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________________ ७२० errearrafter fear प्रनृत्यन्ति प्रकर्षेण नर्सनं कुर्वन्ति 'एयमाइविभासेज्जा जहा विजयरस' एवमादि विभाघेत यथा विजयस्य विजयदवस्य कियत्पर्यन्तम् इत्याह- ' जाव सव्वभ' इत्यादि 'जाव सब्वओ समता आधावेंति परिधावेंति यावत् सर्वतः समन्तात् 'आधावेंति' इषद्धावन्ति परिधावन्ति प्रकर्षेण धावन्ति तत्सर्वं जीवाभिगमे तृतीयप्रतिपत्तौ विशेषतो द्रष्टव्यम् यावत्करणात् 'अपेगइया वेलुक्वेवं करेंति अप्पेगइया वंदणकलसहत्थगया अपेगइआ भिंगारगहत्थगया एवं एए अभिलावेणं आयंसथाल पाई वायकरगरवणकरंडग पुष्कचंगेरी जाब लोमहत्थचंगेरी पुप्फपडलग जाव लोमहत्थ चटुलग सीहासण छत्तचामर तिलसमुग्गय जाव अंजणसमुग्गयहत्थगया, अपेगइया देवा धूवकडच्छुगहथगया हट्ट तुट्ट जाव हियया इति ग्राह्यम् अथ व्याख्या - अप्येकका देवा चेलोत्क्षेपं ध्व नोच्छ्रायम् कुर्वन्ति अध्येकका चन्दनकलशहस्तगताः माङ्गल्य घटपाणयः अप्येककाः भृङ्गारकहस्तगताः एवम् अनन्तरोक्तस्वरूपेण एतेन अनन्तरवर्तित्वात् प्रत्यक्षेण अभिलापेन - अप्येककाः आदर्शहस्तगताः, एवम् पात्री वातकरक रत्नकरण्डक पुष्पचङ्गेरी यावत् लोमहस्तचङ्गेरी पुणपटलक यावल्लो महस्तपटलकसिंहासनछत्रचामर तिलसमुद्र यावत् अञ्जनसमुद्रकहस्तगताः अप्येककाः धूप कडुच्छुक हस्तगताः हृष्टतुष्ट यावत् हृदयाः, इति एतेषाम् आधावन्ति परिधावन्त्यत्रान्वयः इति एतेषां विशेषतोऽर्थाः जीवाभिगमे तृतीयप्रतिप्रत्तौ स्वयमेव द्रष्टव्याः ।। सू० १० ।। तरह से नृत्य किया 'एवमाई विभासेजा जहा विजयस्स जाब संव्वओ समन्ता आहावेंति' इस प्रकार विजय के प्रकरण में कहे अनुसार देव सब ओर से अच्छी तरह थोडे थोडे रूप में और प्रकर्षरूप में दौडे यह सब कथन जीवाभिगम सूत्र में तृतीय प्रतिपत्ति में किया गया है अतः वहीं से इसे देखलेना चाहिये यहां यावत शब्द से 'अप्पेगइया वेलुक्वेवं करेंति अध्येगइया वेदणकल सहत्थगया अप्पेगइया भिंगार हत्थगया एवं एएवं अभिलावेणं आयंसथाल पाईवायकरण रयणकरंग पुष्फ चंगेरी जाव लोमहत्थचंगेरी पुष्फ पडलग जाव लोमहत्थ पडलग सोहासण छत्त चामर तिल्ल समुग्गयहत्थगया देवा धूप कडुच्छ्रय हस्थ गया हट्ठ तुङ जाव हियया' इस पाठका ग्रहण हुआ है - यह पाठ अर्थ में बिलकुल स्पष्ट है ॥१०॥ विठु पुरीने पछी सारी रीते नृत्य अयु एवमाई विभासेज्जा जहा विजयस्स जाव सव्वओ समता आह। वेति' प्रमाणे विश्यना प्र२शुभां ह्यां मुल् हेवे। याभेरथी સારી રીતે અપ-અલ્પ પ્રમાણમાં અને પ્રક રૂપમાં ડયા. આ બધુ કથન જીવભિગમ સૂત્રમાં તૃતીય પ્રતિપત્તિમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવ્યું છે. એથી જિજ્ઞાસુએ ત્યાંથી જ या विशे नवा प्रयत्न पुरे. सहीं यावत् पथी' अप्पेगइया चेलुक्खेत्रं करेति, अप्पेगइया वंद कलसहत्थगया, अप्पेगइया भिंगार हत्थगया एवं एएणं अभिलावेणं आयंसथाल पाई वायकर रयणकरंडग पुष्पचंगेरी नाव लोमहत्थचंगेरी पुएफाडलग जाव लोमहत्थ पडलग सीहा सण छत्तचामर तिल्लसमुग्गय हत्थगया देवा धूपकडुच्छ्रय हत्थगया हट्ठ तुट्ठ जाव हियया सा पाठ संगृहीत थयो छे. या पाठ अर्थनी दृष्टि सुगम छे. सूत्र - १०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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