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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २४ उत्तरकुरुनामादिनिरूपणम् २९३ 'कच्छस्स' कच्छस्य-कच्छ-नामकस्य 'चकवहिविजयस्स' चक्रवर्तिविजयस्य 'पच्चस्थिमेणं' पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि 'एत्थ' अत्र-अत्रान्तरे 'ण' खलु 'महाविदेहे' महाविदेहे-महाविदेह नामके 'वासे' वर्षे-क्षेत्रे 'मलवंते' माल्यवान् ‘णाम' नाम वक्खारपव्वए' वक्षस्कारपर्वतः सीमाकारिपर्वतः ‘पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः कथितः, अस्य मानाधाह-'उत्तरदाहिणायए' उत्तरदक्षिणायतः-उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायत:-दीर्घः, 'पाईणपडीणवित्थिपणे' प्राचीन-प्रतीचीनविस्तीर्णः-पूर्वपश्चिमयोर्दिशोविस्तीर्णः-विस्तारयुक्तः, किंबहुना 'जं चेव' यदेव 'गंधमायणस्स' गन्धमादनस्य-पूर्वोक्तवक्षस्कारपर्वतस्य 'पमाणं' प्रमाणं 'विक्खंभो' विष्कम्भ:-विस्तारः 'य' च, उक्तस्तदेव प्रमाणं स एव च विष्कम्भो बोध्यः, 'णवरं' नवरम्-केवलम्-'इम इदम् 'णाणत्तं' नानात्वं-भेदः-विशेषोऽयम् 'सव्ववेरुलियामए' सर्ववैडूर्यमयः-सर्वात्मना-वैडूयरत्नमयः 'अवसिर्ट' अवशिष्टं-शेष 'तं चेव' तदेव-पूर्वोक्तमेव, तत् किम्पर्यन्तम् ? इत्यपेक्षायामाह'जाव गोयमा ! नव कूडा पण्णत्ता' यावद् गौतम नवकूटानि प्रज्ञप्तानि, स्पष्टम् 'तं जहा' तद् कच्छ नाम के 'चकवहिविजयस्स' चक्रवतिविजय के पच्चत्थिमेणं पश्चिमदिशा में 'एत्थ' यहाँ पर 'णं' निश्चय से 'महाविदेहे' महाविदेह नाम का 'वास' क्षेत्र 'मालवंते णाम' माल्यवान नाम का 'वक्खारपव्वए' सीमाकारी पर्वत 'पण्णत्ते' कहा हैं। अब इसका मानादि प्रमाण कहते हैं-'उत्तरदाहिणायए' वह पर्वत उत्तर दक्षिण में लंबा है, 'पाईणपडीणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशा की ओर विस्तार वाला है, अधिक क्या कहे, जं चेव गंधमायणस्स' जो गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का 'पमाण' प्रमाण 'विक्खंभो' विष्कंभ या जो कहा है वही प्रमाण और वही विष्कंभ इसका भी समझ लेना । 'णवरं' केवल 'इमं यही 'णाणत्तं' विशेष कथन कि 'सव्ववेरुलियामए' यह पर्वत सर्वात्मना वैडूर्य रत्नमय कहा है 'अवसिष्ट्र तं चेव' बाकिका सर्वकथक पूर्वोक्त कथन के जैसा ही है। वह कथन कहां तक का ग्रहण करना चाहिए इस संशय की निवृत्यर्थ कहते हैं 'जाव गोयमा ! नवकूडा पूव शिामा 'कच्छरस' ४२७ नमन। 'चक्काट्टिविजयस्स' यती वियना 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशामi ‘एत्थ' मडीयो ‘णं' निश्चयथी 'महाविदेहे' महाविनामना 'वासे क्षेत्र 'मालवंते णाम' भाइयवान् नामना 'वक्खारपव्यए' सीमा ५वत 'पण्णत्ते' हेस छ.. व तेना मानाहि प्रभानु ४थन ४२ छ-'उत्तर दाहिणायए' ते पत उत्तर दक्षिwi aiम. 'पाईणपडिविस्थिण्णे' पूर्व पश्चिम दिशा त२५ विस्तारवा छे. पधारे शु उपाय ? 'जं चेव गंधमायणस्स' ? गंधमान वक्ष२४२नु पमणं .. "विव खंभो' વિäભ ત્યાં જે કહેલ છે. એ જ પ્રમાણ અને એજ વિષ્કભ આને પણ સમજી લે. 'णवर' व 'इम' से 'णाणत्तं' विशेषता छ, 3-'सव्ववेरुलियामए' मा पर्वत सा. भनाइ नभय छे. 'अवसिटुं. तं चेव' साठीनुसघणु ४थन पडसाना ४थन प्रमाणे જ છે તે કથન કયાં સુધીનું ગ્રહણ ક વું જોઈએ? એ જીજ્ઞાસાની નિવૃત્તિ માટે કહે છે, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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