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________________ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्रे वुच्चइ गंधमायणे वक्खारपब्बएर' स एतेन अनन्तरोक्तेन अर्थेन कारणेन गौतम ! एवम् इत्थम् उच्यते-गन्धमादनो वक्षस्कारपर्वतः २ गन्धेन स्वयं माधतीव मदयति वा तदधिष्ठातदेवदेवीनां मनांसीति गन्धमादनः अत्र बहुलकाद्दीधः स वक्षस्कारश्चासौ पर्वतश्चेति वक्षस्कारपर्वतः २ गन्धमादनेत्यन्वर्थनामसद्भावे हेत्वन्तरमपि न्यस्यति 'गंधमायणे य इत्थ देवे महिडीए परिवसइ' 'गन्धमादनश्चात्र देव' इत्यादि-गन्धमादनः तन्नामा देवः - तदशिष्टातासुरः परिवसति स च कीदृशः ? इत्याह-महर्दिकः-महती विपुला ऋद्धिः भवनपरिवारादि लक्षणा यस्य स तथा, अस्योपलक्षणतया 'महाधुतिः, महाबलः, महायशाः, महासौख्यः, महानुभावः, पल्योपमस्थितिकः' इत्येषां संग्राहकता बोध्या, महर्द्धिकादि पल्योपमस्थितिकान्तपदानां व्याख्याऽष्टमसूत्राद् बोध्याः, 'अदुत्तरं च णं सासए णामधिज्जे' इति, अदुत्तः हुआ है । इन गन्ध के विशेषण भूत पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्र के १९ वें सूत्र की व्याख्या से जानलेनी चाहिये (से एएणडेणं गोयमा ! एवं वुच्चद गंधमायणे वक्वारपव्वए २) इस कारण हे गौतम ! मैने इस पर्वत का नाम गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत ऐसा कहा है दूसरी बात इस पर्वत के इस प्रकार के नाम होने में ऐसी है (गंधमायणे अ इत्थ देवे महिद्धिए परिवसई) यहां पर विपुलभवन परिवार आदिरूप ऋद्धि से युक्त होने के कारण महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला गन्धमादन नामका एक व्यन्तर देव रहता है अतः उसके सम्ब. न्ध से इसका नाम 'गन्धमादन' ऐसा हो गया है । यहां यावत्पद से 'महाद्युतिः, महाबलः, महायशा, महासौख्यः, महानुभावः पत्योपमस्थितिकः' इन विशेषणभूत पदों का संग्रह हुआ है । इनकी व्याख्या आठवें सूत्र से ज्ञातव्य है । (अदु. '२४प्रश्नीय सूत्रना' न! १५ मा सूत्रनी व्यायामाथी ane सेवा मेय. 'से एएणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ गंधमायणे वक्खारपव्वए २' मेथी गोतम ! में 20 तनु नाम अन्धमान पक्ष२४२ ५ सयु ४थु छ 'गन्धेन स्वयं माद्यति मादयति। तदधिष्ठातृदेव देवीनां मनांसि इति गन्धमादनः' २॥ तनी व्युत्पत्तिशी से नाम गुण नियन्न नाम छ. 'बाहुलकात्' सूत्री 'मादन' मा प्रभार ही न 'गन्धमादन' मेव। श६ अन्य। छे. मा पतना नाम विशे मील मे पात सेवी छ । 'गंधमायणे अ इत्थ देबे महिद्धिए परिवसई' 48 qya भवन परिवार माहि ३५ द्धिथी युटत डोवा महस મહદ્ધિક વગેરે વિશેષવાળે ગંધમાદન નામક એક વ્યંતર દેવ રહે છે. એથી એના સંબંધથી એનું નામ “ગન્ધમાદન” એવું પ્રસિંદ્ધ થઈ ગયું છે. અહીં યાવત્ પદથી 'महाद्युतिः, महाबलः, महायशा, महासौख्यः महानुभावः पल्योपमस्थितिकः' से विशेष ભૂત પદને સંગ્રહ થયો છે. એ પદેની વ્યાખ્યા આઠમા સૂત્રમાંથી જાણી શકાય તેમ (१) गन्धेन स्वयं माद्यति मादयतिवा तदधिष्ठातृदेव देवीनों मनांसि इति गन्धमादन:' इस प्रकार की व्युत्पत्ति से यह नाम गुणनिष्पन्न है 'बाहुलकात्' सूत्र से मादन' ऐसा दीर्घ होकर गन्धमादन शब्द बना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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