કેમકે તે પાઠમાં અને અહીંના પાઠમાં કેાઈ પણુ તફાવત નથી. એથી એ દ્વારાના માટે પ્રશ્નોત્તરરૂપમાં ત્યાં ફૂટો વિષે કથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે તેવું જ બધું કથન અહીં પણુ સમજવુ' જોઈ એ, તે વનમાં અને આ વધુ નમાં કોઈ પણ જાતના તફાવત નથી. એ બધા ફૂટ! પાંચસો યા ન જેટલા વિસ્તારવાળા છે. અહીં. મેકરા નામક દેવી છે, એની રાજધાની વિદેિશ માં ઈડાન`ણુમાં આવેલી છે. આ पद्मोत्तर छूटनी प्रेम आनु पशु वर्षान सभवातु छे. 'एआ है चैव पुव्त्राभिलावेणं या इमे कूडा इंमाहिं दिसाहिं पुरत्थिमिल्लस्स भवणत्स दाहिणेगं दाहिण पुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगह उत्तरेण मंदरे कूडे मेहत्रई रायहागी' या मेघ टोइन अभिसाप भुभ તત્ તત્ દિશાઓમાં દેવીએ અને રાજધાનીઓથી યુક્ત એ અવશિષ્ટ કૂટો સમજી લેવા Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दिशि, इति द्वितीयकूटवर्णनम् २ 'दक्खिणिल्लस्स' दाक्षिणात्यस्य-दक्षिणदिग्भवस्य 'भरणस्स' भवनस्य 'पुरस्थिमेण' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'दाहिणपुरथिमिल्लस्स' दक्षिणपौरस्त्यस्यआग्नेयकोणवर्तिनः 'पासायरडेंसगस्त' प्रासादावतंसकस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिश 'णिसहे कूडे' निषधं नाम कूटं प्रज्ञप्तम् 'अस्याधिष्ठात्री ‘सुमेहा देवी' सुमेधा नाम देवी प्रज्ञप्ता 'रायहाणी' राजधानी 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि प्रज्ञप्ता इति तृतीयकूटवर्णनम् ३ अथ चतुर्थकूटवर्णनम्-'दविखणिल्लस्स' दाक्षिणात्यस्य 'भवणस्स' भवनस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'दक्षिणपच्चस्थिमिल्लस्स' दक्षिणपश्चिमस्य-नैर्ऋत्यकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'हेमवएकूडे' हैमवतं नाम कूटं प्रज्ञप्तम्, अस्याधिष्ठात्री 'हेममालिणी देवी' हेममालिनी नाम देवी प्रज्ञप्ता, अस्य हैमवत्कूटस्य 'रायहाणी' राजधानी 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदि श प्रज्ञप्ता इति चतुर्थकूटदिग्वर्ती भवन की दक्षिणदिशा में तथा आग्नेयकोणवर्ती प्रासादावतंसक की उत्तरदिशा में वर्तमान मन्दर नामके कूट पर मेघवती नामकी राजधानी है यह राजधानी कूट की पूर्वदिशा में है २। . (दक्खिणिल्लस्स भवणस्त पुरथिमेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडे - सगस्स पच्चत्थिमेगं णिसहे कुटे सुमे हा देवी, रायहागी दक्षिणेणं ३) दक्षिणदिग्वर्ती भवन की पूर्वदिशा में तथा आग्नेय कोणवनि प्रासादावतंसक की पश्चिम दिशा में निषध नामका कूट है इसकी अधिष्ठात्री सुमेधा नामकी देवी है इसकी राजधानी इस कूट की दक्षिणदिशा में कही गई है (दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पच्वस्थिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्खिणेणं ४) दक्षिण. दिग्वर्ती भवन की पश्चिमदिशा में तथा नैऋत्यकोणवर्ती प्रासादावतंसक की पूर्वदिशा में हैमवत नामका कूर है इसकी अधिष्ठात्री हेममालिनी नामकी देवी જોઈએ. જેમકે પૂર્વ દિગ્યત ભવનની દક્ષિણ દિશામાં તેમ જ અને કેણુવતી પ્ર સારાવતસકની ઉત્તર દિશામાં વર્તમાન મંદિર નામક ફૂટ ઉપર મેઘવતી નામક રાજધાની છે. આ રાજધાની કૂટની પૂર્વ દિશામાં આવેલી છે. ૨ दक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेगं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडे सगस्स पच्च. थिमेणं णिसहे कूडे सुमेहादेवी, रायहाणी दक्खिणेणं ३' क्षिहिती लवननी पूं દિશામાં તેમજ આગ્નેય કેણુવતી પ્રાસાદાવતસકની પશ્ચિમ દિશામાં નિષધ નામક ફૂટ આવેલ છે. એની અધિષ્ઠાત્રી સુમેધા નામક દેવી છે. એની રાજધાની કૂટની क्षिण हिमा मावशी छे. 'दकि खणिल्लस्स भवणरस पच्चत्थिमेण दक्खिणपच्चस्थिमिल्लरस पासायवडे सगस्स पुरस्थिमेणं हेमवए कूडे हेममालिनी देवी रायहाणी दक्खिणेणं ४' दक्षिण દિગ્વતી ભવનની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ નિત્ય કેણુવતી પ્રાસાદાવતંકની પૂર્વ દિશામાં હૈમવત નામક ફૂટ આવેલ છે. એ ફૂટની અધિષ્ઠાત્રી હેમમાલિની નામક દેવી છે અને એની Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवनस्वरूपवर्णनम् वर्णनम् ४ अब पञ्चमकूटवर्णनम्-'पच्चथिमिल्लस्स' पाश्चिमात्यस्य-पश्चिमदिग्वर्तिनः 'भवणस्स' भवनस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'दाहिणपच्चत्थिमिल्लस्स' दक्षिणपश्चिमस्य-नैर्ऋत्यकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'रयए' रजा नाम 'कूटे' कूटं प्राप्तम् अस्याधिष्ठात्री 'सुवच्छा देवी' मुक्त्सा नाम देवी प्रज्ञप्ता, अस्य रजतकूटस्य 'रायहाणी' राजधानी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि प्रज्ञप्ता इति पञ्चमकूटवर्णनम् । अथ षष्ठक्टवर्णनम् 'पच्चत्थिमिल्लस्स' पाश्चिमात्यस्य-पश्चिमदिग्पर्तिनः “भवणस्स' भवनस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'उत्तरपच्चस्थिमिल्लस्स' उत्तरपश्चिमस्य-वायव्यकोणवर्तिनः 'पासायव.सगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'रुयगे' रुचकं नाम 'कूटे' कूटं प्रज्ञप्तम् अस्य कूटस्याधिष्ठात्री 'वच्छमित्ता देवी' वत्समित्रा नाम देवी प्रज्ञप्ता, अस्य कूटस्य 'रायहाणी' 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेनपश्चिमदिशि प्रज्ञप्ता, इति पष्ठकूटवर्णनम् ६ । है और इसकी राजधानी कूट की दक्षिणदिशा में है। (पच्चस्थिमिल्लस्स भवणस्स दक्खिणेणं दाहिणपच्चधिमिल्लस्स पासायक्डे सगस्स उत्तरेणं रयए कूडे सुवच्छा देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं) पश्चिमदिग्वर्ती भवन की दक्षिणदिशा में तथा नैऋत्यकोणवर्ती प्रासादावतंसक की उत्तरदिशा में रजत नामका कूद है उसकी अधिष्ठात्री देवी सुवत्सा है इसकी राजधानी कूट की पश्चिम दिशा में हैं (पच्चथिमिल्लस्स अवणस्स उत्तरेणं उत्तरपच्चथिमिल्लस्स पासायबडे सगस्स दक्खिणेणं रुयगे कूडे वच्छमित्ता देवी रायहाणी पच्चस्थि. मेणं६) पश्चिमदिग्वर्ती भवन की उत्तर दिशा मे तथा उत्तरपश्चिम दिग्वर्ती-वायव्यकोणवर्ती प्रासादवतंसक की दक्षिणदिशा में रुचक नामका कूट है यहां की अधिष्ठात्री वत्समित्रा नामकी देवी है इसकी राजधानी इस कूट की पश्चिमदिशा में है (उत्तरिल्लस्स भवणस्स पच्चस्थिमेणं उत्तरपच्चथिमिल्लस्स पासायब. सगस्स पुरथिमेणं सागरचित्ते कूडे वइरसेणा देवी रायहाणी २४ानी छूटनी क्षि हिशामा मासी छे. 'पच्चथिमिल्लस्स भवणस्स दक्खिणेणं दाहिण पच्चथिमिल्लास पासायवडे सगस्स उत्तरेणं रयए कूडे सुत्रच्छा देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं વ” પશ્ચિમ દિગ્વતી ભવનની દક્ષિણ દિશામાં તેમજ નૈઋત્યકેણુવતી પ્રાસાદાવર્તાસકની ઉત્તર દિશામાં રજત નામક કૂટ આવેલ છે. એ કૂટની અધિષ્ઠાત્રી દેવી સુવત્સા છે. એની રાજધાની टनी विभामा 2. 'पच्चत्थिमिल्टस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपच्चस्थिमिल्लस्स पासायवडेसगस्स दक्खिणेणं रुयगे कूडे बच्छमित्ता देवी रायहाणी पच्चत्थिमेणं ६' पश्चिम हिवती भवननी ઉત્તર દિશામાં તેમજ ઉત્તર પશ્ચિમ દિગ્વતી વાયવ્ય કેણુવતી પ્રાસાદાવતંસકની દક્ષિણ દિશામાં રુચક નામક ફૂટ આવેલ છે. અહીંની અધિષ્ઠાત્રી દેવી વત્સમિત્રા નામે છે. એની पानी से छूटनी पश्चिम दिशामा आवेदी छ. 'उत्तरिल्लस्स भवणास पच्चत्थि Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अथ सप्तमकूटवर्णनम्-'उत्तरिल्लस्स' औतराहस्य उत्तरदिग्वर्तिनः 'भवणस्स' भवनस्स 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'उत्तरपञ्चथिमिल्लस्स' उत्तरपश्चिमस्य वायव्यकोणवर्तिनः 'पासायब.सगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'सागरचित्तेकूडे' सागरचित्र नाम कूटं प्रज्ञप्तम् , अस्य कूटस्याधिष्ठात्री 'चइरसेणा देवी' वज्रसेना नाम देवी प्रज्ञप्ता, अस्य कूटस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि प्रज्ञप्ता, इति सप्तमकूटवर्णनम्७ । अथाष्टमकूटवर्णनम्-'उत्तरिल्लस्स' औचराहस्य-उत्तरदिग्वर्तिनः भवणस्स' भवनस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'उत्तरपुरथिमिल्लस्स' उत्तरपौरस्त्यस्य-ईशानकोणवर्तिनः 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादावतंसकस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पशिमेन पश्चिमदिशि 'वइरकूडे' वज्रकूटं नाम कूटं प्रज्ञाम्, अस्य कूटस्याधिष्ठात्री 'बलाहयादेवी' बलाहिका देवी प्रज्ञप्ता, अस्य कूटस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरेणंति' उत्तरेण उत्तरदिशि प्रज्ञप्तेति अष्टमकूटवर्णनं गतम्८ । __ अथ नवमं बलकूटं सहस्राङ्गापरनामकमिति नन्दनवनक्टादितः पृथग्वर्णयितुमुपक्रमते'कहिणं भंते !' इत्यादि क्व खलु भदन्त ! 'णंदणवणे' नन्दनवने 'बलकूडेणामं कूडे' बल कूटं नामकूटं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ?, 'गोयमा !' गौतम ! 'मंदरस्स' मन्दरस्य 'पव्वयम्स' पर्वतस्य उत्तरेणं ७) उत्तर दिग्वर्ती भवन की पश्चिमदिशा में तथा वायव्यकोणवर्ति प्रासादावतंसक की पूर्व दिशा में सागर चित्र नामका कूट है वज्रसेना नामकी देवी यहां को अधिष्ठात्री देवी है इसकी राजधानी इस कूटकी उत्तरदिशा में हैं। (उत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायघडे. सगस्स पच्चत्थिमेणं बहरकूडे बलाह्या देवी रायहाणी उत्तरेणंति ८) उत्तर दिग्वर्ती भवन की पूर्व दिशा में तथा-ईशानकोणवर्ती प्रासादावतंसक की पश्चिमदिशा में वज्रकूट नामका कूट है। इस कूट की अधिष्ठात्री देवी बलाहिका है इसकी राजधानी कूट की उत्तरदिशा में है। (कहिणं भंते ! णंदणवणे बल. कूडे णाम कूडे पण्णत्ते) हे भदन्त । नन्दनवन में बलकूट नामका कूट कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहने हैं-(गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुर मेणं उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडें सगस्स पुरथिमेणं सागरचित्त कूडे वइरसेणा देवी रायहाणी उत्तरेणं ७' उत्तर ती सपननी पश्चिम दिशामा भर वायव्य ती પ્રાસાદાવતંસની પૂર્વ દિશામાં સાગરચિત્ર નામક કૂટ આવેલ છે. વજારોના નામે ત્યાં मधिष्ठात्री हेवी छ. अनी २०४धानी मेटनी उत्तर शभा मावसी छे. 'उत्तरिल्लम्स भवणस्स पुरथिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडे सगस्स पच्चत्थिमेणं बइरकूडे बलाहया देवी रायहाणी उत्तरेणंति ८' उत्तरहिवती भरननी पूर्व दिशाभ ते शान ती પ્રાસાદાવતંકની પશ્ચિમ દિશામાં વજી કૂટ નામક ફૂટ આવેલ છે. એ કૂટની અધિષ્ઠાત્રી वो was छ. मेनी सयानी ठूटनी उत्तर दिशामा मावेसी छ. 'कहिणं भंते ! णंदणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' 3 महन्त ! नन्हवनमा मसाट नाम ८ ४या २५णे मावेa Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थयक्षस्कारः सू. ३७ नन्दनवमस्वरूपवर्णनम् 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपौरस्त्येन ईशानकोणे 'एत्थ' अत्र-अवान्तरे ‘णं' खलु ‘णंदणवणे' मैन्दनवने 'बलकूडे णामं कूडे' बलकूटं नाम कूटं 'पण्णते' प्रज्ञप्तम् अत्रेदं तात्पर्यम्-मेरुगिरितः पञ्चाशयोजनानन्तरे ईशानकोणे ऐंशानप्रासादः प्रज्ञप्तस्ततोऽपि ईशानकोणे बलकूटं नाम'कूट विशालतमस्य वस्तुन आधारस्यापि विशालतमत्वात् प्रकृते विशालतमस्य बलकूटस्याधारभूत शानकोणस्य विशालतमप्रमाणकत्वमिति । एवं' एवम्-अनेन प्रकारेण उक्ताभिलापानुसारेण 'ज चेव' यदेव 'हरिस्सहकूडस्स' हरिस्सहकूटस्य-माल्यवनामकवक्षस्कारपर्वतवतिनो नवमकूटस्य 'पमाणं' प्रमाणं सहस्रयोजनलक्षणं तद्विारिकूटवर्णनप्रकरणे प्रागुक्तम् 'रायहाणी य' राजधानी च हरिस्सहा नाम्नी आयामविष्कम्भतश्चतुरशीति योजनसहस्रप्रमाणा वर्णिता 'तं वेव' तदेव प्रमाणं 'बलकूडस्सवि' बलकूटस्यापि वाच्यम्, एवं हरिस्सह राजधानी वद् बलकूटथिमेणं एत्थणं णंदणवणे घलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते) हे गौतम ! मन्दर पर्वत की ईशान विदिशा में नन्दनवन में बलकूट नामका कूट कहा गया इस कटका दूसका नाम सहस्त्राङ्क कूट भी है इसका तात्पर्य ऐसा है कि मेरु पर्वत से ५० योजन आगे जाने पर ईशान कोण में ऐशान इन्द्र का प्रासाद है इसके भी ईशानकोण में यह बलकूट नामका कूट है । जो वस्तु विशालतम होती है यहां उस विशाल तम ही आधार की आवश्यकता होती है इस कूटकी आधारभूत जो विदिशा है वह विशालतम प्रमाणवाली है। (एवं जं चेव हरिस्सहकूडस्स पमाणं रायहाणी अतं चेव बलकूडस्स वि, णवरं बलो देवो रायहाणी उत्तरपुरस्थिमेणंति) इस तरह जो हरिस्सह कूटकी-माल्यवान् पर्वतवती नोचे कट की-एक हजार योजनरूप प्रमाणता-पहिले कही गई है, तथा हरिस्सहा नामकी जो राजधानी आयाम विष्कंभ की अपेक्षालेकर ८४ हजारयोजन प्रमाण वाली कही गई है वही सब कथन यहां पर भी कहलेना चाहिये अर्थात् इस बलकट का छ ? ramki xभु ४९ छे–'गोयमा ! मंदरस्त पव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थणं णंदणवणे बलकूडे णामं कूडे पण्णत्ते' गौतम ! भन्६२ पतनी शान विशमा नन्दनवनमा मत કૂટ નામક ફૂટ આવેલ છે. એ ફૂટ સહસંક કૂટ નામથી પણ સુપ્રસિદ્ધ છે. આનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે મેરુ પર્વતથી ૫૦ એજન આગળ જવાથી ઈશાન કેણમાં એશાન ઈન્દ્રને મહેલ છે. તેના પણ ઈશાન કેણમાં બલકૂટ નામક કૂટ છે જે વસ્તુ વિશાલતમાં હોય છે, તેના માટે વિશાળતમ આધારની જરૂરત રહે છે. અહીં એ ફૂટની જે આધારભૂત વિદિશા छत विसतम प्रभावाणी . "एवं जं चेव हरिस्सकूडस्स पमाणं गयहाणी अतं चेव बलकूडरस वि, णवरं बलो देवो रायहाणी उत्तरपुरथिमेणं ति ॥ प्रमाणे नषभरिस छूटनी से हैમાલ્યવાન પર્વતવતી નવમ કૂટની–એક સહસ્ત્ર ચેજન રૂપ પ્રમાણતા પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે. તેમજ હરિસ્સહા નામે જે રાજધાની છે તે આયામ–વિષ્કભની અપેક્ષાએ ૮૪ હજાર યોજન પ્રમાણ જેટલી કહેવામાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે શેષ બધું કથન અહીં Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्यापि राजधान्याः प्रमाणं वाच्यम् 'णवरं' नवरं - केवलं वलकूटस्थाधिष्ठाता 'बलो देवो' rot नाम देवः, हरिस्सहकूटस्य तु हरिस्तो नाम देव उक्त इति विशेषः, बलदेवस्य 'शहाणी' राजधानी 'उत्तरपुर स्थिमेणंति' उत्तरपौरस्त्येन - ईशानकोणे प्रज्ञप्तेति नवमकूटवर्णनं गतम्, इति मन्दरगिरिवर्ति नन्दनवनगतानां नवकूटानां नन्दनवनकूटादि वर्णनम्, इति मन्दरवर्ति द्वितीयनन्दनवनवर्णनं समाप्तम् ॥ ० ३७|| अथ तृतीयं सौमनसवनं वर्णयितुमुपक्रमते 'कहिणं भंते' इत्यादि । मूलम् - कहि णं भंते! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते ? गोमा ! णंदणवणस्स बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ अद्ध तेवट्ठि जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते, पंच जोयणसयाई चक्कवालविकखंभेणं बट्टे वलयाकार संठाणसंठिए जेणं मंदरं पव्वयं सव्वओ समेता संपरिक्खित्ताणं चिgs, चार जोयणसहस्साइं दुविण य यावत्तरे जोयणसए अटु य इक्कारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिविकखंभेणं तेरस जोयणसहस्साई पंचय एक्कारे जोयणसए छच्च एक्कारसभाए जोयणस्स वाहि गिरिपरिरएणं तिfपण जोयणसहस्साइं दुणि य बाबत्तरे जोयणसए अटुय इकारसप्रमाण एक हजार योजन का है और बलकूट नामकी राजधानी के आयाम विष्कम्भ का प्रमाण ८४ हजार योजन का है (णवरं) पद द्वारा उसकी अपेक्षा जो यहां अन्तर है वह ऐसा है कि यहां पर बल नामका देव उसका अविष्ठाता है हरिस्सह कूटका अधिष्ठाता हरिस्सह नामका देव है इस बलदेव की राज घानी इस कूटकी ईशान विदिशा में कही गई है । इस प्रकार से मन्दर गिरिवर्ति जो नन्दनवन है और इसमें जो ये नौ कूट हैं उनका सबका कथन समाप्त हुआ यह नन्दनवन मन्दरगिरिका द्वितीय वन है ||३७|| પણ સમજી લેવું જોઈએ. એટલે કે એ અલકૂટનુ પ્રમાણ એક હાર ચેાજન જેટલુ છે અને ખલકૂટ નામની રાજધાનીના આયામ-વિષ્ણુ ભાનું પ્રમાણ ૮૪ હજાર યેાજન જેટલુ છે. 'णवर' पढ वडे से मतान्यु हे तेती अपेक्षाओ में सहीं अंतर छे, ते माप्रमाणे छे અહીં ખલ નામક દેવ એનેા અધિષ્ઠાતા છે. હરિસ્સ ુ ફૂટના અધિષ્ઠાતા હરિસંહ નામક દેવ છે. એ ખલદેવની રાજધાની એ ફૂટની ઈશાન વિદિશામાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે મન્દર ગિરિવર્તી જે નન્દન વન છે અને એમાં જે નવકૂટો આવેલા છે. તે ખધા વિષે થુન સમાપ્ત થયું. આ નન્દનવન भन्दर गिरिनु द्वितीय वन छे । सूत्र- ३७ ॥ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३८ सौमनसवनवर्णनम् भाए जोयणस्त अंतो गिरिविक्खंभेणं दस जोयणसहस्साइं तिपिण य अउणापरणे जोयणसए तिणि य इकारसभाए जोयणस्त अंतो गिरिपरिरएणंति । से णं एगाए पउभवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ किण्हे किण्होभासे जाव आसयंति कूडवज्जा सा चेव गंदणवणवत्तना भाणिरम्बा, तं चेव ओगाहिऊण जाव पासायव.सगा सक्कीसाणाणंति ॥५० ३८५ छाया-क्व खलु भदन्त ! मन्दरे पर्वते सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नन्दनवनस्य बहुभमरमणीयाद् भूमिभागाद अद्धत्रिषष्टि योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुत्पत्य अत्र खलु मन्दरे पर्वते सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ; पञ्चयोजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेण वृत्तं वलयाकारसंस्थानसंस्थितं यत् खलु मन्दरं पर्वतं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति, चत्वारि योजनसहस्राणि द्वे च द्वासप्तते योजनशते अष्ट च एकादशभागान् योजनस्य बहिगिरिविष्कम्भेण त्रयोदश योजनसहस्राणि पश्च च एकादशानि योजनशतानि च षट् च एकादशभागान् योजनम्य वहिगिरिपरिरयेण त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे च द्वासप्तते योजनशते अष्ट च एकादशभागान् अन्तर्गिरिविष्कम्भेण दश योजनसहस्राणि त्रीणि च एकोनपश्चाशानि योजनशतानि श्रींश्च एकादशभागान योजनस्य अन्तगिरिपरिरयेणेति । तत् खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्तं वर्णकः कृष्णः कृष्णाष. भासौ यावद् आसते, एवं कूटवर्जा सैव नन्दनवनवक्तव्यता भणितव्या, तदेव अवगाह्य यावत् प्रासादावतंसकः शक्रेशानयोरिति ॥सू० ३८॥ ___टीका-'कहि णं भंते ! मंदरे' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'मंदरे' मन्दरे मेरौं 'पव्वए' पर्वते 'सोमणवणे णामं सौमनसवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तम् ?, 'गोयमा " गौतम ! 'णंदणवणस्स' नन्दनवनस्य 'बहुसमरमणिजाओ' बहुप्समरमणीयात् 'भूमिभागाओ' तृतीय सौमनसवनका वर्णन 'कहिणं भंते ! मंदरे पन्चए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते' इत्यादि। टीकार्थ-गौतमस्वामी ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से एसा पूछा है-(कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णाम वणे पण्णत्ते) हे भदन्त ! मन्दर पर्वत पर सौमनस नामका वन कहां पर कहा गया है ? उपचार में प्रभुश्री कहते हैं-(गोयमा !णंदणव. તૃતીય સૌમનસ વનનું વર્ણન 'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णाम वणे पण्णत्ते' इत्यादि Aथ-गीतभे सूत्र १3 प्रभुन त प्रश्न ४ो छ'कहिणं भंते ! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णाम वणे पण्णत्ते' 3 महन्त ! २ ५ ५२ सौमनस नाम न ४५ स्थणे भाव छ ? सेना ममा प्रभु ४९ छ. 'गोयमा ! गंदणवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रचलिखने भूमिभागात् 'अद्धतेवट्टि' अर्द्धत्रिषष्टिं-सार्द्धद्वाषष्टि 'जोयणसहस्साई' यो जनसहस्राणि उद्धं उष्पइत्ता' ऊर्ध्वमुत्पत्य उपरि गत्वा 'इत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु ‘मंदरे पव्वए' मन्दरे पर्वते 'सोमणसवणे णाम' सौमनसवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च 'पंचजोयण सहस्साई' पञ्चयोजनशतानि 'चकवालविक्खंभेणं' चक्रवालविष्कम्भेण मण्डलाकारविस्तारण 'वहे' वृत्तं वर्तुलं 'वलयाकारसंठाणसंठिए' वलयाकारसंस्थानसंस्थितं-वलयो हि मध्यच्छिद्रयुक्तो भवति तद्वदाकारकसंस्थानेन संस्थितम्, एतदेव स्पष्टीकरोति-'जे' यत्-सौमनसवनं 'ण' खलु ‘मंदरं पवयं' मन्दरं पर्वतं ' सओ' सर्वतः-सर्वदिक्षु 'समंता' सर्वविदिक्षु 'संपरिविसत्ता' सम्परिक्षिप्य-परिवेष्टय ‘णं' खलु 'चिट्ठई' तिष्ठति, एतच्च कियद्विष्कम्भं कियत्पपरिक्षेपम् ? इति जिज्ञासायामाह-'चत्तारि' चत्वारि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'डुण्णि य' द्वे च 'बावत्तरे' द्वासप्तते द्वासप्तत्यधिके 'जोयणसए' योजनशते 'अट्ट य' अष्ट च 'इकारसभाए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'बाहिं' बहिः 'गिरिविक्खंभेणं' गिरिविष्कम्भेण मेरुपर्वतविस्तारेण 'तेरस' त्रयोदश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'पंचय' मस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अद्धतेवहिं जोयणसहस्साई उद्धं उप्प. इस एत्थणं मंदरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे गौतम ! नन्दन धन के बहुसमरमणीय भूमि भाग से ६२॥ हजार योजन ऊपर जाने पर मन्दर पर्वत के ऊपर सौमनसवन नामका वन कहा गया है। (पंच जोयणसयाई चकवाल. विक्खंभेणं वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए' यह सौमनसवन पांचसो योजन के मण्डलाकाररूप विस्तार से युक्त है गोल है इसीलिये इसका आकार गोल घलय के जैसा हो गया है 'जे णं मंदरं पव्वयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठई' यह सौमनसवन मन्दर पर्वत को सब ओर से अच्छी तरह घेरे हुए हैं 'चत्तारि जोयणसहस्साई दुण्णि य बावत्तरे जोयणसए अट्ठ य एकारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिविक्खंभेणं' इसका बाह्य विस्तार ४२७२ योजन और १ भूमिभागाओ अद्धत्तेवढेि जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थणं मंदरे पब्बर सोमणसवणे णाम बणे पण्णत्ते गौतम ! नन बनना म सभरमणीय भूमि माथी १२॥ યોજન ઉપર ગયા બાદ મંદર પર્વતની ઉપર સૌમનસવન નામે વન આવેલ છે. “વંજजायणसयाई चकवालविक्खंभेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए' मा सौमनस वन पांयसे। એજન જેટલા મંડળાકાર રૂપ વિસ્તારથી યુક્ત છે. ગેળ છે. એથી એને આકાર ગોળ, १क्षय वा छे. 'जे णं मंदरं पव्वयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिदुइ' भ४२ ५'तनी थामेर मा सोमनसवन वाटाय छे. 'चत्तारि जोयणसहस्साई दुण्णिय बावत्तरे जोयण सए अद्वय एक्कारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिविक्खंभेणे' अने। मा विस्तार ४२७२ यौन मने ये नना ११ भागाभांथी ८ मा प्रभाव छ. 'तेरस जोयणसहस्साई छच्च एकारसभाए जोयणस्स पाहिं गिरिपरिरयेणं' सेना मा ५२२५नु प्रमाण १३५११ योवन Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाखीका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३८ सौमनसवनवर्णनम् पञ्च च 'एक्कारे' एकादशानि - एकादशाधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'छच्च' षड् च 'एक्कारसभाए' एकादशभागान् 'जोयणस्प' योजनस्य 'बाहि' बहि: 'गिरिपरिरएणं' गिरिपरिरयेण गिरिपरिधिना, 'तिणि' त्रीणि 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दुण्णि य' के च 'वात्तरे' द्वासप्ततानि द्विसप्तत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'अट्ठ य' अष्ट च एकारसभा ए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'अंतो' अन्तः मध्ये नितप्रदेशे 'गिरिवक्वं भेणं' गिरिविष्कम्भेण 'दस' दश 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'विष्णि ग्र त्रीणि च 'अउणावण्णे' एकोनपं वाशानि - एकोनपञ्चाशदधिकानि 'जोयणसए' योजनशतामि 'विणि य' त्रींश्व 'इक्कारसमाए' एकादशभागान् 'जोयणस्स' योजनस्य 'अंतो' अन्तः बध्ये 'गिरिपरिरएणं' गिरिपरिरयेण गिरिपरिधिना इति । अथ सौमनसवनं वर्णयितुं सूत्रमाह-' से ' तत् 'णं' खलु सौमनसवनं 'एगाए' एकया 'पउमवर वेइयाए' पद्मवर वेदिकया 'प्रगेण य' एकेन च 'वणसंडेणं' वनषण्डेन 'सव्वओ' सर्वतः 'समता' समन्तात् 'संपरिषिखत्ते' सम्परि क्षिप्तं परिवेष्टितमस्ति, अनयोः पद्मवरवेदिका वनपण्डयोः 'वण्णओ' वर्णक:-वर्णनपरपद समूहोऽत्र बोध्यः, स च पञ्चमसूत्राद् ग्राह्यः, स च किम्पर्यन्तः ? इत्याह- ' किन्हे किन्होभासे योजन के ११ भागों में से ८ भाग प्रमाण है 'तेरस जोयणसहस्साई पंचाय एकारे जोयणसए छच्च एक्कारसभाए जोयणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं' इसका वाह्य परिक्षेप प्रमाण १३५११ योजन और १ योजन के ११ भागों में से ६ भाग प्रमाण है । 'तिण्णि जोयणसहस्साइं दृष्णि य बावन्तरे जोयणसए अनुय इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविवखंभेणं, दस जोयणसहस्साइं तिण्णियअपणापणे जोयणसए तिष्णिय एक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरए ति' इसका भीतरी विस्तार ३२७२ योजन और एक योजन के ११ भागों में से ८ भाग प्रमाण है तथा इसका भीतरी परिक्षेत्र का प्रमाण १०३४९ योजन और एक योजन के ११ भागों में से ३ भाग प्रमाण है । 'सेगं एगाए पमवरवेहयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खिते वण्णओ-किरणे किल्हो भासे जाव आसयंति एवं कूडवज्ज सच्चेव णंदणवणवक्तव्वया भाणियव्वा' उसने १ योगनना ११ लागोमाथी लाग प्रभाग छे 'तिणि जोयणसहस्साई दुणिय बावन्तरे जोयणसए अट्ठय एक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविक्खंभेणं, दस जोयणसहस्साइ तिष्णिय अउणावण्णे जोयणसर तिष्णिय एक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरयेणंति' थे। ભીતરી વિસ્તાર ૩૨૭૨ ચેાજન અને એક ચેજનના ૧૧ ભાગામાંથી ૮ ભાગ પ્રમાણ છે. તેમજ આના આભ્ય તરીય પરિક્ષેપનું પ્રમાણ ૧૦૩૪૯ ચૈાજન અને એક ચેનના १। लागोभांथी 3 लोग प्रभाशु छे. 'से णं एगाए पउवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते वण्णओ - किरणे किन्होभासे जाव आसयंति एवं कूडवज्ज सच्चेच दण aणवतव्वया भाणियव्वा' मा सोभसवन पद्मवर बेहि भने ये वनश्री भरथी Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जाव आसयंति' कृष्णः कृष्णावभासो यावदासते - कृष्णः कृष्णावभास इत्यारभ्य आसत इति पर्यन्तो बोध्यः, अयं सर्वः पाठः पञ्चमषष्ठसूत्र तो बोध्यः अस्यार्थोऽपि तत एव ज्ञेयः । ' एवं ' एवम् - उक्ताभिलापानुसारेण 'कूडवज्जा' कूटवर्जा - कूटवर्जिता 'सा चेव' सैव प्रागुक्तैव 'णंदणवणवत्तव्त्रया' नन्दनवन वक्तव्यता 'भाणियव्वा' भाणितव्या वक्तव्या, सा च नन्दनवनवक्तव्यता किम्पर्यन्ता ? इत्याह- 'तं चेव' इत्यादि तदेव मेरुपर्वतात् पञ्चाशद्योजनरूपं क्षेत्रम् ' ओगाहिऊण' अवगाह्य - प्रविश्य 'जाव पासायवडेंसगा सक्कीसाणंति' यावत् प्रासादावतंसकाः शक्रेशानयोरिति शक्रेन्द्रस्येशानेन्द्रस्य च प्रासादावतंसकवर्णन पर्यन्तेत्यर्थः इयं वक्तव्यता नन्दनवनवर्णनप्रकरणेऽनन्तरसूत्रे गता एतत्सौमनसवनवर्तिन्यो वाप्यः, ईशानादिकोणक्रमेणेमाः - सुमनाः १ सौमनसा २ सौमनांसा 'सौमनस्या' ३ मनोरमा ४ इत्यैशान्याम्, उत्तरकुरुः १ देवकुरुः २ वारिषेणा ३ सरस्वती ४ इत्याग्नेय्याम्, विशाला १९ माघभद्रा २ अभय सेना ३ रोहिणी ४ इति नैर्ऋत्याम् भद्रोत्तरा १ भद्रा २ सुभद्रा ३ भद्रा 'द्र' वती ४ वायव्याम् ||सू० ३८|| في यह सौमनस वन एक पद्मवर वेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से घिरा हुआ है यहां पर इन दोनों का वर्णक पद समूह 'किण्हो किण्होभासे जाव आसयंति' इस पाठ तक कहलेना चाहिये यह पद समूह पंचम एवं छठें सूत्रमें प्रकट किया गया है । इस कूटों की वक्तव्यता को छोड़कर बाकी की और सब वक्तव्यता जैसी नन्दन वन के प्रकरण में कही गई है वैसी ही यहां पर कहलेनी चाहिये यह नन्दन वन वक्तव्यता 'मेरु से ५० योजन के आगे के क्षेत्र को छोडकर आगत इस स्थान में शकेन्द्र और ऐशानेन्द्र के प्रासादावतंसक है' यहां तक के पाठ तक ही यहां कहलेना चाहिये । इस सौमनसवन में ये ईशानादि कोण क्रम से १ सुमना, २ सौमनसा, ३ सौमनांसा, एवं ४ मनोरमा ये ईशान दिशा में चार वावडिया हैं, उत्तर कुरु १, देवकुरु २, वारिषेणा ३, और सरस्वती ४, ये चार वापिकाएं आग्नेय आवृत छे. अहीं मे मन्नेन व समूह 'किण्होकिण्हो भासे जब आसयंति' मा ૫૭ સુધી કહી લેવા જોઇએ. આ પદ સમૂહ પાંચમ અને ષષ્ઠ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. એ ફૂટની વક્તવ્યતાને માદ કરીને શેષ બધી વક્તવ્યતા જે પ્રમાણે નદનવનના પ્રકરણનાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે તે પ્રમાણે જ અહીં પણ કહી લેવી જોઇએ. આ 'नन्दनवनवक्तव्यता' भेरुत्री ५० योगन भेटला आगणना क्षेत्रने छोडीने यावेला स्थानभां શક્રેન્દ્ર અને અશાનેન્દ્રના પ્રાસ દાવત'સક છે. હુી. સુધીના પડ સુધી કહી લેવી જોઇએ. એ સૌમનસ વનમાં ઇશાનાદિ કાક્રમથી ૧ સુમના, ૨ સૌમનસા, ૩ સૌમનાંસા तेभन ४ मनोरमा मेशिनहिशामां ४ वडा छे. उत्तरहरु-१, देवपुरु-२, पारिषेणा ૩, અને સરસ્વતી ૪ એ ૪ વાપિકાએ આગ્નેય દિશામાં આવેલી છે. વિશાલા ૧, માઘ 1 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनवर्णनम् -- अथ मन्दरगिरिवर्ति पण्डकवनं नाम चतुर्यवनं वर्णयितुमुपक्रमते-कहि णं भंते ! इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! मंदरपवए पंडगवणे णामं वणे पण्णते ? गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ छत्तीसं जोयणसहस्साइं उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए सिहरतले पंडगवणे णामं वणे पपणत्ते, चत्तारि चउणउए जोयणसए चकवालविक्खं. भेणं वटे वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मंदरचूलियं सवओ समंता संपरिक्वित्ताणं चिटुइ तिणि जोयणसहस्साइं एगं च बावटुं जोयणसयं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसडेणं जाव किण्हे देवा आसयंति, पंडगवणस्त बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मंदरचूलिया णामं चूलिया पण्णत्ता चत्तालीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अट्ट जोयणाई विक्खभेणं उप्पि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं मूले साइरेगाइं सत्तत्तीसं जोय. णाई परिक्खेवेणं मज्झे साइरेगाई पणवीसं जोयणाइं परिक्खेवेणं उप्पि साइरेगाइं बारसजोयणाइं परिवखेवेणं मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उपि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववेरुलियामई अच्छा सा णं एगाए पउमवरवेइयाए जात्र संपरिक्खित्ता इति उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभाए जाव सिद्धाययणं बहुमज्झदेसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेगखंभसय जाव धूवकडुच्छगर, मंदरचूलियाए णं पुरथिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते एवं जच्चेव सोमणसे दिशा में हैं। विशाला १, माघ भद्र। २, अभयसेना ३, और रोहिणी ४, ये चार वापिकाएं नैऋत्यकोण में हैं, तथा भद्रोत्तरा, १, भद्रा २, सुभद्रा ३, और भद्रावती ४, ये चार वापिकाएं वायव्य विदिशा में हैं ॥३८॥ ભદ્રા ૨, અભયસેના ૩ અને રોહિણી ૪ એ ચાર વાપિકાએ નેત્ય કોણમાં આવેલી છે. તથા ભદ્રોત્તરા ૧, ભદ્રા-૨, સુભદ્રા, ૩ અને ભદ્રાવતી ૪ એ ચાર વાપિકાઓ વાયવ્ય દિશામાં આવેલી છે. છે ૩૮ | Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जम्बूद्वीपमातिसूत्र पुववणिओ गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडेंसगाण य सो चेव जाव सकीसाणवडेंसगा ते णं चेव परिमाणेणं सू० ३९॥ - छाया-क खलु भदन्त ! मन्दरपर्वते पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! सौमनसवनस्य बहुसमरमणीयाद् भूमिभागात् षट्त्रिंशतं योजनसहस्राणि ऊर्ध्वमुत्पत्य अत्र खलु मन्दरेपर्वके शिखरतले पण्डकवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम्, चत्वारि चतुर्नवतानि योजनशतानि चक्रमालविष्कंभेणं वृत्तं वलयाकारसंस्थानसंस्थितं, यत् खलु मन्दरचूलिकां सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य खलु तिष्ठति त्रीणि योजनसहस्राणि एकं च द्वाषष्ट योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपण, तत् खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन यावत् कृष्णः देवा आसते, पण्डवनस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु मन्दरचूलिकानाम चूलिका प्रज्ञप्ता चतुश्चत्वारिंशत सेजमानि ऊर्ध्वमुञ्चत्वेन मुले द्वादश योजनानि विष्कम्भेण म ये अष्ट योजनानि विष्कम्भेण उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेण मूले सातिरेकाणि सप्तत्रिंशतं योजनानि परिक्षेपेण मध्ये सातिरेकाणि पञ्चविंशति योजनानि परिक्षेपेण उपरि सातिरेकाणि द्वादश योजनानि परिक्षेपेण मूले विस्तीर्णा, मध्ये संक्षिप्ता, उपरि तनुका, गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता सर्ववैडूर्यमयी अच्छा सा खलु एकया पद्मवरवेदिकया यावत् संपरिक्षिप्ता इति उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागो यावत् सिद्धायतनं बहुमध्यदेशभागे क्रोशमायामेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेण देशोने के क्रोशमूर्ध्वमुच्चत्वेन अनेकस्तम्भशत यावद् धृपकडुच्छुका, मन्दरचूलिकायाः खलु पौरस्त्येन पण्डकवनं पञ्चाशतं योजनानि अवगाह्य अत्र खलु महदेकं भवनं प्रज्ञप्तम्, एवं य एव सौमनसे पूर्ववर्णितो गमो भवनानां पुष्करिणीनां प्रासादावतंसकानां च स एव नेतव्यः यावत् शक्रशानयोः प्रासादावतंसकाः तेनैव परिमाणेन ॥सू० ३९॥ . टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'मंदर पवए' मन्दरपर्वते 'पंडगवणे माम' पण्डकवनं नाम 'वणे' वनं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम्, 'गोयमा !' गौतम ! 'सोमणसवणस्स' सौमनवनस्य बहुसमरमणिज्जाओ' बहुसमरमणीयाद् ‘भूमिभागाओ' भूमिभागात् 'छत्तीस पण्डकवनका वर्णन 'कहिणं भंते ! मंदरपव्वए पंडगवणे णाम वणे पण्णत्ते' इत्यादि । टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा इस सूत्रद्वारा पूछा है-'कहि भंते ! मंदरपव्वए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे भदन्त ! मंदर पर्वत पर पण्डक बन नामका वन कहां पर कहा गया है १ उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! પડક વનનું વર્ણન 'कहिणं भंते ! मंदरपधए पंडगवणे णाम वणे पण्णत्ते' इत्यादि A:--0 सूत्र 43 गोतमे प्रभुने प्रश्न य छ 'कहिणं भंते ! मंदरपत्रए पंडगवणे गाम वणे पण्णत्ते' 3 महत! २ ५ 3५२ ५९७४१न नाम वन ४या स्थणे मावेन ? Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनवर्णनम् षत्रिंशतं 'जोयणसहस्साई' योजनसइस्राणि उद्धं' ऊर्धम् 'उप्पइत्ता उत्पत्य-गत्वा एत्थ' अर-अत्रान्तरे 'गं' खलु 'मंदरे पथए' मन्दरे पर्वते 'सिहरतले' शिखरतले-शिरोभागे 'पंडगवणे णाम' पण्डकवनं नाम 'वणे' वनं प्रज्ञप्तम्, तच चत्तारि' चत्वारि 'चउणउए' चतुर्नवतानि चतुर्नवत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'चकवालविक्खंभेणं' चक्रवालविष्कम्भेण मण्डलाकार विस्तारेण 'चट्टे' वृत्तं-वर्तुलं 'वलयाकारसंठाणसंठिए' वलयाकारसंस्थानसंस्थितं रिक्तमध्यकङ्कणवत् मध्ये तरुलतागुल्मादि रहिततया संस्थिम् एतदेव स्पष्टीकरोति-'जे' यत् पण्डकारनं 'णं' खलु मंदरचूलिभ' मन्दरचूलिका 'सव्वओ' सर्वतः सर्वदिनु 'समंता' समन्तात-सर्वविदिक्षु 'संपरिखित्ता' परिक्षिप्य परिरोष्टय 'ण' खलु 'चिट्टइ' तिष्ठति 'तिष्णि' नीणि 'जोयणसहस्साई' योजनसहखाणि 'एग च' एकं च 'बारी' द्वापष्टं-द्वायष्टयधिक 'जोयणस' योजनशतं 'किंचिक्सेिसाहियं शिश्चिद् विशेषाधिकंकिश्चिदधिकं परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तम्, तत्पुनः एमरवेदिका वनपण्डाभ्यां सोमणसवणास बहु समरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीमं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए सिहरतले पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' हे गौतम ! सौमनसवन के बहुसमरमणीय भूमि भाग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाने पर आगत इसी स्थान पर मन्दर पर्वत के शिखर तल पर यह पण्डक वन नामका वन कहा गया है 'चत्तारि चउणउए जोयणसए चकवालविक्खभेणं वट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए' यह समचक्रवाल विष्कम्भ की अपेक्षा ४९४ योजन प्रमाण है यह गोल है तथा उसका आकार गोलाकार वलय के जैसा है जिस प्रकार वलय अपने मध्य में खाली रहता है उसी प्रकार यह वन भी अपने बीच में तरुलता गुल्म आदि से रहित है। 'जे णं मंदरचूलिअं सवओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ' यह पण्डक वन मंदर पर्वत की चूलिकाको चारों ओर से घेरे हुए हैं ! (तिपिणजोयणसहस्साइं एगंच यावढं जोयणसयं मेन ममा प्रभु ४-'गोयमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ छत्तीसं जोयणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थणं मंदरे पव्यए सिहरतले पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते' હે ગૌતમ! સૌમનવનના બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગથી ૩૬ હજાર જન ઉપર ગયા પછી જે સ્થાન આવે છે તે સ્થાન પર મંદર પર્વતના શિખર પ્રદેશ ઉપર આ પડકવન નામક वन मावे छे. 'चत्तारि चउणउए जोरणसए चक्कबालविक्खंभेणं वट्टे वलयाकारसंठ.णसंठिए' २॥ समयपास मिनी अपेक्षा ४८४ योन प्रमाण छ. २॥ गोणारभां છે તથા તેને આકાર ગોળાકાર વલચ જેવું છે. જેમ વલય પિતાના મધ્યમાં ખાલી રહે छ त म न ५४ पोताना मध्यभागमा २-बता शुभ पोरेथी त छ. 'जे गं मंदरचूलिअं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्टई' 24॥ ५९७४ 4 म२ पतनी यूलि. ४ाने याभरथी आकृत ४रीन मथित छे. 'तिष्णि जोयणसहस्साइं एवं च बावहूँ जोयण Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ जम्बूद्धीपप्रचप्तिसूत्रे परिवेष्टितत्वेन वर्णयितुमाह-'से णं एगाए' 'तत् खलु एफया 'पउमयरवेश्याए' पद्मवरवेदिकया 'एगेण य' एकेन च 'वणसंडेणं' वनषण्डेन' इत्यारभ्य 'जाब किण्हे देवा आसयंति' यावत् 'कृष्णो देवा आसत' इति पर्यन्तो वर्णकोऽत्र बोध्यः, स च सार्थः पञ्चमषष्ठसूत्राभ्या. मवगन्तव्यः, अथ पण्डकवनवेष्टितां मन्दरचूलिकां जातजिज्ञःसां वर्णयितुमुपक्रमते-'पंडग. वणस्स' इत्यादि-पण्डकवनस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'मंदरचूलिया णामं चूलिया' मन्दरचूलिका मन्दरस्य-मेरु. गिरेः चूलिका चूला-शिखा सैर चूलिका, मन्दरचूलिका नाम चूलिका 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'चत्तालीसं' चत्वारिंशत 'जोयणाई योजनानि 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन 'मूले' मूले-मूलदेशावच्छेदेन 'बारस' द्वादश 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेणविस्तारेण प्रज्ञप्तेति शेषः, एवमग्रेऽपि, 'मज्झे' मध्ये-नितम्बदेशावच्छे देन 'अट्ठ' अष्ट 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण 'उपि' उपरि-शिखरावच्छेदेन 'चत्तारि' किंचिंविसेसाहियं परिक्खेवेण) इसका परिक्षेप-परीधि कुछ अधिक एक हजार एकसौ ६२ योजन का है। 'से एगाए पउभवरवेयाए एगेण च वणमंडेणं जाव किण्हे किण्होभासे देवा आसथंति' यह पण्डकवन एक पदावर वेदिका से और एक धनषंड से चारों ओर से घिरा हुआ है यावत् यह वनषंड कृष्ण है वानव्यन्तर देव यहां पर आराम विश्राम करते हैं । यह सब कृष्णादि रूप वर्णन पंचम एवं षष्ठ सूत्रों से जानलेना चाहिए। 'पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं भंदरचूलिआ णामं चूलिआ पण्णत्ता चत्तालीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं मूले बारस जोयणाई विक्खंभेगं मज्झे अट्ठ जोयणाइविक्खंभेणं उपि चत्तारी जोयणाई विखंभेणं, मूले साइरेगाइ सत्तत्तीसंजोयणाई परिक्खेवेणं' इस पण्डक वन के बहुमध्य भाग में एक मंदरचूलिका नामकी चूलिका है यह चूलिका ४० योजन प्रमाण ऊंची है भूल देशमें इसका सय किचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं' याने परिक्ष५ (464) ४४थि११६२ योन सो छ. से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाय किण्हे किण्होभासे देवा आसयंति' मा ५९४ वन ४ ५१२ वहिाथी मने से वनम थी शीमेथी मात છે. યાવતુ આ વનખંડ કૃષ્ણ છે. વાનવ્યંતર દેવો અહીં આરામ-વિશ્રામ કરે છે. આ मधु ३८ 6ि ३५ प न यम भने १४ सूत्रोमांथी area से ले . 'पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं मंदरचूलिआ णामं चूलिआ पण्णत्ता चत्तालीसं जोयणाई उद्धं उच्चत्तणं मले बारस जोयणाई विक्खंभेणं मज्झे अदु जोयणाई विक्खंभेणं उपि चत्तारि जोयणाई विक्खभेणं, मूले साइरेगाई सत्ततीसं जोयणाई परिक्खेवेणं' । ५९४, बनना पडु मध्यममा એક મંદર ચૂલિકા નામક ચૂલિકા છે. આ ચૂલિકા ૪૦ જન પ્રમાણ ઊંચી છે. મૂલ દેશમાં આને વિખંભ–વિસ્તાર–૧૨ જન જેટલું છે. મધ્યભાગમાં અને વિસ્તાર આઠ જેને Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. ३९ पण्डकवनवर्णनम् ४५ चत्वारि 'जोयणाई' योजनानि 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण, पुनः 'मूले' मूलावच्छेदेन 'साइरेगाई' सातिरेकाणि किञ्चिदधिकानि 'सत्तत्तीसं' सप्तत्रिंशतं 'जोयणाई' योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण परिधिना तथा 'मज्झे' मध्ये 'साइरेगाई' सातिरेकाणि 'पणवीसं' पञ्चविंशलिं 'जोयणाई' योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण वर्तुलत्वेन 'उप' उपरि 'साइरेगाई' सातिरेकाणि 'बारस' द्वादश 'जोयणाई' योजनानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण 'मूले' मूले 'विच्छिण्णा' विस्तीर्णा मध्योपरिभागापेक्षया विस्तारवती 'मज्झे' मध्ये 'संखित्ता' संक्षिप्ता मूलापेक्षयाऽल्पविस्तारा 'उप' उपरि 'तणुया' तनुका मूलमध्यापेक्षयाऽल्पतरविस्तारा अत एव 'गोपुच्छसंठाणसंठिया' गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता - ऊर्ध्वकृतगोपुच्छाकारेण स्थिता, तथा 'सन्ववे रुलियामई' सर्ववैडूर्यमयी सर्वात्मना वैडूर्यमणिमयी तथा 'अच्छा' अच्छा-आकाशस्फटिक निर्मला अथैतां पद्मवरवेदिका वनपण्डाभ्यां परिवेष्टिततया वर्णयति - 'सा ' एगाए' सा मन्दरचूलिका खलु एकया 'पउमवर वेश्याए' पद्मवरवेदिकया 'जाव' यावत् विष्कम्भ - विस्तार -१२ योजन का है मध्यभाग में इसका विस्तार आठ योजन का है शिखरभाग में इसका विस्तार चार योजन का है मूल भाग में इसका परिक्षेप कुछ अधिक ३७ योजन का है तथा 'मज्झे साइरेगाइ पणवीसं जोयणाइं परिक्खेवेणं' मध्यभाग में इसका परिक्षेप कुछ अधिक २५ योजन का है 'उपि साइगाइ बारस जोयणाई परिक्खेवेणं' ऊपर में इसका परिक्षेप कुछ अधिक १२ योजन का है । 'मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उपिं तणुआ गोपुच्छ संठाणसंठिया सव्ववेरुलियामई अच्छा' इस तरह यह मूल में विस्तीर्ण मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतली हो गई है अतः इसका आकार गायकी उर्ध्वकृत पूंछ के जैसा हो गया है । यह सर्वात्मना वज्रमय है और आकाश एवं स्फटिक - स्फटिक मणि के जैसी निर्मल है । 'सा णं एगाए पउमवर वेश्याए जाव संपरिक्खित्ता इति' यह मन्दर चूलिका एक पद्मवर वेदिका और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरी हुई है यहां यावत्पद से 'एकेन वनषण्डेन च सर्वतः समन्तात्' यह पाठ ग्रहीत જેટલા છે. શિખર ભાગમાં આના વિસ્તાર ચાર કે જન જેટલા છે. મૂલ ભાગમાં આને परिक्षेत्र ४६६ अधिक 39 योजन नेटो छे तथा 'मज्झे स. इरेगाइ पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं' भव लागमां यानी परिक्षेप ४६४ अघि २५ योजन भेटले छे. 'उप्पि सारे गाई बारस जोयणाई परिक्खेवेणं' उपरिलाभां खाना परिक्षेत्र ४४४ अधि४ १२ योन भेटलो छे. 'मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पि तगुआ गोपुच्छ संठाणसंठिया सव्व वेरुलियामई अच्छा' या प्रमाणे या भूसभां विस्तीर्णा, मध्यमां संक्षिप्त मने उपरि लागभां પાતળી થઈ ગઈ છે. એથી આને આકાર ગાયના ઉધ્વીકૃત પૂછ જેવે થઇ ગયા છે. આ सर्वात्मना वज्रमय भने आश तेभन २३रि४ नेवी निर्माण हो, 'साणं एगाए पउमवरबेइया जाव संपरिक्खिता इति श्री भंडर यूसिड ४ पद्मवर पेडिसने ये वनाउथी Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यावत्पदेन 'एकेन वनषण्डेन च सर्वतः समन्तात्' इति सङ्ग्राह्यम् एषां पदानां व्याख्या प्राग्वत् 'संपरिक्खिता' संपरिक्षिप्ता परिवेष्टितेति, अथास्यां चूलिकायां बहुसमरणीयभूमिभागं तत्र सिद्धायतनं च वर्णयितुमुपक्रमते-'उप्पि बहुसमरमणिज्जे' इत्यादि-उपरि मन्दरचूलिकाया उपरि शिखर इत्यर्थः बहुसमरमणीयो 'भूमिभागे' भूमिभागः 'जाव' यावत् यावत्पदेन-'प्रज्ञप्तः स यथानामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा' इत्यारभ्य 'तस्य बहुमध्यदेशभागे' इति पर्यन्तः पाठः सङ्ग्राह्यः स च षष्ठमूत्रादवसेयः, तत्र 'सिद्धाययणं' सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम् क्वेति जिज्ञासाथामाह-'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे बहुसमरमणीयभूमिभागवर्तिनि सिद्वायतं प्रज्ञानमित्यत्रयः, तच्च कोसं आयामे गं' क्रोशम् आयामेन दैध्येण तथा 'अद्धकोसं विक्खंभेणं' अर्द्धकोशं क्रोशस्यार्द्धम्, विष्कम्भेण विस्तारेण तथा 'देसूर्ण कोसं' देशोनं-किश्चिद्देशन्यूनं क्रोशम् 'उद्धं उच्चत्तेणं' ऊर्ध्वमुच्चत्वेन तथा 'अणेगखंभसय जाव हुआ है । 'उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव सिद्धाययगं वह मज्झ देसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं उद्धं उच्चत्तणं अणेगखंभसय जाव धूवरुडुच्छुगा' मन्दर चूलिका के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यहां यावत्पद से 'प्रज्ञप्तः, स यथानामकः आलिङ्ग पुष्कर मितिवा इस पाठ से लेकर 'तस्य बहु मध्यदेशभागे' यहां तक का पाठ ग्रहीत हुआ है यह पाठ छठे सूत्र से जानलेना चाहिये उस भूमिभाग में एक सिद्धायतन कहा गया है यह सिद्धायतन आयाम में एक कोश का हैं और विस्तार में आधे कोशका है तथा ऊंचाई में यह कुछ कम एक कोशका है यह अनेक सैकडो खंभों के ऊपर टिकाहुआ है अर्थातू खडा हुआ है इस सिद्धायतन के वर्णन में 'अनेक स्तम्भशतसंनिविष्ट' इस पद से लेकर धूपकडच्छुकानामष्टोत्तरशतम्' यहां तक का पाठ लेना चाहिये-अर्थात् १०८ यहां पर धूपके कटा हें हैं' करच्छु' इस पाठको जानने के लिये पन्द्रहवां सूत्र देखना चाहिये इस सिद्धायतन के योमरथी मावृत छे. ही यावत् ५६थी “एकेन वनषण्डेन च सर्वतः समन्तत् डीत थयेही छे. उप्पिं बहु समरमणिज्जे भूमिभागे जाव सिद्धाथयणं बहु मझदेसभाए कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूण कोसं उद्धं उच्चत्तेणं अणेग खंभसय जाव धूवદુir' મંદર ચૂલિકાની ઉપર બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગ આવે છે. અહીં યાવત્ ५४थी “प्रज्ञप्तः स यथानामकः आलिङ्गपुष्करमिति वा" । पाथी भांडीने "तस्य बहु मध्य देशभःगे" मही सुधीमा ५.४ सहीत थये। छे. २५४ ५०७ सूत्रमाथी की सेवा मे તે ભૂમિ ભાગમાં એક સિદ્વાયતન આવેલું છે. આ સિદ્વાયતન આયામમાં એક ગાઉ જેટલું છે. તથા વિસ્તારમાં અર્ધાગાઉ જેટલું છે. તથા ઊંચાઇમાં આ કંઈક કમ એક ગાઉ જેટલું છે. આ सिद्वायतन । स्तन 6५२ अवस्थित छ. सिद्धायतनना वनमा 'अनेक स्तम्भशत. सन्निविष्ठ' ५४थी भांडी धूपकडुच्छुकानामष्टोत्तरशतम्' 487 सुधीन। ५४ सभासे. १०८ मा ५५४४ा छ. 'करच्छु' से पाने सभा भाट १५मा सूत्रने वांय , Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनवर्णनम् ४७७ धूवकडुच्छु भा' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टमित्यारभ्य धृपकडुच्छुकानामष्टोत्तरशतमित्यन्तो वर्णकोऽत्र बोध्यः, तत्र 'अनेकस्तम्भेत्यादि वर्णकः सिद्धायतनस्यास्ति स पञ्चदशसूत्रे प्रागुक्त इति ततो ग्राह्यः, तदर्थोऽपि तत एव बोध्यः तस्य खलु सिद्धायतनस्य बहुमध्यभागे महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता तद्वर्णक राजप्रश्नीयसूत्रस्य एकोनाशीतितममूत्रतो बोध्यः तत्र मणिपीठायां महानेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, तत्र जिनप्रतिमाः सन्ति तासां पुरतोऽष्टोत्तरशतं घण्णानाम् अष्टोत्तरशतं चन्दनकलशानाम् अष्टोत्तरशतं भृङ्गाराणाम् अष्टोत्तरशतमादर्शानाम् अष्टोत्तरं स्थालानाम्, पात्रीणां सुप्रतिष्ठानां मनोगुलिकानां वातकराणां चित्रकराणां रत्नकरण्डकाणां हयकण्ठानां कोष्ठसमुद्गानां हरितालसमुद्गानां हिङ्गुलकसमुद्गानां मनः शिलासमुद्गानाम् अञ्जनसगुद्गानां ध्वजानां तथा धूपकडुच्छुकानां प्रत्येकमष्टोत्तरशतं संनिक्षि. प्तं तिष्ठतीति पर्यन्तो वर्णको रानप्रश्नीयसूत्रस्याष्टसप्ततितमसूत्राद्यशीतितमपर्यन्तसूत्रेभ्यो बोध्यः तदर्थोऽपि तत एव बोध्यः, ____ अथास्मिन् पण्डकवने भवन पुष्करिणी प्रासादावतंसकान् वर्णयितुमुपक्रमते-'मंदर चूलियाए णं' इत्यादि-मन्दरचूलिकायाः खलु 'पुरथिमेणं' पूर्वदिशि 'पंडगवणं' पण्डकवनं 'पंचासं' पञ्चाशतं 'जोयणाई' योजनानि 'ओगाहित्ता' अवगाह्य-प्रविश्य 'एत्थ' अत्रबहु मध्यदेश भाग में एक विशाल मणिपीठिका है इसका वर्णक पाठ राजप्रश्नीय सूत्र के ७९ वे नम्बर के सूत्र से समझलेना चाहिये उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवच्छन्दक नामका स्थान है यहां पर जिन 'यक्ष' प्रतिमाएं हैं इनके आगे १०८ घंटाएं उगी हुई हैं, १०८ चन्दनकलश रखे हुए है १०८ भृङ्गारक रखे हुए हैं १०८ दर्पण रखे हुए हैं १०८ बडे बडे थाल रखे हुए हैं १०८ पात्री-छोटे २ पात्र-रखी हुई है इत्यादिरूप से यह सब कथन १०८ धूपकडुच्छुकरखे हुए हैं यहां तक जानना चाहिये इस वर्णन को जानने के लिये राजप्रश्नीय सूत्रका ७८ सूत्र से लेकर ८० नं. तक का सूत्र देखना चाहिये 'मंदर चूलिआएणं पुरथिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं भवणे पणते एवं जच्चेवसोજોઈએ. આ સિદ્ધયતનના બહું મધ્ય દેશ ભાગમાં એક વિશાળ મણિપીઠિકા આવેલી છે. આ પીઠિકાનું વર્ણન “રાજપ્રશ્નીયસૂત્રના ૭૯ માં સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું છે. એ મણિપીઠિકાની ઉપર એક દેવછંદ નામક સ્થાન આવેલું છે. અહીં જિન (યક્ષ) પ્રતિમાઓ આવેલી છે. એની આગળ ૧૦૮ ઘટે લટકી રહ્યા છે. ૧૦૮ ચંદન કળશ મૂકેલા છે. ૧૦૮ ભંગારકે મૂકેલા છે. ૧૦૮ દર્પણે મૂકેલા છે. ૧૦૮ મેટા–ટા થાળે મૂકેલા છે. ૧૦૮ પાત્રીઓ-(નાના પાત્રો) મૂકેલી છે. ઈત્યાદિ રૂપમાં અહીં બધું કથન ૧૦૮ ધૂપ કટાહ મૂકેલા છે. અહીં સુધી જાણી લેવું જોઈએ. એ વર્ણન વિષે જાણવા માટે રાજપ્રશ્રીય સૂત્રના છ૮ માં સૂત્રથી भांडी ८०भा सूत्र सुधा न वे नये. 'मंदरचूलिआएणं पुरस्थिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थणं महं एगे भवणे पण्णत्ते एवं जच्चेव सोमणसे पुब्बवण्णिओं Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ધર્મ. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अत्रान्तरे 'णं' खलु 'महं एगे भवणे' महत् विशालम् एकं भवनं गृहं सिद्धायतं 'पण्णत्ते' प्रज्ञतम् ' एवं ' एवम् भवनवत् पुष्करिण्यः प्रासादावतंसका अपि वक्तव्याः ते भवनादयः कीदृशाः इत्यपेक्षायां तद्वर्णनाय सौमनसत्रनवर्ति भवनादि पाठं सूचयितुमाह- 'जच्चेव सोमण से पुव्वfore गम' इत्यादि य एव सौमनसे सौमनसाख्ये मन्दरवर्तिनि तृतीयवने वर्ण्यमाने सति पूर्ववर्णितः- पूर्वम्, पण्डकवनवर्णनात् प्राक् वर्णित : - आयामविष्कभवर्णादिना भणितो गमः पाठः 'सो चेव' इत्यग्रेतनेन सम्बन्धः स एव पाठः 'भवणाणं' भवनानां ' पुक्खरिणीणं' पुष्करिणीनां 'पासायवडेंसगाणं' प्रासादावतंसकानां 'य' च 'णेयव्वो' नेतव्यः - बोध्यः, स च गमः 'पाठ: ' किम्पर्यन्तः ? इत्यपेक्षायामाह - ' जाव सकीसाणवडेंसगा' यावत् शक्रेशा - नयोः प्रासादावतंसकाः - शक्रेन्द्रस्य तथेशानेन्द्रस्य तत्तद्दिग्वति पुष्करिणी मध्यवर्ति प्रासादावतंसकवर्णपर्यन्त इत्यर्थः, स च गमः सौमनसवनप्रकरणतो बोध्यः, च शक्रेशान - प्रासादात सकाः केन प्रमाणेन बोध्या: ? इति जिज्ञासायामाह - ' ते णं चैव पमाणेणं' तेनैव सौमनसवनगोक्तेनैव प्रमाणेन आयमादिना बोध्याः, अयभाशयः - यथा सौमनसवनवर्णन - प्रसङ्गे कूळवर्जितः सिद्धायतनादि व्यवस्थापकः पाठ उक्तः तथाऽत्रापि वाच्यः सदृशवर्णकमणसे पुत्रवणिओ गमो भवणाणं पुत्रखरिणीणं पासायवडें सगाणय सो चेव hroat जाव सक्कीसाणवडे सगा तेणंचेच पमाणेणं' इस मंदर चूलिका की पूर्वदिशा में पण्डकवन है इस पण्डकवन में ५० योजन आगे जाकर एक विशाल भवन सिद्धायतन कहा गया है इसी प्रकार से पुष्करिणियां और प्रासादावतंसक भी कहे गये हैं इन सबका वर्णन जैसा सौमनसवन के वर्णन प्रसङ्ग में कहा जा चुका है वैसा ही यहां पर भी कहलेना चाहिये यावत् यहां के तत्तत्पुष्करणीमध्यवर्ती प्रासादावनंसक और ईशानावतंसकईशानेन्द्र संबंधी हैं। यदि इस वर्णन को जानना हो तो सौमनसवन प्रकरण देखना चाहिये सौमनसवन वर्णन के प्रसङ्ग में कूटवर्जित सिद्धायतनादिव्यवस्थापक पाठ जैसा कहा गया है वैसा ही वह पाठ यहां पर भी कहलेना चाहिये यहां पर वापिकाओं के नाम यद्यपि प्रकट गमो भवणाणं पुक्खरिणीणं पासायवडें सगाणय सो चेव णेयव्त्रो जाव सक्कीस णवडें सगा तेनं चैत्र पमाणे : भंडर यूमिनी पूर्व दिशाभां पन छे. आ एड वनमा ५० પચાસ ચેોજન આગળ ગયા પછી એક વિશાળ ભવન સિદ્ધાયતન આવેલું છે. આ પ્રમાણે જ પુષ્કરિણીએ અને પ્રાસાદાવત સા વિષે પણ કહેવામાં આવેલું છે. આ બધાં વિષે સૌમનસ વનના વનમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલુ છે તેવુ જ અત્રે પણ સમજી લેવું જોઈ એ. ચાવત્ અહીંના તત્ તત્પુષ્કરિણી મધવી પ્ર!સાદાવતસકા અને ઇશાવત કેન્દ્ર સંબધી છે. જો આ સબંધમાં જાણુવું હોય તે સૌમનસવન પ્રકરણ જોઈ લેવુ જોઇએ. સૌમનસવન વનના પ્રસંગમાં ફૂટ વર્જિત સિદ્ધાયતનાદિ વ્યવસ્થાપક પાઠ જે પ્રમાણે કહેલા છે તે પ્રમાણે જ પાઠે અહીં' પણ કહી લેવે જોઈએ. અહી ને કે વાષિકાઓના Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३९ पण्डक वनवर्णनम् ४७२ स्वात्, अत्र वापीनामानि लेखप्रमादात्सूत्रेऽदृष्टान्यपि ग्रन्थान्तरात्सङ्गृह्योपन्यस्यन्ते तथाहिपुण्ड्रा १ पुण्ड्रप्रभा २ सुरक्ता ३ रक्तावती ४ एता ऐशानप्रासादे, तथा-क्षीररसा १ इक्षुरसा २ अमृतरसा ३ वारुणी ४ एता आग्नेयप्रासादे, तथा शङ्खोत्तरा १ शङ्खा २ शङ्खावर्त्ता ३ बलाहका ४ एता नैऋत प्रासादे, पुष्पोत्तरा १ पुष्पवती २ सुपुष्पा ३ पुष्पमालिनी ४ एता वायव्यप्रासादे, इमा षोडश वाच्या ईशानादि कोणक्रमेण बोध्याः ॥सू० ३९॥ .. अर्थतत्पण्डकवनवर्तिनीश्चतस्रोऽभिषेकशिला वर्णयितुमुपक्रमते-'पंडकवणे णं भंते' इत्यादि। मूलम् - पंडगवणेणं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ षण्णत्ताओ?, गोयमा ! चत्तारि अभिसे यसिलाओ पणत्ताओ, तं जहा-पंडुसिला१ पंडुकंबलसिला२ रत्तलिला३ रत्तकंबलसिलेति । कहि गं भंते ! पंडग वणे पंडुसिला णामं सिला पण्णता?, गोयमा ! मंदरचूलियाए पुरस्थिमेणं पंडगवणपुरस्थिपे ते, एस्थ णं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणवित्थिणा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंचजोयणसयाइं आयामेणं अद्धाइजाइं जोयणसयाई विक्खंभेणं चत्तारि नहीं किये गये हैं-फिर भी हम ग्रन्थान्तर से उन्हें देखकर यहां प्रकट करते हैं यहां की पुष्करिणियों के वापिकाओं के नाम इस प्रकार से हैं-पुण्ड्रा १ पुण्ड्रप्रभा २, सुरक्ता ३, रक्तवती ४, ये चार वापिकाएं ईशान विदिग्वती प्रासाद में हैं, क्षीररसा, इक्षुरसा, अमृतरसा और वारुणी ये आग्नेप्रासाद में हैं, शङ्कोत्तरा, शङ्खा, शङ्खावर्ती और बलाहका ये चार वापिकाएं नैऋत प्रासाद में है एवं पुष्पोत्तरा, पुष्पवती, सुपुष्पा, पुष्पमालिनी ये चार बापिकाएं वायव्य विदिग्वर्ती प्रासाद में हैं। इस प्रकार के नामवाली ये १६ वापिकाएं ईशानादिकोणक्रम से कही गई है । ॥३९॥ નામે પ્રકટ કરવામાં આવેલાં નથી છતાં એ અમે ગ્રન્થાન્તરથી જોઈ ને અહીં પ્રકટ કરીએ છીએ. અહીંની પુષ્કરિણીઓ તેમજ વાપિકાના નામે આ પ્રમાણે છે–પંડ્રા ૧, પંપભા ૨, સુરક્તા ૩, રક્તવતી ૪, એ ચાર વાપિકાએ ઈશાન વિદિગ્વતી પ્રાસાદમાં આવેલી છે. ક્ષીરરસા ૧, ઈસુરસા–૨, અમૃતરસા ૩ અને વાણી એ ચાર વાપિકાએ આગ્નેય પ્રાસાદમાં આવેલી છે. શંખેત્તરા, શંખા, શંખાવર્તા અને બલાહકા એ ચાર વપિકાઓ મૈત્ય પ્રાસાદમાં આવેલી છે. તેમજ પુત્તર, પુષ્પવતી, સુપુષ્પા અને પુષ્પમાલિની એ ચાર વાપિકા વાયવ્ય વિદિગ્ધતી પ્રાસાદમાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે એ ૧૬ વાપિકાઓ ઇશાનાદિ કેણુ કમથી કહેવામાં આવેલી છે. ૩૯ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रचप्तिसूने जोयणाइं बाहल्लेणं सव्वकणगामई अच्छा वेइया वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ, तीसेणं पंडुसिलाए चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता जाव तोरणा वण्णओ, तीसेणं पंडुसिलाए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव देवा आसयंति, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता पंच धगुसयाई आयाम विक्खंभेगं अद्धाइ. जाई धणुसयाइं बाहल्लेणं सीहासणवण्णओ भाणियको विजयदूसवजोत्ति । तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ णं बरहिं भवणवइ वाणमंतरजोइसिय वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य कच्छाइया तित्थयरा अभिसिच्चंति, तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहुहिं भवण जाव वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य वच्छाइया तित्थयरा अभिसिच्चंति। कहि णं भंते ! पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता ?, गोयमा ! मंदरचूलियाए दक्खिणेणं पंडगवणदाहिणपेरंते. एस्थ णं पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता, पाईणपडीणायया उत्तरदाहिणविस्थिपणा एवं तं चेव पमाणं वत्तव्यया य भाणियत्वा जाव तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते तं चेव सीहासणप्पमाणं तत्थ णं वहहिं भवणवइ जाव भारहगा तित्थयरा अहिसिच्चंति । कहि णं भंते ! पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता ? गोयमा! मंदरचूलियाए पच्चत्थिमेणं पंडगवणपञ्चस्थिमपेरंते, एत्थ णं पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणविस्थिण्णा जाव तं चेव पमाणं सव्वतवणिजमई अच्छा उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता, तस्स णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ पं बहूहिं भवण. पम्हाइया तित्थयरा अहिसिच्चंति, तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहहिं भवण० जाव वप्पाइया तित्थयरा अहिसिच्चंति, कहि णं भंते ! पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णता?, गोयमा! मंदरचूलियाए Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४८१ उत्तरेणं पंडगवण उत्तरचरिमंते, एरवणं ऐडगवणे अन्तर्वक्लसिला णामं सिला पण्णता, पाईपडीणायया उदीपदाहिनिधिणा सनतवणिजमई अच्छा जाव मज्झदेसभाए सीहास, तत्थ णं बहूहिं भवणवइ जाव देवेहिं देवीहिय एशवयगा तिस्थारा अभिसिञ्चति । सु० ४०॥ छाया-पण्डकाने खलु भदन्त ! बने कति अभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! चतस्रोऽभिषेकशिलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पाण्डुशिला १ पाण्डकम्बलशिला २ रक्तशिला ३ रक्तकम्बलशिला ४ इति । क्व खलु भदन्त ! पण्ड करने पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकायाः पौरस्त्येन पण्डकानपौरस्त्यपर्यन्ते, अत्र खलु एण्ड करने पाण्डुशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता उत्तरदाक्षिणा यता प्राचीनप्रतीचीनविस्तीणी अर्दचन्द्र संस्थानसंस्थिता पंच. योजनशतानि आयामेन अद्वेतृतीयानि योजनशतानि विशम्मेण चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वकनकमयी अच्छा वेदिका वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् समरिक्षिप्ता वर्णकः, तस्यां खलु पाण्डुशिलायाश्चतुर्दिशि चखारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि यावत् तोरयाः वर्णकः, तस्याः खलु पाण्डुशिलायाः उपरि बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्राप्तः यावद् देवा आसते, तस्य खलु बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे उत्तरदक्षिणेन अत्र खलु द्वे सिंहासने प्रज्ञप्ते एञ्च धनुः शतानि आयामविष्कम्भेण अतृतीयानि धनुः शतानि बाहल्येन सिंहासनवर्णको भणितव्यो विजयदृष्यवज इति । तत्र खलु यत् तत् औत्तराई सिंहासनं तत्र खलु बहुभिः "भवनय तिवानच्यन्तरज्योतिष्कवैमानिर्देवैर्देवोभिश्च कच्छादिजास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते । तत्र खलु यत् तदाक्षिणात्य सिंहासनं तत्र खलु बहुभिर्भवन यावद्वैमानिकैदेवैर्देवीभिश्च वत्सादिजास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते । क्व खलु भदन्त ! पण्डकवने पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता?, गौतम ! मन्दरचूलिकाया दक्षिणेन पण्डकवनदक्षिणपर्यन्ते, अत्र खलु पण्ड करने पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता, प्राचीनप्रतीचीनारदा उत्तरदक्षिण विस्तीर्णा एवं तदेव प्रमाणं वक्तव्यता च भणित व्या, सावत् तस्य खलु बहुसम्मरमणीयस्य भूमि भागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु महदेकं सिंहासन प्राप्तम्, तदेव सिंहासनप्रमाणं तत्र खलु बहुभिर्भवनपति यावत् भारतातीर्थकश अभिषिच्यन्ते, का खल भदन्त ! पण्डकवने रक्तशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकायाः पश्चिमेन पण्डकवनपश्चिमपर्यन्ते, अन खलु पण्डकवने रक्तशिला नाम शिला प्रज्ञप्ता उत्तरदक्षिणायता प्राचीनप्रतीचीन विस्तीर्णा यावत् तदेव प्रमाणं सर्वतपनीयमयी अच्छा उत्तरदक्षिणेन अत्र खलु द्वे सिंहासने प्रज्ञपते, तत्र खलु यत् तद् दाक्षिणात्य सिंहासनं तत्र खलु बहुभिवद० पक्ष्मादिजास्तीर्थकरा अभिपिच्यन्ते, नत्र खलु यत् तद् औत्तराई सिंहासन नत्र खलु बहुभिर्भवन० यावद् वप्रादिजास्तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते, क्व खलु भदन्त ! पण्ड कवने रक्तकम्बल शिला नाम शिला प्रज्ञप्ता ?, गौतम ! मन्दरचूलिकाया उत्तरेण पण्ड कवनोत्तरचरमान्ते अन्न खलु पण्इ कवने रक्ताम्बल ज० ६१ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे शिला नाम शिला प्रज्ञप्ता, प्राचीनप्रतीचीनायता उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा सर्वतपनीयमयी अच्छा यावत् मध्यदेशभागे सिंहासनं, तत्र खलु बहुभिभवनपति यावद्देवेर्देवीभिश्च ऐरावतकास्तीर्थ करा अभिषिच्यन्ते । सू० ४०॥ टीका-'पण्डकवणे णं भंते !' इत्यादि-पण्डकवने खलु भदन्त ! 'वणे' वने 'कई' कति-कियत्यः 'अभिसेयसिलाओ' अभिषेकशिलाः तत्र अभिषेक:-जिनजन्मस्नपनं तस्मै याः शिला:-उपलाः, ताः कतीतिपूर्वेण सम्बन्धः 'पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ताः, इति गौतमेन पृष्टो भगवांस्तम्प्रत्याह-'गोयमा!' गौतम ! 'चत्तारि' चतस्रः 'अभिसेयसिलाओ' अभिषेकशिलाः 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ताः 'तं जहा' तद्यथा 'पंडुसिला' पाण्डुशिला १ 'पंडुकंबलशिला' पाण्डुकम्बलशिला २ 'रत्तसिला' रक्तशिला ३ 'रत्तकंबलसिलेति' रक्तकम्बलशिला ४ इति, क्वचितु पाण्डुकम्बला १ अतिपाण्डुकम्बला २ रक्तकम्बला ३ अतिरिक्तकम्बला ४ इति भिन्ननाम्न्य पण्डकवनवर्ती चार अभिषेकशिलाओं की वक्तव्यता'पंडकवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि। ... टीकार्थ-गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-'पंडकवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! पण्डकवन में जिन जन्म के समय में जिनेन्द्रको जिस पर स्थापित करके अभिषेक किया जाता है ऐसी अभिषेक शिलाएं कितनी कही गई हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! चत्तारि अभिसेअसिलाओ पण्णत्ता' हे गौतम ! वहां पर चार अभिषेक शिलाएं कही गई हैं। 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'पंडसिला, पंडुकंबल. सिला रत्तसिला, रत्तकंबलसिला' १ पाण्डुशिला २ पांडुकंबलशिला ३ रक्तशिला और ४ रक्तकंबलशिला कहीं २ इन शिलाओं के नाम इस प्रकार से भी लिखेहुए मिलते हैं-पाण्डकम्बला १, अतिपाण्डुकम्बला २ रक्तकम्बला ३ પણ્ડકવનવતી ચાર અભિષેક શિલાઓની વક્તવ્યતા 'पंडकवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' इत्यादि टी -गोतमे 24। सूर3 प्रभुने PAL on प्रश्न या छ । 'पंडकवणे णं भंते ! वणे कइ अभिसेयसिलाओ पण्णत्ताओ' महत! ५४ वनमा COP भ समयमा निन्द्रन સ્થાપિત કરીને અભિષેક કરવામાં આવે છે, એવી અભિષેક શિલાઓ કેટલી કહેવામાં આવેલી सना पासमा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! चत्तारि अभिसेअसिलाओ पण्णत्ताओ' गीतम! त्यां यार मनिष शिवाय॥ ४ाम मावेसी छे. 'तं जहा' शिक्षामना नामी मा प्रभारी छ... पंडुसिला, पंडुकंबलसिला, रत्तसिला, रत्तकंबलसिला' १ ५ सिसा, २ ५४ शिक्षा, 3 રક્તશિલા અને ૪ ૨ક્તકંબલ શિલા. કેટલાક સ્થાને એ શિલાઓના નામે આ પ્રમાણે પણ ઉદ્દધૃત કરવામાં આવેલા છે–પાંડુક બલા ૧, અતિ પાંડુકંબલા ૨, ૨ક્ત કંબલા ૩, અને અતિ २५ मा. 'कहि णं भंते ! पंडकरणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता' 3 मत ! ५९७ वनमा Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४३ श्चतस्र उकाः, तत्राद्या शिला कुत्रास्तीति पृच्छति-'कहि णं भंते !' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'पंडगवणे' पण्डकवने 'पंडुसिला णामं सिला' पाण्डुशिला नाम शिला 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता ?, भगवानुत्तरयति-'गोयमा ' गौतम ! 'मंदरचूलियाए' मन्दरचूलिकायाः 'पुरस्थि. मेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'पंडगवणपुरथिमपेरंते' पण्डकवनपौरस्त्यपर्यन्ते-पण्डकवनस्य पूर्वसीमापर्यन्ते 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'पंडगवणे' पण्ड कवने 'पंडुसिला णामं सिला' पाण्डुशिला नाम शिला 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'उत्तरदाहिणायया' उत्तरदक्षिणायता उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायता दीर्घा तथा 'पाईणपडीणवित्थिण्णा' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णा पूर्व पश्चिमदिशोविस्तारयुक्ता 'अद्धचंदसंठाणसंठिया' अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता अर्द्धचन्द्राकारेणसंस्थिता 'पंचजोयणसयाई' पञ्चयोजनशतानि 'आयामेणं' आयामेन मुख विभागेन 'अद्धाइज्जाई' अर्द्धवतीयानि 'जोयणसयाई' योजनशतानि 'विवखंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारण 'चत्तारि' चत्वारि 'जोयणाई' योजनानि 'बाहल्लेणं' बाहल्येन पिण्डेन 'सवकणगामई' और अतिरक्तकम्बला ४ 'कहिणं भंते ! पंडुसिलाणामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पण्डकवन में पांडुशिला नामकी शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा ! मंदरचूलिआए पुरथिमेणं' पंडगवणपुरस्थिमपेरंते, एस्थ णं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! मंदरचूलिका की पूर्वदिशा में तथा पंडकवन की पूर्व सीमा के अन्त में पंडकवन में पांडुशिला नामकी शिला कही गई है । 'उत्तर दाहिणायया, पाईण पडीणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंचजोयणसयाई आयामेणं अद्धाइज्जाई जोयणसयाई विखभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वकणगामई अच्छा वेड्यावणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ' यह शिला उत्तर से दक्षिण तक लम्बी है और पूर्व से पश्चिम तक विस्तीर्ण है । इसका आकार अर्धचंद्र के आकार जैसा है पांचसो योजन का इसका आयाम है और अढाई सौ योजन का इसका विष्कम्भ है एवं इसका बाहल्य-मोटाई-चार योजन का है। सर्वात्मना सुवर्णमय है और पशिखा नामनी शिक्षा ४५ स्थणे मावली छ १ सेना नाममा प्रमु ४ छ-'गोयमा ! मंदर चूलिआए पुरथिमेणं पंडगवणपुरथिमपेरते, एत्थगं पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णता है ગૌતમ ! મંદર ચૂલિકાની પૂર્વ દિશામાં તથા પંડકવનની પૂર્વ સીમાના અંતમાં પંડકવનમાં पांड शिक्षा नाम शिक्षा मावली छ. 'उत्तरदाहिणायया, पाईणपडीणविच्छिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया पंच जोयणसयाई आयामेणं अद्धाइज्जाई जोयणसया विक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सब कणगामई अच्छा वेइया वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ' मा શિલા ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંબી છે અને પૂર્વથી પશ્ચિમ સુધી વિસ્તીર્ણ છે. એનો આકાર અર્ધ ચંદ્રના આકાર જેવું છે. ૫૦૦ એજન જેટલે એને આયામ છે તથા ૨૫૦ એજન જેટલે આને વિષ્ક છે. બાહલ્ય (મેટાઈ) ચાર જન જેટલું છે. આ સર્વાત્માના સુવર્ણ , Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ जम्बूद्वीपप्रक्षतिसूत्र सर्वकनकमयी-सर्वात्मना सुवर्णमयी 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकत्र निर्मला 'वे इयाण संडेणं' वेदिकावनपण्डेन पदमवरवेदिकया वनपाडे न च "सम्बो ' सर्वत:-सर्वशिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु संपरिक्खित्ता' सम्परिक्षिता परिवेष्टिता 'वष्णगो' वर्णकः-पद्मवरवेदिका वनपण्डयोर्वणनपरपदसमूहोऽन्न बोध्यः स च चतुर्थ पश्चम नतोऽसेयः, तदर्थोऽपि तत एव बोध्यः, 'तीसे णं पंडसिलाए' तस्याम् आन्तरोक्तायां खलु पाण्डुशिलायां 'च उ. दिसिं' चतुर्दिशि दिकचतुष्टयापच्छेदेन 'दत्तारि' चत्वारि ‘लिसोवाणपडिरूवगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिरूपकाणि सुन्दराणि तानि च त्रिसोपानानि चेति तथा, अत्र प्राकृतत्वाद्विशेषणवाचकपदस्य परनिपासो बोध्या, 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, तेषां निसोपानानां वर्णकोऽत्र वाच्यः स किम्पयन्तः ? इति जिज्ञासायामाह-'जाव तोरणा वणओ' यावत् तोरणा वर्णकःतोरणवर्णकपर्यन्तो वर्णको भणितव्य इत्यर्थः, स च गङ्गा सिन्धु नदीस्वरूपवर्णनप्रकरणतः सङ्ग्राह्यः, तदर्थोऽपि लत एवं बोध्या, अथ पाण्डुशिलाया उपरितनभूमिभागसौभाग्यं वर्णयितुमुपक्रमते-'तीसे णं पंसिलाए' इत्यादि-तस्याः खलु पाण्डुशिलायाः 'उपि' उपरिऊर्ध्वभागे 'बहुसमरमणिज्जे' बहुममरमणीयः भूमिभागे' भूमि भागः भूमिकांशः 'पण्णत्ते' आकाश तथा स्फटिक के जैसी निर्मल है चारों ओर से यह पद्मवरबेदि का और वनषण्ड से घिरी हुई है यहां पर पद्मवरवेदिका और बनषंड का वर्णक पद समूह चतुर्थ पंचम सूत्र से लेकर कहलेना चाहिये 'तीसेणं पंडुसिलाए चउद्दिसिंचत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता' उस पाण्डुशिला की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। और त्रिसोपानप्रतिरूपक में प्रतिरूपक यह त्रिसोपान पदला विशेषण है और इसका अर्थ सुन्दर है यहां प्राकृत होने से इसका पर निपाल हो गया है । 'जाव तोरणा वण्णओ' इन चार त्रिसोपानक प्रतिरूपकों का वर्णक पाठ तोरणतक का यहां पर ग्रहण करलेना चाहिये यह तोरणतक का वर्णक पद समूह गङ्गा सिन्धु नदी के स्वरूप वर्णन करनेवाले प्रकरण से समझलेना चाहिये 'तीसेणं पंडसिलाए उधि बहसमरमणिज्जे भूमिभागे મય છે અને આકશ તથા સ્ફટિક જેવી નિર્મળ છે. ચેમેરથી આ પવરવેદિકા અને વનખંડથી આવૃત છે. અહી પાવર વેદિ અને વનખંડ વક પ સમૂહ ચતુર્થ५यम सूत्रमा । छे. ते सुमागे त्यांधी यांची होय. 'तीसेणं पंडुसिलाए चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूमा पञ्णता' 2 मांड शिनी शारीर या त्रिसापान પ્રતિ રૂપકે છે. ત્રિપાન પ્રતિરૂપકમાં પ્રતિરૂપક એ શબ્દ ત્રિપાન પદનું વિશેષણ છે. અને આનો અર્થ સુંદર થાય છે. અહીં પ્રાકૃત હોવાથી એને પરનિપાત થઈ ગયો છે. , 'जाव तोरणा वण्णओ' से २ त्रिसा५ प्रति३५ोन ४ ५ तो२७ सुधार मही ' ગ્રહણ કરવો જોઈએ. આ તે રણ સુધીનો વક પદ સમૂહ વિષે ગંગા-સિંધુ નદીના સ્વરૂપનું न ४२॥२॥ ५४२९माधी sargी से न . 'तीसेणं पंडुसिलाए उणि बहुसमरमगिज्जे Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावणेनम् ४८५ प्रज्ञप्तः, अस्य वर्णनं सूचयितुमाह-'जाव देवा आसयंति' इति यावद देश आसते अत्र यावत्पदेन 'से जहाणासए आलिंगपुक्खरेइ का' इत्यारभ्य 'तत्थ णं वहवे बागमंतरा देवाय देवीभोय आसयंति' इति पर्यन्तो वर्णको बोध्यः, स च षष्ठसूत्राद् ग्राह्यः तस्य छायादिरपि तत एव बोध्यः, तत्र 'आसयंति' इत्युपलक्षणं तेन 'चिट्ठति' इत्यादीनां ग्रहणम् एपामपि व्याख्या पष्ठादेव सूत्राबोध्या, अथात्राभिषेकसिंहासने वर्णयितुपक्रमते-'तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्त तस्य खलु बहुसमरमणीयस्थ 'भूमि मागस्त' भूमिभागस्य 'बहुमज्झ देसभाए' बहुमध्यदेशमागे 'उत्तरदाहिणेणं' उत्तरदक्षिणेन उत्तरदक्षिणयोर्दिशोः 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'णं' खलु प्रत्येक दिशि एकैकमिति 'दुवे' द्वे 'सीहासना सिंहासने जिलाभिषेक सिंहासने 'पण्णता' प्रज्ञप्ता, ते च 'पंच धणुसयाई’ पंच धनुः शतानि 'आयामविक्खंभेणे' आयामविष्कम्भेण-दैयविस्ताराभ्याम् 'अद्धाइजाई' अर्द्धतृतीयानि 'धगुसथाई' धनुः शतानि 'बाहल्लेणं' वाहल्येन-पिण्डे न, अत्र 'सीहासणण्णओ' सिंहासनवर्णकः--सिंहासनस्य जिनाभिवेकसिंहासपण्णत्ते' उस पांडुशिला का ऊपर का भूमिभाग बहरामरमणीय कहा गया है 'जाव देवा आसयंति' यावत् यहां पर व्यन्तर देव आते हैं और आराम विश्राम करते हैं। यहां यावत्पद से से जहाणामए आलिंगपुक्खरेहवा' यहां से लेकर 'तत्थणं बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओ य आसयंति' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है। इसे समझना हो तो छठवे सूत्र को देखना चाहिये यहां 'आसयंति' यह क्रियापद उपलक्षणरूप है अतः इससे 'चिट्ठति' इत्यादि क्रियापदों का ग्रहण हो जाता है 'तस्लणं बहुसपरमणिज्जस्स भूमिभागस्त बहुमज्झदेसभाए उत्तर दाहिजेणं एत्थणं दुवे सीहासणा पण्णत्ता' उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में उत्सर-दक्षिण दिशाओं की ओर अर्थात् उत्तरदिशा एवं दक्षिण दिशा में एक एक सिंहासन कहा गया है 'पंचवणुसयाइं आयामविश्वभेगं अद्धाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं सीहाणवण्णओ भाणियचो विजयदूसवज्जोत्ति' यह भूमिभागे पण्णत्ते ते पशिलानी ५२२ मा गहुससरमणीय ४ामा आवे छे. 'जाव देवा आसयंति' यावत 431 व्यतर हे मारे छ भने राम विश्राम ४२ छे. मही यावत् ५४थी 'से जहाणामए आलिंगपुक्खरे हवा' माथी भांडी२ 'तत्थणं बहवे वाणमंतरा देवाय देवीओय आखयति' मडी सुधीन। ५७ सलीत थयेही छे. । विषे arpan भाटे ५८४ सूत्रमाथा पांथी से ये. सही 'आसयंति' मा जियाय सक्षY ३५ छे. मेथी ! प्रधाथी 'चिटुंति' वगेरे पिहानु अाश थ य छे 'तस्सगं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स बहुमझदेसभाए उत्तरदाहिणेणं एत्थणं दुवे सीहासणा पग्णत्ता' તે બહુ સમરમણીય ભૂમિ ભાગના એકદમ મધ્યમાં ઉત્તર-દક્ષિણ દિશા તરફ એટલે કે उत्तर दिशा मन दक्षिणमा ४-22 सिंहासन मा छे. 'पंच धगुसयाई आयाम विक्खंभेणं अद्धाइज्जाई धणुसयाई बाहल्लेणं सीहासण वण्णओ भाणियन्वो विजयदूस वजोत्ति' Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नस्य वर्णकः वर्णनपरपदसमूहः 'माणिययो' भणितव्यः स च 'विजयसवजो त्ति' विजयदृष्यवर्ज: उपरिभागे विजयनामकचन्द्रोदयवर्णनरहितो वाच्यः शिला सिंहासनानामनाच्छादितदेशे स्थितत्वात्, अत्र च सिंहासनानां समायामविष्कम्भत्वेन समचतुरस्रता वोध्येति, नन्वत्रैकेनैव सिंहासनेन जिनजन्माभिषेके सिद्धे किमासनान्तरेणेत्यत्राह-तत्थ णं जे से' इत्यादि-तत्र तयो द्वयोरासनयोर्मध्ये 'ण' खलु यत् तदिति वाक्यालङ्कारे 'उत्तरिल्ले' औत्तराह्यम् उत्तरदिग्भवं 'सीदासणे' सिंहासनमस्ति 'तत्थ' तत्र 'ण' खलु 'बहू हिं' बहुभिः 'भवणवई' वाणमंतरजोइसियवेमाणिएहिं भवनपति वान व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकः 'देवेहि' देवः 'देवीहिय' सिंहासन आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचसौ धनुष का है तथा बाहल्यमोटाई की अपेक्षा २५० धनुष का है यहां पर सिंहासन का वर्णक पदसमूह कहलेना चाहिये उसमें विजय दृष्य का वर्णन नहीं करना चाहिये क्योंकि शिला और सिंहासन ये दोनों अनाच्छादित देश में ही स्थित है अतः इनके ऊपर में विजय नामक चन्दरवा नहीं तना हुआ हैं सिंहासन सम आयाम और विष्कम्भ वाले जब कहे गये हैं तो इस से उनमें सम चतुरस्त्रता ही है ऐसा जानना चाहिये यहां ऐसी आशंका होती है कि जिनजन्माभिषेक में एक ही सिंहासन पर्याप्त होता है फिर आसनान्तरों की यहां क्या आवश्यकता है कि जिस से यहां उनका अस्तित्व प्रकट किया गया है तो इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-'तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तस्थणं थहहिं भवणवहवाणमंतर जोइसियवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय कच्छाइया तिस्थयरा अभिसिच्चंति' हे गौतम ! उन दो सिंहासनों के बीच में जो उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन है उस पर अनेक भवनपति वानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों एवं देवियों द्वारा આ સિંહાસન આયામ અને વિષ્કભની અપેક્ષાએ ૫૦૦ ધનુષ જેટલું છે. તેમજ બાહલ્ય મેટાઈ-ની અપેક્ષાએ ૨૫૦ ધનુષ જેટલું છે. અહીં સિંહાસન વિશેને વર્ણક પદ-સમૂહ કહી લે જોઈએ. તેમાં વિજયકૂષ્યનું વર્ણન કરવું જોઈએ નહિ. કેમકે શિલા અને સિંહસન એ બને અનાચ્છાદિત દેશમાં જ સ્થિત છે. એથી એમની ઉપર વિજય નામક ચન્દ્રવા નજ તાણેલ હેય સિંહાસને જ્યારે સમ, આયામ અને વિષ્કલવાળા કહેવામાં આવ્યાં છે ત્યારે તેમાં સમચતુર છે એવું આપે બાપ જાણવું જોઈએ. અહીં એવી અ શંકા થાય છે કે જિન જમાભિષેકમાં એક જ સિંહાસન પર્યાપ્ત હોય છે પછી આસનાતરની અહીં શી આવશ્યકતા છે કે જેથી અહીં તેમનું અસ્તિત્વ પ્રકટ કરવામાં આવેલું છે. તે सेना नाममा प्रभु गौतमले ४ छ-'तत्थ णं जे से उतरिल्ले सीहासणे तत्थणं बहूहि भवणवइवाणमन्तरजोइसियवेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय, कच्छा इया तित्थयरा अभिसिच्चंति' હે ગૌતમ! તે બે સિંહાસનેના મધ્યમાં જે ઉત્તર દિગ્ગત સિંહાસન છે, તેની ઉપર અનેક ભવનપતિ, વનવ્યંતર, જ્યોતિક અને વૈમાનિક દેવ અને દેવીઓ વડે કચછાદિ વિજ્યા Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ३९ पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४८७ देवीभिश्च 'कच्छाईया' कच्छादिजाः-कच्छ प्रभृति विजयाष्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकरा:-जिनाः 'अभिसिच्चंति' अभिषिच्यन्ते जन्मोत्सवकरणार्थ स्नप्यन्ते, इति प्रथमस्यौतराहस्य सिंहासनस्य प्रयोजनम्, द्वितीयस्य दाक्षिणात्यस्य तस्य प्रयोजनमाह-'तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे' इत्यादि तत्र तयोरासनयोर्मध्ये खलु यत् दाक्षिणात्य दक्षिणदिग्वति सिंहासनं तदिति प्राग्वत् 'तत्थ' तत्र-दाक्षिणात्ये सिंहासने 'णं' खलु 'भवण • जाव वेमाणिएहि' भवन व्यावद्वैमानिकैः-भवनपत्यादि वैमानिकपर्यन्तै:-भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैरित्यर्थः 'देवेहि देवैः 'देवीहिय' देवीभिश्च 'वच्छाईआ' वत्सादिजा वत्सादिविजयोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकराः 'अभिसिच्चति' अभिषिच्यन्ते, अस्थायमभिप्राय:-असौ पाण्डुशिला पूर्वाभिमुखा वर्तते तदभिमुखमेव पूर्वमहाविदेहनामव क्षेत्रं र.त्र यमलतया तीर्थकरावु. घेत तत्र शीतामहानयु तरदिग्वति कच्छादि विजयाष्टकजातस्य तीर्थकृत उत्तरवर्ति सिंहा सनेऽभिषेको भवति, तथा शीतामहानद्या दक्षिण दिग्वति वत्सादि विजयजातस्य तस्य दक्षिण कच्छादि विजयाष्टकों में उत्पन्न हुए तीर्थकर स्थापित करके जन्मोत्सव के अभिषेक से अभिषिक्त किये जाते हैं 'तत्थणं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तस्थणं बहूहिं भवणवइवाणमंतरजोइसियवेमाणिएहिं. देवेहिं देवीहिय वच्छाईया तिस्थयरा अभिसिंच्चंति' तथा ये दक्षिण दिग्वर्ती सिंहासन है उस पर वत्सादि विजयों में अत्पन हुए तीर्थकर अनेक भवनपति वानव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों द्वारा जन्माभिषेक के अभिषेक से अभिषिक्त किये जाते हैं । तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि यह पाण्डुशिला पूर्वाभिमुखवाली है और उसी के सामने पूर्व महाविदेह नामका क्षेत्र है वहां पर एक साथ दो तीर्थकर उत्पन्न होते हैं इनमें शीता महानदी के उत्तर दिग्वती कच्छादि विजयाष्टक में उत्पन्न हुए तीर्थकर हैं उनका अभिषेक उत्तर दिग्वी सिंहासन पर होता है और शीता महानदी के दक्षिण दिग्वती वत्सादि विजय में उत्पन्न हुए तीर्थकर ષ્ટકોમાં ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થકરોને સ્થાપિત કરીને જન્મોત્સવના અભિષેકથી અભિષિક્ત ४२वामा मा छे. 'तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ बहूहि भवण बाणमंतर. जोइसियवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय वच्छाईया तित्थयरा अभिसिंच्चंति' तेभर २ क्षिय દિગ્દર્તી સિંહાસને છે તેની ઉપર વત્સાદિ વિજયેમાં ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થકરેને અનેક ભવન પતિ, વાનવ્યંતર, જતિષ્ક તેમજ વૈમાનિક દેવો વડે જન્માભિષેકના અભિષેકથી અભિષિત કરવામાં આવે છે. આ કથનનું તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે આ પાંડુશિલા પૂર્વાભિમુખવાળી છે અને તેની જ સામે પૂર્વ મહાવિદેહ નામક ક્ષેત્ર આવેલું છે. ત્યાં એકસાથે બે તીર્થકર ઉત્પન્ન થાય છે. એમાં શીતા મહા નદીના ઉત્તર દિગ્ગત કચ્છાદિ વિજ્યાપ્રકમાં ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થકરે છે. એમને અભિષેક ઉત્તર દિશ્વત સિંહાસન ઉપર થાય છે અને શીતા મહાનદીના દક્ષિણ દિગ્વતી વત્સાદિ વિજમાં ઉત્પન્ન થયેલા તીર્થ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दिग्वति सिंहासनेऽभिषेक इति द्वयोः सिंहासनयोः प्रपोजनम् । अव द्वितीयाभिषेकशिलां वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि-प्रश्नसूत्रं स्पष्टम् उत्तरसूत्रे 'मोयमा' गौतम ! 'मंदरचूलियाए' मन्दरचूलिकायाः 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिण दिशि पंडगवणदाहिणपरंत' पण्डकवनदक्षिणपर्यन्ते-पण्डकवनस्य दक्षिणसीमापर्यन्तभागे 'एत्थ' अन अन्तरे 'ण' खलु 'पंडगवणे' पण्डावने 'पंडुकंबलसिला णामं सिला' पाण्डुकम्बलशिला नाम शिला 'एण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'पाईगपडीणायया' प्राचीनप्रतीची नाऽऽयता पूर्वपश्चिम दिशो दीर्घा 'उत्तरदाहिणविस्थिण्णा' उत्तरदक्षिणविस्तीर्णा-उत्तरदक्षिणदिशो विस्तारयुक्ता, एतद्विशेषणद्वयं विहायापरं पूर्वोक्तमतिदिशति 'एवं तं चेव' एवम्-पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण तदेव प्रागुक्तमेव 'पमाणं' प्रमाणं--एञ्चयो जनशतायामादिमानं भणितव्यं तथा 'वत्तव्वया' वक्तव्यता 'य' च 'भाणियव्या' भणितव्या सा च वक्तव्यता निम्पर्यन्ता ? इत्यपेक्षायामाह-'जाव तस्स णं' का अभिषेक दक्षिण दिग्चती सिंहासन पर होता है इस तरह यह दो सिंहासनों के होनेका प्रयोजन है 'कहिणं भंते ! पंडकवने पंडुकंबलसिला जामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में पाण्डुकम्बल शिला नामकी द्वितीय शिला कहां पर कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मन्दर चूलिआए दक्खिणेणं पंडगवणदाहिण पेरंते, एत्थणं पंडगवणे पंडुकंपलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर चुलिका की दक्षिण दिशा में और पाण्डवन की दक्षिण सीमा के अन्त भाग में पण्डकवन में पाण्डकंबल शिला नामकी शिला कही गई है पाईण पडीणायया उत्तर दाहिण विच्छिण्णा एवं तं चेव पमाणवत्तव्वया य भाणियव्वा' यह शिला पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तृन है। इसका पंच योजन शत प्रमाण आयामादिका पूर्वोक्त अभिलाप के अनुसार कहलेना चाहिये यावत् इसका जो बहुसमरमणीय भूमिभाग है उसके बहुमध्य देशमें एक सिंहासन है यही बात 'जाव तत्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स કરનો અભિષેક દક્ષિણ દિગ્દર્તી સિંહાસન ઉપર થાય છે. આ પ્રમાણે એ બે સિંહાસને ॥ भाटछ तेनु प्रयोग न २५७८ ४२वामा मासु छे. 'कहिणं भंते ! पंडगवणे पंडुकंबल सिला णामं सिला पण्णत्ता' ! ५७ वनमा पर शिक्षा नाम भी शिक्षा ४॥ २थणे आवसी छे ? कोना पाणमा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! मन्दरचूलिओए दक्खि. णेणं पंडगवणदाहिणपरंते' एत्थणं पंडगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे गौतम! મન્દર ચૂલિકાની દક્ષિણ દિશામાં અને પંડકવનની દક્ષિણ સીમાના અનુભાગમાં પંડકવનમાં घडी शिक्षा नामे Paat Pासी छे. 'पाईणपडीणा यया उत्तरदाहिणविच्छिण्णा एवं तं चेव पमाणवत्तवया य भाणियव्या' शिक्षा पूर्वथी पश्चिम सुधी सinी छे. मन उत्तरथी દક્ષિણ સુધી વિસ્તૃત છે. એના પંચ યેજન શત પ્રમાણુ આયામાદિ પ્રમાણ વિશે પૂર્વોક્ત અભિલાપ મુજબ સમજી લેવું જોઈએ. યાવત્ એને જે બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગ છે, . Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४८९ . यावत् तस्य खलु 'बहुसमरमणिज्जास' बहुसमरमणीयस्य 'भूमिभागस्स' भूमिभागस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे 'एल्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु ‘महं एगे' महदेकं 'सीहासणे'; सिंहासनं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् तद्वदुसमरमणीयभूमि भागसम्बन्धिबहुमध्यदेशभागवति महदेकसिंहासमवर्णनपर्यन्ता वक्तव्यता भाणितव्येत्यर्थः तं चेव तदेव पूर्वोक्ताभिलापोक्तमेव पञ्चधनुः शतादिकं 'सीहासणप्पमाणं' सिंहासनप्रमाणम् उच्चखादौ बोध्यम् 'तत्थ तन सिंहासणे 'ण' खलु 'बहू हिं' बहुभिः 'भवणवइ जाव' भवनपति यावत् भवनपतिव्यन्तरज्योष्किवैमानिकैवेदेवीभिश्चेति यावत्पदसूचितपदसङ्ग्रहोऽवगन्तव्यः 'भारहगा' भारतकाः-भरते भरतनामके क्षेत्रे जाता भारतास्त एव भारतका:-भरतक्षेत्रोत्पन्नाः 'विस्थयरा' तीर्थकरा:-जिनाः 'अभिसिच्चंति' अभिषिच्यते, ननु पूर्वोक्त पाण्डुशि लायां सिंहासनद्वयमुक्तं पाण्डुकम्बलायामस्यां शिलाया मेकसिंहासनोतौ को हेतुः ? इति चेच्छृणु-एषा शिला दक्षिण दिगभिमुखाबहुमज्झदेसभाए एस्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते' इस सूत्र पाठ द्वारा व्यक्त की गई है । 'तं चेव सीहासणप्पमाणं' यह सिंहासन आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा पांचसौ धनुष का है तथा २५० धनुष की इसकी मोटाई है इस प्रकार से जैसा सिंहासन का वर्णन पाण्डुशिला के प्रकरण में कहा गया है वैसा ही वह प्रमाण वर्णन यहां पर भी करलेना चाहिये 'तत्थणं यहूहिं भवणवइबाणमंतर जोइसियवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिय भारहगा तित्थयरा अहिसिंचंति' इस सिंहासन के ऊपर भरतक्षेत्र सम्बन्धी तीर्थकर को स्थापित करके अनेक भवनपति व्यानव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियों द्वारा जन्माभिषेक किया जाता है। यहां एसी शंका हो सकती है कि पहिले पाण्डुशिला के प्रकरण में दो सिंहासनों का होना प्रकट किया गया है और यहां पर एक ही सिंहासन का होना कहा गया है सो इसका कारण क्या है ? तो इसका समाधान रूप तना गहु मध्यदेशमा ४ सिसन छ, म॥ वात 'जाव तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि भागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते' २॥ सूत्रा8 43 व्यत ४२वामा मावती छ. 'तं चेव सीहासणापमाणं' । सिसन मायाम सने वि०४मनी अपेक्षामे ૫૦૦ ધનુષ જેટલું છે, તથા ૨૫૦ ધનુષ જેટલી એની મેટાઈ છે. આમ સિંહાસનનું જેવું વર્ણન પાંડુશિલા પ્રકરણમાં કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ વર્ણન અહીં પણ સમજી से नये. 'तत्थणं बहूहिं भवणवइवाणमंतरजोईसिय वेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय भारहगा तित्थयरा अहिसिंच ति' से सिंहासननी ७५२ मरतक्षेत्र समधी तीर्थ ४२ने स्थापित કરીને અનેક ભવનપતિ, વાનવ્યંતર, તિક અને વિમાનિક દેવ અને દેવી તેમને જન્માભિષેક કરે છે. અહીં એવી શંકા દુભવી શકે કે પ્રથમ પાંડુ લડના વર્ણનમાં બે સિંહાસનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે અને અહીં એક જ સિંહાસનનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. તે આનું શું કારણ છે? રોના સમાધાન રૂપ ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે આ શિલા Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्रे ऽस्ति तदभिमुखं भरतक्षेत्रमस्ति तदैकदैक एव तीर्थकरो जायत इति तस्यैकस्य जन्ममहो. त्सवार्थाभिषेक एकेनैव सिंहासने सम्पद्यत इति हेतोरेकमेवात्र सिंहासनमुक्तमिति । अथ तृतीयां रक्तशिलाभिधानां शिलां वर्णयितुमुपक्रमते-'कहिणं भंते! पंडगवणे रत्तसिला' इत्यादि-प्रश्नमूत्रं स्पष्टम्, उत्तरसूत्रे-गोयमा' गौतम ! 'मंदरचूलियाए' मन्दरचूलिकायाः 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पनि दिशि 'पंडगवणपच्चत्थिमपेरंते' पंडकवनपश्चिमपर्यन्ते पण्डकवनस्य पश्चिमसीमापर्यन्तभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'पंडगवणे' पण्डकवने 'रत्तसिला नाम सिला' रक्तशिला नाम शिला 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता, सा च 'उत्तरदाहिणायया' उत्तरदक्षिणायता उत्तरदक्षिणदिशो र्दीर्घा 'पाईणपडीणवित्थिण्णा' प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णा पूर्वपश्चिमदिशोविस्तारयुक्ता' इत्यारभ्य 'जाय तं चेव पमाणं' अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिता पञ्चयोजनशतानि आयामेन अर्द्धततीयानि योजनशतानि विष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बादल्येन, इति पर्यतं तदेव प्रागुतमेव प्रमाणमस्या वाच्यम्, तथा एषा शिला 'सव्वतवणिजमई' सर्वतपनी. यमयी सर्वात्मना तपनीयमयी रक्त स्वर्णमयी तथा 'अच्छा' अच्छा आकाशस्फटिकवनिर्मला, उत्तर ऐसा है कि यह शिला दक्षिणदिगाभि मुखवाली है इसी ओर भरत क्षेत्र है भरत क्षेत्र में एक कालमें एक ही तीर्थकर उत्पन्न होते हैं एक साथ दो तीर्थकर उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः उस एक तीर्थकर के जन्माभिषेक के लिये एक ही सिंहासन पर्याप्त हैं । इसी कारण यहां एक ही सिंहासन के होने का कथन किया गया है 'कहिणं भंते ! पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में रक्तशिला नामकी तृतीय शिला कहां पर कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! 'मंदरचूलियाए पच्चत्थिमेणं पंडगवणपच्चस्थिमपेरंते एस्थ णं पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणविच्छिण्णा जाव तंचेव पमाणं सव्वतवणिज्जमई अच्छा' हे गौतम ! रक्तशिला नामकी यह तृतीयशिला मन्दर चूलिका की पश्चिम दिशा में और पण्डकचन की पश्चिमदिशा की अन्तिम सीमा के अन्त में पण्डकवन में कही गई है यह દક્ષિણ દિશાભિમુખવાળી છે. આ તરફ જ ભરતક્ષેત્ર છે. ભરત ક્ષેત્રમાં એક કાળમાં એક જ તીર્થકર ઉત્પન્ન થાય છે. એકી સાથે બે તીર્થકર ઉત્પન્ન થતા નથી. એથી તે એક તીર્થકરના જન્માભિષેક માટે એક જ સિંહાસન પર્યાપ્ત છે. એથી જ અહીં એક જ સિંહાસન અંગેનું ४यन प्रगट ४२वामा मावदुछे. 'कहिणं भंते ! पंडगवणे रत्तासला णामं सिला पण्णत्ता' हुमत' પંડકવનમાં રક્તશિલા નામે તૃતીય શિલા કયા સ્થળે આવેલી છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે– 'गोयमा ! मंदरचूलियाए १च्चस्थिमेणं पंडगवणपच्चत्थिमपेरते पत्थणं पण्डगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता उत्तरदाहिणायया पाईणपडीणविच्छिण्णा जाव तं चैव एमाणं सव्य तवणिज्जमई અછા' હે ગૌતમ ! રફત શિલા નામે આ તૃતીય શિલા મંદર ચૂલિકાની પશ્ચિમ દિશામાં અને પંડક વનની પશ્ચિમ દિશાની અંતિમ સીમાના અંતમાં પડક વનમાં આવેલી છે. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४९१ अस्याः शिलायाः ‘उतरदाहिणेणं उत्तरदक्षिणेन उत्तरतो दक्षिणतश्च 'एस्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'दुवे द्वे 'सीहासणा' सिंहासने-जिनजन्मोत्सवार्थाभिषेकसिंहासने 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ते, अत्र सिंहासनद्वित्वे कारणमिदम् इयं शिला पश्चिमाभिमुखाऽस्ति तदभिमुखं च पश्चिममहाविदेहक्षेत्रं तच्च शीतोदामहानद्या दक्षिणोत्तरभागाभ्यां विभक्तं, तस्य प्रत्येकस्मिन् भागे एकैकतीर्थकरजन्मसम्भवादेकदा तीर्थकरद्वयं जायते, इति द्वयोरेकदैव जन्मोत्सवाभिषेकार्य सिंहासनद्वयमावश्यकमिति द्वे सिंहासने उक्ते 'तत्थ' तत्र तयो द्वयोः सिंहासनयो मध्ये 'ण' खलु 'जे' यत् ‘से' तत् इति वाक्यालङ्कारे 'दाहिणिल्ले' दाक्षिणात्यं दक्षिणभागवति 'सोहासणे' सिंहासनं 'तत्थ' तत्र तस्मिन् सिंहासने 'णं' खलु 'बहूहि' बहुभिः 'भवण.' भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैर्देवी भिश्च 'पम्हाइया' पक्ष्मादिजाः दक्षिणभागवति पक्ष्मादि विनयाष्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकराः जिनाः 'अहिसिञ्चंति' अभिषिच्यन्ते, इति प्रथमशिला सर्वात्मना सुवर्णमयी है और आकाश तथा स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है यह उत्तर से दक्षिण तक लम्बी है और पूर्व पश्चिमदिशा में विस्तीर्ण है यावत् इसका प्रमाण भी "पांच सो योजन की इसकी लम्बाई है और अढाई सो योजन की इसकी चौडाई है तथा इसका आकार अर्द्ध चन्द्र के जैसा है इसकी मोटाई चार योजन की है। इस रूप से कहलेना चाहिये यह शिला सर्वात्मना तपनीय सुवर्णमयी है एवं आकाश तथा स्फटिक के जैसी यह निर्मल है। 'उत्तर दाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता' इस शिला की उत्तर दक्षिण दिशा में दो सिंहासन कहे गये हैं 'तत्य णं जे से दाहिणिल्लसीहासणे तत्थ णं बहूहिंभवण पम्हाइया तित्थयरा अहिसिंचंति' इनमें जो दक्षिण दिग्वी सिंहासन है उसके ऊपर तो अनेक भवनपति, वानव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव देवियों द्वारा प्रभुका जन्माभिषेक किया जाता है अर्थात् पश्चिम महाविदेह नामका जो क्षेत्र है कि जिसके शितोदा महानदी के द्वारा दक्षिण और उत्तर भाग रूप से दो भाग हो આ શિલા સર્વાત્મના સુવર્ણમયી છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક મણિ જેવી નિર્મળ છે. આ ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધી લાંબી છે અને પૂર્વ-પશ્ચિમ દિશામાં વિસ્તીર્ણ છે યાવતું એનું પ્રમાણ પણ આ પ્રમાણે છે કે ૫૦૦ એજન જેટલી એની લંબાઈ છે અને ૨૫૦ જન જેટલી એની પહેળાઈ છે તેમજ અને આકાર અધ ચન્દ્રમાં જે છે. એની મોટાઈ ચાર જન જેટલી છે. આ શિલા સર્વાત્મના તપનીય સુવર્ણમયી છે અને આકાશ તેમજ સ્ફટિક २वी नि छे. 'उत्तरदाहिणेणं एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता' मा शिलानी उत्तर दक्षिण दिशामा मसिंहासन। आमा छे. 'तत्थणं जे से दाहिणिल्लसीहासणे तत्थणं बहूहिं भवण० पम्हाइया तित्ययरा अहिसिंचंति' मा २ दक्षिा छ नी ५२ त मन ભવનપતિ, વનવ્યંતર, જતિષ્ક અને વૈમાનિક દેવ-દેવીએ પ્રભુને જન્માભિષેક કરે છે. એટલે કે પશ્ચિમ મહાવિદેહ નામક જે ક્ષેત્ર છે કે જેના શિdદા મહાનદી વડે Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सिंहासनप्रयोजनम् अथ द्वितीयसिंहासनप्रयोजनमाह - ' तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले' इत्यादितत्र - तयोरासनयो मध्ये खलु यत तदिति प्राग्वत्, औत्तराहम् - उत्तरभागवर्ति 'सोहासणे' सिंहासनं 'तत्थ' तत्र - तस्मिन् सिंहासने 'गं' खलु' बहूहिं' बहुभिः 'भवण० जाव' भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैर्देवी मिश्र 'वप्पाइया' वप्रादिजाः उत्तरभागवर्तिवप्रादिविजयाष्टकोत्पन्नाः 'तित्थयरा' तीर्थकरा:-जिना: 'अहिसिच्चंति' अभिषिच्यन्ते, अथ चतुर्थी रक्तक शिलाभिधां शिलां वर्णयितुमुपक्रमते - 'कहि णं भंते ! पंडगवणे रक्तकंवलसिला' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, उत्तरसूत्रं पाण्डुकम्बलशिलासूत्रमनुसृत्य व्याख्येयं नवरम् 'सव्वतवणिज्जमई' गये हैं और जिसके प्रत्येक भागमें एक एक जिनेन्द्र की एक साथ उत्पत्ति होती है उसके दक्षिण भाग गत आठ पक्ष्मादि विजय है उत्तर भाग गत आठ वप्रादि विजय है इनमें दक्षिण भाग गत आठ पक्ष्मादि विजयों में उत्पन्न हुए तीर्थकर का जन्माभिषेक तो दक्षिणदि भागवर्ती सिंहासन पर होता है और 'तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थणं बहूहिं भवण जाव बप्पाइआ तित्थयरा अहि सिच्चति' जो उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन है उस पर ८ वनादि विजयगत तीर्थकर का जन्माभिषेक होता है यह जन्माभिषेक भवनपति आदि चतुर्विध निकाय के देव और देवियों द्वारा किया जाता है । 'कहिणं भंते ! पंडकवणे रत्तकंबल सिला णामं सिला पण्णत्ता' हे भदन्त ! पंडकवन में रक्त कंबल शिला नामकी शिला कहां पर कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! मंदर चूलिया उत्तरेणं पंडगवणउत्तरचरिमंते एत्थ पां पंडगवणे रत्तकंबलसिला नाम सिला पण्णत्ता' हे गौतम! मन्दर चूलिका की उत्तरदिशा में तथा पंडकवन की उत्तर सीमा के अन्त में पंडकवन में रक्तकम्बलशिला नामकी शिला कही गई है દક્ષિણ અને ઉત્તર ભાગ રૂપ એ ભાગા થઇ ગપ્પા છે અને જેના દરેક ભાગમાં એક-એક જિનેન્દ્રની એકી સાથે ઉત્પત્તિ થાય છે. તેના દક્ષિણ ભાગમાં આઠ પમાદિ વિજયા આવેલ છે. ઉત્તર ભાગનાં આઠ વપ્રાદિ વયે આવેલા છે. એમાં દક્ષિણ ભાગ ગત આડે પદ્માદિ વિજચેામાં ઉત્પન્ન થયેલા તી કરના જન્માનિષેક તે દક્ષિણ દિગ્ભાગવતી સિહાસન ઉપર हेय है. भने 'तत्थ णं जे से उत्तरिल्के सीहासणे तत्य णं बहूहिं भवण जाव वप्प! इआ तित्थयरा अहिसिच्चति' ? उत्तर हिश्वर्ती सिंहासन छे तेनी उपर माड पत्राहि वित्र्य ગત તકરવા જન્માભિષેક હાય છે. એ જન્મામિષેક ભવનપતિ વગેરે ચતુર્વિધ તિકાयना हेव ने हेवी वडे करवामां आवे छे. 'कहिणं भंते ! पंडगरणे रत्तकंवलसिला णामं . सिला पण्णत्ता' हे महंत ! पंडवनमा त अमल शिक्षा नामे शिक्षा हया स्थणे आवेशी छे? सेना नवासभां अलु उडे हे 'गोमा ! मंदरचूलिया उत्तरेणं पंडगवणउत्तरचरिमंते - एत्थ णं पंडगबगे रत्तकंबल सिला णनं तिला पण्णता- डे गौतम! भंडर न्यूजिठानी -ઉત્તર દિશામાં તેમજ પડક વનની ઉત્તર સીમાના અંતમાં પડકવનમાં રક્ત કમલ શિલા Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० पण्डकवनगताऽभिषेकशिलावर्णनम् ४९३ सर्वतपनीयमयो-सर्वात्मना रक्तसुवर्णमयीति वर्णतो बोव्या, अत्रत्य सिंहासने 'एरावयगा' ऐरावतका:-ऐरावतक्षेत्रीत्पनाः 'तिस्थयरा' तीर्थकरा अभिषिच्यन्ते । अस्य सिंहासनस्यैकलविषयकशङ्कासमाधाने भरतक्षेत्रोक्ततिमनुसत्रीय बोध्ये सू० ४०॥ अथ मन्दरे काण्ड संख्यां गौतमो भगवन्तं पृच्छति-'मंदरस्स णं भंते' इत्यादि । - मूलम्-मंदरस्त णं भंते ! एवयस्स कइ कंडा पण्णत्ता ?, गोयमा! तओ कंडा पणता, तं जहा-हिटिल्ले कंडे १, मझिल्ले कंडे २, उवरिल्ले कंडे ३, मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हिटिल्ले कंडे कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे पण्णते, तं जहा-पुढवी १ उवले २ वइरे ३ सकरा ४, मझिमिल्ले णं भंते ! कंडे कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउठिवहे पण्णत्ते, तं जहा-अंके १ फलिहे २ जायरूवे ३ रयए ४, उवरिल्ले कंडे कइविहे पण्णते ?, गोयमा ! एगागारे पएणत्ते समजबूणयामए, मंदरस्स णं भंते ! एक्यस्स हेटिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं 'पाईण डीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा सवतवणिज्जमई अच्छा जाव मज्झदेसभाए सीहासगं, तत्थ णं बहूहिं भवणवई जाव देवेहिं देवीहि य एरा वयगा तित्थयरा अहिसिचंति' यह शिला पूर्व से पश्चिम तक लम्बी है और उत्तर दक्षिण में विस्तीर्ण है यह शिला सर्वात्मना तप्त सुवर्णमयी है आकाश एवं स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है । इस शिला का ऊपरी भाग बहु समरमणीय है इसके मध्य भाग में एक सिंहासन है इस पर ऐरावत क्षेत्र के भीतर उत्पन्न हुए तीर्थकर का जन्माभिषेक किया जाता है यह जन्माभिषेक अनेक भवनपति आदि चतुर्विध देवनिकायों द्वारा संपन्न किया जाता है भरतक्षेत्र की तरह ऐरावत क्षेत्र में भी एक काल में एक ही तीर्थकर का जन्म होता है, अतः उनके अभिषेक के लिये यह शिला प्रयुक्त होती है ॥४०॥ नामे Caat आवक्षी छ. 'पाईणपडीणायया उदीणदाहिणविच्छिण्णा सय तवणिज्जमई अच्छा जाव मम्झदेसभाए सीहासणं, तत्थशं बहूहिं भयणपई जाव देवेहिं देवीहिय एरावयगा तित्थयरा अहिसिंचति' मा शिक्षा पूर्वथी ५मि सुधी खinी छ भने त्तर-दक्षिणमा વિસ્તી છે. આ શિલા સર્વાત્મના તત સુવર્ણમયી છે. આકાશ તેમજ સ્ફટિક મણિ જેવી નિર્મળ છે. આ શિલાનો ઉપર ભાગ બહુ સમરમણીય છે. એના મધ્ય ભાગમાં એક સિંહાસન આવેલું છે. એની ઉપર અરાવત ક્ષેત્રની અંદર ઉત્પન્ન થએલા તીર્થકરને જન્માભિષેક કરવામાં આવે છે. આ જન્માભિષેક અનેક ભવનપતિ વગેરે ચતુધિ દેવનિકા વડે સમ્પન્ન કરવામાં આવે છે. ભરતક્ષે ની જેમ ઐરાવત ક્ષેત્રમાં પણ એક કાલમાં એક જ તીર્થકરનો જન્મ થાય છે. એથી તેમના અભિષેક માટે આ શિલાને ઉપગ થાય છે. ૪ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પૃષ્ઠ जम्बूद्वीपमतित्रे पण्णत्ते ?, गोयमा ! एवं जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते, मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा, गोयमा ! ते ट्रि जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं पण्णत्ते, उवरिल्ले पुच्छा, गोयमा ! छत्तीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते, एवामेव सपुव्वावरेणं मंदरे पव्वए एगं जोयणसयसहस्तं सव्वभ्गेणं पण्णत्ते ||सू० ४१॥ छाया - मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य कतिकाण्डानि प्रज्ञप्तानि ?, गौतम ! त्रोणि काण्डानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - अधस्तनं काण्ड १ मध्यमं काण्ड २ उपरितनं काण्डम् ३ मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य अघस्तनं काण्डं कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - पृथिवी १ उपलाः २ वज्राणि ३ शर्कराः ४, मध्यमं खलु भदन्त ! काण्डं कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा - अङ्कः १ स्फटिकः २ जातरूपं ३ रजतम् ४, उपरितनं काण्डं कतिविधं प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तं सर्वजाम्बूनदमयम्, मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य अधस्वनं काण्डं कियद् बाहल्येन प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! एकं योजन सहस्रं वाहल्येन प्रज्ञप्तम्, मध्यमे काण्डे पृच्छा, गौतम ! त्रिषष्टि योजनसहस्राणि बाहुल्येन प्रज्ञप्तम्, उपरितने पृच्छा, गौतम ! पटूत्रिंशतं योजनसहस्राणि बाहल्यैन प्रज्ञप्तम् एवमेव सपूर्वापरेण मन्दरः पर्वतः, एकं योजनशतसहस्रं सर्वाग्रेण प्रज्ञप्तः ॥ ४१ ॥ टीका- 'मंदरस्स णं भंते' इत्यादि - मन्दरस्य - मेरोः खलु भदन्त ! 'पव्त्रयस्स' पर्वतस्य 'क' कति - कियन्ति 'कंडा' काण्डानि विभागाः 'पण्णत्ता ?' प्रज्ञप्तानि ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा !' गौतम ! 'तो' त्रीणि 'कंडा' काण्डानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञानि 'तं जहा ' तथा 'हिट्ठिल्ले' अवस्तनम् - अधोभवं 'कंडे' काण्डं १, 'मज्झिल्ले' मध्यं मध्यमंदरकाण्ड संख्या वक्तव्यता 'नंदरस्स णं भंते! पव्त्रयस्स कइ कंडा पण्णत्ता' इत्यादि । टीकार्य - गौतम ने प्रभु से अब ऐसा पूछा है - 'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स कह कंडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! मंदर पर्वन के कितने काण्ड विभाग कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा । तओ कंडा पण्णत्ता' हे गौतम! तीन काण्ड कहे गये हैं । 'तं जहा -' जो इस प्रकार से हैं - हिट्ठिल्ले कंडे, मज्झिल्ले कंडे' મંદર કાંડ સંખ્યા વક્તવ્યતા 'मंदरस्स णं भंते! टी ठार्थ गौतमे कइ कंडा पण्णत्ता' हे सेना वामां प्रभु मावेश छे. 'तं जहा' O पव्त्रयस्स कइ कंडा पण्णत्ता' इत्यादि वे अनेमा लता प्रश्न 'मंदरस्स णं भंते ! पन्त्रयस्स लत! भंडर पर्वतना डेंटला मंडी - विलागो वामां आवेला है ? डे छे- 'गोयमा ! तओ कंडा पण्णत्ता' हे गौतम! त्र अंडा डेनामां प्रेम 'हिट्टिल्डे कंडे, मझिल्ले कंडे उवरिल्ले कंडे ' ૧ અસ્ત Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थव सस्कारः सु. ४१ मन्दरपर्वतस्य काण्डसंख्यानिरूपणम् ४९५ प्रदेशभवम् २ 'कंडे' काण्डम् २ ' उवरिल्ले' उपरितनं शिखरभवं 'कंडे' काण्डम् ३, तत्र प्रथम काण्डभेदं पृच्छति - 'मंदरस्स' मन्दरस्य - मेरो: 'ण' खलु 'भंते !' भदन्त ! 'पव्त्रयस्स' पर्वतस्य 'हिद्विल्ले' अधस्तनं 'कंडे' काण्डं 'कइविहे' कतिविधं कियत्प्रकारकं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा !' गौतम ! अवस्वनं काण्डं 'चउव्विहे ' चतुर्विधं चतुष्पकारकं 'पण्णत्ते' प्रज्ञतम् 'तं जहा' तद्यथा - 'पुढवी' पृथ्वी - मृत्तिका १, 'उवले ' उपलाः - प्रस्तराः २, 'वइरे' वज्राणि - हीरकाः ३, 'सक्करा' शर्कराः - कर्करिकाः ४, एवञ्च मन्दरः पृथ्वीपाषाणहीरखः शर्करामयकन्दकः सिद्धः, अस्याधस्तनमेव काण्डं सहस्रयोजनप्रमाणम्, नन्वधस्तन काण्डस्य पृथिव्यादिभेदेन चतुर्विधत्वात्तदीय योजनसहस्रस्य भागचतुष्टकरणे पृथिव्याद्येकैकस्य भेदस्य योजनसहस्रचतुर्थभागप्रमाणता स्यात् तथा च सति विशिष्ट वरिल्ले कंडे' १ अधस्तनकाण्ड २ मध्यकाण्ड और ३ उपरितकाण्ड अब गौतम पुनः प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'मंदरस्स णं भंते ! पव्ववस्त हिड़िल्ले कंडे कइविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! मन्दर पर्वन का जो अधस्तन काण्ड है वह कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! चउव्हेि पण्णत्ते' हे गौतम ! अधस्तन काण्ड चार प्रकार का कहा गया है। 'तं जहा' जैसे 'पुढवी, उवले, वारे सक्करा' एक पृथिनीरूप, दूसरा उपलरूप, तीसरा वज्ररूप और चौथा शर्करा - कंकररूप इस तरह के इस कथन से मन्दर पर्वत पृथिवी, पाषाण हीरक और कंकडे मयकन्दक वाला सिद्ध होता है यह प्रथम काण्ड ही १ हजार योजन प्रमाणवाला है यहां ऐसी शंका होती है कि जब प्रथमकाण्ड १ हजार योजन प्रमाणवाला है तो इसके जो चार विभाग प्रकट किये गये हैं उनमें एक एक विभाग एक हजार योजन का चतुर्थांश रूप होगा अतः एसा होने पर विशिष्ट परिणामानुगत विच्छेदरूप पृथिव्यादिक काण्ड की संख्या के वर्द्धक हो जावेगें નકાંડ, ૨ મધ્યકાંડ અને ઉપરિતનકાંડ, હૅવે ગૌતમસ્વામી ક્રી પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે કે'मंद रस्स णं भंते ! पव्वयस्स हिट्ठिल्ले कंडे कइविहे पण्णत्ते' हे लह'त ! भंडर पर्तना જે અધસ્તન કાંડ છે, તે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે ? એના વાત્રમાં પ્રભુ કહે - गोयमा ! चउव्हेि पण्णत्ते' हे गौतम ! अधस्तन अंडे यार अारने हवामां आवे छे. 'तं जहा ' म 'पुढवी, उबले, वइरे, सक्करा' मे पृथ्वी ३५, जीले उपल ३५. ત્રીજો વજ્ર રૂપ અને ચેાથા શર્કરા એટલે કે કાંકરા રૂપ. આમ આ જાતના કથનથી મંદર પત પૃથિવી પાષણ, હીરક અને કાંકરા મય સંકવાળા સિદ્ધ થાય છે. આ પ્રથમ માંડ જ એક હજાર વૈજન પ્રમાણવાળા છે. અહી શંકા ઉદ્ભવે છે કે જ્યારે પ્રથમ કાંડ ૧ હજાર રાજન પ્રમાણવાળા છે તે એના ચાર વિભાગેા પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે તેમનામાં ૐ –એક વિભાગ એક હજાર ચાજનનેા ચતુર્થાંશ રૂપ થશે એથી એમ થાયતે વિશિષ્ટ પરિણામાનુગત વિચ્છેદ રૂપ પૃથિયાદિક કાંડની સંખ્યાના વહેંકા થઈ જશે તે પછી આ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे परिणामानुगतविच्छेदरूपाः पृथिव्यादयः काण्डसंख्यां कर्द्धयेयुरिति चेत् सत्यम् अत्रोच्यतेअधस्तन काण्डस्य पृथिव्यादि भेदकथनस्येदं तात्पर्यम् - प्रथमकाण्डं क्वचित्पृथ्वी बहुलं काचिदुपलबहुलं क्वचिद् वज्रबहुलं काचिच्छर्कराबहुलं न तु पृथिव्यादि चतुष्टयातिरिक्ताङ्कस्फटिकादि घटितमिति नियमेन पृथिव्यादिरूपविभागा न काण्डस्य किन्तु काण्डस्य प्रथमभेदे स्वस्वप्राचुर्यदर्शक एव इति काण्डसंख्यां वर्द्धयितुं पृथिव्यादयो न शक्नुवन्ति, अथ मध्यमकाण्ड वस्तूनि वर्णयितुमुपक्रमते - 'मज्झिमिल्लेणं भंते !' मध्यमं खलु भदन्त ! 'कंडे' काण्ड 'कवि' कतिविधं कियत्प्रकारकं 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ?, 'गोयमा !" गौतम ! मध्यमं काण्ड 'चउत्रिहे' चतुर्विधं 'पण्णत्ते' प्रज्ञतम्, 'तं जहा' तद्यथा - 'अंको' अङ्कः'फलिहे' स्कटिकः - स्कटिकमनिः २, 'जायरू वे' जातरूपं सुवर्णम् ३, 'रयए' रजतं रूप्यम् अङ्करत्नम् १, ४, एतचतुष्टयमयं मध्यमं काण्डमिति भावः, अत्रापि प्रथम काण्डवत् क्वचिदङ्कतो फिर यह चतुः प्रकारता विरुद्ध पड जावेगी तो इस शंका का उत्तर ऐसा हैं कि यह प्रथम काण्ड की चतुः प्रकारता विरुद्ध नही पडेगी- क्यों कि प्रथम काण्ड क्वचित् स्थल पर पृथिवी बहुल है, क्वचित् स्थल पर उपल बहुल है, क्वचित् स्थल पर बत्र बहुल है और क्वचित् स्थल पर शर्करा बहुल है इन चार प्रकार से अतिरिक्त अङ्करत्न या स्फटिकादि से वह बहुल नहीं है इस कारण ये पृथिव्यादिरूप विभाग काण्ड के प्रथम भेद में अपनी अपनी प्रचुरता के प्रदर्शक कही हैं - इसलिये काण्ड की संख्या इनसे नहीं बढ सकती है 'मज्झिमिल्ले णं भंते ! कंडे कइचिहे पण्णत्ते' हे भदन्त । मध्यमकाण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! चउब्विहे पण्णत्ते' हे गौतम ! मध्यमकाण्ड चार प्रकार का कहा गया है- 'तं जहा' जैसे 'अंके, फलि हे जायरूवे, रयए' अङ्करत्नरूप, स्फटिकरूप, जातरूप रूप, और सुवर्णरूप इन भेदों से यही समझना चाहिये कि प्रथम काण्ड की तरह यह काण्ड भी कहीं २ अङ्करत्न ચતુઃપ્રકારતા વિરુદ્ધ લેખશે. આ શંકાને ઉત્તર આ પ્રમાણે છે કે આ પ્રથમકાંડની ચતુઃ પ્રકારતા વિરુદ્ધ લેખાશે નહિ. કેમકે પ્રથમ કાંડ કૂચિત સ્થળે પૃથિવી અહુલ છે, ચિત્ સ્થળે ઉપલ બહુલ છે, ક્વચિત્ સ્થળે વજ્ર અહુલ છે અને ચિત્ સ્થળે શર્કરા બહુલ છે. એ ચાર પ્રકારેા સિવાય અંક, રત્ન કે સ્ફટિકાદિની દૃષ્ટિએ તે બહુલ નથી. એથી આ પૃથિવ્યાદિ રૂપ વિભાગ કાંડના નથી પણ કાંડના પ્રથમ ભેદમાં પેત-પે!તાની પ્રચુરતાના प्रदर्श । छे. मेथी अंडनी संख्या मेमनाथी वघती नथी. 'मज्झिमिल्ले णं ते! कंडे कवि पण्णत्ते' हे लत ! मध्यमंड डेटा प्रश्न वामां आवे छे ? तो सेना वाणमां अलु ४ छे - 'गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते' हे गौतम! मध्यम ठांउ याराना वामां भावेश छे. 'तं जहां, 'अंके, फलिहे जायवे, જાત રૂપ અને સુવર્ણ રૂપ. એ ભેદ્દેથી એજ म ४९६ रयए' भरत्न ३५, २३४३५, સમજવુ જઇએ કે પ્રથમ કાંડની જેમ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४१ मन्दरपर्वतस्य काण्डसंख्यानिरूपणम् ४९७ बहलं क्वचित स्फटिकवलं क्यरिजातरूपबहालं क्वचिद्रजतबहलमिति भावनीयम् । अथ तृतीयं काण्डं वर्णयिमुपक्रमते-'उरिल्ले' उपरितनं 'कंडे' काण्डं 'कइविहे' कतिविधं 'पण्णत्ते?' प्रज्ञप्तम् ?, गोयमा!' गौतम ! 'एगागारे' एकाकार-प्रकारान्तररहितं पण्णते' प्रज्ञप्तम् एतदेव स्पष्टीकरोति 'सन्यजंबूणयामए' सर्वजाम्बूनदमयं-सर्वात्मना जाम्बूनदमयं रक्तसुवर्णमयम् । अथ मन्दरकाण्डत्रयपरिमाणद्वारा मन्दरपरिमाणं वर्णयितुमुपक्रमते-'भंदरम्स णं भंते !! इत्यादि-मन्दरस्य मेरोः खलु भदन्त ! भगवन् ! 'पव्ययस्स पर्वतस्य 'डिल्ले' अधस्तनं 'कंडे' काण्डं 'केवइयं कियत किम्परिमाणं 'बाहल्लेणं' वाइल्येन उच्चत्वेन 'पण्णते?' प्रज्ञप्तम् ?, एतत्प्रश्नस्योत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'एग एक 'जोयणराहरू' योजनसहस्रं 'बाहल्लेणं' बाहलयेन 'पण्णत्ते प्रज्ञप्तम्, एवं 'मज्झिमिल्ले' मध्यमे 'कंडे' काण्डे 'पुच्छा' पृच्छा प्रश्नपद्धति बोध्या सा हि-'मंदरस्स णं भंते ! मज्झिभिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णते ?' एतच्छाया-'मन्दरस्य खलु भदन्त ! मध्यम काण्डं कियद् बाहल्येन प्रज्ञप्तमिति, एतदुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'तेवढि' त्रिषष्टिं 'जोयणसहस्साई' योजन सहस्राणि बहुल है कहीं २ स्फटिक मणिबहुल है कहीं २ रजत बहुल है और कहीं २ जात. रूप बहुल है 'उवरिल्ले कंडे कइविहे पण्णत्ते' उपरितनकाण्ड हे भदन्त ! कितने प्रकार का कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! एगागारे पण्णत्त' हे गौतम ! उपरितन काण्ड एक ही प्रकार का कहा गया है 'सव्वजंबूणयामए' और सर्वात्मना जंबूनदमय-रक्तसुवर्णमय है 'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हेहिल्ले कंण्डे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' हे भदन्त ! मंदर पर्वत का जो अधस्तन काण्ड है उसका बाहल्य ऊंचाई-कितना कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! एग जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णते' हे गौतम ! अधस्तन काण्ड की ऊंचाई एक हजार योजन की कही गई है "मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छा' हे भदन्त ! मध्यमकांड की ऊंचाई कितनी कही गई है इसके उत्तर में આ કાંડ પણ ક્યાંક કયાંક અંક રત્ન બહુલ છે. કયાંક-કયાંક ફટિક મણિ બહુલ છે. કપક २४त महुस छ भने ४य त ३५ मत छ. उवरिल्ले कंडे कइ विहे पण्णत्ते' मन्त! परितन i3 टसा ४२ ४ामा मावस छे ? नाममा प्रभु ४३ छ-'गोरमा एगागारे पण्णत्ते' 3 गौतम ! परितन 3 मे ॥ प्रारने। वामां आवे छे. 'सव्व जंबूणयामए' भने २॥ सर्वात्मना पूनमय-२५त सुव भय छे. 'मंदरस्प्त णं भंते ! पव्ययस्स हेदिल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' है न ! मह२ पतनी ? अस्तन 3 છે, તેનું બાહ–તેની ઊંચાઇ કેટલી કહેવામાં આવેલી છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે छे--'गोयमा ! एग जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते' 3 गीतम! २५५स्तन isनी या मे १२ 20 टक्षी ५i साक्षी छ. 'मज्झिमिल्ले कंडे पुच्छ।' 8 महन्त ! मध्य ४istी या सी ४३वामां आवसी छे, गेनाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! ज० ६३ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूदीपप्राप्तिसूत्रे 'बाहल्लेणं' बाहल्येन उच्चत्वेन 'पपगत्ते' प्रज्ञतम्, एतेन भद्रशालयनं नन्दनवनं सौमनसवनमन्तरद्वयं चैतानि सर्वाणि मन्दरपर्वतस्य मध्यमकाण्डेऽन्तर्भवन्ति, ननु द्वितीयकाण्डविभागस्य समवायाङ्गसूत्रस्याष्टत्रिंशत्तमसमवायेऽष्टत्रिंशत्सहस्रयोजनोच्छ्रितत्वेन वर्णितत्वात्रिषष्टियोजनसहस्रोच्चत्वं कथं सगच्छते ? इति चेत्, अत्रोच्यते-समवायाङ्गोक्तोच्चत्वस्य मतान्तरावलमनमूलकत्वात्प्रकृतोच्चत्वे न बाधक तेति । एवम् ‘उवरिल्ले पुच्छा' उपरितले काण्डे पृच्छा प्रश्नपद्धतिरूहनीया, तत्प्रश्नोत्तरमाह-'गोयमा ! गौतम ! 'छत्तीसं' पदत्रिशतं 'जोयणसहस्साई' योजनसह त्राणि 'वाहल्लेणं' वाहल्येन 'पण्णते' प्रज्ञप्तम् 'एवा मेव' एवमेव-पूर्वोक्तः रीत्यैव 'सपुवावरेणं' सपूर्वापरेण-पूर्वसंरुपानसहितापरसंख्यानेन सङ्कलितेन समा ‘मंदरे' मन्दरः 'पव्वए' पर्वतः 'एगं' एकं 'जोयणसयसहस्त' योजनशतसहस्रं 'समगेग' सर्वाग्रेण प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! तेवढि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम ! मध्यम काण्ड की ऊंचाई ६३ हजार योजन की कही गई है इस कथन से 'भद्रशालवन नन्दनबन, सौमनसवन और दो अन्तर ये सब मन्दर पर्वत के मध्यम काण्ड में अन्तर्भूत है' यह बात समझनी चाहिये। _ शंका-समवायाङ्ग सूत्र के ३८ वें समवाय में इस द्वितीय काण्ड रूपविभाग को ३८ हजार योजन की ऊंचाई वाला कहा गया है फिर आपका यह ६३ हजार की ऊंचाई वाला कथन कैसे संगत हो सकता है ? तो इसका उत्तर ऐसा है कि वहां जो ऐसा कहा गया है वह मतान्तर की अपेक्षा से कहा गया है अतः वह कथन इस कथन का बाधक नहीं हो सकता 'उरिल्ले पुच्छा' हे भदन्त उपरितन काण्ड की ऊंचाई कितनी कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! छत्तीसं जोयणसहस्साई बाहरणं पण्ण' हे गौतम ! उपरितनकाण्ड की ऊंचाई ३६ हजार योजन की कही गई है 'एवमेव सव्वावरेणं मंदरे पवर तेवर्षि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम ! मध्यम ४isी अया53 m२ જન જેટલી કહેવામાં આવેલી છે. આ કથનથી ભદ્રશાલવન, નંદનવન, સૌમનસવન, અને બે અન્તર એ બધા મન્દર પર્વતના મકાંડમાં અન્તસ્ત થઈ જાય છે. શંકા-સમવાયાંગ સૂત્રના ૩૮મા સમવાયમાં એ દ્વિતીય કાંડ રૂપ વિભાગને ૩૮ હજાર જન જેટલી ઊંચાઈવાળે કહેવામાં આવે છે, તો પછી અહીં ૬૩ હજાર જેટલી ઊંચ ઈનું કફન કેવી રીતે ચોગ્ય કહેવાશે? આને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે ત્યાં જે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તે મતાન્તરની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલું છે. એથી ते ४थन २0 ४पनk मा नयी ‘उवरिल्ले पुच्छा' त ! परितन ४नी याs टत्री वामां माथी छ ? सेना यामां प्रभु ४ छ-'गोयमा ! छत्तीस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते' गौतम ! परितन isी या 36 M२ योन सी ४३वामा मावेशी छे. 'एवामेव सपुवावरेणं मंदरे पञ्चए एगं जोयणसरसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते' २१॥ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४१ मन्दरपर्वतस्य काण्डसंख्यानिरूपणम् ४९९ सर्वसंख्यया 'पण' प्रज्ञप्तः, ननु मेरुशिखरवर्तिनी चत्वारिंशद्योजनप्रमाणा चूलिका मेरु प्रमाणमध्ये कुतो नोक्ता ?, इति चेत् सत्यम्, श्रूयतां-मेरुशृङ्गस्थचूलिकायान्मेरुक्षेत्रचूलात्वेनास्वीकारान्मेरुप्रमाणमध्ये न कथनम् । लोकेऽपि पुरुषस्योच्चत्वे परिमीयमाने शिरोवर्ति चिकुरनिकुरम्बं विहायैव साद्धहस्तत्रयादिमानव्यवहारो दृश्यते, अन्यथा 'लम्बमानकेशपाश. परिमाणोपादाने' तावन्मानं न घटै तेति । इयं त्रिसूत्रीसमानपद्धतिकतयैकत्रैव सूत्राङ्के समाति ॥ सू० ४१॥ अथ समयप्रसिद्धानि मदरस्य पोडशनामानि निर्देष्टुभुपक्रमते-'मंदरस्स णं भंते ! इत्यादि। मूलम्-मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स कइ णामधेजा पण्णत्ता ?, गोयमा ! सोलस णामधेजा पण्णत्ता, तं जहा-मंदर १ मेरु २ मणोरम ३ सुदंसण ४ सयंभे य ५ गिरिराया ६ । रयगोच्चय ७ सिलोच्चय ८ मज्झे लोगस्स ९ णाभीय १० ॥१॥ अच्छे य ११ सूरियायत्ते १२ सूरिएगं जोयणसथसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते' इस तरह का कुल यह प्रमाण मंदर पर्व का १ लाख योजन का हो जाता है। __ शंका-मेरुकी चूलिका का प्रमाण जो ४० योजन का कहा गया है वह इस १ लाख योजन- के प्रमाण में क्यों नहीं-परिगणित किया गया है ? तो इस शंका का उत्तर ऐसा है कि मेरुकी चूलिका को मेरु क्षेत्र की चूलारूप होने से अस्वीकार किया गया है, इस कारण उसे मेरु के प्रमाण के बीच में परिगणित नहीं किया गया है लोक में भी ऐसा ही देखा जाता है कि जब पुरुष की ऊंचाई नापी जाती है तो उसमें शिरोवर्ति बालों की ऊंचाई नहीं ली जाती है यदि ऐसा होने लगे तो फिर सार्द्धहस्तत्रयादिरूप ऊचाई का प्रमाण व्यवहार अच्छिन्न हो जावेगा यह त्रिसूत्री समान पद्धतिवाली है अतः एक ही सूत्र के अङ्क से अङ्कित की गई है ।।४१॥ પ્રમાણે આ મંદર પર્વતનું કુલ પ્રમાણ એક લાખ જન જેટલું થઈ જાય છે. શંકા-મેરુની ચૂલિકાનું પ્રમાણ જે ૪૦ એજન જેટલું કહેવામાં આવેલું છે તે આ ૧ લાખ એજનના પ્રમાણમાં શા માટે પરિણિત કરવામાં આવ્યું નથી.? તે આ શંકાને જવાબ આ પ્રમાણે છે કે મેરુની ચૂલિકાને મેરુ ક્ષેત્રની ચૂલા રૂપ હતા બદલ અસ્વીકૃત કરવામાં આવે છે. એથી મેરુને પ્રમાણમાં તેની ગણના કરવામાં આવી નથી. લોકમાં પણ આ રીતે જ જોવા મળે છે કે જ્યારે પુરુષની ઊંચાઈ માપવામાં આવે છે તે તેમાં શિવતિ વાળની ઊંચાઈની ગણના કરવામાં આવતી નથી. જો આવું થવા માંડે તે સાદ્ધ હસ્ત ત્રયાદિ રૂપ ઊંચાઈના પ્રમાણુ રૂપ વ્યવહાર ઉચ્છિન્ન જ થઈ જશે. એ ત્રિસૂત્રી સમાન પદ્ધતિ વાળી છે, એથી એક જ સૂત્રના અંકથી અંકિત કરવામાં આવેલી છે. કે ૪૧ છે Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र यावरणे १३ तिया । उत्तमे १४ अ दिसादीय १५ वडेंसेति १६ य सोलसे ॥२॥ से केगटेणं भंते ! एवं वुच्चइ मंदरे पपए २ ? गोयमा ! मंदरे पव्वए मंदरे णाम देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओवमटिइए, से तेणट्रेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ मंदरे कधए २ अदुत्तरं तं चेवत्ति ॥सू० ४२॥ ___ छाया-मन्दरस्य खलु भदन्त ! पर्वतस्य कति नामधेयानि प्रज्ञतानि ?, गौतम ! षोडश नामधेयानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-मन्दरः १ मेरुः २ मनोरमः ३ सुदर्शनः ४ स्वयम्प्रभश्च ५ गिरिराजः ६ । रत्नोचयः ७ शिलोच्चयः ८ मध्यलोकस्य ९ नाभिश्च १० ॥१॥ अच्छश्व ११ सूर्यावर्त्तः १२ सूर्यावरणः १३ इति च । उत्तमः १४ च दिगादिश्च १५ अवतंस इति १६ च षोडश ॥२॥ अथ केनार्थग भदन्त ! एवमुच्यते-मन्दरः पर्वतः २१, मौसम ! मन्दरे पर्वते मन्दरो नाम देवः परिवसति महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यते-न्दरः पर्वतः २ अदुत्तरं तदेवेति । सू० ४२॥ टोका-'मंदरसणं भंते !' इत्यादि मन्दरस्य खलु भदन्त ! भगवन् ! पर्वतस्य 'कइ' कति-कियन्ति 'णामधेजा' नामधेयानि-नामानि 'पण्णत्ता ?' प्रज्ञप्तानि ?, इति प्रश्नस्योत्तरमाह-'गोकमा !' भो गौतम ! 'सोउस' पोडश 'णामवेजा' नामधेयानि 'पण्णता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा- मन्दरेत्यादि श्लोकद्वयम्, मन्दरस्थ पोडशनामसूचकम्, तत्र 'मंदर' मन्दरः, __मन्दर पर्वत के समय प्रसिद्ध १६ नामान्तर'मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स कह.नामधेज्जा पण्णत्ता' इत्यादि । टीकार्थ-भंते' हे भदन्त! 'मन्दरसणं पव्वयस्स कइ नामधेजा पण्णत्ता' मन्दर पर्वत के कितने नाम कहे गये हैं ? 'गोयमा ! सोल सणामधेजा पण्णत्ता' हे गौतम ! मन्दर पर्वत के १६ नाम कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'मन्दर १ मेरु २, मणोरम ३, सुदंशण ४, सधपमेय ५गिरिराया ६ रयणोच्चय ७, सिलोच्चय ८, मज्झे लोगस्त ९ णाभी य १० ॥१॥ मूल में प्राकृत होने से मन्दर पद में મન્દર પર્વતના સમય પ્રસિદ્ધ ૧૬ નામાન્તરે 'मंदरस्स णं भंते! पव्वयस्स कइ नामज्जा पण्णत्ता' इत्यादि टी -'भंते !'Baa! 'मंदररस णं पव्ययस्स कइ नामधेज्जा पण्णत्ता' म२ ५ तना डेटसा नो वामां आशा छ ? 'गोयमा! सोलस णामधेज्जा पण्णत्ता' गौतम ! म १२ पतन। १६ नाभा ४३वाभा मावा छ. 'तं जहा, ते नाभी या प्रमाण हे-मन्दर १, मेरु २, मणोरम ३, सुदंसण ४, सयपभेय ५, गिरिराया ६, रयणोच्चय ७' सिलोच्चय ८, मज्झे लोगस्स ९, णाभीय १०, ॥ १ ॥ भूगमा प्राकृत डा मह२ ५४मा विमति લેપ થયેલ છે. અથવા મન્દરથી માંડીને સ્વયંપ્રભ સુધીના શબ્દોમાં સમાહારબંધ समास थये। छ. मेथी " 'मन्दर मेरु मनोरम सुदर्शन स्वयम्प्रभ' मा से क्यनान्त ५६ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् ५०१ मूले प्राकृतवाद्विभक्तिलोपः, यद्वा मन्दरादि स्वयंप्रभान्तानां समाहारद्वन्द्वः, अस्मिन् पक्षे म दरमेहमनोरमसुदर्शनस्वयम्प्रभमिति समस्तमेकवचनान्तं पदम्, तत्र मन्दरेति नामधेयकारणं स्वयमेव सूत्रकृताग्रे 'मंदरे पव्यए मन्दरे णाम देवे' परिवसइ' इति वक्ष्यते, इति शीघ्रजिज्ञासायां मन्दरनामकदेवाधिष्ठितत्वान्मन्दरेति नाम बोध्यम् १ द्वितीयं नामाह- भेरु' मेरुः एतनामकारणमपि मेरुनामकदेव परिवास एव बोध्यम्, ननु एकस्यैव मन्दरस्य नामान्तरसत्त्वेन मन्दरस्यैव मेरु द्वितीयो देवः स्यादिति चेत्-श्रूयतां मन्दरनामान्तरवदेवस्य नामन्तरागीकार इति न देवान्तरम्, अत्र निर्णयो बहुश्रुतगम्य इति २, तृतीयं नामाह'मणोरम' मनोरम:-रमयतीति रमः मनसां-देवानां चेतसां रमो मनोरम:-अतिरमणीयकेन देवमनोरञ्जकः ३, चतुर्थं नामाह-'सुदंसण' सुदर्शनः सु शोभनं जाम्बूनदमयत्वेन रत्नबहुलविभक्ति का लोप हो गया है अथवा मन्दर से लेकर स्वयंप्रभा तक के शब्दों में समाहार द्वन्द्व समास हुआ है इसी कारण-"मन्दर मेरु भनोरम सुदर्शन स्वयम्प्रभ" यह एक वचनान्त पद बन गया है । मन्दर यह प्रथम नाम है, मेरु यह दूसरा नाम है, मनोरम यह तृतीय नाम है, स्तुदर्शन यह चतुर्थ नाम है, स्वयं प्रभ यह पांचवां नाम है, गिरिराज यह छठा नाम है, रत्नोच्चथ सातवां नाम है, शिलोच्चय यह ८ वां नाम है, मध्यलोक यह ९ वो नाम है, और नाभि यह १० वां नाम है। मन्दर नामक देव से यह अधिष्ठित है इस कारण इसका नाम मन्दर ऐसा हो गया है, मेरु नामक देव के परिवास से मेरु ऐसावितीय नाम इसका हो गया है, जैसा मन्दर यह एक नाम है और मेरुयह इसीका दूसरा नाम है इसी प्रकार से देवका भी एक नाम मंदर है और दूसरा नाम मेरु है अतः यहां इस नाम में नामान्तर की कल्पना से द्वितीय देवका सद्भाव नहीं मानना चाहिये अथवा इस सम्बन्ध में निर्णय बहुश्रुतगम्य है। यह पर्वत बहुत ही रमणीय है-देवों के मन को हरण करने वाला है इस कारण इसका तृतीय नाम मनोरम ऐसा कहा गया है यह पर्वत जाम्बूनद मय कहा गया है तथा रत्नबहुल प्रकट किया गया है अतः સિદ્ધ થયેલ છે. મન્દર એ પહેલું નામ છે. મેરુ આ બીજું નામ છે. મરમ આ ત્રીજું નામ છે. સુદર્શન આ ચોથું નામ છે. સ્વયંપ્રભ એ પાંચમું નામ છે. ગિરિરાજ એ છરડું નામ છે. રને ચય એ સાતમું નામ છે. શિલય આ આઠમું નામ છે. મધ્યક આ નવમું નામ છે અને નાભિ આ દશમું નામ છે મન્દર નામક દેવથી આ અધિષ્ઠિત છે. એથી જ આનું નામ મન્દર એ રીતે પ્રસિદ્ધ થયું છે. જેમ મન્દર આ એક નામ છે એવું જ મેરુ આ એનું બીજું નામ છે. આ પ્રમાણે દેવનું પણ એક નામ મન્દર છે. અને બીજું નામ મેરું છે. એથી અહીં એ નામમાં નામાન્તરની કલ્પનાથી બીજા દેવને સદભાવ માન જોઈએ નહિ. અથવા આ સંબંધમાં નિર્ણય બહુશ્રુ 1 ગમ્ય છે. આ પર્વત અતીવ રમણીય છે. જેના મનને આકૃષ્ટ કરનાર છે. એથી આનું ત્રીજું નામ મરમ એવું Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे त्वेन च मनः प्रसादकं दर्शनं वीक्षणं यस्य स तथा ४, पञ्चमं नामाह-'सयंपभे' स्वयं प्रभःस्वयम् आत्मना सूर्यादिप्रकाशनिरपेक्षतया प्रभाति प्रकाशत इति स्वयम्प्रभः 'य' च, चशब्दः सपुच्चयार्थकः५, षष्ठं नामाह-'गिरिराय' गिरिराजः-गिरीणां पर्वतानां राजा इतिगिरिराजः, तत्वं चोच्चत्वेन जिनजन्मोत्सवाभिषेकशिलाश्रयत्वेन च बोध्यम् ६, सप्तमं नामाह- रयणोच्चय' रत्नोच्चयः-रत्नानि अङ्कादीनि बहुविधानि उच्चीयन्ते-उत्कर्षणोपचीयन्तेऽत्रेति रत्नोच्चयः ७, अष्टमं नामाह-'सिलोच्चय' शिलोच्चयः-शिलाः पाण्डुशिलादयः उच्चीयनते-शिखरे समहियन्तेऽत्रेति शिलोच्चयः, यद्वा शिलाभिरुच्चीयत इति शिलोच्चयः ८, नवमं नामार-'मज्झे लोगस्स' मध्यो लोकस्य-लोकस्य-भुवनस्य मध्यः सर्वलोकमध्यस्थलत्यात, ननु अत्र लोकशब्देन चतुर्दशरज्जुलक्षणो लोको व्याख्यातुषुचितः, धर्मादिलोकमध्यंमनःप्रसादक इसका दर्शन होने से इसका चतुर्थ नाम सुदर्शन ऐसा कहा गया है सूर्यादिक के प्रकाश की आवश्यकता यह अपने प्रकाशित करने में नहीं रखता है-किन्तु यह स्वयं ही प्रकाशित होता रहता है इस कारण इसे 'स्वयंप्रकाश' इस नामान्तर वाच्य कहा गया है जिन जन्मोत्सव जिस पर होता है ऐसी शिला का आधार होने से तथा यह अपनी ऊचाई में सब पर्वतों का शिर मोर है इस कारण से इसे पर्वतों का राजा मान लिया गया है अतः इसका नाम गिरिराज कहा गया है इस में अङ्क आदि अनेक प्रकार के रत्न उत्पन्न होते रहते हैं या उनका ढगला वहां पड़ा रहता है इस कारण रत्नोच्चय ऐसा इसका सातवां नामान्तर कहा गया है पांडुकशिला आदि के ऊपर भी इसका सद्भाव रहता है इस कारण इसका नाम शिलोच्चय कहा गया है समस्त लोक के मध्य का यह एक स्थलभूत है इस कारण इसे मध्यलोक नाम से अभिहित किया गया है કહેવામાં આવેલું છે. આ પર્વત જબુનદમય કહેવામાં આવે છે તથા રત્ન બહલ પ્રગટ કરવામાં આવે છે. એથી મનઃ પ્રસાદક એનું દર્શન દેવા બદલ એનું ચોથું નામ સુદર્શન એવું કહેવામાં આવેલું છે. પ્રકાશિત થવા માટે અને સૂર્યાદિકના પ્રકાશની આવશ્યકતા રહેતી નથી પરંતુ આ પતે જ પ્રકાશિત હોય છે એ કારણથી આને “યંપ્રકાશ એ નામાન્તરથી સંબંધિત કરવામાં આવેલ છે. જિન જન્મોત્સવ જેની ઉપર થાય છે એવી શિલાને એ આહાર લેવાથી તથા એ પોતાની ઊ ચાઈમાં બધા પર્વતને શિરોમણિ છે. એથી આને પીતોને રાજા માનવામાં આવેલ છે. એથી જ આને ગિરિરાજ કહેવામાં આવેલ છે. એમાં અંક વગેરે અનેક પ્રકારના રત્નો ઉત્પન્ન થતાં રહે છે અથવા એ રને હગલે ત્યાં પડી રહે છે. એ કારણથી રત્નશ્ચય આનું સાતમું નામાન્તર છે. પાંડુક શિલા વગેરેની ઉપર પણ આને સદ્દભાવ રહે છે એથી એનું નામ શિલેશ્ચય કહેવામાં આવેલું છે. સમરસ લેકના મધ્ય ભાગનો એ રથલભૂત છે. એથી આને મધ્યલેક એવા નામથી અભિહિત કરવામાં આવેલ છે. એટલે કે સમસ્ત લેકના મધ્યમાં આ પર્વત આવેલ છે. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् ५०३ धर्मादीनां-धर्मा-प्रथमनरक भूमिः साऽऽदिर्यासां ता धर्मादयः तासां लोकमध्यम् 'योजनासंख्यकोटिभिः-योजनानामसंख्याताभिः कोटिभिः अतिक्रान्ताभिः सद्भिर्भवति' इत्यर्थकात् 'धम्माई लोगमज्झं जोयण असंखकोडीहि' इति वचनात्, परन्तु सोर्थो मेरौ न घटते, यदि च लोकशब्देन अष्टादशशतयोजनप्रमाणोच्चत्त्व स्तियरलोको गृह्यत तथापि तस्य चतुदेशरजावेवान्तावात्पृथगायासो विफलः स्यात्, ततो मेरुः कथं लोकमध्यवर्तीति चेत् श्रूयताम्अत्र लोकशब्देन लियग्लोके तियग्भागस्य स्थालाकारैकरज्जुप्रमाणायामविष्कम्भस्य स्वीकारोऽस्ति तस्यैव मध्य:-मध्यवर्ती मेरुरिति सर्वमपदातम् ९, दममं नामाह-'णानी य' नाभिश्चअर्थात् समस्त लोक के मध्य में यह पर्वत बतलाया गया है इससे इसे लोक मध्य ऐसा कह दिया गया है। शंका-लोक शब्द से यहां १४ राजू प्रमाण लोक व्याख्यातव्य होना चाहिये क्योकि "धम्माइ लोकमज्झं जोयण अरसंखकोडीहिं" एसा अन्यत्र कहा गया है सो इस लोक का मध्य तो इस रूमभूतल से रत्नप्रभा पृथिवी से असंख्यात योजन कोटियां जब अतिक्रान्त हो जाती हैं तब आता है ऐसे उस मध्य में सुमेरु का सद्भाव तो कहा नहीं गया है, अतः लोक मध्यरूप से इसका नामान्तर कथन बाधित होता है यदि कहा जावे कि यहां लोक शब्द से तिर्यग्लोक गृहीत हुआ है-सों यह तिर्यग्लोक १८ हजार योजन का ऊंचा कहा गया है-ऐसे इस तिर्थग्लोक का अन्तर्भाव तो इस १४ राजू प्रमाणलोक में ही हो जाता है फिर इसकी अपेक्षा लेकर लोक मध्य की कल्पना करना विफल ही है अतः मेरू में नामान्तर करने के लिये "लोकमध्य” नामकी सफलता कैसे हो सकती है ? सो किसीकी ऐसी यह शङ्का है अतः उसके समा. धान निमित्त कहा जाता है कि लोक शब्द से यहां स्थल के आकार भूत तथा એથી આને લેકમધ્ય’ એવા નામથી અભિહિત કરવામાં આવેલ છે. શંકા-લેક શબ્દથી અહીં ૧૪ રાજુ પ્રમાણુ લેક ચા-પાતરા હવે જોઈએ. કેમકે 'घम्माइ लोकमज्झं जोयण अस्संखकोडीहिं' से सन्य स्थणे ४वामा माछ તે આ લેકને મધ્ય ભાગ તે આ સમ ભૂતળથી રત્નપ્ર માં પૃથિવીથી આગળ અસંખ્યાત જન કેટીઓ જ્યારે અતિકાન થઈ જાય છે ત્યારે આવે છે, એવા તે મદ ભાગમાં સુમેરનો સદુભાવ તો કહેવામાં આવેલ નથી, એથી લેક મધ્ય રૂપથી એનું નામાન્તર કથન બાધિત થાય છે. જે કહેવામાં આવે કે અહીં લેક શબ્દથી તિર્યશ્લોક ગૃહીત થયેલ છે. તે આ તિર્થક ૧૮ હજાર જન જેટલો ઉંચો કહેવામાં આવેલું છે. એવા આ તિર્યશ્લેકને, અન્તર્ભાવ તે આ ૧૪ ચૌદ જ પ્રમાણ લેકમાં જ થઈ જાય છે. તે પછી એની અપેક્ષાએ લેક मध्यनी ४६५ना ४२वी व्यथ छ. मेथी भरमा नामान्तर ४२वा माटे “लोकमध्य" नामनी સફલતા કેવી રીતે સંભવી શકે તેમ છે? આમ કઈ શંકા ઉઠાવી શકે. એથી આ શંકાના Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे लोकस्य नाभिरित्यर्थः लोकस्येत्यस्य देवलीदीपन्यायेन पूर्वापरपदार्थाभ्यामन्वयाद, च समु. च्चयार्थकः १०, एकादशं नामाह-'अच्छे य' अच्छश्च निर्मलश्च जाम्बूनदरत्नबहुल त्वात् ११, द्वादशं नामाह-'मरियावत्ते' सूर्यावर्त्तः-सूर्यपदम् उपलक्षणाच्चन्द्रादिज्योतिषामपि ग्राहकं तेन सूर्येश्चन्द्रादिभिश्चावृत्यते प्रदक्षिणीक्रियत इति सूर्यावर्त्तः सूर्यचन्द्रादि प्रदक्षिणी क्रियमाण इत्यर्थः १२, त्रयोदशं नामाह-'सूरियावरणे' सूर्यावरणः सूय:-चन्द्रग्रहनक्षत्रादिभिश्चेत्यर्थः, सूर्यपदस्योपलक्षणत्वात्, आवियते वेष्टयत इति सूर्यावरणः सूर्यादिवेष्टयमानः, अत्र बाहुलकात् कर्मणि ल्युट् प्रत्ययो बोध्यः १३, 'इतिय' इति च-इति शब्दः समाप्तौ स च प्रकृते नाम समाप्तौ बोध्यः, चः प्राग्वत्, चतुर्दशं नामाह-'उत्तमे' उत्तमः पर्वतेपु श्रेष्ठः सकल१ राजू प्रमाण आयाम विष्कम्भ वाला तिर्थग्लोक संबन्धी तिर्यग्भाव विवक्षित हुआ है ऐसे लोक के मध्य में यह सुमेरु पर्वत स्थित है इस कारण इसे लोकमध्यवर्ती कहा गया है दशवां नाम इसका लोकनाभि है लोक शब्द यह देहली दीपकन्याय से लोक और अलोक के साथ संबंधित हो जाता है इस तरह लोक और अलोक का यह मध्यवर्ती है अतः लोकनाभि ऐसा इसका नाम दशवां कहा गया हैं 'अच्छेय ११ सूरियावत्ते, १२ सूरिआवरणे १३ ति । उत्तमे १४ अ दिसादीअ १५ वडेंसेति १६ अ सोलसे ॥२॥ अच्छ निर्मल यह इसका ११ वां नाम है क्यों कि यह जाम्बूनद और रत्न बहुल है इस कारण इसका ऐसा नाम रखा गया है । सूर्यावर्त यह इसका १२ वां नाम है क्यों कि इसकी सूर्य और उपलक्षण से ग्रहीत चन्द्रादिक प्रदक्षिणा किया करते हैं। सूर्यावरण यह इसका १३ वा नाम है क्यों कि इसे सूर्य और चन्द्र आदि परिवेष्टित किये रहते हैं यहां "बाहुलकातू" सूत्र से कर्म में ल्युट प्रत्यय हुआ है "उत्तम" સમાધાનમાં કહી શકાય કે અહીં લેક શબ્દથી સ્થળના આકારભૂત તથા ૧ ૨ાજ પ્રમાણ આયામ–વિષ્કલવાળે તિર્થક સંબંધી તિર્યભાવ વિવક્ષિત થયેલ છે. એવા લેકના મધ્યમાં આ સુમેરુ પર્વત અવસ્થિત છે. એની આ પર્વતને લેક મધ્યવર્તી કહેવામાં આવેલ छ. २॥ परतनु शभु नाम नलि छे. सो४ स 'देहलो-दीपक न्याय' थी લેક અને અલેક અનેથી સંબંધિત થઈ જાય છે. આ પ્રમાણે આ લેક અને અલેકના भध्यक्ती स्थाने गावा छे. मेथी 'लोकनाभि' समानुश नाम वामां मावे छ. 'अच्छेय ११, सूरियावत्त १२, सूरिआवरणे १३ , ति अ। उत्तमे १४ अ दिसादि अ १५, वडें सेति १६ अ सोलसे ॥ २ ॥' १८७-निज, ये अनुयाभु नाम छ. म मा જબુનદ રત્ન બહુલ છે. એથી આનું એવું નામ પ્રસિદ્ધ થયું છે. સૂર્યાવર્ત એ એનું બારમું નામ છે, કેમકે એની સૂર્ય અને ઉપલક્ષણથી ગ્રાંત ચન્દ્રાદિક પ્રદક્ષિણા કરતા રહે છે. સૂર્યાવરણ આ એનું તેરમું નામ છે. કેમકે આને સૂર્ય અને ચન્દ્ર વગેરે પરિવેષ્ટિત ४२१२ २९ छे. मही 'बाहुलक त्' सूत्री मां स्युर् प्रत्यय येतो छ. उत्तम, मा એનું ૧૪મું નામ છે. એનું કારણ આ પ્રમાણે છે કે બીજા જેટલા પર્વતે છે તેમની Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४२ मन्दरस्य षोडशनामनिरूपणम् गिरितोऽप्यधिकतुङ्गलात् 'य' च-चशब्दः प्राग्वत् १४, पञ्चदशं नामाह-'दिगादी य' दिगादिः च-दिशां-पूर्वादीनाम् आदिः प्रभवः उत्पत्तिस्थानम्, तथाहि-रुचकार्वताद् दिशा विदिशां चोत्पत्तिः, रुचकस्याष्टप्रदेशात्मकस्य मेरुपर्वतान्तर्गतत्वाद्रुचकवन्मेरुरपि प्राधान्येन दिगादिरुच्यते १५, षोडशं नामाह-वडेंसे' अवतंसः पर्वतानां मुकुटायमानः प्रधानत्वात् १६, 'य सोलसे' च पोडश चशब्दः प्राग्वत् इति षोडशसंख्यकानि मन्दरनामानि कचितु षोडशः-पोडशानां पूरण इत्याह । ____ अथ पूर्वोक्तस्य मन्दरेति प्रधाननाम्नोऽन्वर्थतां वर्णयितुमुपक्रमते 'से केणटेणं भंते " इत्यादि-चतुर्थसूत्रोक्तपद्मघरवेदिकावद् बोध्यम् तत्र स्त्रीत्वेन निर्देशः अत्र पुंस्त्वेनेति विशेषः, तथा-पद्मवरवेदिकानाम तत्र, अत्र तु मन्दरेति नाम अन्यत्सर्व समानमिति ।।सू० ४२॥ यह इसका १४ वां नाम है इसका कारण यह है कि यह अन्य जितने भी पर्वत है उनकी अपेक्षा बटुत ऊंचा है अतः उनमें यह श्रेष्ठ गिना गया है दिगादि यह इसका १५ वां नाम है क्यों की पूर्वादि दिशाओं की उत्पत्ति का यही आदि कारण है रुचक से दिशाओं की और विदिशाओं की उत्पत्ति होती है यह रुचक अष्ट प्रदेशात्मक होता है और मेरु के अन्तर्गत माना गया हैं अतः मेरु से दिशाओं की उत्पत्ति होती है ऐसा मानलिया जाता है और इसी से मेरु को दिगादि कह दिया गया है । अवतंस यह इसका १६ वां नाम है अवतंस नाम मुकुट का है समस्त पर्वतों के बीच में यह मुकुट के जैसा गिना गया है इसलिये इसे “अवतंस" के रूप में इस नामान्तर द्वारा प्रकट किया गया है इस प्रकार से ये मेरु के १६ नाम हैं। ____'से केणढे णं भंते ! पुच्चइ मंदरे पव्वए' हे भदन्त ! इसका मन्दर पर्वत ऐसा नाम आपने किस कारण से कहा है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा? मंदरे पव्वए मंदरे णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिइए, से तेणઅપેક્ષાએ અતીવ ઊંચો છે, એથી તે સર્વમાં આ પર્વત શ્રેષ્ઠ ગણવામાં આવે છે. દિગદિ આ પ્રમાણેનું આ પર્વતનું પંદરમું નામ છે. કેમકે પૂર્વ દિશાઓની ઉત્પત્તિનું એજ આદિ કરણ છે. રુચકથી દિશાઓની અને વિદિશાઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. આ ટુચક અષ્ટ પ્રદેશાત્મક હોય છે, અને મેરુની અંદર એની ગણના થાય છે. એથી મેરૂથી દિશાઓની ઉત્પત્તિ થાય છે. એવું માની લેવામાં આવે છે અને એથી જ મેરુને દિગાદિ કહેવામાં આવેલ છે. “અવતં” આ એનું સેળયું નામ છે. અવતંસ મુકુટનું નામ છે. સમસ્ત પર્વતના મધ્ય સ્થાનમાં આને મુકુટ જેવો માનવામાં આવેલ છે, એથી જ આને અવતંસના રૂપમાં નામાન્તરથી સંબંધિત કરવામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે આ મેરુના ૧૬ નામો થયા. _ 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ मंदरे पव्यए' 3 महत! म पर्वतर्नु भन्।२ मे नाम मा५श्री ॥ ४॥२४थी ४ह्यु छ ? सेना पसभा प्रभु ४डे ठे-'गोयमा ! मंदरे पव्वए णामं देवे परिवसइ महिद्धीए जाव पलिओवमट्ठिए, से तेणद्वेणं गोयमा ! पवं वुच्चइ मंदरे Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे . पूर्व महाविदेहा वर्णिता इदानी महाविदेहक्षेत्रतः परतः स्थितं नीलबनामकवर्षधरपर्वत घणेयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि। . मूलमू-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ?, गोयमा ! महाविदेहस्स बासस्स उत्तरेणं रमनगवासस्स दक्खिणेणं पुरथिमिल्ललवणसमुदस्स पचत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं एत्थ एवं जंबुद्दीवे दीवे गीलवंते णा वासहरपश्वए पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीपदाहिणवित्थिपणे णिसहवत्तत्रया णीलवंतस्स भाणियव्वा, णवरं जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं एत्थ णं केसरिदहो, दाहिणेणं सीया महाणई पवूढा समाणी उत्तरकुरुं एज्जेमाणी २ जमगवए णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावयमालवलदहे य दुहा विभयमाणी२ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेसाणी२ भदसालवणं एउजे. माणी२ मंदरं पव्वयं दोहिं जोयोहिं असं मला पुरथिमाभिमुही आवत्ता समाणी अहे मालवंतवाखारपवयं दालइत्ती मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पुव्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी २ एगमे गाओ चक्कट्रिविजयाओ अट्ठावीसाए२ सलिलासहस्से हिं आपूरेमाणी २ पंचहिं सलिलासहस्सेहिं तीसाए य सलिलासहस्से हिं समग्गा टेणं गोयमा ! एवं युच्चड मंदरे पव्वर २ अदुत्तरं लंचेवत्ति' हे गौतम! मन्दर पर्वत पर मन्दर नाशका देव रहता है यह महर्दिक आदि विशेषणों वाला है तथा एक पल्योपम की इसकी स्थिति है अतः इसका नाम मन्दर पर्वत ऐसा कहा है अथवा इसका ऐसा यह नाम अनादि निधा है भूतकाल में यह ऐसा ही था वर्तमान में भी यह ऐसा ही है और आगे भी यह ऐसा ही रहेगा विशेष रूप से जानने के लिये चतुर्थ सूत्रोक्त पनवर वेदिका के वर्णन को देखें वहां जितने विशेषण कहे गये है उन्हें यहां पुलिङ्ग में परिवर्तित कर लगा लेना चाहिए॥४२॥ पव्वए २ अदुत्तरं तं चैवत्ति' गौतम ! भन्४२ पर्वत ७५२ नन्द२ ३ २ छ. તે મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણ વાળો છે. તથા એક પરમ જેટલી ની સ્થિતિ છે. એથી આનું નામ મન્દર પર્વત એવું કહેવામાં આવેલું છે. અથવા આનું આવું નામ અનાદિ નિષ્પન્ન છે. ભૂતકાળમાં આ નામ એવું જ હતું, વર્તમાનકાં પણ આ નામ એવું જ છે અને ભવિષ્યમાં પણ આ નામ એવું જ રહેશે. વિશેષ રૂપમાં જાણવા માટે ચતુર્થ સૂક્ત પાવર વેદિકાના વર્ણનને વાંચી લેવું જોઈએ. ત્યાં જેટલા વિશેષણો કહેવામાં આવેલા છે, તેમને અહી પુલિંગમાં પરિવર્તિત કરીને લગાડવા જોઈએ. જે ૪૨ | Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ မှဝယ် १ काकाशि टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नाम कवर्षधरपर्वत निरूपणम् अहे विजयस्स दारस्स जगई दालयित्ता पुरत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पे असतं चेति । एवं पारिकता वि उत्तराभिमुही णेयव्वा णवरमितं णाणतं गंधाव्यं जोयणेणं असंपत्ता पञ्चत्थाभिमुही आवता समाणी अवसितं तं चेत्र पद य मुहे य जहा हरिकंता सलिला इति । गीलवंते णं भंते । वासहरए कइ कूडा पण्णत्ता ?, गोषमा ! णत्र कूडा पण्णत्ता, तं जहा- सिद्धाययणकूडे०, सिद्धे१ णीले२ पुव्वविदेसीया २४ कित्ति५ णारी य६ । अदरविदेहे७ रम्मगकूडे ८ उपदंसणे चैव ९ ॥ १॥ सव्वे एए कूडा पंचसइया रायहाणीउ उत्तरेणं । से के भंते! एवं बुञ्चइ - णीलवंते वासहरपत्रए १२ गोयमा ! णीले पीलोमासे णीलरंते य इत्थदेवे महिद्धीए जाव परिवसs सव्व वेरुलियामए पीलर्वते जाव णिच्चेति । सू० ४३ ॥ छाया -का सल भइन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान् नाम वर्षधर पर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! महाविदेहस्य वर्षस्य उत्तरेण रम्पकवर्षस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खल जम्बूद्वीपे द्वीपे नीलवान् नाम वर्षधर पर्वतः प्रज्ञप्तः प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीन दक्षिणस्तिं र्णः निषधवक्तव्यता नीलवतो भणितच्या नवर जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण अत्र खल केसरिहूदः, दक्षिणेन शीता महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरकुरून् इयती २ यमकपर्वत नीलबदुत्तरकुरु चन्द्रैरावतमाल्यवद्धृदान् द्विधा विभजमाना २ चतुरशीत्या सलिलासहस्रैरापूर्यमाणा २ भद्रशालवनमिर्ती २ मन्दरं पर्वतं द्वाभ्यां योजनाभ्यामसम्प्राप्ता पौरस्त्याभिमुखी आवृत्ता सती अघो माल्यवद्वक्षस्कारपर्वतं दारथित्वा मन्दरस्य पर्वतस्य पौरस्त्येन पूर्वविदेहवर्ष द्विधा विभजमाना २ एकैकस्माच्चक्रवर्तिविजयादष्टाविंशत्या २ सलिलासह सैरापूर्यमाणा २ पञ्चभिः सलिलासह त्रैर्द्वात्रिंशता च सलिलासहस्रैः समग्रा अघो विजयस्य द्वारस्य जगतीं दारयित्वा पौरस्त्येन लवणसमुद्रं समाप्नोति, अवशिष्टं तदेवेति । एवं नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी नेतव्या नवरमिदं नानात्वं गन्धापातिवृत्तवैताढ्य पर्वतं योजनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी आवृत्ता सती अवशिष्टं तदेव प्रवहे च मुखे च यथा हरिकान्ता सलिला इति । नीलवदि खलु भदन्त ! पर्वते कतिकूटानि प्रज्ञतानि ?, गौतम ! नत्र कूटानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - सिद्धायतनकूटम् ०, सिद्धं १ नीलं २ पूर्वविदेहं ३ शीताव ४ कीर्ति ५ नारी च ६ । अपरविदेहं ७ रम्यककूटम् ८ उपदर्शनं चैव ९ ॥ १ ॥ सर्वाण्येतानि कूटानि पञ्चशतिकानि राजधान्य उत्तरेण । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- नीलवान वर्षधरपर्वतः २ १, गौतम ! नीलो नीलावभासो नीलवांश्चात्र देवो महद्धिको यावत् परिवसति सर्ववैडूर्यमयः नीलवान यावद् नित्य इति । ०४३ ॥ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ____टीका-'कहि णं भंते !' इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे' जम्बूद्वीपे-जम्बूद्वीपाभिधे 'दीवे' द्वीपे ‘णीलवंते णाम' नीलवान नाम 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वतः ‘पणत्ते' प्रज्ञप्तः इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'महाविदेहस्स' महाविदेहस्य 'वासस्स' वर्षस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'रम्मगवासस्स' रम्यकवर्षस्य महाविदेहेभ्यः परतः स्थितस्य युगलिकमनुष्याश्रितस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'पुरथिमिल्ललवणसमुदस्स' पौरस्त्यलत्रणसमुद्रस्य-पूर्वदिग्भवलवणसमुद्रस्य 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे ‘णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'णीलवंते णाम' नीलवान् नाम 'वासहरपव्वए' वर्षेधरपर्वतः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः ? इति जिज्ञासायामाह'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीचीनायतः पूर्वपश्चिमदिशोदीर्घः, तथा 'उदीणदाहिणविस्थिण्णे' महाविदेह क्षेत्र से आगे के नीलवान वर्षधर पर्वत की वक्तव्यता'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णीलवंत णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' इत्यादि । टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कहिणं भंते ! जंषु. दीवे दीवे णीलवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जंबूद्वीप नाम के द्वीप में नीलवान् नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है 'गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मवासस्स दक्खिणेणं पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चस्थिमेणं पच्चस्थिमलवण समुदस्स पुरस्थि. मेणं एत्थर्ण जंधुद्दीवे दीवेणीलवंते णामं वासहरपव्यए पण्णत्ते' हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र की उत्तर दिशा में तथा रम्यक क्षेत्र की दक्षिण दिशा में एवं पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिम दिशा में और पश्चिम दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में जंबूद्वीप नाम के द्वीप में नीलवान् नामका वर्षधर पर्वत कहा गया है 'पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' यह वर्षधर पर्वत पूर्व से મહાવિદેહ ક્ષેત્રની આગળના નીલવાન વર્ષધર પર્વતની વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे णीलवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' इत्यादि टी -20 सूत्र 3 गौतमवामी प्रभुने मानतना प्रश्न छ है-'कहि णं भंते ! जंबुहीवे दीवे ण लवंते णामं वासहरपब्बए पण्णत्ते' मत! स मुद्री५ नाम दीपमा નીલવાન્ નામે વર્ષધર પર્વત કયા સ્થળે આવેલું છે ? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે કે'गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं रम्मगवासस्स दक्खिणेणं पुरथिमिल्ललवणसमुहस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ णीलवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' गीतम! महाविहे क्षेत्रनी उत्तर शमां तेभर २भ्य क्षेत्रनी દક્ષિણ દિશામાં અને પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમદિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં નીલવાન નામે વર્ષધર પર્વત मा छ. 'पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' मा १५२ ५'त पूथी पश्चिम Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः- उत्तरदक्षिणदिशो विस्तारयुक्तः, अयं निषधसदृश इति तद्वक्तव्यतामय सूचयति-'णिसहवत्तव्वया णीलवंतस्स भाणियव्वा' इति निषधवक्तव्यता-निषधामिधस्य पर्वतस्य या वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः साऽस्यापि नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य भणितव्यावक्तव्या, निषधादांशिकविशेष दर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं-केवलं 'जीवा' जीवा-परम आयाम: 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'घणु' धनु:-धनुष्पृष्ठम् 'उत्तेरणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'एत्थ' अत्र अत्रान्तरे 'ण' खलु 'केसरिद्दहे' केसरिह्रदः-केसरिहद नामा हृदः, अस्माद् हृदात् 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'सीया महाणई' शीतामहानदी 'पवूढा' प्रव्यूढा निःसरन्ती 'समाणी' सती 'उत्तरकुरूं' उत्तरकुरून् 'एज्जेमाणी २' इर्यती गच्छन्ती २ जम. गपधए' यमकपर्वतौ 'णीळवंतउत्तर कुरुचंदेरावयमालवंतदहे' नीलवदुत्तरकुरु चन्द्ररावतमाल्यवबृहान्-नीलबदुत्तरकुरु चन्द्ररावतमाल्यवनामधेयान् पश्चापि हृदान 'य' च 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणो २' विभजमाना२ विभक्तान् कुर्वाणा २ 'चउरासीए' चतुरशीत्या 'सलिलासहस्तेहि सलिलासहस्रः-नदीसहस्रैः 'आपूरेमाणा २' आपूर्यमाणा २ वारिभिः संभ्रियमाणार 'भदसालवणं' भद्रशालवनं-भद्रशालाभिधं मेरुगिरेवनम् 'एज्जेमाणी२' पती२ गच्छन्तीर पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक विस्तीर्ण है 'णिसहवत्त व्वया णीलवंतस्स भाणियवा' जैसी वक्तव्यता निषध वर्षधर पर्वत के सम्बन्ध में कही जा चुकी है वैसी ही वक्तव्यता इस नीलवान वर्षधर पर्वत के सम्बन्ध में कहलेनी चाहिये 'णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं घणु अवसेसं तं चेव' इसकी जीवा दक्षिण दिशा में है और धनु:पृष्ठ उत्तरदिशा में है' यही विशेषता पूर्व में कही गई निषध की वक्तव्यता से इसकी वक्तव्यता में है बाकी का और सब कथन निषध वर्षघर पर्वत की वक्तव्यता के ही जैसा है 'एत्थ णं केसरिहो, दाहिणेणं सीआ महाणई पबूढा समाणी उत्तरकुलं एज्जेमाणी २ जमगपधाएँ णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावतमालवंतहहे य दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ भद्दसालवणं एज्जेमाणो २ मंदरपवयं इस सुधा सा छ भने उत्तरथी दक्षिण सुयी विस्ती छे. 'णिसह वत्तव्वया णीलवंतस्स भाणियव्या' रेवी वतव्यता निष५ वर्ष ५२ पतन। समयमा वामां मावली छ, तकी १४तव्यता निसवान ५२ पतना समयमा ४ामा माती छे. 'णवर दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धो अवसेसं तं चेव' सनी । इक्षिष्य शाम सावली छ भने ધનુપૃષ્ઠ ઉત્તર દિશામાં આવેલું છે. પૂર્વમાં કથિત નિષધની વક્તવ્યતામાં આટલી જ વિશેपता छ. शेष मधु थन निषध घ२ पतनी त यता र १ छे. 'एत्थणं केसरिहहो, दाहिणेणं सीआ महाणई पवूढा समाणी उत्तरकुरु एज्जेमाणी २ जमगरव्यए णीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावतमालतदहेय दुहा विभयमाणी २ चउरासीए सलिलसहस्सेहि आपूरेमाणी २ भदसालवणं एज्जेमाणी २ मंदरपवयं' मा ५२ ५ ५२ श Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'मंदरं' पव्वयं' मन्दरं मेरु पर्वतं ' दोहिं जोयणेहिं' द्वाभ्यां योजनाभ्याम् 'संपत्ता' असम्प्राप्ता अस्पृशन्ती 'पुरत्थाभिमुद्दी' पौरस्त्याभिमुखी पूर्वदिगभिमुखी 'आवत्ता समाणी' आवृत्तापरावृत्ता सती ' अहे माळवंतवक्खारपव्वयं' अधो माल्यवद्वक्षस्कारपर्वतं माल्यवन्नाम कवक्षस्कारपर्वतम् अधः-अधस्तन प्रदेशावच्छेदेन 'दाल इत्ता' दारयित्वा - विदीर्ण कृत्वा 'मंदरस्स पव्त्रयस्स' मन्दरस्य पर्वतस्य मेरुगिरे: 'पुरस्थि मेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि ' पुच्चविदेहवासं ' पूर्व विदेहवर्ष - पूर्वविदेह नामकं वर्ष 'दुहा' द्विधा 'विभयमाणी २' विभजमाना २ विभक्तं कुर्वाणा २ ' एगमेगाओ' एकैकस्मात् - प्रत्येकस्मात् 'चक्कवट्टिविजयाओ' चक्रवर्तिविजयात् 'अट्ठावीसाए २' अष्टाविंशत्या २ 'सलिलास हस्सेहिं' सकिलासहस्रैः 'आपूरेमाणी २' आपूर्यमाणा २ संश्रियमाणा २ 'पंचहि' पञ्चभिः 'सलिलास हस्सेहिं' सलिला सहस्रैः - नदीसह त्रैः 'बत्तीसार य' द्वात्रिंशता च 'सलिलास हस्सेहि' सलिलासहस्रैः नदोसहस्रैः 'समग्गा' समग्रा वर्षधर पर्वत पर केशरी नामका द्रह है इसके दक्षिण तोरण द्वार से शीता महानदी निकली है और उत्तरकुरु में वहती २ यमक पर्वतों को तथा नीलवान् उत्तरकुरु, चन्द्र ऐरावत् और माल्यवान् इन पांच द्रहों को विभक्त करती २ चौरासी हजार नदियों से संयुक्त होकर भद्रशालवन की ओर जाती है और वहां से होकर बहती हुई वह महानदी मंदर पर्वत को 'दोहिं जो हि असंपत्ता पुरस्थाभिमुही आवत्ता समाणी अहे मालवंतत्र खारपच्वयं दालयित्ता मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं पुत्र्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी २' दो योजन दूर छोडकर पूर्वाभिमुख होकर लौटती है और नीचे की ओर से माल्यवान वक्षस्कार पर्वत को छोडकर वह मंदर पर्वत की पूर्वदिशा से होकर पूर्वविदेहावास को दो रूप से विभक्त कर देती है 'एगमेगाओ चक्कवहि विजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी २ पंचहिं सलिलासहस्सेहिं समबत्तीसाए य सलिलालहस्सेहिं समग्गा आहे विजयस्स दारस्स जगई दालहत्ता पुरत्थिमेणं કહે છે. એના દક્ષિણ તારણ દ્વારથી શીતા મહાદી નીકળી છે. ક્ષુને ઉત્તર કુરુમાં પ્રવાહિત થતી યમક પતા તેમજ નીલવાન્ ઉત્તર કુરુ, ચન્દ્ર, અરાવત અને માયવાન્ એ પાંચ દ્નહેાને વિભક્ત કુરતી-કરતી ૮૪ હ૪૨ નદીએથી સયુક્ત થઇને આગળ પ્રવાહિત थती ते भानही भन्दर पर्वतने 'दोहि जोयणेहिं असंपत्ता पुरस्थामिमुही आवत्ता समाणी अक्खापव्त्रयं दालयित्ता मंदरस्स पन्त्रयस्स पुरात्थमेगं पुब्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी २' मे योजन र भूहीने पूर्वाल थाने पछी इरे छे अने नीयेनी तर માર્થ્યવાન વક્ષસ્કાર પંતને મૂકીને તે અન્દર પર્વતની પૂર્વ દિશા તરફ થઈને, પૂર્વ વિદેહ वासने मे लागोभां विलरी नाथे छे. 'एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए २ सलिला सहरसेहिं आपूरेमाणी २ पंचहि सलिला सहस्सेहि समबत्ती जाए य सलिला सहसेहिं समग्गा अहे विजयत्स दारस्स जगदं दालइत्ता पुरात्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेद्द' पछी Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् सम्पूर्णा 'अहे विजयस्स दारस्स' अधो विजयस्य द्वारस्य विजयाख्यद्वारस्याधः प्रदेशे 'जगई' जगतीं पृथ्वीं 'दालइत्ता' दारयित्वा-विदीर्णां कृत्वा 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वेण पूर्वदिशि 'लवणसमुई-लवणसमुद्रं 'समप्पेई' समाप्नोति-समुपैति 'अवसिटुं' अवशिष्टं प्रवहविस्तार गभीरत्वादिकम् 'तं चेवत्ति । तदेव-निषधगिरिनिःसृतशीतोदा महानदी प्रकरणोक्तमेव बोध्यम्, अथास्मादेव नीलवत् पर्वतादुत्तरदिशि प्रवहन्तीं नारीकान्तां नदीमतिदिशति- एवं णारिकता वि' एवम् अनन्तरोक्तप्रकारेण नारीकान्ताऽपि नारीकान्तानाम्नी नद्यपि "उत्तराभिमही' उत्तरामिमुखी 'णेयव्वा' नेतव्या-ग्राह्या, अयमाशयः-यथा नीलवति वर्षधरभूधरेऽवस्थितात केसरिहदाच्छीता महानदी दक्षिणाभिमुखी निःसृता तथा नारीकान्ताऽपि नदी उत्तराभिमुखी निर्गता, ननु समानवर्णकत्वेनास्याः समुद्रप्रवेशोऽपि शीता महानदीवत् सम्भाव्ये तेत्याशङ्का लवणसमुदं साप्पेह' फिर वहां से वह एक २ चक्रवर्ति विजय से २८-२८ हजार नदियों द्वारा भरती हुइ कुल पांच लाख ३२ हजार नदियों से युक्त होकर वह विजय हार को जगती को नीचे से विदारित कर पूर्वदिशा की ओर वर्तमान लवणसमुद्र पद में प्रवेश करती है ५ लाख ३२ हजार नदियों की संख्या इसी सूत्र में आगे कही जायगी वहां से देखना चाहिये। 'अवसिटुं तं चेव' इसके अतिरिक्त और सब कथन-प्रवह विस्तार-गंभीरता-गहराई आदि का कथन, निषध पर्वत से निर्गत शीतोदानदी के प्रकरण में कहे-अनुसार ही समझना चाहिये ‘एवं णारिकंता वि उत्तराभिमुही णेयव्वा' इसी नीलवान् पर्वत से नारीकान्ता नानकी नदी भी उत्तराभिमुखी होकर निकली है तात्पर्य ऐसा है कि नीलवान पर्वत के ऊपर अवस्थित केशरी हद से जैसी शीता महानदी दक्षिणाभिमुखी होकर निकली है उसी प्रकार से यह नारीकान्ता नामकी महानदी भी उत्तराभिमुखी होकर निकली है-शंका-शीता और नारीकान्ता महानदी का वर्णक जब समान है तो इसका समुद्र प्रवेश भी शीता महानदी के ही जैसा होता होगा? तो इस आशंका को निरस्त करने के लिये सूत्रकार ત્યાંથી એક-એક ચકવર્તી વિજયમાંથી ૨૮–૨૮ હજાર નદીઓ વડે સપૂરિત થઈને કુલ પ૩૨૦૦૦ નદીએથી યુક્ત થઈને તે વિજય દ્વારની જગતીને નીચેથી વિદીર્ણ કરીને પૂર્વ દિશા તરફ વર્તન લવણ સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે છે. પ૩૨૦૦૦ નદીઓની સંખ્યા વિશે मा ४ामा माशे शासुमे त्यांथी गणी सयु 'अवसिटुं तं चेव' सेना સિવાય શેષ કાઠું કથન-પ્રવહ-વિસ્તાર, ગંભીરતા વગેરેનું કથન-નિષધ પર્વતમાંથી નિર્ગત शीतानहीन प्र भु सभ सेवुन. 'एवं णारिकता वि उत्तराभिमुही णेयव्वा' એ જ નીલવાન પર્વતમાંથી નાસી કાન્તા નામે નદી પણ ઉત્તરાભિમુખી થઈને નીકળે છે. તાત્પય' આ પ્રમાણે છે કે નીલવાન પર્વતની ઉપર અવસ્થિત કેશરી હદથી જે પ્રમાણે શીતા મહાનદ્દ દક્ષિણાભિમુખ થઈને નીકળી છે તે જ પ્રમાણે નારીકાન્તા મહાનદી પણ ઉત્તરાભિમુખ થઈને નીકળી છે. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रतिक दुरीकर्तुमाह-'णवरमिम' नवरमिदम् केवलम् इदम् बक्ष्यमाणं 'णाणत्तं' नानात्वं भेदः, एतदेव दर्शपति-'गंधावइवष्ट वेयद्धपव्ययं' गन्धापातिकृत्तवैताढयपर्वतं 'जोयणेणं' योजनेन 'असंपत्ता' असम्प्राप्ता-अस्पृष्टवती 'पञ्चत्थाभिमुही' पश्चिमाभिमुखी 'आवत्ता' समाणी' सती इत्यादि 'अवसिटुं' अवशिष्टं रम्यकवर्षस्य द्वैधीकरणादिकम् 'तं चेव' तदेव हरिकान्तानदी प्रकरणोक्तः मेष बोध्यम् तद्यथा-'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसहुई समप्पेई' एतन्छाया-रम्यकवर्ष द्विधा विभजमामा २ षट्पश्चाशता सलिलासहस्रैः समग्रा अधो जगतीं वारयित्वा पश्चिमेन लवणसमुद्रं समाप्नोति इति, अस्य व्याख्या छायागम्या, अत्रावशिष्टपदसइन्ग्रहे प्रवहमुख विस्तारादि न विवक्षितं, समुद्रप्रवेशपर्यन्तस्यैव पाठस्य तत्प्रकरणे दृष्टत्वात् , अतस्तत्पृथगेवाह-'पवहे य मुहे य जहा हरिकंता सलिला इति । प्रवहे निर्गमस्थाने च मुखे समुद्रप्रवेशे च यथा-येन प्रकारेण हरिकान्ता सलिला हरिकान्तानाम्नी नदी वर्णिता तथेयमपि वर्णनीयेति, तथाहिकहते हैं-'णवरमिमं गाणतं गंधावइववेअद्धपव्ययं जोयणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुही आवत्ता समाणी अवसिढे तंचेव पवहे य मुहे य जहा हरिकता सलिला इति' हे गौतम ! इसका समुद्र प्रवेश नारीकान्ता महानदी के जैसा नहीं होता है किन्तु यह गंधापाति जो वृत्तवैताढय पर्वत है उसे १ योजन दूर छोड देती है और पश्चिमदिशा की और मुड जाती है यहाँ से आगे का और सब कथन जैसे-रम्थक वर्ष को विभक्त करना आदिरूप कथन-हरिकान्ता नदि के प्रकरण में कहे गये अनुसार ही है इस सम्बन्ध में आलापक इस प्रकार से है-'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्चस्थिमेणं लवणसमुहं समप्पेई' यहां अवशिष्ट पद संग्रह में प्रवहमुख व्यास आदि का जो विचार नहीं किया गया है उसका कारण आलाप का समुद्र प्रवेश तक ही मिलना है अतः इसी से सूत्रकारने "प्रवहे च मुखे च શંકા-શીતા અને નારીકાન્તા મહાનદીના વર્ણક જ્યારે સમાન છે તે પછી આનો સમુદ્ર પ્રવેશ પણ શીતા મહાનદી જે જ થતું હશે ? તે આ શંકાના સમાધાન માટે सूबा२ ४१ छ है ‘णवरमिमं णाणत्तं गंधावइवट्टवेअद्धपव्वयं जोयणेणं असंपत्ता पच्च. त्थाभिमुही आवत्ता समाणी अवसिटुं तं चेव पवहेय मुहेय जहा हरिकंता सलिला इति' डे ગૌતમ! આનો સમુદ્ર પ્રવેશ નારીકાન્તા મહાનદી જેવું નથી. પરંતુ આ ગંધાપતિ જે વૃતવેતાઢય પર્વત છે, તેને ૧ પેજન દૂર મૂકી છે અને પશ્ચિમ દિશા તરફ વળી જાય છે. અહીંથી આગળનું બધું કથન-જેમકે રમ્યક વર્ષને બે ભાગમાં વિભાજિત કરે વગેરે રૂપ કથન હરિકાના નદીના પ્રકરણમાં કહ્યા મુજબ જ છે. આ સંબંધમાં આલાપક આ प्रभार छ. 'रम्मगवासं दुहा विभयमाणी २ छापण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पच्छत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेई' मी शेष ५४ सडमा प्रवड भुम, વ્યાસ વગેરેના સંબંધમાં વિચાર કરવામાં આવ્યું નથી, તેનું કારણ આલાપનું સમુદ્ર प्रवेश सुधी । भन्छ . येथी। सूत्रधारे 'प्रवहे च मुखे च हरिकान्ता सलिला lain Education Intematon . Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् प्रबहे पञ्चविंशतियोजनानि विष्कम्भेण अर्द्धयोजनमुद्वेधेन मुखे-सार्द्ध द्विशती योजनानि विष्कम्भेण पञ्चयोजनान्युद्वेधेनेति, अत्र प्रवह खयोहेरिसलिल दृष्टान्ते वक्तव्ये हरिकान्ता दृष्टान्तोक्तिः समानवर्णकत्वात्तयोहरिसलिलाप्रकरणेऽपि हरिकान्तातिदेशसूचनार्था । अथास्मिन्नीलवद्विरौ कूटानि वर्णयितुमुपक्रमते-'णीलवंतेणं भंते !' इत्यादि-नीलपति खलु भदन्त ! 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वते 'कइ' कति 'क्टानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि, अस्य प्रश्नस्योत्तरं हरिकान्ता सलिला" ऐसा स्वतन्त्र रूप से सूत्र का प्रतिपादन किया गया है। इसके द्वारा यह समझाया गया है कि जिस प्रकार से हरिकान्ता नदी के प्रवह आदि के सम्बन्ध में पहिले वर्णन किया गया है वैसा ही वर्णन वह आदि के सम्बन्ध में इस महानदी का भी करलेना चाहिये । तथा च यह नदी प्रवह में विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की है एवं उद्वेध की अपेक्षा अर्द्ध योजन की है मुख में यह २५० योजन की विष्कम्भ की अपेक्षा है और उद्वेध की अपेक्षा ५ योजन की है यहाँ यद्यपि प्रवह में हरि महानदी का दृष्टान्त वक्तव्य था पर जो हरिकान्ता महानदी का दृष्टान्त दिया गया है वह इन दोनों के समान वर्णक होने की अपेक्षा से दिया गया है तथा हरिनदी के प्रकरण में भी हरिकान्ता को दृष्टातरूप कहलेना चाहिये इस बात की सूचना के निमित्त है। इस नीलवान् पर्वत के ऊपर के कूटों की वक्तव्यता गौतमने इस नीलवान् वर्षधरपर्वत के कूटों को जानने के निमित्त प्रभु से ऐसा पूछा है-'णीलवंते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! नीलवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर कितने कूट कहे गये है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं સ્વત 2 રૂપમાં પ્રતિપાદન કર્યું છે. એના વડે એ સમજાવવામાં આવ્યું છે કે જેમ હરિકાન્તા નદીના પ્રવાહ વગેરેના સંબંધમાં પહેલાં વર્ણન કરવામાં આવ્યું છે, તેવું જ વર્ણન પ્રવાહ વગેરેના સંબંધમાં આ મહાનદી વિશે પણ કરી લેવું જોઈએ, તથા આ નદી પ્રવહમાં વિષ્કભની અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન જેટલી છે. તેમજ ઉદ્ધધની અપેક્ષાએ અર્ધ જન જેટલી છે. મુખમાં આ નદી ૨૫૦ જન વિધ્વંભની અપેક્ષા છે, અને ઉધની અપેક્ષાએ ૫ યોજન જેટલી છે. અહીં જે કે પ્રવાહમાં હરિ મહાનદીનું દટાન્ત આપવાનું હતું પણ જે હરિકાન્તા મહાનદીનું દષ્ટાન્ત આપવામાં આવ્યું છે તેની પાછળ આ કારણ છે કે એ બને સમાન વક ધરાવે છે. તેમજ હરિ નદીના પ્રકરણમાં પણ હરિકાન્તાને દષ્ટાન રૂપમાં ગણવી જોઈએ. એ વાત એનાથી સૂચિત થાય છે. આ નીલવાન પર્વત ઉપરના ફૂટેની વક્તવ્યતા ગૌતમ સ્વામીએ આ નીલવાન વર્ષધર પર્વતના ફૂટે વિશે જાણવા માટે પ્રભુને प्रश्न यो 'णीलवंतेणं भंते ! वासहरसब्बए कइ कूडा पग्णत्त' 8 मत ! नीसवान १५२ पति उ५२ साटो मावा छ ? अनाममा प्रभुई छ-'गोयम । णव ज० ६५ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भगवानाह - 'गोमा !' गौरम ! 'णव' नव 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा 'सिद्धाययणकूडे ' सिद्धायतनकूटम् एतच्च पूर्वस्यां दिशि समुद्र समीपवर्ति इत्यादीनि नवकूटानि सङ्ग्रहीतुं गाथामुपन्यस्यति 'सिद्धे १' इत्यादि सिद्धम्, अत्र नामैकदेशग्रहणान महणमिति सिद्धपदेन सिद्धायतनकूटं ग्राह्यम्, एवमग्रेऽपि ततः परं 'णीले २' नीलं नीलवत् कूटम् - नीलवतः नीलवन्नामक वक्षस्कारभूधरस्य नीलवन्नामक देवस्य कूटमित्यर्थः २ 'पुब्वविदेहे ३' पूर्वविदे - पूर्वविदेहवर्षावधिकूटम् ३ 'सीया ४' शीता- शीतादेवीकूटम् ४ 'य' च-चकारः सपुच्चयार्थकः 'कित्ति ५' कीर्तिः केसरिहूदाधिष्ठात्री देवी तस्याः कूटं निवासभूतम् ५ 'णारी ६' नारी - नारीकान्ता नदीदेवी कूटम् ६ 'य' च चकारः प्राग्वत् 'अवरविदेहे ७' अपर विदेहम् अपरविदेहवधिकूटम् ७ 'रम्मगकूडे ८' रम्यककूटं - रम्यक क्षेत्राधिपकूटसूट, 'उवदंसणे ९ उपदर्शनम् एतन्नामकं कूटं चैव चशब्दः प्राग्वत् एव निर्धारणे ९ || १ || 'सव्वे एए कूडा' सर्वाणि निःशेषाणि एतानि नोलवद्भिरिवर्तीनि नवापि कूटानि हिमवत्कूटानीव पंवसइया' पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजन प्रमाणानि वाच्यानि एतद्वक्तव्य'गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! नीलवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर नौ कूट कहे गये हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं- 'सिद्धायपणकूडे ' १ सिद्धायतनकूर यह कूट पूर्व दिशा में समुद्र के पास में है, अवशिष्ट कूटों की यह संग्रह गाथा है - 'सिद्धेणिले, पुत्रविदेहे, सीआ य कित्ति णारी अ. अवरविदेहे रम्मगकूडे, उवदंसणेचेच' नीलवत्कूट २ यह कूट नीलवान् नामक वक्षस्कार पर्वत का जो नीलवान् देव है उसका है । पूर्वविदेह ३ - यह कूट पूर्वविदेह क्षेत्र के अधिपति का है । सीताकूट ४ - यह कूट सीतादेवी का है । कीर्तिकूट ५ यह कूट केशरि हूद की अधिष्ठात्री देवी का है, नारीकूट६ यह कूट नारी कान्तानदी देवी का है । अपरविदेह कूट ७ यह कूट अपरविदेह क्षेत्र के अधिपति का है । रम्यककूट८ यह कूट रम्यक क्षेत्र के अधिपति का है । और उपदर्शन कूट ९- 'सव्वे एए कूडा पंच सइआ रायहाणीउ उत्तरेणं' ये सब कूट हिमवत्कूटों की तरह पांचसौ योजन के हैं अतः कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! नीतवान् ! वर्षधर पर्वत पर नव छूटी आवे छे. 'तं जहा ' ईटोना नाभो या प्रमाणे छे - 'सिद्धाययणकूडे ' १ सिद्धायतन छूट. आा छूट पूर्व दिशामां समुद्रनी पासे छे. शेष छूटोनी या संग्रह गाथा - 'सिद्धेणिले, पुब्वविदेहे, सीआय कित्ति णारी अ० अवरविदेहे रम्गकूडे उत्रदंसणे चेव' नीसवट २, आ छूट नीतवान् नाम વક્ષકાર પર્વતનો જે નીલવોન્ દેવ છે, તેનો આ ફૂટ છે. પૂર્વાં વિદેહ ૩-આ ફૂટ પૂ विढेडु क्षेत्रना अधियतिनो छे. सीता - ४, आई सीतादेवीनो छे. डीर्तिईट-4, म ફૂટ કેશર હદની અધિષ્ઠાત્રી દેવીનો છે. નારો ફૂટ-૬-આ કૂટ નારીકાન્તા નદી દેવીનો છે. અપવિદેહ કૂટ આ ફૂટ અપર વિદેહ ક્ષેત્રના અધિપતિનો છે २भ्य४८, ८-मा टूट २४ क्षेत्रमा अधियतिनो छे भने उपदर्शन 'सव्वे एए कूडा पंचसइआ - Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् ताऽपि हिमत्र कूटानामिव बोध्या, एषां 'रायहाणीउ' राजधान्यः-वक्ष्यमाणनीलवन्नामकदेवस्य निवसतयः 'उत्तरेणं' उत्तरेण मेरुत उत्तरस्यां दिशि बोध्याः, अथास्य नीलवदिति नामकारणं पृच्छति--से के गढेणं भंते !' अथ केन अर्थेन-कारणेन भदन्त ! 'एवं बुच्चई' एवमुच्चते नीलबदित्याकारकं नाम व्यवहियते एतदेव स्पष्टयतिणीलवंते वासहरपब्वए२' नीलवान् वर्षधर पर्वतो नीलवान् वर्षधरपर्वतः इति प्रश्नस्योत्तरं भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! अयं नीलवान् पर्वतः ‘णीले' नीलः नीलवर्गः 'गोलोभासे' नीठावभास अवमास नवमासः, नीलोऽवभासः प्रकाशो यस्य स नीलावभासः, यद्वा-नीलमवभासयतीति नीलावभासः नीलप्रकाशः, स्वा सनमन्यदपि वस्तु नीलवर्णमयं करोति तेन नीलवर्णयोगाद् नीलवानित्युच्यते, अथास्याधिपमाह-'णीलवंते य इत्थ देवे' नीलवांश्चात्र देवः परिक्सतीत्यग्रिमेण सम्बन्धः, स च कीदृशः? इत्याह-'महिद्धीए जाव परिवसइ' महद्धिको यावत् परिवसति अत्र यावत्पदेन-"महाद्युतिकः, इनके सम्बन्ध की वक्तव्यता भी हिमवत्कूट के जैसी हो जाननी चाहिये नीलवान् नामक देवकी एवं कूटों के अधिपतियों की राजधानियां मेरु की उत्तरदिशा में जाननी चाहिये । 'से केणट्टेणं भंते ! एवं बच्चइ णीलवंते वासहरपव्वए? हे भदन्त ! ऐसा आपने इस पर्वत का नाम "नीलवान् पर्वत" क्यों कहा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णीले णीलोभासे णीलवंते अ इस्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवंते जाव णिच्चेति' हे गौतम ! जो चतुर्थ नीलवान् गिरि है वह नीलवर्ण वाला है और इसीसे इसका प्रकाश नीला होता है यह अपने पास में रही हुई अन्य वस्तुओं को भी नीलवर्णमय करदेना है अतः नीलवर्ण योग से इसे 'नीलवान' ऐसा कहा गया है। इस पर्वत का अधिपति नीलवान् देव है, वह यहां पर रहता है यह महर्द्धिक देव है यावत् एक पल्योपम की इसकी आयु है यहां यावत्पद से 'महागुतिकः, महाबलः, महारायहाणी उ उत्तरेणं' से माटो भिवत् छूटनी रेभ ५०० यो रेटमा छ. मेथी એમના વિશેની વક્તવ્યતા પણ હિમવલૂટ જેવી જ સમજવી જોઈએ. નીલવાન નામક દેવીની અને કટોના અધિપતિએની રાજધાનીએ મેરની ઉત્તર દિશામાં આવેલી છે. જે केगदेण भंते! एवं वच्चइ णीलवंते वासहरपव्वए २'हुमत! मा५श्रीस मा पतनु नाम 'नीसवान् ५' मे ॥ ४।२४थी ४यु छ ? सेना मा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! णीले णीलोभासे णीलयंते अ इत्थ देवे महिद्धीए जाव परिवसइ सव्ववेरुलियामए णीलवन्ते जाव णिच्चेति' गौतम ! ये रे यायो नीसवान् ५ त छ, ते नासवाण छ. मन એથી જ એને પ્રકાશ નીલવર્ણનો હોય છે. એ પિતાની નજીક પડેલી બીજી વસ્તુઓને પણ નીલવર્ણ મય કરી નાખે છે. એથી નીલવર્ણના વેગથી આને “નીલવાન ” નામથી સંબોધવામાં આવેલ છે. આ પર્વતને અધિપતિ નીલવાન્ દેવ છે. તે અહીં રહે છે. આ મહદ્ધિક દેવ છે. યાવત્ એક પલ્યોપમ જેટલું એનું આયુષ્ય છે. અહીં યાવત્ પદથી Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः” इत्येषां सङग्रहो बोध्यः, एषां महद्धिकादिपदानां व्याख्याऽष्टमसूत्रस्थ विजयद्वाराधिपविजयदेवप्रकरणा बोध्या, एतादृशो नोलबनाम देवः परिवसति, तेन तद्योगादपि गिरिरयं नीलबानित्युच्यते यद्वा-सव्ववेरुलियामए' सर्ववैडूर्यमयः-सर्वात्मना वैडूर्यरत्नमयः, तेन वैडूर्यरत्नसमानार्थक नीलमणियोगानीलः, शेषं प्राग्वत् । ___अथास्य शाश्वतत्वाशाश्वतत्वे पृच्छति-'णीलवंते जाव णिच्चेति' नीलवान् यावनित्य इति अत्रेदं सूत्रं बोध्यं तथाहि-“अदुत्तरं च णं गोयमा ! णीलतेति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते णीलवंते णं भंते ! किं सासए असासए ?, गोयमा ! सिय सासए सिय असासए, से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ?, गोमाया ! दवट्ठयाए सासए वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहि असासर, से तेणढेणं एवं बुच्चई सिय सासर सिय असासए । णीलवंतेणं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ?, गोयमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सइ यशाः, महासौख्यः, महानुभावः” इन पदों का संग्रह हुआ है इन पदों की व्याख्या जानने के लिये अष्टप्न सूत्रस्थ विजय द्वाराधिप विजयदेव का प्रकरण देखना चाहिये' इस कारण हे गौतम ! मैंने इस वर्षधर का नाम "नीलवान्" ऐसा कहा है अथवा यह पर्वत सर्वात्मना वैडूर्यरत्नमय है-इसलिये वैडूर्यरत्न समानार्थक नीलमणि के योग से इसे नीलवान् कहा गया है। यह नीलवान् पर्वत यावत् नित्य है । इसके पहिले यहां “अदुत्तरं च णं गोयमा ! णीलवंते ति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते। णीलवंते णं भंते ! किं सासए असासए ? गोयमा ! सासए सिय असासए, से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा! दबट्टयाए सासए, वण्णपजवेहिं गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं, असासए से तेण टेणं एवं वुच्चइ सिय सासए, सिय असासए णीलवंतेणं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भवि'महाद्युतिकः महाबलः, महायशाः महासौरख्या, महानुभावः' को ५४। सडीत या छे. से પદની વ્યાખ્યા જાણવા માટે અષ્ટમ સૂત્ર વિજય દ્વારાધિપ વિજયદેવનું પ્રકરણ જેવું જોઈ એ એથી હે ગૌતમ! મેં આ વર્ષધરનું નામ “નીલવાન' એવું કહ્યું છે. અથવા આ પર્વત સર્વાત્મના વૈડૂર્ય રત્નમય છે એથી વિડૂર્ય રત્ન સમાનાર્થક નીલ મણિના વેગથી આને નીલવાન કહેવામાં આવે છે. આ નીલવાન પર્વત યાવત્ નિત્ય છે. એની પૂર્વે मही 'अदुत्तरं च णं गोयमा ! णीलवंतेति सासए णामधिज्जे पण्णत्ते ! णीलवंते णं भंते ! कि सासए असासए ? गोयमा ! सिय सासए सिय असासर से केणटेणं सिय सासए सिय असासए ? गोयमा ! दवट्ठयाए सासए, ६ण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहिं फासपज्जवेहि असासए से तेणद्वेग एवं वुच्चइ सिय सासए, सिय असासए । णीलतेणं भंते ! कालओ केबच्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयाई णासी ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुवि च भवइय भविस्स Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सु. ४४ रम्यकवर्ष निरूपणम् ५१७ विच भवइय भविस्सइय धुवे यिए सासए अक्खए अव्वए अवट्टिए णिच्चे" इति अस्य व्याख्या चतुर्थसूत्रटीकातो बोध्या, चतुर्थसूत्रे पद्मवरवेदिका प्रसङ्गात्स्त्रीत्वेन व्याख्यातम् अत्र पुंस्त्वेन व्याख्येयमिति स्वयमूहनीयम् । अन्यत् सर्वं समानमेव बोध्यम् ॥ सू० ४३ ॥ अथ पञ्चमं रम्यकाभिधं वर्ष वर्णयितुमुपक्रमते - “ कहि णं भंते !" इत्यादि । मूलम् - कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! नीलवंतस्स उत्तरेणं रुप्पिस्स दक्खिणेणं पुरत्थिमलवणसमु दस्त पच्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं एवं जह चेव हरि - वासं तह चेव रम्मयं वासं भाणियव्वं, णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणुं अवसेसं तं चैव । कहि णं भंते ! रम्मए वासे गंधावई णामं वहdestore पण्णत्ते ?, गोयमा ! णरकंताए पच्चत्थिमेणं णारीकंताए पुरत्थिमेणं रम्गवासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं गंधावई णामं वहवेद्वे पव्व पण्णत्ते, जं चेत्र वियडावइस्स तं चेत्र गंधावइस्स वि वत्तवं, अट्ठो बहवे उप्पलाई जाव गंधावई णामं गंधावइप्पसाई पउमे य इत्थ देवे महिद्धीए जान पलिओ महिईए, रायहाणी उत्तरेणंति । से केणणं भंते ! एवं वृच्चइ रम्मए वासे २ १, गोयमा ! रम्मगवासे णं रम्मे रम्मए रमणिज्जे रम्मए य इत्थ देवे जाब परिवसइ, से तेणट्टेणं । कहि णं भंते ! जंबुदीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा | रम्गवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवासस्स दक्खिणेणं पुरस्थि स्सइ, भुविं च भवइ य भविस्सइ य धुवे णियए सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे" इस सूत्र की व्याख्या चतुर्थ सूत्र की टीका से जाननी चाहिये ये पद वहां पद्मवर वेदिका के विशेषगभूत होने से स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त हुए हैं और यहां पर पुलिङ्गरूप नीलवन्त के विशेषणभूत होने से पुल्लिङ्ग में प्रयुक्त किये गये हैं । अवशिष्ट और सब कथन समान ही है ॥ ४३ ॥ इय धुवे यिए सास अक्खर अत्रए अवट्ठिए णिच्चे' या सूत्रनी व्याभ्या यतुर्थ सूत्रनी ટકામાંથી વાંચી લેવી જોઇએ. એ પદે ત્યાં પદ્મવર વેદિકાના વિશેષણાના રૂપમાં પ્રયુક્ત થયા છે તેથી ત્યાં એમના પ્રયાગ સ્રી લિંગમાં કરવામાં આવેલ છે. વન્તના વિશેષણ ભૂત હાવાથી પુલિંગમાં પ્રયુક્ત થયેલા છે. શેષ અહીં' એ પદ નીલ બધુ કથન સમાન ४ . ॥ सूत्र-४३ ॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मलवणसमुदस्स पञ्च्चत्थिमेणं पञ्च्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीर्णदाहिणवित्थपणे, एवं जा चेव महाहिमवंत वक्तव्वया सा चेव रुप्पिस वि, णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं घणु अवसेसं तं चेत्र महा पुंडरीए दहे परकंता नई दक्खिणेणं णेयव्वा जहा रोहिया पुरत्थिमेणं गच्छइ, रुपकूला उत्तरेणं णेयव्वा जहा हरिकंता पच्चत्थिमेणं गच्छइ, अत्रसेसं तं चेत्रत्ति | रुपिमि णं भंते । वासहर पठाए कइकूडा पण्णत्ता ?, गोयमा ! अडकूडा पण्णत्ता, तं जहा- सिद्धे १ रुप्पी २ रम्ग ३ णरकंता ४ बुद्धि ५ रुपकूला य ६ । हेरण्णवय ७ मणिकंचण ८ अट्ठय रुपिनि कूडाई ॥ ॥ सव्वे वि पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेणं । से केणणं भंते । एवं वृच्चइ रुप्पी वासहरपञ्चए २१, गोयमा ! रुप्पी णं वासहरपव्वए रुप्पी रूप्पपट्टे रुप्पोभासे सव्वरुप्पामए रूप्पी यॅ इत्थ देवे पलिओमट्टिईए परिवसइ, ते एएणणं गोयमा ! एवं बुच्चइति । कहि णं भंते ! जंबुदोत्रे दीवे हेरण्णवए णामं वासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! रुप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्त दक्खिणं पुरत्थि लक्ष्णसमुहस्स पञ्चस्थिमेणं पञ्चत्थिमलवण समुद्दस्त पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते, एवं जह चेत्र हेनवयं तह चेत्र हेरण्णवपि भाणि - यव्वं, णवरं जीवा दाहिणेणं उत्तरेणं धणुं अवसिद्धं तं चेत्ति | कहि णं भंते! हेरण्णवए वासे मालवंत परियाए णामं वट्टवेयद्ध पव्व पण्णत्ते ?, गोयमा ! सुवण्णकूलाए पच्चत्थिमेणं रूप्पकूलाए पुरस्थिमेणं एत्थ णं हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्झदेसभाए मालवंत परियाए णामं वट्टवेयद्धे पण्णत्ते जह चेत्र सदावई तह चेत्र मालवंत परियाए वि, अट्ठो उप्पलाई पउमाई मालवंतप्पभाई मालवंतवण्णाई मालवंतवण्णाभाई पभासे य इत्थ देवे महिद्धीए जात्र पलिओ मट्ठिईए परिवसइ, से एएणट्टें०, रायहाणी उत्तरेणंति । से केणणं भंते! एवं बुच्चइ - हेरपणवए वासे २१, 1 ५१८ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् गोयमा ! हेरगवए णं वासे रुप्पीसिहरीहि वासहरसव एहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हिरणं दलई णिच्चं हिरणं मुंबइ णिच्चं हिरणं पगासइ हेरण्णवए य इत्थ देवे परिवसइ से एएगट्टेणंति ।। ___ कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपत्रए पपणत्ते ? गोयमा ? हेरगणवयस्स उत्तरेणं एरावयस्त दाहिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिरेणं पञ्चस्थिमलवणसमुदस्त पुरथिमेणं, एवं जह चेव चुल्लहिमवंतो तह चेव सिहरी वि, णवरं जीवा दाहिणेणं धउत्तरेणं अवसिटुं तं चेत्र पुंडरीए दहे सुबण्णकूला महाणई दारिणेणं णेयव्वा जहा रोहियंसा पुरथिमेणं गच्छइ, एवं जह चेव गंगासिंधू मो तह चेत्र रत्तारत्तवईओ णेयव्वाको पुरस्थिमेणं रत्ता पचत्थिमेणं रत्तवई अवसिटुं तं चेव (अवसेसं भाणियव्वंति) सिहरिम्निणं भंते वासहरपव्वए कई कूडा पण्णत्ता ?, गोयमा ! इक्कारसकूडा पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धाययणकूडे १ सिहरिकूडे २ हेरपणवयकूडे ३ सुवण्णकलाकूडे ४ सुरादेवीकूडे ५ रत्ताकूडे ६ लच्छीकूडे ७ रत्तवईकूडे ८ इलादेवीकूडे ९ एरवयकूडे १० तिगिच्छिकूडे ११ एवं सव्वे वि कूडा पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेणं । से केणटेंशं भंते ! एवमुच्चइ-सिहरिवासहरपव्यए २ ?, गोयना! सिहरिमि वालहरपत्रए बहवे कूडा सिहरि संठाणसं ठेया सवयणामया सिहरी य इत्थ देवे जाव परिवसइ, से तेणष्टेणं ___ कहि गं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एरावए गामं वासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलवणसमुद्दस्त दक्षिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्त पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुदस्त पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पाणत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले एवं जा चेव भरहस्त बत्तव्यया सा चेव सवा निरवसा णेयवा सओअवणाय सणिक्खमणा सपरिनिव्वाणा णवरं एराओ चकाट्टी एराव ओ देवो, से तेगटेणं एरावए वासे २ ॥सू० ४४॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. जम्बूद्वीपप्रशसिसूने छाया-क खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे रम्यकं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! नीलवत उत्तरेण रुक्मिणो दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन एवं यथैव हरिव तथैव रम्यकं वर्षे भणितव्यं, नवरं दक्षिणेन जीवा उत्तरेण धनुः अवशेष तदेव । क्व खलु भदन्त ! रम्यके वर्षे गन्धापाती नाम वृत्तवैतादयपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! नरकान्तायाः पश्चिमेन नारीकान्तायाः पौरस्त्ये न रम्यकवर्षस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र खलु गन्धापाती नाम वृत्तवैताढयः पर्वतः प्रज्ञप्तः, यदेव विकटापातिनस्तदेव गन्धापातिनोऽपि वक्तव्यम् , अर्थों बहूनि उत्पलानि यावद् गन्धापातिवर्णानि गन्धापातिप्रभाणि पद्मश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, राजधानी उत्तरेणेति अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रम्य वर्षम् २ ?, गौतम ! रम्यकवर्षे खलु रम्यं रम्यकं रमणीयं रम्यकश्चात्र देवो यावत् परिवसति, तत् तेनार्थेन । क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मीनाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञसः ?, गौतम ! रम्यवर्षस्य उत्तरेण हेरण्यवतवर्षस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे रुक्मी नाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः प्राचीनप्रतीचीनायतः उदीचीनदक्षिण विस्तीर्णः, एवं यैव महाहिमवद्वक्तव्यता सैव रुक्मिणोऽपि, नवरं दक्षिणेन जीवा उत्तरेण धणुः अवशेषं तदेव महापुण्डरीको हृदः नरकान्ता नदी दक्षिणेन नेतव्या यथा रोहिता पौरस्त्येन गच्छति, रूप्यकूला उत्तरेण नेतव्या यथा हरिकान्ता पश्चिमेन गच्छति, अवशेषं तदवेति । रुक्मिणि खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते कतिकूटानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! अष्ट कूटानि प्रक्षप्तानि, तद्यथा-सिद्धं १ रुक्मि २ रम्यकं ३ नरकान्ता ४ बुद्धि ५ रुप्यकूला ६ च । हैरण्यवतं ७. मणिकाञ्चन ८ मष्ट च रुक्मिणि कटानि ॥१॥ सर्वाण्यपि एतानि पञ्चशतिकानि, राजधान्य उत्तरेण । अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-रुक्मी वर्षधरपर्वतः २१, गौतम ! रुक्मी खलु वर्षधरपर्वतः रुक्मी रूप्यपट्टः रूप्यावभासः सर्वरूप्यमयः रुक्मीचात्र देवः यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स तेनार्थेन गौतम ! एवमुच्यत इति । का खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे हैरण्यवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! रुक्मिण उत्तरेण शिस्वारिणो दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे हैरण्यवतं वर्ष प्रज्ञप्तम्, एवं यथैव हैमवतं तथैव हैरण्यवतमपि भणितव्यम्, नवरं जीवा दक्षिणेन उत्तरेण धनुः अपशिष्टं तदेवेति । क्व खलु भदन्त ! हैरण्यवते वर्षे माल्यवत्पर्यायो नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! सुवर्णकूलायाः पश्चिमेन रूप्यकूलायाः पौरस्त्येन अत्र खलु हैरण्यवतस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागे माल्यवत् पर्यायो नाम वृत्तवैताढयः प्रज्ञप्तः यथैव शब्दापाती तथैव माल्यवत्पर्यायोऽपि, अर्थ उत्पलानि पद्मानि माल्यवत्प्रभाणि माल्यवद्वर्णानि माल्यवद्वर्णाभानि प्रभासश्चात्र देवो महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स एतेनार्थन०, राजधानी उत्तरेणेति । अथकेनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-हैरण्यवतं वर्षम् २ ?, गौतम ! हैरण्यवतं खलु वर्ष रुक्मि शिखरिभ्यां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातः समुपगूढं नित्यं हिरण्यं ददाति नित्यं हिरण्यं मुश्चति नित्यं Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् हिरण्यं प्रकाशयति हैरण्यवतश्चात्र देवः परिवसति स एतेनार्थेनेति । क्य खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे शिखरीनाम वर्षधरपर्वतः प्रज्ञप्तः ?, गौतम ! हैरण्यवतस्य उत्तरेण ऐरावतस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पश्चिमलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, एवं यथैव क्षुद्रहिमवान् तथैव शिखर्यपि नवरं जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण अवशिष्टं तदेव पुण्डरीको हदः सुवर्णकूला महानदी दक्षिणेन नेतव्या यथा रोहितांशा पौरस्त्येन गच्छति, एवं यथैव गङ्गासिन्धू तथैव रक्तारक्तवत्यौ नेतव्ये, पौरस्त्पेन रत्ता पश्चिमेन रक्तावती अवशिष्टं तदेव, 'अवशेष भणितव्यमिति'। शिखरिणि खलु भदन्त ! वर्षधरपर्वते कति कूटानि प्रज्ञतानि, गौतम ! एकादश कूटानि प्रज्ञप्तानि ? तद्यथा-सिद्धायतन कूटं ? शिखरिकूटं २ हैरण्यवतकूटं ३ सुवर्णकूलाकूटं ४ सुरादेवीकूटं ५ रक्ताकूटं ६ लक्ष्मीकूटं ७ रक्तावतीकूटम् ८ इलादेवीकूटम् ९ ऐरावतकूटं १० तिगिच्छिकूटम् ११, एवं सर्वाण्यपि कूटानि पञ्चशतिकानि राजधान्य उतरेण । अथ केनार्थेन भदन्त ! एक्युच्यते शिखरि वर्षधरपर्वतः २१, गौतम ! शिखरिणि वर्षधरप बहूनि कूटानि शिखरिसंस्थानसंस्थितानि सर्वरत्नमयानि शिखरी चात्र देवो यावत् परिवसति, स तेनार्थेन । वव खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे ऐरावतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् ?, गौतम ! शिखरिण उत्तरेण उत्तरलवण समुद्रस्य दक्षिणेन पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पश्चिमेन पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पौरस्त्येन, अत्र खलु जम्बूद्वीपे द्वीपे एरावतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तम् , स्थाणुबहुलं कण्टकबहुलम् एवं यैव भरतस्य वक्तव्यता सैव सर्वा निरवशेषा नेतव्या ससाधना सनिष्क्रमणा सपरिनिर्वाणा नवरमैरावतश्चक्रवर्ती ऐरावतो देवः, स तेनार्थेन ऐरावतं वर्षम् २ ॥सू० ३४॥ टीका-"कहिणं भंते ! जंबुद्दीवेर" इत्यादि-क्व खलु भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे 'रम्मएणाम' रम्यकं नाम 'वासे' वर्ष 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम्, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'णीलवंतस्स' नीलवतः पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'रुप्पिस्स' रुक्मिणः रम्यकक्षेत्रवक्तव्यता- 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते' इत्यादि । टीकार्थ-गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है- 'कहि णं भंते ! जंबूद्दीवे २ रम्मए णामं वासे पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में रम्यक नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! णीलवंतस्स उत्तरेणं रुप्पिस्स दखिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स રમ્યક ક્ષેત્ર વક્તવ્યતા 'कहि णं भंते ! जंगुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते ? इत्यादि' टी -गौतमे प्रसुन मा सूत्र 43 प्रश्न ४ छ -'कहिणं भंते ! जंबूहीवे २ रम्मए णामं वासे पण्णत्ते महत! मा दीप नाम दीपभा २भ्य नामे क्षेत्र ४या स्थने यावेयु छ. सेना वाममा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! णीलवंतस्स उत्तरेणं रुपिस्स दक्खिणेणं Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अग्रे वक्ष्यमाणस्य तन्नामकस्य वर्षधरपर्वतस्य 'दक्षिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'पुरथिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य पूर्वदिग्वति लवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'पच्चिस्थिमलवणसमुदस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूदिशि 'एवं' एवम् एतादृशेनाभिलापकेन 'जहचेव' यथैव येनैव प्रकारेण 'हरिवासं' हरिवर्ष भणितं 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'रम्मयं वासं' रम्यकं वर्ष 'भाणियव्यं' भणितव्यं-वक्तव्यम् , अत्र हरिवर्षापेक्षया यो विशेपस्तं प्रदर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं केवलं 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणदिशि 'जीवा' जीवा-धनुः प्रत्यश्चाकारप्रदेशः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि ‘धणुं' धनु:-धनुष्पृष्ठम् 'अवसेसं' अवशेषम्-अवशिष्टं विष्कम्भायामादिकम् 'तं चेव' तदेव हरिवर्षप्रकरणोक्तमेव बोध्यम् । अथ पूर्व सूत्रे नारीकान्ता नदी रम्यमवर्ष गच्छन्ती गन्धापातिवृत्तवैताढयपर्वत योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी परावृत्ता सतीत्याधुक्तं तत्र गन्धापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः कुत्रास्तीति पृच्छति-'कहिणं भंते !' इत्यादि-क्य खलु भदन्त ! 'रम्मए वासे' रम्यके वर्षे 'गंधावईणाम' गन्धापाती नाम 'वट्टवेयद्धे पव्वए' वृत्तवैताढयः पर्वतः पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एवं जह चेव हरिवास तह चेव रम्मयं वासं भाणियव्वं' हे गौतम ! नीलवन्त पर्वत की उत्तरदिशा में, एवं रुक्मि पर्वत की दक्षिण दिशा में, पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में तथा पश्चिम दिग्वालवण सनुद्र को पूर्व दिशा में हरिवर्ष क्षेत्र के जैसा रम्यक क्षेत्र कहा गया है परन्तु हरिवर्ष क्षेत्र की अपेक्षा जो विशेषता है वह 'णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं त चेव' ऐसी है कि इसकी जीवा दक्षिणदिशा में है और धनुष्पृष्ठ उत्तरदिशा में है इसके सिवाय और कोइ विशेषता नहीं है सब कथन हरिवर्ष क्षेत्र के जैसा ही है 'कहिणं भंते ! रम्मए घासे गंधावईणामं वट्टवेयद्धपयए' गौतमने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! जो आपने पहिले कहा है नारीकान्ता नदी रम्यक वर्षकी ओर जाती हुई गन्धापाती वृत्त वैताढय को एक योजन दूर छोड देती है सो यह गन्धापुरथिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एवं जहचेव हरिवासं तहचेव रम्मयं वासं भाणियव्वं' 3 गौतम! नीसन्त पतनी उत्तर दिशामा तेमा ફિમ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તથા પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં હરિષ ક્ષેત્ર જેવું રમ્યફ આવેલું છે. પરંતુ रिवष क्षेत्रनी अपेक्षाये 20 मारे विशेषतः छे ते ‘णवरं दक्खिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव' मा प्रमाणे छ है अनी ॥ हक्षित हशामा छ भने धनु०४ ઉત્તર દિશામાં છે એના સિવાય બીજી કોઈ વિશેષતા નથી. શેષ બધું કથન હરિવર્ષ ક્ષેત્ર २७ ४ छे. 'कहिणं भंते ! रम्मए वासे गंधावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए' गौतम स्वामी मा सूत्र વડે પ્રભુને આ જાતને પ્રશ્ન કર્યો છે કે હે ભદન્ત ! જે આપશ્રીએ પહેલાં કહ્યું છે કે નારીકાન્તા નદી રમ્યક વર્ષ તરફ વહેતી ગન્ધાપાતી વૃત્તતાને એક જન દૂર મૂકે છે તે આ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् ५२३ 'पण्णत्त' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'णरकताए' नरकान्ताया महानद्याः पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'णारीकंताए' नारीकान्ताया नद्याः 'पुरथिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'रम्मगवासस्स' रम्यकवर्षस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेशभागे-अत्यन्तमध्यदेशभागे 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'गंधावई णाम' गन्धापाती नाम 'वट्टवेयद्ध पव्वए' वृत्तवैताढयपर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः, अस्य वर्णनं विकटापातिवृत्तवैताढयपर्वतवत् प्रदर्शयितुमाह-'जं चेव' वियडावइस्स' यदेव विकटापातिनो वर्णनं 'तं चेव' तदेव वर्णनं 'गंधावइस्सवि' गन्धापातिनोऽपि 'वत्तव्यं वक्तव्यम्, अत्र समानक्षेत्रस्थितिकत्वा. द्विकटापातिन एवातिदेशः, तेन सविस्तरनिरूपितस्यापि शब्दापातिनोऽतिदेशाभावे न क्षतिः अत्र गन्धापात्यपेक्षया यो विशेषस्तमाह-'अहो' अर्थः-वक्ष्यमाणो नामार्थः तथाहि-'बहवे' बहूनि-प्रचुराणि 'उप्पलाई उत्पलानि कुवलयानि चन्द्रविकाशीनि कमलनि 'जाव' यावत् पाती वृत्त वैताढय पर्वत रम्यम क्षेत्र में कहां पर हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! णरकताए पच्चत्थिमेणं णारीकंताए पुरस्थिमेणं रम्मगवासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं गंधावईणामं वटवेअढे पव्वए पण्णत्ते' हे गौतम ! नरकान्ता नदी की पश्चिमदिशा में एवं नारीकान्ता नदी की पूर्वदिशा में रम्यक क्षेत्र में उसके बहुमध्यभाग में यह गन्धापाती नामका वृत्तवैताढय पर्वत कहा गया है 'जं चेव वियडावइस्स तंचे व गंधावइस्स वि वत्तव्य' इसका वर्णन विकटापाति वृत्तवैताढय पर्वत के जैसा जानना चाहिये यह विकटापाति वृत्तवैताढय पर्वत हरिवर्ष क्षेत्र में स्थित कहा गया है उसकी उच्चता आदि के जैसी ही इसकी उच्चता आदि है यहां पर विस्तार रूप से निरूपित किये गये शब्दापाती वृत्तवैताढय पर्वत के अतिदेश को छोड कर जो विकटापाति पर्वत का अतिदेश किया गया है उसका कारण उन दोनों की तुल्य क्षेत्र स्थितिकता है। गन्धा ગન્ધાવાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વત રમ્યક ક્ષેત્રમાં ક્યાં સ્થળે આવેલું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ ४ छे-'गोयमा ! णरकांताए पच्चत्थिमेणं णारीकंताए पुरथिमेणं रम्मगवासस्स बहुमज्झ देसभाए एत्थणं गंधावई णामं वट्टवेअद्धे पव्वए पण्णत्ते' ३ गौतम ! न२४ता नहीनी પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ નારી કાન્તા નદીની પૂર્વ દિશામાં રમ્યક ક્ષેત્રમાં તેના બહુમધ્ય भागमा गया। नामे वृत्त वैताढय ५ मावसो छ. 'जं चेव वियडावइस्स तं चेव गंधावइस्स वि दत्तव्यं' सानु वन विटाति वृत्तवेतादय पत र or any જોઈ એ આ વિકટ પતિ વૃત્ત વિતાઢય પર્વત હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં સ્થિત છે. એની ઉચ્ચતા વગેરે જેવીજ ઉચ્ચતા તેની પણ છે. અહીં વિસ્તાર રૂપમાં નિરૂપિત કરવામાં આવેલા શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વતના અતિ દેશને બાદ કરીને જે વિકટાપાતિ પર્વતના અતિ દેશ વિશે કહેવામાં આવેલું છે તેનું કારણ એ બન્નેની તુલ્ય ક્ષેત્ર સ્થિતિકતા છે. ગળ્યા Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र यावत्पदेन--"पद्मानि कुमुदानि, नलिनानि, मुभगानि, सौगन्धिकानि, पुण्डरीकाणि, महापुण्डरीकाणि, सहस्रपत्राणि शतसहस्रपत्राणि' इत्येषां पदानां सङ्ग्रहो बोध्यः, एषामर्थों विंशतितम सूत्रव्याख्यातोऽबसे यः, तानि कीदृशानि? इत्याह-'गंधावईवण्णाई' गन्धापातिवर्णानि गन्धापातिनाम तृतीयवृत्तवैताढयपर्वतवर्णसदृशवर्णकानि 'गंधावइप्पभाई' गन्धापातिप्रभाणि गन्यापातिवृत्तवैताढयाकाराणि सर्वत्र समत्वात्, तेन तद्वर्णत्वात् तदाकारत्वाच्च गधापातीत्येवमुच्यते, अस्याधिपमाह-'पउमे य इत्थ देवे' पद्मः-पद्मनामकः च अत्र अस्मिन् रम्यकवर्षे देवः अधिपः परिवसति स च कीदृशः ? इत्याह-'महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए' महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिक:-'महर्द्धिक' इत्यारभ्य 'पल्योपमस्थितिक' इति पर्यन्तानां यावत्पदस ग्राह्यानां पदानां सङ्ग्रहोऽर्थश्चाष्टमसूत्राद्बोध्यौ, एतादृशो देवः परिवसति तेन तद्योगात्तत् स्वामिकत्वाच्च गन्धापातीत्येवमुच्यते अस्य 'रायहाणी' राजधानी राजवसतिः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि वोध्येति । - अथ रम्यकवर्पनाम कारणं वर्णयितुमाह-'से केणटेणं भंते !' अथ केन अर्थेन कारणेन पाती वृत्तवैताढय की अपेक्षा जो विशेषता है उसे 'अट्ठो बहवे उप्पलाई वाणाई गंधावईप्पभाई पउमे अ इत्थ देवे महिडिए जाब पलिओवमहिईए परिवसह' इस सूत्र द्वारा सूत्रकारने प्रकट किया है इसमें यह समझाया गया है कि यहां पर जो उत्पल आदि से लेकर शतसहस्त्र पत्र तकके कमल हैं वे सब गन्धापाति नामका जो तृतीयवृत्त वैताढय पर्वत है उसके जैसे वर्णनवाले हैं और उसके जैसी प्रभावाले हैं तथा उसका जैसा आकार है उस आकार के हैं। अतः इसका नाम गन्धापाति वृत्तवेताब्य पर्वत कहा गया है। दूसरी बात यह है कि यहां पर पद्म नामका महर्द्धिक देव रहता है इसकी स्थिति एक पल्योपम की है उत्पल से लेकर शत सहस्रपत्र तक के कमलों को जानने के लिये २० वे सूत्र की व्याख्या को तथा महर्द्धिक पद से लेकर पल्योपम स्थिति के बीच के पदों को देखने के लिये अष्ठम सूत्र को देखना चाहिये 'रायहाणी उत्तरेणंति' इस पद्म देव की राजधानी पाती वृत्त वैतादयनी अपेक्षा २ विशेषता छ, तर 'अट्ठो बहवे उप्पलाई वण्णाई गंधावईप्पभाई पउमे अ इत्य देवे महि ढिए जात्र पलिओक्मदिईर परिवसई' या सूत्र ५ सूत्रधारे પ્રકટ કરી છે. એમાં આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે અહીં જે ઉત્પલ વગેરેથી શત સહસ પત્ર સુધીના કમળો છે તે બધાં ગળ્યા પતિ નામે જે તૃતીય વૈતાઢય પર્વત છે, તેના જેવા વર્ણવાળાં છે, અને તેના જેવી પ્રભાવાળા છે તથા તેના જેવા આકારવાળા છે. એથી આનું નામ ગન્ધાપતિ વૃત વૈતાઢય પર્વત એવું કહેવામાં આવેલું છે. બીજી વાત આમ છે કે અહીં પનામે એક મહદ્ધિક દેવ રહે છે. એની સ્થિતિ એક પલ્યોપમ જેટલી છે. ઉત્પલથી માંડીને શત સહસ્ત્રપત્ર સુધીના કમળે. વિશે જાણવા માટે ૨૦ માં સૂત્રની વ્યાખ્યાને તથા મહદ્ધિક પદથી માંડીને પપમ સ્થિતિના વચ્ચે આવેલા પદને જેવા माट टम सूत्रने ने मे. 'रायहाणी उत्तरेणंति' मा ५वनी In यानी उत्तर Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४० रम्यकवर्षनिरूपणम् ५२५ भदन्त ! 'एवं बुच्चइ' एवमुच्यते 'रम्मए वासे २' रम्यकं वर्षम् २१, इति भगवानाह - 'गोयमा' गौतम ! ' रम्गवासे' रम्यकवर्ष रम्यते -क्रीडयते बहुविध कल्पवृक्षैः काञ्चनमणिमयैस्तत्तत्प्रदेशै र तिरामणीयकेन रतिविषयीक्रियत इति रम्यं तदेव रम्यकं तच्च वर्ष चेति रम्यक वर्षम् 'णं' खलु 'रम्मे रम्मए रमणिज्जे' रम्यं रम्यकं रमणीयम् एतानि त्रीण्यपि समानार्थकानि पदानि रामणीयकातिशयद्योतनार्थमुपात्तानि 'रम्मए य इत्थ देवे जाव परिवसई' रम्यकात्र देवो यावत् परिवसति अत्र यावत्पदेन महर्द्धिकादि पल्योपमस्थितिकान्तपदानां सङ्ग्र होऽष्टम सूत्राद् बोध्यः, तदर्थोऽपि तत एवावगन्तव्यः, एतादृशो देवः परिवसति तेन तद्रम्यकं तद्योगाद् रम्यक मित्येवमुच्यते । अथ रुक्मिनामकं पञ्चमं वर्षधरपर्वतं वर्णयितुमुपक्रमते'कहि णं भंते !' इत्यादिद- क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'रुपी णामं restore' cant नाम वर्षधरपर्वतः 'पण्णत्ते' : प्रज्ञप्तः, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा !' गौतम ! 'रम्पगवासस्त' रम्यकवर्षस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि 'हेरण्णवयइसकी उत्तर दिशा में है । 'से केणणं भंते ! एवं वुच्चइ रम्मए वासे २' हे भदन्त ! इस क्षेत्र का नाम 'रम्यक' ऐसा किस कारण से आपने कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! रम्मगवासेणं रम्मे रम्मए रमणिज्जे, रम्मए अ एत्थ देवे जाव परिवसइ से तेणट्टेणं' हे गौतम ! यहां पर नाना प्रकार के कल्पवृक्ष है और स्वर्णमणि खचित अनेक प्रकार के प्रदेश है इससे यह क्षेत्र रमणीय हो रहा है अतः इसी कारण इस क्षेत्र का नाम रम्यक्र ऐसा कहा गया है रम्य रम्यक रमणीयक ये एक ही अर्थ के वाचक शब्द है । दूसरी बात यह भी है कि इस रम्यक क्षेत्र में रम्यक नामका देव रहता है अतः इस महर्द्धिक देव आदि के संबन्ध से भी इसका नाम रम्यक ऐसा कहा गया है 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रुपी णावं वासहरपत्रए पण्णत्ते' अब गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में रुक्मी नामका वर्षधर पर्वत , हिशमां आवेली छे. 'से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ रम्मए वासे २' हे लहंत ! क्षेत्र' नाम '२भ्यम्' मेवु शा अरथी आपश्री धुं छे? सेना न्वामां प्रभु छे- 'गोयमा ! रम्मगवासेणं रम्मे रम्मए रमणिज्जे रम्मए अ एत्थ देवे जाव परिवसइ से तेणट्टेणं' हे ગૌતમ ! અહીં અનેક પ્રકારના કલ્પવૃક્ષે છે અને સ્વણુ મણિ ખચિત અનેક પ્રકારના પ્રદેશે છે. આથી આ ક્ષેત્ર રમણીય થઇ ગયુ છે. એટલા માટે જ આ ક્ષેત્રનું નામ રમ્યક્ એવુ પ્રસિદ્ધ થઈ ગયું છે. રમ્ય, રમ્યક, રમણીય એ ખધાં સમાનાર્થી શબ્દો છે, ખીજી વાત આ છે કે આ રમ્યક ક્ષેત્રમાં રમ્યક નામે ધ્રુવ રહે છે. એથી આ મહદ્ધિક ધ્રુવ વગેરેના समंधधी एणु या क्षेत्र नाम रम्य४ मेवु हेवामां आव्यु छे. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दी वे दीवे रुपी णामं वासहरपव्त्रए पण्णत्ते' वे गौतमे प्रभुने मा लता प्रश्न यछे ભત ! આ જમ્મૂદ્રીપ નામક દ્વીપમાં રુમી નામે વધર પ°ત ક્યા સ્થળે આવેલા છે ? Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वासस्स' हैरण्यवतवर्षस्य हैरण्यवतक्षेत्रस्य 'दक्खित्तेणं' दक्षिणेत-दक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलबणसमुद्रस्य-पूर्वलवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'पञ्चथिमलवणसमुदस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरथिमेग' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्रअत्रान्तरे 'णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे रुप्पी' रुवमी 'णाम' नाम 'वासहरपव्यए' वर्षधरपर्वतः 'पण्णते' प्रज्ञाप्तः स च 'पाईणपडीणायए' प्राचीनप्रतीची नायतः-पूर्वपश्चिमयोर्दिशो दीर्घः 'उदीणदाहिणवित्थिण्णे' उदीचीनदक्षिणविस्तीर्णः उत्तरदक्षिणयोरिंशो विस्तारयुक्तः 'एवं' एवम्-पूर्वोक्ता भिलापकानुसारेण 'जा चेव' यैव 'महाहिमवंतवत्तव्यया' महाहिमद्वक्तव्यता महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य वक्तव्यता वर्णनपद्धतिः ‘सा चेव' सैव वक्तव्यता 'रुप्पिस्स वि' रुक्मिणोऽपि अस्य वर्षधरपर्वतस्य बोध्या, अथ हिमवद्वर्षधरपर्वतापेक्षयाऽस्य यो विशेषस्तं प्रदर्शयितुमाह-'णवर' नवरं केवलं 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिण दिशि 'जीवा' जीवा धन: प्रत्यञ्चाकार प्रदेशः 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरदिशि 'घणु' धनु:-धनुप्पृष्ठम् 'अवसेसं' अवकहां पर कहा गया हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! रम्गवासस्स उत्तरेणं हेरण्णययवासस्स दक्षिणेगं पुरथिमलयणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवेदीवे रुप्पीणामं वासहरपव्वए पण्णत्तेत्ति' हे गौतम ! रम्यक क्षेत्र की उत्तरदिशा में एवं हैरण्यवत क्षेत्र की दक्षिण दिशा में, पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र की पश्चिम दिशा में तथा पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र की पूर्वदिशा में जम्बूद्वीप नामके द्वीप में रुक्मी नामका वर्षधर पर्वत कहा गया है 'पाईणगडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' यह पर्वत पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है एवं उत्तर से दक्षिण तक चौडा है 'एवं जाचेव महाहिमवंते वत्तव्वया सा चेव रुप्पिस्स वि णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तंचेव' इस तरह से जैसी वक्तव्यता महाहिमवान् पर्वत के विषय में पहिले कही जा चुकी है वैसी ही यह सब वक्तव्यता रुक्मीवर्षधर पर्वत के सम्बन्ध में भी कहलेनी चाहिये इसकी सना पासमा प्रभु ४ छ 'गोयमा ! रम्मगवासस्स उत्तरेणं हेरण्णवयवासस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एत्थ ण जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते' 3 गौतम ! २भ्य क्षेत्र उत्तर दिशामा तेभ હૈરણ્યવત ક્ષેત્રની દક્ષિણ દિશામાં પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તથા પશ્ચિમ દિગ્ગત લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં જંબૂઢીપ નામક દ્વીપમાં રુમી નામે વર્ષધર પર્વત ruaat छ. 'पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे' २0 पति पुथा पश्चिम सुधा समा छ भने उत्तरथी ६क्षि सुधी पडा। छे. 'एवं जा चेव महाहिमवंते वसव्वया सा चेव रुप्पिस वि णवरं दाहिणेणं जीवा उत्तरेणं धणु अवसेसं तं चेव' मा प्रावीत. વ્યતા મહા હિમવાનું પર્વતના વિશે પહેલાં કહેવામાં આવી છે. તેવી જ વક્તવ્યતા રફમી વર્ષધર પર્વતના સંબંધમાં પણ અહીં સમજી લેવી જોઈએ. એની જવા-પ્રત્યંચાકાર પ્રદેશ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् शेषम्-अवशिष्टं विष्कम्भायामादिकम् 'तं चेव' तदेव-महा हिमवद्वर्षधरपर्वत प्रकरणोक्तमेव रुक्मि महाहिमवतो मिथस्तुल्यत्वात्, अथ रुक्मिवर्तिनं हृदं तन्निसृत नदीचाह-'महापुंडरीए दहे' इत्यादि महापुण्डरीको हृदः महापद्मद सदृशोऽत्र ततः 'णरकता पई नरकान्ता नाम नदी रुक्मिगिरे निर्गता 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणतोरणेन निर्गत्य प्रवहन्ती 'णेयव्वा' नेतव्या बोधविषयं प्रापणीया बोध्येत्यर्थः । तत्र दृष्टान्तत्वेन नदीमुपन्यस्यति-'जहा रोहिया' यथा रोहिता नदी महाहिमतो महापद्म हूदतो दक्षिणेन निर्गता सती 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'गच्छइ' गच्छति पूर्वलवणसमुद्रं याति, तथा नरकान्ताऽपि रुक्मिणो महापुण्डरीक हृदाद् दक्षिणतोरणेन निःमृता सती पूर्वलवणसमुद्रं गच्छति रोहिता नरकान्तयो दक्षिणतोरणेन स्वस्वहूदानिःसरणं पूर्वसमुद्रगमनं च समानमिति दृष्टान्तदाष्र्टान्तिकभावः । इति नरकान्तावर्णनम् अथ रुक्मिवति महापुण्डरीक हुदानिर्गतां रूप्यकूलां नदी वर्णयितुमुपक्रते-'रुप्पकूला' रूप्यकूला नदी 'उत्तरेणं' उत्तरतोरणेन महापुण्डरीक हुदानिर्गता पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशन्ती 'णेयव्वा' नेतव्या बोध्या, अत्र दृष्टान्तत्वेन नदीमुपन्यस्यति-'जहा हरिकंता' यथा येन प्रकारेण हरिकान्ता तन्नाम्नी हरिवर्षक्षेत्रवाहिनी महानदी 'पञ्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमजीवा-प्रत्यश्चाकार प्रदेश दक्षिणदिशा में है और धनुष्पृष्ठ उत्तरदिशा में है । इस कथन के अतिरिक्त और सब कथन-विष्कम्भ एवं आयामादि का वर्णन-जैसा महाहिमवनि पर्वत का कहा गया है वैसा ही है (महापुंडरीए दहे, णरकंता नदी, दक्खिणेणं णेयव्या इस पर्वतपर 'महापुंडरीक नामका ह्रद है इससे नरकान्ता नामकी महानदी दक्षिण तोरण द्वार से निकली है 'जहा रोहिआ पुरस्थिमेणं गच्छइ' और यह पूर्वदिग्वर्ती लवण समुद्र में जा कर मिली है इस नरकान्ता नदी को वक्तव्यता रोहिता नदी के समान है अर्थात् महापद्मइद से दक्षिणतोरण द्वार से रोहिता नदी निकलकर पूर्व दिग्वर्ती लवण समुद्र में मिली है उसी प्रकार से यह भी महापुण्डरीक हद से दक्षिण तोरण द्वार से निकल कर पूर्वदिग्वर्ती દક્ષિણ દિશામાં છે અને ધનુપૃષ્ઠ ઉત્તર દિશામાં છે. આ કથન સિવાય શેષ બધું કથનવિખંભ તેમજ આયામાદિનું વર્ણન–જેવું મહાહિમાવાન પર્વત વિશે કરવામાં આવેલું છે तेयु सभा 'महा पुंडरीए दहे णरकंता नदी, दक्खिणेणं णेयव्वा' मा पर्गत ७५२ મહા પુંડરીક નામે હર છે. એમાંથી નરકાન્તા નામે મહાનદી દક્ષિણ તરણ દ્વારથી નીકળી छे. 'जहा रोहिआ पुरथिमेणं गच्छइ' भने । पूर्ववत सय समुद्रमा ने भणे छे. આ નરકાન્તા નદીની વક્તવ્યતા રહિતા નદીની જેમ છે. એટલે કે મહાપદ્મહદથી દક્ષિણ તેરણ દ્વારથી રેહિતા નદી નીકળીને પૂર્વ દિગ્ગત લવણુ સમુદ્રમાં મળે છે. તે પ્રમાણે જ આ પણ મહા પુંડરીક હૃદથી–દક્ષિણ તરણ દ્વારથી નીકળીને પૂર્વ દિગ્વતી લવણ समुद्रमा प्रविष्ट थाय छ, 'रुप्पकूलो उत्तरेणं णेयव्वा जहा हरिकता पच्चत्थिमेणं गच्छई' Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दिशि स्थितं लवणसमुद्रं 'गच्छई' गच्छति तथा रूप्यकूलाऽपि बोध्या, अथावशिष्टं स्वस्वक्षेत्रवति नदीवद्वर्णयितुं प्रदर्शयति-'अवसेसं तं चेवत्ति' अवशेषम्-अवशिष्टं गिरिगमनमुखमूलविस्तारनदी प्रभृति तदेव स्वस्वक्षेत्रवर्ति नदो प्रकरणोतमेव बोध्यम् तत्र नरकान्तानद्या हरिकान्ता नदी प्रकरणोक्तं शेष रूप्यकू लानधास्तु रोहिता नदी प्रकरणोक्तं बोध्यम्, यत्तु नरकान्तानद्या रोहितानदीवद्वर्णननिर्देशनं रूप्रकूलानधास्तु हरिकान्तानदीवत्, तदेकदिनिः सरणमेकदिग्गमन माश्रित्य नतु विष्कम्भादिकमिति बोध्यम् । अथात्रकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते-'रुप्पिमि णं भंते !' इत्यादि प्रश्नसूत्र स्पष्टम्, उत्तरसूत्रे 'गोयमा' गौतम ! 'अट्ठ' अष्ट लवण समुद्र में मिली है 'रुप्पकूला उत्तरे गं यश्वा, जहा हरिकंना पच्चत्थिमेणं गच्छइ' इसी रुक्मीवर्ती महापुंडरीक हूद से उत्तर तोरण द्वार से रुप्यकूला नामकी महानदी भी निकली है और यह हरिकान्ता नदी की तरह पश्चिम दिग्वर्ती लवण समुद्र में जाकर मिली है हरिकान्ता नामकी महानदी हरिदर्ष क्षेत्र में बहती है 'अवसेसं तं चेवत्ति' बाकी का और सब गिरिगमन मुखमूल विस्तार आदि का कथन अपने २ क्षेत्रवर्तिनदी के प्रकरण में जैसा कहा गया है'-वैसा ही है। नरकान्ता नदी का शेष कथन हरिकान्ता नदी के प्रकरण के जैसा है रुप्यकूला नदी का शेष रोहिता नदी के प्रकरण के जैसा है। नरकान्तों नदी का वर्णन जो रोहिता नदी के वर्णन जैसा कहा गया है, वह तथा रूप्य कूला नदी का हरिकान्ता नदी के जैसा कहा गया है वह एक दिशा से निकलने की अपेक्षा तथा एकही नामकी दिशा में जाने की अपेक्षा लेकर कहा गया है विष्कम्भादिक की अपेक्षा लेकर नहीं कहा गया है। ___ 'रूप्पिमि णं भंते वासहरपव्वए कई कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! रुक्मी नाम के इस वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? 'गोयमा ! अट्ठकूडा पण्णत्ता' આ ફમીવતી મહા પુંડરીક હદથી ઉત્તર તરણ દ્વારથી-૩યકૂલા નામે મહા નદી પણ નીકળી છે. અને આ હરિકાન્તા નદીની જેમ પશ્ચિમ દિગતી લ@ સમુદ્રમાં જઈને મળે छ. ति नामे महानही हरिष क्षेत्रमा व छे. 'अवसेसं तं चेवेति' शेष मधुर ગમન મુખ મૂલ વિસ્તાર વગેરેનું કથન પોત–પિતાના ક્ષેત્રવતી નદીના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ છે. નરકાન્તા નદી વિશેનું શેષ કવન હરિકાન્તા નદીના પ્રકરણ જેવું જ છે. રુખ્ય કૂલા નદીનું શેષ કથન રેહિતા નદીના પ્રકરણ જેવું જ છે. નરકાન્તા નદીનું વર્ણન જે રેહિતા નદીના વર્ણન જેવું કહેવામાં આવેલું છે, તેમજ કૂલા નદીનું વર્ણન હરિકાન્તા ની જેવું કહેવામાં આવ્યું છે તે એક દિશાથી નીકળવાની અપેક્ષાએ તેમજ એકજ નામની દિશાાં વહેવાની અપેક્ષાએ કહેવામાં આવેલ છે. વિધ્વંભાદિકની અપેક્ષાઓ કહેવામાં આવ્યું નથી. ___ 'रुपिमि ण भते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णता' 3 R ! २५भी नामना । घर पर्वत 6.५२ सा छूटा मारा छ? 'गोयमा ! अटू कूड पण्णत्ता' गौतम! Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् ५२९ 'कूडा' कूटानि पणता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-कूटाष्टक नामनिर्देशाय गाथामुपन्यस्यति'सिद्धे १' इत्यादि-सिद्धं -सिद्धायतनकूटं तच्च समुद्रदिशि वर्तत इति प्रथमम् १ 'रुप्पी' रुक्मी-रुक्मिकूटम्, तच्च पञ्चमवर्षधरपति कूटमिति द्वीतियम् २, 'रम्मग' रम्यक-रम्यककूट तच रम्यक्षेत्राधिषदेवकूटं मृले प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः इति तृतीयम् ३ 'णरकंता' नरकान्ता नरकान्तानदी देवी कूटम् इति चतुर्थम् ४, बुद्धि' बुद्धि-बुद्धिकूटं-महापुण्डरीकहूददेवी कूटमिति पञ्चमम् ५, 'हप्पकूला य' रूप्यकूला च रूप्यकलानदी देवीकूटं च शब्दः समुच्चये इति पष्ठ कूटम् ६ । 'हेरण्णवय' हैरण्यवतं-हैरण्यवतं कूटं हैरण्यवतक्षेत्राधिपदेवकूटम्, अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् इति सप्तमम् ७, 'माणिकंचण' मणिकाञ्चनं-मणिकाश्चनकूटम् अत्रापि विभक्तिलोपः प्राग्वद्वोध्यः 'अट्ठ' अष्ट 'रुप्पिमि' रुक्मिणिगिरौ 'कूडाई' कूटानि शिखराणि प्रज्ञप्तानि ८॥ इति एतेषां मानं निरूपयति 'सव्वे वि एए' सर्वाणि अष्टापि एतानि अनन्तरोक्तानि पूर्वापरायतश्रेण्या व्यवस्थितानि 'पंचसइया' पश्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि हे गौतम ! आठ कूट कहे गये हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं 'सिद्धे, रुप्पी, रम्मग, णरकता, बुद्धि, रुप्पकूला य, हेरण्णव य, मणिकंचण अट्ठ य रुप्पि मि कूडाई १ सिद्धायतनकूट यह लवण समुद्र की दिशा में है २ रुक्मीकूट-यह पांचवे वर्षधर के अधिपति देवका कूट है. ३ रम्यककूट-यह रम्यक क्षेत्र के अधिपति देवका कूट है प्राकृत होने से यहां मूलमें विभक्ति का लोप हो गया है ४ नरकान्ताकूट यह नरकान्ता नदी की देवी का कूट है ५ बुद्धिकूट यह महापुण्डरीक हद वर्तिनी देवी का कूट है ६ रूप्पकूला कूट-यह रूप्यकूला नदी की देवी का कूट है ७ हैरण्यवत कूट-यह हैरण्यवत क्षेत्र के अधिपति देवका कट है।८वां कट मणिकांचनकूट-यह मणिकांचन नामके देवका कूट है इस प्रकार से ये आठ कूट है 'सव्वे वि एए पंच सइया रायहाणीओ उत्तरेणं' ये सब कूट पांचसो योजन के विस्तार वाले हैं तथा इन कूटों के जो अधिपति देव हैं उन सबकी 24 टी व छ. 'तं जहा' ते दूटोना नामी म प्रभारी छ-'सिद्धे, रुप्पी, रम्मग, णरकता, बुद्धि रुप्पकूला य, हेरण्णवय, मणिकंचण अट य रुप्पिमि कूडाई' १ सिद्धार्थतन કૂટ, આ ફૂટ લવણ સમુદ્રની દિશામાં છે. ૨ રુકુમીકૂટ–આ ફૂટ પાંચમાં વર્ષધરના અધિપતિ દેવને છે. ૩ રમ્યક કુટ-આ ફૂટ રમ્યક ક્ષેત્રના અધિપતિ દેવને છે. પ્રાકૃત હેવાથી અહીં મૂલમાં વિભકૃિત–લેપ થઈ ગયેલ છે. ૪ નરકાના ફૂટ–આ નરકાન્તા નદીની દેવીને ફૂટ છે. ૫ બુદ્ધિ ફૂટ–આ મહા પુંડરીક હદવર્તિની દેવીને ફૂટ છે. ૬ રુકૂલા કૂટ-આ રુકૂલા નદીની દેવીને ફૂટ છે. ૭ હૈરણ્યવત ફૂટ-આ હૈરણ્યવત ક્ષેત્રના અધિપતિ દેવને કૂટ છે. ૮ મણિકંચન કૂટ-આ મણિકાંચન નામે દેવને કૂટ છે. આ પ્રમાણે એ આઠ दूटो छ. 'सव्वे वि एए पंचसइया रायहाणीओ उत्तरेणं' से माछूटी ५००, ५०० योन જેટલા વિસ્તારવાળા છે. તથા એ કૂટના જે અધિપતિ દે છે તે બધાની રાજધાનીઓ ज० ६७ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र बोध्यानि अर्थतत्कूटाधिपदेवानां राजधान्यः कस्यां दिशि ? इत्याह-'रायहाणीओ' राजधान्यः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि अधुनाऽस्य रुक्मीति नामार्थ निरूपयितुमुपक्रमते-'से केणटेणं मंते !' इत्यादि-अथ तदनन्तरं केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! 'एवं वुच्चई' एवमुच्यते 'रुप्पी' वासहरपव्वए २' रुक्मी वर्षधरपर्वतः २१, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !! गौतम ! 'रुप्पी' रुक्मी 'णं' खलु क्वचित् 'णाम' इतिपाठः, तत्पक्षे नाम इति तदर्थः 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वतः 'रुप्पी' रुक्मी रुक्मं रजतं तदस्य नित्यमस्तीति रुक्मी नित्ययोगे इन प्रत्ययविधानात् यद्यपि कोषे रुक्मशब्दः सुवर्ण दृष्टस्तथापि शब्दानामनेकार्थत्वाद् रजतार्थ आदृतः, तथा 'रुप्पपट्टे' रूप्यपट्टः-रूप्यमयः शाश्वतिकः 'रुप्पोमासे' रूप्यावभास:रूप्यवद्-रजवत् सर्वतोऽवभासः प्रकाशो भासुरत्वेन यस्य स तथा एतदेव स्पष्टमाचष्टे 'सव्वरुप्पामए' सर्वरूप्यमयः सर्वात्मना रूप्यमयः रजतमय इति, तथा 'रुप्पी य' रुक्मी च 'इत्थ' अत्र-अस्मिन् रुक्मिणि पर्वते 'देवे' अधिपः परिवसतीत्युत्तरेणान्वयः, स च कीदृशः? इत्याह-महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए' महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, अत्र यावत्पदेन राजधानीयां अपने २ कटों की उत्तरदिशा में हैं। से केणटेणं भते । एवं पुच्चई, रूप्पीवासहरपव्यए २' हे भदन्त ! रक्मी वर्षधर पर्वत ऐसा नाम आपने किस कारण से कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! रूप्पीणाम वासहरपवए रूप्पी रूप्पपर्ट रूप्पोभासे सव्वरूपामए, रूप्पी य इत्थदेवे पलिओवमट्टिईए परिवसई' हे गौतम ! यह पर्वत रजतमय चांदीका है तथा रजतमय चांदी ही इसका भासुर होने से प्रकाश होता है एवं यह सर्वात्मना रजतमय है इस कारण इस वर्षधर पर्वत का नाम रूक्मी ऐसा कहा गया है। यद्यपि कोशमें रूक्म शब्दका अर्थ मिलता है परन्तु वह अर्थ जो यहां नहीं लिया गया है और चांदी ऐसा जो अर्थ लिया गया है वह 'शब्दों के अनेक अर्थ होते हैं। इस कथन के अनुसार लिया गया है यहां रूक्म शब्द से नित्य अर्थ में इन् प्रत्यय हुआ है तथा यहां पातपाताना टोनी उत्तर हिशामा आवेदी छ. ‘से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ रुप्पी वासहरવશ્વ ર’ હે ભદંત! રુફમી વર્ષધર એવું નામ આપશ્રીએ શા કારણથી કહ્યું છે? એના नाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! रुप्पीणाम वासहरपव्वए रुप्पी रुप्पपट्टे रुप्पोभासे सव्व. रुप्पामए, रुप्पीय इत्थ देवे पलिओवमढिईए परिवसइ' गौतम ! २१ त २४तभय-मेट કે ચાંદીને છે તેમજ રજતમય ચાંદી જ આને ભાસુર હોવાથી પ્રકાશ હોય છે, તેમજ આ સર્વાત્મના રજતમય છે. આથી આ વર્ષધર પર્વતનું નામ રુમી એવું કહેવામાં આવેલ છે. જો કે કેષમાં રુમ શબ્દનો અર્થ સુર્વણ આપે છે પરંતુ તે અર્થ અહીં ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું નથી, અને ચાંદી એ જે અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે તે “શબ્દના અનેક અર્થો થાય છે આ કથન મુજબ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. અહીં રુમ શબ્દથી નિત્ય અર્થમાં રૂન' પ્રત્યય થયો છે. તેમજ અહીં ફમી નામે દેવ રહે છે. આ દેવ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् ५३१ सङ्ग्राह्यपदानां सङ्ग्रहः सार्थोऽष्टमसूत्रटीकातो बोध्यः, एतादृशो देवः परिवसति तदधिपकत्वाच्च रुक्मीति स व्यवह्रियते तदेवाह - ' से एएणेद्वेणं' सः रुक्मी वर्षेधरपर्वतः एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन रजतमयत्वरूविम देवाधिष्ठितत्वैतदुभयेन कारणेन 'गोयमा' गौतम ! ' एवं वच्चइत्ति' एवमुच्यत इति । अथ षष्ठं वर्षघरं वर्णयितुमुपक्रमके - 'कहिणं भंते !" इत्यादि क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'हेरण्णवए णामं' हैरण्यवतं नाम 'वासे' वर्षं 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ? ' गोयमा' गौतम ! 'रुप्पिस्स' रुक्मिणो वर्षधर पर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेणउत्तरदिशि 'सिहरिस्त' शिखरिणः - अनन्तरं वक्ष्यमाणस्य वर्षधरपर्वतस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन दक्षिण दिशि 'पुरस्थिम लवणसमुद्दस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य 'पञ्च्चत्थिमेणं' पश्चिमेन पश्चिमदिशि 'पच्चत्थिमलवणसमुदस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'एत्थ ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'हिरण्णवए वासे' हैरण्यवतं वर्षे 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम् ' एवं ' एवम् पूर्वोका मिलापानुसारेण 'जहर' यथैव - येनैव प्रकारेण 'हेमवयं' हैमवतं पर रूक्मी नामका देव रहता है यह महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है यहां यावत्पद से संग्राह्य पदों को जानने के लिये अष्टम सूत्र देखना चहिये अतः इन सब के संयोग से इसका नाम रुक्मी ऐसा कहा गया है यही बात 'से एएट्ठे णं गोयमा एवं बुच्चई' इस सूत्र द्वारा पुष्ट की गई है । 'कहिणं भंते ! जबुद्दीवे २ हेरण्णव णामं वासे पण्णत्ते' हे भदन्त ! हैरण्यवत नामका क्षेत्र इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! रूपिस्स उत्तरे सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरस्थिमलवणसमुहस्स पच्चत्थिमेगं पच्चत्थिमलवण समुद्दस्स पुरस्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते' हे गौतम! रुक्मी नामक वर्षघर पर्वत की उत्तरदिशा में तथा शिखरी नामक वर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में, पूर्वदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवण समुद्र की पूर्वदिशा में इस जम्बूद्वीप મહદ્ધિક યાવત્ પન્ચેપમ જેટલી સ્થિતિવાળે છે. અહીં યાવત્ પદથી સંગ્રાહ્ય પદને જાણવા માટે અષ્ટમસૂત્ર વાંચવું જોઇએ. એથી આ સર્વાંના સ ંચેગથી આનું નામ રુક્મી એવુ' કહેવામાં આવેલુ છે. એજ વાત 'से एएट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चई' मा सूत्र डे पुष्ट ४२वामां आवेली छे. 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे २ हेरण्णवए णामं वासे पण्णत्ते' हे लत ! હૈરણ્યવત નામક ક્ષેત્ર આ જંબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં કયા સ્થળે આવેલું છે ? એના જવાબમાં अलु ४ छे 'गोयमा ! रुप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं पुरत्थिमलवण समुदस्स पच्चथिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए वासे पण्णत्ते' હે ગૌતમ! રુક્મી નામક વધર પર્યંતની ઉત્તર દિશામાં તેમજ શિખરી નામક વ ધર પતની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વી દિગ્બી લવણુ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિગ્વતી લવણુ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં આ જ બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં હૅરણ્યવત નામક ક્ષેત્ર Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ जम्बूद्वीपप्रशसि वर्ष 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'हेरण्णवयंपि' हैरण्यवतमपि वर्षे 'भाणियन्त्र' भणितव्यं वक्तव्यम्, अथात्र हैमवतवर्षापेक्षया यो विशेषस्तं प्रदर्शयितुमाह- 'णवरं' नवरं केवलं 'जीवा' atar धनुः प्रत्यञ्चाकारप्रदेशः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिणदिशि 'उत्तरेणं धणुं' उत्तरेणउत्तरदिशि धनुः- धनुष्पृष्ठं बोध्यम् 'अवसिद्धं' अवसिष्टं शेषं विष्कम्भायामादि 'तं चेव' तदेव हैमवतवर्ष प्रकरणोक्तमेव 'इति' इति एतद्बोध्यम् । अथ माल्यवत्पर्यायं वृत्तवैतान्यपर्वतं वर्णयितुमुपक्रते - 'कहिणं भंते !' इत्यादि क्व खल भदन्त ! ' हेरण्णवए वासे' हैरण्यवते वर्षे 'मालवंतपरियाए' माल्यवत्पर्याय: 'णामं ' नाम 'वह वेद्धपव्वर' वृत्तवैतादयपर्वतः 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह'ग्रोमा !” गौतम ! 'सुवण्णकूलाए' सुवर्णकूलाया:- एतत्क्षेत्रवर्ति पूर्वदिग्गामि महानद्याः 'पन्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमदिशि 'रुप्प कूलाए' रूप्यकूलायाः - एतत्क्षेत्रवर्ति पश्चिम दिग्गामि महानद्याः 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'हेरण्णवयस्स' हैरण्यवतस्य 'वासस्स' वर्षस्य 'बहुमज्झदेसभाए' बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्तमध्यनामके द्वीप में हैरण्यवत नामका क्षेत्र कहा गया है । एवं 'जह चेव हेमवयं तहवेव हेरण्णवयंपि' इस तरह जिस प्रकार की वक्तव्यता दक्षिण दिग्वर्ती हैमवत क्षेत्र की कही गई है उसी प्रकार की वक्तव्यता इस उत्तर दिग्वर्ती हैरण्यवत क्षेत्र की जाननी चाहिये 'णवरं जीवा दाहिणेणं उत्तरेण धणु अवसिहं तं चेवत्ति' परन्तु विशेषता यही है कि इसकी जीवा-धनुः प्रत्यञ्चाकार प्रदेश - दक्षिणदिशा में है और धनुःष्पृष्ठ इसका उत्तरदिशा में है बाकीका और सब विष्कम्भादि का कथन हैमवत् क्षेत्र के प्रकरण के अनुसार ही है 'कहि णं भंते ! हेरण्णवए वासे मालवंत परिआए णामं वहवेड्डपञ्चए पण्णत्ते' हे भदन्त ! हैरण्य क्षेत्र में माल्यप नामका वृत्तवैताढ्य पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोपमा' सुवण्णकूलाए पच्चस्थिमेणं रूप्पकूलाए पुरत्थिमेणं एत्थ णं हेरण्णवयस्स वान्तस्स बहुमज्झदेसभाए मालवंतपरियाए णामं दट्टवेय आवे छे. 'एवं जहचेव हेमवयं तहचेव हेरण्णवयंपि' या प्रमाणे मे प्रारनी वतव्यता દક્ષિણ દિગ્બી હૈમવત ક્ષેત્રની કહેવામાં આવેલી છે તે પ્રકારની વક્તવ્યતા આ ઉત્તર द्विग्वर्ती रएयवत क्षेत्रनी लावी नेले. 'णवरं जीवा दाहिणेणं उत्तरेणं धणुं अवसिद्धं तं चेवत्ति' परंतु विशेषता भारती छे हैं सेनी वा धनुः प्रत्ययाभर प्रदेश - दक्षिषु दिशाभां છે અને ધનુપૃષ્ઠ એનું ઉત્તર દિશામાં છે. શેષ ખધુ વિષ્ઠ ભાર્ત્તિ વિષયક કથન હૈમવત क्षेत्रना अ४२ भुभ्य ४ छे. 'कहि णं भंते ! रण्णवए-वासे मालवंतपरिआए णामं वट्टवेयड्ढ पव्यय पण्णत्ते' हे भरन्त ! हैरएय क्षेत्रमां भव्यवत् पर्याय नामे वृत्तवैदाढ्य पर्वत घ्या स्थणे आवे छे ? सेना वा अलु उडे छे. 'गोयमा सुवण्णकूलाए पच्चत्थिमेणं रूप्पकूलाए पुरत्थिमेणं एत्थणं हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्झदेसभाए मालवंतपरियाए णामं वट्टवेयडूढे Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्ष निरूपणम् ५३३ देशभागे 'मालवंत परियाए ' माल्यवत्पर्याय: 'णा' नाम 'वट्टवेयद्धे' वृत्तवैताढ्यः पर्वतः 'पण्णत्ते' प्रज्ञसः, अस्य वर्णनेऽनुसरणीयपर्वतमाह - ' जहचेव सदावई' यथैव येनैव प्रकारेण शब्दापाती वृत्तवैतादयपर्वतो वर्णितः 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'मालवंत - परियार वि' माल्यवत्र्यायोऽपि वृत्तवैतादयपर्वतो वर्णनीयः, अथास्य शब्दापातिवृत्तवैताढ्यपर्वतापेक्षया नामार्थे विशेषं प्रदर्शयितुमाह- 'अट्ठो' अर्थः माल्यवत्पर्यायेतिनामार्थ:तत्कारणं हि 'उप्पलाई उत्पलानि चन्द्रविकाशीनि कमलानि 'पउमाई' पद्मानि - सूर्य विकाशीनि कमलानि इदमुपलक्षणं तेन कुमुदन लिन सुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीक शंतपत्रसहस्रपत्रशतसहस्रपत्राण्यपि ग्राह्याणि तानि कीदृशानि इत्याह- 'मालवंत पभाई' माल्यवत्प्रभाणि - माल्यवत्पर्वताकाराणि 'मालवंतवण्णाई' माल्यवद्ववर्णानि - माल्यवत्पर्वतवर्णकीनि मालवंतवण्णा भाई' माल्यवत्वर्णाभानि - माल्यवत् पर्वतवर्णप्रतिभासानि, तद्योगादयं माल्यवत् पर्याय इत्येवमुच्यते तथा 'पभासे य इत्थ देवे' प्रभासचात्र देवः अत्र - अस्मिन् गिरौ प्रभासनामा देवः परिवसतीति परेणान्वयः स च कीदृश: ?, इत्याह- 'महिद्धीए जाव पलिओवमट्टिईए' महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः- अत्र यावत्पदसङ्ग्राह्यपदानां सार्थः सग्रहो - टमसूत्रव्याख्यातो बोध्यः, एतादृशो देवः 'परिवसइ' परिवसति 'से तेणद्वेणं' सः माल्यवपण्णत्ते' हे गौतम! सुवर्णकुला महानदी की पूर्वदिशा में, हैरण्यवत क्षेत्र के बहुमध्य देश में माल्यवन्त पर्याय नामका वृत्तवैताढ्य पर्वत कहा गया है। 'जह चैव सहावई तह चैव मालवंत परियाए वि' इसका वर्णन संबंधी प्रकार शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत के जैसा ही है । 'अट्ठो उप्पलाई पउमाई मालवंत भाई मालवंत वण्णाई मालवन्तवण्णाभाई पभासेअ इत्थ देवे महिद्धीए जाव पलि ओवमहिईए परिवसई' इसका माल्यवन्त पर्याय ऐसा जो नाम कहा गया है उसका कारण यहां के उत्पलों एवं कमलों का माल्यवन्त की प्रभावाले, माल्यवन्त के जैसे वर्णवाले और माल्यवन्त के वर्ण की प्रभावाले होता है तथा यहां पर प्रभास नामका देव रहता है जो कि महर्द्धिक यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला है । 'से एएणद्वेण' इस कारण हे गौतम ! इसका नाम माल्यवन्त पर्याय ફળત્તે' હે ગૌતમ! સુવર્ણ કૂલા મહાનદીની પશ્ચિમ દિશામાં તથા રૂપ્ય ફૂલા મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં, હૈરણ્યવત ક્ષેત્રના બહુ મધ્ય દેશમાં માલ્યવન્ત પર્યાય નામક વૃત્તવૈતાઢપ पर्वत यावे छे. 'जह चेव सदावई तह चैव मालवंतपरियाए वि' भानु वर्षान शब्दापाती नाभः वृत्त वैताढ्य पर्वत वु छे. 'अट्ठो उप्पलाई मालवं तप्पभाई मालवंतवण्णा इं मालवंतवण्णाभाई पभासे अ इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमट्टिईए परिवसई' मेनु માલ્યવન્ત પર્યાય એવુ જે નામ કહેવામાં આવેલુ છે, તેનું કારણ એ છે ઉપલા અને કમળેાની પ્રભા માધ્યવત જેવી વ વાળી પણ છે. તેમજ અહીં પ્રભાસ નામકે અહીંના द्वेव रहे छे. ते हेव् भद्धि यावत् होप नेटसी स्थितिवाणी छे. 'से एएणणं. ' मेथी हे गौतम! मेनु नाम भाझ्यवंत पर्याय येवु रामवामां आव्यु छे. 'रायहाणी उत्त० Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMASUDAMAD . .. .... .. . ५३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र त्पर्यायः तेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन एवमुच्यते-माल्यवत्पर्याय इति, अस्य 'रायहाणी' राजधानी 'उत्तरेणंति' उत्तरदिशि इति बोध्यम्, अथ हैरण्यवतनामार्थं प्रकाशयितुमुपक्रमते'से केणटेणं भंते ! इत्यादि-अथ हैरण्यक्तस्वरूपनिरूपणानन्तरं केन अर्थेन-हेतुना भदन्त ! 'एवं' वुच्चइ' एवमुच्यते 'हेरण्णवए वासे २ ?' हैरण्यवतं वर्षम् २१, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'हेरण्णवए णं वासे हैरण्यवतं खलु वर्ष क्षेत्रम् 'रुप्पी सिहरी हिं' रुक्मि शिखरिभ्यां 'वासहरपधएहि वर्षधरपर्वताभ्यां 'दुहओ' द्विधातः उभयोर्दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः 'समवगूढे' समाश्लिष्टं-कृतसीमाकमित्यर्थः, तदुभयसमालिष्टत्वादस्य हैरण्यवतमिति नाम पदहियते, तथाहि हिरण्यपदेन स्वर्णरूप्योभये गृह्येते तदस्त्यनयोरिति हिरण्यवन्तो रुक्मि शिखरिणी, तयोरिदं हैरण्यवतं रूप्यस्वर्णमयरुक्मिशिखरिसम्बन्धि एवं तयोर्योगातू हैरण्यवतमिति नाम बोध्यम् यद्वा 'गिच्वं नित्यं' 'हिरण्णं' हिरण्यं 'मुंचई' मुञ्चति त्यजति ‘णिच्चं' नित्यं हिरणं' हिरण्यं पगासई' प्रकाशयति-तत्रतत्र प्रदेशे ऐसा कहा गया है 'रायहाणी उत्तरेणंति' इस देवकी राजधानी इस पर्वत की उत्तरदिशा में है । ‘से केणढे णं भंते ! एवं वुच्चह हेरण्णवएवासे २' अब गौतमने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! आपने किस कारण को लेकर हैरण्यवत क्षेत्र ऐसा नाम कहा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रूप्पीसिहरीहिं वासहरपव्वएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हिरणं दलइ णिच्चं हिरणं मुंचइ, णिच्चं हिरणं पगासह, हेरण्णवए अ इत्थ देवे परिवसइ से एए णटेणं ति' हे गौतम ! हैरण्यवत क्षेत्र, दक्षिण और उत्तर पार्वभागों में रूक्मी और शिखरी इन दो वर्षधर पर्वतों से घिरा हुआ है-इसी कारण इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्र हुआ है तात्पर्य एसा है-हिरण्य पद स्वर्ण और रूपय इन दोनों का ग्राहक होता है अतः रूममी और शिखरी इन दोनों वर्षधर पर्वतों का यहां इस पद से ग्रहण हो जाता है इसी कारण इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्रऐसा रेणंति' । हवनी धानी मा पतनी उत्तर दिशामा आवसी छे. 'से केण्ट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ हेरण्णवए वासे २'वे गौतमे प्रभुने २ जतने! प्रश्न या छ नत ! આપશ્રીએ શા કારણથી હૈમવંત ક્ષેત્ર એવું નામ કહ્યું છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે 'गोयमा ! हेरण्णवए णं बासे रुप्पी सिहरीहिं वासहरपब्बएहिं दुहओ समवगूढे णिच्चं हिरणं दलइ णिच्चं हिरणं मुंचइ, णिच्चं हिरण्णं पगासइ, हेरण्णवए अ इत्थ देवे परिवसइ से एएणदेणं ति' गौतम ! २९यवत क्षेत्र हक्षिय भने उत्तर लागीमा २५भी मने शिमरी એ બે વર્ષધર પર્વતથી આવૃત છે. એ કારણથી જ એનું નામ હૈરણ્યવત ક્ષેત્ર એવું પ્રસિદ્ધ થયું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે હિરણ્ય પદ સ્વર્ણ અને રુખ્ય એ અને અને વાચક છે. એથી અફમી અને શિખરી એ બન્ને વર્ષધર પર્વતનું અહીં આ પદથી ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ કારણથી જ એનું નામ હૈરણ્યવત ક્ષેત્ર એવું કહેવામાં આવેલું છે. કેમકે Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्ष निरूपणम् दर्शनमनोहारितया प्रकटी करोति जनेभ्य इति शेषः, अयं भावः तत्र युग्मकमनुष्याणामासनशयनादि लक्षणोपभोगार्था बहवो हिरण्यमयाः शिलापट्टाः सन्ति तांश्च तत्रत्या मानवा आसनादिरूपतयोपभुञ्जन्ते ततश्च हिरण्यं प्रशस्तं नित्यं प्रचुरं वाऽस्यास्तीति हिरण्यवत तदेव हैरण्यवतं स्वार्थिकाण प्रत्ययान्तमिदम् इति । नामकारणान्तरमाह-'हेरण्णवए य इत्थ देवे' हैरण्यवतश्चात्र देवः 'परिवसई' परिवसति स च देव महद्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः, एतद्विवरणं प्राग्वबोध्यम् तेन हैरण्यवत देव स्वामिकवादिदं हैरण्य रतमित्युच्यते, अध षष्टं वर्षधरपर्वतं वर्णयितुमुपक्रमते-'कहिणं भंते !' इत्यादि-वव खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'सिहरीणामं शिखरीनाम 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वतः पण्णत्ते' प्रज्ञतः १, इति प्रश्नन्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'हेरण्णवयस्स' हैरण्यक्तस्य वर्षस्य 'उत्तरेणं' कहा जाता है क्योंकि यह रूप्यमय और स्वर्णमय रूक्मी एवं शिखरी पर्वतों से सम्बन्धित है अतः इनके योग से इसका नाम हैमवत ऐसा हो गया है। अथवा-यह नित्य सुवर्ण को देता है नित्य स्वर्ण को छोडता है नित्य स्वर्ण को प्रकाशित करता है तात्पर्य इसका ऐसा है कि वहां पर अनेक स्वर्णमय शिला पटक है अतः वहां के युग्मक मनुष्य आसन शयन आदिरूप उपभोग के निमित्त इनका उपयोग करते रहते हैं इससे ऐसा कहा जाता है कि यह क्षेत्र नित्य स्वर्ण प्रदानादि करता है हैरण्यत में स्वार्थिक अणू प्रत्यय हुआ है तथा यहां पर हैरण्यवत् नामका देव रहता है यह देव महद्धिक यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला है इस कारण से भी इसका नाम हैरण्यवत क्षेत्र ऐसा कहा गया है। 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सिहरीणामं वासहरपन्चए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में शिखरी नामका वर्षधर पर्वत कहां पर कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्तઆ રુખ્યમય અને સ્વર્ણમય રુફમી અને શિખરી પર્વતથી સંબંધિત છે. એટલા માટે એમના ગથી એનું નામ હૈમવત એવું પ્રસિદ્ધ થયું છે. અથવા આ પર્વત નિત્ય સુવર્ણ આપે છે, નિત્ય સુવર્ણ બહાર કાઢે છે, નિત્ય સુવર્ણને પ્રકાશિત કરે છે તાત્પર્ય આમ છે કે આ પર્વત ઉપર અનેક સ્વર્ણમય શિલા પટ્ટકો છે, એથી ત્યાંના યુગ્મક મનુષ્ય આસન શયન આદિ રૂપ ઉપગ માટે એમને ઉપયોગ કરે છે. એથી આમ કહેવાય છે કે આ ક્ષેત્ર નિત્ય સુવર્ણ પ્રદાનાદિ કરે છે. હૈરણ્યવતમાં સ્વાર્થિક અણુ પ્રત્યય થયેલ છે. તેમજ અહીં હૈરણ્યવત નામક દેવ રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક યાવત્ એક પળેપમ જેટલી સ્થિતિવાળે छ. मेथी पY भानु नाम २९यक्त क्षेत्र मे उपाभा भाव छ. 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरपञ्चए पण्णत्ते' 3 मईत! 240 दी५ नाम द्वीपमा શિખરી નામક વર્ષધર પર્વત કયા સ્થળે આવે છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે– 'गोयमा! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं एरावयरस दाहिणेणं पुरथिमलवणसमुदस्स पण्चत्थिमेणं Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उत्तरेण-उत्तरदिशि ‘एरावयस्स' ऐरावतस्य वक्ष्यमाणस्य सप्तमवर्षस्य 'दाहिणेणं' दक्षिणेनदक्षिणदिशि 'पुरस्थिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य-पूर्व दिग्वतिलवणसमुद्रस्य 'पञ्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमदिशि 'पच्चस्थिमलवणसमुदस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्स 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि ‘एवं' एवम्-पूर्वोक्ताभिलापानुसारेण 'जहचेव' यथैव येनैव प्रकारेण 'चुल्लहिमवंतो' क्षुद्रहिमवान् प्रथमवर्षधरपर्वतो वर्णितः 'तहचेव' तथैव तेनैव प्रकारेण 'सिहरीवि' शिखर्यपि षष्ठो वर्षधरभृधरो वर्णनीयः ।। __अथात्र क्षुद्रहिमवदपेक्षया कंचिद्विशेष प्रदर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं-केवलं 'जीवा' जीवा धनुः प्रत्यश्चाकारप्रदेशः 'दाहिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'धणुं उत्तरेणं' धनु:-धनुष्पृष्ठम् उत्तरेण-उत्तरदिशि प्रज्ञप्तम् 'अवसिटुं' अवशिष्टं शेषं विष्कम्भायामादिकं 'तं चेव तदेव क्षुद्रहिमवत्प्रकरणोक्तमेव बोध्यम्, तथा 'पुंडरीए दहे' पुण्डरीको हृदः, ततो निर्गता 'सुवण्णकूला महाणई' सुवर्णकूला नाम महानदी 'दाहिणेणं' दक्षिणेन दक्षिणतोरणेन प्रवहन्ती रेणं एरावयस्स दाहिणेणं पुरत्थिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण. समुद्दस्त पुरथिमेणं एवं जह चेव चुल्लहिमवंतो तहचेव सिहरीवि णवरं जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवसिटं तं चेव' हे गौतम ! हैरण्यवत क्षेत्र की उत्तरदिशा में तथा ऐरावत क्षेत्र की दक्षिण दिशा में, पूर्व दिग्वर्ती लवर्णसमुद्र की पश्चिमदिशा में, और पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में क्षुल्ल-क्षुद्रहिमवान् प्रथम वर्षधर पर्वत के जैसा यह छठा शिखरी वर्षधर पर्वत कहा गया है शिखरी पर्वत का वर्णन जैसा प्रथम क्षुद्रहिमवान् पर्वत का वर्णन पहिले किया गया है वैसा ही है 'णवरं' परन्तु 'जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवसिढे तं चेव' इस कथन के अनुसार इसकी जीवा दक्षिण दिशा में है और धनुष्पृष्ठ उत्तरदिशा में है, बाकी का और सब आयामविष्कम्भादि का कथन प्रथम वर्षधर पर्वत के जैसा ही है 'पुंडरीएदहे, सुवण्णकूला महाणई, दाहिणेणं णेयव्वा' इसके ऊपर पुंडरीक नामका हूद है इसके दक्षिण तोरण द्वार से सुवर्णकूला नामकी पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरात्थिमेणं एवं जहचेव चुल्लहिमवंतो तहचेव सिहरीव णवरं जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवसिद्ध तं चेव' गौतम! ९२९यत क्षेत्रमा उत्तर शिम तथा અરવત ક્ષેત્રની દક્ષિણ દિશામાં પૂર્વ દિગ્ગત લવણસમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં અને પશ્ચિમ દિવતી લવણ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં ક્ષુલ્લ–શુદ્ર-હિમવાનું પ્રથમ વર્ષઘર પર્વત જે આ છઠે શિખરી વર્ષધર પર્વત કહેવામાં આવેલ છે. જે પ્રમાણે પ્રથમ ક્ષુદ્ર હિંમવાન પર્વતનું વર્ણન પહેલાં કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ વર્ણન શિખરી પર્વતનું પણ समा . 'णवरं' ५२'तु. 'जीवा दाहिणेणं धणु उत्तरेणं अवसिटुं तं चेव' 'मा 'કથન મુજબ એની જીવા દક્ષિણ દિશામાં છે અને ધનુપૃષ્ઠ ઉત્તર દિશામાં છે. શેષ બધું मायाम-वि०४ वगेश्थी समई ४थन प्रथम वर्षधर ५त ने छे. 'पुंडरीए दहे, सुवण्णकूला महाणई, दाहिणेणं णेयव्वा' सनी ५२ री नामे छे. सेना इक्षिण Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सु. ४४ रम्यकवर्ष निरूपणम् ५३७ 'यव्वा' नेतव्या बोध्या । अथास्याचतुर्दशनदी सहस्रपरिवारादियुत नदीदृष्टान्तमाह- 'जहा ' यथा 'रोहियंसा' रोहितांशानदी पद्महूदस्यौत्तरेण तोरणेन निर्गत्य पश्चिमदिशि लवण समुद्र गच्छति तथेयम् 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि 'गच्छ गच्छति पूर्वलवणसमुद्रं समुपैति सुवर्णकूला दक्षिणतोरणेन पुण्डरीकहदान्निर्गत्य पूर्वलवणसमुद्रं पूर्वाभिमुखवाहिनी सती समु पैति रोहितांशा सुवर्णकूलयो दृष्टान्तदार्शन्तिकभावो हूदनिर्गमननदी परिवारहैरण्यवर्षगमनलवणसमुद्रमनादि साम्यमभ्युपेत्य न तु दिक्साम्यम् ' एवं ' एवं पूर्वोकाभिलापानुसारेण सुवर्णकूलाना रोहितांशा नदी दृष्टान्तत्वरीत्या 'जह चेव' यथैव 'गंगा सिंधूओ' गङ्गासिन्धू महानद्यौ प्राग्वर्णिते 'तह वेव' तथैव 'रत्तारत्तवईओ' रक्तारक्तवत्यौ 'णेयव्वाओ' नेतव्ये बोध्ये अयो दिग्भेदं प्रदर्शयितुमाह- 'पुरस्थिमेणं रत्ता' पौरस्त्येन पूर्वदिशि रक्ता रक्ताभिधा महानदी निकली है 'जहा रोहियंसा' जिस प्रकार रोहितांशा नदी पद्महद के उत्तरदिग्वर्ती तोरणद्वार से निकल कर पश्चिमदिशा की ओर पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है उसी प्रकार से यह नदी पूर्वदिशा की और जाकर पूर्वलवण समुद्र में मिलती है सुवर्णकूला महानदी पुण्डरीक हूद से दक्षिण तोरण द्वार से निकल कर पूर्व दिशा की ओर बहती हुई पूर्व लवण समुद्र में मिलती है, यह रोहितांशा एवं सुवर्णकूला इन दोनों में जो दृष्टान्त दान्तिक भाव प्रदर्शित किया गया है वह हूद निर्गमन, नदीपरिवार, हैरण्यवत गमन एवं लवण समुद्रगमन आदि को लेकर ही प्रदर्शित किया गया है, दिक्साम्य को लेकर नहीं 'एवं जह चेत्र गंगा सिंधूओ तह चैव रत्तारत्तवईओ णेपव्वाओ' जिस प्रकार से गंगा और सिन्धु इन दो महानदियों का वर्णन किया गया है उसी प्रकार से रक्ता और रक्तवती नदियों का वर्णन जानना चाहिये इनमें पूर्वदिशा की ओर रक्ता नामकी महानदी वहनी है पूर्वदिशा की ओर वहनेवाली महानदी पूर्वतोरण द्वारथी सुवर्ण सा नाभे महानही नीजी छे. 'जहा रोहियंसा' नेम रोहितांशा नही પદ્મહદના ઉત્તર દિગ્વતી તેારણુ દ્વારથી નીકળીને પશ્ચિમ દિશા તરફ પશ્ચિમ લવણ સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે તેમજ આ નદી પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થઈને પૂવ લવણુ સમુદ્રમાં પ્રવેશે છે. સુવર્ણ ફૂલા મહાનદી પુડરીક હૃદી, દક્ષિણ તારણ દ્વારી નીકળીને પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થતી પૂર્વ લવણુસમુદ્રમાં પ્રવેશે છે. આ રેહિતાંશા તેમજ સુવણૅ ફૂલા એ ખન્નેમાં જે દૃષ્ટાન્ત અને ક્રાર્યાંન્તિક ભાવ પ્રદર્શિત કરવામાં આવેલે છે તે હુકનિ`મન, ની પરિવાર, હેરણ્ય ગમન તેમજ લવણુસમુદ્ર ગમન વગેરેને લઈ ને જ પ્રદર્શિત કરવામાં આવેલા છે. हिसाभ्यने सहने नहि. 'एवं जह चैव गंगासिंधूओ तहचेत्र रत्तारत्तवईओ यव्वाओ' જે પ્રમાણે ગગા અને સિધુ એ એ મહાનદીએનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે. તે પ્રમાણે રક્તા અને રક્તવી નદીઓનું વર્ણન પણ સમજી લેવુ' જોઈ એ. એમાં પૂર્વ દિશા તરફ રક્તા નામક મહાનદી વહે છે અને પશ્ચિમ દિશા તરફ રવતી નામની મહાનદી વહે છે, ज० ६८ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नदी 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमदिशि 'रत्तवई' रक्तवती नाम नदी प्रवहति 'अवसिद्ध ' अवशिष्टं विष्कम्भायामनदीपरिवारादि 'तं चेव' तदेव गङ्गासिन्धु महानदी प्रकरणोक्तमेव सर्वम् 'अवशेषं भणितव्यमिति' अथैतद्वर्तिकूटानि वर्णयितुमुपक्रमते - 'सिहरिम्मि णं भंते !" इत्यादि शिखरिणि प्रावर्णितस्वरूपे 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वते खलु भदन्त ! 'क' कति किम्प्रमाणानि ' कूडा ' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि ?, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह - 'गोयमा !" गौतम ! 'इकारस' एकादश 'कूडा' कूटानि 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा ' तद्यथा - 'सिद्धाययणकूडे' सिद्धायतनकूटम् इदं पूर्वस्यां दिशि वर्तते १ ततः क्रमेण 'सिहरिकूडे ' शिखरिकूटं शिखरिवर्षपर्वनाम्ना प्रसिद्धं कूटम् २, 'हेरण्णवयकूडे ' हैरण्यवतकूटं हैरण्यवत क्षेत्र देवकूटम् ३, ‘सुवण्णकूलाकूडे' सुवर्णकूळा कूटं - सुवर्णकूलानदी देवी कूटम् ४, 'मुरादेवीकूडे' सुरादेवीकूटं सुरादेवी दिक्कुमारीकूटम् ५, 'रचाकुडे' रक्तकूट - रक्तावर्तनकूटम् ६, 'लच्छीकूडे ' लक्ष्मीकूटं - पुण्डरीकहूददेवीकूटम् ७, 'रत्तवईकूडे' रक्तवती कूटं - रक्तवती नदी परावर्तनकूटम् ८, लवणसमुद्र में और पश्चिमदिशा की ओर बहनेवाली महानदी पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है ऐसा जानना चाहिये 'अवसेसं' इनका विष्कम्भ और आयामादि का परिमाण कथन तथा नदी परिवार आदि का कथन 'तं चेव' गंगा सिन्धु महानदी के प्रकरण में जैसा कहा गया है वैसा ही है 'सिहरस्मि णं भंते ! वासहरपव्वए कह कूडा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस शिखरी नामके वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! इस शिखरी नामके वर्ष घर पर्वत पर ११ कूट कहे गये हैं । 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं 'सिद्धाययणकूडे सिहरिकूडे हेरण्णवयकूडे, सुवण्णकुलाकडे, सुरादेवीकूडे, रत्ताकूडे, लच्छीकूडे, रक्तवईकूडे इलादेवीकूडे, एरवयकडे, तिगिच्छिकूडे सिद्धायतनकूट १, शिखरिकूट २ हैरण्यवतकूट ३, પૂર્વ દિશા તરફ પ્રવાહિત થનારી મહા નદી પૂ`લવણુસમુદ્રમાં અને પશ્ચિમ દિશા તરફ वडेनारी भहानही पश्चिभवसमुद्रमा प्रवेशे छे. खेम लाएगी सेवु' लेखे 'अव से सं ' એમના વિભ અને આયામાદ્ધિ પરિમાણુ વિશેનું શેષ થન તથા નદી પરિવાર વગેરેથી स ंणद्ध ४थन 'तं चेव' गंगा-सिन्धु महानहीना अरमां ने प्रमाणे उडेवामां आवे छे, थे प्रभावे छे. 'सिहरम्मि णं भंते! वासरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता' हे भरन्त ! શિખરી નામક વ`ધર પર્વાંત ઉપર કેટલા ફૂટ કહેવામાં આવ્યા છે ? જવાબમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोयमा ! इकारस कूडा पण्णत्ता' हे गौतम! मी शिमरी नाम वर्षधर पर्वत ७५२ ११ झूटो आसा छे. 'तं जहा' ते टीना नाम मा प्रभा - 'सिद्धाययणकूडे, सिहरिकूडे, हे रण्णवयकूडे, सुवण्णकूलाकूडे, सुरा देवी कूडे, रत्ताकूडे, लच्छी कूडे, रत्तवई कूडे, इल | देवी कुडे, एरवयकूडे, तिगिच्छकूडे' सिद्धायतन छूट १, शिरि यवत छूट 3, सुवार्थ सा २, " Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्षनिरूपणम् 'इलादेवीकूडे' इलादेवीकूटम्-इलादेवी दिक्कुमारीकूटम् ९. 'एरवयकूडे' ऐरवतकूटम्ऐरावतवर्षाधिपकूटम् १०, 'तिगिच्छिकूडे' तिगिच्छि हददेवकूटम् ११ एवं' एवम्-अनन्तरोक्तानि 'सव्वेवि' सर्वाण्यपि 'कूडा' कूटानि 'पंचसइया' पञ्चशतिकानि पञ्चशतयोजनप्रमाणानि बोध्यानि एषां 'रायहाणीओ' राजधान्यः 'उत्तरेणं' उत्तरेण उत्तरदिशि बोध्याः, अथास्य नामार्थ प्रष्टुमाह-'से केणटेणं मंते !' इत्यादि अथ शिखरिस्वरूपनिरूपणानन्तरं केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! 'एवमुच्चइ' एवमुच्यते 'सिहरिवासहरपब्बर २ ' शिखरिवर्षधरपर्वतः २१, इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह-'गोयमा !' गौतम ! 'सिहरिमिम' शिखरिणि 'वासहरपव्वए' वर्षधरपर्वते सिद्धायतनाधतिरिक्तानि 'बहवे' बहूनि 'कूडा' कूटानि 'सिहरिसंठाणसंठिया' शिखरिसंस्थानसंस्थितानि-वृक्षाकारसंस्थितानि 'सव्वरयणामया' सर्वरत्नमसुवर्णकूलाकूट ४, सुरादेवीकूट, ५, रक्ताकूट ६, लक्ष्मीकूट ७, रक्तवतीकूट ८, इलादेवीकूट ९, ऐरवतकूट १०, और तिगिच्छिकूट ११ इनमें सिद्धायतनकूट इस पर्वत की पूर्व दिशा में है। शिखरी वर्षधरपर्वत के नाम से प्रसिद्ध द्वितीयकट है हैरण्यवत क्षेत्र के देवका तृतीय कूट है सुवर्णकूला नदी की देवी का चतुर्थ कूट है सुरादेवी नामकी दिक्कुमारी का पांचवां कूट है रक्तावर्तन कूटका नाम रक्ताकूट है यह छठा कूट है पुण्डरीक हूद की देवी का ७ वां कूट है रक्तवती नदी का जो परावर्तन कूट है वह ८ वां कूट है इला देवी नामकी दिक्कुमारी का ९ वां कूट है ऐरावत क्षेत्र के अधिपति देवका १० वां कूट है तथा तिगिच्छि हद देवका ११ वां कुट है 'सव्वे वि एए पंचसइया, रायहाणीओ उत्तरेणं' ये सब कूट ५०० ५०० योजन प्रमाण वालेहैं इनके देवों की राजधानियां अपने अपने कूटों की उत्तरदिशा में हैं ‘से के गढे णं भंते ! एवं बुच्चई सिहरिवासहरपन्चए' हे भदन्त ! इसका शिखरी वर्षधर पर्वत ऐसा नाम क्यों पडा ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं ८ ४, सुगवी ८ ५, २४ताहेकी छूट १, सभी ट ७, २४त.ती फूट ८, साहेवी ८-०, અરવત કૂટ–૧૦ અને તિગિચ્છ ફૂટ એમાં જે સિદ્ધાયતન કૂટ કહેવામાં આવેલ છે તે આ પર્વતની પૂર્વ દિશામાં આવે છે. શિખરી વર્ષધર પર્વતના નામથી પ્રસિદ્ધ દ્વિતીય કટ છે. હૈદણ્યવત ક્ષેત્રના દેવને તૃતીય ફૂટ છે. સુવર્ણ કૂલા નદીની દેવીને ચતુર્થ ફૂટ છે. સુરા દેવી નામક દિકુમારીનો પંચમ ફૂટ છે. રક્તવર્તન ફૂટનું નામ રક્તા કૂટ છે. આ ષષ્ઠ ફૂટ છે. પુંડરીક હદની દેવીને સક્ષમ કૂટ છે. રક્તવતી નદીને જે પરાવર્તન કૂટ છે, તે અષ્ટમ કૂટ છે ઈલાદેવી નામની દિકુમારીને નવમ કૂટ છે. એરવત ક્ષેત્રના અધિપતિ वनी शभ एट छ तथा ति२७ ३४ हेवनी जियारम। छूट छ. 'सव्वे वि एए पंच. सइया रायहाणीओ उत्तरेणं' मे मा छूटी ५००, ५०० योन प्रमाणवाणा छे. समना हेवानी ॥धानीपोत--ताना छूटानी उत्तर दिशामां आवेदी छे. 'से केणट्रेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिहरिवासहरपब्वए' मत ! से शिमरी व २ पति से नाम ॥ १२४थी ५७यु छ ? सेना Nanwi प्रभु ४ छ-गोयमा! सिहरिम्मि वासहरपव्वए कूडा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० ___ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र यानि-सर्वात्मना-रत्नमयानि सन्तीति तद्योगादयं शिखरीत्येवमुच्यते, एतेनान्यवर्षधरपर्वतो. व्यावृत्तिरस्य कृता अन्यथाऽन्येषामपि कूटवत्त्वेन शिखरिपदेन व्यवहारः स्यादिति, यद्वा "सिहरी य इत्थदेवे' शिखरी-शिखरिनामा च अत्र-अस्मिन् शिखरिणि पर्वते देवः-अधिपः 'जाव परिवसई' यावत् परिवसति अत्र-यावत्पदेन-महद्धिकादिपल्योपमस्थितिकपर्यन्तपदानामष्टसूत्रोक्तानां सङ्ग्रहो बोध्यः, एतादृशो देवः परिवसति तेन तत्स्वामिकखाच्छिखरीस्येवं स उच्यते तदाह-'से तेणढणं.' एतेनार्थेन इत्यादि प्राग्वत् । अथ सप्तमवर्षे वर्णयितुमुपक्रमते-'कहि णं भंते !' इत्यादि-क खलु भदन्त ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'परावए णामं' ऐरावतं नाम 'वासे' वर्ष 'पण्णत्ते ?' प्रज्ञप्तम् ? इति प्रश्नस्य भगवानुत्तरमाह'गोयमा' गौतम ! 'सिहरिस्स' शिखरिणः-अनन्तरोक्तस्य वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेणउत्तरदिशि 'उत्तरलवणसमुदस्स' उत्तरलवणसमुद्रस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन-दक्षिणदिशि 'पुरथिमलवणसमुदस्स' पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य 'पञ्चत्थिमेण' पशिमेन-पश्चिमदिशि 'पञ्चत्थि'गोयमा! सिहरिम्मि वासहरपव्वए कूडा सिहरिसंठाणसंठिया सव्वरयणा. मया सिहरीय इत्थ देवे बहवे जाव परिवसई' हे गौतम ! इस शिखरी नामके वर्षधर पर्वत पर सिद्धायतन आदि के अतिरिक्त और भी अनेक वृक्षो के आकार जैसे कट है ये कूट सर्वात्मना रत्नमय हैं । इस कारण "शिखरी" ऐसा इनका नाम पड़ा है इस कथन से अन्य वर्षधर पर्वतों से इसकी भिन्नता प्रकट की गई है नहीं तो कटवत्व होने से अन्य पर्वतों में भी शिखरी पद वाच्यता आ जाती यद्वा शिखरी नामका देव यहाँ रहता है यह देव महद्धिक आदि विशेषणों वाला है तथा इसकी आयु एक पल्योपम की है अष्टम सूत्र से यहां पर महर्द्धिक और पल्योपम के भीतर के विशेषणों का संग्रह हुआ जान लेना चाहिये इन्हीं कारणों को लेकर हे गौतम ! इसका ऐसा नाम कहा गया है। कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नाम के द्वीप में ऐरावत नामका क्षेत्र कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु सिहरिसंठाणसंठिया सव्वरयणामया सिहरी अ इत्थ देवे बहवे जाव परिवसई' गौतम! આ શિખરી નામક વર્ષધર પર્વત ઉપર સિદ્ધાયતન વગેરે સિવાય અન્ય કેટલાક વૃક્ષેના આકાર જેવા કુટે છે. સર્વાતમના રનમય છે. એથી એનું નામ “શિખરી એવું પડ્યું છે. આ કથનથી અન્ય વર્ષધર પર્વતેથી એની ભિન્નતા પ્રકટ કરવામાં આવેલી છે. નહિંતર કટત્વ હોવાથી અન્ય પર્વતેમાં પણ શિખરી પ વાગ્યતા આવી જતી. અથવા શિખરી નામક દેવ અહીં રહે છે. આ દેવ મહદ્ધિક વગેરે વિશેષણ વાળે છે તથા એનું આયુષ્ય એક પલ્યોપમ જેટલું છે. અષ્ટમ સૂત્રમાંથી અહીં મહદ્ધિક અને પોપમની મધ્યમાં આવેલા વિશેષણેને સંગ્રહ જાણ જોઈએ. એ બધાં કારણોને લીધે એનું નામ “શિખરી ४पामा मासु छ. 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते' मत! આ જ બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં ઐરાવત નામક ક્ષેત્ર કયા સ્થળે આવેલું છે? એના જવાબમાં Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाकाशि टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४४ रम्यकवर्ष निरूपणम् मलवणसमुदस्स' पश्चिमलवणसमुद्रस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन-पूर्वदिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'एरावए गाम' ऐरावतं नाम 'वासे' वर्ष 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तम्, तच्च कीदृशम्-इत्याह-'खाणुबहुले' स्थाणुबहुलं कीलबहुलं 'कंटकबहुले' कण्टकबहुलम् ‘एवं' एवम् अनेन प्रकारेण 'जा चेव' यैव 'भरहस्स वत्तव्यया' भरतस्य वक्तव्यता 'सेव' सैर वक्तव्यताऽस्यापि वर्षस्य 'सव्वा' सर्वा, नतु शाटयेकदेशे दग्धे सर्वाशाटी दग्धेत्यादौ सर्वशब्दस्यावयवेऽपि व्यवहारस्य दर्शनादेकांशतोऽपि भरतवक्तव्यता गृह्यतेत्यत आह-'निरवसेसा' निरवशेषा-अवशेषांशरहिता वक्तव्यता 'णेयव्या' नेतव्या-बोधविषयतां प्रापणीया बोध्येत्यर्थः, सा च वक्तव्यता कथम्भूता? इत्याह-'सओअवणा' ससाधना-पट् खण्डैरावतक्षेत्रसाधनारहिता, तथा 'सणिक्खमणा' सनिष्क्रमणा-परिव्रज्याग्रहणकल्याणकवर्णकसहिता, तस्यां सत्यामपि विशेष प्रदर्शयितुमाह-'णवरं' नवरं-केवलम् ‘एरावो चक्कट्टी' ऐरावतः-ऐरावतनामकः चक्रवती भरते भरतचक्रवर्तिवदत्र भणितव्यः तस्य भरतचक्रवर्तिन इव दिग्विजयप्रयाणादिकं वक्तव्यम् तेनैरावतस्वामिकबादस्यैरावतमित्येवं नामोच्यते, यद्वाकहते हैं-'गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलवणसमुहस्स दक्खिणेणं पुरस्थिम लवणसमुहस्स पच्चस्थिमेणं पच्चस्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं एस्थ णं जंबुद्दीबे दीवे एरावए णामं वासे पण्णत्ते' हे गौतम ! शिखरी वर्षधर पर्वत की उत्तरदिशा में, तथा उत्तरदिग्वर्ती लवणसमुद्र की दक्षिण दिशा में, पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र की पश्चिमदिशा में एवं पश्चिमदिग्वर्ती लवणसमुद्र की पूर्वदिशा में इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में एरावत नामका क्षेत्र कहा गया है, यह क्षेत्र 'खाणुबहुले एवं जच्चेय भरहस्स वत्तव्यया सच्चेव सव्वा निरसेसा णेयव्वा' स्थाणुबहुलहै, कंटकबहल है, इस तरह की जो वक्तव्यता पहिले भरत क्षेत्र के वर्णन प्रकरण में कही जी चुकी है वही सब वक्तव्यता पूर्ण रूप से यहां पर भी जाननी चाहिये क्यों कि भरत क्षेत्र का वर्णन एकसा है 'सओअवणा सणिक्खमणा सपरिनिव्वाणा णवरं एरावओ चक्कवट्टी एरावओ देवो, से तेणटेणं एरावएवासे २' भरत क्षेत्र प्रभु के छ. 'गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं उत्तरलवणसमुदस्स दक्खिणेणं पुरथिमलवण. समुदस्स पच्चत्थिमेणं पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरथिमेणं एत्थणं जंबुद्दीवे दीवे एरावए णाम पासे पण्णत्ते' हे गौतम ! शिमरी १५२ ५५ तनी उत्तर दिशाम तथा उत्तर हिवती લવણ સમુદ્રની દક્ષિણ દિશામાં, પૂર્વ દિગ્વતી લવણ સમુદ્રની પશ્ચિમ દિશામાં તેમજ પશ્ચિમ દિગ્વતી લવ સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં આ જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપમાં ચરવત નામક ક્ષેત્ર मोक्ष छ. म 'खाणुबहुले कटकबहुले एवं जच्चेव भरहस्त वत्तचया सच्चे सव्वा निरवसेसा णेयव्या' २था मर्डर छे. ४८४ मत छ. से प्रमाणे रे पातयता ५वे ભરત ક્ષેત્રના વર્ણન પ્રકરણમાં કહેવામાં આવેલી છે, તે પ્રમાણે જ બધી વક્તવ્યતા પૂર્ણ રૂપમાં અહીં પણ જાણી લેવી જોઈએ. કેમકે ભરતક્ષેત્ર અને એરવત ક્ષેત્રનું વર્ણન એક Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसः 'एरावो देवो' ऐरावतो देवो महकिलादि विशिष्ट पल्योएमस्थितिकखसम्पन्नः परिवसति तेन तत्स्वामिकवादस्यैरावतमिति नाम व्यवहियते, तदाह-'से तेणटेणं एरावए वासे २' स तेनार्थेन ऐरावतं वर्षम् २ इति निगमनवाक्यं पूर्ववहनीयम् ।।सू० ४४॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचक्रपञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगधपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्री-शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य'-पदविभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-वालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-व्रतिविरचितायां श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रस्य प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां चतुर्थो वक्षस्कारः समाप्त: ४॥ जिस प्रकार छहखंडों से युक्त कहा गया है उसी प्रकार यह ऐरावत क्षेत्र भी छह खंडों से मंडित कहा गया है। वहां जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती छह खंडो का शासन करता है उसी प्रकार यहां पर भी ऐरावत नामका चक्रवर्ती यहां के छह खंडो पर शासन करता है भरत चक्रवर्ती जिस प्रकार सकल संयम को धारण कर मुक्तरमा का वरण करता है उसी प्रकार यहां का ऐरावत चक्रवतो भी सकलसंयम धारण कर मुक्तिरमा का वरण करता है तात्पर्य कहने का यही है कि यहां की जितनी भी वक्तव्यता है वह सब भरत खंड के जैसी ही है यदि कुछ अन्तर है तो वह चक्रवती के नामको लेकर ही है बाकी का और कोई अन्तर नहीं है अतः हे गौतम ! इस एरावत चक्रवती इसका स्वामी होने से तथा ऐरावत नामक महर्द्धिक देवका इसमें निवास होने से इस क्षेत्र का नाम ऐरावत ऐसा कहा गया है॥४४॥ ॥चौथा वक्षस्कार समाप्त ।। सरभु छे. 'सओअवणा सणिक्खमणा सपरिनिव्वाणो णवरं एरावओ चक्कवट्टी एरा- वओ देवो, से तेणट्रेणं एरावएवासे २' मरत क्षेत्र प्रमाणे ६ 3थी युत वाम गाव છે, તે પ્રમાણે જ આ અરવત ક્ષેત્ર પણ ૬ ખંડોથી મંડિત કહેવામાં આવેલું છે. અહીં જે પ્રમાણે ભરત ચક્રવર્તી ૬ ખડે ઉપર શાસન કરે છે તે પ્રમ ણે જ અહીં પણ એરવત નામક ચક્રવતી અહીંના ૬ ખંડે ઉપર શાસન કરે છે. ભરત ચક્રવર્તી જેમ સકલ સંયમ ધારણ કરીને મુક્તિ માનું વરણ કરે છે, તેમજ અહીંને અરવત ચક્રવતી પણ સકલ સંયમ ધારણ કરીને મુક્તિ માનું વરણ કરે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અહીંની જેટલી વક્તવ્યતા છે તે વક્તવ્યતા સંપૂર્ણ રૂપમાં ભરત ખંડ જેવી જ છે. જે કંઇક તફાવત છે તે તે ફક્ત ચક્રવર્તીના નામને જ છે. શેષ કોઈ પણ જાતનો તફાવત નથી. એથી હે ગૌતમ! આ એરવત ચક્રવતી તેને સ્વામી હોવાથી તથા અરવત નામક મહદ્ધિક દેવ આ ક્ષેત્રમાં નિવાસ કરે છે, એથી આ ક્ષેત્રનું નામ અરવત એવું કહેવામાં આવેલું છે. એ સૂત્ર-૪૪ છે છે ચેાથે વક્ષસ્કારસંપૂર્ણ છે Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवझस्कारः सू. ४४ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् पञ्चमवक्षस्कार प्रारभ्यते सम्प्रति यदुक्तं पाण्डुकम्बलाशिलादौ सिंहासनवर्णनाधिकारे 'अत्र जिना अभिपिच्यन्ते' तत् सिंहावलोकनन्यायेन अनुस्मरन् ज़िनामाभिषेकोत्सववर्णनाथ प्रस्तावना सूत्रमाह"जयाणं" इत्यादि। मूलम्-जया णं एक्कमेक्के चक्कट्टिविजए भगवतो तित्थयरा समुप्पज्जंति, तेणं कालेणं तेणं सभएणं अहे लोगवथवाओ अट्ट दिसा कुमारीओ महत्तरिआओ सएहिं सएहिं कूडे हिं सएहिं सएहिं भवणेहि सएहि२ पासायवडे सएहिं, पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणिअसाहस्सीहिं चउहि महत्तरिआहिं सपरिवाराहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तएहिं अणिआहिवईहिं सोलसएहिं आयरक्खदेवसाहस्तीहिं अण्णेहिय बहूहि भवणवइवाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडाओ महयाहयणगीयवाइय जाव भोगभोगाइं भुंजमाणीओ विहरंति, तं जहा भोगंकरा १ भोगवई २ सुभोगा ३ भोगमालिनी । तोयधारा ५ विचित्ता य ६ पुप्फमाला ७ अणिदिया ८॥१॥ तएणं तासिं अहेलोगवत्थव्वाणं अटण्हं दिसाकुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, तएणं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलिआई पासंति पासित्ता ओहिं पति पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति आभोएत्ता अण्णमण्णं सदावेंति सदावित्ता एवं वयासीउप्पण्णे खलु भो ! जम्बुद्दीवे दीवे भयवं ! तित्थयरे तं जीयमेअंतीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहेलोगवत्थव्वाणं अटण्हं दिसाकुमारी महत्तरिआणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्भणमहिमं करेमो तिकट्ठ एवं वयंति, वइत्ता पत्तेयं पत्तेयं आभिओगिए देवे सदावेति सदाक्त्तिा एवं वयासी-खिप्पा. मेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखम्भसयसण्णिविट्रे लीलट्रिअ० एवं विमाणवण्णओ भाणियवो जाव जोयणविच्छिपणे दिव्वे जाणविमाणे Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूर विउव्वित्ता एयमाणत्तियं पञ्चपिणह त्ति । तएणं ते आभिओगा देवा अणेग खम्भसय जाव पञ्चप्पिनति, तएणं ताओ अहेलोगवत्थवाओ अट्टदिसाकुमारी महत्तरिआओ हट्टतुट्ट० पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअ. साहस्सीहिं. चउहि महत्तरिाहिं जाव अण्णेहिं बहहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडाओ ते. दिवे जाणविमाणे दुरूहंति दुरूहित्ता सव्वड्ढीए सबजुईए घणमुइंगपणपाइअरवेणं ताए उकिटाए जाव देव मईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेहिं दिव्वेहिं जाणविमाणेहिं तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति करिता उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले ते दिवे जाणविमाणे ठविति ठवित्ता पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअसहस्सेहिं जाव सद्धिं संपरिखुडाओ दिव्वेहितो जाणविमाणेहिंतो पच्चोरुहंति पञ्चोरुहिता सब्बद्धीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिखुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेंति करित्तापत्तेयं पतेयं करयलपरिग्यहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-णमोत्थुः ते रयणकुच्छिधारिए जगप्पईवदाईए सव्वजगमंगलस्स चक्खुपणो य मुत्तस्स सम्बजगजीववच्छलस्स हियकारगमग्गदेसियपाणिद्धि विभुप्पभुस्त जिणस्स गाणिस्स नायगस्त बुहस्स बोहगस्स सव्वलोगनाहस्स निम्ममस्स पवरकुलसमुन्भवस्स जाईए खत्तिअस्स से लोगुत्तमस्त जणणी धण्णासि तं पुण्णासि कयथासि अम्हेणं देवाणुप्पिए! अहे लोगवत्थचाओ अट्ठ दिसाकुमारी महत्तरिआओ भगवओ तित्थगरस्त जम्मणमहिमं करिस्सामो तण्णं तुब्भेहिं ण भाइव्वं इति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकमंति अवकमित्ता वेडक्लिअसमुग्घाएणं समोहणंति सम्मोहणित्ता संखिजाई जोयणाई दंड Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् निसरंति, तं जहा रयणाणं जाव संवट्टगवाए विउव्वंति विउवित्ता तेणं सिवेगं मउएणं मारुएणं अणु एणं भूमितलविमलकरणेणं मणहरेणं सम्वोउ अ सुरहिकुसुमगंधाणुवासिएणं पिंडिमणिहारिमेणं गंधु एणं तिरिकं पनाइएणं भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं से जहा णामए कम्मगरदारए सिआ जाव तहेव जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कटुं वा कथवरं वा असुइमचोक्खं पूइअं दुब्भिगंधं तं सवं आहुणिअ एगंते ऐडंति एडित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य अदूरसामंते आगायमाणीओ परिगायमाणोओ चिट्ठति ॥सू०१॥ ___ छाया-यदा खलु एकैकस्मिन् चक्रवत्तिविनये भगवन्तस्तीर्थकराः समुत्पद्यन्ते तेन समयेन अधोलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमार्यों महत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः कूटैः स्वकैः स्वकैः भवनैः स्वकैःस्वकैःप्रासादावतंसकैःप्रत्येक प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रः चतसृभिः महातरिकाभिः सपरिवाराभिः सप्तभिः अनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिरात्मरक्षक देवसहस्रैः अन्वैश्व बहुभिः भवनपतिवानमन्तरैः देवैः देवी भिश्च सार्द्ध संपरिवृत्ताः महताहतनाटयगीतवादित यावत् भोग भोगानि भुञ्जानो विहरन्ति तद्यथा 'भोगंकरा १ भोगवती २ सुभोगा ३ भोगमालिनी ४।। तोयधरा ५ विचित्राच ६ पुष्पमाला ६ अनिन्दिता ८॥१॥ ततः खलु तासाम् अधोलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारीणां महत्तरिकाणां प्रत्येक प्रत्येकम् आसनानि प्रचलन्ति । ततः खलु ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमार्यों महतरिकाः प्रत्येकं प्रत्येकमासनानि चलितानि पश्यन्ति दृष्ट्वा अवधि प्रयुञ्जन्ति प्रयुज्य भगवन्तं तीर्थकरम् अवधिना आभोगयन्ति आभोग्य अन्यमन्यं शब्दयित्वा एवमवादिषुः उत्पन्नः खलु भो ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवांस्तीर्थकरः तज्जीतमेतत् अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानाम् अधोलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारी महत्तरिकाणां भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्ममहिमानं कर्तुम् । तद् गच्छामः खलु वयमपि भगवतो जन्ममहिमानं कुर्म इति कृखा एवं वदन्ति उदिखा प्रत्येक प्रत्येकमाभियोगिकान् देवान् शब्दयन्ति शब्दयित्वा एवमवादिषुः-क्षिप्रमेव भो देवाणुप्रियाः! अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टानि लीलास्थिशालभञ्जिकाकानि, एवं विमानवर्णको भणितव्यो यावत् योजन विस्तीर्णानि दिव्यानि यानविमानानि विकुर्वत विकुर्व्य एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत इति । ततः खलु ते भाभियोगिका देवाः अनेकस्तम्भशत यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु ता अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः हृष्टतुष्ट • प्रत्येकं प्रत्येकं सामानिकसहस्रः चतमृभिः महत्तरिकाभिः याबद् अन्यैः बहुभिर्देवैर्देवी ज०६९ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्रे भिश्च सार्द्धं सपरिवृताः तानि दिव्यानि यानविमानानि दुरोहन्ति दुरुह्य सर्वद्धर्चा सर्वत्या घनमृदङ्गपणवप्रवादितश्वेण तथा उत्कृष्टया यावत् देवगत्या यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य भगवतस्तीर्थकस्य जन्मभवनं तैः दिव्यैः यानविमानैः त्रिः कृत्व आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृला उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ई पच्चतुरङ्गुलमसम्प्राप्तानि घरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि - स्थापयन्ति स्थापयिता प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः यावत्सार्द्धं संपरिवृताः दिव्येभ्यो यानविमानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवरुह्य सर्व यावत् नादितेन यत्रैव भगवान् तीर्थकरस्तीर्थर माता च तत्रैव उपगच्छन्ति उपागत्य भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थकरमातरं च त्रिः ः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृत्वा प्रत्येकं प्रत्येकं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादिषुः नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधार के जगत्प्रदीपदीपिके सर्वजगन्मङ्गलस्य चक्षुषश्च मुक्तस्य सर्वजगज्जीववत्सलस्य हितकारकमार्गदेशक चक्र ऋद्धिविभु. प्रभुस्य जिनस्य ज्ञानिनः नायकस्य बुद्धस्य बोधकस्य सर्वलोकनाथस्य निममस्य प्रवरकुशलसमुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य लोकोत्तमस्य यदसि जननी तत् धन्याऽसि, पुण्याऽसि कृतार्थाऽसि वयं खलु हे देवानुप्रिय ! अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिका ः भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानम् करिष्यामः तत् खलु युष्माभिर्न भेतव्यम् इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामन्ति अपक्रम्य वैक्रियसमुदघातेन समबध्नन्ति समवहत्य सङ्ख्यातानि योजनानि दण्डं निसृजन्ति तद्यथा रत्नानां यावत् संवर्त्तकवातान् विकुर्वन्ति विकुर्व्य तेन शिवेन मृदुकेन मारुतेन अनुद्धृतेन भूमितल विमलकरणेन मनोहरेण सर्वर्तुक सुरभिकुसुमगन्धानुवासि तेन पिण्डिमनिहरिमेण गन्धोद्धुरेण तिर्यक् प्रवातेन भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्तात् योजनप रिमण्डलम् स यथानामकः कर्म कारदारकः स्यात् यावत् तथैव यत् तत्र तृणं वा पत्र वा कावा कचवरं वा अशुचि अचोक्षम् पूतिकम् दुरभिगन्धं तत्सर्वम् आधूय आय एकाते एडयन्ति एडयित्वा यत्रैव भगवान् तीर्थकर स्तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य भगवतीर्थकरस्य तीर्थकरमातुच अदरसामन्ते आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति ॥ सू० १ || टीका - "जया णं" इत्यादि । 'जया णं एक्कमे के चक्कवट्टिविजये भगवंतो तित्रा समुपज्जंति' यदा खलु यस्मिन् काले किल एकैकस्मिन् चक्रवर्त्ति विजये क्षेत्रखण्डे भरतेपंचम वक्षस्कार का कथन प्रारंभ 'जया णं एक्मेक्के चक्कवट्टि विजए-' इत्यादि इस सूत्र द्वारा सूत्रकार जिनेन्द्र देव के जन्माभिषेक का वर्णन करते हुए પાંચમા વક્ષસ્કારના પ્રારંભ- 'जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टि विजए' इत्यादि ટીકા-આ સૂત્ર વધુ સૂત્રકાર જિનેન્દ્ર દેવના જન્માભિષેકનુ વર્ણન કરતાં કહે છે 'जया णं एक्कमेक्के चक्कवट्टिविजए' यवर्ती द्वारा विद्वेतव्य क्षेत्र अउ ३५ रे - Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् ५४७ रावताद, भगवन्तस्तीर्थकराः समुत्पद्यन्ते तदाऽयं जन्ममहोत्सवः प्रवर्तते इति भावः, एकैकस्मिन्नित्यत्र च वीप्साकरणात् सर्वत्रापि कर्मभूमौ जिनजन्मसम्भवो यथाकालमभिहित इति, अन्यथा चक्रवर्तिविजये इत्येतावन्मात्रोको अकर्मभूमिषु देवकुर्वादिषु सर्वत्र जिनजन्मसम्भवः स्यात् अतः एकैकस्मिनित्यत्र वीप्सोपादानं सङ्गच्छते । तत्र तीर्थकरजन्ममहोत्सवे अधोलोकवासिनीनाष्टानां दिवकुमारीणां स्वरूपमाह - ' तेणं कालेणं' इत्यादि । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं अहेलोगवत्थव्त्राओ अट्ठदिसाकुमारीओ महत्तरियाओ' तस्मिन् काले सम्भवज्जिनजन्मके भरतैरावतेषु तृतीयचतुर्थारिकलक्षणे महाविदेहेषु चतुर्थारक प्रतिभागलक्षणे, तत्र सर्वदापि तदाद्यसमयसदृश कालस्य वर्तमानत्वात् तस्मिन् समये सर्वत्रापि अर्द्धरात्रलक्षणे तीर्थकराणां हि मध्यरात्र एव जन्मसम्भवात् अधोलोकवास्तव्याः चतुर्णां गजदन्तानामधः समभूतलाम् नवयोजनरूपां तिर्यग्लोकव्यवस्थां विशुच्य प्रतिगजदन्तं द्विद्वि भावेन तत्र भवनेषु वसनशीलाः अष्टौ दिक्कुमार्यो दिक्कुमार - भवनपति जातीयाः, महत्तरिकाः स्वर्येषु प्रधानतरिकाः 'सएहिं सरहिं कूडेहिं' स्वकेषु स्वकेषु कूटेषु गजदन्तादि गिरिवर्तिषु, ' Reis Reft भवणेहि' स्वकेषु स्वकेषु भवनेषु भवनपतिदेवावासेषु 'सएहिं सरहिं पासायवडेंस एहिं' स्वकेषु स्वकेषु प्रासादावतंसकेषु प्रासादश्रेष्ठेषु स्वस्वकूटवर्त्ति क्रीडावासेषु कहते है 'जयाणं एक्कमेक्के चक्कवट्टि विजए' जब एक चक्रवर्ति द्वारा विजेतव्य क्षेत्र खण्डरूप भरत ऐरवत 'आदि क्षेत्रों में 'भगवंतो तित्थयरा समुप्पज्जंति' भगवन्त तीर्थकर उत्पन्न होते हैं । 'ते णं कालेणं तेगं समएणं अहे लोगवत्थवाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ' तब उस कालमें और उस समय में तृतीय चतुर्थ आरेमें एवं अर्धरात्रि के समय में तीर्थंकर भगवंतो के उत्पन्न होने पर अधोलोक मे रहनेवाली आठ दिक्कुमारी देवियां जो कि अपने वर्गकी देवियों में प्रधानतर होती हैं 'सएहिं २ कूडेहिं सएहिं २ भवणेहिं सएहिं २ पासायवडेंस एहि पत्तेयं २ भरत, भैरवत माहि क्षेत्रोभां 'भगवंतो तित्थयश समुप्पज्जंति' भगवन्त तीर्थ ४२ उत्पन्न याय छे. 'तेणं कालेणं तेण समएणं अहे लोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरिआओ' त्यारे ते કાળમાં અને તે સમયમાં તૃતીય-ચતુ આરામાં તેમજ અધ રાત્રિના સમયમાં તીથ કર ભગવન્તા ઉત્પન્ન થઈ જાય ત્યારે અધેાલેાકમાં રહેનારી આદિકુમારી દેવીએ કે જેએ પેાતાના वर्गनी हेवी मां प्रधानतर होय छे. 'सएहिं २ कूडेहिं सएहिं २ भवणेहिं सएहिं २ पासा य (१) यहां आदि शब्द से महाविदेह क्षेत्र लिया गया है इनमें बीस तीर्थंकर विद्यमान रहते हैं - महाविदेहों में सदा चौथा आरा रहता है । (૧) અહીં આદિ શબ્દથી મહાવિદેહ ક્ષેત્ર ગ્રહણ કરવામાં આવેલું છે. આ ક્ષેત્રમાં ૨૦ તીર્થંકરો વિદ્યમાન રહે છે. મહાવિદેહેામાં સર્વાંદા ચતુર્થ આરા રહે છે. Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र सूत्रे च सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् 'पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं' प्रत्येक प्रत्येकं चतुभिः सामानिकानां दिक्कुमारी सदृशद्युति विभवादिकदेवानां सहस्त्रैः चतुः सहस्त्र संख्यकसामानिकदेवैरित्यर्थः 'चउहि महत्तरियाहिं सपरिवाराहि' चतसृभिः महत्तरिकाभिः दिक्कुमारिकातुल्यविभवाभिः सपरिवाराभिः स्वस्वपरिवारसहिताभिः 'सत्तहिं अणिएहिं' सप्तभिरनीकैः गजाश्वरथपदातिमहिषगन्धर्वनाटयरूपैः 'सत्तहिं अणिआहिवई हिं' सप्तभि अनीकाधिपतिभिः सोलसएहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' षोडशभिरात्मरक्षकसदेवहौः षोडशसहस्रसंख्यकैः आत्मरक्षकदेवैरित्यर्थः 'अण्णेहिय बहूहिं भवणवइबाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडाभो' अन्यैश्च बहुभिः भवनपतिवानमन्तरैः देवैः देवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृताः संवेष्टिताः ननु कांसाचिद् दिक्कुमारीणां व्यक्ता स्थानाङ्गे पल्योपमस्थिते भणनात् समानजातीयत्वेन एतासामपि दिक्कुमारीणां तथाभूतायुषः सम्भाव्यमानत्वाद् भवनपतिजातीयत्वं सिद्धं तेन भवनपतिजातीयानां वानव्यन्तरजातीयपरिकरः कथं सङ्गतो भवति चेत् उच्यते, एतासां महर्दिकत्वेन ये आज्ञाकारिणो व्यन्तरास्ते ग्राह्या इति, अथवा वानमन्तरशब्देन अत्र वनानामन्तरेषु चरन्ति ये ते वानमन्तरा इति यौगिकार्थव्युत्पादनेन भवनपतयोऽपि वानमन्तरशब्देन गृह्यन्ते उभयेषामपि प्रायो वनादिषु विहरशीलत्वात् 'महयाहयणगीयवाइय जाव भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति' महताऽहतनाटयगीतवादित यावत् भोगभोगान् भुञ्जानाः विहरन्ति, अत्र यावत्पदात् तन्त्रीतलताल तूर्य घनमृदङ्ग पटुप्रवादितरवेणेति ग्राह्यम्, तथा च महताऽहतनाटयगीतवादिततन्त्रीतलतालतूघनमृदङ्गपटुप्रवादितरवेण तत्र महता चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं च उहिं महत्तरिआहिं सपरिवाराहिं' वे प्रत्येक अपने २ कटों में अपने अपने भवनों में अपने २ प्रासादावतंसको में चार हजार सामानिक देवो, चार सपरिवार महत्तरिकाओं 'सत्तहिं अणिएहि सात सेनाओं, 'सत्तहि अणीयाहिवई हिं' सात अनीकाधिपतियों, 'सोलसएहिं आयक्खदेवसाह स्सीहिं' सोलह हजार आत्मरक्षक देवों, एवं 'अण्णेहिं य बहूहिं भवणवइवाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपेरिखुडाओ महयायणगीयवाइय जाव भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति' और भी दूसरे अनेक भवनपति एवं वानव्यन्तर देव एवं देवियों से संपरिवृत होती हुई नाटय गीत आदि की ध्वनियों एवं वडे सएहिं पत्तेयं २ चउहि सामाणिय साहस्सीहि चउहि महत्तरिआहिं सपरिवाराहि ते ४२ દરેક પિત–પિતાના ફૂટમાં, પિત–પિતાના ભવનમાં, પિત–પિતાને પ્રાસાદાવાંસકામાં, ચાર M२ सामानि हे, यार स५२वार भत्तरिमे। 'सत्तहि अणीयाहिवईहिं' सात सनाधिपतिया, 'सोलसएहिं आयक्खदेवसाहस्सीहि' से परमात्म २६४ हे। तमा 'अण्णेहि य बहूहिं भवणवइवाणमंतरेहिं देवेहि देवीहि य सद्धि संपरिवुडाओ महवा हय णगीय वाइय जाव भोगभोगाई भुजमाणीओ विहरति' मने मी ५ मन मननपति તેમજ વનવ્યંતર દેવ અને દેવીઓથી સંપરિવૃત્ત થઈને નાટ્ય, ગીત વગેરે વિનિએ તેમજ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Antara टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् બાર प्रधानेन बृहता वा इत्यस्य रवेणेत्यग्रे सम्बन्धः अहतः अनुबद्धो रवस्य विशेषणम्, नाटयं नृतं तेन युक्तं गीतं तच्च वादितानि च शब्दवन्ति कृतानि तन्त्री च वीणा तलौ च हस्तौ तालाच कंशिका : तूर्याणि च पटहादीनि इति वादिततन्त्रीतलतालतूर्याणि तानि च तथा घनो मेघः तदाकारो यो मृदङ्गो ध्वनिगाम्भीर्य साधर्म्यात् स चासौ पटुना दक्षेण प्रादितश्च यः स घनमृदङ्गपटुप्रवादितः स चेति अहतनाटयगीतवादिततन्त्रीतलतालतूर्यघन मृदङ्गपटुप्रवादिता इति इतरेतरद्वन्द्वाद् बहुवचनम् तेषां यो वः तेन करणभूतेन महता रवेण शब्देन अत्र च मृदङ्गग्रहणं तूर्येषु प्रधानं बोध्यम् भोग भोगान् भुञ्जानाः अनुभवन्त्यः ताः दिक्कुमारीमहत्तरिका : विहरन्ति तिष्ठन्ति, आसां नामान्याह - 'तं जहा - भोगंकरा १, भोगवइ २, सुभोगा ३, भोगमालिनी ४ । तोयधरा ५, विचित्ता य ६, पुप्फमाला ७, अणिदिया ८ ॥ भोरा १ भोगवती २ सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ । तोयधरा ५ विचित्राच ६ पुष्पमाला ७ अनिन्दिता ८ ॥ १ ॥ - विविध प्रकार के बाजों की गडगडाट की ध्वनियों से मनोविनोदपूर्वक भोगों को भोगने में लगी हुई थी उन आठ दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से हैंभोगंकरा १ भोगवती २ सुभोगा ३ भोगमालिनी ४ ॥ ४ ॥ तोयधारा ५ विचित्राच ६ पुष्पमाला ७ अनिन्दिता ८ ॥ १ ॥ - जब भरत और ऐरवत आदि क्षेत्रों में भगवन्त तीर्थंकर का जन्म होता है, तभी यह जन्ममहोत्सव होता है तीर्थंकर प्रभु का जन्म कर्मभूमि में इम कालों में ही होता है इससे यह जानना चाहिये कि देवकुरू आदि अकर्मभूमियों में तीर्थकर का जन्म नहीं होना है और इन कालों के अतिरिक्त अन्यकालों में नहीं होता है । जब तीर्थंकर प्रभु गर्भ में आते हैं तब ५६ दिक्कुमारीयां प्रभु की माताकी सेवा करने के लिये उपस्थित हो जाती हैं इनमें जो आठ दिक्कुमारियां उनका क्या स्वरूप है यह यहां प्रकट किया गया है जब तृतीय आरा समाप्त વિવિધ પ્રકારના વાદ્યોની ગડગડાટની ધ્વનિએથી મનેાવિનાદ પૂર્વક ભાગે ભાગવવામાં પ્રવૃત્ત હતી. તે આઠ દિકુમારિકાઓના નામે આ પ્રમાણે છે-ભાગકરા-૧, ભાગવતી ૨, सुलोगा 3, लोगभासिनी ४, तोयधरा य, विचित्रा ६, पुष्पभासा ७ अने अनिन्दिता ८. જ્યારે ભરત અને અરવત વગેરે ક્ષેત્રમાં ભગવન્ત તીય કર જન્મ ધારણ કરે છે, ત્યારે જ આ જન્મોત્સવ થાય છે. તી...કર પ્રભુના જન્મ કભૂમિમાં એ કાળે માં જ થાય છે. એથી આ પણ જાણી શકાય કે દેવકુરુ વગેરે અક ભૂમિમાં તી કરાના જન્મ થતા નથી, અને આ કાલેા સિવાય ખીજા કાળેમાં થતા નથી. જ્યારે તૌકર પ્રભુ ગÖમાં આવે છે ત્યારે ૫૬ દિકુમારીએ પ્રભુની માતાની સેવા કરવા માટે ઉપસ્થિત થઈ જાય છે. એમાં જે આઠ દિકુમારીએ છે તેમના સ્વરૂપે કેવાં છે એ વિશે અહીં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવેલી છે. જ્યારે તૃતીય આરા સમાપ્ત થવાની અણી પર હાય અને પથ્યનું. આઠમું પ્રમાણુ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** ६५० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे or ear एवं विहरन्तिसु किं जातमित्याह - 'तए णं' इत्यादि 'तर णं तासि अहे लोगवत्थव्वाणं अहं दिक्कुमारीणं मयहरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाणि चलंति' ततः खलु तदनन्तरं किल तासामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिक्कुमारीणां महतरिकाणाम् प्रत्येकं प्रत्येकमासनानि चलन्ति चलितानि भवन्ति 'तर णं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीओ महत्तरियाओ पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलियाई पासंति, ततः- आसन चलनानन्दरं खलु ताः अधोलोकवास्तव्याः अष्टों दिक्कुमार्यो महत्तरिकाः प्रत्येकं प्रत्येकम्, आसनानि स्वकीयासनानि चलितानि कम्पितानि पश्यन्ति 'पासिता' दृष्ट्वा 'ओहि परंजंति' अवधि प्रयुञ्जन्ति ' अवधिज्ञानेन जानन्ति 'पउंजित्ता' प्रयुज्य ताः दिक्कुमार्या: 'भगवं तिथयरं होते २ पल्य के आठवें प्रमाण बाकी रहता है-तभी से कुलकरों की उत्पत्ति होना प्रारम्भ हो जाती है तृतीय कालकी समाप्ति का समय जब ८४ लाख पूर्व और ३ | वर्ष बाकी था तब आदिनाथ प्रभु का जन्म हुआ था और पाचों कल्याणक होकर वे मोक्ष में चले गये थे । इसी बात को सूचित करने के लिये तृतीय चतुर्थ आरे को भगवन्त तीर्थंकरों की उत्पत्ति का काल कहा गया है तथा हर एक तीर्थकर का जन्म मध्यरात्रि में ही होता है इस बात को प्रकट करने के लिये "ते णं समएणं" ऐसा कहा गया है। 'तए णं तासि अहे लोगवत्थव्वाणं अहं दिसाकुमारीणं जयहरिआणं पत्ते २ आसणाई चलति' जब तीर्थ कर प्रभु का जन्म हो चुका तब उन अधोलोक वास्तव्य आठ महत्तरिक दिक्कुमारियों के प्रत्येक के आसन चलायमान होने लगे' 'तए णं ताओ अहे लोगवत्थवाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ पत्तेयं २ आसणाई चलिआई पासंति' जब उन अधोलोक वास्तव्य आठ महारिक दिक्कुमारिकाओंने अपने आसन कंपित होते हुए देखे तो 'पासित्ता ओहिं पअंति' देख શેષ રહે છે, ત્યારથી જ કુલકરાના જન્મ થવા માંડે છે, તૃતીય કાળની સમાપ્તિને જ્યારે સમય ૮૪ લાખ પૂર્વ અને વર્ષાં શેષ હતે ત્યારે આદિનાથ પ્રભુને જન્મ થયું અને પાંચ કલ્યાણક થઇને તેમશ્રી મેાક્ષધામમાં જતા રહ્યા હતા. એજ વાતને સૂચિત કરવા માટે તૃતીય--ચતુ આરાને ભગવન્ત તીર્થંકરાની ઉત્પત્તિના કાળ કહેવામાં આવેલે છે. તથા દરેક તી કરના જન્મ મધ્ય રાત્રિમાં જ થાય છે. એ વાતને પ્રગટ કરવા માટે 'तेणं समएणं' येषु' हेवामां आवे छे 'तरणं तासि' अहोलोगवत्थन्त्राणं अदृष्हं दिसा कुमारीणं मयहरिआणं पत्तेयं २ आसणाई चलंति' क्यारे तीर्थ ४२ अनोन्म धर्म गयो ત્યારે તે અધેલે'કમાં વસનારી આઠ મહત્તરિકા દિકુમારિકાએ માંથી દરેકે-દરેકના આસના ચલાયમાન થવા साग्या. 'तणं ताओ अहेलोगवत्थव्त्राओ अट्ठदिसाकुमारीओ महत्तरिया ओ पत्तेय २ आसणाई चलिआई पसंति' क्यारे ते अधोमां वसनारी आहे महत्तरिहिंड्डुभा२ि४ाओ। पोत- पोताना आसन उचित थता या त्यारे 'पासित्ता ओहिं पर Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् ५५१ ओहिणा आभीएंति' भगवन्तं तीर्थकरम् अवधिना अवधिज्ञानेन आभोगयन्ति जानन्तीत्यर्थः 'आभोएत्ता' आभोग्य ज्ञात्वा अण्णमण्णं सदाविति' अन्योऽन्यं परस्परम् शब्दयन्ति एकद्वि. त्रि चतस्रः पञ्च षट् सप्ताष्टौ दिककुमार्यः प्रति एवम् एता अपि ताः प्रति परस्पर माह्वयन्ति इत्यर्थः 'सदायित्ता' शब्दयित्वा आहूय एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण ताः दिक्कुमार्यः अवादिषुः उक्तवत्यः 'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दावे भगवं तित्थयरे तं जीयमेअं तीअपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहे लोगवत्थयाणं अटण्हं दिसाकुमारी महत्तरियाणं भगवो तित्थ-. गरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए' उत्पन्नः खलु भोः ! जम्बूद्वीपे द्वीपे-जम्बूद्वीपनामके द्वीपखण्डे भगवांस्तीर्थकरः तज्जीतमेतत्-आचार एषः अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानामधोलोकवास्तव्यनामष्टानां दिक्कुमारीमहत्तरिकाणां भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं कर्तुम् 'तं गच्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्मणसहिमं करेमोत्तिकटु एवं वयंति' तत् तस्मात्कारणात् गच्छामः खलु वयमपि भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सव कर उन्होंने अपने अवधिज्ञान को व्यावृत किया 'पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति' अवधिज्ञान को व्यावृत करके उन्होंने उससे भगवान् तीर्थकर को देखा 'आभोएत्ता अण्णमण्णं सद्दाविति' देख कर फिर उन्होंने एक दूसरे को बुलाया और 'सदावित्ता एवं वयासी' वुलाकर ऐसी वातचीत की 'उप्पण्णे खलु भो जंजूदीवे दीवे भयवं तित्थयरे तं जीअमेयं तीयपच्चुप्पण्णमणागयाणं अहे लोगवत्थव्याणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं भगवओ. तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करित्तए' जम्बूद्वीप नामके द्वीप में भगवान् तीर्थकर उत्पन्न हुए हैं तो अतीत, वर्तमान् एवं अनागत महत्तरिक आठ दिक्कुमारिकाओं का यह आचार है कि वे भगवान् तीर्थकर का जन्ममहोत्सव करें । 'तंगच्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्मणमहिमं करेभोत्तिकदृ एवं वयंति' तो चलो हम भी भगवान् तीर्थ कर के जन्म की महिमा करें-ऐसा बातचीत करके उन जंति' नभए पोताना अवधिज्ञान व्यक्त '. 'पउजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएंति' अवधिज्ञानने व्याकृत शेन तेणे नाथी भगवान ती ४२२ लया. 'अभोएत्ता अण्णमण्णं सहाविति' निधन पछी तेभरे से-मीलने माताच्या मने 'सदावित्ता एवं वयासी' मासावीने मा प्रमाणे पातयात ४२१. 'उप्पण्णे खलु भो जंबृद्दीवे दीवे भयवं तित्थयरे तं जीअमेयं तीय पच्चुप्पण्णमणागयाणं अहे लोगवत्थब्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करित्तए' दी५ नाम दीयमा भगवान् ती ४२ ઉત્પન્ન થયા છે. તે અતીત, વર્તમાન તીર્થકર ઉત્પન્ન થયા છે. તે અતીત, વર્તમાન તેમજ અનાગત મહત્તરિક આડ દિકુમારિકા ને એ આચાર છે કે તેઓ ભગવાન तीय"४२ने म महात्सप रे. 'तं गच्छामो णं अम्हे वि भगवओ जम्मणमहिमं करेमोत्ति कटु एवं वयंत्ति' ते! या, मापणे ५५ सवे मारी।मे। भगीन भावान् ती ४२॥ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जम्बूद्वीपप्रतिस्पे कुर्म इति कृत्वा इति विचार्य मनसा एवम् अनन्तरोक्तं वदन्ति 'वइत्ता' वदित्वा 'पत्तेयं पत्तेयं आभिभोगिए देवे सदावेंति' प्रत्येकं प्रत्येकम् आभियोगिकान् आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयन्ति आह्वयन्ति 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण ता अष्टौ दिक्कुमार्यः भवादिषु : - उक्तवत्यः 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखं भसय सणfag लीलट्ठिअसालिभंजियाए एवं विमाणवण्ण मो भाणियव्त्रो' क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः अनेक स्तम्भशतसन्निविष्टानि अनेकानि बहूनि स्तम्भशतानि अनेक शतसंख्यक स्तम्भाः, सन्निविष्टानि संग्नानि येषु विमानेषु तानि तथाभूतानि, तथा लीलस्थितशालिभञ्जिकाकानि - लीलास्थित शालिभञ्जिकाः 'पुतली' इति भाषा प्रसिद्धाः ताः सन्ति शोभार्थ येषु तानि तथाभूतानि इत्येवम् अनेन क्रमेण विमानवर्णको भणितव्यः, स चायम् 'ई हामिग उस भतुरगणर मगर विहगवालग किंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्ति सभी ने एक निर्णय किया 'वइत्ता पत्तेयं२ आभिओगिए देवे सहावेंति' ऐसा निर्णय करके फिर उन्होंने प्रत्येकने अपने २ आभियोगिक देवों को बुलाया 'सद्दावित्ता एवं वयासी' बुलाकर उनसे ऐसा कहा - 'खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! अगखंभसय सण्णविद्वे लीलट्ठिय सालिभंजियाए एवं विमाणवण्णओ भाणियन्वो' हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही सैकडो खंभोवाले, तथा जिन में लीला करती हुइ स्थिति में अनेक पुतलियां शोभा के निमित्त बनाई गई हों ऐसे 'पूर्व में किये गये विमानवर्णक की तरह वर्णन वाले 'जाब जोयणविच्छिण्णे दिव्वे जाणविमाणे' यावत् एक योजन के विस्तार वाले दिव्य यान विमानों की 'विउब्वित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणहत्ति' विकुर्वणा करके हमलोगों को इस आज्ञा की समाप्ति हो जाने की खबर दो यहां विमान का यह वर्णन इसके पहिले २ का इस प्रकार से है - "इहामिग उस भतुरगणर मगर विहगवालगकिन्नर रुरुसर भचमर भन्भनो भडिना पुरी. मा रीते तेथे सर्वे भारि भजीने निर्णय ये. 'वइत्ता पत्तेयं २ आभिओगिए देवे सहावे ति' मेंवे। निय हरीने पछी तेथेोभाथी हरेडे पोत-पोताना माभियोग देवाने मोसाच्या 'सद्दावित्ता एवं क्यासी' गोसावीने तेभाणे या प्रमाणे धु 'विपामेव भो देवाणुम्पिया ! अणेग खंभसयसाण्णिविट्ठे लीलट्ठिय सालिभंजियाए एवं विमाणवण्णओ भाणियव्त्रो' हे देवानुप्रियो ! तमे दो। शीघ्र हमरो स्त भोवाणा तेभर मनाम લીલા કરતી સ્થિતિમાં અનેક પુત્તલિકાએ શેાભા માટે બનાવવામાં આવી છે એવા પૂર્વે विभान वशुभां वर्षाच्या शुभम' वासुंनवाला 'जाव जोयणविच्छिष्णे दिव्वे जाणविमाणे' यावत् ो योजन नेट्वा विस्तारवाना दिव्य यान विभाननी 'विउव्वित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणहत्ति' विरुवा हरीने पछी सभारी या भाज्ञानु पालन ४२वामां आवे छे, એવી અમને સૂચના આપો. અહીં' વિમાન વિશેનુ તે વર્ણન જે પહેલાં કરવામાં આવ્યું Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् चित्ते खंभुग्गयवहरवेइ परिगयाभिरामे विज्जाहरजमलजुयसलजन्तजुत्ते विव अच्चीसहस्समालिणीए रूवगहासकलिए भिसमाणे भिब्भिसमाणे चक्खुल्लोअणले से सुहफासे सस्सिरीयरूवे घंटावलिअमहुरमणहरसरे सुभे कंते दरिसणिज्जे निउणोवियमिसिमिसेन्तमणिर यण घंटियाजाल परिक्सिले त्ति' ईहामृगसषमतुरगनरम करविड़गाल ककिन्नररुरुशरभचामरकुञ्जरवनलतापमलताभक्तिचित्राणि स्तम्भोगतवनवेदिकापरिगताभिरामाणि विद्याधर यमलयुगलयन्त्रयुक्तानि इवाचिसहस्रमालिनीकानि रूपसहस्रकलितानि भास्यमानानि बाभास्यमानानि चक्षुलोचनलेश्यानि मुखस्पर्शानि सश्रीकरूपाणि घण्टावलिकमधुरमनोहरसदृशानि शुभानि कान्तालि दर्शनीयानि 'मिसिमिसेन्त' मणिरत्नघण्टिकाजालपरिक्षिप्तानि इति । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव जोयणपिच्छिण्णे दिव्वे जाणविमाणे विउव्यह' इति यावद् योजनविस्तीणीन दिव्यानि यानविज्ञानान, यानाय इष्टस्थाने गमनाय विमानानि अथवा यानरूपाणि वाहनहाणि विमानानि यानविमानानि विकुर्वत वैक्रियशक्त्या सम्पादयत 'विउञ्चित्ता' विकुरिला बैंक्रियशक्त्या सम्पाद्य 'एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह'त्ति, एताम् उक्तप्रकारामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयत समर्पयत इति । 'तए णं ते आमिओगा देवा अणेगखंभसय जाव पच्चप्पिणति' ततः खलु तदनन्तरं किल ते आभियोगिकाः आज्ञाकारिणो देवा अनेक कुंजरवणलया पउमलयभत्तिचित्ते' खंभुग्गयवइरवेइया परिग्गयाभिरामे, विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्त विव अच्चीसहस्समालिणीए, रूवगसहस्सकलिए, भिसमाणे, भिभिसमाणे, चक्खुल्लोअणलेसे, सुहफासे, सस्सि. रीयख्वे, धंटावलियमहरमणहरसरे, सुभे, कंते, दरिसणिज्जे, निउणोविय मिसमितमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्ते" इन सब पदों की व्याख्या पहिले राजप्रश्नीयादि ग्रन्थों में की जा चुकी है 'तएणं ते आभिओगा देवा अणेगखंभसय जाब पच्चप्पिणंति' इस प्रकार से दिक्कुमारियों के द्वारा आज्ञप्त हुए उन आभियोगिय देवोंने अनेक सैकडो खंभोवाले आदि विशेषणों से युक्त उन यान विमानों को अपनी चिक्रिया शक्ति से निष्पन्न करके उनको उनकी छ ते ॥ प्रभाव छ-'इहामिगउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलया पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवइरवेश्यापरिगायाभिरामे, विजाहरजमलजुअलजंतजुत्ते विव अच्चीसहरसमालिणीए, रूबगसहस्सकलिए, भिसमाणे, भिभिसमाणे, चक्खुल्लोअणलेसे, सुहफासे, सस्सिरीयरूवे, घंटावलिय महुरमणहरसरे, सुभे, कंते, दरिसणिज्जे निउणोवियमिसमिसे तमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्ते' से गधा पहानी व्याच्या प्रश्नीय सूत्रनी समाये स्थेस सुमपि व्यायामां मने अन्य सूत्र अन्धेमा ४२वामां मावेसी छे. 'तरण ते आभिओगा देवा अणेगखंभसय जाव पच्चप्पिणंति' मा प्रमाणे हिमारित्रामा 43 मास થયેલા તે આભિગિક દેવેએ હજારો સ્તંભેવાળા વગેરે વિશેષણેથી યુક્ત તે યાનવિમાનેને પિતાની વિક્રિયા શકિતથી નિષ્પન્ન કરીને તે કુમારિકાઓએ જે પ્રમાણે કરવાની ज० ७० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे } स्तम्भशतसन्निविष्टानि यावदाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति दिक्कुमारिका वा आज्ञानुसारेण विमानसम्पादनरूपं कार्य वैक्रियशक्त्या सम्पाद्य तामाज्ञप्तिं दिक्कुमारीभ्यः समर्पयन्तीत्यर्थः 'तए णं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ द्वड ०' ततः खलु ता अधोलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिका ः हृष्टतुष्टेति पदैकदेशदर्शनेन सम्पूर्ण आलापको ग्राह्यः स चायं तथाहि - हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः प्रीतमनसः परमसौमनस्थिताः, हवशविसर्पद् हृदयाः, विकसितवरकमलनयनाः प्रचलितवर कटक त्रुटितकेयूरकुण्डलहार विराजमानरतिदवक्षस्काः प्रालम्बप्रलम्बमानघोलन्त भूषणधराः ससंभ्रमं त्वरितं चपलं सिंहासनाद् अभ्युत्तिष्ठन्ति, अभ्युत्थाय पादपीठात प्रत्यवरोहन्ति प्रत्यवस्ा 'पत्तेयं पत्तेयं चरहिं सामाणिअ साहस्सीहिं चउहिं महत्तरियाहिं जाव अण्णेहिं बहूहिं देवेहिं देवीहिं अ सद्धि संपरिवुडाओ यथावत् आज्ञा संपादित हो जाने की खबर देदी 'तएणं ताओ अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिक्कुमारी महत्तरियाओ हट्ट तुट्ट० पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सी हिं चउहिँ महत्तरियाहिं जाव अण्जेहिं बहूहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडाओ ते दिव्वे जाणविमाने दूरुहंति' खबर पाते ही वे प्रत्येक अधोलोक वास्तव्य आठ महत्तरिका रूप दिक्कुमारीयां हर्षित एवं तुष्ट आदि विशेषणों वाली होती चार हजार सामानिक देवों, चार महत्तरिकाओं, यावत् अन्य और अनेक देव देवियों के साथ २ उन विकुर्वित एक २ योजन के विस्तारवाले यान विमानों पर आरूढ हो गये "हतुङ ०" पद से गृहीत हुआ संपूर्ण आलापक इस प्रकार से हैं 'हृष्टतुष्ट चित्तानंदिताः, प्रीतिमनसः, परम सौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पदहृदयाः, विकसितवर कमलनयना, प्रचलितवर कटक त्रुटित केयूरकुण्डलहार विराजमानरतिद्वक्षस्काः, प्रालम्बप्रलम्बमानघोलन्तभूषणधराः ससंभ्रमं त्वरितं चपलं सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठन्ति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहઆજ્ઞા કરી હતી તે આજ્ઞાનું સોંપૂર્ણ રીતે પાલન કરીને તેમણે આજ્ઞા પૂરી થવાની સૂચના આપી. 'त एणं ताओ अहे लोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिक्कुमारी महत्तरियाओ हट्टु तुट्ठ. पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहि चउहिं महत्तरियाहिं जाव अण्णेहि बहूहि देवेहि ं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ ते दिव्वे जानविमाणे दुरूहंति' अमर भजतां ४ ते અધાલે!ક વાસ્તવ્ય આઠ દિકુમારીકાએ હર્ષિત તેમજ તુષ્ટ્ર આદિ વિશેષણાવાળી થઈને ચાર હજાર સામાનિક દેવે, ચાર મઢુત્તરિકાએ યાવત્ અન્ય ઘણાં દેવ-દેવીઓની સાથે ત્રિકુવિ`ત તે એક-એક ચેાજન જેટલા વિસ્તારવાળા યાન–વિમાના ઉપર આરૂઢ થઈ गया. 'हट्ठ तुटु० 'पथी गृहीत थयेस स ंपूर्ण भासाया प्रभागे छे - ' हृष्टतुष्ठचित्तानंदित प्रीतिमनसः, परम सौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पद्हदयाः, विकसितवरकमलनचना, प्रचलिताः वरकटक त्रुटितकेयूरकुण्डलहारविराजमानरतिवक्षस्काः प्रालम्बप्रलम्बमान घोलन्त भूषणधराः ससंभ्रमं त्वरितं, चपलं सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठन्ति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्य- “ ५५४ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् ते दिव्वे जाणविमाणे दुरूहंति' प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः चतसृभिर्महत्तरिकाभिः यावदन्यैश्च बहुभिर्देवैः देवी भिश्च सार्द्ध संपरिवृत्ताः-संवेष्टिताः सत्यः तानि दिव्यानि यानविमानानि दुरोहन्ति आरोहन्ति 'दुरुहित्ता' दुरुह्य आरुह्य 'सविड्डीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइयरवेणं' सर्वर्या सर्वसंपदा सर्वद्युत्या सर्वकान्त्या धनमृदङ्गपणवप्रवादितरवेण तत्र-घनो मेघस्तदाकारो यो मृदङ्गः ध्वनिगाम्भीर्यसादृश्यात् पणवो मृत्पटहः उपलक्षणमेतत् तेन अन्वेषामपि तूर्यादीनां संग्रहः एतेषां प्रवादितानां यो रवः शब्दस्तेन तथा भूतेन, तथा 'ताए उकिटाए जाव देवगईए जे गेव भगवो तित्थगरस्स जम्मगणगरे जेणेव तित्थगरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छति' तया उत्कृष्टया यावदेवगत्या यत्रैव भगवत. स्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च तीर्थकरस्प जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति, अत्र यावत्पदात् त्वरया चपलया चण्डया सिंहया दिव्यया इति ग्राह्यम् एषां व्याख्यानन्तु अस्मिन्नेव वक्षस्कारे सप्तमसूत्रे द्रष्टव्यम् । 'उागच्छित्ता' उपागत्य ताः अष्टौ दिक्कुमार्यः 'भगवभो तित्थयरस्स न्ति, प्रत्यवरुह्य" । दुरुहित्ता सविट्टीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइयरवेणं ताए उक्ट्टियाए जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणयरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति उन विमानों पर आरूढ होकर वे सबकी सब आठ महत्तरिक दिग्कुमारियां अपनी २ पूर्ण संपत्ति, पूर्ण द्युति पूर्णकान्ति से युक्त होती हुई मेघ के आकार जैसे मृदङ्ग और पटह आदि वादित्रों की गडगडाहट के साथ अपनी उस उत्कृष्ट आदि विशेषणों वाली देवगति से चलतो चलती जहां भगवान् तीर्थ कर की जन्म नगरी थी और उसमें भी जहां उन तीर्थंकर प्रभु का जन्म का भवन था. वहां पर आई "त्वरया, चपलया, चण्डया, सिंहया, दिव्यया" ये देवगति के विशेषण है। इनकी व्याख्या यथा स्थान की जा चुकी है। यदि इसे देखना हो तो ७ वे वक्षस्कार के सप्तम सूत्रको देखो। 'उवगच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेहिं दिव्वेहिं जाण. वरोहान्ति, प्रत्यवरुह्य । दुरुहित्ता सव्वइढीए सव्वजुईए घणमुइंगपणवपवाइयरवेणं ताए उक्किट्याए जाव देवगईए जेणेव भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणयरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मण भवणे तेणेव उवागच्छति' विमान ५२ मा३८ ते स म भत्तरि हिमाરીએ પિતાની પૂર્ણ સંપત્તિ, પૂર્ણતિ, પૂર્ણકાંતિથી યુક્ત થતી, મેઘના આકાર જેવા મૃદંગ અને પટહ વગેરે વાદ્યોના ગડગડાહટ સાથે પોતાની ઉત્કૃષ્ટ વગેરે વિશેષણવાળી દેવગતિથી ચાલતી ચાલતી જ્યાં ભગવાન તીર્થકરની જન્મ નગરી હતી અને તેમાં પણ જ્યાં તે तीथ ४२ प्रसुनु म स तु त्यां गई. 'त्वरया चवलया, चण्डया, सिंहया, दिव्यया' એ બધા દેવગતિના વિશેષ છે. એ પદની વ્યાખ્યા યથાસ્થાને કરવામાં આવી છે. જેને આ પદની વ્યાખ્યા વાંચવી હોય તેઓ સાતમાં વક્ષસ્કારના સાતમા સૂત્રને વાંચે. 'उवागच्छित्ता भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेहिं दिव्वेहिं जाणविमाणेहि तिखुसो Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जम्मणभवणं तेहिं दिव्वे हि जाणविमाणेहिं ति खुत्तो आया हिणपयाहिणं करेंति' भगवतः तीर्थकरस्य जन्मभवनं ते दिव्यै नाविमानै स्त्रिः कृतः-वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणकुर्वन्ति त्रीन् वारान् प्रदक्षिणयन्तीत्यर्थः 'करित्ता' कृखा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य ताः दिक्कुमार्यः उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले ते दिवे जाण विमाणे ठविति उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशान कोणे ईषच्चतुरङ्गुलमसम्प्राप्तानि चतुरङ्गुलतोऽपि नयनस्थानं न त्यक्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि स्थापयन्ति 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसहस्सेहिं जाव सद्धिं संपरिवुडापो दिव्वे हितो जाणविमाणेहितो पच्चोरुहंति' प्रत्येक प्रत्येकं चतुर्भिः सागानिकसहस्त्रैः यावतू सार्द्ध सम्परिवृत्ताः वेष्टिताः सत्यः ता अष्टौ दिक्कुमार्यः दिव्यैः यानविमानैः प्रत्यवरोहन्ति अवतरन्ति, अत्र यावत्पदात् चतसृभिः महत्तरिकाभिः सपरिवाराभिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिरास्मरक्षकदेवसहस्रैः अन्यैश्च बहुभिःभवनपतिवानव्यन्तः देवैः देवीभिश्चति ग्राह्यम् ‘पञ्चोरुहित्ता' विमाणेहिं तिखुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति' वहां आकर के उन्होंने उन विमानो द्वारा भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन की तीन प्रदक्षिणाएं की 'करित्ता उत्तरपुरथिमे दिसीभाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले ते दिवे जाणवि माणे ठाविति' तीन प्रदक्षिणा करके ईशान दिशामें फिर उन्होंने अपने २ उन यान विमानों को जमीन से चार अंगुल अधर आकाश में ही खडा किया 'ठवित्ता पत्तय २ चउहि सामाणियलाहस्सीहिं जाव सद्धि संपरिवुडाओ दिव्वेहिंतो जाणविमाणेहिंतो पच्चोरुहंति' आकाश में खड़ा करके वे प्रत्येक अपने २ चार हजार सामानिक देव आदिकों के साथ २ उन दिव्य यान विमानों से नीचे उतरी यहां यावत्पद से चलमृभिः महत्तरिकाभिः सपरिवाराभिः, सप्तभिरनीकैः, ससभिरनीकाधिपतिभिः षोडशभिशत्मरक्षकदेवसहस्त्रैः अन्यैश्च बहुभिः भवनपतिवानव्यन्तरदेवैः देवोभिश्च" इस पीछे के पाठका ग्रहण हुआ है। 'पच्चोरुहित्ता सव्वडोए जाव णाइए णं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थ. आयाहिणं पयाहिणं करे ति' त्यो न तभणे ते विमान! 3 जवान ती ४२ना म सपननी प्रक्षिाये। ४२१. 'करित्ता उत्तरपुरथिमे दिसीमाए ईसि चउरंगुलमसंपत्ते धरणियले तं दिवे जाणविमाणे ठविति' त्रशु प्रहक्षिा । ४शन पछी तमाणे पात-पाताना यान-विमानाने शान भi - Aqयत ४ा. 'ठवित्ता पत्तेयं २ च उहि सामाणिय साहस्सीहिं जाव सिद्धि संपरिघुडाओ दिव्वेहि तो जाणविमाणे हितोपच्चोरुहंति' -24.४शमा જ પિતા પિતાના યાન–વિમાનેને અવસ્થિત કરીને તે આમાંથી દરેકે દરેક પિત–પિતાના ચાર હજાર સામાનિક દેવ વગેરેની સાથે-સાથે તે દિવ્ય યાન-વિમાનમાંથી નીચે ઉતરી, यापत ५४थी 'चतुसृभिः महत्तरिकाभिः सपरिवाराभिः सप्तभिरनीकैः, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः दशभिरात्मरक्षकदेवसहस्त्रैः अन्यैश्च बहुभिः भवनपतिवानव्यंतरदेवैः देवीभिश्च' मा पूर्व पानुषो Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् ५५७ प्रत्यवरुन अवतीर्य सन्धिद्धीए जाब णाइएणं जेगेव भगवं तित्ययरे तित्ययरमाया य तेणेव उबागच्छंति' सर्वद्धा यावत् नादिन यत्रैव भगवांस्तीर्यकर तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति, अत्र यावत्पदात् सर्वधु या घनमृदङ्गपणयमवादितरवेग तया उत्कृष्टया यावदेवगत्या इति ग्राह्य कियत्पर्यन्तमित्याह-नादितेनेति-शङ्खपणव भेरीझल्लरीखरमुखीहुडुक्कमुरजमृदङ्गदुन्दुभिनिवाषनादिनेति 'उवागच्छित्सा' उपागत्य, ता अष्टौ दिक्कुमार्यः 'भावं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिखुत्तो आवाहिण पयाहिणं करेंति' भगवन्त तीर्थकरमावरं च त्रिः कृत्व:त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति 'करिता' कृत्वा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य 'पत्तेयं पत्तेयं करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी' प्रत्येकं प्रत्येक करतलपरिगृहीतं दश खं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषुः उक्तवत्यः, ता अष्टौ दिक्कुपायः किमादिषुरित्याह-'णमोस्थु ते रयणकुच्छियारिए' इत्यादि। नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारिके ! रत्नं भगवल्लक्षणं कुक्षौ उदरे धरतीति रत्नकुक्षिधारिका तस्य सम्बोधने हे रत्नकुक्षिधारिके ! तीर्थकरमातः ! ते तुभ्यं नमोऽस्तु तथा 'जगप्पईवदाइए' यरमाया य तेणेव उवागच्छंति' उतर कर फिर वे अपनी समस्तऋद्धि आदि सहित ही जहां भगवन् तीर्थकर और तीर्थकर की माता थी वहां पह गई । 'उवागच्छित्ता भयवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिखुत्तो आयाहिणपयाहिगं करे ति' वहां जाकर उन्होंने ती.थं कर और तीर्थ कर को माताकी तीन प्रदक्षिणाएं की 'करित्ता पत्तय२ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी' तीन प्रदक्षिणाएं करके उन प्रत्येक ने अपने दोनों हाथों की अंजुलिबनाकर यावत् उसे मस्तक पर घुमा कर इस प्रकार से कहा-'णमोत्थुते रयणकुच्छिधारिए जगथ्यईवदाईए सव्वजगनंगलस्स चरखुणो अ मुत्तस्स सचजगज्जीववच्छलस्त' हे रत्नकुक्षि धारिके-तीर्थकर माता ! आपको हम सरका नमस्कार हो, हे जगत् प्रदीप दीपिके! जगत्वर्ती समस्तजन एवं समस्त पदार्थ के प्रकाशक होने के कारण दीपक के जैसे १ ४२:2। छे. 'पच्चोरुहित्ता सव्वड्ढीए जाव णाइएणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमया य तेणेव उवागच्छंति' नीये तरी पछी तेसो पातानी समस्त ऋद्धि पोरे स6 rii भगवान् तीथ ४२ भने तीथ ३२ना भाताश्री त त्यो . 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिखुते आयाहिणपयाहिण करेंति' त्यां न तेभणे तय ४२ भने तीय ४२ना माताश्रीन ऋण प्रक्षणासो ४३. 'करित्ता पत्तेयं २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी' त्रय प्रहक्षिणासाशन पछी तमामाथी ४२४ दिशामा२ि१ એ પિતાના હાથેની અંજલિ બનાવીને યાવત્ તે અંજલિને મસ્તક ઉપર ફેરવીને આ प्रमाणे घु-'णमोत्थु ते रयणकुच्छिधारिए जग'पईवदाईए सव्यजगभंगलस्स चक्खुणो य मुत्तस्स सव्वजगज्जीक्वच्छलस्स' २त्नक्षिधारि ! ती २ मा ! मा५श्रीन समा२ नमः४२ હે, હે જગત્ પ્રદીપદીપિકે, જગવતી સમસ્તજન તેમજ સમસ્ત પદાર્થોના પ્રકાશક Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जगत् प्रदीपदीपिके जगतो जगद्वति जनानां सर्वभावानां प्रकाशकत्वेन प्रदीप इव प्रदीपो भगवान् तस्य दीपिका तत्सम्बोधने हे जगत्प्रदीपदीपिके ! लोकोत्तमस्य तीर्थङ्करस्य यत्त्वं असि तत्त्वं धन्याऽसि इत्यग्रे सम्बन्धः, कीदृशस्य तीर्थंकरस्य इत्याह-'सबजग मंगलस्स चक्खुणो अ' सर्व जगन्मङ्गस्य सर्व जगन्मङ्गलभूतस्य चक्षुरिव चक्षुः सकल जगद्भावदर्शकत्वात् तस्य च, चः समुच्चये, चक्षुश्च द्रव्यभावभेदाभ्यां द्विधा तत्राधं भावचक्षुरसहकृतं न सर्व प्रकाशकं भवति तेन भावचक्षुषा भगवान् अनुमीयते तस्य भगवतः तीर्थङ्करस्य तथा 'मुत्तस्स सव्व जगजीववच्छल प्रभुको चमकानेवाली हे माता आपको हम सबका नमस्कार हो क्योंकि लोकोत्त मभूत तीर्थ कर की आप माता हो ऐसा आगे के पद के साथ सम्बन्ध है यहां अब तीर्थ कर के विशेषणों की व्याख्या की जाती है वे तीर्थ कर सकल जगत् के पदर्थों के भावों पर्यायों के दर्शक होने से इस संसार में मंगलभूत चक्षु के जैसे हैं द्रव्यचक्षु और भावचक्षु के भेद से चक्षु दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यचक्षु भावचक्षु से अप्तहकृत् हुआ कुछ भी प्रकाश नहीं कर सकता है भावचक्षु ज्ञानरूप होता है द्रव्यचक्षु पौगलिक होता है भगवान को भावचक्षु रूप इसलिये कहा गया है कि वे अपने केवलज्ञान रूप चक्षु से त्रिकालवर्ती पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों सहित ज्ञान होते हैं यद्यपि इस समय वे ऐसे नहीं है आगे ऐसे हो जावेगे अतः भविष्यत्कालिन पर्याय का वर्तमान में उपचार करके यह कथन किया गया है यहां च शब्द समुच्चय अर्थ में प्रयुक्त हुआ है शरीर के साथ आत्मा का जब तक सम्बन्ध है तब तक वह किसी अपेक्षा से मूर्तिक माना गया है जैसा कि "बंधपडिएयत्तं लक्खणदो हवेइ तत्स णाणतं" यह कथन है इसीलिये यहां હોવા બદલ દીપક જેવા પ્રભુને પ્રકાશિત કરનારી હે માતા ! આપશ્રીને અમારા નમસ્કાર છે. કેમકે લેકોત્તમ ભૂત તીર્થકરની આપશ્રી માતા છે, એ આગળના પદની સાથે એને સબંધ છે. અહીં હવે તીર્થકરના વિશેષણની વ્યાખ્યા કરવામાં આવે છે. તે તીર્થકર સમસ્ત જગતના પદાર્થોના ભાવે-પર્યાના દર્શક હવા બદલ આ સંસારમાં મંગલભૂત ચક્ષુ જેવા છે. દ્રવ્ય ચક્ષુ અને ભાવચક્ષુના ભેદથી ચક્ષુ બે પ્રકારનાં હોય છે. દ્રવ્ય ચક્ષુ ભાવચક્ષુથી અસહકૃત થયેલ કોઈને પણ પ્રકાશિત કરી શકતું નથી. ભાવચક્ષુ જ્ઞાન રૂપ હોય છે. દ્રવ્યચક્ષુ પૌગલિક હોય છે. ભગવાનને ભાવચક્ષુ રૂપ એટલા માટે કહેવામાં આવેલા છે કે તેઓશ્રી પિતાના કેવલજ્ઞાન રૂપ ચક્ષુથી ત્રિકાલવત પદાર્થોને, તેમની અનન્ત પર્યાયે સહિત જાણી લે છે. જો કે આ સમયે તેઓશ્રી એવા નથી, ભવિષ્યમાં એવા થઈ જશે. એથી ભવિષ્યત્કાલીન પર્યાયને વર્તમાનમાં ઉપચાર કરીને આ કથન સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે. અહીં “ઘ' શબ્દ સમુચ્ચય અર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. શરીરની સાથે આત્માને જ્યાં સુધી સંબંધ છે ત્યાં સુધી તે કઈ અપેક્ષાથી મૂર્તિક માનવામાં આવે છે. જેમકે'बंध पडिएयत्तं लक्खणदो हाइ तस्स णाणत्तं ॥ ४थन छ. मेथी ही प्रभु भाट Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् स्स' मूर्तस्य चक्षुर्लाह्यस्येत्यर्थः, तथा सर्वनगजोववत्सलस्य-सर्वजगज्जीवानामुपकारकस्य, प्रोक्तार्थे विशेषणद्वारा हेतुमाह-'हियकारगमगादेसिय वागिद्धिविभुपमुस्स' हितकारकमार्गदेशक वाग् ऋद्धि विशुप्रभुकस्य तत्र हितकारको मार्गः मुक्तिमार्गः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र रूपः तस्य देशिका उपदेशदर्शिका तथा विभ्वी सर्वव्यापिनी सफलश्रोत हृदयसंलग्नतात्पर्यार्था एवंविधा वाग् ऋद्धिः-चाक् सम्पत् तस्याः प्रभुः स्वामी सातिशयवचनलब्धिक प्रभु का विशेषण "मुत्तस्स" रखा गया है जनता के चक्षुओं के वे विषय है इसलिये वे मूर्त हैं-चक्षुग्राह्य है अथवा "मुत्तस्स" की छाया मुक्त" ऐसी भी होती है वे प्रभु मुक्ति कान्ना के पति भविष्यत्काल में होगे-समस्त कर्मों का समूल विनाश कर निर्वाण प्राप्त करेंगे इसलिये युवराज को राजा कहने के अनुसार द्रव्यनिक्षेप को लेकर यहां प्रभु को मुक्त ऐसा भी कहा जा सकता है वे प्रभु इसी कारण यहां समस्त जगत् के जीवों के वत्सल परोपकारक इस विशेषण द्वारा अभिहित किये गये हैं 'हियकारगनग्गदेसियवागिद्धि विभुपभुस्स' संसार में जितने भी संयोगी पदार्थ हैं चाहे वे स्त्रीपुत्र मित्रादिरूप हों चाहें माता पिता आदि रूप हों-वे इस जीव के हितकारी-निराइल परिणतिकारी नहीं हो सकते हैं-यदि निराकुल परिणतिकारी कोइ है तो वह मुक्ति का ही मार्ग है-उस मुक्ति के मार्ग को देशना प्रभुने अपनी वाणी द्वारा दो है-वह प्रभुकी वाणी ऐसी होती है कि जो भी जीव उसे सुनता है वह उसकी भाषा में परिणत हो जाती है ऐसी वाणी द्वारा उपदिष्ट सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप जो मुक्ति का मार्ग है वही आत्मा का सच्चा हितकारक है इस बात को प्रभुने 'मुत्तस्स' विशेष भूषामा साव है. नताना यनुमाना तेमाश्री विषय छ, मेथी तमाश्री भूत छे. यक्षु आह छ. अथवा-'मुत्तस्स' नी छाया 'मुक्त' मेवी ५४ थाय छे. તે પ્રભુ મુક્તિ-કાન્તાના પતિ ભવિષ્યત્કાલમાં થવાનું છે. સમસ્ત કર્મોને સમૂલ વિનાશ કરીને તેઓશ્રી નિર્વાણ પ્રાપ્ત કરશે, એથી યુવરાજને રાજા કહીએ તે મુજબ દ્રવ્ય નિક્ષેપને લઈને અહીં પ્રભુને “મુજે એવા પણ કહી શકીએ. તે પ્રભુ આ કારણથી જ અહી સમસ્ત જગતના જીના વત્સલ–પરોપકારક–આ વિશેષણ વડે અભિહિત કરવામાં આવેલા છે. 'हियकारगमग्गदेसिय वागिद्धि विभुपभुस्स' संसारमा २ सय ५६ छ, म ते સ્ત્રી-પુત્ર મિત્રાદિના રૂપે હોય કે ભલે માતા-પિતા વગેરેના રૂપે હોય, તેઓ આ જીવના માટે હિતકારી નિરાકુલ પરિણતકારી થઈ શકે જ નહિ. જે કંઈ પણ નિરાકુલ પરિણત કારી હોય તે તે ફકત મુક્તિને જ માર્ગ છે. તે મુક્તિના માર્ગની દેશના પ્રભુએ પિતાની વાણી દ્વારા આપી છે. તે પ્રભુની વાણું એવી થાય છે કે જે કંઈ જીવ તેને સાંભળે છે. તે તેની ભાષામાં પરિણત થઈ જાય છે. એવી વાણી વડે ઉપદિષ્ટ સમ્યગ્દર્શન, જ્ઞાન, ચારિત્ર રૂપ જે મુક્તિનો માર્ગ છે તેજ માર્ગ આત્માને ખરે હિતકારી છે, એ વાતને Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जम्बूद्वीपप्रक्षप्तिसूत्रे इत्यर्थः, तस्य अत्र विशेषणस्य विभुपदस्य मूले परनिपातः प्राकृतत्वात् , तथा 'जिणस्स गाणिस्स नायगस्स बुहस्स बोहगस्स' जिनस्य रागद्वेषजेतुः तथा ज्ञानिन:-सातिशयज्ञानयुक्तस्य, तथा नायकस्य धर्मश्रेष्ठचक्रवर्तिनः, तथा बुद्धस्य विदितत्त्वस्य तथा बोधकस्य परेषामावेदिततत्वस्य तथा 'सबलोग नाहस्स निम्ममस्स' सकललोकनाथस्य समस्त प्राणिवर्गस्य ज्ञानवीजाधानसंरक्षणाभ्यां योगक्षेमकारित्वाद, तथा निर्ममस्य ममत्वरहितस्य तथा 'पवरकुसमुन्भवस्स जाईए सत्तियःस' प्रदरकुल समुद्भवस्य जात्या क्षत्रियस्य क्षत्रिय सुवंशोत्पन्नस्येत्यर्थः 'जसे लोमुत्तमम्स जणणी धण्णासि तं पुण्णासि कयत्यासि' एवंविध. विख्यातमुणस्य लोकोत्तमाय तीर्थंकरस्य यत्त्वमसि जननी माता तत्वं धन्याऽसि धन्याहा॑ऽसि, समस्त जीवों को समझाया है अतः प्रभु सातिशयवचन लब्धिवाले इस विशे षण द्वारा प्रकट किये गये हैं। 'जिणस्स णाणिस्स नायगस्स बृहस्स बोहगस्स सवलोगनाहस्स निम्ममस्स पवरकुलसंभवस्स जाईए खत्तिअस्स सि लोगुत. मस्स जणणी' उन्हों ने राग वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पाई है इसलिये उन्हे जिन कहा गया है वे सातिशय ज्ञान युक्त हुए हैं इसलिये ज्ञानी उन्हें प्रकट किया गया है नायक उन्हें इसलिये कहा गया है कि वे धर्म के श्रेष्ठ नायक हुए है मोक्ष मार्ग के नेता हुए हैं तत्त्वों के ज्ञाता होने से बुद्ध, दूसरों को तत्वो का ज्ञान कराने से बोधक, समस्त प्राणि वर्ग में ज्ञान रूप बीज के आधान से और उसके संरक्षण से योग क्षेमकारी होने के कारण सकल लोकनाथ, ममताविहीन होने से निर्ममत्व श्रेष्ठ कुलमें उद्भूत होने के कारण प्रवरकुलसमुद्भूत एवं क्षत्रिय वंश में जन्म लेने से जात्या क्षत्रिय प्रकट किये गये हैं। इस प्रकार के विख्यात गुणवाले लोकोत्तम तीर्थ कर की तुम जन्मदात्री-जननी हो इसलिये પ્રભુએ બધા જીવોને સમજાવી છે. જેથી પ્રભુને સાતિય વચન લબ્ધિ રૂપ આ વિશેષણ १९ अट ४.व.मां माव्या छे. 'जिणस्स गोणिरस नायगरस बुहस्स बोहगस्स सव्वलोगनाहस्स निम्नमस्स पबरकुलसंभवस्स जाईप खत्तिअस्स जंसि ले गुत्तमरस जणणी' तेमणे રાગ-દ્વેષ રૂપી અન્તરંગ શત્રુઓ ઉપર વિજય મેળવ્યો છે. એથી જ તેઓ શ્રી જિન કહેવામાં આવે છે. તે શ્રી સતિશય જ્ઞાન યુક્ત થયા છે એથી તેમને જ્ઞાની પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. તેઓ ધર્મના નાયક છે તેથી તેમને નાયક પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. તેઓ મેક્ષ માર્ગના નેતા છે. તેઓ તના જ્ઞાતા હોવાથી બુદ્ધ, બીજાઓને તરોનું જ્ઞાન કરાવે છે તેથી બેધક, સમસ્ત પ્રાણિ વર્ગમાં જ્ઞાન રૂપી બીજનું આધારે તેમજ તેના સંરક્ષણથી યેગ ક્ષેમકારી હોવાથી સલલે ક નાથ મમતા વિહીન હોવાથી નિર્મમત્વ, શ્રેષ્ઠ કુળમાં ઉદ્દભુત હવા બદલ પ્રવર કુલ સમુદ્ભૂત તેમજ ક્ષત્રિય વંશમાં જન્મ લેવાથી જાત્યા ક્ષત્રિય પ્રકટ કરવામાં આવેલા છે. આ પ્રકારના વિખ્યાત ગુણ સંપન્ન લેકત્તમ તીર્થ. ४२नी श्री रामदात्री ननी छ। मेथी 'धण्णासि' तमे धन्य छ।. 'पुण्णासि' पुण्य Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् पुण्याऽसि पुण्यवत्यसि कृतार्थाऽसि सम्पादितप्रयोजनाऽसि 'अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहे लोगवत्थव्याओ अढदिसाकुमारीमहत्तरियामो भगवो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो तण्णं तुब्भे ण भाइअव्वं इति कट्टु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति' हे देवानुप्रिये ! तीर्थङ्करमातः ! वयं खलु अधोलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं करिष्यामः तेन युष्माभि न भेतव्यम् असम्भाव्यमाने अस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीयाः इमाः किमर्थ समुपस्थिताः इत्याशङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इति कृत्वा इत्युक्त्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्र भागम् ईशानकोणम् अपक्रामन्ति गच्छन्ति 'अवकमित्ता' अपक्रम्य 'वेउव्विअसमुग्धाएणं समोदणंति वैक्रिय समुद्घातेन वैक्रियकरणार्यक प्रयत्नविशेषेण समवघ्नन्ति आत्मप्रदेशान् दुरतो विक्षिपन्ति 'समोहणित्ता' समवहत्य आत्मप्रदेशान् दूरतो विक्षिप्य 'संखिजाई जोयणाई दंडं निसरंति' सख्यातानि योजनानि दण्डम् दण्ड व दण्डः ऊर्ध्वाधः आयतः शरीर बाइल्यो जीव प्रदेश त्वं निसृजन्ति शरीराबहि'धण्णासि' तुम धन्य हो 'पुण्णासि' पुण्यवती हो 'कयथासि' और कृतार्थ हो 'अम्हेणं देवाणुप्पिए अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारी महत्तरियाओ भगघओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करीस्सामोतण्णं तुम्भेहि ण भाइअव्वं इति कटु उत्तर पुरथिमं दिसौभागं अवक्कमंति' हे देवानुप्रिये ! हम अधोलोक निवासिनी आठ महत्तरिक दिक्कुमारिकाएं हैं, भगवान् तीर्थकर के जन्ममहोत्सव को करने के लिये आई हुई हैं । अतः आप भयभीत न हों अर्थात् असम्भाव्यमान है पर जनका आपात जिसमें ऐसे इस एकान्त स्थान में विसदृश जातीय ये किसलिये यहां उपस्थित हुइ हैं इस प्रकारकी आशंका से आकुलित चित्त आप न हो ऐसा कहकर वे ईशानकोण में चली गई । 'अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समो. हणंति' वहां जाकर उन्होंने वैक्रिय समुद्धात द्वारा अपने आस्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाला 'समोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई दंडं निसरंति' बाहर पती छ।, 'कयत्था सि' भने कृतार्था छ।, 'अम्हेणं देवाणुप्पिए अहेलोग वत्यव्वाओ अटुदिसा कुमारीमहत्तरियाओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणम हिमं करीस्सामो तण्णं तुम्भेहिं ण भाइयव्वं इति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवकमंति'वानुप्रिये ! मम मधोम Ganસિની આઠ મહત્તરિક દિકુમારીકા બે છીએ. ભગવાન તીર્થકરના જન્મ મહેન્સને ઉજવવા માટે અમે અત્રે આવેલી છીએ, એથી તમે ભયભીત થાઓ નહિ. એટલે ક અસભાયમાન છે પર જનને કાપાત જેમાં એવા આ એકાન્ત સ્થાનમાં વિસદશ જાતીય એઓ શા માટે અત્રે ઉપસ્થિત થયા છે, આ જાતની આશંકાથી આકલિત ચિત્ત આપશ્રી था। नहि. आम ४ीन तेमा शान ! त२६ ती २ही. 'अबक्कमित्ता वेउब्धिय. समुग्घाएणं संमोहणंति' त्यो ४४२ तेभ वैठिय सभुधात पडे. पाताना माम प्रशाने शरीरमाथी म २ पदया. 'सम्मोहणित्ता संखिज्जाइं जोयणाई दंडं निसरंति' HER हीन ज०७१ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे निष्काशयन्ति निहज्य ताः किं कुर्वन्तीत्याह-तं जहा रयणाणं जाव संवट्टगवाए विउव्यंति' तद्यथा रत्नानां यावत् संवर्तकवातान् विकुर्वन्ति अत्र यावरपदात् 'वइराणं वेरुलिआणं, लोहिअक्खाणं, मसारगल्लाणं, हंस भाणं, पुलयाणं, सोगंधियाणं, जोईरसाणं, अंजणाणं, अंजण पुलयाणं, जायरूवाणं, अंशाणं, फलिहाणं रिट्ठाणं, अहाबायरे पुग्गले परिसाउँति परिसाडित्ता अहा सुहुमे पुग्गले परिआदिअंति, दुषि वेउविसपुग्धारणं समोहणंति समोहणित्ता' इतिपदसङ्ग्रहः, हीरकाणाम् १ व त्राणाम् २ वैडूर्याणम् ३ लोहिताक्षःणाम् ४ मसारगल्लानाम् ५ हंसगर्भाणाम् ६ पुलकानाम् ७ सौगन्धकानाम् ८ उयोतिरसानाम् ९ अञ्जनानाम् १० अञ्जन पुलकानाम् ११ जातरूपाणाम् १२ सुवर्णरूप्याणाम् १३ अङ्कानाम् १४ स्फटिकानाम् १५ रिष्टानाम् १६ एतेषां तत् तमाम पोडशरत्नविशेषाणां सम्बन्धिनो यथा बादरान् असारान् पुद्गलान् परिसाटयन्ति परित्यजन्ति, परिसाटय असारान् पुद्गलान् परित्यज्य यथा सूक्ष्मान् सारान् पुद्गलान् पर्याददते गृहन्ति इष्ट कार्य सम्पादनाथ द्वितीयमपि वारम् चैक्रियसमुद्घातेन वैक्रियकरणार्थ प्रयत्नविशेषेण समवघ्नति आत्म प्रदेशान् दृरतो विक्षिनिकाल कर उन आत्मप्रदेशों को उन्होंने संख्यात योजनों तक दण्डाकार में दण्ड के आकार के रूप में-परिणमाया 'तं जहा रयणाणं जाव संवगवाए विउव्वंति, विउविता ते णं सिवेणं मउएणं मारुएणं अणुभूएणं भूमितलविमल करणेगं मणहरेणं' और फिर उन्होंने यावत्पद गृहीत-"वइराणं वेरुलिआणं, लोहियक्खाणं मसारगल्लागं, हंसगम्भाणं, पुलवाणं, सोगंधियाणं, जोइ. रसाणं अंजगाणं, अंजणपुलयाणं, जायरूवाणं, अंकाणं, फलिहाणं' हीरों के, वनों के, वैडूथों के, लोहिताक्षों के, मसारगल्लों के, हंसगर्भो के, पुलकों के, सौगन्धिकों के, ज्योतिरसों के, अञ्जनों के, अञ्जन पुलकों के, जातरूपों के सुवर्णरूपों के, अङ्कों के स्फटिकों के और रिष्टों के तथा रत्नों के असार पुतलों को छोडकर यथा सूक्ष्म पुद्गलों को सार पुद्गलों को ग्रहण किया फिर उन्होंने इष्ट कार्य के संपादन के निमित्त द्वितीय वार भी वैक्रिय रामुद्धात किया और उससे તે આત્મ પ્રદેશોને તેમણે સંખ્યાત એજને સુધી દંડાકારમાં દંડન આકારના રૂપમાં-પરિ त ४ा. 'तं जहा रयणाणं जाव संवट्टगवाए विउव्वंति, विउत्रित्ता तेणं सिवेणं मउएणं मारुएणं अणु एणं भूमितलविमलकरणेणं मणहरेणं' मने पछी तमो यावत् ५६ गृहीत 'वइराणं वेरुलिआण, लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं, हंसगब्भाणं पुलयाणं सोगंधियाणं, जोइरसाणं, अंजणाणं, अंजणपुलयाण, जायरूवाणं, अंकाणं, फलिहाणं' हीयाना, नाना पैडूर्योना, alsaना, मसाnatil, साना, पुरा, सोधियाना, तिरसाना, मनનેના, અંજન પુલકેના, જાત રૂપોના. સુવર્ણરૂપોના, અંના સ્ફટિકના અને રિક્ટના તથા રત્નના અસાર પુદ્ગલેને છોડીને યથા સૂમ પુદ્ગલેને સાર પુદ્ગલેને ગ્રહણ કર્યા. તે પછી તેમણે ઈડટ કાર્યના સંપાદન માટે બીજીવાર પણ વૈકિય સમુદ્યત કર્યો અને તેથી Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् ५६३ पन्ति समवहत्य विक्षिप्य पुनर्वै क्रियसमुद्घातपूर्वकं संवर्त्तकवातान् विकुर्वन्ति इति 'विउब्वित्ता' विकु 'तेणं सिवेणं मउएणं मारुरणं तेन तत्कालविकुर्वितेन शिवेन उपद्रवरहितकल्याणमन, मृदुके भूमिणा मारुतेन वायुना 'अणुद्रणं भूमितल विमलकरणेणं 'मणहरेणं' अनुद्धतेन अनूर्ध्वामिना भूमितलविमकरणेन - पृथिवीतलस्वच्छकारिणा मनोहरेण मानसरञ्जनकारकेण 'सोउ सुरहि कुसुमगंधाणुवासिएणं पिंडिमणिहारिमेणं गंधुद्धएणं तिरिअं पवाइए' सर्व ऋतुकसुर भिकुसुमगन्धानुवासितेन पिण्डमनिहरिमेण गन्धोद्धरेण तिर्यक् प्रवातेन तत्र सर्वऋतुकानां षड् ऋतु समुत्पन्नानां सुरभिकुसुमानां सुगन्धित पुष्पाणां गन्धेन अनुवासितेन पिण्डिमः - पिण्डितः सन् निर्धारिमो-दुरं निर्गमनशीलो यस्तेन तथाभूतेन गन्धेन उद्धरेण वलिष्ठेन, तिर्यक् वातुमारब्धेन प्रवातेन वायुना 'भगव भो वित्थयरस्स जम्म णभवणस्स सच समता जोयणपडिमंडलं' भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः दिक्षु समन्ताद् विदिक्षु योजनपरिषण्डलम् ताः अष्टौ दिक्कुमार्यः 'से जहाणामए कम्मारसंवर्तकवायुकाय की विकुर्वणा की वह वायुकाय शिव-कल्याणरूप था मृदुक: था भूमि के ही ऊपर बहता था इसलिये अनुद्धत था अनूर्ध्वगामी था - ऊपर की ओर नहीं वहता था इससे भूमितल को साफ करनेवाला होने से वह मनोरञ्जक था 'सरोग्य सुरभिकुसुमगंधाणुवासि एणं' समस्त ऋतुओं के पुष्पों की गन्ध से वह वासित था 'पिण्डिमणिहारिमेणं' उसकी गंध विण्डित होकर दूर दूर: तक जाती थी अतः वह (उद्धरेणं) बलिष्ठ था और (तिरिअं पचाइएणं) तिरछा चल रहा था ऐसे ( मारुणं) उस वायुकाय के द्वारा (भगवओ तित्थयरस्स जम्मण भवणस्स सव्वओ समता जोयणपरिमंडलं से जहा णामए कम्मदारए सिआ जाव तहेव) भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन की सब तरफ से अच्छी तरह से उन: आठ महारिक दिक्कुमारियों ने कर्मदारक की तरह संमार्जना की-सफाई की यहां आगत यावत्पाद से कर्मदारक के विशेषणों का बोधक पाठ इस प्रकार से है - यह प्रकट किया गया है - " से जहाणामए कम्मबरदारए सिया तरुणे बलवं, સંવક વાયુકાયની વિષુ ા કરી. તે વાયુકાય શિવ કલ્યાણુ રૂપ હતું. મૃદુક હતું, ભૂમિ ઉપર જ પ્રવાહિત થતું હતું એથી અનુષ્કૃત હતું. અનુગામી હતું, એટલે કે ઉપરની તરફ षडेनारु ं न हुतु. थे भूमित साइरनार तु तेथी मनोरं तु . 'सव्वोउयसुरभि कुसुमगन्धाणुवासिएणं' सर्व ऋतुओना पुष्योनी गंधथी ते भावासित हेतु'. 'पिंडिमणिहारिमे णं' तेनीगरौंध पिउ३५ थाने दूर-दूर सुधी ते! हो, मेथी ते 'उद्धरेणं' शादी तु भने 'तिरिपवाइए. णं' वगतिथी यास तु मेवा 'मारुएणं' ते वायुआय वडे 'मगवओ तिःथयरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समता जोयणपरिमंडल से जहा नामए कम्मदारए सिआ जाव तद्देव' हे भगवान् तीर्थકરના જન્મ ભવનના ચેમેરથી સારી રીતે તે આઠ મહત્તરિક દિકુમારિકાઓએ કર્માંદાર*ની જેમ સમાતા કરી-સફાઈ કરી. અહીં આવેલા યાવત્ પના પાઠથી કમ દારકના Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे दारए सिआ जाव' इत्येतत्सूत्रैकदेशसुचितदृष्टान्तसूत्रान्तर्गतेन सम्मार्जयतीतिपदेन तदेवेति दाष्टन्तिकसूत्रबलादायातेन एकवचनस्य बहुवचनपरकत्वमादाय विभक्तिविपरिणामात् सम्मार्जयन्तीति पदेन सह अन्वय योजना कार्या, यावत् पदा संगृहीतं तच्चेदं दृष्टान्तसूत्रम् ' से जहा णामए कम्मयरदारए सिया तरुणे बळवं जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थददपाणिपाए पितरोरुपरिणए घणनिचि अवट्टवलिअखंधे, चम्मेट्टगदुहणमुट्ठिअ समाहय निचिअगते उरस्सवळस मण्णा गए तलजमलजुअलपरिघबाहू लंघणपवणजवणपमद्दणसमत्थे छेए दवे पट्टे कुसले मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महंत सलागहत्थगं वा दंडसंपुच्छणिं वा वेणुसळागिगं वा गहाय रायंगणं वा रायंतेउरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतुरिअमचवलमसंभंत निरंतरं सनिउणं सव्वओ समन्ता संपमज्जइ' स यथानामको यत्प्रकार नामकः कर्मकरदारकः स्यात् भवेत्, आसन्न मृत्युर्हि दारको न विशिष्ट सामर्थ्यवान भवति इत्यत आह-तरुणः प्रवर्द्धमानवयाः, स च बलहीनोऽपि स्यात् इत्यत " जुगव, जुवाणे, अप्पातंके, थिरग्गहत्थदढपाणिपाए, पिद्वंतरोरुपरिणए, घणणिचिअ वबलियखंधे, चम्मेदुहणमुट्ठिय समायनिचियगत्ते, उरस्सबल सम ण्णा गए, तलजमलजुअलपरिघबाहू, लंघणपवणजइणवमद्दणसमत्थे, छेए, दक्खे, पट्टे, कुसले, मेहावी, णिउणसिप्पोवगए, एगं, महंतं, सिलागहत्थगं वा दण्डसंपुच्छणिं वा वेणुसिलागिगं वा गहाय रायंगणं वा, रायंतेउरं वा देवकुलं वा सभं वा पर्व वा आरामं वा उज्जाणं वा अतुरिय मचवलमसंभंत निरंतरं सनिउणं सव्वओ समता संपमज्जइ" इस पाठ का अर्थ इस प्रकार से है जैसे कोई कर्मदारक वयः प्राप्त नौकरी करनेवाला लडका हो और वह आसन्न मृत्यु से रहित क्यों की आसन्न मृत्युवाला दारक विशिष्ट सामर्थ्योपेत नहीं होता है तथा वह तरुण हो - प्रवर्धमान वयवाला हो बलिष्ठ हो, सुषम दुष्मादि काल में जिसका जन्म हुआ हो, युवावस्था संपन्न हो, किसी भी प्रकार की बिमारी विशेष मोठया प्रमाणे रवामां आवे छे ' से जहाणामए कम्मयरदारए सिया तरुणे बलवं, जुगवं जुवाणे अप्पानंके, थिरम्गहत्थदपाणिपाए, पिट्ठतरोरुपरिणए, घणणिचिअवट्टबलियखंधे, चम्मेट्ठगदुहण, मुट्ठियसमाहय निचियगत्ते, उरस्सबलसमण्णागए, तलजमलजुअलपरिषवाहू, लंघणपवण जइण पमद्दणसमत्थे, छेए, दक्खे पट्टे, कुसले मेहाबी, णिउणसिपगेबगर एगं महंत, सिला गहत्थगं वा दण्डसंपुच्छर्णिवा वेणुसिलागिगं बा हाय रायंगणं वा, राय देउरं वा, देवकुलं वा, सभं वा, पवं वा, आरामं वा, उज्जाणं बा, अतुरिय मचत्रल, मसं भतं निरंतरं सनिउणं सव्त्रओ समंता संपमज्जइ' मा पाहतो अर्थ आ प्रमाणे छे. प्रेम કોઈ ક દારક વયઃ પ્રાપ્ત નાકરી કરનાર કાઇ છેકરા હાય અને તે આસન્ન મૃત્યુથી રહિત ડ્રાય કેમકે આસન્ન મૃત્યુવાળા છોકરા વિશિષ્ટ સામર્થ્યÜપેત હોતા નથી, તથા તે તરુણુ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिनजन्माभिषेकवर्णनम् थाह-बलवान् कालोपद्रवोऽपि विशिष्टसामथ्यविघ्नकारकः संभवतीत्यत आह-युगवान् युग सुषमदुष्पमादि कालः सोऽदुष्टो निरुपद्रवो विशिष्टसामर्थ्य हेतुर्यस्यास्तीति असौ युगवान् एतादृशश्च को भवति ? युवा यौवनवयस्था, ईदृशोऽपि ग्नानः सन् सामर्थहीनो भवतीत्यत आह-अल्पातङ्कः अल्पशब्दो अत्र अभावपरकः, तेन निरातङ्कः (रोगर्मितः) इत्यर्थः तथा स्थिराग्रहस्तः स्थिरः प्रस्तुतकार्यकरणे कम्पमानरहितः अग्रहस्तो हस्ताग्रं यस्या सौ तथाभूतः, तथा-दृढपाणिपादः दृढं निबिडतरमापन्नं पाणिपादं यस्य स तथाभूतः तमा पृष्ठान्तरोरुपरिणतः पृष्ठम् प्रसिद्धम् अन्तरे पार्श्वरूपे ऊरू सक्थिनी एतानि परिणतानि परिनिष्ठितानि यस्य स तथाभूतः अहोनाङ्ग इत्यर्थः, क्तान्तस्य परनिपातः पाक्षिको बोध्यः, तथा घननिचितवृत्तवलितस्कन्धः घननिचित्तौ निविडतरचयमापनौ वलिताविव वलितो हृदयाभिमुखौ जातावित्यर्थः वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तयाभूतः अत्र मूले वृत्त शब्दस्य वलितशब्दात् परप्रयोगः इष्ट पूर्वप्रयोगः प्राकृतत्वाद् बोध्यः, तथा चर्मेष्टर द्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रः चर्मेष्टकेन चर्मपरिणद्ध कुटनोपगरणविशेषेण द्रुघणेण घनेन मुष्टिकया च मुष्टया समाहताः२ सन्तस्ताडितास्ताडिताः सन्तो ये निचिताः निबिडीकृताः प्रवहण प्रेष्यमाण वस्तुग्रन्थकादयस्तद्वद् गात्रं यस्य स तथाभूतः तथा उरस्यबळसमन्वागतः उरसिंभवमुरस्थम् एवंभूतेन बलेन समन्यागतः आन्तरोत्साहवीर्ययुकः, तथा तलयम युगलपरिवबाहुः से विहीन हो, अपने कार्य के करने में जिसका हस्त कम्पन से रहित हो, जिसके हाथ और पैर बहन अधिक मजबूत हो, कोई भी अङ्ग जिसका हीन न हो-परिपूर्ण अंगोवाला हो, स्कन्ध जिसके बहुत मांसल पुष्ट हो हृदय की तरफ झुके हुए हों और गोल आकार के हों, जिसके शारीरिक अवयव चमडे के बन्धनों से युक्त उपकरण विशेष से या मुद्गर से या मुष्टि का से बार २ कूट २ कर बहुत अधिक घन निचित अवयववाली की गई वस्त्रादिक की गांठ की तरह मजबून हों छातीका बल जिसका बहुत अधिक हो-अर्थात् भीतरी उत्साह और वीर्य से जो युक्त हो जिसके बाहु ताल वृक्ष के जैसे एवं હાય પ્રવર્ધમાન વયવાળે હાય, બલિષ્ઠ હોય, સુષમ, દુષમાદિ કાળમાં જેને જન્મ થયો હૈય, યુવાવસ્થા સંપન્ન હોય, તેને કઈ પણ જાતની બીમારી હોય નહ, પિતાનું કામ કરતી વખતે જેના હાથ અને પગ કંપિત થતા નથી એ હય, જેના હાથ અને પગ ખૂબજ સુદઢ હોય, જેનું કઈ પણ અંગ હીન હેય નહિ–એટલે કે તે પરિપૂર્ણ અંગવાળે હેય, સ્કછે જેના અતીવ માંસલ એટલે કે પુષ્ટ હોય, હૃદય તરફ નમેલા હોય તેમજ ગેળાકાર વાળા હોય, જેના શારીરિક અવયે ચામડાના બંધનથી યુક્ત ઉપકરણ વિશેવથી અથવા મુદુગરથી અથવા મુટિકાથી વારંવાર કૂટી-ફૂટીને બહુજ અધિક ઘન નિશ્ચિત અવયવવાળા વસ્ત્રાદિકની ગાંઠની જેમ મજબૂત હોય, જેની છાતી બળવાન હેય એટલે કે ભીતરી ઉત્સાહ અને વીર્યથી જે યુક્ત હોય જેના બાહુ તાલવૃક્ષ જેવા અને લાંબા Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे -तलौ तालवृक्षौ तयो यमलम् समश्रेणीकं ययुगलं द्वयं परिवश्व अर्गला तभिभे तत्सदृशे दीर्घप्तरलपोनत्यादिना बाहू यस्य स तथा भूतः, तथा-लङ्घनप्लवनजवनप्रमर्दनसमर्थः तत्र कवने गादे रतिक्रमगो प्लबने कूदने जबने अतिशीघ्रगमने प्रमर्दने कठिनस्यापि वस्तूनघूर्णने समर्थ:-सक्तः, तथा छेकः कलापण्डितः दक्षः कार्याणामविलम्बितकारी (शीघ्रकारी) प्रष्ठ: बाग्मी कुशलः सम्परुकिया परिज्ञायकः, मेधावी सकृत् श्रुतहष्कर्मज्ञः, निपुणशिल्पोपातः-निपुणं यथास्यात्तथा शिल्पक्रियासु कुशलतामुपगतः प्राप्तः, एवंविधः पुरुषः एक महान्तं शलाकहस्तकं वा सरित्पर्णादिशलाकासमुदाय सरित्पर्णादि शलाकामयीं सम्माजनिकामित्यर्थः क शब्दाः विकल्पार्थाः दण्डसंपुच्छनी वा दण्डयुक्तां सम्मानिकाम् वा, वेणुशलाकिकीं वा वंशशलाकानिवृत्तां संमार्जनिकां गृहीत्वा आदाय राजाङ्गणं वा-राजप्रागणं, राजान्तःपुरं वा, देवकुलं वा, सभां वा, पुरप्रधानानां सुसनिवेशनहेतुमण्ड पिकामित्यर्थः, प्रपा वा पानीयशालाम् आरामं वा दम्पत्यो नगरासन्नरतिश्यानम् , उद्यानं वा क्रीडार्थागतलम्बे अर्गला के जैसे जो गर्त आदि के लांघने में, कूदने में और अति शीघ्र चलने में या अति कठिन भी वस्तु को पूर्ण करने में विशिष्ट शक्तिशाली हो, छेद-कलाभिज्ञ हो, दक्ष हो कार्य करने में विलम्बकर्ता न हो, पृष्ठ वाग्मी हो, कुशल हो-कार्य करने की विधिका ज्ञाता हो, मेधावी हो एकवार सुनकर या देखकर उस २ काम का करनेवाला हो, निपुणशिल्पोगत हो-अच्छी तरह से शिल्प क्रियाओं में कुशलता प्राप्त हो ऐसा वह दारक खजूर के पत्तों की बनी हुई बुहारी को या बासकी सीकों से बनी हुई बुहारी को कि जिसके भीतर दण्ड लगाया गया हो लेकर राजाङ्गण को या राजा के अन्तः पुरको देवकुलको, या पुरप्रधानजनों को सुख से बैठने योग्य किसी मंडपस्थान को, या पानीयशाला को, आराम को-दम्पतीजनों को, जहां रति क्रीडा करने में निश्चिन्तता मिले ऐसे नगरालनवर्ती स्थान को या उद्यान को-क्रीडार्थ आगतजनो के यान बाहन અર્ગલા જેવા હોય, જે ગત વગેરેને ઓળંગવામાં, કૂદકો મારવામાં અને અતિ શીવ્ર ચાલવામાં અથવા અતિ કઠિન વધુને વિચૂર્ણિત કરવામાં વિશિષ્ટ શક્તિશાલી હોય, છેક કલાભિજ્ઞ હોય, દક્ષ હેય, કાર્ય કરવામાં વિલંબ કરનાર હોય નહીં, પ્રચ્છ-વાગ્મી હેય, કુશળ હાય-કાર્ય કરવાની વિધિને જાણનાર હોય, મેધાવી હોય, એક વખત સાંભળીને કે જેઈને કઈ પણ કામને શીખીને કરનાર હેય, નિપુણ- શિપગત હોય, સારી રીતે શિલ૫ કિયાઓમાં કુશલતા પ્રાપ્ત હોય” એ તે દારક ખજૂરના પાંદડાની બનેલી સાવરણીને અથવા વાંસની સીકોની બનેલી સાવરણીને કે જેની અંદર દંડ બેસાડવા માં આવેલ હોય લઈને રાજાંગણુને કે રાજાના અન્તઃપુરને કે દેવ–કુલને કે પુર પ્રધાન જનેને સુખ પૂર્વક બેસવા યેગ્ય કેઈ મંડપ સ્થાનને કે પાનીયશાલાને, આરામને-દંપતી જનોને જ્યાં પતિકીડા કરવામાં નિશ્ચિતતા મળે, એવા નગરાસન્નત સ્થાનને કે ઉદ્યાનનેક્રીડાથે આગત Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १ जिन भन्माभिषेकवर्णनम् जनानां प्रयोजनाभावेनोविलम्बितयान्ववहनाद्याश्रयभूतं तरूखण्डम् अत्वरितम वपलमसं. भ्रान्तम् त्वरायां चापल्ये साये वा सायक कचवर.धनिवारणासन्भवात्, तत्र त्वरा मानसौत्सुक्यं चापल्यं कार्योंत्सुक्यं सम्भ्रमश्च गतिस्खलन मिति निरन्तरं नतु अपान्तरालमोचनेन मुनिपुणं स्वल्पस्यापि अक्षोक्षस्य अपसारणेन सर्वनः समन्तात् सम्प्रमार्जयेदिति, अथ उक्तदृष्टान्तस्य दार्दान्तिकयोजनाय प्राइ-'तहेव' तथैव उक्तप्रकारेणैव एता अपि अष्टौ दिक्कुमारी महतरिकाः योजनपरिमण्डलं योजनप्रमाणं वृत्त क्षेत्रं सम्मार्जियन्तीति बहुवचनान्तया विभक्ति विपरिणामः ‘ज तत्व तणं वा पचं वा कटुं पा ८.यबरं वा असुश्मयोक्खं पूइअं दुन्भिगंधं तं सव्वं आहुणि आहुणिम एगो एडेंति एडित जेणेव भगवं तित्थय रे तित्थयरमाया ल तेणेव उवागच्छति' यत्तत्र योजनपरिमण्डले तृणं वा पत्रं वा कठं वा कचवरं वा अशुचि अपवित्रम् अक्षं मलिनम् पूनिकं दुरभिगःधं स. सर्वसाधूय आभूय सञ्चाल्य सञ्चाल्य एकान्ते योजनारिमण्डलादन्यत्र एडयन्ट अपनयन्ति एपिता अपनीयार्थात् संवर्लकवानोपरामं विधाय यत्रैव भगवांस्तीर्थकरतीर्थकरमाता च तत्रैव उपापच्छन्ति ‘उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवओ तित्थयरस्त तिस्थयरमायाए य अदरसामने आनायमाणीओ परिआदि के ठहरने के स्थान को जो कि वृक्षादि को से समाकुल हो, अत्वरितरूप, अचपलरूप से, असंभ्रान्तररूप से युक्त होकर अच्छी तरह कूड़ा करकट निकालकर सार्फ कर देता हैं-स्वच्छ बना देता है-उसी तरह से इन आठ दिक्कुमारिकाओं ने भी योजन परिमित वृत्त क्षेत्र को बिलकुल साफ सुथरा बना दिया 'जं तत्थ तणं चा पत्तं वा कटं वा कयवरं वा असुइमचोखं, पूइअं दुब्भिगंध, तं सवं आहुणिय २ एगते एडेंति' जो भी वहां तृण अथवा एत्ते, या लकडी, या कूडा करकट, या अशुचि पदार्थ या दुरभिगन्धवाला पदार्थ था-वह सब उठा २ कर उडया २ कर उस एक योजन परिमित हवस्थान से दूसरी जगह डाल दिया 'एडित्ता जेणेव अगवं तिथपरे तित्थरमाचा य तेणेव उवागच्छंति' संवर्तकवायुको शान्त कर फिर वे सबकी सय दिक्कुमारिकाएं जहां तीर्थकर और तीर्थकर की माता थी वहाँ पर आई-'उवागच्छित्ता भगवओ જનના યાન-વાહન વગેરેને ઉભા રાખવાના રસ્થાનને કે જે વૃક્ષાદિકથી સકુલ હોય, અત્વરિત રૂપથી, અચલ રૂપથ, અસંભ્રાન્ત રૂપથી. યુક્ત થઈને સારી રીતે ચરે સાફ કરી નાખે છે–સ્થાનને સ્વચ્છ બનાવી દે છે, તેમજ તે આઠ દિકકુમારિકાઓએ પણ યોજના २८॥ वृत्त क्षेत्रने गेम स्प२७ मनावी ही. 'जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कवा कवर वा असुइमचोखं, पुइ दुम्मिगंधं तं सव्वं आहुणिय २ एगत्ते एडेति' या तृण, प. લાકડા, કચરે, અશુચિ પદાર્થ, મલિન પદાર્થ, દુરભિ ગવાળો પદાર્થ જે કંઈ હતું તેને ઉઠાવી-ઉઠાવીને, તે એક જન પરિમિત વૃત્ત સ્થાનથી બીજા સ્થળે નાખી દીધું. 'एडित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य वेगेव उवागच्छंति' स वायुने तरी Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूधीपप्राप्तिस्ले गायमाणीओ चिट्ठति' भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च अदूरसामन्ते नातिदुरासन्ने आगायन्त्यः-आ-ईपत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्दस्वरेण गायमानखात् परिगायन्त्यः गीत प्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण गायन्त्य स्तिष्ठन्ति ताः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः ॥सू० १॥ . अथ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरमाह-'तेणं कालेणं' इत्यादि । ___ मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थवाओ अट्ठदिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडे हिं, सएहिं सएहिं भवणेहिं सएहिं सएहिं पासायवडेंसएहिं पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणियसाहस्लीहिं एवं तं चेव पुत्ववणियं जाव विहरंति, तं जहा-मेहंकरा१, मेहबई२, सुमेहा३, मेहमालिनी४। सुबच्छा५ वच्छमित्ता यद वारिसेणा७ बलाहगाट ११॥ तएणं तासिं उद्धलोगवस्यवाणं अट्टण्हं दिसाकुमारी महत्तरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसगाई चलंति, एवं तं चेव पुत्ववणियं भाणियवं जाव अम्हेणं देवाणुप्पिए ! उद्धलोगवत्थवाओ अट्ट दिसा. कुमारी महत्तरियाओ जे णं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो तेणं तुब्भेहिं ण भाइअव्वं तिकटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अबक्कमंति, अवक्कमित्ता जाव अब्भबद्दलए विउव्वंति विउव्वित्ता जात्र तं निहयरयं णटुरयं भट्टरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति करित्ता खिप्पामेव पच्चुवसमंति, एवं पुप्फबदलंसि पुष्फवासं वासंति वासित्ता जाव कालागुरु पवर जाव सुरवराभिगमणजोगं करेंति करित्ता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जाव आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति ॥सू० २॥ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए अदूरसामंते आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' वहां आकर वे अपने उचित स्थान पर बैठ गई और पहिले धीमे धीमे स्वर से और बाद में जोर २ स्वर से गानेलगी ॥१॥ પછી તે બધી દિકકુમારિકાઓ જ્યાં તીર્થકર અને તીર્થંકરના માતુશ્રી હતાં ત્યાં આવી. 'उवागच्छित्ता भगरओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाएअदृर सामंते आगायमणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' त्यi orun तेसो पोत-पोताना 1ि स्थान ५२ मेसी गई भने પહેલાં ધીમા-ધીમા સ્વરે અને ત્યાર પછી જેર–રથી ગાવા લાગી. છે ૧ છે Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् छाया - तेन कालेन तेन समयेन ऊर्ध्वलोक वास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः २वकैः स्वकैः कूटैः स्वकैः स्वकैः भवनैः स्वकैः स्वकैः प्रासादावतंसकैः प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः एवं तदेव पूर्ववर्णितं यावद् विहरन्ति तद्यथा - 'मेघंकरा १ मेघवती २ सुमेधा ३ मेघमालिनी ४ । सुवत्सा ५ वत्स मित्रा ६ च वारिषेणा ७ बलाहका ८ ॥१॥ ततः खलु तासाम् ऊर्ध्वलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारीमहत्तरिकाणाम् प्रत्येकं प्रत्येकम् आसनानि चलन्दि, एवं तदेव पूर्ववर्णितं भणितव्यं यावत् वयं खलु देवानुप्रिये ! ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिका येन भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यामः तेन युष्माभि न भेतव्यम् इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग् भागम् अपक्रामन्ति अपक्रम्य यावत् अभ्रवालकानि विकुर्वन्ति विकुर्व्य यावत् तत् निहतरजः, नष्टरजः भ्रष्टरजः प्रशान्तरणः उपशान्तरजः कुर्वन्ति कृत्वा क्षिप्रमेव प्रत्युपशाम्यन्ति एवं पुष्पवाईलके पुष्पवर्ष वर्षन्ति after area कालागुरुप्रवर यावत् सुरवराभिगमनयोग्यं कुर्वन्ति कृत्वा यत्रैव भगवान् तीर्थङ्करस्तीर्थङ्करमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य यावत् आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति || सू० २ ॥ ५६९ टीका- ' तेणं कालेणं' इत्यादि 'तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं' मूळे सप्तम्यर्थे तृतीया तेन तस्मिन् काले सम्भवजिनजन्म के भरतैरावतेषु तृतीयचतुर्थारकलक्षणे महाविदेहेषु चतुर्थारकप्रतिनागलक्षणे तत्र सर्वदाऽपि तत्रायसमयसदृशकालस्य वर्तमानत्वात् तस्मिन् समये अर्द्धरात्रलक्षणे तीर्थकराणां हि मध्यरात्र एव जन्मसंभवात् ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिका : दिक्कुमार्यो दिक्कुमार भवनपतिजातीयाः महत्तरिकाः स्ववर्येषु प्रधानतरिका : स्वकैः स्वकै कूटैः सप्तम्यर्थे तृतीया तेन स्वकेषु स्वकेषु कटेषु 'सएहिं सरहिं भवणेहिं ' स्वकैः स्वकैः भवनैः स्वकेषु स्वकेषु भवनेषु भवनपतिदेवावासेषु 'सएहिं सएहिं पासाय 'तेनं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्वाओ' सू० ||२|| टीकार्थ- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'उद्धलोगवत्थाओ अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ सएहिं २ कूडेहिं, सएहिं २ भवणेहिं, एहिं २ पासायवडे सएहिं पत्तेयं २ चउहिं सामाणियसाहस्सी हिं एवं तं चैव पुव्ववण्णियं जाव विहरंति' उर्ध्वलोकवासिनी आठ महन्तरिक प्रत्येक दिक्कुमारिकाएं अपने २ कूटों में अपने अपने भवनों में अपने अपने प्रासादाव 'तेणं फालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवत्थव्वाओ' इत्यादि टीडार्थ-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' ते आज भने ते सभयभां 'उद्धलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पहिं २, कूडेहिं, सएहिं २, भवणेहिं, सरहिं २, पासायवडेंसएहिं पतेयं २ च उहिं सामाणियसाहस्सीहिं एवं तं चेत्र पुव्ववण्णियं जाव विहरति' ७લેાક વાસિની આઠ મહત્તરિક દરેક દિકુમારિકાએ પોત-પોતાના કૂટમાં, પોત-પોતાના ज० ७२ - Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे वडेंसरहिं स्वकैः स्वकैः प्रासादावतंसकैः-स्वकेषु स्वकेषु प्रासादावतंसकेषु स्वस्वकूटवर्तिक्रीडावासेषु ‘पत्तेयं पत्तयं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं' प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः सामानिकानां दिक्कुमारीसदृशधुतिविभवादियुतां देवानां सहस्रैः चतुः सहस्रसंख्यकसामानिकदेवैरित्यर्थः एवं तं चेव पूव्ववणियं जाव विहरंति' एवं तदेव पूर्ववदेव पूर्ववणितं यावद विहरन्ति तिष्ठन्ति, अत्र यावत् पदात् 'चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीही य सद्धि संपरिवुडामो' इत्यन्तं ग्राह्यम्, एतत्सर्व व्याख्यानं च अव्यवहितपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम्, अयं विशेषः प्रोक्ताष्टदिक्कुमारीमहत्तरिकाणाम् ऊर्ध्वलोकवासित्वं च समभूतलात् पश्चाशतयोजनोच्चनन्दनवनगतपञ्चशतिकाष्टकटवासित्वेन ज्ञेयम् तंसकों में जैसा कि पहिले प्रथम सूत्र में कहा जा चुका है उसके अनुसार अपने २ चार हजार समानिक देव आदिकों के साथ परिवृत्त होकर भोगों को भोग रही थी उनके नाम इस प्रकार से है-'मेहंकरा १, मेहवई २, सुमेहा ३, मेहमालिनी ४, सुवच्छा वच्छमित्ताय ६, वारिसेणा ७, बलाहगा ८," मेघंकरा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी सुवत्सा, वत्समित्रा, वारिसेणा, और बलाहका। "एवं चेव तं पुत्ववणियं जाव विहरंति" में जो यावत्पद आया है-उससे "चउहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं" यहां से लेकर "देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ" तकका पाठ गृहीत हुआ है अर्थात् जैसा यह पाठ प्रथम सूत्र में लिखा जा चुका है-वैसा ही वह सब पाट यहां पर ग्रहण करलेना चाहिये यही यावत्पद का प्रयोजन है। इनमें और आठ अधोलोक वासिनी दिक्कुमारिकाओं में यह अन्तर है कि इन आठ महत्तरिक दिक्कुमारिकाओं में जो उर्ध्वलोकवासिता है वह इस समतलभूतल से पांचसो योजन ऊंचाई वाले नन्दनवन में रहे हुए पञ्चशतिक आठ कूटों में रहने से है यहाँ ऐसी आशंका नही करनी ભવનમાં, પોત-પોતાના પ્રાસાદાવર્તાસકમાં જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે પિત–પિતાના ચાર હજાર સામાનિક દેવે વગેરેની સાથે પરિવૃત થઈને ભેગે नवी ही ती, तमना नाम। २१ प्रमाणे छ ‘मेहंकरा १, मेहवई ३, सुमेहा ३, मेहमालिनी ४, सुवच्छा ५, वच्छमित्ताय ६, वारिसेणा ७, वलाहगा ८ ॥ ४२१, भेषवती, सुभेधा, भेषमालिनी, सुपत्सा, वत्सभित्रा, वारिसे। मन मसा. 'एवं चेव तं पुव. वण्णिय जाव विहरंति' मा २ यावत् ५४ाव छ तथा 'चउहिं महत्तरियाहिं सापवाराहिं' महाथी भांडार 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडाओ' सुधीनी 418 गृहीत थयो छे. એટલે કે જે પ્રમાણે આ પાઠ પ્રથમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ છે, તેજ પાઠ અહીં ગૃહીત થયેલ છે. યાવત્ પદનું એજ પ્રયજન છે. એ પાઠમાં અને આઠ અધેક વાસિની દિકુમારિકાઓમાં આટલે તફાવત છે કે આ આઠ મહત્તરિક દિકુમારિકાઓમાં જે ઉર્વ લેકવાસિતા છે તે આ સમતલ ભૂતલથી ૫૦૦ એજન ઊંચાઈ વાળા નન્દન વનમાં આવેલા Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् ननु अधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिगतकूटाष्टके यथा क्रीडानिमित्तको वासस्तथैव तासामपि अत्र भविष्यतीति चेत्, मैवं यथाऽधोलोकवासिनीनां गजदन्तगिरिनामधो भवनेषु वासः श्रूयते तथैतासाम् अश्रूयमाणत्वेन तत्र निरन्तरेण वाससद्भावात् ततश्चोर्ध्वलोकवासित्वोपपत्तेः । एतासां नामानि पदबन्धेनाह 'तं जहा-मेहंकरा १ मेहवई २ सुमेहा ३ मेहमालिनी ४ । सुवच्छा ५ वच्छमित्ताय ६ वारिसेणा ७ बलाहगा ८ ॥१॥ तद्यथा-मेघङ्करा १ मेघवती २ सुमेघा ३ मेघमालिनी ४ । सुवत्ता ५ वत्समित्रा च ६ वारिषेणा ७ बलाहका ८॥१॥ 'तए णं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्डं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति' ततः खलु तदनन्तरं किल, तासाम् ऊर्ध्वलोकवास्तव्यानाम् अष्टानां दिक्कुमारीमहत्तरिकाणां प्रत्येकं प्रत्येकम् आसनानि चलन्ति चलितानि भवन्ति 'एवं तं चेव पूनवणियं भाणियव्वं जाव अम्हेणं देवाणुप्पिये ! उडलोगवत्थव्वाओ अढदिसाकुमारी चाहिये कि जिस प्रकार अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाओं का वास गजदन्तगिरिगत अष्टकूटों में क्रीडा के निमित्त होता है और इसी से उन्हे "अधोलोक वासिनी" इस विशेषण से अभिहित किया गया है तो ऐसाही इनका निवास पञ्चशतिक आठ कटों में रहने से होता होगा? क्योंकि अधोलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाओं का तो वास इसी प्रकार से गजदन्तगिरियों के नीचे के भवनों में सुना गया है वैसाइन उवलोकवासिनी आठ दिक्कुमादिकाओं के वहां निवास के सम्बन्ध में नहीं सुना गया है। ये तो वहां निरन्तरही रहती है 'तएगं तासिं उद्धलोगवत्थव्वाणं अट्ठण्हं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं पत्तेयं २ आसणाई चलति' जब तीर्थकर प्रभु का जन्म हो चुका-तब इन उप्रलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिकाओं ने अपने अपने आसनों को कम्पित होते हुए देखा 'तं चेव पुधवणियं भाणियन्वं' तो देखकर के उन्होने क्या किया-इस सम्बन्ध में जानने के लिये सूत्र प्रथम में जैसा कहा गया है वैसाही यहाँपर भी समझना चाहियेપંચતિક આઠ ફટમાં રહેવાથી છે. અહીં એવી આશંકા કરવી જોઈએ નહિ કે જેમ અલેકવાસિની આઠ દિકુમારિકાઓનો વાસ ગજદન્ત ગિરિગત અષ્ટ કૂટમાં કીડા નિમિત્તે राय छ, भने मेथी तभने 'अधोलोकवासिनी' से विशेषyथी समिति ४२वाभां આવી છે તે આ પ્રકારને જ એમને નિવાસ પંચશતિક આઠ કૂટમાં રહેવાથી તે હશે? કેમકે અલેકવાસિની આઠ દિકુમારિકાઓને વાસ તે આ પ્રમાણે ગજદન્ત ગિરિઓની નીચેના ભવનમાં સાંભળવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે એ ઉર્વલેકવાસિની આઠ દિકુમારિકાઓ ત્યાં નિવાસ કરે છે, એવું સાંભળવામાં આવ્યું નથી, એ તે નિરંતર त्या २९ छे. तए णं तासि उद्धलोगवत्थव्वाणं अढण्हं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं पत्तेय २ आसणाई चलंति' न्यारे ती ४२ प्रभुना .५ ई गयो, त्यारे से वासिनी मा हभा२ि४ामा पातपाताना भासन। ४पित यता नयां. 'तं चेव पुव्ववण्णिय भाणियवं તે જોઈને તેમણે શું કર્યું ? આ સંબંધમાં જાણવા માટે સૂવ પ્રથમમાં જે પ્રમાણે કહે Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र महत्तरियाओ जे णं तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो' एवं तदेव पूर्ववणितम् अव्यवहितपूर्वसूत्रवर्णितं भणितव्यं वक्तव्यम्, कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव अम्हेणं देवाणुप्पिये !' इत्यादि । हे देवानुप्रिये! हे तीर्थङ्करमातः यावद् वयं खलु ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः येन भगवतः तीर्थङ्करस्य जन्ममहिमानम् जन्ममहोत्सवं करिष्यामः विधास्यामः, अत्र यावच्छब्दोऽवधिवाचको न तु सङ्ग्राहकः, 'तेणं तुम्भेहिं न भाइयव्वं तिकटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीमागं अवकमंति' तेन युष्माभिने भेतव्यम् असंभाव्यमाने अस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीयाः इमाः कथं समुपस्थिता इत्याशङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इतिकृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ईशानकोणम् अपक्रान्ति निर्गच्छन्ति 'अवकमित्ता' अपक्रम्य निर्गत्य ताः अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः 'जाव अब्भवद्दलए विउव्वंति' यावत् अभ्रवादलकान् अभ्रे आकाशे वाः पानीयं तस्य दलकान् मेघान् विकुर्वन्ति विकुर्वणा शक्त्या निर्मान्ति अत्र यावत्पदात् 'वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंडं निसरंति, दोच्चं वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोह णित्ता' इति ग्राह्यम् वैक्रिय. 'जाव अम्हेणं देवाणुप्पिए उडलोगवस्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ जेणं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो तेणं तुम्भेहिं ण भाइअव्वं' यावत् हे देवानुप्रिये ! हमलोक उर्ध्वलोकवासिनी आठ दिक्कुमारिका महत्तरिकाएं हैं हम भगवान् तीर्थकर के जन्ममहोत्सव को करेगी इसलिये आप "असंभाव्यमान है परजन का आपात जिसमें ऐसे इस एकान्त स्थान में विसदृश जातीय ये किसलिये उपस्थित हुई है" इस प्रकार की आशंका से आकुलित चित्त न हो 'त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति' इस प्रकार कह कर वे ईशान कोण में चली गई । 'अवक्कमित्ता जाव अभवद्दलए विउच्वंति' वहां जाकर के उन्होंने यावत् आकाश में अपनी विक्रिया शक्ति के द्वारा मेघों की विकुर्वणा की-यहां यावत्पद से "वेउव्वियसमुग्घाएणं संमोहणंति, समोहवामां मादु छ, ते प्रमाणे सघणु ४थन सभास. 'जाव अम्हेणं देवाणुप्पिए उडूढलोगवत्थव्वाओ अटु दिसाकुमारीमहत्तरियाओ जे णं भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिम करिस्सामो तेणं तुन्भेहिं ण भाइअव' यावत् नुप्रिये ममे खो। पसिनी म08 દિકુમારિકા મહત્તરિકાએ છીએ. અમે ભગવાન તીર્થકરને જન્મ મહત્સવ ઉજવીશું. એથી આપશ્રી “અસંભવ્યમાન છે, પરજનને આપાત જેમાં એવા એકાન્ત સ્થાનમાં વિસદશ જાતીય આ બધી શા માટે આવી છે ? આ જાતની આશંકાથી આકલિતચિત્ત થશે न. 'त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसीभागं अधक्कमति' २॥ प्रमाणे ही तेथे शान त२६ गती २०ी. 'अवक्कमित्ता जाव अन्भरदलए विउब्बति' त्यi ने तमो यावत् આકાશમાં પિતાની વિક્રિયા શક્તિ વડે મેઘની વિકુર્વણુ કરી. અહીં યાવત પદથી ૩ ध्वियन मुग्धारणं समोहणंति समोहणित्ता, संखिज्जाइं जोयणाई दण्डं निसिरंति, दोच्चं वेउब्वियसमु. Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवणेनम् समुद्घातेन वैक्रियकरणार्थकप्रयत्नविशेषेण समवघ्नन्ति आत्मप्रदेशान् बहिर्विक्षिपन्ति समवहत्य आत्मप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य संख्यातानि योजनानि दण्डम् दण्ड इव दण्डः ऊर्ध्वाध आयतः शरीरबाहल्यो जीव प्रदेशस्तं निसृजन्ति शरीराद् बहि निष्काशयन्ति चिकीर्षित कार्यसम्पादनार्थं द्वितीयमपि वारं चैक्रियसमुद्घातेन समवनन्ति आत्मप्रदेशान् बहिविक्षिपन्ति समवहत्य आत्मप्रदेशान् बहिर्विक्षिप्य अभ्रमादलकान् मेघान् विकुर्वन्तीति 'विउवित्ता जाव' विकुळ वैक्रियशक्त्या मेघान् कृ वा यावत् अत्र यावत्पदात् 'से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे बलवं जुग जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपाए पिटुतरो. रुपरिणए घणनिचियवट्टवलियखंधे चम्मेलुगदुहणमुट्टियसमाहयनिचियगत्ते उरस्सबलसमण्णागए तल जमलजुयलपरिघबाहू लंघणपवणजवणपमदणसमत्थे छेए दक्खे पट्टे कुसले मेहावी निउणसिप्पोवगए एगं महंत दगवारगं वा, दगकुंभयं वा, दगथालगं वा, दगकलसं वा, दगभिंगारं वा, गहाय रायंगणं वा जाव समंता आवरिसिज्जा, एवमेव ताओ णित्ता, संखिज्जाई जोयणाई दण्डं निसिरंति, दोच्चं वेउब्वियसमुग्याएणं संमोहणित्ता" इस राठका ग्रहण हुआ है, इन पदों की व्याख्या इसी वक्षस्कार के कथन में १ सूत्र में की जा चुकी है 'विउव्वित्ता जावतं नियरयं णहरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति' आकाश में वाईलिको की-पानी वरसानेवाले मेघो की विकुXणा करके .यावतू उन्होने उस भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन के चारों ओर की एक योजन तक की भूमि को निहत रजवाली, नष्ट रजवाली भ्रष्ट रजवाली, प्रशान्त रजवाली और उपशान्त रजवाली बना दिया यहां यावत् शब्द से-"से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे, बलवं, जुगवं, जुवाणे, अप्पायंके, थिरग्गहत्थे, दढपाणिपाए, पिटुंतरोरुपरिणए, घणिचियवद्ववलियखंधे, चम्मेहुगदुहणमुट्टियसमादयनिचियगत्ते, उरस्सरलसमण्णागए तलजमलजुयलपरि. घबाहू, लंघणपवणजवणपमहणसमत्थे, छेए, दक्खे, पढे, कुसले, मेहावी, निउणसिप्पोवगए एगं महंत दगवारगं वा दगकुंभयं वा, दगथालयं वा, दक. ग्याएणं संमोह णित्ता' मा पा सगडीत थयो छे. या पानी व्याच्या या पक्षारना ४०नमा सूत्र प्रथममा ४२वामा मापी छे. 'विउवित्ता जाव निहयरयं णदुरयं भटूरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेति' माशमा पाजामौनी-पाणी १२सावना२ भेधानी- श થાવત તેમણે વૈકિય શક્તિથી મેઘે ઉત્પન્ન કર્યા અને તે મેએ તે ભગવાન્ તીર્થકરના જન્મ ભવનની મેરની એક જન જેટલી ભૂમિને નિહત રજવાળી, નષ્ટ રજવાળી ભટ્ટ ૨ળ વાળી, પ્રશાંત રજવાળી અને ઉપશાંત ૨જવાળી બનાવી દીધી. અહીં યાત્ શબ્દથી'से जहाणामए कम्मारदारए सिया तरुणे, बलव जुगव, जुवाणे, अप्पायंके, थिरग्नहत्थे, दतपाणियाए, पिटुतरारुपरिणए, घणणिचियवटवलियखंधे, चम्मेलुगदुहणमुट्ठियसमाहयनिचियगत्ते, उरस्स बलसमण्णागए तलजमलजुयलपरिघबाहू लंघणपवणजवणपमहणसमत्थे, छेए दक्खे, पट्टे, कुसले' मेहावी, निउणसिप्पोवगए एगं महंत दगवारंग वा, दगकुभयं वा, दगथालयं का Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसू वि उट्ठलोगवत्थव्वा ओ अट्ठ दिसाकुमारी महत्तरियाओ अन्भवद्दलए विउच्चित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविज्जआयंति विज्जआइत्ता भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं णिच्चोयगं नाइमट्टियं पविरलपफुसियं रयरेणुविणासणं दिव्यं सुरभिगंधोदयवासं वासंति' इतिग्राह्यम्, स यथानामकः कर्मकरदारकः स्यात् तरुणो, बलवान, युगवान्, युवा, अल्पातङ्कः, स्थिराग्रहस्तः, दृढपाणिपादः, पृष्ठान्तरोरुपरिणतः, घननिचितवृत्तवलितस्कन्धः चर्मेष्टक दुघणमुष्टिकसमाहत निचितगात्रः, उरस्यवलसमन्वागतः, तलयमलयुगल परिघबाहुः, लङ्घनप्लवनजवनप्रमर्द नसमर्थः, छेकः, दक्षः, प्रष्ठः, कुशलः, मेधावी निपुणशिल्पोपगतः, एतेषां व्याख्यानम् अव्यहितपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम्, एकं महान्तं दकवारकं वा मृत्तिकामयजलभाजनविशेषम्, दककुम्भकं वा जलघटम् दस्थालकं वा कांस्यादिमयं जलपात्रम्, दककलशं वा, जलभृंगारं वा 'झारो' इति भाषा प्रसिद्धम्, गृहीत्वा राजाङ्गणं वा राजप्राङ्गणम्, यावदुद्यानं वा समन्तात् सर्वतो भावेन आवर्षेत् कलर्स वा, दकभिंगारं वा गहाय रायंगणंवा जाव समंता आवरिसिज्जा एवमेव ताओ वि उडलोगवत्थवाओ अड दिसाकुमारी महत्तरियाओ अन्भवद्दल ए वित्ताखिप्पामेव पतणतणायंति, पतणतणाइत्ता खिप्पामेव पविजयायंति, विज्जआइत्ता भगवओ तिस्थगस्स जम्मणभवणस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं णिच्चोयगं नाइमहियं पविलफुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरहिगंधो दयवासं वासंति' इस पाठका ग्रहण हुआ है इन पदों में से 'से जहाणामए कम्मार दारए' इस पद से लेकर 'णिउणसिप्पोवगए' इस पद तक के पदों की व्याख्या प्रथम सूत्र में की जा चुकी है अब इसके आगे के पदों की व्याख्या इस प्रकार से है - इन पूर्वोक्त विशेषणों वाला वह कर्मकर दारक एक बहुत बडे भारी पानी से भरे हुए मिट्टी के कलश को, अथवा पानी के कुम्भ को, या पानी से भरे हुए थाल को, अगर पानी से भरे हुए घट को, या पानी से भरे हुए भृंगार दककलर्स वो, दकभिंगारं वा, गहाय, रायंगणं वा जाव समता आवरिसिज्जा एवमेव ताओ वि उड्ढलोगवत्थव्त्राओ अट्ठदिसाकुमारी महत्तरियाओ, अब्भः दलए विउब्वित्ता प्प मे तणायंति पतणतणाइन्ता खिप्पामेव पविज्जयायंति, विज्जआइत्ता भगवओ तित्थगरस्स जम्मणभवणस्स सव्वभो समता जोयणपरिमंडलं णिच्चोयगं नाइमट्टियं पविरलपफुसियं रयरेणुविणासगं दिव्वं सुरहिगंधोदयवासं वासंति' या या संग्रहीत थयो छे. आ पाउमाथी 'से जहाणामए कम्मारदारए' मा पहथी भांडीने 'णिउणसिप्पोवगए, या यह सुधीना પદ્માની વ્યાખ્યા પ્રથમ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલી છે. હવે શેષ પદ્માની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે છે-એ પૂર્વોક્ત વિશેષણા વાળે તે કાંરહારક એક બહુ મોટા પાણીથી ભરેલા માટીના ક્લેશને અથવા પાણીના કુંભને અથવા પાણીથી ભરેલા થાળને અથવા પાણીથી ભરેલા ઘર્ટને અથવા પાણીથી ભરેલા ભૂંગારને (ઝારી) લઈને રાજા ગણુને યાવત ઉદ્યાનને Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्व लोकव ( सिनीनामवसरवर्णनम् ५७५ सिञ्चेत्, एवमेव अमुना प्रकारेणैव एता अपि ऊर्ध्वलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः अभ्रवालकान् मेघान् विकुर्व्य पतणतणायन्ति अत्यन्तं गर्जन्तीत्यर्थः, गर्जित्वा क्षिप्रमेव 'पविज्जायंति' प्रकर्षेण विद्युतं कुर्वन्ति कृत्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवनस्य सर्वत: समन्तात् योजनपरिमण्डलम् अत्र नैरन्तर्ये द्वितीया, निरन्तरं योजनपरिमण्डलक्षेत्रे इत्यर्थः, 'णिच्चोअगं नाइमट्टियं' नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात् तथा प्रकर्षेण यावता रेणवः स्थगिता भवन्ति तावन्मात्रेग उत्कर्षेणेतिभावः, तथा प्रविरलप्रस्पृष्टम् प्रविरलानि सान्तराणि घनभावे कर्दमसंभवात् प्रस्पृष्टानि प्रकर्षयुक्तः नि स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासंभवात् यस्मिन् वर्षे तत्तथाभूतम्, अतएव रजोरेणु विनाशनम् - रजसा श्लक्ष्ण रेणुपुद्गलानां रेणुनाञ्च स्थूलतम तत् पुद्गलानां विनाशनं विनाशकम्, दिव्यम्-अतिमनोहरं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षन्ति वर्षा च 'तं निहयरयं णहरयं भहरणं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति' तत् योजनपरिमण्डलं क्षेत्रं निहतरजः कुर्वन्तीति योगः निहतं भूय उत्थानाभावेन मन्दीकृतं रजो यत्र वर्षे तत्तथाभूतम्, तथा भ्रष्टरजः भ्रष्टं वातोद्धूततया योजनमात्रात् दूरतः क्षिप्तं रजो यत्र तत्तथाभूतम् अतएव प्रशान्त रजः - प्रशान्तं सर्वथाऽविद्यमानमिव रजो यत्र तत्तथाभूतम्, अस्यैव आत्यन्तिकताख्यापनार्थमाह-उपशान्तरजः उपशान्तं रजो यत्र तत्तथाभूतम् 'करिता ' कृत्वा 'खियामेव पज्जुवसमंति' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रामेव प्रत्युपशाम्यन्ति गन्धोदकवर्षणान्निवर्त्तते इत्यर्थः । , को लेकर राजाङ्गण को, यावत् उद्यान को सब ओर से अच्छी तरह से सींचता है उसी तरह से इन्हों ने उर्ध्वलोकवास्तव्य आठ दिक्कुमारिकाओं ने भी अभ्र में वालिकों की विकुर्वणा कर के पहिले तो जोर जोर से गर्जना की और फिर बिजलियों को चमकाया बाद में भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन की चारों ओर की १-१ - योजन परिमित भूमि में इस तरह से वर्षा की कि जिस से यहां की धूलि जम जावे - पुनः उसका उत्थान होने न पावे या वह यहां से उड़कर दूसरी जगह चली जावे, यहाँ वह रहने न पावे जिससे देखनेवालों को ऐसा प्रतीत हो कि मानों यह धूलि है ही नहीं इस प्रकार से छोटी बूदों के रूप में वे वहां बरसी - 'करिता खिप्पामेव पच्चुवसमंति' वरस कर फिर वे शीघ्र ही ચેામેરથી સારી રીતે અભિસિંચિત કરે છે, તે પ્રમાણે જ તેમણે-ઉલાક વાસ્તવ્ય આ દિકુમારિકાએએ-પણ આકાશમાં વાઈલિકાઓની વિકણા કરીને પહેલાં તે જોર-જોરથી ગર્જના કરી અને પછી વિદ્યુત ચમકાવડાવી. ત્યાર ખાદ ભગવાન્ તીથંકરના જન્મ ભવનની ચેામેર એક-એક ચેાજન પરિમિત ભૂમિમાં આ પ્રમાણે વર્ષોકરી કે જેથી ત્યાંની માર્ટી જામી જાય. ફીર્થી તે માર્ટીનું ઉત્થાન થાય નઠુિં, અથવા તે માટી ત્યાંથી ઉડીને ખીજા સ્યાને જતી રહે નહિ. અથવા તે માટે ત્યાં હાય જ નહિ, જેથી જોનારાઓને આ પ્રમાણે પ્રતીતિ થાય કે જાણે મટી છે જ કે, આ પ્રમાણે નાના ભૂદાનારૂપમાં અથવા જેનાથી Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे अथ आसां तृतीयकर्तव्यकरणावसरः एवं पुष्कवचलंसि पुष्पवासं वासंति' एवं गन्धोकवर्षणानुसारेण पुष्पवालके पुष्पवर्षं वर्षन्ति, अत्र च तृतीयार्थे सप्तमी तथा च पुष्पवादलकेन पुष्पवर्षुक वालकेन पुष्पवृष्टि कुर्वन्तीत्यर्थः अत्र एवमित्यादि वाक्यसूचितमिदं सूत्रं ज्ञेयम् तथाहि - 'तच्च पिवेउव्वयसमुग्धारणं समोहणंति समोहणित्ता पुप्फबद्दलए विउव्वंति - से जहाणामए मालागारदारए सिया जाव सिप्पोवगर एवं महं पुप्फछज्जियं वा पुष्फ पडलगं वा पुष्पचंगेरीयं वा गहाय रायंगणं वा जाव समंता कयग्गहगहियकरयल पब्मटविपमुकेणं दसवण्णेणं कुसुमेणं पुप्फपुंजोवयारकलियं करेइ, एवमेव ताओ वि उद्धलोगपुaदलए विउच्चित्ता खिप्पामेव पतणतणायंति जाव जोयणपरिमंडलं जलय थलय भासुरपभूयस्स विटट्ठाइस्स दसवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति' त्ति, अथ व्याख्या - तृतीयमपि वारम् वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति संवर्त्तकवात विकुर्वणार्थी हि शान्त हो गई । ' एवं पुष्कफवद्दलंसि पुष्कवासं वासंति' इसी तरह से उन्हों ने पुष्पबरसानेवाले बादलों के रूप में अपनी त्रिकुर्वणा की और १ योजन परिमित भूमि में पुष्पों की वरसा की यहां आगत एवं शब्द से यह सूत्र सूचित हुआ है - ' तच्चपि वेडव्वियसमुग्धाएणं संमोहणंति, संमोहणित्ता पुष्कबद्दलए विउवंति, से जहानामए मालागारदारए सिया जाव सिप्पोवगए एवं महं पुष्कछज्जियं वा पुष्फपडलगं वा पुष्पचंगेरीयं वा गहाय रायंगणंवा जाव समंता कयग्गहगहियकरयलप भट्ठविष्यमुक्केणं दसद्धवणेणं कुसुमेणं पुष्कपुंजो वयारकलियं करेइ, एवमेव ताओ वि उद्वलोगव्वत्थवाओ पुष्फवद्दलिए विउवित्त विद्यामेव पतणतणायंति जाव जोयणपरिमंडलजलयथलय भासुरपभूयस्स विट्ठाइस दसवण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति' त्ति, इस पाठ का अर्थ इस प्रकार से है पहिले तो अधोलोक वासिनी आठ ५७६ इन थाय नहि मा उपमां ते वाहनियो त्यां वरसी 'करिता खिप्पामेव पच्चुवसमंति' वरसीने यही तेथे। शीघ्र शांत यह ग. ' एवं पुप्फवद्दलंसि पुष्पवासं वासंति' मा प्रमाणे જ તેમણે પુષ્પ વરસાવનારા મેઘાના રૂપમાં પોતાની વિધ્રુણા કરી, અને એક ચેાજન પરિમિત ભૂમિ ઉપર પુષ્પાની વર્ષા કરી. અહીં આવેલા ‘છું' શબ્દથી આ સૂત્ર સૂચિત थयुं छे- 'तच्वं त्रि वेउच्चियसमुग्धाएणं समोहणंति, समोहणित्ता, पुष्फबद्दलए विउव्वंति से जहा नामए माला गारदारए सिया जाव सिप्पोवगए एगं महं पुप्फछ। ज्जियं वा पुप्फपडलगं वा पुष्पचंगेरीयं वा गहाय रायंगणं वा जाव समता कयग्गहगहिय करयलप मट्ठविप्प मुक्केणं दसद्धवणेणं कुसुमेणं पुप्फपुरंजोवयारकलियं करेइ, एवमेव ताओ वि अद्धलोगवत्थव्वाओ पुष्पवद्दलिए विउच्वित्ता खियामेव पतणतणायंति जाव जोयणपरिमंडलजल यथलयभ सुरप्प भूयरस विट्ठ इस्स दसद्धवण्णरस कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति त्ति' मा पाउने અર્થ આ પ્રમાણે પહેલાં તે અધેલેકવાસિની આ દિક્ક્મારિકાએ એ એ વખ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. २ ऊर्ध्वलोकवासिनीनामवसरवर्णनम् ५७७ यत् वेलाद्वयमपि वैक्रियसमुद्घा तेन समबहनन् तत् किलैकम् एवम् अभ्रवाल कविकुर्वणाथै द्वितीयम् इदं तु पुष्पवादल कादिकुर्वणाथै तृतीयं वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति इत्यर्थः, समवहत्य पुष्पवादलकान् विकुर्वन्ति दृष्णान्तमाह-स यथानामको मालाकारदारको मालिकपुत्रः स्यात् यावनिपुणशिल्पोपगतः एका महतीं पुष्पच्छधिकां वा-छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाद्या छात्रैव छाधिका पुष्पैभृता छाधिका पुष्पच्छाधिका ताम्, पुष्यपटलकं वा पुष्पाधारमाजनविशेषम्, पुष्पचङ्गेरीकां वा प्रसिद्धाम् गृहीत्वा राजाङ्गणं वा राजपागणं यावत् राजो. द्यानं वा समन्तात् रतालहे या पराङ्मुखी सुमुखी तस्याः संमुखीकरणाय कचग्रहगृहीतकरतलप्रभष्टविनमुक्तेन-कचेषु केशेषु ग्रहणं कचग्रहस्तत्प्रकारेण गृहीतं तथा करत लाद् विप्रभुक्तं-त्यतं सात् प्रभ्रष्टं करतलप्रभ्रष्टविप्रमुक्तम् अत्र पदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् विशेषणसमासः तेन कचग्रहीतफरतलप्रभ्रष्टविनक्तेन दशार्द्धवर्णेन पञ्चवर्णन कुसुमेन जात्यपेक्षया एकचनं कुसुमजातेन पुष्पपुञोपचारकलितं पुष्पपुञ्जोपचारेरण कुसुमसमूहोपचारेण दिक्कुमारियाओं ने दो बार संवर्तक वायु की विकुर्वणा करने के लिये वैक्रियसमु द्घात किया वह एक बारका समुद्घात किया गया जानना चाहिये। इसके बाद इन उर्वलोकवासिनी दिक्कुमारियों ने अभ्रवादलिको की विकुर्वणा करने के लिये जो समुद्घात किया, वह दूसरी बारका किया गया समुद्घात जानना चाहिये और अब यह.पुष्पवालिकों की विकुर्वणा करने के लिये जो समुद्घात किया गया है वह तृतीय वार का समुद्घात किया गया जानना चाहिये । इस तरह के इस तृतीय वार के समुद्घात से उन्हों ने पुष्पवालिकाओं की विकुर्वणा की जैसे कोई मालाकार का दारक हो और वह यावत् शिल्पोपगत हो, सो वह जैसे एक महती पुष्पों से भरी हुई छाधिका को या पुष्पाधार भाजन विशेष को-या पुष्पचंगेरिका को लेकर राजाङ्गण को यावत् सब ओर से कचग्रह के अनुसार ग्रहीत एवं करतल से छूट कर गिरे हुए ऐसे पांचवर्ण के कुसुमों से पुष्पपुञ्जोपचार युक्त સંવર્તક વાયુની વિદુર્વાણ કરવા માટે ક્રિય સમુદ્રઘાત કર્યો. આ એક વખત સમુઘાત કર્યો આમ જાણવું જોઈએ. ત્યાર બાદ તે ઉદ્ઘલેક વાસિની દિકુમારિકાઓએ અભિવાઈલિકાઓની વિમુર્વણું કરવા માટે જે સમુદુઘાત કર્યો. તે બીજી વખત કરવામાં આવેલ સમુદ્રઘાત હતો આમ માનવું જોઈએ. અને હવે આ જે પુષ્પ વાદળિયેની વિકુણા કરવા માટે સમુદ્દઘાત કર્યો, આ ત્રીજી વખત કરવામાં આવેલે સમુદુઘાત હતે આમ સમજવું જોઈએ. આ પ્રમાણે આ ત્રીજી વખતના સમુદ્રઘાતથી તેમણે પુષ્પવાéલિકાઓની વિમુર્વણા કરી, જેમ કઈ માલાકારનો દારક હોય અને તે યાવત શિપગત હોય, તે તે જેમ એક મહતી પુ૫-ભરિત છાધિકાને કે પુષ્પાધાર ભાજન વિશેષને કે પુ૫ ચંગેનિકાને લઈને રાજાંગણને યાવત્ સર્વ તરફથી કચગ્રહ મુજબ ગૃહીત તેમજ કરતલથી મુક્ત થયેલાં એવાં પાંચ વર્ણના કુસુમથી પુષ્પjપચાર કરે છે, તે ज०७३ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्रे कलितं शोभितं करोति, एवमेव अमुना प्रकारेणैव ता अपि ऊर्ध्वलोकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः पुष्पवादलकान् विकुऱ्या विकुर्वणाशक्त्या तान् निर्माय क्षिप्रमेव पतणतणायन्ति-अत्यन्तं गर्जन्ति, ततश्च इत्थं वाक्ययोजना योजनपरिमण्डलं यावत्-योजनपरिमण्डलपर्यन्तं दशार्द्धवर्णस्य पश्चपर्णस्य कुसुमस्य पुष्पस्य जानूत्सेधप्रमाणमात्रम् जानूत्सेधः जान्ववधिकउत्सेधस्य प्रमाणं द्वात्रिंशदंगुललक्षणं तेन सदृशीमात्रा यस्य स तथा भूतस्तम् वर्ष वर्षन्ति कीदृशस्य कुसुमस्य ? जलजस्थलज भास्वर प्रभूतस्य तत्र जलजं पद्मोदि स्थल विचकिलादि भास्वरं दीप्यमानम् प्रभूतं च अतिप्रचुरं ततः कर्मधारयः भास्वरं च तत् प्रभूतं च भास्वरप्रभूतं जलस्थलजं च तत् भास्वरप्रभूतं च तत्तथाभूतम् तस्य, तथा वृन्तस्थायिन: वृन्तेन अधोभागवर्तिना तिष्ठतीत्येवं शीलस्य 'वासित्ता' वर्षित्वा कियत्पर्यन्तोऽयम् ‘एवं' इत्यादि वाक्यसूचितसूत्रसङ्ग्रह इत्याह-'जाव कालागुरुपवर' त्ति, अत्र यावच्छब्दोऽवधि वाचकः नतु सङ्ग्राहकः 'जाव सुरवराभिगमणजोग्गं' त्ति अत्र याव पदात् कुन्दुरुक्कतुरुक्कडज्झंतधूवमघमतगंधुधुभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं दिव्वं' इति पर्यन्तं सूत्रं करता है इसी तरह इन उर्ध्वलोक वास्तव्य आठ विक्कुमारिकाओं यावत पुष्पवार्दलिकों की विकुर्वणा करने जैसा पहिले आगेका पाठ कहा गया है वैसा ही इन लोगों ने किया अर्थात् एक योजन परमित क्षेत्र तक दशार्द्ध वर्णवाले पुष्पो की वर्षा की इन पुष्पों की वर्षा में जलज-पद्म आदि रूप स्थलज-बेला-मोघरा आदि रूप दीप्यमान पुष्प प्रचुर मात्रा में थे जब इन पुष्पों की वर्षा हुइ तो इसके वृन्त अधोभाग में ही रहे आगे ऐसा नहीं हुआ कि पुष्पों की पंखुडियां नीचे होगह हों और वृन्त-इनके उत्ठल-ऊपर की ओर हो गये हों तथा ये पुष्प इतनी अधिक मात्रा में वरसाये गये कि थे २४ अंगुल तक ऊंचे हो गये अर्थात् इतनी विशाल राशि इनकी होगई इस प्रकार से 'वासित्ता जाव कालागुरु पवर जाव सुरवराभिगमणजोग्गंकरेंति' पुष्पों की वर्षा करके उन्होंने उस एक योजन પ્રમાણે જ આ ઉલક વાસ્તવ્ય આઠ દિકુમારિકાઓએ યાત્ પુષ્પવાáલિકાઓની વિકર્વણ કરીને જેમ પહેલાં આગળ પાઠ કહેવામાં આવે છે, તે પ્રમાણે જ આ લોકોએ કર્યું, એટલે કે એક જન પરિમિત ક્ષેત્ર સુધી દશાઈ વર્ણવાળા પુષ્પની વર્ષા કરી. એ પુપિની વર્ષોમાં જલજ-પક્વ આદિ રૂપ સ્થલજ–વેલા, મોગરા રૂપ ર્દીપ્યમાન પુ. પ્રચુરમાત્રામાં હતાં. જ્યારે આ જાતનાં પુષ્પોની વર્ષા કરવામાં આવી તે એવી રીતે વર્ષા કરવામાં આવી કે તે પુપના વૃન્ત અધે ભાગમાં જ રહ્યા. એવું થયું નહિં કે પુની પાંખડીઓ નીચે થઈ ગઈ હોય અને વૃત્ત ઉપરની તરફ થઈ ગયાં હોય તેમજ આ પુ આ માત્રામાં વરસાવવામાં આવ્યાં કે ૨૪ અંગુલ જેટલો ભૂમિ પર થર જામી गयी. मर्यात १० पु.४॥ प्रभामा १२सापामा माया त म प्रमाणे 'वासित्ता जाव कालागुरु पवर जाव सुरवराभिगमणजोगं करें ति' पानी १ ४शन तेभो ते ४ यनामित क्षेत्रने यावत् 'कुंदरुक्क, तुरक्कडझंतधूवमधमधन्त गंध याभिरामं Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५७९ ज्ञातव्यम्, तथा च तत्कालागुरुप्रवरकुन्दरु रुतुरुष्कदहधूपधूपितं 'महमहेति' गन्धोद्धूताभिरामं सुगन्धवरगन्धितं गन्धवर्तिभूतं दिव्यम् अतएव सुरखराभिगमनयोग्यम् सुरवरस्यइन्द्रस्य अभिगमनाय अवतरणाय योग्यम् 'करेंति' कुर्वन्ति 'करिता' कृश्वा 'जेणेव भगवंतित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव भगवान् तीर्थंकरः तीर्थङ्करमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति, 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जाव आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति' यावदागायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्तीति आ - ईषत्स्वरेण गायः यः प्रारम्भकाले मन्दस्वरेण गायमानत्वात् परिगायन्त्यः - गीत प्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्वरेण गायन्त्यस्ताः अष्टौ ऊर्ध्वलोकवास्तव्याः दिक्कुमारीमहत्तरिका स्तिष्ठन्तीति अत्र यावत् पदात् अदूरसामन्ते इति ग्राह्यम् ॥ सू० २॥ मूलम् - तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरत्थिमरुयगवत्थव्वाओ अटू दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं तहेव जाव विहरंति, तं जहा - णंदुत्तराय १, मंदार, आणंदा३ दिविद्धणा४ | विजया य५ वेजयंती६ जयंती७, अपराजिया८ ||१|| सेसं तं चेत्र तुब्भाहिं ण भाइयव्वं परिमित क्षेत्र को यावत्- 'कुंदरुक्कतुरककडलंतधूवमघमघन्तगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गन्धवहिभूयं दिव्वं' काला गुरु की प्रवर कुन्दरुककी, एवं तुरुष्क - लोमान की धूप जला कर सुगंधित करदिया और उसे ऐसा बना दिया कि मानों यह एक गंध की गोली ही हो इस प्रकार से उस समस्त एक योजन परिमित भूभाग को उन्हों ने सुरवर इन्द्र के अवतरण के योग्य कर दिया 'करिता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति-उवागच्छित्ता जाव आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति' करके फिर वे जहां भगवान् तीर्थकर और तीर्थंकर जननी थी वहां आई-वहां आकर वे अपने उचित स्थान पर खडी हो गई और पहिले धीरे से और बाद में जोर से मांगलिक जन्मोत्सव के गीत गानें लगी ॥ २ ॥ सुगंधवरगंधियं गन्धवट्टिभूयं दिव्व' असा गुड्नी, अवर डरउनी तेभन रुष्ठ सामान નને ધૂપ સળગાવીને સુગંધિત કરી દીધું અને એવું ખનાવી દો કે જાણે આ એક ગાંધી ગાળી ન હાય આ પ્રમાણે તે સમસ્ત એક ચેાજન પરિમિત ભૂભાગને તેમણે सुरवर इन्द्रनां भाटे अवतरणु योग्य मनावी ही 'करिता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उबागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव आगायमाणीओ परिगायमणीओ चिट्ठति' બનાવીને પછી તેએ સવે જ્યાં ભગવાન્ તીથંકર અને તીકર જનની હતાં ત્યાં ગઈ. ત્યાં જઈને તેઓ પોતાના ઉચિત સ્થાને બેસી ગઈ અને પહેલા ધીમે-ધીમે અને ત્યાર બાદ જોરજોરથી માંગલિક-જન્માત્સવ ગીતા ગાવા લાગી. । ૨ । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तिकटु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य पुरस्थिमेणं आयंसहस्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति। तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुयवथवाओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरिया तहेव जाव विहरंति, तं जहा-समाहारा१, सुप्पइण्णा२, सुप्यबुद्धा३, जसो हरा४। लच्छिमई५, सेहबई६, चित्तगुत्ता७, वसुंधरा८॥१॥ तहेव जाव तुब्भाहिं न भाइयचं तिकटु भगवओ तित्थयरस्त तित्थयरभाऊए य दाहिणेणं भिंगार हत्थगयाओ आगायमाणीओ परिभायमाणीओचिट्ठति । तेणं कालेणं तेणं समपणं पञ्चत्थिमरुयगवत्थनाओ अट दिसाकुमारी महत्तरियाओ सहि २ जाव विहरंति, तं जहा-इलादेवी१, सुरादेवी२, पुहवी ३, पउमावइ ४ । एगणासा ५, णमिया ६, भद्दा ७, सीया य ८ अट्रमा ॥१॥ तहेव जाव तुबभाहिं ण भाइयव्यं तिकट्ठ जाप भगवओ तित्थयरस तित्थयरमाऊए य पचत्थिमेण तालियंटहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिति । तेणं कालेणं ते समएणं उत्तरिल्लरुयगवत्यमाओ जाव विहरति, तं जहा-अलंबुसा१, मिस्सकेसीर, पुंडरीशाय३, बारुणी। हाला५, सबप्पभाद, चेक, सिरि७, हिरिट चेव उत्तरओ ॥१॥ तहेब जाव वंदित्ता भगवओ तित्थयरमाऊए च उत्तरेणं चामरहत्यगयाओ आगायनाणीओ परिगाथमाणीओ विति। तेणं कालेणं तेणं साएणं विदिसरुयगवत्थयाओ चत्वारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ जाब विहाति, तं जहा-चित्ताय १, चित्तकणगार, सतेरा य३, सोदामिणी४। तहेव जाद ण भाइयव्यं तिकट्टु भगाओ तित्थयरमाऊए य चउसु विदिसासु दीविया हत्थगयाओ आमायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटंति ति। तेशं कालेणं तेणं सपएणं मज्झिमरुयगवत्थाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ लएहिं नएहि कूडेहि तहेव जाब विहरति, तं जहा-रुया१, रूयासिथार, सुरु या३, रूयगाघई। तहेव जाव तुब्भाहिं ण भाइय तिकट्टु भगाओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्ज णाभिणालं कप्पंति कप्पेत्ता विवरगं खगति खणित्ता Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ३ पौरस्त्यरुच कनियासि मीनार ८ स. १६६म ५८१ वियरगे णाभि णिहणंति णिहगिता रयणाण य वइराण य पुरेति पुरित्ता हरियालियाए पेढं बध्नति बधिनत्ता तिदिसिं तओ कयलोहरए विउ वंति, तएणं तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तो चाउस्सालए विउर्वति, तए णं तेसिं चाउस्सालगाणं बहुमज्झदेसभाए सीहासणं विउव्वंति, तेलि णं सोहासणाणं अयमेवारूवे वण्णावासे पण्णत्ते सत्बो वण्णगो भाणियो। तए णं ताओ रुयगमज्झवत्थनाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरीओ जेणेव भगवं तित्ययरे तित्थयरमाया य तेणेव उकागच्छति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं करयल संयुडेणं गिण्हति तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति, गिव्हित्ता जेणेव दाहिणिले कयलीहरए जेणेव चाउसालाए जेणेव सीहासणे तेणे उआगच्छंत उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति, णिसीयावेत्ता सयपागसहस्लपागेहिं तिल्लेहि अभंगति, अब्भंगित्ता सुरभिणा गंधवट्टएणं उठवटेंति, उठवट्टित्ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिण्हति गिण्हित्ता जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं तिथप तिवयरमायरं च सोहासणे णिसीयाति णिसीयावेत्ता तिहिं उदएहिं भजविति, तं जहा-धोदएणं१, पुष्कोदएण२, सुद्धोदएणं३, मजाविता सव्वालंकारविभूलियं करेति करित्ता भगवं तित्थयां करयलयुडे तित्थयमायरं च बाहाहिं गिम्हति गिण्हित्ता जेणेव उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति, उवान्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरलायरं च सीहासणे णिसी. याति णिसीयाक्त्तिा आभियोगे देवे सदार्जिति सदाविना एवं वासीखिप्पामेव भो देवाणुपिया ! चुल्लाहमवंताओ वासहरमव्ययाओ गोसी. सचंदणकट्ठाई साहरह । तएणं हे आभियोगा देवा ताहि स्यगमज्झ वत्थव्वाहि चउहिं दिसाकुमारी महत्तरियाहिं एवं वुत्ता समाणा हट Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ૧૮૨ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र तुट्टा जाव विणएणं वयणं पडिच्छंति पडिच्छित्ता खिप्पामेव चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ सरसाइं गोसीसचंदणकट्ठाइं साहरंति, तएणं ताओ मज्झिमरुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सरगं करेंति करित्ता अरणिं घडेति अरणिं घडित्ता सरएणं अरणिं महिंति महित्ता अग्गि पाडेंति पाडित्ता अग्गि संधुक्खंति, संधुखित्ता गोतीस चंदणकटे पक्खिवंति पक्खिवित्ता अग्निहोमं करेंति, करित्ता भूतिकम्म कति करिता रक्खापोट्टलियं बंधंति बंधित्ता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गहाय भगवओ तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिट्रियाविति, भवउ भगवं पचयाउए २। तएणं ताओ रुयगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति, गिमिहत्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं सयणि जंसि णिसीयाविति, णिसीयावित्ता भगवं तित्थयरं माउए पासे ठवेंति ठवित्ता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंतीति ॥सू०३॥ छाया-तस्मिन्काले तस्मिन् समये पौरस्त्य रुचकवास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः कूटैः तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथा नन्दोत्तरा च १, नन्दा २, आनन्दा ३, नन्दिवर्धना ४ । विजया च ५ वैजयन्ती ६ जयन्ती ७ अपराजिता ८॥१॥ शेषं तदेव यावद युष्माभिन भेतव्यम् इति कृत्वा भगवतस्तीर्थ करस्थ तीर्थङ्करमातुश्च आदर्शहस्तगताः आगायन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति । तस्मिन्काले तस्मिन् समये दाक्षिणात्यरुचकवास्तव्या अष्टौ दिक्कमारीमहत्तरिकाः तथैव यावद् विहरन्ति तद्यथा-समाहारा १, सुप्रदक्षा २, सुप्रबुद्धा ३, यशोधरा ४ । लक्ष्मीवती ५, शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७ वसुन्धरा ८॥१॥ तयैव युष्माभिने भेतव्यम इति कृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य दक्षिणेन भृङ्गारहस्तगताः आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति । तस्मिन्काले तस्मिन् समये पाश्चात्यरुचक वास्तव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वः स्वकैः यावद विहरन्ति, तद्यथा-इलादेवी १, सुरा देवी २, पृथिवी ३, पद्मावती ४ । एकनासा ६ नवमिका ६, भद्रा ७, सीता च अष्टमी ८ ॥१॥ तथैव यावद् युष्मभि ने भेतव्यमिति कृत्वा यावद् भगवतस्तीर्थंकरस्य तीर्थङ्करमातुश्च पाश्चात्येन तालवृन्तहस्तगताः आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति । तस्मिन्काले तस्मिन् समये उदीची रुचकवास्तव्याः यावद विहरन्ति, तद्यथा-अलंबुसा १, मिश्रकेशी २, पुण्डरीका च ३, वारुणी ४ । हासा ५, Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५८३. सर्वप्रभा ६, चैत्र, श्रीः होश्चैव उत्तरतः॥१॥ तथैव यावद् वन्दित्वा भावतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च उत्तरेण चामरहस्तगताः आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये विदिगुरुवस्वास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः यावद् विहरन्ति, तद्यथा-चित्रा च १, चित्रकनका २, शतेरा ३, सौदामिनी ४ । तथैव यावद न भेतव्यमिति कृत्वा भगवतस्तीर्यङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च चतसृषु विदिक्षु दीपिकाहस्तगता आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्ति इति । तस्मिन्काले तस्मिन् समये मध्यरुचकवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः कूटैः तथैव यावद् विहरन्ति, तद्यथा रूपा १, रूपासिका २, सुरूपा ३, रूपकावती ४ । तथैव यावद् युष्माभि ने भेतव्यमिति कृत्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य चतुरगुलबर्ज नाभिनालं कल्पयन्ति, कल्पयित्वा विदरकंखनन्ति, खनित्वा विदरके नाभिम् निदधति। निधाय रत्नश्च वन्त्रैश्च पूरयन्ति पूरयित्वा हरतालकाभिः पीठं बध्नन्ति, पीठं बध्वा त्रिदिशि त्रीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति, ततः खलु तेषां कदलीगृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतु शालकानि विकुर्वन्ति, ततः खलु तेषां चतुःशालकानां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति, तेषां खलु सिंहासनानाम् अयमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः सौं वर्णको भणितव्यः । ततः खलु ताः रुचकमध्यवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमार्यों महत्तराः यत्रैव भगवान् तीर्थङ्करः तीर्थङ्कारमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं करतल संपुटेन गृह्णन्ति तीर्थङ्करमातरं च बाहाभिहन्ति, गृहीखा यत्रैव दाक्षिणात्यं कदलीगृहं यत्रैव चतुः सालकं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थङ्करमातरं च सिहासने निषादयन्ति, निषाद्य शतपाकसहस्रपाकैः तैलैः अभ्यङ्गयन्ति, अभ्यङ्गयिखा सुरभिणा गन्धवर्तकेन उद्वर्तयन्ति, उद्वत्यै भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन तीर्थङ्करमातरं च बाह्वोर्गृहन्ति गृहीत्वा यत्रैव पौरस्त्यं कदलीगृहं यत्रैव चतुः शालं यचैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं तीर्थङ्करमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निषाध त्रिभिरुदकैर्मजयन्ति, तद्यथा-गन्धोदकेन १, पुष्पोदकेन २, शुद्धोदकेन ३, मज्जयित्वा सर्वालङ्कारविभूषितौ कुर्वन्ति, कृत्वा भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन तीर्थङ्करमातरं च बाहाभिः गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैवौत्तराई कदलीगृहं यत्रैव चतुःशाळकं यत्रैव सिहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं तीर्थङ्करमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निषाद्य आभियोगान् देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतात् गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरत ततः खलु ते आभियोगाः देवाः ताभिः रुचकमध्यवास्तव्याभिः चतमृभिः दिक्कुमारीमहत्तरिकाभिः एवमुक्तासन्तः हृष्टतुष्टाः यावद् विनयेन वचनं प्रतीच्छन्ति, प्रतीष्य क्षिप्रमेव क्षुद्रहिमवतो वर्षधरपर्वतात् सरतानि गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरन्ति ततः खलु ताः मध्यरुचकवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः शरकं कुर्वन्ति, कृत्वा अरणिं घटयन्ति अरणिं घटयित्वा शरकेण अरणिं मथ्नन्ति, मथित्वा अग्नि पातयन्ति पातयित्वा अग्नि सन्धुक्षन्ति सन्धुक्ष्य गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रक्षिपन्ति, प्रक्षिप्य अग्निमुज्ज्वालयन्ति उज्ज्वाल्य समिधकाष्ठानि प्रक्षिपन्ति प्रक्षिप्य अग्निहोमं कुर्वन्ति कृत्वा भूतिकर्म कुर्वन्ति, कृत्वा रक्षापोट्टलिका बघ्नन्ति बद्ध्या नानामणिरत्नभक्तिचित्रौ द्विविधौ पाषाणवृत्तको गृहन्ति गृहीत्वा भगवतः तीर्थकरस्य कर्णमूले टिट्टयावेंति भवतु भगवान् पर्वतायुः। ततः खलु ताः रुचामध्यवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारी महत्तरिकाः भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन दीर्थङ्करमाटरं च बाहाभिर्गहन्ति गृहीत्वा यत्रैव भगवतः तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य तीर्थकरमातरं शय्यायां निषादयन्ति, निषाद्य भगवन्तं तीर्थकरं मातुः पावें स्थापयन्ति, स्थापयित्वा आगायन्त्यः परिगायन्त्यः तिष्ठन्तीति ॥३॥ __टीका-'तेण कालेणं' इत्यादि 'तेणं कालेणं, तेणं समएणं पुरथिमस्यगरत्थवाओ अट्ठ दिसाकुमारीप हत्तरियाओ सएहि सएहिं कूडे हिं जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन् समये अस्यार्थः अव्य हितपूर्वसूत्र द्रष्टव्यः पौरस्त्यरुचकवास्तव्या:--पूर्वदिग्रभागवर्ति रुचककूट. निवासिन्यः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः 'सएहि सएहिं कूडे हिं तहेब जाव विहरंति' स्वकैः स्वकैः कूटैः अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया स्वकेषु स्वकेषु इत्यर्थः तथैव पूर्वसूत्रवदेव यावद् विहरन्ति अत्र यावत् पदात् 'सएहिं सएहिं भवणेहिं' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिबुडाओ' इत्यन्तं सर्व संग्राह्यम् एतेषां व्याख्यानं च अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसूत्रे दष्टव्यम् आसां दिक्कुमारीणां नामान्याह-'तं जहा' इत्यादि-तं जहा णंदुत्तराय १, पंदा २. आणंदा ३, मंदिवद्धणा ४ । विजया य ५, वेजयंती ६, जयंती ७, अपराजिया ८ ॥१॥ 'तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरथिम रुयगवत्थव्वाओ' इत्यादि । टीकार्थ-उस काल में और उस समय में 'पुरथिमरुयगवत्थव्वाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरियाओ' पूर्व दिग्भागवति रुचक कूट वासिनी आठ दिक्कुमारी महत्तरिकाएं 'सएहि२ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति' अपने २ कूटों में उसी तरह यावत् भोगों को भोग रही थी यहां यावत्पद से 'सएहिं सएहिं भवणेहिं' यहां से लेकर 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिचुडाओ' यहां तक का पाठ गृहीत हुआ है इस पाठ का अर्थ प्रथम सूत्र की व्याख्या में लिख दिया गया है 'तं जहा' इन तेणं कालेणं तेणे समएणं पुरथिमरुपगवत्थव्याओ' इत्यादि तेणे सने ते समये 'पुरथिमरुयगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ' पूर्व हिमायति रुय४ फूट पसिनी 13 भारी भत्तरिम 'सएहिर कूडेसिं तहेव जाव विहरांति' पोत पोताना डूटोमा ते प्रमाणे ॥ यावत् मागासागकी २४ी ती, सही यावत् ५४थी 'सएहिं सएहिं भवरोहिं' महीथी भांजर देवेहि देवीहि य सद्धिं संपरिखुडाओ' સુધીને પાઠ સંગૃહીત થયો છે. આ પાઠને અર્થ પ્રથમ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં સ્પષ્ટ કરवामां माया छ. 'तं जहा' ते हिमा२४ागाना नामी प्रमाणे छे–‘णंदुत्तराय-१, Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५८५ सद्यथा-नन्दोत्तरा १, च समुच्चये, नन्दा २, आनन्दा ३, नन्दिवर्द्धना ४ । विजया च ५, वैजयन्ती ६, जयन्ती ७, अपराजिता ८॥ इत्येताः नामतः कथिताः 'सेसं तंचेव जाव तुब्भाहिं ण भाइयव्वं तिकटु 'भगवओ तिस्थयरस्स तित्थयरमायाए य' शेषम् आसनप्रकम्पावधिप्रयोगभगवदर्शनपरस्पराहान स्वस्वाभियोगिककृतयानविमानविकुर्वणादिकं तथैव यावद् युष्माभि ने भेतव्यम् इति कृत्वा इत्युक्त्वा भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च 'पुरत्थिमेणं आयंसहस्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीभी चिटुंति' पौरस्त्येन-पूर्वरुचकसमागतत्वात् पूर्वतः, आदर्शहस्तगताः-हस्तगत दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से है ‘णं दुत्तराय १, गंदा २, आणंदा ३, णादिवद्धणा ४, विजया य ५, वैजयंती ६, जयंती ७, अपराजिया ८' नन्दोत्तरा, नन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्धना, विजया, वैजयन्ती, और अपराजिता 'सेसं तंचेव तुब्भाहिं ण भाइयव्वं ति कटु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य पुरस्थिमेणं आयंसहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' यहां पर बाकी का कथन-जैसे आसन का कम्पायमान होना, उसे देखकर अवधिज्ञान से इसका कारण जानना अर्थात् भगवान का जन्म हो गया है ऐसा अवधिज्ञान द्वारा जानना, फिर आपस में बुलाकर मंत्रणा करना, अपने अपने आभियोगिक देवों को बुलाना, उन्हें यान विमान तैयार करने की आज्ञा देना, इत्यादि सब कथन जैसा प्रथम सूत्र में किया गया है वैसा ही वह सब यहां पर समझलेना चाहिये और वह सब कथन यावत् आपको भयभीत नहीं होना चाहिये यहां तक का यहां ग्रहण करलेना चाहिये इस प्रकार कहकर वे सबकी सब पूर्व दिग्भागवर्ती रुचक कूट वासिनी ८ दिक्कुमारियां भगवान् तीर्थकर और तीर्थकर माता के पास-समुचित स्थान पर-हाथ में दर्पण लिये हुए खडी हो गई णंदा २, आणंदा ३, णदिवद्धणा ४, विजया य ५: वेजयंति, ६, जयंती ७, अपराजिया ८' नहोत्तरा, नन्हा, मानन्ही, नविना, विया, वैश्यन्ती, यन्ती मन अ५२irau. 'सेसं तं चेव तुब्भाहिं ण भाइयव्वं तिकटूटु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमायाए य पुरत्थिमेणं आयंसहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' मही शेष ४यन रे આસન કંપિત થવું, તે જોઈને અવધિજ્ઞાનથી તેનું કારણ જાણવું. એટલે કે ભગવાનને જન્મ થઈ ગયે છે, એવું અવધિજ્ઞાન વડે જાણવું, પછી એક-બીજાને બોલાવીને, એક સ્થાને એકત્ર થઈને સલાહ કરવી, પિત–પિતાના આભિગિક દેવને બેલાવવા, તે તેને યાન-વિમાન તૈયાર કરવાની આજ્ઞા આપવી વગેરે બધું કથન જેમ પ્રથમ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલું છે, તેવું જ બધું કથન યાવત્ આપશ્રી ભયભીત થાઓ નહિ, અહીં સુધી ગ્રહણ કરી લેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને તેઓ સર્વે પૂર્વ દિગ્ગાવતી રુચક ફૂટ વાસિની આઠ દિકુમારિકાઓ ભગવાન તીર્થકર અને તીર્થકરના માતુશ્રી પાસે જઈને - ज० ७४ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूदीपप्रज्ञप्तिसूत्रे आदर्शो-दर्पणो जिनजनन्योः शृङ्गारादि विलोकनाधुपयोगी यासां ताः हस्तगतादर्शा इत्यर्थः मूले विशेषणस्य हस्तगतपदस्य पूर्व प्रयोक्तव्ये परनिपातःप्राकृतत्वात् बोध्यः, आगायन्त्यःआ ईषत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले मन्दरस्वरेण गायमानत्वात्, परिगायन्त्यः-गीतप्रवृत्ति कालानन्तरम् परितः उच्चस्वरेण गायन्त्यस्तिष्ठन्ति इति । अत्र च रुचकादि स्वरूपप्ररूपणा इयम् एकादेशेन एकादशे द्वितीयादेशेन त्रयोदशे तृतीयादेशेन. एकविंशे रुचकद्वीपे बहुमध्ये वलयाकारो रुचक शैल: चतुरशीरियोजनसहस्राणि उच्चः मूले १००२२ मध्ये ७०२३ शिखरे ४०२४ योजनानि विस्तीर्णः, तस्य च शिरसि चतुर्थे सहस्रे पूर्वदिशि मध्ये सिद्धायतनकूटम् उभयोः पार्श्वयोः चत्वारि २ दिक्कुमारीणां कूटानि तत्र नन्दोत्तराधाश्चतस्र एकपाचे कूटचतुष्टये द्वितीये च पाच कूट चतुष्टये विनयाधाश्चतस्रः दिक्कुमारी महतरिकाः परिवसन्तीतिभावः । सम्प्रति दक्षिणरुचकस्थानां वक्तव्यमाह-'तेणं कालेणं' इत्यादि, तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुयरावत्थव्याओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरियाओ तहेव जाव विहरंति' तस्मिन् और पहिले धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के मांगलिक गीत गाने लगी इन्हों के हाथ में दर्पण इसलिये था कि जिन और उनकी माता शृङ्गारादि को देखने के लिये इसे अपने काम में लावें यहां रुचकादि के स्वरूप की प्ररूपणा इस प्रकार से है एक देश से ११वें द्वितीया देश से १३ वे, तृतीया देश से २१ वे रुचक द्वीप में ठीक बीच में वलय के आकार का रुचक शैल है यह चौरासी हजार योजन का ऊंचा है मूल में इसका विस्तार १००२२ योजन का है मध्य में ७०२३ योजन का है और ऊपर शिखर में ४०२४ योजन का है उसके ऊपर शिखर पर चतुर्थ हजार योजन पर पूर्व दिशा की ओर बीच में सिद्धा. यतन कूट है दाइ बांई ओर चार कूट दिक्कुमारिकाओं के हैं इनमें नन्दोत्तरा आदि दिक्कुमारिकाएं रहती हैं। दक्षिण रुचकस्थ दिक्कुमारिकाओं की वक्तव्यता 'तेणं कालेणं तेणं समસમુચિત સ્થાન ઉપર હાથમાં દર્પણ લઈને ઊભી રહી. અને પહેલાં ધીમા સ્વરમાં અને ત્યાર બાદ ર–જેરથી જન્મત્સવના માંગલિક ગીત ગાવા લાગી. તેમના હાથમાં દર્પણ એટલા માટે હતું કે જિન અને તેમના માતુશ્રી શૃંગારાદિ જેવા માટે અને તાના કામમાં લાવે. અહીં રુચકાદિના સ્વરૂપની પ્રરૂપણું આ પ્રમાણે છે–એક દેશથી ૧૧નાં, દ્વિતીયા દેશથી ૧૩માં, તૃતીયા દેશથી ૨૧માં રુચક દ્વીપમાં, ઠીક મધ્યભાગમાં વલયના આકાર જે ગ્રૂક શેલ છે, આ ૮૪ હજાર યેજન જેટલો ઊંચો છે. મૂળમાં એને વિસ્તાર ૧૦૦૨૨ જન જેટલું છે. મધ્યમાં ૭૦૨૩ એજન જેટલું છે અને ઉપર શિખરમાં ૪૦૨૪ જન જેટલે છે. તેની ઉપર–શિખર ઉપર ચાર હજાર જન ઉપર પૂર્વ દિશા તરફ મધ્યમાં સિદ્ધાયતન ફૂટ આવે છે. એની ડાબી અને જમણી તરફના ચાર ફૂટ દિકકુમારિકાઓના છે. એ ફૂટમાં નારા આદિ દિકકુમારિકાઓ વસે છે. Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुधकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् .. ५८७ काले तस्मिन् समये दक्षिणरुचकवास्तव्याः--पूर्ववत् रुचकशिरसि दक्षिणदिशि मध्ये सिद्धायतनकूटम् उभयोः पार्श्वयोः चत्वारि २ कूटानि तत्र तत्र चतस्रश्चतस्रो वासिन्य" इत्यर्थः, मिलित्वा अष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः तथैव-पूर्वोक्तवदेव यावद् विहरन्ति तिष्टतीत्यर्थः, अत्र यावत् 'सएहिं २ कूटेहि' ३ इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिखुडाओ' इत्यन्तं सर्व सग्राह्यम्, एतेषां सर्वेषां पदानां व्याख्यानं च अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम् । - तं जहा-समाहारा १ सुप्पइण्णा २, मुप्पबुद्धा ३, जसोहरा ४। लच्छिमई ५ सेसबइ ६ वित्तगुत्ता ७ वसुंधरा ८॥१॥ तद्यथा-समाहारा १ सुप्रदत्ता २ सुप्रबुद्धा ३ यशोधरा ४ । - लक्ष्मीवता ५ शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७, वसुन्धरा ८ ॥१॥ "तहेव जाव तुब्भाहिं न भाइयवं तिकटु जाव भगवओ तित्थयरस्स तिस्थयरमाऊए य दाहिणेणं भिंगार हत्यगया ो आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' तथैवं पूर्ववदेव यावद् युष्मामि ने भेतव्यमिति कृत्वा तीर्थकरमातरं सावधानीकृत्य, भगवतस्तीर्थंकरस्य एणं' उस काल में और उस समय में 'दाहिण रुअगवत्थधाओ अट्ट दिसाकुमारी महत्तरियाओ तहेव जाव विहरंति' दक्षिण दिग्भागवर्ति रुचर कूट वासिनी आठ दिक्कुमारी महत्तरिकाएं अपने अपने कूटों में जैसा कि प्रथम सूत्र में कहा जा चुका है यावत् भोगों को भोग रही थीं। यहां पर इसके बाद का सब कथन जैसा पहिले कहा गया है वैसा ही है उन आठ दक्षिणरुचकस्थ दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से हैं-'समाहारा १ सुप्पाहण्णा २, "सुप्पबुद्धा ३, जसोहरा ४ । लच्छिमई ५, सेसवई ६ चित्तगुत्ता, ७ वसुंधरा ८॥ समाहारा १, सुप्रदत्ता २, सुप्रबुद्धा ३, यशोधरा ४, लक्ष्मीवी ५. शेषवती ६, चित्रगुप्ता ७ और वसुन्धरा ८ यहां पर और बाकी का कथन-जैसे आसन का कंपायमान होना उसे देखकर अवधि के प्रयोग से इसका कारण जानना દક્ષિણ ચકસ્થ દિકુમારિકાઓની વક્તવ્યતા 'तेणं कालेण तेण समएणं' ते मा भने ते समयमा दाहिणरुअगवत्थव्बाओ अट्ट दिसाकुमारीमहत्तरियाओ तहेव जाव विहरंति' दक्षिणपति 34 डूट वासिनी આઠ દિકકુમારિ મહરિકાએ પિત–પિતાનામાં જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે–યાવત્ ભેગનો ઉપગ કરતી હતી. અહીં તે પછીનું બધું કથન જે પ્રમાણે પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે, તેવું જ છે. તે આઠ દક્ષિણ રુચકસ્થ દિકુમારિકાઓના नामा मा प्रमाणे ठे-'समाहारा १, सुप्पइण्णा २, सुप्पवुद्धा ३, जसोहरा ४ । लच्छिमई ५, सेसवई ६, चित्तगुत्ता ७, वसुंधरा-८ ॥ समाह।-१, सुमहत्ता २, सुप्रसुद्धा 3, यशाय। ४, भीती ५, शेषवती , ચિત્રગુપ્તા ૭ અને વસુંધરા-૮. અહીં શેષ બધું કપને-જેમકે આસન કંપિત થવું, તેને જોઈને અવધિના પ્રયોગથી એનું કારણ જાણવું, વગેરે બધું કથને જે પ્રમાણે પ્રથમસૂત્રમાં Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट जम्बूद्वीपप्रति तीर्थङ्करमातुश्च दाक्षिणात्येन जिनजनन्योर्दक्षिणदिग्गतच्चाद् दक्षिणदिग्भागे इत्यर्थः, भृङ्गारहस्तगताः - जिनजननीस्नपनोपयोगि हस्तगतजलपूर्णभृङ्गाराः सत्यः इत्यर्थः आगायन्त्यः परिगायन्त्यः पूर्वम् अल्पस्वरेण पश्चाद्दीर्घस्वरेण गायन्त्य इत्यर्थः तिष्ठन्ति ता अष्टौ दिवकुमारी महत्तरिकाः इति । सम्प्रति पश्चिमस्चकस्थानां वक्तव्यतामाह - ' तेणं कालेणं' इत्यादि । ' तेणं कालेणं तेणं समए णं पच्चत्थिमरुयगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीमहत्तरियाओ सएहिं जाव विहरंति' आदि सब वक्तव्यता जैसा प्रथम सूत्र में प्रकट कर दिया गया है वैसा ही है तहेव जाव तुग्भाहिं न भाइअव्यं इति कट्टु, यावत् आप भय न करें इस प्रकार कहकर वे सबकी सब दिक्कुमारीयां 'जाब भगव ओतित्थयरस्स' जहाँ पर तीर्थकर और 'तित्थयरमाउएअ' तीर्थकर की माता थी वहां पर आकर 'दाहिनेणं भिंगार हत्थगआओ' उनकी दक्षिणदिशा तरफ भृंगार हाथ में लेकर समुचित स्थान पर 'चिट्ठति' खडी हो गई खडी २ वहां वे 'आगायमाणीओ परिमायमाणीओ' पहिले तो धीमे स्वर से और बाद में जोर २ से जन्मोत्सव के मांगलिक गीत गाने लगी । दक्षिणदिशा की ओर रुचक पर्वत की शिखर पर बीच में सिद्धायतन कूट है उसकी दोनों तरफ चार २ कूट हैं वहां पर ये ४-४ की संख्या में रहती है जिनेन्द्र और जिनेन्द्र की माता के स्नान के निमित्त उपयोगी जान कर ये भृङ्गार साथ में लाई थीं । पश्चिमरुचकस्थ दिक्कुमारीकाओं की वक्तव्यता 'तेणं कालेणं ते णं समएणं पच्चस्थिमरुयगवत्थञ्चाओ अट्ठ दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं २ जाव विहरंति' उस काल में और उस समय में पश्चिम પ્રકટ કરવામાં આવ્યું છે, તે પ્રમાણે જ છે. 'तद्देव जाव तुभाहिं न भाइअव्वं इति कट्टु ' યાવત્ આપશ્રી ભયભીંત થાઓ નહિ, આ પ્રમાણે કહીને તે બધી દિકુમારિએ નાવ भगवओ तित्थयरस्स' ल्यां तीर्थ ४२ भने 'तित्थयरमा उएअ' तीर्थ पुरना भाताश्री तां त्यां भावीने 'दाहिणेण भिंगारहत्थगआओ' तेमनी दक्षिण दिशा तर समुचित स्थान (५२ 'चिट्ठति' अली रही तेभना साथीभां आरीयो हुती अली अली त्यां तेथे 'आगायमाणी ओ परिगायमाणीओ' पडेसां तो धीमा स्वरथी भने पछी भेर-लेरथी न्मोत्सवना भांगालिक ગીતા ગાવા લાગી. દક્ષિણ દિશા તરફ્ રુચક પતના શિખર ઉપર મધ્યમાં સિદ્ધાયતન ફૂટ આવેલા છે. તે ફૂટની બન્ને તરફ ચાર-ચાર ફૂટ આવેલા છે. ત્યાં એ બધી ૪-૪ની સખ્યામાં રહે છે. જિનેન્દ્ર અને જિનેન્દ્રની માતાના સ્નાન માટે ઉપયેગી થઈ પડશે એવુ' સમજીને એ ભંગારા સાથે લાવી હતી. પશ્ચિમ રુચક્રન્થ દિક્કુમારિકાઓની વક્તવ્યતા 'तेणं कालेणं तेणं समरणं पच्चत्थिमरुयगवत्थन्याओ अट्ठ दिसा कुमारी महत्तरियाओ सएहिं २ जाव विहरंति' ते अजभां अने ते समयमा पश्चिम हिग्लागूवती रुख४ ट Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यावनिवासिनीनामवसवर्णनम् ५८९ तस्मिन् काले तस्मिन् समये पश्चिमरुचकवास्तव्याः पश्चिमदिग्भागवत्ति रुचकवासिन्यः अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः यावद्विहरन्ति तिष्ठन्ति यावत् पदात् 'सरहिं सरहिं कूडे हि' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ' इत्यतं सा ग्राह्यम् एतेषां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम् । एतासां नमान्याह -'तं जहाँ इत्यादि 'तं जहा' तद्यथा इलादेवी १ सुरादेवी २, पुहवो ३ पउमावइ ४ । एगणासा ५, णवमिया ६ भद्दा ७, सीया य अट्ठमा । इलादेवी १ सुरादेवी २ पृथिवी ३ पद्मावती । एकनासा ५, नवमिका ६ भद्रा ७ सीता च अष्टमी ।। 'तहेव जाव तुब्भाहिं ण भाइयव्वं तिकट्टु जाव भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए य पञ्चत्थिमेणं तालियंटइत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीश्रो चिटुंति' कूटव्यवस्था तथैव पूर्ववदेव यावद् युष्माभिर्न भेतव्यम् असम्भाव्यमानेऽस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीयाः दिग्भागवति रुचक कूट वासिनी आठ दिक्कुमारी महत्तरिकाएं अपने अपने कूट आदिकों में यावत् भोगों को भोग रही थी यहां यावत् पद से 'सएहिं सएहिं कूडेहिं' इस पाठ से लेकर 'देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडाओ' यहां तक का पाठ गृहीत.हुआ है । इनके नाम इस प्रकार से हैं । इलादेवी १ सुरादेवी २ पुहवी ३ पउमावई ४ । 'एगणासा ५, णवमिआ ६ भद्दा ७ सीआ य ८ अट्ठमा' इलादेवी, सुरादेवी, पृथिवी, पद्मावती, एकनासा, नवमिका, भद्रा और आठवीं सीता 'तहेव जाव तुम्भाहिं ण भायिअवंति कटु जाव भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए य पच्चस्थिमेणं तालि अंटहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' कूटव्यवस्था पूर्व की तरह से ही जाननी चाहिये यावत् आपको 'जहां पर जनका आना संभावित नहीं हो सकता है ऐसे इस स्थान में વાસિની આઠ દિફકમારી મહત્તરિકાએ પિત–પિતાના કૂટ આદિમાં યાવત્ ભાગને ઉપसो ४२२ही ती, मी यावत् ५४थी 'सएहि सरहिं कूडेहि' 240 पाथी भांडीने देवेहि देवीहि य सद्धि सपरिखुडाओ' मडी सुधीन। 43 सहीतये। छे अमना नाम मा प्रभारी छ इलादेवी १, सुरोदेवी २, पुहवी ३, पउमावई ४ । एगणासा ५, णवमिआ ६, भद्दा ७, सीआय ८, अट्टमा १ ॥ auवी १, सुशहेवी, पृथिवी, ५मावती, नासा, नवमी, सामने सीता. 'तहेव जाव तुम्भाहिण भायिअवंति कटु जाव भवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाउएय पच्चत्यिमेणं तालिअंटहत्थगयाओ आगायणाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' एट व्यवस्था અહીં પૂર્વવત જ જાણવી જોઈએ. યાવત્ તમારે “જ્યાં જનાગમન અસંભવિત છે, એવા . .. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इमाः कथं समुपस्थिता इत्याशङ्काकुलं चेतो न कार्यमित्यर्थः इतिकृत्वा तीर्थकरमातरम् इत्युक्त्वा यावद्भगवतस्तीर्थङ्करस्य तीर्थकरमातुश्च पाश्चात्यें पश्चिमरुचकागतत्वाज्जिन जनन्योः पश्चिमदिग्भागे तालवृन्तहस्तगताः - तालवृन्तम् तालव्यजनं तद्धस्तगताः उभयोः सेवार्थ - मित्यर्थः आगायन्त्यः- आ ईपत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले अल्पस्वरस्यैव गायमा - aara परिगायन्त्य: गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं दीर्घस्वरेण गायन्त्यस्ता अष्टौ दिक्कुमारीमहतरिकास्तिष्ठन्ति, अत्र प्रथमयावत्पदात् तयोः त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावते मस्तके अञ्जलिं कृत्वा हे तीर्थंकरमातः इति सङ्ग्राह्यम् 'तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्ल रुयगवस्थव्वाओ जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन समये औत्तराहरुचकवास्तव्याः - उत्तरदिग् भागवर्त्तिरुचकवासिन्यो यावद् विहरन्ति तिष्ठन्ति यावत्पदात् अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिकाः इतिग्राह्यम् एतासां नामान्याह - 'तं जहा ' तद्यथा - अलंबुसा १, मिस्सकेसी २, पुंडरीया ३, य वारुणी ४ । हसा ५, सभा ६, चेव सिरि ७, हिरि ८ चेव उत्तर || १॥ विसदृश जातीयजन ये किसलिये उपस्थित हुई हैं, इस प्रकार की आशंका से आकुलित नहीं होना चाहिये इस प्रकार कहकर वे जहां तीर्थंकर और तीर्थकर माता थी वहाँ पर गई वहां जाकर वे उनके पश्चिम दिग्भाग से आने के कारण पश्चिम दिग्भाग में खडी हो गई उनके प्रत्येक के हाथों में पंखा था वहां पर समुचित स्थान में खडी हुई वे प्रथम धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के मांगलिक गीत गाने लगी यहां प्रथम यावत् शब्द से 'तयोः त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलि. कृत्वा - हे तीर्थकरमातः 'ऐसा पाठ गृहीत हुआ है । 'ते णं कालंणं ते णं समए णं उत्तरिल्लरु अगवस्थवाओ जाव विहरतितं जहा - अलंबुसा १, मिस्सकेसी २, पुण्डरीआ य ३ वारुणी ४, हासा ५, सव्व આ સ્થાન ઉપર વિસશ જાતીયજન આ લેકે શા માટે ઉપસ્થિત થયા છે ?' એવી આ શકાથી આકુલિત થવું જોઇએ નહિં. આ પ્રમાણે કહીને તેએ જ્યાં તીર્થંકર અને તીકરના માતા હતાં ત્યાં ગઇ. ત્યાં જઇને તેમણે પશ્ચિમ ટ્વિગ્સાગથી આવવાના કારણે પશ્ચિમ દિગ્બાગ તરફ ઊભી થઈ ગઈ. તેમનામાંથી દરેકે દરેકના હાથમાં પંખાઓ હતા. ત્યાં સમ્મુચિત સ્થાન ઉપર ઊભી થયેલી તે પ્રથમ ધીમા સ્વરે અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી ४न्मोत्सवना भांगलिक गीती गावा बागी सहीं प्रथम यावत् शब्दथी 'तयोः त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अंजलिं कृत्वा हे तीर्थकरमातः ' येथे पाठ संग्रहीत थयो छे. 'तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्लरुअगवत्थन्याओ जाव विहरंति तं जहा - अलंबुसा १, भिरखकेसी २, पुण्डरीआ य ३, वारुणी ४, हासा ५, सव्वप्पभा - ६ चैत्र, सिरि ७, हिरि Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५९१ अलंबुसा १, मिश्रकेसीर २, पुण्डरीका ३, च वारुणी ४ । हासा ५, सर्वप्रभा ६, चैव श्रीः ७, होश्चैव ८ उत्तरतः॥१॥ 'तहेव जाव वंदित्ता भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाउए य उत्तरेणं चामरहत्थगया भो आगायमाणी परिगायमाणीओ चिटुंति' कूटव्यवस्था तथैव पूर्ववदेव यावद् वन्दित्वा भगवतः तीर्थकरस्य तथंकरमातुश्च उत्तरे-उत्तररुचकागतत्वाज्जिनजनन्योरुत्तरदिग्भागे चामरहस्तगता:-गृहीतहस्तचामराः सत्यः आगायन्त्यः ईषत्स्वरेण गायन्त्यः, परिगायन्त्यः दीर्घस्वरेण गायन्त्यः तिष्ठन्ति, अत्र यावत् पदात् त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसाव मस्तके अञ्जलिं कृत्वा वन्दते नमस्यति पन्दित्वा नमस्यित्वा प्पभा ६ चेव सिरी ७ हिरि ८ चेव उत्तरओ ॥१॥' उस काल में और उस समय में उत्तर दिग्वर्ती रुचक कूटनिवासिनी यावत् आठ दिक्कुमारीकाएं अपने अपने कूटादिकों में भोग भोगने में तल्लीन थी यहां पर सब प्रकरण इस सम्बन्ध में जैसा पहिले कहा है-वैसा यह सब यहां पर कहलेना चाहिये उन उत्तर दिग्वर्ती रुचक कूरवासिनी दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से है-अलंबुसा, मिश्रकेशी, पुण्डरीका, कारुणी, हासा, सर्वप्रभा, श्री और ही 'तहेव जाव वंदित्ता भगवओ तित्थयरस्स तिल्थयरमाऊए अ. उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' कूट व्यवस्था पूर्व के जैसी ही समझना चाहिये यावत् वे वन्दना करके भगवान् तीर्थकर और तीर्थ कर माता के पास उचित स्थान में उत्तरदिशा में खडी हो गई उनके प्रत्येक के हाथ में उस समय चामर थे वहां खडे होकर उन्होंने पहिले तो धीमे स्वर में और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के मांगलीक गीत गाये यहां पर भी यावत्पद से 'त्रिः कृस्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनवं शिरसावत मस्तके अंजलि ८ चेव उत्तरओ' ॥ १॥ त जे मन त समये उत्तर [६ २४ - निवासिनी યાવત્ આઠ દિકુમારિકાઓ પિત–પિતાના કૂટાદિકમાં ભેગો ભેગવવામાં તલ્લીન હતી. અહીં શેષ બધું પ્રકરણ જે પ્રમાણે પહેલાં કહેવામાં આવ્યું છે તેવું જ બધું સમજી લેવું જોઈએ. તે ઉત્તરદિગ્ગત રુચક ફૂટવાસિની દિકુમારિકાઓના નામે આ પ્રમાણે છે–અલંमुसा, भिशी, युरी४, पाणी, हासा सप्रमा, श्री अनेी. 'तहेव जाव वंदित्ता भगवओ, तित्थयरस्स. तित्थयरमाऊए. अ उत्तरेणं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परि. गायमाणीओ चिति' छूट व्यवस्था पूर्ववत् १ सभापी . यावत् तेमे बहन शन ભગવાન્ તીર્થકર અને તીર્થકરના માતા પાસે ઉચિત સ્થાનમાં ઉત્તર દિશા તરફ ઊભી થઈ ગઈ. તેમાંની દરેકે દરેકના હાથમાં તે સમયે ચામરે હતા. ત્યાં ઊભી થઈને પ્રથમ તે તેમણે ધીમા સ્વરે અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી જન્મત્સવના માંગલિક ગીત ગાવા al...मी पण यावत् पहथी 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति इतिग्राह्यम् । अथ विदिग्ररुचकवासिनीनाम् आगमनावसरः ' तेणं कालेणं' इत्यादि । 'तेणं कालेणं तेणं समरणं विदिसि रुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसा कुमारी महत्तरियाओ जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन् समये विदि रुचकवास्तव्या:- तस्यैव रुचकपर्व - तस्य शिरसि चतुर्थे योजन सहस्रे चतुसृषु विदिक्षु एकैकं कूटं तत्र वासिन्य इत्यर्थः चतस्त्रो विदिक्कुमारी महत्तरिकाः यावद् विहरन्ति तिष्ठन्ति इमाश्च विद्युत्कुमारी महत्तरिकाः स्थानाङ्गे उक्ताः, अत्र यावत्पदात् 'सएहिं कूटेहिं' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडाओ' इत्यन्तं सर्वं ग्राह्यम् । एतेषां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमपूर्वसूत्रे द्रष्टव्यम् । एतासां नामान्याह - 'तं जहा चित्ता य' इत्यादि । 'तं जहा - चित्ताय १, चित्तणगा २, सतेरा ३, य सोदामिणी ४ । चित्रा च १, चित्रकनका २, शतेरा ३, सौदामिनी ४ । तद्यथा तव जाव ण भाइयव्वं तिकट्टु भगवओ तित्थयरस्स तिस्थयरमाउए य चउसु विदिसासु कृत्वा वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा' इस पाठका ग्रहण हुआ है । 'ते णं काले ते णं समएणं विदिसि रुभगवत्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरिआओ जाव विहरंति-तं जहा -चित्ताय १ चित्तकणगा २, सतेरा ३ य सोदामिणी ४ तहेव जाव ण भाइअव्वं ति कटु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए अ च विदिसासु दीविआहस्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चित्ति' उस कालमें और उस समय में रुचक कूटकी चार विदिशाओं में रहनेवाली चार दिशाकुमारी महत्तरिकाएं यावत् भोगों को भोग रही थीं रुचक पर्वत के ऊपर में चार हजार योजन पर चार विदिशाओं में एक २ कूट है ये चार दिशाकुमारी महत्तरिकाएं वहीं पर एक कूट में रहती है इनके नाम इस प्रकार से हैं - चित्रा चित्रकनका, शतेरा, और सौदामिनी यावत् आपको ' असंभाव्यमान इस एकान्तस्थान में विसदृश जाती ये किसलिये आई है इस दसनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलिं कृत्वा वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा' मा पाउने संग्रह थयो छे. 'तेणं कालेणं तेणं समएणं विदिसि रुअगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरिआओ जाव विहरंति तं जहा - चित्ताय १, चित्तकणगा २; सतेरा ३ य, सोदामिणी ५, तद्देव जाव जाव णमाइ अव्वति कट्टु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमा ऊएअ चउसु विदिसासु दीवि आहत्थगायाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति' ते जे भने ते समये रुथ टूटनी थार વિદિશાઓમાં રહેનારી ચાર દિશ કુમારી મહત્તરિકાએ યાવત્ ભેગાભગવવામાં તલ્લીન હતી, તે રુચક પર્યંતની ઉપર ચાર હજાર યોજન ઉપર ચાર વિદિશાઓમાં એક-એક ફૂટ આવેલે છે, એ ચાર દિશાકુમારી મહત્તરિકાએ ત્યાં જ એક ફૂટમાં રહે છે. એમના નામે આ પ્રમાણે हे चित्रा, चित्रम्ना, शतेरा भने सोहामिनी यावत् तभारे અસ શામાન આ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५९३ दीविया हत्थायाभो आगायमाणोश्रो परिगायमाणीओ चिट्ठति ति तथैव यावत् न भेतव्यम् युष्माभिः असंभाव्यमानेऽस्मिन्नेकान्तस्थाने विसदृशजातीया इमाः किमथ समुपस्थिताः इति शङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इति कृत्वा तीर्थङ्करमातरं प्रति इत्युक्खा विदिगागतत्वाद् भगवतः तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुश्च चतसृषु विदिक्षु दीपिकाहस्तगताः स्थापितहस्तदीपिका: सत्यः आगायन्त्यः-आ ईषत्स्वरेण गायन्त्यः प्रारम्भकाले अल्पस्वरेणैव गायमानत्वात् परिगायन्त्यः तारस्वरेण गायन्त्यः तिष्ठन्ति ताः चतस्रो विदिक्कुमारी महत्तरिका इति । तथैव यावत्-अत्र यावत्पदात् त्रिः कृत्वः भादक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा भगवन्तं तीर्थंकरं तीर्थङ्करमातरं च वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यिखा च इति ग्राह्यम् । अथ मध्यरुचकवासिनीनां समागमः 'तेणं कालेणं' इत्यादि । 'तेणं कालेणं तेणं समएणं मज्झिमरुयगरथवाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सरहिं सएहिं कूडे हिं तहेव प्रकार की आशंका से आकुलित चित्तयुक्त नहीं होना चाहिये इस प्रकार कहकर वे चारों विदिशाओं से आने के कारण भगवानू तीर्थकर और तीर्थकर माता की चारों विदिशाओं में खड़ी हो गई इनके सबके हाथों में दीपक थे वहां खडी होकर वे सब की सब पहिले तो धीमे स्वर से और बाद में जोर जोर से जन्मोत्सव के माङ्गलिक गीत गाने लगीं यहां यावत्पद से 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रद. क्षिणं कृत्वा करतलपरिग्रहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलिं कृत्वा भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थङ्कर मातरं च वन्दन्ते नमस्यन्ति बन्दित्वा नमस्यित्वा च' इस पाठका ग्रहण हुआ है। ___'तेणं कालेणं तेणं समएण' उस कालमें और उस समय में 'मज्झिमरुयग. वस्थव्यामो चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सएहिं २ कूडेहिं तहेव जाव विहरंति' मध्यम रुचक कूटकी निवासिनी चार दिशाकुमारी महत्तरिकाएं अपने એકાન્ત સ્થાનમાં વિસદશ જાતિની આ અહીં શા માટે આવી છે ? “આ પ્રકારની ઓ શંકાથી આકુલિત ચિત્તયુક્ત થવું ન જોઈએ. આ પ્રમાણે કહીને તેઓ ચારે વિદિશાએથી આવી હતી તેથી ભગવાન્ તીર્થકર અને તીર્થકર માતાની ચારે વિદિશાઓમાં ઊભી થઈ ગઇ. ત સંવના હાથમાં દીપક હતા. ત્યાં ઊભી થઈને તેઓ પહેલાં ધીમા સ્વરે અને ત્યાર બાદ જોર-જોરથી જન્મોત્સવના માંગલિક ગીત ગાવા લાગી. અહીં યાવત્ પદથી 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कृत्वा करतलपरिगाहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलिं कृत्वा भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थकर मातरं च वन्दन्ते नमस्यन्ति वान्दित्वा नमास्यित्वा च' ॥ ५४ ગ્રહણ કરે છે. _ 'तेणं कालेणं तणं समएणं' ते णे मन त समये 'मज्झिमरुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सएहिं २ कूडेहि तहेव जाव विहरंति' मध्यम ५४ टनी निवाસિની ચાર દિશાકુમારી મહત્તરિકાઓ પિત–પિતાના ફૂટેમાં જે પ્રમાણે પ્રથમ સૂત્રમાં ज० ७५ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ अम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जाव विहरंति' तस्मिन् काले तस्मिन् समये मध्यरुचकवास्तव्याः मध्यभागवर्ति रुचकपर्वतबासिन्यः - चतुर्विंशत्यधिक चतुः सहस्रप्रमाणे रुचकशिरोविस्तारे द्वितीयसहस्रे चतुर्दिग्वर्तिषु चतुर्षु कूटेषु पूर्वादिक्रमेण वासिन्य इत्यर्थः चतस्रस्ताः दिक्कुमारी महत्तरिकाः स्वकैः स्वकैः कूटैः तथैव - पूर्वत्र देव यावद् विहरन्ति तिष्ठन्ति, अत्र यावत्पदात् 'एहिं सरहिं भवणेहि' इत्यारभ्य 'देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडाओ' इत्यन्तं सवग्राह्यम् । एतासां नाम न्याह 'तं जहा रूया' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा 'रूया १, रूयासिया २, सुख्या ३, रूयगावई ४ । रूपा १, रूपासिका २, सुरूपा ३, रूपकावती ४ । ' तहेव जाव तुम्भादिं ण भाइयव्वं तिकट्टु भगाओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्जं णाभिणालं कपंत' तथैव पूर्ववदेव यावद् युष्माभि र्न भेतव्यम् - असम्भाव्यमाने अस्मिन्ने कान्तस्थाने विसदृशजातीया इमाः किमर्थं समुपस्थिता इति शङ्काकुलं चेतो न कार्यम् इति कृत्वा तीर्थङ्कामातरम्प्रति इत्युक्त्वा भगवतः तीर्थङ्करस्य चतुरङ्गुलवजे नाभिनालं कल्पयन्ति, अत्र याव स्पदात् त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृत्वा करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसाव अपने कूटों में जैसा पहिले सूत्र में कहा गया है उसी प्रकार से भोग भोगने में लीन थी इसके आगे का सब पाठ जैसा पहिले कह आये हैं वैसा ही है पीछे का वह सब पाठ 'देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिघुडाओ' यहाँ तक का ग्रहण कर कहलेना चाहिये इन दिक्कुमारिकाओं के नाम इस प्रकार से है 'रूपा, रूपासिया, सुरूा रूपगावई' रूपा रूपासिका, सुरूपा, और रूपकावती 'तहेव जाव तुग्भाहिं ण भाइयव्वंति कट्टु भगवओ तिस्थयरस्त चउरंगुलवज्जं णाभिणालं कप्पंति' पहिले की तरह ही यावत् आपको शंका से आकुलित चित नहीं होना चाहिये इस प्रकार कहकर उन्हों ने तीर्थकर प्रभु के नाभिनाल को चार अंगुल छोड कर काट दिया । यहां यावत् शब्द से 'त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृत्वा तीर्थकरं વન કરવામાં આવ્યું છે તેમ ભેગા ભાગવવામાં તલ્લીન હતી. એના પછીના પાઠ જે प्रभाषे पडेलां हेवा ते प्रमाणे छे. पाछन। ते या 'देवेहि देवीहिय सद्धिं संपरिवुडाओ' ही सुश्री ग्रह भरी सेवा लेहये. ते हिड्डुमारियोना नामो या प्रमाणे छे- 'रूपा, रूपासिया, सुरूपा रूपगाई' ३५, ३पासि, सुइया ने ३५भवती 'तहेव जाव तुभाहिं ण भाइययं त्ति क भगवओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्जं णाभिणालं कप्पंति' पडेलांनी प्रेम ? यावत् तभे शंथी साधुसित थायो नहि આ પ્રમાણે કહીને તેમણે તીર્થંકર પ્રભુના નાભિનાલનાલને ચાર અંશુલ મૂકીને કાપી નાખ્યા सही यावत् शब्दथी 'त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं कुर्वन्ति कृत्वा तीर्थ करं तीर्थंकरमातरं च, वन्दन्ते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा' आ पाहे गृहीत थयो छे. 'कप्पेत्ता, वि. Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ३ पौरस्त्यस्त्र कनिवासिनी नामवसरवनम् मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा तीर्थंकरं तीर्थंकरमातरं च वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्त्विा इति ग्राह्यम् 'कप्पेत्ता' कल्पयित्वा कर्त्तयित्वा 'वियरगं खर्गति' विवरकं गर्त्त खनन्ति ' खणित्ता' गर्न खनित्वा 'वियरगे णाभिं णिहणंति' विवरके गर्ने कल्पिते तां नाभिं निदधति गर्ने स्थापयन्ति 'णिणित्ता' निधाय गर्नेस्थापयित्वा 'रयणाण य वइराणय पूर्रेति' रत्नानी च वज्राणां च रत्नैव वचैव हीरकैः पूरयन्ति पूरेता' पूरयित्वा 'हरियालियाए वेढं बंधंति' हरितालिकाभिः दुर्वाभिः पीठं बध्नन्ति पीठं बध्वा हरितालिकां वपन्तीत्यर्थः विवरकखननादिकं च सर्वे भगवदवयवस्वाशातनानिवृत्त्यर्थं बोध्यम् 'बंधित्ता' पीठं बध्वा 'तिदिसिंतओ कयलीहरए विउति' त्रिदिशि-पश्चिमावर्जदिक् त्रये त्रीणि कदलीगृहाणि विकुर्वन्ति विकुर्वणाशक्त्या निर्मान्तीत्यर्थः 'तरणं तेर्सि कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभाए तओ चाउस्सालए विउव्वंति' ततः खलु तदनन्तरं किल तेषां कदलीगृहाणां बहुमध्यदेशभागे त्रीणि चतुः शालकानि भवनविशेषान् विकुर्वन्ति विकुर्वणाशक्त्या निष्पादयन्ति 'तपणं तेसिं चाउस्सालगाणं बहुमज्झ सभाए तओ सीहासणे विउव्वंति' ततः खलु तेषां चतुः शालकानां तीर्थकर मातरंच वन्दन्ते, नमस्पति वन्दित्वा नमस्थित्वा' यह पाठ गृहीत हुआ है। 'कप्पेत्ता विअरगं खणन्ति, खणित्ता विअरगे णाभि 'लं' णिहणंति, णि हणिता रयणाण य वइराण य पूति पूरित्ता हरिअलिझाए वेढं बंधति' नालको काटकर फिर उन्हो ने जमीन में खड्डा किया और उस खड्डे में उस नाभिनाल को रख दिया - गाढदिया - गाढकर फिर उस खड्डे को उन्हों ने रत्न और वज्रों से भर दिया-पूर दिया पूर करके फिर उन्हों ने हरी हरी दुर्वा से उसकी पीठ बांधी 'वंधित तिदिसिं तओ कथलीहरए विउच्यंति तएणं तेसिं कपलीहरगाणं बहु मज्झदेसभाए तओ चाउस्सालए विउव्वंति' दूर्वा से पीठ बांध कर फिर उन्हों ने उस खड्डे की तीन दिशाओं में पश्चिमदिशा को छोड कर पूर्व उत्तर और दक्षिणदिशा में तीन कदली गृहों को विकुर्वणा की फिर उन तीन कदली गृहों के ठीक बीच में उन्हो ने तीन चतुः शालाओं की विकुर्वणा की 'तए णं तेसिं चाउस्सा अरगं खणन्ति, खणित्ता विअरगे णाभि (लं) णिहगंति, मिहणित्ता रयणाणय वइराण य पूरे ति पूरित्ता हरिअलिआए वेढं बंधति' नावने अपने पछी तेभो भूमिमा जाडो भोद्यो અને તે ખાડામાં તે નાભિનાળને મૂર્કી દીધા. દાટી દીધે। દાટીને પછી તે ખાડાને તેમણે રત્ના અને વોથી પૂરિત કરી દીધે. પૂરિત કરીને પછી તેમણે લીલ્લી દુર્વાણી તેની પીક गांधी. 'बंधित्ता, तिदिसिं तओ कयलीहरए बिउवंति तए णं तेति कयलीहरगाणं बहुमज्झ देसमाए तओ चाउस्सालए विउव्वंति' हुर्वाथी पीठ गांधीने पछी तेभले ते जाडानी દિશાએમાં પશ્ચિમ દિશાને છેડીને પૂર્વ, ઉત્તર અને દક્ષિણ દિશામાં ત્રણ દલી ગૃઢાની વિકુણુ કરી પછી તે ત્રણ દલી ગૃહેના ઠીક મધ્ય ભાગમાં તેમણે ત્રણ ચતુઃસાલાઓની विदुशारी तरणं तेसिं चाउरसालवणं बहुमझदेसभाए तो सोह्रास विक्रांति, Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जेम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे बहुमध्यदेशभागे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति 'तेसिणं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' तेषां खलु सिंहासनानाम् अयमेतावद्रपो वर्णव्यास: वर्णविस्तरः प्रज्ञप्तः 'सम्वो वण्णगो भाणियव्यो' सौं वर्णकः पूर्ववद् भणितव्यः । 'तपणं ताओ रुयगमज्झवत्थव्याओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तराओ जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छति' ततः खलु ताः रुचकमध्यवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः यत्रैव भगवास्तीर्थंकरः तीर्थकरमाता च तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छिता' उपागत्य 'भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हंति, तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति' भगवन्तं तीर्थंकरं करतलसंपुटेन गृह्णन्ति तीयकरमातरं च बाहुभिः गृहन्ति 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव दाक्षिणात्यं दक्षिणभागवति कदलीगृहं यत्रैव चतुःशालकं यत्रैव च सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति ‘उवागच्छित्ता' उपागत्य लगाणं बहुमज्झदेसभाए तओ सीहासणे विउति, तेसिणं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते सव्वो वण्णगो भाणियव्वो' इसके बाद फिर उन्होंने उन चतुः शालाओं के ठीक मध्यभाग में तीन सिंहासनो की विकुर्वणा की उन सिंहासनों का इस प्रकार से वर्णविस्तर-वर्णन किया गया है इस सम्बन्ध में जैसा वर्णन सिंहासनों का पहिले किया जा चुका है वैसा ही वह यहां पर भी करलेना चाहिये 'तएणं ताओ रुयगमज्झ वत्थचाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तराओ जेणेव भयवं तित्थपरे तित्ययरमाया य तेणेव उवागच्छति' इसके बाद वे रुचक मध्यवासिनी चारों महत्तरिक दिक्कुमारिकाएं जहां भगवान् तीर्थकर और तीर्थकर की माता थी वहां पर गई 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हंति' वहां जाकर उन्हों ने दोनों हाथों से भगवान् तीर्थकर को उठाया-'तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हति' और तीर्थंकर की माता को हाथों से पकडा 'गिण्हित्ता जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सीहातेसिणं सीहसणार्ण अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते सव्वो वण्णगो भाणियव्यो' त्या२ मा તેમણે તે ચતુશાલાઓના ઠીક મધ્યભાગમાં ત્રણ સિંહાસનની વિમુર્વણુ કરી. તે સિંહાસનેને આ પ્રમાણે વર્ણ વિસ્તાર વર્ણવવામાં આવેલો છે. આ સંબંધમાં જે પ્રમાણે પહેલાં સિંહાસનું વર્ણન કરવામાં આવેલું છે તે પ્રમાણે જ વર્ણન અહીં પણ સમજી લેવું जय. 'तए णं ताओ रुयगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तराओ जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति' त्या२ माह ते २४ भयवासिनी यारे - मारिहाय न्यो समान तीथ ४२ मन तीर्थ ४२ना भातात त्यां गई. 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं करयलसुंपुडेणं गिण्हंति' त्यi run तभणे मन्न । १3 जवान तीर्थ४२ना माताश्रीन हायामा ५४341. 'गिण्हित्ता जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव बागच्छंति' भने ५४ी या क्षि हिवती ४४क्षी 6 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सृ. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवणेनम् ५९७ भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति' भगवन्तं तीथकरं तीर्थङ्करमातरं च सिंहासने निषादयन्ति उपवेशयन्ति 'णिसियापित्ता' निषाद्य उपवेश्य 'सयपागसहस्सपागेहिं तिल्ले हिं अब्भंगेति' शतपाकसहस्रपाकैः शतकृत्वोऽपरापरौषधिरकेन कार्षापणानां शतेन वा यानि पक्कानि तानि शतपाकानि एवं सहस्रपाकान्यपि तैः (तथाविधसुरभितैलसंग्रहार्थ) तैलै. रभ्यङ्गयन्ति मर्दयन्तीत्यर्थः 'अब्भंगेत्ता' अभ्यङ्गयित्वा मर्दयित्वा' सुरभिणा गंधवट्टएणं उबटुंति' सुरभिणा गन्धवर्तकेन-गन्धद्रव्याणाम्-उत्पलकुष्ठादीनामुद्वर्तकेन चूर्णपिण्डेन गन्धयुक्तगोधूमचूर्णपिण्डेन वा उद्वर्त्तयन्ति प्रक्षिततेलापनयनं कुर्वन्ति 'उबट्टित्ता' उद्वर्त्य उद्वर्तनं कृत्वा 'भगवं तित्थयरं करयल पुडेण तित्थयरमायरं च बाहासु गिव्हंति' भगवन्तं तीर्थङ्करं करतपुटेन तीर्थंकरमातरं च बहवो ग़हन्ति 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए जेणेव च उसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव पौरस्त्यं पूर्वभागवत्ति कदलीसणे तेणेव उवागच्छति' और पकडकर जहाँ दक्षिण दिग्वर्ती कदली गृह था और उसमें भी जहां चतुः शाला थी और उसमें भी जहाँ पर सिंहासन था वहाँ पर वे आई 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीया. वेति' वहां आकर के उन्हों ने भगवान् तीर्थकर और तीर्थकर माता को सिंहा. सन पर बैठा दिया 'णिसीयावित्ता सयपागसहस्सपागेहिं तिल्लेहिं अभंगेति' बैठा कर फिर उन्हों ने शतपाक और सहस्रपाक तेल से उनके शरीर की मालिस की 'अभंगेत्ता सुरभिणा गन्धवट्ठएणं उवढेति' मालिश करके फिर उन्हों ने सुगंधित उपटन से-गंध-चूर्ण से मिले हुए गेहु के गीले आटे के पिण्ड से उनके उस शरीर पर मले गये तेल को दूर किया 'उध्वद्वित्ताभयवं तित्थयरं करयलपुडेण तित्थयरमायरंच वाहासु गिण्हंति' तेलको दूर करके उपटन करके फिर उन्हों ने तीर्थकर को दोनों हाथों से उठाया और तीर्थकर माता को हाथों से पकडा 'गिण्हित्ता जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए जेणेव च उसालए जेणेव હતું અને તેમાં પણ જ્યાં ચતુશાલા હતી, અને તેમાં પણ જ્યાં સિંહાસન હતું ત્યાં તે भावी. 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरंच सीहासणे णिसीयावेति' या मावीर तेभये भगवान् तीथ २ भने तीथ ४२॥ माताने सहासन ७५२ मेस या 'णिसीयावित्ता सयपागसहस्सहपागेहिं तिल्लेहि अभंगेति' साडी पछी तेमाणे शतपा सन सस पा४ थी तमना शरी२ ५२ भासिय ४६१. 'अभंगेत्ता सुरभिणा गन्धवट्ठएणं उवट्रेति' માલિસ કરીને પછી તેમણે સુગંધિત ઉપરણથી–ગંધ ચૂર્ણથી મિશ્રિત ઘઉંના ભીના આટાના पिंथी तमना शरी२ ३५२ भासिस मते या५सा बन २४यु 'उव्वद्वित्ता भयवतित्थयर तित्थयरमायर च वाहासु गिव्हंति' तेaने ६२ ४शन, ५८ ४शन पछी तेमधे ताथ४२ने भन्ने हाथायी 241. अन तीथ ४२ना भाताश्रीन साथीथी ५४या. 'गिण्हित्ता जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति' ५४ीन पछी Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र गृहं यत्रैव चतुः शालं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति' भगवन्तं तीर्थंकरं तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति उपवेशयन्ति 'णिसियाविता' निषाद्य उपवेश्य 'तिहिं उदएहिं मज्जावेंति' त्रिभिरुदकैः मज्जयन्ति स्नपयन्ति, तान्येव त्रीणि दर्शयति 'तं जहा' इत्यादिना 'तं जहागंधोदएणं १ पुष्फोदकेन २ सुद्धोदएणं ३ गन्धोदकेन कुंकुमादिमिश्रितेन, पुष्पोदकेनजात्यादिमिश्रितेन, शुद्धोदकेन केवलोदकेन 'मज्जावित्ता' मज्जयित्वा स्त्रपयित्वा 'सबलङ्कार। विभूसियं करेंति' सर्वालंकारविभूषितौ कुर्वन्ति, मातूपुत्रौ इति भावः, 'करित्ता' कृत्वा 'भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहहिं गिव्हंति' भगवन्तं तीर्थंकरं करतलसीहासणे तेणेव उवागच्छंति' पकडकर फिर वे जहां पूर्व दिग्वता कदली गृह था और उसमें भी जहां पर चतुः शाला थी और उस चतुःशाला में भी जहां पर सिंहासन था वहां पर आई 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थपरमायरं च सीहासणे णिसीयाति' वहां आकर के उन्हो ने भगवान् तीर्थकर को और तीर्थंकर को माता को सिंहासन पर बैठा दिया 'णिसियावित्ता तिहिं उदएहि मज्जावेंति-तं जहा-गंधोदणं पुप्फोदएणंसुद्धोदएणं मज्जावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करेंति' बैठाकर फिर उन्हों ने तीर्थकर एवं तीर्थकर माता को तीन प्रकार के जल से नहवाया-स्नान कराया वह तीन प्रकार का जल ऐसा है एक गंधोदक-कुंकुम आदि से मिश्रित जल दूसरा पूष्पोदक-जात्यादि पुष्पों से मिश्रित जल और तीसरा-शुद्धोदक-केवल पानी इन तीन प्रकार के जल से स्नान कराने के बाद फिर उन्हों ने उन्हें सर्वप्रकार के अलङ्कारों से विभूषित किया 'करित्ता भगवं तित्थयरं करयलपुडेगं तित्थयरमायरंच बाहाहिं गिण्हंति' सब प्रकार के अलङ्कारों से विभूषित करके फिर उन्हों ने भगवान् तीर्थकर તે જ્યાં પૂર્વ દિવર્તી કદલીગૃહ હતું અને તેમાં પણ જ્યાં ચતુઃશાલા હતી અને તે यतुःशामा ५ emi CABासन तु त्यां आपी. 'उवागच्छित्ता भगवौं तित्थयर तित्थयर मायारं च सीहासणे णिसीयाति' त्यो मापीन तेमधे सगवान् तीर्थ ४२ने सने तीर्थ४२ना भातान सिडासन 8५२ साउया. 'णिसीयाक्त्तिा तिहिं उदएहि मज्जावेति-तं जहा गंधोदएणं पुष्फोदएणं सुद्धोदरणं मज्जावित्ता सव्वालंकारविभूसियं करें ति' मेसाडी पछी भये તીર્થકરને તેમજ તીર્થકરના માતાશ્રીને ત્રણ પ્રકારના પાણીથી સ્નાન કરાવ્યું તે ત્રણ પ્રકારનું પાણી આ પ્રમાણે છે–પ્રથમ ગાદક-કુંકુમ આદિથી મિશ્રિત પાણી, દ્વિતીય પુદકજાત્યાદિ પુથી મિશ્રિત પાણી અને તૃતીય શુદ્ધોદક ફક્ત પાણી. આ ત્રણ પ્રકારના પાણીથી સ્નાન કરાવીને પછી તેમણે તેઓ બન્નેને સર્વ પ્રકારના અલંકારથી વિભૂષિત કર્યા, 'करित्ता भगव तित्थयर करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च वाहाहि गिण्हति' सब ५४२ना અલંકારેથી વિભૂષિત કરીને પછી તેમણે ભગવાન તીર્થકરને અને બીજા તીર્થકરના Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकारः सू. ३ पौरस्त्यरचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् ५९९ पुटेन तीथकरमातरं च बाहूभ्यां गृह्णन्ति 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा 'जेणेव उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंत' यत्रैवोत्तराई कदलीगृहं यत्रैव चतुः शालं यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाविति' भगवन्तं तीथकर तीर्थङ्करमातरं च सिंहासने निषादयन्ति उपवेशयन्ति 'णिसीयावित्ता' निपाद्य उपवेश्य 'आभिओगे देवे सदाविति' आभियोगान् आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयन्ति आवयन्ति 'सदाक्त्तिा' शब्दयित्वा आहूय 'एवं. क्यासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादिषु उक्तवत्यः 'खिप्पामेव भो देवनुप्पिया ! चुल्लहिमवंताओ वासहरपन्चयाओ गोसीसचंदणक टाइं सा हरह' क्षहमवतो वर्षधरपर्वतात् गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरत समानयत 'तएणं ते आमिओगा देवा ताहिं रुपगमाझवस्थव्वाहिं चाहिं दिसाकुमारी महत्तरिशाहि एवं कुत्ता समाणा हा जाब विणणं वयणं पडिक्छंति' को और तीर्थ कर की माता को क्रमशः करतलपुट से उठाया एवं हाथों से पकडा 'गिणित्ता जेणेव उत्सरिल्ले कयलीहरए चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उपागच्छंति' पकडकरके वे उत्तर दिग्वर्ती कयली गृहमें जहां चतुःशाला थी और उसमें भी जहाँ सिंहासन था वहां पर गई । 'उवागच्छित्ता भगवं तिस्थयरं तिस्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति' वहां जाकर के उन्होंने भगवान तीर्थकर और तीर्थ कर माता को सिंहासन पर बैठा दिया (णिसीयाक्त्तिा आभिओगे देवे सदाविति) सिंहासन पर बैठाकर फिर उन्हों ने अपने २ आभियोगिक देवों को बुलाया 'सहावित्ता एवं वयासी' बुलाकर उनसे ऐसा कहा-'खिप्पामेष भो देवाणुप्पिया!चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह' हे देवानुप्रियो ! तुमलोग शीघ्र ही क्षुद्र हिमवत्पर्वत से गोशीर्ष चन्दन की लकडियां लेकर आओ 'तएणं ते आभिओगा देवा ताहिं रुयगमज्झवस्थब्याहिं चउहिं दिसाकुमारीमहत्तरियाहिं एवं बुत्ता समाणा हट्ट तुट्ठा जाघ विणएणं भातान भश: ४२ततधुटका 643या मने खायाथी ५४च्या 'गिण्हित्ता जेणेव उत्तरिल्ले कयलीहरए जेणेव चउसालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छंति' ५५डीने उत्तर शतना કદલી ગૃહમાં જ્યાં ચતુઃ શાળા હતી અને તેમાં પણ જ્યાં સિંહાસન હતું ત્યાં તેઓ ગઈ 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीयाति' त्यां न तमामे भगवान् तीथ ४२ने अने तीथ ४२नी माता सिंहासन५२ मेसी ‘णिसीयावित्ता 'आभिओगे देवे सदाविति' सिंहासन ५२ मेसीन पछी तभणे पेरतपाताना मालियो हेवाने मोसाव्या, 'सदावित्ता एवं वयासी' मासावीन तमने २प्रमाणे ४ह्यु "खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चुल्लहिमवंताओ वासहरपवयाओ गोसीमचंडणकट्ठाई सहरह' हेवानुપ્રિયે ! તમે લેકો શીઘ્ર સુદ્રહિમવત્પર્વતથી ગશીર્ષ ચન્દનના લાકડાઓ લઈ આવે. 'तएणं ते आभिओगा देवा ताहि रुयगमज्झवत्थव्वाहि चाहिं दिसाकुमारी महत्तरियाहिं एवं - Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ततः तासामाज्ञप्त्यनन्तरं खलु ते आभियोगा:- अज्ञाकारिणो देवाः ताभिः रुचकमध्यवास्तव्याभिः चतसृभिः दिक्कुमारीमहत्तरिकामिरेवम् उत्तप्रकारेण उत्ता आइप्ताः सातः हातुष्टा यावद् विनयेन वचनं प्रतीच्छन्ति स्वीकुर्वन्ति अत्र याक्त पदात् हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः सुमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पहृदया इति ग्राह्यम् 'पडिच्छित्ता' प्रतीष्य स्वीकृत्य, 'खिप्पामेव चुल्लहिमवंताओ वासहरपरक्याओ सरसाइं गोसीसचंदणय हाई साहरंति' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव क्षुद्र हिमवतो वर्षधरपर्वतात् सरसानि-रससहितानि गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि संहरस्ति समानयन्ति 'तएणं ताओ मज्झिमरुर गास्थयाओ चत्वारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ सरग करेंति' रतः र लु तदनन्तरं विल ताः मध्यस्चर पर्वतवास्तव्याः चतस्रो दिवकुमारी महत्तरिकाः शरशरप्रतिकृति तीक्ष्णर रूमान्युत्पादकं काष्ठ विशेष वुर्वन्ति, 'करित्ता' वृत्या 'अरणिं घडेति' अरणि घटयान्त-ते नैव शरवेण सह अरणि वयणं पडिच्छंति' इस प्रकार उन रुचक मध्य वासिनी चार महत्तरिक दिक्कु. मारियों द्वारा आज्ञप्त हुए वे आभियोगिक देव हृष्ट तुष्ट यावत् हुए और बडी विनय से उन्हों ने उनके वचनों को स्वीकार कर लिया यहां यावत्पद से 'हृष्ट तुष्ट चित्तानन्दिताः, सुमनसः परम सौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद हृदयाः' इस पाठका ग्रहण हुआ है 'पडिच्छित्ता खिप्पामेव चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ सरसाई गोसीसचंदणकाई साहरंति' आज्ञा के वचनों को स्वीकार करके वे आभियोगिक देव क्षुद्रहिमवत्पर्वत पर गये और वहां से गौशीर्ष सरस चन्दन की लकडियां ले आये 'तएणं ताओ मज्झिमरुयग वत्थवो चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सरगें करें ति' इसके बाद उन चार मध्यरुचक वासिनी महत्तरिक दिवकुमारियों ने अग्नि को उत्पन्न करने वाला शरक नामका काष्ठ विशेष तैयार किया 'करित्ता अरणि घडेंति उसे तैयार करके उसके साथ अरणिकाष्ठ को संयोजित किया 'अरणिं घडित्ता सरएणं वुत्ता समाणा हट्ठ तुट्ठा जाव विणएणं वयणं पडिच्छंति' मा प्रमाणे ते २५४ uilion ચાર મહત્તરિક ફિકુમારિકાઓ વડે આજ્ઞપ્ત થયેલા તે આભિગિક દે હેટ-તુષ્ટ થઈને યાવત્ બહુ જ વિનય સાથે તેમણે તેમની આજ્ઞા ન સ્વીકાર કરી લીધું. અહીં યવત ५४थी 'ह्रप्ट तुष्टचित्तानन्दिताः सुमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद हृदयाः' मा पाना संग्रह थय। छे. 'पडिच्छित्ता खिप्पामेव चुल्लहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ सरसाइं गोसीनचंदणकट्ठाई साहरंति' माज्ञान, पयनानी स्वी२ 37ने पछी त सामियाज દેવે ક્ષુદ્ર હિમવત્ પર્વની ઉપર ગયા અને ત્યાંથી ગોશીષ સરસ ચંદનના લાકડા લઈ साव्या. तएणं ताओ मज्झिमरुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ सरगं करेति' ત્યારબાદ તે ચાર મધ્ય રુચક વાસિની મહત્તરિક ફિક્કુમારીઓએ અગ્નિને ઉત્પન્ન કરનાર श२४ नाम 13 विशेष तयार यु. 'करित्ता अरणिं घडेति' तेन तयार ४शन तेनी साथ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ३ पौरस्त्यरुचकनिवासिनीनामवसरवर्णनम् १०१ लोकप्रसिद्धं काष्ठविशेष घटयन्ति संयोजयन्ति 'अरणिं घडित्ता' अरणिं घटयित्वा संयोज्य 'सरएणं अरणिं महिंति' शरकेण अरणि मनन्ति 'महित्ता' मथित्वा 'अग्गि पाडे ति' अग्नि पातयन्ति 'पाडित्ता' पातयित्वा 'अग्गि संधुक्खंति' अग्नि संधुक्षन्ति सदीपयन्ति 'संधुक्खित्ता' संधुक्ष्य 'गोसीसचंदणकटे पक्खिवंति' गोशोर्षचन्दनकाष्ठानि खण्डशः कृतानि यादृशैश्चन्दनकाष्ठैः अग्निरुद्दीपितः स्यात् तादृशानि प्रोक्तकाष्ठानि प्रक्षिपन्ति 'पक्खिवित्ता' प्रक्षिप्य 'अग्गि उज्जलंति' अग्मुि ज्यालयन्ति 'उज्जालित्ता' उज्ज्वाल्य 'समिहा कटाई पक्खिविति' समित्काष्ठानि प्रादेशप्रमाणानि इन्धनानि समिधस्तद्रूपाणि काष्ठानि अग्नौ प्रक्षिपन्ति पूर्वं हि गोशोषवन्दनकाष्ठप्रक्षेपोऽन्युद्दीपनाय अयं च प्रक्षेपः रक्षाकरणायेति विशेषः, 'पक्खिवित्ता प्रक्षिप्य 'अग्निहोमं करेंति' अग्निहोमं कुर्वन्ति अग्नि विशेषतः प्रज्यालयतीत्यर्थः 'कीत्ता' कृत्वा 'भूतिकम्मं करेंति' भूतिकर्म कुर्वन्ति भूतेः भस्मनः कर्म क्रिया तां कर्वन्ति 'करित्ता' कृत्वा 'रक्खापोट्टलियं बंधति' रक्षापोट्टलिकाम्-जिनजनन्योः अरणिं महिंति' संयोजित करके फिर दोनों को उन्होंने रगडा 'महित्ता अग्गि पाति' रगड करके अग्नि को उनमें से निकाला 'पाडित्ता अग्गि संधुक्खंति' निकाल कर उस अग्नि को उन्होंने धोका 'संधुक्खित्ता गोसीसचंदणकटे पक्खिर्विति' धोंक कर अग्नि में उन गोशीर्ष चन्दन की लकडियों को डाला 'पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालयंति' डाल करके फिर उन्होंने अग्नि को प्रज्ज्वलित किया 'उज्जालित्ता समिहाकट्ठाई पक्खिविति' अग्नि को प्रज्वलित करके फिर उसमें उन्होंने समित्काष्ठों को डाला पहिले तो गोशीर्ष चन्दन की लकडियों से उन्होंने अग्नि को चेताया जलाया बादमें जब अग्नि चेत चूकी तष फिर उसमें उन्होंने इन्धन डाला 'पक्खिवित्ता अग्निहोमं करेंति' इन्धन डालकर फिर उन्हों ने अग्नि होम किया 'करित्ता भूतिकम्मं करेंति' अग्नि होम करके फिर उन्होंने भूतिकर्म किया 'करिता रक्खापोट्टलियं बंबंति' भूतिकर्म करके उन्हों ने २०२४ सय यु'. 'अरणिं घडित्ता सरएणं अरणिं महिति' सारित शन पछी अ-२२ तेभ घस्यां 'महित्ता अग्गि पोडेति' घसीन मनिन तमांथा . 'परित्ता अगि संधुक्खंति' ढीन २५ तेभए सणा०या. 'संधुकि वत्ता गोसीसचंदणकट्ठ पक्खिविति' सावीन ते गशीष यन्दनना सामान तमनाया. 'पक्खिवित्ता अग्गिं उज्जालयति' नाणार भो गनिने निता . 'उज्जालित्ता समिझाव द्वाइं पविखविंति' भनिने પ્રજવલિત કરીને પછી તેમાં તેમણે સમિત્ ક ષ્ઠ નાખ્યાં. પહેલાં તેમણે શીર્ષ ચન્દનના લાકડાઓથી અગ્નિ પ્રજવલિત કર્યો ત્યાર બાદ જ્યારે અગ્નિ પ્રજવલિત થઈ ગયો ત્યારે तभणे तभा धन नाभ्या. 'पक्खिवित्ता अन्गिहोमं करेंति' धन नामी पछी तभर अभिनय य. 'करित्ता भूतिकम्मं करेंति' AGडाय ४ी पछी भर भूतिम ज्यु 'करित्ता रक्खापोट्टलियं बंधंति' भूतिहमशन पछी तभ रामनी पोति। मनापी ज ७६ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे शाकिन्यादि दुष्टदेवताभ्यो दृग्दोषादिभ्यश्च रक्षाकरी पोट्टलिका बध्नन्ति 'बंधेत्ता' बद्ध्वा 'णाणामणिरयणभत्तिचित्त दुविहे पाहाणवट्टगे गिडंति' नाना मणिरत्नभक्तिचित्रौ-नानामणिरत्नानां विविधचन्द्रकान्तहीरकादीनां भक्तीरचना तया विचित्रौ द्विविधौ पाषाणवृत्तको पाषाणगोलको गृह्णन्ति 'गहाय' गृहीत्वा 'भगवो तित्थयरस कण्णमूलंमि टिट्टियाविति' भगवतस्तीर्थङ्करस्य कर्णमूले तौ पापाणगोलको संयोज्य 'टिट्टियाति' परस्परं ताडनेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वकं वादयन्तीत्यर्थः 'टिट्टियावेंति' अनुकरणशब्दोऽयम् अनेन हि बाललीलाक्शादन्यत्र व्यासक्तं भगवन्तं वक्ष्यमाणाशीर्व वनश्रवणे पटुं कुर्वन्तीतिभावः, 'भवउ भगवं पव्वयाउए २' भवतु भगवान् पर्वतायुः भवतु भगवान् पर्वतायुः इत्याशीर्वचनं ददाति इति । 'तए णं ताओ रुयगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ भगवं तित्थयरं राखकी पोलियां बनाई जिन और जिन जननी की शाकिनी आदि दुष्ट देवियों से एवं दृष्टिदोष से रक्षा करने वालो ऐसी पोहलिका तैयार की और उसे उनके गलेमें बांध दिया 'बंधेत्ता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे. गिण्हंति' बांधने के बाद फिर उन्हों ने अनेक मणि और रत्नों से जिनमें रचना हो रही है और इसी से जो विचित्र प्रकार के हैं ऐसे दो गोलपाषाण को-वट. ईयों को शालिग्राम की जैसी छोटी-छोटी दो वटइयों को उठाया-'गहाय भगवओ तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिट्टियाति' और उठाकर उन्हें भगवान् तीर्थकर के कर्णमूल पर ले जाकर बजायो-कि जिस से उनके वचन से टी टी ऐसा शब्द निकला 'टिट्टियावेंति' यह अनुकरण शब्द है । इससे यह प्रकट किया गया है कि बाललीला के वश से यदि भगवान् का चित्त अन्यत्र आसक्त हो तो वह एक जगह आजावे ताकि वक्ष्यमाण इस आशीर्वाद के वचनों को वे सावधान से सुन सके 'भवउ भगवं पव्वयाउए' आप भगवान पर्वत के बराबर आधुवाले हों જિન અને જિન જનની ની શાકિની વગેરે દુષ્ટ દેવીઓથી તેમજ દષ્ટિ દોષથી રક્ષા કરનારી એવી તેમણે પટ્ટલિકા તૈયાર કરી અને પછી તે પિટ્ટલિકા તે તેમના ગળામાં બાંધી દીધી. बंधेत्ता णाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुविहे पाहाणवट्टगे गिण्हंति' मध्य मा तेभो भने મણિઓ અને રત્નની જેમાં રચના થઈ રહી છે અને એનાથી જ જે વિચિત્ર પ્રકારના छ, सेवा पाषाणु-शसियाम २१ मारनामे पाषाण।-४०यI. 'गहाय भगः पओ तित्थयरस्स कण्णमूलंमि टिट्टियावें ति' सन 19ी तेभर भगवान् तीथ ४२॥ ४५મલ ઉપર લઈ જઈને વગાડયા.. કે જેથી તેમના વજનથી જ ‘ટી-ટી' એ શબ્દ નીકળે टिदियाति' २॥ मनु४२४ात्म४ श६ छ. अनाथी मा पात ५४८ ४२॥मा पाकी छ । બાળલીલાના કારણથી જે ભગવાનનું ચિત્ત અન્ય સ્થળે આસક્ત હોય તે તે એક સ્થાને આવી જાય. જેથી વક્ષ્યમાણુ આ આશીર્વાદના વચનને તેઓશ્રી સાવધાન થઈને સાંભળી ई. 'भव भगवं पव्वयाउए' मा५ भगवान् पर्वत ५२।१२ आयुष्यवाणा थापा. 'तराएणं Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ३ पौरस्त्यरुवनिवासिनीनामवसरवर्णनम् .. ६०३ करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति' ततः उक्तसकलकार्यकरणानन्तरं खलु ताः रुचकमध्यवास्तव्याः चतस्रो दिक्कुमारी महत्तरिकाः भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च बाहुभ्यां गृह्णन्ति 'गिण्हिता' गृहीत्वा 'जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति' यत्रैत्र भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छन्ति "उवागच्छित्ता' उपागत्य 'तित्थयरमायरं सयणिज्जसि णिसीयाविति' तीर्थकरमातरं शय्यायां निषादयन्ति उपवेशयन्ति 'णिसीयावित्ता' निषाद्य उपवेश्य 'भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेति' भगवन्तं तीर्थङ्करं मातुः पार्श्वे स्थापयन्ति 'ठवित्ता' स्थापयित्वा नातिदुरासनगाः सत्यः 'आगायमाणीओ परिगायमाणीगो चिटुंति' आगायन्त्यः-आ-ईषत् गायन्त्यः प्रारम्भकाले अल्पस्वरेणैव गायमानत्वात् ततः परिगायन्त्य:-दीर्घस्वरेण गायन्स्यस्ताः चतस्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकास्तिष्ठन्तीति ॥ ३॥ 'तएणं ताओ रुयगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारी महत्तरियाओ भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गिण्हंति' इस प्रकार से आशीर्वाद देने के बाद उन रुचक मध्यवासिनी चार महत्तरिक दिक्कुमारियों ने भगवान् तीर्थंकर को दोनों हाथों से उठालिया और तीर्थकर माता को दोनों भुजाओं में पकड लिया। 'गिण्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति' पकड कर फिर वे जहां भगवान तीर्थ कर का जन्म भवन था वहां आगई । 'उवागच्छित्ता तिस्थयरमायरं सयणिज्जसि णिसीयाति' वहां आकर के उन्हों ने तीर्थकर की माता को शय्या पर बैठा दिया 'णिसीयावित्ता भगवं तित्थयरं माउए पासे ठविति' बैठा कर फिर उन्हों ने भगवान् तीर्थंकर को उनके पास रख दिया 'ठवित्ता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंत्ति' रखकर फिर वे अपने समुचित स्थान पर खडी हो गई और पहिले धीमे स्वर से और बादमें जोर जोर से जन्मोत्सव के माङ्गलिक गीत गाने लगी ॥३॥ ताओ स्यगमज्झवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरियाओ भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहि गिण्हंति' 241 प्रमाणे माशीर्वाद माया मा त उ भध्यવાસિની ચાર મહત્તરિક ફિકુમારીએ ભગવાન્ તીર્થકરને બને હાથમાં ઉઠાવ્યા. અને तीय ४२ना भातानी मन्ने माई। ५४७या. "गिण्हित्ता जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति' ५४ी पछी ii लावा तीथ ४२नु म मन तु त्यां तसा मावी. 'उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं सयणिज्जंसि णिसीयाति' त्यां-भावी तेभये तीथ ४२ना माताने शय्या ०५२ साउया. 'णिसीयावित्ता भगवं तित्थयरं माउए पासे ठविति' साडीन. ५४ी तेभरी भगवान् तीर्थ ४२२ तेमनी भातानी पासे भूटी हीथा. 'ठवित्ता आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिटुंति' भूटीन. ५छी तो पतान! समुन्ति स्थान अभी થઈ ગઈ અને પહેલાં ધીમા-ધીમા સ્વરથી અને ત્યાર બાદ જેર–જેરથી જન્મત્સવના માંગલિક ગીતે ગાવા લાગી. આ ૩ છે Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अथेन्द्रकृत्यावसरमाहमूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के णाम देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे सयकऊ सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणद्धलोकाहिवई बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिंदे अरयं बरवत्थधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे भासुरबोंदी पलंबवणमाले महिडिए महज्जुईए महाबले महा जसे महाणुभागे महासोक्खे सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सक्कंसि सीहासणंसि से गं तत्थ बत्तीसाए विमाणा. वाससयसाहस्सीणं चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए ताय. तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अटण्हं अग्गमहिसी सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सतण्हं अणिआणं सत्तण्हं अणियाहिबईणं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेबच्चं सामित्तं भट्टितं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुपडहवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । तए णं तस्स सकस्त देविंदस्त देवरणो आसणं चलई । तए णं से सक्के जाव आसणं चलियं पासइ पासित्ता ओहिं पउंजइ पउंजित्ता भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ आभोइत्ता हट्टतुटूचित्ते आनंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयंकयंबकुसुमचंचुमालइयऊत्तवियरोमकूवे वियसियवरकमलनयणवयणे पचलियवरकडगतुडियकेऊरमउडे कुंडलहारविरायंतवच्छे पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं सुरिंदे सीहासणाओ अब्भुटेइ अब्भुद्विता पायपीठाओ पच्चोरुहइ पञ्चोरुहिता वेरुलियवरिटुरिट्ट अंजणनिउणोवियमिसिमिसिंत मणिरयणमंडियाओ पाउयाओ ओमुयइ ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ करित्ता अंजलिमउलियग्गहत्थे तिस्थयराभिमुहे सत्तष्ट्रपयाइं अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेह Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् अचित्ता दाहिणं जाणुं धरणीयलंसि साहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेह निवेसित्ता ईसिं पच्चुण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता कडगतुडियर्थभियाओ भुयाओ साहरइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयाप्ती-णमोत्थुर्ण अरहंताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमा पुरिससीहाणं-पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोगहिया लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचकट्टीणं, दीवोताणं सरणं गई पइटा अप्पडिहय वरनाणदंसणधराणं वियट छउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सधन्नूणं सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमकावाहमपुणरवित्तिसिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जियः भयाणं णमोत्थुणं भगवओ तित्थयरस्स आइगरस्स जाव संपविउकाम. स्स वंदामि गं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं! तत्थगए इहगयं ति कटु वंदइ, णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे सण्णिसणे, तएणं तस्त सकस्स देविंदस्स देवरणो अयमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्था उपपणे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भगवं तित्थयरे तंजीयमेयं तीय पच्चुपण्णमणागयाणं सव्वा देविंदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए तं गच्छामि णं अहंपि भगवओ तित्थयरस्स जम्प्रणमहिमं करेमि त्ति कटु एवं संपेहित्ता हरिणेगमेसिं पायत्ताणीयाहिवइं देवं सदावेंति सदावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरमहुरयरसदं जोयणपरिमंडलं सुघोस सूसरं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे २ महया महया सदेणं उग्रोसेमाणे २ एवं वयासी-आणवेइयं भो सक्के Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे देविंदे देवराया गच्छइणं भो सक्के देविंदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं तुब्भेवि णं देवाणुप्पिया। सव्विद्धीए सव्वजुईए सव्वरलेणं सव्वसमुदयेणं सव्वायरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सवसंभमेणं सदसणाडएहिं सनोवरोहेहिं सवपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सवदिव्वतुडियसहसणिणाएणं महा इद्धीए जाव रवेणं णिययपरियालसंपरिवुडा सयाई सयाइं जाणविमाणवाहणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेत्र सकस्त जाव अंतियं पाउब्भवह । तएणं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सकेणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुटू जाव एवं देवोत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता सक्कस्स ३ अंतियाओ पडिणिक्खमइ पडिणिक्खमित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसदा जोयणपरिमंडला सुघोसा घंटा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसदं जोयणपरिमंडलं सुघोसं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेइ तएणं तीसे मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसदाए जोयणपरिमंडलाए सुघोसाए घंटाए तिक्तो उल्लालियाए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्सेहिं अण्णाई एगूणाई बत्तीसं घंटासयसहस्साई जमगसमगं कणकणारावं काउं पयत्ताइं हुत्था इति, तएणं सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडियसहसमुट्ठिय घंटापडेंसुया सय सहस्ससंकुले जाए यावि होत्था इति, तएणं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं बहणं वेमाणियाणं देवाणय देवीणय एगंत रइपसत्तणिच्चपमत्त विसय सुहमुच्छियाणं सूसरघंटारसियविउलबोलपूरियचवलपडिबोहणे कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्णकण्णएगग्गचित्त उवउत्तमाणसाणं से पायताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारवंसि निसंतासंतति समासि तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्रोसेमाणे एवं वयासीति हंत ! सुणं तु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासी वेमा Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशि का टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सु. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् ६०७ णिय देवा देवीओय सोहम्मकप्पवइणो इणमोक्यगं हिय सुहत्थं आणावइणं भो सक्के तंचेव जाव अंतियं पाउब्भवहत्ति, तए णं ते देवा देवीओ य एयमढ़े सोच्चा हट्टतुट जाव हियया अप्पेगइया वंदणवत्तियं एवं पुअण वत्तियं सक्कारवत्तिय संमाणवत्तियं दसणवत्तियं जिणभत्तिरागे अप्पे. गइया तं जीयमेयं एवमादि तिकट्ठ जाव पाउब्भवंति त्ति' तए से सक्के देविंद देवराया ते विमाणीए देवे देवीओ य अकालपन्हिीणं चेत्र अंतियं पाउब्भवमाणे पासइ पासित्ता, हट्टे पालयं णामं आभिओगियं देवं सदावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसण्णिविटुं लीलट्ठियसालभंजियाकलिथं ईहामियउसभ. तुरगगरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं खंभुग्गयवइरवेइयापरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अच्चीसहस्समालिणीय रूवगसहस्सकलिय भिसमाणं भिब्भिसमाणं चक्खुलोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं घंटावलिय महुरमणहरसरं सुहं कंत दरिमणिज्जे णिउणोविय मिसिमिसिंत मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं जोयणसहस्सविच्छिां पंचजोयणसय मुश्विद्धं सिग्धं तुरियं जइणं णिव्वाहि दिव्वं जाणविमाणं विउव्वाहि विउवाहित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि ॥ सू० ४॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये शक्रो नाम देवेन्द्रो देवराजो वज्रपाणिः पुरन्दरः शतक्रतुः सहस्राक्षः मघवा पाकशासनः दक्षिणार्द्ध लोकाधिपतिः द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्राधिपतिः एरावतवाहनः सुरेन्द्रः अरनों बरवस्त्रधरः आलगितमालमुकुटः नवहेमचारचित्तचञ्चलकुण्ड कविलिह्यमानगण्डः 'वा विलिख्यमानगण्ड:' भासुरबोन्दिः प्रलम्बवनमालः मह. द्धिकः महाद्युतिकः महाबलः महायशस्कः महानुभागः महासौख्यः सौधर्मकल्पसौधर्मावतं. सकविमाने सभायां सुधर्मायां शक्रे सिंहासने स खलु तत्र द्वात्रिंशतो विमानावासशतसहस्राणां चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां त्रयःत्रिंशतः त्रायस्त्रिंशकानाम् चतुर्णा लोकपालानाम् अष्टानाम् अग्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिटणां परिषदाम् सप्तानामनीकानां सप्तानामनीकाधि. पतीनां चतुश्चतुरशीतेरात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् अन्येषां च बहूनां सौधर्मकल्पवासिनां वैमानि कानां देवानां च देवीनां च आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तत्वं महत्तरकत्वम् अ.ज्ञेश्वरसेना Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे पत्यं कारयन् पालयन् महताहतगीतवादिततन्त्रोतलतालत्रुटितघनमृदङ्गपटुपटहवादितरवेण दीव्यान भोग भोगान् भुञ्जानो विहरति । ततः खलु तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराज्ञः आसनं चळति, ततः खलु स शक्रो यावत् आसनं चलितं पश्यति, दृष्ट्वा अवधि प्रयुङ्क्ते प्रयुज्य भग वन्तं तीर्थङ्करम् अधिना आभोगयति आपोप हृष्टतुष्टचित्त आनन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्यितः हर्षवशविसर्पद् हृदयः धाराहतकदम्बकुसुम रोमाञ्चितोच्छ्रितरोमकूपः विकसितवरकमलनयनवानः प्रचलितवरकट कत्रुटिककेयूरमुकुटकुण्डलः हारविराजमानवक्षस्कः प्रालम्बप्रलम्बमानघोलद् भूषणधरः ससंभ्रमं त्वरितं चपलं सुरेन्द्रः सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, अभ्युस्थाय पादपीठ'त् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य वैडूर्यवरिष्ठरिष्टाञ्जननिपुणोचितमिसिमिसिन्त मणिरत्नमण्डिते पादुके अवमुश्चति आमुचप एकशाटिकम् उत्तरासङ्गं करोति कृत्वा अञ्जलि मुकुलिताग्रहस्त: तीर्थङ्कराभिमुखः सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति अनुगत्य वामं जानुम् आकुश्चयति आकुच्य दक्षिणं जानुं धरणीतले निहत्य त्रिःकृत्वः मूर्दानं धरणीउले निवेशयति, निवेश्य ईषत् प्रत्युन्नमति, प्रत्युन्नमित्वा कटकत्रुटि कस्तम्भितौ भुजौ संहरति संहृत्य करतल परिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु खलु अरिहन्तृणां भगवताम् आदिकराणां तीर्थकराणां स्वयं संवुद्धानां पुरुषोत्तमानां पुरुषसिंहानां पुरुषवरपुण्डरीकाणां पुरुषवरगन्धहस्तिनां लोकोत्तमानां लोकनाथानां लोकहितानाम् लोकप्रदीपानां लोकप्रद्योतकराणाम् अभयदायकानाम् चक्षुर्दायकानां मार्गदकायानां शरणदायकानां जीवदायकानां बोधिदायकानां धर्मदायकानां धर्मदेशकानां धर्मनायकानां धर्मसारथिनां धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिनां दी: त्राणं शरणं गतिश्च प्रविष्टा अप्रतिहतज्ञानदर्शनधराणां विवृत्तछानां जिनानाम् जाकाना तीर्णानां तारकानां बुद्धानां बोधकानां मुक्तानां मोचकानां सर्वज्ञानां सर्वदर्शिनां शिवमचलमरुजमनन्तमक्षयमव्यावाधमपुनरावृत्ति सिद्धिगतिनामधेयं स्थानं संप्राप्तानां नमो जिनानां जितभयानाम् नमोऽस्तु खलु भगवतस्तीर्थंकरस्य आदिकरस्य यावत् संपाप्नुकामस्य वन्दे खलु भगवन्तं तत्र गतम् इइगतः पश्यतु मां भगवान् तत्रगतः। इगतम् इतिकृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखः संनिषण्णः ततः, खलु तस्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतावद्रूपो यावत् साल्पः समुदपद्यत उत्पन्नः खलु-भो जम्बूदीपे द्वीपे भगवस्तीर्थकरः तस्माजी मेतत्-अतीतप्रत्युस्पन्नानागतानां शक्राणां देवेन्द्राणाम् देवरानानां तीर्थकराणां जन्ममहिमानं कर्त तदगच्छामि खलु अहमपि भगवतस्तीर्थकस्य जन्मम हिमानं करोमीतिकृत्वा एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य हरिणैगमेपीतिनामानं पदात्यनीकाधिपति देवं शब्दयति शब्दायित्वा एवमवादीत क्षिप्रमेव भो देवानांप्रिय ! सभायां सुधर्मायां मेघौधरसितां गंभीरमधुरतरशब्दाम् योजनपरिमण्डलां सुघोषां सुस्वरां घण्टां त्रिः कृत्व: उल्लालयन् उल्लालयन् महता महता शब्देन उद्घोषयन् उद्घोषयन् एवं वदत आज्ञापयति भोः शक्रो देवेन्द्रो देवराजः गच्छति खलु भो शक्रो देवेन्द्रो देवराजः जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं कर्तुं तत् यूयमपि खलु देवानुप्रियाः Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ४ इन्द्रकृत्यावसर निरूणिम् ६०९ सर्व सत्या सर्ववलेन सर्वसमुदायेन सर्वादरेण सर्वविभूत्या सर्वविभूषया सर्वसंभ्रमेण सर्वनाटक: सर्वोपरोधैः सर्व पुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया सर्वादिव्यत्रुटितशब्दसधिना देन महत्या ऋद्धया यावत् रवेण निजकपरिवारसंपरिवृताः स्वकानि स्वकानि यानविमानवाहनानि दुरूढाः सन्तः अकालपरिहीणं शक्रस्य यावत् अन्तिके प्रादुर्भवत । ततः खलु स हरिगषी देवः पादात्यनी अधिपतिः शक्रेण३ यावत् एवम् उक्तः सन् हृष्टतुष्ट यावत् एवं देवा ! इति आज्ञायाः विनयेन वचनं प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव सभायां सुधर्मायां मेघोवरसित गम्भीरमधु रतरशब्दां योजनपरिमण्डलां सुघोषां वण्टां तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य तां मेधौवरसित गम्भीरमधुरतरशब्दां योजनपरिमण्डलां सुवोषां घंटां त्रिः कृत्वः उल्लालयति ततः खलु तस्यां मेवौघर सितगम्भीर• मधुरतरशब्दायां योजन परिमण्डलायां सुघोषायां घण्टायां त्रिः कृत्वः उल्लालितायां सत्यां सौधर्मे कल्पे अन्येषु एकोनेषु द्वात्रिंशद्विमानावासशतसहस्त्रेषु अन्यानि एकोनानि द्वात्रिंशत् घण्टाशतसहस्राणि यमकसमकं कणकणारावं कर्तु प्रवृत्तानि अभवत् इति । ततः खलु सौधर्मः कल्पः प्रासादविमान निष्कुटापतितशब्द समुत्थितघण्टा प्रतिश्रुतशतसहस्रसंकुलो जातश्चाप्यभूत् इति । ततः खलु तेषां सं.धर्मकल्पवासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानाञ्च देवीनां च एकान्तरविप्रसक्तनित्यप्रमत्त विषयसुखमूर्च्छितानाम् सुस्वरघण्टारसित विपुल वोलपूरितचपल परिबोधने कृते सति घोषणकुतूहलदत्तकर्णैकाग्रचित्तोपयुकमानसानं सपदात्यनीकाधिपति देवः तस्मिन् घण्टारवे निशान्त प्रतिशान्ते सति तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् देशे महता महता शब्देन उद्घोषयन् उद्घोष" न् एवम् अवादीदिति । हन्त ! शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौधर्म कल्पवासिनो वैमानिकदेवाः देयश्च सौधर्मकल्पपतेरिदं वचनं हितसुखायम्-आज्ञापयति खलु भो शक्रः तदेव यावत् अन्तिकं प्रादुवत इति, ततश्च ते देवा देव्यव एतमर्थ श्रुत्वा हृष्टतुष्ट यावत् हृदया ! अप्येककाः चन्दनप्रत्ययम् एवं पूजन प्रत्यम् सत्कारप्रत्ययम् सन्मानप्रत्ययम् जिनभक्तिरागेण अध्येककाः तत् जीतमेतत् एवमादि इत्यादिकं कृत्वा यावत् प्रादुर्भवन्ति इति । ततः सल सः शक्रः देवेन्द्रो देवराजः तान् वैमानिकान् देवान् देवींश्व अकालरिहीनं चेव अन्तिकं प्रदुर्भवतः प्रादुर्भवन्तीश्च पश्यति दृष्ट्वा हृष्टः पालकं नाम आभियोगिकं देवं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो ! देवानुप्रियाः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टं लीलास्थितशाल मञ्जिकाकलितम् ईहामृगऋषभतुरगनरम कर विहगव्यालककिन्नररुरुशर भचामरकुञ्जखनलता पद्मलताभक्तिचित्रम् स्तम्भोग वज्रवेदिकापरिगताभिरामम् विद्याधरयमलयुगल यन्त्रयुक्तमित्र अर्चिसहस्रमालिनीकम् रूपकसहस्त्रकलितंम् भावमानं बाभास्यमानं चक्षुलोचनलेश्यं सुखस्पर्श सश्रीकरूपं घण्टावलिकमधुरमनोहर सदृशम् शुभं कान्तं दर्शनीयम् मिमिमिसेन्तमणिरत्नघण्टिकाजालपरिक्षिप्तम् योजन सहस्रविस्तीर्ण पञ्चशतोच्चं शीघ्रं त्वरितं जयनं निर्वादि दिव्यम् यानविमानं विकुर्वस्व विकुर्य एताम् आज्ञप्तिकां प्रत्यय ॥ सू० ४ ॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे ____टीका-सम्प्रति तीर्थकरस्य जन्ममहोत्सवे शक्रस्य कृत्याचारं दर्शयति 'ते णं कालेणं ते णं समएणं' इत्यादि 'तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले तस्मिन् समये अप्यार्थः अस्मिन्नेववक्षस्कारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यः 'सक्के णाम शक्रो नाम सौधर्माधिपतिः 'देविदे' देवेन्द्रः देवस्वामी 'देवराया' देवराजः देवाधिपतिः 'वजपाणी' वज्रपाणिः वज्रः पाणौ हस्ते यस्य स तथाभूतः 'पुरंदरे' पुरन्दरः पुरं दारयति विदारयति, अर्जुनद्वारा इति पुरन्दरः 'सयकेउ' शतक्रतुः शतक्रवतः श्र.वकपञ्चमीप्रतिमा यस्य स तथा कार्तिकनाम श्रेष्ठि भवे तेन श्रावकपञ्चमीप्रतिमां शतवारमाराधितवान् ततः शतक्रतुरिति इन्द्रः कथ्यते 'सहस्सकले सहस्राक्षः सहस्रनयनः इन्द्रस्य पश्चशतामित्रणि प्रत्येक वे द्वे अक्षिणी तेन सहस्राक्षः कथ्यते ‘गयवं' मघवान् मघाः मेघाः 'तेणं कालेग ते गं समएणं सक्के णाम' इत्यादि टीकार्थ-'ते णं कालेणं तेणं समएणं' उस काल में और उस समय में 'सक्केणामं देविंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे सपके ऊ सहस्सक्खे पागसासणे दाहिणद्धलोकाहिवई वत्तीस विमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे सुरिंदे अरयंवरवत्थधरे' देवों का इन्द्र देवराज शक्र दिव्य भोगों को भोग रहा था ऐसा यहां सम्बन्ध है इसी सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिये जितने भी यहां इन्द्र के विशेषणरूप से पद प्रयुक्त किये गये हैं उनका अर्थ इस प्रकार से है-इन्द्र के हाथमें वत्र रहता है इसलिये इसे वज्रपाणि कहा गया है पुरन्दर इसे इसलिये कहा गया है कि यह इन्द्र के भव को समाप्त करके मनुष्य पर्याय में आकर के रागद्वेषादिरूप नगर का विध्वंस कर मुक्ति प्राप्त करेंगे शतक्रतु इसे इस कारण कहा गया है कि कार्तिक नामक श्रेष्ठि के भवमें इसने श्रावक की पाचवीं प्रतिमा की आराधना १०० बार की थी, सहस्त्राक्ष जो इसे कहा गया है उसका 'तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के णाम' इत्यादि 'तेणं कालेणं तेणं समएणं ते ४ाणे भने ते समये 'सक्के णामं दरिंदे देवराया वज्जपाणी पुरंदरे सयकेऊ सहस्सक्खे पागसासणे दाहिणद्धलोकाहि वई वत्तीसविमाणाव ससयसहस्साहिवाई एरावणवाहणे सुरिंदे अरयंबरवत्धधरे' हेयोनी हन्द्र देव२०४ श हिव्य ભેગેને ઉપભેગ કરી રહ્યો હતો, એ અત્રે સંદર્ભ છે. એજ સંદર્ભને સ્પષ્ટ કરવા માટે જેટલા અહીં ઈન્દ્રના વિશેષણ માટે પદે પ્રયુક્ત કરવામાં આવેલા છે, તે પદને અર્થ આ પ્રમાણે છે-ઈન્દ્રના હાથમાં જ રહે છે, એથી આ વા પાણિ કહેવાય છે. પુરંદર આને એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે એ ઈન્દ્રના ભવને સમાપ્ત કરીને મનુષ્ય પર્યાયમાં આવીને રાગદ્વેષાદિ રૂપ નગરને વિધ્વંસ કરીને મુક્તિ પ્રાપ્ત કરશે. શતક્રતુ આને એટલા માટે કહેવામાં આવેલ છે કે કાર્તિક નામક શ્રેષ્ઠિના ભાવમાં અણે શ્રાવકની પાંચમી પ્રતિમાની આરાધના ૧૦૦ વાર કરી હતી. આને સ હસાક્ષ જે કહેવામાં આવેલું છે તે Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् सन्ति अस्येहि मघवान् ‘पागसासणे' पाकशासनः पाको नामासुरः तस्य शासक इत्यर्थः 'द हिणलोकाहिबई' दक्षिणा लोकधिपतिः, 'वत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिवई' द्वात्रिंशत विमानावासशतसहस्राधिपतिः द्वात्रिंशल्लक्ष संख्यकविमानावासाधिपतिरित्यर्थः स्वामीतिभावः 'एरावणपाहणे' ऐवतवाहनः तन्नामको हस्तिविशेषः वाहनं यस्य स तथाभूतः 'मुरिंदे' सुरेन्द्रः, मुराणां देवानां स्वामी तथा 'अरयंबरवत्थधरे' अरजोऽम्बरवस्त्रधरः प्रांशुरहितनिर्मल स्वधरः तथा 'आलइयमालमउले' आलगितमालमुकुटः-यथास्थान स्थापित माल्या कुट: 'नबहेमचारुचितचञ्चलकुण्डलविलिह्य मानगण्ड:-नवहेमनिर्मितनवीनमुवर्णनिर्मित यत चारु सुन्दर चितवत् चञ्चलं दोलायमानं कुण्डलद्वयं तेन विलिहामानः स्पृश्यमानी गण्डः कपोलो यस्य स तथाभूत: 'विलिहिज्जमाण' विलिख्यमानो गण्डो यस्य स कारण यह है कि इसके ५०० मित्र है अतः उनकी दो दो आखों की अपेक्षा लेकर यह सहस्त्राक्ष कह दिया गया है। यह मघ-मेघों का यह स्वामी है इसलिये इसे मघवान् कहा गया है। पाकशासन-इसने पाक नामके असुर को शिक्षा दी है इसलिये इसका नाम पाकशासन हो गया है । यह दक्षिणार्धलोक का अधि. पति होता है ३२ लाख विमान इसके अधिकार में रहते हैं ऐरावत हाथी इसकी सवारी के काममें आता है सुरेन्द्र सुरों का यह स्वामी होता है यह पांशु रहित निर्मल वस्त्र पहिनता है-इसलिये अरजोऽम्बर वस्त्रधर इसे कहा गया है। 'आलइय मालमउडे' यथास्थान जिस पर मालाएं रखी हुई रहती हैं ऐसे मुकुट को यह मस्तक पर धारण किये रहता है 'नवहेमचारचित्तंचचलकुण्डल विलिहिज्जमाणगंडे' ये जिन दो कुण्डलों को कान में पहिनता है वे नवीन हेम सुवर्ण से निर्मित हुए होते हैं इसलिये बडे सुन्दर होते हैं और चित्त के समान वे चञ्चल होते रहते हैं इसी कारण दोनों गाल इसके उनसे रगडते रहते हैं આ કારણથી કે આને ૫૦૦ મિત્ર છે. એથી તેમની બે-બે આંખની અપેક્ષાએ આને સહસાક્ષ કહેવામાં આવેલ છે. આ મઘ–મેઘને સ્વામી છે એથી એને મઘવાનું કહેવામાં આવે છે. પાકશાસન–આ ઈન્દ્ર પાક નામક અસુરને શિક્ષા આપી હતી એથી એનું નામ પાકશાન થઈ ગયું. આ દક્ષિણાર્ધ લેકને અધિપતિ હોય છે. ૩૨ લાખ વિમાનો એના અધિકારમાં રહે છે. સુરેન્દ્ર અને એટલા માટે કહેવામાં આવે છે કે આ સુરેને સ્વામી છે. આ પાંશુ રહિત નિમળ વસ્ત્ર પહેરે છે. એથી આને અ મ્મર વસ્ત્રધર કહેવામાં भाव छ. 'अलिइय मालमउडे' यथा स्थान नी 6५२ भाणाये। भूय छे सेवा पटना ॥ भस्त: ५२ ५.२४ ४शन २७ छ. 'नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाण. છે એ જે બે કુંડને કાનમાં પહેરે છે. તે કુંડળો નવીન હેમ સુવર્ણથી નિમિત હોય છે, એથી તે કુંડળે અતીવ સુંદર લાગે છે. તે કુંડળે ચિત્તની જેમ ચંચળ થતા २७ छ. मेथी सोना मन्ने मत माथी साता २९ छ. 'भासुरबोंदी' येन Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ अम्बुद्वीप प्रशतिसूत्रे तथाभूतः पुनः कीदृशः 'भासुरखोंदी' भास्वरबोन्दि: भास्वरशरीरः दीप्यमान देहयुक्तः इत्यर्थः दीप्तिमान् 'पलंववणमाले' प्रलम्बवनमालः लंबायमानमालायुक्तः कीदृशः 'महिद्धीए' महर्द्धिकः महत्ती ऋद्धः विमानादि सम्पत् यस्य स तथाभूतः तथा 'महज्जुईए' महाद्युतिकः महती द्युतिः आमरणं प्रमा यस्य स तथाभूतः तथा 'महाबले' महाबलः अतिशय बलशाली तथा 'महाजसे' महायशाः विशालकीर्तिः तथा 'महाणुभागे' महानुभागः महानुभावः तथा ' महासोक्खे' महासौख्यः 'सोहम्भे कापे' सौधर्मे कल्पे 'सोह म्म डिस विमाणे' सौधर्मावतंस के विमाने 'सभाए सुहम्माए' सभायां सुधर्मागां 'सकसि - Hari' शक्रे सिंहासने वर्तमानः 'से णं तत्थ' स खलु सौधर्माधिपतिः तत्र ' वत्ती - सार विमाणावास सय साहस्सी णं' द्वात्रिंशतः विमानावासशतसहस्राणां द्वात्रिशल्लक्षसंख्यक विमानावासानाम् आधिपत्यादिकं कारयन् पालयन विहरति इत्यग्रेण संबन्धः पुनः कीदृशः 'चउरासीए सामाणि साहस्तीणं' चतुरशीतेः सामानिक सहस्राणां चतुरशीतिसहस्रसंख्यक सामानिकानाम्, आधिपत्यादिकम् तथा 'तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं' त्रयत्रिशतस्त्राय त्रिशकानाम् देवविशेषाणाम् आधिपायादिकम् तथा 'चउन्हं लोगपालाणं' चतुर्णी लोकपालानाम् 'भासुरबों दी' इसका शरीर सदा दीपनबना हुआ रहता है 'पलंबवणमाले' इसकी वनमाला बडी लम्बी रहती है 'महिद्धिए' इसकी विमानादि सम्पत् बहुत वडी चढी होती है 'महज्जुइए महाबले, महाजसे, महाणुभागे, महासोक्खे' इसके आभरणादिकों की शुति बहुत ऊंची होती है यह अतिशय बलशाली होता है प्रभाव भी इसका विशिष्ट होता है विशिष्ट सुखों का यह भोक्ता होता है ऐसे इन विशेषणों वाला वह शक 'सोहम्मे कप्पे' सौधर्म कल्प में 'सोहम्मवर्डिसए विमाणे' सौधर्मावतंसक विमान में 'सभाए सुहम्माए' सुधर्मानाम की सभा में 'सक्कंसि सीहासणंसि' शक्र नामके सिंहासन पर विराजमान था 'से तत्थ बत्तीसार विमाणावास सय साहस्सीणं, चउरासीए सामाणिय साहस्सी णंतायतीसातायत्तीसगाणं चउन्हें लोगपालाणं अहं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं तिन्हं शरीर सद्दा हीस रहे छे. 'पलंबवणमाले' थेनी वनभासा महु सांगी रहे छे. 'महिद्धिए' मेनी विभानाहि सभ्यत् धाणी वधारे होय छे. 'महज्जुइए महाबले, महाजसे, महाणुभागे, महा सोक्खे' सेना आभरणाद्विभनी धुति गहु अशी सोय छे से अतिशय मशासी હાય છે. એની કીતિ વિશાળ હૈાય છે, એના પ્રમાત્ર વિશિષ્ટ હાય છે. એ વિશિષ્ટ सुन सोडता होय हे सेवा से विशेषणत्राणे ते शत्रु 'सोहम्मे कप्पे सौधर्भ उत्पभां 'सोहम्मवडिस विमाणे' सौ धर्भर्भावित स विमानमा 'सभाए सुहम्माए' सुधर्मा नाम सभाभां 'सक्कँसि सीहासणंसि' 13 नाभ सिंहासन उपर सभासीन हुने 'से णं तत्थ बत्तीसार विमाणावाससयसाहरसीणं, चउरासीए सामाणिय साहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउन्हं लोगप.लाणं अहं अग्गनहिसणं सपरिवारागं तिन्हं परिमाणं सत्तण्हं अणी Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् ६१३ आधिपत्यादिकम् 'अटूं अग्गमहीसीणं सपरिवाराणं' अष्टानाम् अग्रमहीषीणाम् सपरिवाराणाम् आधिपत्यस्वामित्वादिकम् तथा 'तिन्हं परिसाणं' तिसृणां परिपदाम् आधिपत्यादिकम् तथा 'सराण्हं अणिणणं' सप्तानामनीकानाम् सैन्यानाम् 'सत्ताहं अणियाहिवईणं' सप्तानाम् अनीकाधिपतीनाम् सेनापतीनामित्यर्थः 'चउन्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' चतुरचतुरशीतेरात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् चतुश्चतुरशीतिसहस्रसंख्यकात्मरक्षक देवानामित्यर्थः, आधिपत्यादिकम् तथा 'अन्नेसिंच बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं' अन्येषां च बहूनां सौधर्म कल्पवासिनाम् 'माया देवाण य देवीण य' वैमानिकानाम् देवानां देवीनां च 'आहेवच्च पौरवच्च सामित्तं भट्रिट्टत्तं महत्तरगतं अणाईसर सेणावच्च' आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं भर्तृत्वं महतरकत्वम् आज्ञेश्वर सेनापतित्वं च 'कारेमाणे पालेमाणे' कारयन् पालयन् 'महयाहयण गीयवाइय तंतीतलतालतुडियघणमुईं गपडपट हवा इयरवेणं, महताहत नाटययगीतवादिततःत्रीतलतालतूर्यनमृदङ्गपटुपटहवादितरवेण तत्र महता प्रधानेन बृहता वा रवेण इत्यग्रे सम्बन्धः । अतः अनुबद्धो स्वस्येतिविशेषणम् नाट्यम् नृत्यं तेन युक्तं गीतं तच्च वादितानि च शब्दवन्ति परिमाणं सत्तन्हं अणीमाणं सत्तव्हं अणीयाहिवईणं चउन्हं चउरासीणं आयरक्खदेव साहस्सीणं अण्णेसिंच बहूगं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य' वह इन्द्र अपने सौधर्म देवलोक में रहता हुआ ३२ लाख विमानों का ८४ हजार सामानिक देवों का ३३ त्रयस्त्रिंश देवों का सपरिवार आठ अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का सात सैन्यों का सात अनिकाधिपतियों का चार चौरासी हजार अर्थात् ३ लाख ३६०:० हजार आत्मरक्षक देवों का, तथा और भी अनेक सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का 'आहेवच्चं पोरे - वच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे' अधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व भर्तृत्व, महत्तरकत्व और आज्ञेश्वर सेनापतित्व करता हुआ पलवाता हुआ (महमायणदृगीयवाइय तंतीतलताल तुडिय घणमुअंगपडुप्पट वाइयरवेणं दिव्वाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरइ) नाट्यगीत आदि याणं सन्तं अणीय. हिवई गं चउन्हं चउरासीगं आयरक्खदेव साहरसीगं अण्णेसिंच बहूणं सोहम्म कम्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देत्रीण य' ते न्द्र पेताना सौधर्म हेवा भां રહીને ૩૨ લાખ વિમાને!, ૮૪ હજાર સામાનિક ધ્રુવે, ૩૩ ત્રાય×િશ-ધ્રુવે, ચાર લેકपालो, सपरिवार मा सश्रमहिषी, ऋणु परिषहा, सात सैन्यो, सात अनीअधियતિએ, ચાર ચાર્થીસી હજાર એટલે કે ૩૩૬૦૦૦ આત્મરક્ષક દેવા, તથા અનેક સૌધ हवासी वैमानि देवेो मने देवीको 'आहेवच्चं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भट्टित्तं, महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे' (५२ आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, भडुत्तर४त्व भने आज्ञेश्वर सेनापतित्व उरतो, तेभने पोताना शासनभां राणतो. 'महया हयणट्टगीय वाइयतंतीतलता लडियघणमुअंग पडुप्पड हवाइरवेणं दिव्बाई भोगभोगाई भुंजमाणे Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कृतानि तन्त्रगातलौ हस्तौ तालाश्च केशिकाः तूर्याणि च पटहादीनि इति अहतनाटय गीतवादिततन्त्रीतलतालतूर्याणि तानि च तथा घनो मेघः तदाकारो यो मृदङ्गो मेघवत् ध्वनिमान् ध्वनिगाम्भीर्यसादृश्यात् स चासौ पटुना दक्षेण वादितश्च यः पटहः सवनमृदङ्गपापले पटः तेषां रवः शब्दः तेन करणभूतेन अत्र मृदङ्गग्रहणं तूर्यादिवाद्येषु प्रधानं बोध्यम् 'दिखाई भोग भोगाई मुंजमाणे विदरr' दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति तिष्ठति स सौधर्माधिपतिः 'तरणं तस्स सक्क्स्स देविंदस्स देवयणो आसणं चल३' ततः खलु तदनन्तरं किल तस्य शक्रस्य सौधर्माधिपतेः देवेन्द्रस्य देवराजस्य आसनं सिंहासनं चलति नलायमानं भवति 'तएणं से सबके जान आसणं चलियं पासइ. ततः खलु स शक्रो यावत् आसनं चलितं पश्यति' अत्र यावत्पदात् देवेन्द्रो देवराज इति ग्राह्यम् 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'ओहि परंज' अवधि प्रयुक्ते अवधिज्ञानेन पश्यति 'परंजिता ' प्रयुज्य 'भगवं तित्थयरं ओहिणा आभोएइ, स शक्रः भगवन्तं तीर्थकरम् अवधिना अवधिज्ञानेन आभोगयति जानातीत्यर्थः 'आमोइत्ता' आभोग्य ज्ञात्वा 'हट्ट तुचित्ते आनंदिए पी मणे परमसोमणस्पिए हरिसवसविसप्पमाणहियए' हृष्टतुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद् हृदयः तथा 'धाराहय कथं कुसुमचंचुमाल इय को में बजाये गये इन तंत्रीतल आदि अनेक बाजों की ध्वनि पूर्वक दिव्य भोग भोगों को भोग रहा था (तएणं तस्स सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ, तणं से सक्के जाब आसणं चलिअं पासद, पासित्ता ओहिं परंजइ) इतने में उस देवेन्द्र देवराज शक्र का आसन कंपायमान हुआ आसन को कंपायमान देख कर उस शक्र ने अपने अवधिज्ञान को व्याप्रत किया (पउंजित्ता भगवं तित्थवरं ओहिणा आभोएइ) अवधिज्ञान को व्यावृत करके उसने तीर्थंकर को देखा (आमोहन्ता हट्ठतुट्ठचिते आनंदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए धाराहयकयंबकुसुम चंचुइय उसवियरोमकूवे वियसिय विहरइ' नाट्यगीत वगेरेमां वगाउवामां आवेलां तंत्री-तास वगेरे भने 'वाघोना मधुर स्वराने सांगतो दिव्य लोगोंनो उपलोग ठरतो रहेतेो हतो. 'तरणं तस्स सक्कर देविंदस्स देवरण्णो आसणं चल, तरणं से सक्के जाव आसणं चलिअं पासइ पासित्ता ओहिं पजइ' आसामी ते देवेन्द्र देवराज शासन पायमान थ्यु पोताना आसनने उपायमान तु लेने ते शडे पोताना अवधिज्ञानने व्यावृत 'पउंजित्ता भगवं तित्थरं ओहिणा आभोएइ' अवधिज्ञानने व्यावृत श्रीने तेथे तीर्थ अरने भैया. 'आभोत्ता हट्ट तुट्ठ चित्ते आनंदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए धायक बकुसुम चंचुइय उसविय रोमकूवे वियसिय वरकमलनयणवयणे' नेहाने ते (१) यथा स्थान इन वादित्रों की व्याख्या पहिले की जा चुकी है । ૧ યથાસ્થાન એ વાજીંત્રોની વ્યાખ્યા કરવામાં આવી છે. Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्र कृत्यावसरनिरूपणम् ६१५ उस वियरोमकूवे' धाराहत कदम्ब कुसुमरोमाञ्चित्तोच्छ्रितरोमकूपः तत्र धाराऽऽहतं जलधारयाऽभिघातितं यत् कदम्बकुसुमं कदम्बनामक पुष्पविशेषः तद्वत् रोमाञ्चितः रोमाञ्चः संजातो यस्य स तथा भूतः, यथा धारापाते कदम्बमतिशयेन विकाशितं भवति, तद्वत् अयमपि रोमाञ्चन युक्तः अत एव उच्छ्रितः ऊर्ध्वोत्थितः रोमकूपो यस्य स तथा भूतः यथा अविकसितं कदम्बकुसुम जलधाराभिगहतं सत् उर्ध्वोत्थितं सर्वथा विकसितं भवति तथैव हर्षजन्य रोमाचेन ऊर्ध्वोत्थितरोम कूपवान् इत्यर्थः, तथा 'विअसियवर कमलनयनत्रयणे' विकसितवर कमलनयनवदनः विकासिते प्रफुल्लिते वरकमलनयने श्रेष्ठकमलनेत्रे वदनं च यस्य स तथाभूतः, तथा 'पचलियवर डगडियकेउरमउडे' प्रचलित वस्टत्रुटित केयूरमुकुटः, तत्र प्रचलिते तीर्येकर जन्मजनितद्दर्पातिशयात् कम्पिते वर कटके प्रधानवलो त्रुटिके बाहुरक्षकों केयूरे बाहवो. भूपविशेष मुकुटं कुण्डलं च यस्य स तथा भूतः तथा 'कुंडलहारविरायंतरइयवच्छे' कुण्डलहारविराजमानरविदवक्षस्कः तत्र हारेण उक्तहर्षातिशयात् प्रचलितमुक्ताहारेण विराजमानम् अतएव रतिदं च प्रमोदजनकं वक्षः वक्षस्थलं यस्य स तथाभूतः तथा 'पालं वपलं माणघोलंत भूसणघरे' प्रलम्बप्रलम्बमानघोलद् भूषणधरः रुत्र प्रलम्बमानः अतिदीर्घः प्रालम्बो वरकमलनयणवणे) देखकर के वह हृष्ट तुष्ट और चित्स में आनन्द युक्त हुआ प्रीति युक्त मनवाला हुआ परम सौमनस्थित हुआ हर्ष के वश से जिसका हृदय उछलने लगा ऐसा हुआ मेघ धारा से आहत कदंब पुष्प की तरह रोम कूप उसके उर्ध्वमुख होकर विकसित हो गये नेत्र और सुख उसके विकसितकमल के तुल्य बन गये (पचलियवरकडगतुडियंकेयूरमउडे) उसके श्रेष्ठ कटक त्रुटित केयूर और मुकुट चञ्चल हो गये क्यों कि हर्ष के मारे उसका सारा शरीर फडक ने लग गया था (कुंडलहार विराजियवच्छे) कानों के कुण्डलों से और कंठगत हार से उसका वक्षः स्थल शोभित होने लगा (पालंब पलंवमाणघोलंत भूसण धरे) इसके कानों के झूमके लम्बे थे इसलिये इसने जो कंठ में भूषण धारणकर रखेथे वे उनसे रगडने लग गये तात्पर्य यही है कि हर्षातिरेक से इसका शरीर દૃષ્ટ-તુષ્ટ અને ચિત્તમાં આનદ યુક્ત થયા, તે પ્રીતિયુક્ત મનવાળા થયા. તે પરમ સૌમનસ્પિત થયા, હર્ષાવેદ્યથી જેનુ હૃદય ઉછળવા લાગ્યુ છે, એવા તે થયે, મેઘધારાથી આહુત કમ પુષ્પની જેમ તેના મકૂપે ઊર્ધ્વમુખ થઈને વિકસિત થઈ ગયા. નેત્ર અને भुतेनाविति भवत् थ गया. 'पचलियवरकडग तुडिय केयूर मउडे' तेना श्रेष्ठ કટક, ત્રુટિત, કેયૂર અને મુકુટ ચંચળ થઈ ગયાં કેમકે હર્ષાવેશમાં તેનું આખુ શરીર इच्छत्रा सायु तु. 'कुंडल हार वेरा जयवच्छे' अनोना मुंडनोश्री तेभन मुहगत हारथी तेतु वक्षस्त्रण शोलित थवा साग्यु 'पालं पलंबमाणघोलंत भूसणवरे' तेना अनाना ઝૂમખાએ લાંબા હતા, એથી તેણે કંઠમાં જે ભૂષણેા ધારણ કરી રાખ્યાં હતાં. તેમનાથી તે ઘતિ થવા લાગ્યા. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે હર્ષાતિરેકથી તેનુ શરીર ચ ંચળ થઈ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे ज्झुंचनकं यस्य स तथाभूतः तथा उक्तहर्षातिशयादेव घोलद् दोलायमानं भूषणं धरति यः स तथाभूतः ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयः मूठे प्रलम्बमानपदस्य पूर्वे प्रयोक्तव्ये परप्रयोगः आपत्वात् 'ससंभमं तुरिअं चवलं सुरिंदे सीहासणो अभुढेइ' तत्र ससंभ्रमं सादरम् त्वरितं मानसौत्सुक्यं यथास्यात् तथा चपलं कार्यो मुक्यं यथास्यात् तथा सुरेन्द्रः सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति 'अब्भुटेत्ता' अभ्युत्थाय 'पायपीढाओ पच्चोरुद्दई' पादपीठात् पदासनात प्रत्यवरोहति अवतरति, 'पच्चोरुहित्ता' प्रत्यवरुहय अवतीर्य 'वेउव्वियवरिहरिट अंजणनिउ. णोविअमिसिमिसितमणिरयणमंडियाओ पाउआओ ओमु भई वैडूर्य वरिष्टरिष्टाजननिपुणोचितमिसमिसिन्तमणिरत्नमण्डिते पादुके अवमुञ्चति तत्र वैडूर्यारिष्टरिष्टाजननिपुणोचिते निपुणैः शिल्पिभिः वैडूर्यानि तत्तन्नामकरत्नविशेषेभ्यो निर्मिते तथा मिसिमिसित देदीप्यमानमणिचञ्चल हो उठा इसलिये कानों के झुम्बनकों में और कंठ के आभूषणों में संघट्टन होने लगा अथवा झुम्बनक नाम चोगे का भी है तथा च-इसने लंबा चोगा पहिन रक्खा था सो जिनेन्द्र का जन्म हुआ है ऐसा जब इसने जाना तब हर्षातिरेक के कारण शरीर में कंपन हुआ सो उसकी वजह से इसके भूषण चश्चल हो उठे वे पहिरे हुए चोगे से भी नहीं दबे यहां आर्ष होने से प्रलम्बमान जो कि प्रालम्ब का विशेषण है उसका पर प्रयोग हुआ है ऐसा वह 'सुरिंदे' शक (ससंभमं तुरियं चवलं सीहासणाओ अम्भुढेइ) बडे आदर के साथ उत्कंठित बनकर अपने सिंहासन से उठा (अब्भुटेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ) और उठ कर पादपीठ से होकर नीचे उतरा (पच्चोरुहित्ता वेरुलिअवरिट रिट्ठ अंजण निउणोविअमिसिमिसिंतमणिरयणमंडियाओ पाउयाओ ओमुअइ) नीचे उतर कर निपुणशिल्पियों द्वारा वैडूर्य वरिष्ठ रिष्ट, तथा अंजन नामक रस्न विशेषों की बनाई हुई एवं देदीप्यमान मणिरत्नों से मण्डित हुई ऐसी दोनों ગયું, એથી કાનના ઝુમખાઓમાં અને કંઠના આભૂષણોમાં સંઘટ્ટ થવા માંડ્યું અથવા ચેગાનું નામ પણ ઝુમ્બના છે. તે તેણે લાંબે એને પહેરી રાખ્યું હતું. જ્યારે તેણે જિનેન્દ્રને જન્મ થયો છે એવું જોયું ત્યારે હર્ષાતિરેકને લીધે તેના શરીરમાં કંપન થયું. તેનાથી એના આ ભૂષણે ચંચળ થયાં. તે આ ભૂષણે પહેરેલા ચોગાથી પણુ દળાયા નહિ. અહીં આ હેવાથી પ્રલંબમાન કે જે પ્રાલંબનું વિશેષણ છે, તેને मडी ५२प्रयोग था छ. मेव ते 'सुरिदे श 'ससंभमं तुरियं चवलं सीहासणाओ अब्भुदेई' म २।४२ सा2 GST न पोताना सिंहासन परथी असो थयो. 'अब्भुटेत्ता पायपीठाओ पच्चोरुहई' अने धने पा४ पी8 3५२ थक नीये तर्या. 'पच्चोरुहित्ता वेलिअ परिदरि? अंजणनि उणोविअमिसिमिसितमणिरयणमंडियाओ पाउया ओ ओमुअइ' नी तीन नि शिEि५। ५३ पैडूय १६७७ (२८ तथा मन નામક રત્ન વિશેષથી નિર્મિત અને દેદીપ્યમાન મણિરત્નથી મંડિત થયેલી એવી બને Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् रत्नैश्च मण्डि ते शोभिते एवंभूते पादुके पादत्राणे भाषुञ्चति त्यजलि भक्तयतिशयात् पादुके निःसारयतीतिभावः 'ओमुइत्ता' अत्रमुच्य परित्यज्य ‘एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' एकशाटिकम् उत्तरासङ्गं करोति मुखे बनातीत्यर्थः 'करित्ता' कृत्वा 'अंजलिमुउलियग्गहत्थे' अञ्जलिमुकुलिताग्रहस्तः अञ्जलिना मुकुलितौ कुड्रमलाकारीकृतौ संकोचितौ अग्रहस्तौ हस्ताग्रभागी येन स तथाभूतः 'तित्थयराभिमुहे' तिर्थ कराभिमुखः 'सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ' सप्ता टपदानि सप्त वा अष्टौ वा पदानि अनुगच्छति, यत्र तीर्थकरस्तस्यादिशि यातीत्यर्थः 'अणुगच्छित्ता' अनुगत्य 'वामं जाणुं अंचेइ' वामं जानूम् आकुंचयति' ऊचं करोति स शक्रः 'अंचेत्ता' आकुच्य ऊर्ध्वं कृत्वा 'दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहटूटु' दक्षिणं जानु धारणितले निहत्य निवेश्य 'तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेई विकृत्वः त्रि. वारं मूर्धानं धरणितले निवेशयति स्थापयति 'निवेसित्ता' निवेश्य स्थापयित्वा 'ईसिं पच्चुण्णमई' ईषत् प्रत्युम्नमति 'ईसिं पच्चुण्णमित्ता' ईषत् प्रत्युन्नमय्य 'कडगतुडियर्थभियभुआओ खडाऊं को उसने पैरों में से उतारदिया (ओमुइत्ता एगसाडि उत्तरासंगं करेइ) उन्हे उतार कर फिर उसने अस्यूत शाटक को दुपट्टे का उत्तरासंग कियाअर्थात् दुपटूटे को अपने मुख पर बांधा (करिता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थ यराभिमुहे सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ) बांधकर फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर-अर्थात् हथेलियों को जोडकर उनकी अंजुलि बनाई और वह जिस दिशा में तीर्थकर प्रभु थे उनकी ओर सात आठ डग आगे गया (अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहट्टु तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियलंसि निवेसेइ) आगे जाकर उसने वायें घुटने को ऊपर उठाया और उठाकर दाहिने घुटने को जमीन पर जमाया जमा कर फिर उसने तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर झुकाया (णिवेसित्ता ईसिंपच्चुण्णमइ) और स्वयं भी थोडा सा नीचे झुका (इंसिं पच्चुण्णमित्ता कडगतुडिय थभियाओ भुयाओ पावा-यार तो पताना पगोमाथी उतारी ना. (ओमुइत्ता एगसोडिअं उतरा संगं करेइ' पावडीमोन उतारीने पछी तेणे सस्यूत शटना दुपट्टान। उत्तरास ध्या मेरसे -दुपट्टाने पोताना भुम ९५२ मध्यो 'करित्ता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तटुपयाइं अणुगच्छइ' मांधीन पछी तेथे पोताना मन्नहायान डीन मेट કે બન્ને હાથની હથેલીઓને જોડીને તેમની અંજલિ બનાવી. પછી તે જે દિશામાં तीय ४२ प्रभुता, ते त२३ सात-18 या मागण . 'अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेत्ता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहटूटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेई' આગળ જઈને તેણે પિતાના વામ ઘૂંટણને ઉપર ઉઠાવ્યા અને ઉઠાવીને જમણા ઘૂંટણને ભૂમિ ઉપર જમા. જમાવીને પછી તેણે ત્રણ વાર પોતાના મસ્તને જમીન તરફ नभित यु''णिवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमई' मन पोते ५५ थे।४ निमित थयो. 'इंसी Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बुद्वीपप्राप्तिसत्रे साहरइ' कटकटिकस्तम्भिते भुजे संहरति तत्र कटके प्रधानबलये त्रुटिके च बाहुरक्षकभूषणविशेषौ तैः स्तम्भिते भुजे बाहू संहरति 'साहरित्ता' संहृत्य करयलपरिणहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी' करत लपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत उगवान् स शक्रः किमवादीत् इत्याह- णमो. स्थुणं' इत्यादि 'नमोत्थुगं अरहताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थयर णं सयं संबुद्धाणं पुरिमुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसर पुंडरीमा पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं चक्खु रयाणं मग्गदाणं सरणदयाणं जीवदयाणं बोहिदयाणं पम्मइयाणं धम्मदेशाणं धम्मणापगाणं घमसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं दीवोताणं सरणं गई पईट्ठा अपडिहयवरण दसणधराणं विअट्टछ उमाणं जिणाणं साहरइ, साहरित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटट एवं घयासी) नीचे थोडा सा झुककर उसने कटकों को-प्रधानबलयों को एवं बाहुके आभूषणों को संभालते हुए दोनों हाथों को जोडा जोडकर और उन्हें अंजुलि के रूप में बनाकर एवं मस्तक के उपर से उसे घुमाते हुए फिर उसने इस प्रकार से कहा-(णमोत्थूणं अरहताणं भगवंताणं, आइगराणं तित्थयराणं लयं संबुद्धाणं, पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवर पुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं लोगणाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोअगराणं) मैं ऐसे अर्हतभगवन्तों को नमस्कारकरता हूं जो अपने शासन के अपेक्षा धर्म के आदिकर है तीर्थकर हैं स्वयं संवुद्ध हैं, पुरुषोत्तम हैं, पुरुसिंह हैं, पुरुषवर पुंडरीक हैं, पुरुषवर गंधहस्ती हैं, लोकोत्तम हैं, लोकनाथ हैं, लोकहित हैं लोकप्रदीप हैं, लोकप्रद्योतकर हैं 'अभयदया, चवुयाणं, गरगयाणं, सरणदपच्चुण्णमित्ता कडगतुडियधभियाभो भुयानो साइरइं साहरिता हारपटारिवाहि सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासी' नाये थे.उ. नमित न तो ४।-प्रधान વલને–અને બાહુઓના આભૂષણેને સંભાળતાં બનને હાથ જે ડૂય. હાથ જોડીને અને હાથને અંજલિના રૂપમાં બનાવીને તેને મસક ઉપર ફેરવતાં તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું'णमोत्थूणं अरहंताणं भगवंताणं, आइगराणं, तित्थरोणं, सर्व संबुद्धाणं, पुग्मुित्तमाणं, पुरिससीहाण, पुरिसवरपुंडरीयाणं, पुरिसवरगंधहत्थीणं, लोगुत्तमाणं, लोगणाहाणं लोग' हियाणं, लोगपईवाणं, लोगपज्जोअगराणं' मे! मत पन्तने नभ२४२ ४३ छु કે જેઓ પિતાના શાસનની અપેક્ષાએ ધર્મના દિ૨ છે, તીર્થકર છે, સ્વયં સંબુદ્ધ છે, પુરુષોત્તમ છે, પુરુષ સિંહ છે, પુરુષવર પુંડરીક છે, પુરુચર ગંધ હસ્તી છે, કેत्तम छे. सोनाथ छे, सहित छ, ४ प्रही ५ छ, a४ प्रयो। ४२ छे, 'अभयदयाणं, चक्खुदयाणं, मगदयाण, सरणदयाणं जीवदयाणं, बोहियाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतचक्कबहीण' समय छ, यसय४ छ, भागय छ, Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्र कृत्यावसरनिरूपणम् ६१९ जावयाणं विगाणं तारयाणं बुद्धाणं बोयाणं मुत्ताणं मोञगाणं सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं सियमयरुयमतमक्ख रमव्यावाहनपुणरावित्तिसिद्धिगणामधेयं ठाणं संपत्ताणं णमो जिणाणं जियभवाणं' एषामर्थ आवश्यकवादी द्रष्टव्यः । 'पासउ मे भगवं तत्थगए इहगयं' पश्यत तत्रतो भगवान् इहगतम् माम् शक्रम् 'तिकट्टु' इति कृत्वा इत्युक्त्वा एतस्यार्थ आवraat saar: 'वंदइ नमसइ वंदिता नपुंसिता सीहासनवरंसि पुरस्थाभिमुहे सणसणे' सो वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यला सिंहासनारे श्रेष्ठ सिंहासने पौरस्त्याभिमुखः सनिषण्ण उपविष्टवान् 'तए णं दस्स सकस्य देविंदस्स देवरण्णो अयमेयारूवे याणं, जीवदयाणं मोहिदयाणं, धम्मदषाण, धम्मदेलघाणं, धम्ननायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवरचाउरंतच ककडीणं' अभयदायक हैं चक्षुदयिक हैं, मार्गदायक हैं- शरणदायक हैं जीवदायक संगणरूपजीवित को देनेवाले हैं वोधदायक है, धर्मदायक हैं धर्मदेशक हैं, धर्मदायक हैं धर्मसारथि हैं, धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्ती हैं इत्यादि पदों से लेकर 'वोत्थू भगवओ तित्थगरस्स आइगरस्स जाव संपाविकामस्त) यहां तक पदों की व्याख्या आवश्यक सूत्र आदि में की जा चुकी है अतः वहीं से यह देखलेनी चाहिये 'वंदामिणं भगवन्तं तत्थगयं इहगए' यहां रहा हुआ मैं वहां पर विराजमान भगवान को वन्दना एवं नमस्कार करता हूं ' पास मे भगवं तत्थनए इह गयेति' वहां पर विराजमान वे भगवान यहां पर रहे हुए मुझे देखें ऐसा कहकर 'वंदइ मंसई' उसने वन्दना की और नम स्कार किया 'वंदिता णमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुद्दे सणसणे' वन्दना नमस्कार करके फिर वह आकर अपने सिंहासन पर पूर्वदिशा की और मुंह करके बैठ गया । तए तरस सकस देविदास देवरण्णो अपमेयारूये जाव' संकप्पे समुશરણદાયક છે, જીદાયક, સત્યમ રૂપી છાનને આપનારા છે, ખાધ દાયક છે, ધર્મहाय छे, धर्म देश छे, धर्म नाय छे, धर्मसारयि छे, धर्मव२ यातुरन्त यवर्ती छे. वगेरे पोथी भांडीले 'णमात्थूणं भगवओ तिथगरस आइगररस जाव संपाविउकामरस' અહી સુધીના પદેની વ્યાખ્યા આવશ્યક સૂત્ર વગેરેમાં કરવામાં આવી છે. એથી તે त्यांची लेह सेवी लेह से. 'वंदामिण भगवन्तं तत्थगये इहगए' भड़ीं रहे। डु त्यां विरामान लगवान्ने बन्दना ने नमस्कार ४२ ४. 'पास मे भगवं ! तत्थगए इह गयंति' त्यां विराभान आग लगवान् सहीं रहेला भने मुसो आम उडीने 'वंदइ णमंसई' तेथे वन्दना पुरी ने नमस्कार र्या. 'पंदित्ता णमंसिता सीहासरंसि पुरत्या भिमुहे सण સળે' વન્દના અને નમસ્કાર કરીને પછી આવીને તે પાછળના સિંહાસન ઉપર પૂર્વ દિશા (१) यहां संकल्प के जो 'अज्झथिए चिंतिए, कपिए आदि विशेषण है वे गृहीत हुए हैं इनकी व्याख्या यथा स्थान कई जगह की जा चुकी है । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे जाव संकप्पे समुपज्जित्था' ततः सिंहासनोपवेशनानन्तरं खलु तस्य शक्रस्य सौधर्माधिपतेः देवेन्द्रस्य देवराजस्य अयमेतावद् पो यावत्संकल्पः समुदपद्यत समुत्पन्नः अत्र यावत्पदात् अज्झथिए १, चिंतिए २, कपिए २, पत्थिर ४, मणोगए ५, इति ग्राह्यम् तत्र अय मेता वद्रूपः तीर्थकर जन्ममहोत्सवं कर्तुं तद्वनगमनविषयक विचारः 'अज्झस्थिए' आध्यात्मिकः अध्यात्मविषयकः आत्मगतः अङ्कुरइव १ तदनु 'चिंतिए' चिन्ततः पुनः पुनः तत्र गमनविषयक स्मरणरूपो विचारः द्विपत्रितइव २ । तदनु 'कप्पिए' कलितः स एव व्यवस्थायुक्तः, इत्थं रूपेण तत्र तीर्थकर जन्ममहोत्सवं करिष्यामीति कार्याकारेण परिणतोविचारः पल्लवितइव ३। तदनु 'पत्थिए' प्रार्थितः स एव विचारः 'इष्टरूपेण स्वीकृतः पुष्पितइव ४ । 'मणोगए संकप्पे' मनोगतः संकल्पः मनसि दृढरूपेण निश्चयः, इत्थमेव मया कर्तव्यमिति विचरः फलित इव ५ । समुत्पन्न इत्यर्थः कोऽसौ इत्याह-'उप्पण्णे खलु' इत्यादि 'उप्पण्णे खलु भो ! जंबुद्दीवे दीवे भगवं तित्थयरे तं जीयमेयं तीय पच्चुप्पण्णमण।गयाणं सकागं देविंदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिम करित्तए' उत्पन्नः खलु भोः जम्बूद्वीपे द्वीपे मध्यजम्बूद्वीपक्षेत्रे भगवांस्तीर्थकर तस्माजीतमेतत् आचार एषः, अतीत प्रत्युत्पन्नानागतानां भूतवर्तमानभविष्यत्कालिकानां शक्राणां देवेन्द्राणां देवराजानां जन्ममहिमानं तीर्थंकरजन्ममहो त्सवं कर्तुम् 'तं गच्छामि गं अहंपि भगवओ तित्थयरस्त जम्मणमहिमं करेमित्ति कट्टु एवं संपेहेई' तत् गच्छामि खलु अहमपि शक्रो भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं करोमोति कृत्वा मनसि विचार्य एवम् हेतुभूतभाविवक्ष्यमाणं संप्रेक्षते निश्चयं करोति 'संपे. प्पज्जित्था' इसके बाद उस देबेन्द्र देवराजशक को यह इस प्रकार का यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ-'उप्पण्णे खलु भो जंबु द्दीवे-द्दीवे भगवं तित्थयरे जं जीय. मेयं तीय पच्चुप्पणमंणागयाणं सक्काणं देविदाणं देवराईणं तित्थयराणं जम्मणमहिमं करेत्तए' जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में भगवान् तीर्थकर का जन्म हो चुका है प्रत्युत्पन्न अतीत एवं अनागत देवेन्द्र देवराज शक्रों का परम्परा से चला आया हुआ यह आचार है कि वे तिर्थकरों का जन्मोत्सव मनायें अतः 'गच्छामिणं अहंपि भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिम' करेमित्ति कहु एवं संपेहेइ' त२५ भु५ ४री मेसी गयी. (१) तएणं तस्स सक्कस्स देवि दस्स देवरण्णो अयमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था' त्यार पाहत देवेन्द्र १२।४ शने 24 तन यात् ३८५ मध्ये।. 'उप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे दीवे भगवं तित्थयरे जं जीयमेयं तीयपच्चुप्पणमणागयाणं सक्काणं देविदाणं देवराईणे तित्थयरागं जम्मणमहिमं करेत्ता ए' मृद्धी५ नाम दीपमा ભગવાન તીર્થકરને જન્મ થઈ ચુકી છે. પ્રત્યુત્પન્ન, અતીત તેમજ અનાગત દેવેન્દ્ર, દેવરાજ શકોને પરંપરાગત આ આચાર છે કે તેઓ તીર્થકરોને જન્મોત્સવ ઉજવે. मेथी 'गच्छामि णं अहं पि भगवओ तित्थगरस्स जम्मण महिमं करेमि त्तिक? एवं संपहेइ' (१) म सपनाको 'अज्झथिए चिंतिए, कप्पिए' वगेरे विशेषणेछ, त गडीत થયા છે. એ બધાં વિશેષણ પદ્યની વ્યાખ્યા યથાસ્થાન ઘણું સ્થાન પર કરવામાં આવી છે. Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू.४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् हित्ता' संप्रेक्ष्य निश्चित्य 'हरिणेगमेसि पायताणीयाहिवई देवं सदावेई' हरिणिगमेषिणम् हरेः इन्द्रस्य निगमम् इच्छतीति हरिनिगोषी तम् अथवा हरिणैगमेषिणम् हरेः इन्द्रस्य निगमे पीनामा देवस्तम् पदात्यनीकाधिति देवं शब्दयति 'सदावित्ता' शब्दइत्वा आय ‘एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान्' किमवादिदित्याह-'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया' क्षिप्रमेव अतिशीघ्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'सभाए मुहम्माए' सभायां सुधर्मायां 'मेघोघरसियगंभीरमहुरयरसई' मेघौधरसित गम्भ रमधुरतरशब्दाम मेघानामोघः संघातो मेघौवः तस्य रसितं गर्जितं तद्वत् गम्भीरो गाम्भीर्ययुक्तो मधुरतारश्च शब्दो यस्याः सा तथा भूताम् ताम् । पुनः कीदृशाम् 'जोयणपरिमंडलं' योजनपरिमण्डलाम् योजनप्रमाणं परिमण्डलम् वृत्तत्वं ययाः सा तथाभूता ताम् । पुनः कीदृशाम् 'सुघोसं मुसरं घंट' सुघोषां नाम सुस्वरां घण्टाम् 'दिक्खुत्तो उल्लालेमाणे उल्लालेमाणे' निः कृत्वः त्रीन् वारान उल्लाल. यन् उल्लालयन्-ताडयन् ताडयन् 'महया महया सदेणं उग्घोसेमाणे उग्बोसेमाणे एवं वयाहि' महता महता बृहता बृहता शब्देन उद्घोषयन् उदघोषयन् एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वर-ब्लहि 'आणवेइ णं भो ! सक्के देविंदे देवराया' आज्ञापयति, आदिशति खलु भो देवाः ! शक्रो जाऊं और मैं भी भगवान् तीर्थकर के जन्म की महिलाकरू । ऐसा विचार करके उसने 'हरिणेगमेसिं पायत्ताणीधादिवई देवं सद्दावेई' हरिनैगमेषी-नामके देव को जो कि पदात्यनीक का अधिपति होता है बुलाया 'सदावित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उससे ऐसा कहा-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसिअ गंभीरमहर यरसदं जोयण परिमडलं सुघोसं सुसरं घंट तिकखुत्तो उल्लालेमाणे २ महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्धोसेमाणे एवं वयाहि' हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही सुधर्ना सभामें मेघ के समूह की जैसी आवाज करनेवाली, गंभीर मधुरतर शब्द वाली एवं अच्छे स्वरवाली ऐसी सुघोषा घंटाको किजिसकी गोलाई एक योजन की है तीन वार बजा बजा कर ऐसी वार बार जोर जोर से घोषणा करते हुए कहो-'आणवेणं भो सक्के હું ત્યાં જાઉં અને ભગવાન તીર્થકરના જન્મનો મહિમા કરું. આ પ્રમાણે વિચાર કરીને तेणे 'हरिणेगमेसि पायताणीयाहिवइं देवं सदावेइ' निगमेषी-नाभर हेवन , २ पहात्यनी४३ अधिपति डोय छे. मोसाव्या. 'सदाक्त्तिा एवं बयासी' म मावीन तर ॥ प्रमाणे ४थु-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए मेघोघरसिअगंभीरमहुरयरसदं जोयणपरिमंडलं सुघोसं सुसरं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे २ महया २ सदेणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं बयाहि' हेवानुप्रिय ! तमे शी सुधर्मा समामा मेध-सभूलनामा વનિ કરનારી, ગંભીર મધુરતર શબ્દવાળી તેમજ સારા સારવાળી એવી સુઘાષા ઘંટાને કે જેની ગેળાઈ એક જન જેટલી છે, ત્રણ વાર વગાડી વગાડીને એવી વારંવાર જોર नयी ५॥ ४२di 'आणवेइणं भो सक्के देविदे देवराया गच्छइ ण भो सक्के Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपमप्तिसूत्रे देवेन्द्रो देवराजः किमित्याह-'गच्छइ णं' इत्यादि 'गच्छइ णं भो ! सके देविदे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिम करित्तए' गच्छति खलु भो देवाः शक्रो देवेन्द्रो देवराजः जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं जन्ममहोत्सवं कत्तुम् 'तं तुम्भे वि गं देवाणुप्पिया' खद् यूयमपि देवानुप्रियाः ! भवन्तो देता ! 'सन्निद्धीए सन्धजुइए' सद्धर्या सर्वसंपदा सर्वद्युत्या सर्व शान्त्या 'सन्चालेणं सव्वसमुदएणं' सर्ववलेन सर्वसमुदयेन 'सव्वायरेणं सव्वविभूईए' सर्वा रेण सर्वविभूत्या 'सबविभूसाए' सर्व विभूपया 'सब्बसंभमेणं सव्वणाडएहि' सर्वसंभ्रमेण सर्वनाटकैः सव्योवरोहे हिं' सर्वोपरोधैः उपरोधः बाधा सर्ववाधायुक्तैरपीत्यर्थः 'सम्यषुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए' सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूपया 'सव्यदिव्यतुडियसहसणिण एणं' सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसनिनादेन 'महया इद्धीए देविदे देवरापा, गच्छहणं भो सक्के देविदे देवराया जंघुद्दीवे दीवे भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेत्तए' हे देवो ! देवन्द्र देवराज शक्र आप लोगों को आज्ञा देता है कि मैं देवेन्द्र देवराज शाम जम्बूद्वीर मानके द्वीप में भगवान तीर्थकर के जन्म की महिमा करने के लिये जारहाई 'तं तुभे विणं देवाशपिया! सव्विद्धीए सव्वज्जुईए सब्धवलेणं सनसमुदएणं सन्कायरेण सविभूईए सव्यसंभमेण सधणाडएहिं सत्यशेवरोहेटिं' तो इसलिये हे देवानुप्रियो ! आप अपनी समस्त युति से अपनी अपनी सस्त सेना हे माने समस्त समुदय से, समस्त प्रकार के आदर भाव से समस्त प्रकार की विभूति से समस्त प्रकार के विभूषा से एवं समस्त प्रकार के नायकों से युक्त होकर इन्द्र के पास आ जावे चाहे किसी भी प्रकार की आपलोगों को बाधा भी हो तो भी उसका ध्यान न करें और शीघ्र आवें 'सत्रपुष्कगंध मलालंकार विभूसाए सव्वदिव्वतुडियसदसणिणाएणं महया इवीए जाव रवेणं' साथ में जो देव जिस प्रकार सुगं देवि दे देवराया जंबुद्दीवे दीवे भगवशो तित्थयरम्स जम्णमहिमं करेत्तए' वा ! हेवेन्द्र : દેવરાજ શક તમને આજ્ઞા કરે છે કે હું દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક જમ્બુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં मावान तीथ ४२ ना भने। भडिमा ४२१॥ भाटे ०४- Reो छु.. 'त तुभ वि णं देवा. ‘णुप्पिया ! सव्बिद्धीए सव्यज्जुईए, सव्वबले गं, सलमा रेणं, सब्यविभूईए, सयाविभूसाए, सव्व संभमेणं, सचणाडएहि सयोवरोहे हि' तोटा भाटे हानुयो तमे वा पात પિતાની સમસ્ત ઋદ્ધિથી, પિતપિતાની સમસ્ત ઇતિથી, પોતપોતાની સમસ્ત સેનાથી, પિત–પિતાના સમસ્ત સમુદાયથી, સમત પ્રકારના આ દર ભાવથી, સમસ્ત પ્રકારની વિતિઓથી, સમસ્ત પ્રકારની વિભૂષાથી તેમજ સમસ્ત પ્રકારના નાટકોથી યુક્ત થઈને ઈન્દ્રની પાસે આવી પહોંચે કોઈ પણ જાતની બાધા પણ હોય તો તે તરફ લક્ષ્ય રાખવું 18 अने तुरंत छन्द्र पासे पडया 'सब पुरगंधाल्लालंकारविभूसाए सवदिव्ध सुडिय सहसण्णिणाएणं महया इद्धोए जाव रवेणं' मरे । ४२i सुचित पुष्पेनी Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् जाव रवेणं' महत्या ऋद्धवा यावत् रवेण अत्र यावत् पदेन 'महया हयणगीयवाइय तंतीतल. तालनुडि अघण मुइंगपडपडहवाइय' इत्येषां पदानां ग्रहणं भवति व्याख्यानं तु अस्मिन्नेव सूत्रे पूर्वे द्रष्टव्यम् 'णिअय परिआलसंपरिवुडा' निजकपरिवारसम्परिवृताः 'सयाई जाणविमाणवाहणाइंदुरूढा समाणा' स्कानि स्त्र कानि वाहनानि य शिविकादीनि आरूढाः सन्तः 'अकालपरिहीणं चेव' अकाल परिहीणम्-निर्विलम्वं यथास्यात्तथा चैव 'सकस्स जाव अंतियं पाउभवह' शक्रस्य यावदन्तिकं समीयं प्रादुर्भवत अत्र यावत्पदात् देवेन्द्रस्य देवराजस्य इति ग्राह्यम् 'तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायताणीयादिवई सकेणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे हल तुह जाव एवं देवोत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २' ततः शक्रादेशानन्तरं खलु स हरि. धित पुष्पों की माला पहिनता हो, जो जिस प्रकार के अलंकार पहिनता हो वह उस प्रकार की माला से एवं अलंकार से सजधज कर आवें हाथों में कडे भुजाओं में अटित-भुजबंध आदिको से रहित न आवे आते समय वह दिव्य बाजों की तुमुल ध्वनि के साथ आवे यहां यावत् शब्द से 'महयाहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुगपडपडह वाइअ' इस पाठका संग्रह हुआ है इन पदों की पहिले कई बार व्याख्या की जा चुकी है मोवहीं से इसे देखलेना चाहिये 'णिययपरियाल संपरिवुडा सयाई २ जाणविमानवाहणाई दुरूढा स. माणा अंकालपरिहीणं चेव सक्कस्स जाव अंतियं पाउभ-ह' आते समय में अपनी अपनी इष्ट भंडली सहित एवं परिवार सहित आवें और आने में विलम्ब न करें अविलम्ब आवें आने के लिये सब अपने यान विमानों का उपयोग करेअर्थात् थान विमान पर चढ चढ कर आखें और आ करके शक के पास उपस्थित हो जावें 'तएणं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं ३ जाव एवं घुत्ते समाणे हद्वतह जाच एवं देवोत्ति आणाए विणएणं बघणं पडिसुणेइ, पड़िમાળા પહેરે છે, જે દેવ જે પ્રકારનાં અલંકાર પહેરે છે, તે દેવ તે પ્રકારની માળાઓ તેમજ અલંકારોથી સુશોભિત થઈને આવે હાથમાં કટ, ભુજાઓમાં ત્રુટિત-ભુજ બંધ પહેરીને આવે. આવતા સમયે તેઓ દિવ્ય વાદ્યોના તુમુલ અવનિ સાથે આવે. मडी यावत् ४थी 'महयाहयणट्टगीयधाइयततीतलतालतुडियधणमुइंगपडुपडहवोइअ' मा પાઠને સંગ્રહ થયે છે. એ પની વ્યાખ્યા પહેલાં ઘણીવાર કરવામાં આવી છે. તે ज्ञासुमे। त्यांथी या प्रयत्न ४२. 'णियय-परियोलसंपरिखुडा सयाई २ जाणविमाण वाहणाई दुरूढो समाणा अकालपरिहीणं चेव सक्कस्स जाव अंतियं पाउन्भवह' तेथे। પિત–પોતાની ઈષ્ટ મંડળી સહિત તેમજ પોતાના પરિવાર સહિત અહીં આવે અને ત્વરિત ગતિથી આવે આવતી વખતે તેઓ બધા પોતપોતાના યાન-વિમાનેનો ઉપગ કરે. એટલે કે યાન-વિમાન ઉપર આરૂઢ થઈને આવે અને આવીને શકની પાસે ઉપસ્થિત થઈ જાય. तए ण से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणीयाहिवई सक्केणं ३ जाव एवं वुत्ते समाणे हट्ट तुद्ध Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ जम्बूहीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नैगमेषीदेवः पदात्यनीकाधिपतिः शक्रेण यावत एवम उक्तप्रकारेण उक्तः सन् हृष्टतुष्ट यावत् एवं देव ! इति आज्ञाया विनऐन वचनं प्रतिश्रृणोति स्वीकरोति । अत्र प्रथमयावत्पदात् देवेन्द्रेण देवराजेन इति संग्राह्यम् द्वितीययावत्पटात चित्तानगितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवश विसर्पद हृदयः इति ग्राह्यम् । 'पडिमुणेत्ता' प्रति त्य स्वीकृत्य (सक्कस्स दविं. दम्स देवरण्णो अंतियाओ पडिणिक्खमई' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात समीपात प्रतिनिष्क्रामति निगच्छति 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्नस्य निगत्य 'जेणेव सभाए मुहम्माए मेघोघरसिअगंभीरमहरयरसद्दा जोयणपरिमंडला सघोसा घंटा तेणेव उवागच्छई' यत्रैव सुधर्मायां सभायां मेघौधरसितगम्भीरमधुरतरशब्दा मेघानामोघः संघातः मेघौघस्तस्य रसितम गर्जितं तद्वत् गम्भीरो मधुरतरश्च शब्दो यस्याः सा तथाभुता एवं योजनपरिमण्डला योजनपरिमण्डलं भावप्रधाननिर्देशात पारिमाण्ड्ल्यं वृत्तत्वं यस्याः सा तथाभूता सुघोषा तनाम्नी घण्टा तत्रैन उपागच्छति 'उवागच्छिता' उपागत्य 'तं मेघोघरसि अगंभीरमहरयरसदं जोयणपरिमंडलं सुघोसं घंटं तिक्खुतो उल्लालेइ' तां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतरसुणित्ता सक्कस्स ३ अंतियाओ पडिणिक्खमई' इस प्रकार वह हरिणेगमेषो पदात्यनीकाधिपित देव जब अपने स्वामीभत देवेन्द्र देवराज शक्र के द्वारा आज्ञापित हुआ तो वह हृष्ट पुष्ट यावत होकर कहने लगा 'हे देव ! आपकी आज्ञा हमे प्रमाण है-जैसा आपने आदेश दिया है हम वैसा ही करेगे' इम प्रकार से बडे विनय के साथ उसने अपने प्रभुकी आज्ञा के वचनों को स्वीकार कर लिया और स्वीकार कर वह इन्द्र के पास से चला आया 'पडिणिक्खमित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसिय गम्भीर महरयरसदा जोयणपरिमंडला सुघोसा घंटा-तेणेव उवागच्छह आ करके वह जहां सुधर्मामा में मेघ के समूह के शब्द जैसीगंभीर मधुरतर शब्दवाली एवं एक योजन के परिमंडलवालो सुघोषा नामको घंटा थी वहां पर आया "उवागच्छित्ता तं मेघोघरसिअ गम्भीरमह रयरजाव एवं देवोत्ति आणाए विणएण वयणं पडिसणे इ, पडिणित्ता सक्कस्स ३ अंतियाओ पडिणिक्खमई' ॥ प्रमाणे ते शेगमेषी पात्यनाधिपति देव न्यारे पोताना स्वाभीભૂત દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક વડે આજ્ઞાપિત થશે તે તે હેક્ટ-તુષ્ટ યાવત્ થઈને કહેવા લા- હે દેવ! તમારી આજ્ઞા અમારા માટે પ્રમાણ છે. જે પ્રમાણે આપશ્રીએ આદેશ આપે છે, અને તે પ્રમાણે જ કરીશ.' ના પ્રમાણે બહુજ વિનય પૂર્વક તેણે પિતાના પ્રભુની આજ્ઞાના વચને સ્વીકારી લીધું અને સ્વીકારીને તે ઈન્દ્રની પાસેથી રવાના થયા. 'पडिणिक्खमित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगम्भीरमहुरयरसहा जोयणपरिमंडला सुघोसा घंटा-तेणेव उवागच्छई' २वाना थन. यां सुघर्भासमामा भधान सभा की गमीर, મધુરતર શબ્દવાળી તેમજ એક જન. પરિમંડળવાળી સુષા નામની ઘંટા હતી, ત્યાં भाव्या. “सवागच्छित्ता त मेघोघरसिअ गम्भीर हरर रसई जोरण परिमप्रलं सुघोसं Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः रु. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् ६२५ शब्दां योजनपरिमण्डलां सुघोषां तन्नाम्नी घण्टां त्रिः कृत्वः वारत्रयम् उल्लालयति वाक्ष्यति ताडयतीत्यर्थः । 'तएणं तीसे मेघोषरसिअगंभीरमहुरयरसदाए जोयणपरिमंडलाए सुघोसाए घंटाए तिक्खुत्तो उल्लालि आए समाणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बत्तीसविमाणावाससयसहस्से हिं' ततः घण्टाताडनानन्तरं खलु तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुरतरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुघोषायां त्रिः कृत्वः, उल्लालितायां ताडितायां सत्यां सौधर्म कल्पे अन्येभ्यः एकोनेभ्यो द्वात्रिंशद् विमानावाप्रशतसहस्रेभ्यः, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया तेन अन्येषु एकोनेषु द्वात्रिंशद् विमानावासशतसहस्रेषु द्वात्रिंशद विमानरूपाः ये आवासाः देववासयोग्यानि विमानानि तेषां शतसहस्रेषु-द्वात्रिंशल्लक्ष्यसंख्यकविमानेषु इत्यर्थः, 'अण्णाई एगृणाई बत्तीसं घण्टासयमहस्साई जमगमगं कणरुणारावं काउं पयत्ताई हुत्था इति' अन्यानि एकोनानि द्वात्रिंशघण्टाशत सत्राणि एकोना-द्वात्रिंशल्लक्ष संख्यायुक्ता घण्टा इत्यर्थः । यमकसमकं युगपत् कणकणारावं कण कणाशब्दं कर्तुं प्रवृत्तानि आसन् इति । घण्टानादतो यत्प्रवृत्तं तदाह-तए णं सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडियसद्दसमुट्टिअ घंटापडेंसुआ सयसहस्ससंकुले जाए आवि होत्था' ततः घण्टानां कणकणशब्दप्रवृत्तेरनन्तरं खलु सौधर्मः कल्पः रसई जोयणं परिमण्डलं सुघोसं घंटे तिखुत्तो उल्लालेइ, तए णं तीले मेघोघरसिअ गम्भीरमहरयरसदाए जोयणपरिमण्डलाए सुघोसाए घण्टाए तिक्खुत्तो उल्लालि आए सभाणीए' वहां आकर के उसने अघोघ के रसित के जैसी गंभीर मधुरतर शब्दवाली एवं एक योजन परिमण्डल वाली सुघोषा घंटा को तीन वार ताडित किया इस प्रकार उस मेघोष के रमित के जैसी गंभीर मधुर तर शब्दवाली एवं एक योजन्म परिमण्डलवाली सुघोषा नामकी घंटा के तीन वार ताडित होने पर 'सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बतीसविमाणाबाससयसहस्सेहिं अण्णाई एगूणाई बतीसं घण्टासय सहस्साइं जमगसमगं कणकणारावं काउं पयत्ताई हत्था इति' सौधर्म कल्प में और भी १ कम ३२ लाख विमानों में १ कम ३२ लाख और भी दूसरी घंटाएं एक साथ कण कण शब्द करनेलगी 'तएणं से सोहम्मे घंटं तिक्खुत्तो उल्लालेइ, तए णं तीसे मेघोघरसिअ गम्भीरमहुयरसदाए जोयणपरि मण्डलाए सुघोसार घण्टाए तिक्खुत्तो उल्ललिओए सपाणीर' त्या आवीन तेणे भेधाधना રસિત જેવી ગંભોર, મધુરતર શબ્દવાળી તેમજ એક જન પરિમંડળવાળી સુઘાષા ઘંટાને ત્રણ વાર તાડિત કરી આ પ્રમાણે તે મેઘના રસિત જેવી ગંભીર, મધુરતર શબ્દવાળી તે જ એક જન પરિમડેલવાળી સુષા નામક ઘંટા ત્રણ વાર તાડિત ४२४ मा? त्यारे 'सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगूणेहिं बतीस विमाणावाससयसहस्सेहि अण्णाई एगूणाई वत्तीसं घण्टासयसहस्साइं जमगसमगं कणकणारावं का पयत्ताई हुत्था इति' સૌધીક૯પમાં એક કમ ૩ર લાખ વિમાનમાં, ૧ કમ ૩૨ લાખ બીજી ઘંટાઓ એકી સાથે आनन मनन 8 eी. 'तर णं से सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुडावडिअ सदस o 102 Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे प्रासादविमाननिष्कूटापतितशब्दसमुत्थितघण्टाप्रतिश्रुतशतसहस्रसंकुलो जातश्चापि आसीदिति तत्र प्रासादानां विमानानां वा ये निष्कूटाः गम्भीरप्रदेशाः तेषु ये आपतिताः संप्राप्ताः शब्दा: शब्दवर्गणाः पुद्गलाः तेभ्यः समुत्थितानि यानि घण्टा प्रतिश्रुतानां घण्टा सम्बन्धि प्रतिशब्दानां शतसहस्राणि लक्षपरिमितानि तैः संकुलो व्याप्तो जतश्चाप्यभूदित्यर्थः घण्टायां महता प्रयस्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तान् प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्चलितैः प्रतिशब्दैः सकलोऽपि सौधर्मः कल्पो बधिरो जात इति भावः . एवं शब्दमये सौधर्मे कल्पे सजाते सति किं जातं तदाह 'तए णं' इत्यादि 'तएणं तेसिं सोहम्मकप्पवासीणं बहणं वेमाणियाणं देवाण य देतीणय एगंतरइपसत्तणिचपमत्तविसयमुहमुच्छियाणं' ततः शब्दव्याप्त्यनन्तरं खलु तेषां सौधर्मकल्पवासिनां बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां य एकान्तरतिप्रसक्तनित्यप्रमत्तविषयमुखमूच्छितानाम् एकान्तेन रतौं संभोगे प्रसक्ताः आसक्ताः एत एव नित्यप्रमत्ताः विषयसुखेषु मूच्छिताः अध्युपपन्नाः अत्र कर्मधारयः तेषाम् 'मूसर घंटारसि विउलबोलपूरिजश्वलपडियोहणे कए समाणे घोसणकोऊहलदिण्णकण्णएगग्गचित्त उवउत्तमाणसाणं' सुस्वर घण्टारसितविपुलबोलपूरितचपलप्रतिकप्पे पासायविमाणनिक्खुटावडिअसदसमुहिअ घटापडेंसुआ सयसहस्ससंकुले जाए यावि होत्था इति' इस तरह वह सौधर्म का प्रासादों के एवं विमानों के निष्कुटों में गंभीर प्रदेशों में अप्रति शब्दवर्गणारूप पुद्गलों से उत्पन्न हुइ लाखो घंटा प्रतिध्वनियों से व्याप्त हो गया बधिर जैसा बन गया 'तएणं' इस प्रकार शब्दमय सौधर्मकल्प के हो जाने के बाद 'तेलि सोहम्मकप्पवासीणं वहणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण ण एगंतरइपसत्तणिच्चषमतविसयसुहमुच्छियाणं' उन बहुत से सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों को जो कि एकान्त रति क्रिया में प्रसक्त थीं और इसी कारण जो विषय सुखमें इकदम मूच्छित हो रही थीं उन्हें 'सूसर घंटारसिथविउलबोल पूरिय चवल बोहणं कए समाणे' सुस्वर घंटा-सुघोषा घंटा के उस सकल सौधर्म देवलोक कुकिंभरी कोलाहल से मुदिअ घंटापडेसुआ सयसहस्ससंकुले जाए यावि होत्या इति' । प्रमाणे सौधम કલ્પ પ્રાસાદોના તેમજ વિમાનોના નિષ્ણુમાં, ગંભીર પ્રદેશમાં આ પ્રતિ શબ્દ વણા રૂપ પુદ્ગથી ઉત્પન્ન થયેલા લાખ ઘંટાઓના નિઓના ગણ ગણાટથી તે સકલ भूमा मधिर व मनी गयो. 'तएणं' ते आ प्रमाणे न्यारे सीध ४८५ १५६मय मनी गयो त्यारे 'तेसि सोहम्मकप्पवासीणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण ण एगं. तरइपसत्तणिच्चपमत्तविसयसुहमुच्छियाण' ते घ। सो ४८५वासी हेर मन हेवीએને કે જેઓ એકાન્ત રતિક્રિયાઓમાં તલ્લીન હતા અને એથી જ જે વિષય સુખમાં ४४४ २।४४ ४ी २ । तi 'सूसरघंटारसिय विउल बोल पूंरिय चबल बोहण कर સમાજે તે સર્વને જ્યારે સુસ્વર ઘંટા-સુષ ઘંટાના–તે સકલ સીધર્મ દેવલેક કુક્ષિભરી Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कार: सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् ફરહ बोधने कृते सति घोषणकुतूहल दत्तकर्णैकाग्रचित्तोपयुक्त मानसानाम्, तत्र सुस्वरा, या घण्टा तस्या: रसितं वादितं वादनं तस्मात् विपुलः सकलसौधर्मदे लोके संजातो यो बोल:-कोलाहल: तेन पूरिते परिपूर्णे चपले ससम्भ्रमे प्रतिबोधने कृते सति आगामिका सम्भाव्यमाने घोषणे कुतूहलेन किमिदानीमुद्घोषणं भविष्यतीत्यात्मकेन दत्ताः कर्णाः यैस्ते तथाभूताः तथा एकाग्र घोषणश्रवणैकविषयं चितं येषां ते तथाभूताः, तथा उपयुक्तानि मानसानि एषां तथाभूताः श्रवणविपयीभूतवस्तुग्रहणप्रवृत्त मानस इत्यर्थः ततो विशेषणसमासः तेषाम् 'पाणी आवई देवे तंसि घंटारवंसि निसंतपरिसंतंसि समाणंसि तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे महया महया सदेणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयासीति' स शक्राज्ञाकारी पदात्यनीकाधिपते देवः तस्मिन् घण्टारवे निशान्तप्रशान्ते नितरां शान्तः निशान्तः अत्यन्तमन्दभूतः ततः प्रकर्षेण सर्वात्मना शान्त्रः प्रशान्तः ततो विशेषणसमासस्तस्मिन् सति तत्र तत्र महति देशे तस्मिन् तस्मिन् देशैकदेशे महता महता शब्देन तारतारस्वरेण उद्घोषयन् उद्घोषयन् एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवन्तः (हन्त ! सुणंतु भवंतो बहवे सौहम्कप्पवासी वेमाणीयदेवा देवीओ सोहम्मक पवाइणो इणमो वयणं हिययमुहत्थं आणवई णं भो सके तं चैव जाव अंतिअं पाउब्भवहत्ति' हन्त ! इति हर्षे शृण्वन्तु भवन्तो बहवः सौधर्मकल्पवासिनो वैमानिका परिपूर्ण ससंभ्रम प्रतिबोधन किये जाने पर 'घोसणको ऊहलदिष्णकण्ण एगग्ग चित्त उवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवइ देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपरिसंतंसि संमाणंसि तहिं २ देसे महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे २ एवं वया सीति' तथा घोषणाजन्य कौतूहल से जिन्हों ने उस घोषणा के सुनने में अपने कानों को लगाया है और इसीसे जिनका चित्त एकाग्र होकर उस घोषणाजन्य कौतुहल में उपयुक्त हो रहा है, तथा शुश्रूषित वस्तु के ग्रहण करने में जिनका मन उतावलीवाला बन रहा है ऐसे उन देवों के हो जाने पर उस पदात्यनी - काधिपति देवने उस घंटारव के अत्यन्त शान्त प्रशान्त होते ही उन उन स्थानों पर जोर जोर से घोषणा करते हुए ऐसा कहा 'हंत ! सुणंतु भवंतो बहवे सोहम्मकप्पवासीवेमाणिया देवा देवीओ य सोहम्मकप्पवद्दणो इणमो वयणं हिययसु असाहसथी परिपूर्ण ससंभ्रम स्थितिमां प्रतिमोधित अर्ध्या 'घोसणको ऊहलदिण्णकण्णएगग्गचित्तउवउत्तमाणसागं से पायताणीया हिवइ देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपरिसंतसि समाणंसि तहिं २ देसे महया २ सदेणं उग्घोसेमाणे २ एवं वयासीति' तेभन घोषणा જન્ય કૌતૂહલથી જેમણે તે ઘેષણાને સાંભળવામાં પેાતાના કાનેા લગાવ્યા છે અને એથીજ જેમના ચિત્તો એકાગ્ર થઈને ઘાષણા જન્ય કૌતૂલમાં ઉપયુક્ત થઇ રહ્યા છે. તથા શુભ્રુષિત વસ્તુના ગ્રહણ કરવામા જેમનુ મન ઉત્ક ંઠિત થઈ રહ્યું છે, એવા તે દેવા થઇ ગયાં ત્યારે તે પદ!ત્યનીકાધિપતિ ધ્રુવે તે ઘંટારવ પૂર્ણ રૂપમાં શાન્ત–પ્રશાન્ત થઈ ગયા ત્યારે ते स्थाना उपर लेर-लेरथी घोषणा अश्धुं 'हंत ! सुणंतु भवंतो बहुवे सोहुम्मकप्पवासी Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवाः देव्यश्च सौधर्मकल्पपतेः शक्रस्येदं वचनं हितसुखार्थम् हितं जन्मान्तरकल्याणवह मुखं तद्भवसंबन्धि-इहलोक परलोकसुखजनक तदर्थमाज्ञापयति खलु भो देवा ! शक्रः तदेव ज्ञेयम् यावत् अन्तिकम्-यत् प्रास्त्रे शक्रेण हरिनैगमेषिणः पुरतः उद्घोषयितव्यमादिष्टं यावत् तत्सर्व प्रादुर्भवत इति । 'तएणं ते देवा देवीओ य एयमदं सोचा हट्ट तुट्ठ जाव हिअया अप्पेगइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सकारवत्ति सम्माणवत्तिअंदसणवत्ति जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेअं एवमादित्ति कट्टु जाव प उब्भवंतित्ति' ततः पदात्यनीकाधिपतिर्देवमुखात् शक्रादेशश्रवणानन्तरं खलु ते देवाः देव्यश्च एवम् अनन्तरपूर्वकथितम् अत्थं' हे सौधर्मकल्पवासी देव और देवियों आप सब बडे हर्ष के साथ सौधर्मकल्पपति के हितसुखार्थ इन वचनों को सुनिये यहां 'हन्त' शब्द प्रकर्ष हर्ष का द्योतक है यह वचन जन्मान्तर में कल्याण का कारण है इसलिये हित स्वरूप है और इस भवमें सुखका दायक है अतः सुखार्थरूप है 'अणावईणं भी सक्के तं चेव जाव अंतिअं पाउभवहत्ति' वह हितसुखार्थक वचन सौधर्मकल्पपतिके इस प्रकार से हैं-कि आप सब शीघ्र ही यावत् शक्र के पास उपस्थित हों इस प्रकार जैसी घोषणा करने का आदेश पदात्यनीकाधिपति हरिनिगमेषी देवको शक्रने दिया था वह शब शक्र का आदेश 'आप सब शक्र के पास आकर उपस्थित हो जावे' यहांतक का उसने घोषणा करके सुनादिया 'तएणं ते देवा देवीओ य एयमढे सोच्चा हट्ट तुट्ट जाव हियया अप्पेगइया वन्दणवत्तियं एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तियं दंसणवत्तियं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया तं जीयमेयं एव मादित्ति कटु जाव पाउन्भवंतित्ति' इसके बाद वे देव और देवियां इस घातको सुनकर हृष्ट तुष्ट यावत् हर्ष से जिनका हृदय उछल रहा है ऐसी हो वेमाणिया देवा देवीओ य सोहम्मकप्पव इणो इणमो वयण हिययसुअर्थ र सौष ४५वासी દેવ અને દેવીઓ આપ સર્વે અતી આનંદ પૂર્વક સૌધર્મ કલ્પતિમાં હિતસુખાર્થ મારા मा क्य। सालणा-ही 'हन्त !' श६ प्रषष घोत छ. २॥ क्यन मान्तरमा પણ કલ્યાણ કારી છે એથી હિત સ્વરૂપ છે અને આ ભવમાં સુખદાયક છે, એથી સુખાર્થ ३५ छ 'आणवईणं भो सक्के त चेव जाव अति पउब्भवहत्ति' हित सुभाथ४ वयन સૌધર્મ ક૯૫પતિનું આ પ્રમાણે છે–કે આપ સર્વ શીધ્ર યાવત્ શકની પાસે ઉપસ્થિત થાઓ. આ પ્રમાણે પદત્યનીકાધિપતિ હરિનિગમેલી દેવને શકે જેવી ઘોષણા કરવાની આજ્ઞા કરી હતી, તે શક્રની “આપ સર્વે શકની પાસે શીઘ ઉપસ્થિત થાઓ “અહીં सुधानी माज्ञाने घे.षयाना ३५मा समीची . 'तए णं तं देवा देवीओय एयमद्वं सोच्चा हट्टतुटू जाव हियया अप्पेगइया वन्दणवत्तिय एवं पूअणवत्तियं सक्कारवत्तियं दंसण वत्तियं जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया त' जीयमेवं एवमादित्ति कटु जाव पाउन्भवतित्ति' ત્યાર બાદ તે દેવ અને દેવીઓ આ વાતને સાંભળીને હષ્ટતુષ્ટ યાવત્ હર્ષથી Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् अर्थ आहवान शब्दं श्रुत्वा हृष्टतुष्ट यावत् हृदयाः यावत्पदात् हृष्टचित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद् हृदशाः अप्येककाः केचन देवा देव्यश्च वन्दनप्रत्ययं वन्दनं अभिवादनं प्रशस्तकायवाङ्मनः प्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तदस्माभिस्त्रिभुवनभर्तृकस्य कर्तव्यमि: त्येवं निमित्त जन्मसमये वन्दनार्थममनरूपं एवं पूजनरत्ययम् पूजनम् अन्तःकरणेन नमस्करणम् तत्प्रत्ययम् तत्कारणकम् एवं सत्कारप्रत्ययम् सत्कारः स्तुत्यादिभिः गुणोन्नतिकरणं तत्प्रत्ययम् तनिमित्तं सन्मानप्रत्ययम् सन्मानः अञ्जलिपुटसंयोजनमभ्युत्थानादिलक्षणम् तत्प्रत्ययम् दर्शन प्रत्ययम् दर्शनम् ऋषभतीर्थकरस्य विलोकनम् तत्प्रत्ययम् तनिमित्तम् जिनभक्तिरागेण जिनप्रेमानुरागेण बा, अप्येकका केचित् देवादेव्यश्च अस्माकं देवानां देवीनां य तज्जीतमेतत्-आचारः, एषः यत् देवैजिनमहोत्सवे गन्तव्यम् एव मादी. त्यादिकम् आगमननिमित्तमिति कृत्वा चित्तेऽवधाय यावत् प्रादुर्भवन्ति प्रकटी भवन्ति ते देवा इति । अत्र यावत्पदात् 'अकालपरिहीणं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतिय' इति ग्राह्यम् । गई । इनमेंसे कितनीक देव देवियां इस अभिप्राय से शक इन्द्र के पास आई कि यहां चल कर हमलोग त्रिभुवन भट्टारक को प्रशस्तकाय वाङ् मनकी प्रवृतिरूप अभिवादन करेंगी कितनी देव देवियां इस अभिप्राय से इन्द्र के पास आई कि वहां चलकर हमलोग गन्ध माल्यादिक का अर्पग करते हुए प्रभुको अन्त:करण से नमस्कार करेगी कितनीक देव देवियां इस अभिप्राय से शक के पास आई कि वहां चल कर हमलोंग प्रभु की स्तुति आदि के द्वारा गुणोन्नति करेंगी कितनीक देव देवीयां इस अभिप्राय से शक के पास आई कि वहां चलकर हमलोंग प्रभु के समक्ष खडे होकर हाथ जोडेंगी, कितनीक देवदेवियां इस अभिदाय से शक के पास आई कि वहां चलकर हमलोग चरम तीर्थकर का दर्शन कर लेगी तथा कितनीक देवदेवियां जिनेन्द्र की भक्ति के उत्सव में जाना यह हमारा आचार है इत्यादि भिन्न-भिन्न अभिप्रायों से प्रेरित हुई शक के पास જેમના હદયે ઉછળી રહ્યા છે એવાં થઈ ગયાં. એ સર્વમાંથી કેટલાક દેવ–કેવીએ આ અભિપ્રાયથી શક-ઇન્દ્રની પાસે આવ્યાં કે અહીં અમે ત્રિભુવન ભટ્ટારક ને, પ્રશસ્ત કાય, વાહ મનની પ્રવૃત્તિ રૂપ અભિવાદન કરીશું. કેટલાંક દેવ-દેવીઓ આ અભિપ્રાયથી ઈન્દ્રની પાસે આવ્યાં છે ત્યાં જઈને અમે ગન્ધ, માથાદિકનું અર્પણ કરીને પ્રભુને અન્તઃકરણ પૂર્વક નમસ્કાર કરશું. કેટલાક દેવ-દેવીઓ એ અભિપ્રાયથી શક પાસે આવ્યા કે ત્યાં જઈને પ્રભુની સ્તુતિ વગેરે દ્વારા અમે પ્રભુની ગુણેન્નતિ કરીશું. કેટલાંક દેવ-દેવી છે એ અભિપ્રાયથી શક પાસે આવ્યા કે ત્યાં જઈને અમે પ્રભુની સામે ઊભા થઈને હાથ જોડી શું. કેટલાંક દેવ-દેવીઓ આ અભિપ્રાયથી શક્ર પાસે આવ્યા કે ત્યાં જઈને અમે ચરમ તીર્થકરના દર્શન કરીશું. કેટલાક દેવ-દેવીએ જિનેન્દ્રની ભક્તિના અનુરાગથી અને કલાંક દેવ-દેવીઓ જિન જન્મના ઉત્સવમાં જવું આ અમારે આચાર છે. વગેરે Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र : सम्प्रति शक्रेन्द्रस्य कर्तव्यमाह-'तए णं' इत्यादि 'तए णं से सके देविंदे देवराया ते विमाणिए देवे देवीओ य अकालपरिहीणं चेव अंतियं पाउम्भवमाणे पासइ' ततः देवानां देवीनां च शक्राग्रे उपस्थितानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजस्तान् बहून् वैमानिकान् देवान् देवींश्च अकालपरिहीणम् निर्विलम्बम् एव अन्तिकं समीपं प्रादुर्भवन्तः उपतिष्ठमानान् पश्यति 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'हटे पालयं णामं आभिओगियं देवं सदावेई' दृष्ट्वा हृष्टः सन् पालक पालकनामविमानविकुणाकारणमाभियोगिकम् आज्ञाकारिणं देवं शब्दयति आवयति स शक्रः, अत्र हृष्ट इति एकदेशेन सर्वोऽपि हर्षालापको ग्राह्य तथा च हृष्ट तुष्टचित्तानन्दितः प्रीतिमानाः परमसौमनस्यितः हर्षवशविसर्पहृदयः इति हृष्टपदेन ग्राह्यम् 'सदावित्ता' शयित्वा आहूय एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् इत्याह 'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिए' क्षिप्रमेव अतिशीघ्रमेव भो ! देवानुप्रिये 'अणेगखंभसयसगिविटुं' अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टम् 'लीलट्टियसालभंजिआकलिअं' लोलास्थितशालभञ्जिकाकलितम् 'इहामिगउसभतुरगणरमकरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजर वणलयपउमलयभत्तिचित्तम्' ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगवालककिन्नर रुरुशभरचामर आई । 'तए णं से सक्के देविदे देवराया ते विमाणिए देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चेव अंतिअं पाउन्भवमाणे पासई' देवेन्द्र देवराज शक्रने विना विलम्ब किये अपने पास आगत उन देव देवियों को देखा तो उसने 'पासित्ता' देखकर 'हढे पालयं णामं आभियोगियं देवं सद्दावेइ' हर्षित होकर पालक नामक आभियोगिक देवको बुलाया 'सद्दावित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उसने ऐसा कहा 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखम्भसयसनिविटं लोलट्टियसालभंजिया. कलिअंईहामिअ उसमतुरगणर मगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभ चमर कुंजरबणलयपउमलयभत्तिचित्तं' हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही एक दिव्य यान की विकुर्वणाकरो जो यान विमान सैंकडो खंभोवाला हो, तथा लीला करती हुइ अनेक पुत्तलिकाओं से यह युक्त हो, ईहा भूग, वृषभ, तुरग, नर, मकर, वगैरे मिन्न मन्न मनिप्रायोको प्रेरित थ न शनी पास भाव्या. 'त एणं से सक्के देवि दे देवराया ते विमाणिए देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चेव अति पाउब्भवमाणे पासह દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકે વિના વિલંબે તેમની પાસે આવેલાં તે દેવ-દેવીઓને જે વાં. તે सवात 'पासित्ता' ने 'हटे पालयं णामं आभियोगियं देवं सदावेइ' ति ने पास नाम मानिय हेपने माताये.. 'सावित्ता एवं वधासी' अन मासावीन तेश मा प्रभारी यु-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखम्भसयसन्निविट्ठ लीलद्वियसालभंजिया कलिअं ईहामिअउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउम यभत्तिचित्त' , हेवानुप्रिय! तमे शी५ मे ८६०५ याननी पिए। ४२॥ २॥ થાન-વિમાન હજારે સ્તંભેવાળું હોય, તથા લીલા કરતી અનેક પુનલિકાઓથી मुशासित .य, हाय, वृषभ, तु२१, २२, भ४२, वि, व्यास, हिन२, ३३-भृग Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् कुञ्जरवनलता पद्मलताभक्तिचित्रम् 'खंभुग्गय वइरवेइयापरिगयाभिरामं स्तम्भोद्ग तवज्रवेदिका परिगताभिरामम् 'विजाहरजमलजुअलजंतजुत्तपिव अच्चीस हस्समालणी' विद्याधर यमलयुगलयन्त्रयुक्तमिव अर्चिसहस्रमालिनीयम् 'रूवगसहस्सकलियं व' रूपकसहस्रकलितम् 'भिसमाणं भिब्भिसमार्ण' भास्यमानं बाभास्यमानम् 'चक्खुल्लोअणलेस्सं सुहफासं सस्सिरीअरूवं' चक्षुलॊचनलेश्यम् सुखस्पर्शम् । सश्रीकरूपम् 'घंटावलिय महुरमणहरसरं' घण्टाबलिकमधुरमनो हरस्वरम् 'सुहं कंतं दरिसणिज्ज' शुभं कान्त दर्शनीयम 'णिउणोविअ मिसिमिसिंतमणिरयणघंटिआजालपरिक्खित्तं निपुणोपेत 'मिसिमिसिंत' देदीप्यमानमणिरत्नघण्टिकाजाल परिक्षिप्तम् 'जोयणसहस्सविच्छिण्णं' योजनसहस्र विस्तीर्ण 'पंचजोयणसयमुग्विद्धं सिग्धं तुरिअं जइणं' पञ्चयोजनशतोच्चत्वम् शीघ्रम् त्वरितं जवनं अतिशयवेगवत 'णिवाहि' निर्वाहि प्रस्तुत कार्य निर्वहणशीलम् 'दिव्यं जाणविमाणं विउव्वाहि दिव्यं यानविमानं विकुर्वस्व विकुर्वणाशक्त्या निष्पादय, एतेषामर्थः अस्मिन्नेव पञ्चमवक्षरकारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यः, नवरम् योजनसहस्रविस्तीर्णमित्यत्र प्रमाणाङ्गुलनिष्पन योजनलक्ष विज्ञेयम् विउवित्ता' विकुळ विकुर्वणाशक्त्या निष्पाद्य 'एयमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि' एताम् उक्त प्रकारामाज्ञप्तिकाम् प्रत्यर्पय समर्पय एवं पालकाय आज्ञातिवान् इति ॥ सू० ४ ॥ विहग, व्याल, किन्नर, रुरु-मृग, सरभअष्टापद, कुंजर-हाथी, वनलता एवं पश्नलता, इन सबके चित्रों की रचना से आश्चर्यप्रद हो, इसके प्रत्येक खंभे में वज्रकी वेदिका हो और उससे यह-अभिराम हो, इत्यादि रूप से इसका वर्णन 'जइणणिवाहि' पद तक का जैसा इसी वक्षस्कार के ५ वे सूत्र में यान विमान का वर्णन पीछे किया जा चुका है वैसा ही वह यहां जानना चाहिये इन समस्त पदों की व्याख्या भी वहीं पर की जा चुकी है अतः वहीं से देखलेनी चाहिये इसे जो १ हजार योजन का विस्तीर्ण कहा गया है सो वह योजन प्रमाणागुल से निष्पन्न हुआ योजन ही गृहीत हुआ है ऐसा जानना चाहिये उत्सेधाङ्गुल से निष्पन हुआ योजन नही जानना चाहिये 'विउवित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहिं' ऐसे यान विमान की विकुर्वणा करके हमें शीघ्र पीछे खवर दो॥४॥ સરભ, અષ્ટાપદ, કુંજર- હાથી, વનલતા તેમજ પલતા એ બધાનાં ચિત્રોની રચનાથી એ આશ્ચર્ય પ્રદ હોય, એના દરેક સ્તંભમાં વજની વેદિકા હોય અને એનાથી એ અભિराम दातु डाय इत्यादि ३५मां या यान-विमाननु वन 'जइणणिव्वाहि' ५४ सुधी જેવું આ જ વક્ષસ્કારના પાચમાં સૂત્રમાં પહેલાં યાન-વિમાનના પ્રસંગ વખતે કરવામાં આવેલું છે તેવું જ વર્ણન અહીં પણ સમજવું. એ બધા પદની વ્યાખ્યા પહેલાં કરવામાં આવી છે. જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી વાંચવા પ્રયત્ન કરે. આને જે ૧ હજાર જન જેટલું વિસ્તીર્ણ કહેવામાં આવેલું છે, તે જન પ્રમાણગુલથી નિપન્ન થયેલ જન જ ગૃહીત थये। छे. त्सेधांशुस्था नियन्न थयेयौन atyan न8. 'विउवित्ता एयमाणत्तिय पच्चप्पिणाहि' मेवयान-विभाननी । ४रीने मभन तरत ५०२ माया ॥ ४ ॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अथ शक्रज्ञप्तिस्वीकारानन्तरं यदनुतिष्ठतिस्म पालको देवस्तदाह-'तएणं से इत्यादि . मूलम्-तए णं से पालयदेवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवंवुत्ते समाणे हदृतु जाव वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणित्ता तहेव करेइ इति। लस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा षण्णओ तेसिं णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा वण्णओ जाव पडिरूवा१। तस्स णं जाणविमाणस्त अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे से जहाणामए आलिंगपुवखरेइ वा जाव दीवियचम्मेइ वा एवं अणेग संकुकीलकसहस्तक्तिते आवड पच्चापड सेढिपसेढि सुत्थिअ सोवस्थिय वद्धमाणपूसनाणवमच्छंडगमगरंडगारमारफुल्लावलीपउमपत्त सागरतरंगवसंतलयरउनलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीइएहिं सउज्जोएहिं णाणाविह पंचत्रणेहि मणीहि उवसो भिए२ तेसिं णं मणीणं वण्णे गंधे, फासे अ भाभियव्वे जहा रायप्पसेणइज्जे । तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसाए पेच्छाघरमंडवे अणेगखंभसयसन्निविटे वण्णओ जाव पडिरुवे तसा उल्लोए पउमलयत्तिचिले जाव सव्व तवणिज्जमए जान पडिलवे, तस्स णं मंडवस्स बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्त बहुमज्झदेसभागसि महं एगा मणिपेडिया अटु जोयगाइं आयाभविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमइ वण्णओ तीए उवरिं महं एगे सीहासणे वषणओ तस्सुवरि महं एगे विजयदूसे सव्वरयणानए वण्णओ तस्स मज्झदेसभाए एगे वइरामए अंकुसे एत्थ णं महं एगे कुम्भिक्के मुतादामे से णं अण्णेहिं तदधुच्चत्तप्रमाणमित्तेहिं चउहिं अद्धकुम्भिक्केहिं मुत्तादामेहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते तेणं दमा तणिज्जलंबूलगा सुवण्णपय रगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउक्सोभिया ससुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुवाइएहिं वापहिं मंदं २ एइजसाणा जाव णिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २ जाव अईव उवलोभेमाणा २ विट्रति त्ति तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तर Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रशानुसारेण विकुषणादिकम् ६३३ पुरस्थिमेगं एत्थ णं सक्कस्स चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं चउरासीइ भदासणसाहस्सीओ, पुरस्थिमेणं अटण्हं अग्गमहिसीणं एवं दाहिण पुरस्थिमेणं अभितरपरिसाए दुवालसाहं देवसाहस्सीणं दाहिणेणं दाहिणेयं मज्झिमाए च उदसण्हं देवसाहस्तीणं, दाहिणपञ्चस्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं पञ्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिबईणं त्ति आयरक्खदेवसाहस्तीणं एवमाई विभासिअब्ध सुरिआभगमेणं जाव पच्चप्पिणंति ति ॥सू. ५॥ ___ छाया-ततः खलु पाल को देवः शक्रेग देवेन्द्रेण देवराजेन एवमुक्तः सन् हृष्ट तुष्ट यावत् वैक्रियसमुद्घातेन समवहत्य तथैव करोति, इति तस्य खल दिव्यस्य यानविमानस्य त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकाः वर्णकः 'तेषां खलु प्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणा यावत् प्रतिरूपा १ तस्थ खलु यानविमानस्य अन्तः बहुसमरमणीयो भूमिभागः स यथा नाम आलिङ्गपुष्कर इति या यावत् दीपितचर्म इति वा, अनेकशंकुकीलकसहस्रवितते, आवर्तप्रत्यावर्त श्रेणि प्रश्रेणि मुस्थित तौवस्थिकार्धमान पुष्यमा क मस्यण्डकमकरण्डकजारमार पुष्गवली पन पत्र सागरतरङ्ग वासन्तीलतापद्मलताभक्तिचित्रैः सच्छायैः सप्रभैः समरीचिकैः सोद्योतः नानाविधपश्चवर्णेः मणिभिः उपशोभितः २' तेषां खलु माणीनां वर्णों गन्धः मध्यदेशभागे प्रेक्षागृहमण्डपः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टे वर्णको यावत्प्रतिरूपः । तस्योल्लोका पालना भक्तिचित्रो यावत्सर्वतपनीयमयः यावत्प्रतिरूपः। तस्य खलु मण्डपस्य बहुसमरमणीयस्य बहुमध्यदेशभागे महती एका मणिपीठिका अष्ट योजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बाहल्येन सर्वमणिमयीवर्णकः, तस्या उपरि मह देकं सिंहासनम् वर्णकः तस्योपरि महदेकं विजयदृष्यं सर्वरत्नमयम् वर्णकः, तस्य मध्यदेशभागे एको वज्रमयः अंकुशः, अत्र खलु महान् एकः कुम्भिको मुकादामः, स खलु अन्यैः तदर्द्ध चतुः प्रमाण मितैश्चतुभिरर्द्धकुम्भिकैः, मुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, ते खलु दामानः तपनीयलंबूषकाः सुवर्णपत्रकमण्डिताः नानामणिरत्न विविधहाराहारोपशोभिताः समुदयाः अन्योन्यमसंप्राप्ताः पूर्वादिकैः वातैः मन्दमेजमाना एजमाना यावत् निवृत्तिकरेण शब्देन तान् प्रदेशान् आपूर्यमाणा आपूर्यमाणाः यावदतीयोपशोभमाना, उपशोभमानास्तिष्ठन्तीति, तस्य खलु सिंहासनस्य अपरोत्तरेण उत्तरेण उत्तरपौरस्त्येन भत्र खलु शक्रस्य चतुरशीतेःसामानिकसहस्राणां चतुरशीतिः भद्रासनसहस्राणि पौरस्त्येन अष्टानामग्रमहीषीणाम्, एवं दक्षिणपौरस्त्येन आभ्यन्तरपरिषदो द्वादशानां देवसहस्राणां दाक्षिणात्येन मध्यमायाः चतुर्दशानां देवसहस्राणां दक्षिणपाश्चात्येन बाह्यपरिषदः पोडशानां देवसहस्राणां पाश्चात्येन सप्तानाम् अनीकाधिपतीनाम् इति, ततः खलु तस्य सिंहा. सनस्य चतुर्दिाशे चतसूणां चतुरशीतीनामात्मरक्षकदेवसहस्राणाम् एवमादि विभाषितव्यम् Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ सूर्याभगमेन यावत्प्रत्यर्पयन्ति इति ॥ सू. ५ ॥ टीका- 'तए णं से पालए देवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवं वृत्ते समाणे हट्ट तुट्ट जाव souravari समोहणित्ता तहेव करे' ततः शक्रादेशस्वीकारान्तरं खलु स पालको देव: शक्रेण देवेद्रेण देवराजेन एवम् उक्तप्रकारेण उक्तः कथितः सन् दृष्ट तुष्ट यावत् वैक्रियसमुद्घातेन विकुर्वणा शक्त्या समवहस्य कृत्वा तथैव करोति शक्राज्ञप्त्यनुसारेणैव पालकविमानं निर्मातीत्यर्थः अत्र यावत् पदात् चित्तारन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद हृदयः इति ग्राह्यम् अथ विमानस्वरूप वर्णनायाह - ' तस्स णं' इत्यादि 'तरस णं दिव्यस्स जाणविमाणस्स तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा वण्णओ' तस्य खलु दिव्यस्य यानविमानस्य त्रिदिशि भाग त्रयः त्रिसोपानप्रतिरूपकाः अतिरम्य सोपानत्रयमित्यर्थः वर्णकः अस्य वर्णनं बोध्यम् 'तेसि णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा वण्णओ जाव पडिरुवा' तेषां खलु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः अग्रे प्रत्येकं प्रत्येकं तोरणानि बहिर्द्वाराणि 'मेरूराव' इति भाषा 'तएण से पालए देवे सक्के णं देविदेणं देवरण्णा' 'तए णं से पालए देवे सक्केणं देविदेणं देवरण्णा एवंधुत्ते समाणे' देवेन्द्र देवराज शक्र द्वारा इस प्रकार से कहे उस पालक देवने 'हट्ट तुट्ट जाव वेउब्विय समुग्धारणं समोहणित्ता तहेव करेह' हृष्ट-तुष्ट यावत् होते हुए वैक्रिय समु द्घात करके उसी तरह से यान विमान का निर्माण किया 'तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा वण्णओ' उसने उस दिव्य यान विमान की तीन दिशाओं में तीन सोपान प्रतिरूपकों की विकुर्वणा की उसका वर्णन यहां पहिले कहे गये वर्णन के अनुसार कहलेना चाहिये 'तेसिं णं पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा वण्णओ जाव पडिरुवा' इन तीन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के अतिरम्य सोपानत्रय के आगे अर्थात् प्रत्येक सोपानत्रय के बहिछोरों - महरावों की विकुर्वणा की इनका वर्णन 'प्रतिरूप' पद तक जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे 'तरण से पालए देवे सक्केण देविदेणं देवरण्णा' इत्यादि 'तएणं से पालए देवे सक्केणं देवि देणं देवरण्णा एवं वुने समाणे' हेरेन्द्र देवराज શરુ વડે આ પ્રમાણે આજ્ઞપ્ત થયેલા તે પામ બાદ ક્રિય સમુદ્ઘાત કરીને मोहणित्ता तहेव करेइ' हृष्ट तुष्टाव थयेला ते पास याज्ञामुयान विभाननी विकुर्वाणा री ' तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स - दिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा वष्णओ' तेथे ते हि यान-विभाननी त्रयु द्विशाखमां ત્રણ સોપાન પ્રતિરૂપકની વિધ્રુણા કરી. અહીં પહેલાં મુજબ જ વર્ષોંન સમજી લેવું 5. 'तेसिंणं पडिवगण पुरओ पत्ते २ तोरणा वण्णको जाव पडिरूवा' मा शु ત્રિસોપાન પ્રતિરૂપકેાન! અતિ રમ્ય સોપાન ત્રયની સામે એટલે કે પ્રત્યેક સોપાન યના Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रज्ञानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३५ प्रसिद्धानि वर्णको यावद, प्रतिरूपाणि-अतिरभ्याणीत्यर्थः 'तस्स णं जाणविमाणस्स अंतोबहुसमरमणिजे भूमिभागे' तस्य खलु यानविमानह्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीये भूमिभागे 'से जहानागए अलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीविश्चम्प्रेइ वा, स यथानामकः, अलिङ्गपुष्कर इति वा अतिरम्प कमल मिति वा, यावत् दोषित धर्म इति वा 'अणेगसंकुकीलकसहस्स वितते' अनेक शङ्क कीलकसान विततः अनेकसास्रशंकुकीलकविस्तृतः 'आवडपच्चावडसेहिपसेडि मुस्थिय सोवत्थिा बद्धमाण पूसमाणमच्छडगमगरंडग जारमारफुल्लावलीपउमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहि' आपत् प्रत्यापन श्रेणिप्रश्रेणि सुस्थितस्वस्तिक बर्द्धमानपुष्यमाणमत्स्यण्डकमकरण्डक जारमा पुष्पावलीपद्मपरसागरतरंगवासन्तीलता पद्मलता भक्तिचित्रैः। तत्र आपर प्रत्याप श्रेणीप्रश्नणीषु विमानस्य आरोहणप्रत्यारो. हणसोपानप्रसोपानैकदेशेषु स्थितानि यानि स्वस्तिकादि पमलतानां भक्तिचित्राणि विभागचित्राणि तैः, तथा 'सच्छाएहिं सच्छायैः छायासहितः 'सप्पभेहि सप्रभैः प्रभायुक्तः 'समरीइएहि' समरीचिकैः किरणयुक्तैः 'उज्जोएहि सोद्योतः उद्योतसहितैः 'णाणाविहपंचवण्णेहिं मणी हिं उत्सोभिए' नानाविधपञ्चवर्णेः मणिभिः पञ्चवर्णात्मकैः अनेकरत्नैरुपशोभितः स जैसा पीछे किया गया है-वैसाही वह यहां पर करलेना चाहिये 'तस्स णं जाणविमाणस्त अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे' उस यान विमान के भीतर का भूमिभाग बहुसगरमणीय था से जहां नामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीवियचम्नेह वा' वह भीतर का भूमिभाग ऐसा बहुसभरमणीय था जैसा कि मृदङ्गका मुख एवं यावत् चीता का चडा होता है 'अणेग संकुकीलक सहस्स वितते' उस यान विमान को हजारों कीलों और हाकुओं से मजबूत किया गया था 'आवडपच्चावड सेढिपसेढि सुत्थिासोपत्थियवहाणपूसबाणव मच्छंउगमगरंडग जार मारकुल्लावलीपउमपत्त सागरलरंगवसंतलय पउमलय भत्तिचितेहिं सच्छाएहिं सपभेहिं साइएहिं स उज्जोएहिं जाणाविह पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए' इस सूत्रपाठ से लेकर 'तेसिंगं मणीनं वण्णे गंधे, फासे, य भाणियवे' इस पाल शिनी विमा ४. 2 नु न 'प्रतिरूप' ५६ सुधीर प्रमाणे पसi २५७८ ४२वाभाव छ, मी ५५ सम गणे. 'तस्स णं जाव विमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे ते यान विमाननी ही भूमिमा म सभरभणय तो. 'से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव दीवियचम्मेइ वा' ते २५४२ना भूमि मा भृग भुपयारत् यित्ताना यम । म समरमाय cal. 'अणेग संकु कीलकसहस्सवितते' ते यान विमानन ॥३॥ ही मन शत्रुजीना भए। सामे 2ी श ते रात भर मृत ४२वाम माव' . 'आवडपच्चावडसोढिपसेढि सुत्थि अ सोवत्थियवद्धमाण पूसमागव मच्छंडगमगरंडग जारमारफुल्लावलीप उमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहि सप्पभेहि समरीइएहिं सउज्जोएहि Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂ अम्बुद्वीपप्राप्तिसूत्रे यानविमानः 'तेसि णं मणीणं वण्णो गंधे फासे य भाणियत्वे जहा रायपसेण इज्जे' तेषां खलु मणीनां वर्णो गन्धः स्पर्शश्व भणितव्यो यथा राजप्रश्नीये द्वितीयोपाङ्गे, त्रिसोपानादि वर्णको जीवाभिगमादी विजयद्वारवर्णने द्रष्टव्यम् अत्र प्रेक्षा गृहमण्डपवर्णनाय प्राह 'तस्स णं' इत्यादि 'तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए पिच्छाघरमंडवे अणेगखंभससंणि विढे वण्णओ जाव पडिरूवे' तस्य खलु भूमि भागस्स बहुमध्यदेशभागे प्रेक्षागृहमण्डपः अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टः- अनेकशतानि स्तम्भाः सनिविष्टाः संलग्नाः यत्र सोऽनेकशतस्तम्भसन्निविष्टः वर्णको यावत् प्रतिरूपः अतिशयमनोहर इत्यर्थः उपरिभागवर्णनाय प्राह-'तस्स उल्लोए' इत्यादि 'तस्स उल्लोए पउमलयभतिचित्ते जाव सव्वतवाणिज्जमए जाव पडिरूवे' तस्योल्लोकः उपरिभागः पद्मलता भक्तिचित्रः यावत् सर्वात्मना तपनीयमयः सुवर्णमयः यावत्प्रतिरूपः अतिरम्यः, अत्र प्रथम यावत् शब्देन अशोकलता भक्तिचित्रः इत्यादीनां संग्रहः-द्वितीय यावच्छब्देन 'अच्छे सण्हे' अच्छ: स्वच्छः श्लक्ष्णः, इत्यादीनां संग्रहः । ___ अथात्र मणिपीठिकावर्णनाय प्राह-- 'तस्स णं' इत्यादि 'तस्स णं मंडवस्स बहुसमरमणिसूत्रपाठ तक का सब वर्णन पहिले 'जहा रायप्पसेणइज्जे' राजप्रश्नीय सूत्र में किया जा चुका है सो वहीं से देखलेना चाहिये यही बात 'जहा रायप्पसेणइज्जे' इस सूत्रपाठ द्वारा सूचित की गई है। 'तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झ देसभाए पेच्छाघरमंडवे अणेग खंभसयसनिविटे वण्णओ जाव पडिहवे' इस भूमिभाग के ठीक बीचचीच में उसने प्रेक्षागृह मंडप जो कि सैकडों स्तम्भों से युक्त था विकुर्वित किया इसका वर्णन यावत् प्रतिरूप पद तक जैसा पहिले किया गया है वैसा ही वह यहां पर भी करलेना चाहिये 'तस्त उल्लोए पउमलय भत्तिचित्ते जाव सव्व तवणिज्जमए जाव पडिल्वे' इस प्रेक्षागृह मंडप का उपरिभाग पद्मलता आदि के रचना से विचित्र था और सर्वात्मना तपनीयमय 'सुवर्णमय, था यावत् प्रतिरूप-अतिरम्य था 'तस्स णं मंडवस्स बहुसमरमणिणाणाविहपंचवण्णेहि मणीहि उवसोभिर' मा सूत्रपा४थी मान 'तेसिणं मणीणं वण्णे गंधे, फासे, य भाणियव्वे' मा सूत्रपाई सुधार्नु मधुवन रस २४ પ્રશ્રીય સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું છે. તે જિજ્ઞાસુ વાચકે ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયત્ન કરે. से वात 'जहा रायपसेणइज्जे' ॥ सू५.3 43 सूयित ४२वाम पीछे. 'तस्स णं भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए पेच्छाघरमंडवे अणेगखंभसयसन्निविटे वण्णओ जाव पडिरूवे' त भूमिलाना 818 मध्य भागमा तेले ६०२। स्त'साथी युत प्रेक्षा७४ (भ७५) વિકર્ષિત કર્યું. આનું વર્ણન યાવત પ્રતિરૂપ પદ સુધી જે પ્રમાણે પહેલા કરવામાં આવ્યું छ, ते ४ मी. ५४४ सभा. 'तस्स उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव सव्य तवणिजमए जाव पडिरूवे' मा प्रेक्षा मपन। 8५२ मा ५मतता पोरेनी २यनाथी વિચિત્ર હતું અને સર્વાત્મના તપનીયમય–સુવર્ણમય હતે યાવત્ પ્રતિરૂપ અતી ૨૫ Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रशानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३७ ज्जरस बहुमज्झ देस मार्गसि महं एगा मणिपेढिया अजोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि - जोयणाई बाहल्लेणं सन्वमणिमयी वण्णओ' तस्य खलु मण्डपस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभाग बहुध्यदेश भागे महती एका मणिपीठिका अष्टौ योजनानि आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनानि बाहल्येन स्थूलतया चन्द्रकान्तादि सर्वमणिमयी, वर्णकः 'तीए उवरि महं एगेतीहासणे दण्णओ' तस्या उपरि एकं महत् सिंहासनम् वर्णकः अस्य वर्णनं विजयद्वारस्थ प्रकण्ठकप्रासादगतसिंहासनसुत्रवद् अवसेयम् 'तस्सुवरिं महं एगे विजयदुसे सन्दरयणामए वण्णओ' तस्य सिंहासनस्यउपरि महत् एकं विजयदुष्यं - विजय वस्त्रं सर्वरत्नमयम् वर्णकः, 'तस्स मज्झ देसभाए एगे वइरामए अंकुसे' तस्य मध्यदेशभागे एको वज्रमयः अंकुशः, 'एत्थ महं एगे कुंभिक्के ज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेखभागंमि महं एगा मणिपेढिया अट्ठजोयणाई आयामवित्त्वं मेणं चत्तारिजोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमयी वण्णओ' इस प्रेक्षागृह मंडप का बहुसमरमणीय जो भूमिभाग था उसके ठीक बीचमें उसने एक विशाल मणिपीठिकाकी जो कि आठ योजन की लम्बी-चौढी थी और चार योजन की मोटी थी एवं सर्वात्मना मणिमय थी विकुर्वणा की इसका भी वर्णन पीछे किये गये वर्णन अनुसार ही है 'तीसे उबरिं महं एगे सीहासणे' वण्णओ' उस मणिपीठिका के ऊपर उसने एक विशाल सिंहासन की विकुर्वणा की इसका भी यहां पर वर्णन कर देना चाहिये 'तस्वरि महं एगे विजय दूसे सव्वरयणामए वण्णओ' उस सिंहासन के ऊपर उसने एक सर्वरत्नमय विजय दूष्य कीविजयवन्त्र की विकुर्वणा की इसका भी वर्णन करलेना चाहिये 'तस्स मज्झदेसभाए एगे बहरानर अंकुसे' उसके ठीक मध्य भाग में उसने एक वज्रमय ते 'तस्स मंडवरस बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्त बडुमज्झसभागमि महं एगा मणिपेढिया अड जोयणाई आयामविभेगं चचारि जोबणाई बाहल्लेणं सव्व मणिमयी वण्णओ' આ પ્રેક્ષાગૃહ ભડપના જે બહુસમરમણીય ભૂમ ભાગ હતા, તેના ઠોક મધ્યભાગમાં તેણે એક વિશાળ મણિપીડિયાની કે જે આઠ યાજન જેટલી લાખા અને પહાળી હતી, અને સર્વાત્મના મણિમય હતી વિકુા કરી. ા મણપીઠિકાનું વન પણ પહેલાં કરવામાં आवेसा वर्शन भुम्म ४ छे. 'तीसे उपरि महं एगे सीहासणे 'वण्णओ' ते भि પીઠિકાની ઉપર તેણે એક વિશાળ સંહાસનની વિધ્રુણા કરી. એ સંહાસનનું પણુ અત્રે वार्जुन भरी सेवु ले 'तस्सुवरि महं एगे विजयदूरों सव्वश्यगामर वण्णओ' ते सिंहा सननी (५२ तेथे भेङ सर्वरत्नमय विश्यष्यना-विश्य-पखनी-विडुया ४री मेनु પણ વણૅન કરી લેવું જોઈ એ. 'तर मज्झतभाए एगे बइरामए अंकुपे' लेना ठीक मध्य (१) इसका वर्णन विजयद्वारस्थ प्रकण्ठक प्रासादगत सिंहासन के सूत्रानु सार जान लेना चाहिये । (૧) આનુ વર્ણન વિજય દ્વારસ્યું પ્રકઠક પ્રાસાદેગત સૂત્રાનુસાર સમજી લેવુ જોઇએ. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुत्तादामे' अत्र खलु महान् एकः कुम्भिकः कुम्भिपरिमाणो मुक्त दामा मुक्तामाला, 'से णं अन्नेहिं तदधुच्यत्तपमाणमिोहिं चउहि अद्धक्कुंभिक्के हिं भुत्तादामे हि सयो समंता संपरि. क्खित्ते' स खलु मुक्तादामा अन्यैस्तदर्द्ध चतुःप्रमाणभितः, चतुर्भिरर्दकुम्भिकैर्मुक्तादामभिः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः सम्यक्युक्तः इत्यर्थः, ते णं दामा तपणिज्जलंबूसगा' ते खलु दामानः, तपनीयलम्बूषकाः तत्र लम्बूषः इन्दुकाकारआभरणविशेषः तथा च सुवर्णनिर्मितकन्दुकाकाराभरेणैः, इत्यर्थः 'मुवण्णपयरगमंडिया' सुवर्णपत्रकमण्डिताः सुवर्णपत्रकैः शोभिताः 'णाणामणिरयणावेविहहारहारउपसोभिया' नानामणिरत्नविविधहारार्द्धहारोपशोभिताः मण्डिता इत्यर्थः 'समुदया' समुदायाः 'इसिं अज्णमण्णमसंपत्ता' इषद् अन्योन्यमसंप्राप्ताः 'पुबाइएहिं कारहिं मंदं एइज्जमाणा मंदं एइज्जमाणा' पूर्वादिकैः वातैः वायुभिः मन्दमेजमाना मन्दमेजमाना स्वल्पं यथास्यात्तथा कम्पमाना इत्यर्थः जाव निवुइकरेण स देणं ते पएसे आपूरेमाणा आपूरेमाणा' यावत् निवृतिकरण शब्देन तान् प्रदेशान् अपूरयन्त आपूयन्तः अत्र यावत्पदान अंकुश को विकुवेगा की 'एत्यगं नहं एगे कुम्नरके मुत्तादामे' यहां फिर उसने बुम्भ प्रमाण एक विशाल मुक्ता मालाको विकुर्वणा की 'से णं अण्णेहि तदधुच्चत्तप्पमाणमित्तेहिं चरहिं अद्धकुम्भिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' यह मुक्कामाला अन्य मुक्कामालाओं से जो अपने प्रमाण से ऊंचाई में आधी थां और चार अर्धकुम्ब परिमाणवाली थी चारों ओर से अच्छी तरह से घिरी हुई थी 'तेग दामा तवणिज लंबसगा सुवण्णाघरगमंडिया णाणानणरयण विवहहारद्धहारउयसोभिया समुदया ईसिं अण्णनण्णमसंपत्ता सुधाइएहिं वाएहि लंद २ एज्जभाणा जाव णिचुइ करेणं सद्देणं ते पएसे आधूरेमाणा २ जाव अईच श्वसोभेनाणा २ चिट्ठति त्तिये मालाएं तपनीय सुवर्णनिमित कन्दूक के जैसे आभरण विशेषों से सहित थी सुवर्ण के पतरकों से मण्डित थीं नाना मणियों से, अनेक प्रकार के हारों से लाभ तो ये ११मय मा वि 3sी. एत्था महं एगे कुम्भिके मुत्तादामे' माही १ तेथे सभा मे विश. मुरमानी वा ४री से णं अण्णेहि तदधुच्चत्तपमाणवित्तेहि चउहि अद्धकुम्भिक्केहि भुत्तादाभेहिं सबओ समंता संपरिक्खित्ते' २५ मुस्तामा २५न्य मुतामामासाना 44भाभा यी હતી અને ચાર અર્ધ કુંભ પરિમાણવા હ. ચેર સારી રીતે પરિવૃત હતી. 'तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुबष्णपयरगमंडिया णाणामणियणविविहहारद्धहारउवसोभिया समुदया ईसिं अण्णण्णमसंपत्ता पुयाइरहि वाएहिं नई २ एइजमाणा जाव णिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे आपूरेमाणा २ जाव अईव उक्सोमेमाणा २ चिति त्ति' એ માળાઓ તપનીય સુવર્ણ નિર્મિત કÇક જેવા આભરણ વિશેષ થી સમલંકૃત હતા. સુવર્ણના પત્રોથી મંડિત હતી વિવિધ મણિઓથી, વિવિધહારોથી, અદ્ધ હાથી ઉપશે Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ५ पालकदेवेन शक्रज्ञानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६३९ 'वेइज्जमागा वेइज्जमाणा पलंबमाणा २ पझंझमाणा २ ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं' इति संग्रहः व्येज्यमाना २ प्रलम्बमानाः २ पझंझमाणा २ शब्दं कुर्वन्तः २ उदारेण मनोज्ञेन मनोहरेण 'जाव अईव २ उवमोभेमाणा २ चिटंतित्ति' यावत् अतीव २ उपशोभमानाः २ तिष्ठन्तीति, यावत्पदात् 'ससिरीए' सश्रीमाः इतिग्राह्यम् । सम्प्रति अत्रास्थाननिवेशनप्रक्रियामाह-'तस्य णं' इत्यादि 'तस्स णं सीहासणस्स आरुत्तरेणं' तस्य खलु सिंहासनस्य अपरोत्तराया अत्र इत आरभ्य सर्वत्र सप्तम्यर्थ तृतीया, तभाव-अपरोत्तराणां वायपामित्यर्थः 'उत्तरेणं'-उत्तरस्मात् 'उत्तरपुरस्थिमेणं' उत्तरपूर्वायाम् ऐशान्याम् 'एत्थ णं सक्कस्प चउरासीए सामाणिभसाहस्सीणं चउरासीए भदायणसाहम्सीओ' अत्र खलु शक्रस्य चतुरशीते: सामानिकसहस्राणां चतुर शीतिसहस्रसंख्यकमामानिकानाम् उत्तदिकत्रये चतुरशीलिभद्रासनसहस्राणि चतुरशीति. सहस्रसंख्यक भद्रासनानि 'पुरथिमेणं अट्ठण्डं अग्गमहिसीणं' पूर्वस्यां दिशि अष्टानामग्रमहिषीणाम् अष्ट भद्रासनानि 'एवं दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरपरिमाए दुवालसण्हं देवसाहअर्द्धहारों से उपशोभित थी अच्छे उद्यवाली थीं-सुन्दर ढंग से बनी हुई थी और आपस में एक दूसरी माला से थोडी थोडी दूर थी पुरवाई हवासे ये मन्द मन्द रूपमें हिल रहीं थी इनके टकराने से जो शब्द निकलता था-वह कर्णइन्द्रिय को बडा आनन्द प्रद लगता था ये अपने आसपास के प्रदेश को सुगंधित कर रही थी इस तरह से ये मालाएं वहां पर थी यहां पाठ में आगत यावत् पाठ से 'बेइज्जमाणा पलंरमाणा, पझंझमाणा, ओरालेणं मणुण्णणं मण. हरेणं 'यह पद गृहीत हुआ तथा द्वितीय यावत्पाठ से 'सस्सिरीए' इस पदका ग्रहण हुआ है 'तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं एत्थणं सक्कस्स चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ, पुरथिमेगं अट्ठण्हं अग्गमस्सिीणं एवं दाहिण पुरथिमेणं अभितरपरिसाए दुबालसन्हं देव साहस्सीणं' लस सिंहासन,के वायव्यकोने में, उत्तरदिशा ભિત હતી. સારા ઉદયવાળી હતી, સુંદર રીતે તૈયાર કરવામાં આવી હતી અને પરસ્પર એક બીજી માળાથી પરવાઈ હોવાથી સંઘફ્રિત થઈને મંદ-મંદ રૂપમાં હંલી રહી હતી. એમની પરસ્પર સંઘટ્ટનાથી જે શબ્દ નીકળતો હતો તે અતીવ કર્ણ મધુર લાગતું હતું. પિતાના આસપાસના પ્રદેશોને સંગધિત કરતી હતી. એ પ્રમાણે એ भ यो ती. 24॥ ५ 32 यावत् श६ आव। छ, तेनाथी 'वेइज्जमाणा, पलं बमाणा, पझंझमाणा, ओरालेणं मणुण्णेणं, मणहरेणं' ॥ १४ गडीत थये। छे. तमा जीत यावत् पथ: 'सस्सिरीए' मा ५४नु अ थयु छ. 'तस्स णं सीहासणस्स अवरु. त्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थणं सक्कस्त चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीओ पुरथिमेणं अटूण्हं अगमहिसीणं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरपरिमाए दुवालसण्हं देवसाहस्सीणं' Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र स्सीणं' एवम् दक्षिणपूर्वायाम् अग्निकोणे अभ्यन्तरपर्षदः, सम्बन्धिनां द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासनसहस्राणि 'दाहिणे णं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहस्सीण' दक्षिणस्यां मध्य मायाः पर्षदः सम्बन्धिनां चतुर्दशानां देवसहस्राणां चतुर्दशभद्रासनसहस्राणि 'दाहिणपञ्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं' दक्षिणपश्चिमाया नैऋतकोणे बाह्यपर्षदः सम्बन्धिनां षोडशानां देवसहस्राणां षोडशभद्रासनसहस्राणि 'पञ्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिवइणंति' पश्चि. मायां सप्तानां अनीकाधिपतीनां सप्तभद्रासनानीति 'तए णं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसिं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं' ततः प्रथयबलयस्थापनानन्तरं द्वितीये वलये तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिशि चतसृणां चतुरशीतीनां चतुर्गुणीकृत चतुरशीतिसंख्याकानाम् आत्मरक्षक देवसहस्राणां पत्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयमितानाम् आत्मरक्षकदेवानामित्यर्थः, षटत्रिंशसहस्राधिकलक्षत्रयमितानि भद्रासनानि विकुर्वितानि इत्यर्थः, 'एवमाई विभासिअव्वं सूरिआभगमेणं जाव पञ्चप्पिणेइ' एतमादि विभाषितव्यम्-इत्यादिवक्तव्यम् सूर्याभगमेन यावत्प्रमें, इशान दिशामें, शक के ८४ हजार सामानिक देवों के ८४ हजार भद्रासन पूर्वदिशा में आठ अग्रमहिषियों के आठ भद्रासन, अग्निकोण में आभ्यन्तर परिषदा के १२ हजार देवों के १२ हजार भद्रासन 'दाहिणेणं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहस्सीणं, दाहिण पच्चत्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं पच्चस्थिमेणं सत्तहं अणिआहिवईणंति' दक्षिणदिशा में मध्यपरिषदा के १४ हजार देवों के १४ हजार भद्रासन और नैर्ऋतकोण में बाद्यपरिषदा के १६ हजार देवों के १६ हजार भद्रासन तथा पश्चिम दिशा में सात अनीकाधिपतियों के सात भद्रासन स्थापित किये 'तएणं तस्स सीहासणस्स चउद्दिसिं चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं एवमाई विभासिअव्वं सूरियाभगमेणं जाव पच्चप्पिणंतित्ति' इसके बाद उसने उस सिहासन की चारों दिशाओं में ८४८४ हजार आत्मरक्षक देवों के ८४-८४ हजार भद्रासन अपनी विकुर्वणा शक्ति તે સિંહાસનના વાયવ્ય કેસમાં, ઉત્તર દિશામાં, ઈશાન દિશામાં શકના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવના ૮૪ હજાર ભદ્રાસને પૂર્વ દિશામાં, આઠ અગ્રમહિષીઓના આઠ ભદ્રાસને અગ્નિકોણમાં આત્યંતર પરિષદાના ૧૨ હજાર દેના ૧૨ હજાર ભદ્રાસને 'दाहिणेणं मज्झिमाए चउदसण्हं देवसाहम्सीणं, दाहिणपच्चत्थिमेगं बाहिरपरिसाए सोल सण्हं देवसाहस्सीण पच्चत्यिमेणं सत्तण्हं अणिआहिवईगति' दक्षिण हिशामां, भय परिવધાના ૧૪ હજાર દેવેના ૧૪ હજાર ભદ્રાસનો અને મૈત્રત કણમાં બાહ્ય પરિષદના ૧૬ હજાર દેવેના ૧૬ હજાર ભદ્રાસને તથા પશ્ચિમ દિશામાં સાત અ કાધિપતિઓના सात मद्रासन। स्थापित ४ा. 'तएणं तस्स सीहासणस्त चउद्दिति च उण्हं चउरासीणं आयर क्खदेवसाहस्सीणं एवमाई विभासिअव्वं सूरिचाभगमेणं जाव पच्चप्पिणंति त्ति' त्या२ माह તેણે તે સિંહાસનની ચોમેર ૮૪-૮૪ હજાર આત્મરક્ષક દેવને ૮૪૮૪ હજાર ભદ્રાસને Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कार: स. ५ पालकदेवेन शक्राशानुसारेण विकुर्वणादिकम् ६४१ त्यर्पयति, समर्पयति स पालको देवः यावत्पदसंग्रहश्रायम् 'तरसणं दिव्वस्स जाणविमाणस्स इमे वणवा पण्णत्ते से जहा णामए अइरुग्गयस्स हेमंत अबालसरिअस्स खाइलिंगालावा रत्ति पज्जलिआणं जासुमणवणस्स वा केसुभवणस्स वा पलिजायवणस्स वा सव्वओ समंता संकुसुमित्रस्य भवेएयारूवेसिया १' णो इणट्टे समट्ठे, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स इतो तराए चेव ४ वण्णे पण्णत्ते गंधो फासोअ जहा मणीणं, तर णं से पाळए देवे तं दिव्वं जाणवणं विव्त्रित्ता जेणेव सक्के ३ तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता सक्कं ३ करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु जरणं विजएणं वद्धा वेद वद्धावित्ता तमाणत्तिअं, इति अत्र व्याख्या तस्य खलु दिव्यस्य यानविमानस्य अयमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञप्तः स यथानाम कोऽचिरोद्वतस्य तत्कालोदितस्य हैमन्तिकस्य हेमन्तकालसम्बन्धिनो बालसूर्यस्य खादिरङ्गाराणां वा खदिरसम्बन्धिनामग्निनाम् 'रति' सप्तम्यर्थे द्वितीया रात्रौ प्रज्वलितासे स्थापित किये इत्यादि रूपसे यह सब कथन सूर्याभ देव के यान विमान के प्रकरण में कहे गये पाठ के अनुसार 'प्रत्यर्पयन्ति' इस क्रियापद तक जानना चाहिये वहां का पाठ इस प्रकार से है जो यहां यावत्पद से गृहीत हुआ है 'तस्स णं दिव्वस्त जाणविमाणस्स इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामए अइरुग्गयस्स हेमेतिय बाल सूरियस्स खाइलिंगालाण वा रतिं पज्जलिआणं जासुमुणवणस्स वा केसूअवणस्स वा पलिजायवणस्स वा सव्वओ समंता संकुसुमिअस्स, भवेएयारूवे सिया ? णो इणट्ठे समट्टे, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स इतो इतराए चैत्र ४ वण्णे पण्णत्ते, गंधो फासो अ जहा मणीणं, तए से पालए देवे तं दिव्वं जाणविमाणं विव्वित्ता जेणेव सक्के ३ तेणेव उवागच्छइ २ उवागच्छित्ता सक्कं ३ करयल परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कहु जए णं विजरणं वेइ वद्वावित्ता तमाणत्तिअं' इस पाठ की व्याख्या इस प्रकार से है-उस दिन यान विमान का वह इस प्रकार का वर्ण वर्णक है-जैसा तत्काल પોતાની ત્રિકુ ગુા શક્તિથી સ્થાપિત કર્યાં વગેરે રૂપમાં આ બધું કથન સૂર્યાંસદેવના यान-विभान प्र२५ भांडेवामां आवेल पाई प्रमाणे 'प्रत्यर्पयन्ति' गाडिया यह सुधी लगी सेवे। लेये. त्यां ते पाह या प्रमाणे छे, ने अड्डों यावत् पढथी गृहीत थये। छे- 'तरसणं तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामए अइरुग्गयस्स मंतियबाल सूरियस खोइलिंगालाण वा रति पज्जलिआणं जासुमणवणस्स वा केसूअ बणस्स वा पलिजायवणस्स वा सव्वओ समंतो संकुसुमिअस्स भवेयारूवे सिया ? णो इट्टे समट्टे तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स इत्तो इट्ठतराए चेत्र ४ वण्णे पण्णत्ते, गंधो फासो अ जहां मणी, तणं से पालएदेवे तं दित्र जाणविमाणं विउव्वित्ता जेणेव सक्के३ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सक्कं ३ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु जपणं विजएणं वद्धावेइवद्धावित्ता तमाणत्तिअ' मा पाउनी व्याच्या या प्रमाणे हे ते द्विव्य यान-विभाननो वर्थવણુ ક–જે પ્રમાણે તત્કાલ ઉદિત થયેલા શિશિર કાળના માલ સૂર્યના કે રાત્રિમાં પ્રજવલિત ज० ८१ Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र नाम् जपावनस्य वा किंशुकवनस्य वा पारिजातवनस्य वा कल्पद्रुमबनस्य वा सर्वतः समन्तात् सम्यक् कुसुमितस्य, अत्र शिष्यः पृच्छति भवेदेतद्रूपः स्यात् कदाचित् सूरिराह-नायमर्यः समर्थः तस्य खलु दिव्यस्य यानविमानस्य इत इष्टतरक एव कामतरफ एवेत्यादि प्राय् वत् वर्णः प्रज्ञप्तः गन्धः स्पर्शश्च यथा प्राङ् मगीनामुक्तस्तथा यानविमानस्यापि वक्तव्यः, अत्र पालकविमानवर्णके प्राक् मणीनां वर्णादयः उकाः पुनर्विमानवर्णकादिकथनेन पुनरुक्तिन शङ्कनीया, पूर्वहि अवश्वभूतानां मणीनां वर्णादयः प्रोक्ताः सम्प्रति अवयविनो विमानस्येति प्रोक्तशङ्काया अनवसरत्वात्, ततः खलु स पालको देवः तं दिव्यं यानविमानं विकुर्व्य यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवशजस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य शक्रं देवेन्द्र देवराजं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्त के अंजलिं कृत्वा जयेन विजयेन च पर्द्धयति वर्द्धयित्वा तामाज्ञप्तिकामिति यावत् पदग्राह्य सूत्रार्थः ॥ सू० ५॥ उदितहुए शिशिरकाल सम्बन्धी बाल सूर्यका, या, रात्रि में प्रज्वलित खदिर के अंगारों का या सब तरफ से कुसुमित हुए जपायन का या किंशुक (पलाश) के वन का, या कल्पद्रुमों के वनका वर्ण होता है वैसा ही इसका वर्ण था तो क्या हे भदन्त ! यह बात इसमें इसी प्रकार से सर्वथा रूपमें घटित होती है ? उत्तर में प्रभु ने कहा-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है क्योंकि उस दिव्य यान दिमान का वर्ण इनकी अपेक्षा मो इष्टतरक-कान्ततरक कहा गया है इसका गंध और स्पर्श प्रागुक्त मणियों के गन्ध एवं स्पर्श के जैसा कहा गया है अवशिष्ट पाठ की व्याख्या सुगम है इस प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट उस दिव्य यान विमान की विकुर्वणा करके वह पालकदेव जहां देवेन्द्र देवराज शक था वहां गया और वहां जाकरके उसने दोनों हाथों को जोडकर बडी विनय के साथ शक्र को जय विजय शब्दों से बधाते हुए यान विमान के पूर्ण रूप से निष्पन्न हो जानेकी खबर दी ॥६॥ ખદિરના અંગારાનો કે ચેમેરથી કુસુમિત યેલા જપાવાનને કે કિંશુક (પલાશ) વનને કે કપ ક્રમના વનને વર્ણ હોય છે તે જ આનો વર્ણ હતા. તે શું છે ભદંત ! આ વાત આમાં આ પ્રમાણે જ સર્વથા રૂપમાં ઘટિત હોય છે? એના જવાબમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! આ અર્થ સમર્થિત નથી. કેમકે તે દિવ્ય યાન-વિમાનને વર્ણ એ સર્વ કરતાં પણ ઈટ તરક, કાન્તરક કહેવામાં આવેલ છે. અને ગંધ તેમજ સ્પર્શ પ્રાગુપ્ત મણિએના ગન્ધ તેમજ સ્પર્શ જે કહેવામાં આવેલ છે. શેષ પાઠતી વ્યાખ્યા સુગમ છે. આ પ્રકારના વિશેષણથી વિશિષ્ટ તે દિવ્ય યાન-વિમાનની વિમુર્વણ કરીને તે પાલક દેવ જ્યાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક હતો ત્યાં ગયો અને ત્યાં જઈને તેણે બન્ને હાથને જોડીને વિનયપૂર્વક ચક્રને જય-વિજય શખથી વધામણી આપતાં યાનવિમાન પૂર્ણ રૂપમાં નિપન્ન થયું છે, એવી ખબર આપી. | ૫ | Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६४३ अथ शक्रकृत्यमाह - 'तए णं सक्के' इत्यादि मूलम्-त एणं सक्के जाव हट्टहियए दिव्व जिर्णेदाभिगमणजुग्गं सवालंकारविभूसियं उत्तरखेडव्विअं रूवं विउव्वाइ, विव्वित्ता अहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं णट्टाणीएहिं गंधव्वाणीएण य सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणीकरे माणे करेमाणे पुठिवल्लेणं तिसोत्राणेणं दुरूहइ दुरुहिता जाव सीहासणंसि पुरत्याभिमुद्दे सष्णिसपणेत्ति, एवं चेव सामाणियात्रि उत्तरेणं विसोवाणेणं दुरुहित्ता पत्तेयं पत्तेयं पुव्वण्णत्थेसु भासणेसु णिसिअंति अवसेसाय देवा देवीओ अ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणं दुरूहित्ता तहेव जाव णिसीअंति, तणं तस्स सक्क्स्स तंसि दुरूढस्त इमे अटूट्टु मंगलगा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिआ, तयणंतरं चणं पुण कसलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा य दंसणरइअ आलोअदरिसणिज्जा वाउअ विजयवेजयंतीय समूसिआ गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुथ्वीए संपट्टिआ, तयणंतरं छत्त भिंगारं, तथणंतरं च पं वइरामबट्टलटुडित्र सुसिलिट्ठ परिघट्टपट्टसूपइट्टिए विसिंडे अगवरपंचगण कुडभी सहस्तगरिमंडियाभिरामे वाउदूधुअ विजयवेजयंती पडागाछत्ताइच्छत्तक लिए तुंगे गगणतलमणुलिहंत सिहरे जोअणसहस्समूसिए महइमहालए महिंदज्झए पुरओ अहाणुपुत्री संपत्थिपत्ति, तयणंतरं च णं सरूवनेवत्थपरिअच्छि सुसज्जा सव्वालंकारविभूसिआ पंच अणिआ पंच अणिआहिवइणो जाव संपडिआ, तयणंतरं च णं बहवे अभिओगिआ देवा देवीओ य सरहिं सएहिं रूवेहिं जाव णिओगेहिं सक्कं देविंदं देवशयं पुरओअ मग्गओअ तयणंतरं च णं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवा य देवीओ य सब्बिद्धिए जाव दुरूढा समाणा मग्गओअ जाव संपट्टिआ, तए णं से सक्के तेणं पंचाणि परिक्खित्तेणं जाप महिंदझपणं पुरओ पकडिजमाणेणं चउरासीए सामाणिअ जाव परिवुडे सव्विद्धीए जाव रखेणं सोहम्मस्स Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ફ્ર जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे कप्पस्स मज्झं मज्झेणं तं दिव्यं देवद्धिं जाव उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कव्पस्स उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उत्रागच्छइ, उवागच्छित्ता जोयणसयसाहस्सीएहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे ओवयमाणे ताए उक्किट्टाए जाव देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे तिरियमसंखि जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झे मज्झेणं जेणेव णंदीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपव्त्रए तेणेव उपागच्छइ उवागच्छिता एवं जा वे सूरियाभस्त वक्तव्वया णवरं एक्काहिगारो वत्तव्यो इति जात्र तं दिव्वं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जात्र जेणेव भग ओ तित्थयरस्स जम्मण नगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तित्थयरस्त भगवओ जम्मणभवणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करिता भगवओ तित्थयरस्त उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे चांगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं जागविमाणं ठवेइ ठवित्ता अहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणिएहिं गंधवाणीएण य णट्टाणीएण य सद्धिं ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ पुरत्थिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पञ्च्चोरुहइ । तए णं सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो चउरासीई सामाणिअ साहसीओ दिव्वाओ जागविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति अवसेसा देवा य देवीओ अ ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पञ्च्चोरुहंतित्ति । तए णं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सिएहिं जाव सद्धिं संपरिवुडे सव्विद्धीए जान दुंदुभिणिघोसणाइयर वेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता आलोए चैत्र पणामं करेइ करिता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करिता करयल जाव एवं वयासी नमोत्थु ते रणकुच्छिधारए एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६४५ तं कयथासि अहण्णं देवाणुप्पिए सक्के णामं देविंद देवराया भगवओ तित्थयरस्त जम्मणमहिमं करिस्सामि, तं गं तुम्भाहिं ण भाइ. यव्वं तिकट्ठ ओसोवणिं दलयइ दलइत्ता तित्थयरपडिरूवगं विउ. वेइ तित्थयरमाउआए पासे ठवेइ, ठवित्ता पंच सक्के विउव्वइ विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ एगे सबके पिटओ आयवत्तं धरेइ दुवे सका उभओ पासिं चामरुक्खेवं करेंति, एगे सक्के पुरओ वजपाणी पकडुइति । तएणं से सक्के देविंदे देवराया अण्णेहिं बहूहिं भवणवइवाणमंतरजोइसिअवेमाणिएहिं देवेहिं देवी हिअ सद्धिं संपरिखुडे सव्विदीए जाव णाइएणं ताए उकिटाए जाव वीई. वयमाणे २ जेणेव मंदरे फवए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसे असिला जेणेव अभिसे असीहासणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति ॥सू०६॥ छाया-ततः खलु स शक्रो यावत् हृष्टहृदयो दिव्यं जिनेन्द्राभिगम योग्यं सर्वालंकारविभूषितम् उत्तरवैक्रिय रूपं विकुर्वति, विकुऱ्या अष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः नाटयानीकेन गन्धर्वानीकेन सार्द्धम् तं विमानम् अनुप्रदक्षिगी कुर्वन् अनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पौरस्त्येन त्रिसोपानेन दूरोहति, दुरूहय यावत् सिंहासने पौरस्त्याभिमुखे सनिषण्णः, इति एवमेव सामानिकाअपि, उत्तरेण त्रिसोपानेन दुरोहति दुरोहय प्रत्येकम् २ पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति, अवशेषाश्च देवाश्च देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानेन दुरोहन्ति दुरूहय तथैव यावत् निषीदन्ति, ततः खलु तस्य शक्रस्य तस्मिन् दुरूढस्य इमानि अष्टौ अष्टौ मङ्गलकानि पुरतः यथानुपूर्या संप्रस्थितानि, तदनन्तरं च खलु पूर्णकलश-भृङ्गारं दिव्या च छत्रपताका सचामरा च दर्शनरतिदा आलोकदर्शनीया वायूद्धृतविजयवैजयन्ति च समुच्छ्रिता गगनतलमनुलिहन्ती पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थिताः तदनन्तरं च खलु वज्रमय वृत्तलष्ट संस्थितमुश्लिष्ट परिघृष्ट मृष्ट सुप्रतिष्ठितः विशिष्टः, अनेक वरपञ्चवर्णकुडभिसहस्रपरिमण्डिताभिरामः वातो द्धृत विजय वैजयन्ति पताका छत्रातिच्छत्रकलितः तुङ्गः गगनतलमनुलिखच्छिखरः योजनसहस्त्रमुत्सृतः महातिमहालयः, महेन्द्रध्वजः पुरतो यथानुपूर्या संप्रस्थितः इति, तदनन्तरं च खलु स्वरूपनेपथ्यपरिकच्छितानि सुसज्जानि सर्वालङ्कारविभूषितानि पञ्चानीकानि पश्चानीकाधिपतयश्च यावत् संप्रस्थितानि तदनन्तरं च खलु बहवः, आभियोगिका देवाश्च देव्यश्च स्कैः स्वकैः रूपैः यावत् नियोगः शक्रं देवेन्द्रं देवराजं पुरतश्च पृष्टतः पार्श्वतश्च यथानुपूर्या संप्रस्थिताः । तदनन्तरं च खलु बहवः सौधर्मकल्पवासिनो देवाश्च देव्या Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बुद्वीपप्रज्ञप्तिसत्रे सर्वद्धर्या यावत् दुरुढाः सन्तः मार्गतश्च यावत् संपस्थिताः। ततः खलु स शक्रः तेन पञ्चानीकपरिक्षिप्तेन यावत् महेन्द्रध्वजेन पूरतः प्रकृष्यमाणेन चतुरशीत्या सामानिकसहस्त्रैः यावत् परिवृतः सर्वद्धर्या यावत् रवेण सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन तां दिव्यां देवर्द्धिम् यावत् उपदर्शयन् उपदर्शयन् यत्रैव सौधर्मस्य कल्पस्य औत्तरा निर्याणमार्गः तत्रैव -उपागच्छति उपागत्य योजनशतसाहस्त्रिकैः विग्रदः, अवपतन् अअपतन तया उत्कृष्टया - यावत् देवगत्या व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् तिर्यमसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यं मध्येन यत्रैव नन्दीश्वरद्वीपः यत्रैव दक्षिणपूर्वः रतिकर पर्वतः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य एवं चैव सूर्याभस्य वक्तव्यता नवरं शक्राधिकारी वक्तव्य इति यावत् तां दिव्यां देवर्द्धिम् यावत् दिव्यं यानविमानं प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् यावत् यत्रैव भगवतः तीर्थङ्करस्य जन्मनगरं यत्रैव भगवत स्तीर्थङ्करस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छति उपागत्य भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तेन दिव्येन यानविमानेन त्रिः कृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति कृत्वा भगवतः, तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपौरस्त्ये दिग्रभागे चतुरङ्गुलमसंप्राप्तं धरणितले तं दिव्यं यानविमानं स्थापयति स्थापयित्वा अष्टभिः अग्रम हिमोभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां गन्धर्वानीकेन च नाटयानीकेन च साई तस्मात् दिव्यात् यानविमानात् पौरस्त्येन त्रिसोपानप्रतिरूपण प्रत्यवरोह ति, ततः खलु शकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य चतुरशीतिः सामानिकसहस्राणि दिव्याद्. यानतिमानाद उत्तरेण त्रिसोपानप्रतिरूपण प्रत्यवरोहन्ति अवशेषा देवाश्च देव्यश्च तस्मात् दिव्यात् रानश्मिानात् दक्षिणेन त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहन्ति इति ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, चतुरशीत्या सामानिकसाहसिकः, यावत्सार्द्ध संपग्वृितः सर्वदयो यावत् दुन्दुभिनिर्घोषनादिवरवेण यत्रैव भगवान् तीर्थङ्करः, तीर्थ शरमाता च तत्रैव उपागच्छति उपागत्य, आलोके एव प्रणाम करोति प्रणामं कृत्वा भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थंकरमातरं च त्रिः कृतः आदिक्षणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा करतल यावदेवभवादीत् नमोऽस्तु ते रत्तइक्षिधरिके ! एवं यथा दिवकुमार्यः यावत धन्याऽसि पुण्यासि त्वं कृतार्थाऽसि, अहं खलु देवानुप्रिये ! शको नाम देवेन्द्रो देव- "राजो भगवस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यामि तल बलु युष्माभिर्न भेतव्यमितिकृत्वा अवस्वापिनी ददाति दत्वा तीर्थकर प्रतिरूपकं करोति तीर्थकरमातुः पार्थ स्थापयर्यात स्थापवित्वा पञ्चराकान् विकु ते, रिकुर्ग, एकः शक्रो भगवन्तं दीर्थकरं करतलपुटेन गृह्णाति, एकः शक्रः पृष्टतः आनुप धरनि द्वौ शक्रौ उभयोः पार्थयोश्चामरोत्क्षेपं कुरुतः एकः शक्रः पुरतो बज्रपाणिः सन् प्रकर्पयति । ततः खलु सशको देवेन्द्रो देवराजः अन्यैः बहुभिः भवनपतिवानमन्तरज्योतिष्कवैमानिकैः देवे देवी भिथ साई संपरिकृतः सर्वदर्या यावत् *नादितेन तया उत्कृष्टया यावत् व्यनिवजन् व्यनिवजन् यत्रैव मन्दरः पर्वतः यत्रैव पण्डुक वनम यचैव अभिषेकशिला यत्रैव अभिषेशसिंहासनम् तत्रैव उपागच्छति उपागत्य सिंहा-सनवरगतः पूर्वाभिमुखः सभिषण्णः । इति ॥ सू. ६॥ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशक्रकतव्यनिरूपणम् १४७ टीका-'तएणं से सक्के जाव इट्ट हिअए' ततः पालकदेवस्य पालकविमाननिर्मातुः शक्राज्ञायाः शक्रसमीपे समर्पणानन्तरं खलु स शक्रो यावत् हष्ट हृदयः प्रमुदितचित्तः सन् अत्र यावत्पदान देवेन्द्रो देवराजः, इति ग्राह्यम् 'दिव्यं जिणेदाभिगमणजुग्गं' दिव्यं प्रधानम् जिनेन्द्राभिगमनयोग्यम् जिनेन्द्रस्य ऋषभभगवतः अभिगमनाय अभिमुखगमनाय योग्यम् -अचित्तम् यादृशेन वपुषा देवसमुदायसतिशायिनी श्रीभवति तादृशेनेत्यर्थः 'सव्यालंकारविभूसियं' सर्वालङ्कारविभूषितम्-राकलशिरःश्रवणायलङ्कारैः सुशोभितम् 'उत्तावेउव्वियं रूवं विउव्वइ' उत्तरवैक्रियम् रूपम् उत्तरं भवधारणीयशरीरापेक्षया कार्योत्पत्तिकालापेक्षया च उत्तरकालभाविवैक्रियरूपं विकुर्वति 'विउव्वित्ता' विकुर्व्य अट्ठहिं अग्गमहिसी हिं सपरिवाराहिं णट्टाणीए णं गंधवाणीएणय सद्धिं तं विमाणं अणुप्पयाहिणी करेमाणे अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुविल्लेणं दिसोवाणेणं दुरूहइ' अष्टाभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः प्रत्येकम् २ षोडश देवीसहस्रपरिवृत्ताभिः नाटयानीकेन गन्धर्वानीकेन च सार्द्धम् तं विमानमनुप्रदक्षिणीं कुर्वन् अनुप्रदक्षिणीं कुर्वन पूर्वकेण पूर्वदिकस्थेन त्रिसोपानेन दुरोहन्ति, आरोहन्ति 'तए णं से सक्के जाव हट्ठ हिपए दिव्वं-'इत्यादि । टीकार्थ-पालकदेव द्वारा दिव्ययानविमान की कथनानुसार निष्पत्ति हो जानेकी खबर सुनने के बाद 'से सक्के उस शक ने 'हहियए' हर्षित हृदय होकर 'दिव्यं जिणेदाभिगमणजुग्गं सव्वालंकारविभूसिरं उत्तरवेउव्वियं एवं विउव्वइ' दिव्य, जिनेन्द्र के सन्मुख जाने के योग्य ऐसा समस्त अलंकारों से विभूषित उत्तर वैक्रियरूप की निकुर्वणा की 'विउवित्ता अहहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं णटाणीएणं गंधवानीएण य सद्धिं तं विषाणं अणुप्पयाहिणी करेमाणे २ पुघिल्लेणं तिसोवाणेशं दुरूहई विकुर्वणा करके फिर वह आठ अग्रमहिषियों के साथ, उनकी परिवार भूत १६-१६-हजार देवियों के साथ, नाट्यानीक एवं गन्धर्वानीक के साथ उस दिव्य यान विमान की तीन प्रदक्षिणा करके पूर्वदिग्वर्ती त्रिसोपान से होकर उस पर चढा 'दुरूहित्ता जाव सीहास 'तपणं से सक्के जाव हट्ट हियए दिव्यं-इत्यादि ડિફાર્થ–પાલક દેવ દ્વારા દિવ્ય યાન-વિમાનની આજ્ઞા મુજબ નિષ્પત્તિ થઈ જવાની ५२ सालजीने ‘से सक्के' त श 'हट्ठ हियए' त (हृदय २२ 'दिव्य जिणे दाभिगमणजुग्गं सव्यालंकारविभूसि उतरयेउब्धियं रूत्रं विव्यइ' (६०५ मिनेन्द्रनी मे ४ा योग्य सेवा स-साथी विभूषित उत्त२ वैयि ३५नी लिव ४२१. 'विउव्वित्ता अटुहिं अग्गमहिसीहि सपरिवाराहि गट्टाणीएणं गंधव्याणीएण य सद्धिं त विमाणं अणुप्प याहिणी करेमाणे २ पुब्बिल्लेणं तिसोगाणेगं दुरूहई' मा ४२ ५४ी ते 416 અમહિષાઓની સાથે તેમજ તે અગ્રમહિષીઓના પરિવાર ભૂત ૧૬-૧૬ હજાર દેવી. એની સાથે નાટ્યાનીક તેમજ ગંધર્વોનીક સાથે તે દિવ્ય યાન–વિમાનની ત્રણ પ્રદક્ષિણાઓ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्राप्तिसूत्रे 'हुरूहित्ता' दुरूह्य भारूह्य 'जाव सीहासणंसि पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति' यावत् सिंहासने पूर्वाभिमुखः सण्णिषण्णः असौ शक्रः उपविष्टवान् इति, अत्र यावत् पदात यत्रैव सिंहासनं सत्रैव उपागच्छति उपागत्य इति ग्राह्यम् ‘एवं चेव सामाणिआवि उत्तरेणं तिसोवाणेणं दुरूइंति दुरूहित्ता पत्तेअं २ पुषण्णत्थेसु भद्दासणेसु णिसीअंति' एवमेब अमुना प्रोक्तप्रकारेणैव सामानिका अपि उत्तरेण उत्तरदिवस्थेन त्रिसोपानेन दुरोहन्ति, आरुह्य प्रत्येकं प्रत्येक पूर्वन्यस्तेषु पूर्वभागस्थापितेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति उपविशन्ति 'अवसेसा य देवा देवीओअ दहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरूहंति दुरूहित्ता तहेव जाव णिसीअंति' अवशेषाश्च आभ्यन्तर पार्षद्यादयः देवाः देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानेन दृरोहन्ति, आरोहन्ति आरुह्य तथैव पूर्वोक्तप्रकारेणैव यावत् निषीदन्ति उपविशन्ति, । अथ उपदिशतः शक्रस्य पुरः प्रस्थायिनां क्रममाह-'तए णं तस्स' इत्यादि 'तएणं तस्स तंसि दुरूढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरो अहाणुगंसि पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति' और चढकर यावत् वह पूर्वदिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गया यहां यावत्पद से 'यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य' इतने पाठका संग्रह हुआ है 'एवं चेव सामाणिमा वि उत्तरेणं तिसोवाजेणं दुरुहित्ता पतंय २ पुषण्णत्थेतु भद्दासणेतु णिसीअंति' इसी तरह सामानिक देव भी उत्तरदिग्वी त्रिसोपान से होकर प्रत्येक अपने पूर्व से रखे गये भद्रासनों पर वैठ गये 'अवसेसा य देवा देवीभो य दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरुहित्ता तहेव जाच णिसीअंति' बाकी के और सब देव और देवियां दक्षिणदिग्यी त्रिसोपान से होकर उसी तरह से अपने अपने पूर्वन्यस्त सिंहा सनों पर वैठ गये 'तएणं तस्स सक्कस्स तंसि दुरुढस्स इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया' इस प्रकार से उस शक्र उस दिव्य यानविमान में बैठ जाने पर सबसे पहिले उसके आगे ये प्रत्येक प्रत्येक आठ आठ की संख्या में रीन हिवती त्रि-सोपान ५२ थन तनी 6५२ मा३८ थयो. 'दुरूहित्ता जाव सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति' अ२ ॥३८ ५२ यावत ते पूर्व हिश त२५ भुम ४१२ सिंहासन पर मेसी गयी. ही यावत् ५४थी 'यत्रैव सिंहासनं तत्रैव उपा. गच्छति उपागत्य' ॥ ५४ सगडीत थयो छे. 'एवं चेव समाणिआ वि उत्तरेणं तिसोबाणेणं दुरहित्ता पत्तेयं २ पुवणत्थेसु भदासणेसु णिसोअंति' मा प्रमाणे सामानि हेवे! ५५] उत्तर દિગ્વત ત્રિપાન ઉપર થઈને યાન-વિમાનમાં પિતપોતાના ભદ્રાસન ઉપર બેસી ગયા. 'अवसेसा य देवा देवीओ य दाहिणिल्लेणं तिसोवाणेणं दुरुहित्ता तहेव जाव णिसीअंति' શેષ બધાં દેવ-દેવીઓ દક્ષિણ દિગ્વતી ત્રિપાન ઉપર થઈને પિતપોતાના પૂર્વન્યસ્ત सिंहासन ५२ मेसी गया. 'तएणं तस्स सक्कस्स तसि दुरूढस्स इमे अट्ठ मंगलगा पुरओ अहाणुपुत्वीए संपद्विया' या प्रमाणे ते श न्यारे ते ६०य यान-विमानमा मा३८ थई ગમે ત્યારે સર્વ પ્રથમ તેની સામે પ્રત્યેય-પ્રત્યેક આઠ આડની સંખ્યામાં મંગલ દ્રવ્ય Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् र पुबीए संपट्टिया' ततः खलु तदनन्तरं किल तस्य शक्रस्य तस्मिन् विमाने आरूढस्य सतः इमानि स्वस्तिक १ श्रीवत्सर २ नन्दिकावर्त ३ वर्तमानक ४ भद्रासन ५, मत्स्य ६ कलश ७ दर्पण ८ नामकानि अष्टाष्ट मङ्गलकानि, अष्टष्टेिति वीप्सावचनात् प्रत्येकम्, अष्टौ इत्यर्थः पुरतः, अग्रतः यथानुपूर्त्या संप्रस्थितानि, चलितानि तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वाय छत्तपडागा सचामरा य दंसणरइय, आलोअदरिसणिज्जा वाउद्घअविजयवेजयंतीअ समुसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुबीए संपत्थिया' तदनंतरं च खलु पूर्णकलशभृङ्गारम् -पूर्ण जलभृतं कलशभृङ्गारम्, तत्र कलशः प्रसिद्धः भृङ्गारः (शारी) ति भाषा प्रसिद्धा अयं च कलशशब्दः, जलपूर्णत्वेन आलेख्यरूपाष्टमङ्गलान्तर्गत कलशाद् भिन्न इति न पुनरुक्तिदोषसम्भवः, दिव्या च छत्रपताका दिव्या प्रधाना छत्रविशिष्टा पताका इत्यर्थः सचामरा चामरयुक्ता 'दंसगरइय' दर्शनरचिता-दर्शने प्रस्थातु दृष्टिपथे रचिता मङ्गल्यात् अत एव लोकदर्शनीया आलोके बहिः प्रस्थानसामयिकशकुनानुकूल्यालोकने दर्शनीया दर्शनयोग्या बातोद्धृतविजयवैजयन्ती च वा तेन वायुना उद्धृता कंपिता विजयसूचिका मंगल द्रव्य क्रमशः प्रस्थित हुए उनके नाम इस प्रकार से है-स्वस्तिक श्रीवत्स, नन्दितावत, वर्द्धमानक, भद्रासन, मत्स्य, कलश, और दर्पण 'तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा य दंसणरहय आलोयदरीसणिसज्जा वा द्धय विजय वेजयन्ती य समूसिआ, गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुवीए संपत्थिया' इनके बाद पूर्ण कलश, भृङ्गारक झारी, दिव्य छत्र चामर सहित पताकाएं जो कि प्रस्थाता के दृष्टि पथमें मङ्गलकारी होने से रची जाती हैं और प्रस्थान के समय में जिनका देखना शकुन शास्त्र के अनुकूल माना गया है। आगे आगे चली-इनके बाद वायु से कंपित होती हुई विजय. वैजयन्तियां चली जो कि बहुत ऊंची थी और जिनका अग्रभाग आकाश तल को स्पर्श कर रहा था 'तयणंतरं छत्तभिंगारं' इनके वाद छत्र, भृङ्गार, 'तयणंतरं च ક્રમશઃ પ્રસ્થિત કરવામાં આવ્યાં. તે દ્રવ્યના નામ આ પ્રમાણે છે- વસ્તિક, શ્રીવત્સ, नार, पान, मद्रासन, भ२५ ४३श मने ४५४. 'तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिव्वा य छत्तपडागा सचामराय दसणरइय आलोयदरिणिज्जा वाउ यविजयवेजयन्ती य समूसिआ, गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुबीए संपत्थिया' त्यार બાદ પૂર્ણ કળશ, ભંગારક, ઝારી, દિવ્ય છત્ર, ચામર સહિત પતાકાઓ-કે જેઓ પ્રસ્થાતની દષ્ટિએ મંગળકારી હોવાથી મૂકાય છે, અને પ્રસ્થાન સમયે જેમનું દર્શન શકુન શાસ્ત્ર મુજબ અનુકૂળ માનવામાં આવે છે. આગળ-આગળ ચાલી. ત્યાર બાદ વાયુથી વિલંપિત થતી વિજય વૈજયંતીઓ ચાલી. વિજય વૈજયંતીએ અતીવ ઊંચી હતી અને तभने। सभा २ तणने २५शी रह्यो ol. 'तथणंतर छत्तभिगार' त्यार माह छत्र, मा२ 'तयणंतर वरामयवट्टलसंठियसुसिलिंदु परिघटुमसुपइट्टिए विसिद्ध Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपमाप्तिस्त्र वैजयन्ती च पार्श्वतो लघुपताद्वययुक्तः पताका विशेषः 'समूसिमा' समुच्छ्तिा समुन्नता गगनतळमनुलिखन्ती अनुस्पृशन्ति एते कलशादयः पदार्थाः पुरतो यथानुपूर्व्या संप्रस्थिताः 'तयणंतरं छत्तभिंगारं' तदनन्तरं छत्रभृङ्गारम् छत्रं च भृङ्गारश्च छत्रभृङ्गारम् समाहारादेकवद्भावः नपुंसकत्वं च तत्र छत्रम् 'वेरुलिअभिसंतविमलदंडं पलंचं कोरंडमकदामोवसोहिअं चंदमंडलनिभं समृसि विमलं' इति वर्णकयुक्तम् भरतस्य विनीता राजधानी प्रवेशाधिकारतो ज्ञेयम् इदं च तत्रैव तृतीयवक्षस्कारे द्रष्टव्यम् भृङ्गारश्च विशिष्टवर्ण चित्रोपेतः पूर्व च भृङ्गारस्थ जलपूर्णत्वेन कथनात् अयं च जलरिक्तत्वेन इति न पौनरुक्त्यम् पुरतो यथानुपूर्त्या संप्रस्थितम्, महेन्द्र विशेषणान्याह-'तयणंतरं च णं वइरामयवट्टलट्ठसंठिी सुसिलिट्ठपरिघट्ट मट्ठसुपइटिए' तदनन्तरं च खलु वज्रमयवृत्तष्टसंस्थित मुश्लिष्टपरिघृष्टमृष्टसुप्रतिष्ठतः, तत्र वनमयः रत्नमयः तथा वृत्तं वर्तुलं लष्टं मनोज्ञं संस्थितं संस्थानम् आकारो यस्य स तथाभूतः तथा सुश्लिष्टः सुश्लेषापन्नावयवः सुसंगत इत्यर्थः परिघृष्ट इव परिघृष्टः खरशाणया पाषाणवत् मृष्ट इव मृष्टः मार्जितः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितः नतु तिर्यपतिततया वक्रः ततः एतेषां कर्मधारयः, अत एव 'विसि?' शेषध्वजेभ्यो विशिष्टः परिमण्डिताभिरामः, अनेकानि बराणि पञ्चवर्णानि कुडभीनां लघुपताकानां सहाणि तैः तथा 'था 'अणेगवर पंचवण्णकुडभीसहस्स परिमंडियाभिरामे' अनेकवरपञ्चवर्णकुडभी सहस्रणं वइरामय वट्टलह संठिय सुसिलिट्ठ परिघट्टमट्ट सुपइटिए विसिट अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामे, वाउqय विजय वैजयंती पडागा छत्ता इच्छत्तकलिए, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे, जोयणसहस्समूसिए, महइ महा. लए, महिंदज्झए पुरओ अहाणुपुवीए संपत्थिएत्ति' इनके चलने के बाद महेन्द्र ध्वज प्रस्थित हुआ यह महेन्द्र ध्वज रत्नमय था इसका आकार वृत्त-गोल एवं लष्ट मनोज्ञ था सुश्लिष्ट मसण चिकना था खरसाण से घिसी गई पाषाण प्रतिमा की तरह यह परिमृष्ट था सुकुमार शाणसे घिसी गई पाषाण प्रतिमा की तरह यह मृष्ट था सुप्रतिष्ठत था इसी कारण यह शेष ध्वजाओं की अपेक्षा विशिष्ट था तथा अनेक पांचो रंगोवाली कुडभियों के लघुपताकाओं के समूहो अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामे, वाउछुय विजयवैजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिए, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे, जोयणसहस्समूसिए, महइ महालए, महिंदज्झए, पुरओ, अहा. गुपुबीए संपत्थिएत्ति' से सना प्रस्थान पछी भडेन्द्र६३४ प्रस्थित थये. • भईन्द्र१०४ રત્નમય હતે, એનો આકાર વૃત્ત ગેળ તેમજ લગ્ટ- મને હતું. એ સુશ્લિષ્ટ મરૂણ સુચિકણ હતે. ખરસાણુથી ઘસવામાં આવેલી પ્રસ્તર પ્રતિમાની જેમ એ પરિકૃષ્ટ હતે. સુકુમાર શાણ ઉપર ઘસવામાં આવેલી પાષાણ પ્રતિમાની જેમ આ મૃષ્ટ હતું, સુપ્રતિષ્ઠિત હતા. એથી જ આ શેષ ધવની અપેક્ષાએ વિશિષ્ટ હતું. તેમજ અનેક પાંચ રંગે વાળીકુડભિએના-લઘુ પતાકાઓના સમૂહથી એ અલંકૃત હતે. હવાથી 'પિત વિજયજયંતીથી તેમજ પતાકાતિપતાકાઓથી તથા છત્રાતિછત્રોથી એ કલિત હતે. Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्यन्नानन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६५१ परिमण्डितः अलङ्कृतः सचासौ अभिरामश्चेति तथाभूतः पुनश्च कीदृशः शक्रः 'वाउ - अविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकालिए' वातो घृतविजय-वैजयन्तीपताका छत्रा तिच्छत्रकलित:-तत्र वातोद्धृताः, वायुना कंपिता या विजयसूचिका वैजयन्ती पताकाः ताभिः छ बातिच्छत्रैश्च कलितः युक्तः 'तुंगे' तुङ्गः, अत्युनतः अत एव 'गगणतनमणुलिहं तसिहरे' गगनतलमनुलिखत् शिखरः, तत्र गगनतलम्, आकाशतलमनुलिखत् संस्पृशत् शिखरम्, अग्रभागो यस्य स तथा भूतः, तथा 'जोअगसहस्तमूसिए' योजनसहस्रमुत्सतः, अन एवाह-'महइ महालए' महतिमहालयः अतिशयेन महान् 'महिंदज्झए' महेन्द्रध्वजः 'पुरओ अहाणुपुव्योए संपत्थिएत्ति' पुरतो यथानुपूर्त्या संप्रस्थितः, इति 'तयणंतरं च णं सरूवनेवत्थ परिच्छि अ सुसज्जा सव्वालंकारविभूसिआ पंचणिआ पं अणिआहिबईणो जाव संपद्विआ' तदनन्तरं च खलु स्वरूपनेपथ्य-परिकच्छितसुसज्जानि, तत्र स्वरूपं स्वकर्मानुसारि नेपथ्यं वेषः परिकच्छितः परिगृहितौ यैः, तानि तथा सुसज्जानि पूर्ण सामग्रीकतया अतिशयसजितानि सर्वालङ्कारविभूषितानि एवं भूतानि पञ्चकानीकानि पञ्चानीकाधिपतयश्च पुरतो यथानुपूया संप्रस्थितानि 'तयणंतरं च णं बहवे अभियोगिआ देवा य देवीओअ सएहि सरहिं रूवेहि जाय जिओगेहिं सब देविंदं देवरायं पुरओभ मग्गोभ अहाणुपुवीआ संपडिया' से यह अलङ्कृत था हवा से कंपित विजय वैजयन्ती से एवं पताकातिपताकाओं से-तथा छत्रातिच्छन्त्रों से यह कलित था तुंग-ऊंचा था इसका अग्रभाग आकाश से बाते कर रहा था क्योंकि यह १ हजार योजन का ऊंचा था इसी कारण यह बहुत ही अधिक महान् विशाल-था 'तयणंतरं च णं सरूव नेवत्थ परिअच्छिये सुसज्जा सव्वालंकारविभूसिया पंच आणिआ पंच आणियाहिवइणो जाव संगठिया' इसके बाद जिन्हों ने अपने कर्म के अनुरूप बेष पहिर रखा है ऐसी पांच सेनाएं पूर्ण सामग्री युक्त सज्जित किये है समस्त अलंकारों को जिन्होंने ऐसे पांच अनीकाधिपति यथाक्रम से संप्रस्थित हुए 'तयणंतरं च णं बहवे आभिओगिआ देवाय देवीओ य सएहिं सएहिं रूवेहिं जाव णिओगेहिं सक्कं देविद એ તુંગ ઊંચે હતે. એને અગ્રભાગ આકાશ તલને સ્પર્શી રહ્યો હતે. કેમકે એ એક २ ४ या तो मेथी ४ थे अतीव अधि४ महान विश sतो. 'तयणतरं च णं सरूव नेवत्थपरिअच्छिये सुसज्जा सव्वालंकारविभूसिया पंच अणि आ पंच अणियाहिवइणो जाव संपद्विया' त्या२ मा भये पोतना ४ मनु३५ ३५ पडेरी राज्य। छे, मेवी पांय સેનાએ તેમજ પૂર્ણ સામગ્રી યુક્ત સુસજિજત થઈને જેમણે સમસ્ત અલંકારો ધારણ र्या छ से पाय मनीधितिय यथाथी प्रस्थित थया. 'तयणंतर च णं बहवे आभिअगिआ देवा य देवीओ य सएहि सएहिं रूवेहि जाव णिओगेहि सम्क देविद देवराय पुरओय मग्गओ य अहाणुपुबीए' त्या२ मा मन४ मालिय४ हे। मन हेवी सस्थित થયાં એ બધાં દેવ-દેવીઓ પિત–પિતાના રૂપથી, પિત–પિતાના કર્તવ્ય મુજબ ઉપસ્થિત Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्र तदनंतरं च खलु बहवः आभियोगिकाः-आज्ञाकारिणो देवाश्च देव्यश्च स्वकैः कैः रूपैः, यथा स्वकर्मोपस्थितैः उत्तरवैक्रियस्वरूपैः यावच्छब्दात् स्वकैः स्वः विभवैः यथा कर्मों पस्थितैः संपत्तिभिः स्वकैःनियोगैः उपकरणैः शक्रं देवेन्द्रं देवराजं पुरतश्च मार्गतश्च पृष्ठतः पार्श्वतश्च उभयोः, यथानुपूर्त्या यथा वृद्वक्रमेण संप्रस्थिताः 'तयणंतरं च णं बहवे सोहम्म कप्पवासी देवाय देवीओय सम्बिद्धीए जाव दुरूढा समाणा मग्गओअ जाव संपद्विआ' तदनंतरं च खलु बहवः सौधर्मकल्पवासिनो देवाश्च देवश्च सर्वद्धर्या यावत् दुरूढा आरूढाः सन्तः मार्गतश्च यावत्संप्रस्थिताः, अत्र प्रथम यावत्पदात् शक्रस्य हरिनिगमेषिणं प्रति स्वाज्ञप्तिविषयकः प्रागुक्तः, संपूर्ण आलापको ग्राह्यः, तेन स्वानि स्वानि यानविमानवाहनानि आरूढाः सन्तः इत्यर्थः द्वितीय यावत्पदात् पुरतः पार्श्वतश्च शक्रस्य इति ग्राह्यम् अथ यथा सौधर्मकल्पानिर्याति तथा चाह-'तएणं' इत्यादि 'तए णं से सक्के' ततः खलु स शक्रः 'तेणं पंचाणिअपरिक्खि ते णं जाव महेदज्झएणं तेन प्रागुक्तस्वरूपेग पश्चानीकपरिक्षिप्तेन पश्चाभिः संग्रामिकैरनीकैः परिक्षिप्तेन-सर्वतः परिवृतेन .यावन्महेन्द्र यावत्पदान् पूर्वोक्तः देवरायं पुरओ य मग्गो य अहाणुयुवी' इसके बाद अनेक आभियोगिक देव और देवियां अपने अपने रूपों से अपने अपने कर्तव्य के अनुरूप उपस्थित वैक्रिय स्वरूपों से यावत् अपने २ वैभव से और अपने अपने नियोगों से युक्त हुई देवेन्द्र देवराज शक के आगे पीछे और दाई बाई ओर यथाक्रम से प्रस्थित हुई 'तयणंतरं च णं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवाय देवीओय सव्विड्डीए जाव दुरूढा समाणा मग्गओ य जाव संपट्टिया' इनके बाद अनेक सौधर्मकल्पवासी देव एवं देवियां अपनी अपनी समस्त ऋद्धि से यान विमानादिरूप संपत्ति से युक्त हुई अपने अपने विमानों पर चढकर देवेन्द्र देवराज शक के आगे पीछे और दाई वाईं ओर चली 'तएणं से सक्के तेगं पंचाणिय परिक्खित्तेग जाव महिंदज्झएणं पुरओ पकिड्डिज्जमाणेगं चउरासीए सामाणिय जाव परिवुडे सविडीए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मज्झं मज्झे गं तं दिव्वं देवद्धिं जाव વૈક્રિય સ્વરૂપથી યાવત્ પિત–પિતાના વૈભવથી, પિત–પિતાના નિયોગથી યુક્ત થયેલાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની આગળ-પાછળ અને ડાબી અને જમણી તરફ યથા ક્રમે પ્રસ્થિત થયાં. 'तयणंतर च णं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवाय देवीओय सव्विड्ढीए जाव दुरूढा समाणा मग्गओ य जाव संपडिया' त्या२ मा भने सोधम ४६५वासी हे मन वा पातपाताना સમસ્ત દ્વિથી સમ્પન થઈનેયાન-વિમાનાદિ ૩૫ સંપત્તિથી યુક્ત થઈને પિતપોતાના વિમાન ઉપર ચઢીને દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકની આગળ-પાછળ અને ડાબી અને જમણી તરફ यासा सायां. 'तएणं से सक्के तेणं पंछाणियपरिक्खित्तेणं जाव महिंदज्झसएणं पुरओ पकिढिज्जमाणेणं चउरासोए सामाणिय जाव परीवुडे सव्विडूढीए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मझ मज्झेणं तं दिव्य देवद्धि जाव उवदेसमाणे २ जेणेव सोहम्मरस कप्पस्स उत्तरिल्ले णिज्जाण. प्रमोदेणेव उवागच्छई' मा प्रभावशsavinारनी सेनाथी ५श्वष्टित या यात Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्नानन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६५३ सम्पूर्णो महेन्द्रध्वजवर्णको ग्राह्यः 'पुरओ पकड्डिजमाणेणं' पुरतः अग्रतः प्रकृष्यमाणेन निर्गम्यमानेन 'चउरासीए सामाणिअ जाव पडिवुडे' चतुरशीत्या सामानिकसहस्रैः परिवृतः युक्तः, अत्र यावत् 'चउहिं चउरासी हिं आयरक्खदेवसाहस्सी हिं' इत्यादि ग्राह्यम् 'सब्बिद्धीए जाव रवेग' सर्वद्वयों यावद्रवेण अत्र यावत्पदात् 'सधज्जुईए' इत्यारभ्य 'महया इद्धीए' इत्यन्तम् तथा 'महया हयणगीयवाइय' इत्यारभ्य ‘पडपडहवाइय' इत्यन्तं सर्व ग्राह्यम्, एतेषां प्रत्येकपदानां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे द्रष्टव्यम् 'सोहम्मस्स कप्पस्स मज्सं मज्झेणं तं दिव्वं देवद्धिं जाव उवदंसेमाणे उवदंसे माणे' सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन उवदंसेमाणे २ जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उतरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ' इस प्रकार से वह शक्र उस पश्च प्रकार की सेना से परिक्षिप्त हुआ यावत् जिसके आगे २ महेन्द्र ध्वज चला जा रहा है और जो ८४ हजार सामानिक देवों से परिवृत है यावत् ८४-८४ हजार आत्मरक्षक देवों से जो घिरा हआ है अपनी पूर्ण समस्त ऋद्धि के साथ, यावत् सर्व द्युति के साथ २ गाजे वाजे पूर्वक सौधर्मकल्प के ठीक बीचोबीच से होता हुआ अपनी उस दिव्य देवर्द्धि को दिखाता दिखाता जहां सौधर्मकल्प का उत्तरदिग्वर्ती निर्याण मार्गनिकलने का-प्रास्ता था वहां पर आया यहां प्रथम यावत्पद से महेन्द्र ध्वज का वर्णनात्मक पूर्ण पाठ गृहीत हुआ है द्वितीय यावत्पद से 'चरहिं चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' इत्यादि पाठ का ग्रहण हुआ है तृतीय यावत्पद से 'सव्वज्जुईए' इस पद से लेकर 'पडपडहवाइय' यहां तक का सब पाठ गृहीत हआ है इस पाठ के प्रत्येक पदों की व्याख्या इसी वक्षस्कार के कथन में की गई है अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये चतुर्थ यावत्पद से' तां दिव्यां देवद्युतिं तं दिव्यं देवानुभावं' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'उवागच्छित्ता जोयणसय साहજેની આગળ-આગળ મહેન્દ્રવજ ચાલી રહ્યો છે અને જે ૮૪ હજાર સામાનિક દેથી પરિવૃત છે યાવિત ૮૪-૮૪ હજાર આત્મરક્ષક દેવેથી પરિવૃત છે, પિતાની પૂર્ણ, સમસ્ત અદ્ધિની સાથે, યાવત્ સર્વ ઘુતિની સાથે-સાથે-ઉત્તમ માંગલિક, વા સાથે સૌધર્મ કલ્પના ઠીક મધ્યમાં થઈને પિતાની તે દિવ્ય દેવદ્ધિને બતાવતો બતાવતો જ્યાં સૌધર્મ કલ્પને ઉત્તર દિશ્વત નિયણુ માર્ગ–નીકળવાનો માર્ગ હતું ત્યાં આજે અહીં પ્રથમ યાવત્ પદથી મહેન્દ્ર દવજને વર્ણનાત્મક પૂર્ણ પાઠ સંગૃહીત થયો છે. દ્વિતીય યાવતુ ५.थी 'चउहि चउरासीहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं' मेरे ५४ सहीत थयो छे. तृतीय यावत् ५४थी 'सव्वज्जुईए' मा ५४थी 'पडुण्डहवाइय' मडी सुधीन। ५७ स. હીત થયો છે. આ પાઠમાં આવેલા દરેકે દરેક પદની વ્યાખ્યા આ વક્ષસ્કારના કથનમાં Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ingar- जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे तां दिव्यां देवद्धिम् उपदर्शयन् उपदर्शयन् अत्र यावत्पदात् तां दिव्यां देवधुति तं दिव्यं देवानुभावमिति ग्राह्यम्, सौधर्मकल्पवासिनां देवानामुपदर्शयन् उपदर्शयन्नित्यर्थः 'जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले णिज्जाणमग्गे तेणेव उवागच्छई' यत्रैव सौधर्मस्य कल्पस्यौतराहः उत्तरभागसम्बन्धी निर्याणमार्गः निर्गमनपन्थाः तत्रैवोपागच्छति स शक्रः, यथा वरयिता नागराणां विवाहोत्सवदर्शनार्थ राजपथे याति नतु नष्टरथ्यादौ तथाऽयमिति भावः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'जोयणसयसाहस्सीएहिं विग्गहे हिं ओवयमाणे २' योजनशतप्ताहसिकैः योजनलक्षप्रमाणैः विग्रहः क्रमैरिव गन्तव्यः क्षेत्रातिक्रमरूपैः अवपतन् अवपतन् अबतरन् भक्तरन् 'ताए उकिटाए जाव देवगईए वीईवयमाणे वीईवयमाणे' तया उत्कृष्टया यावदेवगत्या व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् अत्र यावत्पदात् त्वरया चपळया रुद्रया सिंहसदृश्या इति ग्राह्यम् अस्यार्थः अस्मिन्नेववक्षस्कारे प्रथमसूत्रे दृष्टव्यम् : 'तिरियमसंखिजाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं जेणेव गंदीसरवरदीवे जेणेव दाहिणपुरस्थिभिल्ले रइकरगपत्रए तेणेव उवागच्छइ' तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यं मध्येन यत्रैव नन्दीश्वस्वरोद्वीपः यत्रैव तस्यैव पृथुत्वमध्यभागे दक्षिणपोरस्यः, आग्नेयकोगस्थ रतिकरपर्वतः, तत्रैव उपागच्छति, ननु सौधर्माश्वतरतः शक्रस्य नन्दीश्वरद्वीपे एव अवतरणं युक्तिमत् नतु स्सीहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे २ ताए उश्किट्ठाए जाव देवगईए बीईवयमाणे २ तिरियमसंखिज्जाणं दोवसमुदाणं मज्झं मज्शेणं जेणेव जदोसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरपव्वए तेणेव उवागच्छइ' वहां आकर के वह १ लाख योजन प्रमाण डगों को गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमणरूप पादन्यासों को भरता भरता उस प्रसिद्ध उत्कृष्ट यावतू देवगति से तिर्यगलोक संबन्धी असंख्यात द्वीप समुद्रों के ठीक बीचोबीच से होता हुआ जहां पर नन्दीश्वर द्वीप था और उसमें भी जहां आग्नेय कोण मे रतिकर पर्वत था वहां पर आया। यहां शंका ऐसी हो सकती है कि सौधर्म स्वर्ग से उतरते हुए शक को नन्दीश्वर द्वीपमें ही सीधा જ સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. એથી જ જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી વાંચવા પ્રયાસ કરે. ચતુર્થ यावत् ५४थी 'तां दिव्यां देवद्युति तं दिव्यं देवानुभावं' से पहो ! यया छ. 'उवागच्छित्ता जोयणसाहस्सीहिं विग्गहेहि ओवयमाणे २ ताए उक्किद्वाए जाब देवगईर धीईवयमाणे २ तिरियमसंखिज्जार्ण दीवसमुदाणं मझ मझेणं जेणेव णंहीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरथिमिल्ले रदकरपव्यए तेणेव उमागन्छइ' ('i माबीन ते गेट साप જન પ્રમાણ પગલાઓ ગન્તવ્ય ક્ષેત્રાતિક્રમણ રૂપ પાદન્યાને ભરતે ભરતો તે પ્રસિદ્ધ ઉત્કૃષ્ટ પાવત કેવગતિથી તિર્યંગ લેક સંબંધી અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રોને ઠીક મધ્ય ભાગમાં થતો જ્યાં આગ્નેય કેણુમાં રતિકર પર્વત હતો, ત્યાં આવ્યા. અહીં એવી શંકા ઉદ્દભવી શકે તેમ છે કે સૌધર્મ સ્વર્ગમાંથી ઉતરીને શક્રને નન્દીવર દ્વીપમાં જ સીધા જવું. Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूणम् ६५५ पुनरसंख्येय द्वीपसमद्रातिक्रमेण तत्रागमन मितिचेत् उच्यते-निर्याणमार्गस्य असंख्यातस्य द्वीपस्य वा समुद्रस्य वा उपरिस्थितत्वेन संभाव्यमानखात् तत्रावतरणम्-ततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽसंख्यातद्वीपसमुद्रातिक्रमणं युक्तिमदेवेति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य अत्र दृष्टान्ताय सूत्रम् ‘एवं जा चेव सूरियाभस्स उत्तव्ययात्ति' एवम् उक्तरीत्या यव सूर्याभस्य वक्तव्यता यथा सूर्याभः सौधर्मकल्पादवतीर्णस्तथाऽयमपीत्यर्थः 'णवर सक्काधिकारो वत्तव्वोत्ति जाव तं दिव्यं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणपडिसाहरमाणे पडिसाहरमाणे' नवरम् अत्रायं विशेषः शक्राधिकारो वक्तव्यः, सौधर्मेन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम् इति यावत तां दिव्यां देवद्धि यावत् दिव्यं यानविमानं प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् नवरमत्र प्रथमयावच्छब्दो दृष्टान्तविषयीकृत सूर्याभाधिकारस्य अवधिसूचनार्थः, सचावधिर्विमानप्रतिसंहरणपर्यन्तो वक्तव्यः द्वितीय यावजाना युक्तिमतू था फिर वहां जाने के लिये इसे इन तिर्यगलोकवर्ती असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करने की क्या आवश्यकता थी ? तो इसका समाधान य. ही है कि सौधर्म स्वर्ग से उतर कर नन्दीश्वर द्वीप में जानेका मार्ग इन्हीं असं. ख्यात द्वीप समुद्रों के उपर से ही गया हुवा प्रतीत होता है इसलिये इसे वहाँ से जाना पडा है अतः ऐसा यह कथन युक्ति युक्त ही है । 'उवागच्छित्ता' वहां आक रके 'एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्यया णवरं सक्काहिगारोवत्तव्यो इति जाव तं दिव्यं देविद्धिं जाव दिव्वं जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्नणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स भवणे तेणेव उवागच्छ।' इसने फिर क्या किया इत्यादि सब विषय जानने के लिये सूर्याभ देवकी वक्तव्यता को देखना चाहिये यह वक्तव्यता पीछे कही जा चुकी है तात्पर्य यही है कि सूर्याभदेव जिस प्रकार सौधर्मकल्प से अवतीर्ण हुआ उसी तरह से यह યુક્તિમત હતું પછી તે ત્યાં જવા માટે તેને તિર્યશ્લોકવતી અસંખ્યાત દ્વીપસમુદ્રોને પાર કરવાની શી આવશ્યક્તા હર્તા ? તો આ શંકાનું સમાધાન આ છે કે સૌધર્મ સ્વર્ગમાંથી ઉતરીને નન્દીશ્વર દ્વીપમાં જવાનો માર્ગ એજ અસંખ્યાત દ્વીપ સમુદ્રો ઉપર થઈને જ છે. એથી જ તે શકને ત્યાં થઈને જ જવું પડયું હતું એટલા માટે આ કથન યુક્તિ યુક્ત ४ छे. 'उवागच्छिता' त्यो ७२ एवं जा चेव सूरियाभस्स वत्तव्यया णवर सक्काहिगारो वत्तव्यो इति जाव तं दिव्वं देविद्धि जाव दिव्व जाणविमाणं पडिसाहरमाणे २ जाव जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणनगरे जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छ।' તેણે શું કર્યું વગેરે જાણવા માટે સૂર્યાભવની વક્તવ્યતાને જોઈ લેવી જોઈએ. આ વક્તવ્યતા પહેલા કહેવામાં આવી છે. તાપયે આ પ્રમાણે છે કે સૂર્યાભદેવ જે પ્રમાણે સૌધર્મક૫માંથી અવતીર્ણ થયો. તેજ પ્રમાણે આ શક પણ ત્યાંથી અવતીર્ણ થયે. આ અધિકારમાં તે અધિકાર કરતાં તફાવત આટલે જ છે કે ત્યાં સૂર્યાભદેવને અધિકાર છે, Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ अम्बूद्वीपप्रज्ञतिने छन्दात् 'दिव्यं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं' इति पदद्वयं ग्राह्यम् तथा चायमित्यर्थः दिव्यां देवर्द्धि परिवारसंपदं स्वविमानव सौधर्म कल्पवासि देवविमानानां मेरौ प्रेषणात् तथा दिव्यां देवचुर्ति शरीरा मरणादि ह्रासेन तथा दिव्यं देवानुभावं देवगति ह्रस्वताऽऽपादानेन, तथा दिव्यं यानविमानं पालकनामकं जम्बूद्वीपपरिमाणन्यून विस्तारायाम करणेन प्रतिसंहरन् प्रतिसंहरन् संक्षिपन् संक्षिपन् 'जाब जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणगरे जेणेव भगओ तित्थयरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छ ' यावत् यत्रैव भगवतस्तीर्थ करस्य जन्मनगरं भगवतस्तीर्थं करस्य जन्मभवनं तत्रैव उपागच्छति, स शक्रः अत्र यावत् 'जेणेव जंबुहीवे दीवे जेणेव भरहे वासे' इति ग्राह्यम् । भी वहां से अवतीर्ण हुआ फर्क केवल इस अधिकार में उस अधिकार की अपेक्षा इतनासाही है कि वहां सूर्याभ देवका अधिकार है और यहां शक्र का अधिकार है अतः इस अधिकार का वर्णन करते समय सूर्याभ देव के स्थान में शक्र का प्रयोग करके इस अधिकार का कथन करलेना चाहिये यावत् इसने उस दिव्य देवर्द्धि का दिव्य यान विमान का प्रतिसंहरण-संकोचन किया, यहां प्रथम यावत् शब्द से सूत्रकार ने सूर्याभदेव के अधिकार की अवधि सूचीत की है और वह यहां विमान के विस्तार को संकोचन करने तक गृहीत हुइ है तथा द्वितीय यावत् शब्द से 'दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभाव' इन दो पदों का ग्रहण हुआ है इसका अर्थ ऐसा है दिव्य परिवार रूप संपत्ति को संकुचित करने के लिये उसने - शक्र ने-अपने विमान को छोड़कर बाकी के सौधर्मकल्पवासी देवों के विमानों को मेरु पर भेज दिया तथा शरीर के आभरणादिकों को संकुचिन करने के लिये उसने उन्हें कम कर दिया, दिव्य देवानुभाव को भी संकुचित करने के लिये उसने उसे कम कर दिया तथा दिव्य यान विमान रूप जो पालक नामका विमान था उसे संकुचित करने के लिये उसने इसके विस्तार की जो અને આ શકને અધિકાર છે. એથી આ અવિકારનુ વર્ણન કરતાં સૂઈભદેવના સ્થાનમાં શક શબ્દ પ્રયોગ કરીને આ અધિકારનું કથન કરી લેવુ જોઇએ. યાવતુ તેણે તે દિબ્ય દેવદ્ધિ નું–દિવ્ય યાન—વિમાનનું પ્રતિસંહરણ-સ ંકોચન કર્યું. અહીં પ્રથમ યાવત્ શબ્દથી સૂત્રકારે સૂર્યંભદેવના અધિકારની અવધિ સૂચિત કરી છે. અને તે અધિ વિમાનના વિસ્તારનું સ`કાંચન કરવું અહીં સુધી ગૃહીત થઈ છે. તેમજ દ્વિતીય યાવત્ શબ્દથી ‘વિઘ્ન’ देवजुई दिव्त्र देवाणुभाव" थे मे यह संगृडीत થયા છે. એ પદ્માના અર્થ આ પ્રમાણે છે. દિવ્ય પરિવાર રૂપ સ ́પત્તિને સંકુચિત કરવા માટે તે શકે પેાતાના વિમાનને ખાદ કરીને શેષ સૌધમ પવાસી દેવાના વિમાનને મેરુ ઉપર મેકલી દીધાં. તેમજ શરીરના આભરણાદિષ્ઠાને સંકુચિત કરવા માટે તેણે તેમને કમ કરી નાખ્યાં. દિવ્યદેવાનું માવને પણ સંકુચિત કરવા માટે તેણે કેમ કરી નાખ્યા તથા દિવ્યૂ યાન-વિમાન રૂપ જે પાલક નામક Join Education International Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् ६५७ 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं तेणं दिवेणं तिक्खुत्तो भायाहिणपयाहि णं करेइ' भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तेन दिव्येन यानविमानेन त्रि: कृष:-वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति सः शक्रः 'करित्ता' कृत्वा भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुरथिमे दिसीभागे चउरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं जाणविमाणं ठवेइ' भगातस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे ईशानकोणे चतुरङ्गुलमसंप्राप्तम् धरणितले तं दिव्यं यानविमानं स्थापयति 'ठवित्ता स्थापयित्वा 'अट्टहिं अग्गमहिसीहिं दोहि अणिएहिं गंधब्याणिएण य गट्टाणीएण य सद्धिं ताओ दिवाओ जाणविमाणागे कि जम्बूद्वीप के बराबर था कम कर दिया इस तरह सबका संकोच करता २ यावत् वह जहां पर जम्बूद्वीप नामका द्वीप था और उसमें भी जहां पर भरत. क्षेत्र था और उसमें भी जहां पर भगवान् के जन्म का नगर था और उसमें भी जहां पर भगवान् तीर्थकर का जन्म भवन था वहां पर आया। यहां पर इस यावत् शब्द से 'जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भरहे वासे इन पदों का ग्रहण हुआ है 'उवागच्छित्ता' आकर के 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मण भवणं ते णं दिव्वेणं जाणविनाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ' उस शक्र ने भगवान् तीर्थ कर के जन्म भवन की तीनवार उस दिव्य विमान से प्रदक्षिणा की 'करित्ता' तीन बार प्रदक्षिणा करके 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभागे चउरंगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्वं विमाणं ठवेई' फिर उस शक्र ने भगवान् तीर्थकर के जन्म भवन के ईशान कोने में चार अंगुल अधर जमीन पर उस दिव्य यान विमान को स्थापित करदिया 'ठवित्ता अहिं अग्गमहिसीहिं दोहिं अणीएहिं गंधव्वाणीए ण य णहाणीएण य सद्धिं ताओ વિમાન હતું, તેને સંકુચિત કરવા માટે તેણે તેના વિસ્તારને કે જે જમ્બુ દ્વીપ એટલે હવે, કમ કરી નાખ્યો. આ પ્રમાણે સર્વ રીતે સંકેચ-કર કરતે યાવતું તે જ્યાં જબુદ્વીપ નામક દ્વીપ હતો અને તેમાં પણ જ્યાં ભરત ક્ષેત્ર હતું, અને તેમાં પણ જયાં ભગવાનને જન્મ થયે તે નગર હતું. અને તેમાં પણ જ્યાં ભગવાન તીર્થકરનું જન્મ ભવન હતું ત્યાં गयो अली यावत् १५४थी 'जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भरहेवासे' मा ५६ सय थयां छे. 'उवागच्छित्ता' is 'भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवर्ण तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करेई' ते श भगवान तीर्थ ४२ना भलवननी वार ते हव्य विमानथी अक्ष।। ४२१. 'करित्ता' १ वार प्रक्षिय। ४रीने 'भवगओ तित्थयरस्स जम्मणभवण स्त उत्तरपुरस्थिमे दिसीमागे चउरगुलमसंपत्तं धरणियले तं दिव्व विमाणं ठवेइ' ५छी शर्ड ભગવાન તીર્થકરના જન્મ ભવનના ઈશાન કોણમાં ચાર અંગુલ અદ્ધર જમીન ઉપર તે हिय यान-विमानने स्पापित ४यु 'ठवित्ता अहिं अगमहिसीहिं दोहि अणीएहि गंध बाणीए ण य गट्टाणीएण य सद्धिं ताओ दिव्वाओ जाणविमाणी पुरथिमिल्लेणं तिसोवाण Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरुवएणं पच्चोरुहइ' अष्टभिरग्रमहिषीभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां गन्धर्वानीकेन च नाटयानीकेन च सार्द्धं तस्मात् दिव्यात् यानविमानात् पौरस्त्येन पूर्व स्थितेन त्रिसोपाप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहति अवतरति सः शक्रः ननु पूर्वत्रिसोपानप्रतिरूपकेण शक्रस्य अवतरणमुक्तम् अपराभ्याम् उत्तरदक्षिणाभ्यां केषामवतरणम् इत्याह- 'तर णं सकस्स देविंदस्स देवरणो' इत्यादि 'तए णं' ततः खलु 'सकस्स देविंदस्स देवरण्णो' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य 'चउरासीइ सामाणि सहस्सीओ' चतुरशीतिः सामानिकसाहस्रिकाः चतुरशीति सहस्रसंख्याक सामानिका: 'दिव्वाओ जाणविमाणओ' दिव्यात् यान दिमानात् 'उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवणं पच्चोरुहंति' औतराहेण, उत्तरदिग्भागवर्तिना त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहन्ति, अवतरन्ति 'अवसेसा देवाय, देवीओअ, ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ' दिव्वाओ जाणविमाणाओ पुरत्थिमिल्लेगं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहद्द' स्थापित करने बाद फिर वह शक्र अपनी आठ अग्रमहिषियों के एवं दो अनीकोंगन्धर्वानीक और नायानीक के साथ उस दिव्य यान विमान से पूर्व के त्रिसो पान प्रतिरूपक से होकर नीचे उतरा । ठीक है विमान की पूर्वदिशा में रहे हुए त्रिसोपान प्रतिरूपक से इन्द्र नीचे उतरता है ऐसा आप कहते हैं तो उत्तर के और दक्षिण के त्रिसोपान प्रतिरूप से कौन उतरता है तो इस आशंका के समाधान निमित्त सूत्रकार कहते हैं 'तणं सकस देविंदस्स देवरण्णो चउरासीई सामाणि साहस्सीओ जाण विमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति' उस देवेन्द्र देव - राज शक्र के उतरजाने के बाद उसके जो चौरासी हजार सामानिक देव थे वे उस दिव्य यान विमान से उसकी उत्तरदिशा के त्रिसोपान प्रतिरूपक से होकर नीचे उतरे 'अवसेसा देवाय देवीओ य ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ दाहिपिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति त्ति' बाकी के देव और देवियां उस पडिरूवएणं पच्चोरुहइ' स्थापित र्या माह ते शत्रु पोतानी आई अश्रमहिषीओ। तेभ એ અનીકા ગન્ધર્વોનીક અને નાટ્રયાનીક-ની સાથે તે દિવ્ય યાન-વિમાનના પૂર્વ તરફના ત્રિસેાપાન પ્રતિરૂપા ઉપર થઇને નીચે ઉતર્યાં. આ વાત ખરાખર છે કે. તે શ વિમાનની પૂર્વ દિશામાં આવેલા ત્રિસેાપાન પ્રતિરૂપ ઉપર થઇને નીચે ઉતર્યાં એવુ તમે કહેા છે. તેા પછી ઉત્તર અને દક્ષિણના ત્રિસેાપાન પ્રતિરૂપāા ઉપર થઈ ને કાણુ નીચે ઉતરે છે ? તો આ શકાના સમાધાનાથે સૂત્રકાર કહે છે 'तए णं सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो चउरासीई सामाणिअ साहस्सीओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिस्रोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति' ते देवेन्द्र देवरा राहु क्यारे उतरी गयो ત્યારે તેના ૮૪ જાર સામાનિક દેવે તે દિવ્ય યાન-વિમાનમાંથી તેની ઉત્તર દિશાના त्रिसोपानप्रतिज्ञय है। उपर थर्ध मे नीचे उतर्या. 'अवसेसा देवाय देवीओय ताओ दिव्वाओ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् ६५६ अवशेषाः देवाश्च देव्यश्च तस्मात् दिव्यात् यानविमानात् 'दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंतित्ति' दाक्षिणात्येन दक्षिणभागवर्तिना त्रिसोपानप्रतिरूपकेण प्रत्यवरोहन्ति-अवतरन्ति इति, 'तए णं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणिभ साइस्सीएहिं जाव सद्धिं संपरिखुडे सव्विद्धीए जाव दुदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयर माया तेणेव उवागच्छइ' ततः खलु तदनन्तरं किल स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः चतुरशीत्या सामानिकसाहसिकैः चतुरशीतिसहस्रसंख्यकसामानिकैः यावत्साद्धे संपरिवृत्तः युक्तः सर्वर्या यावत् दुन्दुभिनिर्धोपनादितरवेण यत्रैवभागवांस्तीर्थंकरस्तीर्थकर माता च तत्रैवोपागच्छति, अत्र प्रथमयावत्पदात् अष्टभिरग्रमहिषीभिरित्यादि, द्वितीययावत्पदात् पूर्व सूत्रानुसारेण बोध्यम् 'सव्वज्जुइए' इत्यादि ग्राह्यम् ‘उवागच्छित्ता' उपागत्य 'आलोए चेव पणामं करेइ' आलोके दर्शने जाते एव प्रणामं करोति 'पणामं करित्ता' प्रमाणं कृत्वा 'भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ' भगवन्तं तीर्थकरं तीर्थंकरमातरं च त्रिः दिव्य यान विमान से उसकी दक्षिण दिशा के त्रिलोपान प्रतिरूपक से होकर नीचे उतरे 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए जाव दुंदुभिणिग्घोसनाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छइ' इसके बाद वह देवेन्द्र देवराज शक्र ८४ हजार सामानिक देवों के साथ एवं आठ अग्रमहि. षियों के एवं अनेक देव देवियों के साथ साथ अपनी ऋद्धि एवं द्युति आदि से युक्त हुआ बजती हुई दुन्दुभि की निर्घोष ध्वनिपूर्वक जहां भगवान तीर्थकर और उनकी माता विराजमान थी वहां पर गया 'उवागच्छित्ता आलोए चेव पणामं करेइ, करेत्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्वुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करेत्ता करयल जाव एवं वयासी' वहां जाकर के उसने देखते ही प्रभु को एवं उनकी माताको प्रणाम किया प्रणाम करके फिर उसने तीर्थकर और जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहंति त्ति' शेष ४५ मन वाया તે દિવ્ય યાન–વિમાનમાંથી તેની દક્ષિણ દિશા તરફના ત્રિપાન પ્રતિરૂપકે ઉપર થઈને नाये जतर्या. 'तए ण से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीएहि जाव सद्धिं संपरिबुडे सविड्डीए जाव दुंदुभिणिग्धोसनाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्ययरे तित्थयरमायाय तेणेय उवागच्छइ' त्या२ पछी ते हेवेन्द्र देव२।०४ ४ ८४ M२ सामानि हेवानी साथै તેમજ આઠ અગ્ર મહિષીઓની તથા અનેક દેવ-દેવીઓની સાથે સાથે, પિતાની ઋદ્ધિ ઇતિ વગેરેથી યુક્ત થઈને દુંદુભિના નિર્દોષ સાથે જ્યાં ભગવાન તીર્થકર અને તેમના भाताश्री (२४ता ता त्यां गया. 'उवागच्छित्ता आलोए चेव पणामं करेइ, करेत्ता भगव' तित्ययर तित्थयरमायर च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल जोव एवं वयासी' त्यi run ते प्रभुत तi प्रभुने मने तमना माताश्री प्रणाम या प्रणाम કરીને પછી તેણે તીર્થકર અને તેમના માતાશ્રીની ત્રણ વાર પ્રદક્ષિણા કરી. મહક્ષિણા Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Panta ६६० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र कृत्वः वारत्रयम् आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति 'करित्ता' कृत्वा 'करयल जाय एवं वयासी' कइ तल यावत् एवं वक्ष्यमाण प्रकारेण अवादीत् उक्तवान् स शक्रः, अत्र यावत्पदात् परिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा इति ग्राह्यम् 'किमवादीदित्याइ- णमोत्थुते' इत्यादि 'णमोत्थुते रयणकुच्छिधारए' हे रत्नकुक्षिधारिके रत्नस्वरूप तीर्थकरमातः 'ते तुभ्यं नमोऽस्तु एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव' एवम् प्रोक्त प्रकारकं सूत्रं यथा दिक्कुमार्य आहुस्तथाऽवादी दित्यर्थः, अत्र यावत्पदात् 'जगप्पइवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्प सचजगजीववच्छलस्स हिअकारगमग्गदेसि वागिद्धि विभुप्पभुस्स निणस्त णाणिस्स नायगस्स बुद्धस्स बोहगस्स सव्वलोगणाहस्स सव्वजगमंगलस्स णिम्ममस्स पवरकुलसमुप्पमवस्स जाईए खत्तियस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणीत्ति' कियत्पर्यन्त मित्याह-'धण्णासि' इत्यादि 'धण्णासि पुण्णासि तं कयत्थासि' धन्यासि पुण्यासि त्वं कृतार्थासि 'अहण्णं देवाणुप्पिए सक्के णामं देविंदे देवराया भगवओ तित्ययरस्त जम्मणमहिमं करिस्सा मि' अहं खलु देवानुप्रिये ! उनकी माताको तीनवार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा करके फिर अपने दोनों हाथों को अंजलि के रूपमें करके एवं उसे मस्तक के ऊपर तीनवार घुमा करके इस प्रकार से उच्चारण किया-'णमोत्थुणं ते रयणकुच्छिधारए' हे-रत्नकुक्षिधारिके ! रत्नरूप तीर्थकर को अपने उदर में धारण करनेवाली हे मातः! तुम्हे मेरा नमस्कार हो ‘एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि तं कयथासि' इस तरह जैसा दिक्कुमारीओं ने स्तुति के रूप में पहिले कहा है वैसा ही यहां इन्द्र ने स्तुति के रूपमें कहा वह पाठ इस प्रकार से है 'जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्स सव्वजगजीववच्छलस्स हिअकारगमग्गदे. सिअ वागिद्धिं विभुप्पभुस्स, जिणस्स, णाणिस्स, सव्वजगमंगलस्स, णिम्म. मस्स, पवरकुलसमुप्पभवस्स जाईए खत्तियस्त जंसि लोगुत्तमस्त जणणी' यह पाठ 'धण्णासि पुण्णासि तं कयत्थासि अहण्णं देवाणुप्पिए सक्के णाम देविदे કરીને પછી તેણે બન્ને હાથને અંજલિના રૂપમાં કરીને તેમજ તે અંજલિને મસ્તક ઉપર भुटीन, तेने ५ पा२ ३२वीन. मी प्रमाणे ४धु. णमोत्थुगं ते रयणकुछिछधारए' ३ २त्न. કુક્ષિધારિકે! હે રત્ન રૂ૫ તીર્થકરને પિતાના ઉદરમાં ધારણ કરનારી હે માતા ! તમને मा। नम४२ डी. एवं जहा दिसाकुमारीओ जाव धण्णासि पुण्णासि तं कयत्यासि' साभ જે પ્રમાણે દિકકુમારિકાઓએ સ્તુતિના રૂપમાં પહેલાં કહ્યું છે, તેવું જ અહીં ઈ २तुतिना ३५मां ४ . ते ५: 240 प्रमाणे छ. 'जगप्पईवदाईए चक्खुणो अमुत्तस्प्त सब्व जगजीववच्छलस्स हिअकोरग मगदेसिअ वागिद्धि विभुप्पभुस्स जिगस्स णाणिस्स नायगस्स, बुद्धस्स, बोहगस्स, सबलोगणाहस्स, सब जगमंगलस्स, णिम्ममस्स, पवरकुलसमुप्पभवस्स जाईए खत्तियस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी' मा 'धण्णासि, पुण्णासि तं कयथासि अहण्णं देवाणुप्पिए सकके णाम देवि दे देवराया भगवओ तित्थयरस्स जम्मण महिमं करिस्सामि, तं गं तुम्भाहिण भाइव्वति' तमे धन्य छौ, तमे घुश्यामा छ।, तमे Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशककर्तव्यनिरूपणम् ६६१ तीर्थकरमातः ! शक्रो नाम देवेन्द्रो देवराजः भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं करिष्यमि 'तं णं तुब्भाहिं ण भाइयव्वं त्ति कटु ओसोवणिं दळयई' तत् तस्मात् खलु युष्माभिः न भेतव्यमिति कृत्वा अवस्वापिनी ददाति सुते मेरुं नीते सुतविरहार्ता मा दुःखभागभूदिति दिव्यनिन्द्रया निद्राणां करोतीत्यर्थः, 'दलइत्ता' दखा 'तित्थयरपडिरूवग बिउव्वई' तीर्थकर प्रतिरूपकं विकुर्वति तीर्थंकरस्य मेरु नेतव्यस्य भगवतः प्रतिरूपकं जिनसदृशं रूपं विकुर्वतीत्यर्थः 'अस्मास्नु मेरुंगतेषु जन्ममहव्यापृति व्यग्रेषु आसन्नदुष्टदेवतया कुतूहलादिनाऽपहत निद्रासती मा इयं तथा भवतु इति भगवद्पानिर्विशेषणं रूपं विकुर्वन्तीति भावः 'विउव्वित्ता' देवराया भगवओ तिथपरस्स जम्मामहिमं करिस्तामि, तं गं तुम्भाहिं ण भाइयवंति' तुम धन्य हो, तुम पुण्यात्मा हो, तुम कृतार्थ हो यहां तक ग्रहण करना चाहिए हे देवानुप्रिये ! मैं देवेन्द्र देवराज शक्र हूं-और भगवान तीर्थकर की जन्म महिमा करने को आया हूं अतः में उनकी जन्म महीमा करूंगा आपलोग इससे भयभीत न हों ऐसा कहकर उसने माता को 'ओसोवणि' निद्रामें 'दलयई' सुलादिया अर्थात् जब मैं इनके पुत्रको सुमेरु पर्वत पर ले जाऊंगा तो थे सुत के विरह में दुःखित हो जावेगी-इसलिये इन्हें सुनका विरह पीडित न करपावे इस अभिप्राय से माता को उसने मायामयी निद्रा से निद्रित करदिया 'दल इत्ता' निद्रा से निद्रित करके 'तित्थयर पडिरूवगं विउवह फिर उसने जिन सदृश रूपकी विकुर्वणा की-अपनी विक्रियाशक्ति से जिन सदृशरूपवाला बालक बनाया और वह इस अभिप्राय से कि जन्मोत्सव के करने में व्यग्र बने हुए मुझे मेरु पर चले जाने पर यदि कोई आसमवर्ती दुष्ट देवी कुतूहलादि के वशवर्ती बनकर मातोकी निद्रा दूर कर देती है तो यह पुत्र के विरह से कातर न होने पावे इस हेतु से उस शक्र ने जिनके जैसे रूपवाले एक बालक की चिकुर्वणा की 'विउ. કૃતાર્થ છે, અહીં સુધી શહણ કરવો જોઈએ. હે દેવાનુપ્રિયે ! હું દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક છું અને ભગવાન તીર્થકરને જન્મ મહિમા કરવા માટે આવ્યો છું એથી હું એમને જન્મ મહિમા કરીશ. આપ સર્વે એનાથી ભયભીત થશે નહિ, આમ કહીને તેણે માતાને 'ओसोपणि' निद्रामा 'दयइ' भन ४२ हीधी. सेटले न्यारे दुशमना पुराने सुभे પર્વત ઉપર લઈ જઈશ ત્યારે એ પિતાના પુત્રના વિરહમાં દુઃખિત થઈ જશે. એથી એમને સુતને વિરહ દુઃખિત કરે નહિ આ અભિપ્રાયચી માતાને તેણે માયામયી નિદ્રામાં निद्रित ४२ घi. 'दलइत्ता' निद्रा मान ४रीन 'तित्थयरपडिख्वगं विउब्ध पछी २ સદશ રૂપની વિકુણા કરી–પિતાની વિક્રિયા શક્તિથી તે જિન સદશ રૂપવાળું બાળક બનાવ્યું, અને આ અભિપ્રાયથી તેણે આવું કર્યું કે જ્યારે હું જન્મોત્સવ કરવા માટે મેરૂ પર્વત પર જતો રહીશ અને ત્યાં જન્મ:વમાં વ્યસ્ત થઈ જઈશ અને પાછળથી કે આસનવત દુષ્ટ દેવી કુતૂહલવશ થઈને માતાની નિદ્રાને ભંગ કરશે તે તે પુત્રના Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विकुळ 'एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ' तेषां पश्चानां मध्ये एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन करतलयोः ऊर्धाधो व्यवस्थितयोः पुटं संपुटं शुक्तिकासंपुटमिवेत्यर्थः' तेन अति अतिपवित्रेण सरसगोशीर्षचन्दनचर्चितेन धृपवासितेने तिगम्यं गृह्णाति, 'एगे सक्के पिट्टओ आयवत्तं धरेइ' एकः शक्रः पृष्ठतः आतपत्रं छत्रं धरति गृह्णाति 'दुवे सक्का उभो पासिं चामरुक्खेव करेंति' द्वौ शक्रौ उभयोः पार्श्वयोः चामरोरक्षेपं कुरुतः ‘एगे सके पुरओ वज्जपाणी पक्कड' इति' एकः शक्रः पुरतो वज्रपाणिः सन् प्रकर्षति निर्गमयति, आत्मानमिति, अग्रतः प्ररर्तते इत्यर्थः। अत्र च सत्यपि सामानिकदेवपरिवारे यत् इन्द्रस्य स्वयमेव पश्चरूपविकुर्वणं तत् त्रिजगद्गुरोः परिपूर्ण सेवालिप्मुत्वेन बोध्यम् । वित्ता' विकुर्वगाकर के 'तित्थयरमाउआए पासे ठवेह' फिर उसने उस शिशुको तीर्थकर माता के पास रख दिया 'ठवेत्ता पंच सक्के विउवइ, विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेण गिण्णइ एगे सक्के पिट्ठओ आयवत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरक्खेवं करेंति' इसके बाद उसने फिर पांच शकों की विकुर्वणा की अर्थात् वह स्वयं पांच रूपोंवाला बन गया इस प्रकार पांचरूपों में एक शक के रूप ने भगवान् तीर्थकर को अपने करतल पुट से पकडा यह उसका करतल पुर परम पवित्र था, सरस गीशीर्ष चन्दन से लिप्त था और धूप से वासित था एक दूसरे शक ने भगवान के ऊपर छत्र ताना और दो शकों ने भगवान की दोनों ओर खडे होकर उन पर चामर ढोरे तथा 'एगे सक्के पुरओ वज्जपाणी पकड इति' एक शक हाथ मे वत्र लेकर भगवान् के आगे २ चला यद्यपि सामानिकादि देवों का परिवार उस समय साथ में चल रहा था परन्तु इस प्रकार से अपने आपको पांच रूपों में विकुर्वित करके વિરહથી દુખિત થાય નહિ. એટલા માટે જ તે શકે જિનના જેવા રૂપવાળા એક બાળકની विq४३१. 'विउव्वित्ता' वि ! ४शन तित्थयरमाउआए पासे ठवेइ' ५छी शिशुन तीय ४२ भातानी पासे भूी हीधी. 'ठवेत्ता पंच सके विउच्चाइ, विउवित्ता एगे सक्के भगवं तित्थयर करयलपुडेण गिण्हइ एगे सक्के पिट्टओ आयबत्तं धरेइ, दुवे सक्का उभओ पासिं चामरुक्खेब करे ति' या२ मा तणे १२ पाय शोनी वा ४६१ अटकेत પિતે પાંચ રૂપવાળો બની ગયે. આ પ્રમાણે પાંચ રૂપમાંથી એક શકના રૂપે ભગવાન તીર્થકરને પોતાના કરતલ પુટમાં ૩પાડયા તેને આ કરતલ પુટ પરમ પવિત્ર હતો. સરસ ગશીર્ષ ચન્દનથી લિપ્ત હતો તેમજ ધૂપથી વાસિત હતો. એક શકે ભગવાનની ઉપર છત્ર આચ્છાદિત કર્યું –અને બે શકો એ ભગવાનની બન્ને તરફ ઊભા રહીને તેમની ઉપર यभर ४ सय. तथा 'एगे सक्के पुरो वज्जपाणी पकड्ड् इति' से श सायमा વજ લઈને ભગવાનની આગળ આગળ ચાલવા લાગે છે કે સામાનિકાદિ દેવેને પરિવાર તે સમયે સાથે-સાથે ચાલી રહ્યો હતે. પરંતુ આ પ્રમાણે પિતાની જાતને પાંચ Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ६ यानादि निष्पन्ननन्तरीयशक्रकर्तव्यनिरूपणम् ६६३ __ अथ यथा शक्रो विवक्षितस्थान प्राप्नोति तथा आह-'तए णं से सक्के' इत्यादि 'तपणं से सके देविंदे देवराया' ततः खलु तदनन्तरं किल स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः 'अण्णेहिं बहहिं भवणवइ बाणमंतर जोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिअ सद्धिं संपरिबुडे' अन्यैर्बहुभिर्भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैदवदवी भिश्च साद्ध संपरिवृतः 'सन्धिद्धीए जाब णाइएणं' सर्वद्धर्या यावत् नादितेन अत्र यावत्पदात् 'सबज्जुइए' इत्यादि ग्राह्यम् 'ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे २' तया उत्कृष्टया यावद् व्यतिव्रजन व्यतिव्रजन् अत्र यावत्पदात् त्वरया चपलया रुद्रया देवगत्या इति ग्राह्यम्, एषां व्याख्यानम् अस्मिन्नेव वक्षस्कारे प्रथमसूत्रे द्रष्टव्यम् 'जेणेव मंदरे पत्रए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसे असिला जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ' यत्रैव मन्दरपर्वतः यत्रैव पण्डकवनं यत्रै अभि. षेकशिला यत्रैव चाभिषेक सिंहासन तत्रैवोपागच्छति स शक्रः 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेत्ति' सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः सनिषण्णः उपविष्टवान् स शक्रः ॥ सू०६॥ जो इन्द्र ने इस प्रकार की व्यवस्था की वह सब त्रिजगद्गुरु की परिपूर्ण सेवा प्राप्त करने की इच्छा से ही की 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया अण्णेहिं बहहिं भवणवइवाण मंतरजोइस वेमाणिएहिं देवेहि देवीहिय सद्धिं संपरिबुडे सव्वि द्धीए जाव णाइए णं ताए उक्किट्ठाए जाव वीईवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेयसिला' इसके बाद वह देवेन्द्र देवराज शक्र अन्य अनेक भवन पति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों से तथादेवियों से युक्त हुआ अपनी समस्त ऋद्धि के अनुसार खूब गाजे बाजे नृत्यादिको के साथ २ उस अपनी उत्कृष्ट गति से चलता २ जहां पर मन्दर पर्वत था और उसमें जहां पण्डकवन था और उसमें भी जहां अभिषेक शिला थी 'जेणेव अभिसेअसीहासणे तेणेव उवागच्छइ' एवं जहां पर अभिषेक सिंहासन था રૂપમાં વિકૃતિ કરીને જે ઈદ્ર આ પ્રકારની વ્યવસ્થા કરી હતી. તે વિજગદ્ગુરુની परिपूर्ण सेवा प्रात ४२वानी ७२छाथी ४२री ती. 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया अण्णेहिं बहूहि भवणव इवाणमंतरजोइसवेमाणिएहि देवेहि देव हिय सद्धि संपरिखुडे सव्वि. द्धीए जाव णाइएणं ताए उक्किट्ठाए जाव वीर्हवयमाणे जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेयसिला' त्या२ माह त हेवेन्द्र ३५२१ । अन्य अने भवनपति, पान०यन्त२, તિષ્ક અને વૈમાનિક દેવેથી તેમજ દેવીઓથી યુક્ત થયેલે તે પોતાની સમસ્ત અદ્ધિ મુજબ ખૂબજ માંગલિક વાદ્ય-નૃત્યાદિકે સાથે-સાથે તે પિતાની ઉત્કૃષ્ટ ગતિથી ચાલતે ચાલતે જ્યાં મન્દર પર્વત હતું અને તેમાં પણ જ્યાં પડકવન હતું અને તેમાં ५५ न्यi अमिषे शिक्षा ती. 'जेणेव अभिसेउसीहासणे देणेव उवागच्छइ' तेमा , Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अथेशानेन्द्रावसरमाह-'तणं कालेणं' इत्यादि मूलम्-तेणं कालेणं तेगं समएणं इसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे सुरिंदे उत्तरद्धलोगहिवई अट्ठावीस विमाणवाससयसहस्सा. हिवई अयरंबरवत्थधरे एवं जहा सक्के इमं जाणत्तं महाघोसा घंटा लहुपरकमो पायत्ताणियाहिवई पुप्फओ विमाणकारी दविखणे निजाण मग्गे उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपवओ मंदरे समोसरिओ जाव पज्जु. वासइत्ति, एवं अवसिट्टावि इंदा भाणियवा जाव अच्चुओत्ति, इमं णाणत्तं चउरासीइ असीइ बावत्तरि सत्तरीअ सट्टीअ पाणावत्तालीसा तीसावीसा ॥१॥ एए सामाणिआ णं बत्तीसत्तावीसा बारसटु चउरोसयसहस्सा । पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्लारे ॥१॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिमि । एए विमाणाणं इमे जाणविमाणकारीदेवा, तं जहा-पालय१ पुप्फे य२ सोनणसे३-सिरिच्छे अ४ पंदिआवत्ते५ कामगमेद पीइगमे७ मगोरमेटविमल९ सपओभद्दे १८ ॥१॥ सोहम्मगाणं सगंकुमारगणं बंलोअगाणं महासुकाणं पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा हरिणेगमेसी पायताणीआहिबई उत्तरिल्ला गिजाण भूमी दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपत्रए, ईसाणगाणं माहिंदलंतकसहस्सार अच्चुयगाण य इंदाण महाघोसा घंटा लहु परकमो पायत्ताणिआ. हिवई दक्खिणिल्ले णिज्जाणमग्गे उत्तरपुरथिमिल्ले रइकरगपव्यए परिसाणं जहा जीवाभिगमे आयरक्खा सामागिअ चउम्गुणा सव्वेसि जागविमाणा सव्वेसिं जोयणसयसहस्सविच्छिण्णा उच्चत्ते गं स विमाणप्यमाणा महिंदज्झया सम्वेसिं जोधणसाहस्लिआ सकवजा मंदरे समो अरंति जाव पज्जुवासंतित्ति । सू०७॥ वहां पर गया 'उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसम्गेइ वहां जाकर वह पूर्व की दिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गया ॥६॥ मनिष मिसन हेतु त्यां गया. 'उबागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सण्णिसण्णेइ' ત્યાં જઈને તે પૂર્વ દિશા તરફ મુખ કરીને સિંહાસન ઉપર બેસી ગયે. તે સૂર-૬ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू.७ इशानेन्द्रावसरनिरूपणम् छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये ईशानो देवेन्द्रो देवराजः शूलपाणिः वृषभवाहन: सुरेन्द्रः उत्तरार्द्धलोकाधिपतिः अष्टाविंशतिविमानावासशतसहस्राधिपतिः अरजोऽम्बरवस्त्रधरः एवं यथाशक्रः इदं नानात्वम् महाघोपा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनोकाधिपतिः पुष्पको विमानकारी दक्षिणो निर्माणमार्गः उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतो मन्दरे समवस्तो यावत् पर्युः पास्ते इति एवम्, अवशिष्टा अपि इन्द्रा भणितव्याः यावत् अच्युतः, इति इदं नानात्वम्चतुरशीतिः, द्विसप्ततिः सप्ततिश्च षष्ठिश्च, पश्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशतिः विंशतिः दशसहस्राणि ॥१॥ एते सामानिकानां द्वात्रिंशत् अष्टाविंशतिः द्वादशाष्ट चत्वारि शतसहस्राणि पश्चाशत् चत्वारिंशत् षट् च सहसारे ॥१॥ आनतप्राणतकल्पे चत्वारिशतानि आरणाच्युतयोस्त्रीणि, एते विमानानाम् इमे यानविमानकारिणो देवाः तद्यथा पालकः १, पुष्पकः २, सौमनसः ३ श्रीवत्सः ४ नन्दिकावर्तः ५ कामगमः ६ प्रीतिगमः ७ मनोरमः ८ विमल: ९ सर्षतोभद्रः १० ॥१॥ सौधर्मकाणां सनत्कुमारकाणां ब्रह्मलोकानां महाशुक्राणं प्राणतकानाम् इन्द्राणाम् सुघोपाघण्टा हरिनैगमेषी पदात्यनीकाधिपतिः औत्तरादा निर्याणभूमिः दक्षिण पौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, ईशान कानां माहेन्द्रलान्तकसहस्राराच्युतकानां चेन्द्राणां महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिः, दक्षिणो निर्माणमार्गः उत्तरपौरस्त्णे रतिकरपर्वतः परिषदः खलु यथा जीराभिगमे आत्मरक्षाः सामानिकचतुर्गुणाः सर्वेषाम् यानविमानानि सर्वेषां योजनशतसहस्रविस्तीर्णानि उच्चत्वेन स्वविमानप्रमाणानि मदेन्द्रध्वजाः सर्वेषां योजनसाहनिकाः शक्रवर्जाः मन्दरे समवसरन्ति यावत्पर्युपासते ॥ ७॥ टीका-तेगं कालेणं तेणं समर णं' तस्मिन् काले सम्भवन्जिनजन्मके तीर्थंकरजन्मावसरे तस्मिन् समये-दिक्कुमारी कृत्यानन्तुरीये न तु शक्रागमनानन्तरीये सर्वेषामिन्द्राणं' जिनकल्याणाय युगपदेव समागमारम्भस्य जायमानत्वात् यत्तु सूत्रे शक्रागमनानन्तरीय. मीशानेन्द्रागमनमुक्तं तत्क्रमेणैव सूत्रबन्धस्य संभवात् 'ईसाणे' ईशानः देवलोकेन्द्रः 'देविदे' देवेन्द्रः देवानामिन्द्रः स्वामी देवरानः देवाधिपतिः 'मूलपाणिः' शूलपाणिः, शूल: पाणौ हस्ते यस्य सः 'वसभवाहणे वृषभवाहनः वृषभो वाहनं यस्य स तथा भूतः 'सुरिंदे' सुरेन्द्रः ईशानेन्द्रावसर 'तेणं कालेणं तेणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया टोकार्थ- तेणं कालेगं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'ईसाणे देविंदे देवराया' देवेन्द्र देवराज ईशान 'मूल गाणी' कि जिसके हाथमें त्रिशूल है 'वसभवाहणे' वाहन जिसका वृषभ है 'सुरिंदे उत्तरद्धलोगाहिवई' सूरों का इन्द्र ઈશાનદ્રાવસર 'तेणं कालेग तेणं समएणं ईसाणे देवि दे देवराया' इत्यादि, टी -'तेणं कालेणं तेणं समएण' ते णे ते सभये 'ईसाणे देवि दे देवराया' हेवेन्द्र हेवरा शान 'सूलपाणी' है ना हायमा त्रिशुल छे. 'वसभवाहणे' पालन पूषण Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जम्बूद्वीपप्रशसिस्ने तथा 'उत्तरद्धलोकाहिबई' उत्तरार्द्ध लोकाधिपतिः, मेरोरुत्तरतोऽस्यैवाऽऽधित्यात् ईशाननामा द्वितीय इन्द्रः पुनः कीदृशः, तत्राह-'अट्ठावीस विमाणवाससयसहस्साहिवई' अष्टाविंशति विमानावासशतसहस्राधिपतिः, अष्टाविंशतिलक्षविमानस्वामीत्यर्थः । तथा 'अरयंबरवत्थधरे' अरजोऽबरवस्त्रधरः, अरजांसि पांशुरहितत्वात् निर्मलानि अम्बस्वस्त्राणि स्वच्छतया आकाश कल्पानि वसनानि धरति यः स तथाभूतः, आकाशवत् निर्मलवस्त्रधारीत्यर्थः ‘एवं जहा सक्के' एवम् उक्त प्रकारेण यथा शक्रस्तथाऽयमपि बोध्यः 'इमं णाणत्तं' इदमत्र नानात्वं विशेषः, अस्य 'महाघोसा घंटा लघुपरक्कमो पायत्ताणियाहिवई' महाघोसा घण्टा लघुपराक्रमः लघुपराक्रमनामा पदात्यनीकाधिपतिः 'पुप्फओ विमाणकारी' पुष्पक:-पुष्पकनामा विमानकारी 'दक्खिणे निजाणमग्गे' दक्षिणो निर्याणमार्गः दक्षिणा निर्याणभूमिरित्यर्थः 'उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्वओ' उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः "मंदरे समोसरिओ जाव पज्जुवासइत्ति' मन्दरे समवमृतः समागतो यावत् पर्युपास्ते इति अत्र यावत्पदात् 'भगवंतं तित्थयरं है, उत्तरार्द्धलोक का जो अधिपति है 'अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई' अट्ठाईस लाख विमान जिसके अधिपतित्व मे हैं 'अरयंबरवत्थधरे निर्मल अम्बरवस्त्रों को स्वच्छ होने के कारण आकाश के जैसे वस्त्रों को-धारण किये हए 'मंदरे समोसरिओ' सुमेरु पर्वत पर आया ऐसा सम्बन्ध यहीं पर लगालेना चाहिये 'एवं जहा सक्के' शक-सौधर्मेन्द्र जिस प्रकार के ठाटबाट से आया वैसे ही ठाटबाट से यह भी आया 'इमं णाणत्तं' शक्र के प्रकरण की अपेक्षा इसके इस प्रकरण में अन्तर केवल यही है कि इस ईशान की 'महाघोसा घंटा, लहु. परक्कमो, पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमाणकारी, दक्खिणे निजाणमग्गे, उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपवओ' महाघोषा नामकी घंटा है लघुपराक्रम नामका पदात्यनीकाधिपति है पुष्पक नामका विमान है दक्षिण दिशा इसके निर्गमन की भूमि है उत्तर पूर्वदिशावर्ती रतिकर पर्वत है 'समोसरिओ जाव' छ. 'सुरिंदे उत्तरद्धलोगाहिवई' सुशन। २ न्द्र छ, उत्तानो पति छ, 'अदावीसविमाणावाससयसहस्साहिबई' मध्यावीस साप विमान नामधिपतित्वमा छे. 'अरयंबरवत्थधरे' निर्मण २५२ वस्त्रो२-२२७ डावाने दाधे मा४२वा वस्त्रोनेधारण ४शन ते 'मंदरे समोसरिओ' सुभे३ ५वत ५२ माव्या. सेवा से सही' usa स. 'एवं जहा सक्के' २ प्रमाणे श-सौधमेन्द्र 18-मा साथे माव्याला तवा ४४ भाई साथे त ५९४ माव्या. 'इमं णाणत्तं' शनी प्रशुनी अपेक्षागे । ५४२मा म त छे , ये शाननी 'महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो, पायत्ताणियाहिवई, पुप्फओ विमाणकारी, दक्खिणे, निज्जाणमग्गे उत्तरपुरथिमिल्लो रइकरपव्व ओ' मायाषा નામક ઘંટા છે. લઘુ પરાક્રમ નામક પદાત્યનીકાધિપતિ છે. પુપક નામક વિમાન છે. દક્ષિણ દિશા તરફ તેના નિર્ગમન માટેની ભૂમિ છે. ઉત્તર પૂર્વ દિશાવતી રતિકર પર્વત Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ७ इशानेन्द्रावसरनिरूणम् મેદહ तिखुतो आयाहिणपयाहिण करेइ करिता' वंदइ नमसइ वदित्ता नमसित्ता णच्चासणे णाइदुरे मुस्समाणे णसमाणे अभिमुद्दे विणणं पंजलिउडे' एतेषां संग्रहः अथातिदेशेन अवशि नां सनत्कुमारादीन्द्राणां वक्तव्यतामाह - ' एवं अवसिद्वावि' इत्यादि ' एवं अवसिद्धावि' एवम् अवशिष्टा अपि 'इंदा भाणियन्त्रा' जाव अच्चुओत्ति' इन्द्रा वैमानिकानां भणितव्या यावत् अच्युतेन्द्रः, एकादशद्वादश कल्पाधि पतिरिति, अत्र यो विशेषस्तमाह - 'इमं णाणत्तं' इदं नानालम्, भेदः 'चउरासीइ, असीइवावत्तरि सत्तरीत्र सट्ठीय पण्णाचत्तालीसा तीसावीसा दससहस्सा ॥१॥ अत्र च अन्तिम सहस्रपदस्य पत्येकं संबन्धः तथा च चतुरशीतिः सहस्राणि शक्रस्य अशीतिः सहस्राणि ईशानेन्द्रस्य, द्विसप्ततिः सहस्राणि सनत्कुमारेन्द्रस्य एवं सप्ततिः मैं जो यावत्पद आया है उससे 'भगवन्तं तित्थयरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेता बंदर, णसंसद, वंदित्ता नर्मसित्ता पच्चासपणे नाईदूरे सुस्सूसमाणे, नर्मसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे' इस पाठ का ग्रहण हुआ है इन पदों का अर्थ स्पष्ट है वहां आकर के उसने प्रभुकी पर्युपासना की 'एवं अवसिहा वि इंदा भाणिषव्वा' इसी तरह अर्थात् सौधर्मेन्द्र के सम्बन्ध में कथित रीती के अनुसार वैमानिक देवों के अवशिष्ट इन्द्र भी आये ऐसा कहलेना चाहिये ! और ये इन्द्र यहां अच्युतेन्द्र तक के आए। यह अच्युतेन्द्र ११-१२ वें कल्प का अधिपति है । 'इमं णाणत्तं चउरासीह, असीर बावन्तरि सत्तरी अणसट्ठीअ पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दससहस्सा बत्तीसहावीसा बारसह चउरो सयसहस्सा, पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सारे' इन गाथाओं द्वारा किन २ इन्द्रों के कितने सामानक देव एवं कितने विमान हैं यह प्रकट किया गया है- सौधर्मेन्द्र के ८४ हजार सामाजिक देव हैं ईशान के ८० हजार सामानिक देव हैं ७२ हजार सामानिक देव सनत्कुमारेन्द्र के हैं ७० हजार सामानिक देव माहेन्द्र भावे छे. 