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________________ २४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अलङ्कारसभायामलङ्कारैः शरीरालङ्करणम् च-पुनः विवसायो' व्यवसायः-पुस्तकरत्नोद्घा टनलक्षणो व्यवसायः। ततो 'अच्चणिय सुधम्मगमो' अर्चनिका सुधर्मगमः-अर्चनिका-सिद्धा. यतनाधर्चा तत्सहितः सुधर्मगम:-सुधर्मायां सभायां, गमः-गमनम् 'जहा य' यथा च 'परिवरणा' परिवारणा-परिवेष्टना तत्तदिशि परिवारस्थापना सैव 'इद्धी' ऋद्धिः-सम्पत् यथा यमकयो देवयोः सिंहासनयोः परितो वामभागे चतुः-सहस्रसामानिकभद्रासनस्थापना तथा वक्तव्यं जीवाभिगमादितः,अथ यमकौ हूदाश्च यावताऽन्तरेण परस्परं स्थितास्तनिणेतुमाह'जावइयंमि' इत्यादि-'जावइयंमि पमाणमि' यावति-यत्प्रमाणके प्रमाणे-माने 'णीलवंताओ' नीलवतः-तनामकात् पर्वतात् 'हंति जमगाओ' यमको पर्वतौ भवतः 'तावइयमंतरं' तावत्कं-तावत्-तत्प्रमाणकम् 'खलु' खलु-निश्चयेन 'जमगदहाणं-दहाणं च' यमकहूदयो हदानां चान्तरं बोध्यम् तच्चान्तरं योजनसप्तभागचतुर्भागाभ्यधिक चतुस्त्रिंशदधिकाष्टशतयोजनरूपं ज्ञेयम् उपपत्तिस्तु प्राग्वत् ।।सू०२१॥ और 'ववसायो' पुस्तकरत्न के खोलने रूप व्यवसाय तत्पश्चात् 'अच्चणिय सुहम्मगमो' सिद्धायतन आदि की अर्चा सहित सुधर्म सभा में जाना 'जहाय' जैसे 'परिवरणा' उस दिशामें परिवार की स्थापना वही 'इद्धी' सम्पत्ति जैसा कीयमिक देवके सिंहासन की चारों ओर चार चार हजार सामानिक देव के भद्रासन की स्थापना जीवाभिगम आदि में कहे अनुसार कहे । अब यमिका राजधानी एवं हृद जितने अंतर से परस्पर में स्थित है उसका निर्णयार्थ कहते हैं-'जावइयंमि पमाणमि' जितने प्रमाण के मान 'णीलवंताओ' नोलवंत पर्वत के 'हंति जमगाओ' यमक पर्वत कहे है, 'तावइयमंतरं' उतना प्रमाण निश्चय से 'जमगदहाणं च' यमक हृदका एवं अन्य हृदका अन्तर समझ लेना वह अंतर ८३४ योजन सातिया चार भाग प्रमाण समझना उपपत्तिका कथन पहले कहे अनुसार कहना ॥स०२१॥ शाला. मने 'ववसायो' पुस्त: २त्नना मोसवा ३५ व्यवसाय, ते पछी 'अच्चणिय सुहम्मगमो' सिद्धायतन विगैरेनी मर्या सहित सुधम समामा - 'जहाय' म 'परिवरणा' તે તે દિશામાં પરિવારની રથાપના “ી સમ્પત્તિ જેમકે યમિક દેવના સિંહાસનની ચારે તરફ ચાર ચાર હજાર સામાનિક દેવના ભદ્રાસનની સ્થાપના જીવાભિગમ વિગેરેમાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવા. - હવે યમિકા રાજધાની અને હદનું અંતર કેટલું છે તેના નિર્ણય માટે સૂત્રકાર કહે छ-'जावईमि पमाणमि' २८९प्रभाधुनु मा५ ‘णीलवंताओ नीस' ५'तनु छ 'जम गाओ तावइयमंतरं' यम४ ५'तनु ५४ ते २ छे. 'जमगदहाणं दहाणं च' यम હદનું અને બીજા હનું અંતર સમાન છે. એટલે કે તે અંતર ૮૩૪ જન સાતિયા ચાર ભાગ જેટલા પ્રમાણનું કે સમજવું ઉપપત્તિનું કથન પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે કહેવું સૂ. ૨૧ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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