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________________ ३१४ जम्बूद्वीपप्रति टीका- 'कहि णं भंते ।' इत्यादि - 'कहि णं भंते !" क्व खलु भदन्त ! 'जंबुद्दी वे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे' कच्छ ः 'णार्म' नाम 'विजए' विजय: - चक्रवर्ति विजेतव्य - भूविभागरूपः 'पण्णत्ते' प्रज्ञप्तः ?, इति प्रश्ने भगवानाह - 'गोयमा !" गौतम ! 'सीयाए महाईए' सीताया महानद्याः 'उत्तरेणं' उत्तरेण - उत्तरदिशि, अत्र सप्तम्यन्तादेन पूप्रत्ययः, एवमग्रेऽपि, तथा 'णीलवंतस्स' नीलवत: 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधरपर्वतस्य 'दक्खिणं' दक्षिणेन - दक्षिणदिशि तथा 'चित्त कूडस्य' चित्रकूटस्य - एतन्नामकस्य 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कारपर्वतस्य 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिमेन - पश्चिमदिशि 'मालवंतस्स' माल्यवतःगजदन्ताकारस्य 'वक्खारपव्ययस्स' वक्षस्कार पर्वतस्य 'पुरत्थिमेणं' पौरस्त्येन - पूर्वदिशि - 'एत्थ ' अत्र - अत्रान्तरे 'णं' खलु 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'महाविदेहे वासे' महाविदेहे वर्षे 'कच्छे णामं विजए' कच्छो नाम विजयः 'पण्णत्ते' प्रज्ञतः, स च कीदृशः ? इत्यपेक्षायामाह - 'उत्तरदाहिणायए' उत्तर दक्षिणार्यतः- उत्तरदक्षिणयोर्दिशोरायतः - दीर्घः, तथा 'पाइणपडीणसूत्र कहते हैं - 'कहिणं भंते ! इत्यादि टीकार्थ- 'कहि ण भंते ! जंबूदीवे दीवे' हे भगवन जंबू द्वीप नाम के द्वीप में 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'कच्छे णामं' कच्छ नामका 'विजए' विजय चक्रवर्ति के द्वारा जितने योग्य भूमिभागरूप 'पण्णत्ते' कहा है ? इस प्रश्न के उत्तर मे प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! हे गौतम! 'सीयाए महाणईए' सीता महानदी के 'उत्तरेणं' उत्तर दिशा में तथा 'णीलवतस्स' नीलवान् 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधर पर्वत के 'दक्खिणेणं' दक्षिण दिशा में तथा 'चित्तकूडस्स' चित्रकूट नामका 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत की 'पच्चत्थिमेणं' पश्चिम दिशा में 'मालवंतस्स' गजदन्ताकार माल्यवान 'वक्खार पव्वयस्स' वक्षस्कार पर्वत के 'पुरत्थिमेणं' पूर्वदिशा में 'एत्थ णं' यहां पर निश्चय से 'जंबू दीवे दीवे' जंबू द्वीप नाम के द्वीप से 'महाविदेहे वासे' महाविदेह क्षेत्र में 'कच्छे णामं विजए' कच्छ नामका विजय 'पण्णत्ते' कहा है । वह विजय किस प्रकार का है ? इस अपेक्षा निवृत्ति के लिए कहते हैं- 'उत्तरदाहिणायए' वह भंते!' त्याहि अर्थ – 'कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे' हे भगवन् वृद्वीप नामना द्वीभां 'महाविदेहे वासे' भावित क्षेत्रमा 'कच्छे णाम' ४२४ नामनु 'विजय' विनय येडवति द्वारा तवाने योग्य भूभिलाग ३५ 'पण्णत्ते' 'डेस छे ? या प्रश्नना उत्तरां प्रभुश्री हे छे'गोयमा ! ' हे गौतम! 'सीयाए महाणईए' सीता भड्डा नहीनी 'उत्तरेणं' उत्तर दिशामां तथा 'णीलवंतस्स' नीतवान् 'वासहरपव्वयस्स' वर्षधर पर्वर्तनी 'दक्खिणेणं' दृक्षिशुद्दिशाभां तथा 'चित्तकूडस्स' चित्रछूट नामना 'वक्खारपव्वयस्स' वक्षस्५२ पर्वतनी 'पच्चत्थिमेणं' पूर्व द्विशाभां ‘एत्थणं' भडीयो निश्चय 'ज'बुद्दीवे दीवे' यूद्वीप नामना द्वीपना 'महाविदेहे वासे' महाविद्वेड क्षेत्रमां 'कच्छे णामं विजए' ४२७ नाभनु विनय 'पण्णत्ते' हे छे. ते विभय देवु छे? ते अपेक्षानी निवृत्ति भाटे उड़े हे- 'उत्तरदाहिणायए' ते उत्तर दक्षिण दिशामा सांभु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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