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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. २० उत्तरकुरूस्वरूपनिरूपणम् १८७ योजनसहस्राणि-सहस्रत्रयसंख्ययोजनानि 'एगं च बावर्ट' एकं च द्वाषष्ट-द्वाषष्टयधिक 'जोयणसयं किंचि विसेसाहियं' योजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकं-कियत्कलमित्यर्थः, 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना वर्तुलत्वेनेत्यर्थः, 'मज्झे दो जोयणसहस्साई मध्ये-द्वे योजनसहस्रे-सहस्रद्वयसंख्ययोजनानि 'तिण्णि बावत्तरे' त्रीणि च द्वासप्ततानि-द्वासप्तत्यधिकानि 'जोयणसए' योजनशतानि 'किंचि विसेसाहिए' किञ्चिद्विशेषाधिकानि 'परिक्खेवेणं' परिक्षेपेण-परिधिना, 'उवरि' उपरि-शिखरे 'एगं' एक 'जोयणसहस्सं पंच य एकासीए' योजनसहस्रं पञ्च च एकाशीतानि-एकाशीत्यधिकानि 'जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, अत एव 'मूले वित्थिण्णा' मले विस्तीणौँ, 'मज्झे' मध्ये-मूलापेक्षया 'संखित्ता' संक्षिप्तौ-अल्पपरिक्षेपको, 'उप्पि' उपरिशिखरे मूलमध्यापेक्षया 'तणुया' तनुकौ-स्वल्पतरायामविष्कम्भौ, तथा 'जमगसंठाणसंठिया' म्भ वाले एवं 'उवरिं च' ऊपर एक सहस्र योजन पर 'पंचजोयणसयाई' पांचसो योजन 'आयामविक्खंभेणं' आयामविष्कम्भ से युक्त 'मूले तिमि जोयण सहस्साई मूलभागमें तीन हजार योजन 'एगं च बावडं जोयणसयं एकसो बासठ योजनसे 'किंचिविसेसाहियं' कुछ अधिक अर्थात् मूलभागमें ३१६२ योजनसे कुछ अधिक परिक्खेवेणं' परिधिवाले (गोलाइमें) 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यम भागमें दो हजार योजन 'तिन्निबावत्तरे जोयणसए' तीनसो बहत्तरयोजन से 'किचिविसेसाहिए' कुछ अधिक परिक्खेवेणं' परिक्षेप से युक्त 'उवरि शिखर के भाग में' 'एगं जोयणसहस्सं पंचय-एकासीए जोयणसए, एक हजार पाँचसो एकासी योजनसे 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं' कुछ अधिक परिक्षेप वाले ये यमक पर्वत हैं ये 'मूले वित्थिन्ना' मूल भाग में विस्तार वाले 'मज्ज्ञे संखित्ता' मध्य भागमें कुछ संकुचित एवं 'उरि तणुया' शिखर के भागमें तनु अल्पतर आयाम विष्कम्भवाले है तथा 'जगमसंठाणसंठिया' यमक संस्था ५२ना मागमा 'पंचजोयणसयाई' पांयसो योन 'आयामविक्खंभेणं' मा पाजावाजा 'मूले तिन्नि जोयणसहस्साई' भूसभा र २ यापन 'एग च बावट्ठ जोयणसयं' मे सो मास: योनथी 'किंचि विसेसाहियं' ४७६ qधारे अर्थात भूजलागमा ३१६२ योनयी ४ धारे 'परिक्खेवेणं' परिधि मर्थात् ७४२मा 'मज्झे दो जोयणसहस्साई' मध्यमाभा मे १२ यान 'तिन्नि बावत्तरे जोयणसए' से मांते२ योगनथी 'किंचि विसेसाहिए' ४४४ पधारे 'परिक्खेवेणं' ५३धिवा 'उवरि' शिमरनी ७५२ना मामा 'एग जोयणसहस्सं पंचय एकासीए जोयणसए' मे १२ पांयसो हासी योजना 'किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' ४४४ वधारे ५२५ मा यम: ५६त छे. या पति 'मूले वित्थिण्णा' भूगमा विस्तारवाणा 'मज्झे संखित्ता' मध्य भागमा ४४४ सय युक्त तथा 'उवर तणुया' ५२ना लामा तनु नाम म६५तर पायाभ 441 छे. तया Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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