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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् शब्दास्तेपामुन्नतिर्यत्र तादृशो मधुरस्बरो माधुर्य गुणविशिष्टस्वरयुक्तो यो नादः स्तं, स जातोऽस्मिन्निति तथा, तथा 'पासाइए४' प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपं च एतद्वयाख्या प्राग्वत् । 'से णं' तत् गङ्गाप्रपातकुण्डम् खल 'एगाए पउमवर वेइयाए' एकया पद्मवरवेदिकया 'एगेण य वणसंडेणं' एकेन च वनपण्डेन 'सव्वओ समंना संपरिक्तिले' सर्वलः समन्तात् संपरिक्षिप्तं परिवेष्टितम् , अत्र 'वेइया वणसंडगाणां पउमाणं वण्णओ' वेदिका वनपण्टयोः पद्मानों च वर्णको वर्णनमत्रैव जगतीसूत्रव्याख्यातो 'भाणियब्यो' भणितव्यः, 'तम्स णं गंगप्पवायकुंडस्स' तस्य खलु गङ्गाप्रपातकुण्डस्य 'तिदिसिं तभो' त्रिदिशि त्रीणि 'तिसोवाणपडिरूवगा' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि सोपानत्रयरक्तिरूपाणि 'पण्णता' प्रज्ञप्तानि 'तं जहा' तद्यथा 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्ये पूर्वे पूर्वस्यां दिशि 'दाहिणेणं' दक्षिागे दक्षिणस्यां दिशि 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमे पश्चिमायां दिशि। 'तेसि णं' तेषां खलु 'तिसोवाणपडिरूवगाणं' त्रिसोपानप्रतिरूपकाणाम् 'अयमेयारूवे' अयमेतद्रूपः अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपो 'बण्णारहते हैं अनेक जातिके पक्षियों का जोडा यहां पर बैठकर नाना प्रकार के मधुर स्वरों से शब्द करता रहता है यह कुण्ड प्रासादीय है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है इन पदों की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है (सेणं एगाए पउमवरवेझ्याए एगेणय वणसंडेणं सचओ समंता संपरिक्खित्ते) यह कुण्ड एक पद्मवरवैदिका से और एक वनषण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है यहां (वेश्या वणसंडगाणं प उमाणं वग्गओ भागियचो) वेदिका का धनषंडका और पदमों का वर्णक जगती सूत्र की व्याख्या से कहलेना चाहिये--(तस्स गप्प वायकुंडस्प्ल तिदिसि तओ तिसोयाणपडिरूवगा प.) उस गंगा प्रपात कुण्ड की तीन दिशाओं में तीन त्रिसोपान प्रतिरूपक हैं (तं जहा) जो इस प्रकार से हैं(पुरस्थिमे गं, दाहिणेगं पच्चत्यिमेणं) एक त्रिप्लोगन प्रतिरूपक पूर्वदिशा में है एक त्रिसोपान प्रतिरूपक दक्षिण दिशा में है और एक त्रिसोपान प्रतिरूपक पश्चिन ફરતા રહે છે. અનેક જાતિઓના પક્ષીઓના જોડા અહીં બેસીને અનેક પ્રકારના મધુર સ્વરોથી શબ્દો કરતાં રહે છે, એ કુંડ પ્રસાદીય છે, દર્શનીય છે, અભિરૂપ છે અને પ્રતિ३५ छ. ये पहनी ०५1५1 पडसा ४२वामा २ावी छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणय वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते' २२ र १२ वाथी ने ये वनमथी थामेर मात छे. २मही 'वेइयावणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणियव्यो' वहाना, વનખંડના અને પઘોના વર્ણન વિષે “જગતી સૂત્રની વ્યાખ્યામાંથી જાણી લેવું જોઈએ. 'तस्स णं गंगप्पवायकुंडस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवगा प० ते प्रपात उनी त्र हिशासीमा त निसोपान प्रति ३५। छे 'तं जहा' ते २॥ प्रमाणे छे. 'पुरथिमेणं दाहिणेणं पच्च. त्थिमेग' मे४ सोपान प्रति३५७ पूर्व दिशामा छ । त्रिसपान प्रति३५४ ६क्षि हिशमा छ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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