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________________ ५५२ जम्बूद्वीपप्रतिस्पे कुर्म इति कृत्वा इति विचार्य मनसा एवम् अनन्तरोक्तं वदन्ति 'वइत्ता' वदित्वा 'पत्तेयं पत्तेयं आभिभोगिए देवे सदावेंति' प्रत्येकं प्रत्येकम् आभियोगिकान् आज्ञाकारिणो देवान् शब्दयन्ति आह्वयन्ति 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा 'एवं वयासी' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण ता अष्टौ दिक्कुमार्यः भवादिषु : - उक्तवत्यः 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगखं भसय सणfag लीलट्ठिअसालिभंजियाए एवं विमाणवण्ण मो भाणियव्त्रो' क्षिप्रमेव शीघ्रमेव भो देवानुप्रियाः अनेक स्तम्भशतसन्निविष्टानि अनेकानि बहूनि स्तम्भशतानि अनेक शतसंख्यक स्तम्भाः, सन्निविष्टानि संग्नानि येषु विमानेषु तानि तथाभूतानि, तथा लीलस्थितशालिभञ्जिकाकानि - लीलास्थित शालिभञ्जिकाः 'पुतली' इति भाषा प्रसिद्धाः ताः सन्ति शोभार्थ येषु तानि तथाभूतानि इत्येवम् अनेन क्रमेण विमानवर्णको भणितव्यः, स चायम् 'ई हामिग उस भतुरगणर मगर विहगवालग किंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पउमलयभत्ति सभी ने एक निर्णय किया 'वइत्ता पत्तेयं२ आभिओगिए देवे सहावेंति' ऐसा निर्णय करके फिर उन्होंने प्रत्येकने अपने २ आभियोगिक देवों को बुलाया 'सद्दावित्ता एवं वयासी' बुलाकर उनसे ऐसा कहा - 'खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! अगखंभसय सण्णविद्वे लीलट्ठिय सालिभंजियाए एवं विमाणवण्णओ भाणियन्वो' हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही सैकडो खंभोवाले, तथा जिन में लीला करती हुइ स्थिति में अनेक पुतलियां शोभा के निमित्त बनाई गई हों ऐसे 'पूर्व में किये गये विमानवर्णक की तरह वर्णन वाले 'जाब जोयणविच्छिण्णे दिव्वे जाणविमाणे' यावत् एक योजन के विस्तार वाले दिव्य यान विमानों की 'विउब्वित्ता एयमाणत्तियं पच्चपिणहत्ति' विकुर्वणा करके हमलोगों को इस आज्ञा की समाप्ति हो जाने की खबर दो यहां विमान का यह वर्णन इसके पहिले २ का इस प्रकार से है - "इहामिग उस भतुरगणर मगर विहगवालगकिन्नर रुरुसर भचमर भन्भनो भडिना पुरी. मा रीते तेथे सर्वे भारि भजीने निर्णय ये. 'वइत्ता पत्तेयं २ आभिओगिए देवे सहावे ति' मेंवे। निय हरीने पछी तेथेोभाथी हरेडे पोत-पोताना माभियोग देवाने मोसाच्या 'सद्दावित्ता एवं क्यासी' गोसावीने तेभाणे या प्रमाणे धु 'विपामेव भो देवाणुम्पिया ! अणेग खंभसयसाण्णिविट्ठे लीलट्ठिय सालिभंजियाए एवं विमाणवण्णओ भाणियव्त्रो' हे देवानुप्रियो ! तमे दो। शीघ्र हमरो स्त भोवाणा तेभर मनाम લીલા કરતી સ્થિતિમાં અનેક પુત્તલિકાએ શેાભા માટે બનાવવામાં આવી છે એવા પૂર્વે विभान वशुभां वर्षाच्या शुभम' वासुंनवाला 'जाव जोयणविच्छिष्णे दिव्वे जाणविमाणे' यावत् ो योजन नेट्वा विस्तारवाना दिव्य यान विभाननी 'विउव्वित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणहत्ति' विरुवा हरीने पछी सभारी या भाज्ञानु पालन ४२वामां आवे छे, એવી અમને સૂચના આપો. અહીં' વિમાન વિશેનુ તે વર્ણન જે પહેલાં કરવામાં આવ્યું Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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