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________________ प्रकाशिका टीका- चतुर्थवक्षस्कारः सू. २६ विभागमुखेन कच्छविजयनिरूपणम् ३३९ परेणान्वयः स च कीदृश: ? इत्यपेक्षायामाह - 'महद्धीए जाव पलिओवमट्ठिईए परिवसई' महर्द्धिको यावत् पल्योपमस्थितिकः परिवसति - 'महर्द्धिक' इत्यारभ्य ' पल्योपमस्थितिक' इति पर्यन्तानां तद्विशेषणवाचकपदानां सङ्ग्रहो अत्र वोध्यः सचाष्टमत्रात् कार्यः, तदर्थश्व तत्रैव कृतो ग्राह्यः 'से' सः - कच्छ विजयः 'एएणडेणं' एतेनार्थेन अमुना हेतुना 'गोयमा !" गौतम ! ' एवं बुच्चइ' एवम् इत्थम् उच्यते कथ्यते 'कच्छे विजए कच्छे विजए' कच्छो विजयः कच्छो विजयः कच्छराजाधिष्ठितत्वाच्च कच्छविजयः कच्छविजय इत्युच्यत इति 'जाव णिच्चे' यावन्नित्यः नित्यः इति पदपर्यन्तं सूत्रमत्र बोध्यम् तथाहि - कच्छो विजयः खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति १, गौतम ! न कदाचिन्नाssसीत् न कदाचिन्न भवति न कदाचिन्न भविष्यति, अभ्रूच्च भवति च भविष्यति च ध्रुवो नियतः शाश्वतोऽक्षयोऽव्य अब दूसरा कारण कहते हैं- 'कच्छणामधेज्जेय' कच्छ नामका 'कच्छे इत्थ' कच्छ यहां पर विजय में 'देवे' देव राजा रहता हैं-वह राजा कैसा हैं- 'मइदीए जाव पलिओवमट्ठिए परिवसई' महद्धिक यावत् एक पल्योपम की स्थिति वाला निवास करता है । महर्द्धिक इस पद से आरंभ कर के पल्योपमस्थिति पर्यन्त के तद्विषेषण वाचक पद का संग्रह यहां पर समझलेवें । वह आठवें सूत्र से समझलेवें । उसका अर्थ भी वहां पर लिखा हैं वहां से समझ'लेवें । 'से' वह कच्छविजय को 'एएट्ठेणं' इस कारण से 'गोयमा !' हे गौतम ! 'एवं बुच्चर' ऐसा कहा जाता है 'कच्छे विजए कच्छेविजए' यह कच्छविजय है यह कच्छविजय है 'जाव णिच्चे' यावत् वह नित्य है 'नित्य' पद पर्यन्त का सूत्र यहां पर कहलेवें वह इस प्रकार है-हे भगवन् कच्छविजय काल से कितना होता है ? हे गौतम ! वह कदापि नहीं था वैसा नहीं हैं अर्थात् भूतकाल में वह था, वर्तमान में नहीं है वैसाभी नही है वर्तमान में विद्यमान है । एवं भविष्य में नहीं होगा वैसा नहीं है । भूतकाल में था, वर्तमान में है एवं भविष्य भर अतावे छे.- 'कच्छणामघेज्जेय' १२४ नामना 'कच्छे इत्थ' मडीयां छवियां 'देवे' देव राल रहे छे. ते शन्न है! छे ? ते तावे छे. 'महद्धीए जाव पलिओ मट्ठिईए परिवसइ' भहुर्द्धि यावत् मे पढ्योपभनी स्थितिवाणी निवास रे છે. મહદ્ધિક એ પદથી આરંભ કરીને પલ્સેાપમની સ્થિતિ સુધીના તેના વિશેષણેા ખતાવનારા પદ્મના સગ્રહ અહીંયાં સમજી લેવા. તે સંગ્રહ આઠમા સૂત્રમાંથી સમજી લેવે. तेना अर्थ पशु त्यां मतावेस छे, 'से' मे १२छ विनयने 'एएट्टेणं' से ४।२णुथी ‘गोयमा !’ ड्डे गौतम! 'एवं वुच्चइ' सेभ हेवामां आवे छे. 'कच्छे विजए कच्छे विजए' २४२७ विभ्य है, मा ४२छ विनय छे. 'जाव णिच्चे' यावत् ते नित्य छे. नित्य यह सुधीना सूत्रपाठ અહીંયાં કહી લેવા. તે આ પ્રમાણે છે. હે ભગવન્ ચ્છ વિજય કાળથી કેટલા કહેવાય છે ? હે ગૌતમ ! તે કોઈ કાળે ન હતા તેમ નથી. અર્થાત્ ભૂતકાળમાં તે હતા, વમાનમાં वे जी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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