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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् दाहिणेणं चउरासीई जोयणसहस्साई सोलस जयणाई चत्तारि एगृणवीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं तस्य धनुः दक्षिणेन चतुरशीतानि चतुरशीत्यधिकानि योजनसहस्राणि षोडशयोजनानि चतुर एकोनविंशति भागान् योजनस्य परिक्षेपेण। अथ हरिवर्षस्य स्वरूपं पिच्छिपुराह-'हरिबासस्स णं भंते' इत्यादि, हे भदन्त ! हरिवर्षस्य खलु वर्षस्य 'केरिसए आगारभावपडोयारे' कीदृशक:-कीदृशः आकारमाक्प्रत्यत्रतारः तत्राऽऽकारः-स्वरूपं, भावा:-पृथिवीवर्षधरप्रभृत्यस्तदन्तर्गताः पदार्थाः तद्युक्तः प्रत्यवतारः-प्रकटीभावः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्ने भगवानुत्तरमाह-'गोयमा ! वहुसमरमणिज्जे' हे गौतम ! बहुसमरमणीयः बहुसमः अत्यन्तसमो अत एव रमणीयः-सुन्दरः 'भूमिभागे पण्णत्ते' भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स च कीदृशः इत्याह-'जाव मणीहि तणेहिं य उवसोभिए' यावत् मणिभिः अत्र यावत्पदेन नानाविध पञ्चवर्णैरिति संग्राह्यम्-एतादृशैः मणिभिः वैडूर्यस्फटिकादिभिरूपशोभित इत्यग्रिमेण सम्बन्धः, जोयणसहस्साई सोलस जोयणाइं चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेगं) इसका धनु:पृष्ठ परिक्षेप की अपेक्षा दक्षिण दिशा में ८४०१६ योजन का है (हरिवासस्स गं भंते ! वासस्स केरिसए आयार भावपडोयारे पण्णत्ते) अब गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! हरिवर्ष क्षेत्रका आकार भाव प्रत्यवतार-स्वरूप-कैसा कहा गया है इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-(गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उवसोभिए एवं मणोणं तंगीण य वण्णो गंधो फासो सद्दो भाणियव्वो) हे गौतम ! हरिवर्ष क्षेत्रका भूमिभाग बहुसमरमणीय कहा गया है यावत् वह मणियों से और तृणों से उपशोभित है इसी प्रकार से मणियों के एवं तृणों के वर्ण, गंध, स्पर्श और शब्द का यहां पर वर्णन करलेना चाहिये यहां पर 'जाव मणीहिं' के साथ आगत यावत्पद से 'नानाविध पंचवर्णः' इस विशेषणरूप पद का ग्रहण हुआ है वर्ण गंधादि कों का वर्णन राजप्रश्नीय सूत्र के १५ वे सूत्र से लेकर १९ वें सूत्र तक जोयणसहस्साई सोलस जोयणाई चत्तारि एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं' सेना धनुY७ परिक्षपनी अपेक्षाये हक्षिण दिशामा ८४०१६ १ योनी छे. 'हरिवासरस णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते' वे गौतमे प्रसुन मा જાતને પ્રશ્ન કર્યો કે હે ભદંત! હરિવર્ષ ક્ષેત્રને આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર એ લે કે સ્વરૂપ पामा वि छ. मेना वासभा प्रभु ४९ छ-'गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते, जाव मणीहिं तणेहिय उव सोभिए एवं मणीणं तणाणय वण्णो गंघो फासो सद्दो भाणियो' हे गौतम ! (२५५ क्षेत्रने लू मला पसभरमणीय ४उवामां आवे छे. થાવત્ તે મણિઓથી અને તૃણોથી ઉપ સિત છે. આ પ્રમાણે જ મણિઓના તેમજ तृणु न , मध, १५श मने शनु २५ वर्णन ४२] सेयु से. मी 'जाव मणिहिं' नी सा2 मावेत यावत् ५४थी 'नानाविधपंचवर्णैः' से विशेष ३५ ५४नु सय थयु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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