'समोसरिओ जाव' मां ने यावत् यह ४ छे तेनाथ 'भगवंतं तित्थयर तिक्खुतो आयाणिपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, णसई, वंदित्ता नर्मसित्ता णच्चासणे नाइदूरे सुस्सूसमाणे, णमंसमाणे अभिमुद्दे विणएणं पंजलिउडे' मा पाठे श्रणु४राये छे. मे पोनो अर्थ स्पष्ट छे. त्यां भावाने तेथे असुनी पर्युपासना री ' एवं अवसिट्ठा वि इंदा भाणियश्वा' આ પ્રમાણે અર્થાત્ સૌધર્મેન્દ્રના સબધમાં કથિત રીતિ મુજબ વૈમાનિક દેવાના અવશિષ્ટ ઈન્દ્રો પણ આવ્યા, એવુ કહી લેવું જોઈએ. અને એ ઇન્દ્રો પણ અહી અચ્યુતેન્દ્ર સુધીના અહી આવ્યા, આ અચ્યુતેન્દ્ર ૧૧-૧૨માં કલ્પને અધિપતિ छे. 'इमं णाणत्तं - चउरासीइ, असीइ बावत्तरी अण्णसट्ठीअ पण्णा चत्तालीसा तीसा बीसा दस सहस्सा बत्तीसावीसा बारसदृ चउरो सयस इस्सा, पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा रे' આ ગાથાએ વડે કયા-કયા ઈન્દ્રોને કેટલાં સામાનિક ધ્રુવે તેમજ કેટલાં વિમાને છે એ પ્રકટ કરવામાં આવ્યુ છે. સૌધર્મેન્દ્રના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવે છે. ઈશાનને 20 Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशसिसूत्र सहस्राणि माहेन्द्रस्य च समुच्चये पष्ठिः सहस्राणि ब्रह्मेन्द्रस्य च समुच्चये, पश्चाशत् लान्तकेन्द्रस्य, चवारिंशत् सहस्राणि शुक्रेन्द्रस्य, त्रिंशत् सास्त्राणि सहस्राणि सहस्रारेन्द्रस्य बिंशतिः सहस्राणि आनतप्राणत कल्पद्विकेन्द्रस्य दशसहस्राणि अच्युतकल्पद्विकेन्द्रस्य ।।१।। 'एए सामाणियाणं' एते संख्याप्रकाराः सामानिकानां देवानां क्रमेण दशकल्पेन्द्र संबन्धिनामिति तेन 'चउरासीए सामाणियअसाहस्सीणं' इत्येत द्विशेषणस्थाने प्रतीन्द्रालापकम् 'चउरासीए असीइए बावत्तरिए सामाणियसाहस्सीणं' इयाघभिलापो ग्राह्यः, तथा 'बत्तीसट्टाकोसा वारस चउरोसयसहस्सा पण्णाचत्तालीसा छच्चसहस्सारे ॥१॥ तथा सौधर्मेन्द्रकल्पे द्वात्रिंशल्लक्षाणि, ईशाने अष्टविंशतिर्लक्षाणि एवं सनत्कुमारे द्वात्रिंशत् शतसहस्राणि द्वादश लक्षणि, माहेन्द्रे अन्टौ लक्षाणि, ब्रह्मलोके चत्वारि लक्षाणि तथा लान्तके पञ्चाशत् सहस्राणि, एवं शुक्रे चखारिंशत्सास्राणि च समुच्चये सहस्रारे एटू सहस्राणि, 'आणयपाणय कप्पे चत्तारिसयारणच्चुर तिन्नि। 'एए विमाणाणं इमे जाण विमाणकारीदेवा' आनत प्राणतकल्पयोः द्वयोः समुदितयोः चत्वारि शतानि आरणाच्युतयोः स्त्रीणिशतानि । एते के है ब्रह्मेन्द्र के सामानिक देव ६० हजार हैं । ५० हजार सामानिक देव लान्तकेन्द्र के है। ४० चालीसहजार समानिकदेव शुक्रेन्द्र के हैं । ३० हजार सामानिक देव सहस्रारेन्द्र के हैं । २० हजार देव आनत प्राणत कल्पविकेन्द्र के हैं । और आरण अच्युत कल्पद्विकेन्द्र के १० हजार सामानिक देव हैं। सौधर्मेन्द्र शक के ३२ लाख विमान है २८ लाख विमान ईशानेन्द्र के हैं सनत्कुमारेन्द्र के १२ लाख विमान हैं माहेन्द्र के आठ लाख विमान में ब्रह्मलोकेन्द्र के ४ लाख विमान हैं । लान्तकेन्द्र के ५० हजार विमान शुक्रेन्द्र के ४० हजार विमान हैं सहस्त्रारेन्द्र के ६ हजार विमान हैं आनत प्रागत इन दो कल्पों के इन्द्र के चारसौ विमान हैं और आरण अच्युत इन कल्पों के इन्द्र के ३ सौ विमान हैं। यान विमान के विकुर्वणा करनेवाले देवों के नाम क्रमशः इस प्रकार હજાર સામાનિક દે છે. સનસ્કુમારેદ્રને ૭૨ હજાર સામાનિક દે છે. મહેન્દ્રને ૭૦ હજાર સામાનિક દે છે. બ્રક્ષેન્દ્રને ૬૦ હજર સામાનિક દે છે. લાન્તકેન્દ્રને ૫૦ હજાર સામાનિક દે છે. કેન્દ્રને ૪૦ હજાર સામાનિક દે છે. સહસારને ૩૦ હજાર સામાનિક દેવ છે. આનત પ્રાણત ક૬૫ દ્વિકેન્દ્રો ૨૦ હજાર સામાનિક દે છે. આરણ અયુત ક૯પ ક્રિકેન્દ્રને ૧૦ હજાર સામાનિક દે છે. સૌધર્મેન્દ્ર શક્રને ૩૨ લાખ વિમાને છે. ઈશાનને ૨૮ લાખ વિમાને છે. સન-કુમારના ૧૨ લાખ વિમાને છે. મહેન્દ્રને આઠ લાખ વિમાને છે. બ્રહ્મલે કેન્દ્રને ૪ લાખ વિમાને છે. લાકેન્દ્રને ૫૦ હજાર વિમાનો છે. શહેન્દ્રને ૪૦ હજાર વિમાને છે. સહસારેન્દ્રને ૬ હજાર વિમાને છે. આનત-પ્રાકૃત એ બે કલપના ઈન્દ્રને ૪૦૦ વિમાને છે - પ. આરણ અય્યત એ કલ્પના ઈન્દ્રને ૩૦૦ વિમાને છે. યાન–વિમાનની વિકુવરણ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ७ इशानेन्द्रावसरनिरूपणम् ६६१ संख्या प्रकाराः विमानानाम् इमे वक्षरमाणाः यानदिमानकारिणः यानदिमान विकुर्वकाः, देवाः शक्रादिक्रमेण बोध्याः 'तं जहा-पालय १ पुप्फेय २ सोमण से ३ सिरिवच्छे ४ पं दियावत्ते ५ कामगमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८ दिमल ९ सयभोभदे १० ॥१॥ तद्यथा पालकः १ पुष्पकः २, सौमनसः ३ श्रीवत्सः ४ च समुच्चये, नन्दावतः ५ कामगमः ६ प्रीतिगमः ७ मनोरमः ८ विमलः ९ सर्वतोभद्रः १० ॥१॥ इति । अथ दशमु कल्पेन्द्रेणु केनचिन् प्रकारेण पञ्चानाम् २ साम्यमाह - सोहम्मगाणं' इत्यादि 'सोहम्मगाणं सणंकुमाराणं बंभलो अगाणं महामुक्याणं पाणगगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा हरिणे गमेसी पायताणी भाहिबई उत्तरिल्ला गिजाणभूगी दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपव्यए' सौधर्म कानां सौधर्मदेवलोकोत्पन्नानाम् राधा सनत्कुतारकामा नझलोकानां महाशुक्र कानां प्राणत. कानामिन्द्राणां मुघोषा घंटा हरेणेगमेशी पदात्यनीहाधिपतिः इति औत्तराहा निर्याणभूमिः से है-(१) पालक (२) पुष्पक, (३) सौमनस, (४) श्रीवत्स, नन्दावर्त (५) कामगम (६) प्रीलिगम (७) मनोरम (८) विमल और (९) सर्वतो भद्र, यही विषय'आणयपाणयकप्पे, चत्तारि सयाऽऽरलच्दुए तिमि एए विमाणाणं, इमे जाणविमाणकारी देवा पालय पुपकेय सोमगले सिरिवच्छे गंदियायत्ते, कामगमे पीइगमे मणोरमे विमल सवओ भरे' अब १० कल्पेन्द्रों में से किसी भी प्रकार से जिन पांच इन्द्रों में समानता है वह दिखाया जाता है-'सोहम्मगाणं, सणं. कुमारगाणं, भलोअगाणं, महातुक्कयाणं, पाणयगाणं, इंदाणं सुघोसा घंटा, हरिणेगमे ली पायता गीआदिबई, उसरिल्ला णिजाणभूमि दाक्षिणपुरस्थिमिल्ले रइकरमपञ्चए' सौधर्मेन्द्रों को, सकुन्दारेन्द्रों की, ब्रह्म लोकेन्द्रों की, महाशुकेन्द्रों की, और माणतेन्द्रों की सुयोधा घंटा, हरिनेगनेषो पदात्यनीकाधिपति औत्तराहा निर्याभूति, दक्षिण पौरस्त्य रतिकर पर्वत इन चार बातों को ४२२॥ देवान नामो अनुभे ! प्रमाणे छे-(१) ५४४, (२) ५०५४, (3) सौमनस (४) श्री ३, नन्हान, (५) भाभ, (१) प्रीति), (७) भना२५ (८) मिस भने सपतामद्र. २ २४ Cषय 'आण पाणयक, चत्तारि सयाऽऽरणच्चुए तिण्णि, एए विमाणाणं, इमे जाण विमाणकारी देवा पालयफेय सोनणसे सिरिवच्छे दियावत्ते, काम गमे पीइगमे ममोर मे विमल सबओभदे' हुने १० ४६पेन्द्रोभांशी / पाशतेरे पाय छन्द्रोमा समता , ते २५८ट ४२० मा आवे छे. 'सोहम्मगाणं, स.पंकुमारगःणं, बंभलोअगाणं मह सुक्कय णं, पाणवगोण, इक्षण सुघोसायटा, हरिणेगमेसी, पायत्तणीआहिवई, उत्तरिल्ला णि जाणभूमि दाहिणपुरथिमिल्ले, रइकरगपव्यए' सौधर्मेन्द्रोनी, सनमारेन्द्रोनी प्रीલેન્દ્રોની મડાણુકેન્દ્રોની અને પ્રાણ-દ્રોની સુઘે : ઘંટા, હરિને ગમેલી પદાયની કાધિપતિ તરહા, નિર્વાણ ભૂમિ દક્ષિણ પર રતિકર પર્વત એ ચાર વાતને લઈને પરસ્પર समानता छ, माडी 'सोहम्मगाण' वगेरे पहा गई यनने प्रयास ४२वामा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे दक्षिणपौरस्त्यो रविकर पर्वतः, तथा 'ईसाणवाणं माहिंदलंतग सहस्सार अच्चुअगाणय इंदाण महाघोसा घंटा लहुपरकमो पायताणीआहिवई दक्खिपिल्ले णिज्जाणमग्गे उत्तरपुरथिमिल्ले रइकरगपव्वए' तथा ईशानकानां माहेन्द्रलान्तक सहस्राराच्युतकानां च इन्द्राणां महाघोषा घण्टा लघुपराक्रमः पदात्यनीकाधिपतिः दक्षिणो निर्याणमार्गः उत्तरपौरस्त्यो रतिकरपर्वतः, 'परिमाणं जहा जीवाभिगमे' परिषदः खलु यथा जीवाभिगमे तत्र परिषदः, अभ्यन्तर मध्य बाह्यरूपाः यस्य यावद्देवदेवी प्रमाणा यथा जीवाभिगमे प्रतिपादितास्तथा, ज्ञातव्याः, तत्र देवानां प्रमाणमाह - शक्रस्याभ्यन्तरिकायां पदि १२ द्वादशसहस्राणि देवानां, मध्यमायां लेकर आपस में सामानता है यहां जो 'सोहम्मगाणं' आदि पदों में बहुवचन का प्रयोग किया गया है वह सर्वकालवर्ती इन्द्रों को अपेक्षा से किया गया है 'ईसाणगाणं महिंदलंतगसहस्सार अच्चुभगाणं इंदाणं महाघोसा घण्टा लहुपरक्कमो पायताणी आहिवई, दक्खिणिल्ले गिज्जानमग्गे उतरपुर स्थिमिल्ले रहकर गपच्चए ' ईशानेन्द्रों की, माहेन्द्रों की लांतकेन्द्रों की सहस्रारेन्द्रों की और अच्युत केन्द्रों की महाघोषा घंटा लघुपराक्रम पदात्यनीकाधिपति, दक्षिण निर्याणमार्ग, उत्तरपौरस्त्यरतिकर पर्वत, इन चार बानों को लेकर आपस में समानता है 'परिमाणं जहा जीवाभिगमे आयरक्खा सामाणिय चउरगुणा सव्वेसिं जाणविमाणा सधेसि जोयणस्य सहस्तविच्छिणा उच्चत्तर्ण सविमाणप्यमाणा महिंदज्झया सव्वेसिं जोयणसाहस्तिआ, सक्करजा, मंदरे संमोअरंति जाब पज्जुवासंति' इनकी परिषदा के सम्बन्ध में जैसा जीवाभिगम सूत्र में कहा गया है वैसा ही यह कथन यहां पर भी कहलेना चाहिये- वहां का वह कथन इस प्रकार से है - परिषदाएं ३ होती हैं एक आभ्यन्तरपरिषदा दूसरी मध्यपरिषदा और तीसरी बाह्य परिषदा शक्र की आभ्यन्तरपरिषदा में १२ देव होते हैं, मध्यआवे छे ते सर्व इन्द्रोनी अपेक्षा मे ४रवामां आवे छे. 'ईजाणगाणं महिंदलंतगसहस्सार अच्चुअगार्ण इंदाणं महाघोसो घण्टा लहुपरक्कमो पायताणीआहिवई, दक्खिणिल्ले णिज्जाणमग्गे, उत्तर पुरथिमिल्ले रइकरपव्यए' ४शानेन्द्रानी, माडेन्द्रोनी, बांतरेंन्द्रोनी, सहखारेન્દ્રોની અને અચ્યુતકેન્દ્રોની મહાઘે:ષા ઘંટ, લઘુ પરાક્રમ પાત્યનીક ષિપતિ, દક્ષિણ નિર્માણુ भार्ग, उत्तरपौरस्त्य तिर पर्वत मे यार वामां परस्पर समानता छे. 'परिसाणं जहा जीवाभिगमे आयरक्खा सामाणि च गुणा सव्वेसि जाब विमाण सत्रदेसि जोयण सय सहस्सविच्छिणा उच्च तेणं सविमणापमाणा महिंदा सव्वेसि जोयणसह रिस आ, सक्कज्जा, मन्दरे समोअरंति ज.व पज्जुवासंति' खेभनी परिषहाना संबंधयां પ્રમાણે જીવાભિગમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલું છે, તેવું આ કથન અહીં પણ કહી લેવું જોઈએ ત્યાં તે કથન આ પ્રમાણે છે ૩ હાય છે એક આ મંતર પરિષદા, ખીજી મધ્ય પરિષદા અને ત્રૌજી ખાહ્ય પરિષદા શકેડી આભ્ય ંતર પરિષદામાં ૧૨ દેવા ડાય છે, પરિષદા Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारा सू. ७ इशानेन्द्रावसरनिरूपणम् १४ चतुर्दशसहस्राणि, बाह्यायां १६ षोडशसहस्राणि ईशानेन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां १० दशसहस्राणि बाह्यायां १२ द्वादशसहस्राणि' एवं माहेन्द्रस्य क्रमेण ६-८-१० षट्-अष्टौ-दशसहस्राणि' ब्रह्मेन्द्रस्य क्रमेण ४-६-८-चत्वारि-षट्--अष्टौ सहस्राणि लान्त केन्द्रस्य क्रमेण २-४-६ सहस्राणि' शक्रेन्द्रय १-२-४-सहस्राणि, सहस्रारेन्द्रस्य ५०० पञ्चाशत् शतानि १. दशशतानि २० विंशतिशतानि देवानां क्रमशो बोध्यानि, आनत प्राणतेन्द्रस्य २ द्वेशते साढे ५ पञ्चशतानि १० दशशतानि क्रमशः बोध्यानि, आरणाच्युतेन्द्रस्य १ एकं शतं २ वें परिषदा में १४ हजार देव होते हैं एवं बह्य परिषदा में १० हजार देव होते हैं। ईशानेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में १० हजार देव होते हैं मध्य परिषदा में १२ बारह हजार देव होते हैं, और बाह्यपरिषदा में १४ हजार देव होते हैं सनत्कुमारेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ८ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १० हजार देव होते हैं, एवं बाह्यपरिषदा में १२ हजार देव होते हैं। माहेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ६ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १० हजार देव होते हैं, ब्रह्मेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ४ हजार मध्यपरिषदा में ६ हजार और बाह्यपरिषदा में ८ हजार देव होते हैं लान्तकेन्द्र की आभ्यन्तर सभा में २ हजार देव होते हैं मध्यपरिषदा में ४ हजार देव होते हैं और बाह्यपरिषदा में ६ हजार देव होते हैं शुक्रेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में १ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में २ हजार देव होते हैं और बाह्यपरिषदा में ४ हजार देव होते हैं सहस्रारेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में ५०० देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १ हजार देव होते हैं एवं बाहापरिषदा में २००० देव होते हैं आनतप्राणतेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा મધ્ય પરિષદામાં ૧૪ હજાર દેવો હોય છે. તેમજ બાહ્ય પરિષદામાં ૧૬ હજાર દે હોય છે. ઈશાનેન્દ્રની અત્યંતર પરિષદામાં ૧૦ હજાર દેવ હોય છે મધ્ય પરિષદામ ૧૨ હજાર દેવે હોય છે અને બાહ્ય પરિષદામાં ૧૪ હજાર દે હોય છે. સનકુમારેન્દ્રની આત્યંતર પરિષદમાં આઠ હજાર દે હોય છે. મધ્ય પરિષદામાં ૧૦ હજાર દેવ હોય છે. તેમજ બાહ્ય પરિષદામાં ૧૨ હજાર દેવ હોય છે. માહેન્દ્રની આત્યંતર પરિષદમાં ૬ હજાર દેવો હેય છે, મધ્ય પરિષદામાં ૮ હજાર દેહોય છે અને બાહ્ય પરિષદમાં ૧૦ હજાર દેવો હોય છે. બ્રક્ષેન્દ્રની આત્યંતર પરિષદામાં ૪ હજાર, મધ્યપરિષદામાં ૬ હજાર અને બાહ્ય પરિષ દામાં ૮ હજાર દેવો હોય છે. લાન્તકેન્દ્રની આત્યંતર સભામાં ૨ હજાર દેવો હોય છે. મધ્યપરિષદામાં ૪ હજાર દેવો હોય છે અને બાહ્ય પરિષદામાં ૬ હજાર દેવ હોય છે. કેન્દ્રની આત્યંતર પરિષદામાં ૧ હજાર દેવો હોય છે, મધ્ય પરિષદામાં ૨ હજાર દેવ હોય છે અને બાહ્ય પરિષદામાં ૪ હજાર દેવો હોય છે. સહસરેન્દ્રની ખાતર પરિષદામાં ૫૦૦ દેરે હોય છે, મધ્ય પરિષદામાં ૧ હજાર દેવ હોય છે. તેમજ બાહ્ય પરિષદામાં ૨ હજાર હે છે આનત પ્રાણરેન્દ્રની આત્યંતર પરિષદામાં ૨૫૦ દેવો હોય Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे शते सार्द्ध ५०० पञ्चाशत् शतानि क्रमशो बोध्यानि, इमाश्च तत्तदिन्द्र वर्णके 'तिण्हं परिसाणे' इत्याधालापके यथासंख्यं भावनीया शकेशानयोर्देवीपर्पत्य जीशभिगमादिषु उक्तं तत्रैव विलो. कनीयम् । 'आयरक्खा सामाणि चउग्गुण्णा सम्वेसिं' आत्मरक्षाः अङ्गरक्षकाः देवाः सर्वेषामिन्द्राणां वस्त्रसामाभिकेभ्यश्चतुर्गणाः एते चेत्थमवर्ग केऽभिलाप्याः, 'चउण्हं चउरासो णं आयरक्खदेवसाहस्सीगं चउण्हें असी इणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चण्हं वायत्तरीणं आयरक्खदेवसाहस्तीणं आहेवच्चं' इत्यादि तथा 'जाणविमाणा सव्वेसिं जोयणसयसहस्सविच्छिण्णा उच्चत्तणं सविमाणप्पमाणा' यानविमानानि सर्वेषां योजनशतसहस्रविस्तीर्णानि उच्चत्वेन स्व. विमानप्रमाणानि-इन्द्रस्य स्वस्त्रविमानं सौधर्मावतंसकादि तस्व प्रपाण-पञ्चशतयोजनादिकं येषां तानि तथा भूतानि. अस्यार्थः, आद्यशक्र ईशानकल्पद्विकविमानानाम् उच्चत्वं पञ्च. में अढाईसौ देव होते हैं, मध्यपरिषदा में ५ सौ देव होते हैं एवं बायपरिषदा में १००० देव होते हैं आरण अच्युतेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में १ सौ देव होते हैं मध्यपरिषदा में २॥ सौ देव होते हैं और बाह्यपरिषदा में ५ सौ देव होते हैं यह सब कथन वहां 'लिण्हे परिलाणं' इत्यादि आलापक में यथासंख्य कहा गया है। शक और ईशान की देवियों की तीन परिपदाओं का वर्णन वही जीवा भिगमादिकों में कहा गया है अतः वहीं से याद करण जान लेना चाहिये आत्मरक्षक देव समस्त इन्द्रों के जितने-जितने उनके सामाजिक देव हैं उनसे चतुर्गुणित हैं ये वर्ग में इस प्रकार से अभिलाप्य -- 'चउरा चउरामीणं आयरखदेवनाहरलीगं चउग्हं असीईणं आयरक्खदेव साहस्सीणं च उपई बावत्तरीणं आयरक्व देव साहस्सीणं आहेबच्चे' इत्यादिहुन सय इन्द्रों के यान विज्ञान १ लाख योजन विस्तार वाले होते हैं तथा इनकी ऊंचाई अपने अपने विमान प्रमाण होली है प्रथम दितीय कल्प में विमानों की છે, મધ્ય પરિષદામાં ૫૦૦ દેવ હોય છે તેમજ બાહ્ય પરિષદામાં ૧ હજાર દેવો હોય છે. આરણ અતેન્દ્રની આ અંતર પરિષદામાં ૧૦૦ દે હોય છે. મધ્ય પરિષદ માં ૨૫૦ કેવો હોય છે અને બાહ્ય પરિષદામાં ૫૦૦ દે હોય છે. આ બધું કથન ત્યાં “વિષે परिसाणं' पोरे मसा५४मा यथा सभ्य वामां आवे छे. शसने थानेन्द्रनी દેવીઓની ત્રણ પરિષદાઓનું વર્ણન તેજ જીવામિંગમાદિકમાં કહેવામાં આવેલું છે. એથી ત્યાંથી જ આ પ્રકરણ વિશે જાણી લેવું જોઈએ. આત્મરક્ષક દેવો, સમસ્ત ઈન્દ્રોના તેમના જેટલા સામાનિક દે છે તેમના કરતાં ચતુર્ગણિત છે. એ બધાં વર્ણકમાં આ પ્રમાણે अनिसाय छ-'चउण्हं चउरासीणं आयक्खदेवसाहस्तीणं चउण्डं असीणंइ आयरक्खदेव साहस्सोगं आहेवच्वं' वगेरे से था नोना यान-विमान १ सय येन । વિસ્તારવાળાં હોય છે. તથા એમની ઊંચાઈ પિત–પિતાના વિમાનના પ્રમાણ મુજબ હેય . છે. પ્રથમ દ્રિતીપ કપમાં વિમાનની ઊંચાઈ ૫૦૦ એજન જેટલી હોય છે. તૃતીય અને ___ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ७ इशानेन्द्रावसरनिरूपणम् योजनशतानि, द्वितीये द्विके षट्योजनशतानि तथा तृतीये द्विके सप्तयोजनशतानि, तथा चतुर्थे द्विके अष्टौ योजनशतानि ततोऽग्रेतने कल्पचतुष्के विमानानाम् उच्चत्वं नवयोजन. शतानि तथा 'महिंदज्झया सव्वे सिं जोयणसाहस्सिया सकाज्जा मंदरे समोअरंति, जाव पज्जुवासंतिति' सर्वेषां महेन्द्रध्वना योजनसाह निकाः सहस्रयो ननविस्तीर्णाः शक्रवर्जाः मन्दरे. समवसरन्ति यावत् पर्युपासते, अत्र यागद पदसंग्रहश्च, अव्यवहितपूर्वसूत्रवत् बोध्यम् व्याख्यानं च तत्रैव द्रष्टव्यम् ।। सू० ७ ॥ अथ भवनवासिनः मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसटीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं चउहिं लोगपालेहिं पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिबई हिं चउहिं चउसद्धिहिं आयरक्खसाहस्सीहि अण्णेहिअ जहा सक्के णवरं इमं णाणत्तं दुमो पायत्ताणीआहिवई ओघस्सरा घंटा विमाणं पण्णासं जोयणसहस्साइं महिंदज्झओ पंचजोयणसयाई विमाणकारी आभिओपिओ देवो अवसिटुं तं चेव जाव मंदरे समोसरइ पज्जुवास. ऊंचाई पांचसी योजन की होती है तृतीय और चतुर्थकल्प में विमानों की ऊंचाई ६ छसौ योजन को होती है, पांचवें और छठे कल्प में विमानों की ऊंचाइ सातसौ योजन की होती है। सातवें और आठवें कल्प में विमानों की ऊंचाई आठसौ योजन की होती है इसके बाद ९ वें १० वें और ११ वे १२ वें कल्पमें ९-९ सौ योजन की ऊंचाई है। समस्त विमानों को महेन्द्र ध्वजाएं एक हजार योजन की विस्तीर्ण हैं। शक को छोडकर ये सब माहेन्द्र पर्वत पर आये यावत् यहां पर वे पर्युपासना करने लगे। यहां यावत्पद से संगृहीत पाठ अव्यवहितपूर्व सूत्र की तरह जानना चाहिये और उसका व्याख्यान भी वहीं पर देखलेना चाहिये ॥७॥ ચતુર્થ કપમાં વિમાનની ઊંચાઈ ૬૦૦ એજન જેટલી હોય છે. પંચમ અને ષષ્ઠ કલ્પમાં વિમાનની ઊંચાઈ ૭૦૦ એજન જેટલી હોય છે. સપ્તમ એને અષ્ટમાં ક૯પમાં વિમાનની ઊંચાઈ ૮૦૦ એજન જેટલી છે. ત્યાર બાદ ૯, ૧૦, ૧૧ અને ૧૨ માં કપમાં ૯-૯ સે જન જેટલી ઊંચાઈ હોય છે. સર્વ વિમાનની મહેન્દ્ર વજાઓ એક હજાર એજન જેટલી વિસ્તીર્ણ હોય છે. શોને બાદ કરીને એ બધા મહેન્દ્ર પર્વત ઉપર આવ્યાં. યાવત તેઓ ત્યાં પર્ય પાસના કરવા લાગ્યા અહિં યાવત્ પદથી સંગૃહીત પાઠ અવ્યવહિત પૂર્વ સૂત્રની જેમજ જાણવું જોઈએ. અને તેનું વ્યાખ્યાન પણ ત્યાં જ જોઈ લેવું જોઈએ. શા Jain Education intere८५ Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रशप्तिस्त्र इत्ति । तेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिंदे असुरराया एवमेव णवरं सट्टी सामाणीयसाहस्सीओ चउगुणा आयरक्खा महादुमो पायताणीआहिवई महाओहस्सरा घंटा सेसं तं चेव परिसाओ जहा जीवाभिगमे इति। तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेव णाणत्तं छ सामा. णिअ साहस्सीओ छ अग्गमहिसीओ चउगुणा आयरक्खा मेहस्सरा घंटा भदसेणे पायत्ताणीयाहिवई विमाणं पणवीसं जोयणसहस्साई महिंदज्झओ अद्धाइज्जाइं जोयणसयाई एवमसुरिंदवजिआणं भवणवासि इंदाणं णवरं असुराणं ओघस्सरा घंटा णागाणं मेघस्सरा सुवण्णाणं हंसस्सरा विज्जूणं कोंचस्सरा अग्गिणं मंजुस्सरा दिसाणं मंजुघोसा उदहीणं सुस्सरा दीवाणं महुरस्सरा वाऊणं शंदिस्तरा थणिआणं णंदिघोसा। चउसट्टी सट्टी खलु छच्चतहस्साउ असुरवजाणं । सामाणिआउ एए चउग्गुणा आयरक्खाउ ॥१॥ दाहिणिल्लाणं पायत्तागीआहिवई भदसेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति । वाणमंतरजोइसिआ णेअका एवं चेव णवरं चत्तारि सामाणिअ साहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सोलस आयरक्खसहस्सा विमाणसहस्सं महिंदज्झया पणवीसं जोयणसयं घंटा दाहिणाणं मंजुस्सरा उत्तराणं मंजुघोसा पायत्तागीआहिवई विमाणकारीअ आभिओगा देवा जोइसिआणं सुस्सरा सुस्सरणिग्योसाओ घंटाओ मंदरे समोसरणं जाव पज्झुवासंतित्ति । सू० ८॥ __छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये चमरोऽसुरेन्द्रोऽमुरराजा, चमरचञ्चायां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां चपरे सिंहासने चतुः षष्ठया सामानिकसहौः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिशैः, चतुर्भिः लोकपालैः पञ्चभिहग्रमहिषीभिः, सपरिवाराभिः, तिमभिः परिषद्भिः, सप्तभिरनिकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, चतुर्भिः, चतुः पष्टिभिः आत्मरक्षकसहस्रः, अन्यैश्च यथा शक्रः, नवरम् इदं नानात्वम् द्रुमः पदात्यनीकाधिपतिः, ओषस्वरा घण्टा विमानं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि महेन्द्रध्वजः पञ्चयोजनशतानि विनानकारी आभियोगिको देवः, अवशिष्टं तदेव यावद् मन्दरे समवसरति पर्युपास्ते इति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये बलिरसुरेन्द्रोऽसुरराजः, एवमेव, नवरं षष्टिः सामानिकसहस्राणि, चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः महाद्रुमः पदात्य. Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् नीकाधिपतिः महौघस्वराः घण्टा शेषं तदेव परिपदो यया जीवाभिगमे इति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये धरणस्तथैव, नानात्वं पटू सामानिकसहस्राः षडग्रमहिष्यः, चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः मेघस्वरा घण्टा भद्रसेनः पदात्यनीकाधिपतिः, विमानं पञ्चविंशति योजनसहस्राणि महेन्द्रध्वजोऽर्द्धतीयानि योजनशतानि एवमसुरेन्द्रवर्जितानां भवनवासीन्द्राणां नवरम् असुराणामोघस्वरा घण्टा नागानां मेघस्वरा सुपर्णानां हंसस्वरा विद्युताम् क्रौञ्चस्वरा अग्नीनां मञ्जुस्वरा दिशां मजुघोषा, चतुष्पष्टिः पष्टिः खलु पट्रचसहस्राणि असुरवर्जानां सामानिकास्तु एते चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः ॥१॥ दाक्षिणात्यानां पदात्यनीकाधिपतिर्भद्रसेनः, औत्तराहाणां दक्ष इति । वानव्यन्तरज्योतिष्काः नेतव्या एवमेव नवरं चत्वारि सामानिकानां सहस्राणि, चतस्रोऽयमहिष्यः षोडश आत्मरक्षकसहस्राणि रिमानालि सहस्रम् महेन्द्रध्वजः पञ्चविशं योजनशतं घण्टा दक्षिणात्यानां मञ्जुस्वरा, औत्तराहाणां मजुघोषाः, पदात्यनीकाधिपतयो विमानकारिणश्च आभियोगिका देवाः, ज्योतिष्काणां सुस्वराः सुस्वरनिर्घोषाश्च घण्टाः मन्दरे समवसरन्ति यावत् पयुपासते इति ॥ सू. ८॥ ___टीका-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' तस्मिन् काले सम्भवजिनजन्मके तस्मिन् समये पट्पञ्चाशत् दिक्कुमारिकाभिः, आदर्शप्रद शतादिकतत्कार्यकरणानन्तरसमये 'चमरे असुरिंदे असुरराया' चमरःतनामकः असुरेन्द्रः, असुराणामिन्द्रोऽसुरेन्द्रः असुरराजः दक्षिणदिगधिपतिर्भवनपति देवानामधिपतिः 'चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए' चमरचञ्चायां तन्नाम्न्यां राजधान्यां सभायां सुधर्मायां 'चमरंसि सीहासणंसि' चमरे सिंहासने 'चउसडीए सामाणि साहस्सीहि चतुष्षष्टया सामानिकसहरीः 'तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशः 'चउहिं लोगपाले हिं' चतुभिर्लोकपालैः 'पंचहि अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि' 'ते णं कालेणं ते णं समएणं चमरे' इत्यादि । टोकार्थ-'ते णं कालेणं तेणं समएणं' उस कालमें और उस समय में 'चमरे असुरिंदे असुरराया' असुरेन्द्र असुरराज चरम 'चमरचंचाए रायहाणीए' अपनी चमारचंचा नामकी राजधानी में 'सुहम्माए सभाए' सुधर्मा सभामें 'चमरंसिसीहासणंसि' चमर नामके सिंहासन पर 'चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं' चौसठ हजार सामानिक देवों से, तेतीस त्रायस्त्रिंश देवों से 'चउहिं लोगपालेहिं' चार लोकपालों से 'पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरि 'तेण कालेणं तेणं समएणं चमरे' इत्यादि साथ-'तेणं कालेणं तेणं समएण' ते अणे म त समये 'चमरे असुरिंदे असुरराया' असुरेन्द्र असु२२।४ यम२ 'चमरचंचाए रायहाणीए' पोतानी यभ२ या नाम४ राधानीमा 'सुहम्माए सभाए' सुधर्मा समi 'चमर सि सीहासणीस' २५२ नाम सिंडीसन ५२ ‘च उसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसेहिं' ६४ ॥२ सामानि Ratथी, 33 त्राय वाथी 'चउहि लोगपालेहिं' या२ : पाशी 'पंचहि अमग Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे पञ्चभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः 'तिहिं परिसाहि' त्रिभिः परिषद्भिः ‘सत्तहि अणि एहिं सत्तहिं अणिआहिवईहिं' सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः 'चउहि चउसहिहिं आयरक्खसाहस्सीहिं' चतसृभिः, चतुष्पष्टिः, आत्मरक्षकसौः 'अण्णेहि अन्यैश्च इत्यालापकांशेन सम्पूर्ण: आलापकस्त्वयं बोध्यः 'चमरचंचारायहाणीवत्थव्वेहिं बहू हिं असुरकुमारेहि देवेहिय देवीहिअत्ति जहा सक्के' यथा शक्रस्तथायमपि ज्ञातव्यः ‘णवरं' नवरम् अयं विशेषः 'इमं णाणत्तं' इदम् नानात्वम् भेदः 'दुमो पायताणो आहिवई' द्रुमः तन्नामकः पदात्यनीकाधिपतिः 'ओघस्सरा घंटा' ओघस्वरा तन्नाम्नी घण्टा 'विमाणं पण्णासंजोयणराहस्साई' विमानं यानविमानं पञ्चाशत् योजनसहस्राणि विस्तारायामम् महिंदज्झ मो पंचजोरणसयाई महेन्द्रध्वजः पञ्चयोजनशतानि उच्चः 'विमाणकारी आभियोगीओ देवो' विमानकारी विमाननिर्माता आभियोगिको देवो न पुनमानिकेन्द्राणां पालकादिरिव नियतनामकः 'अवसिटुं तंचेव जाव मंदरे समोसरइ पज्जुवासईत्ति' अवशिष्टं तदेव शक्राधिकारोक्तमेववाच्यम् नवरं दक्षिणपश्चिमो वाराहिं' अपने अपने परिवारसहित पांच अग्रमहिषियों से 'तिहिं परिसाहिं' तीन परिषदाओं से 'सत्तहिं अणिएहिं' सात अनीको सैन्यो से 'सत्तहिं अणी. आहिवहहिं च उहिं चउसठ्ठीहिं आयरक्खसाहस्सीहिं' सात अनीकाधिपतियों से चार चौसठ हजार आत्मरक्षा में '२५००० आत्मरक्षक देवों से' तथा 'चमरचंचा रायहाणीवत्थव्वेहिं बहूहिं असुरकुमारहिं देवेदिअ देवीहि य' चमरचंचा राज. धानी में रहे हुए अनेक असुरकुमार देवों एवं देवियों से युक्त हुआ बैठा था वह भी 'जहा सक्के सौधर्मेन्द्र की तरह 'जावमंदरे समोसरह' यावत् मन्दर पर्वत पर आया ऐसा यहां अन्वय लगालेना चाहिये 'शक के ठाटबाट में और इसके ठाटबाट में 'इमं णाणत्तं' यही भिन्नता है कि 'दुमो पायत्ताणीआहिवई ओघस्सरा घंटा, विमाणं पण्णासं जोयणसयसस्साई महिंदज्झओ पंचजोयणसयाई, विमाणकारी आभिओगिओ देवो अवसिह तं चेव जाव मंदरे समोसरई' इसकी पैदल चलनेवाली महिसीहि सपरिवाराहि पात-पोताना परिवार साथ पांय अयमलिपीमाथी तिहिं' परिसाहि' परिपहायोथी 'सत्तहि अणिएहि' सात मनी सैन्योथी 'सत्तहिं अणीआहिव इहिं चउसट्ठीहि आयरक्खसाहस्सीहि' सात अनधिपतिमाथी, या२ ६४ ७००२ माम२६थी (२५६००० मात्मरक्ष वाथी) तथा 'चमर चंचारायहाणी वत्यहि बहू हि असुरकुमारेहिं देवेहि अ देवीहिय' याभरय ॥ २४धानीमा २ङना। मने४ ससुमार हेवे। मन हेवामाथी युत मेहत ५५ 'जहा सक्के' सौधर्मेन्द्रनी म 'जाव मंदरे समोसरइ' यावत् मन्त२ पत ५२ माव्या. सवा सो मन्यय मे. सन 18-भाभां मने गाना 8-मामा 'इमं णाण' माटो तसत छ -'दुमो पायत्ताणी आहिवई ओघस्सरा घण्टा, विमाणं पग्णासं जोय गस यसहस्साई महिंदज्झओ पंचजोयणसयाई, विमाणकारी आभियोगिओ देवो अवसिटुं तं चेव जाव मंदरे समोसरइ. Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवनरकारः सू. ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् ६७७ रतिकरपर्वतः कियदृरमित्याह-यावन्मन्दरे समवसरति पर्युपास्ते इति । अथ बलीन्द्रः । तेणं कालेणं' इत्यादि "तेणं कालेणं तेणं समएणं बली असुरिंदे असुरराया एवमेव दस्मिन् काले तस्मिन् समये बलीरसुरेन्द्रोऽसुरराजः एवमेव चमर इव ‘णवरं सट्ठीसामाणिभ साहस्सीओ' नवरम् अयं विशेषः । षष्टिः सामानिकसहस्राणि पप्टिसहस्रसंख्याक सामानिका इत्यर्थः 'चउगुणा आयरक्खा' चतुर्गुणा आत्मरक्षकाः, समानिकसंख्यातश्चतुर्गणसंख्याका आत्मरक्षका इत्यर्थः । पद पञ्चाशत् सहस्राधिक द्विलक्षमिति यावत् 'महादुमो पायताणीआहिवई' महा द्रुमः तन्नामकः पदात्यनीकाधिपतिः 'महाओहस्स! घंटा' महौघस्वरा घण्टा व्याख्यातोऽधिकं प्रतिपाद्यते इति चमरचञ्चास्थाने लिचश्चा दाक्षिणात्यो निर्यागमार्गः, उत्तरपश्चिमे रतिकरपर्वतः इति । 'सेसं तं चेव' शेपं यानविमानविस्तारादिकं तदेव एतस्मिन्नेव सूत्रे पर्षदो सेनाका अधिपति-पदात्पनीकाधिपति देव द्रुप नासवाला था घंटा इसकी ओधस्वरा नालकी थी यान विमान इसका ५० हजार योजन का विस्तारवाला था इसकी महेन्द्र ध्वजा ५०० योजन ऊंची थी विमानकारी यह आभियोगिक देव था बाकी का और सब कथन जैसा शक के अधिकार में कहा गया है वैसा ही है इसका रतिकर पर्वत दक्षिण पश्चिम दिश्वर्ती होता है कि जहां पर आकर वह वहां से चलता है वहां मन्दर पर आकर इसने प्रभु की पर्युपासना की 'तेणं कालेणं तेणं सभएण' उस काल में जप कि प्रभुका जन्म हुआ और उस समय में जब कि ४५ दिवकुमारिकाएं आदर्श प्रदर्शनादिरूप कार्य कर चुकी 'बली असुरिंदे असुरराया एवमेव णबई सट्ठी सामाणी साहस्सीओ चउगुणा आयरक्खा महादुमो पायत्तागीआहिबई महामोहस्सरा घण्टा सेसं तंचेव' असुरेन्द्र असुरराज बली भी चमर की तरह मन्दर पर्वत पर आया और उसने भी प्रभु की पर्युपासना को 'णवरं' पद से यह अन्तर प्रकट किया गया है कि इसके આની પાયદળ ચાલનારી સેનાના અધિપતિ–પદાનીકાધિપતિ–મ નામ વાળે. હવે એની ઘંટાનું નામ એઘસ્વરા હતું. એનું યાન-વિમાન ૫૦ હજાર જન જેટલા વિસ્તારવાળું હતું આની મહેન્દ્રવજા ૫૦૦ યેજન જેટલી ઊંચી હતી. આ વિમાનકારી આભિયોગિક દેવ હ. શેષ બધું કથન જે પ્રમાણે શકના અધિકારમાં કહેવામાં આવ્યું છે, તેવું જ છે. આનો રતિકર પર્વત દક્ષિણ દિગ્ગત હોય છે કે જ્યાં આવીને તે ત્યાંથી ચાલે છે. त्यो भन्४२ ९५२ २ावीन तेणे प्रभुनी पयुपासना ४२१. 'तेणं कालेणं तेणं समएण' ते गे અને તે સમયે, જ્યારે પ્રભુનો જન્મ થયે અને જયારે પ૬ દિકુમારિકાઓ આદર્શ प्रशना ३५ यसपाहन ४॥ यू४ी त्यारे ‘बली असुरिंदे असुरराया एवमेव णवर सट्ठी सामाणीअ साहस्सीओ चउगुणा आयरक्खा महादुमो पायत्त,णीआहिवई महाओहस्सरा घंटा सेसं तं चे।' मसुरेन्द्र असुरमा२।४ मी पण यभरनी भ भाहर ५ ७५२ २004 मन ते ५५ प्रभुना पर्युपासना ४२N. 'णवर' ५४थी 20 त Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - હe૮ जम्बूद्वीपप्रनप्तिसूत्र यथा जीवाभिगमे इदं च सूत्रं देहली दीपन्यायेन सम्बन्धनीयं यथा देहलीस्थो दीपोऽन्तस्थः देहलीस्थ बाह्यस्थवस्तु प्रकाशनोपयोगी भवति तथेदमपि, उक्ते चमराधिकारे उच्यमाने बलीन्द्राधिकारे वक्ष्माणेषु अष्टसु भवनपतिषु उपयोगि भवति । त्रिष्यपि अधिकारेषु पर्षदो वाच्या इत्यर्थः । तथाहि चमरस्थाभ्यन्तरिकायां पर्षदि २४ सहस्राणि देवानाम् मध्यमायां २८ सहस्राणि बाह्यायां ३२ सहस्राणि तथा बलीन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि २० सहस्राणि मध्यमायां २४ सहस्राणि बाह्यायां२८ सहस्राणि तथा धरणेन्द्रस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि ६० हजार सामानिक देव थे और सामानिक देवों से चौगुने आत्मरक्षक देव थे सेनापति महाद्रुम नामका देव था महौघस्वरा नामकी इसकी घंटा थी बांकी का और सब यान विमानादि के विस्तार का कथन चमर के प्रकरण जैसा ही है 'परिसामो जहा जीवाभिगमे' इसकी तीन परिषदाओं का वर्णन जैसा जीवाभिगम सूत्र में कहा है वैसा ही यहां पर जानना इसकी राजधानी का नाम बलिचना है इसके निकलने का मार्ग दक्षिणदिशा से होता है अर्थात् यह दक्षिणदिशा से होकर निकलता है इसका रतिकर पर्वत उत्तर पश्चिमदिग्वर्ती होता है 'जहा जीवाभिगमे' यह सूत्र देहली दोपक न्याय से सम्बन्धनीय समझना चाहिये क्योंकि कहे गये चमराधिकार में एवं कहे जानेवाले पलीन्द्रादि अधिकार में आठ भवनपतियों के कथन में उपयोगी हुआ है चमरकी आभ्यन्तर परिषदा में २४ हजार, मध्यपरिषदामें २८ हजार और बायपरिषदा में ३२ हजार देव हैं बलीन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में २० हजार, मध्यपरिषदा में २४ हजार और बायपरिषदा में २८ हजार देव हैं धरणेन्द्र की आभ्यन्तरपरिषदा में પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે કે એને ૬૦ હજાર સામાનિક દે હતા અને સામાનિક દેવો કરતાં ગણું આમરક્ષક દેવ હતા. સેનાપતિ મહા ક્રમ નામક દેવ હ. મહીઘસ્વરા નામક એની ઘંટા હતી. શેષ બધું યાન વિમાનાદિક વિસ્તારનું કવન રામરના પ્રકરણને કથન ४ छे. 'परिसाओ जहा जीव भिगमे' मनी १ ५२५४ामेनु वर्णन प्रमाणे જીવાભિગમ સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલું તેવું જ અહીં પણ સમજવું. એની રાજધાનીનું નામ બલિચંચા છે. આને નીકળવાને માર્ગ દક્ષિણ દિશા તરફ હેમ છે. એટલે કે આ દક્ષિણ દિશા તરફ લઈને નીકળે છે. અને રતિકર પર્વત ઉત્તર-પશ્ચિમ દિગ્વતી डाय छे. “पर्षदो यथा जीवभिगमे' 2 सूत्र हेयी ५ न्यायथा सचित सभा જોઈએ. કેમકે કહેવામાં આવેલા ચમરાધિકારમાં તેમજ હવે જે માટે કહેવામાં આવશે તે બલીન્દ્રાદિકના અધિકારમાં, આઠ ભવનપતિઓના ઠકમાં આ ઉપગ હોય છે. ચરમની આ વ્યંતર પરિષાદામાં ૨૪ હજાર, મધ્યપરિષતામાં ૨૮ હજાર અને મારા પરિષદમાં ૩૨ હજાર દે છે. બલીન્દ્રની આત્યંતર પરિષદમાં ૨૦ હજાર મધ્ય પરિષદમાં ૨૪ હાર અને બાહ્ય પરિષદામાં ૨૮ હજાર દે છે. ધરણેન્દ્રની આર્ક્યુતર પરિષદમાં ૬૦ હજાર Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कार: सू. ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् ६० सहस्राणि मध्यमायां ७० सहस्राणि बाह्यायां ८० सहस्राणि भूतानन्दस्याभ्यन्तरिकायां पर्षद ५० सहस्राणि मध्यमायां ६० सहस्राणि बाह्यायां ७० सहस्राणि अवशिष्टनां भवन वासि षोडशेन्द्राणां मध्ये ये वेणुदेवादयो दक्षिणश्रेणिपतयस्तेषां पर्षत्रयं धरणेन्द्रस्येव उत्तर श्रेण्यधिपानां वेणुदारिप्रमुखाणां भूतानन्दस्यैव ज्ञातव्यम्, अथ धरणः 'तेणं कालेणं तेणं समए णं धरणे तहेव' तस्मिन् काले तस्मिन् समये धरणस्तथैव चमरव त्, अयं विशेषः 'णाणत्तं' नानाखं भेद: 'छ सामाणि साहस्सी ओ' षट् 'सामानिकसहस्राणि 'छ अग्गमहिसीओ चउगुणा आयरक्खा' षडग्रमहिष्यः चतुर्गुणा आत्मरक्षशः, षट् संख्यातश्चतुर्गुणा २४ आत्मरक्षका इत्यर्थः ‘'मेघस्सरघंटा' मेघस्वरा घण्टा 'भदसेणो पायताणीयाहिवई' भद्रसेनः तन्नामकः पदात्यनीकाधिपतिः 'विमाणं पणवीसं जोयणसहस्साई' विमानं पञ्चविंशति योजन सहस्राणि पञ्चविंशतिसहस्रयोजनपरिमितं विस्तारायाममित्यर्थः 'महिंदम्झओ अद्धा६० हजार, मध्यपरिषदा में ७० हजार और बाह्यपरिषदा में ८० हजार देव हैं । भूतानन्दकी आभ्यन्तरपरिषदा में ५० हजार मध्यपरिषदा में ६० हजार और बाह्यपरिषद में ७० हजार देव है । अवशिष्ट भवनवासियों के १६ इन्द्रों में से जो वेणुदेवादिक दक्षिण श्रेणिपति हैं उनकी परिषत्रय धरणेन्द्र की परिषत्रय के जैसी है तथा उत्तरश्रेणि के अधिपति वेणुदालि आदिकों की परिषत्रय भूतानन्द की तीन परिषदाओं के जैसी है ऐसा जानना चाहिये 'तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे तहेव' उस कालमें और उस समय में धरण भी चमर की तरह ही बडे - भारी ठाटबाट से मन्दर पर्वत पर आया परन्तु वह 'छ सामाणिय साहसीओ, ६ अग्गमहिसीओ, चउग्गुणा आयरक्खा, मेघस्सरा घण्टा, भद्दसेणो पायताणीयाहिवई विमाणं पणवीसं जोयणसहस्साई महिंदज्झओ अद्वाइउजाई जोयणसघाई' ६ हजार सामानिक देवों से ६ अग्रमहिषियों से एवं सामानिक देवों की अपेक्षा चौगुने आत्मरक्षकों से युक्त होकर आया इसकी મધ્ય પરિષદામાં ૭૦ હજાર, અને ખાદ્ય પરિષદામાં ૮૦ હજાર દેવા છે. ભૂતાનન્દની આભ્યન્તર પરિષદામાં ૫૦ હજાર મધ્ય પરિષદામાં ૬૦ હજાર અને બાહ્ય પરિષદામાં ૭૦ હજાર દેવે છે. શેષ ભવનવાસિએના ૧૬ ઈન્દ્રોમાંથી જે વેણુદેવાદિક દક્ષિણ શ્રેણિપતિએ છે. તેમની પરિષદ્ય ધરણેન્દ્રની પરિષદ્ય જેવી છે તથા ઉત્તર શ્રેણીના અધિપતિ વેણુઢાલિ અર્દિકની પરિષય ભૂતાનન્દની ત્રણ પરિષદાએ જેવી છે. એવું शुवु' लेऽथे. 'तेणं कालेणं तेगं समरणं धरणे तहेव' ते आणे अने ते सभये धरण यागु णू :-भाई साथै यभरती प्रेम हर पर्वत माग्यो पशु ते 'छ सामाणिय साहसीओ ६ अग्गमहिसीओ, चउग्गुणा आयरक्खा, मेघस्सरा घंटा, भदसेणो पायत्ताणीयाहिवई विमाण पणवीसं जोयणसहस्साई महिंदज्झओ अद्धाइज्जाई जोयणसयाई' ६ २ સામાનિક ધ્રુવેથી ૬ અગ્રમહિષીએથી તેમજ સામાનિક દેવાની અપેક્ષાએ ચાર ગુણા ६७९ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० जम्बूद्धोपप्राप्तिसूत्रे इज्जाई जोयणप्तयाई' महेन्द्रध्वजोऽत्तीयानि योजनशतानि सार्द्धद्विशनयोजनानि उच्च इत्यर्थः, अथ अवशिष्ट भवनवासीन्द्र वक्तव्यताम् अस्यातिदेशेनाह-'एवं' इत्यादि 'एवं असुरिंद वज्जिाणं भवणवासिइंदाणं' एवमसुरेन्द्रवजिवानां भवनवासीन्द्राणाम् एवं धरणेन्द्रन्यायेन असुरेन्द्राभ्यां चमरवासीन्द्राभ्यां वर्जितानां भवनवासीन्द्राणाम् भूतानन्दादीनां वक्तव्यता ज्ञातव्या 'णवर' नवरम् अयं विशेषः 'असुराणं ओघस्सरा घंटा' असुराणाम् असुरकुमाराणाम् ओघस्वरा घण्टा 'णागाणं मेघस्सरा' नागानां नागकुमाराणां मेघस्वरा 'सुबण्णाणं हंसस्प्तरा' सुवर्णानां गरुडकुमाराणां घण्टा हंसस्वरा घण्टा 'विज्जू णं कोंचस्सरा' विद्युतां विद्युत्कुमाराणां क्रौंचस्वरा घण्टा अग्गीणं मंजुस्सरा' अग्नीनाम् अग्निकुमाराणाम् मेघस्वर नामकी घंटा थी पदात्यनीकाधिपति का नाम भद्रसेन था २५ हजार योजन प्रमाण विस्तार वाला इसका यान विमान था इसकी महेन्द्र ध्वजा २५० योजन की ऊंची थी 'एवमसुरिंदवज्जियाणं भवणवासिइंदाणं, णवरं असुराणं ओघस्सरा घण्टा णागाणं मेघस्सरा सुवण्णागं हंसस्सरा, विज्जूणं कोंचस्सरा, अग्गीणं मंजुस्तरा दिसाणं मंजुघोसा, उदहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाऊणं णंदिस्सरा, थणियाणं णंदिघोसा, चउसट्ठी खलु छच्च सहस्सा उ असुरवजाणं ! सामाणिआ उ एए चउग्गुणा आयरक्खाउ ॥१॥ इसी तरह से धरणेन्द्र की वक्तव्यता के अनुसार असुरेन्द्रों-चमर और बलीन्द्र को छोडकर भवनवासीन्द्रों के-भूतानन्दादिकों के सन्बन्ध की भी वक्तव्यता जाननी चाहिये । अन्तर केवल इतना ही है कि असुरकुमारों की घंटा ओघस्वरा नामकी नागकुमारों की घंटा मेघस्वरा नाम की है सुपर्ण कुमारों की घंटा हंसस्वरा नामकी है विद्युत्कुमारों की घंटा क्रौञ्चस्वरा नामकी है अग्निकुमारों की घंटा 'मंजुस्वरा नामकी है दिक्कुमारों की घंटा मंजुघोषा नामकी है उदधि આત્મરક્ષક દેથી યુક્ત થઈને આવ્યો. એની મેઘસ્વર નામની ઘંટા હતી. પદાયનીકાધિપતિનું નામ ભદ્રસેન હતું. ૨૫ હજાર જન પ્રમાણ વિસ્તારવાળું એનું યાન-વિમાન હતું. આની भडन्द्र am २५० यौन रही थी ती. 'एव मसुरिंदवज्जियाणं भवणवासिइंदाणं णवर असुरोणं ओघस्सरा घण्टा णागाणं मेंघस्सरा सुवण्णाणं हंसस्सरा, विज्जूणं कोंचस्सरा, अग्गीणं मंजुरस्सरा दिसणं मंजुघोसा, उदहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाऊणं णंदिस्सरा, थणियाणं दिघोसा, चउसट्ठी खलु छच्च सरस्सा उ असुरवज्जाणे सामाणिआ उ एए चउग्गुणा आयरक्खाउ ॥ १ ॥' 241 प्रमाणे ४ घणेन्द्रनी तव्यता भुस मसुरेन्द्रोચિમર અને બલીન્દ્રોને બાદ કરીને ભવનવાસીન્દ્રોના–ભૂતાનન્દાદિકના વિશેની વક્તવ્યતા જાણવી જોઈએ. તફાવત ફક્ત આટલે જ છે કે અસુરકુમારોની ઘંટા એ ઘસ્વરા નામક છે અને નાગકુમારની ઘંટા મેઘસ્વરા નામક છે. સુપર્ણકુમની ઘંટા હંસ સ્વરા નામક છે. વિધકુમારની ઘંટા ક્રૌંચસ્વરા નામક છે. અગ્નિકુમારની ઘંટા મંજુવરા નામક છે. Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू० ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् मजुस्वरा घण्टा 'दिसाणं मंजुघोसा' दिशाम् दिक्कुमाराणाम् मजुघोषा घण्टा 'उदहीणं मुस्सरा' उदधीनाम् उदधिकुमाराणाम् सुस्वरा घण्टा 'दीवाणं महुरस्सरा' द्वीपानां द्वीपकुमाराणां मधुरस्वरा घण्टा 'वाऊणं णंदिस्सरा' वायूनां वायुकुमाराणां नन्दि स्वरा घण्टा 'थणिआ णं णंदिघोसा' स्तनितानां स्तनितकुमाराणं नंदिघोषा घण्टा एषामेवोतानुक्तसामानिक संग्रहार्थम् गाथामाह-'चउसट्ठी सही खलु छच्च सहस्साउ असुरवजाणं' सामाणिआउ एए चउरगुणा आयरक्खाउ ॥१॥ चतुष्षष्टिः षष्टिः खलु षट् च सहस्राणि असुस्वर्जानां सामानिकाच एते चतुर्गुणाः आत्मरक्षकाः॥१॥ तत्र चतुप्पष्टिश्चमरेन्द्रस्य, षष्टिबलीन्द्रस्य खलु 'निश्चये षट् सहस्राणि, अमुरवर्जानां धरणेन्द्रादीनामष्टादश भवनवासीन्द्रा. णाम्-सामानिकाः, च पुनरर्थे भिन्नक्रमे तेन एते सामानिकाः, चतुर्गुणाः, पुनरात्मरक्षकाः भवन्ति ॥१। 'दाहिणील्लाणं पायत्ताणीआहिवई भदसेगो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति' दाक्षिणात्यानां चमरेन्द्रवर्जितानां भवनपतीन्द्राणां भद्रसेन: पदात्यनीकाधिपतिः, औतराहाणां बलिवर्जितानां दक्षो नाम पदात्यनीकाधिपतिः । अथ व्यन्तरेन्द्रज्योतिष्केन्द्राः 'बाणमंतर' कुमारों की घंटा सुस्वरा नामकी है दीपकुमारों की घंटा मधुरस्वरा नामकी है वायुकुमारों की घंटा नन्दिघोषा नामकी है इन्हीं के सामानिक देवों को संग्रह करके प्रकट करनेवाली यह गाथा सूत्रकार ने कही है-चमर के सामानिक देवों की संख्या ६४ हजार है बलीन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ६० हजार है धरणेन्द्र के सामानिक देवों की संख्या ६ हजार है इसी तरह ६ हजार असुरवर्ज धरणेन्द्रादि १८ भवनवासीन्द्रों के सामानिक देव हैं तथा इनके आत्मरक्षक देव सामानिक देवों से चौगुने हैं । 'दाहिणिल्लाणं पायत्ताणियाहिवाई भद्दसेणो उत्तरिल्ला णं दक्खोत्ति' दक्षिणदिग्यता चमरेन्द्रवर्जित भवनपतीन्द्रों का पदात्यनीकाधिपति भद्रसेन है तथा उत्तर दिग्वीं बलिवर्जित भवन पतीन्द्रों का पदात्यनीकाधिपति दक्ष है यद्यपि घंटादिकों का कथन पहिले अपने अपने प्रकरण में आए हुए सूत्रों द्वारा कहा जा चुका है फिर भी દિકુમારની ઘંટા મંજુઘેલા છે. ઉદધિકુમારની ઘંટા સુરવર નામક છે. દ્વીપકુમારની ઘંટા મધુર સ્વરા નામક છે. વાયુકુમારોનીઘંટા નંદિઘષા નામક છે. એમના જ સામાનિક દેવેન સંગ્રહ કરીને પ્રકટ કરનારી આ ગાથા સૂત્રકારે કહી છે–ચમરના સામાનિક દેવેની સંધ્યા ૬૪ હજાર છે. બલીન્દ્રના સામાનિક દેવોની સંખ્યા ૬૦ હજાર છે. ધરણેન્દ્રના સામાનિક દેવેની સંખ્યા ૬ હજાર છે. આ પ્રમાણે ૬ હજાર અસુરવ ધરણેન્દ્રાદિ ૧૮ ભવન વાસીન્દ્રોના સામાનિક દેવે છે તેમજ એમના આતમરક્ષક દેવે સામાનિક દેવે કરતાં यार गए। छे. 'दाहिजिल्लाणं पायत्ताणीआहिवई भद सेणो उत्तरिल्लाणं दक्खोत्ति' क्षिय દિગ્ગત અમરેન્દ્ર વર્જિત ભવનપતીન્દ્રોને પદત્યની કાધિપતિ ભદ્રસેન છે. તથા ઉત્તર દિગ્ગત બલિ વર્જિત ભવનપતીન્દ્રોને પદાયની કાધિપતિ દક્ષ છે. જો કે ઘંટાદિક નું કથન પહેલાં પિત–પિતાના પ્રકરણમાં આવેલાં સૂત્રો વડે કહેવામાં આવેલું છે તે સમુદાય વાકયમાં Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૮૨ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे इत्यादि 'बाणमंतर जोइसिया णेयव्वा' वानव्यन्तरज्योतिष्काः व्यन्तरेन्द्राः ज्योतिष्केन्द्राच नेतव्याः; शिष्यबुद्धिं प्रापणीया: 'एवमेव' एवमेव यथा भव नवा सिनस्तथैवेत्यर्थः 'गवरं चत्तारि सामाणि साहसीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सोलसमायरक्खसहस्सा' नवरम् अयं विशेषः चत्वारि सामनिकानां सहस्राणि चतस्रोऽग्रमहिष्यः पोडश आत्मरक्षकसहस्राणि 'रिमाणा सहस्सं महिंदझया पणवीस जोयणसयं' विमानानि योजनसहस्रम् आधामविष्कम्भाभ्याम्, महेन्द्रध्वजः, पञ्चविंशत्यधिकयोजनशतम् 'घंटा दाहिणाणं मंजुस्सरा' घण्टा दाक्षिणात्यानाम् मञ्जुस्वराः 'उत्तराणं मंजुघोसा' औत्तराहाणां मञ्जुघोषाः घण्टा : 'पायताणीआहि वई विमाणकारी अ आभिओगा देवा' पदात्यनीकाधिपतयो विमानका रिण्यश्च अभियोगिकाः जो यहाँ प्रकट किया गया है वह समुदाय वाक्य में सर्व संग्रह के निमित्त ही प्रकट किया गया है 'वाणमंतरजोइसिया कवा एवं चेव' जिस प्रकार से यह पूर्व में भवनवासियों के सम्बन्ध में कथन किया गया है उसी प्रकार से वानव्यन्तरों एवं ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में भी कथन करलेना चाहिये पूर्वोक्त कथन से इनके कथन में 'णवरं' जो अन्तर है वह इस प्रकार से है'चत्तारि सामाणिय साहस्सीओ, चत्तारी अग्गमहिसीओ, सोलह आयरक्खसहस्सा विमाणा सहस्स, महिंदज्झया पणवीसं जोयणसयं घंटा दाहिणाणं मंजुस्सरा उत्तराणं मंजुघोसा' इनके सामानिक देवों की संख्या चार हजार होती है इनकी पदेवियां चार होती हैं आत्मरक्षक देव इनके १६ हजार होते हैं । इनके यान विमान एक हजार योजन के लम्बे चौडे होते हैं महेन्द्रध्वज की ऊंचाई १२५ योजन की होती है । दक्षिणदिग्वर्ती व्यानव्यन्तरों की घटाएं सुस्वरा नमकी होती है एवं उत्तर दिग्वर्ती वानव्यन्तरों की घंटाएं मुंजुघोषा नामकी होती है 'पायत्ताणीआहिवई विमाणकारी अ आभिओगा देवा' इनके सर्व सहना निमित्तथी अट ४२वामां आवे छे 'वाणमंतरजोइसिया दव्वा एवं ચેવ’ એજ પ્રમાણે આ પૂમાં ભવનવાસિયાના સ.ખંધમાં કથન પ્રગટ કરવામાં આવેલુ છે તે પ્રમાણે જ વનભ્યતા તેમજ યેતિ દેવાના સંબંધમાં પણ કથન સમજી લેવુ लेह मे. पूर्वेति उथन भरतां या इथनभां 'णवर' ने तावत हे ते या प्रमाणे हे'चत्तारि सामाणियसाहरसीओ, चत्तारि अग्गमहिसीओ, सोलस आयरक्खसहरसा विमाणा सहस्सं, महिंदझया पणत्रीसं जोयणसय घंटा दाहिगाणं मंजुस्सरा उत्तराणं मंजुघोसा' सेभना સામાનિક દેવની સંખ્યા ચાર હજારજેટલી છે. એમની પટ્ટ દેવીએ ચાર હેાય છે. એમના આત્મરક્ષક દેવા ૧૬ હુજાર હાય છે. એમના યાન-વિમાના એક હજાર ચાજન જેટલા લાંબા-ચાડા હૈાય છે. મહેન્દ્ર ગજની ઊંચાઈ ૧૨૫ ચેાજન જેટલી છે. દક્ષિણ દિગ્ગી વ્યાનભ્યતાની ઘટાએ મજુસ્વરા નામની છે અને ઉત્તર દ્વિગ્નતી વાનગૂ તરાની મજુàાષા नाम होय छे. 'पायत्ताणीआहिवई विमाणकारीअ आभिओगा देवा' मेमना पहात्यनी Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ८ चमरेन्द्रभवनवासिनां निरूपणम् ६८३ देवा स्वाम्यादिष्टाहि आभिओगिदेवाः घण्टा वादनादिकर्मणि विमानविकुर्वणे च प्रवर्त्तन्ते न पुनर्हरिनिगमैपिवत् पालकवच्च निर्दिष्ट नामका इत्यर्थः, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति बलात् सूत्रेऽनुमपि इदं बोध्यम्-तथाहि-सर्वेषामाभ्यन्तरिकायां पाद देवानाम् ८ अष्ट सहस्राणि मध्यमायां १० दशमहस्राणि बाह्यायां १२ द्वादशसहस्राणि इति । एषामुल्लेखस्त्वयम् 'तेणं कालेणं तेणं समएणं काले णामं पिसाइंदे पिसायराया चउहिं सामाणि साहस्सीहिं चउहिं अगमहिसीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं तं चेव एवं सम्वेवी ति' व्यन्तरा इव ज्योतिष्का अपि ज्ञातव्याः, तेन सामानिकादि संख्यासु न विशेषो ज्योतिष्काणाम् किन्तु पदात्यनीकाधिपति और विमानकारी आभियोगिक देव होते हैं । तात्पर्य यह है कि स्वामियों द्वारा आदिष्ट हुए आभियोगिक देव ही घण्टावादन आदि कार्य में एवं विमान की चिकुर्वणा करने में प्रवृत्त होते हैं हरिनिगमैषी की तरह या पालक को तरह ये निर्दिष्ट नामवाले नहीं होते हैं। व्याख्या विशेष प्रतिपादिनोय होती है इस कथन के अनुसार सूत्र में नहीं कहा गया है वह इस प्रकार से वहां समझलेना चाहिये वानव्यन्तरो की भी तीन परिषदाएं होती हैं इनमें आभ्यन्तर परिषदा में ८ हजार देव होते हैं, मध्यपरिषदा में १० हजार देव होते हैं और बध्यपरिषदा में १२ हजार देव होते हैं इनका उल्लेख इस प्रकार से हैं-'तेणं काले गं तेणं समएणं काले णामं पिसाइंदे पिसायराया चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चरहिं अग्गमहिस्सोहिं सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अगीआहिवइहिं सोल साहिं आयरक्ख देव साहस्सीहिं' इस पाठका अर्थ स्पष्ट है 'तं चेव एवं सवे वि' व्यन्तरों के इस पूर्वोक्त कथन के जैसा ही ज्योतिष्क देवों का भी कथन जानना चाहिये परन्तु 'जोइसिआणति કાધિપતિ અને વિમાનકરી આભિગિક દેવ હોય છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે સ્વામીઓ વડે આઝમ થયેલા આભિગિક દેવ જ ઘંટા વાદન વગેરે કાર્યમાં તેમજ વિમાનની વિકુણુ કરવામાં પ્રવૃત્ત હેય છે. હરિનિગમેપીની જેમ અથવા પાલક દેવની જેમ એઓ નિર્દિષ્ટ નામવાળા હોતા નથી વ્યાખ્યા વિશેષ પ્રતિપાદિની હોય છે. આ કથન મુજબ જે સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલું નથી તે આ મુજબ અહીં સમજી લેવું જોઈએ. વનબંતરની પણ ત્રણ પરિષદાઓ હોય છે. એમાં જે આત્યંતર પરિષદા છે તેમાં ૮ હાર દેવો હોય છે. मध्य पश्षिहामा १२ १२ हे। डाय छे. ये स भा १ मा प्रमाण छ. 'तेणं कालेणं तेणं समएणं काले णाम पिसाइंदे पिसायरल्या चउहि सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिवइहिं सोलसहि आयाखदेवसाहस्सीहिं' २॥ ५४।। अर्थ २५ष्ट छे. 'तं चेत्र एवं सब्वे वि' व्यतन। मा पूर्वात ४थन मुरम wiliv४ हेानु ४यन ५ न . परंतु 'जोइसि. Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे घण्टासु विशेषः तमेवाह-'जोइसिआणं' इत्यादि 'जोइसिआणं सुस्सरा सुस्सरणिग्योसाओ घंटाओ मंदरे समोसरणं जाव पज्जुवासंतित्ति' ज्योतिष्काणां चन्द्राणां सुस्वरा घण्टा सूर्याणां सुस्वरनि?षा घण्टाः सर्वेषां च मन्दरे मेरुपर्वते समवसरणं वाच्यम् यावत्पर्युपासते यावत्पदग्राह्य तु प्रारदर्शितं ततो ज्ञेयम् एषाल्लेखस्तु अयम् 'तेणं कालेणं तेणं समए ण चंदा जोइसिंदा' जोइसरायाणो पत्ते पत्ते चउहिं सामाणिअ साहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहि तिहिं परिसाहिं सत्तहि अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिवइहिं सोलपाहि आयरक्खदेवसहस्सीहिं एवं जहा बाणमंतरा एवं सूरावि इति ॥ सू०८ ॥ तुस्सरा सुस्सरणिग्घोसाओ घंटाओ समोसरणं जाव पज्जुवासंति त्ति' ज्योतिष्कों के कथन में जिन बातों से अन्तर हैं वे बातों इस प्रकार से हैं समस्त चन्द्रों की घंटाएं सुस्वर नामकी है और समस्त सूर्योंकी घटाएं सुस्वर निर्घोष नामकी है ये सब के सब मन्दर पर्वत पर आये वहां आकर के सब ने प्रभु की पर्युपासना की यहां यावत्पद से जो पाठ गृहीत होता है वह वहीं से जानलेना चाहिये। इसका उल्लेख इस प्रकार से है-'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिंदा जोइसरायाणो पत्तेयं पत्तेयं चउहिं सामाणिअ साहस्सीहिं चरहिं अग्गमहिसीहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं आणिएहिं सत्तहिं अणिआहिवइहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्तीहिं एवं जहा घाणमंतरा एवं सूरा वि' इस पाठ की व्याख्या स्पष्ट है। यहां शंका ऐसी हो सकती है कि यहां चन्द्र और सूर्य बहुवचनवाले किस कारण से प्रयुक्त हुए हैं क्योंकि प्रस्तुतकर्म में एक ही सूर्य और एक ही चन्द्रमा का अधिकार चल रहा है अन्यथा इन्द्रों की जो ६४ की संख्या कही गई है उसमें व्याघात होनेकी आपत्ति आवेगी? तो इस शङ्का का समा. आणति सुस्सरा सुस्सरणिग्योसाओ घंटओ समोसरण जाव पज्जुवासंतीत्ति' ज्योति होना કથનમાં જે બાબતમાં તફાવત છે, તે આ પ્રમાણે છે– સમસ્ત ચન્દ્રોની ઘંટાઓ સુસ્વર નામક છે. સમસ્ત સૂર્યોની ઘંટાઓ સુસ્વર નિર્દોષ નામક છે. એ બધા મંદર પર્વત ઉપર આવ્યાં. ત્યાં આવીને બધા દેએ પ્રભુની પપાસના કરી. અહીં યાવત્ પદથી જે પાઠ ગૃહીત થયો છે તે પહેલા પ્રકટ કરવામાં આવેલ છે. તે વિશે ત્યાંથી જ જાણું खे मे. आन। ५ मा प्रभारी छ-'तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदा जोइसिंदा जोइस रायाणो पत्तेयं पत्तेय चउहिं सामाणिअसाहस्सीहि चउहि अग्गमहिसीहिं तिहि परिसाहिं सत्तहिं अणिएहि सत्तसि अणिआहिवइहि सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं एवं जहा वाणमंतरा एवं सूरा वि' २॥ पानी व्याच्या २५७८ ८ छे. ही सेवा श४ा ઉદ્દભવી શકે તેમ છે. કે અહીં ચન્દ્ર અને સૂર્ય બહું વચનના રૂપમાં શા કારણથી પ્રયુક્ત થયા છે? કેમકે પ્રસ્તુત કર્મમાં તે એક જ સૂર્ય અને એક જ ચંદ્રના અધિકાર ચાલી રહ્યા છે. અન્યથા ઈન્દ્રોની જે ૯૪ ચોસઠની સંખ્યા કહેવામાં આવેલી છે તેમાં વ્યાઘાત થવાની આપત્તિ આવશે? તે આ શંકાનું સમાધાન પ્રમાણે છે કે જનકલ્યાણક Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् अथ अमीषां प्रस्तुतकर्मणीति वक्तव्यमाह--'तं एणं से एच्चुए देविंदे देवराया' मूळम्-तए णं से अच्चुए देविदे देवराया महं देवाहिवे आभिओगे देवे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी खिप्यामेव भो देवाणुप्पिया महत्थं महग्धं महारिहं विउलं तित्थयराभिसेअं उक्टवेह-तएणं ते आभिओगा देवा हट्टतुट्ट जाव पडिसुगित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभाग अवकमंति अवकमित्ता वेउविअ समुग्घाएणं जाव समोहणित्ता अट्ट सहस्सं सोबपिणअ कलसाणं एवं रूपमयाणं मणिमयाणं सुवण्णरुप्पमयाणं सुवण्णमणिमया रुपमणिमयाणं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं अट्र सहस्सं भोमिज्जाणं असहस्तं चंदणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयं. साणं थालाणं पाइणं सुपईट्रगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिआभस्स सव्वचंगेरीओ सव्वपडलगाई विसेसिअतराई भाणिअव्वाइं सीहासण छत्तचामरतेल्लसमुग्ग जाव सरिसवसमुग्गा तालिअंता जाव अटुंसहस्सं कडुच्छगाणं विउठ्वंति, विउव्वित्ता साहाविए विउविए अ कलसे जाव कडुच्छुएअ गिण्हित्ता जेणेव खीरोदए समुहें तेणेव आगाम खीरोदगं गिण्हंति गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाइं जाव सहस्सात्ताई ताई णिण्हंति एवं पुक्खरो धान ऐसा है-जिन कल्याणक आदिकों में दश कल्पेन्द्र, २० भवनवासीन्द्र, ३२ व्यन्तरेन्द्र एवं चन्द्र और सूर्य इस तरह से ६४ इन्द्रों की संख्या हो जाती है परन्तु चन्द्र और सूर्य व्यक्तिरूप से यहां एक एक ही संख्या में परिगणित नहीं हुए हैं किन्तु जाति की अपेक्षा से ही गृहीत हुए हैं इसलिये यहां चन्द्र और सूर्य को बहुवचनान्त पद से व्यक्त किया गया है। अतः इस कथन से चन्द्र और सूर्य असंख्यात भी आते हैं ॥८॥ આદિમાં ૧૦ કલપેન્દ્રો, ૨૦ ભવનવાસીન્દ્રો, ૩૨ વ્યન્તરેન્દ્રો તેમજ ચન્દ્ર અને સૂર્ય આમ ૬૪ ઈંદ્રોની સંખ્યા થઈ જાય છે. પરંતુ અહીં ચન્દ્ર અને સૂર્ય વૈયક્તિક રૂપમાં એક–એકની સંખ્યામાં પરિગણિત થયા નથી. અહીં એ બને જાતિની અપેક્ષાએ જ ગૃહીત થયા છે. એથી અહીં ચન્દ્ર અને સૂર્ય બન્નેને બહુ વચનાન્ત પદથી વ્યક્ત કરવામાં આવેલા છે. એથી આ કથન મુજબ ચન્દ્ર અને સૂર્ય અસંખ્યાત પણ હોય છે, ૮ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्रे दाओ जाव भरहेरवयाणं मागहाइ तित्थाणं उदगं महिअं च गिण्हंति गिण्हित्ता पउमदहाओ दहोअगं उप्पलादीणिअ एवं सव्वकुलपव्वएसु वट्टवेअङ्ग्रेसु सव्वमहदहेसु सत्ववासेसु सनचकवट्टिविजएसु वाखारपव्वएसु अंतरणइसु विभासिजा जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभदसालवणे सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थएअ गिण्हंति एवं गंदणवणाओ सव्व तुअरे जाव सिद्धत्थएअ सरसं च गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणोदाम गिण्हति एवं सोमणलपंडगवणाओअ सव्यतुअरे जाव सुमणसदामं ददरमलयसुगंधे य गिव्हंति गिणिहत्ता एगओ मिलंति मिलित्ता जेणेव सामी तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता महत्थं जाव तिथअराभिसे उवट्टतित्ति ॥ सू०९॥ ___ छाया-ततः खलु सोऽच्युतो देवेन्द्रो देवराजो महान् देवाधिपः आभियोगिकान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा, एवमयादीत् क्षिप्तमेव भो देवानुप्रियाः महाथ महाघ महाई विपुलं तीर्थकराभिषेकमुपस्थापयत, ततः खलु ते आभियोगिकाः देवाः हृष्ट तुष्ट यावत् प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामति अपक्रम्य वैक्रियससुद्घातेन यावत्समवहत्य अष्टसहसं सौवर्णिकालझानाम् एवं रूप्यमयानां मणिमयानां सुवर्णरूप्यमयानां सुवर्णमणिमयानां रूप्यमणिमयानां सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् अष्टसहस्रं भौमेयानाम् अष्टसहस्रं चन्दनकलशानाम् एवं भृङ्गारणाम आदर्शानां स्थालीनां पात्रीणां मुप्रतिष्ठकानां चित्राणां रत्नकरण्डकानां वातकरकाणां पुष्पचारीणाम् एवं यथा सूर्याभस्य सर्वचङ्गेथः सर्वपटलकानि विशेषिततराणि भणितव्यानि सिंहासनच्छत्रचामर तिलसमुद्गक यावत्सर्पपसमुद्नकः तालवृन्तानि यावत् अष्टसहस्रं कद्रुच्छुकानां विकुर्वन्ति विकुळ स्वाभाविकान् वैक्रियांश्च कलशान् यावत् कडुच्छुशांश्च गृहीत्वा यत्रैव क्षीरोदः समुद्रस्तत्रैवागत्य क्षीरोदकं गृह्णन्ति ग्रहीत्वा यानि तत्र उत्पलानि पनानि यावत्सहस्त्रात्राणि तानि गृहन्ति एवं पुष्करोदात् यावत् भरतैरवतयोः मागधादि तीर्थानाम् उदकं मृत्तिकां च गृह्णन्ति गृहीत्वा एवं गङ्गादोनां महानदीनां यावत् क्षुद्र हमवतः सर्वतु परान् सर्वे पुष्पाणि सर्व गन्धान् सर्व माल्यानि यावत् सर्व महौषधीः सिद्धार्थकांश्च गृहन्ति गृहीत्वा पाहदात् द्रहोदकम् उत्पलादीनिच (गृहन्ति) एवं सर्व कुलपर्वतेषु वृत्तवैताढयेसु सर्वमहाद्रहेषु सर्ववर्षेषु सर्वचक्रवर्तिविजयेषु वक्षस्कारपर्व तेषु अन्तरनदीषु विभाषेत, यावत् उत्तरकुरुषु यावत् सुदर्शनभद्रशालबने सर्वतुवरान् यावत् सिद्धार्थकांश्च गृह्णन्ति एवं नन्दनवनात् सर्वतुवरान् यावत् सिद्धार्थकांश्च सरसंच गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनो दाम गृह्णन्ति एवं सौमनसपण्डकवनात् सर्वतुवरान् यताव सुमनो दाम दर्दर मलय Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सु. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्री संग्रहणम् ६८७ सुगन्धिकान् गृह्णन्ति गृहीत्वा एकत्र मिलन्ति मिलित्वा यत्रैव स्वामी तत्रैव उपागच्छन्ति उपागत्य महार्थ यावत् तीर्थंकराभिषेकम् उपस्थापयन्ति इति ।। ० ९ ।। टीका- 'तएण से अच्चुर' ततः खलु तदनन्तरं किल सोऽच्युतो यः द्वादशदेवलोकाधिपतिरच्युतनामा यः प्रागभिहितः 'देविंदे देवराया' देवेन्द्रः देवानामिन्द्रः देवेन्द्रः, देवराजः देवस्य राजा 'महं देवाहिवे' महान् देवाधिपः चतुः षष्टावपि इन्द्रेषु लब्धप्रतिष्ठिaisara अस्य प्रथमोऽभिषेकः इति 'आभियोगे देवे सहावे' आभियोगिकान् आज्ञाकारिणः देवान् शब्दयति, आह्वयति 'सदावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारं वचनमवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् तत्राह - 'खिप्पामेव भो देशणुपिया' क्षिप्रमेव अतिशीघ्र - मेव भो देवानुप्रियाः ! 'महत्थं महाधं महारिहं विउलं दित्थयराभिसे उवद्ववेद' महार्थम् महान् अर्थः मणिकनकरत्नादिक उपभुज्यमानो यत्र अभिषेके स तथाभूतः तम् तथा महार्घम् महान् अर्घः बहुमूल्यस्तवनादियंत्र स तथाभूतम् तथा महार्हम् - महम् उत्सवम् अर्हतीति यः स महार्हस्तम् विशालोत्सव संपन्नम् विपुलम् प्रचुरं यथास्यात् तथा तीर्थकराभिषेकम् उपस्थापयत कुरुत आज्ञप्तास्ते आभियोगिकाः देवाः यत्क्रतवन्तस्तदाह - 'तए ' इत्यादि 'तएण से अच्चुए देविंदे देवराया' इत्यादि टीकार्थ- 'तएणं' इसके बाद 'से अच्चुए देविंदे देवराया' उस पूर्ववर्णित देवेन्द्र देवराज अच्युत ने द्वादश देवलोक के अधिपति ने 'महं देवाहिवे आभिओगे देवे सदावेइ' वे जो कि चौसठ इन्द्रों में महान् लब्ध प्रतिष्ठित है आभियोगिक देवों को बुलाया । 'सद्दावित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उनसे ऐसा कहा'विपामेव भी देवाणुपिया ! महत्थं महग्यं महारिहं विउलं तिस्थयराभिसे अं उवहवेह' देवानुप्रियो ! तुमलोग बहुत ही शीघ्र तीर्थंकर के अभिषेक की सामग्री को उपस्थित करो वह सामग्री महार्थवाली हो- जिसमें मणिकनक रत्न आदि पदार्थ सम्मिलित हो, महार्ष हो कीमत में जो अल्प कीमतवाली न हो किन्तु विशिष्ट मूल्यवाली हो, महाई हो उत्सव के लायक हो, विपुल हों - मात्रा 'त एवं से अच्चुर देविदे देवराया' इत्यादि टीडार्थ - 'तर' त्यार मा 'से अच्चु देविदे देवराया' ते पूर्व वर्णित हरेन्द्र देवराम अभ्युत-द्वादृश देवसेना अधिपतिथे - 'महं देवाहिवे देवे आभिआगे सदावेइ' है ? ६४ इन्द्रोमा महान् सम्ध प्रतिष्ठित छे, मालियोजिए देवाने मोझाच्या 'सदावित्ता एवं वयासी' भने मोद्यावीने तेभने - 'खिप्प मेत्र भो देवाणुप्पिया ! महत्थं महग्यं महारिहं विउलं तित्यथरा भिसे उबटूवेह' हे देवानुप्रियो ! तभे बोडी यथा शीघ्र तीर्थ पुरना અભિષેકની સામગ્રી ઉપસ્થિત કરે. આ સામગ્રી મહાવાળી હાય, જેમાં મણુિ કનક રત્ન વગેરે પદાર્થો સમ્મિલિત હાય, મહાઅે હાય, મૂલ્યમાં તે અલ્પ કીમતવાળી હાય નહિં પણ વિશિષ્ટ મૂલ્યવાળી હોય. મહાહુ હાય-ઉત્સવ લાયક હોય, વિપુલ હૈાય-માત્રામાં Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे 'तए णं ते आभियोगिया देवा हट्ट तुट्ट जाव पडिसुणित्ता उत्तर पुरस्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति' ततः खलु ते आभियोगिका देवा हृष्ट तुष्ट यावत् प्रतिश्रुत्य उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् ईशानकोणम् अवक्रामति निस्सरन्ति अत्र यावत् पदात् चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परम सौमनस्यिता हर्षवश विसर्पद हृदयाः करतलपरिग्रहीतं दशनखम् शिरसावतै मस्तके अञ्जलिं कृत्वा हे स्वामिन् तथाऽस्तु इति यथा आदिष्टं देवानुप्रियेण तथैव करिष्यामः, इति आज्ञायाः विनयेन वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति इति ग्राह्यम् 'अबक्कमित्ता' अवक्रम्य गत्वा 'वेउव्वियसामुग्धाएणं जाव समोह णित्ता' वैक्रियसमुद्घातेन यावत्समवहत्य अत्र यावत् पदात् समबध्नन्ति इति ग्राह्यम् 'अट्ट सहस्सं सोवण्णिअकलसाणं' अष्टसहस्रम् अष्टोत्तरं सहस्रं सौवणिककलशानाम्सुवर्ण निर्मितघटानाम् विकुर्वन्ति इत्यग्रेग सम्बन्धः एवम् उक्तप्रकारेण अष्टसहस्रम् 'रूपममें अल्प न हो किन्तु बहुत ही अधिक हो 'तएणं ते आभिओगा देवा हद्वतुट्ट जाव पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग अवक्कमंति' इस प्रकार अपने स्वामी की आज्ञा सुनकर वे आभियोगिक देव हर्ष से फूले हुए नहीं समाए, बहुत अधिक हर्ष एवं संतोष युक्त होकर वे ईशानकोण की ओर वहां से चलदिये यहां यावत्पद से 'चित्तानन्दितः, प्रीतिमनसः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पत् हृदया करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके अंजलिं कृत्वा' हे स्वामिन 'तथाऽस्तु इति यथादिष्टं देवानुप्रियेण तथैव करिष्यामः इति आज्ञाया विनयेन च वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति' यह पाठ गृहीत हुआ है इसकी व्याख्या सुगम है 'अवक्क मित्ता वेउन्वियसमुग्घाएणं जाव समोहणित्ता असहस्सं सोवणिय कलसाणं एवं रूप्पमयाणं' ईशानकोण को ओर जाकर वहां उन्हों ने वैक्रियसमुद्घात किया वैक्रियसमुद्घात करके फिर उन्हों ने १००८ सुवर्णकलशों की, १००८ रुप्पमय कलशों की, 'मणिमयाणं' १००८ मणिमयकलशोंकी 'सुवग्णरुप्पमयाणं' १००८ ५५ डाय नहि ५५५ भूम पधारे डाय. 'त एणं ते आभिओगा देवा हट्ठ तुटु जाव पडि सुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग' मा प्रमाणे पोताना स्वामीनी या समाजानते આભિગિક દેવ હર્ષાવેશમાં આવી ગયા. ખૂબજ અધિક હર્ષ તેમજ સંતેષથી યુક્ત थईन तसा त्यांथी शान त२३ २वाना यया. मी यावत् ५४थी 'चित्तानन्दिः प्रीतिमनसः, परमसौमनस्थिताः, हर्षवशविसर्पहृदया करतलगृहीत दशनखं शिरसावर्त्त मरतके अंजलिं कृत्वा हे स्वामिन् ! तथाऽस्तु इति यथादिष्टं देवानुप्रियेण तथैव करिश्यामः इति आज्ञाया विनयेन च वचनं प्रतिबन्ति' मा 43 गृहीत थये। छे. 20 पहोनी व्याभ्या सुगम छे. 'अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं जाव समोहणित्ता अटु सहस्स सोपणिय कलसाणं एवं रूप्पमया' न ? त२३ ४२ त्या तेमणु वैश्य सभुइयात य. વૈક્રિય સમુદ્રઘાત કરીને પછી તેમણે ૧૦૦૮ સુવર્ણ કળશેની, ૧૦૦૮ રૂપમય કળશની 'मणिमयाण' १००८ मणिभय शनी, 'सुवण्णरुप्पमयाणं' १००८ सुवर्ण ३.यमय Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् १९ याणं' रूप्यमयानाम् कलशानां अष्टसहस्रम् 'मणिमयाणं' मणियानां कलशानाम् विकुर्वन्ति तथा 'सुवण्णरुप्पमयाणं' सुवर्णरूप्यमयानां 'मुवण्णरूप्पमणिमयाणं' अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमणिमयावनां सुवर्ण मणिमयानां रूप्यमणिमयानां सुवर्णरूप्यमणिमयानाम् घटानां (विकुर्वन्ति) अत्र सुवर्णमणिमयानां घटानामष्टस:तथा सुवर्णरूप्यमयानां कलशानामष्टसहस्रं तथा रूप्यमणिमयानां कलशानामष्टसहस्रम् तथा सुवर्णरूप्यमणिमयाना कलशानामष्टसह विकवन्तीर्थः । 'अट्ठसहस्सं भोमेज्जाणं' अष्टसहस्राणि भौमेयकानां मृत्तिकानिर्मितघटानां 'अट्ठसहस्सं चंदणकलसाणं' अष्ट सहस्राणि चन्दनकलशानां चन्दनकाष्टनिमितानां माङ्गल्य सूचकचन्दन मिश्रघटानामित्यर्थः ‘एवं भिंगाराणं' एवं भृङ्गाराणाम् एवं सर्वत्राष्टसहस्राणि ज्ञातव्यानि (झारीति भाषाप्रसिद्धानाम् 'आयंसाणं' आदर्शानाम् दर्पणानाम् 'थालाणंपाईणं सुपइगाणं' स्थालीनां पात्रीणां सुप्रतिष्ठकानाम् पात्रविशेषाणाम् 'चित्ताणं रयणकरंडगाणं वायकरगाणं पुप्फचंगेरीणं' चित्राणाम् रत्नकरण्डानां रत्नाधारभूतमञ्जूषानाम् 'वातकरकाणां बहिः स्थितानां मध्ये जलशून्यानाम् करकाणां जलपात्राणामित्यर्थः पुष्पचङ्गरीणाम् अष्टसहस्राणि प्रत्येकम् विकुर्वन्ति 'एवं जहा सूरियाभस्स सम्वचंगेरीओ सव्व पडलगाई विसेसिअतराई भाणियब्वाई' एवम् उक्तरीत्या यथा सूरियाभस्य राजप्रश्नीये सुवर्णरुप्यमयकलशों की, १००८ 'सुवर्णमणिमयाणं' सुवर्णमणिमयकलशों की, १००८ 'रुप्पमणिमयाण' रुप्पमणिमयकलशों की १००८ 'सुवण्णरुप्पमणिमयाणं सुवर्णरुप्यपमणिमयकलशों की 'अट्ठसहस्सं भोमिज्जाणं' १००८ मिट्टी के कलशों की, 'अट्ठसहस्सं चंदण कलसाणं' १००८ चन्दन के कलशों की 'एवं भिंगाराणं आयंसाणं' १००८ झारियों की, १००८ दर्पणों की, 'थालाणं' १००८ थालो की 'पाईणं' १००८ पात्रियों की, 'सुपईडगाणं' सुप्रतिष्ठकों 'आधारविशेषों की 'चित्ताणं' १००८ चित्रों की, 'रयणकरंडगाणं' १००८ रत्नकरण्डकों की 'वायकरगाणं' १००८ वातकरकों की 'पुप्फचंगेरीगं' १००८. पुष्पचंगेरिकाओं की, विकुर्वगा की 'जहा सूरियाभस्स सम्बचंगेरीओ सधपटलगाइं विसेसिअतराई भाणिअव्वाइं सीहासणछत्त-चामरतेल्लप्समुग्ग जाव सरिसव समुग्गा तालिअंटा ४शानी १००८ 'सुवण्णमणिमया' सुवर्ष भराभय ४ानी, १००८ 'रूप्पमणिमयाणं' ३५ मणिमय ४ानी, १००८ 'सुवण्णरुप्पमणिमयाणं' सुवर्थ३५य मणिभय ४शानी 'अट्ट सहस्सं भोमेज्जाणं' १००८ माटीना शानी 'अट्ठ सहस्सं चंदणकलसाणं' १००८ यहनना शानी ‘एवं भिंगाराणं आयंसाणं' १००८ आशयनी, १००८ पानी, 'थालाणं' १००८ थाणानी पाईणं' १००८ पात्रीसानी, 'सुपईट्ठगाणं' १००८ सुप्रतिष्ठानी माधार विशेषानी, 'चित्ताणं' १००८ चित्रानी, “रयणकरडगाणं' १००८ २- ४२४१३नी 'वायकरगाण' १००८ पात ४२३नी 'पुप्फचंगेरीणं' १००८ ०५ गरिमानी वि। ४ी. 'जहा सूरियाभरस सब चंगेनीमओ सब्ब पडलगाई पिसे सिमतराई भाणिअब्बाई Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति इन्द्राभिषेकसमये सूर्यचक्रेयः तथाऽत्रापि वक्तव्याः दृष्टम् इदं जीवाभिगमे तृतीयप्रतिपत्तौ 'अट्ठसहस्सं आभरणचंगेरीणं लोमहत्थचंगेरीणं' इति तथा सर्वपटलकानि वक्तव्यानि, तथाहि अष्टसहस्राणि पुष्पपटळकानाम् इमानि वस्तूनि सूर्याभाभिषेकोपयोगवस्तुभिः संख्ययैव तुल्यानि न तु गुणेन इत्याह-विशेषिततराणि अतिशय विशिष्टानि भणितव्यानि प्रथम कल्पीयदेव विकुर्वणातोऽच्युत कल्पदेवविकुर्वणाया अधिकतरत्वात् विशिष्टत्वात तथा 'सीहासणछत्तचामर तेल्लसमुग्ग जाव सरिसवसमुग्गा' सिंहासन छत्रचामर तिलसमुद्क थावत् सषेपजाव असहस्सं कडुच्छुगाणं विउव्वंति' जिल तरह राजप्रश्नीय सूत्र में इन्द्राभिषेक के समय में सूर्याभदेव के प्रकरण में समस्त चंगेरिकाओं की, समस्त पुष्प पटलों की विकुर्वणा हुई कही गई है उसी प्रकार यहां पर भी इन सब अभिषेक योग्य सामग्री वस्तुओं की अतिविशिष्टरूप से विकुर्वणा की गई ऐसा कहना चाहिये क्योंकि प्रथम कल्पके देवों की विकुर्वणा की अपेक्षा अच्युतकल्पगत देवों की विकुर्वणा अधिकतर होती है अतः इन विकुर्वितई समस्तवस्तुओं की संख्या १००८ रूप से ही समान थी गुण से नहीं ऐसा नहीं है कि सूर्याभदेव के प्रकरण में विकुर्वित की गई अभिषेक योग्य वस्तुएं संख्याकी अपेक्षा समान थी किन्तु ये सब गुणकी अपेक्षा विशिष्टतर थीं यही बात 'विशेषित तराई' इस पद द्वारा कही गई है क्योंकि प्रथम कल्पगत देवों की विक्रिया शक्ति में और अच्युतकल्पगत देवों की विक्रिया शक्ति में अधिकतरता होती है, यह पात ऊपर कही जा चुकी है। इसी तरह उन देवों ने १००८ सिंहासनों की, १००८ छात्रों की १००८ सीहासण छत्त चामर तेल्ल समुग्ग जाव सरिसवसमुगा तालिअंटा जाव अटु सहस्सं कडुच्छुगाणं विउव्वंति' २ प्रमाणे राप्रश्नीय सूत्रमा छन्द्रामिषे मते सूर्यास हेवना પ્રકરણમાં સમસ્ત અંગેરીકાઓની સમસ્ત પુષ્પ પટેલની વિકુણા કરવામાં આવી હતી, તે પ્રમાણે જ અહીં પણ એ બધી અભિષેક રોગ્ય સામગ્રીની અતિ વિશિષ્ટ રૂપમાં વિકુણા કરવામાં આવી હતી, એવું સમજવું જોઈએ. કેમકે પ્રથમ ક૯૫ના દેવેની વિકવણની અપેક્ષાએ અચુત ક૯પગત દેવેની વિકૃર્વ અધિકતર હોય છે. આમ એ વિકવિત થયેલી સમસ્ત વસ્તુઓની સંખ્યા ૧૦૦૮ રૂપની અપેક્ષાએ જ સમાન હતી. ગુણની અપેક્ષાએ નહિ. આમ ન સમજવું જોઈએ. કે સૂર્યદેવના પ્રકરણમાં વિકર્ષિત કરવામાં આવેલી અભિષેક એગ્ય વસ્તુઓ અને અહીં વિકર્વિત કરવામાં આવેલી અભિષેક વસ્તુઓ સંખ્યાની દષ્ટિએ પણ સમાન હતી. પરંતુ એ બધી ગુપની અપેક્ષાએ विशिष्टत२ ती. २४ पात 'विशेषिततराई' मा ५६ . उपाभा मावसी . भ? પ્રથમ ક૫ગત દેવની વિક્રિયા શક્તિમાં અને અચુત કપગત દેવોની વિક્રિયા શક્તિમાં અધિક તરતા હોય છે. આ વાત ઉપર કહેવામાં આવેલી છે. આ પ્રમાણે તે દેએ ૧૦૦૮ , Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् ६९१ समुद्काः तत्र सिंहासनच्छत्रचामराः प्रसिद्धाः तिलसमुद्गक यावत् सर्पपसमुद्रकाच तिलभाजन यावत् सर्षवभाजनानि च अत्र यावत् पदात् कोष्टसमुद्कादयो वक्तव्याः तथाहि 'कोट्ठसमुग्गे पत्ते चोएअतरगमेलाय हरिभाले हिंगुलये मणोसिला इति तालिअंटा जाव अद्वसहस्सं कडुच्छगाणं विउव्वंति' तालवृन्तानि तासन्यजनानि पत्र यावत् पदात् व्यजनानीति परिग्रहः तत्र व्यजनानीति सामान्यतो वातोपकरणानि तालवृन्तानि तु तद्विशेषणरूपाणि एषामष्टसहस्राणि अष्टसहस्राणि इति अष्टसहस्राणि धूपकडच्छुकानामिति विकुर्वन्ति विकुर्वणाशक्त्या निष्पादयन्ति 'विउन्वित्ता' विकुळ विकुर्वणा शक्त्या निष्पाच 'साहाविए विउविएअ कळसे जाव कडुच्छुएअगिण्हित्ता' स्वाभाविकान् देवळोके देवलोकवत् स्वयं सिद्धान् इव वैक्रियांश्च अनन्तर पूर्वोक्तान् सौवणोदिकान् कलशान् यावत् कहुच्छुकाम गृहीत्वा आदाय अत्र यावत् पदात् भृङ्गारादयो व्यजनान्ताः सर्वे प्राधाः 'जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हंति' यत्रैव क्षीरोदः सहद्रः तत्रैव आगत्य क्षीरोदकं क्षीररूपमुदकं गृहन्ति ‘पत्ताई ताई गिण्हंति' यानि तत्र उत्पलानि पदानि यावत् सहस्रपत्राणि तानि गृह्णन्ति ते देवाः अत्र यावत्पदात् कुसुमादीनां परिग्रहः ‘एवं पुक्खरोदाओ' एवम् की, १००८ तेल समुद्गको की यावत् इतनेही कोष्ठसमुद्गकादिकों की, सर्षप समुद्गकों की, ताल वृन्तों की यावत् १००८ धूपकडुच्छुकों की धूप कटा हों की विकुर्वणा करके फिर वे देवलोक में देवलोक की तरह स्वयं सिद्ध शाश्वत कलशों को एवं विक्रिया से निष्पादित फलशों को यावत् भृङ्गार से लेकर व्यजनान्ततक की वस्तुओं को और धूप कडुच्छुकों को लेकर 'जेणेव खीरोदए समुद्दे तेणेव आगम्म खीरोद्गं गिण्हंति' जहां क्षीरोद-क्षीसागर नामका समुद्र था-वहां आकर उन्हों ने उसमें से क्षीरोदक कलशों में भरा 'गिहित्ता जाई तत्थउप्पलाई पउमाई जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति' क्षीरोदक को भरकर फिर उन्हों ने वहां पर जितने उत्पल थे, पद्म थे यावर सहस्रपत्रवाले कमल थे उन सबको સિંહાસનના, ૧૦૦૮ છત્રોની, ૧૦૦૮ ચામરની, ૧૦૦૮ તેલ સમુદ્રગની યાવત્ એટલા જ કેષ્ઠ સમુદ્ગકની, સર્ષવ સમુદ્રગની, તાલ વૃન્તની યાવત્ ૧૦૦૮ ધૂપ કડુચ્છકેની ५५ ४ाडानी विपु। ४री. 'विउव्यित्ता साहाविए विविए य कलसे जाव कडुच्छुए य નિત્તિ’ વિકુણા કરીને પછી તે દેવમાં, દેવકની જેમ સ્વયંસિદ્ધ શાશ્વત કળશને તેમજ વિકિયાથી નિપાદિત કળશોને યાવત્ ભંગારથી માંડીને વ્યંજનાતની १२तुमाने मने धूप-छुने सन 'जेणेव खीरोदए समुहे, तेणेव आगम्म खीरोदगं गिण्हंति' च्या क्षारा-क्षीर सागर नाम४ समुद्र तो. त्या साध्या त्या भावाने तेभर भायी क्षीश६४ ४ामा मयु. 'गिमिहत्ता जाई तत्थ उप्पलाई पठमाइं जाव सहस्स पत्ताई ताई गिव्हंति' क्षाश६४ AIR पछी तमधे त्यां स sva sai, ५ो 6di, पापत् સહસ પત્રવાળાં કમળ હતાં, તે બધાને લીધાં અહીં યાવત્ પદથી મુદ વગેરેનું ગ્રહણ થયું છે. Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફય जम्बू अनया रीत्या पुष्करोदात् तृतीयसमुद्रात् क्षीरोदसमुद्रात् उदकादिकं गृह्णन्ति अत्र देवैः क्षीरोदकसमुद्रे क्षीरोदकादि ग्रहणानन्तरं यस्मात् वारुणीवरमन्तरामुक्त्वा पुष्करोदे जलं गृहीतम् । तस्मात् वारुणीवर वारिणोऽग्राह्यत्वादिति सम्भाव्यते, 'जाव भर हेरवयाणं मागहा इतित्थाणं उदगं मट्टिअंच गिण्हंति अत्र यावत्पदात् 'समयखित्ते' इति ग्राह्यम् तथाच समयक्षेत्रे मनुष्यक्षेत्रे भरतैरवतयोः पुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कयोः मागधादीनां तीर्थानामुद मृतिकां च गृह्णन्ति 'गिoिहत्ता' गृहित्वा ' एवं गंगाईणं महाणईणं जाव' एवमिति समयक्षेत्रस्थ पुष्करवरद्वीपार्द्धसत्कानां गङ्गादीनां महानदीनाम् आदिशब्दात् सर्वनदीनां परिग्रहः यावत्पदात् उदकमुभयतटवर्तिनीं मृत्तिकां च गृह्णन्ति इति ग्राह्यम् 'चुल्लहिमवंताओ सव्वतुअरे सव्दपुष्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले जाव सव्वो सहीओ सिद्धत्थए गिण्हंति' क्षुद्र हिमवतः सर्वान् तुवरान् कषायद्रव्याणि, सर्वान् गन्धान् वासादीन् सर्वाणि माल्यानि ग्रथितादि भेदभिन्नानि सर्वा महौषधीः सिद्धालिया यहां यावत्पद से कुमुद आदि को का ग्रहण हुआ है ' एवं पुक्खरोदाओ जाव भरहेरवयाणं मागहाइतित्थाणं उदगं महिअंच गिव्हंति' इसी तरह से पुष्करोदक नामके तृतीय समुद्र से उन्हों ने उदकादिक लिया, फिर मनुष्य क्षेत्रस्थित पुष्कर वरद्वीपार्ध के भरत ऐरवत के मागधादिक तीर्थों में आकर उन्हों ने वहां का जल और मृत्तिकाली 'गिव्हित्ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुल्लहिमवंताओ सच्चतुअरे सव्वपुष्फे सच्च गंधे सत्र्व मल्ले जाव सव्त्रोसहीओ सिद्धथए य गिर्हति २ ता पउमद्दहाओ दहोअगं उप्पला दीणिअ एवं सव्व कुलपव्वएस बट्टवेअद्वेषु सव्वमहदहेसु' वहां का जल और मृत्तिका लेकर फिर उन्होंने वहां की गंगा आदि महानदियों का जल यावत् उदक एवं उभय तटकी मृत्तिकाली तथा क्षुद्रहिमवान् पर्वत से समस्त आमलक आदि कषाय द्रव्यों को, भिन्न २ जाति के पुष्पों को समस्त गन्ध द्रव्यों को ग्रथितादि भेदवाली मालाओं को, राजहंसी आदि महौषधियों को और सर्वपों को लिया पद्मद्रह से दहोदक ' एवं पुक्खरोदाओ जाव भरहेरवयाणं मागहाइतित्थाणं उद्गं मट्टि गिंति' या प्रमाणे પુષ્કરેાદક નામક તૃતીય સમુદ્રમાંથી તેમણે ઉદ્યકાર્ત્તિક લીધાં. પછી મનુષ્ય ક્ષેત્ર સ્થિત પુષ્કરવર હીપાના ભરત અર્વતના માગધાદિક તીર્થોમાં આવીને તેમણે ત્યાંથી पाणी ने मृत्ति सीधां. 'गिन्हित्ता एवं गंगाईणं महाणईणं जाव चुल्लहिमवंताओ सव्वतुअरे सव्वपुष्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले जाव सव्त्रोसहीओ सिद्धत्थए य गिण्हंति गिव्हित्ता परमदहाओ दहोअगं उप्पलादीणि अ एवं सव्व कुलपव्वसु वट्टवेअद्वेसु सञ्च महહેતુ' ત્યાંથી પાણી અને મૃત્તિકા લઈને પછી તેમણે ત્યાંની ગંગા વગેરે મહા નદીઓનુ પાણી યાવત્ ઉદક તેમજ ઉભય તટની મૃત્તિકા લીધી. તથા ક્ષુદ્ર હિમવાન્ પવથી સમસ્ત આમલક આદિ કષાય દ્રવ્યને, ભિન્ન-ભિન્ન જાતિના પુષ્પોને, સમસ્ત ગન્ધ કબ્યાને ગ્રથિતાદિ ભેદવાળી માળાને, રાજહુ'સી વગેરે મહૌષધિઓને અને સપાને Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ९ अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् ६६३ र्थकांश्च सर्षपान् गृह्णन्ति ते आभियोगिकाः देवाः 'गिण्हिता' गृहीत्वा 'पउमद्दहाओ दद्दोदगं उप्पलादीणि पमद्रहात् द्रहोदकमुत्पलादीनि च गृहन्ति । 'एवं सव्वकुलपव्यएसु वट्टवेअद्धेसु सव्वमहदहेसु सम्बवासेसु सव्वचक्कवट्टि विजएसु वक्खार पव्वएसु अंतरणईसु विभासिज्जा' एवं क्षुद्रहिमवन्न्यायेन सर्वक्षेत्रव्यवस्थाकारित्वेन सर्वकुलपर्वतेषु सर्वकुलकल्पापर्वताः सर्वकुलपर्वताः, हिमाचलादयस्तेषु, तथा वृत्तवैताढयेषु, तथा सर्वमहाद्रहेषु पद्मद्रहादिषु तथा सर्ववर्षेषु, भरतादिषु, सर्वचक्रवति विजयेषु कच्छादिषु वक्षस्कारपर्वतेषु गजदन्ताकृतिषु माल्यवहादिषु सरलाकृतिषु च चित्रकूटादिषु तथा अन्तरनदीषु ग्राहवत्यादिषु विभाषेत वदेत् पर्वतेषु तु तुवरादीनां द्रहेषु उत्पलादीनाम् कर्मक्षेत्रेषु मागधादि तीर्थोदकमृदां नदीषु उदकोभयतटमृदा ग्रहणं वक्तव्यमित्यर्थः, 'जाव उत्तरकुरुसु जाव' यावत् उत्तरकुरुषु यावत् अत्र प्रथमं यावत् पदात् देवकुरुपरिग्रहः तथाच उत्तरकुरुषु देवकुरुषु च चित्र विचित्रगिरि यमकगिरि काश्चनगिरि हृददशकेषु यथासम्भवं वस्तुजातं गृह्णन्ति, द्वितीय यावत्पदात् पुष्करवरद्वीपार्द्धयोः भरतादिस्थानेषु वस्तुग्रहो वाच्यः। ततो जम्बूद्वीपोऽपि तद्ग्रहस्तैव वाच्यः कियत्पर्यन्तमित्याह-'सुदंसणेभदसालवणे' इत्यादि 'सुदंसणभद्दसालवणे सव्यतुअरे जाव सिद्धत्थए गिण्हंति' सुदर्शने पूर्वाद्धमेरौ भद्रशालवने नन्दनवने सौमनसवने पण्डकवने च सव्वतुवरान् गृहन्ति तथा तस्यैव को और उत्पल आदि को लिया इसी कुलपर्वतो में से, वृत्त वैताढयों में से एवं सर्व महाद्रहों मे से 'सव्ववासेसु, सच चक्कबहिविजएसु, वखारपश्वएसु, अंतरणईसु, विभासिज्जा' सनस्त भरतादि क्षेत्रों में से,समस्त चक्रवर्ती विजयों में से, वक्षस्कार पर्वतों में से अन्तर नदियों में से जलादिकों को लिया 'जाव उत्तरकुरुसु जाव सुदंसणभद्दसालवणे सव्व तुअरे जाव सिद्धस्थए य गिण्हंति' यावतू उत्तरकुरु आदि क्षेत्रों में से थावत् पदग्राह्य देवकुरु में से, चित्र विचित्र गिरिमें से यमक गिरिमें से काञ्चनगिरि में से एवं हृद दशकों में से यथा संभव वस्तुओं को लिया तथा द्वितीय यावत्पद से पुष्करवर द्वीपार्ध के पूर्वापरार्द्ध भागों में स्थित भरतादि स्थानों में से यथा संभव वस्तुओं को लिया इसी तरह जम्बुद्वीपस्थ पूर्वार्द्ध मेरुमें स्थित भद्रशालवन में से नन्दनवन में से, सोमनसवन લીધાં. પદ્મદ્રહથી કહાદક અને ઉત્પલાદિ લીધાં. એજ કુલ પર્વતમાંથી, વૃત્ત વૈતાઢયેभांथी तमा सव मा समुद्रोमांथी 'सव्व वासेसु, सव्व चक्कवट्टिविजएसु रक्खारपव्वरसु अंतरणईमु विभासिज्जा' समस्त सरता क्षेत्रमाथी, समस्त यवती वियोमाथी पक्ष१२ तामाथी मन्त२ नहीसाभाथी, सा। दीया 'जाव उत्तरकुस्सु जाव सुदं. सणभदसालवणे सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थए य गिण्हंति' यावत् उत्तर १३ मा क्षेत्री. માંથી યાવત્ પદ ગ્રાહ્ય દેવકુરુમાંથી, ચિત્ર વિચિત્ર ગિરિમાંથી, યમક ગિરિમાંથી, તેમજ હુદ દશકમાંથી યથા સંભવ વસ્તુઓ લીધી. તથા દ્વિતીય યાવત્ પદથી પુષ્કરવર દ્વીપાધના પૂર્વાપરાદ્ધ ભાગમાં સ્થિત ભરતાદિ સ્થાનમાંથી યથા સંભવ વસ્તુઓ લીધી, આ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९४ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र अपराः अनेनैव क्रमेण वस्तुजातं गृह्णन्ति, ततो धातकीखण्ड जम्बूद्वीपगतस्य मेरोः भद्रशालवने सर्व तुवरान् यावत्सिद्धार्थकांश्च गृहन्ति, 'एवं गंदणवणाओ सव्वतुअरे जाव सिद्धत्थए अ सरसंच गोसीसचंदणं दिव्वं च सुमणोदामं गिण्हंति' एवम् उक्तरीत्या अस्यैव मेरोः नन्दनवनात् सर्वतुवरान् यावत् सिद्धार्थकांश्च सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च मुमनो दामग्रथितपुष्पाणि गृह्णन्ति एवं सोमणसपंडगवणामो सव्वतुअरे जाव मुमणसदामं ददरमळय. मुगंधेय गिण्हंति' एवं सौमनसवनात् पण्डकवनाच सर्वतुरवरान् यावत् सुमनोदाम दर्दरमलयसुगन्धिकान् गन्धांश्च तत्र दर्द मलयौ-चन्दनोत्पत्तिखानिभूतौ पर्वतो तेन तात्स्थात् तद्व्यपदेश इतिन्यायेत् तदुद्भव चन्दनमपि दर्दरमलयशब्दाभ्यामभिधीयते तथाच दर्दरमलयनामक चन्दने तयोः सुगन्धः परमगन्धो यत्र तान् दर्दरमलयमुगन्धिकान् गन्धान् वासान् गृहन्ति में से और पण्डक वनमें से समस्त तुवरादि पदार्थों को लिया 'जाव सिद्धत्थए अ सरसंच गोसीसचंदणं दिव्वेच सुमणदामं गेण्हंति' यावत् सिद्धार्थकों सरस गीशीर्षचन्दन को और दिव्य पुष्पमालाओं को लिया ‘एवं सोमणस पंडगवणाओ अ सव्वतुअरे जाव सुमणसदामं दशमलय सुगंधे य गिण्हति, २त्ताएगओ मिलंति २त्ता जेणेव सामी लेणेव उवागच्छंति २ ता महत्थं जाव तिस्थ. यराभिसेअं उवट्ठवेंति' इसी तरह धातकी खण्डस्थ मेरुके भद्रशालवन में से सर्व तुवर पदार्थों को यावत् सिद्धार्थ कों को लिया इसी तरह इसके नन्दनवन में से समस्त तुपर पदार्थोको यावत् सिद्धार्थकों को लिया सरसगोशीर्षचन्दन को लिया दिव्य सुमनो दामों को लिया इसी तरह सौमनसवन से एण्डकवन से सर्व तुवरों औषधिओं को यावत् तुमनो दामों को दर्दर एवं मलय सुगन्धित चन्दनों को लिया तात्पर्य यही है कि अढाई छोप एवं इसके वाहर के समुद्रों में से वहां के जल को पर्वतों में से तुवरादि सर्वप्रकार के औषधीय પ્રમાણે જમ્મુ દ્વીપસ્થ પૂર્વાદ્ધ મેચમાં સ્થિત ભદ્રશાલ વનમાંથી નન્દન વનમાંથ, સૌમन वनमाथी भने ५७४ वनमाथी समस्त तु॥ ५. दीघi. 'जाव सिद्धत्थरअ सर संच गोसीसचंदणं दिव्वे च सुमणदामं गेहंति' यावत् सिद्धय, स२२स गोशी यन्न मन हिव्य ०५माणाम। दी एवं सोमणसपंडगवणाओ अ सव्वअरे जाव सुमणसदामं दद्दरं मलयसुगंधं य गिण्हति, गिहित्ता एगओ मिलति मिलित्ता जेणेव सामी तेणेव आगच्छंति उवागच्छि ता महत्थं जाव तित्थय। भिसेअं उबवें ति' मा प्रभारी ધાતકી ખંડસ્થમેને ભાદ્રશ લ વનમાંથી. સર્વતુવર પદાર્થોને યાવત્ સિદ્ધાર્થોને લીધાં આ પ્રમાણે જ એના નન્દન વનમાંથી સમસ્ત તુમર પદાર્થોને યાવત્ સિદ્ધાર્થીને લીધા. સરસ ગોશીષ ચન્દન લીધું. દિવ્ય સુમનદ લીધાં. આ પ્રમાણે સૌમનસ વનમાંથી, પંડવનમાંથી, સર્વ તુવર ઔષધિઓને યાવત્ સુમનામને, દદુર તેમજ મલયજ સુગર જિત ચન્દન લીધાં, તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે અઢાઈ દ્વીપ તેમજ એની બહારના સમુ Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः रु. १० अच्युतेन्द्रकृताभिषेकसामग्रीसंग्रहणम् ६९५ 'गिण्हित्ता' गृहीत्वा 'एगओ मिलंति' इतस्ततो विप्रकीर्णा आभियोगिका देवा एकत्र मिलन्ति 'मिलित्ता' मिलित्वा 'जेणेव सामी तेणेव उवागच्छंति' यत्रैव स्वामी अच्युतः, तत्रैव उपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'महत्थं जाव तित्थयराभिसे अं उववें तित्ति महार्थ यावत तीर्थकराभिषेकम् तीर्थकराभिषेकयोग्यं क्षीरोदकाधुपस्करणम् उपस्थापयन्ति उपनयन्ति, अच्युतेन्द्रस्य समीपस्थितं कुर्वन्तीत्यर्थ: अत्र यारत् पदात् महार्घ महाई विपुलमिति पदत्रयी ग्राह्या एषामर्थस्तु पूर्वे द्रष्टव्यः इति ॥ सू०९॥ ___ अथ अच्चुतेन्द्रो यत्कृतवान् तदाह-'तएणं से अच्चुए' इत्यादि मूलम्-'तएणं से अच्चुए देविदे दसहि सामाणिअसहस्सीहि तायत्तीसएहिं चउहिं लोगपालेहिं तिहिं परिसाहि सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणिआहिवईहिं सत्तालसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहि सद्धिं संपरिखुडे तेहिं सामाणिएहिं विउविएहिं अ वरकमलपइटाणेहिं सुरभिवरवारिपरिपुरणेहिं चंदणकयच्चाएहिं आविद्धकंठेगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहिं करयल सुकुमार परिग्गहिएहिं अटुसहस्सेणं सोवणियाणं कलसाणं जाव असइस्सेणं भोमेजाणं जाव सम्वोदएहिं सब्बमट्टि आहिं सतुवरेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विड्डीए जाव रवेणं महया महया तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचइ तएणं सामिस्स महयामहयाअभिसेयसि वट्टमाणंसि इंदाईआ देवा छत्तचामरधूब कडुच्छ्रअ पुप्फगंध जाव हत्थगया हट्टतुट्ट जाव वजसूलपाणी पुरओ चिटुंति पंजलिउडा इति पदार्थों को द्रहों में से उत्पलादिकों को कर्मक्षेत्रों में से मागधादि तीर्थो के जलको एवं मृत्तिका को एवं नदियों में से उनके उभयतटों की मिट्टीको लिया इस प्रकार से अभिषेक योग्य सब प्रकार की साधन सामग्री लेकर वे इधर उधर फैले हुए देव एक स्थान पर आकरके इकट्टे हो गये और मिलकर फिर वे सबके सब जहां अपना स्वामी था वहां पर गये वहां जाकर उन्हों ने वह तीर्थंकर के अभि. षेक योग्य लाई हुई समग्र सामग्री अपने स्वामी अच्युतेन्द्र की समक्ष रखदी॥९॥ દ્રોમાંથી ત્યાંનું પાણી, પર્વતેમાંથી, તુવરાદિક સર્વ પ્રકારના ઔષધીય પદાર્થો, કહેમાંથી ઉત્પલાદિકે, કર્મક્ષેત્રમાંથી માગધાદિ તીર્થોનું પાણી તેમજ મૃત્તિકા તથા નદીઓ માંથી તેમના ઉભય તટેની મૃત્તિકા આ પ્રમાણે બધાં પદાર્થો લીધાં. આ પ્રમાણે અભિષેક ગ્ય સર્વ પ્રકારની સાધન-સામગ્રી લઈને તેઓ આમ-તેમ વિખરાયેલા દે એક સ્થાન ઉપર આવીને એકત્ર થયા અને એકત્ર થઈને તેમણે તે તીર્થકરના અભિષેક એગ્ય એકત્ર કરેલી બધી સામગ્રી પોતાના સ્વામી અય્યતેન્દ્રની સામે મૂકી દીધી. ૯ છે Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूने एवं विजयाणुसारेण जाव अप्पेगइयादेवा आसिअ संमजिओवलित्तसित्तसुइसम्मट्टरत्यंतरावणीहि करेंति जाव गंधवटिभूति अप्पेगइया हिरण्णवासं वासंति एवं सुवण्णरयगइर आभरणपत्तपुप्फफलबीअमल्लगंधवषण जाव चुण्णवासं वासंति, अप्पेगइया हिरण्णविहिं भाइंति एवं जाव चुण्णविहिं भाइंति अप्पेवाइया चउन्विहं वज्ज वाएंति तं जहा-ततं १ विततं २ घणं ३ झुसिरं ४ अप्पेगइया चउव्विहं गेयं गायंति तं जहा-उक्खित्तं १ पायत्तं २ मंदागईथं ३ रोईआवसाणं ४ अप्पेगइया चउव्विहं ण णच्चंति तं जहा-अंचिअं १ दुअं २ आरभडं ३ भसोलं ४ अप्पेगइया चउठिवहं अभिणयं अभिणेति तं जहा-दिदें. तिअं १ पडिसुएइयं २ सामण्णोकणिवाइथं ३ लोगमज्झावसाणियं, अणेगबत्तीसइविहं दिव्यं णट्टविहिं उबदसेंति अप्पेगइया उप्पयं निवयं निवयउप्पयं संकुचिअपसारिअं जाव भंतसंभतणामं दिव्वं पट्टविहिं उवदंसंतीति, अप्पेगइया तंडति अप्पेगइया लालेति, अप्पेगइया पीणेति, एवं बुक्काति, अप्फोडेंति, वग्गंति सीहणायं णदंति अप्पेगइया सव्वाई करेंति अप्पेगइणा हयहेलिअं एवं हथि मुलुगुलाइ रहघणघणाइअं अप्पेगइया तिण्णिवि, अप्पेगइया उच्छोलंति अप्पेगइया पच्छोलंति, अप्पेगइया तिवई छिंदंति पायददस्यं करेंति,भूमिचवेडे दलयंति, अप्पेगइया महया सद्देणं राति एवं संजोगा विभासिया अप्पेगइया हक्कारेंति एवं पुकारेंति वकारेंति ओवयंति परिक्यंति जलंति तवंति पय. वंति गज्जति विजआयंति वासिंति अप्पेगइया देवुकलिअं करेंति एवं देवकहकहगं करेंति, अप्पेगइया दुहु दुहुगं करेंति अप्पेगइया विकिय भूयाइं रूवाइं विउवित्ता पणचंति एवमाइ विभासेज्जा जहा विजयस्स जाव सब्बओ समंता आधावेंति परिधावेंति ॥ सू० १०॥ छाया-ततः खलु सोऽच्युतो देवेन्द्रः दशभिः सामानिकसहस्त्रैः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैः चतुर्भिलोकपालैः तिसृभिः पर्षद्भिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः चस्वारिंशता आत्मरक्षकदेवसहरीः साई संपरिषतः ते स्वाभाविकैः वैक्रियैश्च पर Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ६९७ कमप्रतिष्ठानैः सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णैः चन्दनकृतचर्चितैः आविद्धकण्ठगुणैः पद्मोत्पलपिधानैः करतलसुकुमार परिगृहीतः, अष्ट सहस्रेण सौवर्णिकानां कलशानां यावत् अष्टसह स्रेण भौमेयानां यावत् सर्वोदकैः सर्वमृतिकाभिः सर्वतुवरैर्यावत् सौंषधिसिद्धार्थकैः सर्वद्धयावत् रवेण महता महता तीर्थकराभिषेकेण अभिषिञ्चति, ततः खलु महता महता आभिषेके वर्तमाने इन्द्रदिकाः देवाः छत्रचामर धूपकडुच्छुकपुष्पगन्ध यावत् हस्तगताः हृष्टतुष्ट, यावत् वज्रशूलपाणयः पुरतस्तिष्ठन्ति प्राञ्जलिकृता इत्यर्थः । एवं विजयानुसारेण यावत् अप्येककदेवाः आसिक्त संमार्जितोपलिप्तसिक्त शुचीसम्मृष्ट रथ्याऽन्तराऽऽपणवीथिकं कुर्वन्ति यावद् गन्धवर्तिभूतमिति, अप्येककाः हिरण्यवर्ष वर्षन्ति, एवं सुवर्णरत्नवज्राऽऽभरणपत्रपुष्पबीजमाल्यगन्धवर्षा यावत् चूर्णवर्ष वर्षन्ति, अप्येककाः, हिरण्यविधि भाजयन्ति एवं यावत् चूर्णवीधि भाजयन्ति, अप्येककाः चतुर्विधं वाचं वादयन्ति, तद्यथा ततम् १ विततम् २ घनम् ३ सुषिरम् ४ अप्येके, चतुर्विधं गेयं गायन्ति तद्यथा उत्क्षिप्तम् १ पादात्तम् २ मन्दायम् ३ रोचितावसानम् ४ अप्येककाः चतुर्विध नाटयं नृत्यन्ति तद्यथा-अश्चितम् १ द्रुतम् २ आरभटम् ३ भसोलम् ४ इति अप्येककाः चतुर्विधम् अभिनयम् अभिनयन्ति तद्यथा दाष्टीन्तिकम् १ प्रतिश्रुतिकम् २ सामान्यतो विनिपातिकम् ३ लोकमध्यावसानिकम् ४ अप्येके द्वात्रिंशद्विधं दिव्यं नाटयविधिमुपदर्शयन्ति, अपेककाः उत्पातनिपातम् निपातोत्पातम् संकुचित प्रसारितम् यावत् भ्रान्तसंभ्रान्तनाम दिव्यं नाटयविधिमुपदर्शयन्तीति । अप्येककाः विनयन्ति एवं वत्कारयन्ति आस्फोटयन्ति वलन्ति सिंहानादं नदन्ति अप्येककाः सर्वाणि कुर्वन्ति अप्येककाः हय हेपितं एवं गुलगुलायितं रथघनघनायितम् अप्येककाः त्रीण्यपि अप्येककाः 'उच्छोलंति' अग्रतो मुखे चपेटां ददति, पच्छोलंति' पृष्टतो मुखे चपेटां ददंति अप्येककाः त्रिपदी छिन्दन्ति पाददईरकं कुर्वन्ति भूमिचपेटां ददति अप्येककाः महता महता शब्देन रावयन्ति एवं संयोगाः विभाषितव्याः अप्येकका 'हक्कारयन्ति' एवं पूत्कुर्वन्ति वकारयन्ति अवपतन्ति उत्पतन्ति परिपतन्ति ज्वलन्ति तपन्ति प्रतपन्ति गर्जन्ति विद्युतं कुर्वन्ति वर्षन्ति अप्येककाः देवोत्कलिकां कुर्वन्ति एवं देवकह कहकं कुर्वन्ति, अप्येककाः दुहु दुहुकं कुर्वन्ति, भयेककाः विकृतभूतादि रूपाणि विकुर्वित्वा प्रनृत्यन्ति एक्मादि विभाषेत यथा विजयस्य यावत् सर्वतः समन्तात् ईषद्धावन्ति परिधावन्ति इति ॥ सू० १०॥ ___टीका-'तएणं से अच्चुए देविदे' ततः आभियोगिकदेवैः आनीताभिषेकसामग्र्याः, उपस्थित्यनन्तरम् खलु सोऽच्युतो देवेन्द्रः तीर्थकरमभिषिञ्चतीत्यग्रे सम्बन्धः कैः सार्द्ध 'तए ण से अच्चुए देविंदे दसहि सामाणिय'-इत्यादि टीकार्थ-इसके बाद-जब अभिषेक योग्य सब सामग्री उपस्थित हो चुकी'तहणं से अच्चुए देविंदे दसहिं सामाणिय' इत्यादि ટીકાર્ય–ત્યાર બાદ જ્યારે અભિષેક એગ્ય બધી સામગ્રી ઉપસ્થિત થઈ ગઈ ત્યારે 7.44 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे संपरिवृतः सन् अभिषिञ्चति तत्राह-दसहिं सामाणिभ साहस्तीहिं' दशभिः सामानिकसहस्रः दशसहस्रसंख्यक सामानिकैः देवः अपिच 'तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैः देवविशेषैः अपिच 'चउहि लोगपालेहि' चतुर्भिलो कपालैः देवविशेषैः 'तिहिं परिसाहि' दिमृभिः पर्षद्भिः सभाभिः 'सत्तहि अणिए हिं' सप्पभिरनीः 'सत्तहिं अणिआहिवईहि' सप्तभिरनीकाधिपपतिभिः 'चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहसीहिं' चत्वारिंशता आत्मरक्षकदेवसहस्रैः चत्वारिंशत् सहस्रसंख्याकैरात्मरक्षकदेवैरित्यर्थः सार्द्ध संपरिवृतः वेष्टितः कैः अभिषिञ्चति तत्राह-'तेहिं साभाविएहिं विउविएहिअ वरकमलपट्टाणेहि तैः तद्गतदेवजनविशेषैः स्वाभाविकैः स्वभावसिद्धैः वैक्रियैश्च विकुणाशक्त्या निष्पादितैश्च वरकमलप्रतिष्ठानैः वरकमले श्रेष्ठकमले प्रतिष्ठान स्थितियेषां ते वथाधूनास्तैः, एता पदानि कलशविशेषणानि तथा 'सुरभिवरवारिपरिपुण्णेहि' सुरभिवरवारि प्रतिपूर्णे: मुगन्धियुक्त जलपरिपूर्णः तथा 'चंदणकयचच्चाएहि' चन्दनकृतचर्चितैः कृतं चर्चितं विलेपनं येषां ते तथा भूतास्तैः तथा 'आविद्धकंठे गुणेहिं आविद्धकण्ठेगुणः आविद्धः आबद्धः पाण्ठे गुणः रज्जुभिः येषां ते तथाभूतास्तैः तथा 'पउमुप्पलपिहाणेहि' पद्मोत्पलपिधानः पौरुत्पलैश्च तत् तत् कमलविशेषैः पिधानम् अच्छादनम् येषां ते तथाभूतास्तैः तथा 'करयलमुझुमारपरिग्गहिएहिं करतलमुकुमारतय-'से अच्चुए देविदें देवराया' उस देवेन्द्र देवराज अच्युतने 'दसहिं सामाणि अ साहस्सीहिं' अपने १० हजार सामानिक देवों के साथ 'ताअत्तीसाए-तायत्तीसएहि' ३३ त्रायस्त्रिंश देवो के साथ 'चउहि लोगणालेहिं चारलोक पालो के साथ 'तिहिं परिसाहिं' तीनपरिषदाओं के साथ 'सत्तहिं अणिएहिं' सात अनीकों के साथ 'सत्तहिं अणीयाहिवईहिं' सात अजीकाधिपतियों के साथ 'चत्तालीसाए आयरक्खदेव साहस्सीहिं' ४० आत्मरक्षकदेदों के सद्धि' साथ 'संपरिघुडे' घिरे हुए होकर 'तेहिं साभाविएहिं विउविएहिं अ वरकमलपट्टा हिं' उन स्वाभाविक और विकुर्विन तथा लाकरके सुन्दर कमलो के उपर रखे गये हुए 'सुरभिवारिपडिपुण्णेहिं' सुगंधित सुन्दर निर्मल जलसे भरे हए, 'चंदणकयचच्चाएहिं' चन्दन से चर्चित हुए, 'आविद्धकंठेगुणेहिं' मोली से कंठमें 'से अच्चुए देविदे देवराया' ते देवेन्द्र देवरा अत्युते 'दसहि सामाणिअ साहसीहिं पाताना १० १२ सामानि४ हेवानी साथे 'तायत्तीसार तायत्तीसएहिं' 33 नायरिश हेवेनी साथे 'चउहिं लोगपालेहि' यार खोपासानी साथे, 'तिहिं परिसाहित्रपरिषदा मानी साथै तथा 'सत्तहिं अणिएहिं सात मानी। साथे 'सत्तहिं अणीयाहिवईहि' सात मनीविपतियानी साथ 'चत्तोलीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहि' ४० मात्भरक्ष: हेवानी सद्विं' साथे 'संपरिबुडे' मात धन 'तेहिं साभाविएहि विउव्विएहि अ वरकमलपइदाणेहि ते स्वामा४ि मने विति तभार वीर सुन्४२ ४४ानी ५२ भृश्याम मा 'सुरभिवारिपडिपुण्णेहि' सुग. चित,नि यी पूरित, 'चंदणकयचच्चाएहि य-नथी यथित थयेहा, 'आविद्ध Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थंकराभिषेकादिनिरूपणम् ६९९ परिगृहीतैः, करतलेतु सुकुमारैः परिगृहीताः स्थापिता ये तथाभूतास्तैः, एवंभूतैरनेकसहस्रसंख्यकैः कलशैरितिगम्यम् । तानेव कलशान् विभागतो दर्शयति 'अट्ठसहस्सेणं सोवणि आणं कलसाणं जाव असहस्सं भोमेज्जाणं जाव' अष्टसहस्रेण अष्टोत्तरसहस्रेण सौवर्णिकानां सुवर्णमयानां कलशानां घटानां यावत् अत्र प्रथमयावत्पदात् अष्टसहस्रेण अष्टोत्तरसहस्रेण रौप्यानाम् अष्टसहस्रेण मणिमयानाम् अष्टसहस्रेण सुवर्ण इप्यमयानाम् अप्टसहस्रेण रूप्यमणिमयानाम् अष्टसहस्रेण सुवर्णरूप्यमणिमयानामिति अष्टसहस्रेण भौमेयानां तथाच सर्वसंख्यायाः सम्मेलनेन चतुःपटयाधिकैः अष्टभिः सहस्रः तत् तत् विशेषणविशिष्ट कलशानामित्यर्थः द्वितीययावत्पदात् भृङ्गारादिपरिग्रहः 'सबोदएहिं सब्याट्टिाहिं सव्वतूबरेहिं जाव सम्बोसहि सिद्धत्थएहिं सर्वोदकैः सर्वत्तिकाभिः सर्वतुवरैः यावत् सौंपधिसिद्धार्थकैः अत्र. यावत्पदात् पुष्पादिपरिग्रहः 'सबिडीए जाव रवेणं' सर्वद्धर्या सर्वया विभवादिसंपदा यावद्रवेण शब्देन यत्र यावच्छब्देन 'सव्वजुईए' सर्वध या इत्यारभ्य 'संखपणवभेरि झल्लरिखरमुहि हुडुक्क बंधे हुए 'पउमुप्पलपिहाणेहि पन और उत्पलरूप ढक्कन से ढके हुए 'करयल. सुकुमार परिग्गहिएहिं' ऐसे सुन्दर सुकुमार करतलों में धारण किये गये 'अट्ठसहस्प्लेणं सोवण्णिागं कलसागं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमेज्जाणं' १००८ सुवर्ण के कलशों से यावत् १००८ मिटि के कलशों से यावत्पद गृहीत १००८ चांदी के कलशों से, १००८ मणि के कलशों से १००८ सुवर्णरुप्य निर्मित कलशों से १००८ सुवर्णमणि निर्मित कलशों से १००८ रुप्यमणि निर्मित कलशो से, १००८ सुवर्णरुप्य निर्मित कलशों से कुल मिलकर हुए ८०६४ कलशों से 'जाव सम्वोदएहिं सव्वमहिमाहिं सव्वतुअरेहिं जाच सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सविडोए जाब रवेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचंति' यावत् भृङ्गारकादिकों से एवं समस्त तीर्थो से लाये गये जल से समस्त तुवरपदार्थों से, यावत् समस्त पुष्पो से सर्वोषधियों से एवं समस्त सर्षों से अपनी समस्त ऋद्धि कंठे गुणेहि' भाजी ४ मा थयेसा, 'पउमुप्पलपिहाणेहि' ५५ मन Suca ३५ ४४थी माछाहित थये।, 'करयल सुकुपार परिग्गहिरहिं तम सुन्दर सुमार ४२तमा धारा ४२वामा माया, 'अट्ट सहस्तेणं सोपण्णिआणं कलसाणं जाव अट्ठ सहस्सेणं भोमेज्जाणं' १००८ सुना शाथी यावत् १००८ माटीना ४थी यावत् ५६ ગૃહીત ૧૦૦૮ ચાંદના કળશેથી, ૧૦૦૮ મણિઓના કળશેથી, ૧૦૦૮ સુવર્ણ, સુખનિમિત કળશેથી, ૧૦૦૮ સુવર્ણ મણિનિર્મિત કળશેથી ૧૦૦૮ રૂમણિનિર્મિત ४थी २ मा न ८०६४ ४थी 'जाव सव्वोदएहिं सब मट्टिआहिं सव्व तुअरेहि जाप सव्योसहिसिद्धत्थरहिं सब्बिडूढीए जाव रवेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं अभिसिं चंति' यावत् भृ॥२४॥धी तम४ समस्त ती माथी anभा माथी , સમસ્ત તુવર પદાર્થોથી, યાવત્ સમસ્ત પુષ્પથી, સષધિઓથી તેમજ સમસ્ત સર્ષથી, Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मुरजमुइंग दुंदुहि निग्घोसनाइएणं' शंखपणवभेरिझल्लरिखरमुखि हुडुक्क मुरजमृदङ्गनिर्घोषनादितेन इत्यन्तं सर्व ग्राह्यम्' 'महया महया तित्थयराभिसे एणं अभिसिंचंति' महता महता तीर्थकराभिषेकेण येन अभिषेकेण तीर्थकरा आभिषिच्यन्ते तेन अभिषेकेण इत्यर्थः अभिषेकेण इत्यस्य च अभिषेकोपयोगिना क्षीरोदादिजलेन इत्यर्थः अभिषिञ्चति अभिषेकं करोति सोऽच्युतः । सम्प्रति अभिषेककारिण इन्द्रात् अपरे इन्द्रादयो यत् कृतवन्तस्तदाह-'तए णं' इत्यादि 'तए णं सामिस्स महया महया अभिसे अंसि वट्टमाणंसि इंदाइया देवा' ततः खलु स्वामिनः अच्युतेन्द्रस्य महता महता अतिशयेन महति अभिषेके वर्तमाने अपरे इन्द्रादिका देवा 'छत्तचामरकलस धूव कडुच्छु अ पुप्फगंध जाव हत्थगया' छत्रचामरकलशधृपकडुच्छुक पुष्पगन्ध यावत् हस्तगताः अर्थस्तु सुगमएव अत्र यावत्पदात माल्यचूर्णादिपरिग्रहः 'हहतुट्ठ जाव वज्जमुलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा' इति हृष्टतुष्ट यावत् वज्रशूलपाणयः । उपलक्षणमेतत् तेन अन्य शस्त्रपाणयोऽपि ग्राह्याः पुरतः प्राञ्जलिकृताः सन्तस्तिष्ठन्ति । अयं भाव केचन छत्रधारिणः केचन चामरोत्क्षेपकाः केवन कलशधारिणः एवं धुत्यादि वैभव से युक्त होकर सुन्दध्वनिवाले गाजेबाजे की ध्वनिपूर्वक तीर्थकर प्रभु का अभिषेक किया 'तएणं सामिस्स महया२ अभिसेयंसि वट्टमाणंसि इंदाइआ देवा छत्तचामरधूवकडुच्छुअ पुप्फगन्ध जाव हत्थगया' जिस समय अच्युतेन्द्र बडे भारी ठाटबाट से प्रभु का अभिषेककर रहा था उस समय और जो इन्द्रादिक देव थे वे अपने अपने हाथों में कोई छत्र लिये हुए था कोई चाम लिये हुए था, कोइ धूपकडुच्छुक-धूपका कडाह-लिये हुए था, कोई पुष्प लिए हुए था, कोई गंध द्रव्य लिये हुए था यावत् कोई माला लिये हुए था एवं को चूर्ण लिये हुए था 'हतुट्ट जाव वज्जमूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडा इति' सबके सब इन्द्रादिकदेव हर्ष और संतोष से विभोर बनकर हाथ जोडे हुए प्रा के समक्ष खडे हुए थे इनमें कितनेक शूल लिये हुए थे, कितनेक बज्र लिये हु थे और कितनेक और भी दूसरे हथियार लिये हुए थे यहां जो यह शर પિતાની સમસ્તઋદ્ધિ તેમજ ઘતિ વગેરે વૈભવથી યુક્ત થઈને મંગળ વધોના વિનિ साथै ती ४२ प्रभुना अनिष ध्या. 'तएणं सामिस्स महया २ अभिसेयसि वट्टमाणसि इंदाइओ देवा छत्तचामरधूवकडुच्छुअ पुप्फगन्ध जाव हत्थगया' २ मते अश्युत ભારે ઠાઠ માઠ સાથે પ્રભુનો અભિષેક કરી રહ્યો હતે, તે વખતે બીજાજે ઈન્દ્રાદિક દેવે હતા, તેઓ એ પિતપેતાના હાથમાં કોઈએ છત્ર લઈ રાખ્યું હતું, કેઈએ ચામર લઇ રાખ્યા હતા, કેઈએ ધૂપ કટાહ લઈ રાખ્યો હતે, કેઈએ પુપ લઈ રાખ્યાં હતાં. કઈ રે ગંધ દ્રવ્ય લઈ રાખ્યાં હતાં, યાવત્ કેઈએ માળાઓ લઈ રાખી હતી. તેમજ કઈ यू ई यु तु.'हट्ठ-तुटु जाव वज्जसूलपाणी पुरओ चिट्ठति पंजलिउडाइति' ३ બધા ઈન્દ્રાદિક દેવ હર્ષ અને સંતોષથી વિભેર થઈને હાથ જોડીને પ્રભુની સામે ઊભ હતા, જેમાંથી કેટલાક વજ લઈને ઉભા હતા અને કેટલાક બીજા શસ્ત્રો લઈને ઉ૦ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०९ इत्यादि सेवा-धर्मसत्यापनार्थं न तु वैरिनिग्रहार्थ, तत्र वैरिणामभावात् केचन वज्रपाणयः केचनशूलपाणयः प्राञ्जलिकृताः सन्तः सन्तिष्ठन्ते इति, अत्र यावत्पदात् चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्षवशविसर्पद् हृदयाः, इति ग्राह्यम् ‘एवं विजयानुसारेण जाव' एवम् उक्त प्रहारेण अभिषेकसूत्रं विजयदेव्य देवाभिषेकसूत्रानुसारेण ज्ञातव्यम् जीवाभिगमवत् अत्र यावत्पदात् 'अप्पेगइया पंडगवणं णच्चोअगं णाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं स्यरेणु. विणासणं दिव्वं मुरहिगंधोदकवासं वासंति अप्पेगइया निह परयं णट्टरयं भट्टरयं पसंतरयं उपसंतरयं करेंति' इति ग्राह्यम् अप्येककाः केचन देवाः पण्डकवनम्-अत्र नैरन्तर्ये द्वितीया निरन्तरं पाडकवने इत्यर्थः नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथास्यात् तथा प्रविरल प्रस्पृष्टम् प्रकर्षण धारण करने की बात कही गइ है वह केवल सेवा धर्मको प्रकट करने के लिये ही कही गई है वैरिजन के निग्रह के निमित्त नहीं क्योंकि वहां उनका कोई वैरी ही नही था यहां यावत्पद से 'चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परमसौमनस्थिताः हर्ष. वशविसर्पहृदयाः' इन पदों का ग्रहण हुआ है 'एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइया देवा आसिअ संमजिजओचलितसित्तसुइसम्मट्ट रत्थंतरावणवीहिअं करेंति जाव गंधवद्विभूअंति' जीवाभिगम सूत्र में जिस प्रकार विजयदेव के अभिषेक प्रकरण में अभिषेक सूत्र कहा गया है, उसी तरह से यहां पर भी अभिषेक सूत्र जानना चाहिये यहां यावत्पद से 'अप्पेगइया, पंडगवणं णच्चो अगं, णाहुमटिअं, पविरलपकुसियं रयरेणुविणासणं, दिव्वं सुरहिगंधोदकवासं वासंति, अप्पेगइया नियरयं णहरयं, भट्टरथं, पसंतरयं, उवसंतरयं करेंति' इस पाठका संग्रह हुआ है इरूकी व्याख्या पहिले जैसी ही है वाक्य योजना इस प्रकार से है अपिशब्द यहां स्वीकारोक्ति के अर्थ में है 'एगइया' शब्द का अर्थ હતા. અહીં જે આ શાસ્ત્ર ધારણ કરવાની વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે તે ફક્ત સેવાધર્મને પ્રકટ કરવા માટે કહેવામાં આવી છે. વૈરીઓના ઉપશમન માટે એમણે શસ્ત્રો ધારણ કર્યા नया. ते स्थान ५२ तमना वैरीखत नहि. म.डी. यावत् ५४थी. चित्ता नंदित्ताः, प्रीतिमनसः, परमसोमवस्थिताः हर्षरशविसर्पद्घया' से पहोनु हुय ययु छ. 'एवं विजयानुसारेण जाव अप्पेगइया देवा आसिअ संमज्जिओबलित्तसित्त सुइ सम्मटु रत्थंतरावणवीहि करे ति जाव गन्धवट्टि भूअंति' वालिगम सूत्रमा २ प्रमाणे विल्य विना मनिष પ્રકરણમાં અભિષેક સૂત્ર કહેવામાં આવેલ છે, તે પ્રમાણે અહીં પણ અભિષેક સૂત્ર જાણવું જોઈએ. मही यावत् ५४थी 'अप्पेगइया पंडगवणं, णच्चोअगं, णाइमट्टिअं, पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिवं साहि गंधोदकवास वासंति, अप्पेगइया निहयरय णदुरयं, भदुरयं, पसंतरयं, उवसंतरयं करें ति' मा पाउन सक्यो छे. वाय या मा प्रमाणे छ. 'अपि' ५५४ २५ २वी४।२।तिना अथ मां प्रयुत यथे। छ. 'एगइया' शहना मा ' मेवे। थाय छे. हा ‘એ તે પંડક વનમાં સુરભિ ગટકની વર્ષા કરી. આ વર્ષથી ત્યાં અતિ કાદવ થાય Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र यावता रेणवः स्थगिता भान्ति तावन्मात्रेण उत्कर्षेणेतिभावः उक्तप्रकारेण विरलानि सान्तराणि धनभावे कर्दमसम्भवात् मवृष्टानि प्रकर्षयन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शनसम्भवे रेणुस्थगनासम्भवात् यस्मिन् वर्षे तत् प्रविरलप्रस्पृष्टम् अत एव रमोरेणुविनाशनम् रजसां श्लक्ष्णरेणुपुद्गलानां रेणूनां च स्थूलतम तत् पुदगलानां विनाशनम् दिव्यम् अतिमनोहरम् सुरभिगन्धोदकवर्षे वर्षन्ति, अप्येककाः केचन देवाः पण्ड कवनम् निहतरजः निहतम् भूगउत्थानाभावेन मन्दीकृतं रजो यत्र तत्तथाभूतम्, ननु तत्र निहतत्वं रजसः, क्षणमात्रम् उत्थानाऽभावेनापि संभाति अताह नष्टरजः नष्टं सर्वथा अदृश्यीभूतं रजो यत्र तत्तथाभूतम् अस्यैव आत्यन्तिकता ख्यापनार्थमाह भ्रष्टरजः प्रशान्तरजः, उपशान्तरजः कुर्वन्तीति, अथ प्रस्तुतसूत्रमनुश्रियते 'अप्पेगइया देवा आसिअ संमज्जिवलित्तमुइसम्मट्टरत्यंतरावणवीहि करेंति' अप्येककाः केचन देवाः आसितसंमार्जितोपलिप्तम् तथा सिक्तानि जलेन अतएव शुचोनि सम्पृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपणवीथय इव आपणवीथयो रथ्याविशेषाः, यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, अय. 'कितनेक देव' ऐसा है कितनेक देवों ने उस पाण्डुकवन में सुरभि गंधोदक की वर्षा की इस तरह की वर्षा से-वहां अतिकादव कीचड नहीं हो पाया किन्तु उडती हुई धूल जम गई सुरभिगंधोदककी वर्षा भी जो हुई-वह ऐसी हुइ की जिसमें पानीकी बूंदे बहुत धीमे धीमे एवं छोटी २ दूर २ पर छंटकावके रूपमें पडती थी अतिवृष्टि और अनावृष्टि के बीच की रजरेणु को शांत करनेवाली और जिससे कीचड न होने पावे प्रत्युन उडती हुइ मिट्टी जम जावे ऐसी दिव्य वर्षा वहां कितनेक देवों ने को फिलनेक देवों ने हां ऐसा काम किया कि जिल से वह पाण्डकवन निहितरजवाला हो गया, नष्टरजवाला हो गया, भ्रष्टरगवाला हो गया तथा-कितनेक देवों ने उस पाण्डुकान को जल के छोटे देकर आसिक्त किया, कितनेक देवों ने उसे बुहारी से हाफ किया-किसीने उसे गोलयादिसे लीपकर चिकना किया इससे वहांकी गलिशं सिक्त होने से एवं कूडा करकट के दूर होजाने के कारण बिलकुल साफ सुथरी होगई स्थान स्थान से आनीत નહિ પણ ઉડી માટી જામી ગઈ. સુરભિ-ગેધદકની જે વર્ષો થઈ તે આ પ્રમાણે થઈ કે જેમાં પાણીની બુંદો બહુજ ધીમે-ધીમે તેમજ નાની-નાની દૂર-દૂર પડતી હતી. અતિવૃષ્ટિ અને અનાવૃષ્ટિના વચ્ચેન. ૨૪–ણુને શાંત કરનારી અને જેનાથી કાદવ થાય નહિ, પરંતુ ઉડતી માટી જામી જાય એવી દિવ્ય વર્ષા ત્યાં કેટલાક દેએ કરી. કેટલાક દેવોએ ત્યાં એવું કામ કર્યું કે જેથી તે પાંડુક વન નિહત ૨ જવાળું થઇ ગયું તેમજ કેટલાક દેએ તે પાંડક વનને પાણીના છાંટા નાખીને આસિદ્ધ કર્યું. કેટલાક દેએ તે વનને સાવરણીથી સાફ કર્યું', કઈ દેવે તે વનને ગેમયાદિથી લિપ્ત કરીને સુચિફકણું બનાવી દીધું. એથી ત્યાંની શેરીઓ સિક્ત થઈ જવાથી, કચરો સાફ થઈ જવાથી એકદમ સ્વચ્છ થઈ ગઈ સ્થાન-સ્થાનેથી લાવેલ ચન્દનાદિ વસ્તુઓને ત્યાં ઢગલે પકડી દીધે. એથી તે હદ Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०३ मर्थः तत्र स्थानस्थानानीत चन्दनानि वस्तूनि मार्गान्तरेषु तथा एकत्रीकृतानि सन्ति यथा हट्टश्रेणिप्रतिरूपं दधति 'जाव गन्धवट्टिभूअंति' यावत् गन्धवर्तिभूतमिति, अत्र यावत्पदात् 'पंडगवणं मंचाइमंचकलिअं करेंति 'अप्पेगइया जाणाविहगरागउसियज्झयपडागमंडिअं करेंति अप्पेगइया गोसीसचंदण ददरदिण्ण पंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया उवचिअचंदणकलसं अप्पेगइया चंदणघड मुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारिअ मल्लदामकलावं करेंति अप्पेगइया पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुंजोवयारकलिअं करेंति, अप्पेगइया कालागुरुपवर कुंदुरुक्कतुरुक्कडझंतधूवमघमघंत गंधुद्धआभिरामं सुगंधवरगंधियं' इति ग्राह्यम् अप्येककाः देवाः पण्डकवनं सञ्चातिमञ्चकलितं कुर्वन्ति अप्येककाः पण्डकवनं नानाविहरागोच्छितध्वजपताकमण्डितं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः गोशीर्षचन्दनददरदत्त पञ्चाङ्गुलितलं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः उपचित 'स्थापित' चन्दनकलशं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः चन्दनघटसुकृत 'सुरचित' तोरणप्रतिद्वारदेशभागम् कुर्वन्ति अप्येककाः आसक्तोत्सित विपुलवृत्तव्याघारित 'प्रलम्बित' माल्यदामकलापं कुर्वन्ति, अप्येककाः, पञ्चवर्णसरससुरभियुक्त पुञ्जोपचारकलितं कुर्वन्ति अप्येककाः देवाः कालगुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क दह्यमानधूपमघमन्तगन्धोद्धृताभिरामं सुगन्धवरगन्धितं कुर्वन्ति । पुनः प्रकारान्तरेण देवकृत्यमाह 'अप्पेगइया हिरण्णवासं वासंति' अप्येककाः हिरण्यवर्ष वर्षन्ति हिरण्यस्य रूप्यस्य चन्दनादि वस्तुओं की वहां राशि लगादी गई इससे वे हदश्रेणि के जैसे हो गई यहां यावत्पद से 'पंडगवणं मंचाइ मंचकलिअं करेंति, अप्पेगइया णाणाविहराग ऊसिअज्झयपडाग मंडिअं करेंति, अप्पेगश्या गोसीस चंदणददरदिष्णपंचं. गुलितलं करेंति, अप्पेगइयाउबचिअ चंदणकलसं, अप्पेगइया चंदणघडसुकय तोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया आसतोसत्त विपुल ववग्धारिअ मल्लदामकलापं करेंति, अप्पेगइया पंचवण्ण सरससुरहि मुक्क पुंजोवयारकलिअं करेंति, अप्पेगड्या कालागुरुपवर कुंदरुक्क तुरुक्क डझंत धूव मघ-मघंत गंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधिअं' इस पाठका ग्रहण हुआ है इस पाठका अर्थ स्पष्ट है 'गंधवहि भूअंति' इस तरह वह पाण्डुकवन एक सुगंधित गुटिका के श्रेणिवी १७ ७. २५ही यावत् ५४थी 'पंडगवणं मंचाइमंचकलिअंकर ति, अप्पेगइया णाणाविहरागऊसिअज्झयपडागमंडिअं करेंति, अप्पेगइया गोसीस वंदणददरदिण्ण पंचंगुलितलं करें ति, अप्पेगइया उत्रचिअचंदणकलस, अप्पेगश्या चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया आसत्तोसित्तविपुलववग्ध रिअमल्लदामकलापं करें ति, अप्पेगइया पंच वण्ण सरससुरहि मुक्कपुंजोवयारकलिअं कोरेंति, अप्पेगइया कालागुरुपवर कुंदुरुस्क तुरुक्क उज्झंत धूव मघमघंत गधुवुयाभिरामं सुगंधवरगंधिअं' मा पा सहीत थयछ. 20 पाउने गथ २५ष्ट ४ छे. 'गंधवट्टिभूअति' मा प्रमाणे ते पांडवन मे सुगधित शुदि। २ ५। आयु. 'अप्पेगइया Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ जम्बूदीपप्राप्तिसूत्र वर्ष वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः सुवण्णरयणवइर आभरणपत्त युप्फफलबीजमल्लगंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' एवम् उक्तप्रकारेण सर्वत्र योजना कार्या तथात्र अप्येककाः केचन देवाः सुवर्णरत्नवज्राभरणपत्रपुष्पफलबीजमाल्यगन्धवर्ण यावत् चूर्ण वर्ष वर्षन्ति तत्र सुवर्णम् प्रसिद्धम् रत्नानि कर्केतनादीनि वज्राणि हीरकाः, आभरणानि हारादीनि पत्राणि दमनकादीनि पुष्पाणि फलानि च प्रसिद्धानि बीजानि सिद्धार्यादीनि माल्यानि ग्रथितपुष्पाणि गन्धाः वासाः वर्णः रक्तवर्णात्मक हिगुलादिः यावत्पदात् वस्त्रं ग्राह्यम् चर्गानि सुगन्धद्रव्यशोदाः एतेषां वर्ष वृष्टिं वर्षन्ति कुर्वन्तीत्यर्थः 'अप्पेगइया हिरण्ण विहिं भाइंति। तथा अप्येककाः देवा हिरण्यविधि हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं भाजयन्ति शेषदेवेभ्यो ददतीत्यर्थः 'एवं जाव चुण्ण विहिं भाइंति' एवम उक्तप्रकारेण एक काः केचिद्देवाः यावच्चूर्णविधि भाजयन्ति यावत्पदात् सुवर्णविधि रत्नविधिम् इत्यादि पदानि ग्राह्यानि अथ संगीतविधिरूपमुत्सवमाह-'अप्पेगइया चउव्विहं वज्ज' इत्यादि पप्पेगइया चउन्विहं वजं वाएंति' अप्येककाः देवाश्चतुर्विध वाद्यं वादयन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'ततं १ विततं २ घणं ३ झुसिरं ४' ततम् १ विततम् २ घाम् ३ शुषिरम् ४ जैमा हो गया 'अप्पेगइया हिरणवासं वासंति' कितनेक देवों ने वहां पर हिरण्य-रूप्यकी वर्षाकी ‘एवं सुवण्णरयणवहर आभरणपत्त पुप्फ फल बीअ मल्ल गंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' कितनेक देवों ने वहां पर सुवर्ण की, रत्नों की, वनकी आभरणों की, पत्रों की पुष्पों की, फलों की, बीजों की-सिद्धा. र्थादिकों की, माल्यों की गंधवासों की, एवं हिंगुलक आदि वर्णों की वर्षा की यहां यावत् शब्द से 'वस्त्र' का ग्रहण हुआ है चूर्णवास से यहां सुगंधित द्रव्यों का चूर्ण लिया गया है 'अप्पेगइया हिरण्णविहिं, भाइंति' कितनेक देवों ने वहां पर अन्य देवों के लिये हिरण्यविधिरूप मंगल प्रकार दिया ‘एवं जाव चुपणविधि भाईति' इसी तरह यावत् कितनेक देवों ने चूर्णविधिरूप मंगलप्रकार दूसरे देवों को दिया यहां यावत्पद से 'सुवर्णविधि, रत्नविधिं, आभरणविधि' आदिपदों का ग्रहण हुआ है । 'अप्पेगइया चउन्विहं वज्जं वाएंति तं जहा ततं १ हरिणवासं वासंति' सा४ वा त्यो २९य-यनी वर्षा ४२१. 'एवं सुण्णरयगवइरआभरणपत्तपुप्फफलचीअमल्लगंधवण्ण जाव चुण्णवासं वासंति' टा४ हेवाणे त्यां सनी, २त्नानी, पोनी, आमरणेनी, पोनी, योनी, जानी, पानी, सिद्वार्थाદિની, માની, ગંધવાની, તેમજ હિંગુલક વગેરે વર્ણની વર્ષા કરી અહીં યાવત્ શબ્દથી “વસનું ગ્રહણ થયું છે. ચૂર્ણ વાસથી અહીં સુગંધિત દ્રવ્યના ચૂર્ણનું ગ્રહણ थयु छ 'अप्पेगइमा हिरण्णविहिं भाइंति' मा यो त्यो अन्य वोना माटे २९५ विधि 34 भगा । पाप्या 'एवं जाव चुण्णविधि भाइंति' मा प्रमाणे યાવતુ કેટલાક દેએ ચૂર્ણ વિધિ રૂ૫ મંગળ પ્રકારે બીજા દેવને આવ્યા અહીં यावत ५४थी 'सुवर्णविधि रत्नविधि', आभरणविधि' वगेरे ही गृहीत च्या छे. 'अप्पेगइया चव्विहं वज्ज वाएंति, 'तं जहा' ततं १, विततं २, घणं ३, मुसिर ४' ३८६४ वामे Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०५ तत्र ततम् वीणादिकम् १ विततम् पटहादिकम् २ घनम् तालप्रभृतिकम् ३ शुषिरं वंशादिकम् ४ 'अप्पेगइया चउन्विहं गेअं गायति' अप्येककाः देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'उक्खित्तं १ पायत्तं २ मंदाइयं ३ रोइआवसाणं' ४ उत्क्षिप्तम् १ पादात्तम् २ मन्दायम् ३ रोचितावसानम्' ४ तत्र उत्क्षिप्तम् प्रथमतः समारभ्यमाणम् १ पादात्तम् पादबद्धं वृत्तादि चतुर्भागरूपपादवद्धमिति भावः २ मन्दायम् मध्यभागे मूर्च्छनादि गुणोपेततया मन्दं मन्दं घोलनात्मकम् ३, रोचितावसानम् रोचितम् , यथोचितलक्षणोपेततया भावित सत्यापितमिति यावत् आवसानं यस्य तत् तथा भूतम् ४ 'अप्पेगइया चउब्विहं ण णच्चंति' अप्येककाः विततं २, घणं ३, झुसिरं ४' कितनेक देवों ने वहां पर चार प्रकार के-ततबितत घन और शुषिर इन चार प्रकार के वाजों को वजाया-वीणा-दिक वाद्य तत हैं, पटह आदिकवाद्य वितत हैं तालवगैरह का देना घनवाद्य है और बांसुरी आदि का बजाना शुषिरवाद्य है 'अप्पेगहया चउविहं गेअं गायंति' कितनेक देवो ने वहां पर चार प्रकार का गाना गाया 'तं जहा' गेय के चार प्रकार ये हैं-'उक्खित्तं १ पायत्त २ मंदाइयं ३ रोइयावसाणं ४' उरिक्षप्त-जो प्रथमतः प्रारम्भ किया जाता है वह 'पायत्तं'-वृत्तादि के चतुर्थभागरूप पाद से जो बद्ध होता है. वह मन्दाय-मध्यभाग में जो मूर्च्छनादिगुणों से युक्त होने के कारण मन्द घोलनारूप होता है वह, एवं रोचितावसान-जिसका अवसान यथोचित लक्षणों से युक्त होता है वह-इस प्रकार से यह चार प्रकार का गेय है 'अप्पेगइया चउश्चिहं जद णचंति' कितनेक देवों ने चार प्रकार का नाटयनर्तन किया 'तं जहा' नाटय के चार प्रकार ये है-'अंचितं दुअं आरभडं, ત્યાં ચાર પ્રકારના-તત વિતત, ઘન, અને શુષિર આ ચાર પ્રકારના વાદ્યો વગાડયાં. વીણા વગેરે વધે તત છે. પટડ વગેરે વાઘ વિતત છે. તાવ વગેરે આપવું તે ઘનવાદ્ય કહેવાય છે અને यसरी वगेरे 43 शुष२ वा५ ४३वाय . 'अप्पेगइया चउव्यिहं गेअं गायति' मा देवा त्यां यार ४२ना जीता । दायां 'तं जहा' ते यार प्रारना भी प्रमाणे छे-'उक्खित्तं, पायत्तं, मन्दाईयं, रोईआवसाणं' लक्षित १, पात २, माय 3, मने રોચિનાવસાન ૪, ઉક્ષિપ્ત-જે પ્રથમતઃ પ્રારંભ કરવામાં આવે છે તે, પાયાનં–વૃત્તાદિકના ચતુર્થ ભાગ રૂપે પાદર્થો જે બદ્ધ હોય છે તે, મન્દાય-મધ્ય ભાગમાં જે મૂચ્છનાદિ ગુણોથી યુક્ત લેવા બદલ મન્દ ઘેલના રૂપ હોય છે તે, તેમજ રચિતાવસાન–જેનું અવસાન यथायित सक्षणेथी युद्धत राय छ ते. - प्रमाणे यार प्रहा। गेयना छे. 'अपेगइया चउव्यिहं णटुं गच्चंति' ८९४ हेवाये या२ ४.२नु नाट्य-नतन :यु 'तं जहा' नाटन ते यार प्रा२। मा प्रभारी छ–'अंचितं, दुअं, आरभडं, भसोलं' मथित १, Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवाः, चतुर्विधं नाटयं नृत्यन्ति 'तं जहा' तद्यथा 'अंचियं १ दुअं २, आरभडं ३ भसोलं ४' अञ्चितम् १ द्रुतम् २ आरभटम् ३ भसोलम् ४ तत्र अञ्चितम् एकप्रकारकनृत्य विशेषस्तम् १ द्रुतम् त्वरा हस्तपाददि चेष्टाकरणम् २, आरभटम् नृत्यप्रभेदम् ३, भसोलम् एकप्रकारक नाट्यविधिम् ४ नृत्यन्ति उक्त प्रकारकं नर्तनं कुर्वन्ति इत्यर्थः 'अप्पेगइया चउfor अभिणयं अभिणेंति' अप्येकका देवाश्चतुर्विधमभिनयम् अभिनयन्ति 'तं जहा ' तद्यथा 'दिति १ पाडि सुइयं २ सामण्णोवणिवाइयं ३ लोगमज्झावसाणियं ४' दाष्टन्तिकम् १ प्रतिश्रुतिकम् २ सामान्यतो विनिपातिकम् ३ लोकमध्यावसानिकम् ४ एते नाट्यविधयोऽभिनयविधयश्च भरतादि सङ्गीतशास्त्रज्ञेभ्योऽवसेयाः 'अप्पेग या बत्तीसविहं दिव्वं नट्टविहि उपदंसेंति' अप्येककाः देवा: द्वात्रिंशद्विधम् अष्टमाङ्गलिकचादिकं दिव्यं नाटयविधिम् उपदर्शयन्ति, स च नाट्यविधिः येन क्रमेण भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः समीपे पुरतः सूर्याभ भसोल' अंचित १ द्रुत २ आरभट ३ और भसोल ४ अचित यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है, हस्तपदादिकों की चेष्टा त्वरा शीघ्रता से करना यह द्रुत है आरभट यह एक प्रकार का नृत्य विशेष है भसोल भी एक प्रकार की नाट्यविधि है 'अप्पेगइया चउत्रिहं अभिणयं अभिनेति' कितनेक देवों ने चार प्रकार का अभिनय किया- 'तं जहा' वह चार प्रकार का अभिनय इस प्रकार से है- 'दि ंतियं पाडिस्सुइअं सामण्णोवणिवाइअं लोगमज्झावसाणिअं' दान्तिक प्रातिश्रुतिक, सामान्यतो विनिपातिक एवं लोकमध्यावसानिक ये नाट्यविधियां एवं अभिनयविधियां भरतादिसंगीत शास्त्रज्ञों से जानलेनी चाहिये 'अप्पेगइया बत्तीसइविहं दिव्वं विहिं उवदंसेति' कितनेक देवों ने बत्तीस प्रकार की दिव्य नाट्यविधि को दिखलाया जिस क्रम से भगवान् वर्द्धमान स्वामी के समक्ष सूर्याभदेव ने नाट्यविधि प्रदर्शित की है जो कि राज કુંત ૨, આરભટ ૩, અને ભ`લ ૪. ચિત આ એક પ્રકારનુ નૃત્ય વિશેષ છે. હસ્ત પાદાદિકાની ચેષ્ટા દ્વરા—શીઘ્રતાથી કરવી આ ક્રુત છે. આરભટ આ એક પ્રકારનું નૃત્ય विशेष छे. लसोय पशु से प्रारनी नाट्यविधि छे. 'अप्पेगइया चउब्विह अभिगयं अभिणें ति' }टसा देवाच्ये यारे प्रहारनो अभिनय ये 'तं जहा ' ते यार प्रहारनो अभिनय मा प्रभाणे छे. ‘दिद्रुतियं पाडिस्सुइअं सामण्णोवणिवाइअं लोगमज्झावसाणिअं' हाष्टन्तिष्ठ, प्रतिશ્રુતિક, સામાન્યતા વિનિપાતિક તેમજ લેાક મધ્યાવસાનિક, આ નાટ્ય વિધિઓ અને અભિનય विधियो। विशे भरताहि संगीत शास्त्रज्ञोना श्रथेोभांथी गोसेवु' ले 'अप्पेगइया बत्तीसइविहं दिव्वं णट्टविहि ं उवदंसेति' डेटला हेवा उ२ प्रहारनी हिग्य नाट्य विधियोनु अदर्शन यु. જે ક્રમથી ભગવાન્ વમાન સ્વામી સમક્ષ સૂયૅલ ધ્રુવે નાટ્ય વિધિ પ્રદર્શિત કરી છે, કે Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०७ देवेन भावितो राजप्रश्नोपाङ्गे दर्शितस्तेन क्रमेण उपदर्य ते तैः देवैरिति बोध्यम् , तत्र प्रारिप्सितमहानाटयरूपमाङ्गल्यवस्तु निर्विघ्नसिद्धयर्थमादौ मङ्गल्यनाटयम् तथाहि-स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्द्या ३ वर्तमानक ४ भद्रासन ५ कलश ६ मत्स्य ७ दर्पण ८ रूपाष्टमाङ्ग लिकयानां भक्तिः विच्छित्तिः तया चित्र भालेखनम् तत्तदाकाराविर्भावना यत्र तत्तथाभूतम् उपदर्शयन्तीत्यर्थः, अयमर्थः यथाहि चित्रकर्मणि सर्वे जगत्तिनो भावा चित्रयित्वा दर्श्यन्ते तथा ते भावाः अभिनयविषयी कृत्य नाट्येऽपि योन्याः तत्र अभिनयः, चतुर्भिरागिकवाचनिकसाखिकाहार्यभेदैः समुदितैरसमुदितः, वा अभिनेतव्यवस्तुभावप्रकटनम् प्रस्तुते च आङ्गिकेन नाटयकर्तृणां तत्तन्मङ्गलाकारतयाऽवस्थानम् । हस्तादिना तत्तदाकारदर्शन वा प्रश्नीय उपाङ्ग में प्रकट की गई है उसी क्रम से हम उसे यहां प्रकट करते हैंइस नाटयविधि में सब से प्रथम प्रारंभ करनेके लिये इष्ट महानाट्यरूप मंगल वस्तु की निर्विघ्नतारूप से सिद्धि के निमित्त माङ्गल्यनाट्य होता है यह मांगल्यनाटय स्वस्तिक श्री वत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य, और दर्पण, इन अष्ट मांगलिक वस्तुओं की रचनारूप आविर्भावना से युक्त होता है अर्थात् जैसा आकार इन पदार्थों का होता है इसी प्रकार का आकार इस नाटयविधि में प्रदर्शित किया जाता है जिस प्रकार चित्र में अनेक भावों को चित्रित कर प्रकट किया जाता है इसी प्रकार से इन पूर्वोक्त पदार्थों के आकारों को नाटयविधि में अपने शरीर को उस रूपमें बनाने रूप अभिनय द्वारा प्रकट किया जाता है । आङ्गिक, वाचनिक, सात्विक और आहाय ये चार भेद चाहे समुदित हो चाहे असमुदित हों उनके द्वारा अभिनेतव्य वस्तुका जो भाव प्रकटित किया जाता है जैसे आङ्गिक भेद द्वारा नाटयकर्ताओं का उस उस જેના વિશે રાજકશ્રીય ઉપાંગમાં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવી છે, તેજ ક્રમ પ્રમાણે અમે અહીં પ્રકટ કરીશું. આ નાટ્ય વિધિમાં સર્વ પ્રથમ પ્રારંભ કરવા માટે ઈષ્ટ મહાનાય રૂપ મંગળ વસ્તુની નિવિનતા રૂપથી સિદ્ધિ નિમિત્તે મંગલ્ય ના હોય છે, આ મંગલ્ય નાય સ્વસ્તિક, શ્રી વત્સ, નન્દાવર્ત, વદ્ધાનક, ભદ્રાસન, કળશ, મત્સ્ય અને દર્પણ એ અષ્ટ માંગલિક વસ્તુઓની રચના રૂપ આવિર્ભાવનાથી યુક્ત હોય છે. એટલે કે જે આકાર એ પદાર્થોને હોય છે, તે જ આકાર આ નાટ્ય વિધિમાં પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. જે પ્રમાણે ચિત્રમાં અનેક ભાવેને ચિત્રિત કરીને પ્રગટ કરવામાં આવે છે તે પ્રમાણે જ એ પૂર્વોક્ત પદાર્થોના આકારને નાટ્ય વિધિમાં પોતાના શરીરને તે રૂપમાં બતાવવા રૂપ અભિનય પ્રગટ કરવામાં આવે છે. આંગિક, વાચનિક, સાત્વિક અને આહાય એ ચારે ભેદે સમુદિત હોય કે અસુમુદિત હેય એમના વડે અભિનેતવ્ય વસ્તુને જે ભાવ પ્રગટ કરવામાં આવે છે જેમકે આંગિક ભેદ વડે નાટયકર્તાઓને તત્ તત્ મંગલાકાર રૂપથી અવસ્થિત થવું, હસ્તાકિ દ્વારા તત્ તત્ આકાર બતાવવા, વાચિક ભેદ વડે. Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धी प्रक्षतिसूत्रे वाचनिकेन प्रबन्धादौ तत्तन् मङ्गलोचारणम् सभासदां जनानां मनसि आसक्तिपूर्वकं तत्त. स्मङ्गलस्वरूपाविर्भावनं मङ्गलनाटयमिति प्रथमम् १ । ____ अथ द्वितीयं नाटयम् आवर्तप्रत्यावर्तश्रेणि प्रवेणि स्वस्तिक पुष्यम णवर्द्धमानकमत्स्याण्डक मकराण्डक जारमार पुष्पावलि पद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलता पद्मलता भक्तिचित्रम् तत्र आवर्तः भ्रमद् भ्रमरिकादानैर्नर्तनम् प्रत्यावर्तः तद्विपरीतक्रमेण भ्रमरिकादानैर्तनम् श्रेणिप्रश्रेणिस्त्रस्तिकाः, श्रेण्या पंक्त्या स्वस्तिकाःश्रेणिस्वस्तिकाः ते चैव पक्किगता अधि स्युरित्यत आहप्रश्रेणिस्वस्तिका इति अनुवृताः श्रेणिस्वस्तिकाः, प्रश्रेणिस्वस्तिकाः, अत्र प्रशब्दोऽनुवृत्तार्थे यथा प्रशिष्यः प्रपुत्र इत्यादौ अयमर्थः, मुख्यस्यैकस्य स्वस्तिकस्य प्रतिशाखं गता अन्ये स्वस्तिका इति, एतेन प्रथम नाटयगतस्वस्तिक नाट्यात् भेदो दर्शितः, तदभिनयेन नर्तनम् तथा पुष्यमाणाः पुष्टीभवनम् तदभिनयेन नृत्यम् यथाहि पुष्टो गच्छन् जल्पन् श्वसिति बहु बहु प्रस्विद्यति दारुहस्तप्रायौ स्वहस्तौ अतिमेदस्विनौ चालयन् २ सभासदां जनानामुपहासपात्रं भवति, तथैव अभिनयो यत्र नाटये तत्पुष्यमाणनाट्यम्, अनेन अर्थेन प्रथम नाटयगतवर्द्धमाननाट्याइँदो दर्शितः, तथा मत्स्याण्डकम् मत्स्यानामण्डकं मत्स्याण्डकम्' मत्स्याहि अण्डाज्जायन्ते तदाकारकरणेन यन्नर्तनं तन्मत्स्याण्ड कनाटयम एवं मकराण्डकमपि नहि यथाकामविकुविणां देवानां किश्चिदसाध्यं नाटये नचानभिनेतन्यं येन तदमिनयो न सम्भवे. दिति मत्स्यकाण्डपाठेतु मत्स्यकाण्डं मत्स्यवृन्दम् तद्धि सह जातीयैः सह मिलितमेव जलाशये प्रचलति एकत्र सञ्चरणशील नात् तथा यत्र नटोऽन्यनटैः सह सङ्गतो रङ्गभूमौ प्रविशति ततो वा निर्गच्छति तन्मत्स्यकाण्डनाटम्-एवं मकरकाण्डपाठे मकरवृन्दं वाच्यम् तद्धि यथाविकृतरूपवत्वेन अतीव द्रष्ट्रणा जनानां भयानकं भवति तथैव तनाटयम् तदाकारदर्शनेन भयानकं स्यात् तद्भयानकरसप्रधान मकरकाण्डं नाम नाटकम् तथा जार नाटकम् जारः उपपतिः स च यथा स्वेन सार्द्र रममाणाभिः पराभि अपि स्त्रीभिः अतिरहस्येव रक्ष्यते तद्वद् यत्र थूलवस्तु निरोधनात्तत्तदिन्द्रजालाविर्भावनेन सभासदां मनसि अन्यदेव अवतार्यते तजारनामक नाट्यम् तथा मारनाटकम्- मारः, कामस्तदुद्दीपकं नाटकं मारनाटकम् श्रधाररसप्रधानमित्यर्थः, तथा पुष्पावलि नाटयं यत्र कुसुमापूर्णवंशसलाकादि दर्शनेन अभिनयस्तत्पु. मङ्गलाकाररूप से अवस्थित होना हस्तादि द्वारा तत्तत् आकारों का दिखाना, वाचिक भेद द्वारा प्रबन्धादि में उन २ माङ्गलिक शब्दों का उच्चारण करना एवं सभासदों के मन में आसक्तिपूर्वक उस उस मंगल स्वरूप का आविर्भाव करना यह मंगल नाटय है आवर्त, प्रत्यावर्त श्रेणि स्वतिक प्रश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्यमाण, वर्द्धमानक, मत्स्याण्डक, मकराण्डक जार मार पुष्पावलि, पद्मपत्र, પ્રબંધાદિમાં તત્ તત્ માંગલિક શબ્દનું ઉચ્ચારણ કરવું તેમજ સભાસદેના મનમાં આસતિ પૂર્વક તે મંગલ સ્વરૂપને પ્રકત્રિત કરવું, આ મંગળ નાય છે. આવર્ત, પ્રત્યાવત, ऋषि, स्त , प्राण, २५les, Yध्यभा], पभान, मत्स्यis४, म४२i७४, १२ भार Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७०९ पावलि नाटकम् तथा पद्मपत्रनाटयम् यत्र पनपत्रेषु नृत्यन्नटस्तथाविधकरणप्रयत्नविशेषेण वायुरिव लघूभवनम् न पदमपत्रं क्लमयति नापि त्रोटयति न वक्रीकरोति तत्पद्मपत्रोपलक्षितं नाटयम् पद्मपत्रनाटकम् तथा सागरतरगाभिनयं नाम नाटकम् चत्र वर्णनीयवस्तुनो वचन. चातुर्यनाटथैः सागरतरङ्गाः अभिनीयन्ते, अथवा यत्र तक तक झें झें किटता किटता कु कु' इत्यादयस्तालोघट्टनार्थकवर्णाः, बहवोऽस्वलद् गत्या प्रोगन्ने तत्सागरतरङ्गनाम नाटकम्, एवं वसन्तादिऋतुवर्णने वासन्तीलता पद्मलता वर्णनाभिनयं नाटकम् नन्वेसति अभिनेतव्यवस्तूनामानन्त्येन नाटयानामपि आनन्त्यप्रसङ्गस्तेन द्वात्रिंशत्संख्या र खविरोध उच्यते एषां च सूत्रोक्ता संख्या उपलक्षणाच अन्येऽपि तत्तदभिनयकरणपूर्वकं नाटय भेदाः ज्ञातव्याः एवं सर्व नाटयेष्वपि ज्ञेयम् इति द्वितीयम् । ___अथ तृतीयं नाटयप्-ईहपृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालकिनरारूपरभचमरकुञ्जश्वन लता पालनाभक्तिचित्र तत्र-ईहामृगाः वृताः ऋषभाः तुरगाः नराः मकराश्च प्रसिद्धा एवं विहगाः पक्षिणः व्यालाः सर्पाः किन्नराः प्रसिद्धाः रुरवः मृगविशेषः सरमाः अष्टापदाः जन्तुविशेपाः चमराः मृगविशेषा कुञ्जरः हतिनः वनलगा वो वृक्षविशेषस्तस्य लता पदमलता तासां या भक्तिः विच्छित्तिः, तया चित्रा आलेखनम् तत्तदाकाराविर्भावना यत्र तत्तथा भूतं नाटयमिति तृतीयम् ३ । अथ चतुर्थम्-एकतश्चक्र द्विधातश्चक्रैकतश्चक्रवाल द्विधातश्च क्रशल चक्रार्द्धचक्रवालाभिनयात्मकम् । तत्र एकतश्चक्रं नाम नटानाम् एकस्यां दिशि धनुराकारश्रेण्या नत्तनम् अनेन श्रेणि नाटयाइँदो दर्शितः, एवं द्विधातश्चक्रम् द्वयोः परस्परा. भिमुखदिशोः धनुराकारश्रेण्या नर्तम् तथा एकतश्चक्रवालम् एकस्यां दिशि नटानां मण्डलाकारेण नर्तमम् एवम् द्विधातश्चक्रमालम् द्वयोः परस्पग-मुदिशोनेटानां मण्डलाकारेण सागरतरङ्ग, वासन्तीलता, और पालता इनके जैसी रचना के अनुसार अभिनय करने से दितीयनाटय १५ भेदवाला है तृतीयनाटक ईदाग, ऋषभ तुरग, नर, मकर, विहग, व्याल, किन्नर, रूरू, सरभ, चमर, कुञ्जर, बनलता, पद्मलता, इनके जैसी रचना के अनुसार अभिनय करने से अनेक प्रकार का है। चतुर्थनाटय एकतोचक विधातोचक्र, एकतश्चकवाल, विधातश्चक्रवाल, और अर्धतश्चक्रवाल के भेद से ५ प्रकार का है एक्कतोचक्र नाटक में नर्तक जल एक दिशामें धनुष्य के आकार की श्रेणिमें रहकर नर्तन करते हैं दिधातो चकनाटक में आमने પુપાવલિ. પાપત્ર, સાગર તરંગ, વાસંતીલતા અને પાલતા. એમના જેવી રચના મુજબ અભિનય કરવાથી દ્વિતીય નાર્ય ૧૫ ભેદવાળું છે. તૃતીય નાટક ઈહામૃગ, કષભ, તુરગ न२, भ४२, वि!, ०५, २, २२, सक्षम, यम२, ४२, पनस, ५सता, એમની જેવી રચના મુજબ અભિનય કરવાથી અનેક પ્રકારનું છે. ચતુર્થ નટુર્ય એક-ચક, દ્વિધાચક, એક્તશ્ચકવાલ દ્વિધાશ્ચક્રવાલ અને અર્થતશકવાલના ભેદથી ૫ પ્રકારનું છે. એને ચક નાટકમાં નર્તક એક દિશામાં ધનુષના આકારની શ્રેણીમાં રહીને નર્તન Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे नर्त्तनम् तथा चक्रार्द्धचक्रवालम् चक्रस्य रथाङ्गस्याद्वै द्रूपं यच्चक्रवालं मण्डलं तदाकारेण नर्त नम् भर्द्धमण्डलाकारेणेत्यर्थः तदभिनयं नाम नाटकम् नटानां नर्त्तने संस्थाविशेष प्रधानम् नाम नाटकम् ४ चतुर्थम् । अथ पञ्चमम् - चंन्द्रावलिप्रविभक्तिर्यावलि प्रविभक्ति वलयताराहं सैकमुक्ताकनकरत्नावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकम् आवलिनविभक्तिनामकम् तत्र चन्द्राणामावलिः श्रेणिस्तस्याः प्रविभक्तिः विच्छित्तिः रचनाविशेषः, तदभिनयात्मकम् तथा सूर्यावलिप्रविभक्त्यभिनयात्मकम् तथा वयावलि प्रविभक्त्याभिनयात्मकम् एवं तारादिरत्नान्तेषु पदेषु आवल्यादि शब्दो योजनीयः अथमर्थः पक्तिस्थितानां रजतस्थालहस्तानां भ्रमरीपरायणानां नटानां नाट्यम् एवं वलय हस्तानां नटानां वलयनाट्यम् अनयैव रीत्या तत्स द्रशवस्तुदर्शनेन तत्तदभिनयकरणं तत्तन्नामकं नाटयं विज्ञेयम् एतच्च आवलिकाबद्धमित्यावलिका प्रविभक्ति नामकं नाट्यम् ||५॥ अथ षष्ठम् - चन्द्रसूर्योद्गमनप्रविभक्ति कृतम् उद्गमनप्रविभक्तिनामक नाट्यम् तत्र सूर्यर्या - रुद्रमनम् उदयः तत्प्रविभक्तिः रचनाविशेषः तदभिनयगर्भम् यथा उदये सूर्यचन्द्रयोरुणं मण्डलं प्राच्यां चारुणः, प्रकाशस्तथा यत्राभिनीयते तदुद्गमनप्रविभक्ति-नाटयम् || ६ || अथ सप्तमम् - चन्द्रसूर्यागमनप्रविभक्ति नाटकम् तत्र चन्द्रस्य स्वविमानस्य आगमनम् आका - सामने धनुष की आकार की श्रेणिमें रहकर नर्तन करते हैं एकतश्चक्रवाल में एक दिशा नटजन मण्डलाकार में होकर नर्तन करते हैं द्विघातश्चक्रवाल में परस्पर में आमने सामने दिशामें मंडलाकार में होकर नटजन नर्तन करते हैं । चक्रार्धचक्रवाल नाटय में चक्र के पहिये के आकार में विभक्त होकर नर्तकजन नर्तन करते है । पांचवां नाटक - चन्द्रावलि प्रविभक्ति, सूर्यावलिप्रविभक्ति, वलयावलिप्रविभक्ति, तारावलिप्रविभक्ति, हंसावलिप्रविभक्ति, एकावलिप्रविभक्ति, मुक्तावलीप्रविभक्ति, कनकावलिप्रविभक्ति, रत्नावलिप्रविभक्ति के भेद से अनेक प्रकार का है छट्ठा नाटक चन्द्र सूर्योद्गमनप्रविभक्ति नामका है सातवां नाटक चन्द्रसूर्यागमनप्रविभक्ति नामका है आठवां नाटक चन्द्रसूर्यावरणप्रविभक्ति नामका है ९ वां કરે છે, દ્વિધાતા ચકે નાટકમાં સામસામા ધનુષાકાર શ્રેણીમાં રહીને નન કરે છે. એકતચક્રવાલમાં એક દિશા તરફ નટત મંડળાકારમાં થઈને નન કરે છે. દ્વિષાત શ્ચકવાલમાં પરસ્પરમાં સામ-સામેની દશામાં મડલાકારમાં થઇને નાના નન કરે છે. ચક્રા ચક્રવાલ નાદ્ધમાં ચક્રના પૈડા મુજબ આકારમાં વિભક્ત થઈને નર્તકને નાચે છે. પંચમ નાટક ચન્દ્રાવલિ પ્રવિભક્તિ. સૂર્યાવલિ પ્રવિભક્તિ. વાયા લિ પ્રભક્તિ, તારા. વલિ પ્રવિભક્તિ, હું સાવલિપ્રવિભક્તિ, એકાવલિ પ્રñિભક્તિ, મુક્તાવલિ પ્રવિભક્તિ કનકા વલિ પ્રવિભક્તિ રત્નાવલિ પ્રત્રિભક્તિના ભેથી અનેક પ્રકારતુ છે. ષષ્ઠ નાટક ચન્દ્ર સૂર્યદ્મન-પ્રવિશક્તિ નામક છે. સપ્તમ નાટક ચન્દ્ર-સૂર્યાગમન પ્રવિભક્તિ નામક છે. અષ્ટમ નાટક ચન્દ્ર-સૂર્યાવરણ પ્રવિભક્તિ નામ છે. નવમ ચન્દ્ર સૂર્યાસ્તમયન પ્રવિભક્તિ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७११ शादवतरणम् तस्य प्रविभक्तिः रचना यत्र नाटयेऽभिनयेन दर्शनम् तत् चन्द्रागमनाविभक्ति नाम नाटकम् एवं सूर्यागमनप्रविभक्ति नामकं नाटकं विज्ञेयम् ॥७॥ ___ अथ अष्टमम्--चन्द्रसूर्यावरणप्रविभक्ति युक्तम् आवरणप्रविभक्ति नाम नाटकम् यथाहि चन्द्रो घनवलादिना आद्रियते तथाऽभिनयदर्शनम् चन्द्रावरणप्रविभक्ति नाटकम् एवं सूर्यावरणप्रविभक्त्यपि नाटकं विज्ञेयम् अथ नवमम्-चन्द्रसूर्यास्तमयनप्रविभक्तियुक्तम् अस्तमयनप्रवि. भक्तिनाम नाटकम् यत्र सर्वतः प्रभातकालिक सन्ध्यारागप्रसरणतमः प्रसरणकुमुदसंकोचादिना चन्द्रास्तमयनमभिनीयते तच्चन्द्रास्तमयन एवं सूर्यास्तमयनप्रविभक्त्यपि अत्र, अयं विशष: सायंकालिकसन्ध्यारागप्रसरणतमः प्रसरणकमलसंकोचादिना सूर्यास्तमयनमभिनीयते तत्सूस्तिमयन प्रविभक्ति नाम नाटकम् ॥९॥ ___ अथ दशमम्-चन्द्रसूर्यनागयक्षभूतराक्षसगन्धर्व महोरगमण्डलप्रविभक्तियुक्तम् मण्डलप्रविभक्तिनाम नाटकम् तथा बहूनां चन्द्राणां मण्डलाकारेण चन्द्रवालरूपेण निदर्शनं चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति एवं बहूनां सूर्यनागयक्ष भूतराक्षसगन्धर्वमहोरगाणां मण्डलाकारेण अभिनयनं वाच्यम् अनेन चन्द्रमण्डल सूर्यमण्डलयोश्चन्द्रावलि सूर्यावलि नाटयतो भेदो दर्शितस्तयोरावलिका परिष्टत्वात् ॥१०॥ ___अथैका दशम्-ऋषभसिंहललितहयगजविलसितमत्तहयगजविलसिताभिनयरूपं द्रुतविलम्बितं- नाम नाटयम् तत्र ऋषभसिंहौ प्रसिद्धौ तयोर्ललितं सलिलगतिः, तथा हयगजयोविलसितं मन्यरगतिः, एतेन विलम्बितगतिरुक्ता-उत्तरत्र मत्तपदविशेषणेन द्रुतगतेवक्ष्य. माणत्वात् तथा मत्तहयगजयोविलसितं दुतगतिः, तदभिनयरूपं गति प्रधान दुतविलम्बितं नाम् नाटकम् ॥११॥ अथ द्वादशम्-शकटोद्धि सागर प्रविभक्ति नामक नाटकं तत्र शकटोद्धि प्रसिद्धा तस्याः प्रविभक्तिः तदाकरतया हस्तयोविधानम् एतत्तु नाटये प्रलम्बित भुजयोर्योजने प्रणामाघभिनये नाटक चन्द्रसूर्यास्तमयनप्रविभक्ति नामका है १० वां नाटक चन्द्र सूर्यनाग,यक्ष भूत राक्षस गन्धर्व महोरग मण्डल प्रविभक्ति नामका है ११ वां नाटक ऋषभललित सिंहललित हय गज विलसित, मत्त हय गज विलसित इनके अभिनय करनेरूप है इस नाटय का नाम द्रतविलम्बित नाटय है १२ वां नाटय शकटोद्धि सागर नागर प्रविभक्तिरूप होता है शकटोद्धि गाडी का जो युग होता है उसका नाम नाम है- शम नाट४ यन्द्र-सूयः, ना, यक्ष भूत, राक्षस. गन्ध', भडा२१, म પ્રવિભક્તિ નામક છે. ૧૧મું નાટક કષભ, લલિત, સિંહલવિત, હય–ગજ વિલસિત, મન હય ગજ વિલસિત, એમના અભિનય કરવા રૂપ છે. આ નાનું નામ દ્રત વિલંબિત નાય છે. ૧૨મું નાટ્ય શકટેદ્ધિ સાગર નાગર પ્રવિભક્તિ રૂપ હોય છે, શકટદ્ધિ–ગાડીને જે યુગ હોય છે તેનું નામ છે. ગાડીના આકારમાં અને હાથને પ્રસૃત કરવા તે શકટાતિ , Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्र भवतीति, तथा सागरस्य समुद्रस्य सर्वतः कल्लोलप्रसरणवडवानलज्यालादर्शनतिमिङ्गिलादि मत्स्यदिवर्तनगम्भीर गर्जिताधभिनयनं सागरप्रविभक्ति तथा नागराणां नगरवासिलोकानां सविवेकनेपथ्यकरणं क्रीडासञ्चरणं वचनचातुरीदर्शनमित्याधभिनयो नागरनागरप्रविभक्तितनामकं नाटकम् ॥ १२ ॥ ___ अथ त्रयोदशम् नन्दाचम्पा प्रविभक्ति नामकं नाटयम् तत्र नन्दा: नन्दाभिधानाः शश्वत्यः पुष्करिण्यातासु देवानां जलक्रीडा जलजकुसुमापचयनम् आप्लवनमित्याचाभिनयनं नन्दा. प्रविभक्ति तथा चम्पा नाम महाराजधानी उपलक्षणमेतत् तेन कोशला विशालादि राजधानी परिग्रहः, तासां च परिखा सोधप्रासाद चतुष्पदाधभिनयनं चम्पाप्रविभक्तिः॥१३॥ है। इस गाडी के आकार दोनों हाथों 'का फैलाना जिसमें होता है वह शकटोद्धि प्रविभक्ति है सागर प्रविभक्ति में समुद्र की कल्लोलों का फैलाव जिस प्रकार का होता है वडवानल ज्वाला का जैसा दिखाव होता है, तिमिङ्गिलादि मत्स्यों का विवर्तन जैसा होता है समुद्र का गंभीर गर्जन जसा होता है यह सय अभिनय द्वारा प्रकट किया जाता है इसीका नाम सागर प्रविभक्ति है तथा नगर निवासी लोकों का जैला सविवेक नेपथ्य किया जाता है क्रीडापूर्वक जैसा उनके द्वारा संचरण किया जाता है बोलने की चतुराई जैसी उनमें होती है इसी तरह का सब कुछ दिखाव अभिनय द्वारा जिश नाटय में दिखाया जाता है वह नागरप्रविभक्ति नानका नाटय है १३ वां नाटय नन्दा चंथा प्रविभक्ति नामका है इस नाट्य में शाश्वत नन्दा नामकी जो पुष्करिणियां है उनमें देवों द्वारा की गई जलक्रीडा कमलों का किया गया चयन, तथा बीच में किया गया पानी में संस्तरण यह सब अभिनयों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है इसका नाम नन्दा प्रविभक्ति है चम्पा कोशला, विशाला आदि राजधानियों की परिखाका પ્રવિભક્તિ છે. સાગર પ્રવિભક્તિમાં સમુદ્રના તરંગેનું પ્રસરણ જે પ્રમાણે હોય છે. વડવાનલ જવાળાનું દશ્ય જેવું હોય છે, તિમિગિલાદિમસ્યાનું વિવર્તન જેવું હોય છે, સમદ્રનું ગંભીર ગર્જન જેવું હોય છે, એ બધું અભિનય વડે પ્રગટ કરવામાં આવે છે. એનું નામ જ સાગર પ્રવિભક્તિ છે. તથા નગર નિવાસી લેકેનું જે પ્રમાણે સવિવેક નેપથ્ય કરવામાં આવે છે, કીડા પૂર્વક જે પ્રમાણે તેમના વડે સંચર કરવામાં આવે છે. બલવાની કુશળતા જેવી તેમનામાં હોય છે, આ પ્રમાણે જ બધો દેખાવ અભિનય વડે જે નામાં કરવામાં આવે છે, તે નાગર પ્રવિભક્તિ નામક નાટ્ય છે. ૧૩મું નાટય નંદા ચંપા પ્રવિભક્તિ નામ નું છે. એ ન સ્ત્રમાં શાશ્વત નંદા નામક જે પુષ્કરિણી છે. તેમાં ૮ વડે કરવામાં આવેલી જળ કીડા કમળનું ચયન, તેમ જ જળમાં કરવામાં આવેલું સંતરણ, એ બધું અભિનયે વડે પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. એનું નામ નન્દા પ્રવિભક્તિ છે. ચંપા, કોશલા, વિશાલા વગેરે રાજધાનીની પરિખા, સૌધ તેમજ પ્રાસાદ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः रु. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१३ अथ चतुर्दशम् मत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारप्रविभक्ति नाम नाटयम्-एतच्च पूर्व व्या. ख्यातमेव, अत्रैषां चतुर्णामभिनयनं प्रथगुक्तम् तत्र तु व्यामिश्रितमितिभेदः॥ १४ ॥ अथ पञ्चदशम् क ख ग घ ङ इति कर्गप्रविभक्तिकं नाटकम् तच्च ककाराकारेण अभिनयदर्शनं ककारप्रविभक्तिः, अयमर्थः तथा नाम ते नटाः नृत्यन्ति यथा ककाराकारो. ऽभिव्यज्यते, एवं खकारगकारघकारङकारप्रविभक्त्यो वक्तव्याः एतच्च कवर्ग प्रवि. भक्तिकं नाटयम् एवं चकारप्रविभक्ति जातीयमित्यादि बोध्यम् ककारशब्दोघटनेन चचपुट चाचपुटादौ कं को किं कीं इत्यादि वाचिकाऽभिनयस्य प्रवृत्या नाटयम् एवं कादि ङान्तानां शब्दाना मादाढत्वेन ककारखकारगकारधकारङकारप्रविभक्तिकं नाटयम्, एवं चवर्ग प्रविभक्त्यादिष्वपि एवमेव वक्तव्यम् ॥१४॥ अथ षोडषम्-च छ ज झ ञ प्रविभक्तिकम् । १६॥ अथ सप्तदशम्-ट ठ ड ढ ण प्रविभक्तिकम् ॥१७॥ अथाष्टादशम्-तथतधन प्रविभक्तिकम् ॥१८॥ अथैकोनविंशतितमम्-प फ ब भ म प्रविभक्तिकम् ॥१९॥ अथ विंशतितमम्-अशोकाम्रजम्बूकोशम्बपल्लवप्रविभक्तिकम् । तत्र अशोकादयो वृक्षविशेषासौधों का एवं प्रासाद आदि के चतुष्पद आदिकों का जिसमें प्रदर्शन किया जाता है वह चम्पा प्रविभक्ति है १४ वां नाट्य मत्स्याण्डक, मकराण्डक, जारमार प्रविभक्ति नामका है १५ वां नाटय क ख ग घ ङ इस कवर्ग प्रविभक्ति नामका है इसमें ककार के आकार का जो अभिनय प्रदर्शन किया जाता है वह ककार प्रविभक्तिवाला नाटय है तात्पर्य यह है कि नट इस नाटय में इस ढंग से नाचते हैं कि जिसमें ककार के आकार को अभिव्यक्त करते हैं इसी प्रकार के खकार गकार घकार और डकार प्रविभक्तियों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये १६ व नाट्य च छ ज झ ञ इस चवर्ग प्रविभक्ति नामका है १७ वां नाटय ट ठ ड ढ ण इस टवर्ग प्रविभक्ति नामका १८ वां त थ द ध न, इस तवर्गविभक्ति नामका है १९ वां प फ ब भ और म इस पवर्ग विभक्ति नामका है २० वां अशोक आम्र जम्बु पल्लव प्रविभक्ति नामका नाटय है इसमें વગેરેના ચતુષ્પદ વગેરેનું જેમાં પ્રદર્શન કરવામાં આવે છે, તે ચગ્ય પ્રવિભક્તિ છે. १४ नाट्य मत्स्याड, भ४२is४, १२ भा२ प्रविमति नाम४ छ. १५भु नाट्य 'क, ख, ग, घ, ङ' 24 क 11 अविमति नाभर छे. मां ॥२मारना २ मलिनय प्रहशित કરવામાં આવે છે. તે કકાર પ્રવિભક્તિવાળું નાટ્ય છે તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે નટ આ रीत ये छ १ मा तेसो ४॥२३॥ मारने भनियत ४२ छे. या प्रमाणे 'खकार' 'गहार, घफार' भने डकार प्रविमति विशे ५५y agी आयु मे. १९भु नाट्य च, छ, ज, झ ञ ॥ च प्रवित नाम छे. १७ नाटय ट, ठ, ड, ढ, ण भाट प्रविमति नाम छ. १८ भुप, फ, ब भ, म ा प प प्रविमति नाम: છે. ૨૦ નાટય અશેક, આમ્ર, જમ્મુ, પલવ પ્રવિભક્તિ નામક નાટ્ય છે. એમાં જે પ્રમાણે ज० ९. Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्ति स्तेषां पल्लवाः नवकिसलयानि ततस्ते यथा मन्दमारुतैः प्रेरिताः सन्तो नृत्यन्ति तदभिनयात्मकं पल्लवप्रविभक्तिकं नाम नाटयम् ॥२०॥ अथैकविंशतितमम्-पद्मनागाशोकचम्पकचतवनवाप्तन्ती कुन्दातिमुक्तिकशामलताप्रविभक्तिकं लता प्रविभक्तिकं नाम नाटयम् इह येषां वनस्पनिकायिकानां स्कन्धदेशविवक्षितोर्ध्वगतैकशाखाव्यतिरेकेणान्यत् शाखान्तरं परिस्थूलं न निर्गच्छति ते लता विज्ञेयाः, ते च पद्मादय इति पदमादि श्यामान्ताः या लतास्तत्प्रविभक्तिकं लताप्रविभक्तिकम्, एता यथा मारुतेरिता नृत्यन्ति तदमिनयात्मकं लता प्रविभक्तिनाम नाटयम् ॥२१॥ अथ द्वाविंशतितमम् द्रुत नामनाटकम्-तत्र द्रुतमिति शीघ्रं गीतवाद्यशब्दयो. यमकसमकापातेन पादतलशब्दस्यापि समकालमेव निपातो यत्र तत् द्रुतं नाटयम् ॥२२॥ अथ त्रयो विंशतितमं विलम्बितं नाम नाटयम् यत्र विलम्बिते गीतशब्दे स्वरघोलना प्रकारेण यतिभेदेन विश्रान्ते तथैव वाद्यशब्देऽपि यतितालरूपेण वाद्यमाने तदनुयायिना पादसञ्चारेण नत्तनं तद्विलम्बितं नाम नाटयम् ॥२३॥ ___ अथ चतुर्विंशतितम् द्रुतविलम्बितं नाम नाटयम् यथोक्तप्रकारद्वयेन नर्तनम् ॥२४॥ अथ पञ्चविंशतितमम्-अश्चितं नाम नाट्यम् अश्चितः पुष्पालङ्कारैः पूजितस्तदीयं तदभि. नयपूर्वकं नाटयमपि अञ्चितमुच्यते । अनेन कोशिकी वृत्तिप्रधानाहाकभिनयपूर्वकं नाटयम् सूचितम् ॥२५॥ अथ षट् विंशतितम-रिभितं नाम नाटयम् तच्च मृदुपदसंचाररूपमिति वृद्धाः ॥ २६॥ अथ सप्तविंशतितमम्-अवतरिभितं नाम नाटयम् यत्र अनन्तरोक्तमभिनय द्वयमवतरति तत् अश्चितरिभितम् ॥२७॥ अथ अष्टाविंशतिममारभटं नाम नाटयम् आरभटानाम् सोत्साहसुभटानामिदमारभटम्, अयमर्थः महाभटानां स्कन्धास्फालन हृयोल्बणनादिका या उवृत्तवृत्तिस्तदमिनयमिनि, अनेन आरभटीवृत्तिप्रधानमानिकाभिनयपूर्वकं नाटय. मुक्तम् ॥२८॥ अथैकोनविंशतितमम् भसोलं नाम नाय्यम् भत् भर्त्सन दीप्त्योरित्यस्माद्धातोजिस प्रकार से इन वृक्ष विशेषों के पत्र-नवकिसलय- मन्दमारुत से कंपित होकर हिलते हैं इसी तरह से इस नाट्य में नाट्यकरने वाले अभिनय करते हैं। २१ वां नाटय लताप्रविभक्ति नामका है इसमें पद्मनाग, अशोक, चम्पक आदि लताओं के जैसे अभिनय किया जाता है २२ वा नाट्य दूत नामका है २३ वां नाट्य विलम्बित नामका है २४ वां द्रुतविलम्बित नामका है २५ वां नाटय अंचित नामका है २६ वां नाटय रिभित नामका है २७ वां नाटय अंचितरिभित नामका है । २८ वां नाटय आरभट नामका है २९ वां नाट्य भसोल नामका है ३० वां એ વૃક્ષ વિશેના પગે, નવ કિસલ–મન્દ પવનથી કંપિત થઈને હાલે છે, તે પ્રમાણે જ આ નામાં નાટય કરનાર અભિન કરે છે. ૨૧મું નાટ્ય લેતા પ્રવિભક્તિ નામક છે. એમાં પદ્મનાગ, અશેક, ચંપક, વગેરે લતાઓ જે અભિનય કરવામાં આવે છે. ૨૨મું નાટય દુત વિલંબિત નામક છે. ૨૫મું નાટય અંચિત નામક છે. ૨૪મું નાટય હિલિત નામક છે. મું નાટ્ય અંચિત શિબિત નામ છે, ૨૮ મું નરય આરબઢનામ છે. Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः लू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थंकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१५ मस्ति, दीप्यते इति भसः शृङ्गारः शृङ्गाररसः तम् अवति इति भसोस्तम् रतिभावाभिनयेन लाति गृह्णाति इति भसोलो नटः, ततो धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात् भसोलं नाम नाट्यम्, एतेन शृङ्गाररससात्विकभावः सूचितः, इदं सर्वं व्याख्यानम् उपलक्षणपरं विज्ञेयम् तेन सर्वे सात्विकाभावा, अभिनय विषयोकार्या, एतेन सात्विकीवृत्ति प्रधानं सात्विकाभिनयगर्भितं भसोलं नाम नाथ्यम् ||२९|| अथ त्रिंशत्तममार भटमसोल नाम नाट्यम् इदं च अनन्तरोक्ताभिनयद्वयप्रधानं विज्ञेयम् ||३०|| अवैकत्रिंशत्तमम् उत्पातनिपातप्रवृत्तं संकुचितप्रसारितम् रेचकरेचितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम नाटयम् उत्पातनिवातत्रवत्तं संकुचितप्रसारितम् रेचकरेचितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम नाट्यम् तत्र उत्पातो हस्तपादादीनामभिनयगत्या ऊर्ध्वक्षेषणं तेषामेवाधः क्षेपणम् निपाततस्ताभ्यां यत्प्रवृत्तम् तन् उत्पातनिपातप्रवृत्तम् एवम् संकुचित - प्रसारितम् हस्तपादयोः संकोचनेन संकुचितम् तयोः प्रसारणेन च प्रसारितम् अभिः नयगत्या यत् तत्तथाभूतम् एवं रेच करेचितम् - रेचिकैः भ्रमरिकाभिः रेचितं निष्पन्नं यत्तत्तथाभूतम्, एवं भ्रान्तसंभ्रान्तम् भ्रान्तः भ्रमप्राप्तः स इव यत्र नाटये अद्भूतचरितदर्शनेन पर्षज्जनः संभ्रान्तः सार्यो भवति तत्तथाभूतम् तदुपचारात् नाटयमपि भ्रान्तसंभ्रान्तम् ॥ ३१ ॥ अथ द्वात्रिंशत्तमं चरमचरमनाम निवद्धनामकं नाट्यम् तच्च सूर्याभदेवेन भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः पुरतो भगवतश्चर पूर्व मनुष्यभवचरम देवलोकमव चरमच्यवनचरमगर्भसंहरण चरमभरत क्षेत्राव्रसर्पिणीतीर्थ कर जलाभिषेक चरमबालभावचरमयौवनचर मकामभोग चरमनिष्क्रमणचरमतपश्चरण चरमज्ञानोत्पाद चरमतीर्थप्रवर्तन चरमपरिनिर्वाणाभिनयात्मकं भावितम् - इह तु यस्य तीर्थंकरस्य जन्ममहोत्सवं कुर्वन्ति तच्चरिताभिनयात्मकमुपदर्शयन्ति, यद्यपि अत्रा ञ्चितरिभितार भटभसोलेषु चतुर्षु मूलभेदेषु गृहीतेषु साभिनय मात्रसंग्रहः स्यात् तथापि क्वचित् एकैकेनाभिनयेन काचिदभिनयसमुदायेन काचिच्च अभिनयविशेषेण अन्तरकरणात् सर्वप्रसिद्ध द्वात्रिंशक संख्याव्यवहार संरक्षणार्थं द्वात्रिंशद्भेदाः दर्शिताः, अथाभिनयशून्यमपि नाटकं भवतीति तत् दर्शयितुमाह- 'अप्पेगइया उपय' इत्यादि 'अप्पेगइया उप्पयनिवयं' नाटय आरभट भसोल नामका है ३१ वां नाट्य उत्पातनिपात प्रवृत्त, संकुचित प्रसारित, रेचकरेचित भ्रान्त संभ्रान्त नामका है और ३२ वां नाट्य चरम चरम निबद्ध नामका है इन नाटकों के सम्बन्धका विवेचन राजप्रश्नीय उपाङ्ग सूत्र में किया गया है - अतः वहीं से इनके स्वरूपादिक का कथन जानलेना चाहिये । 'अप्पेगइया उप्पयनिवयं निवयउप्पयं संकुचिअ पसारिअं जाव भंत संभंतणामं ૨૯ મું નાટ્ય ભસેાલ નામક છે. ૩૦ મું નાઢ્ય આર ભટ ભસેલ નામનુ છે. ૩૧મુ’ નાટ્ય ઉત્પાત નિપાત—પ્રવૃત્ત, સ`કુચિત પ્રસારિત, ભ્રાન્ત-સભાન્ત નામક છે, અને ૩૨ મુ' નાટ્ય ચરમ -ચર મનિબદ્ધ નામક છે. એ નાટકોથી સમ્બદ્ધ વિવેચન રાજ પ્રશ્નીય ઉપાંગ સૂત્રમાં કરવામાં આવેલું છે, એથી જિજ્ઞાસુ મહાનુૠવાત્યાંથી જ એ સર્વના રૂપાદિકનું કથન જાણુવા પ્રયત્ન કરે. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रप्तिसूत्र अप्येकका: उत्पातनिपातम् तत्र उत्पातः, आकाशे उत्पतनम् निपातः, आकाशात् अवपतनम् उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् तत् तथाभूतम् एवम् 'निवय उप्पयं' निपातोत्पातम् निपात. पूर्वउत्पातो यस्मिन् तत् तथाभूतम् 'संकुप्रासारिअं' संकुचितप्रसारितहस्तपादयोः संको. चनेन संकुचितं तयोः प्रसारणेन प्रसारितम् अभिनयरहितं यत्तथाभूतम् 'जाव भंतसंभंत णाम' यावत् भ्रान्तसम्भ्रान्तकम् अत्र व्याख्यानम् अनन्तरोक्तैवात्रिंशत्तमनाटके यथा व्याख्यातं तथैव बोध्यम् अत्र-यावत्पदात् 'रिआरिअं' इति ग्राह्यम् तत्र 'रिअं गमनं रगभूमेनिष्क्रमणम् 'आरिअं' पुनस्तत्रागमन मिति 'दिव्वं नट्टविहिं उपदंसंतीति' दिव्यं नाटय विधिमुपदर्शयन्तीति इदं च पूर्वोक्तचतुर्विधद्वात्रिंश द्विधनाटयेभ्यो विलक्षणं सर्वाभिनयशून्यं गात्रविक्षेपमात्रं विवाहाभ्युदयादौ उपयोगिनतनम् भरतादिसङ्गोतेषु नृत्तमित्युक्तम्, यथोक्तमेव नाटयम् प्रकारद्वयेन संग्रहीतुमाह-'अप्पेगइया तंडवेति, अप्पेगइया लासेंतित्ति' अप्येककाः ताण्डवन्ति दिव्वं नट्टविहिं उवदंसन्तीति' अब सूत्रकारने यहां ऐसा प्रकट किया है कि अभि नय शून्य भी नाटक होते हैं-ये नाटक भी कितनेक देवों ने किये-इन नाटकों में उत्पात निपात-आकाश में उडना और फिर वहां से नीचे उतरना होता है इस तरह उत्पात निपात रूप खेलकूद के काम कितनेक देवों ने किये, कितनेक देवों ने पहिले नीचे गिरना और बादमें ऊपर की ओर उछलना ये काम किये कितने देवों ने अपने २ हाथपैरों को मनमाना पसारने का काम किया और फिर उनका संकोच करने का काम किया कितनेक देवों ने इधर उधर घूमना आदि रूप कार्य किया यहां यावत्पद से 'रिआरिअं' रङ्गभूमि से बाहर आना और फिर उसमें प्रवेशकरना इस रूप जो रिअ और अरिअ है उसका ग्रहण हुआ है। इस तरह से वहां उन सब देवों ने 'दिव्वं नट्टविहिं उवदंसन्तीति' दिव्य नाट्य विधिका प्रदर्शन किया 'अप्पेगइआ तंडवेंति, अप्पेगहा लासेंति' कितनेक 'अप्पेगइया उप्पयनिवयं निवयउप्पयं संकुचिअपस.रिअं जाव भंतसमंतणामं दिव्वं नट्टविहिं उवदंसन्तीति' वे सूत्रधारे मही 20 प्रमाणे २१टता ४२री छ , अनि નય શૂન્ય ગણુ નાટક હોય છે. એ પ્રકારના નાટકો પણ દેએ ભજવ્યાં હતા. એ નાટ. કેમાં ઉત્પાત નિપાત, આકાશમાં ઉડવું અને પછી ત્યાંથી નીચે ઉતરવું હોય છે. આ પ્રણુણે ઉત્પાત, નિપાત રૂપ ખેલ કૂદ નાટકે કેટલાંક દેએ. કર્યા કેટલાક દેએ પહેલાં નીચે પડવું અને ત્યાર બાદ ઉપરની તરફ ઉછળવું, એવા અભિનય કર્યો. કેટલાક દેએ પિતપતાના હાથ–પગેને યથે છ રૂપમાં પ્રસ્ત કર્યા. અને પછી તેમને સંકુચિત કરવા રૂપ અભિનયે કર્યા. કેટલાક દેએ આમ-તેમ ફરવું વગેરે રૂપ य' यु. सही यावत् ५४थी 'रिआरिअं' २॥ भूमिमांथा महा२ २१ भने पछी તેમાં પ્રવેશ કરવું એ રૂપમાં જે રિઅ અને અરિઆ છે તેનું ગ્રહણ થયું છે. આ પ્રમાણે त्यो मा हेवाये 'दिव्वं नट्टविहिं उबदसंतीति' ६०य नाट्य विपिनु प्रशन यु" Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षाकरः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१७ ताण्डवं नाम नाटकं कुर्वन्ति तच्चोद्धतः करणैरङ्गहारैरभिनयैश्च निर्वय॑म् अतएव आरभटी. प्रधाननाटकम् अप्येककाः लासयन्ति रासलीलां कुर्वन्तीत्यर्थः अथ यथा देवाः कुतूहलमुप. दर्शयन्ति तथाऽह- 'अप्पेगइया पीणेति' अप्येककाः देवा पीनयन्ति स्वं स्थूली कुर्वन्ति 'अप्फोडेंति' आस्फोटयन्ति उपविशन्तः पुताभ्यां भूम्यादिकमानंति 'वग्गंति' अप्येककाः वल्गन्ति मल्लवत् बाहुभ्यां परस्परं संप्रलगन्ति 'सीहणायं णदंति' सिंहनादं नदन्ति कुर्वन्ति 'अप्पेपइया सनाई करेंति' अप्येककाः देवाः सर्वाणि पीनवादीनि क्रमेण कुर्वन्ति अप्पेगइया हयहेसियं' अप्येककाः देवाः हयहेषितम् अथ हेपारवं कुर्वन्ति ‘एवं हत्यिमुलालाइयं' एव मित्येकका देवा हस्तिगुलुगुलायितम् गजबत् गजनं कुर्वन्ति रहघणघणाइयं रथघनघनायितम् केचित् अप्पेककाः देवाः रथवत् घनघनेतिशब्दं कुर्वन्ति-गुल मुल घन घन-इत्यनुकरणशब्दौ 'अप्पेगइया तिण्णिवि' अप्येककाः देवाः, त्रीण्यपि-हयहेषितहस्तिगुलगुलायित रथदेवों ने वहां पर ताण्डव नामका नाटक किया कितनेक देवों ने वहां पर रासलीला की 'अप्पेगइआ पोणेति, एवं वुक्कारेंति, अप्फोडेंति, वग्गंति, सीहणायं ण. दंति' कितनेक देवों ने अपने आपको बहुत स्थूल रूप में प्रदर्शित किया, कितनेक देवों ने अपने अपने मुंह से फूत्कार करना प्रारम्भ किया स्तिनेक देवो ने जमीन पर हाथों को पटक पटक कर उसे फोडने की आवाज को कितनेक देवों ने इंधर से उधर दौड लगानी शुरू की अथवा मल्लों के जैसे वे आपस में बाहुओं द्वारा एक दूसरे के साथ जूझने लगे कितनेक देवों ने सिंह के जैसी गर्जना की 'अप्पेगइया सम्वाई करेंति' कितनेक देवों ने क्रमशः पीनत्वादि सब कार्य किये 'अप्पेगइया हय हेसिअं' कितनेक देवो ने घोडों की तरह हिनहिनाना शुरु किया 'एवं हथिगुलगुलाइयं इसी तरह कितनेक देवों ने हाथी के जैसा चिंघा. डना प्रारम्भ किया 'रहघणघणाइयं कितनेक देवों ने रथों के जैसा परस्पर में 'अप्पेगइआ तंडवे ति, अप्पेगइआ लासे नि' 21 हेवाने त्या तsa नाम नाट ज्यु. ४८१४ ॥ये रास दीसा श. 'अप्पेगइआ पीणेति एवं बुक्कारे ति अफोडेंति वगति, सीहणायं गति' मा वाथे पोतानी 11२ मती स्थूण ३५मां महशित કરવા રૂપ અભિનય કર્યો, કેટલાક દેએ પિત–પિતાના મુખમાંથી ફૂકાર કરવાની શરઆત કરી. કેટલાક દેએ જમીન ઉપર હાથોને પછાડી-પછાડીને તેનાથી ફેડવાનો અવાજ કર્યા. કેટલાક દેએ આમ-તેમ દેડવાની શરુઆત કરી અથવા મલેની જેમ તેઓ પરસ્પરમાં બાહુઓ વડે એક-બીજાની સાથે ઝૂઝવા લાગ્યા. કેટલાક દેએ સિંહના જેવી न ४२. 'अप्पेगइया सव्वाइं करेंति' या वाये ४११: पानवाहि मचा यो - 'अप्पेगइया हयहेसिटमा वामे घायानी म ७ वान। सवा ४ी. 'एवं हत्थिगुलगुलाइयं' २प्रमाणे खा वास थीनी म विचार पानी-यी ५७वानी शरुमाती . 'रहघणघणाइयं' ३८ हेवाये २यानी भ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे घनघनाथितानि त्रीण्यपि कुर्वन्ति 'अप्पेगइया उच्छोलंति' अध्येकका देवा उच्छोलन्ति अग्रतो मुखे चपेटां ददति 'अप्पेगइया पच्छोलंति' अप्येककाः पच्छोलन्ति पृष्ठतो मुखे चपेटां ददति 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' अप्येककाः त्रिपदि मल्लइव रङ्गभूमी त्रिपदि कुर्वन्ति 'पायददर करेंति' पाद दर्दरकम् पादेन दर्दरकं भूम्यास्फोटनरूपं कुर्वन्ति 'भूमि' चडे दलयंति' भूमिचपेटां ददति कराभ्यां भूमिमाध्यन्ति 'अप्पेगइया महया महया सद्देणं रावेति' अध्पेकका देवा: महता महता शब्देन रावयन्ति शब्दं कुर्वन्ति ' एवं संजोगा विभासिअव्वा' एवम् उक्तप्रकारेण संयोगाअपि द्वित्रिमेलका अपि विभाषितव्याः भणितव्याः, अयमर्थः उच्छोलनादि द्विकमपि कुर्वन्ति, तथा केचित् त्रिकं चतुष्कं पञ्चकं पट्कं च कुर्वन्ति संघन करना अर्थात् चीत्कार करना शुरु किया 'अप्पेगइया देवा तिष्णि वि' कितनेक देवों ने एक ही साथ घोडों के जैसा हिनहिनाना, हाथी के जैसा चिंघाड़ना और रथों के जैसा परस्पर में टकराना यह तीनों कार्य किये 'अप्पे गइया उच्छोलन्ति' कितनेक देवों ने आगे से ही मुखके ऊपर थप्पड मारनी शुरू की 'अप्पेगइया पच्छोलंति' कितने देवों ने पीछे से मुख पर धप्पक मारनी शुरु की 'अप्पेगइया तिवई छिदंति' कितनेक देवों ने रङ्गभूमि में मल्लकी तरह पैंतरा भरना प्रारम्भ किया 'पाददद्दरयं करेंति' कितनेक देवों ने पैर पटच पटक कर भूमिको ताडित किया 'भूमिचवेडे दलयंति' कितनेक देवों ने पृथिवी पर हाथों को पटका 'अप्पेगइया महया सद्देणं रावेंति' कितनेक देवों ने बड़े जोर जोर से शब्द किया 'एवं संजोगा विभासिअव्वा' इसी प्रकार से संयोग भी - वित्रि पदों की मेलक भी कहलेना चाहिये अर्थात् कितनेक देवों ने उच्छोलनादि कि भी किये कितनेक देवों ने उच्छोलनादि त्रिक चतुष्क एवं कितनेक देवों ने उच्छोलनादि पंचकषक भी किये 'अप्पेगइया हक्कारंति बुक्कारंति ७१८ परस्परमां संगट्टन यु भेटले थी सो पडवानी शरुआत ४२री. 'अप्पेगइया देवा तिणि ત્રિ' કેટલાક દેવાએ એકી સાથે ઘેાડાએ ની જેમ હુડ્ડાટ કરવું, હાથીએની જેમ ચીસા पाडवी अने रथेोनी नेम परस्परमां संघट्टित थवु आर्या 'अप्पेगइया ઉન્નોનન્તિ' કેટલા દેવાએ આગળથી જ પોતાના મુખ ઉપર થપાડ મારવાની શરુઆત કરી. 'अप्पेगइया पच्छोलन्ति' डेटलाई देवासे पछी भुख उपर थप्पड भारवानी शरुआत 'अप्पेगइया तिवई छिति' डेंटला ठेवा रंगभूमिमां भनी प्रेम पैंतरा भवानी शरुआत हरी. 'पाददद्दरयं करें ति' डेटा देवो यत्र-पछाडी पछाडीने लूमिने ताडित ४री. ‘भूमिचवेडे दलयंति' डेटा देव! पृथिवी उपर हाथी पछा. 'अप्पेगइया महया सदेणं रोति' डेंटला देवोये हुलेर-शोरथी वा ये 'एवं संजोगा विश्वासि અવા' આ પ્રમાણે જ સંચાગ પણુ-દ્વિત્રિ પદાની મેલક વિશેષગુ કડી લેવું જોએ. એટલે કે કેટલાક દેવાએ ઉચ્છલનાદિ દ્વિકા પણ કર્યાં. કેટલાક દેવાએ ઉચ્છેાલનાદિત્રિક, ચતુષ્ક Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् । ७१९ 'अप्पेगइया हकारेंति' अप्येककाः देवाः हक्कारयन्ति हक्कां ददति एवं पुकारेंति' एवं पून्कुर्वन्ति 'वकारेंति' वकारयन्ति वक वक्क मित्येवं शब्दं कुर्वन्ति 'ओवयंति' अवपतन्ति नीचैः पतन्ति उप्पयंति' उत्पतन्ति उर्वी भवन्ति 'परिवयंति' परिपतन्ति तिर्यग्निपतन्ति 'जलंति ज्वलन्ति ज्वालारूपा भवन्ति भास्वराग्रितां प्रतिपाद्यते इत्यर्थः 'तवंति' तपन्ति मन्दाङ्गारतां प्रतिपाद्यन्ते 'पयवंति' प्रपतन्ति दीप्ताङ्गारतां प्रतिपद्यन्ते 'गज्जति' गर्जन्ति गर्जनं कुर्वन्ति मेघवत् 'विज्जआवंति' विद्युतं कुर्वन्ति विद्युतवत् प्रकाशमानाः भवन्ति 'वासिति' वर्षन्ति च 'अप्पेगइया देवुक्कलियं करेंति' अप्येककाः देवाः देवोत्कलिकां देवानां वातस्येव उत्कलिकाः भ्रमविशेपस्तां कुर्वन्ति 'एवं देवकहकहगं करेंति' एवं देवानां कहक हकं प्रमोदभरजनितकोलाहलं कुर्वन्ति 'अप्पेगइया दुह दुहगं करेंति' अप्येककाः देवा दुहदुहगं कुर्वन्ति, अनुकरणमेतत् 'अप्पेगइया विकियभूयाइं रूवाई विकुबित्ता पणचंति' अप्पेककाः देवाः विकृतभूतानि विकतानि अधरलम्बन मुखव्यादानने त्रस्फाटनादिना भयानकानि भूतानि भूतादिरूपाणि विकु ओवयंति, उप्पयंति, परिवयंति, जलंति, तवंति, पवयंति, गज्जंति, विज्जुयावंति, वासिति' कितनेक देवों ने हक्का दिया पूत्कार किया, वक्क वक्क इस प्रकार से शब्दो का उच्चारण किया नीचे आना ऊंचे जाना, तिरछे जाना अग्नि की ज्वाला जैसे तपना, मन्द अग्नि के अङ्गारों के जैसे तपना दीप्त अंगारावस्था को धारण करना, गर्जना करना विजली की तरह वरसा करना ये सब कार्य किये 'अप्पेगइया देवुक्कलियं करेंति' एवं 'देवकहकहं करेंति' कितनेक देवों ने वायुकी तरह घूमना-भ्रमण करना-यह काम किया कितनेक देवों ने प्रमोद के भार से युक्त होकर कोलाहल करना प्रारम्भ किया 'अप्पेगइया दुदुहगं करेंति, अप्पे. गया विकियभूयाई रुवाई विउव्वित्ता पणच्चंति' कितनेक देवों ने दुहदुह शब्द किया, कितनेक देवों ने विकृत भूत रूपादिकों की, अर्थात् ओष्ठों को लम्बा करना मुखका फाडना नेत्रों को फोडना आदि २ रूप विकुर्वणा करके अच्छी तेम ४८.३४ हेवाये छोसना पाय ५३४५ यु . 'अप्पेगइया हक्कारंति वक्कारंति, ओवयंति, उप्पयंति, परिवयंति, जलंति, तवंति, पवयंति गज्जंति, पिज्जुयावंति. वासिंति' કેટલાંક દેએ હાકળ કરી, પૂત્કાર કર્યું, વકુક વકૂક આ પ્રમાણે શબ્દો ઉચ્ચરિત કર્યા. નીચે જવું, ઉપર આવવું ઊંચે જવું, વક્રગતિએ જવું, અગ્નિના જ્વાળાની જેમ સંતપ્ત થવું મન્ટ અગ્નિના અંગારોની જેમ સંતપ્ત થવું અંગારાવસ્થા. ધારણ કરવી. ગર્જના કરવી, विधत्नी रेभ यमपु, वर्षा ४२वी, ये मयां आये ४ा'. 'अप्पेगइया देवुक्कलियं करेंति तभर 'देवकहकहं करेंति' टा४ हेवा वायुनी म धूम-अभय ४२-41 म यु टमा हेवा प्रभाहना मारथी युटत न घाबाट ४२वानी शरुयात ४N. 'अप्पेगइया दुहु दुहगं करें ति, अपेगइया विकियभूयाई रुवाई विउवित्ता पणच्चंति' કેટલાક દેવેએ દુહ-દુહ આ જાતનો શબ્દ કર્યો. કેટલાક દેએ વિકૃતભૂત રૂ પાદિકની એટલે કે એક લંબાવવા, મુખ વિસ્તૃત કરવું તે પ્રકારિત કરવા વગેરે વગેરે રૂપ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० errearrafter fear प्रनृत्यन्ति प्रकर्षेण नर्सनं कुर्वन्ति 'एयमाइविभासेज्जा जहा विजयरस' एवमादि विभाघेत यथा विजयस्य विजयदवस्य कियत्पर्यन्तम् इत्याह- ' जाव सव्वभ' इत्यादि 'जाव सब्वओ समता आधावेंति परिधावेंति यावत् सर्वतः समन्तात् 'आधावेंति' इषद्धावन्ति परिधावन्ति प्रकर्षेण धावन्ति तत्सर्वं जीवाभिगमे तृतीयप्रतिपत्तौ विशेषतो द्रष्टव्यम् यावत्करणात् 'अपेगइया वेलुक्वेवं करेंति अप्पेगइया वंदणकलसहत्थगया अपेगइआ भिंगारगहत्थगया एवं एए अभिलावेणं आयंसथाल पाई वायकरगरवणकरंडग पुष्कचंगेरी जाब लोमहत्थचंगेरी पुप्फपडलग जाव लोमहत्थ चटुलग सीहासण छत्तचामर तिलसमुग्गय जाव अंजणसमुग्गयहत्थगया, अपेगइया देवा धूवकडच्छुगहथगया हट्ट तुट्ट जाव हियया इति ग्राह्यम् अथ व्याख्या - अप्येकका देवा चेलोत्क्षेपं ध्व नोच्छ्रायम् कुर्वन्ति अध्येकका चन्दनकलशहस्तगताः माङ्गल्य घटपाणयः अप्येककाः भृङ्गारकहस्तगताः एवम् अनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेन अनन्तरवर्तित्वात् प्रत्यक्षेण अभिलापेन - अप्येककाः आदर्शहस्तगताः, एवम् पात्री वातकरक रत्नकरण्डक पुष्पचङ्गेरी यावत् लोमहस्तचङ्गेरी पुणपटलक यावल्लो महस्तपटलकसिंहासनछत्रचामर तिलसमुद्र यावत् अञ्जनसमुद्रकहस्तगताः अप्येककाः धूप कडुच्छुक हस्तगताः हृष्टतुष्ट यावत् हृदयाः, इति एतेषाम् आधावन्ति परिधावन्त्यत्रान्वयः इति एतेषां विशेषतोऽर्थाः जीवाभिगमे तृतीयप्रतिप्रत्तौ स्वयमेव द्रष्टव्याः ।। सू० १० ।। तरह से नृत्य किया 'एवमाई विभासेजा जहा विजयस्स जाब संव्वओ समन्ता आहावेंति' इस प्रकार विजय के प्रकरण में कहे अनुसार देव सब ओर से अच्छी तरह थोडे थोडे रूप में और प्रकर्षरूप में दौडे यह सब कथन जीवाभिगम सूत्र में तृतीय प्रतिपत्ति में किया गया है अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये यहां यावत शब्द से 'अप्पेगइया वेलुक्वेवं करेंति अध्येगइया वेदणकल सहत्थगया अप्पेगइया भिंगार हत्थगया एवं एएवं अभिलावेणं आयंसथाल पाईवायकरण रयणकरंग पुष्फ चंगेरी जाव लोमहत्थचंगेरी पुष्फ पडलग जाव लोमहत्थ पडलग सोहासण छत्त चामर तिल्ल समुग्गयहत्थगया देवा धूप कडुच्छ्रय हस्थ गया हट्ठ तुङ जाव हियया' इस पाठका ग्रहण हुआ है - यह पाठ अर्थ में बिलकुल स्पष्ट है ॥१०॥ विठु पुरीने पछी सारी रीते नृत्य अयु एवमाई विभासेज्जा जहा विजयस्स जाव सव्वओ समता आह। वेति' प्रमाणे विश्यना प्र२शुभां ह्यां मुल् हेवे। याभेरथी સારી રીતે અપ-અલ્પ પ્રમાણમાં અને પ્રક રૂપમાં ડયા. આ બધુ કથન જીવભિગમ સૂત્રમાં તૃતીય પ્રતિપત્તિમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. એથી જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જ या विशे नवा प्रयत्न पुरे. सहीं यावत् पथी' अप्पेगइया चेलुक्खेत्रं करेति, अप्पेगइया वंद कलसहत्थगया, अप्पेगइया भिंगार हत्थगया एवं एएणं अभिलावेणं आयंसथाल पाई वायकर रयणकरंडग पुष्पचंगेरी नाव लोमहत्थचंगेरी पुएफाडलग जाव लोमहत्थ पडलग सीहा सण छत्तचामर तिल्लसमुग्गय हत्थगया देवा धूपकडुच्छ्रय हत्थगया हट्ठ तुट्ठ जाव हियया सा पाठ संगृहीत थयो छे. या पाठ अर्थनी दृष्टि सुगम छे. सूत्र - १०. Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवमस्कारा सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७२१ अथ अभिषेक निगमन पूर्वकमाशीर्वाद सूत्रमाहमूलम् - तए णं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि तेणं महया महया अभिसेएणं अभिसिंचई, अभिसिंचित्ता करयलपरिग्गहियं जाव मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धाक्त्तिा ताहिं इटाहिं जाव जयजयसदं पउंजइ पउंजित्ता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाई लूहेइ लुहित्ता एवं जाव कप्परुक्खगं पिव अलंकिय. विभूसियं करेइ करिता जाव णविहिं उवदंसेइ उवदंसित्ता अच्छेहि सण्हेहिं रययामरहिं अच्छरसा तंडुलेहिं भगवओ सामिस्त पुरओ अट्टमंगलगे आलिहइ तं जहा-सोस्थिय १ सिरिवच्छ २ नंदियावत्त ३ वद्धमाण ४ भदासण ५ वरकलस ६ मच्छ ७ दप्पण ८ लिहिआ अट्ट मंगलगा ॥१॥ लिहिऊण करेइ उपचारं किंते ! पाडल मल्लिअ चंपगसोग पुन्नाग चूअभंजरि णवमालिअबउलतिलय कणवीरकुंदकुजग कोरंटपत्त दमणग रसुरभिगंधगंधियस्त कचग्गहगहिय करयलपब्भविप्पमुक्कस्स तत्थचित्तं जागुस्सेहपमाणमित्तं ओहिनिकरं करेता चंदप्पभरयणवइरवेरुलियविमलदंड कंचगमणिरय गभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुकधूवगंधुत्तनाणुविद्धं च धूमवहि विणिम्मुयंतं वेरुलियमयं कडुच्छ्रअं पग्गहितु पथएणं धू दाउण जिणवरिंदस्स सत्तटुपयाई ओसरित्ता दसं. मुलियं अंजलि करिअ मत्थयंमि पथओ असय विसुद्धगंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अगरुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं संथुणइ संथुणित्ता वामं जाणुं अंचेइ अंकित्ता जाव करय सारिग्गहियं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी णमोत्थुते सिद्धबुद्ध णीरय माणसासाहिअं समत्त समजोगि सल्लगत्तण जिब्भय जीरागदोसणिमणिरसंगणीसल्लमाणमृरणगुणरयणसीलसा. गरमणंत मप्पमेयभविअ धम्नवर चाउरंतचक्कट्टी णमोत्थुते अरहओ त्तिकटु एवं वंदइ णसंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूलमाणे जाव पज्जुवासइ एवं जहा अच्चुयस्स तहा जाव ईसाण. अ २१ Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्स भाणियव्व एवं भवणवइवाणमंतर जोइसिआ य सूरपजवसाणसएणं परिवारेणं पत्ते पत्तअं अभिसिंचंति, तएणं से इसाणे देविंदे देवराया पंच ईसाणे विउच्वइ, विउव्वित्ता एगे इसाणे भगवं तित्थयरं करपुटसंपुडेणं गिण्हइ गिणिहत्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे, एगे ईसाणे पिटुओ आयवत्तं धरेइ दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेव करेंति एगे ईसाणे पुरओ सूलपाणी चिटुइ । तए णं से सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सदावेइ सदायित्ता एसो वि तहचेव अभिसेय आणत्तिदेइ तेऽवि तहचेव उवणेति, तपणं से सक्के देविंदे देवराया भगवओ तित्थयरस्स चउदिसिं चत्तारि धवलवसभे विउठवेइ संखदलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाईए दरसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे, तएणं तेसिं चउण्हं धवलवसभाणं अहिं सिंगेहिंतो अटुतोअधाराओ णिगच्छंति, तए णं ताओ अढतोअधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति उप्पइत्ता एगओ मिलायंति मिलाइत्ता भगवओ तित्थयरस्स मुद्धाणंसि निवयंति । तए णं से सक्के देविदे देव. राया चउरासीए सामाणिअ साहस्तीहिं एयस्स वि तहेव अभिसेओ भाणिययो जाव नमोऽत्थुणं ते अरहओ तिकट्ठ वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवासइ ॥सू० ११॥ छायाततः खलु सोऽच्युतेन्द्रः, सपरिवारः स्वामिनं तेन महता महता अभिषेकेण अभिषिनति, अभिषिच्य करतलपरिगृहीतं यावत् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन च वर्द्धयति वर्द्धयित्वा ताभिरिष्टाभि वित् जयजय शब्दं प्रयुक्त प्रयुज्य यावत् पक्षमल सुकुमारया सुरभ्या गन्धकाषायिकया गात्राणि रुक्षयति रुक्षयित्वा एवं यावत् कल्पवृक्षमिव अलङ्कृतविभूषितं करोति कृत्वा यावत् नाटयविधिमुपदर्शयति उपदर्य अच्छै : लक्ष्णैः रजतमयैः अच्छरसतण्डुलैः भगवतः स्वामिनः पुरतः अष्टाष्टमङ्गलकानि आलिखति तथा-दर्पण १ भद्रासन २ वर्द्धमान ३ वरकमळ ४ मत्स्य ५ श्रीवत्स ६ स्वस्तिक ७ नन्दात ८ लिखितानि अष्टाष्टमङ्गलकानि ।१। लिखित्वा करोति उपवारम् कोऽसौ ? पाटलमरिल कचम्पकाशोक पुन्नागचूतमञ्जरी नवमालिक बकुलतिलकरवीर कुन्दकुजककोरण्डकपत्र दमनक वरसुरभिगन्धगन्धिकस्य कयग्रहगृहीतकरतल प्रभ्रष्ट विप्रमुक्तस्य दशार्द्धवर्णस्य कुसमनिकरय स्त्र चित्रम् जानू Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः त्सेधप्रमाणमितम् अवधिनिकरं कृत्वा चन्द्रप्रभरत्नवज्रवैडूर्यविमलदण्डम् काश्चनमणिरत्न भक्तिचित्रम् कृष्णागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क धूप गन्धोद्धृतामनुविद्धां च धूपवत्ति विनिमुञ्चन्तं वैडूर्यमयं कईच्छुक प्रगृह्य प्रयतेन धूपं दत्वा ज़िनवरेन्द्रस्य सप्ताष्टपदानि अपमृत्य दशाङ्गलिकम् अञ्जलिं कृत्वा मस्तके प्रयतः, अष्टशतविशुद्धग्रन्थयुक्तैः, महावृत्तः, अपुनरुक्तैः संस्तौति संस्तुत्य वाम जानुम् अञ्चति अञ्चित्वा यावत् करतलपरिगृहीतं मस्तके अञ्जलि कृत्वा एवमवादी-नमोऽस्तुते सिद्धबुद्धनीरजश्रमगसमाहिकसमस्तसमजोगिशल्यकर्तन निर्भयनीरागद्वेषनिर्ममनिश्शङ्क निश्शुल्यमानमूरण गुणरत्नशीलसागर मनमन्ताप्रमेयभविकधर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिने नमोऽस्तुते अर्हते इति कृत्वा एवं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा नात्यासन्ते नाति दूरे शुश्रूपमाणो यावत् पर्युपास्ते-एवं यथाऽच्युतस्य तथा यावदीशानस्य भणितव्यम् एवं भवनपति वानमन्तरज्योतिष्काश्च सूर्यपर्यवसानाः स्वेन परिवारेण प्रत्येकम् प्रत्येकम् अभिसिञ्चति । ततः खलु स ईशानो देवेन्द्रो देवराजः पञ्च ईशा. नान् विकुर्वति विकुर्विता एक ईशानो भगवन्तं तीर्थकरं करतलसंपुटेन गृह्णाति गृहीत्वा सिंहासनवरगतः पौरस्त्याभिमुखः सन्निपणः, एक ईशानः पृष्टतः, आतपत्रं धरति द्वौ ईशानौ उभयोः पार्श्व चामरोतक्षेपं कुरुतः, एकः ईशानः पुरतः, शूलपाणिस्तिष्ठति । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः आभियोगिकान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा एषोऽपि तथैव अभिषेकाज्ञप्तिं ददाति तेऽपि तथैव उपनयन्ति ! ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, भगवस्तीर्थकरस्य चतुर्दिशि चतुरो धवलयनान् विकुति, श्वेतान् शंखदलविमलनिर्मलदधिघनमोक्षीरफेनर जतनिकरप्रकाशान् प्रासादयान दर्शनीयान् अभिरूपान् प्रतिरूपान्, ततः खलु तेषां चतुर्णा धवलवृषभाणाम् अष्टभ्यः शृगेभ्योऽष्टी तोयधारा निर्गच्छन्ति, ततः खलु ता अष्टौ तोयधारा उर्ध्व विहायसि उत्पतन्ति उत्पत्य एकतो मिलन्ति मिलित्वा भगवतस्तीर्थकरस्य सूनि निपतन्ति । ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः चतुरशीत्या सामानिकसहस्रैः एतस्यापि तथैव अभिषेको णितव्यो यावन्नमोऽस्तुतेऽहं ते इतिकृत्वा चन्दते नमस्पति यावत् पर्युपास्ते ॥ सू० ११॥ टोका-'तएणं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि तेणं महयामहया अभिसे एणं अभिसिंचई' ततः खलु तदनन्तरं किल सः प्रागुतोऽच्युतेन्द्रः स परिवारः, अनन्तरोक्तपरिवारसहितः, स्वामिनम्-ऋषभतीर्थकरम् तेन-अनन्तरोतस्वरूपेण महतामहता, अतिशयेन, अभिषेकेण, 'तएणं से अच्चुइंदे सपरिवारे सामि' इत्यादि टीकार्थ-'तएणं' इसके बाद से अच्चुइंदे सपरिवारे' सपरिवार अच्युतेन्द्र ने 'सामि तेणं महया२ अभिसेएणं अभिसिंचई' तीर्थकर का उस विशाल अभिः 'तएणं अच्चुइंदे सपरिवारे सामि' इत्यादि ___2012-'तएणं' त्या२ माह से अच्चुइंदे सपरिवारे' सपरिवार अच्युतेन्द्र 'सामि तेणं महया २ अभिसेएणं अभिसिंचई' ती २ ते १५ मनिषेनी सामग्रीथा मनिष Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨૪ जम्बूद्रीपप्रशस्ि अभिषिञ्चति आनीतपवित्रोदकैरभिषेचनं करोति 'अभिसिंचित्ता' अभिषिच्य 'करयलपरिगहियं जाव मत्थए अंजलि कट्टु जएणं विजएणं बद्धावे' करतलपरिगृहीतं यावन्मस्तकेऽञ्जलि कृत्वा जयेन विजयेन च - जय विजयशब्दाभ्यां वर्द्धयति स्तौति अत्र यावत्पदात् दशनखं शिरसावर्त्तमिति ग्राह्यम् 'वद्धावित्ता' वर्द्धयित्वा 'ताहि इहाहिं जाव जयजयसई पउंज ' ताभिः विशिष्टगुणोपेताभिः, इष्टाभिः श्रोतॄणां वल्लभाभिः यावज्जवजयशब्दं प्रयुङ्क्ते, अत्र जयशब्दस्य द्विर्वचं शीघ्रतायां संभ्रमे जय विजयशब्दाभ्यां वर्द्धयित्वा पुनर्जयजयशब्दप्रयोगो मङ्गलवचनेन पुनरुक्ति र्दोषाय इत्यभिहितः, अत्र यावत्पदात् 'कंताहि पियाहिं मणु र्हि मणामाहिं वग्गूहिं' कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः मनोऽमाभिः वाग्भिरितिग्राह्यम् अथ अभिषेकोत्तरकालिकं कर्त्तव्यमाह 'पउँजित्ता' इत्यादि 'पउंनित्ता' प्रयुज्य 'जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लहेइ' यावत् यक्षमलसुकुमारया पक्ष्मयुक्तसुन्दरलोमवत्या सुकोमलया सुरभ्या सुगन्धि युक्तया गन्यकापाचिक्या गन्धक सुगंधित द्रव्ययुक्तया इति गम्यं गात्राणि तस्य अङ्गानि मुखहस्तादि अवयवान रूक्षयति प्रोञ्छति अत्र यावत्पदात् षेक की सामग्री से अभिषेक किया आनीत पवित्र उदक से प्रभुको स्नान कराया 'अभिसिंचित्ता करलय परिग्गहिअं जाव मत्थए अंजलि क जएणं विजएणं वद्वावे' स्नान कराकर फिर उसने प्रभुकी दोनों हाथों की अंजलि करके नमस्कार किया और जय विजय शब्द से उन्हें बधाया यहां यावत् पद से 'दशनखं शिरसावर्त्तम्' ऐसा पाठ संगृहीत हुआ है 'वद्रावित्ता ताहिं इद्वाहिं जाव जय जय सहे पजति पजित्ता जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लहेइ' बधाने के बाद अर्थात् जय विजय शब्दों द्वारा स्तुति कर चुकने बाद फिर उसने उन उन इष्ट यावत् कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोऽम वचनों से जय जय शब्द का पुनः प्रयोग किया यहां पुन रुक्ति का दोष भक्ति की अतिश पिता के कारण नहीं माना गया है जब वह इच्छानुकूल भक्ति कर चुका तब उसने प्रभुके शरीर का पक्ष्मल, सुकुमार, सुगंधित तोलियों से प्रञ्छन किया य. आनीत पवित्र हथी प्रभुने स्नान व्यु 'अभिसिंचित्ता करयल परिग्गहिअं जाव मत्थए अंजलि कटूटु जपणं विजएणं वद्धावे' स्नान हरावने पछी तेथे अनुने भन्ने હાથેાની અજલિ મનાવીને નમસ્કાર કર્યાં અને જય-વિજય શબ્દો જે તેઓશ્રીને અભિ नहित र्ध्या. अहीं यावत् पथी 'दशनखं शिरसवर्त्तम्' आ पाई समृद्धीत थयो छे. 'वद्धा' वित्ता ताहिं इट्ठाहिं जाव जय-जय सदे पउंजंति, पउंजित्ता जाव पम्ल सुकुमालाए तुरभीए गंधकासाईए गाया हेइ' अनिहित अरीने अर्थात् विजय शब्दोश्री तेगे: श्रीनी स्तुति हरीने पछी तेथे तत् तत् दृष्टि यावत् अन्त, प्रिय, भनेज्ञ, भनेोऽय वयने!थी જયજય શબ્દોના પુનઃ પ્રયાગ કર્યાં. અહી ભક્તિની અતિશયતાને લીધે પુનરુક્તિ દે:ષ માનવામાં આવ્યે નથી, જ્યારે તે યથેચ્છ ભકિત કરી ચૂકયા ત્યારે ડોણે પ્રભુના શરીરનુ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षरकारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वाद 'तप्पढमयाए' तत् प्रथमता-इति ग्राह्यम् 'लूहित्ता' रूक्षयित्वा शरीराणि पोख्छय ‘एवं जाव कप्परूकखगंपिक अलंकिरिअविभूसियं करेइ' एवम्-उत्तप्रकारेण यावत्कल्पवृक्षमिवअलंकृतं वस्त्रालङ्कारेण विभूषितम्-आभरणालङ्कारेण करोति, अत्र यावत्पदात् 'लुहिता सरसेणं गोलीसचंडणं झापाई अणुलिपइ अणुलिपित्ता नासानीसासवायवोज्झं चखुहरं वण्णफरिसजुले हयलालापेलवाइरेग अवलं कणखचियंतकम्मं देभसजू पलं निसावेइ निअंसाबित्ता' इति ग्राह्यम् णाम:, रुक्षयित्वा तस्य शरीराणि प्रोञ्चसरसेन रससहितेन गीशीर्थचन्दनेन गात्राणि शरीराणि, अनुलिम्पति, अनुलिप्य नापानिःश्वासातवाह्यम् तथा चक्षुहरं दर्शनीय तथा वर्णशंयुकम् लचा 'हयलालापेलवातिरेक धरलम् , तत्र हयलालाअश्वमुखलं तहत् पेलवम् कोमलम् अतिरेक प्रवलं च-अत्यन्तस्वच्छ च तथा कनकखचि. तान्तर्मकनकैः काञ्चनैः खचितम् अन्तर्भ अन्तर्भागो यस्य तथाभूगम्-एवं भूतं देवष्ययुगलम् देववस्त्रयुगलम्-परिधानोतरीयरूपं निवासथति, परिधापयति निवास्य परिधाप्य-इति बोध्यः । 'करित्ता' कृत्वा 'जाव नविहिं उबदंसे३' यावत् नाटयविधिभुपदर्शयति अत्र 'लूहेत्ता एवं जाब कप्परुखगपिक अलंकिय विभूसिरं करेह' शरीर को प्रोग्छन करके फिर उसने प्रभु के मुख हस्त आदि अवयवों को पोंछ। यहां यावत् शब्द से 'तप्पढयाए' पद का ग्रहण हुआ है पोछकर उसने फिर प्रभुको वस्त्र और अलंकारों से विभूषित किया अतःप्रभुउस समय साक्षात् कल्पवृक्ष के जैसे प्रतीत होने लगे यहां यावत् शब्द से-'लूहिता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिम्पइ, अणुलिंपिता नासानीसासधाराबोझं चश्वुहर वष्णफरिसजुत्तं, हयलाला. पेलवाइरेगधवलं झणम खचियंत कम्नं देवदूसजुअलं निसावे नियंसावित्ता'७ इस पाठका संग्रह हुआ है-इसकी व्याख्या स्पष्ट है 'करित्ता जाव णविहिं उवदेसेइ, उदसिता अच्छेहि सण्हेहि स्थगामएहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस्स पुरओ अह मंगलगे आलिहइ वस्त्रालंकारों से प्रभुका अलंकृत करके ५६मस, सुभार, सुपित पायी ७ यु 'लूदेन्ता एवं जाव कापखगपित्व अलंकिय विभूसि करेइ' शरीर ०७ ४रीले पछी सुना भु, स्त, वगेरे भयवानुन ४यु. २५ही यावत् यी तढिमयाए' ५४ अडए युयु छ પ્રેછન કરીને પછી તેણે પ્રભુને વસ્ત્ર અને અલંકારોથી વિભૂષિત કર્યા. એથી પ્રભુ તે मते साक्षात् ४६५ वृक्ष २ दावा भांडया. डी. यावत् २.५४थी 'लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणं गायःई अगुलिम्पइ, अगुलिंपित्ता नासानीसासवायोज्य चक्खुहरवण्णफरिसजुत्तं, हयलाला पेलवाइरेगधवलं कणगखचिरंत कम्मं देवदुमजु पलं निसावेइ निसावेइत्ता' मा ५४ साडीत यो छ. शनी व्याच्या २५५८ , करिता जाव णट्टविहिं उबदसेह, उवदंसित्ता अच्छेहि सण्हेहि रयणामणहिं अच्छरसातण्डुलेहिं भगवओ समणस परओ अट्ठ मंगलगे आलिहा' पाथी प्रभुने मत ४ ५छी तो यावत् नाट्यविधिनु Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ जम्बूद्वीपप्राप्तिस्त्रे यावत्पदात् 'मुमणदामं पिणद्धावेई' सुमनोदामानम्-पुष्पमाल्यं पिनाहयति परिधापयति पिनाह्य परिधाप्य इति ग्राह्यम् 'उवदंसित्ता' नाटयविधिमुपदश्य अच्छेहि' अच्छैः स्वच्छैः 'सण्हे हिं' श्लक्ष्णैः चिक्कणैः 'रययामएहि' रजतमयैः 'अच्छरसातंडुलेहि अच्छरसतण्डुलैः 'भगव भो सामिस्स पुरओ अट्ठमंगलगे आलिहइ' भगवतः स्वामिनस्तीर्थकरस्य पुरतः, अष्टाष्टमङ्गकानि, अत्र वीप्सावचनात् प्रत्येकम्-अष्टो-अष्टौ इत्यर्थः आलिखति 'तं जहा' तद्यथा 'दप्पण १ भदासणं २ बद्धमाण ३ वरकलस ४ मच्छ ५ सिरिवच्छ ६ सोस्थिय ७ गंदावत्ता ८ लिहिआअमंगलगा ॥९॥ दर्पण १ भद्रासन २ वर्द्धमान ३ वरकलश-४ मत्स्य ५ श्रीवत्स ६ स्वस्तिक ७ इन्धावतों ८ लिखितानि अष्टाष्टमङ्गलकानि, । 'लिहि उण' अनन्तरोक्तानि अष्टमङ्गलानि लिखित्वा 'करेइ उवयारं करोत्युपचारम् कोऽसावुपचारस्तत्राह 'पाडलमल्लिअ-इत्यादि 'पाटलमल्लिअ, चंपगसोगपुन्नागचूअ मंजरिणवमालिअबउलतिलयकणवीर कुंदकुजगकोरंट पत्तदमण गवरसुरभिगंधगंधिअस्स' पाटलमल्लिकचम्पकाशोकपुन्नागाम्रमञ्जरी नवमालिक बकुलतिलक करवीरकुन्दकुब्जककोरण्ट पत्र दमनक वरसुरभिफिर उसने यावत् नाट्यविधि का प्रदर्शन किया यहां यावत् शब्द से-'सुमणोदामं पिणद्धावेई, पिणछादित्ता' इन पदों का ग्रहण हुआ है-नाट्यविधि का प्रद्र्शन करके फिर उसने स्वच्छ चिकने रजत मय अच्छरस तण्डुलों द्वारा भगवान् के समक्ष आठ २ मंगलद्रव्य लिखे-अर्थात् एक एक मंगलद्रव्य आठ २ बार लिखा 'तं जहा' वे आठ मंगलद्रव्य इस प्रकार से है-स्वस्तिक १ श्रीवत्स २ नन्दावर्त ३ वर्द्धमान ४ भद्रासन ५ घरकलश ६ मत्स्य ७ दर्पण ८ आठ मंगल. द्रव्यों को लिखकर फिर उसने उनका उपचार किया अर्थातू 'किते पाडल मल्लिय चंपगसोग पुन्नाग चूा मंजरिणचमालि अ बउलतिलय कणवीर कुंद कुज्जग कोरंट पत्तदमणगवरसुरभिर्गधगंधिअस्स, कयग्गहगाहेअकरयलपभट्टविप्पमुक्कस्स दसद्धवष्णस्स कुसुमणिअरस्स' पाटल गुलाब, मल्लिका चंपक, प्रहशन ४यु. मडी. यावत् ५४थी 'सुमणोदामं मिणद्धावेई, विणद्धावित्ता' मा ५४ स હિત થયા છે. નાટ્ય વિધિનું પ્રદર્શન કરીને પછી તેણે સ્વચ્છ, સુફિકણ રજતમય અરસ તંડુ વડે ભગવાનની સમક્ષ આઠ-આઠ મંગળ દ્રવ્ય લખ્યાં. અર્થાત્ એકसे म नु खेपन 2418 218 १५त ४यु 'तं जहा' ते माई द्रव्यो । પ્રમાણે છે-“સ્વસ્તિક ૧, શ્રીવત્સ ૨, નન્દાવર્ત ૩, વદ્ધમાન ૪. ભદ્ર સન ૫, વર કલશ ૬. મત્સ્ય ૭, દર્પણ ૮. તે આઠ-આઠ મંગલ દ્રવ્યો લખીને પછી તેણે તેમને ६५यार ४ सेटले कि ते पाडल मल्लिय चंपासोगपुन्नाग चूअ मंजरि णवमालिअ बउल तिलय कणवीर कुंद कुज्जग कोरंट पत्तइमणगवरसुरनिगंधगन्धिअस्स; क.ग्गहगहिअ करयल पन्भट्ठ विप्पमुक्कस्स दसद्धवणस्स कुसुमणिअरस्स' ५१, शुan, म:३], २५, Als, Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७२७ गन्धगन्धितस्य तत्र पाटलं-पाटलपुष्पम् 'गुलाब' इति भाषप्रसिद्धम् मल्लिका विचकितपुष्पम् 'वेलि' इति भाषाप्रसिद्धम् चम्पकाशोकपुन्नागाः, प्रसिद्धा एवं चूतमज्जरी, आम्र. मञ्जरी नवमालिका-नूतनमालिका बकुलः केसरः यः, स्त्रीमुखसीघुसिक्तो विकसति तत्पुष्पम् । तिलको यः स्त्रीकटाक्षनिरीक्षितो विकसति त पुष्पम्-करवीरकुन्दे प्रसिद्ध कुब्जाम् कुब इति नाम्ना वृक्षविशेषस्तत्पुष्पम् कोरण्टकं तन्नामकपीतवर्णपुष्पम् पत्राणि-मरुवक पत्रादीनि दमनकः एतैः वरसुरभिः अत्यन्तसुरभिः, तथा सुगन्धाः, शोभनचूर्णास्तेषां गन्धो यत्र स तथा भूतस्तस्य अत्र तद्धित प्रत्ययः पश्चात् विशेषणद्वयस्य कर्मधारयो बोध्यः, इदं च कुसुमनिकरस्याग्रे वक्ष्यमाणस्थेति विशेषणम् पुनः कीदृशस्य तत्राह कियग्गहगहिरयलपन्भट्टविप्पमुक्कस्स' कचगृहगृहीतकरतलपभ्रष्टविप्रपुत्तस्य, तत्र कचग्रहः केशानां ग्रहणम् गृहीतस्तथा तदनन्तरं कन्तला द्विप्रमुक्तः सन् प्रभ्रष्टस्तस्य पुनः कीदृशस्य 'दसवण्णस्स' दशाद्धवर्णस्य पञ्चवर्णस्य एवं विशेषणविशिष्टस्य 'कुसुमनिकरस्स' कुसुमनिकरस्य पुष्पसमृहस्य 'तत्थ चित्तं तत्र दीर्थकरजन्ममहोत्सवे चित्रम् अश्चर्यजनकम् 'जण्णुस्से हप्पमाणमित्तं' जानूत्सेध प्रमाणमात्रम् तत्र जान्त्सेधप्रमाणेन प्रमाणोपेतपुरुषस्य जानुं यावदुच्चत्वप्रमाणं चतुरङ्गुल चरणचतुर्विशत्यङ्गुलजङ्घयोरुञ्चत्वमीलनेन, अष्टाविंशत्यङ्गुलरूपं तेन समाना मात्रा यस्य स तथा भूतस्तम् 'ओहिनिकरं करिता' अवधिनिकरम् अवधिना मर्यादया निकरं विस्तारं कृत्वा 'चंदपभरयणवइरवेरुलिअ विमलदंड' चंन्द्रप्रभरत्नवज्रवैडूर्यविमलदण्डम्-तत्र चन्द्रप्रभाः, अशोक, पुन्नाग, चूतमञ्जरी-आमकी मञ्जरी, नवमल्लिका यकुल, तिलक, कनेर, कुन्द, कुब्जक कोरण्ट पत्र मरुवा एवं दमनक इनके श्रेष्ठ सुरभिगंधयुक्त ऐसे कुसुमों से जो हाथों से छूते ही जमीन पर गिर पडे थे एवं पांच वर्षों से युक्त थे उनकी पूजाकी उस पूजा में जानून्सेध प्रमाण पुष्पो का ऊंचा ढेर लग गया अर्थात २८ अंगुल प्रमाण पुष्पराशि रूप में वहां इकट्ठे हो गये 'जाणुस्सेह पमाणमित्तं ओहिनिकरं करेइ' इस प्रकार जानूत्सेध प्रमाण पुष्पों की ऊंची राशिको 'करित्ता चंदप्पभरयणवइरवेरुलियविमलदण्डं कंचणमणि रयणभत्ति चित्तं कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्क धूव गंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवहि वेरुलियमयं कडुच्छुयं पुन्ना, यू1 म२१, मा भारी, न भदिस, मस, Gिa४, ४४२, उन्ह, કુંજક, કરંટ, પત્ર, મર. તેમજ દમનક એ બધાના શ્રેષ્ઠ સુરભિગંધ યુક્ત એવા કુસુમે થી કે જેઓ હાથના સ્પર્શ માત્રથી જ જમીન ઉપર ખરી પડયા હતાં અને પાંચ વર્ણોથી યુક્ત હતાં–તેમની પૂજા કરી. તે પૂજામાં જોધ પ્રમાણ પુપોનો ઢગલે કર્યો. सेटले ४ २८ मine प्रमाण ०५२॥शि त्यां सत्र ४२वामा सावी. 'जाणुस्सेहपमाणमित्तं ओहिनिकरं करेइ' या प्रमाणे त्सेध प्रमाण पुष्पोनी. यी राशी ४० 'करिता चंदप्पभरयणत्र इरवेरुलियविमलदण्ड कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपयर कुदरुक्कतुरुक्कधूव गंधुत्तमाणुविद्धं च धूमवट्टि वेरुलियमयं कडुच्छुयं पग्गहइ' ०५न । ४ा पछी Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्वृद्धीपप्रज्ञप्तिसूचे चन्द्रकान्ताः रत्नानि चन्द्रकान्तादीनि वज्राणि हीरकाः वैडूर्याणि तन्नामरत्नविशेषाः, तन्मयो विमलो दण्डो यस्य स तथा भूतरतम् इदं चाग्रे वक्ष्यमाणं करुच्छुकम् इत्यस्य विशेषणम् पुन: कीदृशम् 'कंवणमणिरयणभत्तिचित्तं' काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रम् तत्र काश्चनमणिरत्नानां या, भक्तयः-रचनास्ताभिश्चित्रम् चित्रितम् पुनः कीदृशम 'कालागुरुपवर कुंदरुकतुरुकधवगंधुत्तमाणु विद्धं च कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्क धूगन्धोत्तमानुविद्धां च । तत्र कालागुरु प्रसिद्धः कृष्ण धृपः, इति कुन्दुरुकः, चीडा तुरुष्कः लोहबानिति प्रसिद्धः, सिल्हकस्तेषां गन्धोत्तमः सौरभ्योत्कृटो यो धूपः तेनानुविद्धा-मिश्रा वा इत्यर्थः, तां च, अत्र च शब्दो विशेषणसमुच्चये स च व्यवहितसम्बन्धः तेन “धूमवहि च धूमवति च धृमश्रेणिम् 'विणिम्मुअंतं' विनि मुञ्चन्तम् त्यजन्तम् 'वेरुलिअमयं' वैडूर्यमयम् केवलकैडूर्यरत्न घटितम् एवं सर्वविशेषणविशिष्टम् 'कडुच्छों व डुच्छुकं 'पग्गहित्तु' प्रगृह्य ‘पयरणं धृवं दाउण जिणवरिंदस्स' प्रयतेन यथा बालश्रेष्ठस्य तीर्थकरस्य धूपधृमाकुले-यक्षिणी नभवतस्तथा प्रयत्नेन धृपं दत्वा जिनवरेन्द्राय सूत्रे षष्टीप्राकृतखा दार्षत्वाच्च । 'सत्तटुपयाई ओसरित्ता' अङ्गपूजार्थ प्रत्यासेदृषाउपवेष्टुमिच्छता मया मनदर्शनमागों निरुद्धः, अशोहं परेपो दर्शनानपान विष्कारी नस्या. मिति ससाष्टपदानि अत्य 'दसंगु ल अंजलि करिअ भत्थर्याम्म' दशाङ्गुलिकं मस्तके पग्गह' राशिकरके फिर उसने चन्द्रकान्त, कतनादिरत्न बज्र एवं धैडूर्य इनसे जिसका विमलदण्ड बनाया गया है, तथा जिनके ऊपर कंचन मणिरत्न आदि के द्वारा नाना प्रकार के चित्रों की रचना हो रही है, काला गुरु-हरण, धूप, कुन्द्रुष्क-चोखा तुमक-लोवान-इनकी गन्धोतभ धूप से जो युक्त है तथा जिसमें से धूमकी श्रेणी निकल रही है ऐसे भूपकडच्छुस-धूपजलाने के कटाहे को जो कि वैडूर्यरत्न का बना हुआ था-लेकर के 'पयएणं ध्रुवं दाउण जिणव. रिंदस्स सत्तट्ठपयाई ओसरित्ता दसंगुलिअं अंजलिं करिअ मत्थाम्न पथओ अट्रसय विसुद्धगंशजुत्तेहिं महावित्तहिं अत्थजुत्तेहिं संथुण' घडी सावधानी के साथ धूर जलाई धूप जला करके फिर उसने जिनधरेन्द्र सी सात आठ पद आगे खिसककर दशों अंगुलिया जिसमें आपस में जुड गई हैं एसी अंजलि તેણે ચદ્રકાન્ત કતનાદિ રસન, વજ અને વૈડૂ એમનાથી ને વિમલ દંડ બનાવવામાં આવ્યો છે તેમજ જેની ઉ ૨૨ કંચન મણિરન વગેરે દ્વારા અનેક વિધ ચિત્રની રચના કરવામાં આવી છે. કલા ગુરુ, કૃષ્ણ–ધૂપ,કુદ્રુષ્ક–પીડાતુરુષ્ઠ-લેખાધ, એમના ગોત્તમ ધૂપથી તે યુક્ત છે, તેમજ જે માંથી ધૂપ-શ્રેણીઓ નીકળી રહી છે, એવા ધૂપ કહુછુકधूप सारवाना २ पेडू नयी निर्मित तो २ ‘पय धूत्रं दाऊणं जिणवरिंदस्स सत्तटुपयाई ओसरिता दसंगुलिअं अंजलिं करिअ मत्थयम्मि पओ असयविसुद्धगंधजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्थजुत्तेहिं संथुगइ ' ५५ ४ पानी पूर्व ते ५५ સળગાજો. ધૂપ સળગાવીને પછી તેણે જિન વરેન્દ્રની સાત-આઠ ડગલા આગળ વધ્ધીને Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका - पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेक निगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३९ safe कृत्वा 'ओ' प्रयतः - यथा स्थानमुदात्तादि स्वरोच्चारणेषु प्रयत्नवान् सन् 'अट्टस य विसुद्भगंथजुत्तेर्हि अष्टशतविशुद्ध ग्रन्थयुक्तैः अष्टोत्तरशतप्रमाणै विशुद्धेन ग्रन्थेन युक्तैः 'महावित्तर्हि ' महावृत्तेर्हि' महावृत्तेः महाकाव्यैः यद्वा महाचरित्रैः 'अपुणरुत्तर्हि' अपुनरुक्तैः 'अत्थ जुत्तेर्हि' अर्थयुक्तैः, चमत्कारिव्यङ्गयुक्तः, 'संथुणई' संस्तौति तस्य संस्तवनं करोति 'संधुणिसा' संस्तुत्य 'वामं जाणं अंचेइ' वामं जानुम् अञ्चति, उत्थापयति 'अचित्ता जाव ' अश्वित्वा, उत्थाप्य यावत्करणात् 'दाहिणं जाणं धरणिअलंसि निवाडेइ' दक्षिणं जानुं धरणीतले निपातयति, स्थापयति इति ग्राह्यत् ' करतलपरिहियं मत्थर अंजलि कद एवं वयासी' करतलपरिगृहीतं मस्तके अञ्चलिं कृत्वा एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत् यदवादीतदाह 'णमोत्थते सिद्ध बुद्धं इत्यादि 'णमोत्थुते सिद्धबुद्धनीरयसमणसामाहियए मत्तसमजोगि सलगत्तणणिव्भयणीरागदोसणिम्ममणि संगणीसल्लमाणमूरण गुणरयण सीलसागर मतमप्पमेय भवि धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी णमोत्थते अरहओत्ति कट्टु एवं वंदइ णमंसई' हे सिद्ध 'हेवुद्ध' ज्ञानतत्व 'ते तुभ्यं नमोऽस्तु अत्र सर्वाणिपदानि सम्बोधने बोध्यानि बनाकर और उसे मस्तक के ऊपर करके १०८ विशुद्ध पाठों से युक्त ऐसे महाकाव्यों से जो कि अर्थ युक्त थे चमत्कारिक व्यङ्गकों से युक्त थे एवं अपुनरुक्त थे स्तुति की 'संधुणित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता जाव करयल परिग्गहियं मत्थए अंजलि कह एवं व्यासी' स्तुति करके फिर उसने अपनी वायी जानुको ऊंचा किया और ऊंचा करके यावत् दोनों हाथ जोडकर मस्तक पर उन्हें अंजलिरूप में करके इस प्रकार से उसने प्रभुकी स्तुति की यहां यावत्पद से 'दाहिणं जाणु घरणियलंसि निवाडेइ' इस पाठका संग्रह हुआ है 'णमोत्थु ते सिद्ध बुद्धणीरयसमण सामाहि समत्त समजोगि सल्लगत्तण निव्भय णीरागदोसणिम्ममणि संगणी सल्लमाणमूरणगुणरयणसील सागर मणतमप्पमेय भविय धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टी णमोत्थु ते अरहओ त्ति कट्टु एवं वंदइ णमंसइ' हे દશે આંગીએ જેમાં પરસ્પર સયુક્ત થયેલી છે, એવી અંજલિ મનાવીને અને તે અંજ લિને મઢ ઉપર મૂકીને ૧૦૮ વિશુદ્ધ પાઠથી યુક્ત એવા મહા કાન્ચેથી કે જેઓ અ યુક્ત હતા, ચમત્કારી જ્ગ્યાથી યુક્ત હતા. તેમજ અપુનરુક્ત હતા તેણે સ્તુતિ કરી. 'संधुणित्ता वामं जाणु अंचेइ, अंचित्ता जात्र करयल परिग्गहियं मत्थए अंजलि कट्टु एवं વચાની” સ્તુતિ કરીને પછી તેણે પોતાના વામ જાનુને ઊંચા કર્યાં. ઉંચા કરીને યાવત્ અન્ય હાથ ડીને, મસ્તક ઉપર પેાતાના હાથોની અલિ રૂપમાં અનાવીને આ પ્રમાણે स्तुति ४री. गडी यावत् पथी ' दाहिणं जाणु धरणियलयंसि निवाडेइ' या पाठ संगृ. हीत थया छे. 'णमोत्थुते सिद्ध बुद्धणीरय समणसम हिअ समत्त समजोगि सल्लगत्तण णिव्भय णीराग दोसणिम्ममणिस्संग णीसल्लमाणमूरण गुणरयसीलसागरमणंत मप्पमेय भविय धम्मवरचा उरंतचक्कवट्टी णमोत्थुते अरहओ त्ति कट्टु एवं वंदई णमंसई' जं० ९२ 9 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूर्षे तथाहि हे नीरजाः 'कर्मरजो रहित' हे श्रमण तपस्विन् ! हे समाहित ! अनायूलचित्त ! हे समाप्त कृत कृतत्यत् यद्वा सम्यक प्रकारेण आप्त 'अविसंवादि वचनत्वात् हे समयोगिन् 'कुशलमनोवाकाययोगित्वात् हे शल्यकर्तन ! हे निर्भय हे नीरागद्वेष रागद्वेषवजित 'निर्मम ! ममतारहित हे निःसङ्गसंगवर्जित ! निलेप हे निःशल्य शल्यरक्षित हे मानमरण ! मान मर्दन ! हे गुणरत्न शील सागर 'गुणेषु रत्नम् उत्कृष्टं यच्छीलं ब्रह्मचर्यरूपं तस्य सागर' हे अनन्त, अनन्त ज्ञानात्मकत्वात् मकारोऽलाक्षणिकः, एवमग्रेऽपि हे अप्रमेय 'प्राकृतज्ञानापरिच्छेद्या सामान्य पुरुषैरज्ञातस्वरूप अशीर जीवस्वरूपस्य छद्मस्थैः परिछेत्तुपाक्यत्वात् अथवा हे अप्रमेय' भगवद् गुणानामनन्तत्वेन संख्यातुमशक्यत्वात् हे भव्य 'मुक्तिगमन योग्य' अत्यासन्न भवसिद्धित्वात् 'हे धर्मवर चातुरन्त चक्रवर्तिन्' धर्मण धर्मरूपेण वरेण प्रधानेन भावचक्रत्वात् चातुरन्तेन चतुर्णा गतीनामन्तो यस्य स चातु:न्तस्तेन चतुर्गत्यन्तकारिणा चक्रेग वर्तते इत्येवंशीलस्तस्य संबोधने हे धर्मपर चातुरन्नचक्रवर्तिन् ! नमोऽस्तुते तुभ्यम् अहं ते जगत्पूज्याय इति कृत्वा इति संस्तुत्य वन्दते नमस्यति 'बंदिशा' नमंसित्ता' वंदिखा, नमस्यित्वा 'गच्चासण्णे णाइदूरे' नात्यासन्ने नातिदरे यथोचितस्थाने 'मुस्म्समाणे जाव पज्जु -सिद्ध हे युद्ध ! हे नीरज ! कर्मरज रहित । हे श्रमण ! हे समाहित-अनाकुल. चित कृतकृत्य होने से या अविसंवादि वचनवाले होने से हे समाप्त हे सम्यक "प्रकारों से आप्त ! कुशल वाक्कायमनोयोगी होने से समयोगिन् ! हे शल्यकर्तन ! हे निर्भय ! हे नीराग द्वेष ! हे निर्म! हे निस्संग ! हे नि:शल्य ! हे मान सूरण ! मानमर्दन ! हे गुणरत्न शीलसागर ! हे अनन्त ! हे अप्रमेय ! हे भव्य-मुक्ति गमनयोग्य ! हे धर्मवीर ! चातुरन्तचक्रवतिन् ! अरिहंत आप जगस्पूज्य के लिये मेरा नमस्कार हो । इस प्रकार से स्तुति करके उसने प्रभुको वन्दना की उन्हें नमस्कार किया 'वंदित्ता नमंसित्ता पच्चासण्णे णारे सुस्प्लुस. माणे जाव पज्जुवासह वन्दना नमस्कार करके फिर वह अपने यथोचित स्थान पर धर्म सुनने की अभिलाषावाला होकर यावत् पर्युपासना करने लगा। यहां चावहे सिद्ध ! हे सुद्ध ! ॐ नी२०४ ! २०८ २हिन! 3 श्रमायु ! 3 समाल ! २५नास ચિત્ત, કૃત કૃત્ય હેવાથી અથવા અવિસંવાદિત વચનેવાળા હેવાથી, હે મા ! હે સમ્યફ પ્રકારથી આપ્ત! કુશળ વાફકાય મનેયોગી હોવાથી સમગન ! હે શયકર્તન ! हैनिमय ! -नागदेष ! B निमम ! निस्स ! 3 नि: ! भान भूरण ! હે માન મર્દન ! હે ગુણ રત્ન શીલ સાગર ! હે અનંત ! હે અપ્રમેય ! હે ભવ્ય-મુક્તિ ગમન યોગ્ય, હે ધર્મવર ! ચાતુરન્ત ચક્રવતિન ! અરિહંત! જ પૂજ્ય એવા આપને મારા નમસ્કાર છે. આ પ્રમાણે સ્તુતિ કરીને તેણે પ્રભુની વંદના કરી, પ્રભુને નમસ્કાર કર્યા. 'वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासणे णाइदृरे सुस्सूभमाणे जाव पज्जुवासइ' बन्दना तेभन नभ२५.२ ४६शन પછી તે પિતાના યથોચિત સ્થાન ઉપર ધર્મ સાંભળવાની અભિલાષાવાળો થઈને યાવત્ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D% 3D प्रकाशिका टीका- पञ्चमवक्षस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः ७३ वासइ' शुश्रूपमाणो यावत्पर्युपास्ते सोऽच्युतेन्द्रः, अत्र यावत् पदात् 'नसंसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' नमस्यन् त्रिविधया पर्युपासनयेति अशावशिष्टानामिन्द्राणां वक्तव्यं लाघवादाह ‘एवं जहा' इत्यादि एवं जहा अच्चुधस्स तहा जाब ईसाणस्य भाणियव्यं' एवम् उक्तविधिना याऽच्युतेन्द्रयाभिषेककृत्यं तथा यावत् ईशानेन्द्रस्थापि. अभिषेककृत्यं भणितव्यम् . अत्र यावत्पदात् प्राणतेन्द्र सनत्कुमादारभ्य ईशानेन्द्र पर्यन्तस्य ग्रहणम् शक्राभिषेकस्य सर्वत श्वरमत्वात् ‘एवं भवणयबाणमंतर मोइसिआ य वरपजपसाणा सएणं परिवारेणं पत्ते पत्तेअं अभिसिंचई' एवम् उतप्रकारेण भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्काश्चन्द्राश्च सूर्यपयवसानाः स्वकेन परिवारेण सह प्रत्येकमभिपिश्चन्ति, अभिषेकं कुर्वन्ति, अथावशिष्टशकेन्द्रस्पद से नर्मसमाणे तिविहाए पन्जुवालणाए' इस पाठका ग्रहण हुआ है। यहां जितने ये विशेषण बालक अवस्थापन ऋषभकुमार में प्रदर्शित किये हैं वे भव्य पथको छोडकर “माविनिभूलवतू' इस कथन के अनुसार यद्यपि उनमें आगे ऐसी अवस्था होनेवाली है वर्तमान में यह अवस्था नहीं हैं फिर भी उसकी अभिव्यक्ति हो चुकी है ऐसा मानकर उपचार-कर उनकी सार्थकता समझलेनी चाहिये अतः इस प्रकार के कथन में कोई विरोध नहीं है भावी पर्याय को भूत पर्याय मानकर लोकमें भी कथनव्यवहार देखा जाता है इस सूत्र में जो नमोऽ. स्तुपद दो बार प्रकट किया गया है वह पुनरुक्ति दोषावह नहीं हैं प्रत्युत लाघव प्रकट करता है क्योंकि हरि--इन्द्र ने यहां जितने विशेषण प्रयुक्त किये हैं उनकेसबके साथ हल पदका प्रयोग उसे करना इट है, क्योंकि उसके हृदय में भक्ति का प्रवाह उमड रहा है सो ऐलान करके जो दो बार ही नमोऽस्तु पदका प्रयोग उसने किया है वह लाघव के निमित सिद्ध हो जाता है यहां जो सात पधुपासना ४२वा वयो. मी यात् ५४थी 'नमसमाणे तिविहाए पज्जुवासणाए' मा पाठ સંગૃહીત થયેલ છે. અહીં જેટલાં વિશેષણો બાલક અવાપન્ન ષભકુમાર માટે પ્રદર્શિત ४२वामां आवे छे ते सय ५६ मा ४२ ८. 'भाविनिभूतवत् ॥ ४थन भु ले કે આગળ તોશ્રી એવી અવસ્થા પ્રાપ્ત કરશે પણ વર્તમાનમાં આ અવસ્થા નથી છતાંએ. તેની અભિવ્યક્િત થઈ ચૂકી છે. જે વું માનીને-ઉપચાર કરીને એમની સાર્થકતા સમજી લેવી જોઈએ, એટલા માટે આ પ્રકારના કથનમાં કોઈ પણ જાતને વિરોધ નથી. ભાવી પર્યાપને ભૂત પર્યાય માનીને લેકમાં પણ કથન - વ્યવહાર જોવામાં આવે છે. આ સૂત્રમાં रे 'नमोऽस्तु' ५६ मे पार माव्यु छ तेथी म पुनरुति होष थ। छ, माम मानव નહિ, પરંતુ અહીં તે લાઘવ પ્રકટ કરે છે. કેમકે હરિ-ઇન્દ્ર અહીં જેટલાં વિશેષણો પ્રયુક્ત કર્યા છે તે બધાની સાથે એ પદનો પ્રયોગ ઈષ્ટ છે કેમકે તેના હૃદયમાં ભક્તિ प्रा6 जी २वो छे. तो न ४रीने तेशे में .२ 'नमोऽस्तु' पहने। प्रयोग ध्या છે તે લાઘવ નિમિત્તે જ કર્યો છે એવું સિદ્ધ થઈ જાય છે. અહીં જે સાત-આઠ ડગલા Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्यावसरः, 'त एणं' इत्यादि 'तएणं से ईसाणे देविंदे देवराया पंचईसाणे विउव्वइ' तत् स्त्रिषष्टीन्द्राभिषेकानन्तरम् खल, ईशानो देवेन्द्रो देवराजः पञ्चशानान् विकुर्वति विकुर्वणाशक्त्या निर्माति एक ईशानः पञ्चधा भवतीत्यर्थः, तदेव विभजते 'विउवित्ता एगे' इत्यादि विउवित्ता' विकुर्वित्वा, एकः पञ्चधाभूत्वा 'एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडेणं गिण्हइ' आठ पद आगे जाना इन्द्र का कहा गया है वह 'मैं अङ्ग पूजा के निमित्त बैठकर यदि अन्य के प्रभु के दर्शन करने के मार्ग को रोकलेना हूं तो आगत लोकों के दर्शन करने रूप कार्य में मैं विघ्नकारी बन जाउंगा' इसके इस अभिप्राय को लेकर कहा गया है। अब सूत्रकार अन्य इन्द्रों के सम्बन्ध की वक्तव्यता को लाघव से प्रकट करते हुए कहते हैं 'एवंजहा अच्चुअस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणियवं, एवं भवणवइवाणमन्तर जोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएणं परिवारेणं पत्तयं २ अभिसिंचंति' जिस प्रकार इस पूर्वोक्त पद्धति के अनुसार अच्युतेन्द्र का अभिषेक कृत्य कहा गया है उसी प्रकार से प्राणतेन्द्र का यावत् ईशानेन्द्र का भी अभिषेक कृत्य कहलेना चाहिये शक के द्वारा किया गया अभिषेक कृत्य सब से अन्त में होता है इसी प्रकार से भवनपति वानव्यन्तर तथा ज्योतिष्क के इन्द्र चन्द्र सूर्य इन सब इन्द्रों ने भी अपने अपने परिवार के साथ प्रभुका अभिषेक किया 'तएणं से ईसाणे देविदें देवराया पंच ईसाणे विउव्वई' इसके बाद इशानेन्द्र ने पांच ईशानेन्द्रों की विकुर्वणा की-अर्थात् ईशानेन्द्र स्वयं पांच ईशानेन्द्र बन गया-'विउव्वित्ता एगे ईसाणे भगवं तित्थयरं करयलसंपुडे णं गिण्हइ' इनमें આગળ જવું-એવું જે ઈન્દ્ર માટે કહેવામાં આવેલું છે તે-હું અંગ પૂજા નિમિત્તે બે કાન જે પ્રભુ-દર્શન કરવા માટે આવેલા અન્ય જનેના માર્ગને અવરોધક બનીશ તો આગત લેકાના દર્શન કરવા રૂપ કાર્યમાં હું વિદનકારી થઈશ. એના એ અભિપ્રાયને લઈને જ કહેવામાં આવેલું છે. હવે સૂત્રકાર અન્ય ઈન્દ્રોના સબંધમાં લાઘવથી વક્તવ્યના પ્રકટ કરતાં કહે છેएवं जहा अच्चुअस्स तहा जोव ईसाणस्स भाणियव्वं, एवं भवणरइवाणमन्तरजोइसिआ य सूरपज्जवसाणा सएवं परिवारेणं पत्तय २ अभिसिंचंति' प्रमाणे । पूर्वात पति मुखर અચ્યતેન્દ્રના અભિષેક કૃત્ય સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ પ્રાણુતેન્દ્ર યાવત્ ઈશાનેન્દ્રનું પણ અભિષેક-કૃત્ય કહી લેવું જોઈએ શકવડે કરવામાં આવેલું અભિષેક કૃત્ય બધાના અંતમાં કહેવું જોઈએ. આ પ્રમાણે ભવનપતિ વાનયંતર તેમજ તિષ્યના ઈન્દ્ર, ચન્દ્ર, સૂર્ય એ બધા ઈન્દ્રએ પણ પોત–પતાના પરિવાર સાથે પ્રભુને અભિષેક ये. 'तएणं से ईसाणे देविंदे देवरायो पंच ईसाणे विउव्वई' त्या२ मा ४ानन्द्र पांय ઇશાનેન્દ્રોની વિફર્વણુ કરી. એટલે કે ઈશાનેન્દ્ર પિતે પાંચ ઈશાનેન્દ્રોના રૂપમાં પરિણત Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवशस्कारः सू. ११ अभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादः तत्रैक ईशानः भगवन्तं तीर्थकरं करतलसंपुटेन करतलयोः, उर्वाधो व्यवस्थित्योः संपुटं शुक्तिका संपुटमिवेत्यर्थः, तेन गृह्णाति 'गिह्नित्ता' गृहीत्वा 'सीहासणवागए पुरस्थाभिमुहे सणिसणे' सिंहासनवरगतः पौरस्त्याभिमुखः पूर्वाभिमुखः सनिषण्णः, उपविष्टवान् ‘एगे ईसाणे पिट्टओ आयक्त्तं धरेइ' एक ईशानः पृष्टतः, आतपत्र-छत्रं धरति 'दृवे ईसाणा उभो पर्सि चामरुक्खे करेंति' द्वालीशानौ उभयोः पार्श्वयोः, चामरोत्क्षेपं कुरुतः ‘एगे ईसाणे पुरो सूलपाणी चिट्ठइ' एक ईशान पुरतः शूलपाणिः शूल: पाणौ हस्ते यस्य स तथा भूतः सन् तिष्ठति 'तएणं से सके देविंदे देवराया आभियोगे देवे सदावेई' ततः, ईशानेन्द्रेण भगवतः, तिर्थकरस्य कर संपुटे ग्रहणानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, आभियोग्यान, आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयति आपति सदा वित्ता' शब्दयित्वा, आहूय 'एसो वि तहचेव आणति देइ ते वि तहचेव उवणेति' एषोऽपि शक्रः, तथैव अच्युतेन्द्रवदभिषेकविषयकामाज्ञप्तिका ददाति तेऽपि-आभियोगिकाः, देवाः, तथैव अच्युतेन्द्राभियोग्यदेवाइव, अभिषेकवस्तूनि, एक ईशानेन्द्र ने भगवान् तीर्थकर को अपने करतल संपुट द्वारा पकडा गिण्हित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे सणिसणे' और पकडकर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके सिंहासन पर बैठ गया 'एगे ईसाणे पिट्टओ आयवत्तं धरेइ, दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुखेवं करेंति' दूसरे ईशानेन्द्र ने पीछे से खडे होकर प्रभुके ऊपर छत्रताना दो इशानेन्द्रों ने दोनों ओर खडे होकर प्रभुके ऊपर चामर ढोरे 'एगे ईसाणे पुरओ मूलपागी चिट्ठइ' एक ईशानेन्द्र हाथमें शूल लेकर प्रभुके साम्हने खडा हो गधा 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया आभियोगे देवे सद्दावेइ' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपने आभियोगिक देवों को बुलाया-'सद्दा. वित्ता एसो वि तहचेव अभिसेआणत्ति दे ते वि तं चेव उवणेति' और बुलाकर इसने भी अच्युतेन्द्र की तरह उन्हें अभिषेक योग्य सामग्री लानेकी आज्ञा दी थ गये 'विउव्वित्ता एगे ईसाणे भगवतित्थयरं करयलसंपुडेगं गिण्हइ' समाथी ये शानन्द्र सावन ती ४२२ पोताना २तस सटमा 68.व्य.. गिह्नित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमूहे सष्णिसण्णे' मने 41 ॥ त२६ भुपराधःन सिहासन ५२ मेसायर्या 'एगे ईसाणे पिटुओ आयवत्तं धरेइ, दुवे ईसाणा उभओ पासिं चामरुक्खेवं करे ति' मा ४ ઈશાનેન્દ્ર પાછળ ઊભા રહીને પ્રભુ ઉપર છત્ર તાણ્યું. બે ઈશાનેન્દ્રોએ બન્ને તરફ ઊભા રહીને પ્રભુ ७५२ यम२३:५नी १२ पात ४२१. 'एो ईसाणे पुरओ सूलपाणी चिटुइ' । शानेन्द्र मां शुस न प्रभुनी सामे असे २ह्यो. 'तएणं से सक्के देदे देवराया आभियोगे देवे सदावेइ' त्यार मा देवेन्द्र १२१ श पोताना मालियो वान माराव्या-'वदावित्ता एसो वि तह चेच अभिसे आणति देइ ते वि तं चेत्र उवणे ति' म मावीन तेथे पर अच्युतेन्द्रना જેમ તે બધાને અભિષેક ગ્ય સામગ્રી એકત્ર કરવાની આજ્ઞા કરી. અયુતેન્દ્રના આભિ Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे उपनयन्ति शक्रसमीपे आनयन्ति, अथ शक्रः किं कृतवान् तत्राह 'तएणं इत्यादि' 'तएणं से सक्के देविदे देवराया भगवो तित्थयरस्स चउदिसिं चत्तारि धवलवसभे विउव्वेइ' ततः, अभिषेक सामय्युपनयनानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः भगक्तस्तीर्थकरस्य चतुर्दिशिचतुर्भागे चारो धवलवृषभान् विकुर्वति 'सेए' श्वेतान् श्वेतत्वमेव द्रढयति-'संखदलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयणणिगरप्पगासे' शंखदल विमलनिर्मलदधिधनगोक्षीरफेन. रजतनिकर प्रकाशो न तत्र शङ्खस्यदलं चूर्णम् विमलनिर्मल:-अत्यन्तस्वच्छो यो दधिधनो दधिपिण्डो रद्धं दधीत्यर्थः गोक्षीरफेनः गोदुग्धफेन:, रजतनिकरः रजतसमूहः, एतेषामिवप्रकाशो येषां तथा भूतास्तान 'पासाईए' प्रासादीयोन् मनः प्रसन्नताजनकस्यात् 'दरसणिज्जे' दर्शनीयान् दर्शनयोग्यत्वात् 'अभिरूचे पडिरूवे' अभिरूपान् प्रतिरूपांश्च मनोहारकखात् एवं भूतान् श्वेतान् वृषभान् विकुर्वणाशक्त्या निर्मातीत्यर्थः तदनन्तरं किमित्याह 'तए णं' इत्यादि 'तए णं से सिं चउण्ह धवलयसभाणं अहि सिंगेहितो अट्ठतोअधाराओ णिग्गच्छति' ततः तदनन्तरं खलु तेषां चतुर्णा धवलवृषभानाम् अष्टभ्यः शृङ्गेभ्योऽष्टौ तोय. धाराः, जलधारा निर्गच्छन्ति निःसरन्ति 'तएवं ताश्रो अद्वतोभ धाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति, अच्युतेन्द्र के आभियोगिक देवों की तरह दे शक के आभियोगिक देव समस्त अभिषेक योग्य सामग्री को लेकर आगये 'लए णं से सक्के देवि देवराया भगवओ तित्थयरसप्त चउद्दिसि चत्तारि धवलवसमे विउधइ' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक ने भगवान् तीर्यकर की चारों दिशाओं में चार श्वेत दैलों की विकुणा की 'सेए संखदलविमलदधिधणगोखीरफेगरयणणिगरप्पकासे पासाईए दरसिज्जे अभिस्वे पडिरूवे' ये चारों ही पैल शङ्ख के चूर्ग जैसे अति. निर्मल दधिके फेन जैसे, गोक्षीर जैसे, एवं रजत समूह जैसे श्वेत वर्ण के थे प्रासादीय-मनको प्रसन्न करनेवाले थे दर्शनीय-दर्शन योग्य थे अभिरूप और प्रतिरूप थे 'तएणं तेसिं चउण्हं धवलवसभाणं अट्टहिं सिंगेहितो अतोयधाराओ णिग्गच्छति' इन चारो ही धवल वृषभों के आठ सीगों से आठ जल ગિક દેવેની જેમ તે શકના આભિગિક દેવ સમસ્ત અભિષેક ચોગ્ય સામગ્રી લઈને उपस्थित थ1. 'तरणं से सक्के देवि दे देवराया भगतओ तित्ययरस्स चउदिसि चत्तारि धवलवसभे निउचई' त्या२ मा देवेन्द्र हेवा शर्ड लगवान तय ४२नी यारे ६A. जमा २ सत पसानी विक्षः ४. 'सेए संखलावेमलदधिधणगोखीरफेग, रयणः णिगरप्पकासे पाईप दरसणिज्जे अभिरूवे, पडिरूवे' २ थार १५ले मना यूए २१॥ અતિનિર્મળ દધિના ફીણ જેવા, ગે-ક્ષીર જેવા, તેમજ રજત સમૂહ જેવાં શ્વેતવર્ણ વાળ હતા. પ્રાસાદીય-મનને પ્રસન્ન કરનારા હતા, દર્શનીયદરશન યોગ્ય હતા, અભિરૂ૫ भने प्रति३५ 811. 'तएणं तेसिं चउण्हं धवल-वसभागं अद्वहिं सिंगेहि तो अद्वतोय धाराओ जिग्गच्छंति' मा या कृपलाना म अमेयी us 1 पा२, नीजी की Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पश्चमवक्षस्कारः सु. ११ अभिषेक निगमनपूर्वकमाशीषदः ७३५ ततः खलु ताः, अष्टौ - तोयधाराः, उर्ध्वं विहायसि उत्पनन्ति उर्ध्वचलन्ति ' उप्पइसा ' उत्पत्य 'एगओ मिलायंति' एकतो मिलन्ति 'मिलाइत्ता' मिलित्वा 'भगवओ तित्थयरस्स मुद्धाणंसि नित्रयति' भगवतस्तीर्थकस्य मूर्ध्नि निपतन्ति, अथ शक्रः किं कृतवान् तत्राह 'तरणं इत्यादि 'त से सके देविंदे देवराया' ततः खलु सशको देवेन्द्रो देवराजः 'चतुरासीइए सामाणि साहसी हिं' चतुरशीत्या सामानिक सहस्रैः, त्रयस्त्रिंशता त्रयस्त्रिंशकै यवित् संपरिवृत्तस्तैः, स्वाभाविक वैकु विकलशैर्महता तीर्थकराभिषेकेण अभिपिवति इत्यादि सूत्रोक्तोऽभिषेकविधिः - शक्रस्य अच्युतेन्द्रवदस्तीति लाघवमाद- 'एयसवि' इत्यादि 'एयस्य वि तदेव अभिभो भाfuroat' एतस्यापि ईशान - शक्रस्यापि तथैव, अच्युतेन्द्रवदेव अभिषेको भणितव्यः वक्तव्यः धाराएं निकल रही थीं 'तणं ताओ अट्ठतोयधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति' ये आठ जलधाराएं ऊपर आकाश की ओर जा रही थीं-उछल रहीं थी उप्पयिप्ता एगओ मिलायंति, मिलायित्ता भगवओ तित्थयरस्स मुद्वाणंसि निवयंति' और उछलकर एकत्र हो जाती थीं फिर वे मिलकर भगवान् तीर्थंकर के मस्तक ऊपर गिरती थीं । 'तणं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणि य साहस्तीहिं एयस्स वि तव अभिसेओ भाणियच्वो जाव णमोत्थूते अरहओत्ति कट्टुण . मंसई जाव पज्जुवासइ' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपने ८४ हजार सामाजिक देवों एवं तेतीस वायस्त्रिंश देवों आदि से घिरे हुए होकर उन स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों द्वारा बडे ठाटबाद से तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया तथा उस आनीत तीर्थकराभिषेक सामग्री से भी तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया, यहां पर जिस पद्धति से अच्युतेन्द्र ने तीर्थंकर प्रभुका अभिषेक किया है वैसे ही पद्धति से शक ने भी तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया यही बात 'एयस्स वि तहेव अभिसेओ भाणियच्चो' सूत्रकार ने इस सूत्र पाठ ती. 'तणं ताओ अट्ठ तोयधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति' मे माह ४ धाराओ। उ५२ साहारा तर३ ६ २ही सी-छजी रही हती. 'उपइत्ता एगओ मिलायंति मिलाइत्ता भगam facere मुद्धाणंसि निवयंति' भने उछ्जीने से यह नती हुती. पछी ते लगवान तीर्थ ४२ना भस्त४ (५२ पडती ती. 'तएण से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीहि एयरस वि तहेव अभिसेओ भाणिय्व्वो जाव णमोत्थूते अरहओत्ति कणमंसइ जाव पज्जुवासई' यार બાદ દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકે પોતાના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવે તેમજ ૩૩ ત્રાયાત્મિશ દેવા આદિથી આવૃત્ત થઈને તે સ્વાભાવિક તેમજ વિકવિત કળશેા વડે ખૂબજ ઠાડ-માઠથી તીર્થંકર પ્રભુના અભિષેક કર્યાં. તથા તે આનીત તી કરાભિષેક સામગ્રીથી પ્ણ પ્રભુના અભિષેક કર્યાં અહી જે પદ્ધતિથી અચ્યુતેન્દ્રે તી કર પ્રભુના અભિષેક કર્યાં છે તે પદ્ધતિથી શકે પણ તીર્થંકર પ્રભુના અભિષેક કર્યાં, એજ वात 'एयम्स वि तहेव अभिसेओ भाणियन्त्रो' सूत्ररे का सूत्र पाई वरे स्पष्ट हरी छे. Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्धीपप्राप्ति कियत्पर्यन्तमाह 'जाव णमोऽन्थुते अरहोत्ति कटु वंदइ णमंसद जाव पज्जुगसई' इति यावनमोऽस्तुतेऽर्हते, इति कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा यावत्पर्युपास्ते इति सूत्र संख्या-११॥ __ अथ कृतकृत्यः, शक्रो भगवतो जन्मपुरप्रयाणाय, उपक्रमते-तएणं इत्यादि मूलम्-तएणं से सक्के देविंदे देवराया पंच सक्के विउठवइ, विउ. वित्ता एगे सक्के भयवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्हइ एगे सक्के पिओ आयवत्तं धरेइ दुवे सका उभो पासिं चामरुक्खेवं करेंति एगे सक्के वजपाणी पुरओ पगडुई, तए णं से सक्के चउरासीईए सामाणिअ साहस्सीहिं जाव अण्णेहिअ भवणवइ वाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहिअ सद्धिं संपडिबुडे सव्विद्धीए जाव णाइयरवेणं ताए उकिटाए जेणेव भगवओ तित्थयरस्त जम्नणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उबागच्छइ उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ ठवित्ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरइ पडिसाहरित्ता ओलोपिडिसाहरइ पडि साहरित्ता एग महं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तिथपरस्त उस्तीसगमूले ठवेइ ठवित्ता एगं महं सिरिदामगडं तवणिज्जलंबूसगं सुशाणपयरगमंडियं णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोहिय समुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोअं सि निक्खिवइ तण्णं अगवं तित्थयरे अणिमिलाए दिट्रीए देहमाणे देहमाणे सुहं सुहेणं अभिरममाणे चिट्ठइ तएणं से सक्के देविदे देवराया द्वारा समझाई है । अभिषेक करने के बाद 'जाव णमोत्थु ते अरहओ त्ति कट्ट वंदइ णमंसइ जाव पज्जुवामइ' शक ने भी अच्युतेन्द्र की तरह प्रभुकी पूर्वोक्त सिद्धबुद्ध आदि पदों द्वारा स्तुति करते हुए उनकी वन्दना की और नमस्कार किया बाद में वह उनकी सेवा करने को भावना से अपने यथोचित स्थान पर खडा हो गया ॥११॥ मनिषे४ मा 'जात्र णमोत्थुते अरहओ त्ति कटु वदइ णमंसइ जोव पज्जुवासइ' श પણ અમ્યુકેન્દ્રની જેમ પ્રભુની પૂર્વોક્ત સિદ્ધ-બુદ્ધ આદિ પદે વડે સ્તુતિ કરતાં તેમની વંદના કરી. અને નમસ્કાર કર્યો. ત્યાર બાદ તે તેઓશ્રીની સેવા કરવાની ભાવનાથી પોતાના યાચિત સ્થાને આવીને ઊભે રહ્યો છે ૧૧ | Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कार: सु. १२ शक्रस्य भगवतो जम्मपुरप्रयाणम् NE वेस मणं देवं सहावे सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडिओ बत्तीसं सुवण्णकोडिओ बत्तीसं णंदाई बत्तीसं भाई सुभगे सुभगरूवजुवणलावण्णेअ भगवओ तित्थयरस्स जम्मण · भवसि साहराहि साहरिता एयमाणत्तियं पञ्चव्पिणाहि तरणं से वेसमणे देवे सक्केणं जाव विणणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जंभ देवे सहावे सदावित्ता एवं वयासी- खिप्यामेव भो देवाणुपिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह साहरिता एअमाणत्तिअं पच्चप्पिणह तप णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं बुता समाणा हट्टतुट्ट जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव च भगवओ तित्थयरस्त जम्मणभवणंसि साहरंति साहरिता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति तए णं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया जाव पञ्चप्पिणइ, तपणं से सक्ने देविंदे देवराया आभिओगे देवे सहावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी - खियामेव भो देवाणुपिया ! भगवओ तित्थयरस्त जम्मणणयरंसि सिंघाडग जात्र महापहपहेसु महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं बदह हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ वाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीओ अ जेणं देवाणुप्पिया ! तित्थ रस्स तित्थयरमाउए वा असुभं मणं पधारेइ तस्स णं अजगमंजरिआइव सयधर मुद्धाणं फुट्ट चिकटु घोसणं घोसेह घोसित्ता एयमाणतिअं पञ्चपिणहत्ति तपणं ते अभिओगा देवा जाव एवं देवो ति अणाए पडिसुति पडिसुणित्ता सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो अंतिआओ पडिणिक मंति पडिणिक्खमित्ता खिप्पामेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मण नगरंसि सिंघाडग जाव एवं वयासी हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ जाव जे णं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स जाव फुट्टिही तिकट्टु घोसणगं घोसंति घोसित्ता एअमाणत्तिअं पञ्चविणंति, तए णं ते बहवे भवणवइ ॐ० १३ Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे वाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा भगवओ तित्थयरस्स जम्मणमहिम करेंति करित्ता जेणेव गंदीसरदीवे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अट्टाहियाओ महामहिभाओ करेंति करित्ता शमेव दिसिं पाउभूआ तामेव दिसिं पडिगया ॥सू० १२॥ __ छाया-ततः खलु स शक्रोदेवेन्द्रो देवराजः पश्चशक्रान् विकुर्वति विकुर्विवा एकः शक्रः भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन गृह्णति एकः शक्रः, आतपत्रं धरति द्वौ शक्रौ उभयोः पार्श्वयोः चामरोतक्षेपं कुरुतः, एकः शक्रो बज्रपाणिः पुरतः प्रकर्षति ततः खलु स शक्रः चतुरशीत्या सामानिक सहर्यावदन्यैश्च भवनपति वानन्यन्तरज्योतिष्पादैमानिकः देवैर्देवीभिश्च साद्धसंपरिवृत्तः, सर्वर्या यानादितरवेण तया उत्कृष्टया यत्रैव भावतस्तीर्थङ्करस्य जनानगरं यत्रैव च जन्मभवनं यत्रै तीर्थकरमाता तत्रोपागच्छति उपागत्य भगवन्तं तीर्थङ्करं मातुः पाव स्थापयति स्थापयित्वा तीयङ्करप्रतिरूपक प्रतिसंहरति प्रतिसंहृत्य एकं महत् क्षोमयुगलं कुण्डलयुगलं च भगवतस्तीर्थङ्करस्थ उच्छीर्षकमूले स्थापयति स्थापयित्वा एकं महान्तं श्रीदामगण्डं श्रीदामकाण्ड वा तपनीयलम्बूषकं सुवर्णप्रतरकपण्डितं नानामणिरत्नविविधहारार्द्धहारोपशोभितसमुदयं भगवतस्तीर्थकरस्य उल्लोचे निक्षिपति तं खलु भगवान् तीर्थङ्करः, अनिमिषया दृष्टया पश्यन् सुखं सुखेन अभिरममाणस्तिष्टतिः ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो वैश्रमण देवं शब्दयति शब्दयिता एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिय ! द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी द्वात्रिंशतं मुवर्ण कोटी: द्वात्रिंशतं नन्दानि द्वात्रिंशतं भद्राणि सुभगानि सुभगरूप यौवन लाव ण्यानि च भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभरने संहर संहत्य एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्प य । ततः खलु वैश्रमणो देवः, शक्रेण यावत्-विनयेन वचनं प्रतिशृणोति प्रतिश्रुत्य जम्भकान देवान् शब्दयति शब्दयित्वा एव मवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! द्वात्रिशतं हिरण्यकोटीः, याव दभगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहरत संहृत्य एतामाझप्तिका प्रत्यपयत । ततः खलु ते जम्भकादेवा वैश्रमणेन देवेन एवमुक्ताः सन्तो हृष्ट तुष्ट यावक्षिप्रमेव द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी: यावत्-च भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहरन्ति संहृत्य यत्रैव वैश्रमणो देवः, तत्रैव यावत् प्रत्यर्पयति । ततः खलु स वैश्रमणो देवो यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवराजो यारत् प्रत्यर्पयति, ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, आभियोगिकान् देवान् शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! भगवतस्तीर्थंकरस्य जन्मनगरे श्रृङ्गाटक यावन्महापथपथेषु महता शब्देन उद्घोषयन्त एवं वदत हन्त ? श्रृण्वन्तु भवन्तो रहयो भवनपति वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा देव्यश्च यः खलु देवानुप्रिया ! तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातुर्वा अशुभं मनः, प्रधारयति तस्य खलु आर्यक मञ्जरिकेव शतधा मूर्द्धानं स्फुटतु इति कृत्वा घोषणं घोषयत घोषयित्वा एतामाज्ञप्तिका प्रत्यर्पयत इति । ततः खलु ते आभियोगिका देश यावत् एवं देव इति आज्ञायाः प्रतिश्रृण्वन्ति प्रतिश्रुत्य शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात् प्रति Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १२ शकस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७३९ निष्कमन्ति निष्क्रम्य क्षिप्रमेव भगवस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरेशृङ्गाटक यावत् एवमवादिषुः इन्त श्रृष्यन्तु भवन्तो बहवो भवनपति यावत् यो खलु देवानुप्रियाः तीर्थङ्करस्य यावत् स्फुटतु इति कृत्वा घोषणं घोषयन्ति घोषयित्वा एतामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयन्ति, ततः खलु ते बहवो भवनपतिवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवाः भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्ममहिमानं कुर्वन्ति कृत्वा यत्रैव सन्दीश्वर द्वीप स्लोगच्छन्ति उपागत्य अष्टाहिका महामहिमाः कुर्वन्ति यस्या मेव दिशि प्रादुर्भूतास्तस्या मेव दिशि प्रतिगताः ॥सू.१२॥ टीका-'तएणं से सके देविदे देवराया पंचसके विउव्वइ' ततः-तीर्थङ्करवन्दनाद्यनन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, पञ्चशक्रान् विकुर्वति-स एव शक्रो विकुर्वणाशक्त्या पश्चधाभवतीत्यर्थः, विउव्यित्ता' विकुर्वित्वा एकः पञ्चधा भूत्वा तेषु पञ्चमु मध्ये 'एगे सक्के भयवं. तित्य यरं करयलपुरेणं गिण्हइ' एकः शक्रो भगवन्तं तीर्थङ्करं करतलपुटेन करतलयोःउर्ध्वाधोव्यवस्थितयोः पुटम् शुक्तिका संपुटमिवेत्यर्थः, तेन करतलपुटेन गृह्णाति, 'एगे सक्के पिट्टओ आयबत्तं धरई' एकः शक्रः, तस्य शक्रस्य पृष्टत आतपत्रं छत्रं धरति 'दुवे सका उभयो पासिं चामरुक्खेवं करेंति' द्वौ शक्रौ तस्य तीर्थङ्करस्य उभयोः पार्श्वभागे चामरोत्क्षेपं चामरोत्क्षेपणं कुरुतः 'एगे सक्के वजपाणी पुरभो पगड' एकः शक्रः पुरतः वज्रपाणिः सन् वज्रःप्राणौ हस्ते यस्य स तथा धूतः प्रकर्षति अग्रे प्रवर्तते । इत्यर्थः 'तर णं से सक्के 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया पंच सक्के विउच्चइ' इत्यादि टीकार्थ-इसके बाद उस से सक्के देविंदे देवराया' देवेन्द्र देवराज शक्र ने 'पंच सो पांच शक्रों की 'विउच्चई विकुर्वणा की-अर्थात् अपने रूपको पांच शकों के रूप में परिणमा लिया इनमें से 'एगे सके भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं गिण्ड' एक शक्र स्पने भगवान् तीर्थकर को अपने करतलपुट से पकडा 'एगे सक्के पिट्टओ आरवत्तं धरेह' एक दूसरे शक रूपने उनके ऊपर पीछे खडे होकर छत्र ताना 'दूधे सर का उमओ पासिं चामरुक्षेत्र काति' दो शक्र रूपों ने दोनों ओर खडे होकर उन पर चमर ढोरे 'एगे सक्के वज्जपाणी पुरओ पगडूइ' एक शक रूपने हाथमें वन ले लिया और वह उनके समक्ष खडा हो गया 'तए णं से ___त एणं से सक्के देविंदे देवराया पंच सक्के' इत्यादि -त्यार ४ ते 'से सक्के देविंदे देवराया' हेवेन्द्र ४२२००४ शडे 'पंच सक्के' पांच शनी 'विठाई' विए। ४२१. मेटले पोताना ३५नु पांय शोना ३५मां परिमन यु. भांथी 'एरो सक्के भगवं तित्थयरं करयलपुडेगं गिण्हइ' ४ शन। ३थे भावान् तीथ ४२२ पेताना ४२६ Y341341 'एगे सक्के पिडओ आयवत्तं धरेई' मे भात ॥ ३पे ५४ मा २सीने तेमनी ५२ छत्र एयु. 'दुवे सक्का उभओ पासि चामरुक्खेवं करेंति' मे शोना ३पी साबननासन्न वासभा । २हीन तमनी ७५२ यभर ढल्या. 'एगे सक्के वज्जवाणी पुरओ पगड्ढई' ३४ ॥ ३३ Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ذواق जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र चउरासीईए सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहिअ भवणवइवाणमन्तर जोइसवेमाणिएहिं देहिं देवीहिअ सद्धिं संपडिवुडे' ततः पञ्चरूप विकुर्वणानन्तरं खलु स शक्रः चतुरशीस्या सामानिकसहस्त्रै वित् अन्यैश्च भवनपति वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकैर्देवैर्दवींभिश्व साई संपरिवृत्तः युक्तः 'सव्विद्धीए जाव णाइयरवेणं ताए उकिटाए जेणेव भगवो तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ' सर्वद्धर्या यावत् नादितरवेण तया उत्कृष्टया दिव्यया देव गत्या व्यतिव्रजन् व्यतिव्रजन् यत्रैव भगवतस्तीयङ्करस्य जन्मनगरं यत्रैव च जन्मभवनम् यत्रैव तीर्थङ्करमाता तत्रैवोपागच्छति स शक्रः, अत्र यावत्पदात् सवेधुत्या सर्वेबलेक सर्वसमुदयेन सर्वादरेण सर्वविभूत्या सर्वविभूषया सर्वसंभ्रमेण सर्वपुष्पगन्धमाल्यालङ्कारविभूषया सर्वदिव्यत्रुटितशब्दसनिनादेन महत्या ऋद्धया दुन्दुभिनिघोष इति ग्राह्यम् एषामर्थः, मूलच अस्मिन्नेव वक्षस्कारे चतुर्थसूत्रे द्रष्टव्यम् 'उवागच्छित्ता' उवागत्य 'भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ' भगवन्तं तीर्थङ्करमातुः, पार्श्व स्थापयति, 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'तित्थयपरिरूवगं पडिसाहरइ' तीर्थङ्करप्रतिरूपकं तीर्थङ्करप्रतिविम्ब प्रतिसंहरति 'पडिसाहरित्ता' सक्के चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहिं जाव अण्णेहिं अ भवणवहवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव णाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मण जयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छइ' इसके बाद वह शक ८४ हजार सामानिक देवों से एवं यावत् अन्य भवनपति वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवों से और देवियों से घिरा हुआ होकर अपनी पूर्ण ऋद्धि के साथ साथ यावत् बाजों की तुमुल ध्वनि पुरस्सर उस उत्कृष्टादि विशेषणों वाली गति से चलता हुआ जहां भगवान तीर्थ कर का जन्म नगर था और उसमें भी जहां तीर्थकर की माता थी वहां आया उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ ठवित्ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरई' वहां आकर के उसने भगवान् तीर्थंकर को माता के पास रख दिया और जो तीर्थंकर के अनुरूप दूसरा रूप बनाकर उनके पास सायमा x धार ४२२ भनी सोमे २wी. 'तएणं से सक्के चउरासीए समाणिअ साहस्सीहिं जाव अण्णेहि अ भवणवइवाणमंतर जोइस वेमाणिएहिं देवेहि देवीहिअ सद्धि संपरिवुडे सव्विड्डीए जाव णाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए जेणेव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरे जेणेव जम्मणभवणे जेणेव तित्थयरमाया तेणेव उवागच्छई' त्या२ मा ते શક્ર ૮૪ હજાર સામાનિક દેથી તેમજ યાવત્ અન્ય ભવનપતિ વાનર્થાતર તથા તિષ્ક દેથી અને દેવીએથી આવૃત થઈને પિતાની પૂર્ણ અદ્ધિની સાથે-સાથે યાવત્ વાઘોની તુમુલ ધ્વનિ પુરસ્સર તે ઉત્કૃષ્ટાદિ વિશેષણવાળી ગતિથી ચાલતે-ચાલકે જ્યાં ભગવાન તીર્થકરનું જન્મ નગર હતું અને તેમાં પણ જ્યાં તીર્થકરના માતાશ્રી હતાં ત્યાં આવ્યું. 'उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ ठवित्ता तित्थयरपडिरूवगं पडिसाहरह'त्यो Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः स. १२ शक्रस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७४१ प्रतिसंहृत्य 'ओसोवणिं पडिसाहरइ' अवस्वापिनी प्रतिसंहरति दिव्यनिद्रां प्रतिसंहतीत्यर्थः, 'पडिसाहरित्ता' प्रतिसंहृत्य 'एगं महं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवो तित्ययरस्स उस्सी. सगमूले ठवेइ' एकं महत् क्षोमयुगलं-क्षोमयोः दुकूलयोर्युगलं कुण्डलयुगलं च भगवस्तीर्थक. रस्योच्छीर्षकमूले स्थापयति स्कन्धयभागे क्षोमयुगलं तत् उपरि देशे कर्णद्वयमूले कुण्डल. युगलं च स्थायतीत्यर्थः 'ठवित्ता' स्थापयित्वा 'एग महं सिरिदामगंडं ताणिज्जलंबूसगं सुवण्णपयरगमंडियं णाणामणिरयणविविहहारद्धहार उक्सोहिअसमुदयं भगवो तित्थयरस्स उल्लोअंसि निक्खिवई' एक महान्तं श्रीदामगण्डम्-श्री दाम्नां शोभावशाद्विशिष्ट चित्ररत्नमालानां गण्डं-गोलं वृत्ताकारत्वात् इति श्री दामगण्डम्-यद्वाश्री दामगण्डम्-श्रीदामसमूह भगवतस्तीर्थङ्करस्य उल्लोचे निक्षिपति-वलम्बयति, इत्यग्रेऽन्वयः, तथा तपनीयलम्बूषकम् तत्र तपनीयलम्बूषकम् कन्दुकसदृशगोलाकारसुवर्णालङ्कारविशेषम्तम् तथा सुवर्णप्रतरकमण्डितं नानामणिरत्नहारार्द्धहारोपशोभितसमुदयम् नानामणिरत्नानां हाराः, अर्द्धहाराश्च तैरुपशोभितः समुदयः, परिकरो यस्य स तथा भूतस्तं भगवतस्तीर्थकरस्योल्लोचे नि:क्षिपति इति-अयमर्यः, श्रीमत्योरत्नमालास्तथाग्नथयित्वा गोलाकारेण कृता यथा चन्द्रगोपके मध्य. रख दिया था उसे प्रति संहरित कर दिया मिटादिया-संकुचित करलिया 'साहसाहरित्ता ओसोवाणिं पडिसाहरह, पडिसाहरित्ता एगं महं खोमजुअलं कुंडलजुभलं च भगवओ तित्थयरस्स उस्सीसगमूले ठवेइ ठवित्सा एगं महं सिरिदामगंडं तवणिज्जलंबूसगं सुवण्णपयरगमंडिअं णाणा मणिरयणविविह. हारद्धहार उवसोभिअसमुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोयंसि जिक्खमई' जिन प्रतिकृति को प्रतिसंहरित करके माता के निद्रा को भी प्रतिसंहरित कर दिया निद्रा को प्रतिसंहरित करके फिर उसने भगवान् तीर्थकर के शिरहाने-पर एक बड़ा क्षोमयुगल और कुण्डलयुगल रख दिया इन्हें रखकर फिर उसने एक श्री दामगण्ड या श्री दामकाण्ड जो कि तपनीयसुवर्ण के झुमनक से આવીને તેણે ભગવાન તીર્થકરને માતાની પાસે મૂકી દીધા અને જે તીર્થકરના અનુરૂપ બીજુ રૂપ બનાવીને તેમની પાસે મૂક્યૂ હતું તેનું પ્રતિસંહરણ કરી सीधु-भी टीधु-तेनु सध्यन ४१ सी. 'पडिसाहरित्ता ओसोवणि पडिसाहरह पडिसाहरित्ता एगं महं खोमजुअलं कुंडलजुअलंच भगवओ तित्थयरस्स उस्सीसगमले ठवेइ ठवित्ता एगं महं सिरिदामगंडं तवणिज्जलं सगं सुवण्णपयरगमंडिअं णाणा मणि. रयणविविहहारद्धहारउवसोभिअसमुदयं भगवओ तित्थयरस्स उल्लोसि णिखमई' Cra પ્રતિકૃતિને પ્રતિસંહરિત કરીને માતાની નિદ્રાને પણ પ્રતિસંહરિત કરી દીધી. નિદ્રાને પ્રતિસંહરિત કરીને પછી તેણે ભગવાન તીકરના એશિકા તરફ એક શોમ યુગલ અને કુંડળ યુગલ મૂકી દીધાં. ત્યાર બાદ તેણે એક શ્રી દામચંડ અથવા શ્રી દામ કાંડ કે જે તપનીય સુવર્ણના ગુમનકથી એટલે કે ઝુનઝુનાથી યુક્ત હતું સુવર્ણના વથી Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे झुम्बनतां प्रापिताः हारहाराश्च परिकर झुम्मनकता प्रापिता इति 'तणं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए विट्ठीर देहमाणे देहमाणे मुहं सुहेणं भिरममाणे२ चिट्टइ' तं पूर्वोक्तं खलु भगवान् तीर्थङ्करः, अनिमिषया निनिमिषया दृष्टया अत्यादरपूर्वकदृष्टया पश्यन् पश्यन् प्रेक्षमाणः प्रेक्षमाणः, सुखं सुखेन अभिरमपाणः:-रवि कुस्तिष्ठति 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया वेसमणं देवं सदावेइ ततः तदनन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजो वैश्रवणम्-उत्तर दिक्पालं देवं शब्दयति आह्वयति 'सदावित्ता' शब्दयित्वा, आहूय एवं वयासी' एवम् उक्तप्रकारेण - अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान्-तत्राइ 'सिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव भो देवानुप्रिय ! 'बत्तीसं हिरण्यकोडीओ बत्तीसं सुवण कोडीओ. वत्तीसं गंदाई वत्तीसं भदाई सुमगे सुभगरूबजुव्बणलावण्णेअ भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहराहि' द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटीः, रजतकोटीः, द्वात्रिंशतं मुवर्णकोटीः द्वात्रिंशतं नन्दानि वृत्त लोहासनानि द्वात्रिंशतम् भवाणि भद्रासनानि सुभगानि शोभनानि सुभगरूप. अर्थात् झुनझुने से युक्त था सुवर्ण के बरकों से मण्डित था एवं अनेक मणियों तथा रत्नों से निर्मित विविध हारों से अर्धारों से उपशोभिल समुदायवाला था उसे भगवान् तोथैकर के ऊपर तने हुए चंदोवा में लटका दिया 'तपणं भगवं तित्थयरे अणिमिसाए दिडीए देहमागे २ सुहं सुहेणं आमरममाणे २ चिट्टइ' भगवान् तीर्थकर इस झुम्बनक युक्त श्री दासगण्ड को अनिनिय दृष्टि से देखते देखते सुखपूर्वक आनन्द के साथ खेलते रहते 'तएणं से सक्के देविंदे देवराया वेसमणं देवं सद्दावेइ' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक ने श्रमण कुबेरको बुलाया सदायित्ता एवं वयासी' और बुलाकर के उसले ऐसा कहा-'खिप्पामेष भो देवाणुप्पिआ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ बत्तीसं सुषणकोडीओ बत्तीसं भद्दाई सुसगे सुभगरूबवणलावण्णे अ भगओतित्थयरस्स जम्मणभवमंसि साहराहि' हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही ३२ हिरण्यकोटियों को, ३२ सुवर्णको મડિત હતું એવું અનેક મણિએથી તેમજ રત્નથી નિર્મિત વિવિધ હાથી, અર્થહરોથી, ઉ શભિત સમુદાય યુક્ત હતું તેને ભગવાન તીર્થકરની ઉપર તાણવામાં આવેલા ચંદરपामा सटी दी. 'तण्णं भगवं तित्थयरे अनिमिसाए दिदीए देहमाणे २ सुहं सुहेणं अभिरममाणे २ चिदई' भवान् ती ४२ ते अपन४ युत श्रीमने मानिमिष रथी नेता-तां सुप ५०४ान साथै २मता रखता. 'तषणं से सक्के देदे देवराया वेसमा देवे सदावेइ' त्या२ मा हेवेन्द्र १२:४१. म मेरो मामाच्य.. 'सदा वित्ता एवं वयासी' मन मेसीन तेन ॥ प्रमाणे हो-'खियामेत्र भो देवाणुप्पिआ बतीसं हिरण्णकोडीओ बत्तीस सुदण्णकोडीओ बतीसं भदाई सुभगे सुभगरजुव्वणलावण्णे अ भगवो तित्ययरस्स जम्मणभवणंसि साहरा ह' 3 देवानुप्रिय! तमे ' 3२ ६२५५३॥2એને, કર સુવર્ણ કટિઓને, ૩૨ નન્દને–વૃત હાસને તેમજ ૩૨ ભદ્રાસને કે Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४३ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः रु. १२ शक्रस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् यौवनलावण्यानि च सुभगयौवनलावण्यानि रूपाणि यत्र तानि तथाभूतानि पदव्यत्यय आषत्वात् च, समुच्चये भगवतः तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहर आनयेत्यर्थः 'साहरित्ता' संहृत्य आनीय 'एयमाणत्ति पच्चप्पिणाहि' एतामाज्ञप्तिका मदीयायां प्रत्यर्पय । समर्पय 'तएणं से वेसमणे देवे सक्के णं जाब विणएणं वयणं पडिमुणेइ' ततः खलु स वैश्रवणो देव: शक्रेण यावद्विनयेन वचनं प्रतिश्रृणोति स्वीकरोति अत्र यावत्पदात् 'देविदेणं देवरण्णा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ट चित्तमाणं दिए एवं देवो तहत्ति आणाए' देवेन्द्रेण देवराजेन एवमुक्तः सन् हृष्ट तुष्ट चित्तानन्दितः, एवं देव तथाऽस्तु आज्ञाया इति ग्राह्यम् । 'पडि मुणित्ता' प्रतिश्रुत्य, स्वीकृत्य 'जभएदेवे सदावेइ' जम्भकान देवान् तिर्यग्लोके वैताढय द्वितीय श्रेणिवासित्वेन तिर्यग्लोकगत निधानादिवेदिनः, शब्दयति, आयति 'सहावित्ता' शब्दयित्वा, आहूय 'एवं वयासी' एनम् उक्तप्रकारेण, अवादीतू उक्तवान् स वैश्रमणः किमुक्तवान् तत्राह 'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया !' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः ! वत्तीसं हिरण कोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरह' द्वात्रिंशतं टियों को, ३२ नन्दों को वृत्त लोहासनों को, एवं ३२ भद्रासनों कों, कि जिनका रूप बडा सुन्दर चमकीला हो भगवान् तीर्थंकर के जन्म भवन में लाओस्थापित करो एवं इन सबकी स्थापना करके फिर मेरी आज्ञाकी पूर्ति हो जानेकी खबर मुझे दो 'तएणं से वेसरणे देते स केणं जाव विणएणं वयणं पडिसुणेइ पडिमुणिन्ता भए देवे सद्दावेइ सदायित्ता एवं वयासि खिप्पामेव भो देवाणुपिया! बत्तीसं हिरण कोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि बलाहरइ'जब शक ने वैश्रमण से ऐसा कहा-तब वह वैश्रमण बहुत अधिक जानंदित चित्तवान् हुआ और विनय के साथ उसने अपने स्वामी के वचनों को स्वीकार कर लिया इसके बाद उसने जम्भक देवों को बुलाया और उसने ऐसा कहा कि हे देवानुप्रियो ! तुम ३२ हिरण्य कोटियों को यावत् भगवान् तीर्थकर के जन्मभवन में पहचाओ यहां यावत्पद से 'देविदेणं देवरण्णा જેઓ અતોવ સુંદર અને ચમકતા હોય, ભગવાન તીર્થકરના જન્મભવનમાં હા-સ્થાપિત કરે. અને એ સર્વની સ્થાપના કરીને પછી આજ્ઞા પૂરી કરવામાં આવી છે એની મને AR२ पापी. 'तएणं से वेसमणे देवे सक्केणं जाव विणएणं क्यणं पडिसुणेह पडिसुणित्ता भए देवे सदावेइ सद्दावेत्ता एवं धयासि खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणं साहरह' ब्यारे श वैश्रभरने २ प्रमाणे धुं त्यारे તે વૈજણ ખૂબજ અધિક આનંદિત ચિત્તવાળો થશે અને વિનય પૂર્વક તેણે પિતાના સ્વામીની આજ્ઞાને-સ્વીકાર કરી લીધી. ત્યાર બાદ તેણે જીભ ને લાવ્યા અને તે દેવેને તેણે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનું પ્રિયે! તમે ૩૨ હિરણ્ય કોટિને યાવત भगवान ताय ४२ना म मनमा भूी है. मी यात् ५४थी 'देवि देणं देवरण्णा एवं , Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असूखीपप्रतिर हिरण्यकोटीर्यावद् भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहरत आनयत अत्र यावत्पदात् द्वात्रिंशतं सुवर्णकोटी द्वात्रिंशतं नन्दानि द्वात्रिंशतं भद्राणि सुभगानि सुभगरूपयौवनलावण्यानि इति ग्राह्यम्, एषामर्थः, अनन्तरोक्तरीत्या बोध्यः 'साह रित्ता' 'संहृत्य, आनीय 'एयमाणत्तिय पच्चप्पिणह' एतामाज्ञप्तिको प्रत्यर्पयत समर्पयत । 'तएणं ते जंभगा देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हहतुट्ठ जाव खिप्पामेव बत्तीसं हिरण कोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति' सतः वैश्रमणस्याज्ञानन्तरं खलु ते ज़म्भका देवा वैश्रवणेन देवेन एवम् उक्तप्रकारेण उक्ताः, आदिष्टाः सन्तो हृष्ट तुष्ट यावत् क्षिप्रमेव द्वात्रिंशतं हिरण्यकोटी यावद् च भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मभवने संहरन्ति, आनयन्ति, अत्र प्रथमयावत्पदात् चित्तानन्दिताः, प्रीतिमनसः, परमसौमनस्यिता, हर्षवश विसर्पद् हृदया इति ग्राह्यम् द्वितीय यावत्पदात् च द्वात्रिंशतं सुवर्णकोटीः द्वात्रिंशतं नन्दानि द्वात्रिंशतं भद्राणि सुभगानि सुभगयौवनलाव. ण्यरूपाणि चेतिग्राह्यम् 'साहरित्ता' संहृत्य, आनीय 'जेणेव वेसमणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति' यत्रैव वैश्रमणो देवस्तत्रैव यावत्प्रत्यर्पयन्ति समर्पयन्ति ते जम्भका देवाः, अत्र याव. त्पदात् तत्रैव, उपागच्छन्ति, उपागत्य वैश्रमणाय उक्तप्रकारामाज्ञाप्तकामिति ग्राह्यम् 'तएणं से एवं वुत्ते समाणे हतुट्ट चित्त माणदिए एवं देवो तहत्ति आणास' इस पाठका संग्रह हुआ है 'साहरित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणह' पहुंचाकर फिर हमें खबर दो 'तएणं ते जंभया देवा वेसमणेणं देवेणं एवंवुत्ता समाणा हतुह जाव खिप्पामेव हिरण कोडीओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहरंति' इसके बाद वैश्रमण द्वारा कहे गये वे जभक देव बहुत ही अधिक हर्षित एवं संतुष्ट चित्त हुए और यावत् उन्हों ने बहुत शीघ्र ३२ हिरण्य कोटियों आदिकों को भगवान् तीर्थंकर के जन्मभवन में पहुंचा दिया 'साहरित्ता जेणेव वे समणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति' पहुंचा देने के बाद फिर वे जहां वैश्रमण देव थे वहां गये और वहां जाकर उन्हों ने इसकी खबर उन्हें दी 'तएणं से वेस माणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया जाव पच्चप्पिणई' तदनन्तर वह वैश्रमण वुत्त समाणे हतुटु चित्तमाणदिए एवं देवो तहत्ति आणाए' मा पा सकी थयोछ. 'साहरित्ता एयमाणत्तियं पच्चाप्पणह' पांयाउया पछी अभने ते समधी ५५२ मा 'त एणं ते जंभया देवा वेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट तु जोव खिप्पामेव हिरण्णकोडी. ओ जाव भगवओ तित्थयरस्स जम्मणभवणंसि साहति' पा२ मा वैश्रम 3 उपामां આવેલા તે અંભક દેવે બહુજ અધિક હર્ષિત તેમજ સંતુષ્ટ ચિત્તવાળા થયા અને યાવત્ તેમણે બહુજ શીધ્ર ૩૨ હિરણ્ય કોટિઓ વગેરેને ભગવાન તીર્થકરના જમ ભવનમાં स्थापित ४. 'साहरित्ता जेणेव वेसमणे देवे तेणेव जाव पच्चप्पिणंति' पडांच्या पछी ते જ્યાં વૈશ્રમણ દેવ હતાં ત્યાં ગયા અને ત્યાં જઈને તેમણે તે અંગેની તેમને ખબર આપી. 'तएणं से वेसमणे देवे जेणेव सक्के देविंदे देवराया जाव पच्चप्पिणइ' तत्पश्चात् ते ३श्रभy Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. १२ शक्रस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ___७४५ वेसमणे देवे जेणेव सरके देविंदे देवराया जाव पच्चप्पिणइ' ततः खलु तदनन्तरं किल स वैश्रमणो देवो यत्रैव शक्रो देवेन्द्रो देवराजो यावत्प्रत्यर्पयति समर्पयति, अत्रापि यावत्पदात् तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य शक्राय उक्त प्रकारिकामाज्ञप्तिकामिति ग्राह्यम् । अथ अस्मासु स्वस्थान प्राप्तेषु निःसौन्दर्या सौन्दर्याधिके भगवति तीर्थङ्करे मा दुष्टा दुष्टदृष्टिं निःक्षिपन्तु, इति, तदुपायार्थ माह 'तएणं' इत्यादि 'तएणं से सके देविंदे देवराया अभियोगे देवे सदावेइ' ततः वैश्रमणेनाज्ञा प्रत्यर्पणानन्तरं खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराजः, आभियोगिकान् आज्ञाकारिणो देवान शब्दयति, आह्वयति 'सदावित्ता' शब्दयित्वा; आहूय, 'एवं वयासी' एवम् वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् उक्तवान् किमुक्तवान् तत्राह 'खिप्पामेव' इत्यादि 'खिप्पामेव भो देवानुप्पिया!' क्षिप्रमेव शीघ्रातिशीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः भगवओ तित्ययरस्स जम्मण णयरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु महया-महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्योसेमाणा एवं वदह' भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरे शङ्गाटकयावन्महापथपथेषु महता महता, विपुलेन विपुलेन शब्देन, उदोषयन्तः उद्घोषयन्तः, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण-बूत अत्र यावत्पदात् त्रिक चतुष्कचत्वरेति ग्राह्यम् । किं ब्रूत तत्राह-'हंदि सुगंतु भवतो बहवे भवणवइवाणमंतर जोइस वेमाणिया देवा य देवीओष जेणं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊएवा असुभं मणं पधारेइ' हन्त ! श्रृण्वन्तु भवन्तो बहवो वानव्यन्तर ज्योतिष् कवैमानिकादेवाश्च देव्यश्च देव जहां पर देवेन्द्र देवराज शक्र विराजमान था वहां पर जाकर उसे खबर करदी 'तएणं से देविंदे देवराया सक्के आभिओगे देवे सदावेइ' इसके अनन्तर उस देवेन्द्र देवराज शक ने आभियोगिक देवों को बुलाया-'सदावित्ता एवं वयासी' और बुलाकर उनसे ऐसा कहा-विप्पामेवभो देवाणुप्पिया! भगवओ तित्थपरस्स जम्मणणथरंसि सिंघाडग जाव महापहपहेसु मया २ सद्देणं उग्घो. सेमाणा २ एवं वदह हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही भगवान तीर्थंकर के जन्मनगर में जो शृङ्गाटक आदि महापथ पथ हैं उनमें जाकर जोर २ से घोषणा करते करते ऐसा कहो. यहाँ यावस्पद से 'त्रिक, चतुष्क और चत्वर' इन मागोंका ग्रहण हुआ है 'हंदि सुगंतु भवतो वह भगवइवागमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीओ દેવ ક્યાં દેવેન્દ્ર દેવરાજ બિરાજમાન હતા ત્યાં આવીને તેમને કાર્ય પૂર્ણ કર્યાની ખબર આપી. 'त एणं से देरि दे देवराया सरके अभिओगे देवे सहावेइ' त्यार माह ते हेवेन्द्र १२:०४ शई माभियोग दुवाने मोसाव्या. 'सदावित्ता एवं वयासी' भने मसावीनतमने का प्रमाणे , 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भगवओ तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव महापहप हेसु महया २ सदेणं उग्घोसेमाणा २ एवं वदह' 3 आनुप्रिये ! तमे शीर ભગવાન તીર્થકરના જન્મનગરમાં જે શૃંગાટક વગેરે મહાપ છે ત્યાં જઈને જેર–શેરથી घोषणा ४२ ॥ प्रभारी ४31-मही यावत ५४थी 'त्रिक, चतुष्क मने चत्वर' ये भी गृहीत यया छ. 'हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ वाणमंतरजोइसवेमाणिय देवाय देवीओ ज. ९४ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे देवानुप्रियाः । इति सम्बोधनम् तथा च हे देवानुप्रियाः ! भवतां मध्ये यः खलु अनिर्दिष्ट नामा तीर्थङ्करस्य तीर्थङ्करमातु र्वोपरि अशुभं मनः, प्रधारयति दुष्टं संकल्पयति 'तस्' अज्जगमंजरिआ इव सयधा मुद्धाणं फुट्टउत्तिकट्टु घोसणं घोसेह' तस्य खलु अशुभं मनः प्रधारयतः आर्यकमञ्जरिकेत्र आर्यको नाम वनस्पति विशेषः यः 'आजओ' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्य मञ्जरित्रेव मूर्द्धा शतधा स्फुटतु इति कृत्वा इत्युक्त्वा घोषणां घोषयत उद्घोषणां कुरुत 'घोसित्ता' घोषयित्वा 'एयमाणत्तिअं पच्चष्पिणह' ति एता माज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत इति 'तं ते अभियोगा देवा जाव एवं देवोत्ति आणाए पडिसुणंति' ततः खलु ते आभियोगिकाः देवाः, जाव एवं देव तथाऽस्तु इति कथयित्वा आज्ञायाः, वचनं प्रतिशृण्वन्ति स्वीकुर्वन्ति अत्र यावत्पदात् हृष्टतुष्ट चित्तानन्दिताः प्रीतिमनसः परमसौमस्थिताः हर्षवशविसर्पददयाः, इति ग्राह्यम् 'पडिणित्ता' प्रतिश्रुत्य स्वीकृत्य 'सकस्स देविंदस्स य जेणं देवाणुपिया तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेह तस्स णं अज्जगमंजरियाइव मुद्धाणं फुदृउत्ति कट्टु घोसणं घोसेह' आप सब भवनपति वानव्यन्तरज्योतिष्क और वैमानिक देव और देवियों सुनों कि जो देवानुप्रिय ! तीर्थकर या तीर्थंकर माता के सम्बन्ध में अशुभ संकल्प करेगा उसका मस्तक - आर्यक वनस्पति विशेष की मंजरिका की तरह सौ सौ टुकडे रूपमें हो जावेगा ऐसी 'घोसित्ता एयमाणत्तियं पच्चविणहत्ति' घोषणा करके फिर मुझे खबर दो 'तए णं से आभिओगा देवा जाव एवं देवोति आणाए पडिसुणति' इस प्रकार से शक्र के द्वारा कहे गये उन आभियोगिक देवों ने उसकी आज्ञाको हे स्वामिन् ! ऐसा ही घोषणा हम करेंगे इस प्रकार कहकर उसकी आज्ञाको स्वीकार कर लिया यहां यावत्पद से 'हृष्ट तुष्ट चित्तानंदिताः प्रीतिमनसः परम सौमनस्थिता हर्षवशविसर्पद्ह्रदया:' इस पाठका संग्रह हुआ है 'पडिणित्ता सक्करस देविंदस्स देवरण्णो अंतियाओ पडिणिक्कमंति' अपने स्वामी देवेन्द्र य जेणं देवाणुपिया तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुमं मणं पधारेइ तस्सणं अंज्जगमंजरिया इव मुद्वाणं फुट्टत्ति कट्टु घोसणं घोसेह' तमे अधां लवनपति वानव्यांतर, न्ये तिष्ठ અને વૈમાનિક દેવ અને દેવીએ સાંભળે કે જે ઢવાદુપ્રિય તીથકર કે તીર્થંકરના માતાના સંબંધમાં અશુભ સૌંકલ્પ કરશે તેનુ મસ્તક આક વનસ્પતિ વિશેષની મજરિहानी प्रेम सो-सो उडाना ३५भां यह नशे मेवी 'घोसेत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणहत्ति' घोषणा भने पछी भने भर आयो 'तपणं से आभिओगा देवा जाव एवं देवोत्ति आणाए पडिसुणंति' या प्रमाणे शडे वडे आज्ञप्त थयेला ते मालियोगिङ देवासे तेनी આજ્ઞાને હૈ સ્વામિન્! એવી જ ઘાષણા અમે કરીશું. આ પ્રમાણે કાઁને તેની આજ્ઞા भानी सीधी. अडीं यावत् पहथी 'हृष्ट तुष्टा चित्तानंदिताः श्रीतिमनसः परमसौमनस्थिता हर्षवशविसर्पद हृदया: ' या पाठ संगृहीत थयो छे. 'पडिसुणित्ता सक्करस देविंदस्स देवरणो अंतियाओ पडिणिक्खमंति' पोताना स्वाभी देवेन्द्र देवराम शनी भाज्ञानी स्त्रीार हरीने पछी Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चवक्षस्कारः स. १२ शक्रस्य भगवतो जन्मपुरप्रयाणम् ७४७ देवरण्णो अंतिआओ पडिणिक्खमंति' शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य अन्तिकात समीपात् प्रतिनिष्क्रामति गच्छन्ति 'पडिणिक्खमित्ता' प्रतिनिष्क्रम्य 'खिप्पामेव भगवो तित्थयरस्स जम्मण णगरंसि सिंघाडग जाव एवं वयासी' क्षिप्रमेव भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्मनगरे शृङ्गाटक यावत् एवम् उक्त कारेण अवादिषुः, उक्तवन्तः, अत्र यावत्पदात् त्रिकचतुष्क चवरमहापथपथेषु इति ग्राह्यम् किमुक्तवन्तस्तत्राह-'हंदि सुगंतु' इत्यादि 'हंदि सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइ जाव जेणं देवाणुप्पिया!' हन्त ! श्रृप्यन्तु भवन्तो बहवो भवनपति यावत् यः खलु हे देवानु प्रियाः ! भवतां मध्ये 'तित्थयरस्स जान फुटउत्तिकट्टु घोसणगं घोसंति, तीर्थङ्करस्य यावत् स्फुटतु-इति कृत्वा, इत्युक्त्वा घोषणं घोषन्ति अत्र यवत्पदात् तीर्थङ्करमातु वोपरि अशुभं मनः प्रधारयति दुष्टं संकल्पयति तस्य आर्यकमञ्जरिकेवमूर्द्धा शतधा इति ग्राह्यम् 'घोसित्ता' घोषयित्वा 'एभमाणत्ति पच्चप्पिगंति' एताम् शक्रेण निर्दिष्टाम् आज्ञप्तिका शक्राय प्रत्यर्पयन्ति समर्पयन्ति ते-अभियोगिका देवाः 'तपणं' ततः, अभियोगिक देवेदेवराज शक्र की आज्ञा को स्वीकार करके फिर वे उसके पास से वापिस चले आये 'पडिणिक्खमित्ता खिप्पामेव भगवओ तिथपरस्स जम्नणणयरंसि सिंघा. डग जाव एवं वयासी-हंदि सुगंतु भयंतो बहवे भवणवइ जाव जेणं देवाणुप्पिया! तित्थयरस्स जाव फुहीति कह घोसणां घोसंति' आकर वे फिर बहुत ही जल्दी भगवानू तीर्थंकर के जन्मनगरस्थ शृङ्गाटक, त्रिक चतुष्क आदि मार्गों पर आगये और वहां पर इस प्रकार की घोषणा करनेलगे-आप सब भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव एवं देवियां सुनिये जो कोई तीर्थकर या तीर्थकर की माता के सम्बन्ध में दुष्ट संकल्प करेगा उसका मस्तक आजओ नामक वनस्पति विशेष की मंजरिका के जैसा सौ २ टुकडेवाला हो जायगा 'घोसित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणंति' इस प्रकार की घोषणा करके फिर उन्हों ने इसकी गई घोषणा की खबर अपने स्वामी देवेन्द्र देवराज शक्र के पास तम्मा त्यांशी भारता रहा. 'पडिणिक्खमित्ता खिप्पामेव भगवओ तित्थययरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव एवं वयासी-हंदि सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइ जाव जणं देवाणुप्पिया! तित्थयररस जाव फुट्टहीति कद घोसणगं घोसंति' मावी२५छी मती शीलवान्तीयકરના જન્મ નગર સ્થાન ગંગાટક, ત્રિક, ચતુષ્ક વગેરે માર્ગો ઉપર તેઓ પહોંચી ગયા અને ત્યાં આ જાતની ઘોષણા કરવા લાગ્યા-આપ સર્વ ભવનપતિ, વાનવ્યંતર, તિક અને વૈમાનિક દેવ તેમજ દેવીઓ સાંભળે. જે કોઈ તીર્થકર કે તીર્થકરના માતાના સંબંધમાં દુષ્ટ સંકલપ કરશે. તેનું માથું આજ નામક વનસ્પતિ વિશેષની મંજરિકાની म से-से। ४४ा थ शे. 'घोसित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणंति' बनतना घोष। કરીને પછી તેમણે આ ઘોષણા થઈ ગઈ છે, એવી સૂચના સ્વામી દેવેન્દ્ર દેવરાજ શક્રની पास भzil. 'त एणं ते बहवे भवणवइवाणमंतर जोइस वेमाणिया देवा भगवओ तित्थयर। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ जम्बूद्वीपप्रतिसूत्र रुक्तविषयप्रत्यर्पणानन्तरं खलु ‘ते वहवे भवणवइ वाणमंतर जोइसवेमाणिया देवा भगवो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करोति' ते बहवो भवनपति वानव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिकादेवाः, भगवतस्तीर्थङ्करस्य जन्ममहिमानं कुर्वन्ति 'करित्ता' जेणेव णंदीसर दीवे तेणेव ‘उवागच्छंति' यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति 'उवागच्छित्ता' उपागत्य 'अट्टाहिया भो महामहिमाओ करेंति' अष्टान्हिका महामहिमाः अष्टदिन निर्वत्तीयोत्सव विशेषान् कुर्वन्ति बहु वचनंचात्र सौधर्मेन्द्रादिभिः प्रत्येक क्रियमाणत्वात् 'करित्ता' कृत्वा जामेव दिसि पाउन्भूआ तामेव दिसि पडिगया' यस्यामेवदिशि प्रादुर्भताः, तस्या मेव प्रतिगताः, ते देवाः॥सू० १२॥ इतिश्री विश्वविख्यात-जगवल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्री-शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य-पदविभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बाल ब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-व्रतिविरचितायां श्री जम्बूद्वीपसूत्रस्य प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां पञ्चमबक्षस्कारः समाप्तम् ।।५॥ भेज दी 'तएणं ते बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा भगवो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करें ति, करित्ता जेणेव णंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति' इसके बाद उन सब भवनपति वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों ने भगवान् तीर्थंकर के जन्मकी महिमा की जन्मकी महिमा करके फिर वे जहां पर नन्दीश्वर द्वीप था वहां पर आये "उवागच्छित्ता अट्ठाहियाओ महामहिमाओ करे ति करित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूआ तामेव दिसिं पडिगया, वहां आकरके उन्हों ने अष्टान्हिका महोत्सव किया यहां बहुवचन के प्रयोग से सौधर्मेन्द्रादिकों ने सबने यह महामाहोत्सव किया यह सूचित होता है फिर वे जहां से आये थे वही पर वापिस चले गये ॥१२॥ श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालबतिविरचित जम्बूद्वीपसूत्र की प्रकाशिका व्याख्या में पंचमवक्षस्कार समाप्त ॥५॥ स्स जम्मणमहिमं करें ति, करित्ता जेणेव गंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति' त्या२ मा त બધા ભવનપતિ વાનવંતર જતિષ્ક તેમજ વૈમાનિક દેએ ભગવાન્ તીર્થકરના જન્મને મહિમા કર્યો. જન્મને મહિમા કરીને પછી તેઓ જ્યાં નંદીશ્વર દ્વીપ હતું, ત્યાં આવ્યા. 'उवागच्छित्ता अढाहियाओ महामहिमाओ करेंति, करिना जामेव दिसिं पाउब्भुआ तामेव दिसि पडिगया' त्या वीन तम भटाह्निता भडास स५.न . ही म. વચનના પ્રયોગથી સૌધર્મેન્દ્રાદિક સર્વેએ મળીને આ મહોત્સવ કર્યો, આમ સૂચિત થાય છે. પછી તેઓ જ્યાંથી આવ્યા હતા, ત્યાં જ પાછા જતા રહ્યા. ૧૨ છે શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલ વતિવિરચિત જરબૂદ્વીપ સૂત્રની પ્રકાશિકા વ્યાખ્યાને પાંચમે વક્ષસ્કાર સમાસ, ૫ છે Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. १ जम्बूद्वीपचरमप्रदेशस्वरूपनिरूपणम् षष्ठोवक्षस्कारः प्रारभ्यते इतः पूर्व जम्बूद्वीपान्तर्वर्तिवस्तु स्वरूपं पृष्टं सम्प्रति जम्बूद्वीपस्यैव चरमप्र देशस्वरूपं प्रश्नयन ह-'जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा' इत्यादि, __ मूलम्-जंबुदीवस्त णं भंते ! दीवस्त पएसा लवणसमुदं पुट्टा ? हंत पुट्ठा ! ते णं भंते ! किं जंबुद्दीवे दीवे लवगसमुहे ? गोयमा ! जंबुद्दीवे शं दीवे णो खलु लवणसमुद्दे, एवं लवणसमुदस्स वि पएसा जंबुद्दीवे पुट्टा भाणियवा इति। जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जीवा उद्दाइत्ता उदाइत्ता लवणसमुद्दे पञ्चायंति, अत्थेगइया पञ्चायति अत्थेगइया नो पञ्चायंति, एवं लवणस्स वि जंबुद्दीवे दीवे णेथव्वं इति ॥सू० १॥ छाया-जम्बूद्वीपस्य खलु भदन्त ! द्वीपस्य प्रदेशा लवणसमुदं स्पृष्टा ? हन्त स्पृष्टाः ? ते खलु भदन्त ! किं जम्बूद्वीपे द्वीपे लवण समुद्रं ? गौतम ! जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे नो खलु लवणसमुद्रे, एवं लवणसमुद्रस्यापि प्रदेशाः नाबूद्वीपे स्पृष्टा भणितव्याः । जम्बृद्धीपे खल भदन्त ! द्वीपे जीवा उद्रायोद्राय लवण समुद्रं प्रत्यायान्ति-अस्त्येककाः प्रत्यायान्ति, अस्त्येकका नो प्रत्यायान्ति एवं लवणस्थापि जम्बूद्वीपे द्वीपे नेतव्यम् ॥ सू० १॥ टीका-'जंबुद्दीवस्त णं भंते ! दीवस्स' जम्बूद्वीपस्य खलु भदन्त ! द्वीपस्य सर्वद्वीपमध्यवर्तिनो द्वीपस्येत्यर्थः 'पएसा' प्रदेशाः जम्बूद्वीपसंबन्धिनश्वरमप्रदेशाः, अत्र प्रदेशा इति कथनेन लवणसमुद्र संवन्धसहचारात् चरमा ए। प्रदेशा ज्ञातव्याः अन्यथा-जम्बूद्वीप वक्षस्कार हा यहां से पहिले जम्बूद्वीपान्तर्वर्ती वस्तुका स्वरूप पूछा अब जम्बूद्वीप के ही चरमप्रदेशका स्वरूप पूछने के निमित्त गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा प्रश्न करते हैं। 'जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स' इत्यादि । टोकार्थ-'जंबुद्दीवस्स गंभते ! दीवस्स, हे भदन्न ! जंबूद्वीप नामके द्वीप के 'पएसा' चरमप्रदेश क्या 'लवणसमुदं पुट्टा' लवण समुद्रको छूते हैं ? यहां प्रदेश. पद से जो चरमप्रदेश ग्रहीत हुए हैं वे लवण समुद्र के सहचार से ग्रहीत हए વક્ષસ્કાર ૬ પ્રારંભ આ પૂર્વે જ બૂઢીપાન્તર્વતી વસ્તુ-સ્વરૂપ વિશે પૃચ્છા કરવામાં આવી હવે જખૂ. દ્વીપના જ ચરમપ્રદેશના સવરૂપ વિશે જાણવા માટે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એ પ્રશ્ન કરે છે_ 'जंबुद्दीवस्त णं भंते ! दीवस्स' इत्यादि' टी -'जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स' लन्त ! द्वी५ नाम दीपना 'पएसा' प्रवेश शुलवणसमुदं पुट्ठा' ang समुद्रने २५ ? मी हे ५४थी २ २२भप्रदेश। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० अम्बूद्वीपप्रचप्तिस्त्र मध्यवर्ति प्रदेशानां लवणसमुद्रादतिदूरस्थिततया लवणसमुद्रसंस्पर्शसंभवनाया असंभवात् प्रश्नोऽनुपपन्न एव स्यादिति । 'लवणसमुदं पुट्ठा' लवणसमुद्रं स्पृष्टवन्तः जम्बूद्वीपसंबन्धि चरमप्रदेशानां लवणसमुद्रेण सह संस्पर्शो विद्यते नवेति काक्वा प्रश्न: भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा ! हन्त, गौतम ! 'पुट्ठा' स्पृष्टाः, अर्थात् जम्बूद्वीपस्य ते चरमप्रदेशा लवणसमुद्राभिमुखास्ते लवणसमुद्रे स्पृष्टवन्त इत्यर्थः अथ संप्रदायादिना द्वीपानन्तरीयाः समुद्राः समुद्रानन्तरीयाश्च द्वीपाः तेन ये यदनन्तरीयास्ते तत्संस्पर्शिनः इति सुज्ञातेऽपि प्रष्टव्येऽर्थे यत् प्रश्नविधानम्, तदुत्तरसूत्रे प्रश्न बीजाधानायेति "तेणं भंते ! किं जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे' ते खलु भदन्त ! कि जम्बूद्वीपो द्वीपः लवणसमुद्रः, हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्पृष्टाः जम्बूद्वीपस्य चरमप्रदेशाः किं जम्बूद्वीपस्येत्येवं व्यपदेश्याः किम्वा लवणसद्रसंबद्धहैं यदि ऐसा न मानाजावे तो फिर जम्बूद्वीप के मध्यवर्ती जो प्रदेश हैं वे तो लवणसमुद्र से अति दूर स्थित हैं इस कारण उनके द्वारा लवण समुद्रका छूना ही असंभव है अतः फिर यह प्रश्न ही नहीं उठ सकेगा इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-"हंता!, गोयमा! हां गौतम! जम्बूद्वीप के जो चरम प्रदेश लवण समुद्र के अभिमुख है वे लवणसमुद्र को छूते हैं जब की ऐसी मान्यता है किद्वीप को घेरे हुए समुद्र हैं और समुद्र को घेरे हुए द्वीप हैं-तो फिर इस मान्यता से ही यह बात सिद्ध होती है कि जो जिसे घेरे हुए हैं वे उसे छू भी रहे है फिर भी यहां पर जो ऐसा प्रश्न किया गया है वह उत्तर सूत्र में प्रश्न बीज के आधान के निमित्त किया गया है 'तेणं भंते ! किं जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे अब गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-कि हे भदन्त ! लवण समुद्र को छूने वाले जो जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश है वे क्या जम्बूद्वीप के ही कहलावेंगे या लवण समुद्र से संबद्ध हो जाने के कारण लवणसमुद्र के कहलायेंगे। ગૃહીત થયા છે તે લવણ સમુદ્રના સહચારથી ગૃહીત થયા છે. જે આ પ્રમાણે માનવામાં ન આવે તે પછી જંબુદ્વીપના મધ્યવર્તી ભાગમાં જે પ્રદેશ છે તે તે લવણસમુદ્રથી અતિ દૂર સ્થિત છે. આથી તેમના વડે લવણસમુદ્રને સ્પર્શવું જ અસંભવ છે. એથી આ જાતને प्रश्न उपस्थित थतो नथी. ये प्रश्नन। म प्रभु 3 छे-हंता, गोयमा ! «i ગૌતમ ! જંબુદ્વીપના જે ચરમ પ્રદેશે લવણસમુદ્રાભિમુખ છે. તે લવણસમુદ્રને સ્પર્શે છે. એવી માન્યતા છે કે શ્રીપાટિત સમુદ્રો છે અને સમુદ્રાદિત દ્વાપે છે. તે પછી આ માન્યતાથી જ આ વાત સિદ્ધ થઈ જાય છે કે જેઓ જેમના વડે આવેષ્ટિત છે તેઓ તેમને સ્પશી પણ રહ્યા છે. છતાંએ અહીં જે આ જાતને પ્રશન કરવાવામાં આવ્યું છે ते उत्तर सूत्रमा प्रश्न मीना साधान भाटे ४२वामा परि छ. 'तेणं भंते ! किं जंबुदीवे दीवे लवणसमुद्दे' १३ गौतम प्रभुने मा तने। प्रश्न ४य ४७ मत ! Aqसमुद्रन * સ્પર્શનારા જે જમ્બુદ્વીપના ચરમપ્રદેશે છે તે શું જબુદ્વીપના જ કહેવાશે ? Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठौवक्षस्कारः सू. १ जम्बूद्वीपचरमप्रदेशस्वरूपनिरूपणम् खाल्लवणसमुद्रस्य नतु जम्बूद्वीपस्य प्रदेशाः कथं लवणसमुद्रस्येति कथमत्र प्रश्नः संगच्छते, उच्यते-यद् येन स्पृष्टं तत् किश्चित् तव्यपदेशं लभते यथा-वृक्षस्थिताऽपि वल्ली पुष्प. भासवनत वृक्षशाखा द्वारा भूमि संबद्धा भूमिकृत वल्ली च भूमेरियं वल्लीतिव्यपदेश दर्श: नात् किञ्चिद्वस्तु न पुनर्नतद्व्यपदेशं लभते यथा-तर्जन्या संपृष्टा अंगुष्ठाङ्गुलिज्येष्ठैव नतु तर्जनी संबद्धापि तर्जनी तद्वत् प्रकृते जम्बूद्वीपस्य चरमप्रदेशाः लवणसमुद्रं स्पृष्टाः किं लवण समुद्रस्य उत जम्बूद्वीपस्येति संशयात् समुत्पद्यते एव प्रश्न इति, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवेणं दीवे णो खलु लवणसमुद्दे' जम्बूद्वीपः खलु द्वीपो न शंका-जम्बूद्वीप के जो चरमप्रदेश लवणसमुद्र को छू रहे है वे प्रदेश तो जम्बूद्वीप के ही कहलावेंगे फिर वे चरम प्रदेश जम्बूद्वीप के व्यपदेश्य हो या लवण समुद्र के व्यपदेश्य होगें ? ऐसा जो प्रश्न यहां पर किया गया है वह तो असंगत जैसा ही प्रतीत होता है ? सो ऐसी अशंका यहां पर नहीं करनी चाहिये-क्यों किं जो जिससे स्पृष्ट होता है वह कोई २ उसके व्यपदेशको भी पालेता है-जैसे वृक्ष स्थित वल्ली पुष्प के भार से झुकी हुइ वृक्ष शाखा के द्वारा जब भूमि को छूने लग जाती है-उससे संबद्ध हो जाती है-तो ऐसा कहा जाता है कि यह बल्ली भूमि की है तथा तर्जनी के द्वारा संस्पृष्ट हुई अंगुष्ठाङ्गगुलि ज्येष्ठा ही कहलाती है तर्जनी से संबद्ध होने पर भी वह तर्जनी नहीं कहलाती है इसी तरह प्रकृत में जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश लवणसमुद्र को छुए हुए हैं तो क्या वे लवणसमुद्र के कहे जावेंगे या जम्बूदीपके कहे जावेंगे ऐसा संदेह उत्पन्न हो जाता है-अतः उस संशय से ऐसा प्रश्न होता है कि जम्बूद्वीप के चरम प्रदेश जम्बूद्वीप के ही कहे जावेंगे या लत्रणसमुद्र के ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जंबु. શંકા-જંબુદ્વીપના જે ચરમપ્રદેશે લવણસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યા છે તે પ્રદેશો તે જંબુદ્વીપના જ કહેવાશે પછી તે ચરમપ્રદેશ અંબૂઢીપના વ્યપદેશ્ય થશે કે લવણસમુદ્રના વ્યપદેશ્ય થશે? એ જે પ્રશન અત્રે કરવામાં આવેલ છે તે તે અસંગત જે જ લાગે છે, તે આ જાતની આશંકા અહીં કરવી ન જોઈએ, કેમકે જે જેનાથી પૃષ્ટ હોય છે, તેમાંથી કેઈ તેના ચપદેશને પણ પ્રાપ્ત કરી લે છે. જેમ કે વૃક્ષસ્થિત લતા પુપના ભારથી નમી પડેલી વૃક્ષ શાખા વડે જ્યારે ભૂમિને સ્પર્શવા માંડે છે–તેનાથી સંબદ્ધ થઈ જાય છે-તે આ પ્રમાણે કહેવામાં આવે છે કે આ લતા ભૂમિની છે તેમજ તર્જની વડે સંસ્કૃષ્ટ થયેલી અંગુઠાણું લિને જયેઠાંગુલી જ કહેવામાં આવે છે. તર્જનીથી સંબદ્ધ હોવા છતાંએ તેને તર્જની કહેવામાં આવતી નથી. આ પ્રમાણે જ પ્રકૃતમાં જંબૂઢીપના ચરમપ્રદેશ લવણસમુદ્રને સ્પર્શેલા છે તે શું તેઓ લવણસમુદ્રના કહેવાશે અથવા જંબૂવીપના કહેવાશે. આ જાતની આશંકા ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે આ સંશયથી એવો પ્રશન ઉદ્દભવે છે કે ચરમપ્રદેશ અંબુદ્વીપના જ કડેવાશે કે લવણુસમુદ્રના? એના જવાબમાં પ્રભુ Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ अम्बूद्वीपप्रज्ञतिसूत्रे खलु लवणसमुद्रः ते प्रदेशाः जम्बूद्वीपस्य लवणसमुद्रस्पृष्टा अपि जम्बूद्वीप एव जम्बूद्वीपसीमावर्त्तित्वात् न खलु ते लवणसमुद्रः जम्बूद्वीपसीमानमतिक्रम्य लवण समुद्रसीमानमप्राप्तत्वात् किन्तु जम्बूद्वीपसीमागता एव ते प्रदेशाः लवणसमुद्रं स्पृष्टास्तेन तटस्थतया संस्पर्शभवनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गुलिखि स्त्रव्यपदेशं लभते इति । ' एवं लवणसमु वि परसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणियव्वा इति || ' एवं लवणसमुद्रस्यापि प्रदेशा जम्बूद्वीपे स्पृष्टा भणितव्या इति, आलापप्रकारस्तु एवम् - हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीपं स्पृष्टा नवेति प्रश्नः, भगवा वाह-हन्त, गौतम ! ये लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशास्ते जम्बूद्वीपं स्पृष्टवन्त एव, हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य चरमप्रदेशाः जम्बूद्वीपं स्पृष्टास्ते किं लवण समुद्रव्यपदेशभाजः उत जम्बूद्वीपस्पृष्टत्वाद् जम्बूद्वीपव्यपदेशभाज इति पुनः प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! लवणसमुद्रस्य ते चरमप्रदेशा लवणसमुद्रव्यपदेशभाज एव वेणं दीवे णो खलु लवणसमुद्दे' हे गौतम! वे जम्बूद्वीप के चरमप्रदेश जो कि लवणसमुद्र को हुए हुए हैं वे जम्बूदीप के ही कहलावेंगे लवणसमुद्र के नहीं जिस प्रकार तर्जनी संस्कृष्ट ज्येष्ठाङ्गुली ज्येष्ठाङ्गुली ही कहलावेगी- तर्जनी नहीं कहलावेगी । वे चरमप्रदेश ऐसे तो हैं नही जो जम्बूद्वीप की सीमा को उल्लंघन करके लवणसमुद्र की सीमा में प्रविष्ट हुए हो किन्तु जम्बूद्वीप की सीमा में रहते हुए ही वे वहां स्पृष्ट हुए हैं । अतः वे उसी के ही व्यपदेश्य हैं । अन्य के नहीं । 'एवं लवणसमुहस्स वि पएसा जंबुद्दीवे पुट्टा भाणियव्वा' इसी तरह से लवणसमुद्र के चरमप्रदेश जो कि जम्बूद्वीप को छूते हैं कहलेना चाहिये यहां आलाप प्रकार इस प्रकार से है-हे भदन्त । लवण समुद्र के चरमप्रदेश जम्बूदीप को छूते है या नहीं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हां गौतम ! छूते हैं तो फिर वे लवणसमुद्र के कहलावेंगे ? या जम्बूद्वीप के कहलावेंगे ? जम्बुद्वीप के नहीं क्यों कि वे उसकी सीमा में ही रहे हुए हैं और वहीं से वे उसे ४डे छे - 'गोयमा ! जंबुद्दीवेणं दीवे णो खलु लवणसमुद्दे' हे गौतम! ते दीपना शरभप्रदेशो કે જેએ લવણુસમુદ્રને સ્પર્શી રહ્યા હૈં, તેએ લવસમુદ્રના નહિં પરંતુ જમૂદ્રીપના જ કહેવાશે. જે પ્રમાણે તની સપૃષ્ટ જ્યેષ્ડાંગુલી ચેડાંગુલી જ કહેવાશે, તની નહિ. તે ચરમપ્રદેશે એના તેા છે જ નહિ કે જેએ જ ખૂંદીપની સીમાને એળ’ગીને લવણુસમુદ્રની સીમામાં પ્રવિષ્ટ થયેલા હાય પરંતુ તે પ્રદેશે! જમૂદ્રીપની સૌમામાં રહીને ત્યાં પૃષ્ટ थयेला छे. मेथी तेथे। तेना ४ व्यपदेश्य छे. मीनना नहि. 'एवं लवणसमुदस्स विपएसा जंबुद्दीवे पुट्ठा भाणियव्वा' भी प्रमाणे सवसमुद्रना शरभप्रदेश है भेो मूद्रीयने स्पर्शे છે તે પણ આ પ્રમાણે જ રામજી લેવા જોઈએ. અહી આલાપ પ્રકાર આ પ્રમાણે છેહૈ ભદંત ! લવણુસમુદ્રના ચરમપ્રદેશે જ ખૂદ્રીપને સ્પર્શે છે કે નહિ ? જવાબમાં પ્રભુ કડે ઢાં ! તે જ્યારે તે સ્પર્શ કરે તેા પછી તેએ લવણુમુદ્રના કહેવાશે ? અથવા Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५३ प्रकाशिका टीका-षष्ठो वक्षस्कारः . १ जम्बूद्दीपचरमप्रदेश स्वरूपनिरूपणम् लवणसमुद्रसीमावर्त्तित्वात् न खलु ते लवणसमुद्रसीमानमतिक्रम्य जम्बूद्वीपसीमानं स्पृशन्ति किन्तु वणसमुद्रसमागता एव जम्बूद्वीपस्पृष्टा स्तेन तटस्थतया संस्पर्शन भवनात् तर्जन्या संस्पृष्टा ज्येष्ठाङ्गुलिखि स्व व्यपदेशं लभते इति ॥ अनन्तरपूर्ववत्रे जम्बूद्वीपलवणसमुद्रयोः परस्परं व्यवहाराभावः कथितः सम्प्रति- जम्बूद्वीपलवणसमुद्रयोरेव जीवानां परस्परमुत्पत्य आधारतां प्रष्टुमाह- 'जंबुद्दीवेगं भंते ! जीवा' इत्यादि, जंबुद्दीवेणं मंते ! जीवा' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! जीवाः उद्दाइत्ता उदाइत्ता' उद्दाय उद्राय मृत्वा मृत्वा 'लवणसमुद्दे पञ्चायति' लवणसमुद्रे प्रत्यायान्ति' - समागच्छन्ति हे भदन्त ! जम्बूद्वीपे वर्त्तमाना जीवाः स्वकर्मवशात् अत्रैव मृत्वा लवणसमुद्रे समुत्पद्यन्ते किमिति प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! 'अत्थेगया पञ्चायति' अस्त्येकके जीवाः ये जम्बूद्वीपे मृत्वा लवणसमुद्रे प्रत्यायान्तिसमागच्छन्ति समुत्पद्यते इति यावत् 'प्रत्येगइया न पञ्चायति' अस्त्येकके न प्रत्यायान्ति, सन्ति तादृशा अपि जीवा ये जम्बूद्वीपे भृत्वा उत्पत्यर्थं लवणसमुद्रे नागच्छति कथमेवं भवति स्पृष्ट करते हैं ऐसा नहीं हैं कि वे उसकी सीमा को छोडकर उसे स्पृष्ट करते हों इस तरह यहां तक सूत्रकारने जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र के चरमप्रदेशों में परस्पर में एक दूसरे के प्रदेश व्यपदेश होने का अभाव प्रकट किया है। अव गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'जंबुद्दीवे णं भंते जीवा उदाइन्ता २' हे भदन्त ! जंबूद्वीप में रहे हुए जीव अपनी २ आयु के अन्त में मर करके 'लवणसमुद्दे पच्चापति' लवणसमुद्र में उत्पन्न होते हैं क्या ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोवमा, अत्थेगइया पच्चायंति अत्थेगइया नो पच्चायंति' हे गौतम ! किनेक जीव ऐसे हैं जो जम्बूद्वीप में मरकर लवण समुद्र में जन्म लेते हैं और कितने जीव ऐसे भी हैं जो जम्बूद्वीप में मरकर लवण समुद्र में जन्म नहीं लेते हैं- हे भदन्त ! ऐसा किस कारण से होता है कि कितनेक जीव જમૂદ્રીપના કહેવાશે ? હુ ગૌતમ ! તે પ્રદેશ લવણુસમુદ્રના જ કહેવાશે, જમૂદ્રીપના નહિ. કેમકે તેએ તેમની સીમામાંથી આવેલા છે. અને તેએ ત્યાં જ તેને સ્પર્શે છે. એવુ નથી કે તેઓ તેની સીમારે ત્યજીને તેને સ્પર્શીતા હેય. આ પ્રમાણે અહી સુધી સૂત્રકારે જમૂદ્રીપ અને લવણુસમુદ્રના ચરમપ્રદેશોમાં પરસ્પરમાં એકખીજાના પ્રદેશના વ્યપદેશ હેવાના અભાવને પ્રકટ કરેલ છે. हरे गौतमस्वामी प्रभुने या लतनोप्रश्न ४२ हे - 'जंबुद्दीवे णं भंते ! जीवा उदाइता २' હે ભદન્ત ! જમૃદ્વીપમાં આવેલા જીવા પાપાતના આયુષ્યના અંતમાં મરણ પામીને 'लवणसपुद्दे पच्चायति' शु समुद्रमां उत्पन्न थाय छे ? मेना नवासमा प्रभु उडे छे'गोयमा ! अत्थेगइया पच्चायंति अत्थेगइया नो पच्चायति' हे गौतम! डेटा को मेवा છે કે જેને જંબુદ્રીપમાં મરીને લવણુસમુદ્રમાં જન્મ લે છે. અને કેટલાક જીવેા એવા પણ છે કે જેએ જંબુદ્રીપમાં મૃત્યુ પામીને લવણુસમુદ્રમાં જન્મ ગ્રહણુ કરતા નથી. अ ९५ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे यदेते जीवा जम्बूद्वीपे मृत्वा पुनरुत्पत्यय लवणसमुद्रं गच्छन्ति, केचन जम्बूद्वीपे मृत्वा उत्प त्यर्थं लवणसमुद्रं न गच्छन्ति इति चेत् अत्रोच्यते-कर्मबलादिति, अयं भावः-मनोवाकायैः समुत्पादित कर्माणो जीवाः शुभाशुभकर्मपरतन्त्राः केचन गच्छन्ति, केचन न गच्छन्ति जीवानां तथा स्वकर्मवशतया गत्यागतौ वैलक्षण्यसंभवात् इति । 'एवं लवणसमुदस्स जंबुद्दीवे दीवे णेय,' इति, एवं लवणसमुद्रस्थापि जम्बूद्वीपे द्वीपे नेतव्यमिति जम्बूद्वीपसूत्रवदेव लवणसमुद्रसूत्रे जीवानां मरणमागमनं च ज्ञातव्यमिति, अयं भावः-अत्रापि जम्बूद्वीपसूत्रवदेव आलापको वक्तव्य स्तथाहि-'लवणसमुदेणं भंते ! जीवा उदाइत्ता उदाइता जंबृद्दीवे पञ्चायति ? अत्थे गइया पञ्चायंति, अत्थेगइया नो पञ्चायति' लवणसमुद्रे खलु भदन्त ! जीवा उवाय उद्राय जम्बूद्वीपे प्रत्यायान्ति ? सन्त्येकके प्रत्यायान्ति, सन्त्येकके नो प्रत्यायान्ति, हे भदन्त ! लवणसमुद्रे वर्तमाना जीवा आयुष्ककर्मक्षयात् मरणं प्राप्य तदन्तरं पुनरुत्पत्त्यर्थ जम्बूद्वीपे गच्छन्ति नवेति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! सन्ति केचन तथाविधा जीवा ये लवणसमुद्रे मृत्वा उत्पत्त्यर्थ जम्बूद्वीपे समागच्छन्ति, केचन जीवा लवणसमुद्रे मृत्वा पुनरुत्पत्यर्थे जम्बूद्वीपे ना गच्छन्ति, कथमेवं भवतीति चेत् जीवानां स्वकर्मपाधीनतया तथा तथागति वैचित्र्यसंभवादिति ॥ सू० १॥ जम्बूद्धीप में मरकर लवण समुद्र में जन्म लेते हैं और कितने * जीव वहां जन्म नहीं लेते हैं ? तो इसके उत्तर उनके द्वारा अजित उनका कर्म है तात्पर्य है कि प्रत्येक जीव अपने अपने मन वचन और काय के शुभ और अशुभ कर्मों का बन्ध किया करता है अतः उसी के अनुसार परतन्त्र हुए उन जीवों का भिन्नर पर्यायों में उत्पाद होता रहता है । इस कारण कितनेक जीवों का वहां उत्पाद होता है और कितनेक जीवों का वहां उत्पाद नहीं होता है । 'एवं लवणसमु. इस्स वि जवुद्दीवे दीवे णेयव्वं' इसी तरह से लवणसमुद्र में मरे हुए कितनेक जीवों का उत्पाद जम्बूद्वीप में होता है और कितनेक जीवों का वहां उत्पाद नहीं होता है यहां पर आलापक जम्बूद्वीप सूत्र के जैसा ही जानना चाहिये ભદંત ! એવું શા કારણથી થાય છે કે કેટલાક જ જંબુદ્વીપમાં જન્મ ગ્રહણ કરે છે. અને કેટલાક જીવે ત્યાં જન્મ ગ્રહણ કરતા નથી? તે આને જવાબ એ જ છે કે તેમના વડે અર્જિત કર્મ જ તેમને તાત્ પ્રદેશમાં જન્મગ્રહણ કરાવે છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે દરેક જીવ પોત-પોતાના મનવચન અને કાયના શુભ અને અશુભ કર્મોને બંધ કરે છે. એથી તે મુજબ જ પરતંત્ર થયેલા તે જીવેની ભિન્ન-ભિન્ન સ્થાનમાં ભિન્ન-ભિન્ન ગતિઓમાં તેમજ ભિન્ન-ભિન્ન પર્યાયમાં ઉત્પત્તિ થતી રહે છે. એથી કેટલાક જીવે ત્યાં उत्पन्न थाय छे. मन मा व त्या त्पन्न यता नथी. 'एवं लवणसमुदस्स वि जंबु. द्दीवे दीवे णेयव्वं' 24t प्रमाणे समुद्रमा मृत्यु पासा वनी पत्ति જંબુદ્વીપમાં હોય છે અને કેટલાક ની ઉત્પત્તિ હોતી નથી. અહીં.' આલાપક જંબૂ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५५ प्रकाशिका टीका - षष्ठोवक्षस्कार: सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् सम्प्रति- पूर्वीकानां जम्बूद्वीपमध्यवर्त्ति पदार्थानां सङ्ग्रहगाथामाह - खंड १ जोयण२' इ० मूलम् - खंडा १, जोषण२ वासा३ पञ्चय ४ कूडा य५ तित्थ६ सेढीओ७ । विजय दह९ सलिलामो १० पिंडए होइ संगहणी ॥१॥ जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे भरहरमाणमेत्तेहिं खंडेहिं केवइयं खंडग णिएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! गाउयं खंड सयं खंडगणिरणं पण्णत्ते । जंबुदीवे णं भंते । दीवे के इयं जोयणगगिएणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सत्तेar कोडिया उया छप्पण्णसयलहस्साई, चउणवई च सहस्सा सयं दिवद्धं च गणिया ॥ १ ॥ जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे कइ वासा पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तवासा पन्नता, तं जहा - भरहे एरवए हेमवए हिरण्णवए हरिवासे रम्गवासे महाविदेहे७ | जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया वासहरा पण्णत्ता, केवइया मंद्रा पव्वा पन्नत्ता केवइया चित्तकूडा केवइया विचित्तकूडा केवइया जनगपव्वया केवइया कंचण पव्वया केवइया वक्खारा केवइया दीवेयद्धा केवइया बट्टवेयद्धा पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुही छ वा सहरपन्या एगे मंदरे व एगे वित्तकूडे एगे विचित्तकूडे दो जमग पठनया दो कंचणपव्वयस्या वीसं दक्खारपव्वया चोत्तीसं दीहवेयद्वा चत्तारि वट्टवेयद्वा एवामेव सपुव्वावरेण जंबुद्दीचे दीवे दुण्णिअउपतरा पव्वयसया भवतीति मक्खायंति । जंबुद्दीवेगं भंते ! जैसे 'लवणसमुद्दे णं भंते ! जीवा उद्दात्ता २ जंबुद्दीवे पच्चायंति ? अत्थेगइया पच्चायंति अत्थेमइया णो पच्चायति' इस आलापकका अर्थ स्पष्ट है || १॥ अब पूर्वोक्त जंबूद्वीप मध्यवर्ती पदार्थों की संग्रह गाथा जो कही गई है वह इस प्रकार से है | खंडा १ जोगण २ वाला ३ पव्वय ४ कूडाय ५ तित्थ सेढीओ ७ । विजय ८ दह ९ सलिलाओ १० पिंडए होइ संगहणी ॥ १॥ द्वीप सूत्रो समयको अर्ध से प्रेम - 'लवण मुद्देणं भंते ! जीवा उदाइता २ जंबुद्दीवे पच्चायति ? अत्थे गइया पच्चायंति अत्थे गइया णो पञ्चायति' भी आसान अर्थ સ્પષ્ટ જ સૂ॰ || ૧ || હવે પૂર્વોક્ત જમ્મૂદ્રીપ મધ્યવતી પદાર્થીની સંગ્રહગાથા વિશે કહેવામાં આવ્યુ છે ते या प्रभाशे हे-खंडा १, जोरण २, बासा ३, पञ्चय ४, कूडाय ५, तित्थ सेढीओ ६७, विजय ८, दह ९, सलिलाओ १० पड ए होइ संगहणी ११ ॥ 1 Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दीवे केवइया वासहरकूडा केवइया वक्खारकूडा केवइया वेयद्धकूडा केवइया मंदरकूडा पन्नत्ता ? गोयमा! छप्पण्णं वासहरकूडा उपणउइं वक्खारकूडा तिण्णि छलत्तरा वेयद्धकूडसया णव मंदरकूडा पन्नता । एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे चत्तारि सत्तसहा कूडसया भवंतोति मक्खायं । जंबुद्दीवे दीवे भरहेवासे कइ तित्था पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ तित्था पन्नत्ता तं जहा-मागहे वरदामे पभासे । जंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे कइतित्था पन्नत्ता ? गोयमा ! तओ तित्था पन्नत्ता तं जहा-मागहेवरदामे पभासे एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चकवटि विजए कइ तित्था पन्नत्ता ? गोयमा ! तो तित्था पन्नत्ता, तं जहा-मागहे वरदामे पभासे, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे एगे वि उत्तरे तित्थसए भवंतीति मकवायति । जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया विज्जाहरसेढीओ केवइया आभियोग सेढीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असली विजाहरसेढीयो अटूसही आमिओगसेढीयो पण्णत्ताओ एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे दोवे छत्तीसे सेढिसए भवंतीति मक्खायं । जंबुद्दीवे दीवे केवइया चकवट्टि विजया केवइयाओ रायहाणीओ केवइयाओ तिमिसगुहाओ केवइयाओ खंडप्यायगुहाओ केवइया कयमालया देवा केवइया णट्टमालया देवा केवइया उसभकूडा पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तील तिमिसगुहाओ चोत्तीसं चक्क वट्टि विजया चोत्तीसं रायहाणीओ चोत्तीसं तिमिसगुहाओ चोत्तीस खंडप्पवायगुहाओ चोत्तीसं कयनालया देवा चोत्तीसं पट्टमालया देवा चोत्तीसं उसभकूडा पव्वया पन्नत्ता । जंबुद्दीवे दीवे केवइया महदहा पन्नत्ता ? गोयमा ! सोलसमहदहा पन्नत्ता। जंबुदीवेणं भंते ! दीवे केवइयानो महानदीओ वासहरपबहाओ केवइयाओ महागईओ कुंडप्प. वहाओ पन्नत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोइस महागईओ वासहर पव्वहाओ छावत्तरि महागईओ कुंडप्पवहाओ, एवामेव सपुधावरेणं Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७५७ जंबुद्दीवे दीवे णउति महागाईको भवंतीति मक्खायं । जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु कइ महागई यो पण्णत्ताओ गोवमा ! चत्तारि महाणईभी पन्नत्तानो तं जहा-गंगासिंधू रत्तारत्तबई तत्थ णं एगमेगा महागई चउदसहिं सलिलासहस्तेहिं समग्गा पुरस्थिमपञ्चरिथमेणं लवणसमुदं समप्पेइ, एकामेव सपुल्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे भरहेर. वएसु वासेसु छप्पण्णं सलिलालहस्ला भवतीति मक्खायंति। जंबुदीवेणं भंते ! दीवे हेमवयहेरण्णवएसु वासेसु कइ महाणईओ पण्ण. ताओ ? गोयमा! चत्तारि महागईओ पन्नताओ तं जहा-रोहिया रोहियंसा सुवण्णकूला रूप्पकूला, तत्थ णं एगमेगा महाणई अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समगा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ एकामेक सपुवावरेणं बंदीवे दीवे हेमश्यहेरपणाएतु बारसु. त्तरे सलिलासयसहरूले भक्तीति मक्खायं इति । जंबुहोवेणं भंते ! दीवे हरिवारम्भगवासेसु कई महाणईओ पन्नत्ताओ गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पन्नताओ, तं जहा-हरीहरिकंता णरकंता णारिकता, तत्थ णं एगमेगा महाणई छपवाए २ सलिला सहस्तेहिं समग्गा पुरथिमपञ्चस्थिमेणं लत्रणसमुई समप्पेइ, एवामेत्र सध्वादरेणं जंबुद्दीवें दीवे हरिवालरम्मग मातेसु दोबउवीसा सलिलासयसहस्सा भवतीति मक्खाय । जंबुद्दीवेणं भंते दीवे महाविदेहेराले कइ महागईओ पन्नत्ताओ गोयमा ! दो महाणई ओ पन्नताओ तं जहा-सीवा य सीओया य तत्य णं एगमेगा महागई पंचहिं पंचहि सलिला सयसहस्सेहिं बत्तीसा एव स. लिलासहस्सेहि समग्गपुरथिमपचरिथमेणं लागलमुदं समप्पेड़ एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवेग दीवे महाविदेहे वासे दस सलिलासयसहस्ला चउसद्धिं च सलिला सहस्सा भवतीति भवता । जंजुद्दीदेणं भंते! दीवे मंदरस्स एअयस्त दक्षिणेणं के बइया सलिला सयसहस्सा पुरथिमपस्थिमाभिमुहा लयणसमुदं समप्येति ति ? गोयमा! एगे छ उणउए सलिलासपसहस्से पुरस्थिमपञ्चथिमाभिमुहे लवणसमुई समतित्ति, Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जंबुद्दीवेणं भंते ! दौवे मंदरस्स पव्ययस्त उत्तरेणं केवइया सलिला सयसहस्सा पुरथिमपञ्चस्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्यति ? गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला सयसहस्से पुरथिमपञ्चत्थिमाभिमुहे जाव सम. प्पेइ जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया सलिलासयसहस्सा पुरस्थाभिमुहा लवणसमुदं समप्यति ? गोयमा ! सत्त सलिला सयसहस्सा अट्टावीसं च सहस्सा लवणसमुदं समति, जंबुद्दीवेणं भंते! दीवे केवइया सलिलासयसहस्सा पञ्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्यति ? गोयमा ! सत्त सलिला सयसहस्सा अट्ठावीतं च सहस्सा लवणसमुदं समप्पंति, एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीचे दीवे चोदस सलिला सयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवंतीति मक्खायं त्ति । सू०॥ छाया-खण्डं योजनं वर्ष पर्वतः कूटाश्च तीर्थः, श्रेणयः हदः सलिलानि पिण्डके भवति संग्रहणी । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे भरतप्रमाणमात्रैः खण्डैः कियत् खण्डगणितेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! नवतं खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तम्, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियद् योजनं गणितेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ? सप्तैव च कोटिशतानि नवतानि षट्पश्चाशच्छतसहस्राणि चतुर्नवतिश्च च सहस्राणि शतंद्वयद्धं च गणितपदम् १ । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कति वर्षाणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! सप्तवर्षाणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-भरत एरवतं हैमवतं हिरण्यवतं हरिवर्ष रम्यकवर्षे महाविदेहः। जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तो वर्षधराः प्रज्ञप्ताः, कियन्तो मन्दराः पर्वताः प्रज्ञप्ताः, किषन्त चित्रकूटाः प्रज्ञप्ताः कियो विचित्रकूटाः कियन्तो दमपर्वताः, कियन्तः काञ्चन पर्वताः किवन्तो वक्षस्काराः कियन्तो दीववैताढयाः कियन्तो वृत्तवैताढयाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे पडूवर्षधरपर्दताः एको मन्दरः पर्वतः, एकः चित्रकूटः, एको विचित्रकूटः द्वौ यमकपर्वतौ द्वे काञ्चनकपर्वतशते विंशति वक्षस्कारः, पर्वताः चतुत्रिशदीतायाः चत्वारो वृत्तवैतात्न्याः एवमेव सपूर्वापरेण जम्बू. द्वीपे द्वे एकोनसप्तत्यधिके पर्वतशते भवन्तील्याख्यायन्ते । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति वर्षधरकूटानि क्रियन्ति वक्षस्कारकूटानि कियन्ति वैशाढयकूटानि क्रियन्ति मन्दरकूटानि प्रज्ञतानि ? गौतम ! षट्पञ्चाशद्वर्षधर कूटानि, एण्णवति वक्षस्कारकूटानि त्रीणि षडुत्तराणि वैताढयकूटशतानि नव मन्दरकूटानि प्रज्ञप्तानि, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे चत्वारि सप्तषष्टानि कूटशतानि भवन्तीत्याख्यातम् ? जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे भरते वर्षे कति तीर्थानि प्रज्ञतानि ? गौतम ! त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा-मामधं वरदाम प्रभासम्, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्रोपे ऐरवते वर्षे कतितीर्थानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- षष्ठोवक्षस्कार: सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७५९ श्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मागधं वरदाम प्रभासम्, एवमेव जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे महाविदेहे वर्षे एकैकस्मिन् चक्रवर्तिविजये कति तीर्थानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम 1 त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - मागधं वरदाम प्रभासम् ? एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे एकं द्वत्तरं तीर्थशतं भवतीत्याख्यातं ? जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे कियत्यो विद्याधरश्रेणयः कियत्य अभियोगिक श्रेणयः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अष्टषष्टि विद्याधरश्रेणयोsष्टषष्टि राभियोगिकश्रेणयः प्रज्ञप्ताः । एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे पट्त्रंशत् श्रेणयो भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तचक्रवर्त्तिविजयाः कियत्यो राजधान्यः कियत्यस्तमिस्रागुहाः कियत्यः खण्डप्रपातगुहाः कियन्तः कृतमालका देवाः serat aaorest देवाः कियन्तः ऋषभकूट पर्वताः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुस्त्रिंशत् चक्रवर्त्ति विजयाश्चतुस्त्रिंश द्राजधान्यः चतुस्त्रिंशत्तमिस्रागुद्दाः चतुस्त्रिशत्खण्डप्रपातगुहाः - चतुस्त्रिंशत्कृतमालका देवाः चतुस्त्रिंशभक्तमालका देवाः चतुस्त्रिंशत्-ऋषभकूटपर्वताः ः प्रज्ञप्ताः । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्तो महाहूदाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! षोडश महाहूदाः प्रज्ञप्ताः जम्बूद्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे कियत्यो महानद्यो वर्षधरप्रवहाः कियत्यो महानद्यः कुण्डप्रवहाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश महानद्यो वर्षधर प्रवहाः, षट्सप्ततिमहानद्यः कुण्डप्रवहाः एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे नवतिर्महानयो भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयोः कति महानद्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चतस्रो महानयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - गङ्गा सिन्धुः रक्ता रक्तवती, तत्र खलु एकैका महानदी चतुर्दश चतुर्दश सलिला सहस्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पयति, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतैरवतयो वर्षयोः पट्पञ्चाशत् सलिला सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मत हैरण्यवतयोर्वषयोः कतिमहादधः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चढत्रो महानयः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - रोहिदा रोहितांशा सुवर्णकूटा रूप्यकूटा च तत्र खल एकैका महानदी अष्टात्रिंशत्याऽष्टाविंशत्या सलिला सहस्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पति एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे हेमवत हैरण्यवतवर्षयो द्वदिशोत्तरसलिलासहस्रं भवतीत्याख्यातम् इति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे हरिवर्षरम्यकवर्षयोः कति महानद्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चतस्रो महानद्यः प्रज्ञप्ता, हरि, हरिकान्ता, नरकान्दा, नारीकान्ता च तत्र खलु एकैका महानदी पट्पञ्चाशता सलिलासहस्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पति, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे हरिवर्षरम्यकवर्षयोः द्वे चतुर्विंशति सलिला सदसे भवत इत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे महाविदेह वर्षे कति नहानद्यः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्वे महान प्रज्ञप्ते, तद्यथा - शीता च शीतोदा च तत्र खलु एकैका महानदी पञ्चभिः पञ्चभिः सलिला सहस्रैः द्वात्रिंशता च सलिला सहस्रैः समग्रा पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पयति एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहवर्षे दशसलिलाशतसहस्राणि चतुःष्टि सहिला Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन कियन्ति सलिलाशतसहस्राणि पूर्वपश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समति ? गौतम! एक षण्णवति सलिलाशतसहस्रं पूर्वपश्चिमाभिमुखं लवणसमुद्रं समर्पयति, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण कियन्ति सलिलाशतसहस्राणि पूर्वपश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति ? गौतम! एकं षण्णवति सलिलाशतसहस्रं पूर्वपश्चिमाभिमुखं लवणसमुद्रं समयति । जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति ? सलिलाशतसहस्राणि पूर्वाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति ? गौतम ! सप्त सलिलाशतसहस्राणि अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि पूर्वाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे कियन्ति सलिलाशतसहस्राणि पश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति ? गौतम ! सप्तसलिलाशतसहस्राणि अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, एवमेव सपूर्वापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश सलिलाशतसहस्राणि षट्पञ्चाशत् सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् ॥ सू० २ ॥ टीका-'खंडा' खण्डम्-शकलम् 'जोयण' योजनम् 'वासा' वर्षाणि भरतादीनि 'पव्वय' पर्वतः-मन्दरादिः कूडाय' कूटानि-गिरिशिखराणि 'तित्थ तीर्थ मागधादिकम् 'सेढीयो' श्रेणयो विद्याधरादीनाम् 'विजय' विजयश्चक्रवर्तिनाम् 'दह' हृदः 'मलिलाओ' सलिला: नद्यः १० 'पिंडर होइ संगहणी' पिण्डके-समुदाये भवति संग्रहणी एते खण्डादयः पदार्थाः, अत्र षष्ठे-क्षस्कारे प्रतिपादिता दशपदार्था दश द्वाररूपेण भवेयुस्तेषामयं संग्रह इति । 'खंडा 'जंबदीवेणं भंते ! दीवे भरहप्पमाणमेत्तहि इत्यादि। टीकार्थ-इस छठे बक्षस्कार में जो विषय प्रतिपादित किया जाने वाला है इसकी यह संग्रह कारिणी गाथा है-इसके द्वारा यह प्रकट किया गया है-कि, खण्ड द्वार से, योजद द्वार से भरतादिरूप वर्ष द्वार से मन्दरादिरूप पर्वत द्वारले तीरशिखररूप कूट द्वार से मगधादिरूप तीर्थद्वार से विद्याधरों के श्रेणी द्वार से, चक्रवर्तियों के विजय द्वार से, हूदद्वार से एवं नदी रूप सलिला द्वार से' इस छडे वक्षस्कार में ये दश पदार्थ प्रतिपादित किये जायेंगे। पदार्थ संग्रह वाक्य सूक्ष्म रूप होता है अतः उससे स्पष्ट बोध नहीं होता है अतः सूत्रकार 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरहप्पमाणमेत्तेहि' इत्यादि ટીકાર્થ-આ છઠ્ઠા વક્ષસ્કારમાં જે વિષયનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલું છે, તેની આ સંગ્રહકારિણું ગાથા છે. એના વડે આ વાત પ્રકટ કરવામાં આવી છે કે ખંડઢારથી, એજનદ્વારથી, ભરતાદિ રૂપ વર્ષ દ્વારથી, મન્દરાદિ રૂપ પતિદ્વારથી, તીરશિખર રૂપ કૂટદ્વારથી, મગધાદિ રૂપ તીર્થદ્વારથી, વિદ્યાધરની શ્રેણીદ્વારથી ચકવતિઓના વિજયદ્વારથી, હદાદ્વારથી તેમજ નદી રૂપે સવિલદ્વારથી–“આ છઠ્ઠા વક્ષસ્કારમાં એ દશ પદાર્થોનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. પદાર્થ સંગ્રહવાય સૂઢમ રૂપમાં હોય છે. એથી એનાથી સ્પષ્ટ જ્ઞાન થતું નથી. માટે સૂત્રકાર સ્વયં પ્રશ્નોત્તર પદ્ધતિ વડે હવે વિષયનું પ્રતિપાદન કરે Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका- पष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७६१ जोयण' इत्यादि पदार्थ संग्रहवाक्यस्य सूक्ष्मतया लोकानां बोधासंभवेन स्वयमेव सूत्रकारः पश्नोत्तरपद्धत्या विवृणोति तत्रेदं सूत्रम् -'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्वीपः खलु भदन्त ! द्वीपः सर्व द्वीपमध्यवर्ती जम्बूद्वीप इत्यर्थः ' भरहष्यमाणमेत्तेर्हि' भरतप्रमाणमात्रैः भरतस्य भरत क्षेत्रस्य यत् प्रमाणम् षट्कलाधिकषडविंशतियोजनाधिक पञ्चशतयोजनानि तदेव मात्रापरिमाणं येषां तानि तथा एवं प्रकारकैः 'खंडे' खण्डैः शकलैः एवं प्रकारेण 'खंडगणिएणं' खण्ड णितेन - खण्ड संख्या भरतक्षेत्रस्य यावन्ति खण्डानि तत्यमाणेन यदि जम्बूatree विभागाः क्रियन्ते तदा कियन्ति खण्डानि जम्बूद्वीपस्य भवन्तीति । 'केवइयं ' कियान् 'पनते' प्रज्ञतः - कथित इतिप्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उयं खंडसयं खंड गणिएणं पन्नदे' नवतं खण्डशतं खण्डगणितेन प्रज्ञप्तः नव नवत्यधिकं खण्डानां शतं खण्डगणितेन जम्बूद्वीपः कथित इति । अयं भावः - भरतक्षेत्रप्रमाणैः खण्डैः नवत्यधिकशतसं व्यकैर्मिलितै जम्बूद्वीपः सपूर्णलक्षप्रमाणो भवति, तत्र दक्षिणोत्तरतः खण्डमीलना पूर्व भरताधिकारे एव कृतेति न पुनरत्रोच्यते तत एव द्रष्टव्यः स्वयं ही प्रश्नोत्तर पद्धति द्वारा अब विषय का प्रतिपादन करते हैं- 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरवषाणमेतेहिं खंडेहिं केवइयं खंडगणिएणं पन्नत्ते' इसमें गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि हे भदन्त ! १ लाख योजन के विस्तारवाले इस जंबूद्रीय के भरतक्षेत्र विस्तार का बराबर यदि टुकडे किये जाये तो वे कितने हो ? भरक्षेत्र का विस्तार ५२६६६ योजन का कहा गया हैं यदि एक लाख योजन के विस्तार वाले जम्बूद्वीप के इतने खण्ड किये जाते है तो वे खण्ड संख्या में कितने होंगे ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोधमा ! णउयं खंडस यं खंडगणिएणं पन्नसे' हे गौतम ! १ लाख योजन विस्तार वाले जम्बूद्वीप के खंड गणित के अनुसार भरनक्षेत्र प्रमाण टुकडे करने पर १९० टुकडे होगें ५२६,९ को १९० बार मिलाने पर जम्बूदीप का १ लाख योजन का विस्तार हो जाता है दक्षिण और उत्तर के खंडो की मिलना-मिलान- पहिले भरत के अधिकार में छे- 'जंनुदोवेणं । ! दोने भरहृम्पमाणमेत्तहि खंडेहि केवइये खंडगनिए पन्नत्ते' साभां ગૌતમ વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણે પ્રશ્ન કર્યો છે કે હું લદત ! એક લાખ ચેન જેટલા વિસ્તરવાળા આ જમૃદ્વીપના ભરતક્ષેત્ર વિસ્તાર બરાબર એ કકડાએ કરવામાં આવે તે તેના કકડા કેટલા થશે ? ભરતક્ષેત્રના વિસ્તાર પર૬૯ યાજન પ્રમાણુ કહેવામાં આવેલ છે. જે એક લાખ ચે!જત જેટલા વિસ્તારવાળા જમૂદ્રીપના એટલા જ ખડા કરવામાં આવે તે तेजाम डेटा थशे ? सेना प्रभु छे- 'गोयमा ! णउयं खंडस खंडगणिएणं पन्नत्ते' हे गौतम! मे साथ योजन विस्तारवाणा भ्यूद्वीयता अडગણિત મુજબ ભરતક્ષેત્ર પ્રમાણુ ખડી કરીએ તે ૧૯૦ કકડાએ થશે. પર૬ ને ૧૯૦ વખત એકત્ર કરવાી જમૂદ્રીપના એક લાખ ચેાજન પ્રાણ વિસ્તાર થઈ જાય છે. દક્ષિણ અને ઉત્તરના ખાની જોડ પહેલાં ભરતના અધિકારમાં કહેવામાં આવી છે એથી હુવે તે ज० ९६ Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ... जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्रे पूर्व पश्चिमस्तु यद्यपि खण्डगणित विचाराणा सूत्रे न कृता तावत् मुखादिभिरेव लक्षसंख्यापूतैः कथनात् तथापि खण्डगणितविचारे कृते यावन्त्येव भरतप्रमाणानि, तावत्संख्यकान्येव खण्डानि भवन्तीति प्रथम खण्डद्वारम् ॥ ___ अथ योजनेति द्वारसूत्रमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' इत्यादि 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वोपः सत्रद्वीपमध्यवर्ती जम्बूद्वीप इत्यर्थः 'केवइयं जोयणगणिएणं पन्नत्ते' शियान् योजनगणितेन समचतुरस्रयोजनपभाणखण्डसर्वसंख्यया प्रज्ञप्तः-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तेत्र कोडिसया' सप्तव कोटिशतानि सप्तैवेत्यत्र एव शब्दोऽवधारणार्थकः, उत्तरत्र संख्यासमु. चयार्थकः 'ण उया' नवनानि-नवति कोटयधिकानि इत्यर्थः, अन्यया-कीटिशततो द्वितीयस्थाने विद्यमानेषु लक्षादि स्थानेषु नवदामरूपा नवति नयुज्यते गणित संप्रदायविरोधात्, तथा-'छप्पण्ण सयसहस्साई' पाञ्चाशच्छ सप्तहस्रणि पट्पञ्चाशल्लक्षा-इत्यर्थः 'चउणवइं च कही जा चुकी है अतः अब उसे यहां नहीं दिखाया जाता है वहीं से इसे देख लेना चाहिये पूर्व से पश्चिम तक के खंडों की विचारणा यहां पर खंड गणित के अनुसार सूत्र में नहीं दिखाई गई है-परन्तु लक्ष संख्या की पूर्ति करनेवाले मुखादिकों द्वारा हो यह बात कह दी जाती है फिर भी खंड गणित के अनुसार विचार करने पर जितना भरतक्षेत्र के खंडों का प्रमाण है उतने ही खण्ड यहां पर होते हैं । खण्डद्वार समाप्त ॥ योजनद्वार वक्तव्यता___'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' गौतमस्शमीने इस द्वार में प्रभु से ऐसा पूछा हैहे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामका द्वीप योजन गणित से समचतुरस्र योजन प्रमाण खंडों को सर्व संख्या से कितना कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! सत्तेव य कोडिसया ण उआ छप्पण सयसहस्साई चउणवइंच सहस्सा વિશે અહીં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવશે નહિ. જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયન કરે. પૂર્વેથી પશ્ચિમ સુધીના ખંડોની વિચારણુ અહી ખંડગણિત મુજબ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. પરંતુ લક્ષ સંખ્યાની પૂર્તિ કરનારા મુખાદિક વડે જ આ વાત કહેવામાં આવી છે. છતાં એ ખંડગણિત મુજબ વિચાર કરી છે તે જેટલું ભક્ષેત્રના ખંડેનું પ્રમાણ છે, તેટલા જ ખડો અહીં પણ હોય છે. ખડદ્વાર સમાપ્ત. જનદ્વ૨ વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' गौतमस्वामी मारमा प्रभुन । प्रमाणे प्रश्न या છે કે હે ભદંત ! જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપ જન ગણિતથી સમચતુરા જન પ્રમાણ भानी सब सध्याथी टखे। ४ामा मासा छ ? अनाममा प्रमु४३ -'गोयमा ! संत्तेव य कोडिसयाई गउआ छप्पण सयसहस्साई चउणव च सहरसा सयं दिवद्धं च गणिअपयं Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७६३ सहरसा' चतुर्नवतिश्च सहस्राणि चतुरधिकानि नवतिसहस्राणि इत्यर्थः 'सयं दिवद्धं च गणियपयं' शतंच द्वयर्थै पञ्चाशदधिकं योजनाना मित्येतावत्प्रमाणकं जम्बूद्वीपस्य गणितपदं क्षेत्र फलमित्यर्थः सूत्रेऽत्र योजनसंख्यायाः प्रक्रान्तत्वाद् योजनावधिरेव संख्या प्रदर्शिता, योजनातिरिक्त संख्याया विद्यमानत्वेऽपि उपेक्षण परित्यागात् भगवतीसूत्रादौ तु साधिकत्वं दर्शितम्, तद्यथा 'गाउयमेगं पण्गरस धणुस्सया तह धणूणि पण्णरस । सहि च अंगुलाई जंबुद्दोवस्त गणियपर्य" ॥ १ ॥ छाया-गव्यूतमेकं पञ्चदशधनुः शतानि तथा पञ्चदश धनुषि । पष्टिं चाङ्गुलानि जम्बूद्वीपस्य गणितपदम् ।। १।। इतिच्छाया ॥ सयं दिवद्धं च गणिअपयं ॥१॥ हे गौतम ! ७ अरय ९० करोड ५६ लाख ९४ हजार १५० योजन का जम्बूद्वीप का क्षेत्र फल है 'सत्तेव' में जो एव पद प्रयुक्त हुआ है वह अवधारण अर्थ तथा आगे की संख्या के समुच्चय के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । 'णउया' पद से ९० करोड अधिक ऐसा अर्थ लिया गया है ९ सौ ऐसा अर्थ नहीं लिया गया है क्योंकि ऐसा अर्थ लेने पर आगे के लक्षादि स्थानों में गणित प्रक्रिया के अनुसार विरोध पडता है गणित पद से क्षेत्र फल गृहीत हुआ है इस सूत्र में योजन संख्या का प्रकरण है इससे योजन तक की ही संख्या यहां दिखाई गई है यद्यपि योजन से अतिरिक्त भी संख्या विद्यमान है परन्तु वह यहां गृहीत नहीं हुई है भगवतीसूत्र आदि में इस प्रमाण में साधिकता इस प्रकार से दिखलाई गई है-'गाउयमेगं पण्णरस धणुस्सया तह धणि पण्णरस । सहि च अंगुलाई जंबूद्दोवस्त गणियपधं ॥१॥ कि जम्बूद्वीप का क्षेत्र फल १ गव्यूत १५१५ धनुष ६० अंगुल का है यहां सप्तकोटि शतादि रूप प्रमाण ।।१।। गौतम ! ७ २५२५८० ४, ५६ साथ, ८४ &, १५० (७६०५६८४१५०) योपन सु दापनु । छे. 'सत्तेव' भा २ 'एव' ५६ प्रयुत प्ये छे, ते भधारण २मर्थ शनी साना समुध्ययन। अर्थमा प्रयुत थये छे. 'णउया' પદથી ૯૦ કરોડ કરતાં અધિક, આ જાતને અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ છે. નવસો એ અર્થ ગ્રહણ કરવામાં આવેલ નથી. કેમકે આ જાતનો અર્થ લેવાથી આગળના લક્ષાદિ સ્થાનમાં ગણિત પ્રક્રિયા મુજબ વિરોધ આવે છે. ગણિત પદથી ક્ષેત્રફળ ગૃહીત થયેલું છે. આ સૂત્રમાં જન સંખ્યાનું પ્રકરણ છે. એથી જન સુધીની જ સંખ્યા અત્રે નિર્દિષ્ટ કરવામાં આવેલી છે. જો કે જાતિરિક્ત પણ સંખ્યા વિદ્યમાન છે, પરંતુ તેનું અત્રે ગ્રહણ થયું નથી. ભગવતીસૂત્ર વગેરેમાં આ પ્રમાણમાં સાધિકતા આ પ્રમાણે નિર્દિષ્ટ ४२वाम भावही छ-'गाउयमेगं पण्णरस धणुस्सया तह धणूणि पण्णरस सढेिच अंगुलाई जंबूहोवस्स गणियपयं ॥१॥ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ઉત્ત जम्बूदीप्रति सूर्य अयमर्थ:- एक गव्यूतं पञ्चदशधनुः शतानि तदुपरि पञ्चदश धनुषि षष्टिसंख्यकानि अङ्गुलानि, सप्तकोटि शतादिकानितु पूर्ववदेव, एतावत्प्रमाणकं जम्बूद्वीपस्य गणितपदंक्षेत्रफलमिति । एतावता उपर्युक्तं जम्बूद्वीपस्य प्रमाणं तईि धनुः शतादीना मंत्रा कथनं योजन द्वारत्वाद् योजनावधिरेव संख्या प्रदर्शितेति । एतावत्प्रमाणस्य करणं चात्र 'विक्षायगुणियोय परिरयो तस्सगणियपर्यं' विष्कम्भपादगुणितश्च परिरयस्तस्य गणितपदमिति वचनात् जम्बूद्वीपस्य परिधिः त्रिलक्ष पोडशसहस्र द्विशतसप्तविंशति योजनादिको जम्बूद्वीप विष्कम्भस्य लक्षरूपस्य पादेन चतुर्थांशेन पञ्चविंशति सहस्ररूपेण निलो जम्बूद्वीपस्य गणितपदमिति, तथाहि - जम्बूद्वीप परिवित्रीणि लक्षाणि पोडश सहस्राणि देशते सप्तर्विशत्यधिके योजनानाम्, तथा गव्यतत्रयम् अष्टाविंशत्यधिकं शतं धनुषां त्रयोदशाङ्गुलानि एक चार्द्धाङ्गुमिति, तत्र योजनराशौ पंचविंशतिसहस्रै गुणने कृते सति सप्तकोटिशतानि नवतिकोटयः षट्पञ्चाशल्लक्षाणि पञ्चसपतिः सहस्राणि भवन्ति तथा कोरात्रयस्य पञ्चविंशतिपूर्ववत् ही लिया है अर्थात् जम्बूद्वीप का जो क्षेत्र फल ऊपर में प्रस्ट किया गया है वह तो है ही परन्तु उस से अतिरिक्त इतना और अधिक उसका क्षेत्र फल है इस प्रमाण को लाने के लिये यह करण सूत्र है- 'विखम्भाषगुणियो य परिरयो तस्स गणिय पर्य' इसका भाव ऐसा है - जम्बूदीप की परिधि का प्रमाण ३ लाख सोलह हजार २ दो सौ २७ योजन का है तथा जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख का है इसका पाद-एक लाख योजन का चतुर्थांश २५ हजार योजन होता है २५ हजार योजन का गुणा परिधि के प्रमाण के साथ करने पर क्षेत्र फल का प्रमाण आजाता है जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ २७ योजन ३ गव्यूत १२८ धनुष १३ । अंगुल है योजन राशि में २५ हजार के गुणा करने पर (३१६२२०x२५००० करने पर) ७९०५५००० इतनी योजन જ બુઢીપનુ ક્ષેત્રફળ ૧ ગત્યંત ૧૫૧૫ નુષ ૬૦ ગુલ જેટલું છે. અહીં સક્ષકેટિ શતાદિ રૂપ પ્રમાણુ પૂર્વાંત જે ગ્રહણ કરવામાં આવેલુ છે. એટલે કે જમૂદ્રીપનુ જે ક્ષેત્રફળ ઉપર સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે, તે તેા છે જ પરંતુ તેના સિવાય આટલું वधारातु तेनु क्षेत्र है, या प्रमाने सादा भाटे या ४२० सूत्र छे, 'विक्खम्भपायगुणियो य परिरयो तस्स गणियपर्यं' मेला मा प्रमाणे छेदीपनी परिधिनु પ્રમાણુ ૩ લાખ ૧૬ હજાર ૨ સૌ ૨૭ (૩૧૬૨૨૭) યેાજન જેટલુ છે, તેમજ જ દ્વીપના વિસ્તાર એક લાખ ચેાજન જેટલે છે. આના પાદ એક લાખ યાજના ચતુર્થાંશ ૨૫ હજાર ચૈાજન થાય છે. ૨૫ હજાર ચેાજનના ગુણાકાર પરિધિના પ્રમાણની સાથે કરવ:થી ક્ષેત્રફળનુ પ્રમાણુ આવી જાય છે. જ ખૂદ્દીપની પરિધિ ત્રણ લાખ સેળ હજાર ખસેા સત્યાવીસ ગૈાજન ૩ ગચૂત ૧૨૮ ધનુષ અને ૧૩!! અગુલ છે. ચૈન રાશિમાં ૨૫ હજારના ગુણાકાર કરવાથી (૩૧૬૨૨૭૪૨૫૦૦૦ કરવાથી) ૭૯૦૫૫૦૦૦ આટલી ચેાજન Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पष्ठौवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७६५ सहस्र गुणने कृते सति गव्यूतानां पञ्चसप्ततिशास्राणि भान्ति, एसालो संख्यानां योजनानयनाथ चतुभिर्भागे हृते सति लब्धानि अष्टादशसहस्त्राणि सप्तशतानि पश्चाशदधिकानि योजनानाम्, अस्मिश्च सहस्त्राधिकं पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते सति जातानि विदति ९३ सहस्राणि सप्त ७ शतानि पश्चाशत् ५० अधिकानि कोटयादिका संख्यातु सर्वत्र समानैब, तथा धनुपामष्टाविंशतिशत पञ्चविंशतिमाह गुण्यते जालानि द्वाशिल्लक्षाणि ३२००००० धनुषाम्, अष्टाभिश्च योजनसहरी योजनमेकं भवति, ततो योजनानयनार्थपष्टभिः सहस्रैर्भागे हृते सति लब्धानि चत्वारियोजनशतानि अस्मिश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि चतुर्नति सहस्राणिसतं पञ्चाशदधिकम् ............ त्रयोदश पञ्चविंशति सह यंदा गुणपन्ते तदा जातानि त्रीणिलक्षाणि पञ्चविंशति सहसाधिशानि, अद्धालमपि यदा पञ्चविंशति सहरभ्यस्ते 'गुण्यते' तदा जातानि म झुलानां पञ्चविसति सम्राणि तेषामर्द्धलब्धानि अगुलानां द्वादशसहसंख्या आजाती है अब ३ कोश में २५ हजार का गुणा करने पर ७५ हजार गव्यूतों का प्रमाण आजाता है ७५ हजार गव्यूतों के योजन बनाने के लिये उनमें ४ का भाग देने पर १८७५० योजन होते है इसे पूर्व राशि में प्रक्षिप्त पारने पर ९३ हजार ७ सौ ५० अधिक होते हैं कोटयादिकों की संख्या तो सर्वत्र उसी तरह से हैं १२८ धनुषों को २५ हजार से गुणित करने पर ३२००००० लाख धनुष होते हैं माठ हजार धनु का १ योजन होता है तब इनके योजन बनाने के लिये ८ हजार का इनमें भाग देने पर ४०० योजन बनते हैं। इसे पूर्वराशि में प्रक्षिस करने पर ९४१५० हो जाते हैं। १३ अंगुलों में २५ हजार का गुणा करने पर ३२५००० अंगुल होते हैं अर्धअंगुल का प्रमाण भी २५ हजार से गुणित होने पर १२ हजार अंगु होता है। पूर्वोक्त अंगुलराशि में इनका प्रक्षेप करने पर ३३७५०० अंशुलराशि होता है। इनके धनुष સંખ્યા આવી જાય છે. હવે ૩ કેશમાં ૨૫ હજાર ગુણાકાર કરવાથી ૭૫ હજાર ગબ્યુનું પ્રમાણ આવી જાય છે. ૭પ હજાર ગભૂતાના જન બનાવવા માટે તેમાં ૪ નો ભાગાકાર કરવાથી ૧૮૭૫૦ જનજાય છે અને પૂર્વરાશિમાં પ્રક્ષિત કરવાથી ૯૩ હાર ૭ પર અધિક થાય છે. કેટયાદિકની સંખ્યા તે સર્વત્ર તે પ્રમાણે જ છે. ૧૨૮ ધનુને ૨૫ હજારથી ગુણિત કરવાથી ૩૨૦૦૦૦૦ લાખ ધનુષ થાય છે. આ હજાર ધ નું એક જન થાય છે. આમ એમના એજન બનાવવા માટે ૮ હજારને એમાં ભાગાકાર કરીએ તે ૮૦ એજન થાય છે. આ સંખ્યા પૂર્વ રાશિમાં પ્રક્ષિત કરવાથી ૯૪૧૫૦ થાય છે. ૧૩ અંગુલેમાં ૨૫ હજાર ગુણાકાર કરવાથી ૩૨૫૦૦૦ અંગુલ થાય છે. અર્ધ અંગુલનું પ્રમાણ પણ ૨૫ હજારથી ગુણિત હોવાથી ૧૨ હજાર અંગુલ થાય છે. પૂર્વોક્ત અંગુલા રાશિમાં આ રાશિને પ્રક્ષિત કરીએ તે ૩૩૭૫૦ અંશુલ રાશિ થાય છે. એના ધનુષ બનાવવા માટે ૯૬ ને Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्राणि पश्चशताधिकानि, तेषु पूर्वोक्ताङ्गुलराशौ प्रक्षिप्तेषु जातोऽङ्गुलराशि:-त्रीणिलक्षाणि त्रिंशत्सहस्राणि पश्चशताधिकानि एतेषां धनुरानयनाय षण्णवति संख्यया भागे हृते सति लब्धानि धनुषां पञ्चत्रिंशच्छताऽनि पश्चाशदधिकानि शेष षष्टिरमुलानि अस्य धनुषोराशे गव्यूतानयनाय सहस्रद्वयेन भागे हृते सति लब्धमेकं गव्यूतं शेषं धनुषां पञ्चदशशतानि पञ्चदशदधिकानि सर्वसङ्कलनया योजनानां सप्तकोटिशतानि नवति कोटयधिकानि षट्पश्वाशल्लक्षाणि चतुर्नवति सहस्राणि शतमेकं पञ्चाशदधिकम्,....गव्यूतमेकं धनुषां पञ्चदशशतानि पश्चाशदधिकानि अङ्गलानां पष्टिरिति योजनद्वारम् ॥ सम्प्रति वर्षद्वारं दर्शयितुमाह-'जंबुद्दीवेणं इत्यादि । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बू. द्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'कइ वासा पन्नत्ता' कति-कियत्संख्यकानि वर्षाणि भरतादीनि क्षेत्राणि प्रज्ञप्तानि-इश्तिानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्त वासा एभत्ता' सप्तसंख्यकानि वर्षाणि भरतादीनि प्रज्ञप्तानिकथितानि, तानि कानि सावर्षाणि इत्याशङ्कायां तानि दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि । 'तं जहा' तद्यथा--'भरहे एश्वर हेमवए हिरण्गवर हरिवासे रम्नगवासे महाविदेहे' भरतंबनाने के लिये ९६ का भाग देने पर ३५१५ धनुष आते हैं शेष नीचे ६० वचते हैं इस धनुषराशि के गव्यूत होता है तब तक एक गब्यून आता है शेष स्थान में १५१५ बचते हैं इन सब की संकलना से ७ सौ करोड (७ अरब) ९० करोड ५६ लाख ९४ हजार १५० योजन १ गच्यूत १५-१५ धनुष ६० अंगुल यह 'गाउयमेगं' इत्यादि गाशेक्त प्रमाण निकल आता है। योजनदार समाप्त ।। वर्षद्वार वत्तव्यता 'जंबुद्दीवेणं मंते ! दीवे कति वासा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके बोप में कितने वर्ष-क्षेत्र कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा! सत्तवासा' हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप नाम के होप में सात क्षेत्र कहे गये हैं। 'तं ભાગાકાર કરવાથી ૩૫૧૫ ધનુષ થાય છે. નીચે શેપમાં ૬૦ વધે છે. આ ધનુષ રાશિને ગબૂત બનાવવા માટે બે હજારનો ભાગાકાર કરે પડે છે. કેમકે બે હજાર ધનુષને એક ગળ્યુત થાય જ્યારે એક ગધૂતે આવે છે ત્યારે શેષ સ્થાનેમાં ૧૫૧૫ વધે છે. એ બધાની પંદલનાથી ૭ કરોડ ૭ અબજ) ૯૦ કરોડ ૫૬ લાખ ૯૪ હજા૨ ૧૫૦ એજન (૭૯૦૫૬૯૪૧૫૦) ૧ भव्यूत १५-१५ धनु ६० मुख मा 'गाउयमेगं' इत्यादि आयात प्रभार नाजी माय छे. જનદ્વાર સમાપ્ત વર્ષઢ ૨ વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भते ! दीवे कति वासा पण्णत्ता' मत ! मापूदी५ नाम दीपमा टसा वर्ष-क्षेत्र ४ाम मावा छे ? वाममा ४३ छ-'गोलमा ! सत्तवासा' डे गौतम ! पूनम दीपमा सात ४ामा सावा छे. 'तं जहा' तमना Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् भरतवर्षम्, ऐरवतवर्षम्, हैमवतवर्षम्, हिरण्यवर्षम्, इरिवर्षम्, रम्यकवर्षम्, महाविदेहश्च, तानि एतानि भरतादीनि जम्बूद्वीपे सप्तसंख्यकानि ७ वर्षाणि भवन्तीति वर्षद्वारम् ॥ सम्प्रति-पर्वतद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीवे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः केवइया वासहरा पन्नत्ता' कियन्त:-कियत्संख्यका वर्षधरा:-वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-केवइया मंदरा पन्चया पन्नत्ता' कियन्त:-कियत्संख्यकाः मंदरपर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'केवइया चित्तकूडा' कियन्त:कियत्संख्यकाः चित्रकूटपर्वताः, तत्र चित्रं-विलक्षणं कूटमग्रभागो येषां ते चित्रकूटा स्तादृशाः पर्वता जम्बूद्वीपे कियन्तः प्रज्ञप्ताः, तथा-'केवइया विचित्तकूडा' किरन्त:,-कियत्संख्यकाः विचित्रकूटा नामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'केवइया जमगपब्वया' कियन्त:-कियसंख्यका यमकपर्वताः युग्म नातवदवभासमानाः एवताः प्रज्ञप्ताः, तथा-'केवइया कंचणजहा' उनके नाम इस प्रकार से है-'भरहे, एरवए, हेमवए, हिरण्णवए, हरिवासे, रम्मगवासे महाविदेहे' भरतक्षेत्र, ऐरवतक्षेत्र, हैमवत क्षेत्र, हिरण्यवर्ष, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष और महाविदेह रकथन 'जघुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइआ वासहरा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नामके दीप में कितने वर्षधर पर्वत-कहे गये हैं तथा-'केवइआ मंदरा पव्वया पण्णत्ता' कितने मन्दर पर्वत कहे गये हैं ? 'केवइया चित्तकूडा, केवइया विचित्त कूडा, केवइया जमगपव्वया, केवइया कंचण पव्वया, केवइया-वक्खारा, केव. इया दीहवेअद्धा, केवइआ वटवेअद्धा पण्णत्ता' कितने चित्रकूट पर्वत, कितने विचित्रकूट पर्वत, कितने यमक पर्वत, कितने कंचण एवंत, कितने वक्षस्कार, पर्वत कितने दीर्घवैताढयपर्वत, एवं कितने वृत्तवैताढय पर्वत, कहे गये हैं ? इन में जो चित्र कूट नामके पर्वत हैं उनका कूट अग्रभाग विलक्षण प्रकारका है युग्मजात नाभा मा प्रमाणे छ-'भरहे एरवए, हेमवए, हिरण्णवए, हरिवासे रम्मगवासे, महाविदेहे,' ભરતક્ષેત્ર, અરવતક્ષેત્ર, હેમવતક્ષેત્ર, હિરણ્યવર્ષ, હરિવર્ષ રમ્યક વર્ષ અને મહાવિદેહ. પર્વતદ્વાર કથન 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइआ वासहरा पण्णत्ता' 3RE ! द्रीय नाम दीपमा ३८॥ १५२ पता ४२वामां आवे छे. तेभा 'केवइआ मंदरा पव्वया पण्णत्ता' । भ२५ । वामां आवसा छ १ 'केवइया चित्तकूडा, केवइया विचित्तकूडा, केवइया जमगपव्वया, केवइया कंचणपव्वया, केवइया वक्खारा, केवइया दीहवेअद्धा, केवइया वट्टवेअद्धा पण्णत्ता' या चित्रकूट५'त। सा वियत्र ८५ती, tean यमता , ट॥ ४यनપર્વતે, કેટલા વક્ષસ્કર૫ર્વતે, કેટલા દીર્ઘતાઠયપર્વત, તેમજ કેટલા વૃતાઢયપર્વતે કહેવામાં આવેલા છે ? એ સર્વમાં જે ચિત્રકૂટ નામક પર્વત છે, તેમને ફૂટ અગ્રભાગ વિલક્ષણ પ્રકારનું છે. યુગ્મ જાતની જેમ માલુમ પડનારા જે પર્વતે છે તે યમપર્વતે Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ जम्बूखी पतिसूत्रे " पव्वया' कियन्तः कियत्संख्यकाः काञ्चनपर्वताः सुवर्णमयाः सुवर्णवदवभासमानाः पर्वताः प्रज्ञप्ता :- कथिताः, दथा- केवइया वक्खारा' कियन्तः कियत्संख्यकाः वक्षस्काराः - वक्षस्कारनामकाः पर्वताः ः प्रज्ञता :- कथिताः, तथा- - 'केवइया दीहवेयद्धा' कियन्तः कियत्संख्यका दीर्घवैताया स्तनामकपर्वतविशेषाः प्रज्ञप्ताः -कथिताः, तथा - 'केवइया वट्टवेगदा पत्ता ' कियन्तः कियत्संख्यकाः वृत्तवैवाढया एतनामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ताः कथिता, इतिप्रश्नः, भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबूदीवे छदा सहरषष्वया' जम्बूद्वीपनाम के द्वीपे पदसंख्याः वर्षधरपर्वताः प्रज्ञप्ताः- कथिता, तत्र वर्ष - भरतादिकं धरन्ति ये ते वर्षः क्षुल्लमित्रदादयः ते संख्यया षडेव भवन्तीति । तथा-' - 'एगे मंदरे पव्वए ' एक:- एकएव जम्बूद्वीपे मन्दरो मेरुनामकः पर्वतो विद्यते इति । तथ - ' एगे चित्तकूडे ' एक:- एक एव चित्रकूटनामकः पर्वतो जम्बूद्वीपे तथा - ' एगे वित्तिकूडे ' एक:- एक एव विचित्रकूटः पर्वतः जम्बूद्वीपे एतौ च यमलजातकानिव द्वौ पर्वतो देवकुरुवर्त्तिनों, तथा'दो Rayar' द्वौ - द्विसंख्यकौ यमकपर्वतौ उत्तरकुरुवर्तिनों, तथा - 'दो कंचण पव्वयसया' द्वे काञ्चनपर्वत, देवकुरुतरकुरुनिष्ठ हृददशकोनयतटयोः प्रत्येकं दश दश काञ्चनककी तरह मालूम पडने वाले जो पर्वत हैं वे यनकपर्वत हैं । काञ्चन पर्वत सुवर्णमय हैं अतः ये सुवर्ण के जैसे प्रतिभावित होते हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोमा ! जंबुवे छ वासरकवया' हे गौतम! जम्बूदीप में छ वर्षधर पर्वत कहे गये हैं-थे त् आदि नाम वाले हैं इन्हें वर्षघर इसलिये कहा गया है कि इनके द्वारा क्षेत्रों का विभाग किया गया है । एक मन्दर पर्वत कहा गया है और यह शरीर में नाभि की तरह ठीक जम्बूद्वीप के बीच में है । पर्वत कहा गया है 'एगे विचित्तकूडे' एक ही विचित्र कूट पर्वत कहा गया है 'दो जमग पव्त्रया, दो कंचणगपव्वयस्या' दो यमक कहे गये हैं ये पर्वत उत्तरकुरुक्षेत्र में हैं । दो सौ काञ्चन पर्वत कहे गये हैं । एक क्यों कि देवकुरु और उत्तरकुरु में जो १० हृद है उनके दोनों तटों पर છે. કંચનપર્યંત સુવર્ણમય છે. એથી એ પતા સુવણ જેવા પ્રતિભાષિત થાય છે. એના भवामभां अलु ४डे छे- 'गोयमा ! जंबुद्दीवे छ वासहरपत्रया' हे गौतम! शूद्रीषभां વધર પતા આવેલા છે. એ ક્ષુલ્લ હિંમવત વગેરે નામવાળા છે. એમને વધર એટલા માટે કહેવામાં આવેલા છે કે એમના વડે ક્ષેત્રનું વિભાજન કરવામાં આવ્યુ છે. એક મંદપર્યંત કહેવામાં આવેલ છે અને એ પર્યંત શરીરમાં નાભની જેમ ઠીક જ બુઢીપના मध्यभागमां व्यवस्थित छे से चित्र उडेवामां आवे छे. 'पगे त्रिचित्त कूडे' मे ४ विचित्र छूट पर्वत वामां आवे छे. 'दो जमगपव्या, दो कंपणगपव्वयसया' मे યમકપ તે કહેવામાં આવેલા છે. એ યમકપવ તા ઉત્તરકુરુક્ષેત્રમાં છે, ખસો કાંચનપા કહેવામાં આવેલા છે. કેમકે અને ઉત્તરકુરુમાં જે ૧૦ હૃદ છે. તેમના મતે ઢેકુરુ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७६९) पर्वत सद्भावात् 'वीसं वक्खारपव्यया पन्नता' विंशति विंशतिसंख्यका वक्षस्कारपर्वताः प्रज्ञप्ताः, अस्मिन् जम्बूद्वीपे कथिताः तत्र गजदन्त सदृशा गन्धमादनादयश्चत्वारः पर्वताः, तथा चतुः प्रकारमहाविदेहे प्रत्येकं चतुष्क चतुष्क सद्भावात् षोडश चित्रकूटादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिता विंशति संख्यका भवन्ति तथा-'चोत्तीसं दोहयद्धा' चतुत्रिंशदीर्घवैताढय पर्वताः प्रज्ञप्ताः तत्र द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतैरवनयोश्च प्रत्येकमेकैक सद्भावादिति । तथा-'चत्तारि वट्टवेयद्धा' चत्वारो वृत्तवैनाढया गोलाकाराः पर्वताः प्रज्ञप्ताः हैमवतादिषु चतुर्पु वर्षक्षेत्रेषु एकैकभावादिति । “एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे दुण्णि अउणुतरा पब्धयसया भवंतीति मक्खायंति' एवमेव सपुर्वापरेण पूर्वापरसंकलनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्यजम्बूद्वीपे द्वे एकोनसप्तत्यधिके पर्वतशते भवत इत्याख्यायन्ते अहं महावीरस्वामी अन्ये च तीर्थकराः प्रतिपादयन्तीति । तत्र-पड्यर्पवरपर्वताः, एको मन्दरः, एकश्चित्रकूटः, एको विचित्रकूटः द्वौ यमकपर्वतो, द्वेशते काश्चन पर्वताः विंशति वक्षस्कारपर्वताः, चतुस्त्रिंशद् दीर्घवैताढयाः, चबारोवृत्तवैताढयाः, सर्व संकलनया उक्तसंख्यकाः पर्वता भवन्तीति । प्रत्येक तट पर १०-१० काश्चन पर्वत हैं। 'वीसं वक्खारपव्वया पन्नत्ता' २० वक्षस्कारपर्वत हैं इनमें गजदन्त के आकारवाले गन्धमादन आदि चार तथा चार प्रकारक महाविदेह में प्रत्येक में चार के सद्भाव से १६ चित्रकूटादिक ये कुल मिलकर २० वक्षस्कार पर्वत है। 'चोत्तीसं दीहवेवडा' ३४ दीर्घ वैताढयपर्वत हैं इन ३२ विजयों में और भरत ऐरवत इन दो क्षेत्रों में प्रत्येक में एक २ दीर्घ वैताढय है इस प्रकार से ये ३४ है 'चत्तारि वट्ट वेयडा' चार गोल आकारवाले वृत्तवैताढय पर्वत है। हैमवत् आदि क्षेत्रों में एक २ वृत्तवैताढय पर्वत है इसलिये ये चार हैं । 'एवामेव स पुवावारेण जंबुद्दीचे दीवे दुपिणअउणुत्तरा पत्र य सया भवंतीति मक्खायंति' इस तरह इन सब पर्वतों की जम्बूद्वीप में कुल मिलाकर संख्या २६९ होती है ऐसा मुझे महावीर ने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है इन में ६ वर्षधर पर्वत, एक मन्दर, एक चित्रकूट, एक विचित्रकूट, दो ना । ३५२ ६२४ त? ५२ १०-१० ४iयनता छ. 'वीसं वक्खारपव्वया पन्नत्ता' २० વક્ષસ્કાર પર્વત છે. એમાં ગજદન્તને આકારવાળા ગન્ધમાદન વગેરે ચાર તથા ચાર પ્રકારના મહાવિદેહમાં દરેકમાં ચારના સદુભાવથી ૧૬ ચિત્રકૂટાદિક એ બધા મળીને ૨૦ વક્ષસ્કાર ५वात छ. 'चोत्तीसं दीहवेयड्ढा' ३४ ही वैतादयता छ. सविस्यमा मन भरत અરવત એ બે ક્ષેત્રમાં દરેકમાં એક-એક દીર્ઘ વૈતાઢય છે. આ પ્રમાણે એ બધા ૩૪ पता छे. 'चत्तारि वट्टवेयडढा' या गाण वृत्तवैत दय पर्वत। छे. भक्त वगेरे क्षेत्रमा ४-४ वृत्तवैतादय पति छ. मेथी से अधा यार तो छ. 'एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे दुण्णि अउणुत्तरा पव्वयसया भवंतीति मक्खायंति' मा प्रमाणे दीपमा એ બધા પર્વતની કુલ સંખ્યા ૨૬૯ થાય છે એવું મેં મહાવીર તેમજ બીજા તીર્થકરાએ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र सम्प्रति-जम्बूद्वीपे कियन्ति कूटानि सन्ति इति पञ्चमद्वारं तदर्शयितुमाह-'जंबुद्दीवे णं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया वासहरकूडा' कियन्ति-कियत्संख्यकानि वर्षधरकूटानि जम्बूद्वीपे प्रज्ञप्तानि, तथा-केवइया वेयद्धकूटा' कियन्ति वैताढयकूटानि प्रज्ञप्तानि, तथा-'केवइया मंदरकूडा पनत्ता' कियन्ति-कियत्संख्यकानि मन्दर 'मेरु' कूटानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीतिप्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'छप्पण्णं वासहरकूडा पन्नत्ता' जम्बूद्वीपे द्वीपे षट्पञ्चाशत् षट्पञ्चाशत् संख्यकानि वर्षधरकूटानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि तथाहि-क्षुद्रहिमवच्छिखरिणोः प्रत्येकमेकादशैकादशकूटानीति मिलित्वा द्वाविंशतिः तथा-महाहिमवत्पवयोः प्रत्येकमष्टावष्टौ इति मिलित्वा षोडश, निषधनीलवतोः प्रत्येकं नवनवेति मिलिखा अष्टादश, तदेवं सर्वसंकलनया जम्बूद्वीपे षट्पञ्चाशद् वर्षधरकूटानि भवन्तीति । तथा'उण्णउइं वक्खारकूडा पन्नत्ता' जम्बूद्वीपे षण्णवति वक्षस्कारकूटानि प्रज्ञप्तानि, तथाहि-सरळयमकपर्वत, दो सौ काञ्चन पर्वत, बीस वक्षस्कार पर्वत, ३४ दीर्घवैताढय पर्वत, और चार वृतवैताढय पर्वत है। पंचमद्वारकथन __'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया वासहरकूडा' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नामके द्वीप में कितने वर्षधर कूट है ? तथा-केवइया बेगडकूडा' कितने वैताढयकूट हैं ? 'केवइया मंदरकूडा पन्नना' कितने मंदरकूट हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! छप्पण्णं वासहरकूडा पन्नत्ता' हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में ५६ वर्षधर कूट हैं ये इस प्रकार से हैं-क्षुद्र हिमवान् पर्वत और शिखरी इन दो पर्वतो में से प्रत्येक पर्वत में ११-११ कूट हैं महाहिमवान् और रुक्मी इन दो पर्वतों में से प्रत्येक पर्वत में ९-९ कूट हैं इस प्रकार मिलकर सब ५६ वर्षधर कूट हैं 'छण्णउई वक्खार कूडा पन्नत्ता' ९६ वक्षस्कार कूट इस जम्बूद्वीप में हैं वे કહ્યું છે. ૬ વર્ષધર પર્વતે એકમંદર, એકચિત્રકૂટ, એકવિચિત્રકૂટ, બે ચમકપર્વતે, બસ કાંચનપર્વત, ૨૦ વક્ષકાર પર્વત, ૩૪ દીઘવૈતાદ્યપર્વતો અને ૪ વૃત્તતાપર્વત છે. પંચમદ્વાર કથન 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया वासहरकूडा' महन्त ! पूदी५ नाम दी५i Bean ५२ छूट छ १ तेभ. 'केवइया वेयद्धकूडा' टा वैतादय ट। मासा छ ? केवइया मंदर कूडा पन्नत्ता' उटसा महर टूटी सवा छ ? अनायासमा प्रभु ४ छ-'गोयमा! छप्पण्णं वासहरकूडा पन्नत्ता' गोतम! युद्धा५ नाम द्वीपमा ५६ વર્ષધર ફૂટ આવેલા છે. તે આ પ્રમાણે છે–સુદ્ર હિમવાન પર્વત અને શિખરી એ બે પર્વતેમાંથી દરેક પર્વતમાં ૧૧-૧૧ ફૂટે આવેલા છે. મહાહિમવન અને રુક્મી એ બે પર્વતમાંથી દરેક પર્વતમાં ૯-૯ ફૂટે આવેલા છે. આ પ્રમાણે મળીને બધા પ૬ વર્ષધર Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टोका-षष्ठोवक्षस्कार सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७७६ वक्षस्कारेषु महाविदेहस्थित पोडशचित्रकूटादयः सरलाश्चतुःषष्टिः, तथा गजदन्ताकारवक्षस्कारेषु गन्धमादनसौमनसयोः सप्त सप्त इति मिलित्वा चतुर्दश, माल्यवद् निद्युत्मभयो. नवनवेति मिलित्वा अष्टादश, तदेवं सर्वसंकलनया षण्णवति वक्षस्कारकूटानि जम्बूद्वीपे भवन्तीति । 'तिण्णि छलुत्तरा वेयद्धकूडसया' त्रीणि षडुत्तराणि वैताढयकूटशतानि, तत्र भरतैरवायो विजयानां च वैताढयेषु चतुः त्रिंशत्संख्यकेषु प्रत्येकना संभवाद् यथोक्तसंख्यानयनं भवति, वृत्तवैताढयेषु च कूटस्य सर्वथाऽभाव एव, अत एव वैताढयसूत्रे दीर्धेति विशेषणस्योपादानं न कृतम् यतो व्यावर्तकमेव विशेषणं भवति, अत्र च व्यावाभावेन तदुपादानं निरर्थकमेव स्यादिति । 'णव मंदरकूडा पन्नत्ता' नव मन्दरकूटानि प्रज्ञप्तानि मेरुपर्वते नव कूटानि तानि च नन्दनवनगतानि ग्राह्याणि न भद्रशालवनगतानि दिग्रह स्तिकूटानि, तेषां भूमिप्रतिष्ठितत्वेन स्वतन्त्र कूटत्वादिति । 'एवमेव सपुधावरेण-पूर्वापरसंकलनेन चत्वारि सप्तइस प्रकार से हैं-१६ सरल वक्षस्कारों में से प्रत्येक में ४-४ हैं तथा गजदन्ता कृति वाले बक्षस्कारों में से गन्धमादन और सौमनस इन दो बक्षस्कारों में से प्रत्येक में सात सात हैं माल्यवत् में नौ और विद्यत्प्रभ में ९ इस प्रकार सब मिलकर ९६ वक्षस्कार कूट हो जाते हैं। 'तिणि छलुत्तरा वेयद्धकूडसया ३०६ तीन सौ छह वैताढयकूट है वे इस प्रकार से हैं भरत और ऐरवत के एवं विजयों के ३४ वैताढयों में प्रत्येक में ९-९ कूट है सब मिलकर ३०६ हो जाते हैं । वृत्त वैताढयों में कूट का सर्वथा अभाव है इसीलिये वैताढय सूत्र में दीर्घ ऐसा विशेषण नहीं दिया गया है । विशेषग जो होता है वह अन्य का व्यावर्तक होता है। यहां व्यावर्त्यका अभाव है इसलिये उसका उपादान व्यर्थ हो जाता है अतः विशेषण नहीं दिया है। 'णव मंदरकूडा पण्णत्ता' मेरुपर्वत पर नौ कूट कहे गये हैं । ये नौ कूट नन्दनवन गत यहां ग्राह्य हुए है। भद्रशालवनगत दिगहदूटो छे. 'छण्णउई वक्खारकूडा पन्नत्ता' ८६ पक्षा२ टमामूदीपम छे. ते मा प्रमाणे છે–૧૬ સરલ વક્ષસ્કારમાંથી દરેકમાં ૪-૪ છે. તેમજ ગજ દન્તાકૃતિવાળા વક્ષસ્કારમાંથી ગન્ધમાદન અને સૌમનસ એ બે વક્ષસ્કારોમાંથી દરેકમાં સાત-સાત છે. માલ્યવતમાં ૯ भने विधुत्यसमा ८ २ प्रमाणे ८६ वक्षः४।२ छूटी थाय छे. 'तिण्णि छलुत्तरा वेयद्ध कूडसया' ३०६ वैतादय ट। छे. ते । प्रभारी छ-२ मन रतना तेम ( યેના ૩૪ વૈતાઢવ્યોમાંથી દરેકમાં ૮-૯ ફૂટ આવેલા છે. આમ સર્વ મળીને ૩૦૬ થઈ જાય છે. વૃત્ત વૈતાદ્યોમાં ફૂટને સર્વથા અભાવ છે. એથી વૈતાઢય સૂત્રમાં દીર્ઘ એવા વિશેષણ આપવામાં આવ્યા નથી. જે વિશેષણ હોય છે તે અન્ય વ્યાવક હોય છે. અહીં વ્યાવતને અભાવ છે, એથી તેનું ઉપાદાન વ્યર્થ થઈ જાય છે. એથી જ વિશેષણ આપवामां आवे नथी. 'णव मंदरकूडा पण्णत्ता' भेर्पत ५२ न झूटो मासा छ. मे નવ ફૂટ નન્દનવનગત અહીં ગ્રાહ્ય થયા છે, ભદ્રશાલવનગત દિગૃહસ્તિતૂટ શ્રાહા થયેલા Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे षष्टानि-सप्तषष्टयधिकानि चत्वारिशतानि भवन्तीति आख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति । तथाहि-पटप्रश्चाशद् ५६ वर्षधरकूटानि, षण्णवति ९६ वक्षस्कारकूटानि, षडधिकानि त्रीणिशतानि ३०६ वृत्तवैताढयकूटानि नव ९ मन्दरकूटानि सर्व संकलनया ४६७ संख्या भवन्ति । सम्प्रति-तीर्थद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बू द्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'भरहे वासे' भरतनामके वर्ष-क्षेत्रे 'कइ तित्था पन्नत्ता' कति-कियत्संख्यकानि तीर्थानि मागधादीनि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तो तित्था पग्नत्ता' त्रीणि त्रिसंख्यकानि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, तान्येव नामग्राहं दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मागहे, वरदामेपभासे, मागधं वरदाम प्रभासम्, तत्र मागधं तीर्थ पूर्वस्यां दिशि समुद्रस्य गङ्गासङ्गमे, वरदामतीर्थ दक्षिणस्यां दिशि, प्रभासंतीर्थ पश्चिम दिशि समुद्रस्य सिन्धु सङ्गमे । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! पे सर्व द्वीपमध्यद्वीपे इत्यर्थः स्तिकूट ग्राह्य नहीं हुए हैं । क्यों कि ये भूमि प्रतिष्ठित होने के कारण स्वतन्त्रकूट हैं। 'एवामेव सपुत्वावरेण' इस प्रकार ये सय कुट मिलकर ४६७ होते हैं जैसे-५६ वर्ष धर कूट, ९६ वक्षस्कारकूट ३०६ वृतवैताढयकूट, और..९ मन्दर कूट इनका जोड ४६७ होता है। तीर्थद्वारवक्तव्यता . 'जंबुद्दीवेणं भंते ! भरहे वासे कइ तित्था पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में मागध आदि तीर्थ कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं गोयमा ! 'तओ तित्था पण्णत्ता' हे गौतम ! तीन तीर्थ कहे गये हैं । 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'मागहे वरदामे, पभासे' मागध वरदाम और प्रभास इन में मागध तीर्थ समुद्र का पूर्व दिशा में है जहां की गंगा का संगम हुआ है घरदामतीर्थ दक्षिण दिशामें है और प्रभासतीर्थ पश्चिमदिशा में है जहां की सिन्धु नदी का संगम हुआ है 'जंबुद्दीवे णं भंते ! एरवए वासे कइ तित्था नथी, भ, सन्या भूमिप्रतित डोवाथी स्वतंत्र झूटो छे. 'एवामेव सपुव्यावरेण' ! પ્રમાણે આ બધા કૂટ મળીને ૪૬૭ થાય છે. જેમકે ૫૬ વર્ષધર કૂટ, ૯૬ વક્ષસ્કાર કૂટે, ૩૦૬ વૃત્તવૈતાઢય કૂટો અને ૯ મંદર કૂટો આમ એ સર્વની જોડ ૪૬૭ થાય છે. તીર્થદ્વાર વક્તવ્યતા . 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरहेवासे कइ तित्था पण्णत्ता' लत ! 241 पूरी५ नाम: दीयमा भाग वगेरे तार्था सा उपामा मा छ १ मा प्रभु ४९ छे. 'गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता' 3 गीतम! ता. ४ामा मासा छ. 'तं जहा भो 'मागहे . वरदामे, पभासे भाग, १२४ाम अने प्रभास समा भाग ती समुद्रनी पूर्व दिशामा આવેલ છે. જ્યાં ગંગાને સંગમ થયેલ છે. વરદાન તીર્થ દક્ષિણદિશામાં આવેલ છે અને Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाश टोका-षष्ठोवक्षस्कार मू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७७३ 'एरवए वासे' ऐरव ते वर्ष एतनामके क्षेत्रे 'कइ तित्था पन्नत्ता' कति-कियासंख्यकानि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, तत्र तीर्थानि चक्रवर्तिनां स्वस्त्रक्षेत्रसीमासुरसाधनाथ महाजलावतरणस्थानानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तओ तित्था पन्नत्ता' त्रीणि-त्रिसंख्यकानि तीर्थानि महाजलावतरण स्थानानि प्रज्ञप्तानि-कथितानि, तान्येवनामग्राहं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मागहे वरदामे पभासे' मागधं वरदाम प्रभासम्, तत्र-मागधं तीर्थ पूर्वस्यां समुद्रस्य रक्तानदी सङ्गमे, वरदामतीर्थ तत्रत्यदिगपेक्षया दक्षिणे, प्रभासं पश्चिमायां रक्तवतीनद्याः समुद्रसङ्गमे इति । 'एवामेव सपुवावरेण' एवमेव सपूर्वापरेण-सर्व संकलनेन 'जंबुद्दोवे णं भंते ! दीवे जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'चक्कवहि विजए' चक्रवर्ति विजये 'कइतित्या पन्नत्ता' कति-कियत्संख्यकानि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे पण्णत्ता' हे भदन्त ! जंबूद्वीप नामके द्वीप में वर्तमान ऐरवन क्षेत्र में कितने तीर्थ कहे गये हैं ? चक्रवर्तियों के अपने अपने क्षेत्र की सीमाओं के देवों को वश में करने के लिये जो महान जलावतरण स्थान होते हैं वे तीर्थ है ऐसे तीर्थ ऐरवत क्षेत्र में कितने हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता' हे गौतम ! ऐरवत क्षेत्र में तीन तीर्थ है 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं 'मागहे वरदामे पभासे' मागध, वरदाम और प्रभास इनमें मागध नामका जो तीर्थ है वह समुद्र की पूर्व दिशा में है जहां रक्तानदी का संगम हुआ है वरदामतीर्थ दक्षिणदिशा में है, प्रभास तीर्थ पश्चिमदिशा में है जहां पर रक्तवती नदी का संगम हुआ है। 'एवामेव स पुवावरेण जंबुदोवे णं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे चकवहि विजए कइ तित्था पण्णत्ता' इस तरह सब तीर्थो की संख्या जम्बृद्धीप नामके इस द्वीप में १०२ होती है हे भदन्त ! इस जंवृद्धीप प्रभासता पश्चिमहिशामा आव है. सिन्धु नहीना संगम । छ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! एरवए वासे कइतित्था पग्णत्ता' मत! दीप दाम दाभां भान भरवत ક્ષેત્રમાં કેટલા તીર્થો કહેવામાં આવેલા છે? ચક્રવતિ ઓના પિત–પિતાના ક્ષેત્રની સીમાઓના દેવોને વશમાં કરવા માટે જે મહદ્ અવાવરણ સ્થાને હોય છે તે તીર્થો છે. એવા તીર્થો भैरवत क्षेत्रमा इटा छ ? सेनाममा प्रभु ४९ छ–'गोयमा ! तओ तिःथा पण्णत्ता' 3 गौतम ! भरवत क्षेत्रमा त्र तीर्थी छे. 'तं जहा' ते २मा प्रभारी छ-'मागहे वरदामे पभासे' માગધ, વરદામ અને પ્રભાસ એમાં જે માગધ નામક તીર્થ છે તે સમુદ્રની પૂર્વ દિશામાં આવેલ છે. કે જ્યાં રક્તા નદીને સંગમ થયેલ છે વરદામતીર્થ દક્ષિણદિશામાં આવેલ छ. प्रभासतीय पश्चिमाशाम छ. न्यो २४तावती नही सम थयेटो छे. 'एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे चक्किवट्टि विजये कइतित्था पण्णत्ता' मा પ્રમાણે બધા તીર્થોની સંખ્યા જંબૂઢીપ નામના આ દ્વીપમાં ૧૦૨ થાય છે. હે ભદન્ત! Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिस्त्र गौतम !' तो तित्था पन्नत्ता'त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा-मागहे वरदामे पभासे' मागधं वरदाम प्रभासम्, तत्र पूर्वस्यां शीतायाः गङ्गासगमे, मध्यगतं वरदामतीर्थ, पश्चिमायां शीतोदकायाः संगमे प्रभासं तीर्थमिति । 'एवामेव सपुव्वावरेण जंबुद्दीवे दीवे एगे वि उत्तरे तित्थसए भवंतीति मक्खायं' एवमेव-यथोक्तप्रकारेण सपूर्वापरेण पूर्वापर संकलनेन एकं धुत्तरं द्वयधिकमेकं तीर्थशतं भवतीति मया अन्यैश्च तीर्थङ्करै राख्यातं कथित मिति । तथाहिचतुस्त्रिंशद् विजयेषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणितीर्थानि भवन्ति सर्व संकलनया द्वयधिकशतमेकंतीर्शनामिति । सम्प्रति श्रेणिद्वारे दर्शयितुं प्रश्नयनाह-'जंबुद्दीवेणं' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते !दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया विज्जाहरसेढीयो पन्नत्ताओ' कियत्य:-कियत्संख्यकाः विद्याधर श्रेणयः, तत्र श्रेणयो विद्याधराणामावासभूता वैत ढयानां पूर्वापरोदध्यादिपरिच्छिन्ना आयतमेखलाः ताः संख्यया कियत्यो भवन्ति, तथा में जो महाविदेह क्षेत्र है और चक्रवर्ती विजय है उसमें कितने तीर्थ है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तओ तित्था एण्णत्ता' हे गौतम ! चक्रवर्ती विजय में तीन तीर्थ हैं 'तं जहा' जैसे-'मागहे वरदामे, पभासे. मागध, वरदाम और प्रभास पूर्वदिशा में शीता के गङ्गा संगम में मागधतीर्थ है वरदामतीर्थ दक्षिणदिशा में है और प्रभासतीर्थ शोतोदा का जहां संगम हुआ है वहाँ पश्चिम दिशा में हैं । इस तरह जम्बूद्वीप में कुल सब मिलाकर १०२ तीर्थ हो जाते हैं। ऐसा मैने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है तात्पर्य यही है कि ३४ विजयों में से प्रत्येक विजय में तीन २ तीर्थ होते हैं इस तरह ये १०२ तीर्थ हो जाते हैं। 'जंबुद्दोवे णं भंते ! दीवे केवइया विजाहरसेढीओ केवड्या आभिओग. सेढीओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! जम्बूद्रीप नाम के इस द्वीप में कितनी विद्या આ જંબૂતીપમાં જે મહાવિદેહ ક્ષેત્ર છે અને ચકવતી વિજય છે તેમાં કેટલા તીર્થો છે? सेना वासभा प्रभु 3 छे-'गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता' 3 गौतम ! यवती' वियों त्र तीर्था छ. 'तं जहा' रेभडे 'मागहे, वरदामे, पभासे' भागध, १२६म सने प्रभास પૂર્વ દિશામાં શીતાના ગગા સંગમમાં માગધતીર્થ છે. વરદામતીર્થ દક્ષિણ દિશામાં છે અને પ્રભાસતીર્થ શીતેદાને જ્યાં સંગમ થયેલ છે ત્યાં પશ્ચિમદિશામાં આવેલ છે. આ પ્રમાણે જબૂતીપમાં કુલ મળીને ૧૦૨ તીર્થો થઈ જાય છે. એવું મેં અને બીજા તીર્થકરેએ કહ્યું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે ૩૪ વિજમાંથી દરેક વિજયમાં ત્રણ-ત્રણ તીર્થો આવેલા છે. આ પ્રમાણે આ બધા ૧૦૨ તીર્થો થઈ જાય છે. ____ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया विज्जाहरसेढीओ केवइया, आभिओगसेढीओ पण्णgrો હે ભદન્ત ! બૂઢીપ નામક આ દ્વીપમાં કેટલી વિદ્યાધર શ્રેણીઓ અને કેટલી Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कार सू. २ शारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् कियत्य आभियोग्यश्रेणयश्च प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे असही विजाहरसेढीओ' जम्बूद्वीपे द्वीपे-जम्बूद्वीप नामकद्वीपे अष्टषष्टिः विद्याधरश्रेणयः, प्रज्ञप्ताः तथा-'अट्ठसठ्ठी आभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ' अष्टषष्टिराभियोग श्रेणयः प्रज्ञप्ताः तत्र विद्याधरश्रेणयोऽष्टषष्टिः विद्याधरावासभूता वैता. ढयानां पूर्वापरसमुद्रपरिक्षिप्ता आयतमेखला भवन्ति, चतुर्विंशत्य पि वैताढयेषु दक्षिणतउत्तरतश्चैकैकश्रेणी सद्भावात्, तथैव अष्टषष्टिः श्रेणय आभियोग्यानां भवन्ति, 'एवामेवसपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसं से ढिसए भवतीति मक्खाय' एवमेव सपूर्वापरेण-पूर्वापर संकलनेन जम्बूद्वीपे द्वीपे पत्रिंशत् श्रेणीशतम्-पट्त्रिंशदधिकश्रेणीनां शतं भवतीति आख्यातम्, मया-वर्द्धमानस्वामिना तथाऽन्यैरपि आदिनाथ प्रभृति तीर्थकरैरिति । सम्प्रति-अष्टमं विजयद्वारमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते !' इत्यादि । 'जंबुद्दीवेणं भंते दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यवर्ति जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया चक्कवट्टि धर श्रेणियां और कितनी आभियोग्य श्रेणियां कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे अट्ठसठ्ठी विजाहरसेढीओ अट्ठसठ्ठी आभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में अड. सठ विद्याधर श्रेणियां कही गई है-ये विद्याधर श्रेणियां विद्याधरों के आवास स्थान रूप हैं एवं वैताढयों के पूर्व अपर उद्धि आदि से ये परिच्छिन्न है घिरी हुई हैं तथा जैसी मेखला आयत होती है वैसी आयत ये हैं । ३४ वैताढयों में दक्षिण में और उत्तर में एक एक श्रेणि है इसी तरह से आभियोग्य श्रेणियां भी ६८ हैं। 'एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसं सेढिसए भवंतीति मक्खायं इस तरह जम्बूद्वीप में सब श्रेणियां मिलकर १३६ हो जाती हैं ऐसा तीर्थंकर प्रभुओं का कथन है। विजयद्वारकथन-जंबुद्दीवे दीवे केवइया चक्कवहि विजया केवइयाओ मालियोग्य श्रेणीमा उवामां आवली छ ? सेना नाममा प्रमु ४ छ-'गोयमा ! जंबु. हीवे दीवे अदृसट्ठी विज्जाहरसेढीओ अट्ठ-सट्ठी आभिओग सेढीओ पण्णत्ताओ' गौतम ! જબૂદ્વીપ નામક દ્વીપમાં ૬૮ વિદ્યાધર શ્રેણીઓ કહેવામાં આવેલી છે. એ વિદ્યાધર શ્રેણીઓ વિદ્યાધરના આવાસસ્થાન રૂપ છે તેમજ વૈતાઢયોના પૂર્વ અપર ઉદધિ વગેરેથી એ પરિચ્છિન્ન છે–આવેષ્ટિત છે, તેમજ જે પ્રમાણે મેખલા આયત હોય છે, તે પ્રમાણે જ એ પણ આયત છે. ૩૪ વૈતાઢયોમાં દક્ષિણમાં અને ઉત્તરમાં એક-એક શ્રેણી છે. આ પ્રમાણે सानियोग्य श्रेणीमा ५४ ६८ छ. 'एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे छत्तीसं सेढिसए भवंतीति मक्खाय' । प्रमाणे म्यूद्वी ५मां मधी श्रेणी। भजीने १३६ थाय छे. से તીર્થંકર પ્રભુનું કથન છે. विया२ ४थन- जंबुद्दीवे दीवे केवइया चक्कवटि विजया केवइयाओ रायहाणीओ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे विजया' कियन्तः-कियत्संख्यकाः चक्रवर्तिनां विजयाः प्रज्ञप्ता:--कथिताः, तथा 'केवइयाओ रायहाणीओ' वियत्यः-कियत्संख्यकाः तलिस्रागुहा:-अन्धकारयुता गुहाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'केवइया खंडप्पवायगुहा' कियत्यः-कियत्संख्यकाः खण्डप्रपातगुहाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'केवइया कयमालया देवा' कियन्त:-कियत्संख्यकाः कृतमालकाः तत्र कृता संपादिता माला शरीरे विशेषरूपेग यैस्ते कृतमालकाः तादृशाश्च देवा जम्बूद्वीपे कियन्तः प्रज्ञप्ता', तथा'केवडया णमालया देवा' कियन्त:--कियत्संख्यकोः नक्तमालकाः, तत्र न-रात्रौ संपादितमाला विभूषणा देवाः कियन्तः प्रज्ञप्ताः, तथा-'केवइया उसमकूडा पन्नत्ता' कियन्तः कियत्संख्यकाः ऋषभकूटनामकाः पर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, इति प्रश्नः, भगरानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दोवे दीवे चौत्तीसं चकवट्टिविजया पन्नत्ता' जम्बूद्वीपे द्वीपे-सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे चतुस्त्रिंशत्-चतुस्त्रिंशत्संख्यकाः चक्रवर्तिविजयाः प्रज्ञप्ता:कथिताः, तत्र द्वात्रिंशत्संख्यका महाविदेहे चक्रवति विजयाः, द्वौच विजयी भरतैरवतक्षेत्रयोः ताशद्वयोरपि क्षेत्रयोः चक्रवर्ति विजेतव्य क्षेत्रखण्डरूपत्वेन चक्रवर्तिविजयशब्दवाच्यत्वस्य सत्त्वादिति । तथा-'चोत्तीसं रायहाणीयो' चतुस्त्रिंशद्राजधान्यः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तथा'चोत्तीसं तमिसगुहाओ' चतुस्त्रिंशत्-चतुस्त्रिंशत्संख्यकाः तमिस्रा गुहा: प्रज्ञप्ता:-कथिताः, प्रतिरायहाणीओ केवइयाओ तिमिसगुहाओ केवइयाओ खंडप्पवायगुहाओ, केवइया कयमालया देवा, केवड्या णमालया देवा, केवइया उसभकूडा पण्णत्ता ९' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में कितने चक्रवर्ति विजय हैं ? कितनी राजधानियां हैं ? कितनी तमित्रा गुहाएं हैं-अन्धकारयुक्त गुहाए हैं कितनी खण्डप्रपात गुहाएं हैं ? कितने कृत मालक देव हैं कितने नक्त मालक देव हैं-और कितने ऋषभक्रूट हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीये चोत्तीसं चकवटि विजया, चोत्तीसं रायहाणीओ, चोती तिमिसगुहाओ चोत्तीसं खंडपवायगुहाओ, चोत्तीसं कयमालयादेवा, चोत्तीसं जमालया देवा, चोत्तीसं उसभकूडा पध्वया पण्णत्ता' हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप में ३४ चक्रवर्ति विजय हैं ३४ राजधानियां हैं, ३४ तमिस्रा केवइयाओ तिमिसगुहाओ, केवइयाओ खंडप्पायगुहाओ, केवइया कयमालया देवा. केवइया णमालया देवा, केवइया उसभकूडा पण्णत्ता' 3 महन्त ! ॥ दो नाम द्वीपभां કેટલા ચક્રવતી વિજો આવેલા છે? કેટલી રાજધાનીઓ છે? કેટલી તમિસા ગુહાઓ છે?–અંધકારયુક્ત ગુફાઓ કેટલી છે? કેટલી ખંડ પ્રપાત ગુફાઓ છે? કેટલા કૃતમાલક દે છે? કેટલા નક્તમાલક દે છે? અને કેટલા કષભ ફૂટ છે એના वामi छे-'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टि विजया, चोत्तीसं रायहाणीओं, चोत्तीसं तिमिसगुहाओ, चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ, चोत्तीसं कयमालया देवा, चोत्तीसं णट्ट मालया देवा, चोत्तीसं उसभ कूडा पव्वया, पण्णत्ता,' गौतम ! ४ पुदीपનામક દ્વીપમાં ૩૪ ચક્રવતી વિજો આવેલા છે. ૩૪ રાજધાનીઓ છે. ૩૪ તમિસ્ત્ર Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका का-पाठोपक्षस्कारः रु. २ शारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७७७ वैताढयमेकैकगुडासचात्, तथा-'चोत्तीसं खंडणवायगुहाओ पन्नत्ताओ' चतुस्त्रिंशत्संख्यकाः खण्डपातगुहाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, एवम्-'चोत्तीसं कयमालया देवा' चतुस्त्रिंशत्संख्यकार कृतमालका देवाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, एवम्-'चोत्तीसं णट्टमालया देवा पन्नत्ता' चतुस्त्रिंशत्सं. ख्यकाः नक्तमाल क देवाः प्रज्ञप्ताः, एवम् 'चोत्तीसं उसभकूडा पव्वया पन्नत्ता' चतुस्त्रिंशत्संख्यका ऋषभकूट पर्वताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः प्रतिक्षेत्रं चक्रवर्ति दिगविजय सूचकैकसद्भावात-यद्यपि विजयद्वारे प्रक्रान्ते राजधान्यादि प्रश्नोत्तरसूत्रे उपन्यस्तं तद्राजधान्यादीनां विजयसाध्यत्वाद विजयप्रकरणे राजधान्यादि प्रश्नोत्तरसत्रे उपन्यस्तम, इति न क्षतिकरमिति विजयद्वारम् ।। गुफाएं हैं ३४ खण्ड प्रपात गुफाएं हैं ३४ कृत मालक देव हैं ३४ नट्टमालकदेव हैं और ३४ ही ऋषभकूट नामके पर्वत हैं। इनमें महाविदेह में ३२ चक्रवर्ती विजय है और भरत एवं ऐरवत क्षेत्र में दो विजय हैं। भरतक्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र ये दोनों क्षेत्र चक्रवर्तियों के द्वारा विजेतव्य क्षेत्र खण्डरूप होने से चक्र वर्ति विजय शब्द हो जाते हैं। हर एक वताढय में एक एक गुहा का सदभाव है इसलिये ३४ तमिस्रा गुहाएं कही गई है । हर एक क्षेत्र में चक्रवर्ती के दिग्विजय के सूचक एक २ ऋषभकूट पर्वत है। इसलिये ३४ ऋषभकूट नामके पर्वत कहे गये हैं । यद्यपि यहां विजय द्वारका प्रकरण चल रहा है इस में राजधानी आदि विषय प्रश्न सूत्र में और उत्तर सूत्र में जो उपन्यस्त किया गया है वह उनकी राजधानियां आदि सब विजय साध्य है इस कारण विजय प्रकरण में राजधानियां आदि विषय प्रश्न सूत्र में और उत्तर सूत्र में उपन्यस्त हुआ है । बिजय द्वार समाप्त हृदवारवक्तव्यता 'जंबुद्दीवेणं भते ! दीवे केवइया महदहा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस जंबद्वीप ગુફાઓ છે ૩૪ ખંડ અપાત ગુફાઓ છે. ૩૪ કૃતમાલક દેવો છે. ૩૪ નટુ માલક દે છે અને ૩૮ ભકૂટ નામક પર્વતે છે. એમાં મહાવિદેહમાં ૩૨ ચક્રવર્તી વિજયે છે અને ભરત તેમજ ઐરાવત ક્ષેત્રમાં બે વિજયે આવેલા છે. ભરતક્ષેત્ર તેમજ એરવતક્ષેત્ર એ બને ક્ષેત્રે ચક તિઓ વડે વિજેતવ્ય ક્ષેત્રખંડ રૂપ હોવાથી ચકચતિ વિજય શબ્દ થાય છે. દરેકતામાં એક-એક ગુફાને સદ્ભાવ છે. એટલા માટે ૩૪ તમિસા ગુફાઓ કહેવામાં આવેલી છે. દરેક ક્ષેત્રમાં ચકવતી દિગ્વિજયને સૂચક એક–એક અષભકૂટ પર્વત છે. એથી ૩૪ ૪ષભકૂટ નામ પર્વતે આવેલા છે. જોકે અત્રે વિજયદ્વારનું પ્રકરણ ચાલી રહ્યું છે. એમાં રાજધાની વગેરે વિષ પ્રશ્ન સૂત્રમાં અને ઉત્તર–સૂરમાં જે ઉપન્યસ્ત કરવામાં આવેલ છે, તે તેમની રાધાનીઓ વગેરે બધું વિજય સાધ્ય છે. આ કારણથી વિજય પ્રકરણમાં રાજધાની વિગેરે વિષયે પ્રશ્નસૂત્રમાં અને ઉત્તર સૂવમાં ઉપન્યસ્ત થયેલ છે. વિજયદ્વાર સમાપ્ત. હુદદ્વાર વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवइया महदहा पण्णत्ता' 3 0 संदीप नामा म००८ Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૭૮ जम्बूद्वीपप्रशतिसूत्रे सम्प्रति - नवमं हूदद्वारमाह- 'जंबुद्दीवेणं मंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्यजम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया महदहा पन्नत्ता' कियन्त:कियत्संख्यका महाहूदाः प्रज्ञप्ताः - कथिता इति प्रश्नः, 'भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'सोलसमद्दहा पन्नत्ता' पोडश मह हूदा :- पोडशसंख्यकाः महाहूदाः प्रज्ञताः कथिताः तत्र वर्षधराणां मध्ये षड्महाहूदास्तथा शीता शीतोदधेः प्रत्येकं प्रत्येकं पञ्च पञ्च सर्व संकलनया षोडश महाहूदा भवन्तीति हूदद्वारम् | " सम्प्रति - दशमं नदीद्वारमाह- जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे . सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया महाणईओ वासहरप्पवाहाओ पन्नत्ताओ' कियत्यःकियत्संख्यका महानद्यो वर्षधरप्रवाहाः, तत्र वर्षधर हूदेभ्यः प्रवहन्ति - निर्गच्छन्तियास्तावर्षधरप्रवाहाः, अन्यथा कुण्डप्रवाहामपि महानदीनां वर्षधर नितम्वस्थ कुण्डेभ्यो जायमानतया नामके द्वीप में महाहूद कितने कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा है'गोयमा ! सोलस महद्दहा पण्णत्ता' हे गौतम ! यहां १६ महाहूद कहे गये हैं । इनमें ६ महाहूद ६ वर्षधर पर्वतों के और शीता एवं शीतोदा महानदियों के प्रत्येक के ५-५ कुल मिलकर ये महाहूद १६ हो जाते हैं । महानदी नामकदशवेंद्वार की वक्तव्यता 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया पईओ दासहरपदाहाओ पण्णत्ताओ' हे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामके द्वीप ये कितनी महानदियां जो वर्षधर के हूदों से निकली हैं कही गई है ? यहां जो 'वर्षवर प्रवाहा' ऐसा विशेषण महानदियों का कहा गया है वह कुण्डों से जिनका प्रवाह बहता है ऐसी कुण्ड प्रवाहवाली महानदियों के व्यवच्छेद के लिये दिया गया है ये कुण्ड वर्षधर के नितम्बस्थ होते है उनसे भी ऐसी महानदियां निकली हैं अतः उनके सम्बन्ध में गौतम छे- 'गोयम! ! सोलसम छे. शेभां : भडालु हो द्वीपमा भाइटला हेवामां आव्या हे ? सेना वाणां प्रभु हद्दहा पण्णत्ता' हे गौतम! ही १६ भावामां आवे ૬ વર્ષધર પતાના અને શીતા તેમજ શીવેદા મહાનદીએાના દરેકના ૫-૫ આમ શ્રધા મળીને એ મહાદા ૧૬ થઈ જાય છે. મહાનદીનામક દશમદ્વારની વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेगं भंते! दीवे केवइया ईओ वासहर पवाहाओ पण्णत्ताओ' डे लःन्त ! - દ્વીપ નામક દ્વીપમાં કેટલી મહાનદીએ કે જે વધરના હકથી નીકળી છે કહેવામાં આવેલી છે? અહી જે વધર પ્રવાહા' એવુ' વિશેષણુ મહાનદીઓનું કહેવામાં આવ્યું છે. તે કુંડામાંથી જેમના પ્રવાહ વહે છે એથી કુ'ડ પ્રવાહવાળી મહાનદીએના વ્યચ્છેદ માટે આપવામાં આવેલ છે. એ કુડા વર્ષોંધરના નિતંબસ્થ હાય છે. એમનથી પણ એવી મહાનદીએ નીકળી છે. એથી એમના સંબધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રશ્ન કર્યાં નથી પરંતુ પદ્મ, Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाविषयनिरूपणम् ७९ ता अपि वर्षधरप्रवाहाः स्युः, एतादृश्यो महानद्यः कियत्यः प्रज्ञप्ताः, तथा-'केवइयाओ कुंड. प्पवहाभो महाणई ओ पन्नत्ता भो' कियत्यः-कियत्संयकाः कुण्डमवाहाः, तत्र कुण्डेभ्यो वर्षधर नितम्बस्य कुण्डेभ्यः प्रवहन्ति-निर्गच्छन्ति यास्ता महानद्यः कियत्यः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह--'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे चोदस महाणईओ वासहरप्पवहा पो' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः चतुर्दशमहानद्यः चतुर्दश संख्य का महानद्यो वर्षधरहदप्रवाहाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, तथा-'छावत्तरि महाणईओ कुंडप्पववाओ' षट्सप्ततिः-षट्सप्तति संख्यका महानद्यः कुण्डप्रवाहाः कुंडेभ्यः प्रवहनशीलाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तत्र चतुर्दश महानद्यो वर्षधर हाप्रभवाः भरतगङ्गादिकाः प्रतिक्षेत्रं द्वि द्वि भावात्, तथा-कुण्डप्रभश पट्सप्तति महानद्यः, तत्र-शीताया उत्तरेष्वष्टसु विजयेषु शीतोदाया याम्येषु अष्टसु विजयेषु चैकैकभावेन षोडशगङ्गाः षोडशसिन्धवश्च तथा शीताया स्वामी ने प्रश्न नहीं किया है किन्तु पद्म, महापा आदि जो हूद हैं उनसे जिनका उद्गम हुआ है ऐसी नदियों की संख्या कितनी है यह जानने के लिये यह प्रश्न किया गया है तथा-'केवइयाओ कुंडप्पवाहाओ महाणईओ पम्मत्ताओ' जो वर्षधर के निलम्बस्थ कुण्डों में से निकली हैं ऐसी महानदियां कितनी हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोदस महाणईओ वासहरप्पवाहाओ' हे गौतम ! इस जंबुद्रीप में जो वर्षधर पर्वतस्थ हृदों से महानदियां निकली हैं ऐसी वे महानदियां १४ हैं तथा-'छावत्तरि महाणईओ कुण्डप्पवाहाओ' जो महानदियां कुण्डों से निकली हैं ये ७६ हैं । १४ महानदीयों के नाम गंगा सिन्धु आदि हैं। हरएक क्षेत्र में ये दो दो बहती है भरतक्षेत्र में गंगा सिन्धु ये दो महानदियां बहती हैं तथा कुण्ड प्रभवा जो ७६ महानदियां हैं उनमें शीता महानदी के उत्तर में आठ विजयों में और शीतोदा के याम्य आठ विजयों में एक, एक कुण्डप्रभवा महानदी वहती है इससे १६ गंगा મહાપદ્મ, વગેરે જે હદે છે તેમનામાંથી જેમનું ઉદ્ગમ થયું છે, એવી નદીઓની સંખ્યા की छे, स माटे मी अश्न ४२॥मा मावत छे. तेभर केवइयाओ कुंड. प्पवाहा ओ महाणई ओ पन्नत्ताओ' 2 धरना नि : 33. Hiथीनीने छ, मेवी महा. नही। इसी छ ? नाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोदस महाणईओ यासहरप्पवाहाओ' रगतम! दीपभा २ वष ध२ ५२ हाथी महानही। नजी छ, यी त महानही। १४ है. तमा 'छावतरं महाणईओ कुण्डप्रवाहाओ' २ मही નદીઓ કુંડામાંથી નીકળી છે તે ૭૬ છે. ૧૪ મહાનદીઓના નામે ગંગા સિંધુ વગેરે છે. દરેક ક્ષેત્રમાં એ મહાનદીઓ બબે વહે છે. ભરતક્ષેત્રમાં ગંગા અને સિંધુ એ બે મહાનદીઓ વહે છે, તેમજ કુડપ્રભવા જે ૭૬ મહાનદીઓ છે તેમનામાં શીતા મહાનદીના ઉત્તરમાં આઠ વિજયોમાં અને શીદાના યોગ્ય આઠ વિજેમાં એક-એક કુડપ્રભવા Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52. जम्बूद्वीपप्रशप्तिसूत्रे याम्येष्वष्टसु विजयेषु शीतोदाया उत्तरेषु अष्टसु विजयेषु चकैकभावेन पोडश रताः पोडश रक्तवत्यश्च, एवं चतुःषष्टिः, द्वादश च पूर्वोक्ता अन्तर्नधः सर्व सङ्कलने पट्सप्ततिरिति, कुण्डप्रभवानां तु शीता शीतोदापरिवारभूतत्वेनासंभवदपि महानदीत्वं स्वस्वविजयगतचतुर्दश सहस्रपरिवारसंपयुक्तत्वेन महानदीत्वमिति, 'एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे' दीवे णउति महाणईओ भवंतीति मक्खाय' एवमेव-पूर्वकथितप्रकारेण सपूर्वापरेण सर्वसंकलनया जम्बू. द्वीपे सर्वद्वीपमध्यद्वीपे इत्यर्थः नवति महानद्यो भवन्तीत्याख्यातं मया तथा अन्यैश्च तीर्थङ्करैरिति । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'भरहएस्वरसु कइमहाणई भी पन्नताओ' भरतैरवतवर्षेषु कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ताः-कविता-इति प्रश्नः भगवानाद-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि महाणईओ पनत्ताओ' और १६ सिन्धु नदियां वहती हैं। तथा शीतोदा के याम्य आठ विजयों में एवं शीतादा के उत्तर के आठ विजयों में एक एक नदी बहने से-१६ रक्ता और १६ रक्तवती नदियां बहती हैं 'इस तरह ये ६४ तथा १२ पूर्वोक्त अन्तनदियां ये सब मिलकर ७६ कुण्डप्रभवा महानदियां हैं । यद्यपि कुण्डप्रभवा नदियों में शीता शीतोदा के परिवारभूत होने से महानदीत्व संभवित नहीं होता है परन्तु फिर अपने अपने विजयगत चतुर्दश सहस्र नदियों के परिवारभूत होने से उनमें महानदीत्व बन जाता है। 'एवामेव सपुव्यावरेणं जंबुद्दीवे दीवे उति महाणईओ भवंतीति मक्खायं-इस तरह इस जम्बूद्वीप नामके द्वीपमें कुल मिलकर ९० महानदियां हैं । ऐसा तीर्थकरों का आदेश है। ___ 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरहएरवएसु-वासेसु कई महार्णईओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! इस जम्बुद्वीप नामके द्वीपमें जो भरत क्षेत्र एवं ऐरवत क्षेत्र हैं उनमें कितनी महानदियां हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि महा. મહાનદી વહે છે. એનાથી ૧૬ ગંગા અને ૧૬ સિધુ નર્દીઓ વહે છે. તથા શીતેદાના યામ્ય આઠ વિજયેમાં તેમજ શીતદાના ઉત્તરના આઠ વિજયોમાં એક–એક નદી વહે છે તેથી ૧૬ ૨ક્તા અને ૧૬ રક્તાવતી નદીઓ વહે છે. આ પ્રમાણે ૬૪ તેમજ ૧૨ પૂર્વોક્ત અંતર્નાદીએ આમ બધી મળીને ૭૬ કુડપ્રભવા મહાનદીઓ છે. જોકે કંડપ્રભવા નદીઓમાં શીતા–શીદાના પરિવારભૂત હોવાથી મહાનદીત્વની સંભાવના શક્ય નથી પણ છતાં એ પિત–પિતાના વિજયગત ચતુર્દશ સમ્ર નદીઓના પરિવારભૂત હોવાથી તેમનામાં મહાનદી भावी नय छे. 'एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे णउतिं महाणईओ भवंतीति मक्खाय' આ પ્રમાણે આ જંબૂદ્વપ નામક દ્વીપમાં બધી મળીને ૯૦ મહાનદીઓ આવેલી છે. એવી તીર્થકરાની આજ્ઞા છે. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे भरह एरवएसु-वासेसु कई महाणईओ पन्त्ताओ' मत ! આ જંબુદ્વીપ નામક દ્વીપમાં જે ભરતક્ષેત્ર તેમજ અરવત ક્ષેત્ર છે તેમાં કેટલી મહાનદીઓ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७८१ चतस्रः-चतुः संख्यकाः महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'गंगा सिंधूरत्ता रतवई' गङ्गा सिन्धुः रक्ता रक्तवती च 'तत्य णं एगमेगा महाणई' तत्र-तासु नदीषु मध्ये एकैका महानदी 'चउद्दसहिं सलिलासहस्से हिं' चतुर्दशभिः सलिलासहस्रैः चतुर्दशावान्तनंदी सहस्त्रैः 'समग्गा' समग्रा परिवृता युक्ता 'पुरस्थिमपञ्चत्थिमेणं' पूर्वपश्चिमेन 'लवणसमुदं समुप्पेई' लवणसमुद्रं समुपसर्पति, अर्थात् एता महानद्यः चतुर्दशनदीसहस्रैः परिवारैः संमिलिताः पूर्वसमुद्रं पश्चिमसमुद्रं च प्रविशन्तीति । ___ अत्र भरतैरवतयो युगपद्ग्रहणं तत्समानक्षेत्रत्वात् ज्ञेयम्, तत्र भरतक्षेत्रे गङ्गामहानदी पूर्वलवणसमुद्रं प्रविशति, सिन्धुश्च महानदी पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशति, तथा ऐरवतक्षेत्रे रक्ता महानदी पूर्वसमुद्रं प्रविशति, रक्तवती महानदी पश्चिम समुद्रं प्रविशतीति ॥ ___'एवामेव सपुब्बावरेणं' एवमेव-कथितप्रकारेण सपूर्वापरेण-सर्वसंकलनेन 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे सर्व द्वीपमध्यजम्बूद्वीपे 'भरहेस्वएन वासेसु' भरतैरवतवर्षयोः णईओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ! चार महानदियां हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं 'गंगा सिन्धु, रत्ता रत्तचई' गङ्गा, सिन्धु, रक्ता और रक्तवती 'तत्थणं एगमेगा महागई चउद्दसहिं सलिलाप्सहस्तेहिं समग्गा पुरथिमाच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समप्पेई' इनमें एक एक महानदी १४-१४ हजार अवान्तर नदियों के परिपारवाली है 'तथा पूर्व समुद्र और पश्चिम लवणसमुद्र में जाकर मिली हुई हैं। यहां पर जो भरतक्षेत्र और एरवत क्षेत्र का जो युगपत् ग्रहण किया गया है वह इन दोनों की समान रचना है इस बातको प्रकट करने के लिये किया गया है भरतक्षेत्र में गंगामहानदी पूर्वलवण समुद्र में मिली है और सिन्धु महानदी पश्चिम लवणसमुद्र में मिली है। 'एवामेव सयुवावरेय जंबुद्दीवे भरहेरवएसु वालेसु छप्पणं सलिलासहस्सा भनीति मक्खायं इस तरह जम्बुद्धीप नामके इस द्वीपमें भरतक्षेत्र और ऐश्वतकी कुल नदियां मिलाकर छप्पन हजार अवान्तर छ! सेना भी भु ४३ छ-'गोयमा ! चत्तारि महाणई ओ पण्णत्ताओ' के गौतम ! यार महानदीमा छे. 'तं जहां' ते 20 : छे. 'गंगा सिन्धु, रत्ता रत्तवई' , सिन्धु, २४त! मने २४तवती. 'तत्था एगमेगा महागई चउद्दसहिं सलिलासहरसेहिं समग्गा पुरस्थिर पच्चलिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' सभा मे-ये महनही १४, १४ M२ भवान्तर નદીના પરિવારવાળી છે તેમજ પૂર્વ સમુદ્ર અને પશ્ચિમ લવણસમુદ્રમાં જઈને મળે છે. અહીં જે ભરતક્ષેત્ર અને અરવલ ક્ષેત્રનું ન મ જે યુગપનું ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે તે આ બન્નેની સમાન રચના છે. એ વાતને પ્રકટ કરવા માટે કરવામાં આવેલ છે. ભરતક્ષેત્રમાં ગંગા મહાનદી પૂર્વ લવણસમુદ્રમાં મળી છે અને સિધુ મહાનદી પશ્ચિમ લવણસમુદ્રમાં भनी छे. 'एवामे सपुवावरेणं जंबुद्दीवे भन् हेभरवएसु वासेसु छप्पणं सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खाय' ! प्रमाणे भूदी५ नाम द्वीपमा १२ मन अ२१तक्षेत्रनी मधी नही। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૮૨ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 'छप्पण्णं सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खाय' षट्पञ्चाशत् सलिला सहस्राणि आवान्तरनद्यः तासां सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया तथाऽन्यैश्च तीर्थकरैरिति । 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'हेमवय हेरण्णवएमु वासेसु' हैमवत हैरण्यवतयो वर्षयो मध्ये 'कइ महाणईओ पन्नत्ताओ' कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'चत्तारि महाणईओ पन्नत्ताओ' चतस्रो महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'तं जहा'-तद्यथा-'रोहिता रोहितंसा सुवण्णकूला रुप्पकूला' रोहितानाम्नी महानदी प्रथमा १, रोहितांशा महानदी द्वितीया २, सुवर्णकूला महानदी तृतीया ३, रूप्यकूला महानदी चतुर्थी ४, 'तत्थणं एगमेगा महाणई' तत्र खलु एकैका महानदी 'अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्से हिं' अष्टाविंशत्या अष्टाविंशत्या सलिला सहस्रः अवान्तरनदीसहनै रित्यर्थः 'समग्रा परिपूरिता युक्ता इति यावत इत्थंभूता सती 'पुरत्यिम पञ्चत्थिमेणं लवण समुदं समप्पेइ' पूर्वपश्चिमेन लवण मुद्रं समुपसर्पति प्रविशती. त्यर्थः तत्र हैमत्रतक्षेत्रे रोहिता महानदी सपरिवारा पूर्वलवणसमुद्रं प्रविशति तत्रैव क्षेत्रे रोहितांनदियां है 'जंबुद्दोषेणं भंते ! दीवे हेमवय हेरण्णवरसु वासेसु कई महाणईओ पन्नताओ' हे भदन्त ! इस जंबूद्वीप नामके बीपमें जो हैननत और हैरण्यात क्षेत्र हैं-उनमें कितनी महानदियां हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! इनमें चार महानदियां है 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से है-रोहिता, रोहितंला सुवण्णकूला' रूपकूला तत्थगं एगमेगा महाणई अट्ठावीसाए २ सलिलासहस्तेहिं' इनमें एक एक महानदीकी परिवारभूत अवान्तर नदियां २८ हजार २८ हजार हैं। 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं लवणसमुहं समप्पेह' इनमें जो हैमवतक्षेत्र में रोहिता नामकी महानदी है वह अपनी परिवारभून २८ हजार अवान्तर नदियों के साथ पूर्व लवणसमुद्र में जाकर मिली है और रोहितांशा महानदी अपनी परिवारभूत २८ हजार नदियों भगीन ५६ ७०४२ पान्त२ नही। छे. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे हेमवय हेरण्णवएसु वासेसु कईमहाणई ओ पत्ताओ' 3 महन्त ! २॥ भूदी५ नाम दीपमा २ है ५१त है एयवत क्षेत्र छ तभटकी भडानही। मावसी छे १ सेनाममा प्रभु छ-'गोयमा! चत्तारि महाणईओ पन्नताओ' है गीत ! समां था२ भानही सावकी छे. 'तं जहा' ते नही माना न.२१ प्रमाणे छ-'रोहिता, रोहितंसा, सुरण्णकूला' हिता, हितासा सुर त म ३५१. 'तत्थणं एगमेगा महाणई अढावीसाए २ सलिलासहस्सेहि' समां मे- महानहीनी परिवारभूत सव-२ नही। २८ २ २८ र छ. 'पुरथिमपच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' समां रे उभयतमा त नाम मनही छे ते પિતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર અવાક્તર નદી એની સાથે પૂર્વ લવણસમુદ્રમાં જઈને મળે છે અને હિંતાશા મહાનદી પિતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર નદીઓની સાથે પશ્ચિમ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७८३ शा महानदी सपरिवारा पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशति, हिरण्यवते क्षेत्रे सुवर्णकूला महानदी सपरिवारा पूर्व लवणसमुद्रं प्रविशति, रूपयकूला महानदी सपरिवारा पश्चिमलवणसमुद्रं प्रविशतीति । 'एवमेव सपुत्वावरेणं' एवमेव-कथितप्रकारेण सपूर्वापरेण-सर्वसंकलनेन 'जम्बुदीवे दीवे' जम्बुद्वीपे द्वीपे 'हेमवय हेरण्णवयेसु वासेसु' हैमवतहरण्यवतयो र्वषयोर्मध्ये 'वारमुत्तरे सलिलासयसहस्सं भवतीति मक्खायं' द्वौ दशोतरं द्वादशसहस्राधिकं सलिलाशतसहस्रभवान्तर नदीलक्षं भवतीति एकस्या महानद्याः यदा अष्टाविंशतिः सहस्राणि अवान्तर नदी परिवाररूपाणि तदा चतसृणां महानदीनां संकलने द्वादशसहस्राधिकं नदीलक्षं भवतीत्याख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति । 'जंबुदौवे णं भंते ! दीवे जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्वद्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'हरिवासरम्मगवासेसु' हरिवर्षरम्यकवर्षयो मध्ये 'कइ महाणईओ पन्नत्ताओ' कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि महाणईओ पन्नताओ' चतस्र. के साथ पश्चिम लवणतमुद्र में जाकर मिली है। इसी तरह हैरण्यवत क्षेत्रमें जो सुवर्णकूला महानदी है वह अपनी परिवारभूत २८ हजार अवान्तर नदियों के साथ पूर्व लवणसमुद्र में जाकर मिली है और रूप्यकला महानदी अपनी परिवारभूत २८ हजार अवान्तर नदियों के साथ पश्चिम लवणसमुद्र में मिली है। 'एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय हेरण्णवएसु वासेसु वारसुत्तरे सलिलासयसहस्से भवंतीति मक्खायं इस प्रकार से जंबुद्वीप में हैमवत और हैरण्यवत इन दो क्षेत्रों की अपनी अपनी परिवारभूत नदियों की अपेक्षा से १ लाख १२ हजार नदियां हैं । ऐसा मैने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है। 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे हरिवासरम्मगवासेसु कइ महाणईओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नामके द्वीपमें हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में कितनी महानदियां कही गई हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि લવણસમુદ્રમાં જઈને મળી છે. આ પ્રમાણે હૈરવત ક્ષેત્રમાં જે સુવર્ણકૂલા મહાનદી છે તે પિતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર અવાન્તર નદીઓની સાથે પૂર્વલવણમાં જઈને મળી છે અને રૂકૂલા મહાનદી પોતાની પરિવારભૂતા ૨૮ હજાર નદીઓની સાથે પશ્ચિમ सवणुसमुद्रमा भणी छे. 'एचामेव सपुष्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय हेरणवएसु वासेसु बारसुत्तरे सलिलासयसहस्से भयंतीति मक्खाय' मा प्रमाणे मूदायमा भक्त भने २. સ્થવત એ બે ક્ષેત્રોની પિતા-પિતાની પરિવારભૂત નદીઓની અપેક્ષાએ એક લાખ ૧૨ २ नही। छ. से में अने जीत ती रोये ४यु छ. 'जंबुदीवेणं भंते ! दीवे हरिवासरम्मगवासेसु कइ महाणईओ पन्नत्ताओ' 3 महन्त ! मादी५ नाम दीपमा હરિવર્ષ અને રમ્ય વર્ષમાં કેટલી મહાનદીઓ કહેવામાં આવેલી છે? જવાબમાં પ્રભુ કહે .छे-'गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पन्नताओ' गौतम ! यार मोही। उपामा आवसी Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - जम्बूद्वीपमासिस् श्वतुः संख्यका महामधः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा-'हरी हरिकंता नरकंता णारीकंता' हरिसलिला महानदी प्रथमा, हरिकान्ता महानदी द्वितीया, नरकान्तानाम महानदी तृतीया, नारीकान्तान:म्नी चतुर्थी, 'तत्थ णं एगमेगा महाणई' तत्र-तासु नदीषु मध्ये खलु एकैका महानदी हरिसलिला प्रभृतिका, 'छप्पणाए छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहि' षट्पञ्चाशता षट् पञ्चशता सहस्रः 'समग्गा' समप्रा सहिता युक्ता 'पुरथिमपञ्चस्थि मेणं लवणसमुदं समप्पेई' पूर्वपश्चिमेन लवणतमुद्रं सापपर्पति-गच्छति 'एवामेव सपुव्यावरेणं' एवमेव यथा वर्णितप्रकारेण सपूर्वापरेण-पूर्वापर सङ्कलनेन 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'हरिवासरम्मगवासेसु' हरिवर्षरम्पकवर्षयो मध्ये 'दो चउवीससयसलिलासयसहस्सा भवंतीति मक्खाय' द्वै चतुर्विशति चतुर्विशत्यधिके द्वे सलिलाशतसहस्रे भवत इत्याख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति । 'जंबु. दीवे ण मंते !' जम्बूद्वीपे खलु भइन्त ! द्वोपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वोपे इत्यर्थः 'महाविदेहे वासे' महाविदेहनामके वर्षे 'कइ महाणई ओ पन्नत्ताभो' कति-कियत्संख्यका महानद्यः प्रज्ञप्ता:कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो महाणईओ महाणईओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! चार महानदियां कही गई हैं 'तं जहा' उनके नाम इस प्रकार से हैं-'हरि, हरिकंता, नरकंता णारीकंता' हरी, हरीकान्ता और नरकांता नारीकान्ता' 'तत्थणं एगमेगा महाणई छप्पण्णाए २ सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिमपच्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' इनमे एक एक महानदी की परिवारभूता अवान्तर नदियां ५६-५६ हजार हैं और ये पूर्व और पश्चिम लव समुद्र में जाकर मिलो हुई हैं । 'एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे हरिवास रम्मगवासेतु दो चउवोसा सलिलाप्सयसहस्सा भवंतोति मक्खायं इस तरह इन चारों महानदियों को परिवारभूत नदियां मिलाकर जबुद्धीप में २ लाख २४ नदियां हैं। 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे कई महाणईओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त! इत जम्बूद्वीप नामके द्वोपमें महाविदेह क्षेत्र में कितनी महानदियां कही गई है? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! दो महाणईओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! सतं जहा' मनानी ॥ प्रमाणे छे-'हरि, हरिकंता, नरकंता, णारीकंता' ७२२, ७॥ trian Ritu भने नारीsial. 'तत्थणं एगमेगा महाणई छप्पण्णाए २ सलिलसहस्सेहि समगा पुराथिमपच्चस्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ' अमां महामहीनी परिवारमा અવાન્તર નદીઓ ૫૬, ૫૬ હજાર છે અને એ પૂર્વ અને પશ્ચિમ લવણસમુદ્રમાં જઈને मग “एवामेव सपुवावरेण जंबुद्दीवे दीवे हरिवासरम्मगवासेसु दो चवीसा सलिलासयसहस्सा भवतीति मक्खाय' २॥ प्रमाण से यार नही मानी परिवारभूता नही भजीन सीमा २५ २४ २ नही। छे. 'जंबुद्दोवेणं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे कई महाणईओ पण्णताओ' 3 मत ! २मा दीप नाम दी५i भाविक मां की भानही आवेदी छ १ येन arawei प्रभु छ-'गोयमा ! वा महाणईओ पन्नताओ' Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः रु. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् पश्नत्ताओ' द्वे-द्विसंख्यके महानधौ प्रज्ञप्ते-कथिते इति, ते एव द्वे नदी दर्शयितुमाह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'सीयाय सीओयाय' शीता च शीतोदा च, एतनामके द्वे महानद्यौ जम्बूद्वीपे महाविदेहवर्षे प्रबहत इत्यर्थः, 'तत्थ एगमेगा महाणई तत्र तयोः शीता शीतोदयोमध्ये एकैका महानदी ‘पंचहि पंचहिं सलिलासयसहस्से हिं' पञ्चभिः पञ्चभिः सलिला सहस्रैः पञ्चभिर्नदील: रित्यर्थः तथा-'वत्तीसाए य सलिला सहस्से हिं' द्वात्रिंशताच सलिलासहस्रः द्वात्रिंशन्नदी सौः - 'समग्गा' समग्रा युक्ता 'पुरथिमपञ्चत्थिमेणं लवणसमुई समप्पे पूर्वपश्चिमेन लवणसमुद्रं समर्पयति-गच्छतीति, सम्प्रति-सर्वासां नदीनां महाविदेहक्षेत्रगतानां संकलनां दर्शयति-'एवामेव' इत्यादि, 'एवामेव सपुत्रावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे' एवमेव-यथावर्णितप्रकारेण सपूर्वापरेणपूर्वापरसंकलनेन जम्बूद्वीपनामके द्वीपे महाविदेहनामके वर्षे 'दस सलिला सयसहस्सा चउसहिं च सलिला सहस्सा भवंतीति मक्खाय' दशसलिलाशतसहस्राणि नदीनां दशलक्षाणि चतुः पष्टिः सलिलासहस्राणि भवन्तीति मया अन्यैश्च तीर्थकरैराख्यातमिति । सम्प्रति-मन्दरपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि कियत्यो नद्यो भवन्तीति दर्शयितुमाह--'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णंभंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः दो महानदियां कही गई हैं। 'तं जहा' उनके नाम ये हैं 'मीआसीओआय' एक सीता और दूसरी सीतोदा 'तत्थणं एगमेगा महाणई पंचहिं २ सलिलासयसहस्सेहिं बत्तीसाएभ सलिलासहस्से हिं समग्गा पुरस्थिापच्चत्थिमेणं लवणसमुई ममप्पेह' इनमें एक एक महानदी की परिवारभूत अवान्तर नदियां ५६ लाख ५६ हजार हैं और ये सब पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में जाकर मिली हैं। ___अब महाविदेह क्षेत्रगत समस्तनदियों की संकलना प्रकट करने के निमित्त 'एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दससलिला सयसहस्सा चउमहि च सलिलासहस्सा भवंतीति मक्खायं इस तरह जम्बूद्वीप नामके द्वीप में महाविदेह क्षेत्र में १० लाख ६४ हजार अवान्तर नदियां हैं ऐसा तीर्थंकरों है गौतम ! ये मनदीमा ४ाम मावal 9. 'तं जहा' तमना नामी मा प्रमाणे छे. 'सीआ सीओआय' से सीता मन म सीताहा. 'तत्थणं एगमेगा महाणई पंचहि २ सलिल! सयसहस्सेहि बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं समग्गा पुरथिमपच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेई' सेना -४ महानहीनी परिवारभूता भवान्तर नही। ५ सय ३२ હજાર છે અને બધી પૂર્વ અને પશ્ચિમ લવણ સમુદ્રમાં જઈને મળે છે. हवे महाविहेड क्षेत्रात समस्त नहीसानी सन प्राट ४२वा माटे 'एवामेव सपुव्या वरेणं जंबुद्दीवे दीये महाविदेहे बासे दस सलिला सयसहस्सा च उसटुिं च सलिला सहस्सा भवंतीति मक्खाय' मा प्रभ दीप नाम दीपमां महाविड क्षेत्रमा १० an १४ ॥२ सपा-२ नही। छ, । प्रमाणतीय ४३। धुं छे. 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे ज० ९९ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूदीपप्राप्ति 'मंदरस्स पव्वयस्स दविखणेणं' मन्दरस्य-मेरोः पर्वतस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशीत्यर्थः 'केवइया सलिलासयसहस्सा' कियन्ति-कियत्संख्यकानि सलिलाशतसहस्राणि कियल्लक्षा. णीत्यर्थः 'पुरस्थिम पञ्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समति' पूर्वपश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, कियत्यो नघः पूर्वाभिमुखप्रवाहाः कियत्यश्च पश्चिमाभिमुखप्रवाहाः सत्यः स्वात्मानं लवणसमुद्रे समर्पयन्ति लवणसमुद्रं प्रति गच्छन्तीति प्रश्नः, भावानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे छण्णउए सलिला सयसहस्से' एकं पण्णवति सलिलाशतसहस्रम् 'पुरस्थिमपञ्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुदं समप्पें तित्ति' पूर्वपश्चिमाभिमुखं कवणसमुद्रं समर्पयन्ति गच्छन्ति षण्णवतिः सहस्राणि लक्षमेकं पूर्वपश्चिमप्रवाहा नद्यः स्वात्मानं लवणसमुद्रेसमर्पयन्तीत्यर्थः, तथाहि-भरतक्षेत्रे गहानद्याः सिन्धुनद्याश्च चतुर्दश चतुर्दशसहस्राणि, हैमवते रोहितांशायाश्चाष्टाविंशति रष्टाविंशतिः सहस्राणि, हरिवर्यक्षेत्रे हरिसलिलाया हरिकान्तायाश्च ने कहा है 'जंबुद्दीवेणं भंते दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिमपच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्पे ति' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नामके द्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशामें कितनी लाख नदियां पूर्वपश्चिमदिशाकी ओर बहती हुई-पूर्व लवण समुद्र में और पश्चिम लवण समुद्र में मिली हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! एगे छण्ण. उए सलिलासयसहस्से पुरथिनपच्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुई समप्तित्ति' हे गौतम ! १ लाख ९६ हजार पूर्व पश्चिमदिशाकी ओर वहती हुई नदियां लवणसमुद्र में मिली हैं। ये नदियां सुमेरु पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर है इसका तात्पर्य ऐसा है-भरतक्षेत्र में गङ्गानदी की सिन्धुनदी की १४-१४ हजार नदियां हैमवत् क्षेत्र में रोहिता और रोहितांशाकी २८-२८ हजार नदियां हरिवर्षक्षेत्र में हरि और हरि कान्ता की ५६-५६ हजार नदियां कुल मिलकर १ लाख ९६ हो जाती हैं ये सब नदियां सुमेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में वहती मंदरम्स पव्वयस्स दक्खिणेणं केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिमपच्चत्थिमाभिमुहा लव णसमुदं समप्पें ति' 3 मह ! यूदी५ नाम दीपभा भ२ ५ तनी दक्षिण दिशामा કેટલા લાખ નદીઓ પૂર્વ પશ્ચિમદિશા તરફ વહેતી પૂર્વ લવણસમુદ્રમાં અને પશ્ચિમ eqसमुद्रमा भणे छ १ सेना ramभ प्रभु -गोयमा ! एगे छण्ण उए सलिला सय सहस्से पुरथिमपच्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुदं समप्पें ति त्ति' 3 गौतम ! १ ८६ M२ પૂર્વ–પશ્ચિમદિશા તરફ વહેતી નદીઓ લવણસમુદ્રમાં મળે છે. એ નદીઓ સુમેરુ પર્વતની દક્ષિણદિશા તરફ આવેલી છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે. કે ભરતક્ષેત્રમાં ગંગા નદીની અને સિધુ નદીની ૧૪–૧૪ હજાર નદીએ હૈમવત ક્ષેત્રમાં રેહિતા અને રેહિતાં શાની ૨૮–૨૮ હજાર નદીઓ હરિવર્ષ ક્ષેત્રમાં હરિ અને હરિકાન્તાની ૫૬-૫૬ હજાર નદીઓ આમ બધી મળીને ૧ લાખ ૯૬ થઈ જાય છે. એ બધી નદીઓ સુમેરુ પર્વતની Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-षष्ठवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् पट्पश्चाशत् षट्पञ्चाशत्सहस्राणि तदेवं सर्वसंकलने षण्णवतिः सहस्राणि लक्षमेकं च मन्दरपर्वतस्य दक्षिणभागे नद्यः प्रवहन्तीति । सम्प्रति मन्दरपर्वतादुत्तरप्रदेशे प्रवहनशीलानां नदीनां संख्यां ज्ञातुं प्रश्नयामाह-'जंबुदीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व मध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरेणं' मन्दरस्य पर्वतस्य उत्तरेण-उत्तरदिविभागे 'केवइया सलिलासयसहस्सा' कियन्ति-कियत्संख्यकानि सलिलाशतसहस्राणि 'पुरत्थिमपञ्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुई समप्पेति' पूर्वपश्चिमाभिमुखा लपणसमुद्रं समर्पयन्ति लवणसमुद्रं प्रतिगच्छन्तीत्यर्थ, इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे छण्णउए सलिला सहस. हस्से' एकं षण्णवत्यधिकं सलिलाशतसहस्रं पूर्वपश्चिमाभिमुखं लवणसमुद्रं समर्पयति षण्णवति सहस्राधिक लक्षमेकं नदीनां समुदं प्रतिगच्छति। ___सम्प्रति कियत्यो नद्यः पूर्वाभिमुखाः सत्यो लवणसमुद्रं प्रविशन्ति तदर्शयितुमाह- 'जंबु. दीवेणं भंते' इत्यादि, 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे 'केवइया सलिलासयसहस्सा पुरत्याभिमुहा' कियन्ति-कियत्संख्यकानि सलिलाशतसहस्राणि पूर्वाहैं । अब सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में बहने वाली नदियों की संख्या जानने के लिये गौतमस्वामी प्रभुश्री से पूछते हैं-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मंदर पन्वयस्स उत्तरेणं केवड्या सलिलासयसहस्सा पुरस्थिम पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुई समति ' हे भदन्त ! इस जंबुद्वीप नाम के द्वीप में मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में पूर्व और पश्चिम की ओर बहती हुई कितनी नदियां लवणसमुद्र में मिली है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! एगे छण्णउए सलिला सयसहस्से' पुरथिमपच्चत्थिमाभिमुहे जाव समप्पेइ' हे गौतम ! १ लाख ९६ हजार अवान्तर नदि यां पूर्व पश्चिमकी ओर वहती हुई लवणसमुद्र में मिली हैं। ये सब नदियां सुमेरुपर्वत की उत्तरदिशा में हैं । अब गौतम ! प्रभुश्री से ऐसा पूछते है । 'जंबुद्दीवेग भंते,! दीवे केवइआ सलिलासयसहस्सा पुरत्थाभिमुहा ઉત્તરદિશામાં વહેનારી નદીઓની સંખ્યા જાણવા માટે ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પ્રશ્ન કરે છે– 'जंबुद्दीवेणं भंते ! मंदर पवयस्स उत्तरेणं केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिमपच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समति' महत ! सामूद्वीप नाम दीपम म२ पतनी ઉત્તરદિશામાં પૂર્વ અને પશ્ચિમ તરફ વહેનારી કેટલી નદીઓ લવણસમુદ્રમાં મળે છે? सेना सभा प्रभु ४९ छ. 'गोयमा ! एगे छण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिमपच्चथिमाभिमुहे जाव समप्पेइ' गौतम ! मे साथ ८६ ॥२ मवान्तर नही। पूर्व પશ્ચિમ તરફ વહેતી લવણસમુદ્રમાં મળે છે. એ બધી નદીએ સુમેરુ પર્વતની ઉત્તરદિશામાં मावशी छे. वे गौतम ! प्रभुने तना प्रश्न ४२ छे , 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवया सलिला सयसहस्सा पुरत्याभिमुहा लवणसमुदं समप्पे ति' 3 महत ! भारदीप Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जम्बूद्वीपप्रश्नप्तिसूत्र भिमुखानि-पूर्वाभिमुखप्रपाहाः कियत्यो नद्य इत्यर्थः “लवणसमुदं समप्पेंति' लवणसमुद्रं सम. र्पयन्ति-कियत्यो नद्यः पूर्वाभिमुखा लवणसमुद्रे प्रविशन्तीति प्रश्नः, 'भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्त सलिलासयसहस्सा' सप्तसलिलाशतसहस्राणि, 'अठ्ठावीसंच सहस्सा' अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि 'जाव समप्पंति' यावत् लवणसमुद्रं समर्पयन्ति-अष्टाविंशति सहस्राधिक सप्तलक्षप्रमाणा नद्यः पूर्वाभिमुखाः लवणसमुद्रं गच्छन्तीत्यर्थः, तद्यथा पूर्वसूत्रे मेरुतो दक्षिणवर्तिनीनां नदीनामेकं लक्षं षण्णवतिः सहस्राधिकं कथितम्, तदर्द्धम् ९८००० पूर्व समुद्रगामिनीत्यागतानि अष्टानवतिः सहस्रणि, एवं मेरुत उत्तरभागे नदीना मष्टानवति सहस्राणि शीतापरिकरन्धश्च पञ्च ५ लक्षाणि द्वाविंशत्सहस्राणि सर्वसङ्कलनेअष्टाविंशति सहस्राधिक सप्तलक्षाणि नदीनां भवन्तीति । लवणसमुई समति' हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप मे कितनी नदियाँ पूर्व दिशा की ओर बहती हुई लवण समुद्र में प्रवेश करती हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं हैं-'गोयमा ! सत्तसलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा जाव समपति' हे गौतम ! सात लाख २८ हजार नदियां पूर्वदिशा की और बहती हुइ लवणसमुद्र में प्रवेश करती हैं। यह बात प्रकट कर दी गई है कि मेरुपर्वत की दक्षिण दिशा में रहकर वहने बाली नदियों की संख्या १ लाख ९६ हजार है सो इनमें से आधी नदियां ९८००० पूर्व समुद्र गामिनी है तथा इसी तरह मेरु की उत्तर दिशा में रह कर वहने वाली नदियों की संख्या ९८००० है तथा-शीता की परिवार भूत नदियां ५ लाख २२ हजार है सब मिल कर ये नदियां ७ लाख २८ हजार होतो हैं । यद्यपि यहाँ पर इनका जोड ७१६००० ही होता है अतः इस तरह से ७ लाख २८ हजार की संख्या नहीं आती है परन्तु इस कथित प्रमाण को लाने के लिये जो पहिले १२ अन्तर नदियां कही गई हैं उन्हें यहां जोड देनी चाहिये इस तरह નામક દ્વીપમાં કેટલી નદીઓ પૂર્વ દિશા તરફ વહેતી લવણસમુદ્રમાં પ્રવેશે છે? એના જવાબમાં प्रभु ४३ छे. 'गोयमा ! सत्तसलिला सयसहस्सा अदावीसं च सहस्सा जान समति' 3 ગૌતમ ! સાત લાખ ૨૯ હજાર નદીઓ પૂર્વ દિશા તરફ વહેતી લવણસમુદ્રમાં મળે છે. આ વાત સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે કે મેરુ પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં રહીને પ્રવાહિત થતી નદીઓની સંખ્યા ૧ લાખ ૯૬ હજાર છે તે એમાંથી અર્ધા ભાગની નદીઓ ૯૮૦૦૦ પૂર્વ સમુદ્ર ગામિની છે તેમજ આ પ્રમાણે મેરની ઉત્તરદિશામાં રહીને વહેનારી નદીઓની સંખ્યા ૯૮૦૦૦ છે તથા શીતાની પરિવારભૂતા નદી ૫ લાખ ૨૨ હજાર છે. આમ એ બધી નદીઓ મળીને ૭ લાખ ૨૮ હજાર થાય છે. જોકે અહીં બધી નદીઓનો સરવાળે ૭૧૬૦૦૦ જ થાય, એથી ૭ લાખ ૨૮ હજાર જેટલી સંખ્યા થતી નથી પણ આ કથિત પ્રમાણને લાવવા માટે જે પહેલાં ૧૨ અવાન્તર નદીઓ વિશે કહેવામાં આવ્યું છે. તેમને Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशिका टीका-पष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् सम्प्रति-पश्चिमसमुद्रगामिनीनां नदीनां संख्यां ज्ञातुं प्रश्नयमाह-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' इत्यादि, जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे सर्व द्वीपमध्य जम्बूद्वीपे इत्यर्थः 'केवइया सलिलासयसहस्सा' कियन्ति सलिलाशतसहस्राणि 'पञ्चत्यिमाभिमुहा' पश्चिमाभिमुखाः पश्चिमे प्रवाहो विद्यते यासां तथाभूता नद्यः 'लवणसमुदं समति' लवणसमुद्रं समर्पयन्ति, अर्थात् कियत्यो गधः पश्चिममुखपवाहा लवणसमुद्रे प्रविशन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सतसलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा पञ्चत्थिमाभिमुना लवणस मुदं समति' सप्तसलिलाशतसहस्राणि सप्तलक्षाणीत्यर्थः अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि पश्चिमाभिमुखानि लवणसमुद्रं समर्प पन्ति, अष्टाविंशति सहस्राधिक सप्तलक्षसंख्यकाः पश्चिमाभिमुखा नद्यो लवणसमुदे प्रविशन्तीति । सम्प्रति-सर्वनदी संकलनां दर्शयितुमाह-'एवामेव' इत्यादि, एकामेव सपुब्वावरेण जंबुदीवे दीवे चोदस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भांतीति मक्खायं' एवमेव सपू. परेण जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दशसलिलाशतसहस्राणि षट्पञ्चाशच सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम्, तत्र एवमेव यथावर्णितप्रकारेण सपूर्वापरेण-सर्वसङ्कलनेन चतुर्दश सलिलाशत सहपूर्व समुद्रगामी ७ लाख २८ हजार नदियों का जोड आजाता है अब पश्चिम समुद्रगामिनी नदियों की संख्या जानने के लिये 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे केवच्या सलिलासयसहस्सा पच्चत्थिमाभिमुहा' गौतमस्वामी ने ऐसा पूछा है कि-हे भदन्त ! इस जम्बूद्वीप नामके द्वीप में कितनी नदियां पश्चिम की और प्रवाह वाली होकर लवणसमुद्र में मिलती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! सत्तसलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुई समप्पे ति' हे गौतम ! ७ लाख २८ हजार नदियों पश्चिम की ओर प्रवाह वाली होती हुई लवणसमुद्र में प्रवेश करती हैं। 'एवामेव सपञ्चावरेण जंबुद्दीवे दीवे चोदससलिलासयसहस्सा छपणं च सहस्सा भवंति त्ति मक्खाय' इस तरह जम्बूद्वीप में १४ लाख ५६ हजार नदियां हैं ऐसा कथन तीर्थंकरों का है। અહીં જોડી દેવી જોઈએ. આ પ્રમાણે પૂર્વ સમુદ્રગામી ૭ લાખ ૨૮ હજાર નદીઓની સંખ્યા આવી જાય છે. હવે પશ્ચિમ સમુદ્ર ગામિની નદીઓની સંખ્યા જાણવા માટે 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया सलिलास यसहस्सा पच्पत्थिमाभिमुहा' गोतस्वाभीमा જાતને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદ્રત આ જંબૂદીપ નમક દ્વીપમાં કેટલી નદીઓ પશ્ચિમ २५ प्रवाहित न मुद्र भणे छ? सेनाममा प्रभु ४३ छ-'गोयमा ! सत्तसलिलासयसहस्सा अट्ठावीससहस्सा पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्ये ति' गौतम! ૭ લાખ ૨૮ હજાર નદીએ પશ્ચિમ તરફ પ્રવાહિત થતી લવણસમુદ્રમાં પ્રવિષ્ટ થાય છે. 'एवामेव सपुव्वावरेण जंबुद्दीदे दीवे शेदस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवंतित्ति मक्खाय' मा प्रभाले पूपमा १४ सय ५६७२ नही। छ. मे ४थन ती: Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० अम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे स्राणि-चतुर्दशलक्षाणि, षट्पञ्चाशच सहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं मया-वर्द्धमानस्वामिना अन्यैश्वापि तीर्थङ्करैरिति । अर्थात् जम्बूद्वीपे पूर्वसमुद्रगामिनीनां पश्चिमसमुद्रगामिनीनां च नदीनां सर्वासा संकलने चतुर्दशलक्षाणि षट्पञ्चाशत् सहस्राणि च भवन्तीति । सम्प्रति-जम्बूद्वीप व्यासस्य लक्षप्रमाणता प्रतीत्यर्थं दक्षिणोत्तराभ्यां क्षेत्रयोजन सर्वाग्र संकलनं शिष्याणामुपकाराय प्रदर्य ते-तद्यथा१-भरतक्षेत्रप्रमाणम्-५२६ योजनानि-कलाः ६। २-क्षुल्लहिमाचलपर्वतप्रमाणम्-१०५२ योजनानि कला:-१२ । ३-हैमवतक्षेत्रप्रमाणम्-२१०५ योजनानि कला:-५ । ४-वृद्धहिमाचलपर्वतप्रमाणम्-४२१० योजनानि कलाः-१०। ५-हरिवर्ष क्षेत्र प्रमाणम् -८४२१ योजनानि कला:-१ । ६-निषधपर्वत प्रमाणम्-१६८४२ योजनानि कले द्वे २ । तात्पर्य यही है कि पूर्व समुद्रगामिनी एवं पश्चिम समुद्रगामिनी नदियों की संख्या जम्बूद्वीप में १४ लाख ५६ हजार है । अब सूत्रकार जम्बूद्वीप का व्यास जो १ लाख प्रमाण कहा गया है उसकी प्रतीति के लिये दक्षिण और उत्तर में क्षेत्र योजन का जो संकलन है उसे शिष्यों के उपकार निमित्त प्रदर्शन करते हैं जैसे (१) भारत क्षेत्र का विस्तार ५२६,६ योजन का है। (२) क्षुल्लक हिमाचल पर्वत का-हिमवत्पर्वत का विस्तार १०५२१२ है। (३) हैमवत क्षेत्र का विस्तार २१०५. योजन का है।। (४) वृद्धहिमाचल पर्वत का प्रामाण-महाहिमवत् पर्वत का विस्तार ४२१० योजन का है। (५) हरिवर्षक्षेत्र का प्रमाण ८४२१. योजन का है। (६) निषधपर्वत का प्रमाग १६८४२. योजन का है। કરવાનું છે. તાત્પર્ય આ પ્રમાણે છે કે પૂર્વ સમુદ્રશામિની તેમજ પશ્ચિમ સમુદ્રગામિની નદીઓની સંખ્યા જ બૂદ્વીપમાં ૧૪ લાખ પ૬ હજાર છે. હવે સૂત્રકાર જબૂદીપને વ્યાસ કે જે એક લાખ પ૬ હજાર જેટલું છે. તેની પ્રતીતિ માટે દક્ષિણ અને ઉત્તરમાં ક્ષેત્રજનનું જે સંકલન છે તેને શિષ્યના ઉપકારાર્થ પ્રદર્શિત કરે છે જેમકે – (१) भरतबने। विस्तार ५२६ वह येन २८ छ. (૨) ક્ષુલ્લક હિમાચલ પર્વતને હિમવત્ પર્વતને વિસ્તાર ૧૦૫૨,છે. (૩) હૈમવત ક્ષેત્રને વિસ્તાર ૨૧૦ એજન જેટલું છે. (૪) વૃદ્ધ હિમાચલ પર્વતનું પ્રમાણ મહાહિમવત પર્વતને વિસ્તાર ૪ર૧૦ એજન २a छे. (५) विष क्षेत्र प्रभार ८४२११८ योन . Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ प्रकाशिका टीका-षष्ठोवक्षस्कारः सू. २ द्वारदशकेन प्रतिपाद्यविषयनिरूपणम् ७-महाविदेहक्षेत्रप्रमाणम् ३३६८४ योजनानि कलाः ४। ८-नीलवत्पर्वतप्रमाणम् १६८४२ योजनानि, कले २। ९-रम्यकक्षेत्रप्रमाणम्-८४२१ योजननानि, कला १। १० रुक्मिपर्वतप्रमाणम्-४२१० योजनानि कलाः १० । ११-हैरण्यवतक्षेत्रमाणम्-२१०५ योजननि कला: ५। १२-शिखरिपर्वतप्रमाणम्-१०५२ योजनानि कलाः १२ । १३-ऐरवतक्षेत्रप्रमाणम्-५२६ योजनानि कलाः ६ । . ९९९९६ योजनानि कलाः ७६ दक्षिणोत्तरतः सर्व संकलने १००००० योजन सर्वाग्रम्, अत्र दक्षिण जगतीमूल विष्कम्भो भरतक्षेत्रप्रमाणे, उत्तर जगती सत्तश्च ऐवतक्षेत्र प्रमाणे अन्तर्भावनीय इति । (७) महाविदेह क्षेत्र का प्रमाण ३३६८४३५ योजन का है। (८) नीलवत पर्वत का प्रमाण १६८४२: योजन का है। (९) रम्यकक्षेत्र का प्रमाण ८४२१. योजन का है। (१०) रुक्मि पर्वत का प्रमाण ४२१०१० योजन का है। (११) हैरण्यवतक्षेत्र का प्रमाण २१०५० योजन का है। (१२)-शिखरिपर्वत का प्रमाण १०५२२ योजन का है। (१३) ऐरवतक्षेत्र का प्रमाण ५२६६. योजन का है। इस तरह यहां पर योजन का जोड ९९९९६ निन्नानवेहजार नौ सौ छन्नु आता है और कलाओं का जोड ७६ आता है इनमें १९ का भाग देने पर ४ योजन बनते हैं अतः उपर्युक्त योजन प्रमाण में ४ को जोडने पर जम्बूद्रीप का पूरा विस्तार १ लाख योजन का आ जाता है यहां दक्षिण जगती का मूल विष्कम्भ (૬) નિષધ પર્વતનું પ્રમાણ ૧૬૮૪ર જન જેટલું છે. (૭) મહાવિદેહ ક્ષેત્રનું પ્રમાણ ૩૩૬૮૪ જન જેટલું છે. (८) नीद पतनु प्रभा १९८४२१ योन २९ छे. (૯) રમ્યક ક્ષેત્રનું પ્રમાણ ૮૪૨ જન જેટલું છે. (१०) अभि ५'तनु प्रमाण ४२१०१४ येन र छे. (૧૧) હૈરણ્યવત ક્ષેત્રનું પ્રમાણ ૨૧૦૫ જન જેટલું છે. (૧૨) શિખરિ પર્વતનું પ્રમાણ ૧૦૫ર જન જેટલું છે. (૧૩) અરવત ક્ષેત્રનું પ્રમાણ પર જન જેટલું છે. આ પ્રમાણે અહીં જનના સરવાળા ૯૯૯૬ નવાણું હજાર નવસે છાનું છે, અને કલાઓને સરવાળે ૫૭૬ થાય છે. એમાં ૧૯ને ભાગાક ૨ કરીએ તે ૪જન થાય છે. એથી ઉપર્યુક્ત જન પ્રમાણમાં ૪ ને જોડવાથી જમ્બુદ્વીપને સંપૂર્ણ વિસ્તાર ૧ લાખ Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९२ जम्बूद्वीपप्रमप्तिसूले पूर्वपश्चिमतश्चैवं सर्वाग्रमीलनम्-औत्तराहं शीतावनपुखं २९२२ योजनानि विजयषोडशकम्-३५४०६ योजनानि, अन्तर नदीपदकं ७५० योजनानि, वक्षस्काराष्टकं ४०००० योजनानि । मेरुभद्रशालयनम् ५४००० योजनानि, औत्तराहं शीतोदामुखवनम्-२९२२ योजनानि अत्र सर्बाग्रम् १००००० लक्षयोजनप्रमाणं भवति, अत्रापि जगती संबन्धिमूल विष्कम्भः स्वस्व दिग्गतमुखरने अन्तर्भावनीय इति । इतिश्री विश्वविख्यात-जगद्वल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभाषाकलित-ललितकलापालापकप्रविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्दक-श्री-शाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजदत्त-'जनशास्त्राचार्य'-पदविभूषित-कोल्हापुरराजगुरु-बालब्रह्मचारी जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलाल-व्रतिविरचितायां श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रस्य प्रकाशिकाख्यायां व्याख्यायां पष्ठो बक्षस्कारः समाप्तः ॥६॥ भरतक्षेत्र के प्रमाण मे और उत्तर जगती का प्रमाण ऐरवत क्षेत्र के प्रमाण में अन्तर्भावनीय है। पूर्व पश्चिम में सर्वाग्रता मीलन इस प्रकार से है औत्तराहउत्तरीदशा में-शीता नदीके वर का मुखप्रमाग विस्तार २९२२ योजन का है १६ विजयों का प्रमाण विस्तार ३५४६० योजन का है अन्तरनदीषटूक का विस्तार ७५० योजन का है आठवक्षस्कारों का विस्तार ४००० योजन का है मेरु भद्रशालवन का विस्तार ५४००० योजन का है तथा उत्तरदिरवर्ती शीतोदा नदी के वन मुख का विस्तार २९२२ योजन का है इन सब का जोड एक लाख योजन प्रमाण हो जाता है। यहां पर भी जाती का मूलविष्कम्भ अपने दिग्गत मुख बनमें अन्तर्भावित करलेना चाहिये। श्री जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालव्रतिविरचित जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिसूत्र की प्रकाशिका ब्याख्या में छट्ठावक्षस्कार समाप्त ॥६॥ ચેજન આવી જાય છે. અહીં દક્ષિણ જગતને મૂલ વિખંભ ભરતક્ષેત્રના પ્રમાણમાં અને ઉત્તર જગતીનું પ્રમાણ અરવત ક્ષેત્રના પ્રમાણમાં અન્તર્ભાવનીય છે. પૂર્વ પશ્ચિમમાં સર્વાગ્રનું મિલન આ પ્રમાણે છે- ઉત્તરાહ–ઉત્તરદિશામાં-શીતા નદીના વનના મુખ પ્રમાણ વિસ્તાર ૨૨૨ જન જેટલું છે. ૧૨ વિજયેને પ્રમાણ વિસ્તાર ૩૫૪૦૬ યેજન છે. અન્તર નદી ને વિસ્તાર ૭૫૦ એજન જેટલું છે. આઠ વક્ષસ્કારોને વિસ્તાર ૪૦૦૦ જન જેટલો છે. મેરુ ભદ્રશાલ વનનો વિસ્તાર ૫૪૦૦૦ ચોજન જેટલું છે તેમજ ઉત્તર દિગ્વતી શીદા નદીના વનના મુખને વિસ્તાર ૨૯૨૨ યે જન જેટલું છે. એ સર્વનો સરવાળે એક લાખ જન પ્રમાણ થાય છે. અહીં પણ જગતનો મૂલ વિષ્કા પિતપતાની દિશાઓમાં આવેલા મુખવનમાં આન્તર્ભાવિ કરી લેવો જોઈએ. શ્રી જૈનાચાર્ય જૈનકર્મદિવાકર પૂજય શ્રી ઘાસીલાલ વ્રતિવિરચિત જમ્બુદ્વી પ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્રની પ્રકાશિકા વ્યાખ્યાનો છો વક્ષરકાર સમાપ્ત. દ છે Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________