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________________ २३४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णी पत्तेयं २ पउमवर वेइया परिक्खित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्ण भो, तथा 'ताणि णं णंदापुक्खरिणीणं पत्तय २ तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ तोरण वण्णी य भाणियन्वो जाव छत्ताइच्छत्ताइ' इति, एतच्छायाौँ मुगौ । अथ सुधर्मा सभयोर्यदस्ति तदाह-'तासि गं' इत्यादि-तासि गं' तयोः-पूर्वोक्तयोः खलु 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्मयोः सभयोः 'छच्च' षट् षट् संख्यकाः 'मणोगुलिया साहस्सीभो' मनोगुलिका साहस्यः-पट् सहस्रीमनोगुलिका इत्यर्थः, ताः ‘पण्णत्ताओ' प्रज्ञप्ता:णाई विक्खं भेणं दस जोयणाई उज्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणी वण्णओ पत्तयं पत्तेयं वणसंड परिविवत्ताभो तामिणं णंदापुनरिणी पत्तेयं पत्तेय तिदि सिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तेसिंणं तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ तोरणवण्णओय भाणियञ्चो जाव छत्ताइच्छत्ताई इति । उस महेन्द्रध्वज के तीन दिशा में तीन नंदापुष्करिणो कही है। वह साडे बारह योजन का आयामवाली एवं एक कोस और छ योजन के विष्कंभ वाली तथा दस योजन की गहराइ वाली कही है। वे अच्छ माने स्वच्छ एवं निर्मल कही है। वे पुष्करिणीका प्रत्येक पद्मवरवेदिका से व्याप्त है। प्रत्येक वनषंड से व्याप्त हैं इत्यादि वर्णन कर लेना उन नंदा पुष्करिणी के आगे प्रत्येक के तीन दिशा में तीन तीन त्रिसो. पानप्रतिरूपक कहे हैं उन त्रिसोपान प्रतिरूपक का वर्णन एवं तोरण का वर्णन यहाँ पर 'जाव छत्ताइछत्ताई' यह पद पर्यन कर लेना चाहिए । . अब सुधर्मसभा के भीतरी भाग का वर्णन करते हैं-'तेसिणं' उन पूर्वोक्त 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्मसभा में 'छच्च मणोलिका साहस्सीओ' छह हजार वण्णओ पतेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्तानो तासिणं गंदा पुक्खरिणीगं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसि तओ तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसिं णं तिसोवाण डिरूवगाणं वण्णओ तोरणवण्णओ य भाणियव्वो जाव छत्ताइछत्ताई इति' से भडन्द्र धानी महिशाwi ना'४६ ४हेस છે, તે પુષ્કરિણીયે સાડા બાર એજન જેટલા આયામવાળી અને એક કેસ અને છ યેજના જેટલા વિકંભવાળી તથા દસ એજન જેટલી ઉંડી કડી છે. તે અચ્છ અર્થાત સ્વચ્છ અને નિર્મલ કહેલ છે. એ દરેક પુષ્કરિણીઓ પવરવેદિકાઓથી વ્યાપ્ત છે. દરેક પુષ્કરિણી વનપંડથી વ્યાપ્ત છે. વિગેરે વર્ણન કરી લેવું એ નંદાપુષ્કરિણીની આગળ દરેકની ત્રણ દિશામાં ત્રણ ત્રણ ત્રિપાન પ્રતિરૂપક કહેલ છે. એ ત્રિસપાન પ્રતિકરૂપકનું વર્ણન તથા तोरनु वन मडिया 'जाव छत्ताइ छत्ताई' को ५६ ५यन्त ४N : वे सुधर्म समानी १२ना मागनु न ४२ छ.-'तेसिणं' से पूरित 'सभाणं सुहम्माणं' सुधर्भ समामा 'छच्च मणोगुलिया साहस्सीओ' छ १२ भनामि। अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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