SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थबक्षस्कारः सू. ३४ विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वतवर्णनम् सर्वदिक्षु 'समंता' समन्तात् सर्वविदिक्षु च 'ओभासेइ' अवभासते द्रष्टुगां लोचनपथे प्रतिभाति यदयं विद्युत्प्रकाश इति, एतदेव दृढयितुमाह-'उज्जोवेइ' उद्योतयति भासुरत्वात् स्वासन्न वस्तुजातं प्रकाशयति, स च स्वयमपि 'पभासइ' प्रभासते प्रकाशते तेन विद्युत्प्रभः विधुदिव प्रभातीति विद्युत्प्रभोऽन्वर्थनामाऽयं वक्षस्कारगिरि अस्य देवमाह-'विज्जुप्पभे य इत्थ देवे' विद्युत्प्रभश्चात्र देवः परिवसतीत्यग्रिमेणान्वयः, स च देवः कीदृशः ? इत्याह'पलिभोवमटिइए जाव परिवसई' पल्योपमस्थितिको यावत् परिवसति महर्द्धिक इत्यारभ्य पल्योपमस्थितिक इति पर्यन्तपदानामत्र सग्रहो बोध्यः, स चाष्टमसूत्रात् सविवरणो बोध्यः एतादृशो महर्दिकत्वादि विशिष्टो देवः परिवसति तदधिष्ठितवादपि विद्युत्प्रभ इत्येवमुच्यते एतदेवोपसंहरति-स एएणटेणं गोयमा !' स:-विद्युत्प्रभः एतेन-अनन्तरोक्तेन अर्थेन हेतुना हे गौतम ! एवमुच्यते विद्युत्प्रभो इति शेषं प्राग्वत् ॥सू० ३४॥ सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोवेइ, पभासेइ विज्जुपभे य इत्थ देवे पलिओ. वमट्ठिए जाव परिवसइ से एएणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ विज्जुप्पभे २) हे गौतम ! यह विधत्प्रभ नाम का वक्षस्कार पर्वत विद्युत् की तरह रक्तवर्ण होने से दिशाओं और विदिशाओं में चमकता रहता है अतः लोकों को ऐसा प्रतीत होता है कि यह विजली का प्रकाश है भासुर होने के कारण यह अपने निकटवर्ती पदार्थो को भी प्रकाशयुक्त करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है इसी कारण हे गौतम ! मैने इसका नाम विद्युत्प्रभ ऐसा कहा है ! दूसरी बात यह भी है कि यहां पर विद्युत्प्रभ नाम का देव रहता है इसकी एक पल्योपम की स्थिति है यहां यावत् शब्द से महर्द्धिक से लेकर पल्योपम स्थिति तक के बीच में आये हुए पदों का संग्रह हुआ है ! इन पदों का अर्थ अष्टम सूत्र से जाना जा सकता है अतः हे गौतम ! विद्युत के जैसी आभा वाला होने से तथा विद्युत्प्रभ देव का निवास स्थान होने से इस पर्वत का नाम विद्युत्प्रभ ऐसा कहा गया है ॥३४॥ वेइ, पभासेइ विज्जुप्पभेय इत्थ देवे पलिओवमद्विइए जाव परिवसइ से एएणतुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ विज्जुप्पभे २' गीतम! मा विधुत्प्रम नाम४ १६२४।२ ५ त विद्युत्नी रेम રક્તવર્ણ હોવાથી દિશાઓ અને વિદિશાઓમાં ચમકતો રહે છે. જેથી લોકોને એવું લાગે છે કે એ વિદ્યને પ્રકાશ જ છે. ભાસુર હેવાથી એ પોતાના નિકટવર્તી પદાર્થોને પણ પ્રકાશયુક્ત કરે છે અને સ્વયં પણ પ્રકાશિત થાય છે. એથી જ હે ગૌતમ! મેં એનું નામ વિદ્યુ—ભ એવું રાખ્યું છે. બીજી વાત એ છે કે અહીં વિધુત્રભ નામે દેવ રહે છે. એની એક પલેપમ જેટલી સ્થિતિ છે. અહીં ચાવત શબ્દથી મહદ્ધિકથી માંડીને પલ પમ સ્થિતિ સુધીના સર્વ પદનો સંગ્રહ થયે છે. એ પાને અષ્ટમ સૂત્રમાંથી જાણી શકાય Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy