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________________ प्रकाशिका टीका-चतुर्थवक्षस्कारः सू० १२ महापद्मादस्वरूपनिरूपणम् सोलस पंचुत्तरे जोयणसए पंच य एगुणवीस इभाए जोयणस्स उत्तराभिमुही पधएणं गंता महया घडमुह पव्वत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दुजोयणसइएणं पवारणं पवडई' हरिकान्ता महानदी प्रव्यूढा सती पोडशपश्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्च च एकोनविंशतिभागान् योजनस्य उत्तराभिमुखीपर्वतेन गत्वा महाघटमुखप्रवृत्तकेन मुक्तावलिहारसंस्थितेन सातिरेक द्वि योजनशटिकेन प्रपातेन-प्रवाहेण प्रपतति, 'हरिकंता महाणई-जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्भिया पन्नता, दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुडविउट्ठसठाणसंठिया सव्वरयणामई अच्छा हरिकान्ता महानदी यतः प्रपतति, अन खलु महती एका जिद्विका-तदाकार वस्तुविशेपः प्रज्ञप्ता, द्वे योजने आपामेन पचविंशति योजनानि विष्कम्भेण, अर्द्ध योजनं बाहल्येन, मकरमुखविवृतसंस्थानसंस्थिता सर्वरत्नमयी मुही पव्वएणं गंता महया घटमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दु जोयणसइएणं पवाएण पवडइ) उस महापद्भद्रह के उत्तरदिरवर्ती तोरण द्वारसे हरिकान्ता नामकी महानदी निकली है यह नदी १६०५५ योजन पर्वत के ऊपर से उत्तर की ओर जाकर बडे जोर शोर के साथ अपने घट के मुख से विनिर्गत जल प्रवाह के तुल्य प्रवाह से कि जिसका आकार मुक्तावलि के हारके जैसा है और जो कुछ अधिक दो सौ योजन प्रमाणपरिमित है हरिकान्तप्रपातकुण्ड में गिरती हैं (हरिकता महाणई जओ पवडइ-एत्थ णं एगा महं जिभिआ पणत्ता) यह हरिकान्ता महानदी जहां से हरिकान्तप्रपातकुण्डमें गिरती है वहां एक बहुत बडी जिबिका-नाली है-(दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाइं विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहवि उट्ठसंठाणसंठिया, सम्वरयणामई अच्छा) यह जिहिका आयामकी अपेक्षा दो योजन की है और विष्कम्भ की अपेक्षा २५ योजन की है इसका बाहल्य २ कोशका है। खुले हुए मगर मुखका पंचुत्तरे जोयणसए पंचय एगुणवोस इभाए जोयणस्स उत्तराभिमुही पब्बएणं गंता महया घट मुह पवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग दु जोअणसइएण पवारण पवडइ' ते महा પદ્મદ્રહ ઉત્તરદિશ્વર્તી તોરણ ૮ થી હરિકાન્ત નામક મહાનદી નીકળે છે. આ નદી ૧૯૦૫ જન પર્વત ઉપરથી ઉત્તરની તરફ જઈને ખૂબ જ વેગ સાથે પિતાના ઘટમુખથી વિનિત જલ પ્રવાહ તુલ્ય જ પ્રવાહથી-કે જેને આકાર મુક્તાવલિના હાર જેવો હોય છે અને જે કંઈક અધિક બસે જન પ્રમાણુ પરિમિત છે.-હરિકાન્ત પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. 'हरिकंता महाणई जओ पवडइ एत्थण एगा महं जिभिआ पण्णत्ता' मा हुन्ति महा નદી જ્યાંથી હરિકાન્તા પ્રપાત કુંડમાં પડે છે. ત્યાંથી એક વિશાળ જિહિકા-નાલિકા છે. 'दो जोयणाई आयामेणं पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अद्धं जोयणं बाहल्लेणं मगरमुहवि. उसंताणसंठिया, सवरयणामई अच्छा' से rlt आयामनी अपेक्षामे मे योन જેટલી છે અને વિધ્વંભની અપેક્ષાએ ૨૫ પેજન જેટલી છે, એને બાહુલ્ય બે ગાઉ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003155
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages798
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size24 MB
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