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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मदस्वरूपनिरूपणम् ११५ परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे' द्वात्रिशतं योजनानि आयामविष्कम्भेण, एकोत्तरं योजनशतं परिक्षेपेण, द्वौ क्रोशौ उच्छितो जलान्तात, सर्वरत्नमयोऽच्छः, 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते वण्णओ भाणियव्यो त्ति' स खलु एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन यावत् सम्परिक्षितः वर्णको भणितव्य इति, 'पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणिययो' प्रमाणश्च शयनीयश्च अर्थश्च भणितव्यः। 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुडस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा समाणी हरिवस्सं वासं एजमाणी २ वियडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहाविभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दलइत्ता पच्च आयामविक्खंभेणं एगुत्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं दो कोसे ऊसिये जलंताओ सवरयणामए, अच्छे) यह द्वीप आयाम और विष्कम्भ की अपेक्षा ३२ योजन का है १०१ योजन का इसका परिक्षेप है तथा यह जल के ऊपर से दो कोशतक ऊंचा उठा है सर्वात्मना यह रत्नमय है और आकाश एवं स्फटिक के जैसा निर्मल है (सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खित्ते) यह एक पद्मवर वेदिकासे और एक वनषण्डसे चारों ओर से घिरा हुआ है (वण्णओ भाणिअव्वोत्ति) यहां पर पदमवर वेदिका और वनषण्डका वर्णन करलेना चाहिये (पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठोय भाणियव्वो) तथा हरिकान्त द्वीपका प्रमाण, शयनीय एवं इस प्रकार के इसके नाम होने के कारण रूप अर्थ का भी वर्णन करलेना चाहिये (तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पबूढा समाणो हरिवस्सं वासं एज्जमाणी २ विअडावई वटवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चस्थाभिमुही आवत्तासमाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी २ छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दलइता पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेई) उस हरिकान्त प्रपातकुण्ड के उत्तरदिग्वर्तीतोरण द्वार से यावत् परिक्खेवेणं दो कोसे उसिए जलंताओ सव्वरयणामए अच्छे' दी५ मायाम मन Av४. ભની અપેક્ષાએ ૩૨ જન જેટલું છે. ૧૦૧ જન જેટલે આને પરિક્ષેપ છે તેમજ એ પાણીની ઉપરથી બસે ગાઉ ઊંચે છે. એ સર્વાત્મના રત્નમય છે અને આકાશ તેમજ २२४ २वी सनी निम न्ति छ. 'से गं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं जाव संपरिक्खिते' से ५१२ हाथी मन से वनथी योभे२ माटत छ. 'वण्णओ भाणिअव्वोत्ति' मा ५१२ ३६ सने ननु वन सम से नये. 'पमाणं च सयणिज्ज च अट्ठोय भाणियव्यो' तेम०४ ७२४न्त दीपनु प्रभ शयनीय तभनय मा प्रमाणे । मेनु नाम ४२९१ विषे ५ मडी २५ष्टता ४N सेवी ध्ये. 'तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं जाव पवूढा सप्राणी हरिवस्सं वास एज्जमाणी २ विअडावई वट्टवेयद्धं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्थाभिमही आवत्ता समाणी हरिवासं दुहा विभय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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