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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १३ हैमवत्वर्षधरपर्वतवतिफूटनिकरणम् ११९ सा चेव णेयव्या' एवं प्रदर्शितरीत्या क्षुद्राहिमवत्कूटानां यैव वक्तव्यता तदधिकारेऽस्ति सैव वक्तव्यता एपामपि महाहिमवत्कूटानां नेतन्या-वक्तव्या जेयेत्यर्थः, तथाहि कटानामुच्चत्वादि सिद्धायतनप्रासादानां मानादि तदधिष्ठातृदेवानां च महद्धिकत्वादि यत्र राजधान्यो येन रूपेगैतत्सर्वमुपवणितं तत्सर्वमत्रापि वर्णनीयं पर्यवसितम् केरलं नामभेदस्तद्देवानां तद्राजधानीनां चात्र बोध्यः। अधुना महाहिमवतो नामार्थ प्रदर्शयितुमाह- ‘से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ महाहिमवंते वासहरपबए ?' अथ केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यतेमहाहिमवान् वर्षधरपर्वतः २?, 'गोयमा ! महाहिमवंते णं वासहरपाए चुल्लहिमवंतं वासहरपन्धयं पणिहाय आयामुच्चत्तु वेहविक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव' नवरम्-हे गौतम ! महाहिमवान् खलु वर्षधरपर्वतः क्षुद्रहिमवन्तं वर्षधर इस क्षद्राहिमवत् पर्वत संबंधी कूटों के विषय में जो वक्तव्यता पीछे कही जा चुकी है वही वक्तव्यता इन कूटों के भी संबंध में समझनी चाहिए यही बात (एवं क्षुल्लहिमवंतकूडाणं जा चेव वत्तव्वया सच्चेव णेयव्वा) इस सूत्रपाठ द्वारा सूत्रकार ने कही है । इस तरह के कथन से कूटों की उच्चता आदि का सिद्धायतन प्रासादों के प्रमाण आदिका देवों में महर्दिकत्व आदिका तथा जहां पर जिन देवों की राजधानियाँ जिस रूप से कहो गइ है वह सब कथन यहां पर भी कर लेना चाहिए केवल देवों के नामों में और उनकी राजधानियों के नामों में भेद है ( से केणटेणं भंते ! एवं वुच्च: महाहिमवंते वालहरपव्वए २९) हे भदन्त ! आपने इस वर्षघर पर्वत का नाम " महाहिमवान् ऐसा किस कारण से कहा है । इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है (गोयमा ! महाहिमवंते णं वासहरपव्वए चुल्लहिमवंतं वासहरपव्ययं पणिहाय आयामुच्चत्व विक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेव, महाहिमवंते य इत्थदेवे महिद्धिएजाव पलिओचमट्टिइए परिवसइ) हे गौतम ! इस वर्षधर पर्वत का जो महाहि - એ શુદ્ર હિમવત્ પર્વત સંબંધી કૂટોના વિષે જે વક્તવ્યતા પહેલા સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલી છે, તેજ વક્તવ્યતા એ કોના સંબંધમાં પણ જાણી લેવી જોઈએ. એજ વાત “ga चुल्लहिमवंतकूडाणं जा चेव वत्तव्यया सच्चेव णेयव्वा' से सूत्रा 43 सूत्र॥२ ४४ी છે. આ પ્રકારના કથનથી કૂટની ઉચ્ચતા વગેરે સંબંધી, સિદ્ધાયતન પ્રાસાદના પ્રમાણ વગેરે વિષે, દેવોમાં મહદ્ધિકત્વ વગેરેના સંબંધમાં તેમજ જ્યાં જે દેવેની રાજધાનીઓ જે રૂપમાં કહેવામાં આવેલ છે તે સંબંધમાં બધું કથન અહીં પણ જાણી લેવું જોઈએ. ફકત देवाना नाममा मन तमनी २४धानीनानाभाभी तसवत छे. 'से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ महाहिमवते वासहरपव्वए २१ 3 महन्त ! मा५ श्री से ये वधर यवतनु नाम 'महाहिमवान्' से श॥ ४॥२९शी छ ? सेना नाममा प्रभु ४ छ-'गोयमा ! महाहिमव तेणं वासहरपत्रए चुल्लहिमवते वासहरपव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्त विक्खंभपरिक्खेवेणं महंततराए चेव दीहतराए चेय, महााहमवते य इत्थ देवे महिद्धिए जाव पलिओवमदिइए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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