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________________ ७२ ... जम्बूद्वीपप्राप्तिसत्रे पूर्व पश्चिमस्तु यद्यपि खण्डगणित विचाराणा सूत्रे न कृता तावत् मुखादिभिरेव लक्षसंख्यापूतैः कथनात् तथापि खण्डगणितविचारे कृते यावन्त्येव भरतप्रमाणानि, तावत्संख्यकान्येव खण्डानि भवन्तीति प्रथम खण्डद्वारम् ॥ ___ अथ योजनेति द्वारसूत्रमाह-'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' इत्यादि 'जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे' जम्बूद्वीपः खलु भदन्त ! द्वोपः सत्रद्वीपमध्यवर्ती जम्बूद्वीप इत्यर्थः 'केवइयं जोयणगणिएणं पन्नत्ते' शियान् योजनगणितेन समचतुरस्रयोजनपभाणखण्डसर्वसंख्यया प्रज्ञप्तः-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तेत्र कोडिसया' सप्तव कोटिशतानि सप्तैवेत्यत्र एव शब्दोऽवधारणार्थकः, उत्तरत्र संख्यासमु. चयार्थकः 'ण उया' नवनानि-नवति कोटयधिकानि इत्यर्थः, अन्यया-कीटिशततो द्वितीयस्थाने विद्यमानेषु लक्षादि स्थानेषु नवदामरूपा नवति नयुज्यते गणित संप्रदायविरोधात्, तथा-'छप्पण्ण सयसहस्साई' पाञ्चाशच्छ सप्तहस्रणि पट्पञ्चाशल्लक्षा-इत्यर्थः 'चउणवइं च कही जा चुकी है अतः अब उसे यहां नहीं दिखाया जाता है वहीं से इसे देख लेना चाहिये पूर्व से पश्चिम तक के खंडों की विचारणा यहां पर खंड गणित के अनुसार सूत्र में नहीं दिखाई गई है-परन्तु लक्ष संख्या की पूर्ति करनेवाले मुखादिकों द्वारा हो यह बात कह दी जाती है फिर भी खंड गणित के अनुसार विचार करने पर जितना भरतक्षेत्र के खंडों का प्रमाण है उतने ही खण्ड यहां पर होते हैं । खण्डद्वार समाप्त ॥ योजनद्वार वक्तव्यता___'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' गौतमस्शमीने इस द्वार में प्रभु से ऐसा पूछा हैहे भदन्त ! जम्बूद्वीप नामका द्वीप योजन गणित से समचतुरस्र योजन प्रमाण खंडों को सर्व संख्या से कितना कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! सत्तेव य कोडिसया ण उआ छप्पण सयसहस्साई चउणवइंच सहस्सा વિશે અહીં સ્પષ્ટતા કરવામાં આવશે નહિ. જિજ્ઞાસુઓ ત્યાંથી જ જાણવા પ્રયન કરે. પૂર્વેથી પશ્ચિમ સુધીના ખંડોની વિચારણુ અહી ખંડગણિત મુજબ સૂત્રમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. પરંતુ લક્ષ સંખ્યાની પૂર્તિ કરનારા મુખાદિક વડે જ આ વાત કહેવામાં આવી છે. છતાં એ ખંડગણિત મુજબ વિચાર કરી છે તે જેટલું ભક્ષેત્રના ખંડેનું પ્રમાણ છે, તેટલા જ ખડો અહીં પણ હોય છે. ખડદ્વાર સમાપ્ત. જનદ્વ૨ વક્તવ્યતા 'जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे' गौतमस्वामी मारमा प्रभुन । प्रमाणे प्रश्न या છે કે હે ભદંત ! જંબુદ્વિપ નામક દ્વીપ જન ગણિતથી સમચતુરા જન પ્રમાણ भानी सब सध्याथी टखे। ४ामा मासा छ ? अनाममा प्रमु४३ -'गोयमा ! संत्तेव य कोडिसयाई गउआ छप्पण सयसहस्साई चउणव च सहरसा सयं दिवद्धं च गणिअपयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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