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________________ प्रकाशिका टीका-पश्चमवक्षस्कारः सु. ११ अभिषेक निगमनपूर्वकमाशीषदः ७३५ ततः खलु ताः, अष्टौ - तोयधाराः, उर्ध्वं विहायसि उत्पनन्ति उर्ध्वचलन्ति ' उप्पइसा ' उत्पत्य 'एगओ मिलायंति' एकतो मिलन्ति 'मिलाइत्ता' मिलित्वा 'भगवओ तित्थयरस्स मुद्धाणंसि नित्रयति' भगवतस्तीर्थकस्य मूर्ध्नि निपतन्ति, अथ शक्रः किं कृतवान् तत्राह 'तरणं इत्यादि 'त से सके देविंदे देवराया' ततः खलु सशको देवेन्द्रो देवराजः 'चतुरासीइए सामाणि साहसी हिं' चतुरशीत्या सामानिक सहस्रैः, त्रयस्त्रिंशता त्रयस्त्रिंशकै यवित् संपरिवृत्तस्तैः, स्वाभाविक वैकु विकलशैर्महता तीर्थकराभिषेकेण अभिपिवति इत्यादि सूत्रोक्तोऽभिषेकविधिः - शक्रस्य अच्युतेन्द्रवदस्तीति लाघवमाद- 'एयसवि' इत्यादि 'एयस्य वि तदेव अभिभो भाfuroat' एतस्यापि ईशान - शक्रस्यापि तथैव, अच्युतेन्द्रवदेव अभिषेको भणितव्यः वक्तव्यः धाराएं निकल रही थीं 'तणं ताओ अट्ठतोयधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति' ये आठ जलधाराएं ऊपर आकाश की ओर जा रही थीं-उछल रहीं थी उप्पयिप्ता एगओ मिलायंति, मिलायित्ता भगवओ तित्थयरस्स मुद्वाणंसि निवयंति' और उछलकर एकत्र हो जाती थीं फिर वे मिलकर भगवान् तीर्थंकर के मस्तक ऊपर गिरती थीं । 'तणं से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणि य साहस्तीहिं एयस्स वि तव अभिसेओ भाणियच्वो जाव णमोत्थूते अरहओत्ति कट्टुण . मंसई जाव पज्जुवासइ' इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने अपने ८४ हजार सामाजिक देवों एवं तेतीस वायस्त्रिंश देवों आदि से घिरे हुए होकर उन स्वाभाविक एवं विकुर्वित कलशों द्वारा बडे ठाटबाद से तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया तथा उस आनीत तीर्थकराभिषेक सामग्री से भी तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया, यहां पर जिस पद्धति से अच्युतेन्द्र ने तीर्थंकर प्रभुका अभिषेक किया है वैसे ही पद्धति से शक ने भी तीर्थकर प्रभुका अभिषेक किया यही बात 'एयस्स वि तहेव अभिसेओ भाणियच्चो' सूत्रकार ने इस सूत्र पाठ ती. 'तणं ताओ अट्ठ तोयधाराओ उद्धं वेहासं उप्पयंति' मे माह ४ धाराओ। उ५२ साहारा तर३ ६ २ही सी-छजी रही हती. 'उपइत्ता एगओ मिलायंति मिलाइत्ता भगam facere मुद्धाणंसि निवयंति' भने उछ्जीने से यह नती हुती. पछी ते लगवान तीर्थ ४२ना भस्त४ (५२ पडती ती. 'तएण से सक्के देविंदे देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीहि एयरस वि तहेव अभिसेओ भाणिय्व्वो जाव णमोत्थूते अरहओत्ति कणमंसइ जाव पज्जुवासई' यार બાદ દેવેન્દ્ર દેવરાજ શકે પોતાના ૮૪ હજાર સામાનિક દેવે તેમજ ૩૩ ત્રાયાત્મિશ દેવા આદિથી આવૃત્ત થઈને તે સ્વાભાવિક તેમજ વિકવિત કળશેા વડે ખૂબજ ઠાડ-માઠથી તીર્થંકર પ્રભુના અભિષેક કર્યાં. તથા તે આનીત તી કરાભિષેક સામગ્રીથી પ્ણ પ્રભુના અભિષેક કર્યાં અહી જે પદ્ધતિથી અચ્યુતેન્દ્રે તી કર પ્રભુના અભિષેક કર્યાં છે તે પદ્ધતિથી શકે પણ તીર્થંકર પ્રભુના અભિષેક કર્યાં, એજ वात 'एयम्स वि तहेव अभिसेओ भाणियन्त्रो' सूत्ररे का सूत्र पाई वरे स्पष्ट हरी छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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