SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका - चतुर्थ वक्षस्कार: सू. २३ सुदर्शनाजम्बूवर्णनम् २७९ अथास्य वनस्य मध्यवर्तीनि कूटानि स्वरूपतो दर्शयति- 'जंबूर णं' इत्यादि - 'जंबूए नं' जम्ब्वा: - जम्बूसुदर्शनायाः अस्मिन्नेव प्रथमे वनपण्डे 'पुरथिमिल्लस्स' पौरस्त्यस्य - पूर्वदिभवस्य 'भवणस्स' भवनस्य गृहस्य 'उत्तरेणं' उत्तरेण-उत्तरस्यां दिशि 'उत्तरपुरथिमिल्लस्स' उत्तरपौरस्त्यस्य - ईशानकोणगतस्य 'पासायवडेंसगस्स' प्रासादादतंसकस्य 'दक्खिणेणं' दक्षिणेन - दक्षिणस्यां दिशि 'एत्थ णं' अत्र - अत्रान्तरे खलु ' कूडे' कूटं - शिखरं 'पण ते ' प्रज्ञप्तम्, तच्च मानतः 'अहजोयणाई' उद्धं उच्चतेणं' अष्ट योजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, 'दो जोयणा उब्वेणं' द्वे योजने उद्वेधेन - भूप्रवेशेन, वृत्तत्वेन य एवाऽऽवामः स एव विष्कम्भ इति, तच्त्र पुनः 'मूले' मूले मूलावच्छेदेन 'अहनोयणाई आयामविक्खंभेणं' अष्टयोजनानि आयाम - विष्टम्भेन- दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम् 'बहुमज्झ देस भाए' 'बहुमध्यदेश भागे - अत्यन्तमध्यदेशभागावच्छेदेन भूमितश्चतुर्षु योजनेषु गतेषु 'छ जोयणाई' षडूयोजनानि 'आयामवित्रखंभेणं' आयानविष्कम्भेण- दैर्ध्य - विस्ताराभ्याम्, 'उवरिं' उपरि - शिखर भागे ' चत्तारि जोयणाई' आयाम विक्खंभेण चत्वारि योजनानि आयामविष्कम्भेण - आयाम - विष्कम्भाभ्याम्, - अब वन के मध्यवर्ति कूट का स्वरूप कहते हैं- 'जंबूएणं' जम्बू सुदर्शना के इसी प्रथम वनषण्ड में 'पुरथिमिल्लस्स भवणस्स' पूर्वदिशा में रहे हुए गृह का 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में 'उत्तर पुरथिमिलस्स' ईशान दिशा में रहे हुए 'पासाय व डेंसगस्स' उत्तम प्रासाद-महल के 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में 'एत्थणं' यहां पर 'कूडे' शिखर 'पण्णत्ते कहा है उसका मान इस प्रकार से है'अट्ठजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं' आठ योजन का ऊंचा है 'दो जोयणाई उव्वेहेणं' दो योजन का उद्वेध-भूमि के अंदर कहा है । वृत्त-वर्तुल होने से जितना उसका आयाम - लंबाई कहा है उतना ही उसका विष्कंभ चोडाई कहा है । वह आयाम विष्कंभ 'मूले' मूल भाग में 'अट्ठजोयणाई आयामविवखंभेणं' आठ योजन का आयामविष्कंभ है 'बहुमज्झदेसभाए' ठीक मध्य भागमें भूमि से चार योजन गत होने पर 'छ' जोयणाई आयामविक्खंभेर्ण' छ योजन आयाम विष्कंभ हवे वननी मध्यभां आस छूट पान ४रे छे.- 'जंबूएणं' सुदर्शनाना भा वनषउभां 'पुरत्थिमिल्लस्स भवणस्स' पूर्व दिशामां आवेस भवनांनी 'उत्तरेण" उत्तर दिशामां 'उत्तरपुरत्थिमिल्लस्स' ईशान दिशाभां आवेला 'पासायवडेंसगस्स' उत्तम आसाह-भडेसना 'दक्खिणेणं' क्षिणु हिशामा 'एत्थनं' या स्थणे 'कूडा' शिमरे। 'पण्णत्ता' डेला छे. तेनु भाष या प्रमाणे छे.- 'अट्ठ जोयणोई उद्धं उच्चतेणं' आयोजन भेटता या छे. 'दो जोयणाई उब्वेहेणं' मे योन नेटसेो द्वेष-भीनी अंदर प्रवेशेला छे. वृत्त-तु હાવાથી જેટલા તેના આયામ છે. એટલેજ તેના વિષ્ઠભ–પહેાળાઇ કહેલ છે. તે આયામ विष्jल 'मूले' भूस लागमां 'अट्ठ जोयणाई अयामविखंभेण' योजन भेटलो आयाम विष्णुं छे. 'बहुमज्झदेसभाए' र मध्य भागमां भीनथी यार योन उचाई पर 'छ जोयणाई आयाम विक्ख भेणं' छान्न भेटलो आयाम विष्टुं छे. '' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy