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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १४ हरिवर्षक्षेत्रनिरूपणम् १२७ डावई णामं वट्टवेयद्धपव्वए पण्णत्ते' क्व खलु भदन्त ! हरिवर्षे वर्षे विकटापाती नाम वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, 'गोयमा ! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरत्थिमेणं हरियासस २ बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वियडाई णामं वट्टवेयद्धपव्यए पण्णत्ते' उत्तरसूत्रे-हे गौतम ! हरितः हरिन्सलिलाया महानद्याः पश्चिमेन पश्चिमायां दिशि हरिकान्ताया महानद्याः पौरस्त्येन हरिवर्षस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागोऽस्ति, अन अत्रान्तरे खलु विकटापाती विकटापातिनामा वृत्तवैताढयपर्वतः प्रज्ञप्तः, अत्र निगमयल्लाघवार्थमतिदेशसूत्रमाह 'एवं जो चेव सदावइस्स विवखंभुच्चत्तुव्वेहपरिक्खेवसंठाणवण्णवाप्सो य सो चेव वियडावइस्स वि भाणियव्यो' एवम् उक्तप्रकारेण विकटापाति वृत्तवैत्ताढयपर्वतवर्णने क्रियमाणे य एव शब्दापातिन:-शब्दापातिवृत्तवैताढयपर्वतस्य विष्कम्भोच्चत्वोद्वेधपरिक्षेपसंस्थानवर्णावसः विष्कम्भादीनां वर्णनराद्धतिः, चकारात् तत्रत्य प्रासादतत्स्वामि राजधान्यादि सङ्ग्रहो बोध्यः, स एव विकटापातिनोऽपि भणितव्यः । 'णवरं अरुणो देवो पउमाइं जाव बियडावइ वण्णाभाई अरुणे य इत्थ देवे महिद्धीए एवं जाव दाहिणेणं रायहाणी णेयव्या' नवरं केवलं विक. प्रभु कहते हैं (गोयमा! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेण हरिकंताए महाणईए पुरस्थिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थणं वियडावई णामं वट्टवेयड पच्चए पण्णत्ते) हे गौतम ! हरितनाकी महानदी की पश्चिमदिशामें और हरिकान्तमहानदी की पूर्व दिशा में इस हरिवई क्षेत्र का वहुमध्यभाग है सो वहीं पर विस्टापाती वृतवैताढय पर्वत कहा गया है (एवं जो चेव सद्दावइस्स विक्वंभुच्चब्बेहपरिक्खेव संठाणवण्णावासो सो वेव वियडावइस्त वि भाणियव्यो) इस विकटापाती वृतवैताढयपर्वत का विष्कम्भ ऊंचाई उद्वेध परिक्षेप और संस्थान आदिका वर्णन तथा वहां के प्रासाद उसके स्वामि की राजधानी आदि का कथन शब्दापानी वृत्तवैताब्य पर्वत के ही विष्कम्भ आदि के वर्णन जैसा है 'णवरं अरुणो देवो पउमाई जाव दाहिणे रायहाणी णेयव्वा) परन्तु इस विकटापाती वृत्तताढय पर्वत के ऊपर अरुण नामका देव रहता है यही इसके वर्णन भास छ ? मेना वामम प्रभु ४९ छे. 'गोयमा! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेणं हरिकंताए महाणईए पुरथिमेणं हरिवासस्स २ बहुमज्झदेसभाए एत्थण वियडावई णामं वहवे. यड्ढपत्रए पण्णत्ते' गौतम! रित नाम महानहीनी पश्चिम दिशामा मने र. કાન્ત મહાનદીની પૂર્વ દિશામાં એ હરિવર્ષ ક્ષેત્રના બહુ મધ્ય ભાગમાં છે. તે ત્યાં જ विटामाती वृत्तवैतादय ५त मावस छे. एवं जो चेव सदाबइस्स विक्खंभुच्चत्तुव्वेह परिक्खेवसंठाण वण्णावासो सो चेव वियडावइस्स वि भाणियव्वो' से विपाती वृत्त વૈતાઢય પર્વતના વિકૅભ ઉચ્ચતા, ઉદ્વેધ, પરિક્ષેપ અને સંસ્થાન વગેરેનું વર્ણન તેમજ ત્યાંના પ્રાદે તેના સ્વામીની રાજધાની વગેરેનું કથન શબ્દાપાતી વૃત્તવૈતાઢય પર્વતના १४ १४ महिना पणुन २ थे. ‘णवरं अरुणो देवो पउमाई जाव दाहिणणं रायहाणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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