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________________ २२ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे मालाओ णेयच्त्राओ' यावत् वनमालाः ज्ञातव्याः । अत्र यावत्पदेन इतो अग्रे ' हामगे ' इत्यारभ्य वनमालावर्णनपर्यन्तः सकलोऽपि पाठः तदर्थचात्रैव पूर्वमष्टमसूत्रस्य जम्बूद्वीप विजयद्वारवर्णनव्याख्यायां तथा राजप्रश्नीयसूत्रे सूर्याभदेव विमानद्वारवर्णने चतुष्पञ्चाशत्तमसूत्रादारभ्य एकोनषष्टितम गतवनमालावर्णनपर्यन्तं च विलोकनीयः । , 'तस्स णं भवणस्स तो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' तस्य खलु भवनस्य अन्तः मध्ये बहुसमरमणीय भूमिभागः प्रज्ञप्तः स कीदृश इत्याह- ' से जमाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा० स यथानामक आलिङ्गपुष्कर इति वा इत्यादि भूमिभागवर्णनं सविवरणं षष्ठसूत्राबोध्यम् । 'तस्स णं' तस्य खलु भूमिभागस्य 'बहुमज्झ देस भाए' बहुमध्यदेशभागे 'एत्थ णं' याई विक्खंभेणं, तावतिअं चेव पवेसेणं. सेया वरकणगथ्रुभिया जाव वणमालाओ यव्वाओ) ये द्वार पांच सौ धनुष के ऊंचे हैं अढाई सौ धनुष के चौडे हैं तथा इनमें प्रवेश करने का मार्ग भी इतका ही चौडा है ये द्वार प्रायः अङ्करत्नों के बने हुए हैं तथा इनके ऊपर जो स्तृपिकाए है-लघुशिखर हैं- वे उत्तम स्वर्ण की बनी हुई हैं इनके चारों ओर वनमालाए हैं यहां यावत्पद से 'ईहामिंग' आदि रूप जो वनमालावर्णन करते तकका पाट है वह गृहीत हुआ है वह पाठ और उसकी व्याख्या इसी जम्बूद्वीप के विजय द्वार के वर्णन में कही गई है - देखना चाहिये तथा राज प्रश्नीय सूर्याम देवके विमान के वर्णन के प्रसङ्ग में कथित ४५ वें सूत्र से लेकर ५९ वें सूत्र तक में देखना चाहिये (तस्सणं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते) उस भवन के भीतर का जो भूमिआग है वह बहुसमरमणीय कहा गया है ( से जहाणामए आलिंग पुक्खरेइवा) उस भूमि भाग का वर्णन इत्यादि रूप से छठे सूत्र से जान लेना चाहिये (तस्स तावतिअं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथ्रुभिया जात्र वणमालाओ णेयव्त्राओ' मे द्वार ५०० धनुष જેટલા ઊંચા છે અને ૨૫૦ ધનુષ જેટલા પહેાળા છે. તેમજ એમની અંદર પ્રવિષ્ટ થવાને મા પણ આટલે જ પહેાળે છે. એ દ્વારા પ્રાયઃ અંકરત્નાથી નિર્મિત છે. એમની ઉપર જે સ્તૂપિયાએ છે–લઘુ-શિખરા છે તે ઉત્તમ સ્વનિર્મિત છે. એમની थेाभेर वनभाजाओ। छे. अहीं' 'यावत्' पहथी 'ईहामिंग' वगेरे ३५ वनभाजाना वर्णुन सुधीनेो थाह छे, ते सहीं गृहीत थये। छे. आ पाई, सने पाडनी व्याच्या या 'भ्यू દ્વીપ પ્રજ્ઞપ્તિ' માં પહેલા અષ્ટમ સૂત્રની વ્યાખ્યામાં, વિજય દ્વારના વન વખતે કરવામાં આવેલ છે. જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જાણવા યત્ન કરે. તેમજ રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર' માં સૂર્યાંભદેવના વિમાન વન પ્રસ`ગમાં કથિત ૪૫ માં સૂત્રથી માંડીને ૫૯માં સૂત્ર સુધી એ પાડની વ્યાખ્યા અંગે જોઇ લેવુ જોઇએ. 'तस्स णं भत्रणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमि. भागे पण्णत्ते' ते अवननी हरनो ने लूमिल हे, ते खडुसभ रमणीय आहेवाय छे. 'से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा' ते भूमिलागर्नु वर्षान इत्यादि ३५मा छ। सूत्रमांधी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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