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________________ ३२० जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रे 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोण्णि' द्वे 'य' च एगसत्तरे' एकसप्तति 'जोयमसए' योजनशते 'एक्कं एक 'च' च 'एगृणवीस इभागं' एकोनविंशतिभागं 'जोयणस्स' योजनस्य 'आयामेणं' आयामेन-दैर्येण 'दो' द्वे 'जोयणसहस्साई' योजनसहस्राणि 'दोणि' द्वे 'य' च 'तेरसुत्तरे' त्रयोदशोत्तरे-त्रयोदशाधिके 'जोयणसए' योजनशते 'किंचिविसेसणे' किश्चि द्विशेषोने-किञ्चिन्न्यूने 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-विस्तारेण, इत्यायाम-विष्कम्भाभ्यां तयु. क्त्वा संस्थानेनाह-'पलियंकसंठाणसंठिए' पल्यङ्कसंस्थानसंस्थितः-पर्यङ्काकारेण संस्थितः । अथास्याकारभावप्रत्यवतारं प्रश्नोत्तराम्यामाह-'दाहिणद्धकच्छस्स' इत्यादि-दक्षिणार्द्धकच्छस्य ‘णं' खलु 'विजयस्स' विजयस्य 'केरिसए' कीदृशक:-कीदृशः 'आयारभावपडोयारे' आकारभावप्रत्यवतारः-तत्राऽऽकार:-स्वरूपम् भावा:-पृथिवीवक्षस्कारादयस्तदन्तर्गताः पदाजोयणसहस्साई' आठ हजार योजन 'दोणिय एगसत्तरे जोयणसए' दो हजार एकसो इकहत्तर योजन ‘एक्कच' एक 'एगूणवीसइभाग उन्नीसवां भाग 'जोय. णस्स' योजन का 'आयामेणं' लंबाई से 'दो जोयणसहस्साई' दो हजार योजन 'दोण्णि' दो 'तेरसुत्तरे' तेरह अधिक 'जोयणसए' योजन शत अर्थात् दोसो तेरह योजन से 'किंचि विसेसूणे' कुछ कम 'विक्खंभेणं' विस्तार से है। इस प्रकार आयाम विष्कंभ से वर्णन करके उसका संस्थान कहते हैं-'पलि यंकसंठाणसंठिए' पर्यकाकार से स्थित है।। अब इसका आकार भाव प्रत्यवतार प्रश्नोत्तर द्वारा कहते हैं-'दाहिणद्ध कच्छस्स णं' दक्षिणार्द्धकच्छ 'विजयस्स' विजय का 'केरिसए' किस प्रकार का 'आयारभावपडोयारे' आकार भाव प्रत्यवतार आकार अर्थात् स्वरूप भाव माने पृथिवी वक्षस्कारादि उसके अन्तर्गत पदार्थ सोही कहा है प्रत्यवतार माने प्रकटी'उत्तर दाहिणायए' उत्तर दक्षिण दिशामा सामु छ. 'पाईणपईणवित्थिण्णे' पूर्व पश्चिम शामा विस्तृत छ. 'अटु जोयणसहस्साई' २।४ 61२ योन 'दोष्णिय एगसत्तरे जोयणसए' मेडलर मेसो ते२ योन 'एक्कं च' मे४ योजना 'एगूणवीसइभागं' मोगशीसम मा 'जोयणस्स' योगनना 'आयामेणं' माथी 'दो जोयणसहस्साई' में पर योरन दोणिय' से 'तेरसुत्तरे' ते२ 'जोयणसए' योnशत अर्थात से ते२ यौनया 'किचि विसेसृणे' ४४ ४म 'विक्खंभेणं' विस्तारथी छे. ॥शत मायाम विजयी - ४रीन तनु सस्थान मतावे छ.-'पलियंक संठाणसंठिए' ५५°४४॥२थी स्थित छे. वेतन मा२ मा प्रत्यवता२ प्रश्नोत्तर दा॥ ४३ छे. 'दाहिणद्धकच्छस्स . दक्षिा ४२छन। 'विजयस्स' वियनु 'केरिसए' या प्रश्न 'आयारभावपडोयारे' આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર આકાર એટલે સ્વરૂપ ભાવ એટલે પૃથિવી વક્ષસ્કારાદિ તેના અંતगत पहाथी, प्रत्यवतार मेटले प्रटी मा 'पण्णत्ते' ४ छ ? ॥ प्रश्न उत्तरमा श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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