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________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थवक्षस्कारः सूः ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् ४१ 1 हारस्तत्संस्थितेन तदा कारेण - प्रपाने धावल्येन बुदबुदानां तदाकारतया च तत्सादृश्यं बोध्यम् 'साइरेग जोयणस एवं सातिरेक योजनशतिकेन सातिरेका किञ्चिदधिका योजनशतिका योजनशत्येव यौनशतिका शतयोजनानि मानत्वेन यस्य तथाभूतेन यद्वा सातिरेका योजनाती प्रमाणमस्य तथाभूतेन 'पवारणं' प्रपातेन निर्झरेण तद्द्वारा 'पवड' प्रपतति प्रपात - कुण्डं प्राप्नोति, 'गंगा महाणई जओ' राजामहानदी यतः यस्मात् स्थानात् 'पवडई' प्रपतति, ' इत्थ णं' अत्र गङ्गाप्रपातस्थाने खलु 'महं' महती बृहती 'एगा जिब्भिया' एका जिविका fararaणाली 'पण्णत्ता' प्रज्ञप्ता 'सा णं जिम्भिरा' सा व जिह्निका 'अद्ध जोयणं आयामेणं' अर्धयोजनमायामेन, 'उसकोसाई जोयणाई' सक्रोशानि कोशसहितानि षट् - योजनानि 'विक्खंभेण' विष्कम्भेण विस्तारेण, 'अद्धकोसं वाहल्लेणं' अर्द्धकोशं बाहल्येन पिण्डेन 'मगरसं संठिया' मकरमुत विद्युतसंस्थानसंस्थिता विवृतमकरमुखाकारा अत्र विवृतत्वात् परप्रयोगः, 'सव्ववरामई' सर्वत्रमयी सर्वात्मना वज्ररत्नमयी 'अच्छा सण्डा ०' अच्छा लगा इत्यादि प्रारवत् 'गंना महागाई जत्थ पवड' यत्र गङ्गामहानदी प्रपतति 'एत्य णं' अत्र गङ्गाप्रपातस्थाने खलु 'महं एगे' एकं मत् बृहत् 'गंगप्पवाययोजन से भी कुछ अधिक प्रमाणोपेत प्रवाह से प्रपात कुण्ड में गिरती है (गंगामहाई जओ व इत्थपना यह जिनका पण्णत्ता) गंगामहानदी जिस स्थान से प्रपात कुण्ड में गिरती है वहां पर एक विशाल - जिह्निका जैसी आकृति - वाली प्रणाली है (सा पंजिनिया अद्ध जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्रमेणं असं बाहल्ले मगर दुह बिउ संठाणसंठिया सव्यवहरामई अच्छा सहा) यह जिहा के जैसी प्रणाली आयाम की अपेक्षा आधे योजन की है और विष्कम्भवस्तार की अपेक्षा यह १ कोश सहित ६ योजन की है । तथा इसका बाहल्य- मोटाई आये कोशका है इसका आकार मगर के खुले हुए सुख के जैसा है यह सर्वात्मना रत्ननयी है अच्छा-आकाश और स्फटिक के जैसी विलकुल निर्मल है और चिकनी है आर्य होने के कारण यहां विवृत शब्द का વાળા એકસા યન કરતા પશુ કંઈક અધિક પ્રમાણાપેત પ્રવાહથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે 'गंगा महाणई जओ पत्र, इत्थण एगा महं जिन्मिया पण्णत्ता' गंगा भडानही ने स्थान ઉપરથી પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાં એક વિશાળ જિહ્વા જેવી આકૃતિ ધરાવતી પ્રણાલી छे. 'साणं जिमिया अद्ध जोयणं आयामेणं छ सकोसाई जोयणाई विक्खंभेणं अद्धकोसं बाहल्लेण मगर मुहबिउट्ठ संठाण संठिया सव्व बरामई अच्छा सहा' में दिखा नेवी પ્રણાલી આયામની અપેક્ષાએ અર્ધો યેાજન જેટલી છે અને કંભની (વિસ્તાર)ની અપેક્ષાએ એક ગઉ સહિત ૬ ચૈાજન જેટલી છે. તેમજ એની મેટાઇ (બાહુલ્ય) અર્ધા ગાઉ જેટલી છે. એ સર્વાત્મના રત્નમયી છે. અચ્છા--આકાશ અને સ્ફટિક જેવી એ તદ્દન નિળ અને સ્નિગ્ધ છે. આપ ડાવા બદલ અહી વિવૃત્ત શબ્દના ૫૬ પ્રયાણ થયેલ છે. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ज० ६ Jain Education International
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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