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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० ४ गङ्गासिन्धुमहानदीस्वरूपनिरूपणम् णिभिः सुबद्धं तीर्थम् अवतरणोत्तरणमार्गों यस्य तत्तथा अत्र प्राकृतत्वा तीर्थशब्दस्य पूर्वप्रयोगः सुबद्धशब्दस्य च परप्रयोगः, 'वट्टे' वृतं यत्तुलम्, 'आणुपुवसुजायवप्पगंभीरसीयलजले' आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलम् आनुपूर्येण क्रमेण सुनातं सुनिष्पन्नं वर्ष पाली यस्य, तच्च गम्भीरम् अगाधं शीतलं जलं यत्र तत्तथा, उभयो कर्मधारयः। 'संछण्णपत्तभिसमुणाले' संछन्नपत्रविसमृणालं-संछन्नानि व्याप्तानि पत्रविसमृणालानि पद्यानां पत्रकन्दनालानि यत्र तत्तथा, 'बहुउप्पलकुमुयणलिणतुभगसोगंधियपोंडरीयमहापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त सयसहस्स पत्तपफुल्लकेसरोचिए' बहूत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रशतसहस्रपत्रप्रफुल्लकेसरोपशोभितं तत्र बहूनि प्रचुराणि प्रफुल्लानि विकसितानि यानि उत्पलानि चन्द्रविकाशीनि कमलानि, पद्मानि सूर्यविकाशीनि कमलानि, कुमुदानि-कैरवाणि, तान्यपि चन्द्रविकाशीनि श्वेतरक्तादि वर्णानि भवन्ति तथा नलिनानि तित्थ सुबद्धे बट्टे आणुपु वसुजायवप्पगंभीरसीअलजले संछण्णपत्तभिसमुणाले) इसका तलभाग वनमय है इसमें जो वालुका समूह है वह सुवर्ण की और शुभ्र रजत की मिलावटवाली है इसके तटके आसन्नवर्ती जो उन्नत प्रदेश है वे वैडूर्य और स्फटिक के पटल से निर्मित हैं इसमें प्रवेश करने का और बाहर निकलने का जो मार्ग है वह सुखकर है घाट इसके अनेक मणियों द्वारा सुबद्ध हैं यह वर्तुल गोल है इसमें जो जल भरा हुआ है वह क्रमशः आगे २ अगाध होता गया है और शीतल होता गया है यह कमलों के कन्दो एवं पत्तों नालो से व्याप्त हो रहा है । (बहु उप्पलकुमुदणलिण सुभग सोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सय. पत्त सहस्तपत्तसयसहस्सपत्तपफुलकेसरोवचिए) यह प्रफुल्लित उत्पलों की, कुमु दों की, नलिनों की, सुभगों की, सौगन्धिकों की, पुण्डरीकों की, महापुण्डरीकों की, शतपत्रवाले कमलों की, हजार पत्रवाले कमलों की, एवं लाखपत्तों वाले कमलों की, किञ्जल्क से उपशोभित है चन्द्रविकाशी कमलों का नाम उत्पल है સમૂહ છે તે સુવર્ણની અને શુભ્ર રજતન વાલુકા ઓથી યુક્ત છે, અને તટના આસન્નવતી જે ઉનત પ્રદેશ છે તે વૈડૂર્ય અને સ્ફટિકના પટલથી નિર્મિત છે. એમાં પ્રવેશ કરવા માટે અને બહાર નીકળવા માટે જે માગે છે તે સુખકર છે. એના ઘાટે અનેક મણિઓ દ્વારા સુબદ્ધ છે, એ વસ્તુ લગેલાકારમાં છે. એમાં જે પાણી છે તે અનુક્રમે આગળ-આગળ અગાધ થતું ગયું છે અને શીતળ થતું ગયું છે એ કમળાના કંદ तभा पाये। मने नासोथी ०५६ २७ २हो छ 'बहुउप्पल कुमुदणलिण सुभगसोगंधिय पोंडरीय महापोंडरीय सयपत्त सहस्सपत्त सयसहस्तपत्तपफुलकेसरोवचिए' से प्रति त्यसोनी, भुनी, नानानी, सुभगानी, सोधिनी, पुनी , महाधुरीमानी, શતપત્રવાળા કમળની, કિંજલ્કથી ઉપાભિત છે ચન્દ્રવિકાશી કમળાનું નામ ઉત્પલ છે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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