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________________ प्रकाशिका टीका-पञ्चमवक्षाकरः सू. १० अच्युतेन्द्रकृततीर्थकराभिषेकादिनिरूपणम् ७१७ ताण्डवं नाम नाटकं कुर्वन्ति तच्चोद्धतः करणैरङ्गहारैरभिनयैश्च निर्वय॑म् अतएव आरभटी. प्रधाननाटकम् अप्येककाः लासयन्ति रासलीलां कुर्वन्तीत्यर्थः अथ यथा देवाः कुतूहलमुप. दर्शयन्ति तथाऽह- 'अप्पेगइया पीणेति' अप्येककाः देवा पीनयन्ति स्वं स्थूली कुर्वन्ति 'अप्फोडेंति' आस्फोटयन्ति उपविशन्तः पुताभ्यां भूम्यादिकमानंति 'वग्गंति' अप्येककाः वल्गन्ति मल्लवत् बाहुभ्यां परस्परं संप्रलगन्ति 'सीहणायं णदंति' सिंहनादं नदन्ति कुर्वन्ति 'अप्पेपइया सनाई करेंति' अप्येककाः देवाः सर्वाणि पीनवादीनि क्रमेण कुर्वन्ति अप्पेगइया हयहेसियं' अप्येककाः देवाः हयहेषितम् अथ हेपारवं कुर्वन्ति ‘एवं हत्यिमुलालाइयं' एव मित्येकका देवा हस्तिगुलुगुलायितम् गजबत् गजनं कुर्वन्ति रहघणघणाइयं रथघनघनायितम् केचित् अप्पेककाः देवाः रथवत् घनघनेतिशब्दं कुर्वन्ति-गुल मुल घन घन-इत्यनुकरणशब्दौ 'अप्पेगइया तिण्णिवि' अप्येककाः देवाः, त्रीण्यपि-हयहेषितहस्तिगुलगुलायित रथदेवों ने वहां पर ताण्डव नामका नाटक किया कितनेक देवों ने वहां पर रासलीला की 'अप्पेगइआ पोणेति, एवं वुक्कारेंति, अप्फोडेंति, वग्गंति, सीहणायं ण. दंति' कितनेक देवों ने अपने आपको बहुत स्थूल रूप में प्रदर्शित किया, कितनेक देवों ने अपने अपने मुंह से फूत्कार करना प्रारम्भ किया स्तिनेक देवो ने जमीन पर हाथों को पटक पटक कर उसे फोडने की आवाज को कितनेक देवों ने इंधर से उधर दौड लगानी शुरू की अथवा मल्लों के जैसे वे आपस में बाहुओं द्वारा एक दूसरे के साथ जूझने लगे कितनेक देवों ने सिंह के जैसी गर्जना की 'अप्पेगइया सम्वाई करेंति' कितनेक देवों ने क्रमशः पीनत्वादि सब कार्य किये 'अप्पेगइया हय हेसिअं' कितनेक देवो ने घोडों की तरह हिनहिनाना शुरु किया 'एवं हथिगुलगुलाइयं इसी तरह कितनेक देवों ने हाथी के जैसा चिंघा. डना प्रारम्भ किया 'रहघणघणाइयं कितनेक देवों ने रथों के जैसा परस्पर में 'अप्पेगइआ तंडवे ति, अप्पेगइआ लासे नि' 21 हेवाने त्या तsa नाम नाट ज्यु. ४८१४ ॥ये रास दीसा श. 'अप्पेगइआ पीणेति एवं बुक्कारे ति अफोडेंति वगति, सीहणायं गति' मा वाथे पोतानी 11२ मती स्थूण ३५मां महशित કરવા રૂપ અભિનય કર્યો, કેટલાક દેએ પિત–પિતાના મુખમાંથી ફૂકાર કરવાની શરઆત કરી. કેટલાક દેએ જમીન ઉપર હાથોને પછાડી-પછાડીને તેનાથી ફેડવાનો અવાજ કર્યા. કેટલાક દેએ આમ-તેમ દેડવાની શરુઆત કરી અથવા મલેની જેમ તેઓ પરસ્પરમાં બાહુઓ વડે એક-બીજાની સાથે ઝૂઝવા લાગ્યા. કેટલાક દેએ સિંહના જેવી न ४२. 'अप्पेगइया सव्वाइं करेंति' या वाये ४११: पानवाहि मचा यो - 'अप्पेगइया हयहेसिटमा वामे घायानी म ७ वान। सवा ४ी. 'एवं हत्थिगुलगुलाइयं' २प्रमाणे खा वास थीनी म विचार पानी-यी ५७वानी शरुमाती . 'रहघणघणाइयं' ३८ हेवाये २यानी भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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