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________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षस्कारः सू. ४ इन्द्रकृत्यावसरनिरूपणम् रत्नैश्च मण्डि ते शोभिते एवंभूते पादुके पादत्राणे भाषुञ्चति त्यजलि भक्तयतिशयात् पादुके निःसारयतीतिभावः 'ओमुइत्ता' अत्रमुच्य परित्यज्य ‘एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ' एकशाटिकम् उत्तरासङ्गं करोति मुखे बनातीत्यर्थः 'करित्ता' कृत्वा 'अंजलिमुउलियग्गहत्थे' अञ्जलिमुकुलिताग्रहस्तः अञ्जलिना मुकुलितौ कुड्रमलाकारीकृतौ संकोचितौ अग्रहस्तौ हस्ताग्रभागी येन स तथाभूतः 'तित्थयराभिमुहे' तिर्थ कराभिमुखः 'सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ' सप्ता टपदानि सप्त वा अष्टौ वा पदानि अनुगच्छति, यत्र तीर्थकरस्तस्यादिशि यातीत्यर्थः 'अणुगच्छित्ता' अनुगत्य 'वामं जाणुं अंचेइ' वामं जानूम् आकुंचयति' ऊचं करोति स शक्रः 'अंचेत्ता' आकुच्य ऊर्ध्वं कृत्वा 'दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिहटूटु' दक्षिणं जानु धारणितले निहत्य निवेश्य 'तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेई विकृत्वः त्रि. वारं मूर्धानं धरणितले निवेशयति स्थापयति 'निवेसित्ता' निवेश्य स्थापयित्वा 'ईसिं पच्चुण्णमई' ईषत् प्रत्युम्नमति 'ईसिं पच्चुण्णमित्ता' ईषत् प्रत्युन्नमय्य 'कडगतुडियर्थभियभुआओ खडाऊं को उसने पैरों में से उतारदिया (ओमुइत्ता एगसाडि उत्तरासंगं करेइ) उन्हे उतार कर फिर उसने अस्यूत शाटक को दुपट्टे का उत्तरासंग कियाअर्थात् दुपटूटे को अपने मुख पर बांधा (करिता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थ यराभिमुहे सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ) बांधकर फिर उसने अपने दोनों हाथों को जोडकर-अर्थात् हथेलियों को जोडकर उनकी अंजुलि बनाई और वह जिस दिशा में तीर्थकर प्रभु थे उनकी ओर सात आठ डग आगे गया (अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहट्टु तिक्खुत्तो मुद्धाण धरणियलंसि निवेसेइ) आगे जाकर उसने वायें घुटने को ऊपर उठाया और उठाकर दाहिने घुटने को जमीन पर जमाया जमा कर फिर उसने तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर झुकाया (णिवेसित्ता ईसिंपच्चुण्णमइ) और स्वयं भी थोडा सा नीचे झुका (इंसिं पच्चुण्णमित्ता कडगतुडिय थभियाओ भुयाओ पावा-यार तो पताना पगोमाथी उतारी ना. (ओमुइत्ता एगसोडिअं उतरा संगं करेइ' पावडीमोन उतारीने पछी तेणे सस्यूत शटना दुपट्टान। उत्तरास ध्या मेरसे -दुपट्टाने पोताना भुम ९५२ मध्यो 'करित्ता अंजलिमउलियग्गहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तटुपयाइं अणुगच्छइ' मांधीन पछी तेथे पोताना मन्नहायान डीन मेट કે બન્ને હાથની હથેલીઓને જોડીને તેમની અંજલિ બનાવી. પછી તે જે દિશામાં तीय ४२ प्रभुता, ते त२३ सात-18 या मागण . 'अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, अंचेत्ता दाहिणं जाणु धरणीतलंसि निहटूटु तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियलंसि निवेसेई' આગળ જઈને તેણે પિતાના વામ ઘૂંટણને ઉપર ઉઠાવ્યા અને ઉઠાવીને જમણા ઘૂંટણને ભૂમિ ઉપર જમા. જમાવીને પછી તેણે ત્રણ વાર પોતાના મસ્તને જમીન તરફ नभित यु''णिवेसित्ता ईसि पच्चुण्णमई' मन पोते ५५ थे।४ निमित थयो. 'इंसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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