SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू. ४३ नीलवन्नामकवर्षधरपर्वतनिरूपणम् सम्पूर्णा 'अहे विजयस्स दारस्स' अधो विजयस्य द्वारस्य विजयाख्यद्वारस्याधः प्रदेशे 'जगई' जगतीं पृथ्वीं 'दालइत्ता' दारयित्वा-विदीर्णां कृत्वा 'पुरस्थिमेणं' पौरस्त्येन पूर्वेण पूर्वदिशि 'लवणसमुई-लवणसमुद्रं 'समप्पेई' समाप्नोति-समुपैति 'अवसिटुं' अवशिष्टं प्रवहविस्तार गभीरत्वादिकम् 'तं चेवत्ति । तदेव-निषधगिरिनिःसृतशीतोदा महानदी प्रकरणोक्तमेव बोध्यम्, अथास्मादेव नीलवत् पर्वतादुत्तरदिशि प्रवहन्तीं नारीकान्तां नदीमतिदिशति- एवं णारिकता वि' एवम् अनन्तरोक्तप्रकारेण नारीकान्ताऽपि नारीकान्तानाम्नी नद्यपि "उत्तराभिमही' उत्तरामिमुखी 'णेयव्वा' नेतव्या-ग्राह्या, अयमाशयः-यथा नीलवति वर्षधरभूधरेऽवस्थितात केसरिहदाच्छीता महानदी दक्षिणाभिमुखी निःसृता तथा नारीकान्ताऽपि नदी उत्तराभिमुखी निर्गता, ननु समानवर्णकत्वेनास्याः समुद्रप्रवेशोऽपि शीता महानदीवत् सम्भाव्ये तेत्याशङ्का लवणसमुदं साप्पेह' फिर वहां से वह एक २ चक्रवर्ति विजय से २८-२८ हजार नदियों द्वारा भरती हुइ कुल पांच लाख ३२ हजार नदियों से युक्त होकर वह विजय हार को जगती को नीचे से विदारित कर पूर्वदिशा की ओर वर्तमान लवणसमुद्र पद में प्रवेश करती है ५ लाख ३२ हजार नदियों की संख्या इसी सूत्र में आगे कही जायगी वहां से देखना चाहिये। 'अवसिटुं तं चेव' इसके अतिरिक्त और सब कथन-प्रवह विस्तार-गंभीरता-गहराई आदि का कथन, निषध पर्वत से निर्गत शीतोदानदी के प्रकरण में कहे-अनुसार ही समझना चाहिये ‘एवं णारिकंता वि उत्तराभिमुही णेयव्वा' इसी नीलवान् पर्वत से नारीकान्ता नानकी नदी भी उत्तराभिमुखी होकर निकली है तात्पर्य ऐसा है कि नीलवान पर्वत के ऊपर अवस्थित केशरी हद से जैसी शीता महानदी दक्षिणाभिमुखी होकर निकली है उसी प्रकार से यह नारीकान्ता नामकी महानदी भी उत्तराभिमुखी होकर निकली है-शंका-शीता और नारीकान्ता महानदी का वर्णक जब समान है तो इसका समुद्र प्रवेश भी शीता महानदी के ही जैसा होता होगा? तो इस आशंका को निरस्त करने के लिये सूत्रकार ત્યાંથી એક-એક ચકવર્તી વિજયમાંથી ૨૮–૨૮ હજાર નદીઓ વડે સપૂરિત થઈને કુલ પ૩૨૦૦૦ નદીએથી યુક્ત થઈને તે વિજય દ્વારની જગતીને નીચેથી વિદીર્ણ કરીને પૂર્વ દિશા તરફ વર્તન લવણ સમુદ્રમાં પ્રવેશ કરે છે. પ૩૨૦૦૦ નદીઓની સંખ્યા વિશે मा ४ामा माशे शासुमे त्यांथी गणी सयु 'अवसिटुं तं चेव' सेना સિવાય શેષ કાઠું કથન-પ્રવહ-વિસ્તાર, ગંભીરતા વગેરેનું કથન-નિષધ પર્વતમાંથી નિર્ગત शीतानहीन प्र भु सभ सेवुन. 'एवं णारिकता वि उत्तराभिमुही णेयव्वा' એ જ નીલવાન પર્વતમાંથી નાસી કાન્તા નામે નદી પણ ઉત્તરાભિમુખી થઈને નીકળે છે. તાત્પય' આ પ્રમાણે છે કે નીલવાન પર્વતની ઉપર અવસ્થિત કેશરી હદથી જે પ્રમાણે શીતા મહાનદ્દ દક્ષિણાભિમુખ થઈને નીકળી છે તે જ પ્રમાણે નારીકાન્તા મહાનદી પણ ઉત્તરાભિમુખ થઈને નીકળી છે. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy